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मेह मंबर पुराण
परिणाम से कर्म बंध का कारण नहीं होगा। इस प्रकार होने से मोक्ष, बंध प्रादि का भी मभाव होगा। जैसे पानी से भरे हुए तालाब में एक पत्थर डाल दिया जाय और वह डालते ही नीचे चला जाता है उसी प्रकार वह होगा । जैसे एक मनुष्य को तपश्चरण के द्वारा आत्मा के साथ बंधे हुए कमों के अलग होने से तपश्चरण करने पर भी सफलता नहीं होगी अर्थात् सभी धर्म विफल होंगे उसी प्रकार मोक्ष का तुम्हारे मत के अनुसार प्रभाव होगा। इनका मत बाधा सहित है, यह माप्तमीमांसा में श्लोक २८ में दिखाते हैं:
"पृथक्त्वैकांतपक्षेऽपि पृथकत्वादपृथकतुतौ ।
पृथक्त्वे न पृथकत्वं स्यादनेकस्थोह्यसौ गुणः ॥ पृथक्त्व कहिये पदार्थ सब भिन्न ही है ऐसा एकांत पक्ष होने से पृथक्त्व नामा गुणों से गुण और गुणी इन दोनों पदार्थों के भिन्न २ पना होने से दोनों अभिन्न ही होते हैं । ऐसे यह पृथक्त्व नामा गुण ही नहीं ठहरता है। जिससे पृथक्त्व गुण को एक को अनेक पदार्थों में होना मानते हैं तो पृथक्त्व गुरण कहना ही निष्फल हो गया। जो वैशेषिक द्रव्य, गुरण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ऐसे छह पदार्थ मानते हैं। उनके उत्तर भेद इस प्रकार हैं:-द्रव्य नौ, गुण चौवीस, कर्म पांच, सामान्य दोय प्रकार, विशेष एक तथा समवाय एक है। तिनमें गुण के चौबीस भेदों में एक पृथक्त्व नामा भी गुण है सो यह गुण सर्व द्रव्य गुण आदि २ पदार्थों को भिन्न २ करता है ऐसा माना है। फिर नैयायिक प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, नर्क, निर्णय, बाद, जल्प वितन्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह स्थान इस प्रकार सोलह पदार्थ माने हैं । इनको भी भिन्न २ हो मानते हैं । तिनका पदार्थों का सर्वथा भिन्न पक्ष होने से प्रश्न करते हैं कि पृथक्त्व गुण से द्रव्य गुण ये दोनों भिन्न हैं या अभिन्न । यदि अभिन्न कहा जाय तो सर्वथा भिन्न का एकान्त पक्ष कैसे ठहरे ? फिर कहे जो द्रव्य, गुण, पृथक्त्व ते भिन्न है तो द्रव्य, गुण, अभिन्न ठहरे । पृथक्त्व गुण न्यारा है तिसने द्रव्य, गुण का कहा किया कुछ भी नहीं किया जिससे पृथक्त्व गुण एक है और अनेक में ठहरा मानते हैं। इस प्रकार ऐसा कहने से सर्वथा भेदकादी नैयायिक वैशेषिक मत के सर्वथा पृथक्त्व एकांत पक्ष में दूषण दिखाया ॥६७२।।
उडवि नुळुइरे पोल गुण गुणी योंडो डोंड । विडं पडि कंड इंडेल वेरन विळंब लागुस । शेडं पुरिदुरै वेराग पोरुळं बेरामेन बानेल ।
मडंदै पेन् माड़ालू मगळला पुरुळ मुंडो ॥६७३॥ अर्थ-जिस प्रकार जीवात्मा एक शरीर को छोडकर दूसरा शरीर धारण करता है. और दूसरा शरीर छोडकर तीसरा शरीर धारण करता है उसी प्रकार गुण और गुणी का स्वरूप है, ऐसा कहते हैं । इस प्रकार कहने से जीव नाम के पदार्थ का भी प्रभाव होगा। इस प्रकार गुण और गुणी का स्वरूप है । ऐसा कह दिया जाय तो जीव नाम के पदार्थ का अभाव हो जायगा। प्रात्मा नाम का कोई पदार्थ ही नहीं रहेगा। इस प्रकार गुण, गुणी तादात्म्य संबंधी है। गुण, गुणी कहना व्यवहार नय की दृष्टि से है। अग्नि और उष्णता को जिस
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