SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरु मंदर पुराण [ १४६ के अपहरण किए गए रत्नों को वह अपनी बुद्धिमता से भंडारी के पास से लेकर पाई मौर महारानी रामदत्ता देवी को सम्हलाये तब रामदत्ता ने उस निपुणमति की बुद्धि की प्रशंसा करते हुए उसका मुख देखने लगी और माश्चर्य में पड़ गई कि मैंने इस दासी को थोड़ी सी बात कही थी, इसने अपनी चतुरता से इतना बड़ा काम करके दिखलाया है ॥२६१।२६२।। मुरिंदविक करुम मेना मुरुवलितवळोडं पोह। पडकिडंदलगुर् पावाई पट्टदु पवर्ग वेन ॥ नुडंगु नुन्निड ईनाय नीनु वलिय निनित्त पोगि। मडंगल पोलिरंद विदं मंदिर माडं पुक्केन ॥२६३॥ अर्थ-तत्पश्चात रामदत्ता देवी उस दासी को एकांत में ले जाकर पूछने लगी कि हे मेरी प्रिय सहेली निपुणमति ! तुमने क्या षड़यंत्र रचा और किस उपाय से इन रत्नों को तुम निकालकर लाई, किस युक्ति से भंडारी से रत्न निकलवाये ? वह आश्चर्य जनक होकर पूछने लगी कि उस भंडारी ने तुमको दिया ही कैसे? क्या तुमने जादू मंत्र किया था? इसके उत्तर में निपुणमति दासी ने कहा कि हे माता! आपकी प्राज्ञा होते ही आपका स्मरण करते हुए मैं मंत्री के मकान पर पहुंची ॥२६३।। पुक्क पिन् बांडगारी कुलियोप्पान् मेलियु वरण । मोक्कनीयुरत्त वेल्ला मुरतडे याळं सोल्लि ॥ मिक्कवन वेगुळि मावितल मोदिरमं काटि। तक्कदौंड. रत्तपिन्न तंदशेप्पिदु वेंड्रिडाळ ॥२६४॥ अर्थ-तदनंतर वहां जाकर बड़े प्रेम से मंत्री के भंडारी को बुलाया और आपके कहे अनुसार उनसे वार्तालाप की । चतुराई के साथ बात करके उनको आपके द्वारा दी गई यज्ञो. पवीत व मुद्रिका दे दी । तब उस भंडारी को इन यज्ञोपवीत व मुद्रिका को देखकर पूर्ण विश्वास हो गया और उसने मुझसे यज्ञोपवीत व मुद्रिका ले ली और रत्नों की पिटारी मुझे दे दी । ऐसा निपुणमति दासी ने रामदत्ता से कहा ।।२६४॥ करंद पालु मुलै पुगुनी करुदि नॅड. पेरिय वर्ग । निरंद मदि पोन मुगताय नोपुन पाति येंड रत्ताम् ।। रिंदोर् सोळू पुय्यामो वरिप कालन् पालुइर्यो। लिरंद पोरुळे कोडुवंदाय केन्नान संवदन उरत्ताळ ॥२६॥ अर्थ तदनंतर रामदत्ता महारानी दासी के प्रति कहने लगी कि हे निपुणमति ! तेरे मंदर सारे गुण हैं, इसलिए तेरा नाम भी सभी कलामों में निपुण होने से निपुणमति रखा गया है, यह ठीक है । तुम्हारे समान सामर्थ्यवान चतुर स्त्रियों में शिरोमरिण, सर्व कला-सम्पन्न संसार में महान दुर्लभ है । तेरे पास जो यह कला है वह दूसरे के पास नहीं हो सकती। इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy