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________________ मेह मंदर पुराण [ २०३ तर दोनों प्रकार के तपों को पालते थे। अनशन अवमोदर्य, व्रत परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन और काय क्लेश इस प्रकार छह बाह्य तप और प्रायश्चित्त,विनय, यावत्य स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान यह छह अभ्यंतर तप, इस प्रकार बारह तपों को परिपूर्ण पालन करते हुए प्रात्म-साधना में लीन रहते थे। बाह्म और मध्यंतर ये तप दो प्रकार के हैं। दोनों ही तप चरित्र में अन्तर्भूत हो जाते हैं । अनशनादि बाह्म तप का संबंध भोजन प्रभृति बहिर्भूत पदाथों के त्याग से है । इसी प्रकार अंतरंग तप भी चारित्र में अन्तर्भूत है। प्रायश्चित्तादिक अंतरंग तप के द्वारा संवर पौर निर्जरा दोनों हो कार्य होते हैं ॥४२॥ नवक्केला मिडमिदेड, नावदन पुलत्तिनिर । सुवै कनमेबल विट्टर तुरंदु निड़ बद्रिनुं ॥ दुखत्तल कायद लिडि योत्त निड़ सित्त मैत्तवन् । सुवं परित्याग मागु मादव तोडुद्रि नान ॥४२६॥ अर्थ-सभी पंचेन्द्रिय विषयों में रागद्वेष रहित होकर समता भाव से युक्त वे सिंहचन्द्र मुनि दुख को उत्पन्न करने वाले, रसनाइन्द्रिय को सुख पहुँचाने वाले रसों का त्याग करके रस परित्याग तप को तपते थे। भावार्थ-इस प्रकार के मुनिराज इन्द्रियों के दमन दर्प की हानि, संयम के उपरोध निमित्त घृत तैलादि छह रस अथवा खारा, मीठा, कडुग्रा, तीखा, कषायला इन छहों रसों का कम से त्याग करते हुए रस परित्याग तप का पालन करने लगे ।।४२६॥ कवंद मोरि कूग पेइ निवंद काडु पाळग। मुवदि याने वारि युळुवै निड़ ळन् वनं ।। कुविदरवु वेबुलि कुमिरुमाल वरमुळे । युवंदि राज शोय मुंड पोलवे रुरंदनन् ॥४२७॥ अर्थ-भूत प्रेतों के रहने के स्थान, प्राणियों की पीडा रहित स्थान, शून्यागार, गिरिगुफा आदि स्थानों में तथा सिंह, व्याघ्र ऐसे क्रूर हिंसक प्राणियों के रहने के स्थानों में, पर्वत की चोटी पर ऐसे स्थानों में रहकर वे मुनि तपस्या व ध्यान करते थे। इस तप को विविक्तशय्यासन नाम का दुर्धर तप कहते हैं ।।४२७।। वेनल वेबु कान् मलं वेयिन् निलइन् मेवियुम् । वान मारि सोरु नान् मरं मुवमं मरुवियुं। ऊनरक्कुं वन परिण कडर् पुरत्त वेळ्ळिडै । काने याने पोल मूंड. काल योगु तागिनान् ॥४२८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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