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________________ मेरु मंदर पुराण [ ३८७ सम्यक्चारित्र को प्राप्तकर अहंत भगवान द्वारा कहे हुए धर्म को मन में धार कर धर्मध्यान का स्मरण करते रहो। इस प्रकार करते जानोगे तो थोडे ही दिनों में प्रात्मा में लगे हुए कर्मों का नाश होकर इससे शीघ्र ही मुक्ति पा लोगे ॥६६६।। धळरि युवै वाइन मदकरि के यी नंजिर । शूळेरि यगत्तिर पोरिर् सुरा वेरि कडलिर् कानि ।। नीळर नागि निकुं निनरयत्तु विळामर काकुं। केळिनि येरत्तै पोल किडप दोभिल्लै कंडाय ।।६६७॥ अर्थ-दुष्ट मृग, सर्प, व्याघ्र, सिंह मादि मौर मदमस्त हाथी आदि को जंगल में चारों ओर यदि आग लग जाये तो बीच में रहने वाले जीवों को, युद्ध भूमि में योद्धाओं को तथा समुद्र में रहने वाले जीवों को संकटकाल में धर्म ही शरण है और कोई शरण नहीं है । उसी प्रकार नरक में पड़े हुए जीवों की रक्षा करने वाला भी धर्म ही है। ऐसा जानकर अब तुम भी यही भावना करो कि धर्म ही सच्चा साथी है अन्य कोई नहीं है। ऐसी श्रद्धा रखकर धर्माचरण करो। अब उस धर्म के स्वरूप को मैं कहूंगा १९६७॥ उधर तं मुलगि नूयीक मुलगिनु किर मै याकुं। विय पिरप्पिन वांगि वीटिन कन वैक्कु मैये ॥ नमावि नल्लरत्तै पोलुं तुनै इल्ल नमक्कु नाडिन् । कंवमि निल में यगि त्तिरु वरं कैकोळ झेंड्न् ॥६६॥ __ अर्थ-अर्हत भगवान के द्वारा कहे हुए धर्म को धारण किये हुए जीव को देवति का सुख मिलता है और अन्त में मोक्ष सुख भी इस धर्म के प्रभाव से मिलता है। इसलिये हे मेरे भाई ! तुम्हें प्रात्म-सुख को देने वाले इस धर्म के अलावा और कोई नहीं है। ऐसा तुम स्वीकार करो ॥६६॥ येंडलु मिरप्प वेन् कनलत्तु विन्निलत्तु वदिन् । ट्रोला उरुवि सुनिलं मोळि बळि निलेने । निड्रन नेड, मिद निरयेत्तु नींग लिडि। येडव निरज नड्रेड्रि यानेन दुलगं पुक्केन ॥६६६॥ अर्थ-इस प्रकार धर्मोपदेश उस नारकी जीव को कहते ही वह नारकी पुन: इम प्रकार हाथ जोडकर कहने लगा कि हे स्वामी! तुमने मेरे प्रेम से देवगति से आकर मुझे नरक से उद्धार करने के लिये धर्म का उपदेश दिया है। यदि आपके द्वारा दिये उपदेश के वचनों का उल्लंघन करके चलूंगा तो पुन: मुझे और कहां मुख मिल सकता है ? उस नारकी ने चरणों में पडकर नमस्कार किया। तत्पश्चात् मैं उसको धर्म का उपदेश व सद्धर्म वृद्धि हो ऐसा कह कर अपने स्वस्थान को पा गया ।। । इति प्रादित्यदेव द्वारा विभीषण को नरक में उपदेश देने वाला दसवां अध्याय समाप्त हमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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