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मेद मंदर पुरारण
व रुत मारियुरु मेळुगु नीरुट् । सेंदु पोल तिन्नॅड्रिरेवन शिरप्पो डोंडि । निड नाळुलप्प मिनि नोगि नानु निलौ सेरं वा । नंजय निदानसाले परिवेया युरगर कोवे
।।५७० ॥
अर्थ - इस प्रकार सामान्य देवों द्वारा कहने के बाद शीघ्र ही जिस प्रकार लाख को अग्नि के सामने रखते हो पिघल जाती है और अग्नि से अलग करने के बाद पुनः वह लाख जम जाती है, उसी प्रकार भास्कर देव का मन दृढ हो गया और धर्म में रुचि हो गई। वह भगवान की पूजा, स्तुति, स्रोत, भक्ति पूर्वक करता रहा । तत्पश्चात् वह क्रम २ से प्रायु पूर्ण करके जिस प्रकार आकाश में बिजली चमकती २ बद हो जाती है उसी प्रकार क्षण भर में उसकी प्रायु समाप्त हो गई। और पूर्व जन्म में निदान बंध करने के कारण इस कर्मभूमि में आकर स्त्री पर्याय को धारण किया ।। ५७० ॥
कावलन पोल दीप सागरं सूळ निड़ । नावलं ती तन्नुऴ् भरतत्त नडुव नोंगि ॥ सेवलं नतिर् सेडि शिरगिनं विरिक्त तीवं । मेवलुट्रेव दुःखं बिलंगुम् वेदंड मुंडे ।। ५७१ ॥
अर्थ -- असंख्यात द्वीप समुद्रों से घिरा हुआ यह जम्बूद्वीप है । इस जम्बूद्वीप के बीच में भरतखंड है । भरतखंड के बीच में जैसे एक हंस पक्षी उडने के लिये पंख पसारता है और उडने का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार का विजयार्द्ध नाम का पर्वत है ।। ५७१ ।।
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श्राळिये शेरितु कंड मारंयु मडिपडत्त ।
बेळमा निरंगळ् विनोर् वेदर विजेयर्गळ सूळ । बाळियंगंगे शिवु वंबडि यडेंबु कुंड्रम ।
पालियन तक्कै व भरतन पोंडिलंगु नि ॥ २७२ ॥
अर्थ - महालवण समुद्र पूर्वापर से भरतादि छह खंड घेरे हुए हैं। उस भरत खंड में गंगा सिंधु नदियों से घिरा हुआ यह विजयार्द्ध पर्वत जैसे भरत चक्रवर्ती अपने हाथ को पसार कर याचक जनों को दान देता है, उसी प्रकार विजयार्द्ध पर्वत का प्राकार है ।। ५७२ ।।
व
इogम पुय्य कंडू परं तु नीळ । मोनू मोंड माय वाइर्तविग मोडि ।।
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बबु पत्तै मेर, सेंड्रगिद मरुंगुस पुक्कु । विजय मग मागि पप्यत्तु बीळं व वेपिन् ।। ५७३॥
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