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मेरु मंदर पुराण
उनक्किवन् ट्रमयनाय पिरप्पु नोर्यारद दोंड़े । उनक्कु मुनिवनु माय पिरप्पेनि लुरंक्कलाट्रा ॥ विनंक्कु वित्तिट्टवेंडा वेगुळिवं पर्य पेरुक्कि मे मं । निनैतिडेर सुटुमंडि निडवरिल्ल कंडाय् ॥२०७॥
अर्थ - इस प्रकार सुनकर श्रादित्य देव कहने लगा कि हे धरणेंद्र यह संजयंत मुनि एक ही भवका मेरा भाई है। तुम जानते हो, परन्तु यह पूर्व में कितने भव धारण करते हुए यहां आया है, यह कहना असाध्य है । इस प्रकार बिना समझे विद्युद्दष्ट्र पर क्रोध करना उचित नहीं । श्राप शांति रखें और क्रोध भाव को शमन करें। वास्तविक दृष्टि से विचार करके देखा जाय तो संसार में सभी अपने बंधु हैं, सभी मित्र हैं, शत्रु कोई नहीं है। दुख दायक यह विषय भोग हैं। प्रत: विचार व भावना से किसी को कष्ट नहीं देना चाहिये || २०७ ।।
वर तिरं मनलिनुं बळिई नाट्रिरन् । शरुगिलं पोलवं शायं पोलबुं ॥
मरुवियनेि वसं वरुवदल्लदङ् । कोवर, कनुर प्रोरुनाळु मिल्लये ॥२०८॥
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अर्थ - जिस प्रकार समुद्र में तरंगें उठती बैठती हैं और जोर से तूफान आने पर वृक्ष पर से पत्ते उड जाते हैं, अर्थात् पतझड हो जाता है, तथा ग्रांधी से सारे सूखे पत्ते उड़कर 'इकट्ठे हो जाते हैं, उसी प्रकार अपनी छाया भी अपने को छोड कर दूसरी ओर नहीं जाती अपने साथ ही आगे पीछे चलती है और इसी प्रकार कर्म भी अपने साथ ही रहेंगे। एक दूसरे के साथ नहीं रहेंगे। प्रपने द्वारा उपार्जित शुभाशुभ कर्मों के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले सुख स्थिर नहीं रहते सभी क्षणिक रहते हैं ।। २०८||
मिन्निनु मिगं ननि तोंड्री बदिलिन । मन्निय उमिदं मिन् मदविलादन ॥
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सुन्नं मूलगिनु ळिले यायितु । पिक्षिय उरविदु पेरितु मिल्लये ॥ २०६ ॥
अर्थ - प्रकाश में बिजली की चमक के समान समस्त जीव जन्म मरण करते थावे । इस तीन लोक में सर्वजीव परस्पर बंधु के रूप में भी हैं, नाती तथा मित्र भी है । परन्तु वे कभी भी स्थिर होकर अपने साथ नहीं रहते, सदैव उनका संयोग वियोग होता ही रहता
।।२०६।।
उबरे युरुपगंड रागुबर् । सेटूबरे शिरंवार मागुबर् ॥
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