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________________ मेरु मंदर पुराण [ १८९ दिया और पूर्णचन्द्र को युवराज पदवी दी। राजा सिंहचन्द्र सुखपूर्वक राजशासन करने लगा। राजा सिंहसेन के मरण का हाल सुनकर उस नगर में विराजमान शांतिमति व हिरण्यमति यह दोनों प्रायिकाए माता रामदत्ता के पास प्राई ।।३६२।। अंग नूल पपिंड. बल्ला ररवमिरंद लिक्कुं सोल्लार । शिगं नरपाचलादि नोन बोडु शरितु निडान ॥ तंगिय कारण नेजिर् दुरिमा रयिर् गट केल्ला । तिंगळ वेन कुनाइन् देविय कंजु सोनार ॥३९३॥ अथ-वे प्रायिकाए कैसी थी? सम्पूर्ण जीवों पर दया करने वाली, भव्य जीवों को अमृत रूपी धर्मोपदेश का पान कराने की शक्तिवाली, व्रत में अपने शरीर को शुष्क करने वाली, सस्थावर प्रादि सभी जीवों पर दया भाव तथा हित करने में कटिबद्ध थीं। ऐसी वे दोनों श्रेष्ठ प्रायिकाएं चन्द्रमा के समान श्वेत वस्त्र धारण किये रामदत्तामाता से कहने लंगी कि हे राजमाता! ॥३६३॥ अंगर बल्गु त्तारि लरददि येनेय मंगे। मगल मिळंद तेमनोगंडं पावं वाडि ॥ शंगय वनय कंगळ सिदरी नो अळुद पोळ, । वेंकळि यान वेंदन वेळिप्पडा नोळिग उडान् ॥३६४॥ अर्थ-प्रापने अपने पति के मरण होने पर अपने शरीर में रहने वाले शृगार माणक मोती रत्न प्रादि आभरणों को उतार कर त्याग दिया। यह पूर्व में किये हुए पाप कर्म का उदय ही है। ऐसा समझो ! क्योंकि परम्परा से ऐसा ही चला पा रहा है कि जहां जहां जन्म है वहां मरण है । यदि तुम पति के वियोग से दुख करोगी तो वे कभी वापस लौटकर नहीं पा सकते। इस कारण शोक करना भूल जायो। दुख करना संसार बंध का कारण है। क्योंकि पाप ज्ञानवान हो । इस विषय को भली प्रकार समझती हो। फिर भी हम तो निमित्त कारण हैं। आपको सांत्वना देना हमारा मुख्य कर्तव्य है ॥३६४।। पार्वत्ति नरत्ति सिदै यातमा यदनिर पिन्न । वदत्तै उडिय वाय विलंगिडे पिरंदु तीमै ॥ भारत्तै यडंदु सेंड, नरगति पदैप्पर कंडाय । नरोत्त मनत्तैयागि यनित्तमे निनक्के वेंड्रार् ॥३६॥ अर्थ- माताएं पुनः कहने लगी कि हे माता दुख करने से प्रार्तध्यान होता है और प्रार्तध्यान से महान निंद्यगति में जन्म लेना पडता है और वहां अनेक प्रकार के नरक के यातायात के दुखों को सहन करना पडता है। इस कारण इस जगत में उत्पन्न होने वाले पंचेन्द्रिय विषय सुख अनित्य हैं, क्षणिक हैं, कभी भी शाश्वत किसी को रहते नहीं। सब पुण्य पाप Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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