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मेद मंदर पुराण
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पर्व-सयोग केवली गुणस्थान के प्रनंतर वे दोनों मंदर और मेरू प्रन्तर्मुहूर्त में पिच्चासी (८५) कर्म प्रकृतियों का नाश करके उर्द्ध व गमन करके सिद्ध शिला पर विराजमान हो गये । उस समय अग्नि कुमार देव तथा मनुष्य सभी मिलकर जिस स्थान पर निर्वा हुआ था, भागवे ।। १३६७।।
परि शांवर सुन्नं पूमाले धूमै ।
मिन्नन पलवु मेदि इमयव रिरंजु मिल्ने ||
मिन्न न मुनिवर मेनि मरंदन् विमंधु नोंकि 1
पन्नरं तुदिय रागि वानवर पनदु पोनार् ॥१३९८
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अर्थ-स्वर्णहार, चंदन के सुगंधित द्रव्य, पुष्पहार, कपूर प्रादि द्रव्यों से भगवान के नख और केशों को लेकर भगवान का कृत्रिम पुतला बनाया और अग्निकुमार देवों ने उस को जला दिया। तत्पश्चात् सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को उन्होंने प्राप्त कर लिया था, इस कारण उन देवों ने उस भस्मि को अपने ललाट पर लगाया, और विधि पूर्वक निर्वाण कल्याण पूजा करके वे देव अपने-अपने स्थान को चले गये ॥१३६८
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मुडिविला त माट्र मुतल किलिय मूत्रमिदं मुरईट्रोंड्रि
इलाम विनं मोदला मोग मेरिवार वमिला बिबल्बिर ट्रोडि ।। कडेला घाति के काक्षिवलि येरिनियम कम्नेतोंङ्गि ।
तोडर् बेला मरखेरिदुं तोंड नाद्गुणत्तिलु नर् स्वयंवु मानर्॥ १३६॥
अर्थ - इस प्रकार दोनों मेरू व मंदर मुनिराज ने मिथ्यात्व नामक दर्शन मोहनीय कर्म के नाश होते ही सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीनों के बल से मोहनीय कर्म का नाश किया । तदनंतर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतराय मोहनीय, आयु और गोत्र इत्यादि प्राठों कर्मों का नाश करके अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंतवीमं ऐसे चार चतुष्टय को प्राप्त हुए ।।१३६६ ।।
मन मलिंद बोलियन मलर् मिरंद विरं यनवं मलगुसंधिन् । तुनि युमिळव तन्मे इनुं तोडियव परिवत्तुळ ळे तोंड़ि ॥ इन पिरिg मिलरागि इमयवरं मादवरु मिरेजियेत्त । पनिवरिय शिवगति इनमरं दिरुदा ररवमिदं मुंडारं ।। १४०० ॥
अर्थ - विमलनाथ तीर्थंकर के उपदेश को सुनकर मेरू व मंदर रत्न प्रकाश के समान, पुष्पों की सुगंध के समान शुद्धात्म स्वभाव से युक्त उपमातीत श्रात्मानंद अनंत सुख को प्राप्त कर वे दोनों गगणधर विमलनाथ भगवान के उपदेश के निमित्त से मोक्षपद को प्राप्त हुए । सत्संगति से अत्यंत नीच जीव भी यदि साधु या भगवान का निमित्त
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