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________________ -~~~-rrrrrrrrrr. मेरु मंदर पुराल [ ४२३ पिरप्परिदृदिरुंद वीरन पेरुमय सिरिदु काट । विरप्पवु मुयरं व देव राजना लियंड देड्रो॥१०८६॥ अर्थ-तदनन्तर वे मेरु व मंदर दोनों राजकुमार उस समवसरण में रहने वाले कल्पवृक्ष की भूमि से अष्ट द्रव्य सहित प्रांगण वाली उस भूमि में प्रवेश करते ही ऐसा मालूम होता था जैसे कि देवलोक में प्रवेश कर रहे हैं। ऐसा मानन्द प्रतीत होता था कि उसके समान अन्य कोई स्थान ही नहीं है । उस भूमि वर्णन करना अवर्णनीय है । इस प्रकार भगवान के अतिशय को दिखाने वाले देवों ने समवसरण की रचना की ।।१०८६॥ पळिक्कु नळमि देवावियुट् बत्तु । कुळिक्क वोदवर काना कोट्टि शिरिप्पर नोका ॥ पळिक्कर तळतै वेळकप्परप्पेंड, पातुं मोक्वा । रुकिप्पिकं वीवटें पित्ति बैंड, पो कद्र. निपार् ॥१०६०॥ अर्थ-वे दोनों कुमार उस रत्नजडित भूमि में रहने वाली बावडियों में अपने २ हाथ पांव धोने तथा स्नान करने उतरे इनको ऐसा करते देखकर वहां के रहने वाले लोग हंसने लगे। क्यों हंसने लगे ? वास्तव में बावडियों में पानी नहीं था बल्कि स्फटिक मरिण के समान वे जल पूर्ण बावडियां प्रकाशमान हो रही थीं । उसी को पानी समझकर वे नीचे उतरे थे। कितु केवल प्रकाश देखकर ही तथा पानी न होने के कारण वे मेरु और मंदर वहां से वापस लौटकर और कहने लगे कि काच सा है पानी नहीं है ।। ६०॥ कदिर मरिण माउन सम्मै कन्नुरुवार तर साये । यदिर् वरु बार योप विडंदिरंदे निर्षर् ।। मदुरमाम् तन सोदामे तमक्केदिर मादमाग । वेदिरेबिर् मोळिगिन गिहारोत्ति सुवरेंगु मेंगुम् ॥१०६१॥ अर्थ-स्फटिक मरिण से निर्माण किए उन मंदिरों की चमक से अपने ही प्रतिबिम्ब को उसमें देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे उसी के समान दूसरे मादमी का प्रतिबिम्ब हो ऐसा समझकर वे वहां से हट जाते थे। जब वे बोलते थे तो उनकी भावाज ऐसे नूंजती पी मानों भादमी बोल रहा हो ॥१०६१॥ घर पुरयु माळिगइनिरेगळवै योर पाम् । परुवियोळि तेरुव पळ मंडपग ळोपाल । मरुविना मरि बरिय माड निरं यह पाल । परुमरिणय तूनिरंय पाडळिडमुरुपाळ् ॥१०६२॥ -उस कल्पवृक्ष को भूमि में बडे २ पर्वतों के समान विशाल भवन ये। दूसरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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