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मेरु मंदर पुराण
[ २३३ नालरि मुळ मियलबा मोर् मातिरै। माल्वर येनुवळ पाय निनै पुळि ॥ शालवु नेनिय वर् पोल वैदलु।
मालुरु मुरुप्पल वागु मेनियान ॥५०॥ अर्थ-उस श्रीधर देव की ऊंचाई साढे चार हाथ थी। वह देव विक्रिया ऋद्धि धारक था और प्रति क्षण में छोटा बडा शरीर तथा रूप को बना लेता था। और उस रूप से सभी को मोहित करता था ।।५०६।।
वास मोरोंजनै निड, नारिडु । देसु मोरोजन सेंद्रे रित्त डुं । दूरिण मासैद मेनिइन गुरगम् । पेसला पडियदु वंड, पोडिनाल् ॥५१०॥
अर्थ-उस श्रीधर देव के शरीर में अनेक प्रकार के आभूषण कंठहार आदि थे। उनके गले में पूष्पहार कभी भी नहीं मुरझाता था। उनके शरीर में सुगंध सदेव पाती है और वह सुगंध एक योजन तक फैल जाती है । तथा शरीर का प्रकाश भी एक योजन तक पडता है । उस देव का गुण प्रकट करना अशक्य है ।।५१०।।
मुन् सैं नल्विनैनान मुगिलिन् मिन्नना । रिन् से वायव रेंदु कोंगैयर् ॥ बंदिडै सूळं दिड वनंग वानव । रंदमीलिइन् बत्त ळमरन् मेविनान् ॥५११॥
अर्थ-पूर्व जन्म में किये हुए पुण्य कर्म के उदय से इस प्राणी को स्त्री, पुत्र, धन, संपत्ति प्रादि वैभव मिलते हैं । वैसे ही सभी देवों द्वारा पूजनीय चारों ओर से सब के द्वारा नमस्कार करने योग्य प्रादि२सारी वात श्रीधर को पूण्योदय से ही प्राप्त हई थी। वह श्रीधर देव भोगपभोग में सानन्दअपना जीवन व्यतीत करता था। नीच भीलों के द्वारा निकृष्ट जंगल में ताडे जाने वाले हाथी को एक दिगम्बर साधु के उपदेश का निमित्त मिलने से पूर्व जन्म का जाति स्मरण होते ही उसने अणुव्रत धारण किया । और उस व्रत को मन मचन से धारण करने से श्रीधर नाम का देव हो गया । अल्प व्रत की शक्ति क्या सामान्य है ? प्राज कल के नास्तिक लोग धर्म से च्युत होनेवाले कहते हैं कि व्रतों की आवश्यकता नहीं है । यह व्रत तो संसार के कारण हैं । ऐसा कहने वाले इस अल्पव्रत के उदाहरण को यदि भली भांति समझ लें तो विदित होगा कि व्रत का कितना महान महत्व है। व्रत का तिरस्कार करने वाले आज कल के विद्वानों को इस ओर दृष्टिपात करना चाहिये । क्योंकि केवल व्रताचरण के भय से व्रत नियमादि का तिरस्कार करके केवल अध्यात्मबाद का पुरुषार्थ करने वाले तथा
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