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मेरु मंदर पुराण सोग मोडु रुतुय रिडि तानियल।
पागु नब्लग मिदिरत्तर्वारबमे ॥५०॥ अर्थ-अहमिन्द्र स्वर्ग में रहने वाले देव मोह रहित रहते हैं, जैसे साधु का परिणाम शुद्ध रहता है, और काम सेवन से रहित होते हैं । विशुद्ध परिणाम के अनुभव से ही सुख और शांति को पाते हैं ॥५०५।।
सोदमर शिरुमै जोदिड रुत्तम । मोविय वर करलुत्त उत्तमम् ॥ नीदिया निलंकोळ् मेल वर्षा निदा। मेव मि लिडयन पलवु मागुमे ॥५०६॥
अर्थ-सौधर्म, ईशान कल्प के देवों की उत्कृष्ट प्रायु १ पल्य के होती है। नीच जाति के देवों की प्रायु जैसे सौधर्म, ईशान कल्प के देवों को उत्कृष्ट प्रायु होती है उसी प्रकार इनकी जघन्य प्रायुष्य होती है । मध्यम प्रायु अनेक प्रकार की है ५०६।।
इदुवयरुलगु मदनियवि नन् कनन् । शदिर मंचासार कर्पत्तिन् वळि॥ यदि पेर ववन रुमत्ति यायुग । मधुर नन्मोळि वमिव मेविनान् ॥५०७॥
अर्थ-इस प्रकार देवलोक में रहने वाले देवों की आयु, उनके काम व विषयभोग तथा प्रायु का क्रम इस प्रकार होता है। वह श्रीधर नाम का देव सहस्रार कल्प में सूर्यप्रभा नाम के विमान में मध्यम आयुष्य को प्राप्त करने वाला बारहवें कल्प में उत्पन्न हुमा। वह देव वचन प्रवीचार नाम के शब्दों से विषय सुख से तृप्त होता था ॥५०७।।
पदिनर कान मिर्श पट्टवायुगं । पदिनरु वरुडमा इरंग कडदुना॥ पदिनर पदननाळ् विटुयित्तिर।
पदिनरु भावने यार पाडुमे ॥५०॥ अर्थ-बारहवें स्वर्ग के सुख को अनुभव करने वाले श्रीधर देव की प्रायु सोलह हजार वर्ष से कुछ अधिक थी। सोलह हजार वर्ष में वह देव एक बार मानसिक आहार करता था। और माठ महिने में एक बार श्वास निश्वास लेता था। वह देव सदैव षोडश भावना का चितवन किया करता था ॥५०८॥
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