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मेर मंदर पुराण इन दुखरूपी हाथियों से भरे हुए व हिंसादि पापों के वृक्षों को खोटे मार्ग में नित्य पटकने वाले संसार वन में सर्व ही प्राणो भटका करते हैं। इस वन के बीच में जो चतुर पुरुष सुगुरु के दिखाये हुए मार्ग में चलना शुरू कर देता है वह परमानन्दमई उत्कृष्ट व स्थिर एक निर्वाण रूपी नगर में पहुंच जाता है ॥६१०॥
मउंदयर मनत्तिनुस कडिदु मायं दिडु । मुडंबोदु किळयन बुळ्ळं वैत्तवन ॥ दडंगन वेम्मुलयवर् सूळचांबिय ।
मडंगल पोल मल निड, निलैत्तिन वंदनन् ॥६११॥ अर्थ-इस शरीर संबंधी पुत्र, मित्र. बंधु, बांधवादिक जितने भी दीखते हैं वे सब मसद्भूत चारित्र हैं। और वे असद्भूत चारित्र होने से क्षणिक और चंचल हैं, शीघ्र ही नष्ट होने वाले हैं। इस प्रकार वह पार्यावर्त विचार करके कि यह सब अनित्य है, एकत्व भावना का चितवन करने लगा और इस प्रकार भावना भाते समय उनकी महारानी प्रादि सब कुटुम्ब के लोग वहां उनके पास माये तब उनको संबोधन करके ससार को असारता का उपदेश देकर वैराग्य युक्त होकर विजयाई पर्वत पर से नीचे आ गये । और नीचे आकर उस जंगल में घोर तपश्चरण करने वाले निग्रंथ मुनिराज को देखा और देखते हो शीघ्रता से उनके पास बाकर भक्ति पूर्वक स्तुति करके बारंबार नमस्कार किया। तत्पश्चात् बहुत विनय के साथ उनसे प्रार्थना करने लगा कि हे प्रभु ! प्रष्ट कर्मों के मर्मों को तथा स्वरूप को समझने की मेरी भावना है । कृपा करके उसको मुझे समझाकर प्रतिपादन करें ॥११॥
मलविन् माववन मामुनि चंदिरन् । ट्रलव नन्नवन् दन् चरणंबुयम् ।। निलनु रप्परिणदेत्ति निड्रेन्विने । फलमेनो पनिक्केंड, पनिंदनन् ॥६१२॥ परिप्रोडा लोगम् तम्ने यारिरुळ पोल निड़.। मरुदले शेयुं ज्ञान काक्षिया वरनुं वाळि॥ नेरियं वायरिंडि नोडिनम् नमिर्दम् पूशि ।
सेरिय नावत्त लुक्कुंतीय नल वेदनीयम् ॥६१३॥ मथं-तदनन्तर पार्यावर्त राजा की प्रार्थना को सुनकर वे मुनिराज कहने लगेमानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय ये चार घातिया कर्म हैं और प्रायु,नाम,गोत्र, वेदनीय ये प्रघातियां कर्म हैं । ये घातिया कर्म आत्म स्वभाव को हमेशा घात करते आये हैं । इस कारण यह सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यकचारित्र के निज स्वरूप को घातते हैं, और संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं । ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय जिस प्रकार अंधकार में रखी हुई वस्तु दिखाई नहीं देती उसी प्रकार दर्शन और ज्ञान का आवरण करके अपने मात्म-स्वरूप का प्रावरण कर देते हैं । और उसमें सात तथा असाता वेदनीय दोनों कर्म विष
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