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________________ Ram मेरु मंदर पुराण [ ४६५ होना ही मोक्ष है । प्रात्मा के कम बंध का कारण अशुद्ध चेतन परिणाम जो रागादि भावरूप हैं, वे ही बंध के कारण हैं। यदि उसको शुद्ध चैतन्य आत्मा स्वरूप के बल के द्वारा त्याग करेगा वही आत्मा लोकाग्र विराजमान होने के योग्य सिद्ध परमेष्ठी बन जाता है। ऐसा भगवान ने कहा है ॥१३५.३।। ऐंबतंगणधरर् घाति यांगण । तेंवत्तँदि रट्टि पत्ताम् पूर्वद ॥ रैबदि निरट्टि नार्पत्तेट्रोरिय । रंबदि निरट्टि योंवान् विगुवनर् ॥२३५४॥ अर्थ-उन विमलनाथ तीर्थंकर की सभा में पचपन गणघर थे। एक हजार एक पूर्व अङ्गधारी थे। अवधिज्ञानी मुनि चार हजार आठ सौ थे। विक्रिया ऋद्धिधारी गणधर नौ सौ थे ॥१३५४।। विलिक्कल शेयत ररुवत्तेनाइरम् । इलक्क मूनं ड्रेटेट्टा इरंगळ सावध ॥ रिलक्क मोड्राइर मूंड, कांतिय । रिलक्क नागिरंतु सावगियर् ॥१३५५॥ अर्थ-सम्पूर्ण संयमी लोग अडसठ हजार थे। नवीन संयमो तीन लाख चौसठ हजार थे। आर्यिका तीन लाख तीन हजार थी। श्राविकाएं चार लाख, श्रावक दो लाख थे। ॥१३५५॥ इनय वाम् विमल नार गरगत्तु नादराय । विनवला मरवेरि वेद नागि नै । मनत्तुर वानरुक्कोदि मट्रवर । विनै कन् मेनिने बुरिइ विविक्त मेविनार ॥१३५६॥ अर्थ-मेरू और मंदर ये दोनों श्री विमलनाथ भगवान के मुख्य गणधर थे। उनने फर्मा को नष्ट करने के लिये चारों अनुयोगों को प्रावक और यतियों के लिये उपदेश करने हेतु अपनी आत्मा में बंधे हुए कर्मों को क्षय करने के frये एकांत स्थान को प्राप्त किया। जिस प्रकार गाय भैंस अपने २ झुन्ड के साथ जाती हैं, अलग २ नहीं जाती हैं, उसी प्रकार दोनों मेरू और मंदर एक साथ निर्जन पहाड को चोटी पर पहुँच गये ।।१३५६।। इनत्तिडे पिरिदु पोमेरिरंडु पोर् । कनत्ति पिरिदु पोय कान मेक्यि । वनत्ति पेरवर युच्चि मणिनार । निने पिने तन् कने निरुत्ति निडरां ॥१३५७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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