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मेर मंदर पुराण
[ १३३ अर्थ-तत्पश्चात् वह भद्रमित्र वणिक विचारता है कि सिंहपुर नगर में अपने द्वारा संपादन करके लाये हुए अनेक प्रकार के रत्न मोती, माणक आदि को वहां के किसी सत्पुरुष के पास रखकर के अपने जन्म क्षेत्र पद्म शंख नाम के नगर में जाकर अपने बंधु बांधवों को वहां से लाकर एक सुन्दर विशाल भवन बनाकर रहूंगा। यह सोचकर वह अनमोल मोती, माणक, रत्न को रखने के लिए वहां के राजा के सद्गुणी शिवभूति अपरनाम सत्यघोष नाम के मंत्री के पास गया ।।२४२।।२४३।।
मिक्क शोति यन् वेवियन् वेद' । तक्क मदिरि शत्तिय कोडनेन् । ट्रेक्कदै पुराणं सुरुदि पोरुळ ।
वक्कनिप्पवन मानव नल्लने ॥२४४॥ अर्थ-वह भद्रमित्र उस मंत्री को देखकर विचार करता है कि यह जाति से उत्तम ब्राह्मण है और सिंहसेन राजा का मुख्य मंत्री है। सदैव सत्य बोलता है । धर्म शास्त्र का भली प्रकार मनन किया है और संपूर्ण धर्म शास्त्र को सुना है-शास्त्री है। यदि इनकी ओर देखा जावे तो यह मनुष्य नहीं है, बल्कि इन्द्र के समान देवता है ।।२४४ ।
तक्क दोड्रिवन् के पोरुळ वैत्तलेन । ट्रक्कनत्तोरु पाउडमींद पिन् । मिक्न मासनम् वींद दोळ पोदिनिर ।
ट्रोक्ल तन् करुमम् सोल मद्र वन ॥२४॥ अर्थ-इस प्रकार मन में विचार करके भद्रमित्र ने अपने पास के संपूर्ण रत्नों के भरे हुए संदूक में से एक रत्न मंत्री को भेंट करके नमस्कार किया। तत्पश्चात् मंत्री की सभा के रहने वाले सभी लोगों के उठकर चले जाने के बाद अपनी चरचा के बारे में प्रार्थना की। सत्यघोष ने बणिक की बात सुनकर विचारा कि बिना मांगे ऐसा मनोज्ञ सुन्दर एक रत्न मुझको मिल गया बड़े भाग्य की बात है। और रत्न पाकर वह मंत्री अत्यन्त प्रसन्न हसा ।
॥२४५। वैत्तल कोडल वळंगिडन मायत्तिडल् । तुइत्तल माट्र लिरुद विडसोलल ॥ इत्तिरत्त पिरन् पोरुळ मेर् सेल ।
सित्तं वैत्तलुं तीविन केदुवे ॥२४६॥ अर्थ-वह मंत्री सभी बातों को सुनकर कहने लगा कि हे भद्रमित्र! दूसरे की संपत्ति को अपहरण करना, रखी हुई संपत्ति को वापस देने से इनकार करना, अन्य की अमानता संपत्ति को स्वतः उपयोग में लेना, रुपया लेकर मांगने पर मना आदि २ ये सब पाप के कारण हैं । यह समझ लो ।।२४६।।
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