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________________ मेरु मंदर पुराण पगरोना तन परिवारमं तन्नोडु। पुगरिळा वानंदम पोड़ तोड़ मे ॥११४१॥ अर्थ-ऊपर कही हुई ध्वजाए बीच में रहने वाले अहंत भगवान के चारों ओर हैं। त्रिमेखला जगती के ऊपर रहने वाले मकान तथा ध्वजाए सूर्य के प्रकाश के समान प्रतिभासित होती हैं। वह मण्डप एक कोस ऊंचा है। उस मंडप में रहने वाले स्थान २ के चारों दिशामों को छोडकर उसमें रहने वाले चारों द्वारों से युक्त जो जिन चैत्यालय हैं उनके कौनों में छह चैत्यालय हैं। एक २ चैत्यालय के मध्य भाग में रहने वाले अनेक चैत्यालय और हैं। उनका वर्णन करना साध्य नहीं, ऐसे भगवान के प्रतिबिम्ब प्रातिहार्यों सहित हैं। वे काच के समान चमकदार देखने में प्रतीत होते हैं ॥११४०॥११४ ।। विल्लुमेळ दिडु मरिण मिडेंद मेनिय । नल्ल नामंगना ळार मेविन् । शेल्व मुंतिन्मयु मरिवं वेंड्रियु । नळ गुव नाट्रिकु मुगमु नान्गवे ॥११४२॥ अर्थ-वह जिन प्रतिमा अत्यन्त प्रकाशमान चौबीस तीर्थकरों के नामों से प्रसिद्ध है। उन प्रतिमाओं के दर्शन करने वाले भव्य जीवों को संपत्ति,पराक्रम तथा ज्ञान प्रादि की प्राप्ति होती है । वहां के प्रत्येक प्रतिबिम्ब चतुर्मुखी हैं ॥११४२।। नाद नुळ्ळ रु नान् मुगं पोळ नळ । वायद नान कुडमंडप नांगिनुत् ॥ शांत कुंभ मंजंगन मैंदुवित् । ळोदु मैंबदु मोंगि यगंडवे ॥११४३॥ अर्थ-उन चतुर्मुखी जिन बिम्ब चतुराननत्व के सामने वहां चार वीथी हैं । जगती तल मंडपों के चार द्वार हैं । प्रत्येक द्वार के बाहर चबूतरा है जिस पर स्वर्ण के कुम्भ लगे हुए हैं। इस चबूतरे का उत्सेध पांच सौ धनुष है। इसी प्रकार प्रत्येक वीथी में प्रत्येक द्वार पर चबूतरे हैं ॥११४३॥ मारि पोळ मुळेगुव मजिन मेळ् । मेरि नानमुग शंख मिरंडळ ॥ कारि नुन्मळि सूर्य नेर् पोनिन् । वारिन वंविळि कंडयु मागुमे ॥११४४॥ पर्थ मेघ की गर्जना के समान अनेक प्रकार की भेरी शंख आदि वाद्य बजते रहते हैं । चबूतरे से नीचे उतरते समय बीच में एक जयघंटा है ।।११४४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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