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मेरु मंदर पुराण शिरिदरै योडु शेंड्र, गुरण वदि पादं सेरंदु ।
वरिसैर् ट रंदु मंजे मयिरु गुत्तिरंद वत्तार् ॥६१८।। अर्थ-उम आर्यावर्त राजा ने जिनदीक्षा लेने के पश्चात् रति तिलोत्तमा के समान रूप को धारण करने वाली वह यशोधरा व उसकी माता श्रीधरा इन दोनों ने भी वैगग्य भावना को भाते हुए जिनमति नाम की प्रायिका के पास जाकर आर्यिका दीक्षा धारण कर ली।६१८।
अंग पूवादि नूलु लच्चियर् कुरिय प्रोदि । वेंगडु काननन मेवल वेरु पटुरैदल विट्ट । शिंगनर पायचलादि नोन वोडु सेरिदु सेंबोन् । वंगमे यनय तोळ्गळ वदिमाशडेय नोट्रार ।।६१६॥ तवक्कोडि इरंडु पोल तांगरुं कोळ्गे तांगि । युवत्तल् काय विडि शित्तत्तोत्तु निड्रोळुगु नाळुळ ॥ नवैक्केला मिडमिब्पोग मेंड्र, नकिरण वेगन् ।
शिवत्तिरै युरइन शित्तायदन नकूडन् सेरं दान ॥६२०॥ अर्थ-तदनन्तर इन दोनों प्रायिकाओं ने घोर तपश्चरण करते हुए अंगांग, पूर्वाग आदि शास्त्रों का अध्ययन किया और त्रिकाय योग को धारण कर सिंह निष्कृत व्रत को धारण करके उपवास सहित घोर तपश्चरण करने लगी। तपश्चरण करके शरीर को कृश किया। और दोनों प्रायिकाए निर्दोष चरित्र को परिपालन करने लगी। इधर इस संसार को, इन्द्रिय भोगों को दुख का कारण समझ कर उस किरणवेग ने भली प्रकार से संसार भोगों के विषय को अच्छी तरह से जान लिया और विजयाद्ध पर्वत की दक्षिण दिशा में सिद्धायतन नाम के अकृत्रिम चैत्यालय में गया ॥६१६ ६२०॥
ऐय, कादमोंगि यागंड नीडडि ईनुच्चि । यै यैदिर पादि नीळ मगलमाम शिकरन् तन्न ।। पैयों म परवैयलगुर पट्टिगै सूटु पोल ।
मैयोंद्रि मलरं द कन्नार वनप्पिर काविरंडु सूळं द ॥६२१॥ अर्थ-वह विजयाद्ध पर्वत पच्चीस कोस ऊंचा व पच्चीस कोस ही चौडा था। उस के ऊपर शिखर था, उस शिखर की ऊचाई साढे बारह कोस थी। उस पर प्रकृत्रिम चैत्यालय था उस चैत्यालय के चारों ओर दो उपवन थे ।।६२१॥
वेदिगै तोरणंगळ वंदन कांतियारं द । सेदिय मरंगनान् नगु दिस दोरं सेरिदं का ।। ळादियोडंद मिल्लावरिन् कोईलदुम् । वोदिग डोरं नान्गु गोपुरं विळंगु निड्रे॥६२२॥
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