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दूसरे एक शिलालेख में ऐसा लेख मिला है .
श्री मल्लिषेण यति वामनमूरि शिष्य :
भी पुष्पसेन मुनि पुंगव ....... इस प्रकार इस श्लोक से प्रतीत होता है कि मस्लिषेण और वामन मुनि ये दोनों ही एक मुनि के नाम हैं । उनके शिष्य पुष्पसेन मुनि हैं । इससे सब संदेह निवारण हो जाता है।
ये दोनों कांचीपुर में आये होंगे । उनके दर्शन करते समय उनके चरण कमलों को भी वहां खुदवा दिया है।
परन्तु उनके काल का निश्चय नहीं किया जा सकता है। वहां एक दीवाल पर पत्त्थर पर इतना ही लिखा है कि दुंदुभि नाम संवत्सर में कार्तिक पौरिणमा सोमवार महामंडलेश्वर हरिहर राजकुमार श्रीमत्पुष्कराज धर्म के लिये वैजप दंडनाथ पुत्र नोत्तम इन्होंने त्रैलोक्यवल्लभ ऐसे वृषभजिनेन्द्र की पूजा प्रक्षाल के लिए महामंडूर नाम का एक गांव प्रबंध के लिये समर्पण किया।
उस महामंडूर से छत्र चामर आदि तथा अक्षतादि पूजा की सामग्री पाती थी। इस विषय में उस मन्दिर की दीवाल में एक श्लोक उत्कीर्ण है।
श्रीमत् वैजपदंडनाथ-तनय संवत्सरे प्रभावे । संख्यावान् विरुकप्प दंडनृपति श्री पुष्पसेनाऽज्ञया । श्री कांची-जिनवर्षमान-निलयस्याने महा-मंडपम् ।
संगीतार्थमचोषीकरच्च शिलयावद्ध समंतात्स्थलं ।। . इस श्लोक से ऐसा मालूम होता है कि पुष्पसेन मुनि का शिष्य जिनभक्त होना चानिये ऐसा प्रतीत होता है। विजयनगर नाम के अधिपति राजा हरिहर थे। उनके मंत्री इरिगप्प दन्डनायक थे। उनके गुरु पुष्पसेन मुनि थे। उनके गुरु मल्लिषेण नाम के वामन मुनि थे। ये तीनों एक ही काल में थे ऐसा प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ के कर्ता मल्लिषेरण वामनमुनि प्रगट प्रसिद्ध होते हैं। अन्दाज सात कम ६०० वर्ष आगे थे, ऐसा प्रतीत होता है। इस प्रकार इस ग्रन्थ के परिचय के बारे में जो हमें मालूम हुआ मो ही लिखा है। पूर्ण परिचय मालूम नहीं हो सका।
यह ग्रन्थ तामिल लिपि में था । और इस ग्रन्थ का नाम मेरु मंदर ऐसा प्रसिद्ध था। इस भाषा का हमें परिचय नहीं था। परन्तु मन में इस ग्रन्थ का हिंदी भाषा में अनुवाद करने की प्रबल इच्छा बहुत दिनों से हो रही थी। परन्तु इस तामिल भाषा का
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