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________________ .....PRAM मेरु मंदर पुराण [ १७ चित्तिर मोत्त रामवत्तैयुं सिय्यसेनें। सत्तियं वैत्त नामन् ट्रन्नै मुन्नारण इट्ट.॥ भादिर मित्रन् सेप्पुंडेनिर कोडुक्क पार मेल् । नित्तलु मिट्ट पूशल नेडु पळि विडक्कु मेन्न ॥२८६॥ अर्थ-वह दासी कहने लगी-देखो भंडारीजो यह एक मार्मिक बात है, किसी को प्रकट नहीं होना चाहिए। शिवभूति मंत्री इस समय बड़े कष्ट में हैं, जुप्रा में रामदत्ता महारानी के साथ हार कर उनने सब चीजों को खो दिया है और वह रखे हुए रत्न दिए बिना छुटकारा पा नहीं सकते। मंत्री ने यह मुद्रिका व यज्ञोपवीत जिस पर मंत्री का नाम है दी है । इनको तुम भंडार में रखलो और इनके बदले भद्रमित्र के रत्न मुझे देदो, ताकि वह दुःख से निकले । यदि नहीं दोगे तो मंत्री की अपकीर्ति होगी और रोजाना जो वृक्ष पर चढ़ कर वह चिल्लाता है आपका यह कहना बंद कर देगा ।।२८६।। मत्तग मोततिडोन मंदिरि सोन्न वार्ते । वित्तग रुत्त मकुं वरुम् पळि विलक्क लगा। भद्दिर वागुवल्लि वरदक्कुं पळि योडाय। तित्तलतेंड, निड़ दिदि रो पेंदिर' ॥२८७॥ अर्थ-उस दासी ने भंडारी से यह भी कहा कि मंत्री ने इस संबंध में और और भी बातें कही है कि सत्पुरुषों पर आए हुए अपराधों को कोई रोक नहीं सकता। भरत और बाहुबली के मध्य में होने वाले संघर्षण तथा इन्द्र और उपेन्द्र इन दोनों राजकुमारों में होने वाले दोषों का कथन सब जगह प्रसिद्ध है । उन्हीं के समान मेरा दोष भी इस कलिकाल तक न रहे तथा मेरी अपकीति भी न हो। वास्तव में यह बात सत्य है कि उस भद्रमित्र वणिक ने मुझे रत्नों की पेटी दी, मुझे स्मरण नहीं रहा, मैं भूल गया था और मैंने उस वणिक से यह कह दिया था कि मैंने तुम्हारे रत्न नहीं लिये ॥२८७।। प्रादलालेन् कण्णिंड, मुळत्त विप्पळियं पोगि । मोद नीर वोट्ट मेल्लाम तडडि पडर्व दोंडाय ।। तोदिला गुणत्त वेंदे शप्पवन वैज्ञतु पोइर् । ट्रियादु नानिदि दाडे इल्ले सेप्पेंड, सोन्नेन् ।।२८८॥ अर्थ -पुनः दासी ने कहा कि मंत्री ने यह बात राजा से कही है कि मेरे हाथों से रत्नों का भद्रमित्र को वापिस दे दंगा-यदि नहीं दूंगा तो मेरे सत्यघोष नाम पर कलंक लग जावेगा । सो आज ही विचार करके निर्णय करो। तब सिंहसेन महाराज ने मत्री की बात सुनकर कहा कि सभा के बीच आने वाली अपकीर्ति को रोकने को कोई समर्थ नहीं है तुम भद्रमित्र से यह प्रार्थना करो कि हे वणिक यह रत्नों की पेटी माप वापस लो और अब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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