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________________ मेरु मंदर पुराण [ २३ कन्यायें इस प्रकार सुशोभित हो रही थीं कि मानों वीणा वादन व नृत्यकला आदि का शिक्षण केन्द्र ही इस सरोवर में स्थापित किया गया हो ।।१४।। सालिगळ करु बिर् सेट्रि शाक्तवु मुयर्दु तम्मिन् । मेलळ वोत्त शंबोन विरिदुड नींड्र, मेलोर् ॥ कालुर बनेगु वारिर कमलत्ति निरैजिकायत्त । नीलनर पवळ मुत्तिन कळत्त वाय निरँद पूगम् ॥१५॥ अर्थ-तालाब व सरोवर में रहने वाले सभी पक्षी अपने २ बाल बच्चों के साथ बड़े हर्ष पूर्वक जल क्रीड़ा करते हुये प्रानन्दपूर्वक अपने समय को व्यतीत कर रहे थे। वहां पर उत्तमोत्तम नथा सुगन्धित धान, चावल, गेहू गन्ना आदि की फसलें परस्पर में मिलकर एक साथ अधिक से अधिक वृद्धि को प्राप्त करने नीचे झुक जाती हैं। इनकी बालियां एक समान होती हैं और दर्शकों को देखने से ऐसी प्रतीत होती हैं कि मानों वे सभी स्वर्ण की बनी हुई हों, कुशल शिल्पियों द्वारा हाथों से तैयार की गई हों। भव्य जीव जिस प्रकार पूज्य पूरुषों के चरणों में विनीत भाव से नत मस्तक होकर प्रणाम करते हैं उसी प्रकार कम पुष्पों को नमस्कार करते थे और उस समय ऐसा प्रतीत होता था मानो सुपारी के वृक्षों में इन्द्र नील मरिण या पन्ना की मरिण ही लगकर फल रूप में परिपक्व हो गई हों। उसकी शोभा दर्शकों को इस प्रकार प्रतीत हो रही थी कि मानों परम सुन्दर स्त्रियां नीलमणि व मोती मरिण के हार को पहिन कर आई हों। भावार्थ-सुन्दर धान, चावल तथा गन्ने की फसलें अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होकर उसकी बालियां एक समान झुकी हुई थी और वह देखने में इस प्रकार प्रतीत होती थीं कि मानों पीत वर्ण के सोने के तार बढ़कर नीचे को झुक गये हों। जिस प्रकार सत्पुरुषों के चरणों में भव्य जीव भक्ति भाव पूर्वक नमस्कार करते हैं उसी प्रकार कमल तथा सुपारी के सुन्दर पुष्प झुककर सुशोभित हो रहे थे। जिस प्रकार स्त्रियां अपने कंठ में पुखराज, मोती माणक आदि के सुन्दर हार को धारण किए रहती हैं उसी प्रकार वहां की सुन्दर सुगंधित हरे रंग की सुपारी झुकी हुई सुशोभित हो रही थी ॥१५॥ सूर्पळि इलाम यानुतूय नल्लोळ विक नानु । मिपिरप्पोंब लानु मेल्लर् पाडिन्मयानु। नद्रवर गीत लानु नादन शीरोदलांनु। कर्प. कामर वल्लियागळे पोलु मूर्गळ ॥१६॥ गंधमालिनी देश तथा तत्सम्बन्धी नगर में जितने भी प्राणी रहते हैं उनके मुह से कभी कटु वचन नहीं निकलते। वे अत्यन्त परिशुद्धभाव वाले, श्रेष्ठ चारित्र को धारण करनेवाले, संसार के समस्त प्राणियों पर करुणाभाव रखने वाले. महातपस्वी मनि आहारदान देनेवाले, सदैव जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति व गुणगान करने वाले, पतिव्रता स्त्रियों से युक्त पुष्पलता के समान अत्यन्त सुन्दर शरीर से सुशोभित स्त्रियों से युक्त उस नगर में उत्तम धावक धर्म में रत रहा करते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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