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________________ मेरु मंदर पुराण में थे। उस समय एक महामुनि दिगम्बर साधु जंगल में विराजमान थे। उस भील राजा ने उनको जंगली मृग समझकर जब बाण उठाया तब उसकी स्त्री ने उसे समझाया कि यह वन देवता हैं, इनको मारना उचित नहीं है। तव भील ने आकर देखा और नमस्कार करके पूछा कि तुम कौन हो? उन्होंने कहाकि मैं साधु हूं। तत्पश्चात् मुनि ने पुण्य, पाप, पुनर्जन्म, मरण, राग-द्वेष आदि के सबन्ध में भील को समझाया। मुनि का उपदेश सुनकर उस भील को धर्म पर पूर्ण श्रद्धा हो गई और उस भील ने मांस, मदिरा प्रादि न खाने तथा शिकार न ग्वेलने की प्रतिज्ञा की और स्थूल रूप से पांच अणुव्रत को पालन करने का नियम लिया । उसी भील राजा ने क्रम से अपनी पर्याय से मनुष्य जन्म में आकर सोलह कारण भावना भाई और तीर्थकर प्रकृति का बंध कर लिया और आज वही भील का जीव नेमिनाथ तीर्थकर हमारे लिये पूज्य हो गये । साधु के उपदेश से अवश्य जीव का कल्याण हो जाता है। इसी प्रकार संजयंत मुनि के प्रभाव से जंगल में क्रूर हिंसक पशु परस्पर प्रेम से किलोलें करते हुए रहने लगे ।।१४२।। येलिशेंड्र, नागं नन्मेलिडं नागम् कीरि। नलियु मेंड्रज लिल्नं मानमा बालिन् मुळळं ॥ पुलिसेंड. वांगुं पुलवाय किडंदुळि नडुंगु मेंड.। नलिव शेवेडर् सेल्लार सेट मिनट्र वत्ताल ॥१४॥ अर्थ-एकाग्र मन से बाह्य और प्राभ्यंतर परिग्रहों को त्याग कर मन, वचन, काय ऐमे त्रिगप्ति से चार प्रकार के प्रहार भय, मैथन और परिग्रह को त्याग करके विषयों में जाने वाले मन के उपयोग को प्रात्म-ध्यान में एकाग्र करके छह आवश्यक क्रियाओं में मग्न होकर पुण्य और पाप तथा अशुभ व शुभ क्रिया को त्याग कर वे मुनि शुक्ल ध्यान में मन्न हो गये ॥१४३॥ ओरु वर्ग पट्ट उळ ळं तिरुवर्ग तुरतु तन्नान् । मरुविय कुत्ति मंदिर सन्नैगमाट्रि॥ पोरुविलंबोरि सेरित पोरुदि या वास मारिन् । इरुवर्ग सविलिसाय रेळ वर शेरिय वैत्तान् ।।१४४॥ अर्थ-आठ प्रकार की शुद्धि से युक्त संजयंत मुनि नव विध योग के द्वारा दस प्रकार के आस्रव को रोकने के कारण ऐसे एकादशांग शास्त्र पठन पाठन में लीन होकर श्रुत ज्ञान से युक्त मन के द्वारा बारह अनुप्रेक्षात्रों को भाते हुए त्रयोदश चारित्र को निरतिचार पूर्वक पालन करने में मग्न थे। आठ प्रकार की शुद्धिः १. परिणाम शुद्धि २. विनय शुद्धि ३. ईर्यापथ शुद्धि ४. प्रतिष्ठापन शुद्धि ५. शय्यासन शुद्धि ६. वाक्य शुद्धि ७. भिक्षा शुद्धि ८. काय शुद्धि । ऐसे पाठ प्रकार की मृद्धि से काय को शुद्ध कर मात्म ध्यान में लवलीन थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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