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मेरु मंदर पुरारग
तेज, वायु, वनस्पति और त्रस ऐसे षड्काय जीवों में जन्म लेकर सात प्रकार के संसार के परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले आठों कर्मों के बंधन से संसार में परिभ्रमण करते हैं ।
प्रश्न - सप्त परिवर्तन कौन से हैं ?
उत्तर - स्थापना और नाम यह दोनों मिल कर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव यह परिवर्तन होते हैं ।। ११४ ।।
एळ. क्कयरगंडू. मोरेळ, कयर् रुयरं बिडैई लोंड्राय् । मुळवेन विडंलेदाय मुडिवंड्रा डिई लेळा || एळिविला उलगिट्रोट्र मनंतमाम् पडित्पदेश । मेळ वेन तिरंडतोळा इरंडनाळ, पिरंद वेंड्रान् ।। ११५ ।।
हे बलिष्ठ राजकुमार ! सुनो, उत्तर दक्षिरण का व्यास ७ राजू और उच्छेद १४ राज् है । सात राज उच्छेद के मध्य में १ राजू मध्य भाग है। मध्य भाग के ऊपर मृदंगाकार अर्थात् मध्य लोक के साढ़े तीन उच्छेद के ऊपर ब्रह्म कल्प के शिखर में पांच राजू होकर कम से कम होकर शिखर पर एक राजू प्रमाण रह गया है। अधोलोक में ७ राजू है । इस प्रकार यह पूर्वापर व्यास है । इस लोक की ऊंचाई, 'लम्बाई और चौड़ाई इन सब को नापने से ३४३ घन राजु होता है । यह अनादि निधन है । यह किसी के द्वारा बनाया हुआ नहीं है, और कभी भी नाश होने वाला नहीं है । इस प्रकार इस तीन लोक में संम्पूर्ण जीव जन्म मरण के आधीन होकर अनेक दुख को पाकर इस संसार में भ्रमण करते हैं ।। ११५ ।।
बिनं नरंबिर् पनि युविरं तोय् दिरैच्चि मत्ति । पुनपुर तोलिन् मूडि यळ क्कोड कुळ, क्कळ, सोरु | बंबदुवायिट्राय वून पईल कुरु बं तन्मेल । लंबरा मान्दर् कंडा यरिविनार् शिरियनीरा ॥ ११६ ॥
नस को रक्त में भिगोकर उस नस से हड्डी को भली प्रकार बांध कर उसको मांस रूपी कीचड से लेप कर के उसके ऊपर चाम की चादर लपेट कर कृमि कीटक आदि अनेक मलों से भरता हुआ नत्र द्वारों से युक्त, ऐसे यह अशुचि अपावन कच्चे दुर्गंधित मल के भरे शरीर पर प्रेम करने वाला ग्रात्म ज्ञान से रहित होकर संसार रूपी वन में भ्रमण करता है ।
भावार्थ - जो जीव धर्म में अनुराग रखते हैं वे इन्द्रिय रूपी सुख को साधते हुए शुभोपयोगी रूपी भूमि में विचरण करते हैं ।
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शुभयोग सहित उत्तम तिर्यंच, उत्तम मनुष्य अथवा उत्तम देव होता हुआ उतने काल तक अर्थात् तिर्यंच आदि की स्थिति तक नाना प्रकार के इन्द्रिय सुख को पाता है । सब मांसारिक सुखों में मग्न होकर जीव देवगति में जाता है, वहाँ प्रणिमा गरिमा आदि २ आठ
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