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________________ मेरु मंदर पुराण [ १०६ उत्पन्न हुआ और विचारा कि पूर्व जन्म का यह मेरा बैरी है, इसको ऐसे ही नहीं छोडना चाहिये । तदनंतर उनसे बदला लेने की इच्छा से जबरदस्ती से बलपूर्वक मुनि को घसीटकर विमान में बैठाकर लाया और लाकर उसने क्या किया सो प्रव बतलायेंगे। हे बलशाली धरणेंद्र ! सुनो। पांच नदियों के किनारे पर अर्थात् गजावती, कुमुदवती, हरितवती, स्वर्णवती और चडवेग इन नदियों के किनारे पर उन को छोडकर वह विद्युद्दष्ट्र वापस लौटकर अपने नगर में पाया और पाकर वहां की प्रजा से कहा कि हमारे पट्टन के नजदीक एक भयंकर काला राक्षस आया है । वह बहुत विकराल है, मनुष्याकार है और सदैव वह मुरदे को ही खाता है और कोई दूसरी वस्तु नहीं खाता और इतना खाने पर भी उसका पेट नहीं भरत। । इसलिये आज वह राक्षस हमारे नगर में आकर भक्षण करने वाला है, इस कारण हम सब लोगों को मिलकर उस राक्षस को मार डालना ही उचित है। ऐसा हम लोगों को उस विद्यद्दष्ट्र ने कहा । पूनः यह और कहने लगा कि यह विचार मत करो कि वह हमारा क्या नहीं करेगा? वह तो आठ दिन में हम सबको खा जावेगा - इसमें कोई शंका व संदेह नहीं है । इस प्रकार उस दुष्ट विद्युद्दष्ट्र ने हमसे कहा ।।१८२।। अरिविलान् शोल्ल मयंजिनो मडैयक्कूडि । मरुविलान् द्रवत्तिन् ट्रन्मै पयत्तै नामदिक्क माटा। शिरियर् याम सैदतीमै पेरियैनी पोरुक्कल वेंडु । मिरवने येडुत्त काटा मेंडूवर पनिटु निड्रार् ।।१८३।। अर्थ - उस दुष्ट विद्युद्दष्ट्र के इन वचनों से हमारे मन में अत्यंत भय उत्पन्न हुआ। सम्पूर्ण दोषों से रहित निर्मोही निरारंभी, निस्संग, निर्दोष, सर्वसंघ परित्यागी, विषय आशा से रहित, धर्म ध्यान सहित, प्रात्मध्यान में लग्न, सद्गुणी ऐसे महामुनि के तपश्चरण के महत्व व गुणों को न जानकर अज्ञान से मूढ हुए हम विद्याधरों के द्वारा किये हुए अपराधों करना चाहिये । हमारे द्वारा किये गये घोर उपसर्ग को सहन करके संजयंत मुनि ने कर्मों का क्षय करके मोक्ष पद को प्राप्त किया। वे धन्य हैं किन्तु हम पापी लोग इस कुकृत्य से कौन सी गति में जाकर पडेंगे, यह नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार नत मस्तक होकर सारे विद्याधर धरणेंद्र से क्षमा याचना करने लगे ।।१८३॥ पुलिइनै कंडु पोक ट्रॉद पुलवायगळ पोल । मेलियव रुरैक नेंज कुळे दु पासत्तैनीकि । पलरयुं पोगविट्टि पावियें सुत्तोडु। मोलि कडलिडुव नेन्ना उडंडवनेद पोळ दिल ॥१८४।। अर्थ-जिस प्रकार व्याघ्र को देखकर हरिण आदि पशु भयभीत हो जाते हैं, कोई भी उसके सामने नहीं ठहर सकता, उसी प्रकार धरणेंद्र से भयभीत होकर सभी विद्याधर घबराने लगे और सभी ने मिलकर क्षमायाचना की। उसी समय धरणेंद्र के मन में दया मा गई और विद्युद्दष्ट्र के सभी बंधुओं को नाग फांस से छुडा दिया। किन्तु विद्यु ६ष्ट्र व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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