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________________ [ ४५ मेरु मंदर पुराण उपस्थित किया और कहने लगा कि भगवन् उद्यान में भगवान् का समवसरण आया हुआ है ॥५६॥ विळ नि दियेळिदिर् पेट्र परियवनपोलवेद । नेळ तरु विशोदितन्ना लेळ सेंडिरिरेजि वाळ ति ॥ मुळ दुड नवर्गट्कींदु मुनिवर्तकों सिरप्यु। केळ गण वीदिरोरु यियबिन मुरस निरे ॥५७॥ अर्थ-जिस प्रकार किसी दरिद्र को अमूल्य निधि प्राप्त हो जाने से उसे बड़ा हर्ष होता है उसी प्रकार उस वैजयन्त राजा को अपार आनन्द प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् शुद्ध परिणामों के साथ सिंहासन से नीचे उतरकर अपने मन में इस प्रकार का विचार किया कि जिससे सात प्रकार के संसार का नाश हो और सात प्रकार के परम स्याम की प्राप्ति हो, ऐसी सद्भावना करके सात पग आगे चलकर परोक्ष रूप से नमस्कार किया और अपने शरीर पर से बहुमूल्य वस्त्राभूषणों को उतारकर उस वनमाली को पुरस्कार रूप में दे दिया। तदनन्तर सभी लोगों को स्वयम्भू भगवान् के दर्शनों के लिये चलने के लिये नगर में प्रानन्द भेरी बजवाई ॥५७॥ इडिमुरसियेंबु मेल्लईदिर नगरन तन्नं । पडिमिस यनिदु पडंगळ दिट्ट वष्णम् ॥ कोडि नगररिंगदु पूरण मारमं पुळयु मिन्न । कडिमलर् कळब मेंदि कनत्तिडे येळंव दंई ॥१८॥ अर्थ-जिस प्रकार आकाश में बादल गरजते हैं उसी प्रकार के वाद्य बजने लगे। उस समय की शोभा ऐसी लगती थी मानों देवेन्द्र देवलोक से अमरपुरी को अलंकृत करके इस कर्मभूमि में लाकर स्थापना करदी हो अथवा समुद्र में तरंगों की सुन्दर ध्वनि निकल रहो हो । उस वीतशोक नगर में रहने वाली प्रजा अनेक प्रकार के प्राभरणों से सजधजकर नील मणि, माणक प्रादि के हार पहनकर तथा कानों में कुण्डल सुगंधित पुष्पमाला आदि धारण करके इस प्रकार सुशोभित हो रही थी कि मानों हाथ में अष्ट-द्रव्य लेकर स्वयम्भू भगवान् की पूजा करने के लिये जाने को तैयार हो । भावार्थ-जिस प्रकार आकाश में बादल गरजते हैं उसी प्रकार भेरी मृदंगादि विविध प्रकार के बाजे उस वीतशोक नगर में बज रहे थे। उस समय ऐसा प्रतीत होता था कि मानों देवलोक से देवता अमरपुरी को प्रांकृत करके लाये हों। जिस प्रकार समुद्र में तरंगें उठती हैं उसी प्रकार अनेक ध्वजामों से सुशोभित उस वीतशोक नगर में रहने वाले प्रजाजन अनेक प्रकार के मोती मरिणयों से सुशोभित होकर भगवान् स्वयंभू की अष्टद्रव्य से पूजा करने के लिये जाने को तैयार हो गये ॥५॥ काल पोर कलिर् पोंगिक करिनग रयु मेछ। माल सांदुर्मबि मैइस नार् सूळपोगि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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