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मेरुमंदर पुराण
परिंदा यावरु ।
निड्रडा पोळदेन कैई नोटेन ॥
अंड्र वन् कैयरुम् पोरुळ वंत्तपिन् ।
सुंदर् पुग मोई' बनो मोर्व नाम् ॥ २४७॥
अर्थ- - इस प्रकार मंत्री की बात सुनकर उस भद्रमित्र ने मंत्री को नमस्कार किया । पुनः वह मंत्री भद्रमित्र से कहने लगा कि हे वणिक यदि तुम अपने रत्न ग्राभूषण आदि मेरे पास रखना चाहते हो तो ऐसे समय में लाकर रखना, जिस समय में मैं एकांत में रहू, और कोई भी देखता न हो । तब उस भद्रमित्र ने मंत्री की बात मानकर अपने पास जितने भी रत्न, प्राभूषरण वगैरह थे वे सब सत्यघोष मंत्री को दे दिए। और कहने लगा कि अब मैं अपनी जन्मभूमि पद्मशंख नगर में जाकर अपने बंधुत्रों को लेकर आता हूँ ।।२४७||
वेगळ, वेंदु वेडित्ति मोसैयुं । पाय कळ्ळि परर पोडि योशयुं ॥ श्रायतन कुळलोसेयु माले गळ् । पायु मोसेयु पाश्विरि योसैयुं ॥ २४८ ॥
नगर की ओर गया तो रास्ते में बांस के वृक्ष थे । आपस में उन अनेक गडरिये उस हरे भरे वन
अर्थ- वहां से प्रयारण करके जब वह पद्मशंख अनेक प्रकार के भयानक जंगल आदि मिले । उन जंगलों में बांसों के टकराने से भयानक अग्नि प्रज्वलित हो रही थी । में बकरियां चराते थे । प्रनेक प्रकार की बांसुरियां बज रही थीं जो कानों को मधुर लग रही थीं । गडरिये किलोलें करते थे । जिस प्रकार गन्ने को मशीन में डालकर पेरा जाता है और उसकी ध्वनि निकलती है वैसी ही आवाजें हो रही थी । इस प्रकार उन वन के अनेक दृश्यों को देखता हुआ वह भद्रमित्र आगे बढ़ता जा रहा था ।। २४८ ।।
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इन श्रोस इयंब निलंदोरु । पनरु पद्मषंड मदैदि नान् ॥
मन्नम् सुट्रमे लामर कोंडु पोय । तुन्निनान् शियपुरमदु तोंड्रले ॥ २४६ ॥
अर्थ - इस प्रकार वह भद्रमित्र सेठ अनेक प्रकार के मधुर शब्द जंगल में सुनता हुआ शीघ्र ही थोडे समय में अपनी पद्मशंख नगरी में जा पहुँचा, और वहां से अपने बंधु बांधवों को साथ लेकर वापस लौट कर सिंहपुरी नगरी में आ गया || २४६ ।।
वळ वरुत्त मोळित्तवन् वाकिळै । कळिविलाद विब येळित्तिरिदित् ॥
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