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________________ - ४१० । मेह मंदर पुराण येळाड येळंदु वंदागिरे बने इरंजि येति । पाळि यान वेदर पल कल मवर्कु नगि ॥ येळु यरुलगं तन्नु निरळ केड वेळुव कोविन् । शूळोलि यनय पादं तोळ दु नामेळ ग वेंड्रार् ।।१०४४॥ मुरंडन शंक मेंगुस मुळंगिन मुरस निड.। तुरंग ममेरियान मेन् मन्नर तोडयलेंदि। निरंदनर नेळिव बंड निलमगन् मुदुगु नोडु। करंदन कडिय वाय कडुविन कुळांग ळगे ॥१०४५॥ अर्थ-तदनन्तर राजा ने समवसरण पाने का समाचार सुनकर उस समाचार देने वाले बनपाल को अनेक वस्त्र प्राभरण वगैरह दे दिये। तदनन्तर भगवान के समवसरण की पूजा के लिये दुंदुभि भेरी प्रादि बजवाई। इस भेरी को सुनकर प्रजाजन स्नान आदि से निवृत होकर शृंगार प्रादि करके अपने २ हाथों में प्रष्ट प्रकार के द्रव्य ले राज दरबार में एकत्रित हो गये ।।१०४४।१०४५|| शंदन कोळंबि नारंव. चंदिर कातं शेप्पुं । कुकुम कुळंबु विम्मु मिरविइन कुळवि चेप्पु ॥ मिदिर नील चेप्पु मगिर पुगे पुगंत्त वैदि । मैंव र शूळंदु निड्रार मयोर कुळाम् पोल वंदे ॥१०४६॥ प्रर्थ-उस समय सभी राजा, महाराजा, पुरुष स्त्रियां सारे प्रजाजन अनेक प्रकार बाजे बाद्य लेकर जिस प्रकार प्राकाश में मेघ गर्जना करता है, उसी प्रकार वाद्यों की प्रावाज महित भगवान के समवसरण की मोर धीरे २ गमन किया ॥१०४६।। विशंबुर विरितु नाम विरमलर माल पैदु । पशु पोर्नु मरिणयुं मिन्नुं पडलिगे पलवु मेंदि । येशुंबरा कडात वेळ तरसिळं कुममर् वंदार । विशुविन मेल विनयुर् पाद मरुक्कर ता मिरुषरोत्तार ।१०४४। अर्थ-उस समय सभी जनता एवं स्त्रियां प्रादि अपने २ सुगंध द्रव्य, पूजा पात्र मे लेकर उन राजा महाराजानों के साथ जा रही थी। जाते समय वह शोभा ऐसी प्रतीत होती थी मानों आकाश से इन्द्र ही उतर कर प्रांया हो। ऐसे पाते हुए वे दोनों मेरु मौर मंदर गोमते थे॥१० ॥ । बारहवां अध्याय समाप्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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