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मेरु मंदर पुराण अरियवा युलगलां विलइला वरु कलत् । तिरेय मेय्यनिदवर् शैगें सोन् मनंगळायिन् ।। मरियमा शिन केडुक्कु मद्दिवार मागिय । पेरिय यर् मनकोळ पेरुतंवं पोरुदिनान् ।।४२६॥
अर्थ-सिंहचन्द्र मुनि गर्मी के दिनों में पर्वत की चोटी पर, वर्षा काल में वन में वृक्ष के नीचे, सर्दी में नदी के किनारे पर बैठकर तपस्या करते थे। इस प्रकार प्रागम के अनुसार वह तप करते थे। अलम्य तप, रत्नत्रय साधन करने वाले ऐसे वे सिंहचन्द्र मुनि अपने शरीर से सम्पूर्ण मोह त्याग कर अनादि काल से कर्मरूपी शत्रु के दल का नाश करने के लिये मन, वचन, काय से वे कठिन तपश्चरण करते हुए बाह्य और अभ्यंतर तपों में सदा सर्वथा लीन रहते थे ॥४२८।।४२६।।
पेरर् करिय काक्षि मैयुनचि नल्लोळुक्किनमें । लिरप्पंदाय मैमोळि मनत्तळं तिरंजुदल् ॥ शिरप्पुड यरत्तवर् केदिरेळुच्चि यादित्। तिरत्त नाल विनयंमु शिरंदु मादवम् शेदान् ॥४३०॥
अर्थ-सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सहित तपस्या करने वाले वे सिंहचन्द्र मुनि दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय इस प्रकार पांच प्रकार के विनय से युक्त तपस्या करते थे। सम्यकदर्शन में शंकादि प्रतीचार रहित परिणाम करना दर्शन विनय है। ज्ञान में संशयादि रहित परिणाम करना तथा अष्टांगरूप अभ्यास करना ज्ञान विनय हैं। हिंसादि परिणाम रहित निरतिचार चारित्र पालने रूप परि. णाम करना चारित्र विनय है। तप के भेदों को निर्दोष पालन रूप परिणाम करना तप विनय है । रत्नत्रय के धारक मुनियों के अनुकूल तथा तीर्थादिक का वंदन रूप परिणाम करना उपचार विनय है ।।४३०।।
पेरुत्त नोंबु वन पिनिणळ पी. भूविभोग माम । तिरुत्तयेवि नगिळ् ध्यान नखद तोंडुडिनार् ॥ विरुत्तर् वालर् मेल्लिया ररत्तै मेविनिडवर् । वरुत्त नीकि योंबु वय्या वच्चमु मरुविनान् ॥४३१॥
अर्थ-सिंहचन्द्र मुनि बाल, वृद्ध, तथा रोग से पीडित मुनियों की मनः पूर्वक वैयाबत्य करने में परिपक्व थे । इस प्रकार वैयावृत्य के साथ २ दुर्द्धर कायोत्सर्ग तप भी करते थे। उस तपस्या के समय पाने वाले बाईस प्रकार के परिषह सहन करते हुए कर्म रूपी शत्रु का सामना कर आत्मानुभव का स्वाद लेते थे। वे २२ परिषह इस प्रकार हैं:-क्षुधा. तुषा. उष्ण, दंशमशक, शीत,नग्नत्व,अरति, स्त्री परीषह-परिषह,चर्या निषद्या, शयन, भाक्रोश. बंध
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