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________________ मेरु मंदर पुराण [ ३१७ उसी प्रकार वहां मदनमस्त हाथियों के बांधने की गज शालाए थी। उस नगर के बाहर उद्यान में सुपारी, कदली, प्राम, नारंगी आदि २ के वृक्ष सुशोभित थे।७५१।। वारिणने येळंदु वरं वासिनिले योरुपा। लणुरयु वेर् पडे यडक्कु मिड मोरपार ।। ट्रेनुलवु कूदलवर् तिळक्कुं तेरु वोरुपा। लाने निस वरंवरिणग रवरिडंग लोरुपाल् ॥७५२॥ अर्थ-अत्यन्त जातिवन्त सुन्दर वेग से चलने वाले घोडे के ठान थे। शत्रुशाली वैरियों को नाश करने वाले शस्त्र शालाएं मानों बैरी को जिस प्रकार प्रांख फाड २ कर देखा जाता है उसी प्रकार शस्त्र शालाएं बनी हुई थीं। स्त्रियां अपने सिर में बालों को गूंथ कर जिस प्रकार मस्तक नीचा करके जाती हैं , उसी प्रकार सुन्दर २ गलियां थीं। वहां के व्यापारी लोगों की पृथक २ मंडियां थीं।।७५२।। कंदं मलर् कंदम् विळं कैलव रोरुपा। लंदनिला वरिव नुरे याले यंग कोरुपाल् ॥ वंदुलग मिरजं मन्न निरुक्कु निडमोरुपा । लेदं मिला विण्णविड मियाकुं मुरै परिदे ॥७५३॥ अर्थ-अत्यन्त सुगन्धित चूर्ण मसाले आदि बनाने वाले लोगों की दुकानें अलग २ स्थानों पर थीं। भगवान अहंत देव के चैत्यालय वहां एक ओर बने हए थे। मानवों के द्वारा पूजनीय राजमार्ग, राजमहलात एक अोर थे। इस प्रकार नगरी की शोभा का वर्णन करना मेरी अल्प बुद्धि में अशक्य है। इस प्रकार वह चक्रपुर नगर शोभनीय था ॥७५३।। इन्नग रिवर किरव नेत्तरिय कीति । मण्णन रपराजितन वयप्पुलि योडप्पा ।। नन्न मनैयार मदन नांड कैप्पुयत्त । तुन्निय वसुंदरि तुळुबिय नलत्ताळ ॥७५४॥ अर्थ-उस नगर की कीर्ति चारों ओर फैली थी। उस चक्रपुर नगर का अपराजित नाम का राजा था। उसकी सर्व गुण सम्पन्न, सुन्दर, शुभ लक्षण वालो, हंसगामिनी वसुन्धरा नाम की पटरानी थी ॥७५५।। मळले किळि तेनमिदं वान् करंबु नल्लि याळ । कुळलोत्तेळु मुळि मदनन् कोहि मैलं शाय ।। लुळं र कोलि नोकत्तुरु वोक्कोहि ईनोडु । मळलुत्तिडं वेळ नंडा नमरं दुळ गुं वळिनाळ ॥७५५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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