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________________ २५० ] मेरु मंदर पुराण अर्थ-षोडश कला से युक्त पूर्ण चंद्र राजा का जीव जिस प्रकार चंद्रमा की कला पूर्णमासी से प्रमावस तक कम होती जाती है उसी प्रकार भास्कर देव की सुन्दर शरीर की कला क्षोण होतो देखकर उस देव के मन में अत्यन्त दुख उत्पन्न होने लगा ॥५६४।। देवनायमळिये शरीदं नान्मोद । लोविला वगै यवनुट्र विबमोर ।। तावमाय तिरंडु वंदडुव दुःरवमा । मूवनाळग वैइन मुडिद तुंबमे ।। ५६५।। अर्थ-पंद्रह दिन के अन्त में होनेवाले घोर मारणांतिक दुख से वह दुखी हो गया, सोलह हजार वर्ष देवांगनाओं के साथ भोगे हुए संपूर्ण सुख जैसे जंगल में प्राग लगते ही सब नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार इतने वर्षों का वह मानन्द उस भास्कर देव का तत्काल नष्ट हो गया। अर्थात् देवांगना का मुख एक क्षण में नष्ट होता देखकर अत्यन्त दुखी हुए। क्योंकि यह संसार चक्र की विचित्रता है ।। ५६५।। सूकरमागि तोड्रि तुयरुरु मुइर्ग डुंब । तागरमागे निई वन्वुडं पिडिद लाट्रा। नागरकिरैव रागि विनिने नन्नि वीळवार् । सोगयुं तुयरु नम्मार सोल्ललाम् पडियदोंड्रो ॥५६६।। अर्थ-शरीरधारी संसारी को कितना ही दुख होने पर भी शरीर छोड़ने की भावना नहीं रहती। शरीर को छोडते समय महान दुख होता है, जो अवर्णनीय है । जिस प्रकार एक शूकर निंद्य पर्याय का जीव अपनी पर्याय को छोडता है उसको भी मरण समय में शरीर छोडने पर दुख होता है । उसी प्रकार देवगति का सुख भी आयु की समाप्ति पर जीव को दुखी कर देता है । उस दुख का वर्णन किया जाना असंभव है ।।५६६।। कानेरि कवरप्पट्ट कर्पगं पोलवाडि । वानव निरंद पोदिन वंदु सामान देवर् ॥ तेनिव रलंग लाइत् देवर तं मुलगिर् चिन्हाळ् । वानवरिशंदु पिन्ने वळुत्तर् मरवि वेडार ॥५६७॥ अर्थ-जिस प्रकार आग लगने पर जलता हुआ कल्पवृक्ष कंपायमान होता है उसी प्रकार भास्कर देव को दुखी होते देख कर वहां के रहने वाले सामान्य देव उसके पास आकर समझाने लगे कि हे महद्धिक देव ! आप अपने पूर्व जन्म में पुण्योपार्जन करने से यहां देवपद को प्राप्त हुए । अब प्रायु पूर्ण हो गई है । आप घबरामो मत । इस स्वर्ग में रहने वाले सभी देवों की आयु पूर्ण होने के बाद उनको कंठ की माला व आभरण मुरझा जाते हैं । ऐसा होना देव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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