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मेरु मंदर पुराण मनत्तिडे पिरक्कुं तुंबम वंदोर मवट्रिन्द्र बम् । तनुत्तनिर् पिरक्कुं तुंबम् तानियल तुंब ।। मेनच्चोल पट्ट नांगु मिया वर्षा मागुमिन्न ।
निगत्तर पुनरि निड़ तोगति नींगु मेंडेन ॥४७३॥ अर्थ-मनुष्य पर्याय प्राप्त करने के बाद संज्ञी जीवों को हमेशा संसार में मन की इच्छा पूर्ण करने की भावना होने पर भी पूर्वजन्म में उपार्जन किए अशुभ कर्म से अनेक प्रकार के दुखों को भोगना पडता है। शरीर से उत्पन्न होने वाले शारीरिक दुख तथा मानसिक, स्वाभाविक और पागंतुक ऐसे चार प्रकार के दुख सभी संसारी जीवों में पाये जाते हैं। अतः हे गजराज ! तुम इन सभी दुखों पर विचार करके यदि भगवान अहंत देव के वचनों के अनुसार पाचरण करोगे तो यह सांसारिक सारे दुख नाश होकर अंत में क्रम २ से मोक्ष की प्राप्ति होगी । ऐसा मुनिराज ने गजराज से कहा ।।४७३।।
विनयत्तोडिरेजि केळकु मुनिय पोल विळंबि देल्लाम् । मनो वैत्त वनगि केटु वदंगळ् पग्निरेंडु मेवि ॥ पनयोत्त तडक्क मानल्लुयुर् गळे पाद काकुं ।
मुनियोत्तु करुण वैत्तौ उईरै युमोंबिर् दंड ॥४७४॥ अर्थ-इस प्रकार मुनिराज के उपदेश को सुनकर वह हाथी अत्यन्त भक्ति पूर्वक जिस प्रकार प्राचार्य द्वारा धर्म शास्त्र का किसी मुनिराज को उपदेश देने पर वे मनःपूर्वक प्राचरण करते हैं, उसी प्रकार धर्मोपदेश सुनकर जैसे निग्रंथ मुनि सपूर्ण जीवों पर दया करते हैं उसी प्रकार वह हाथी दयालु होकर संपूर्ण जीवों की रक्षा करने लगा ।।४७४।।
पो कोलै कळव काम पुलै सुत्तेन कळ्ळगट्रि। मैयुरै दिशयिनोडु पोरुळि नै वरु दुमेनि ॥ नईनु वदंग नैया वगैना नागराजन ।।
शै मा शैय मत्तिर दुवै निडाल पोलचंद्रान ॥४७॥ अर्थ-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ऐसे पांच पापों का स्थूल त्याग व देशवत, दिग्व्रत और अनर्थदंडवत इन तीनों व्रतों को तथा भोगोपभोगपरिमारण शिक्षाव्रत प्रादि का ग्रहण कर अपने शरीर को व्रत उपवास के द्वारा कृश होने पर भी जैसे दूसरी प्रतिमा वाला श्रावक व्रत को निरतिचार पालन करता है उसी प्रकार वह हाथी भी निरतिचार व्रतों का पालन करने लगा ।।४७५॥
उवर्काडु वेरुप्पि नोंड्रि युडवोडु पुलंगडम मेर् । ट्र वर पसै नांगु नीगि सोन पनि रंडु मुन्नि ।
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