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मेरु मंदर पुराण अर्थ-तदनन्तर वायुकुमार देवों ने वहां को धूलि को साफ किया। वरुणकुमार देवों से सुगंधित पानी की वर्षा की ।।१०२८।।
इंदिरनु मेन्मै युल कांति यरु मिरवन् । वंदेळंद रुळं पोळु देंडे विर् वनंग ॥ इंदिरतं कोणु मेछंदा निरु निलत्तु ।
नंदरंग डोरं द वरिवर् कियल विदाने ॥१०२६।। पर्थ-उस समय सौधर्म इन्द्र तथा पाठ प्रकार के लोकांतिक देवों ने भगवान के सन्मुख पाकर नमस्कार किया। यह सभी ग्रहंत भगवान का अतिशय समझना चाहिये ।
॥१०२९॥ इडि मुरसन् तिमिले कंडे काळमेळिर शंकम् । तुडि मुळव मोंदै तुन वंदन्नु मै शेगंडे ॥ कडन मुगिलि नोलि करंदु दिशिगळ विम्म वोलित्त ।
तड मलरिन विश इरै वन दानोदुंगुम पोळ्दे ॥१०३०॥ प्रयं-वहां देवों द्वारा मेघ को गर्जना के समान अनेक प्रकार की जय, घंटा आदि दुभि होने लगी। अर्थात् भगवान महंत देव के विहार करते समय समुद्र में तूफान के समान ध्वनि होती है उसी प्रकार सभी तरह के वाद्य बजने लगे ॥१०३०।।
इन्नरंबिन याळ कुळलगळ वीरण मुदलेंदि । किन्नरियर् किळे नरबि नोदि नर्गळ् गोतं । पोनवरु मरिण यमिदं मींड, मलरेंदि ।
पन्नरिय वगई मिल मउंदै यदि पनिंदाळ् ।।१०३१॥ अर्थ-किन्नर देव आदि वीणावाद, तंतुवाद, बांसुरी आदि सहित संगीत के रूप में भगवान की स्तुति करके भक्ति पूर्वक उस भूमि को सुवर्ण और रत्नों से सुशोभित करते थे। इस प्रकार स्तुति करके सम्पूर्ण प्राणी का हित करने योग्य जल प्रादि तथा पुष्पों से वृष्टि करते थे . तथा भगवान के चरणों में नम्रीभूत होकर नमस्कार करते थे ।। १०३१॥
सुंदरियर् वंदरियर् तुरकत्तिळं पिडिय । रंदर इनंदरत्तिन वारिण नडं पायडार् ॥ मंदर नन्मलर मळेगळ् वंडिनंगळ शूळ ।
विदिर कोनेछंदरुळं वीदि वेंगुम पोळिदार् ॥१०३२॥ पर्थ-ज्योतिष तथा व्यंतर देवों की स्त्रियां, कल्प लोक में नृत्य करने वाली स्त्रियां भगवान के सामने के मंडप में पृथ्वी से अधर खडे होकर नृत्य करती थी। भगवान महंत देव
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