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________________ मेरु मंदर पुराण [ १५६ सिंह के समान बडे पराक्रमी पहलवान आदि राजा के वचन सुनकर, गदा, प्रायुध लेकर शिवभूति के घर पर गये और उनका घरबार सब जाकर लूट लिया ।।३१६।।३१७।। कुरिण शिल कडवळ पोलुं कोट्रवन कुरिप्पै नोका । परगइन वेजिलै कळदि पाडिकापार्गळ सूळं दार ।। निनवरु पेरिय शेलवं निनिप्पदन मुन्नं नीराय । परिणयिन् मुन्मलरं द सेंदामरित्तडं पोंड दंड ॥३१८॥ मलै मिर्श शिंग वे, वरुत्तु मान कंड, पोल । तलै मिशै शवटै इटु शानगं तीट्रि इट्टार ॥ पुलयर शंडवने सूळ्दुं पोगेन उरैप्प सुद्र। मलै कडर् कलिळ नावा यवरुट्र दुट दंड ॥३१६॥ अर्थ-लोभ के वशीभूत होकर जीव क्या २ काम नहीं करता? वह कार्य प्रकार्य का कभी भी विचार नहीं करता है । गुण भद्राचार्य ने अपने प्रात्मानुशासन में कहा है किः विषधारी सर्प के तुल्य, अनेक भव पर्यंत दुःख देने वाले भोगों को सेवने की अत्यंत उत्सुकता धारण करके मैंने आगे के लिए दुर्गति का बंध किया, अतएव अपने उत्तर भवों को नष्ट कर दिया। और अनादिकाल से लेकर अभी तक मरण के दुख भोगे, तो भी तू उन दुःखों से डरता नहीं है । निर्भय हो रहा है । जिस २ कार्य को श्रेष्ठ जनों ने बुरा कहा उसी २ को तूने अधिकतर चाहा और किया। इससे जान पडता है कि तेरी बुद्धि नष्ट हो गई है और तुझे ग्रागामी सुखी होने की इच्छा नहीं है । इसीलिये तू निन्दित कार्य करके अपने सर्व सुख वृथा नष्ट करना चाहता है । ठीक ही है -काम क्रोध रूप बडे भारी पिशाच का जिसके मन में प्रवेश हो जाता है वह क्या नहीं करता है ? उसको हिताहित का विवेक कहां से रह सकता है ? तत्पश्चात् सभा में रहने वाले सभी लोगों ने मिलकर जैसे पर्वत की चोटी पर बलवान सिंह रहता है उसको क्षुद्र जंतु भी मारकर नोचकर खा जाते हैं, उसी प्रकार सभी लोगों ने उस शिवभूति को खूब मारा पीटा, गोबर खिलाया और पहलवानों के द्वारा गदाओं तथा मुक्का आदि से उसको मरवाया। और मार पीट कर नगर के बाहर निकाल दिया। तब शिवभूति उस नगर को छोडकर अन्य स्थान पर चला गया। उस शिवभूति के सभी कटम्बी जिस प्रकार माल से भरा हा जहाज समद्र में डूब जाता है और संबंधित व्यापारी दुखा होते हैं उसी प्रकार दुखी होकर शिवभूति पर आपत्ति आने पर वे सब दुख समुद्र में डूब गये ।।३१८।।३१६।। मुन्पगर देवनेंड. मोय तुडन पुगळ पट्टान् । पिर्पगल पेयनेड, पिनसेला दिगळ पट्टान् ॥ अंबुरु मिळमै मूपिलरिवयर कोरुव नुतान् । मुन्बुतान् शैदु वंद विधि मुरै उदयत्ताले ॥३२०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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