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________________ २८४ ] मरु मंदर पुराण वासत्तै वैतुप्पिन मायु मारु पोल् । पेसिडो पिरिदोड्डु निर्कवे ॥६५६।। अर्थ-पुष्पों में रहने वाली सुगंध, पुष्प के सूख जाने पर वह दूसरे पुष्पों में चली जाती है । इसी प्रकार "न" अक्षर को कहने वाले मरने के बाद म अक्षर का उच्चारण होता है । यदि तुम ऐसा कहते हो तो एक मनुष्य मरने के बाद पुनः उत्पन्न होता है जैसे म अक्षर की बाद में उत्पत्ति होती है। ऐसा कहा जाय तो उस सुगन्ध पुष्प के मरने (सूखने) के पहले ही अपने समीप से रहने वाले पुष्प की सुगन्ध को देखकर मरण को प्राप्त होना तुम कहोगे तो "म" ऐस। अक्षर को कहने वाले मनुष्य मरने के पहले ही उनके पास रहने वाले मनुष्य को "न" ऐसा कहने वाले अक्षर को अपने पास खडा रहने वाले "म" नाम के अक्षर को देखकर मर जाता है, ऐसा अर्थ निकलता है। क्या वह पहले ऐसा देखकर मर गया यह अर्थ तुम्हारे मत के अनुसार निकलता है ।।६५६ ।। मुर्कनत्तुरै त्तवन मुडिद पोळदि निर् । पिर्कन तुरै पवन पिरक्कु मेंड्रलान् । मुर्कनत्तवनोडु पिर्कनत्तव । निकुं मैंड्र र दिडि नित्तमागुमे ॥६५७॥ अर्थ-अतीत काल में कहा हुअा मनुष्य भविष्य में उत्पन्न होने वाले मनुष्य को वह समझकर कहता है । ऐसा यदि तुम कहोगे तो वह जीव नित्य है ऐसा तुम्हारे मत के अनुसार वह जीव नित्य है ऐसा सिद्ध होता है ॥६५७।। नविन शय निनित्तान् शयान पिन । योविन शैदव नदन् पयंड्र, वा ।। निव्वर्ग यनित्तमे येंड्र रे पवर् । शेय्यु नल् विनेगळं पयनु मिल्लये ॥६५८।। अर्थ-सर्वदा जीव अनित्य है, ऐसा कहा जावे तो पुण्य कार्य की इच्छा करने वाला जीव भविष्य में शुभ कार्य करने की इच्छा कैसे करेगा और उसके फल को कैसे भुगतेगा? इसलिये वस्तु को यदि अनित्य ही कहा जावे तो शुभाशुभ प्राचरण करने वाले को शुभाशुभ कार्य का फल का अनुभव कैसे होगा ? अर्थात् नहीं होगा। ऐसा आपके मत के अनुसार सिद्ध हुआ। पर कर्मों के अनुसार जीव शुभ अशुभ फल भोगता है। यह तुम्हारे मत के अनुसार कैसे सिद्ध हुप्रा । प्राप्तमीमांसा में कहा है: "सर्वथाऽनभिसंबंधः सामान्य-समवाययोः। ताभ्यामर्थो न संबंधस्तानि श्रोणि ख-पुष्पवत् ।। सामान्य और समवाय का वैशेषिकों ने सर्वथा संबंध माना है । फिर इन दोनों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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