Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि (मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, तुलनात्मक टिप्पण) .. HOOLOOOOOOrolor OOOOOOOOOOOOOD वाचना-प्रमुख आचार्य तुलसी संपादक : विवेचक आचार्य महाप्रज्ञ lain Education Interational For Private Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ( मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, तुलनात्मक टिप्पण) वाचना- प्रमुख आचार्य तुलसी संपादक : विवेचक आचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशक जैन विश्वभारती लाडनूं ( राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : जैन विश्वमारती लाडनूं-३४१३०६ © जैन विश्व मारती प्रथम संस्करण : १९६७ द्वितीय संस्करण : १९९३ तृतीय संस्करण : २००० चतुर्थ संस्करण : २००६ सौजन्यः सुश्रावक स्वर्गीय श्री संतोक चंदजी ललवानी एवं सुश्राविका सुगनी देवी ललवानी की पावन स्मृति में उनके सुपुत्र कमल किशोर ललवानी (नोखा- कोलकाता) पृष्ठ संख्या : ७६७ टाईप सेटिंग : सर्वोत्तम प्रिण्ट एण्ड आर्ट मूल्य : ६००/-रुपये मुद्रक : कला भारती, शाहदरा, दिल्ली-११००३२ Jain Education Intemational Education International Fo Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Uttarajjhayanani (Prakrit Text, Sanskrit renderings, Hindi translation and Comparative notes) Vachana Pramukh Acharya Tulsi Editor and Annotator Acharya Mahaprajna Publisher JAIN VISHVA BHARTI LADNUN (Rajasthan) Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publisher : Jain Vishva Bharati Ladnun-341306 © Jain Vishva Bharati ISBN-81-7195-046-9 First Edition : 1967 Second Edition : 1993 Third Edition : 2000 Fourth Edition : 2006 Courtsey : Sh. Kamal Kishor Lalwani. In the memory of his Father Late Sh. Santok Chand Ji Lalwani and his Mother Late Smt. Sugani Devi Lalwani. (NOKHA- KOLKATA) Page : 767 Price : Rs. 600/ Type Setting : Sarvottam Print & Art Printers : Kala Bharati, Shahdara Delhi-110032 Jain Education Intemational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ॥१॥ पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो, आणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं। सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाण पुव्वं ।। जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था। सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से।। ॥२॥ विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीय मच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाण पुव्वं ।। जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत। श्रुत-सद्ध्यान लीन चिर चिंतन, जयाचार्य को विमल भाव से।। ॥३॥ पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाण पुव्वं ।। जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में मेरे मन में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से।। विनयावनत आचार्य तुलसी Jain Education Intemational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है, उस माली का जो अपने हाथों से उप्त और सिञ्चित द्रुम-निकुञ्ज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन-आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगें। संकल्प फलवान् बना और वैसा ही हुआ। मुझे केन्द्र मान मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया। अतः मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है संपादक : विवेचक सहयोगी सहयोगी आचार्य महाप्रज्ञ मुनि दुलहराज मनि सुमेरमल 'लाडनू' मुनि श्रीचन्द 'कमल' संस्कृत छाया संविभाग हमारा धर्म है। जिन-जिनने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान् कार्य का भविष्य बने। आचार्य तुलसी Jain Education Intemational Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय 'उत्तरज्झयणाणि' मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं टिप्पणियों सहित दो भागों में प्रकाशित किया जा रहा है। पहले भाग में बीस अध्ययन हैं। शेष अध्ययन तथा विविध परिशिष्ट दूसरे भाग में संदृब्ध होंगे। वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलसी एवं उनके इंगित और आकार पर सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले मुनि-वृन्द की यह समवेत कृति आगमिक कार्य-क्षेत्र में युगान्तकारी है। इस कथन में अतिश्योक्ति नहीं, पर सत्य है। बहुमुखी प्रवृत्तियों के केन्द्र प्राणपुज आचार्य श्री तुलसी ज्ञान-क्षितिज के एक महान् तेजस्वी रवि हैं उनका मण्डल भी शुभ्र नक्षत्रों का तपोपुञ्ज है। यह इस अत्यन्त श्रम-साध्य कृति से स्वयं फलीभूत है। गुरुदेव के चरणों में मेरा विनम्र सुझाव रहा-आपके तत्त्वावधान में आगमों का सम्पादन और अनुवाद हो—यह भारत के सांस्कृतिक अभ्युदय की एक मूल्यवान् कड़ी के रूप में चिर-अपेक्षित है। यह अत्यन्त स्थायी कार्य होगा, जिसका लाभ एक-दो-तीन नहीं अपितु अनेक भावी पीढ़ियों को प्राप्त होता रहेगा। मुझे इस बात का अत्यन्त हर्ष है कि मेरी मनोभावना अंकुरित ही नहीं, पर फलवती और रसवती भी हुई है। ___ 'दसवेआलियं' की तरह ही 'उत्तरज्झयणाणि' में भी प्रत्येक अध्ययन के आरम्भ में पांडित्यपूर्ण आमुख दे दिया है, जिससे अध्ययन के विषय का सांगोपाङ्ग आभास हो जाता है। प्रत्येक आमुख एक अध्ययनपूर्ण निबन्ध-सा है। प्रत्येक अध्ययन के अन्त में तद् अध्ययन गत विशेष शब्दों तथा विषयों पर तुलनात्मक विमर्श प्रस्तुत किया गया है। प्रयत्न यह किया गया है कि कोई भी शब्द या विषय विमर्श शून्य न रहे। टिप्पण गत विमर्श के संदर्भ भी सप्रमाण नीचे दे दिए गए हैं। तेरापंथ के आचार्यों के बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने प्राचीन चर्णि. टीका आदि ग्रन्थों का बहिष्कार कर दिया। वास्तव में इसके पीछे तथ्य नहीं था। सत्य जहां भी हो वह आदरणीय है, यही तेरापंथ आचार्यों की दृष्टि रही। चतुर्थ आचार्य जयाचार्य ने पुरानी टीकाओं का कितना उपयोग किया था, यह उनकी भगवती जोड़ आदि रचनाओं से प्रकट है। 'दसवेआलियं' तथा 'उत्तरज्झयणाणि' तो इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीकाओं आदि का जितना उपयोग प्रथम बार वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलसी एवं उनके चरणों में सम्पादन-कार्य में लगे हुए युवाचार्य महाप्रज्ञ तथा उनके सहयोगी साधुओं ने किया है, उतना किसी भी अद्याविध प्रकाशित सानुवाद संस्करण में नहीं हुआ है। सारा अनुवाद एवं लेखन-कार्य अभिनव कल्पना को लिए हुए है। मौलिक चिन्तन भी उनमें कम नहीं है। बहुश्रुतता एवं गंभीर अन्वेषण प्रति पृष्ट से झलकते हैं। हम आशा करते हैं कि दो भागों में प्रकाशित होने वाला यह ग्रन्थ पाठकों को नई सामग्री प्रदान करेगा और वे इसे बड़े ही आदर के साथ अपनायेंगे। आभार आचार्य श्री सुदीर्घ दृष्टि अत्यन्त भेदिनी है। जहां एक ओर जन-मानस को आध्यात्मिक और नैतिक चेतना की जागृति के व्यापक आंदोलनों में उनके अमूल्य जीवन-क्षण लग रहे हैं वहीं दूसरी ओर आगम-साहित्य-गत जैन-संस्कृति के मूल सन्देश को जन-व्यापी बनाने का उनका उपक्रम भी अनन्य और स्तुत्य है। जैन-आगमों को अभिलषित रूप में भारतीय एवं विदेशी विद्वानों के सम्मुख ला देने की आकांक्षा में वाचना प्रमुख के रूप में आचार्य श्री तुलसी ने जो अथक परिश्रम अपने कन्धों पर लिया है, उसके लिए जैन ही नहीं अपितु सारी भारतीय जनता उनके प्रति कृतज्ञ रहेगी। आचार्य महाप्रज्ञजी का सम्पादन और विवेचन कार्य एवं तेरापंथ-संघ के अन्य विद्वान् मुनि-वृन्द का सक्रिय सहयोग भी वस्तुतः अभिनन्दनीय है। हम आचार्य श्री और उनके साधु-परिवार के प्रति इस जन-हितकारी पवित्र प्रवृत्ति के लिए नतमस्तक हैं। दीपावली १६६२ लाडनूं श्रीचन्द रामपुरिया कुलाधिपति जैन विश्वभारती संस्थान Jain Education Intemational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय प्राचीन साहित्य का संपादन सम्पादन का कार्य सरल नहीं है यह उन्हें सुविदित है, जिन्होंने इस दिशा में कोई प्रयत्न किया है। दो-ढाई हजार वर्ष पुराने ग्रन्थों के सम्पादन का कार्य और भी जटिल है, जिनकी भाषा और भावधारा आज की भाषा और भावधारा से बहुत व्यवधान पा चुकी है। इतिहास की यह अपवाद - शून्य गति है जो कि विचार या आचार जिस आकार में आरब्ध होता है, वह उसी आकार में स्थिर नहीं रहता। या तो वह बड़ा हो जाता है या छोटा । यह ड्रास और विकास की कहानी ही परिवर्तन की कहानी है और कोई भी आकार ऐसा नहीं है जो कूल है और परिवर्तनशील नहीं है। परिवर्तनशील घटनाओं, तथ्यों, विचारों और आचारों के प्रति अपरिवर्तनशीलता का आग्रह मनुष्य को असत्य की ओर जाता है। सत्य का केन्द्र-बिन्दु यह है कि जो कृत है, वह सब परिवर्तनशील है। कृत या शाश्वत भी ऐसा क्या है, जहां परिवर्तन का स्पर्श न हो। इस विश्व में जो है, वह वही है जिसकी सत्ता शाश्वत और परिवर्तन की धारा से सर्वथा विभक्त नहीं है। 1 शब्द की परिधि में बंधने वाला कोई भी सत्य ऐसा हो सकता है, जो तीनों कालों में समान रूप से प्रकाशित रह सके ? शब्द के अर्थ का उत्कर्ष या अपकर्ष होता है— भाषाशास्त्र के इस नियम को जानने वाला यह आग्रह नहीं रख सकता कि दो हजार वर्ष पुराने शब्द का आज वही अर्थ सही है, जो आज प्रचलित है। “पाषण्ड" शब्द का जो अर्थ ग्रन्थों और अशोक के शिलालेखों में है, वह आज के श्रमण - साहित्य में नहीं है। आज उसका अपकर्ष हो चुका है आगम- साहित्य के सैकड़ों शब्दों की यही कहानी है कि वे आज मौलिक अर्थ का प्रकाश नहीं दे रहे हैं। इस स्थिति में हर चिन्तनशील व्यक्ति अनुभव कर सकता है कि प्राचीन साहित्य के सम्पादन का काम कितना दुरूह है। I मनुष्य अपनी शक्ति में विश्वास करता है और अपने पौरुष से खेलता है, अतः वह किसी भी कार्य को इसलिए नहीं छोड़ देता कि वह दुरूह है । यदि यह पलायन की प्रवृत्ति होती तो प्राप्य की संभावना नष्ट ही नहीं हो जाती किंतु आज जो प्राप्त है, वह अतीत के किसी भी क्षण में विलुप्त हो जाता। आज से हजार वर्ष पहले नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के सामने अनेक कठिनाइयां थीं उन्होंने उनकी चर्चा करते हुए लिखा है :१. सत् सम्प्रदाय (अर्थ- बोध की सम्यक् गुरु- परम्परा ) प्राप्त नहीं है। २. सत् ऊह (अर्थ की आलोचनात्मक कृति या स्थिति) प्राप्त नहीं है। ३. अनेक वाचनाएं (आगमिक अध्यापन की पद्धतियां ) हैं । ४. पुस्तकें अशुद्ध हैं। ५. कृतियां सूत्रात्मक होने के कारण बहुत गंभीर हैं। ६. अर्थ-विषयक मतभेद भी हैं। इन सारी कठिनाइयों के उपरांत भी उन्होंने अपना प्रयत्न नहीं छोड़ा और वे कुछ कर गए। कठिनाइयां आज भी कम नहीं हैं किन्तु उनके होते हुए भी आचार्य श्री तुलसी ने आगम-संपादन के कार्य को अपने हाथों में ले लिया । आगम- संपादन की प्रेरणा और संकल्प विक्रम सम्वत् २०११ का वर्ष और चैत्र मास । आचार्यश्री तुलसी महाराष्ट्र की यात्रा कर रहे थे । पूना से नारायणगांव की ओर जाते-जाते मध्यावधि में एक दिन का प्रवास 'मंचर' में हुआ। आचार्यश्री एक जैन परिवार के भवन में ठहरे थे । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) वहां मासिक पत्रों की फाइलें पड़ी थीं। गृह स्वामी की अनुमति ले, हम लोग उन्हें पढ़ रहे थे। सांझ की वेला, लगभग छह बजे होंगे। मैं एक पत्र के किसी अंश का निवेदन करने के लिए आचार्य श्री के पास गया। आचार्य श्री पत्रों को देख रहे थे। जैसे ही मैं पहुंचा, आचार्यश्री ने धर्मदूत के सद्यस्क अंक की ओर संकेत करते हुए पूछा - "यह देखा कि नहीं ?” मैंने उत्तर में निवेदन किया- “नहीं, अभी नहीं देखा।” आचार्यश्री बहुत गम्भीर हो गए। एक क्षण रुक कर बोले-“इसमें बौद्ध-पिटकों के सम्पादन की बहुत बड़ी योजना है। बौद्धों ने इस दिशा में पहले ही बहुत कार्य किया है और अब भी बहुत कर रहे हैं। जैन आगमों का सम्पादन वैज्ञानिक पद्धति से अभी नहीं हुआ है और अभी ध्यान भी नहीं दिया जा रहा है।” आचार्यश्री की वाणी में अन्तर वेदना टपक रही थी, पर उसे पकड़ने के लिए समय की अपेक्षा थी । रात्रिकालीन प्रार्थना के पश्चात् आचार्य श्री ने साधुओं को आमंत्रित किया। वे आए और वन्दना कर पंक्तिबद्ध बैठ गए। आचार्यश्री ने सायंकालीन चर्चा का स्पर्श करते हुए कहा- “जैन आगमों का कायाकल्प किया जाये, ऐसा संकल्प उठा है। उसकी पूर्ति के लिए कार्य करना होगा। बोलो, कौन तैयार है ?” सारे हृदय एक साथ बोल उठे— “सब तैयार हैं।" आचार्यश्री ने कहा- “ महान् कार्य के लिए महान् साधना चाहिए। कल ही पूर्व तैयारी में लग जाओ, रुचि का विषय चुनो और उसमें गति करो।" मंचर से विहार कर आचार्यश्री संगमनेर पहुंचे। पहले दिन वैयक्तिक वातचीत होती रही। दूसरे दिन साधुसाध्वियों की परिषद् बुलाई गई। आचार्यश्री ने परिषद् के सम्मुख आगम सम्पादन के संकल्प की चर्चा की। सारी परिषद् प्रफुल्ल हो उठी। आचार्यश्री ने पूछा – “क्या इस संकल्प को अब निर्णय का रूप देना चाहिए ?" अपनी-अपनी समलय से प्रार्थना का स्वर निकला - “ अवश्य, अवश्य।” आचार्य श्री औरंगाबाद पधारे। सुराणा भवन, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी (वि० सं० २०११), महावीर जयंती का पुण्य पर्व आचार्यश्री ने साधु साध्वी, धावक और श्राविका इन चतुर्विध संघ की परिषद् में आगम सम्पादन की विधिवत् घोषणा की। आगम-संपादन का कार्यारम्भ वि० सं० २०१२ श्रावण मास ( उज्जैन चातुर्मास ) से आगम- सम्पादन का कार्यारम्भ हो गया। न तो सम्पादन का कोई अनुभव और न कोई पूर्व तैयारी अकस्मात् धर्मदूत का निमित्त पा आचार्यश्री के मन में संकल्प उठा और उसे सबने शिरोधार्य कर लिया । चिन्तन की भूमिका से इसे निरी भावुकता ही कहा जाएगा, किन्तु भावुकता का मूल्य चिन्तन से कम नहीं है। हम अनुभव-विहीन थे, किन्तु आत्म-विश्वास से शून्य नहीं थे । अनुभव आत्म-विश्वास का अनुगमन करता है, किन्तु आत्म-विश्वास अनुभव का अनुगमन नहीं करता । प्रथम दो-तीन वर्षों में हम अज्ञात दिशा में यात्रा करते रहे। फिर हमारी सारी दिशाएं और कार्य-पद्धतियां निश्चित व सुस्थिर हो गईं। आगम सम्पादन की दिशा में हमारा कार्य सर्वाधिक विशाल व गुरुतर कठिनाइयों से परिपूर्ण है, यह कह कर मैं स्वल्प भी अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूं। आचार्यश्री के उत्साहवर्धक दिव्य आशीर्वाद से हमारा कार्य निरन्तर गतिशील हो रहा है। इस कार्य में हमें अन्य अनेक विद्वानों की सद्भावना, समर्थन व प्रोत्साहन मिल रहा है। सामूहिक वाचना जैन- परम्परा में वाचना का इतिहास बहुत प्राचीन है। आज से १५०० वर्ष पूर्व तक आगम की चार वाचनाएं हो चुकी हैं। देवर्द्धिगणी के बाद कोई सुनियोजित आगम-वाचना नहीं हुई। उनके वाचना - काल में जो आगम लिखे गए थे, वह इस लम्बी अवधि में बहुत ही अव्यवस्थित हो गए हैं। उनकी पुनर्व्यवस्था के लिए आज फिर एक सुनियोजित वाचना की अपेक्षा थी। आचार्य श्री तुलसी ने सुनियोजित सामूहिक वाचना के लिए प्रयत्न भी किया था, परन्तु वह पूर्ण नहीं हो सका । अन्ततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी वाचना अनुसंधानपूर्ण, गवेषणापूर्ण तटस्थ दृष्टि - समन्वित तथा सपरिश्रम होगी तो वह अपने आप सामूहिक हो जाएगी। इसी निर्णय के आधार पर हमारा यह आगम-वाचना का कार्य प्रारम्भ हुआ। - हमारी इस वाचना के प्रमुख आचार्यश्री तुलसी हैं। वाचना का अर्थ अध्यापन है। हमारी इस प्रवृत्ति में अध्यापन - कर्म के अनेक अंग हैं-पाठ का अनुसंधान, भाषान्तरण, समीक्षात्मक अध्ययन, तुलनात्मक अध्ययन आदि-आदि। इन सभी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) प्रवृत्तियों में आचार्यश्री का हमें सक्रिय योग, मार्गदर्शन और प्रोत्साहन प्राप्त था और आज भी वह अदृश्य रूप से प्राप्त है। यही हमारा इस गुरुतर कार्य में प्रवृत्त होने का शक्तिबीज है। सन् १९६७ में "उत्तरज्झयणाणि" दो भागों में प्रकाशित हुआ था। पहले भाग में मूल पाठ, छाया और अनुवाद था तथा दूसरे भाग में केवल टिप्पण और अन्यान्य परिशिष्ट। द्वितीय संस्करण सन् १९६३ में दो भागों में प्रकाशित हुआ। इसमें टिप्पण संलग्न है। प्रथम भाग में आदि के बीस अध्ययन तथा दूसरे भाग में शेष सोलह अध्ययन। प्रथम संस्करण में टिप्पणों की संख्या छह सौ थी, द्वितीय संस्करण में टिप्पणों की संख्या चौदह सौ हो गई। प्रस्तुत तृतीय संस्करण दोनों भाग समाहित है। इसमें ये नौ परिशिष्ट हैं१. पदानुक्रम ६. तुलनात्मक अध्ययन २. उपमा और दृष्टान्त ७. टिप्पण-अनुक्रम ३. सूक्त ८. विशेष शब्द ४. व्यक्ति-परिचय ६. प्रयुक्त ग्रन्थ। ५. भौगोलिक-परिचय कृतज्ञता ज्ञापन जिनके शक्तिशाली हाथों का स्पर्श पाकर निष्प्राण भी प्राणवान् बन जाता है तो भला आगम साहित्य जो स्वयं प्राणवान् है, उसमें प्राणसंचार करना क्या बड़ी बात है ? बड़ी बात तो यह है कि आचार्यश्री ने उसमें प्राण-संचार मेरी और मेरे सहयोगी साधु-साध्वियों की असमर्थ अंगुलियों द्वारा कराने का प्रयत्न किया है। संपादन कार्य में हमें आचार्यश्री का आशीर्वाद ही प्राप्त नहीं था, उनका मार्गदर्शन और सक्रिय योग भी प्राप्त था। आचार्यवर ने इस कार्य को प्राथमिकता दी है और इसकी परिपूर्णता के लिए अपना पर्याप्त समय भी दिया है। इनके मार्गदर्शन, चिन्तन और प्रोत्साहन का संबल पा हम अनेक दुस्तर धाराओं का पार पाने में समर्थ हुए हैं। मैं आचार्यश्री के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन कर भार-मुक्त होऊ, उसकी अपेक्षा अच्छा है कि अग्रिम कार्य के लिए उनके मूक आशीर्वाद का संबल पा और अधिक भारी बनूं। आगम-संपादन के कार्य में अनेक साधु-साध्वियों का योग रहा है। आज भी वे इस सारस्वत कार्य में संलग्न हैं। इस संस्करण की समायोजना में सर्वाधिक योग मुनि दुलहराजजी का है। अन्यान्य मुनियों ने भी यथाशक्ति योग दिया है। मुनि श्रीचन्दजी, मुनि राजेन्द्र कुमार जी, मुनि धनंजय कुमार जी ने टिप्पण लेखन में योग दिया है। संस्कृत छाया लेखन में सहयोगी रहे हैं मुनि सुमेरमल जी 'लाडनूं' तथा मुनि श्रीचंद जी 'कमल'। टिप्पण अनुक्रम का परिशिष्ट तैयार किया है, मुनि राजेन्द्र कुमार जी, मुनि प्रशान्त कुमार जी तथा समणी कुसुमप्रज्ञा ने। मुनि सुमेरमलजी 'सुदर्शन' ने भी प्रूफ आदि देखने में अपना समय लगाया है। इस प्रकार प्रस्तुत संपादन में अनेक मुनियों की पवित्र अंगुलियों का योग रहा है। मैं उन सबके प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं और आशा करता हूं कि वे इस महान् कार्य के अग्रिम चरण में और अधिक दक्षता प्राप्त कर गणाधिपति तुलसी द्वारा प्रारब्ध इस कार्य को और अधिक गतिमान् बनाने का प्रयत्न करेंगे। आचार्यश्री प्रेरणा के अनन्त स्रोत थे। हमें इस कार्य में उनकी प्रेरणा और प्रत्यक्ष योग प्राप्त था। इसलिए हमारा मार्ग ऋजु बन गया था। आज भी परोक्षतः उन्हीं के शक्ति-संबल से हम इस सारस्वत कार्य में नियोजित हैं, गतिमान् हैं। उनका शाश्वत आशीर्वाद दीप बनकर हमारा कार्य-पथ प्रकाशित करता रहे, यही हमारी आशंसा है। आचार्य महाप्रज्ञ ३० जून २००० जैन विश्व भारती लाडनूं Jain Education Intemational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. आगम- सूत्रों का वर्गीकरण जैन आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण पूर्व और अंग के रूप में प्राप्त होता है। पूर्व संख्या में चौदह थे' और अंग बारह। भूमिका दूसरा वर्गीकरण आगम-संकलन-कालीन है। उसमें आगमों को दो वर्गों में विभक्त किया गया है-अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य।* तीसरा वर्गीकरण इन दोनों का मध्यवर्ती है। उसमें आगम-साहित्य के चार वर्ग किए गए हैं (१) चरण-करणानुयोग, (२) धर्मकथानुयोग, (३) गणितानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग एक वर्गीकरण सबसे उत्तरवर्ती है। उसके अनुसार आगम चार वर्गों में विभक्त होते हैं (१) अंग ( २ ) उपांग (३) मूल और (४) छेद । I नंदी के वर्गीकरण में मूल और छेद का विभाग नहीं है। उपांग शब्द भी अर्वाचीन है। नंदी के वर्गीकरण में इस अर्थ का वाचक अनंग-प्रविष्ट या अंग बाह्य शब्द है । आगमों का एक वर्गीकरण अध्ययन-काल की दृष्टि से भी किया गया है। दिन और रात के प्रथम एवं अन्तिम प्रहर में पढ़े जाने वाले आगम 'कालिक' तथा दिन और रात के चारों प्रहरों में पढ़े जाने वाले आगम 'उत्कालिक' कहलाते हैं 1 दशवैकालिक और उत्तराध्ययन अंग बाह्य आगम हैं। १. समवाओ, समवाय १४: चउद्दस पुव्वा प. तं. उप्पायपुव्वमग्गेणियं च तइयं च वीरियं पुव्वं । अत्थीनत्थिपवायं तत्तो नाणप्पवायं च ॥ सच्चप्पवायपुव्वं तत्तो आयप्पवायपुव्यं च । कम्मण्पवायपुव्वं, पच्चक्खाणं भवे नवमं ।। विज्जा अणुप्पवायं, अबंझपाणाउ बारसं पुव्वं । तत्तो किरियविसालं, पुव्वं तह बिंदुसारं च ।। २. वही, समवाय ८८ दुवालसंगे गणिपडिगे प. तं. - आयारे सूयगडे ठाणे समवाए विआहपण्णत्ती णायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगडदसाओ अणुत्तरोववाइयदसाओ पण्हावागरणाई विवागसुए दिलवाए। ३. नंदी, सूत्र ७३ अहवां तं समासओ दुविहं पण्णत्तं तं जहाअंगपविट्ठ अंगबाहिरं च । ४. ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर, भाग-२, पृ. ४६६, पादटिप्पणी-१: Why these texts are called "root-Satras" is not quite clear, Generally the word müla is used in the sense of "fundamental text" in contradistinction to the commentary. Now as there old and important commentaries in existence precisely in the case of these texts, they were probably termed "Müla-texts." ये दोनों 'मूल सूत्र' कहे जाते हैं। २. मूल सूत्र दशवैकालिक और उत्तराध्ययन गणधर कृत नहीं हैं, इसलिए अंग बाह्य हैं। इन्हें 'मूल' क्यों माना गया, इसका कोई प्राचीन उल्लेख उपलब्ध नहीं है । अनेक विद्वानों ने 'मूल' शब्द की अनेक आनुमानिक व्याख्याएं की हैं। " दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन" में इनका उल्लेख हम कर चुके हैं। प्रो. विन्टरनित्ज ने 'मूल' शब्द को 'मूल ग्रन्थ' के अर्थ में स्वीकृत किया है । उनका अभिप्राय यह है इन सूत्रों पर अनेक टीकाएं हैं। इनसे 'मूल ग्रंथ' का भेद करने के लिए इन्हें 'मूल-सूत्र' कहा गया। यह प्रामाणिक नहीं है। प्रो. विन्टरनित्ज ने पिण्ड - नियुक्ति को भी 'मूल-वर्ग' में सम्मिलित किया है। किन्तु उसकी अनेक टीकाएं नहीं हैं। यदि अनेक टीकाएं होने के कारण ही 'मूल सूत्र' की संज्ञा दी गई। तो पिण्डनिर्युक्ति इस वर्ग में नहीं आ सकती । ५ डॉ. सरपेन्टियर, डॉ. ग्यारीनो और प्रो. पटवर्धन ने 'मूल-सूत्र' का अर्थ 'भगवान् महावीर के मूल शब्दों का संग्रह किया है। किन्तु यह भी संगत नहीं है। भगवान् महावीर ने मूल शब्दों के कारण ही आगम को 'मूल' संज्ञा दी जाय तो वह आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध को ही दी जा सकती है। वह सबसे प्राचीन और महावीर के मूल शब्दों का संकलन है। ५. ६. The word Mala Satra is दी उत्तराध्ययन सूत्र, भूमिका, पृ. ३२ In the Buddhist work Mahāvyutpatti 245, 1265 mülagrantha seems to mean 'original text', i.e. the words of Buddha himself. Consequently there can be no doubt whatsoever that the Jains too may have used mala in the sense of 'original text', and perhaps not so much in opposition to the later abridgments and commentaries as merely to denote the actual words of Mahāvīra himself. द रिलीजीयन द जैन, पृ. ७६ translated as "trates originaux.: ७. दशवेकालिक सूत्र, ए स्टडी, पृ. १६ We find however the word Mūla often used in the sense "original text", and it is but reasonable to hold that the word Müla appearing in the expression Mülasūtra has got the same sense. Thus the term Malasūtra would mean 'the original text', i.e., "the text containing the original words of Mahavira (as received directly from his mouth)". And as mater of fact we find, the style of Mülasütras Nos. 1 and 3 (उत्तराध्ययन and दसवैकालिक) as Sufficiently ancient to justify the claim made in their original title, that they represent and preserve the original words of Mahavira. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि दशवैकालिक और उत्तराध्ययन मुनि की जीवन-चर्या के प्रारंभ में मूलभूत सहायक बनते हैं तथा आगमों का अध्ययन इन्हीं के पठन से प्रारंभ होता है। इसीलिए इन्हें 'मूल सूत्र' की मान्यता मिली, ऐसा प्रतीत होता है। डॉ. सुबिंग का अभिमत भी यही है ।' हमारा दूसरा अभिमत यह है कि इनमें मुनि के मूल गुणों-महाव्रत, समिति आदि का निरूपण है । इस दृष्टि से इन्हें 'मूल सूत्र' की संज्ञा दी गई है। ३. मूलाचार और मूल सूत्र 'मूलाचार' आचार्य वट्टकेर की रचना है। उसमें भी उक्त अभिमत की पुष्टि होती है। मूलाचार में मुनि के मूल आचार का निरूपण है। उसमें उत्तराध्ययन के अनेक श्लोक संगृहीत हैं। दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आवश्यक तथा ओघनिर्युक्तिपिण्डनियुक्ति को 'मूल सूत्र' वर्ग में स्थापित करने वाले आचार्य के मन में वही कल्पना रही है, जो कल्पना आचार्य वट्टकेर के मन में 'मूलाचार' के अधिकार निर्माण में रही है 'मूल सूत्रों' की विषय-वस्तु से जो अधिकार तुलनीय हैं, वे ये हैं -- (१) मूल गुणाधिकार - मिलाइए — दशवैकालिक, उत्तराध्ययन (२) समाचाराधिकार मिलाइए — ओघनियुक्ति (३) पिण्ड-शुद्धि अधिकार मिलाइए पिण्डनिर्युक्ति (४) षडावश्यकाधिकार मिलाइए आवश्यक इस सादृश्य के आधार पर दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि को 'मूल सूत्र' वर्ग में रखने का हेतु बुद्धिगम्य हो जाता है । ४. मूल सूत्र की कल्पना और श्रुत- पुरुष 'मूल - सूत्र' वर्ग की कल्पना का एक कारण श्रुत-पुरुष (आगम-पुरुष) भी हो सकता है। नंदी चूर्ण में श्रुत-पुरुष की कल्पना की गई है। पुरुष के शरीर में बारह अंग होते हैंदो पैर, दो जंघाएं, दो ऊरु, दो मात्रार्थ (उदर और पीठ), दो भुजाएं, ग्रीवा और शिर । आगम- साहित्य में जो बारह अंग हैं, वे ही श्रुत-पुरुष के बारह अंग हैं। * 9. दसवेयालिय सुत्त, भूमिका, पृ. ३ Together with the Uttarajjhaya (commonly called Uttarajjhayana Sutta) the Avassaganijjuti and the Pindanijjutti it forms a small group of texts called Mülasutta. This disignation seems to mean that these four works are intended to serve the Jain monks and nuns in the beginning (मूल) of their career. २. मुनि कल्याणविजयजी गणी ने 'श्रमण भगवान् महावीर पृ. ३४३ पर 'मूलाचार' की रचना काल विक्रम की सातवीं शताब्दी के आस-पास माना है। ३. मूलाचार, ४१६६ मिलाइए-उत्तराध्ययन, ३६ । २५७ मूलाचार, ४।७० मिलाइए - उत्तराध्ययन, ३६ २५८ (१३) भूमिका अंग बाह्य श्रुत-पुरुष के उपांग स्थानीय हैं। यह परिकल्पना अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य इन दो आगमिक वर्गों के आधार पर हुई है। इसमें 'मूल' और 'छेद' की कोई व्यर्था नहीं है। हरिभद्रसूरि (विक्रम की ८ वीं शताब्दी) और आचार्य मलयगिरि (विक्रम की १३ वीं शताब्दी) के समय तक भी श्रुत पुरुष की कल्पना में अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य- ये दो ही परिपार्श्व रहे हैं। इन दोनों आचार्यों ने चूर्णि का अनुसरण किया है। उसमें कोई नई बात नहीं जोड़ी है। आचार्य मलयगिरि ने तो अंग-प्रविष्ट तथा आचारांग आदि को भी 'मूल भूत' कहा है।' श्रुतपुरुष की प्राचीन रेखा कृतियों में अंग-प्रविष्ट श्रुत की स्थापना इस प्रकार है— १. दायां पैर २. बायां पैर ३. दाई जंघा ४. बाईं जंघा ५. दायां ऊरु ६. बायां ऊरु ७. उदर ८. पीठ ६. दाईं भुजा १०. बाईं भुजा ११. ग्रीवा १२. शिर ७. इन स्थापना के अनुसार भी ( चरण-स्थानीय) आचारांग और सूत्रकृतांग है। श्रुत-पुरुष की अन्य रेखा कृतियों में स्थापना भिन्न प्रकार से मिलती है। उनमें मूल स्थानीय चार सूत्र हैंआवश्यक, दशवैकालिक, पिण्डनिर्युक्ति और उत्तराध्ययन। नंदी और अनुयोगद्वार को व्याख्या-ग्रन्थों (या नृतिका सूत्रों) के रूप में 'मूल' से भी नीचे प्रदर्शित किया है। पैंतालीस आगमों को प्रदर्शित करने वाली श्रुत-पुरुष की रेखाकृति बहुत अर्वाचीन है। यदि इनकी कोई प्राचीन रेखाकृति प्राप्त हो तो प्रस्तुत विषय की प्रामाणिक जानकारी हो ८. आचारांग सूत्रकृतांग स्थानांग समवायांग भगवती ज्ञाताधर्मवत्था उपासकदशा अन्तकृद्दशा अनुत्तरोपपातिकदशा प्रश्नव्याकरण विपाक दृष्टिवाद मूलाचार, ४।७२ मिलाइए - उत्तराध्ययन, ३६ । २६० मूलाचार, ४।७३ मिलाइए-उत्तराध्ययन, ३६।२६१ ४. नंदी चूर्णि, पृ. ४७ इच्चेतस्स सुतपुरिसस्स जं सुतं अंगभागठित तं अंगपविट्ठ भण्णइ । भी मूल स्थानीय ५. नंदी, हारिभद्रया वृत्ति, पृ. ६० । ६. नंदी, मलयगिरीया वृत्ति, पत्र २०३ : यद् गणधरदेवकृतं तदंगप्रविष्टं मूलभूतमित्यर्थः, गणधरदेवा हि मूलभूतमाचारादिकं श्रुतमुपरचयन्ति । श्री आगम पुरुषनुं रहस्य, पृ. ५० के सामने (श्री उदयपुर, मेवाड़ के हस्तलिखित भण्डार से प्राप्त प्राचीन) श्री आगम पुरुष का चित्र । श्री आगम पुरुषनुं रहस्य, पृ. १४ तथा ४६ के सामने वाला चित्र । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका उत्तरज्झयणाणि चार माने हैं—(१) उत्तराध्ययन, (२) आवश्यक, (३) पिण्डनियुक्ति-ओघनियुक्ति और (४) दशवैकालिक। ये नाम उपाध्याय समयसुन्दर के नामों से भिन्न हैं। इसमें पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति को एक मानकर 'आवश्यक' को भी 'मूल-सूत्र' माना गया है। ३. स्थानकवासी' और तेरापन्थ सम्प्रदाय में उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नंदी और अनुयोगद्वार-इन चार सूत्रों को 'मूल' माना गया है। ४. आधुनिक विद्वानों ने 'मूल-सूत्रों' की संख्या और क्रम-व्यवस्था निम्न प्रकार मानी है(क) प्रो. वेबर और प्रो. बूलर-उत्तराध्ययन, आवश्यक और दशवकालिक को 'मूल-सूत्र' ठहराते सकती है। जिस समय पैंतालीस आगमों की मान्यता स्थिर हुई, उसके आस-पास या उसी समय, संभव है श्रुत-पुरुष की स्थापना में भी परिवर्तन हुआ। चूर्णि-कालीन श्रुत-पुरुष के 'मूल-स्थान' (चरण-स्थान) में आचारांग और सूत्रकृतांग थे। उत्तर-कालीन श्रुत-पुरुष के 'मूल-स्थान' में दशवकालिक और उत्तराध्ययन आ गए। इन्हें 'मूल-सूत्र' मानने का यह सर्वाधिक संभावित हेतु है। ५. अध्ययन-क्रम का परिवर्तन और मूल-सूत्र आगमिक-अध्ययन के क्रम में जो परिवर्तन हुआ, उससे भी इसकी पुष्टि होती है। दशवकालिक की रचना से पूर्व आचारांग के बाद उत्तराध्ययन पढ़ा जाता था। दशवैकालिक की रचना होने के पश्चात दशवैकालिक और उत्तराध्ययन पढ़ा जाने लगा। प्राचीनकाल में आचारांग के प्रथम अध्ययन 'शस्त्रपरिज्ञा' का अध्ययन करा कर शैक्ष की उपस्थापना की जाती थी और फिर वह दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन 'षड्जीवनिका' का अध्ययन करा कर की जाने लगी। प्राचीनकाल में आचारांग के द्वितीय अध्ययन के पंचम उद्देशक के 'आमगन्ध' सूत्र का अध्ययन करने के बाद मुनि 'पिण्डकल्पी' होता था। फिर वह दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन 'पिण्डैषणा' के अध्ययन के पश्चात् 'पिण्डकल्पी' होने लगा। ये तीनों तथ्य इस बात के साक्षी हैं कि एक समय आचारांग का स्थान दशकालिक ने ले लिया। आचार की जानकारी के लिए आचारांग मूलभूत था, वैसे ही दशवैकालिक भी आचार-ज्ञान के लिए मूलभूत बन गया। संभव है आदि में पढ़े जाने के कारण तथा मुनि की अनेक मूलभूत प्रवृत्तियों के उद्बोधक होने के कारण इन्हें 'मूल-सूत्र' की संज्ञा दी गई। ६. मूल-सूत्रों की संख्या १. उपाध्याय समयसुन्दर ने सामाचारी शतक' में (रचना-काल विक्रम सं. १६७२) 'मूल-सूत्र' चार माने हैं(१) दशवैकालिक, (२) ओघनियुक्ति, (३) पिण्डनियुक्ति और (४) उत्तराध्ययन। २. भावप्रभसूरि (१८ वीं शताब्दी) ने भी 'मूल-सूत्र' (ख) डॉ. सरपेन्टियर, डॉ. विन्टरनित्ज और डॉ. ग्यारिनो-उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक और ओघनियुक्ति को 'मूल-सूत्र' मानते हैं। (ग) डॉ. सुबिंग-उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक, पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति को 'मूल-सूत्रों' की संज्ञा देते हैं।' (घ) प्रो. हीरालाल कापड़िया-आवश्यक, उत्तराध्ययन, दशवकालिक, दशैकालिक-चूलिकाएं, पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति को 'मूल-सूत्र' कहते हैं। उक्त सब अभिमतों को संकलित करने पर 'मूल-सूत्रों' की संख्या आठ हो जाती है-आवश्यक, दशवकालिक, दशवैकालिक-चूलिकाएं, उत्तराध्ययन, पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति, अनुयोगद्वार और नंदी। आगमों के वर्गीकरण में आवश्यक का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। अनंग-प्रविष्ट आगमों के दो विभाग किए हैं। उनमें पहला आवश्यक और दूसरा आवश्यक-व्यतिरिक्त है। दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि आगम दूसरे विभाग के अन्तर्गत हैं, जब कि आवश्यक का अपना स्वतंत्र स्थान है। इसलिए इसे 'मूल-सूत्रों' की संख्या में सम्मिलित करने का कोई हेतु प्रस्तुत नहीं है। ओघनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति-ये दोनों आगम नहीं हैं, किन्तु व्याख्या-ग्रन्थ हैं। पिण्डनियुक्ति दशवैकालिक के १. व्यवहारभाष्य, उद्देशक ३, गाथा १७६ : आयारस्स उ उवरि, उत्तरज्झयणा उ आसि पुव्वं तु। दसवेयालिय उवरिं, इयाणिं किं ते न होंती उ।। २. वही, उद्देशक ३, गाथा १७४ : पुव्वं सत्थपरिण्णा, अधीय पढियाइ होउ उवठ्ठवणा। इण्हि च्छज्जीवणया, किं सा उ होउ उबटवणा ।।। ३. वही, उद्देशक ३, गाथा १७५ : वितितमि बंभचेरे, पंचमउद्देस आगगंधम्मि। सुत्तमि पिंडकप्पी, इई पुण पिंडेसणाएओ।। ४. जैनधर्मवरस्तोत्र, श्लोक ३० की स्वोपज्ञ वृत्ति-अथ उत्तराध्ययन आवश्यक-पिण्डनियुक्ति : तथा ओघनियुक्ति-दशवकालिक-इति चत्वारि-मूलसूत्राणि। ५. श्री रत्नमुनि स्मृति ग्रन्थ, आगम और व्याख्या साहित्य, पृ. २७। ६. श्रीमज्जयाचार्य कृत प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, आगमाधिकार, पृ. ७३-७४ । ७. ए हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल लिटरेचर ऑफ दी जैन्स, पृ. ४४-४५ ८. वही, पृ. ४८। Jain Education Intemational Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि (१५) भूमिका पांचवें अध्ययन पिण्डैषणा-की व्याख्या है। ओघ- नियुक्ति ओघ-सामाचारी की व्याख्या है। यह आवश्यक नियुक्ति का एक अंश है। विस्तृत कलेवर होने के कारण इसे पृथक्-ग्रंथ का रूप दिया गया। इसलिए इन्हें 'मूल-सूत्रों' की संख्या में सम्मिलित करने की अपेक्षा दशवकालिक और आवश्यक के सहायक ग्रन्थों के रूप में स्वीकार करना अधिक संगत लगता है। अनुयोगद्वार और नंदी-ये दोनों चूलिका-सूत्र हैं। इन्हें 'मूल-सूत्र' वर्ग में रखने का हेतु उपलब्ध नहीं है। सम्भव है बत्तीस सूत्रों की मान्यता के साथ (वि. १६ वीं शताब्दी में) इन्हें 'मूल-सूत्र' वर्ग में रखा गया। श्रीमज्जयाचार्य ने पूर्व प्रचलित परम्परा के अनुसार अनुयोगद्वार और नंदी को 'मूल-सूत्र' माना है। किन्तु इस पर उन्होंने अपनी ओर से कोई मीमांसा नहीं की है। इस प्रकार 'मूल-सूत्रों' की संख्या दो रह जाती हैदशवैकालिक और उत्तराध्ययन । ७. मूल-सूत्रों का विभाजन-काल दशवैकालिक की नियुक्ति, चूर्णि और हारिभद्रीय वृत्ति में मूल-सूत्रों की कोई चर्चा नहीं है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन की नियुक्ति, चूर्णि और शान्त्याचार्य कृत बृहद्वृत्ति में भी उनकी कोई चर्चा नहीं है। इससे यह स्पष्ट है कि विक्रम की ११वीं शताब्दी तक 'मूल-सूत्र' वर्ग की स्थापना नहीं हुई थी। धनपाल का अस्तित्व-काल ग्यारहवीं शताब्दी है। उन्होंने 'श्रावक-विधि' में पैंतालीस आगमों का उल्लेख किया है। इससे यह अनुमान होता है कि धनपाल से पहले ही आगमों की संख्या पैंतालीस निर्धारित हो चुकी थी। प्रद्युम्नसूरि (वि. १३ वीं शताब्दी) कृत विचारसार-प्रकरण में भी आगमों की संख्या पैंतालीस है, किन्तु इनमें 'मूल-सूत्र' विभाग नहीं है। उसमें ग्यारह अंग और चौतिस ग्रंथों का उल्लेख मिलता प्रभावक-चरित में अंग, उपांग, मूल और छेदआगमों के ये चार विभाग प्राप्त हैं। यह विक्रम संवत् १३३४ की रचना है। इससे यह फलित होता है कि 'मूल-सूत्र' वर्ग की स्थापना चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हो चुकी थी। फिर उपाध्याय समयसुन्दर के सामाचारी शतक में इसका उल्लेख प्राप्त होता है। ८. दशवकालिक और उत्तराध्ययन का स्थान जैन-आगमों में दशवैकालिक और उत्तराध्ययन का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों परम्पराओं के आचार्यों ने इनका बार-बार उल्लेख किया है। दिगम्बर-साहित्य में अंग-बाह्य के चौदह प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें सातवां दशवकालिक और आठवां उत्तराध्ययन है।" श्वेताम्बर-साहित्य में अंग-बाह्य श्रुत के दो मुख्य विभाग हैं-(१) कालिक और (२) उत्कालिक । कालिक सूत्रों की गणना में पहला स्थान उत्तराध्ययन का और उत्कालिक सूत्रों की गणना में पहला स्थान दशवैकालिक का ६. उत्तराध्ययन आलोच्यमान आगम का नाम 'उत्तराध्ययन' है। इसमें दो शब्द हैं-'उत्तर' और 'अध्ययन'। समवायांग के–'छत्तीसं उत्तरज्झयणा'-इस वाक्य में उत्तराध्ययन में 'छत्तीस अध्ययन' प्रतिपादित नहीं हुए हैं, किन्तु 'छत्तीस उत्तर अध्ययन' प्रतिपादित हुए हैं। नंदी में भी 'उत्तरज्झयणाई' यह बहुवचनात्मक नाम मिलता है। उत्तराध्ययन के अंतिम श्लोक में भी 'छत्तीसं उत्तरज्झाए'ऐसा बहुवचनात्मक नाम मिलता है। नियुक्तिकार ने 'उत्तराध्ययन' का बहुवचन में प्रयोग किया है।" चूर्णिकार ने छत्तीस उत्तराध्ययन का एक श्रुतस्कन्ध (एक ग्रंथ रूप) स्वीकार किया है। फिर भी उन्होंने इसका नाम बहुवचनात्मक माना है।२ इस बहुवचनात्मक नाम से यह फलित होता है कि १. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ६६५, वृत्ति पत्र ३४१ : साम्प्रतमोघनियुक्ति बक्तव्या, सा च महत्वात् पृथग्ग्रन्थान्तररूपा कृता। २. समयसुन्दर गणी विरचित श्री गाथा सहस्री में धनपाल कृत 'श्रावक विधि' का उद्धरण है। उसमें पाठ आता है-पणयालीसं आगम (श्लोक २६७, पृ. १८)। ३. विचारलेस, गाथा ३४४-३५१। ४. प्रभावकचरितम्, दूसरा आर्यरक्षित प्रबन्ध २४१ : ततश्चतुर्विधः कार्योऽनयोगोऽतः परं मया। ततोऽङ्गोपाङ्गमूलाख्यग्रन्थच्छेदकृतागमः ।। ५. सामाचारी शतक, पत्र ७६। (क) कषायपाहुड (जयधवला सहित) भाग १, पृ. १३२५ : दसवेयालियं उत्तरज्झयणं। (ख) गोम्मटसार (जीव-काण्ड), गाथा ३६७: दसवेयालं च उत्तरज्झयणं। ७. नंदी, सूत्र ७७,७८ : से किं तं उक्कालिय? उक्कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा-दसवेयालियं.....। से किं तं कालिय? कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा-उत्तरज्झयाई..... । ८. समवाओ, समवाय ३६। ६. नंदी, सूत्र ७८। १०. उत्तराध्ययन ३६।२६८। ११. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ४। १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ.८ : एतेसिं चेव छत्तीसाए उत्तरज्झयणाणं समुदयसमितिसमागमेणं उत्तरज्झयणभावसुतक्खंथेति लब्भइ, ताणि पुण छत्तीसं उत्तरज्झयणाणि इमेहिं नामेहिं अणुगंतव्याणि। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका उत्तरज्झयणाणि उत्तराध्ययन अध्ययनों का योग मात्र है, एक-कर्तृक एक ग्रन्थ नहीं। ___ 'उत्तर' शब्द 'पूर्व' सापेक्ष है। चूर्णिकार ने प्रस्तुत अध्ययनों की तीन प्रकार से योजना की है। (१) स-उत्तर ---पहला अध्ययन (२) निरुत्तर -छत्तीसवां अध्ययन (३) स-उत्तर-निरुत्तर–बीच के सारे अध्ययन किन्तु 'उत्तर' शब्द की यह अर्थ-योजना चूर्णिकार की दृष्टि में अधिकृत नहीं है। उनकी दृष्टि में अधिकृत अर्थ वही है जो नियुक्तिकार के द्वारा प्रस्तुत है। नियुक्तिकार के अनुसार प्रस्तुत अध्ययन आचारांग के उत्तरकाल में पढ़े जाते थे, इसलिए इन्हें 'उत्तर अध्ययन' कहा गया। श्रुतकेवली शय्यंभव (वीर-निर्वाण सं. ६८) के पश्चात् ये अध्ययन दशवैकालिक के उत्तरकाल में पढ़े जाने लगे। इसलिए ये 'उत्तर अध्ययन' ही बने रहे। यह 'उत्तर' शब्द की संगत व्याख्या प्रतीत होती है। दिगम्बर-आचार्यों ने भी 'उत्तर' शब्द की अनेक दृष्टिकोणों से व्याख्या की है। धवलाकार (वि. ६ वीं शताब्दी) के मतानुसार 'उत्तराध्ययन' उत्तर-पदों का वर्णन करता है। यह 'उत्तर' शब्द समाधान-सूचक है। अंगपण्णत्ति (वि. १६ वीं शताब्दी) से 'उत्तर' शब्द के दो अर्थ फलित होते हैं (१) उत्तरकाल—किसी ग्रंथ के पश्चात् पढ़े जाने वाले अध्ययन। (२) उत्तर–प्रश्नों का उत्तर देने वाले अध्ययन । ये अर्थ भी 'उत्तर' और 'अध्ययनों' के सम्बन्ध में वास्तविकता पर प्रकाश डालते हैं। उत्तराध्ययन में प्रश्नोत्तर-शैली से लिखित पांच अध्ययन हैं-६, १६, २३, २५ और २६ । आंशिक रूप में कुछ प्रश्नोत्तर अन्य अध्ययनों में भी हैं। इस दृष्टि से 'उत्तर' का समाधान-सूचक अर्थ संगत होते हुए भी पूर्णतः व्याप्त नहीं है। 'उत्तरकाल' वाची अर्थ संगत होने के साथ-साथ पूर्णतः व्याप्त भी है, इसलिए इस 'उत्तर' का मुख्य अर्थ यही प्रतीत होता है। १०. उत्तराध्ययन : रचना-काल और कर्तृत्व उत्तराध्ययन एक कृति है। कोई भी कृति शाश्वत नहीं होती, इसलिए यह प्रश्न भी स्वाभाविक है कि इसका कर्ता कौन है? इस प्रश्न पर सर्व प्रथम नियुक्तिकार ने विचार किया है। चर्णिकार ने भी इस प्रश्न को स्पष्ट शब्दों में उठाया है। नियुक्तिकार की दृष्टि में उत्तराध्ययन एक-कर्तृक नहीं है। उनके मतानुसार उत्तराध्ययन के अध्ययन कर्तत्व की दृष्टि से, चार वर्गों में विभक्त होते हैं (१) अंगप्रभव (२) जिन-भाषित (३) प्रत्येकबुद्ध-भाषित (४) संवाद-समुत्थित। दूसरा अध्ययन अंगप्रभव माना गया है। नियुक्तिकार के अनुसार वह कर्मप्रवाद पूर्व के सतरहवें प्राभृत से उद्धृत है। दसवां अध्ययन जिन-भाषित है। आठवां अध्ययन प्रत्येकबुद्ध-भाषित है। नवां और तेईसवां अध्ययन संवाद-समुत्थित है।" ये चूर्णि और बृहवृत्तिकार द्वारा उदाहृत हैं। उत्तराध्ययन की मूल रचना पर ध्यान देने से उसके कर्तृत्व पर कुछ प्रकाश पड़ता है। प्रस्तुत सूत्र में गद्यात्मक अध्ययन तीन हैं—दूसरा, सोलहवां और उनतीसवां । __दूसरे अध्ययन का प्रारंभिक वाक्य है-'सुयं मे, आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु बावीसं परीसहा १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६ : विणयसुयं सउत्तरं जीवाजीवाभिगमो णिरुत्तरो, सर्वोत्तर इत्यर्थः सेसज्झयणाणि सउत्तराणि णिरुत्तराणि य, कह? परीसहा विणयसुयस्स उत्तरा चउरंगिज्जस्स तु पुत्वा इति काउं णिरुत्तरा। २. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३: कमउत्तरेण पगयं आयारस्सेय उवरिमाइं तु। तम्हा उ उत्तरा खलु अज्झयणा हुँति णायव्वा ।। ३. उत्तराध्ययन बृहवृत्ति, पत्र ५ : विशेषश्चायं यथा-शव्यम्भवं यावदेष क्रमः, तदाऽऽरतस्तु दशवैकालिकोत्तरकालं पठ्यन्त इति। ४. धवला, पृ. ६७ (सहारनपुर प्रति, लिखित) : उत्तरज्झयणं उत्तरपदाणि वण्णेइ। ५. अंगपण्णत्ति ३२५, २६ : उत्तराणि अहिज्जंति, उत्तरज्झयणं पदं जिणिंदेहि। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६ : एयाणि पुण उत्तरज्झयणाणि कओ केण वा भासियाणित्ति? ७. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ४: अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेयबुद्धसंवाया। बंधे मुक्खे य कया छत्तीसं उत्तरज्झयणा ।। ८. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ६६ : कम्पप्पवायपुव्वे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुत्तं । सणयं सोदाहरणं तं चेव इहपि णायव्यं ।। (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७ : जिणभासिया जहा दुमपत्तगादि। (ख) उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ५ : जिभाषितानि यथा द्रुमपुष्पिकाऽध्ययनम्। १०. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७ : पत्तेयबुद्धभासियाणि जहा काविलिज्जादि। (ख) उत्तराध्ययन बृहवृत्ति, पत्र ५ : प्रत्येकबुद्धाः-कपिलादयः तेभ्य उत्पन्नानि यथा कापिलीयाध्ययनम् । ११, (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ.७: संवाओ जहा णमिपन्यज्जा केसिगोयमेज्ज च। (ख) उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ५ : संवादः-सङ्गतप्रश्नोत्तरवचनरूपस्तत उत्पन्नानि, यथा-केशिगीतमीयम् । Jain Education Intemational Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि (१७) भूमिका उत्तर प्राप्त नहीं है। चूर्णि और बृहद्वृत्ति में भी नहीं है। अन्य किसी साधन से भी प्रस्तुत सूत्र के कर्ता का नाम ज्ञात नहीं हो सका है। इसके रचना-काल की मीमांसा से हम इतना जान सकते हैं कि ये अध्ययन विभिन्न युगों में हुए अनेक ऋषियों द्वारा उद्गीत हैं। सांख्य, न्याय, वैशेषिक आदि दर्शन ई. पू. ५ वीं शताब्दी से लेकर ई. पू. पहली शताब्दी तक व्यवस्थित रूप धारण कर चुके थे। भगवद्गीता ओर उत्तरवर्ती उपनिषदों का निर्माण ई. पू. ५०० के लगभग हुआ था। आत्मा, पुनर्जन्म, मोक्ष, कर्म, संसार की क्षणभंगुरता, वैराग्य व संन्यास की चर्चा इस युग में विशेष विकसित हुई थी। उत्तराध्ययन में हम ई. पू. ६०० से ई. सन् ४०० तक की धार्मिक व दार्शनिक धारा का प्रतिनिधित्व या विकास पाते हैं। हो सकता है कि इनका कुछ अंश महावीर से पहले का भी हो। चूर्णि में ऐसा संकेत भी मिलता है कि उत्तराध्ययन का छठा अध्ययन भगवान् पार्श्व द्वारा उपदिष्ट समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया।" सोलहवें अध्ययन का प्रारम्भिक वाक्य है-सुयं मे, आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरिहिं भगवतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा पण्णत्ता।" उनतीसवें अध्ययन का प्रारम्भिक वाक्य है---'सुयं मे, आउसं! तेणं भगवया एवमाक्खायं-इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नाम अज्झयणे समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए।" इन प्रारंभिक वाक्यों से फलित होता है कि दूसरा और उनतीसवां अध्ययन महावीर द्वारा निरूपित है अर्थात् जिन-भाषित है और सोलहवां अध्ययन स्थविर-विरचित है। नियुक्ति में दूसरे अध्ययन को कर्मप्रवाद-पूर्व से निर्मूढ़ माना गया है और इसके प्रारम्भिक वाक्य से यह फलित होता है कि यह जिन-भाषित है। नियुक्तिकार के चार वर्गों से कर्तृत्व पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता, किन्तु विषय-वस्तु पर प्रकाश पड़ता है। दसवें अध्ययन का विषय-वस्तु भगवान् महावीर द्वारा कथित है। किन्तु उस अध्ययन के कर्ता भगवान् महावीर नहीं हैं यह उस अध्ययन के अंतिम वाक्य-'बुद्धस्स निस्सम भासियं'-से स्पष्ट है। इसी प्रकार दूसरे और उनतीसवें अध्ययन के प्रारम्भिक वाक्यों से भी यही तथ्य प्रकट होता है। छठे अध्ययन के अंतिम श्लोक से भी यही सूचित होता हैएवं से उदाहु अणुतरनाणी अणुतरदंसी अणुतरनाणदसणधरे। अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए।। (६।१७) प्रत्येकबुद्ध-भाषित अध्ययन प्रत्येकबुद्ध-विरचित नहीं है। आठवें अध्ययन के अंतिम श्लोक से इस अभिमत की पुष्टि होती हैइइ एस धम्मे अक्खाए कविलेणं च विसुद्धपन्नेणं। तरिहिंति जे उ काहिंति तेहिं आराहिया दुवे लोगे।। (८/२०) संवाद-समुत्थित अध्ययन, नवां और तेईसवां भी नमि तथा केशि-गौतम द्वारा विरचित नहीं हैं। इसका समर्थन भी उनके अन्तिम श्लोकों से होता हैएवं करेंति संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा। विणियटॅति भोगेसु जहा से नमी रायरिसि।। (६६२) तोसिया परिसा सव्वा सम्मग्गं समुवट्ठिया। संथुया ते पसीयंतु भयवं केसिगोयमे ।। (२३८६) इस प्रकार हम देखते हैं कि नियुक्तिकार के चार वर्गों से इतना ही फलित होता कि भगवान महावीर, कपिल, नमि और केशि-गौतम-इनके उपदेशों, उपदेश-गाथाओं या संवादों को आधार बनाकर ये अध्ययन रचे गए हैं। ये कब और किसके द्वारा रचे गए-इस प्रश्न का नियुक्ति में कोई १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १५७ : केचिदन्यथा पठन्ति एवं से उदाहु, अरहा पासे पुरिसादाणीए। भगवंते वेसालिए, बुद्धे परिणिब्बुडे।। 'दशवैकालिक' वीर निर्वाण की पहली शताब्दी की रचना है। उत्तराध्ययन एक ग्रन्थ के रूप में इससे पूर्व संकलित हो चुका था। उस समय उसके अध्ययन कितने थे, यह निश्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकता। वीर-निर्वाण की दसवीं शताब्दी (६८०-९६३) में देवर्द्धिगणी ने आगमों का संकलन किया था। उन्होंने उत्तराध्ययन के आकार-प्रकार व विषय-वस्तु में कोई अभिवृद्धि की या नहीं की, इसका प्रत्यक्ष उल्लेख प्राप्त नहीं है, किन्तु नहीं की, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। अतः उत्तराध्ययन को हम एक सहस्राब्दी की विचारधारा का प्रतिनिधि सूत्र कह सकते हैं। इसमें जहां वेद और ब्राह्मण-साहित्य-कालीन यज्ञ और जातिवाद की चर्चा है, वहां द्रव्य, गुण और पर्याय की परिभाषाएं भी हैं। उन परिभाषाओं को दर्शनकालीन (ई. पू. ५ वीं से ई. पू. पहली शताब्दी) माना जाए तो यह निष्पन्न होता है कि उत्तराध्ययन के अध्ययन विभिन्न कालों में निर्मित हुए और अंतिम वाचना के समय देवर्द्धिगणी ने उनका छत्तीस अध्ययनात्मक एक ग्रंथ के रूप में संकलन किया। इसीलिए समवायांग के छत्तीस उत्तर-अध्ययनों के नाम उल्लिखित हुए। अन्यथा अंग-साहित्य में इनका उल्लेख संभव नहीं होता। वर्तमान संकलन को सामने रखकर हम चिन्तन करें तो उत्तराध्ययन के संकलयिता देवर्द्धिगणी हैं। इसके प्रारंभिक संकलन और देवर्द्धिगणी कालीन संकलन में अध्ययनों की संख्या और विषय-वस्तु में पर्याप्त अन्तर आता है। Jain Education Intemational Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका विषय-वस्तु की दृष्टि से उत्तराध्ययन के अध्ययन चार भागों में विभक्त होते हैं (१) धर्मकथात्मक - ७, ८, ६, १२, १३, १४, १८, १९, २०, २१,२२, २३, २५ और २७ । (२) उपदेशात्मक — १,३,४,५,६ और १० । (३) और ३५ । आचारात्मक २, ११, १५, १६, १७, २४, २६, ३२, (४) सैद्धान्तिक २८, २६, ३०, ३१,३३,३४ और ३६ । आर्यरक्षित सूरि (वि. प्रथम शताब्दी) ने आगमों के चार वर्ग किए (१) चरण-करणानुयोग (२) धर्मकथानुयोग इस वर्गीकरण में उत्तराध्ययन धर्मकथानुयोग के अंतर्गत गृहीत है।" पर आचारात्मक अध्ययन चरणकरणानुयोग में तथा सैद्धांतिक अध्ययन द्रव्यानुयोग में समाते हैं। इस प्रकार उत्तराध्ययन का वर्तमान स्वरूप अनेक अनुयोगों का सम्मिश्रण है। यह सम्मिश्रण देवर्द्धिगणी के संकलन - काल में हुआ, यह बहुत संभव है। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि उत्तराध्ययन के पहले अठारह अध्ययन प्राचीन हैं और उत्तरवर्ती अठारह अध्ययन अर्वाचीन किन्तु इस अभिमत की पुष्टि के लिए उन्होंने कोई निश्चित हेतु प्रस्तुत नहीं किया है। यह हो सकता है कि कुछ उत्तरवर्ती अध्ययन अर्वाचीन हों, किन्तु सारे उत्तरवर्ती अध्ययन अर्वाचीन हैं, ऐसा मानने के लिए कोई कारण प्राप्त नहीं है। इकतीसवें अध्ययन में आचारांग, सूत्रकृतांग आदि प्राचीन आगमों के साथ-साथ दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ जैसे अर्वाचीन आगमों के नाम भी उपलब्ध होते हैं। ये श्रुतकेवली भद्रबाहु (वीर निर्वाण दूसरी शती) द्वारा निर्यूढ या कृत हैं। इसलिए प्रस्तुत अध्ययन भद्रबाहु के बाद की रचना है। (३) गणितानुयोग (४) द्रव्यानुयोग । अठाइसवें अध्ययन में अंग और अंग बाह्य- इन दो आगमिक विभागों के अतिरिक्त ग्यारह अंग, प्रकीर्णक और दृष्टिवाद का उल्लेख भी मिलता है। प्राचीन आगमों के चौदह पूर्वी, ग्यारह अंगों या बारह अंगों के अध्ययन का वर्णन मिलता है । किन्तु अंग बाह्य या प्रकीर्णक श्रुत के १. उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. १ अत्र धम्माणुयोगेनाधिकारः । २. उत्तरज्झयणाणि, ३१।१६-१८ : तेवीसइ सूयगडे, रूवाहिएसु सुरेसु अ । जे भिक्यू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ।। पणवीसभावणाहिं, उद्देसेसु दसाइणं । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ।। अणगारगुणेहिं च, पकप्पम्मि तहेव य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्दइ मंडले । (१८) उत्तरज्झयणाणि अध्ययन का वर्णन नहीं मिलता, इसलिए यह अध्ययन भी उत्तरकालीन आगम व्यवस्था के आस-पास की रचना प्रतीत होती है। इस अध्ययन में द्रव्य, गुण तथा पर्याय की परिभाषाएं भी हैं। इनकी तुलना क्रमशः वैशेषिक दर्शन के द्रव्य, गुण और कर्म से की जा सकती है। उत्तराध्ययन (१) द्रव्य - गुणाणमासओ दव्वं (२) गुणएगदव्यस्सिया गुणा (३) पर्याय लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे । वैशेषिक दर्शन' (१) द्रव्य - क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम् । (२) गुण द्रव्याश्रव्यगुणवान् संयोगीविभागेष्यकारणमनपेस इति गुणलक्षणम् । (३) कर्म एकद्रव्यमगुन संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति कर्मलक्षणम्। आगम साहित्य में द्रव्य, गुण और पर्याय की परिभाषा प्रथम बार उत्तराध्ययन में प्राप्त होती है। आगमों में विवरणात्मक अर्थ ही अधिक मिलते हैं, संक्षिप्त परिभाषाएं प्रायः नहीं मिलती। इसकी पूर्ति व्याख्या-ग्रन्थों से होती है। उत्तराध्ययन में ये परिभाषाएं विशेष अर्थ - -सूचक हैं। प्रस्तुत अध्ययन में कर्त्ता वैशेषिक दर्शन की उक्त परिभाषाओं से परिचित रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है। इसलिए यह अध्ययन भी अर्वाचीन संकलन में संकलित हुआ— ऐसा अनुमान होता है । उत्तराध्ययन के प्राचीन संस्करण में कितने अध्ययन संकलित थे और अर्वाचीन संस्करण में कितने अध्ययन संकलित किए गये, यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता। किन्तु स्थूल रूप में इतना कहा जा सकता है कि प्राचीन संस्करण का मुख्य भाग कथा भाग था और अर्वाचीन ३. (क) दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति, गाथा १ : वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिमसयलसुयणाणिं । सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारे । : (ख) पंचकल्पभाष्य, गाथा २३, चूर्णि तेण भगवता आयारपकप्प दसाकप्प ववहारा य नवमपुव्वनीसंदभूता निज्जूढा । ४. (क) उत्तरज्झयणाणि, २८ २१.... . अंगेण बाहिरेण व....। (ख) वही, २८ २३: ..एक्कारस अंगाई पइष्णगं दिट्ठिवाओ य ।। ५. वही, २८ । ६ । ६. वैशेषि दर्शन, प्रथम अध्याय, प्रथम आनिक सूत्र १५-१७। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि भूमिका परिवर्द्धन का मुख्य भाग सैद्धान्तिक है। उत्तराध्ययन की विषय-वस्तु का उल्लेख श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में मिलता है। 'जैन सिद्धान्त भवन', आरा (बिहार) में प्राप्त धवला की प्रति (पत्र ५४५) में मिलता है—उत्तराध्ययन में उद्गम, उत्पादन और एषणा से सम्बन्धित दोषों के प्रायश्चित्तों का विधान है।'' अंगपण्णत्ति में लिखा है-"बाईस परीषहों और चार प्रकार के उपसर्गों के सहन का विधान, उसका फल तथा इस प्रश्न का यह उत्तर है...यह उत्तराध्ययन का प्रतिपाद्य विषय धवला में यह भी लिखा है कि उत्तराध्ययन उत्तरपदों का वर्णन करता है। हरिवंश पुराण (वि. सं. ८४०) में लिखा है कि उत्तराध्ययन में वीर-निर्वाणगमन का वर्णन है।" इस प्रकार दिगम्बर-साहित्य में उत्तराध्ययन की विषय-वस्तु का जो वर्णन मिलता है, उसकी संगति उत्तराध्ययन के वर्तमान स्वरूप से नहीं होती। अंगपण्णत्ति का विषय-दर्शन आंशिक रूप से संगत होता है। जैसे (१) बाईस परीषहों के सहन का विधान, देखिएदूसरा अध्ययन। (२) प्रश्नों के उत्तर, देखिए उनतीसवां अध्ययन। प्रायश्चित्त विधि के वर्णन तथा महावीर के निर्वाणप्राप्ति के वर्णन की वर्तमान उत्तराध्ययन के साथ कोई संगति नहीं है। संभव है इन लेखकों के सामने उत्तराध्ययन का कोई दूसरा संस्करण रहा है या भ्रान्त अनुश्रुति के आधार पर ऐसा लिखा है। दिगम्बर-साहित्य से एक बात निश्चित रूप से फलित होती है कि उत्तराध्ययन अंग-बाह्य प्रकीर्णक है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह आरातीय आचार्यों (गणधरों के उत्तर-कालीन आचार्यों) की रचना है।' श्वेताम्बर-साहित्य में उत्तराध्ययन की विषय-वस्तु का वर्णन वही मिलता है, जो वर्तमान उत्तराध्ययन में प्राप्त है। वीर-निर्वाण की पहली शताब्दी की पूर्ति के साथ-साथ दशवैकालिक की रचना हो चुकी थी। उत्तराध्ययन उससे पूर्ववर्ती रचना है। वह आचारांग के बाद पढ़ा जाने लगा था। उसे अपनी विशेषता के कारण थोड़े समय में ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो चुका था। इस स्थिति के संदर्भ में यह अनुमान किया जा सकता है कि उत्तराध्ययन के प्रारम्भिक संस्करण की सकलना वीर-निर्वाण की पहली शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही हो चुकी थी। उत्तराध्ययन के प्रारम्भिक संस्करण की प्राचीनता असंदिग्ध है। उसकी प्राचीनता जानने के दो साधन हैं (१) भाषा-प्रयोग और (२) सिद्धान्त। भाषा-प्रयोग : तीसरे अध्ययन (श्लोक १४) में 'जक्ख' (सं. यक्ष) शब्द का 'अर्चनीय देव' के अर्थ में प्रयोग हुआ है। यह प्रयोग प्राचीनता का सूचक है। यज्ञ के उत्कर्ष काल में ही 'यक्ष' शब्द उत्कर्षवाची था। दोनों की निष्पत्ति एक ही धातु (यज्) से है। यज्ञ का अपकर्ष के साथ-साथ 'यक्ष' शब्द के अर्थ का भी अपकर्ष हो गया। उत्तरकालीन साहित्य में वह देवों की एक हीन जाति का वाचक मात्र रह गया। इसी प्रकार 'पाढव' (३।१३), 'वुसीमओ' (५।१८), 'मिलेक्खुया' (१६१६), 'अज्झत्थ' (६६), 'समिय' (६।४), आदि अनेक शब्द हैं, जो आचारांग और सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन आगमों में ही मिलते हैं। सिद्धान्त : जातिवाद (अध्ययन १२ और १३), यज्ञ एवं तीर्थस्थान (अध्ययन १२), ब्राह्मणों के लक्षणों का प्रतिपादन (अध्ययन २५)-ये इन अध्ययनों की प्राचीनता के सूचक हैं। ये सम्बन्धित चर्चाओं के उत्कर्ष काल में लिखे गए हैं, अन्यथा शान्त चर्चा का इतनी सप्राणता के साथ प्रतिपादन नहीं हो सकता। इसी तथ्य के आधार पर कहा जा सकता है कि ये अध्ययन महावीर-कालीन अथवा उनके परिपार्श्व-कालीन हैं। संभव है कुछ अध्ययन पूर्ववर्ती भी हों। चिकित्सा का वर्जन (२।३२,३३), परिकर्म का वर्जन (अध्ययन १E), अचेलकता का प्रतिपादन (२।३४, ३५; २३।२६) तथा अचेलकता और सचेलकता की सामंजस्यपूर्ण स्थिति का स्वीकार (२।१२,१३)-ये सभी जैन आचार की प्राचीनतम परम्परा के अवशेष हैं जो उत्तरवर्ती साहित्य में नवीन परंपराओं की पृष्ठभूमि में प्रश्न-चिन्ह बने हुए हैं। उत्तराध्ययन अपने मूल रूप में धर्मकथानुयोग है। १. उत्तरज्झयणं उग्गम्मुप्यायणेसणदोसगयपायच्छित्तविहाणं कालादि विसेसिदं वण्णेदि। अंगपण्णत्ति, २/२५, २६ : उत्तराणि अहिज्जति उत्तरज्झयणं मदं जिणिंदेहि। बावीसपरीसहाणं उवसग्गाणं च सहणविहिं ।। वण्णेदि तफ्फलमवि, एवं पण्हे च उत्तरं एवं। कहदि गुरुसीसयाण, पइण्णिय अट्ठमं तं खु।। ३. धवला, पृ. ६७ (सहारनपुर प्रति) : उत्तरज्झयणं उत्तरपदाणि वण्णेइ। ४. हरिवंश पुराण, १०।१३४ : उत्तराध्ययनं वीर-निर्वाण-गमन तथा। तत्त्वार्थवार्तिक, १२०, पृ. ७८ : यद् गणधरशिष्यप्रशिष्यरारातीयैरधिगतश्रुतार्थतत्त्वैः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचनाविन्यासं तदङ्गबाह्यम्। ............तदभेदा उत्तराध्ययनादयोऽनेकविधाः । ६. उत्तराध्ययन नियुक्ति, १८-२६ । Jain Education Intemational Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका (२०) उत्तरज्झयणाणि कोई चर्चा नहीं की कि भगवान् के अन्तिम देशना में इन छत्तीस अध्ययनों का प्ररूपण किया। बृहद्वृत्तिकार शान्त्याचार्य भी परिनिर्वाण के विषय में असंदिग्ध नहीं हैं। केवल चूर्णिकार ने अपना असंदिग्ध मत प्रकट किया है। उत्तराध्ययन के अध्ययनों की संख्या ३६ होने के कारण सहज ही उस ओर ध्यान जाता है कि कल्पसत्र में उल्लिखित ३६ अपृष्ट-व्याकरण ये ही होने चाहिए। यहां यह स्मरणीय है कि समवायांग के छत्तीस अपृष्ट-व्याकरणों का उल्लेख नहीं है। वहां केवल इतना ही बतलाया गया है कि भगवान् महावीर ने अन्तिम रात्रि के समय ५५ कल्याणफल-विपाक वाले अध्ययनों तथा ५५ पाप-फल-विपाक वाले अध्ययनों का व्याकरण कर परिनिर्वृत हुए। समवायांग के छत्तीसवें समवाय में भी इसकी कोई चर्चा नहीं है। उत्तराध्ययन की रचना तथा 'इइ एस धम्मे अक्खाए कविलेणं च विसुद्धपन्नेणं' जैसे उल्लेखों से यह प्रमाणित नहीं होता कि ये सब अध्ययन महावीर के द्वारा निरूपित हैं। नियुक्ति के साक्ष्य में इसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। अठारहवें अध्ययन के चौबीसवें श्लोक के प्रथसम दो चरण वे ही हैं, जो छत्तीसवें अध्ययन के अंतिम श्लोक के इसके कथा-भाग में भगवान् महावीर के उत्तरकालीन किसी भी राजा, मुनि या व्यक्ति का नाम नहीं है। इससे भी यह ज्ञात होता है कि इसका प्रारम्भिक-संस्करण भगवान् महावीर के निर्वाण-काल के आस-पास ही संकलित हो गया था। ११. क्या उत्तराध्ययन भगवान महावीर की अंतिम वाणी है? कल्पसूत्र में बताया गया है कि भगवान महावीर कल्याणफल-विपाक वाले ५५ अध्ययनों, पाप-फल वाले ५५ अध्ययनों तथा ३६ अपृष्ट-व्याकरणों का व्याकरण कर 'प्रधान' नामक अध्ययन का निरूपण करते-करते सिद्धबुद्ध-मुक्त हो गए। उपर्युक्त उन्द्ररण के आधार पर यह माना जा सकता है कि छत्तीस अपृष्ट-व्याकरण वस्तुतः उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन ही हैं। उत्तराध्ययन के अंतिम श्लोक (३६।२६८) से इसकी पृष्टि की जाती है इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिब्बुए। छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीयसंमए।। चूर्णिकार ने इसका अर्थ निम्न प्रकार किया हैज्ञातकुल में उत्पन्न वर्द्धमान स्वामी छत्तीस उत्तराध्ययनों का प्रकाशन या प्रज्ञापन कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। शान्त्याचार्य ने चूर्णिकार का अनुसरण करते हुए भी इसमें अपनी ओर से दो बातें और जोड़ी हैं। पहली यह है कि भगवान महावीर ने उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययनों का अर्थ-रूप में और कुछ अध्ययनों का सूत्र-रूप में प्रज्ञापन किया। दूसरी यह है कि उन्होंने 'परिनिर्वृत' का वैकल्पिक अर्थ 'स्वस्थीभूत' किया है।" नियुक्तिकार ने इन अध्ययनों को जिन-प्रज्ञप्त बतलाया है।' शान्त्याचार्य ने 'जिन' शब्द का अर्थ 'श्रुत-जिन' अर्थात् श्रुत-केवली किया है। नियुक्तिकार के अभिमतानुसार ये छत्तीस अध्ययन श्रुतकेवली आदि स्थविरों द्वारा प्ररूपित हैं। उन्होंने इसकी भी १. कल्पसूत्र, सूत्र १४६ : ......पच्चूसकालसमयंसि संपलियंकनिसन्ने पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागई पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाई छत्तीसं च अपुट्ठवागरणाई वागारित्ता पधाणं नाम अज्झयणं विभावमाणे २ कालगए वितिक्कते समुज्जाए छिन्नजाइजरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतकडे परिनिव्वुड़े सव्वदुक्खप्पहीणे। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २८३ : इति परिसमाप्ती उपप्रदर्शने च, प्रादुःप्रकाशे, प्रकाशीकृत्य-प्रज्ञापयित्वा बुद्धः अवगतार्थः ज्ञातकः-- ज्ञाताकुलसमुद्भवः वर्द्धमानस्वामी, ततः परिनिर्वाणं गतः, किं प्रज्ञापयित्वा? षत्रिंशदुत्तराध्ययनानि। उत्तराध्ययन बृहवृत्ति, पत्र ७१२ : इति इत्यनन्तरमुपवर्णितान 'पाउकरे' त्ति सूत्रत्वात् 'प्रादुष्कृत्य' कांश्चिदर्थतः कांश्चन सूत्रतोऽपि प्रकाश्य, कोऽर्थः? प्रज्ञाप्य, किमित्याह 'परिनिर्वृतः' निर्वाणं गत इति सम्बन्धनीयम्, कीदृशः सन् क इत्याह-'बुद्ध' केवलज्ञानादवगतसकलवस्तुतत्त्वः 'ज्ञातको' 'ज्ञातजो' वा-ज्ञातकुलसमुद्भवः, स चेह भगवान् वर्द्धमानस्वामी 'षट्त्रिंशद्' इति षट्त्रिंशत्संख्या १८२४ ३६।२६८ इइ पाउकरे बुद्धे इइ पाउकरे बुद्ध नायए परिनिव्वुडे। नायए परिनिव्वुए। विज्जाचरणसंपन्ने छत्तीसं उत्तरज्झाए सच्चे सच्चपरक्कमे।। भवसिद्धीयसंमए।। अठारहवें अध्ययन के चौबीसवें श्लोक के पूर्वार्द्ध का जो अर्थ वृत्तिकार ने किया है, वही अर्थ छत्तीसवें श्लोक के पूर्वार्द्ध का होना चाहिए। वृत्तिकार ने चौबीसवें श्लोक के पूर्वार्द्ध की व्याख्या इस प्रकार की है—बुद्ध (अवगत तत्त्व), परिनिर्वृत (शीतीभूत), ज्ञातपुत्र महावीर ने इस तत्त्व का प्रज्ञापना किया है। इस अर्थ के संदर्भ में जब हम छत्तीसवें उत्तराः-प्रधाना अधीयन्त इत्यध्याया-अध्ययनानि तत उत्तराश्च तेऽध्यायाश्चोत्तराध्यायास्तान्–विनयश्रुतादीन्......। ४. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ७१२ : अथवा 'पाउकरे' ति प्रादुरकार्षीत प्रकाशितवान्, शेषं पूर्ववत् नवरं 'परिनिर्वृतः' क्रोधादिदहनोपशमतः समन्तात् स्वस्थीभूतः। उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५५६ : तम्हा जिणपन्नत्ते, अणंतगमपज्जवेहि संजुत्ते। अज्झाए जहाजोगं गुरूपसाया अहिज्झिज्जा।। ६. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ७१३ : तसमाज्जिनः--श्रुतजिनादिभिः प्ररूपिताः। ७. समवाओ, समवाय ५५। उत्तराध्ययन बृहवृत्ति, पत्र ४४४ : इत्येवंरूपं 'पाउकरे' त्ति प्रादुरकार्षीत्-प्रकटितवान् 'बुद्धाः' अवगततत्त्वः सन् ज्ञात एव ज्ञातकः-जगत्प्रतीतः क्षेत्रयो वा, स चेह प्रस्तावान्महावीर एव, 'परिनिर्वृतः' कषायानलविध्यापनात समन्ताच्छीतीभूतः । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि (२१) मामका अध्ययन के अंतिम श्लोक को पढ़ते हैं, तब उससे यह फलित अंग है। जीव विषयक इतना व्यवस्थित और विस्तृत नहीं होता कि ज्ञातपुत्र महावीर छत्तीस अध्ययनों की प्रज्ञापना प्रतिपादन अन्य किसी धर्म-परम्परा में नहीं था। आचार्य कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। सिद्धसेन ने इसे भगवान् महावीर की सर्वज्ञता की कसौटी के महावीर की परम्परा में जो अर्थ-प्रतिपादन होता है, रूप में प्रस्तुत किया है। वह उनकी धर्मदेशना के आधार पर होता है। इसी पारंपरिक उत्तराध्ययन में जीव-विभक्ति का भी एक सुन्दर सत्य का उल्लेख उत्तराध्ययन के संकलनकर्ता ने अन्तिम प्रकरण है। अजीव-विभक्ति, कर्मवाद, षड्द्रव्य, नव तत्त्व श्लोक में किया है। आदि-आदि भी समुचित रूपेण प्रतिपादित हुए हैं। १२. महावीर वाणी का प्रतिनिधि सूत्र यद्यपि उत्तराध्ययन को धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत रखा अविकल उत्तराध्ययन भगवान् महावीर की प्रत्यक्ष गया है, किन्तु अपने वर्तमान आकार में वह चारों अनुयोगों वाणी भले न हो, किन्तु उसमें भगवान् महावीर की वाणी का का संगम है। इस दृष्टि से इसे महावीर-वाणी (आगमों) का जिस समीचीन पद्धति से संगुम्फन हुआ है, उसे देखकर प्रतिनिधि सूत्र कहा जा सकता है। सहज ही यह कहने को मन ललचा उठता है कि यह १३. उत्तराध्ययन : आकार और विषय-वस्तु महावीर-वाणी का प्रतिनिधि सूत्र है। अहिंसा, अपरिग्रह आदि तत्त्व नवीन नहीं हैं और उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन हैं। यह संकलित सूत्र भगवान् महावीर के समय में भी नवीन नहीं थे। उनसे पहले है। इसका प्रारंभिक संकलन वीर-निर्वाण की पहली शताब्दी अनेक तीर्थकर और धर्माचार्य उनका प्रयोग कर चुके थे। के पूर्वार्द्ध में हुआ। उत्तरकालीन संस्करण देवर्द्धिगणी के किन्तु भगवान् महावीर ने तात्कालिक परिस्थितियों के संदर्भ में समय में सम्पन्न हुआ। वर्तमान अध्ययनों के नाम उनको जो अभिव्यक्ति दी, वह उनका नवीन रूप है। भगवान् समवायांग तथा उत्तराध्ययन नियुक्ति में मिलते हैं। उनमें महावीर के समय की सामाजिक परिस्थिति अहिंसा और क्वचित् थोड़ा अन्तर भी हैअपरिग्रह के मुख्य बाधक-तत्त्व ये थे समवायांग उत्तराध्ययन नियुक्ति (१) दास-प्रथा १. विणयसुयं विणयसुयं (२) जातिवाद २. परीसह परीसह (३) पशुबलि ३. चाउरंगिज्जं चउरंगिज्ज (४) अमित संग्रह ४. असंखयं असंख्य (५) दण्ड का उच्छृखल प्रयोग ५. अकाममरणिज्जं अकाममरणं (६) अनियंत्रित भाग ६. पुरिसविज्जा नियंट-खुड्डागनियंठ इन बाधक-तत्त्वों के निरसन के लिए भगवान् महावीर ७. उरब्भिज्जं ओरब्भं ने जिस विचारधारा का प्रतिपादन किया उसका हृदयग्राही ८. काविलिज्जं काविलिज्ज संकलन उत्तराध्ययन में हुआ है। ६. नमिपव्वज्जा णमिपव्वज्जा पार्श्वनाथ के समय में चार महाव्रत थे और सामायिक १०. दुमपत्तयं दुमपत्तयं चारित्र था। भगवान् महावीर ने महाव्रत पांच किए और ११. बहुसुयपूजा बहुसुयपुज्ज छेदोपस्थापनीय चारित्र की व्यवस्था की। छेदोपस्थापनीय का १२. हरिएसिज्जं हरिएस अर्थ है--विभाग-युक्त चारित्र। १३. चित्तसंभूयं चित्तसंभूइ पूज्यपाद (वि. ५-६ शताब्दी) ने लिखा है : “भगवान् १४. उसुकारिज्जं उसुआरिज्जं महावीर ने चारित्र-धर्म के तेरह विभाग किए-पांच महाव्रत, १५. सभिक्खुगं सभिक्खु पांच समितियां और तीन गुप्तियां । ये विभाग पार्श्वनाथ के १६. समाहिठाणाइं समाहिठाणं समय में नहीं थे।" उत्तराध्ययन में इनका सुव्यवस्थित १७. पावसमणिज्जं पावसमणिज्जं प्रतिपादन हुआ है। १८. संजइज्जं सजईज्जं षड्जीवनिकायवाद महावीर के तत्त्ववाद का प्रधान १६. मियचारिता मियचारिया १. चारित्रभक्ति , ७: तिनः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदयाः पंचेर्यादिसमाश्रयाः समितयः पंचव्रतानीत्यपि। चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्व न दिष्टं परैराचार परमेष्ठिनो जिनमतेर्वीरान् नमामो वयम् ।। २. प्रथम द्वात्रिंशिका, श्लोक १३ : य एव षड्जीवनिकायविस्तरः परैरनालीढपथस्त्वयोदितः । अनेन सर्वज्ञपरीक्षणमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिताः ।। ३. समवाओ, समवाय ३६।। ४. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १३-१७। Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भामका २०. अणाहपव्वज्जा नियंठिज्जं ( महानियंठ) ' २१. समुद्दपालिज्जं समुद्दपालिज्जं २२. रहनेमिज्जं रहनेमीय २३. गोयमकेसिज्जं केसिगोयमिज्जं २४. समितीओ समिइओ २५. जन्नतिज्जं जन्नइज्जं २६. सामायारी सामायारी १. २७. २८. मोक्खामगाई २६. अप्पमाओ ३०. तवोमग्गो ३१. चरणविही ३२. पमायठाणाई ३३. कम्मपगडी ३४. लेसज्झयणं ३५. अणगारमग्गे अणगारमग्गे ३६. जीवाजीवविभत्ती जीवाजीवाविभत्ती नियुक्ति के अनुसार छत्तीस अध्ययनों का विषय-वर्णन इस प्रकार है। अध्ययन १ २ ३ ४ ६ て € १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १६ २० २१ खलुकिज्ज मुखगाई अप्पमाओ तव चरण पमायठाणं कमप्पयडी लेसा विषय - विनय -प्राप्त-कष्ट सहन का विधान । -चार दुर्लभ अंगों का प्रतिपादन । --प्रमाद और अप्रमाद का प्रतिपादन | मरण-विभक्ति—अकाम और सकाममरण । -विद्या और आचरण । -रस- गृद्धि का परित्याग । -लाभ और लोभ के योग का प्रतिपादन । -संयम में निष्प्रकम्प भाव । -अनुशासन । -बहुश्रुत की पूजा । -तप का ऐश्वर्य -निदान—भोग-संकल्प | --अनिदान - भिक्षु के गुण । ब्रह्मचर्य की गुप्तियां । -पाप- वर्जन । भोग- असंकल्प । -भोग और ऋद्धि का त्याग । - अपरिकर्म-देहाध्यास का परित्याग । -अनाथता । --विचित्र चर्या । उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ४२२ एसा खलु निज्जुत्ती महानियंठस्स सुत्तस्स । (२२) २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २६ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ -चरण का स्थिरीकरण । -धर्म- चातुर्याम और पंचयाम । -समितियां-गुप्तियां । -ब्राह्मण के - सामाचारी । गुण 1 उत्तरज्झयणाण -अशठता । - मोक्ष-गति । - आवश्यक में अप्रमाद । -तप । — चारित्र । -प्रमाद-स्थान । कर्म । -लेश्या । - भिक्षु के गुण । -जीव और अजीव का प्रतिपादन । नियुक्तिकार ने उत्तराध्ययन के प्रतिपाद्य के संक्षिप्त संकेत प्रस्तुत किए हैं। इनसे एक स्थूल सी रूपरेखा हमारे सामने आ जाती है। विस्तार में जाएं तो उत्तराध्ययन का प्रतिपाद्य बहुत विशद है। भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर की धर्म देशनाओं का स्पष्ट चित्रण यहां मिलता है। वैदिक और श्रमण संस्कृति के मतवादों का संवादात्मक शैली में इतना व्यवस्थित प्रतिपादन अन्य आगमों में नहीं है। इसमें धर्म-कथाओं, आध्यात्मिक-उपदेशों तथा दार्शनिक सिद्धान्तों का आकर्षक योग है। इसे भगवान् महावीर की विचार धारा का प्रतिनिधि सूत्र कहा जा सकता है। १४. उत्तराध्ययन की कथाएं : तुलनात्मक दृष्टिकोण भारतीय धर्मों की अनेक साहित्यिक शाखाएं हैं। उनमें अनेक कथाएं एक जैसी हैं। प्रस्तुत सूत्र में चार कथाएं ऐसी हैं, जो किंचित् रूपान्तर के साथ महाभारत और बौद्ध साहित्य में मिलती हैं। जैसे--- उत्तराध्ययन १. हरिकेश बल (अ. १२) २. चित्त-संभूत (अ. १३) २. इपुकारीय (अ. १४) ४. नमि-प्रव्रज्या (अ. १५) महाभारत 9. X २. X ३. शान्तिपर्व, अ. १७५ शान्तिपर्व, अ. २७७ ४. शान्तिपर्व, अ. १७८ २. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा १८-२७। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाण तथा अ. २७६ जातक १. मातंग (सं. ४६७) २. चित्तसंभूत (सं. ४६८ ) ३. हस्तिपाल (सं. ५०६ ) ४. महाजन (सं. ५३६) इनके सादृश्य का कारण पूर्वकालीन 'श्रमण-साहित्य' का स्वीकरण है। प्रत्येक-बुद्धों द्वारा रचित प्रकरण हजारों की संख्या में प्रचलित थे। उन्होंने भारतीय साहित्य की प्रत्येक धारा को प्रभावित किया था। मार्केण्डेय पुराण के पिता-पुत्र संवाद की तुलना उत्तराध्ययन के चौदहवें इषुकारीय अध्ययन गत पिता-पुत्र संवाद से करने पर दोनों का स्रोत एक ही परम्परा में प्राप्त होता है। इसकी विस्तृत चर्चा हमने 'उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन' में की है। १५. उत्तराध्ययन : व्याकरण-विमर्श वर्तमान प्राकृत व्याकरण की अपेक्षा प्राचीन आगमों में कुछ विशिष्ट प्रयोग उपलब्ध होते हैं। उत्तराध्ययन भी उसी कोटि का आगम है। इसके अनेक स्थलों में विभक्ति-विहीन शब्द का प्रयोग है। अनेक स्थलों में हस्व का दीर्घीकरण और दीर्घ का इस्वीकरण है। संस्कृत तुल्य तथा प्राकृत व्याकरण से असिद्ध संधि-प्रयोग प्राप्त होते हैं। विभक्ति, वचन आदि का व्यत्यय भी विपुल मात्रा में मिलता है। इसमें समालोच्य शब्द भी प्रयुक्त हैं। विभक्ति - विहीन शब्द प्रयोग : वृद्धपुत्त (१1७) भाय (१९३६) कल्लाण (१।२६) भिक्खु (१।२२) तेल्ल (१४।२८) जीवि (३२।२० ) ह्रस्व का दीर्घीकरण : समाययन्ती (४।२) परत्था (४।५) दुक्खपउराए (19) जाईमय (१२५) अन्नमन्नमणूरता (१३1५) अग्गमाहिसी (१६19) दीर्घ का इस्वीकरण : पण (१४/४१) जिया ( २२।१६ ) पमाणि (७।२७) संस्कृत तुल्य संधि-प्रयोग : सुइरादवि (७१८) (२३) भामका प्राकृत व्याकरण से असिद्ध संधि-प्रयोग : उवसग्गे+अभिधारए-उवसग्गाभिधारए (२:२१) बुद्धेहि आयरियं युद्धेहापरियं (११४२) विष्परियास उवे विप्यरियासुवेद (२०४६) विभक्ति - व्यत्यय : आणुपुविं (919) यहां तृतीया के अर्थ में द्वितीया विभक्ति है। अदीणमणसो ( २३ ) – यहां प्रथज्ञम के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है। सदुक्खणां (८८) यहां तृतीया के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है। चो सहि ठाणेहिं (११।६ ) – यहां सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है। मुहाजीवी (२५।२७) यहां द्वितीया के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है। चरमाण (३०/२० ) – यहां षष्ठी के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है। वचन- व्यत्यय : विहन्नइ ( २।६ ) यहां बहुवचन के स्थान पर एकवचन है। आहु (१२।२५ ) - यहां एकवचन के स्थान पर बहुवचन है। तं ( ३६ १४८ ) - यहां बहुवचन के स्थान पर एकवचन है । परित्तसंसारी (३६ | २६० ) – यहां बहुवचन के स्थान पर एकवचन है। अलाक्षणिक : फरसु + आईहिं=फरसुमाईहिं ( १६ १६६ ) मुट्ठि+आईहिं=मुट्ठिमाईहिं ( १६ १६७) असजत्-संजए (२१/२० ) समालोच्य शब्द: अप्पायंके (३1१८ ) यहां 'अप्प' का प्रचलित अर्थ 'अल्प' प्राप्त नहीं होता। यहां यह शब्द निषेधार्थ में प्रयुक्त है । सुदि (१२।२८) सुज ( १२१४० ) इन दोनों में समान प्रयोग चाहिए। संभव है 'सुंदिट्ठ' के स्थान में लिपि - दोष से 'सुजां' हो गया हो। 'उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन' में हमने व्याकरण विषयक ऊहापोह विस्तार से किया है। १६. उत्तराध्ययन: भाषा की दृष्टि से उत्तराध्ययन की भाषा प्राकृत है। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में सात प्राकृतों का उल्लेख किया है— मागधी, आवन्ती, प्राच्या, शौरसेनी, अर्द्धमागधी, वाल्लीका और Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भामका (२४) उत्तरज्झयणााण दाक्षिणात्या। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची और अपभ्रंशइन छह प्राकृतों का उल्लेख किया है। षड्भाषाचन्द्रिका' में प्राकृत के ये ही छह विभाग मिलते हैं। वहां महाराष्ट्र की भाषा को प्राकृत, शूरसेन (मथुरा के आसपास के प्रदेश) की भाषा को शौरसेनी, मगध की भाषा को मागधी, पिशाच (पाण्ड्य, केकय आदि देशों) की भाषा को पेशाची और चूलिका पैशाची तथा आभीर आदि देशों की भाषा को अपभ्रंश कहा गया है। भगवान् महावीर अर्द्धमागधी भाषा में बोलते थे। आगमों में स्थान-स्थान पर यही उल्लेख मिलता है। प्राचीन जैन आगमों की भाषा अर्द्धमागधी और मागधी रही है। क्षेत्र की दृष्टि से अर्द्धमागधी उस भाषा का नाम है, जो आधे मगध में अर्थात् मगध के पश्चिमी भाग में व्यवहृत थी। इसमें मागधी भाषा के लक्षण प्राप्त थे, इसलिए प्रवृत्ति की दृष्टि से भी संभव है इसे अर्द्धमागधी कहा गया। भाषा-शास्त्रियों के अनुसार मागधी की तीन मुख्य विशेषताएं भी प्राप्त कर लिया। महाकवि दण्डी ने भी इसका उल्लेख किया है-'महाराष्ट्राश्रयां, प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः।" फिर भी जैन आचार्यों को आगमों की मूल भाषा की विस्मृति नहीं हुई। वे समय के विविध परिवों में भी इसी तथ्य की पुनरावृत्ति करते रहे हैं कि आगमों की मूल भाषा अर्द्धमागधी है। प्रज्ञापना में अर्द्धमागधी भाषा बोलने वाले को 'भाषा-आर्य' कहा गया है। स्थानांग और अनुयोगद्वार में संस्कृत तथा प्राकृत को ऋषिभाषित कहा गया है। आचार्य हरिभद्र सूरि ने भाषा-आर्य की व्याख्या में संस्कृत और जोड़ा है। कुछ आचार्य पूर्वो की भाषा भी संस्कृत मानते हैं। इन सब तथ्यों के अध्ययन के उपरान्त भी हम इस तथ्य की विस्मृति नहीं कर सकते कि प्राचीन आगमों की भाषा अर्द्धमागधी थी। अर्द्धमागधी और महाराष्ट्री उत्तराध्ययन की भाषा महाराष्ट्री से प्रभावित अर्द्धमागधी है। अर्द्धमागधी और महाराष्ट्री का अन्तर निम्न प्रकार है : अर्द्धमागधी असंयुक्त 'क' को 'ग' या 'त' होता हैकुमारगा (१४।११) लोगो (१४।२२) असंयुक्त 'ग' का लुक् नहीं होताकामभोगेसु (१४।६) सगरो (१८३५) असंयुक्त 'च' और 'ज' के तकार-बहुल प्रयोग मिलते हैंतेगिच्छं (२३३) वितिगिच्छा (१६ । सू. ४) असंयुक्त 'त' का प्रायः लुकू नहीं होताअतरं (८६) (१) प्रथम विभक्ति में एकवचन में 'ओकर' के स्थान पर 'एकार होना। (२) 'र' का 'ल' होना। (३) 'ष', 'स' के स्थान पर 'श' होना। अर्द्धमागधी में प्रथम विशेषता बहुलता से मिलती है, दूसरी कहीं-कहीं मिलती है और तीसरी प्रायः नहीं मिलती। जब जैन मुनि पूर्वी भारत से हट कर पश्चिमी भारत में विहार करने लगे तब उनकी मुख्य भाषा महाराष्ट्री-प्राकृत हो गई। अर्द्धमागधी और मागधी के लिखे हुए आगम भी उससे प्रभावित हुए। प्राकृत के रूपों में महाराष्ट्री ने उत्कर्ष १. नाट्यशास्त्र, १७॥४८ : मागध्यवन्तिजा प्राच्या शौरसेन्यर्द्धमागधी। वाल्हीका दाक्षिणात्याश्च सप्तभाषाः प्रकीर्तिताः ।। षडूभाषाचन्द्रिका, उपोद्घात : षड्विधा सा प्राकृती च शौरसेनी च मागधी। पैशाची चूलिकापैशाच्यपभ्रंश इति क्रमात् ।। तत्र तु प्राकृतं नाम महाराष्ट्रोद्भवं विदुः। शूरसेनोद्भवा भाषा शौरसेनीति गीयते ।। मगधोत्पन्नभाषां तां मागधी संप्रचक्षते। पिशाचदेशनियतं पैशाचीद्वितयं भवेत् ।। पाण्डयकेकयवाल्हीक सिंह नेपाल कुन्सलाः । सुधेष्णभोजगान्धारहवकन्नोजकास्तथा।। एते पिशाचदेशाः स्युस्तद्देश्यस्तद्गुणो भवेत् । पिशाचजातमधवा पैशाचीद्वयमुच्यते।। अपभ्रंशस्तु भाषा स्यादाभीरादिगिरां चयः। रण्णो भंभसारपुत्तस्स.....अद्धमागहाए भासाए भासइ.......। (ख) समवाओ समवाय ३४ : भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ (२२)। काव्यादर्श, १३४। प्रज्ञापना, पद १, सूत्र ३७ : भासारिया जे ण अद्धमागहाए भासाए भासेति। ६. ठाणं, ७/४८ गाथा १०: सक्कता पगता चेव, दोण्णि य भणिति आहिया। सरमंडलंमि गिज्जंते, पसत्था इसिभासिता।। ७. अणुओगदाराई, सूत्र ३०७ गाथा ११ : सक्कया पायया चेव, भणितिओ होंति दोण्णि वि सरमंडलम्मि गिज्जंते, पसत्था इसिभासिया।। तत्त्वार्थ सूत्र ३१५, हारिभद्रीय वृत्ति पृ. १८०: शिष्टा:--सर्वातिशयसम्पन्ना गणधरादयः तेषां भाषा संस्कृता ऽर्धमागधिकादिका च। ६. प्रभावक चरित, पृ. ५८, वृद्धवादिसूरि चरित, श्लोक ११३ : चतुर्दशापि पूर्वाणि संस्कृतानि पुराऽभवन् । ..................।। ३. (क) ओवाइयं, सूत्र ७१ : तए णं समणं भगवं महावीरे कूणियस्स Jain Education Intemational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणााण (२५) भामका गिद्धी सुद्धी असंयुक्त 'द' का प्रायः लुक नहीं होता और कहींकहीं उसको 'त' हो जाता है। उदग (७१२३) असंयुक्त 'प' को प्रायः 'व' हो जाता हैमहादीवो (२३६६) असंयुक्त 'य' का प्रायः लुक् नहीं होता और कहीं-कहीं उसको 'त' हो जाता है उवाया (३२६) असंयुक्त 'व' का प्रायः लुक् नहीं होता और कहीं-कहीं उसको 'त' हो जाता है पवरे (११११६) दिवायरे (११।२४) प्रथमा के एकवचन में 'एकार' होता हैकयरे (१२।६) धीरे (१५३) महाराष्ट्री 'क' का प्रायः लुक् होता हैअज्झावयणं (१२।१६) 'ग' का प्रायः लुक् होता हैभोए (१४।३७) 'च' और 'ज' का प्रायः लुक् होता हैसमुवाय (१४ ॥३७) बीयाइं (१२।१२) 'त' का प्रायः लुक् होता हैपुरोहियं (१४ ॥३७) 'द' का प्रायः लुक् होता है-- विइयाणि (१२।१३) 'प' का प्रायः लुक् होता हैतउय (३६ ७३) 'य' का प्रायः लुक् होता हैकाय (३६ १८२) आउ (७।१०) 'व' का प्रायः लुक् होता हैचेय (२४।१६) प्रथम के एकवचन में 'ओकार' होता हैमणगुत्तो (१२॥३) शब्द भेदअर्द्धमागधी महाराष्ट्री कम्मुणा (२५१३१) कम्मेण वेयसां (२५।१६) वेयाणं विसालिसेहिं (३।१४) विसरिसेहि दुवालसंगं (२४१३) बारसंग (२३७) गेही (६४) सोही (३।१२) तेगिच्छं (२।३३) चीइच्छं मिलेक्खुया (१०।१६) मिलिच्छा, मिच्छा माहणा (१२।१३) बम्हणो (२५/१६) पडुप्पन्न (२६ सू. १३) पच्चुप्पन्न (७६) उत्तराध्ययन में अर्द्धमागधी के साथ-साथ महाराष्ट्री-प्राकृत के प्रयोग भी मिलते हैं। इसलिए भाषा की दृष्टि से इसे भाषा-द्वय की मिश्रित कृति कहा जा सकता है। १७. उत्तराध्ययन के व्याख्या-ग्रंथ जैन आगमों में उत्तराध्ययन सर्वाधिक प्रिय आगम है। उसकी प्रियता का कारण उसके सरल कथानक, सरस संवाद और सरस रचना-शैली है। उसकी सर्वाधिक प्रियता के साक्ष्य व्यापक अध्ययन-अध्यापन और विशाल व्याख्या-ग्रन्थ हैं। जितने व्याख्या-ग्रंथ उत्तराध्ययन के हैं, उतने अन्य किसी आगम के नहीं हैं। १. नियुक्ति : यह उत्तराध्ययन के प्राप्त व्याख्या-ग्रन्थों में सर्वाधिक प्राचीन है। इसमें ५५७ गाथाएं हैं। यह लघु कृति है, किन्तु इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए यह उत्तरवर्ती सभी व्याख्या-ग्रन्थों की आधार-भित्ति रही है। इसके कर्ता द्वितीय भद्रबाहु (वि. छठी शताब्दी) हैं। २. चूर्णि : यह प्राकृत-संस्कृत में लिखी गई उत्तराध्ययन की महत्त्वपूर्ण व्याख्या है। इसमें अन्तिम अठारह अध्ययनों की व्याख्यान बहुत ही संक्षिप्त है। ग्रन्थ की प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपना परिचय 'गोपालिक महत्तर शिष्य' के रूप में दिया है।' इसका अस्तित्व-काल विक्रम की सातवीं शताब्दी है। ३. शिष्यहिता (बृहवृत्ति या पाइय-टीका) : उत्तराध्ययन की संस्कृत-व्याख्याओं में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें अवतरणात्मक कथाएं प्राकृत में गृहीत हैं। बृहद्वृत्तिकार ने अनेक बार 'बृद्धसम्प्रदायादवसेयः'२ या सम्प्रदायाकवसेयः'३ लिख कर उनका अवतरण किया है। बृहद्वृत्तिकार के सामने चूर्णि के अतिरिक्त और भी कोई व्याख्या रही है, ऐसा प्रतीत होता है। नौवें अध्ययन के अट्ठाईसवें श्लोक की व्याख्या में—'तथा च वृद्धाः उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २८३ : वाणिजकुलसंभूओ, कोडियगणिओ उ वयरसाहीतो। गोवालियमहत्तरओ, विक्खाओ आसि लोगमि ।।१।। ससमयपरसमयविऊ, ओयस्सी दित्तिमं सुगंभीरो। सीसगणसंपरिवुडो, वक्खाणरतिप्पिओ आसी ।।२।। तेसिं सीसेण इम, उत्तरायणाण चुण्णिखंडं तु। रइयं अणुग्गहत्थं, सीसाणं मंदुबुद्धीणं ।।३।। २. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र १४५। ३. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र १२५ । Jain Education Intemational Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भामका लोमहाराः : प्राणाहारा इति" ऐसा उल्लेख मिलता है। यह वाक्य चूर्णि का नहीं है। उसमें 'लोमहार' का अर्थ - 'लोमहारा णाम पेल्लणमोसगार इन शब्दों में है। इससे यह प्रमाणित होता है कि बृहद्वृत्ति में उद्धृत वाक्य चूर्णि से अतिरिक्त किसी दूसरी प्राचीन व्याख्या का है। बृहद्वृत्तिकार ने 'वृद्ध' शब्द के द्वारा चूर्णिकार का भी उल्लेख किया है- 'वृद्धास्तु व्याचक्षते -लोलुप्यमाणं ति लालप्यमानं भरणपोषणकुलसंतानेसु य तुम्ने भविस्सह ति।" मिलाइए उत्तराध्ययन चूर्णि पू. २२३ 'लोलुप्पमाण लोलुप्यमानं भरणपोसणकुलसंताणेसु व तुम्मे भविस्सह ति ये वृहद्वृत्तिकार है वादी- बेताल शान्तिसूरि इनका अस्तित्व-काल विक्रम की ११वीं शताब्दी है । ४. सुखबोधा I यह वृहद्वृत्तिकार से समुद्धृत लघु वृत्ति है। इसके कर्ता नेमिचन्द्रसूरि सूरिपद प्राप्ति से पूर्व इनका नाम देवेन्द्र था। इस वृत्ति का रचना - काल विक्रम सं. ११२६ है । ५. सर्वार्थसिद्धि इसके रचयिता भावविजय हैं। इनका रचना-काल विक्रम संवत् १६७६ है । इसमें कथाएं पद्यबद्ध हैं। इनके अतिरिक्त और भी व्याख्या-ग्रंथ उपलब्ध होते हैं। वे सारे के सारे प्रायः इन्हीं मुख्य व्याख्या ग्रन्थों के उपजीवी हैं। हम उनका संक्षिप्त परिचय नाम, कर्त्ता और रचना - काल के विवरण सहित - नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं* : ६. अवचूरि वि. सं. १५४१ ७. वृत्ति ८. दीपिका ज्ञानसागर कमल संयम उदयसागर वि. सं. १५५४ ६. लघुवृत्ति १०. वृत्ति वि. सं. १५४६ खरतर तपेलवाचक वि. सं. १५५० कीर्तिवल्लभ वि. सं. १५५२ विनयहंस वि. सं. १५६७-८१ अजितदेव सूरि वि. सं. १६२८ हर्षकुल १६वीं शताब्दी ११. वृत्ति १२. टीका अजितदेव सूरि माणिक्यशेखर सूर लक्ष्मीवल्लभ १३. दीपिका १४. अवरि १५. टीका - दीपिका १६. दीपिका १. २. ३. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र ३१२ । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. १८३ । उत्तराध्ययन वृहद्वृत्ति, पत्र ४००। १८वीं शताब्दी (२६) १७. वृत्ति टीका १८. वृत्ति १६. टीका २०. अवचूरि २१. अवचूरि २२. २३. २४. बालावबोध समरचन्द्र बालावबोध कमललाभ बालावबोध मानविजय मकरन्द टीका दीपिका वृति-दीपिका दीपिका वृत्ति अक्षरार्थ लवलेश हर्मनन्दन शान्तिभद्राचार्य मुनिचन्द्र सूरि ज्ञानशीलगणी टब्बा टब्बा वृत्ति १६वीं शताब्दी वि. सं. १७४१ इसके अतिरिक्त कुछ वृत्ति टीकाएं, दीपिकाएं तथा अवचूरियां भी उपलब्ध होती हैं। कई में कर्त्ता का नाम नहीं है तो कई में रचना - काल का उल्लेख नहीं है । वे ये हैं. व्याख्या-ग्रंथ कर्ता उत्तरज्झयणाणि वि. सं. १७११ वि. सं. १४६१ रचना-काल वि. सं. १७५० वि. सं. १६३७ वि. सं. आदिचंद्र या रायचंद्र पार्श्वचन्द्र, धर्मसिंह १८वीं शताब्दी मतिकीर्ति के शिष्य ब्रह्म ऋषि भाषा पद्यसार वि. सं. १५६६ तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य (वि. सं. १८६० - १६३८) ने इस सूत्र के उनतीस अध्ययनों पर राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध 'जोड़' की रचना की। यत्र-तत्र उन्होंने विषय को स्पष्ट करने के लिए वार्तिक भी लिखे हैं । उपसंहार १६४३ प्रस्तुत भूमिका में उत्तराध्ययन का संक्षिप्त पर्यालोचन किया गया है। उनके छन्द आदि अनेक विषयों पर यहां कोई विमर्श नहीं किया गया है। इनका पर्यालोचन 'उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन' में किया जा चुका है। इसलिए उनके अवलोकन की सूचना के साथ-साथ मैं इस विषय को सम्पन्न कर रहा हूं । आचार्य तुलसी ४. जैन भारती ( वर्ष ७, अंक ३३, पृ. ५६५-६६८) में प्रकाशित श्री अगरचन्दजी नाहटा के 'उत्तराध्ययन सूत्र और उसकी टीकाएं लेख पर आधृत । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्ययन विनयत (विनय का विधान प्रकार और महत्त्व ) श्लोक १ विनय-प्ररूपण की प्रतिज्ञा । २४, २५ २६ २ विनीत की परिभाषा । ३ अविनीत की परिभाषा । ४ अविनीत का गण से निष्कासन । ५ अज्ञानी भिक्षु का सूअर की तरह आचरण । ६ विनय का उपदेश । ७ विनय का परिणाम । ८ भिक्षु का आचार्य के पास विनय और मीन-भाव से सार्थक पदों का अध्ययन । ६ क्षमा की आराधना और क्षुद्र व्यक्तियों के साथ संसर्ग-त्याग । १० चण्डालोचित कर्म का निषेध | अधिक बोलने का निषेध । स्वाध्याय और ध्यान का विधान । श्लोक-विषयानुक्रम ११ ऋजुता तथा भूल की स्वीकृति। १२ अविनीत और विनीत घोड़े से शिष्य के आचरण की तुलना । १३ अविनीत शिष्य द्वारा कोमल प्रकृति वाले आचार्य को भी क्रोधी बना देना । विनीत शिष्य द्वारा प्रचण्ड प्रकृति वाले आचार्य को भी प्रसन्न करना । १४ बोलने का विवेक । सूत्र १-३ परीषह निरूपण का उपक्रम और परीषहों का नाम निर्देश | श्लोक १ परीषह - निरूपण की प्रतिज्ञा । २, ३ क्षुधा - परीषह ४,५ पिपासा- परीषह । ६, ७ शीत परीषह । ८६ उष्ण-परीषह । १०, ११ दंशमशक-परीषह । १२,१३ अचेल - परीषह । भाषा - दोषों के वर्जन का उपदेश । अकेली स्त्री से आलाप-संलाप का निषेध । २७ अनुशासन का स्वीकार । २८, २६ प्रज्ञावान् मुनि के लिए अनुशासन हित का हेतु । ३० गुरु के समक्ष बैठने की विधि । ३१ यथासमय कार्य करने का निर्देश । ३२-३४ आहार सम्बन्धी विधि-निषेध । ३५ आहार का स्थान और विधि । असाधु, अज्ञानी के लिए अनुशासन द्वेष का हेतु । ४१ ४२ १५, १६ संयम और तप द्वारा आत्म-दमन । १७ आचार्य के प्रतिकूल वर्तन का वर्जन । १८, १६ आचार्य के प्रति विनय-पद्धति का निरूपण । २०-२२ आचार्य द्वारा आमंत्रित शिष्य के आचरण का निरूपण । २३ विनीत शिष्य को ही सूत्र, अर्थ और तदुभय देने का विधान । दूसरा अध्ययन : परीषह - प्रविभक्ति (श्रमण-चर्या में होने वाले परीषहों का प्ररूपण) ३६ सावद्य भाषा का निषेध । ३७ विनीत और अविनीत शिष्य की उत्तम और दुष्ट घोड़े के साथ तुलना । ३८ पाप-दृष्टि मुनि के द्वारा अनुशासन की अवहेलना । ३६ अनुशासन के प्रति दृष्टि-भेद । ४० न आचार्य को और न स्वयं को कुपित करने का उपदेश । १-२७ कुपित आचार्य को प्रसन्न करने का उपक्रम । व्यवहार धर्म का पालन करने वाले मुनि की सर्वत्र प्रशंसा । ४३ आचार्य के मनोनुकूल वर्तन का उपदेश । ४४ विनीत द्वारा आदेशानुसार कार्य सम्पन्नता । ४५ विनीत की कीर्ति और आधारभूतता । ४६ विनय से पूज्य आचार्य की कृपा और श्रुत ज्ञान का लाभ । ४७ विनीत की सर्व गुण सम्पन्नता। ४८ विनयी के लिए मोक्ष की सुलभता का प्रतिपादन । अरति परीषह । स्त्री - परीषह । चर्या - परीषह । १४, १५ १६, १७ १८, १६ २०,२१ २२, २३ आक्रोश- परीषह । २४, २५ २६, २७ २८,२६ वध - परीषह । याचना-परीषह । ३०,३१ अलाभ- परीषह । निषीधिका परीषह । शय्या परीषह । पृ० २८-६२ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२, ३३ रोग परीषह । ३४,३५ तृष्ण ३६, ३७ जल्ल परीषह । ३८,३६ सत्कार - पुरस्कार परीषह । - स्पर्श-परीषह। तीसरा अध्ययन : चतुरंगीय (चार दुर्लभ अंगों का आख्यान) १ दुर्लभ अंगों का नाम-निर्देश। २- ७ मनुष्यत्व प्राप्ति की दुर्लभता । ८ धर्म-श्रवण की दुर्लभता । १ जीवन की असंस्कृतता और अप्रमाद का उपदेश । २ पाप कर्म से धन अर्जन के अनिष्ट परिणाम । ३ कृत कर्मों का अवश्यंभावी परिणाम । ४ कर्मों की फल प्राप्ति में पर की असमर्थता । (२८) ५ धन की अत्राणता और उसके व्यामोह से दिग्मूढता । ६ भारण्ड पक्षी के उपमान से क्षण भर भी प्रमाद न करने का उपदेश । ६ श्रद्धा की दुर्लभता । १० वीर्य की दुर्लभता । ११ दुर्लभ अंगों की प्राप्ति से कर्म-मुक्त होने की संभवता । २० चौथा अध्ययन असंस्कृत (जीवन के प्रति सही दृष्टिकोण का प्रतिपादन) १० श्लोक १२ अध्ययन का उपक्रम और मरण के प्रकारों का नाम-निर्देश । ३ मरण का काल-निर्धारण । ४-७ कामासक्त व्यक्ति द्वारा मिथ्या भाषण का आश्रय । ८,६ कामसक्ति हिंसा का हेतु हिंसा से दोष-परम्परा का विस्तार | काम - रत व्यक्ति द्वारा शिशुनाग की तरह दुहरा कर्म-मल संचय । ११- १३ रोगांतक होने पर कर्म के अनिष्ट परिणामों की आशंका से भय-युक्त अनुताप । १४- १६ विषम मार्ग में पड़े हुए गाड़ीवान की तरह धर्म- - च्युत व्यक्ति द्वारा शोकानुभूति और परलोक भय से संत्रस्त अवस्था में अकाम-मृत्यु । अकाम-मरण का उपसंहार और सकाम-मरण का आरम्भ । १८ संयमी पुरुषों का प्रसाद-युक्त और आघात रहित मरण । १७ ४०, ४१ ४२, ४३ ४४, ४५ ४६ १२ १३ १४- १६ २ सत्य की गवेषणा और जीवों के प्रति मैत्री का उपदेश । ३ कृत कर्मों के विपाक के समय स्वजन - परिजनों की असमर्थता । ६ १० ७ गुणोपलब्धि तक शरीर पोषण का विधान, फिर अनशन का उपदेश । पांचवां अध्ययन : अकाममरणीय (मरण के प्रकार और स्वरूप - विधान) प्रज्ञा परीषह । अज्ञान परीषह । दर्शन परीषह । परीषहों को समभाव से सहने का उपदेश । ११,१२ श्रमण के लिए अनुकूल और प्रतिकूल परीषों को समभाव से सहने का निर्देश । धर्म-स्थिति का आधार । 1 कर्म-हेतुओं को दूर करने से ऊर्ध्व दिशा की प्राप्ति । शील की आराधना से देवलोकों की प्राप्ति वहां से च्युत होकर उच्च व समृद्ध कुलों में जन्म और फिर विशुद्ध बोधि का लाभ । दुर्लभ अंगों के स्वीकार से सर्व कर्माश-मुक्तता । पृ० ८०-९३ २५-२८ १३ जीवन को शाश्वत मानने वालों का निरसन और शरीर-भेद तक गुणाराधना का आदेश । पृ० ९४ - ११६ छठा अध्ययन : क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय ( ग्रन्थ-त्याग का संक्षिप्त निरूपण ) श्लोक १ अविद्या-भव भ्रमण का हेतु । छन्द निरोध से मोक्ष की संभवता । शाश्वत वाद का निरसन । विवेक जागरण के लिए एक क्षण भी न खोने का आहान । १६ सकाम मरण की दुर्लभता । २० साधु और गृहस्थ का तुलनात्मक विवेचन | २१ बाह्याचारों से साधुत्व की रक्षा असंभव । २२ दुःशील और शील के निश्चित परिणाम । २३ श्रावक आचार का निर्देश । २४ सुव्रती मनुष्य की सुगति प्राप्ति । ३१ ३२ पृ० ६३-७९ ५ ६ २६, ३० बहुश्रुत मुनि का मरणकाल में सम-भाव तथा उद्विग्न न होने का उपदेश । संवृत- भिक्षु का अपवर्ग या स्वर्ग-गमन देवताओं की समृद्धि और सम्पदा का वर्णन देव आवासों की प्राप्ति में उपशम और संयम की प्रधानता । संलेखना में शरीर भेद की आकांक्षा । सकाम-मरण के प्रकारों में से किसी एक के स्वीकार का उपदेश । पृ० ११७-१२८ ४ सम्यग् दर्शन वाले पुरुष द्वारा आंतरिक परिग्रह का त्याग । बाह्य परिग्रह त्याग से काम-रूपता की प्राप्ति । अहिंसा के विचार का व्यावहारिक आधार । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ परिग्रह का निषेध और प्रदत्त भोजन का ग्रहण । ८,६ क्रिया - रहित ज्ञान से दुःख-मुक्ति मानने वालों का निरसन । भाषा और अनुशासन की त्राण देने में असमर्थता । ११ आसक्ति है दुःखोत्पत्ति का कारण । १० १२ सब दिशाओं को देख कर अप्रमाद का उपदेश । १३ बाह्य की अनाशंसा और देह धारणा का उद्देश्य । सातवां अध्ययन : उरभ्रीय (उरभ्र, काकिणी, आम्रफल, व्यवहार और २६, २७ श्लोक १- १०उरभ दृष्टांत से विषय-भोगों के कटु विपाक का दर्शन । ११-१३ काकिणी और आम्रफल दृष्टांत से देव-भोगों के सामने मानवीय भोगों की तुच्छता का दर्शन। १४-२२ व्यवहार (व्यवसाय) दृष्टांत से आय-व्यय के विषय में कुशलता का दर्शन । २३,२४ सागर दृष्टांत से आय-व्यय की तुलना का दर्शन । २५ काम - भोगों की अनिवृत्ति से आत्म-प्रयोजन का नाश । (२९) ३ कपिल मुनि द्वारा पांच सौ चोरों को उपदेश । ४ ग्रन्थि त्याग का उपदेश । * आसक्त मनुष्य की कर्म बद्धता । ६ सुव्रती द्वारा संसार समुद्र का पार । ७,८ कुतीर्थिकों की अज्ञता का निरसन । ६,१० अहिंसा का विवेक । आठवां अध्ययन : कापिलीय (संसार की असारता और ग्रंथि त्याग) श्लोक १ दुःख - बहुल संसार से छूटने की जिज्ञासा । २ स्नेह त्याग से दोष-मुक्ति । ११,१२ १३ ३,४ प्रवर भोगों का त्याग और एकांतवास का स्वीकार । ५ नमि के अभिनिष्क्रमण से मिथिला में नौवां अध्ययन : नमिप्रव्रज्या (इन्द्र और नमि राजर्षि का संवाद) श्लोक १ नमि का जन्म और पूर्व जन्म की स्मृति । २ धर्म की आराधना के लिए अभिनिष्क्रमण । कोलाहल । ६ देवेन्द्र का ब्राह्मण रूप में आकर नमि से प्रश्न । ७-१० मिथिला में हो रहे कोलाहल के प्रति देवेन्द्र की जिज्ञासा । नमि राजर्षि द्वारा आश्रय-हीन हुए पक्षियों के साथ मिथिलावासियों की तुलना । ११-१६ देवेन्द्र द्वारा जल रहे अन्तःपुर की ओर ध्यान आकृष्ट करने का प्रयत्न । नमि राजर्षि का उदासीन भाव । १७- २२ देवेन्द्र द्वारा नगर सुरक्षा के प्रति कर्त्तव्य-बोध । नमि राजर्षि द्वारा आत्म-नगर की सुरक्षापूर्वक मुक्ति-बोध । २३-२६ देवेन्द्र द्वारा प्रासाद, वर्धमान गृह आदि बनाने की प्रेरणा । नमि राजर्षि द्वारा मार्ग में बनाए घर के प्रति संदेहशीलता और शाश्वत घर की ओर संकेत । १४ कर्म-हेतुओं पर विचार मित और निर्दोष अन्न-पानी 1 का ग्रहण। १५ असंग्रह का विधान । १६ अनियत विहार करते हुए पिण्डपात की गवेषणा । १७ उपसंहार । २७-३० देवेन्द्र द्वारा नगर में न्याय और शांति स्थापन का अनुरोध। राजर्षि द्वारा जगत् में होने वाले अन्याय-पोषण का उल्लेख । ३१-३६ देवेन्द्र द्वारा स्वतंत्र राजाओं को जीत कर मुनि बनने का २८ २६ ३० १४, १५ १६, १७ १८, १६ २० सागर-पांच उदाहरण ) पृ० १२९ - १४३ कामभोगों की निवृत्ति से देवत्व और अनुत्तर सुख वाले मनुष्य कुलों की प्राप्ति । बाल जीवों का नरक- गमन । धीर पुरुष का देव गमन । बाल और अबाल-भाव की तुलना और पण्डित मुनि द्वारा अबाल-भाव का सेवन। पृ० १४४-१५७ संयम - निर्वाह के लिए भोजन की एषणा । स्वप्न शास्त्र, लक्षण शास्त्र और अंग विद्या के प्रयोग का निषेध । समाधि - भ्रष्ट व्यक्ति का संसार-भ्रमण और बोधि- दुर्लभता । तृष्णा की दुष्पूरता । स्त्री संग का त्याग । उपसंहार । पृ० १५८-१७८ अनुरोध । राजर्षि द्वारा आत्म-विजय ही परम विजय है, इसलिए अपनी आत्मा के साथ युद्ध करने का उपदेश । ३७-४० देवेन्द्र द्वारा यज्ञ, दान और भोग की प्रेरणा। राजर्षि द्वारा दान देने वाले के लिए भी संयम की श्रेयस्करता का प्रतिपादन । ४१-४४ देवेन्द्र द्वारा गृहस्थाश्रम में रहते हुए तप की प्रेरणा । राजर्षि द्वारा सम्यक् चारित्र सम्पन्न मुनि-चर्या का महत्त्वख्यापन | ४५-४६ देवेन्द्र द्वारा परिग्रह के संग्रह का उपदेश । राजर्षि द्वारा आकाश के समान इच्छा की अनन्तता का प्रतिपादन और पदार्थों से इच्छा पूर्ति की असंभवता का निरूपण । ५०-५४ देवेन्द्र द्वारा प्राप्त भोगों के त्याग और अप्राप्त भोगों की अभिलाषा से उत्पन्न विरोध का प्रतिपादन । - राजर्षि द्वारा काम भोगों की भयंकरता और उसके अनिष्ट परिणामों का ख्यापन। ५५-५६ देवेन्द्र का अपने मूल रूप में प्रकटीकरण। राजर्षि की हृदयग्राही स्तुति और वन्दन । ६० इन्द्र का आकाश-गमन। ६१ राजर्षि की श्रामण्य में उपस्थिति । ६२ संबुद्ध लोगों द्वारा इसी पथ का स्वीकार । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) दसवां अध्ययन : दुमपत्रक (जीवन की अस्थिरता और आत्म-बोध) पृ० १७९-१९२ श्लोक १,२ जीवन की अस्थिरता और अप्रमाद का उद्बोध। २१-२६ इंद्रिय-बल की उत्तरोत्तर क्षीणता। ३ आयुष्य की क्षणभंगुरता। २७ अनेक शीघ्र-घाती रोगों के द्वारा शरीर का स्पर्श । ४ मनुष्य-भव की दुर्लभता। २८ स्नेहापनयन की प्रक्रिया। ५-६ स्थावर-काय में उत्पन्न जीव की उत्कृष्ट स्थिति। २,३० वान्त-भोगों के पुनः सेवन न करने का उपदेश। १०-१४ बस-काय में उत्पन्न जीव की उत्कृष्ट स्थिति। ३१,३२ प्राप्त विशाल न्याय-पथ पर अप्रमादपूर्वक बढ़ने की १५ प्रमाद-बहुल जीव का जन्म-मृत्यु-मय संसार में परिभ्रमण। प्रेरणा। १६ मनुष्य-भव मिलने पर भी आर्य-देश की दुर्लभता। ३३ विषम-मार्ग पर न चले जाने की सूचना। १७ आर्य-देश मिलने पर भी पूर्ण पांचों इन्द्रियों की दुर्लभता। ३४ किनारे के निकट पहुंच कर प्रमाद न करने का उपदेश। १८ उत्तम धर्म के श्रवण की दुर्लभता। ३५ क्षपक-श्रेणि से सिद्धि-लोक की प्राप्ति। १६ श्रद्धा की दुर्लभता। ३६ उपशांत होकर विचरण करने का उपदेश । २० आचरण की दुर्लभता। ३७ गौतम की सिद्धि-प्राप्ति। ग्यारहवां अध्ययन : बहुश्रुतपूजा (बहुश्रुत व्यक्ति का महत्त्व-ख्यापन) पृ० १९३-२०६ श्लोक १ अध्ययन का उपक्रम। २० युवा सिंह के समान बहुश्रुत की सर्वश्रेष्ठता। २ अबहुश्रुत की परिभाषा। २१ वासुदेव के समान बहुश्रुत की बलवत्ता। ३ शिक्षा प्राप्त न होने के पांच कारण। २२ चौदह रत्नों के अधिपति चक्रवर्ती के साथ चौदह पूर्वधर ४,५ शिक्षा-शील के आठ लक्षण। बहुश्रुत की तुलना। ६-६ अविनीत के चौदह लक्षण। २३ देवाधिपति शक्र के साथ बहुश्रुत की तुलना। १०-१३ सुविनीत के पन्द्रह लक्षण। २४ उगते हुए सूर्य के तेज के साथ बहुश्रुत के तेज की १४ शिक्षा-प्राप्ति की अर्हता। तुलना। १५ शंख में रखे हुए दूध की तरह बहुश्रुत की दोनों ओर २५ प्रतिपूर्ण चन्द्रमा के साथ बहुश्रुत की तुलना। से शोभा। २६ सामाजिकों के कोष्टागार के समान बहुश्रुत की परिपूर्णता। १६ कन्थक घोड़े की तरह भिक्षुओं में बहुश्रुत की सर्वश्रेष्टता। २७ सुदर्शना नामक जम्बू के साथ बहुश्रुत की तुलना। १७ जातिमान अश्व पर आरूढ योद्धा की तरह बहुश्रुत की २८ शीता नदी की तरह बहुश्रुत की सर्वश्रेष्ठता। अजेयता। २६ मंदर पर्वत के समान बहुश्रुत की सर्वश्रेष्ठता। १८ साठ वर्ष के बलवान हाथी की तरह बहुश्रुत की ३० रत्नों से परिपूर्ण अक्षय जल वाले स्वयंभूरमण समुद्र के अपराजेयता। साथ बहुश्रुत के अक्षय ज्ञान की तुलना। १६ पुष्ट स्कन्ध वाले यूथाधिपति बैल की तरह बहुश्रुत ३१ बहुश्रुत मुनियों का मोक्ष-गमन। आचार्य की शुशोभनीयता। ३२ श्रुत के आश्रयण का उपदेश। बारहवां अध्ययन : हरिकेशीय (जाति की अतात्त्विकता का संबोध) पृ० २०७-२२२ श्लोक १,२ हरिकेशबल मुनि का परिचय। २०-२३ भद्रा द्वारा कुमारों को समझाने का प्रयत्न। ऋषि का ३ मुनि का भिक्षा के लिए यज्ञ-मण्डप में गमन। वास्तविक परिचय और अवहेलना से होने वाले अनिष्ट ४-६ मलिन मुनि को देख कर ब्राह्मणों का हंसना और मुनि की ओर संकेत। के वेश और शरीर के बारे में परस्पर व्यंग्य-संलाप। २४ यक्ष द्वारा कुमारों को भूमि पर गिराना। ७ मुनि को अपमानजनक शब्दों से वापस चले जाने की २५ यक्ष द्वारा कुमारों पर भयंकर प्रहार। भद्रा का पुनः प्रेरणा। कुमारों को समझाना। ८ यक्ष का मुनि के शरीर में प्रवेश। २६-२८ भिक्षु का अपमान करने से होने वाले अनिष्ट परिणाम ६,१० यक्ष द्वारा मुनि का परिचय और आगमन का की ओर संकेत। उद्देश्य-कथन। २. छात्रों की दुदर्शा। ११ सोमदेव ब्राह्मण द्वारा भोजन न देने का उत्तर। ३०,३१ सोमदेव का मुनि से विनम्र निवेदन। १२-१७ यक्ष और सोमदेव के बीच दान के अधिकारी के बारे ३२ मुनि द्वारा स्पष्टीकरण। में चर्चा। ३३-३५ सोमदेव का पुनः क्षमा देने का निवेदन। भिक्षा-ग्रहण १८ सोमदेव द्वारा मुनि को मार-पीट कर बाहर निकालने करने का आग्रह । मुनि द्वारा भिक्षा-स्वीकार। का आदेश। ३६ देवों द्वारा दिव्य वृष्टि और दिव्य घोष। १६ कुमारों द्वारा मुनि पर प्रहार। ३७ तप की महत्ता का प्रतिपादन, जाति की महत्ता का Jain Education Intemational Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरसन । ३८-३६ अग्नि का समारम्भ और जल का स्पर्श पाप-बन्ध का हेतु। ४० सोमदेव द्वारा यज्ञ के बारे में जिज्ञासा । ४१, ४२ मुनि द्वारा वास्तविक यज्ञ का निरूपण । (३१) तेरहवां अध्ययन चित्र सम्भूतीय (चित्र और सम्भूति का श्लोक १२ सम्भूति का ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में काम्पिल्य में और चित्र का पूरिमताल में श्रेष्ठि-कुल में जन्म। ३ चित्र और सम्भूति का मिलन और सुख-दुःख के विपाक की वार्ता । ४-७ ब्रह्मदत्त द्वारा पूर्व भवों का वर्णन । ८ मुनि द्वारा पूर्व जन्म में कृत निदान की स्मृति दिलाना । ६ चक्रवर्ती द्वारा पूर्व कृत शुभ अनुष्ठानों से प्राप्त सुख भोगों का वर्णन मुनि से सुख के बारे में प्रश्न । १०-१२ मुनि द्वारा कृत कर्मों को भोगने की अनिवार्यता । अपनी चक्रवर्ती सम समृद्धि का उल्लेख | स्थविरों की गाथा से श्रामण्य स्वीकार । १३,१४ चक्रवर्ती द्वारा प्रचुर धन-सम्पदा और स्त्री-परिवृत होकर भोग भोगने का आग्रह । प्रव्रज्या की कष्टमयता । १५ मुनि का चक्रवर्ती को वैराग्य उपदेश । १६ काम - राग की दुःखकारिता । १७ काम-गुण-रत की अपेक्षा विरक्त को अधिक सुख } १८ चाण्डाल जाति में उत्पत्ति और लोगों का विद्वेष । १६ वर्तमान की उच्चता पूर्व संचित शुभ कर्मों का फल । २० अशाश्वत भोगों को छोड़ने का उपदेश । २१ शुभ अनुष्ठानों के अभाव में भविष्य में पश्चात्ताप । ७ जीवन की अनित्यता । मुनि-चर्या के लिए अनुमति । ८पिता द्वारा समझाने का प्रयास अपुत्र की गति नहीं । ६ वेदाध्ययन, ब्राह्मणों को दान और पुत्रोत्पत्ति के बाद मुनि बनने का परामर्श । १०, ११ कुमारों का पुरोहित को उत्तर । १२ वेदाध्ययन, ब्राह्मण भोजन और औरस पुत्र की अत्राणता । १३ काम भोगों द्वारा क्षण भर सुख तथा चिरकाल तक दुःख की प्राप्ति । १४, १५ कामना जन्म और मृत्यु की हेतु । १६ प्रचुर धन और स्त्री की सुलभता में श्रमण बनने की उत्कण्ठा के लिए पिता का प्रश्न । १७ धर्म धुरा में धन और विषयों की निष्प्रयोजनता । १८ पिता द्वारा शरीर नाश के साथ जीवनाश का प्रतिपादन । १६ कुमारों द्वारा आत्मा की अमूर्तता का प्रतिपादन । आत्मा ४३ सोमदेव द्वारा ज्योति और उसकी सामग्री के बारे में जिज्ञासा। ४४ मुनि द्वारा आत्म-परक ज्योति का विश्लेषण । ४५ सोमदेव द्वारा तीर्थ के बारे में जिज्ञासा । ४६,४७ मुनि द्वारा तीर्थ का निरूपण । संवाद ) पृ० २२३-२३६ २२ अन्त काल में मृत्यु द्वारा हरण माता-पिता आदि की असहायता । कर्म द्वारा कर्त्ता का अनुगमन । केवल कर्मों के साथ आत्मा का परभव-गमन । शरीर को जला कर ज्ञातियों द्वारा दूसरे दाता का अनुसरण । २६ जीवन की क्षणभंगुरता। बुढ़ापा द्वारा कांति का अपहरण । कर्म-अर्जन न करने का उपदेश । २३ २४ २५ २७-३० चक्रवर्ती द्वारा अपनी दुर्बलता का स्वीकार । सनत्कुमार को देख कर निदान करने का उल्लेख । प्रायश्चित्त न कर पाने के कारण दलदल में फंसे हाथी की तरह धर्मानुसरण करने में असमर्थता और काम - मूर्च्छा । ३१ जीवन की अस्थिरता । ३२ ३३ भोगों द्वारा मनुष्य का त्याग। आर्य-कर्म करने का उपदेश । चौदहवां अध्ययन इषुकारीय (ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति का भेद-दर्शन) श्लोक १-३ अध्ययन का उपक्रम और निष्कर्ष । ४,५ पुरोहित-कुमारों द्वारा निर्ग्रन्थों को देखना। पूर्व जन्म की स्मृति और काम-गुणों से विरक्ति । ६ धर्म श्रद्धा से प्रेरित होकर पिता से निवेदन । राजा की भोग छोड़ने में असमर्थता और मुनि का वहां से गमन । ३४ चक्रवर्ती का नरक-गमन । ३५ चित्र की अनुत्तर सिद्धि प्राप्ति । २५ २६ के आंतरिक दोष ही संसारबन्धन के हेतु । २० धर्म की अजानकारी में पाप का आचरण । २१ पीड़ित लोक में सुख की प्राप्ति नहीं। २२ लोक की पीड़ा क्या ? पृ० २३७-२५२ २३ लोक की पीड़ा मृत्यु । २४ अधर्म रत व्यक्ति की रात्रियां निष्फल । धर्म -रत व्यक्ति की रात्रियां सफल । यौवन बीतने पर एक साथ दीक्षा लेने का पिता का सुझाव । २७ मृत्यु को वश में करने वाला ही कल की इच्छा करने में समर्थ । २८ आज ही मुनि धर्म स्वीकारने का संकल्प । २६,३० पिता की भी पुत्रों के साथ ही गृह त्याग की भावना । शाखा रहित वृक्ष, बिना पंख का पक्षी, सेना रहित राजा और धन-रहित व्यापारी की तरह असहाय । -३१ वाशिष्टी द्वारा प्राप्त भोगों को भोगने के बाद मोक्ष- पथ के स्वीकार का सुझाव । ३२ पुरोहित द्वारा भोगों की असारता का कथन। मुनि-धर्म Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आचरण का संकल्प । २३ भोग न भोगने के बाद में अनुताप । ३४ पुत्रों का अनुगमन क्यों नहीं ? ३५ रोहित मच्छ की तरह धीर पुरुष ही संसार जाल को काटने में समर्थ । ३६ वाशिष्ठी की भी पुत्र और पति के अनुगमन की इच्छा। ३७.३८ पुरोहित परिवार की प्रव्रज्या के बाद राजा द्वारा धन-सामग्री लेने की इच्छा। रानी कमलावती की फटकार । पूर्ति के लिए असमर्थ । धर्म की त्राणता । तोड़ कर मुनि-धर्म के ३६ समूचा जगत् भी इच्छा की ४० पदार्थ जगत् की अत्राणता ४१ रानी द्वारा स्नेह जाल को आचरण की इच्छा। ४२, ४३ राग-द्वेष युक्त प्राणियों की संसार में मूढ़ता। पन्द्रहवां अध्ययन सभिक्षुक (भिक्षु के लक्षणों का निरूपण) श्लोक १ मुनि व्रत का संकल्प । स्नेह-परिचय-त्याग तप आदि का परिचय दिए बिना भिक्षा की एषणा । २ रात्रि भोजन या रात्रि-विहार का वर्जन वस्तु के प्रति अमूर्च्छा-भाव । ३ हर्ष और शोक में अनाकुलता । ४ परीषह-विजय और समभाव की साधना । ५ सत्कार, पूजा और प्रशंसा के प्रति उपेक्षा भावना । ६ स्त्री-पुरुष की संगति का त्याग। ७ विद्याओं द्वारा आजीविका करने का निषेध । ८ मंत्र, मूल आदि द्वारा चिकित्सा का निषेध । सोलहवां अध्ययन ब्रह्मचर्यं समाधि स्थान (ब्रह्मचर्य के दस सूत्र १-३ अध्ययन का प्रारम्भ और दस समाधि स्थानों का नाम-निर्देश 1 ४ स्त्री कथा वर्जन । ५ स्त्रियों के साथ एक आसन पर बैठने का वर्जन । ६ दृष्टि-संयम । ७ स्त्री - शब्द सुनने पर संयम । ८ पूर्वकृत काम-क्रीड़ा की स्मृति का संयम । ६ प्रणीत आहार का निषेध । १० मात्रा से अधिक आहार का निषेध । ११ विभूषा वर्जन । १२ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श-विजय । श्लोक १ एकान्त वास । (३२) - ४ आचार्य, उपाध्याय की अवहेलना । ५ दर्शन-आचार में प्रमाद ६-१४ चारित्र - आचार में प्रमाद ४४ विवेकी पुरुषों द्वारा अप्रतिबद्ध विहार । ४५ रानी द्वारा राजा को भृगु पुरोहित की तरह बनने की प्रेरणा । ४६ ४७ ४८ निरामिष बनने का संकल्प । काम भोगों से सशंकित रहने का उपदेश । बन्धन मुक्त हाथी की तरह स्व-स्थान की प्राप्ति का उद्बोध । ४६ राजा और रानी द्वारा विपुल राज्य और काम-भोगों का त्याग । ५० तीर्थङ्कर द्वारा उपदिष्ट मार्ग में घोर पराक्रम । दुःखों के अन्त की खोज । ५१ ५२ राजा रानी, पुरोहित, ब्राह्मणी, पुरोहित कुमारो द्वारा दुःख-विमुक्ति। ६ गृहस्थों की श्लाघा का निषेध । १० इहलौकिक फल प्राप्ति के लिए परिचय का निषेध | ११ गृहस्थ द्वारा वस्तु न दिए जाने पर प्रद्वेष का निषेध । १२ गृहस्थ द्वारा वस्तु दिए जाने पर आशीर्वाद का निषेध । नीरस अन्न-पान की निन्दा का निषेध और सामान्य घरों की भिक्षा। १३ १४ अभय की साधना । १५ आत्म-तुल्य भावना का विकास। १६ शिल्प-जीवी न होने, घर, मित्र और परिग्रह से मुक्त, मन्द कषाय और असारभोजी होने का उपदेश । पृ० २६३-२७५ पृ० २५३-२६२ समाधि स्थानों का वर्णन) निषेध | ५ स्त्री के शब्द, गीत आदि का श्रवण-वर्जन । ६ पूर्वकृत क्रीडा रति का स्मरण त्याग । ७ प्रणीत भोजन का वर्जन । २ स्त्री- कथा - वर्जन । ३ स्त्री-परिचय और वार्तालाप का वर्जन । ४ स्त्री का शरीर, अंग-प्रत्यंगों को देखने के प्रयत्न का सतरहवां अध्ययन पाप श्रमणीय (पाप श्रमण के स्वरूप का निरूपण) श्लोक १-३ ज्ञान आचार में प्रमाद। ८ परिमित भोजन का विधान । ६ विभूषा वर्जन । १० शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श –— काम - गुणों का वर्जन । ११-१३ दस स्थानों के सेवन का तालपुट विष से तुलना । १४ दुर्जय काम भोग और ब्रह्मचर्य में शंका उत्पन्न करने वाले सभी स्थानों के वर्जन का उपदेश । १५ भिक्षु का धर्म- आराम में विचरण। १६ ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला व्यक्ति देव आदि सभी से वन्दनीय । १७ ब्रह्मचर्य की साधना से सिद्धत्व की प्राप्ति । पृ० २७६ - २८४ १५,१६ तप आचार में प्रमाद १७-१६ वीर्य- - आचार में प्रमाद २० पाप श्रमण की इहलोक और परलोक में व्यर्थता । २१ सुव्रती द्वारा इहलोक और परलोक की आराधना । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) अठारहवां अध्ययन : संजयीय (जैन-शासन की परम्परा का संकलन ) श्लोक १३ संजय राजा का परिचय शिकार के लिए राजा का 1 वन-गमण । ४ केशर उद्यान में ध्यानलीन मुनि की उपस्थिति । ५. राजा द्वारा मुनि के पास आए हुए हिरण पर प्रहार । राजा का मुनि-दर्शन । ६ ७ भय-भ्रान्त मन से तुच्छ कार्य पर पश्चात्ताप । 1 ८-१० मुनि से क्षमा प्रार्थना मौन होने पर अधिक भयाकुलता । ११ मुनि का अभय-दान। अभय-दाता बनने का उपदेश । १२ अनित्य-जीव-लोक में आसक्त न होने का उपदेश । १३ जीवन की अस्थिरता । १४- १६ ज्ञाति सम्बन्धों की असारता । १७ कर्म-परिणामों की निश्चितता । १८, १६ राजा का संसार त्याग और जिन शासन में दीक्षा । २०,२१ क्षत्रिय मुनि द्वारा संजय राजर्षि से प्रश्न । २२ संजय राजर्षि का अपने बारे में उत्तर । २३ क्षत्रिय मुनि द्वारा एकान्तवादी विचार धाराओं का उल्लेख। २४-२७ एकान्त दृष्टिकोण मायापूर्ण, निरर्थक और नरक का हेतु । २८-३२ क्षत्रिय मुनि द्वारा आत्म- परिचय | ३३ क्रियावाद का समर्थन । ३४ भरत चक्रवर्ती का प्रव्रज्या- - स्वीकार । ३५ सगर चक्रवर्ती द्वारा संयम-आराधना । ३३ कापोती-वृत्ति, केश लोच का उल्लेख । ३४, ३५ मृगापुत्र की सुकुमारता और श्रामण्य की कठोरता । ३६ आकाश गंगा के स्प्रेत प्रतिस्प्रेत की तरह श्रामण्य की कठोरता । ३७ बालू के कोर की तरह संयम की स्वाद- -हीनता। ३८ लोहे के यवों को चबाने की तरह श्रमण-धर्म की ३६ मघवा चक्रवर्ती द्वारा संयम-आराधना । सनत्कुमार चक्रवर्ती द्वारा तपश्चरण । ३७ ३८ ३६ ४० शान्तिनाथ चक्रवर्ती द्वारा अनुत्तर- गति-प्राप्ति । कुन्थु नरेश्वर द्वारा मोक्ष प्राप्ति । अर नरेश्वर द्वारा कर्म- रजों से मुक्ति । ४१ महापद्म चक्रवर्ती द्वारा तप का आचरण । हरिषेण चक्रवर्ती द्वारा अनुत्तर- गति - प्राप्ति । ४२ ४३ जय चक्रवर्ती का हजार राजाओं के साथ दम का ४४ ४५,४६ ५० उन्नीसवां अध्ययन मृगापुत्रीय ( श्रमण-चर्या का सांगोपांग श्लोक १-६ मृगापुत्र का परिचय मुनि को देख कर पूर्व जन्म की स्मृति । १० मृगापुत्र का माता-पिता से प्रव्रज्या के लिए निवेदन । ११-१४ जीवन की अशाश्वतता और काम-भोगों के कटु परिणाम । १५ जीवन की दुःखमयता । १६, १७ किम्पाक फल की तरह काम भोगों की अनष्टिता । १८, १६ लम्बे मार्ग में पाथेय-रहित मनुष्य की तरह धर्म-रहित मनुष्य का भविष्य दुःखकर। २०,२१ लम्बे मार्ग में पाथेय सहित मनुष्य की तरह धर्म-सहित मनुष्य का भविष्य सुखकर। २२, २३ आग लगे घर में से मूल्यवान् वस्तुओं की तरह अपने आपको संसार में से निकालने का मृगापुत्र का निवेदन । २४-३० माता-पिता द्वारा श्रमण-धर्म के पांच महाव्रत और रात्रि भोजन- वर्जन का परिचय । ३१,३२ परीषहों का वर्णन । ४७ उद्रायण राजा द्वारा मुनि-धर्म का आचरण । ४८ काशीराज द्वारा कर्म महावन का उन्मूलन। ४६ विजय राजा की जिन शासन में प्रव्रज्या । राजर्षि महाबल की मोक्ष प्राप्ति । एकान्त दृष्टिमय अहेतुवादों को छोड़ कर पराक्रमशाली राजाओं द्वारा जैन शासन का स्वीकार । ५१ ५२ ५३ पृ० २८५-३०२ आचरण । दशार्णभद्र का मुनि-धर्म स्वीकार 1 कलिंग का करकण्डू, पांचाल का द्विमुख, विदेह में नमि और गान्धार में नग्गति द्वारा श्रमण-धर्म में प्रव्रज्या । ३६ ४० ४१ दिग्दर्शन) जैन शासन के द्वारा अनेक जीवों का उद्धार । एकान्त दृष्टिमय अहेतुवादों को अस्वीकार करने से मोक्ष की प्राप्ति । पृ० ३०३-३२८ कठिनता । अग्नि शिखा को पीने की तरह श्रमण-धर्म की कठिनता । सत्त्व-हीन व्यक्ति की संयम के लिए असमर्थता । मेरु पर्वत को तराजू से तोलने की तरह संयम की कठिनता । ४२ समुद्र को भुजाओं से तैरने की तरह संयम - पालन की कठिनता । ४३ विषयों को भोगने के बाद श्रमण-धर्म के आचरण का सुझाव । ४४ ऐहिक सुखों की प्यास वुझ जाने वाले के लिए संयम की सुकरता। ४५-७४ मृगापुत्र द्वारा नरक के दारुण दुःखों का वर्णन स्वयं के द्वारा अनन्त बार उनको सहने का उल्लेख 1 ७५ माता-पिता द्वारा श्रामण्य की सबसे बड़ी कठोर चर्या-निष्प्रतिकर्मता का उल्लेख । ७६-८५ मृगापुत्र द्वारा मृग-चारिका से जीवन बिताने का संकल्प । ८६,८७ मृगापुत्र का प्रव्रज्या स्वीकार । ८८-६५ मृगापुत्र द्वारा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना और मोक्ष प्राप्ति । ६६ संबुद्ध व्यक्तियों द्वारा मृगापुत्र का अनुगमन । ६७,६८ मृगापुत्र के आख्यान से प्रेरणा लेने का उद्बोधन । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) बीसवां अध्ययन : महानिर्ग्रन्थीय (अनाथता और सनाथता) पृ० ३२९-३४३ श्लोक १-८ अध्ययन का उपक्रम। श्रेणिक का मण्डिकुक्षि-उद्यान में को दूर करने में असमर्थता। धर्म की शरण, रोगोपशमन, गमन । मुनि को देख कर विस्मय और श्रामण्य-स्वीकार अनगार-वृत्ति का स्वीकार और सनाथता। के बारे में प्रश्न। ३६,३७ आत्म-कर्तृत्व का उद्बोधन। ६ मुनि द्वारा अपनी अनाथता का उल्लेख। ३८-५० मुनि-धर्म से विपरीत आचरण करना--दूसरी अनाथता। १०,११ राजा द्वारा स्वयं नाथ होने का प्रस्ताव । ५१-५३ मेधावी पुरुष को महानिर्ग्रन्थ के मार्ग पर चलने की १२ मुनि द्वारा राजा की अनाथता का उल्लेख। प्रेरणा। १३-१५ राजा द्वारा आश्चर्यभरी व्याकुलता। ५४-५६ अनाथ की व्याख्या से श्रेणिक को परम तोष। मुनि की १६ अनाथता और सनाथता के बारे में जिज्ञासा । हार्दिक स्तवना और धर्म में अनुरक्ति। १७-३५ मुनि द्वारा अपनी आत्म-कथा। परिवार द्वारा चक्षु-वेदना ६० मुनि का स्वतंत्र-भाव से विहार। इक्कीसवां अध्ययन : समुद्रपालीय (वध्यचोर के दर्शन से संबोधि) पृ० ३४५-३५३ श्लोक १-६ पालित की समुद्र-यात्रा। समुद्रपाल का जन्म और १५ सम-भाव की साधना का उपदेश। विद्या अध्ययन। १६ मन के अभिप्रायों पर अनुशासन तथा उपसर्गों को ७ रूपिणी के साथ विवाह सहने का उपदेश। ८-१० वृद्ध को देखकर संवेग-प्राप्ति । कर्मों का विपाक-चिन्तन १७-१६ परीषहों की उपस्थिति में समता-भाव का उपदेश । और साधुत्व-स्वीकार। २० पूजा में उन्नत और गर्दा में अवनत न होने का ११ मुनि को पर्याय-धर्म, व्रत, शील तथा परीषहों में उपदेश। अभिरुचि लेने का उपदेश। २१ संयमवान् मुनि की परमार्थ-पदों में स्थिति। १२ पंच महाव्रत व उनके आचरण का उपदेश। २२ ऋषियों द्वारा आचीर्ण स्थानों के सेवन का उपदेश । १३ दयानुकम्पी होने का उपदेश। २३ अनुत्तर ज्ञानधारी मुनि की सूर्य की तरह दीप्तिमत्ता। १४ अपने बलाबल को तौल कर कालोचित कार्य करते २४ समुद्रपाल मुनि की संयम में निश्चलता से हुए विहरण का उपदेश । अपुनरागम-गति की प्राप्ति। बावीसवां अध्ययन : रथनेमीय (पुनरुत्थान) पृ० ३५४-३६७ श्लोक १,२ वसुदेव राजा के परिवार का परिचय। २८ अरिष्टनेमि की दीक्षा की बात सुनकर राजीमती की ३,४ समुद्रविजय राजा के परिवार का परिचय। अरिष्टनेमि शोक-निमग्नता। का जन्म। २६-३१ राजीमती का प्रव्रजित होने का निश्चय और केश-लुंचन। ५,६ अरिष्टनेमि का शरीर-परिचय और जाति-परिचय। वासुदेव का आशीर्वाद। केशव द्वारा उसके लिए राजीमती की मांग। ३२ राजीमती द्वारा अनेक स्वजन-परिजनों की दीक्षा। ७ राजीमती का स्वभाव-परिचय।। ३३ रैवतक पर्वत पर जाते समय राजीमती का वर्षा से ८ उग्रसेन द्वारा केशव की मांग स्वीकार। भीगने के कारण गुफा में ठहरना। ६-१६ अरिष्टनेमि के विवाह की शोभा यात्रा। बाड़ों और ३४ वस्त्रों को सुखाना। रथनेमि का राजीमती को यथाजात पिंजरों में निरुद्ध प्राणियों को देखकर सारथि से प्रश्न । (नग्न) रूप में देखकर भग्नचित्त हो जाना। १७ सारथि का उत्तर। ३५ राजीमती का संकुचित होकर बैठना। १८,१६ अरिष्टनेमि का चिन्तन । ३६-३८ रथनेमि द्वारा आत्म-परिचय और प्रणय- निवेदन। २० सारथि को कुण्डल आदि आभूषणों का दान। ३६-४५ राजीमती द्वारा रथनेमि को विविध प्रकार से उपदेश। २१ अभिनिष्क्रमण की भावना और देवों का आगमन। ४६,४७ रथनेमि का संयम में पुनः स्थिर होना। २२-२७ शिविका में आरूढ़ होकर अरिष्टनेमि का रैवतक पर ४८ राजीमती और रथनेमि को अनुत्तर सिद्धि की प्राप्ति। जाना। केश-लुंचन। वासुदेव द्वारा आशीर्वचन । ४६ संबुद्ध का कर्तव्य। तेवीसवां अध्ययन : केशि-गौतमीय (केशि और गौतम का संवाद) पृ० ३६८-३८६ श्लोक १-४ तीर्थकर पार्श्व के शिष्य श्रमण केशि का परिचय। सन्देह और जिज्ञासाएं। __ श्रावस्ती में आगमन और तिन्दुक उद्यान में स्थिति। १४ केशि और गौतम का परस्पर मिलने का निश्चय। ५-८ भगवान् महावीर के शिष्य गौतम का परिचय। श्रावस्ती १५-१७ गौतम का तिन्दुक-वन में आगमन। केशि द्वारा गौतम में आगमन और कोष्ठक उद्यान में स्थिति। का आदर-सत्कार और आसन-प्रदान। ९-१३ दोनों के शिष्य-समुदाय में एक-दूसरे को देखकर अनेक १८ केशी और गौतम की चन्द्र और सूर्य से तुलना। Jain Education Intemational Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६,२० अन्यतीर्थिक साधु, श्रावक तथा देव आदि का आगमन। २१-२४ केशी द्वारा चातुर्याम धर्म और पंच महाव्रत धर्म के बारे में प्रश्न। २५-२७ गौतम का समाधान। २८-३० केशी द्वारा सचेलक-अचेलक के बारे में जिज्ञासा। ३१-३३ लोक-प्रतीति आदि कारणों से वेष-धारण आवश्यक। ३४,३५ शत्रुओं पर विजयी कैसे? ३६-३८ गौतम का समाधान। ३६,४० पाश-बहुल संसार से मुक्त विहार कैसे? ४१-४३ गौतम का समाधान। ४४,४५ विष-तुल्य फल वाली लता का उच्छेद कैसे? ४६-४८ गौतम का समाधान। ४६,५० घोर अग्नियों का उपशमन कैसे? ५१-५३ गौतम का समाधान। ५४,५५ दुष्ट अश्व पर सवार होकर भी तुम उन्मार्ग पर क्यों नहीं? ५६-५८ गौतम का समाधान। ५६,६० कुमार्ग की बहुलता होने पर भी भटकते कैसे नहीं ? ६१-६३ गौतम का समाधान। ६४,६५ महान् जल-प्रवाह में बहते हुए जीवों के लिए शरण, गति, प्रतिष्ठा और द्वीप कौन ? ६६-६८ गौतम का समाधान। ६६,७० महाप्रवाह वाले समुद्र का पार कैसे? ७१-७३ गौतम का समाधान। ७४,७५ तिमिर-लोक में प्रकाश किसके द्वारा? ७६-७८ गौतम का समाधान। ७६,८० पीड़ित प्राणियों के लिए खेमंकर स्थान कहां? ८१-८४ गौतम का समाधान। ८५-८७ श्रमण केशी द्वारा गौतम की अभिवन्दना और पूर्व-मार्ग से पश्चिम-मार्ग में प्रवेश। केशी और गौतम का मिलन महान् उत्कर्ष और अर्थ-विनिश्चय का हेतु। ८६ परिषद् का संतोषपूर्वक निर्गमन। चौबीसवां अध्ययन : प्रवचन-माता (पांच समिति तथा तीन गुप्तियों का निरूपण) पृ० ३८७-३९६ श्लोक १ अध्ययन का उपक्रम। २० मनोगुप्ति के चार प्रकार। २ समिति, गुप्तियों का नाम-निर्देश। २१ संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान मन के ३ जिन-भाषित द्वादशांग-रूप प्रवचन का प्रवचन-माता में निवर्तन का उपदेश। समावेश। २२ वचन-गुप्ति के चार प्रकार। ४ साधु को ईर्यापूर्वक चलने का आदेश। २३ संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान वचन के ५-८ ईर्या का आलम्बन, काल, मार्ग और यतना का निर्देश । निवर्तन का उपदेश। ६,१० भाषा-समिति का स्वरूप और विधि। २४,२५ संरम्भ, समारम्भ में प्रवर्तमान शरीर के निवर्तन का ११,१२ एषणा-समिति का स्वरूप और विधि। उपदेश। १३,१४ आदान-समिति का स्वरूप और प्रतिलेखन-विधि २६ चारित्र की प्रवृत्ति के लिए समिति का तथा अशुभ १५-१६ उच्चार-समिति का स्वरूप और प्रतिलेखन-विधि विषयों से निवृत्ति के लिए गुप्ति का विधान । १६ समितियों के कथन के पश्चात् गुप्तियों का कथन। २७ प्रवचन-माता के आचरण से मुक्ति की संभवता। पचीसवां अध्ययन : यज्ञीय (जयघोष और विजयघोष का संवाद) पृ० ३९७-४०७ श्लोक १-३ जयघोष मुनि का परिचय और वाराणसी में आगमन। २८ वेद और यज्ञ की अत्राणता। ४ विजयघोष ब्राह्मण द्वारा यज्ञ का आयोजन। २६ श्रमण, ब्राह्मण, मुनि और तापस के स्वरूप में बाह्याचार ५ मुनि का वहां भिक्षार्थ उपस्थित होना। का खण्डन। ६-८ विजयघोष द्वारा भिक्षा का निषेध। ३० श्रमण, ब्राह्मण, मुनि और तापस की वास्तविक व्याख्या। ६,१० मुनि द्वारा समभाव पूर्वक ब्राह्मण को संबोध । ३१ जाति से कर्म की प्रधानता। ११,१२ वेद-मुख, यज्ञ-मुख, नक्षत्र-मुख, धर्म-मुख एवं अपने- ३२,३३ कर्मों से मुक्त आत्मा ही ब्राह्मण और उन्हीं की पराये उद्धार में समर्थ व्यक्तियों के विषय में जिज्ञासा। अपने-पराए उद्धार में समर्थता का प्रतिपादन। १३-१५ विजयघोष का निरुत्तर होना और मुनि से इसके बारे में ३४-३७ विजयघोष द्वारा मुनि की स्मृति और भिक्षा के लिए प्रश्न। आग्रह। १६ मुनि द्वारा समाधान।। ३८ मुनि का विजयघोष को संसार से निष्कमण का उपदेश । १७ चन्द्रमा के सम्मुख ग्रहों की तरह भगवान् ऋषभ के ३६-४१ मिट्टी के गीले और सूखे गोले की उपमा से भोगासक्ति समक्ष समस्त लोक नत-मस्तक। के स्वरूप का विश्लेषण। १८ यज्ञवादी ब्राह्मण-विद्या से अनभिज्ञ । ४२ विजयघोष द्वारा प्रव्रज्या-स्वीकार। १६-२७ ब्राह्मण के स्वरूप का निरूपण। ४३ जयघोष और विजयघोष दोनों को सिद्धि-प्राप्ति। धमय पतझापा Jain Education Intemational Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) छवीसवां अध्ययन सामाचारी (संघीय जीवन की पद्धति) श्लोक १ अध्ययन का उपक्रम । २४ सामाचारी के दस अंगों के नाम-निर्देश। ५-७ सामाचारी का प्रयोग कब और कैसे। ८ - १० प्रतिलेखन के बाद गुरु के आदेशानुसार चर्या का प्रारम्भ । ११ दिन के चार भागों में उत्तर- गुणों की आराधना । १२ प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में भिक्षाचरी और चौथे में पुनः स्वाध्याय का विधान । १३-१५ पौरुषी - विधि और वर्ष भर की तिथियों के वृद्धि-क्षय का परिज्ञान । १६ प्रतिलेखन का समय-विधान । १७ रात्रि के चार भागों में उत्तर- गुणों की आराधना । १८ प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में पुनः स्वाध्याय का विधान । १६,२० नक्षत्रों द्वारा रात्रि का काल ज्ञान । २१- २५ प्रतिलेखना विधि । २६, २७ प्रतिलेखना के दोषों के प्रकारों का वर्जन । २८ प्रतिलेखना के प्रशस्त और अप्रशस्त विकल्प । २६, ३० प्रतिलेखना में कथा आदि करने वाले का छह कार्यों का विराधक होना। अट्ठाईसवां अध्ययन अध्ययन का उपक्रम । श्लोक १ २ मार्गों का नाम-निर्देश । ३ मार्ग को प्राप्त करने वाले जीवों की सुगति । ४, ५ ज्ञान के पांच प्रकार । ६ द्रव्य, गुण और पर्याय की परिभाषा । ७ द्रव्य के छह प्रकारों का नाम-निर्देश । ८ छह द्रव्यों की संख्या परकता । ६ धर्म, अधर्म और आकाश के लक्षण । १०-१२ काल, जीव और पुद्गल के लक्षण । १३ पर्याय के लक्षण । १४ नौ तत्त्वों के नाम-निर्देश । पृ० ४०८-४२९ ३१ तीसरे प्रहर में भिक्षा तथा छह कारणों से भिक्षा का विधान । ३२ छह कारणों का नाम निर्देश । ३३ छह कारणों से भिक्षा न करने का विधान । ३४ छह कारणों का नाम निर्देश । ३५ भिक्षा के लिए अर्ध-योजन तक जाने का विधान । ३६ चौथे प्रहर में स्वाध्याय का विधान । ३७ शय्या की प्रतिलेखना। ३८ उच्चार भूमि की प्रतिलेखना। कायोत्सर्ग का विधान । ३६-४१ दैवसिक अतिचारों का प्रतिक्रमण । १५ सम्यक्त्व की परिभाषा । १६ सम्यक्त्व के दस प्रकारों का नाम-निर्देश । १७, १८ निसर्ग रुचि की परिभाषा । १६ उपदेश - रुचि की परिभाषा । २० आज्ञा-रुचि की परिभाषा । ४२ ४३ सत्तावीसवां अध्ययन खलुंकीय (अविनीत की उद्दण्डता का चित्रण) श्लोक १ गर्ग मुनि का परिचय । २ वाहन वहन करते हुए बैल की तरह योग- वहन करने वाले मुनि का संसार स्वयं उल्लंघित । ३-७ अविनीत बैल का मनोवैज्ञानिक स्वभाव-चित्रण । अयोग्य बैल की तरह दुर्बल शिष्य द्वारा धर्म यान को काल प्रतिलेखना । रात्री के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में स्वाध्याय का विधान । ४४ असंयत व्यक्तियों को न जगाते हुए स्वाध्याय का निर्देश | ४५ काल की प्रतिलेखना । ४६ कायोत्सर्ग का विधान । ४७-४६ रात्रिक अतिचारों का प्रतिक्रमण । ५० कायोत्सर्ग में तप ग्रहण का चिन्तन । ५१ तप का स्वीकार और सिद्धों का संस्तव । ५२ सामाचारी के आचारण से संसार सागर का पार । पृ० ४३०-४३७ - १४, १५ १६ १७ भग्न करना। ६-१३ अविनीत शिष्य का स्वभाव-चित्रण | आचार्य के मन में खेद खिन्नता । मोक्ष मार्ग गति (मोक्ष के मार्गों का निरूपण) गली - गर्दभ की तरह कुशिष्यों का गर्गाचार्य द्वारा बहिष्कार । गर्गाचार्य का शील-सम्पन्न होकर विहरण करना । पृ० ४३८-४६३ २३ २४ २१ सूत्र - रुचि की परिभाषा । २२ बीज-रुचि की परिभाषा । अभिगम रुचि की परिभाषा । विस्तार - रुचि की परिभाषा । २५ क्रिया- रुचि की परिभाषा । २६ संक्षेप रुचि की परिभाषा । २७ धर्म- रुचि की परिभाषा । २८ सम्यक्त्व का श्रद्धान। २६ सम्यक्त्व और चारित्र का पौर्वापर्य सम्बन्ध । ३० दर्शन, ज्ञान और चारित्र से ही मुक्ति की सम्भवता । ३१ सम्यक्त्व के आठ अंगों का निरूपण । ३२, ३३ चारित्र के पांच प्रकार । ३४ तप के दो प्रकार । ३५ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का परिणाम । ३६ संयम और तप से कर्म - विमुक्ति । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) उनतीसवां अध्ययन : सम्यक्त्व-पराक्रम (साधना-मार्ग) पृ० ४६४-५०२ श्लोक १ अध्ययन का उपक्रम । सम्यक्त्व-पराक्रम का अर्थ तथा ३६ शरीर-प्रत्याख्यान के परिणाम। संवेग से अकर्मता तक के ७३ विषयों का नाम-निर्देश । ४० सहाय-प्रत्याख्यान के परिणाम। २ संवेग के परिणाम। ४१ भक्त-प्रत्याख्यान के परिणाम। ३ निर्वेद के परिणाम। ४२ सद्भाव-प्रत्याख्यान के परिणाम। ४ धर्म-श्रद्धा के परिणाम। ४३ प्रतिरूपता के परिणाम। ५ गुरु-धार्मिक-शुश्रुषा के परिणाम। ४४ वैयावृत्त्य के परिणाम। ६ आलोचना के परिणाम। ४५ सर्व-गुण-सम्पन्नता के परिणाम। ७ निन्दा के परिणाम। ४६ वीतरागता के परिणाम। ८ गर्दा के परिणाम। ४७ क्षमा का परिणाम। ६ सामायिक का परिणाम। ४८ मुक्ति के परिणाम। १० चतुर्विंशतिस्तव का परिणाम। ४६ ऋजुता के परिणाम। ११ वन्दना के परिणाम। ५० मृदुता के परिणाम। १२ प्रतिक्रमण के परिणाम । ५१ भाव-सत्य के परिणाम। १३ कायोत्सर्ग के परिणाम। ५२ करण-सत्य के परिणाम। १४ प्रत्याख्यान का परिणाम। ५३ योग-सत्य के परिणाम। १५ स्तव-स्तुति-मंगल के परिणाम। ५४ मनो-गुप्तता के परिणाम। १६ काल-प्रतिलेखना का परिणाम। ५५ वाकू-गुप्तता के परिणाम। १७ प्रायश्चित्त के परिणाम। ५६ काय-गुप्तता के परिणाम। १८ क्षमा करने के परिणाम । ५७ मनःसमाधारणा के परिणाम। १६ स्वाध्याय का परिणाम ५८ वाक्-समाधारणा के परिणाम। २० वाचना के परिणाम। ५६ काय-समाधारणा के परिणाम। २१ प्रतिपृच्छा के परिणाम। ६० ज्ञान-सम्पन्नता के परिणाम। २२ परिवर्तना का परिणाम। ६१ दर्शन-सम्पन्नता के परिणाम। २३ अनुप्रेक्षा के परिणाम। ६२ चारित्र-सम्पन्नता के परिणाम। २४ धर्मकथा के परिणाम। ६३ श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रह का परिणाम। २५ श्रुताराधना के परिणाम। ६४ चक्षु-इन्द्रिय-निग्रह का परिणाम। २६ एकाग्र-मनःसन्निवेश का परिणाम। ६५ घ्राणेन्द्रिय-निग्रह का परिणाम। २७ संयम का परिणाम। ६६ जिहेन्द्रिय-निग्रह का परिणाम। २८ तप का परिणाम। ६७ स्पर्शेन्द्रिय-निग्रह का परिणाम। २६ व्यवदान के परिणाम । ६८ क्रोध-विजय का परिणाम। ३० सुख-शात के परिणाम। ६६ मान-विजय का परिणाम। ३१ अप्रतिबद्धता के परिणाम। ७० माया-विजय का परिणाम । ३२ विविक्त-शयनासन-सेवन के परिणाम । ७१ लोभ-विजय का परिणाम। ३३ विनिवर्तना के परिणाम। ७२ प्रेम, द्वेष और मिथ्या-दर्शन-विजय के परिणाम। ३४ संभोज-प्रत्याख्यान के परिणाम। ७३ केवली के योग-निरोध का क्रम। शेष चार कर्मों के क्षय ३५ उपधि-प्रत्याख्यान के परिणाम। का क्रम। ३६ आहार-प्रत्याख्यान के परिणाम। ७४ कर्म-क्षय के बाद जीव की मोक्ष की ओर गति, स्थिति ३७ कषाय-प्रत्याख्यान के परिणाम। का स्वरूप-विश्लेषण। उपसंहार। ३८ योग-प्रत्याख्यान के परिणाम। तीसवां अध्ययन : तपो-मार्ग-गति (तपो-मार्ग के प्रकारों का निरूपण) पृ० ५०३-५३१ श्लोक अध्ययन का प्रारम्भ। ७ तप के प्रकार २ महाव्रत और रात्रि-भोजन-विरति से जीव की ८ बाह्य-तप के छह प्रकार। आश्रव-विरति। ६ इत्वरिक अनशन। ३ समित और गुप्त जीव की आश्रव-विरति। १०,११ इत्वरिक तप के छह प्रकार। ४ अर्जित कर्मों के क्षय के उपाय। १२,१३ अनशन के दो प्रकार। ५,६ तालाब के दृष्टांत से तपस्या द्वारा कर्म-क्षय का निरूपण। १४-२४ अवमौदर्य के प्रकार। Jain Education Intemational Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) २५ भिक्षाचर्या की परिभाषा। ३२ विनय। २६ रस-विवर्जन। ३३ वैयावृत्त्य। २७ कायक्लेश। ३४ स्वाध्याय और उसके प्रकार। २८ विविक्त-शयनासन। ३५ ध्यान। २६,३० आन्तरिक-तप के भेदों का नाम-निर्देश। ३६ कायोत्सर्ग। ३१ प्रायश्चित्त। ३७ तप के आचरण से मुक्ति की संभवता। इकतीसवां अध्ययन : (चरण-विधि का निरूपण) पृ० ५३२-५४९ श्लोक १ अध्ययन का उपक्रम। १३ गाथा षोडशक और सतरह प्रकार के असंयम में यत्न २ असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति का विधान। करने से संसार-मुक्ति। ३ राग और द्वेष के निरोध से संसार-मुक्ति। १४ अठारह प्रकार के ब्रह्मचर्य, उन्नीस ज्ञात-अध्ययन और ४ तीन दण्डों, गौरवों और शल्यों के त्याग से संसार-मुक्ति। बीस असमाधि-स्थानों में यत्न करने से संसार-मुक्ति। ५ उपसर्ग-सहन करने से संसार-मुक्ति। १५ इक्कीस सबल दोष, बाईस परीषहों में यत्न करने से ६ विकथा, कषाय, संज्ञा और आर्त्त-रौद्र ध्यान के वर्जन संसार-मुक्ति। से संसार-मुक्ति। १६ सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययन और चौबीस प्रकार के ७ व्रत और समितियों के पालन से, इन्द्रिय-विजय और देवों में यत्न करने से संसार-मुक्ति। क्रियाओं के परिहार से संसार-मुक्ति। १७ पच्चीस भावनाओं और छब्बीस उद्देशों में यत्न करने ८ छह लेश्या, छह काय और आहार के छह कारणों में से संसार-मुक्ति। यत्न करने से संसार-मुक्ति। १८ साधु के सत्ताईस गुण और अठाईस आचार-प्रकल्पों में ६ आहार-ग्रहण की सात प्रतिमाओं और सात भय-स्थानों यत्न करने से संसार-मुक्ति । में यत्न करने से संसार-मुक्ति। १६ उनतीस पाप-प्रसंगों और तीस प्रकार के मोह-स्थानों में १० आठ मद-स्थान, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्ति और दस प्रकार यत्न करने से संसार-मुक्ति। के भिक्षु-धर्म में यत्न करने से संसार-मुक्ति। २० सिद्धों के इकतीस आदि-गुण, बत्तीस योग-संग्रह और ११ उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं और भिक्षु की बारह तेतीस आशातना में यत्न करने से संसार-मुक्ति। प्रतिमाओं में यत्न करने से संसार-मुक्ति। २१ इन स्थानों में यत्न करने वाले का शीघ्र संसार-मुक्त १२ तेरह क्रियाओं, चौदह जीव-समुदायों और पन्द्रह होना। परमाधार्मिक देवों में यत्न करने से संसार-मुक्ति। बतीसवां अध्ययन : प्रमाद-स्थान (प्रमाद के कारण और उनका निवारण) पृ० ५५०-५६८ श्लोक १ अध्ययन का प्रारम्भ। ३५-४७ शब्दासक्ति हिंसा, असत्य, चौर्य और दुःख का हेतु। २ एकान्त सुख के हेतु का प्रतिपादन। शब्द-विरति शोक-मुक्ति का कारण। ३ मोक्ष-मार्ग का प्रतिपादन। ४८-६० गन्ध-आसक्ति हिंसा, असत्य, चौर्य तथा दुःख का हेतु। ४ समाधि की आवश्यक सामग्री। गन्ध-विरति शोक-मुक्ति का कारण। ५ एकल-विहार की विशेष विधि। ६१-७३ रस-आसक्ति हिंसा, असत्य, चौर्य तथा दुःख का हेतु। ६ तृष्णा और मोह का अविनाभाव सम्बन्ध । रस-विरति शोक-मुक्ति का कारण। ७ कर्म-बीज का निरूपण। ७४-८६ स्पर्श-आसक्ति हिंसा, असत्य, चौर्य तथा दुःख का हेतु। * दुःख-नाश का क्रम। स्पर्श-विरति शोक-विमुक्ति का हेतु। ६,१० राग-द्वेष और मोह के उन्मूलन का उपाय। ८७-६६ भाव-आसक्ति हिंसा, असत्य, चौर्य तथा दुःख का हेतु। ११ प्रकाम-भोजन ब्रह्मचारी के लिए अहितकर। भाव-विरति शोक-विमुक्ति का हेतु। १२ विविक्त शय्यासन और कम भोजन से राग-शत्रु का १०० रागी पुरुष के लिए इन्द्रिय और मन के विषय दुःख के पराजय। हेतु, वीतराग के लिए नहीं। १३-१८ ब्रह्मचारी के लिए स्त्री-संसर्ग-वर्जन का विधान। १०१ समता या विकार का हेतु तद्विषयक मोह है, काम-भोग १६,२० किंपाक-फल की तरह काम-भोग की अभिलाषा दुःख नहीं। का हेतु। १०२,१०३ काम-गुण आसक्त पुरुष अनेक विकार–परिणामों द्वारा २१ मनोज्ञ विषय पर राग और अमनोज्ञ विषय पर द्वेष न करुणास्पद और अप्रिय। करने का उपदेश। १०४ तप के फल की वांछा करने वाला इन्द्रिय-रूपी चोरों का २२-३४ रूप-आसक्ति हिंसा, असत्य, चौर्य और दुःख का हेतु। वशवर्ती। रूप-विरति शोक-मुक्ति का कारण। १०५ विषय-प्राप्ति के प्रयोजनों के लिए उद्यम। Jain Education Intemational Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) १०६ विरक्त पुरुष के लिए शब्द आदि विषय मनोज्ञता या अमनोज्ञता के हेतु नहीं । १०७ राग-द्वेषात्मक संकल्प दोष का मूल है, इन्द्रिय-विषय नहीं इस विचार से तृष्णा का क्षय । तेतीसवां अध्ययन श्लोक १ अध्ययन का उपक्रम । २-३ कर्मों के नाम-निर्देश । ४-१५ कर्मों के प्रकार । १६-१७ एक समय में ग्राह्य सब कर्मों के प्रदेशों का परिमाण । १८ सब जीवों के संग्रह - योग्य पुद्गलों की छहों दिशाओं में चौतीसवां अध्ययन श्लोक १-२ उपक्रम । कर्म - प्रकृति (कर्म की प्रकृतियों का निरूपण) ३ लेश्याओं के नाम-निर्देश । ४-६ लेश्याओं का वर्ण विचार। १०,१५ लेश्याओं का रस-विचार । १६, १७ लेश्याओं का गंध-विचार । १८, १६ लेश्याओं का स्पर्श-विचार । २१-३२ लेश्याओं के परिणाम । लेश्या अध्ययन (कर्म - लेश्या का विस्तार) उपक्रम । २ संग विवेक । ३ पांच महाव्रतों का नाम-निर्देश । ४,५ भिक्षु वैसे मकान में न रहे जहां कामराग बढ़ता हो । ६ भिक्षु श्मशान आदि एकान्त स्थानों में रहे। ७ भिक्षु के रहने का स्थान कैसा हो ? ८ भिक्षु को गृह समारम्भ न करने का निर्देश । ६ गृह समारम्भ के दोष । १०, ११ आहार की शुद्धता । १०८ वीतराग की कृतकृत्यता । १०६ आयुष्य क्षय होने पर मोक्ष प्राप्ति । ११० मुक्त जीव की कृतार्थता । १११ दुःखों से मुक्त होने का मार्ग । ३३ लेश्याओं के स्थान । ३४-३६ लेश्याओं की स्थिति । पैंतीसवां अध्ययन : अनगार मार्ग-गति (अनगार का स्फुट आचार) श्लोक १ २ लोक और अलोक की परिभाषा । ३ जीव और अजीव की प्ररूपणा के प्रकार । ४ अजीव के दो प्रकार। ५, ६ अरूपी अजीव के दस प्रकार । ७ धर्मास्तिकाय आदि का क्षेत्रतः निरूपण । ८,६ धर्मास्तिकाय आदि का कालतः निरूपण । १०-१४ रूपी पुद्गल के प्रकारों का द्रव्य, क्षेत्र और काल - मान । १५-२० वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से पुद्गल की परिणति । २१ संस्थान की अपेक्षा से पुद्गल की परिणति । २२-४७ पुद्गल के अनेक विकल्प। अजीव विभक्ति का समापन । ४८ जीव के दो प्रकार । ४६-६७ सिद्धों के प्रकार, अवगाहना, संस्थिति का निरूपण तथा स्थिति । १६- २३ कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति । २४ कर्मों का अनुभाग । २५ कर्म-निरोध का उपदेश । छत्तीसवां अध्ययन जीवाजीवविभक्ति (जीव और अजीव के विभागों का निरूपण) श्लोक १ अध्ययन का उपक्रम । ४०-४३ नारकीय जीवों के लेश्याओं की स्थिति । ४४-४६ तिर्यञ्च और मनुष्य के लेश्याओं की स्थिति । ४७-५५ देवों के लेश्याओं की स्थिति । ५६ अधर्म लेश्याओं की गति । ५७ धर्म लेश्याओं की गति । ५८-६० लेश्या परिणति का उपपात के साथ संबंध । ६१ अप्रशस्त लेश्याओं का वर्जन और प्रशस्त लेश्याओं के स्वीकार का उपदेश । पृ० ५९०-५९६ १२ भिक्षु के लिए अग्नि का समारंभ न करने का विधान । १३ सोने-चांदी की अनाकांक्षा । पृ० ५६९-५७६ १४, १५ क्रय-विक्रय भिक्षु के लिए महान् दोष । १६ पिण्ड-पात की एषणा । १७ जीवन निर्वाह के लिए भोजन का विधान । १८ पूजा, अर्चना और सम्मान के प्रति अनाशंसा-भाव । १६ शुक्ल - ध्यान और व्युत्सृष्ट-काय होने का उपदेश । २० अनशन का विधान । २१ आश्रव रहित व्यक्ति का परिनिर्वाण । सिद्धालय का स्वरूप । ६८ संसारी जीव के दो प्रकार । ६६ ७० - ८३ पृ० ५७७-५८९ १०७ १०८ - ११६ स्थावर जीव के तीन मूल भेद । पृथ्वीकाय के उत्तर-भेद, गति, स्थिति, कायस्थिति, अंतर आदि पर विचार । ८४ ६१ अप्काय के उत्तर-भेद, गति, स्थिति, कायस्थिति, अंतर आदि पर विचार । ६२-१०६ वनस्पतिकाय के उत्तर-भेद, गति, स्थिति, कायस्थिति, अंतर आदि पर विचार । त्रस जीव के तीन भेद । पृ० ५९७–६४२ तेजस्काय के उत्तर-भेद, गति, स्थिति, कायस्थिति, अंतर आदि पर विचार | ११७- १२५ वायुकाय के उत्तर-भेद, गति, स्थिति, कायस्थिति, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर आदि पर विचार । १२६ उदार सकायिक जीवों के प्रकार । (४०) २४८, २४६ जीवाजीव के ज्ञान पूर्वक संयम का निर्देश । २५० -२५५ संलेखना विधि । १२७- १३५ द्वीन्द्रिय-काय के उत्तर-भेद, गति, स्थिति, कायस्थिति, अंतर आदि पर विचार | १३६-१४४ त्रीन्द्रिय-काय के उत्तरर-भेद, गति, स्थिति, कायस्थिति, अंतर आदि पर विचार। १४५-१५४ चतुरिन्द्रिय-काय के उत्तर-भेद, गति, स्थिति, कायस्थिति, अंतर आदि पर विचार । १५५ पञ्चेन्द्रिय के चार प्रकार । १५६-१६८ नरकों के नाम-निर्देश । नैरयिक जीवों की स्थिति, कायस्थिति, अंतर आदि पर विचार | आयु, कायस्थिति १७०- १७१ पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच के प्रकार और अवांतर भेद । १७२- १७८ जलचर जीवों के प्रकार काल विभाग, तथा अंतर का निर्देश । १७६ १८७ स्थलचर जीवों के प्रकार काल विभाग, आयु, कायस्थिति तथा अंतर का निर्देश । आयु, कायस्थिति १८८ - १६४ खेचर जीवों के प्रकार काल विभाग, तथा अंतर का निर्देश । १६५ - २०३ मनुष्य के प्रकार काल-विभाग, आयु, कायस्थिति तथा अंतर का निर्देश । २०४- २४७ देवों के प्रकार काल विभाग, आयु, कायस्थिति तथा अंतर का निर्देश । २५६-२६२ शुभ और अशुभ भावनाएं सुगति और दुर्गति का कारण। २६३ कांदर्पी भावना । २६४ अभियोगी भावना । २६५ किल्विषिक भावना। २६६ २६७ आसुरी - भावना । मोही भावना । २६८ उपसंहार । परिशिष्ट १. पदानुक्रम २. उपमा और दृष्टांत ३. सूक्त ४. व्यक्ति परिचय ५. भौगोलिक परिचय ६. तुलनात्मक अध्ययन ७. टिप्पण अनुक्रम ८. विशेष शब्द ६. प्रयुक्त-ग्रन्थ पृ. ६४३ से ६८२ ६८३-६८४ ६८५-६८६ ६८७-६६२ ६६३-६६८ ६६६-७०४ ७०५-७१४ ७१५-७२० ७२१-७२७ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं अज्झयणं विणयसुर्य पहला अध्ययन विनयश्रुत Jain Education Intemational Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख चूर्णि के अनुसार इस अध्ययन का नाम 'विनयसूत्र" १. अभ्यासवृत्तिता-समीप रहना। और नियुक्ति तथा बृहद्वृत्ति के अनुसार 'विनयश्रुत' है। २. परछन्दानुवृत्तिता-दूसरे के अभिप्राय का अनुवर्तन समवायांग में भी इस अध्ययन का नाम विनयश्रुत' है। करना। 'श्रुत' और 'सूत्र'-दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। इस अध्ययन में ३. कार्यहेतु-कार्य की सिद्धि के लिए अनुकूल वर्तन करना। विनय की श्रुति या सूत्रण है। ४. कृतप्रतिक्रिया-कृत उपकार के प्रति अनुकूल वर्तन भगवान् महावीर की साधना-पद्धति का एक अंग करना। 'तपोयोग' है। उसके बारह प्रकार हैं। उनमें आठवां प्रकार ५.. आर्तगवेषणा–आर्त की गवेषणा करना। 'विनय' है। उसके सात रूप प्राप्त होते हैं : ६. देशकालज्ञता-देश और काल को समझना। १. ज्ञानविनय-ज्ञान का अनुवर्तन। ७. सर्वार्थ-अप्रतिलोमता-सब प्रकार के प्रयोजनों की २. दर्शनविनय-दर्शन का अनुवर्तन। सिद्धि के लिए अनुकूल वर्तन करना। ३. चारित्रविनय--चारित्र का अनुवर्तन। दूसरे श्लोक में दी हुई विनीत की परिभाषा से तीन ४. मनविनय-मन का अनुवर्तन। विभाग-परछन्दानुवृत्तिता, अभ्यासवृत्तिता, देशकालज्ञता-क्रमशः ५. वचन विनय-वचन का अनुवर्तन। आज्ञानिर्देशकर, उपपातकारक और इंगिताकार-सम्पन्न के रूप ६. कायविनय-काया का अनुवर्तन। में प्रयुक्त हुए हैं। ७. लोकोपचारविनय-अनुशासन, शुश्रूषा और शिष्टाचार दसवें श्लोक में 'मनविनय', 'वचनविनय' और 'ज्ञानविनय' पालन। का संक्षेप में बहुत सुन्दर निर्देश किया गया है। बृहद्वृत्ति में 'विनय' के पांच रूप प्राप्त होते है। इस प्रकार इस अध्ययन में विनय के सभी रूपों का १. लोकोपचारविनय। सम्यक् संकलन हुआ है। प्राचीनकाल में विनय का बहुत मूल्य २. अर्थविनय- अर्थ के लिए अनुवर्तन करना। रहा है। तेईसवें श्लोक में बताया गया है कि आचार्य विनीत को ३. कामविनय-काम के लिए अनुवर्तन करना। विद्या देते हैं। अविनीत विद्या का अधिकारी नहीं माना जाता। ४. भयविनय-भय के लिए अनुवर्तन करना। इस अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि गुरु शिष्य पर कठोर ५. मोक्षविनय-मोक्ष के लिए अनुवर्तन करना। इस और मृदु-दोनों प्रकार का अनुशासन करते थे। (श्लोक २७)। विनय के पांच प्रकार किए गए हैं-ज्ञानविनय, दर्शनविनय, समय की नियमितता भी विनय और अनुशासन की एक अंग चारित्रविनय, तपविनय और औपचारिकविनय। थी: इन दोनों वर्गीकरणों के आधार पर विनय के पांच अर्थ कालेण निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे। प्राप्त होते हैं-अनुवर्तन, प्रवर्तन, अनुशासन, शुश्रूषा और अकालं च विवज्जित्ता, काले कालं समायरे।।१।४१।। शिष्टाचार-परिपालन। इस अध्ययन में स्वाध्याय और अध्ययन दोनों का प्रस्तुत अध्ययन में इन सभी प्रकारों का प्रतिपादन सम्मिलित उल्लेख मिलता है। आचार्य रामसेन ने लिखा है : हुआ है। स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां, ध्यानात् स्वाध्यायमामनेत्। दूसरे श्लोक में 'विनित' की परिभाषा लोकोपचारविनय के ध्यानस्वाध्यायसम्पत्या, परमात्मा प्रकाशते ।। आधार पर की गई है। लोकोपचारविनय के सात विभाग हैं - स्वाध्याय के पश्चात् ध्यान और ध्यान के पश्चात् १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट : प्रथममध्ययन विनयसुत्तमिति, विनयो यस्मिन् सूत्रे वर्ण्यते तदिदं विनयसूत्रम्। २. (क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २८ : तत्थज्झयणं पढम विणयसुयं..। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १५ : विनयश्रुतमिति द्विपदं नाम। ३. समवाओ, समवाय ३६ : छत्तीसं उत्तरायणा पं. तं. विणयसुय... ४. उत्तरज्झयणाणि, ३०/८,३०। ५. ओववाइय, सूत्र ४० : से किं तं विणए? विणए सत्तविहे पण्णते, तं जहा णाणविणए दंसणविणए चरित्तविणए मणविणए वइविणए कायविणए लोगोवयारविणए। ६. बृहदवृत्ति, पत्र १६ : लोकोययारविणओ अत्थनिमित्तं च कामहेउं च। भयविणयमोक्खविणओ खलु पंचहा णेओ।। ७. वही, पत्र १६ : सणणाणचरिते तवे य तह ओवयारिए चेव। एसो य मोक्खविणओ पंचविहो होइ णायव्यो।। . ओववाइयं, सूत्र ४० : से किं तं लोगोवयारविणए? लोगोवयारविणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-अब्भासवत्तियं परच्छंदाणुबत्तियं कज्जहेउ कयपडिकिरिया अत्तगवेसणया देसकालपणुया सव्वत्थेसु अप्पडिलोमया। . तत्त्वानुशासन, ८१। Jain Education Intemational Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि स्वाध्याय- - इस प्रकार स्वाध्याय और ध्यान की पुनरावृत्ति से परमात्मस्वरूप उपलब्ध होता है। 1 यह परम्परा बहुत पुरानी है। इसका संकेत दसवें श्लोक में मिलता है -- कालेण य अहिहिज्जत्ता, तओ झाएज्ज एगगो । विनय के व्यापक स्वरूप को सामने रखकर ही यह कहा गया था - ' विनय जिन शासन का मूल है। जो विनयरहित है, उसे धर्म और तप कहां से प्राप्त होगा?" आचार्य वट्टकेर ने विनय का उत्कर्ष इस भाषा में प्रस्तुत किया है— विनयविहीन व्यक्ति की सारी शिक्षा व्यर्थ है । शिक्षा का फल विनय है । यह नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति शिक्षित है और विनीत नहीं है। उनकी भाषा में शिक्षा का फल विनय और विनय का फल शेष समग्र कल्याण है। विनय मानसिक दासता नहीं है, किन्तु वह आत्मिक और व्यावहारिक विशेषताओं की अभिव्यंजना है। उसकी पृष्ठभूमि में इतने गुण समाहित रहते हैं : १. आत्मशोधि - आत्मा का परिशोधन I १. उपदेशमाला, ३४१ : विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तओ ।। २. मूलाचार, ५।२११ विणएण विप्पहीणस्स, हवदि सिक्खा सव्वा णिरत्थिया । विणओ सिक्खाए फलं, विणयफलं सव्व कल्लाणं ।।। २. निर्द्वन्द्व ३. ऋजुता ४. मृदुता - निश्छलता और निरभिमानता । ५. लाघव - अनासक्ति । ६. भक्ति - भक्ति । अध्ययन १ : आमुख - - कलह आदि द्वन्द्वों की प्रस्तुति का अभाव। सरलता । ७. प्रह्लादकरण – प्रसन्नता । विनय के व्यावहारिक फल हैं-कीर्ति और मैत्री । विनय करने वाला अपने अभिमान का निरसन, गुरुजनों का बहुमान, तीर्थंकर की आज्ञा का पालन और गुणों का अनुमोदन करता है । * सूत्रकार ने विनीत को वह स्थान दिया है, जो अनायास लभ्य नहीं है। सूत्र की परिभाषा है - 'हवइ किच्चाणं सरणं, भूयाणं जगई जहा' - जिस प्रकार पृथ्वी प्राणियों के लिए आधार होती है, उसी प्रकार विनीत शिष्य धर्माचरण करने वालों के लिए आधार होता है। ३. वही, ५।२१३ : ४. वही, ५। २१४ : आयारजीदकप्पगुणदीवणा, अत्तसोधि णिज्जंजा । अज्जव मद्दव - लाहव भत्ती पल्हादकरणं च । कित्ती मित्ती माणस्स भंजणं गुररुजणे य बहुमाणं । तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा ।। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. संजोगा विप्यमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो । विनयं पाउकरिस्सामि आणुपुव्विं सुणेह मे ।। २. आणानिदेसकरे गुरुणमुववायकारए । इंगियागार संपन्ने से विणीए त्ति वुच्चई ।। ३. आणा ऽनि सकरे गुरुणमणुववायकारए । पडिणीए असंबुद्धे अविणीए त्ति वुच्चई || ४. जहा सुणी पूइकण्णी निक्कसिज्ज सब्बसो एवं दुस्सील पडिणीए मुहरी निक्कसिज्जई || ५. कणकुण्डगं चइत्ताणं विट्ठ भुंजइ सूयरे । एवं सीलं चइत्ताणं दुस्सीले रमई मिए ।। ६. सुणियाऽभावं साणस्स सूयरस्स नरस्स य । विणए ठवेज्ज अप्पाण इच्छन्तो हियमप्पणी ।। ७. तम्हा विणयमेसेज्जा सील पडिलमे जओ। बुखपुत नियागट्टी न निक्कसिज्जइ कण्हुई ।। ८. निसन्ते सियाऽमुहरी बुद्धाणं अन्तिए सया । अनुत्ताणि सिक्खेज्जा निरट्ठाणि उ वज्जए । चढमं अज्झयणं : पहला अध्ययन विणयसुयं विनयश्रुत संस्कृत छाया संयोगाद् विप्रमुक्तस्य अनगारस्य भिक्षोः । विनयं प्रादुष्करिष्यामि आनुपूर्व्या शृणुत मम ।। आज्ञानिर्देशकरः गुरूणामुपपातकारकः । इंगिताकारसम्प्रज्ञः स विनीत इत्युच्यते ।। अनाज्ञानिर्देशकरः गुरूणामनुपपातकारकः । प्रत्यनीको सम्बुद्धः अविनीत इत्युच्यते । यथा शुनी पूतिकर्णी निष्काश्यते सर्वशः । एवं दुःशीलः प्रत्यनीकः मुखरो निष्काश्यते ।। कणकुण्डगं त्यक्त्वा विष्ठां भुंक्ते शूकरः। एवं शीलं त्यक्त्वा दुःशीले रमते मृगः || श्रुत्वा अभावं शुनः शूकरस्य नरस्य च। विनये स्थापयेदात्मानम् इच्छन् हितमात्मनः ।। तस्माद् विनयमेषयेत् शीलं प्रतिलभेत यतः । बुद्धपुत्रो नियागार्थी न निष्काश्यते क्वचित् ।। निशान्तः स्यादमुखरः बुद्धानामन्तिके सदा । अर्थयुक्तानि शिक्षेत निरर्थानि तु वर्जयेत् || हिन्दी अनुवाद जो संयोग से मुक्त है, अनगार है, भिक्षु है, ' उसके विनय को क्रमशः प्रकट करूंगा। मुझे सुनो। जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन करता है', そ गुरु की शुश्रूषा करता है, गुरु के इंगित और आकार को जानता है, वह 'विनीत' कहलाता है । ६ ७ जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन नहीं करता, गुरु की शुश्रूषा नहीं करता जो गुरु के प्रतिकूल वर्तन करता है और इंगित तथा आकार को नहीं समझता है वह 'अविनीत' कहलाता है । १० जैसे सड़े हुए कानों वाली कृतिया सभी स्थानों से निकाली जाती है, वैसे ही दुःशील, गुरु के प्रतिकूल वर्तन करने वाला और वाचाल भिक्षु" गण से निकाल दिया जाता है। जिस प्रकार सूअर चावलों की भूसी को छोड़कर विष्ठा खाता है, वैसे ही अज्ञानी भिक्षु शील को ४ छोड़कर दुःशील में रमण करता है। १५ अपनी आत्मा का हित और सूअर की तरह ( हीनभाव) को सुनकर स्थापित करे । चाहने वाला भिक्षु कुतिया दुःशील मनुष्य के अभाव अपने आप को विनय में इसलिए विनय का आचरण करे कि जिससे शील की प्राप्ति हो । जो बुद्धपुत्र ( आचार्य का प्रिय शिष्य ) और मोक्ष का अर्थी" होता है, वह कहीं से भी नहीं निकाला जाता। भिक्षु आचार्य के समीप सदा प्रशान्त रहे, वाचालता न करे। उनके पास अर्थयुक्त पदों को सीखे और निरर्थक पदों का वर्जन करे।" Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन १ : श्लोक ६-१६ ६. अणुसासिओ न कुप्पेज्जा अनुशिष्टो न कुप्येत् पण्डित भिक्षु गुरु के द्वारा अनुशासित होने पर क्रोध खंतिं सेविज्ज पण्डिए। क्षांति सेवेत पण्डितः। न करे, क्षमा की आराधना करे। क्षुद्र व्यक्तियों के खुड्डेहिं सह संसग्गिं क्षुद्रैः सह संसर्ग साथ संसर्ग, हास्य और क्रीड़ा न करे। हासं कीडं च वज्जए।। हासं क्रीडां च वर्जयेत्। १०.मा य चण्डालियं कासी मा च चाण्डालिकं कार्षी भिक्षु चण्डालोचित कर्म (क्रूर-व्यवहार) न करे। बहुयं मा य आलवे। बहुकं मा चालपेत बहुत न बोले। स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करे कालेण य अहिज्जित्ता कालेन चाधीत्य और उसके पश्चात् अकेला ध्यान करे। तओ झाएज्ज एगगो।। ततो ध्यायेदेककः ।। ११.आहच्च' चण्डालियं कटु 'आहच्च' चाण्डालिकं कृत्वा भिक्षु सहसा चण्डालोचित कर्म कर उसे कभी भी न न निण्हविज्ज कयाइ वि। न निन्हुवीत कदाचिदपि। छिपाए। अकरणीय किया हो तो ‘किया' और नहीं कडं कडे त्ति भासेज्जा कृतं कृतमिति भाषेत किया हो तो 'न किया' कहे। अकडं नो कडे ति य।। अकृतं नो कृतमिति च।। १२.मा गलियस्से व कसं मा गल्यश्व इव कशं जैसे अविनीत घोड़ा२२ चाबुक को बार-बार चाहता है, वयणमिच्छे पुणो-पुणो। वचनमिच्छेद् पुनः पुनः। वैसे विनीत शिष्य गुरु के वचन (आदेश-उपदेश) को कसं व ठुमाइण्णे कशमिव दृष्ट्वा आकीर्णः बार-बार न चाहे। जैसे विनीत घोड़ा चाबुक को पावगं परिवज्जए।। पापकं परिवर्जयेत्।। देखते ही उन्मार्ग को छोड़ देता है, वैसे ही विनीत शिष्य गुरु के इंगित और आकार को देखकर अशुभ प्रवृत्ति को छोड़ दे। १३.अणासवा थूलवया कुसीला अनाश्रवाः स्थूलवचसः कुशीलाः आज्ञा को न मानने वाले और अंट-संट बोलने वाले मिउं पि चण्डं पकरेंति सीसा। मृदुमपि चण्डं प्रकुर्वन्ति शिष्याः। कुशील शिष्य कोमल स्वभाव वाले गुरु को भी क्रोधी चित्ताणुया लहुदक्खोववेया चित्तानुगा लघुदाक्ष्योपेताः बना देते हैं। चित्त के अनुसार चलने वाले और पसायए ते हु दुरासयं पि।। प्रसादयेयुस्ते 'हु' दुराशयमपि।। पटुता से कार्य को सम्पन्न करने वाले शिष्य दुराशय५ गुरु को भी प्रसन्न कर लेते हैं। १४.नापुट्ठो वागरे किंचि नापृष्टो व्यागृणीयात् किञ्चित् बिना पूछे कुछ भी न बोले। पूछने पर असत्य न पुट्ठो वा नालियं वए। पृष्टो वा नालीकं वदेत्। बोले। क्रोध आ जाए तो उसे विफल कर दे। प्रिय कोहं असच्चं कुब्वेज्जा क्रोधमसत्यं कुर्वीत और अप्रिय को धारण करे-राग और द्वेष न धारेज्जा पियमप्पियं ।। धारयेत् प्रियमप्रियम्।। करे। १५.अप्पा चेव दमेयव्वो आत्मा चैव दान्तव्यः आत्मा का ही दमन करना चाहिए, क्योंकि आत्मा अप्पा हु खलु दुद्दमो। आत्मा 'हु' खलु दुदर्मः। ही दुर्दम है। दमित आत्मा ही इहलोक और परलोक अप्पा दन्तो सुही होइ आत्मा दान्तः सुखी भवति में सुखी होता है। अस्सिं लोए परत्थ य।। अस्मिल्लोके परत्र च।। १६.वरं मे अप्पा दन्तो वरं मम आत्मा दान्तः अच्छा यही है कि मैं संयम और तप के द्वारा संजमेण तवेण य। संयमेन तपसा च। अपनी आत्मा का दमन करूं। दूसरे लोग बंधन माहं परेहि दम्मन्तो माहं परैर्दम्यमानः और वध के द्वारा मेरा दमन करें-यह अच्छा नहीं बन्धणेहि वहेहि य।। बन्धनैर्वधैश्च।। बना दत १. बृहद्वृत्ति (पत्र ८) में इसका संस्कृत रूप 'आहृत्य' और अर्थ कदाचित् किया गया है। चूर्णि (पृ. २६) में कदाचित् और सहसा-दो अर्थ प्राप्त हैं। पिशेल ने इसे अर्धमागधी का शब्द मानकर संस्कृत रूप में 'अहत्य' दिया है। देशीनाममाला (१६२) में इसका अर्थ 'अत्यर्थ' मिलता है। शौरसेनी में यह शब्द 'आहणिअ' के रूप में मिलता है। प्रस्तुत प्रकरण में 'सहसा' अर्थ अधिक उपयुक्त लगता है। Jain Education Intemational Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ : श्लोक १७-२५ लोगों के समक्ष या एकान्त में, वचन से या कर्म से, कभी भी आचार्य के प्रतिकूल वर्तन न करे। आचार्यों के२ बराबर न बैठे। आगे और पीछे भी न बैठे। उनके ऊरु से अपना ऊरु सटाकर न बैठे। बिछौने पर बैठे-बैठे ही उनके आदेश को स्वीकार न करे, किन्तु उसे छोड़कर स्वीकार करे।२३ संयमी मुनि गुरु के समीप पलथी लगाकर (घुटनों और जंघाओं के चारों ओर वस्त्र बांधकर) न बैठे। पक्ष-पिण्ड कर (दोनों हाथों से घुटनों और साथल को बांधकर) तथा पैरों को फैलाकर न बैठे। आचार्यों के द्वारा बुलाए जाने पर किसी भी अवस्था में मौन न रहे। गुरु के प्रसाद को चाहने वाला मोक्षाभिलाषी शिष्य सदा उनके समीप रहे। विनयश्रुत १७.पडिणीयं च बुद्धाणं वाया अदुव कम्मुणा। आवी वा जइ वा रहस्से नेव कुज्जा कयाइ वि।। १८.न पक्खओ न पुरओ नेव किच्चाण पिट्ठओ न जुंजे ऊरुणा ऊरुं सयणे नो पडिस्सुणे।। १६.नेव पल्हत्थियं कुज्जा पक्खपिण्डं व संजए। पाए पसारिए वावि न चिठे गुरुणन्तिए।। २०.आयरिएहिं वाहिन्तो तुसिणीओ न कयाइ वि। पसायपेही नियागट्ठी उवचिठे गुरुं सया।। २१.आलवंते लवंते वा न निसीएज्ज कयाइ वि। चइऊणमासणं धीरो जओ जत्तं पडिस्सुणे।। २२.आसणगओ न पुच्छेज्जा नेव सेज्जागओ कया। आगम्मुक्कुडुओ संतो पुच्छेज्जा पंजलीउडो।। २३.एवं विणयजुत्तस्स सुत्तं अत्थं च तदुभयं । पुच्छमाणस्स सीसस्स वागरेज्ज जहासुयं ।। २४.मुसं परिहरे भिक्खू न य ओहारिणिं वए। भासादोसं परिहरे मायं च वज्जए सया।। २५.न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं न निरठें न मम्मयं। अप्पणट्ठा परट्ठा वा उभयस्संतरेण वा।। प्रत्यनीकत्वं च बुद्धानां वाचा अथवा कर्मणा। आविर्वा यदि वा रहस्ये नैव कुर्यात् कदाचिदपि।। न पक्षतो न पुरतः नैव कृत्यानां पृष्ठतः। न युञ्ज्याद् ऊरुणोरु शयने नो प्रतिशृणुयात्।। नैव पर्यस्तिकां कुर्यात् पक्षपिण्डं वा संयतः। पादौ प्रसार्य्य वापि न तिष्ठेद् गुरूणामन्तिके।। आचार्यैाहृतः तूष्णीको न कदाचिदपि। प्रसादप्रेक्षी नियागार्थी उपतिष्ठेत गुरुं सदा।। आलपन् लपन् वा न निषीदेत् कदाचिदपि। त्यक्त्या आसनं धीरः यतो यत्नं प्रतिशृणुयात्।। आसनगतो न पृच्छेत् नैव शय्यागतः कदा। आगम्योत्कुटुकः सन् पृच्छेत् प्रांजलिपुटः।। एवं विनययुक्तस्य सूत्रमर्थं च तदुभयम्। पृच्छतः शिष्यस्य व्यागृणीयाद् यथाश्रुतम्।। मृषा परिहरेद् भिक्षुः न चावधारिणीं वदेत्। भाषादोषं परिहरेत् मायां च वर्जयेत् सदा।। न लपेत् पृष्टः सावा न निरर्थं न मर्मकम्। आत्मार्थ परार्थ वा उभयस्यान्तरेण वा।। धृतिमान् शिष्य गुरु के साथ आलाप करते और प्रश्न पूछते समय कभी भी बैठा न रहे, किन्तु वे जो आदेश दें, उसे आसन को छोड़कर संयतमुद्रा में यत्नपूर्वक स्वीकार करे। आसन पर अथवा शय्या पर बैठा-बैठा कभी भी गुरु से कोई बात न पूछे। उनके समीप आकर ऊकडू बैठ, हाथ जोड़कर पूछे। इस प्रकार जो शिष्य विनय-युक्त हो, उसके पूछने पर गुरु सूत्र, अर्थ और तदुभय' (सूत्र और अर्थ दोनों) जैसे सुने हों, जाने हुए हों, वैसे बताए। भिक्षु असत्य का परिहार करे। निश्चयकारिणी भाषा न बोले। भाषा के दोषों को छोडे । माया का सदा वर्जन करे। किसी के पूछने पर भी अपने, पराए या दोनों के प्रयोजन के लिए अथवा अकारण ही २ सावद्य न बोले, निरर्थक न बोले और मर्मभेदी वचन" न बोले। Jain Education Intemational Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २६.समरेसु अगारेसु सन्धीसु य महापहे । एगो एगित्थिए सद्धिं नेव चिट्ठे न संलवे ।। २७. जं मे बुद्धाणुसासंति सीएण फरुसेण वा । मम लाभो त्ति पेढाए पयओ तं पडिस्सुणे ॥ २८. अणुसासणमोवायं दुक्कडस्स व चोयणं । हियं तं मन्नए पण्णो वेसं होइ असाहुणो ।। २६. हियं विगयभया बुद्धा फरुसं पि अणुसासणं । वेसं तं होइ मूढाणं खंतितसोहिकरं पर्व ॥ २०. आसणे उवचिट्ठेज्जा अणुच्चे अकुए थिरे । अप्पुट्ठाई निरुट्ठाई निसीएज्जण्यकुक्कुए ।। ३१. कालेण निक्खमे भिक्खू कालेन य पडिक्कमे । अकालं च विवज्जित्ता काले कालं समायरे ।। ३२. परिवाडिए न चिट्ठेज्जा भिक्खू दत्तेसणं चरे । पडिरूवेण एसित्ता मियं कालेण भक्खए ।। ३३. नाइदूरमणासन्ने नन्नेसिं चक्खुफासओ । एगो चिट्ठेज्ज भत्तट्ठा लंघिया तं नइक्कमे ।। ३४. नाइउच्चे व नीए वा नासन्ने नाइदूरओ । फासुयं परकडं पिण्डं पडिगाहेज्ज संजए ।। स्मरेषु अगारेषु सन्धिषु च महापथे । ८ एक एकस्त्रिया सार्धं नैव तिष्ठेन्न संलपेत् ।। यन्मां बुद्धा अनुशासति शीतेन परुषेण वा । मम लाभ इति प्रेक्ष्य प्रयतस्तत् प्रतिशृणुयात् ।। अनुशासनमौपाय दुष्कृतस्य च चोदनम् । हितं तन्मन्यते प्राज्ञः द्वेष्यं भवत्यसाधोः ।। हितं विगतभया बुद्धाः परुषमप्यनुशासनम् । द्वेष्यं तद् भवति मूढाना क्षान्तिशोधिकरं पदम् ।। आसने उपतिष्ठेत अनुच्चे अकुचे स्थिरे । अल्पोत्थायी निरुत्थायी निषीदेदल्पकुक्कुचः ।। काले निष्कामे भिक्षुः काले च प्रतिक्रामेत् । अकालं च विवर्ज्य काले कालं समाचरेत् ।। परिपाट्यां न तिष्ठेत् भिक्षुषणां चरेत्। प्रतिरूपेषयित्वा मितं काले भक्षयेत् ।। नातिदूरेऽनासन्ने नान्येषां चक्षुः स्पर्शतः । एकस्तिष्ठेव भक्तार्थ: लङ्घयित्वा त नातिक्रामेत् । नात्युच्चे वा नीचे वा नासन्ने नातिदूरतः । प्रासुके (स्पर्श) परकृतं पिण्डं प्रतिगृह्णीयात् संयतः ॥ अध्ययन १ : श्लोक २६-३४ कामदेव के मंदिरों में, घरों में, दो घरों के बीच की संधियों में और राजमार्ग में अकेला मुनि अकेली स्त्री के साथ न खड़ा रहे और न संलाप करे । ४६ आचार्य मुझ पर कोमल या कठोर वचनों से जो अनुशासन करते हैं वह मेरे लाभ के लिए है - ऐसा सोचकर, जागरूकता पूर्वक उनके वचनों को स्वीकार करे । मृदु या कठोर वचनों से किया जाने वाला अनुशासन हित-साधन का उपाय और दुष्कृत का निवारक होता है। प्रज्ञावान् मुनि उसे हित मानता है। वही असाधु के लिए द्वेष का हेतु बन जाता है। भयमुक्त बुद्धिमान् शिष्य गुरु के कठोर अनुशासन को भी हितकर मानते हैं । परन्तु मोहग्रस्त व्यक्तियों के लिए वही - सहिष्णुता और चित्तविशुद्धि करने वाला, गुणवृद्धि का आधारभूत - अनुशासन द्वेष का हेतु बन जाता है। जो गुरु के आसन से नीचा हो, अकम्पमान हो और स्थिर हो (जिसके पाये धरती पर टिके हुए हों), वैसे आसन पर बैठे प्रयोजन होने पर भी बार-बार न उठे और प्रयोजन के बिना तो उठे ही नहीं बैठे तब स्थिर एवं शांत होकर बैठे, हाथ-पैर आदि से चपलता न करे। I समय पर भिक्षा के लिए निकले, समय पर लौट आए। अकाल को वर्जनकर, जो कार्य जिस समय का हो, उसे उसी समय करे । भिक्षु परिपाटी (पंक्ति) में खड़ा न रहे।" गृहस्थ के द्वारा दिए हुए आहार की एषणा करे । प्रतिरूप ( मुनि के वेष ) में एषणा कर यथासमय मित आहार करे । पहले से ही अन्य भिक्षु खड़े हों तो उनसे अति दूर या अति समीप खड़ा न रहे और देने वाले गृहस्थों की दृष्टि के सामने भी न रहे। किन्तु अकेला (भिक्षुओं और दाता दोनों की दृष्टि से बचकर खड़ा रहे। भिक्षुओं को लांघकर भक्त लेने के लिए न जाए संयमी मुनि प्रासुक और गृहस्थ के लिए बना हुआ आहार ले किन्तु अति ऊंचे या अति नीचे स्थान से लाया हुआ तथा अति समीप या अति दूर से दिया जाता हुआ आहार न ले । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ : श्लोक ३५-४२ विनयश्रुत ३५.अप्पपाणेऽप्पबीयंमि पडिच्छन्नंमि संवुडे। समयं संजए भुंजे जयं अपरिसाडयं ।। ३६.सुकडे त्ति सुपक्के त्ति सुच्छिन्ने सुहडे मडे। सुणिट्ठिए सुलढे त्ति सावज्जं वज्जए मुणी।। अल्पप्राणेऽल्पबीजे प्रतिच्छन्ने संवृते। समकं संयतो भुंजीत यतमपरिसाटयन्।। सुकृतमिति सुपक्वमिति सुच्छिन्न सुहृतं मृतम्। सुनिष्ठित सुलष्टमिति सावा वर्जयेन्मुनिः।। संयमी मुनि प्राणी और बीज रहित, ऊपर से ढके हुए और पार्श्व में भित्ति आदि से संवृत५६ उपाश्रय में अपने सहधर्मी मुनियों के साथ, भूमि पर न गिराता हुआ, यत्नपूर्वक आहार करे।७।। बहुत अच्छा किया है (भोजन आदि), बहुत अच्छा पकाया है (घेवर आदि), बहुत अच्छा छेदा है (पत्ती का साग आदि), बहुत अच्छा हरण किया है (साग की कड़वाहट आदि), बहुत अच्छा मरा है (चूरमे में घी आदि), बहुत अच्छा रस निष्पन्न हुआ है, (जलेवी आदि में) बहुत इष्ट है--मुनि इन सावध वचनों का प्रयोग न करे। ३७.रमए पण्डिए सासं हयं भई व वाहए। बालं सम्मइ सासंतो गलियस्सं व वाहए।। रमते पण्डितान् शासत् हयं भद्रमिव वाहकः। बालं श्राम्यति शासत् गल्यश्वमिव वाहकः ।। जैसे उत्तम घोड़े को हांकते हुए उसका वाहक आनन्द पाता है, वैसे ही पंडित (विनीत) शिष्य पर अनुशासन करता हुआ गुरु आनन्द पाता है। जैसे दुष्ट घोड़े को हांकते हुए उसका वाहक खिन्न होता है, वैसे ही बाल (अविनीत) शिष्य पर अनुशासन करता हुआ गुरु खिन्न होता है। पाप-दृष्टि वाला शिष्य गुरु के कल्याणकारी अनुशासन को भी ठोकर मारने, चांटा चिपकाने, गाली देने व प्रहार करने के समान मानता है।६० ३८.खड्डुया मे चवेडा मे अक्कोसा य वहा य मे। कल्लाणमणुसासन्तो पावदिट्ठि त्ति मन्नई।। ३६.पुत्तो मे भाय नाइ त्ति साहू कल्लाण मन्नई। पावदिट्ठी उ अप्पाणं सासं दासं व मन्नई।। 'खड्डुया' मे चपेटा मे आक्रोशाश्च वधाश्च मे। कल्याणमनुशास्यमानः पापदृष्टिरिति मन्यते।। पुत्रो मे भ्राता ज्ञातिरिति साधुः कल्याणं मन्यते। पापदृष्टिस्त्वात्मानं शास्यमानं दासमिव मन्यते।। गुरु मुझे पुत्र, भाई और स्वजन की तरह अपना समझ कर शिक्षा देते हैं-ऐसा सोच विनीत शिष्य उनके अनुशासन को कल्याणकारी मानता है, परन्तु कुशिष्य हितानुशासन से शासित होने पर अपने को दास तुल्य मानता है।" शिष्य आचार्य को कुपित न करे। स्वयं भी कुपित न हो। आचार्य का उपघात करनेवाला न हो।६२ उनका छिद्रान्वेषी६३ न हो। ४०.न कोवए आयरियं अप्पाणं पि न कोवए। बुद्धोवघाई न सिया न सिया तोत्तगवेसए।। ४१.आयरियं कुवियं नच्चा पत्तिएण पसायए। विज्झवेज्ज पंजलिउडो वएज्ज न पुणो त्ति य।। ४२.धम्मज्जियं च ववहारं बुद्धेहारियं सया। तमायरंतो ववहारं गरहं नाभिगच्छई।। न कोपयेदाचार्य आत्मानमपि न कोपयेत् । बुद्धोपघाती न स्यात् न स्यात् तोत्रगवेषकः।। आचार्य कुपितं ज्ञात्वा प्रातीतिकेन प्रसादयेत्। विध्यापयेत् प्रांजलिपुटः वदेन्न पुनरिति च।। धर्मार्जितं च व्यवहारं बुबैराचरितं सदा। तमाचरन् व्यवहार गर्दा नाभिगच्छति।। आचार्य को कुपित हुए जानकर विनीत शिष्य प्रतीतिकारक (या प्रीतिकारक) वचनों से उन्हें प्रसन्न करे। हाथ जोड़कर उन्हें शांत करे और यों कहे कि “मैं पुनः ऐसा नहीं करूंगा।" जो व्यवहार धर्म से अर्जित हुआ है, जिसका तत्त्वज्ञ आचार्यों ने सदा आचरण किया है, उस व्यवहार का आचरण करता हुआ मुनि कहीं भी गर्दा को प्राप्त नहीं होता। Jain Education Intemational Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १० अध्ययन १ : श्लोक ४३-४८ करे। ४३.मणोगयं वक्कगर्य मनोगतं वाक्यगतं आचार्य के मनोगत और वाक्यगत भावों को जानकर, जाणित्तायरियस्स उ। ज्ञात्वा आचार्यस्य तु। उनको वाणी से ग्रहण करे और कार्यरूप में परिणत तं परिगिज्झ वायाए तत् परिगृह्य वाचा कम्मुणा उववायए।। कर्मणोपपादयेत् ।। ४४.वित्ते अचोइए निच्चं वित्तोऽचोदितो नित्यं जो विनय से प्रख्यात होता है वह सदा बिना प्रेरणा खिप्पं हवइ सुचोइए। क्षिप्रं भवति सुचोदितः। दिए ही कार्य करने में प्रवृत्त होता है। वह अच्छे जहोवइलृ सुकयं यथोपदिष्टं सुकृतं प्रेरक गुरु की प्रेरणा पाकर तुरन्त ही उनके उपदेशानुसार किच्चाई कुव्वई सया।। कृत्यानि करोति सदा।। भलीभांति कार्य सम्पन्न कर लेता है। ४५.नच्चा नमइ मेहावी ज्ञात्वा नमति मेधावी मेधावी मुनि उक्त विनय-पद्धति को जानकर उसे लोए कित्ती से जायए। लोके कीर्तिस्तस्य जायते। क्रियान्वित करने में तत्पर हो जाता है। उसकी लोक हवई किच्चाणं सरणं भवति कृत्यानां शरणं में कीर्ति होती है। जिसे प्रकार पृथ्वी प्राणियों के लिए भूयाणं जगई जहा।। भूतानां जगती यथा।। आधार होती है, उसी प्रकार वह आचार्यों के लिए आधारभूत बन जाता है। ४६.पुज्जा जस्स पसीयन्ति पूज्या यस्य प्रसीदन्ति उस पर तत्त्ववित् पूज्य आचार्य प्रसन्न होते हैं।" संबुद्धा पव्वसंथुया। सम्बुद्धाः पूर्वसंस्तुताः। अध्ययन काल से पूर्व ही वे उसके विनय समाचरण पसन्ना लाभइस्सन्ति प्रसन्न लाभयिष्यन्ति से परिचित होते हैं। वे प्रसन्न होकर उसे मोक्ष के विउलं अट्ठियं सुयं ।। विपुलमार्थिकं श्रुतम्।। हेतुभूत विपुल श्रुतज्ञान का लाभ करवाते हैं। ४७.स पुज्जसत्ये सुविणीयसंसए। स पूज्यशास्त्रः सुविनीतसंशयः वह पूज्य-शास्त्र" होता है-उसके शास्त्रीय ज्ञान का मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपया। मनोरुचिस्तिष्ठति कर्मसम्पदा। बहुत सम्मान होता है। उसके सारे संशय मिट जाते तवोसमायारिसमाहिसंवुडे तपःसामाचारीसमाधिसंवृतः हैं। वह गुरु के मन को भाता है। वह कर्म-सम्पदा महज्जुई पंचवयाइं पालिया।। महाद्युतिः पंच व्रतानि पालयित्वा।। (दस विध सामाचारी) से सम्पन्न होकर रहता है। वह तपःसामाचारी और समाधि से संवृत होता है। वह पांच महाव्रतों का पालन कर महान् तेजस्वी हो जाता है। ४८.स देवगन्धव्वमणुस्सपूइए स गन्धर्वमनुष्यपूजितः देव, गन्धर्व और मनुष्यों से पूजित वह विनीत शिष्य चइत्तु देहं मलपंकपुव्वयं। त्यक्त्वा देहं मलपड्कपूर्वकम्। मल और पंक से बने हुए शरीर को त्यागकर या तो सिद्धे वा हवइ सासए सिद्धो वा भवति शाश्वतः शाश्वत सिद्ध होता है या अल्पकर्मवाला महर्द्धिक देव देवे वा अप्परए महिड्ढिए।। देवो वा अल्परजा महर्धिकः।। होता है। –त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। --ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन १. ( संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो ) संयोग का अर्थ है— संबंध । वह दो प्रकार का होता है - बाह्य और आभ्यान्तर । माता-पिता आदि का पारिवारिक सम्बन्ध 'बाह्य संयोग' है और विषय, कषाय आदि का संबंध 'आभ्यन्तरिक संयोग' है। भिक्षु को इन दोनों संयोगों से मुक्त होना चाहिए।' वृक्ष चलते नहीं, इसीलिए उन्हें 'अग' कहा जाता है। प्राचीन काल में प्रायः घर वृक्ष की लकड़ी (काठ) से बनाए जाते थे, इसलिए घर का नाम 'अगार' हुआ। जिसके 'अगार' नहीं होता, वह 'अनगार' है ।" १ : प्रवृत्ति - लभ्य अर्थ की दृष्टि से 'अनगार और भिक्षु' दोनों शब्द एकार्थवाची हैं। शान्त्याचार्य ने बताया है कि यहां 'अनगार' का व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ लेना चाहिए, अन्यथा दो शब्दों की सार्थकता सिद्ध नहीं होती। 'अगार' का अर्थ है 'घर'। जिसके 'घर' न हो वह 'अनगार' कहलाता है।' नेमिचंद्र के अनुसार भिक्षु दूसरों के बने हुए घरों में रहते हुए भी उन पर ममत्व नहीं करता, इसलिए वह 'अनगार' है। * शान्त्याचार्य ने वैकल्पिक रूप में 'अणगार' और 'अस्सभिक्खु' ऐसा पदच्छेद किया है। जो भिक्षा लेने के लिए जाति, कुल आदि जता कर दूसरों को आत्मीय न बनाए, उसे 'अ-स्वभिक्षु' (मुधाजीवी) कहा जाता है। संयोगों से विप्रमुक्त, अनगार और भिक्षु ये तीनों शब्द महत्त्वपूर्ण हैं। इन तीनों का पौर्वापर्य सम्बन्ध है । जो व्यक्ति सभी प्रकार के संयोगों से विप्रमुक्त होता है, उसके लिए सामाजिक जीवन की समाप्ति हो जाती है। समाज का अर्थ है - संबंध चेतना का विकास। मुनि सामाजिक नहीं होता। वह किसी भी प्रकार से संबद्ध नहीं होता। वह संबंधातीत जीवन १. सुखबोधा, पत्र १ : 'संयोगात्' संबन्धाद् बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नात्, तत्र मात्रदिविषयाद् बाह्यात्, कषायादिविषयाच्चान्तरात् । २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २६ : 'न गच्छंतीत्यगा- वृक्षा इत्यर्थः, अगैः कृतमगारं गृहमित्यर्थः, नास्य अगारं विद्यत इत्यनगारः । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र १६ : 'अनगारस्ये' ति अविद्यमानमगारमस्यैत्थनगार इति व्युत्पन्नोऽनगारशब्दो गृह्यते, यस्त्वव्युत्पन्नो रूढिशब्दो यतिवाचकः, यथोक्तम् अनगारी मुनिर्मीनी, साधुः प्रव्रजितो व्रती । श्रमणः क्षपणश्चैव, यतिश्चैकार्थवाचकाः ।। इति, स इह न गृह्यते, भिक्षुशब्देनैव तदर्थस्य गतत्वात् । विनयश्रुत जीता है। यह मुनि बनने की प्रथम भूमिका है। जो सम्बन्धमुक्त होता है, वह अकिंचन होता है। उसका अपना घर भी नहीं होता। वह अनगार होता है। फिर प्रश्न होता है कि जब व्यक्ति संबंधातीत हो चुका होता है, जिसके कोई घर नहीं है, तो उसकी आजीविका कैसे चलती है? इसके उत्तर में कहा गया है। कि वह भिक्षाचारी हो, भिक्षा से अपना जीवन निर्वाह करे । इस प्रकार ये तीनों शब्द एक ही श्रृंखला में श्रृंखलित हैं। एक शब्द में कहा जा सकता है कि जो सम्बन्धातीत जीवन जीता है, उसके पास अपना कुछ भी नहीं होता, घर भी नहीं होता, किन्तु वह सम्पूर्ण विश्व को सम्पदा का सहज स्वामी बन जाता है। 'अकिञ्चनो हमित्यास्व, त्रैलोक्याधिपतिर्भवेत् । योगिगम्यमिदं तथ्यं, रहस्यं परमात्मनः ।।' २. विनय को (विणयं) शान्त्याचार्य ने इसके संस्कृत रूप दो किए हैं- विनय और विनत । विनय का अर्थ है - आचार और विनत का अर्थ है - नम्रता । " सुदर्शन सेठ ने थावच्चापुत्र से पूछा - "भंते! आपके धर्म का मूल क्या है?" थावच्चापुत्र ने कहा- "सुदर्शन ! हमारे धर्म का मूल - विनय है। वह दो प्रकार का है-अगारविनय और अनगारविनय । बारह व्रत और ग्यारह उपासक प्रतिमाएं - यह अगारविनय' है और पांच महाव्रत, छठा रात्रिभोजन- विरमण व्रत, अठारह पापों का विरमण, दस प्रत्याख्यान और बारह भिक्षु प्रतिमाएं - यह 'अनगारविनय' है।" औपपातिक में विनय के सात प्रकार बताए हैंज्ञानविनय, दर्शनविनय, चरित्रविनय, मनविनय, वचनविनय, कायविनय और लोकोपचारविनय । प्रस्तुत अध्ययन में विनय के दोनों अर्थों - आचार और नम्रता पर प्रकाश डाला गया है। ४. सुखबोधा, पत्र १, 'अनगारस्य' परकृतगृहनिवासित्वात् तत्राऽपि ममत्वमुक्तत्वात् संगरहितस्य । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र १६ अथवा - - 'अणगारस्सभिक्खुणो' त्ति अस्वेषु मिधुरस्वभिषु जात्याद्यनाजीवनादनात्मीकृतत्वेनानात्मीयानेव गृहिणीनादि भिक्षत इति कृत्वा स च यतिरेव ततोऽनगारश्चासावस्वभिक्षुश्च अनगारास्वभिक्षुः । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र १६ : विशिष्टो विविधो वा नयो– नीतिर्विनयः साधुजनासेवितः समाचारस्तं विनमनं वा विनतम् । ७. नायाथम्मकहाओ, ११५। सूत्र ६१ । ८. ओवाइयं, सूत्र ४०। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १२ अध्ययन १ : श्लोक २-३ टि० ३-८ सकते हैं। अथवाची मसन को शिथिल करते हुए देख में वहां आज्ञा का अर्थ ३. जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन करता है। इसे निपुण-मति वाले लोग ही समझ सकते हैं। है (आणानिद्दसकरे) आकार को स्थूल बुद्धिवाले लोग भी पकड़ सकते हैं। चूर्णि के अनुसार 'आज्ञा' और 'निर्देश' समान अर्थवाची आसन को शिथिल करते हुए देख सहज ही यह जाना जा हैं। वैकल्पिक रूप में वहां आज्ञा का अर्थ आगम का उपदेश सकता है कि ये प्रस्थान करना चाहते हैं। इसी प्रकार दिशाओं और निर्देश का अर्थ-आगम से अविरुद्ध गुरु-वचन किया को देखना, जम्भाई लेना और चादर ओढ़ना-ये सब प्रस्थान गया है। की सूचना देने वाले 'आकार' हैं।' ___ 'शान्त्याचार्य ने आज्ञा का मुख्य अर्थ-आगमोक्त विधि इंगित और आकार पर्यायवाची भी माने गए हैं। और निर्देश का अर्थ-प्रतिपादन किया है। गौण रूप में आज्ञा ६. जानता है (सपन्न) का अर्थ-गुरुवचन और निर्देश का अर्थ- "मैं यह कार्य चूर्णि और सुखबोधा में इसका अर्थ 'युक्त' और आपके अनुसार ही करूंगा"-- इस प्रकार का निश्चयात्मक बृहवृत्ति में 'सम्प्रज्ञ' (जानने वाला) एवं ‘युक्त'-दोनों अर्थ विचार प्रकट करना है। किए गए हैं। यहां बृहवृत्ति का सम्प्रज्ञ अर्थ अधिक उपयुक्त उनके सामने 'आणानिद्देसयरे' पाठ था। अतः उन्होंने लगता है। 'यर' शब्द के 'कर' और 'तर' दोनों रूपों की व्याख्या की ७. गुरु की शुश्रूषा नहीं करता (अणुववायकारए) है--आज्ञा-निर्देश को करने वाला और आज्ञा-निर्देश के द्वारा अविनीत शिष्य का गुरु की उपासना में मन नहीं लगता। संसार-समुद्र को तरने वाला। आगे लिखा है कि भगवद्वाणी के वह गुरु से मानसिक दूरी बनाए रखता है। उसके मन में सदा अनन्त पर्याय होने के कारण अनेक व्याख्या-भेद संभव हो यह भाव बना रहता है कि यदि मैं गुरु की उपासना करूंगा तो सकते हैं। किन्तु मन्दमतियों के लिए यह व्यामोह का हेतु न बन उपालंभ देने का मौका अधिक मिलेगा। वह इस सत्य को विस्मृत जाए, इसलिए प्रत्येक सूत्र की व्याख्या में अनेक विकल्प करने कर देता है कि गुरु की प्रताड़ना में भी व्यक्ति का विकास एवं का प्रयत्न नहीं किया है। हित निहित है। नीति का यह प्रसिद्ध श्लोक इसी तथ्य को ४. शुश्रूषा करता है (उववायकारए) प्रतिध्वनित करता हैचूर्णि में इसका अर्थ 'शुश्रूषा करने वाला और टीका में त्रीभिर्गुरुणां परुषाक्षराभिः, प्रताडिताः यान्ति नराः महत्त्वम् । इसका अर्थ 'समीप रहने वाला'५-जहां बैठा हुआ गुरु को अलब्धशाणोत्कषणा नृपाणां, न जातु मौली मणयो वसन्ति।। दीखे और उनका शब्द सुन सके, वहां रहने वाला अर्थात् आदेश ८. (पडिणीए असंबुद्धे) के भय से दूर न 'बैठने वाला' किया गया है। उपपात, निर्देश, जो गुरु की आज्ञा के प्रतिकूल वर्तन करता है, गुरु के आज्ञा और विनय इन्हें एकार्थक भी माना गया है। कथन का प्रतिवाद करता है और जो सदा गुरु के दोष देखता ५. इंगित और आकार को (इंगियागार) रहता है, वह प्रत्यनीक कहलाता है। इंगित और आकार-ये दोनों शब्द शरीर की चेष्टाओं जो मुनि गुरु के इंगित और आकार का सम्यक् के वाचक हैं। किसी कार्य की प्रवृत्ति और निवृत्ति के लिए शिर अवबोध नहीं करता, वह असंबुद्ध होता है। आदि को थोडा-सा हिलाना इंगित है। यह चेष्टा सूक्ष्म होती यह श्लोक पूर्ववर्ती श्लोक का प्रतिपक्षी है। वृत्ति में १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २६ : आज्ञाप्यतेऽनया इति आज्ञा, निर्देशन निर्देशः, आजैव निर्देशः, अथवा आज्ञा-सूत्रोपदेशः, तथा निर्देशस्तु तदविरुद्धं गुरुवचनं, आज्ञानिर्देशं करोतीति आणाणिद्देसकरो। बृहद्वृत्ति, पत्र ४४ : आडिति स्वस्वभावास्थानात्मिकया मर्यादायाऽभिव्याप्त्या वा ज्ञायन्तेऽर्था अनयेत्याज्ञा-भगवदभिहितागमरूपा तस्या निर्देश-उत्सर्गापवादाभ्यां प्रतिपादनममाज्ञानिर्देशः, इदमित्थं विधेयमिदमित्थं वेत्येवमात्मकः तत्करणशीलस्तदनुलोमानुष्टानो वा आज्ञानिर्देशकरः, यद्वाऽज्ञा-सौम्य! इदं कुरु इदं च मा कार्षीरिति गुरुवचनमेच, तस्या निर्देश-इदमित्यमेव करोमि इति निश्चयाभिधानं तत्करः । ३. वही, पत्र ४४ : आज्ञानिर्देशेन वा तरति भवाम्भोधिमित्याज्ञानिर्देशतर इत्यादयोऽनन्तगमपर्यायत्वाद् भगवद्वचनस्य व्याख्याभेदाः सम्भवन्तोऽपि मन्दमतीनां व्यामोहहेतुतया बालाबालादिबोधोत्पादनार्थत्वाच्चास्य प्रयासस्य न प्रतिसूत्रं प्रदर्शयिष्यन्ते। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २६ : उपपतनमुपपातः शुश्रूषाकरणमित्यर्थः । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४ : उप-समीपे पतनं-स्थानमुपपातः दृगुवचनविषय देशावस्थान तत्कारकः तदनुष्ठाता, न तु गुर्वादेशादिभीत्या तद्व्यवहित देशस्थायीति यावत्। ६. व्यवहारभाष्य, ४/३५४ : उववाओ निदेसो आणा विणओ य होति एगट्ठा। ७. बृहद्वृत्ति पत्र ४४ : इंगित-निपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीषद् भूशिरःकम्पादि, आकारः स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादि भावाभिव्यंजको दिगवलोकनादिः आह च"अवलोयणं दिसाणं, वियंभणं साडयस्स संठवणं। आसणसिदिलीकरणं, पट्टियलिंगाई एयाई।।" ८. (क) अभिधानष्पदीपिका, ७६४ : आकारो इंगित इंगो (ख) वही, ६८१ : आकारो कारणे वुत्तो, सण्ठाने इंगितेपि च। ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २७ : संपन्नवान् संपन्नः। (ख) सुखबोधा पत्र १ : सम्पन्नः युक्तः। (ग) बृहवृत्ति पत्र ४४ : सम्यक् प्रकर्षेण जानाति इंगिताकारसम्प्रज्ञः, यद्वा-इंगिताकाराभ्यां गुरुगतभावपरिज्ञानमेव कारणे कार्योपचारादिगिताकारशब्देनोक्तं, तेन सम्पन्नो-युक्तः । Jain Education Intemational Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयश्रुत १३ अध्ययन १ : श्लोक ४ टि०६, १० प्रत्यनीकता को समझाने के लिए 'कूलवालक श्रमण' की कथा दी है। वह इस प्रकार है- कर कोणिक ने मुनिसुव्रत के स्तूप को ध्वस्त कर दिया और वैशाली नगरी पर अधिकार पा लिया।" एक आचार्य थे। उनका शिष्य अत्यंत अविनीत था । आचार्य यदाकदा उसे उपालम्भ देते और वह आचार्य पर द्वेषभाव रखता था। एक बार आचार्य उसको साथ ले सिद्धशेन की वंदना करने गए। वे वन्दन कर पर्वत से नीचे उतर रहे थे। आचार्य आगे थे। शिष्य पीछे-पीछे आ रहा था। उसके मन में द्वेष उभरा और उसने आचार्य को मारने के लिए एक शिलाखंड को नीचे लुढ़काया। आचार्य ने देखा। उन्होंने पैर पसार लिए । शिलाखंड पैरों के बीच से नीचे चला गया। अन्यथा वे मर जाते। शिष्य की इस जघन्यता से कुपित होकर उन्होंने शाप दिया- 'दुष्ट ! तेरा विनाश स्त्री के कारण होगा।' शिष्य ने सुना, आचार्य का वचन मिथ्या हो, इस दृष्टि से वह तापसों के एक आश्रम में रहने लगा। पास में एक नदी थी। वह नदी के चर में आतापना लेने लगा। जब कोई सार्थवाह उधर से निकलता तब उसे आहार उपलब्ध होता था। नदी के कूल पर आतापना लेने के प्रभाव से नदी ने अपना प्रवाह बदल दिया। उसका नाम हो गया - कूलवालय अर्थात् कूल को मोड़ देने वाला । महाराज श्रेणिक का पुत्र कोणिक वैशाली नगरी को अपने अधीन करना चहता था। पर वह वैसा कर नहीं सका, क्योंकि वहां मुनिसुव्रत स्वामी का स्तूप था । कोणिक हताश हो गया। एक बार देववाणी हुई- 'यदि श्रमण कूलवालक गणिका के वशवर्ती हो जाएं तो वैशाली नगरी को अधीनस्थ किया जा सकता है।' कोणिक ने गणिकाओं को बुलाया। एक गणिका ने इस कार्य को संपन्न करने की स्वीकृति दी। उसने कपट-श्राविका का रूप बनाया। सार्थ के साथ वह कूलवालक के पास गई और वन्दना कर बोली- 'मेरा पति दिवंगत हो गया है । मैं तीर्थाटन करने निकली हूं। आपकी बात सुनी और मैं यहां आ गई। आप कृपा कर मेरे हाथ से दान लें।' उस दिन श्रमण के पारणक था । श्राविका ने औषधिमिश्रित मोदक दिए । श्रमण को अतिसार हो गया। औषधि के प्रयोग से श्रमण स्वस्थ हुआ। अनुराग बढ़ा। श्राविका प्रतिदिन मुनि का उद्वर्तन करती। मुनि का मन विचलित हो गया। वह श्रमण को ले कोणिक के पास आई। उससे सारी जानकारी प्राप्त 9. सुखबोधा, पत्र २ । २. बृहद्वृत्ति पत्र ४५ पूतिः परिपाकतः कुधितगन्धी कृमिकुलाकुलत्वाद् उपलक्षणमेतत्, तथाविधौ कर्णी श्रुती यस्याः, पक्वरक्तं वा पूतिस्तद्व्याप्तौ कणीं यस्याः सा पूतिकर्णा, सकलावयवकुत्सोपलक्षणं चैतत् । ३. विनीत अविनीत की चौपई, ढाल २ ।१ । ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २७ अथ शुनीग्रहणं शुनी गर्हिततरा, न तथा श्वा । (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ४५ स्त्रीनिर्दशो ऽत्यन्तकुत्सोपदर्शकः । ९. ( जहा सुणी पूइकण्णी निक्कसिज्जइ सव्वसो) 'पूर्ति' शब्द के दो अर्थ है– (१) कामों में जब कृमि उत्पन्न हो जाते हैं तब उनसे दुर्गन्ध फूटने लगती है। (२) जब कानों में पीब पड़ जाती है तब भयंकर दुर्गन्ध आने लगती है। तात्पर्य में इसका अर्थ होगा-वह कुतिया जिसके शरीर के सारे अवयव सड़ गल गए हों। -- ऐसी कृतिया सभी स्थानों से निकाल दी जाती है। इसी प्रकार अविनीत सर्वत्र तिरस्कार का पात्र होता है। उसे कहीं भी सम्मान नहीं मिलता। आचार्य भिक्षु ने इसी श्लोक के मंतव्य को सरल अभिव्यक्ति दी है. कुया काना री कूतरी, तिणरे झरे कीड़ा राध लोही रे । सगले ठाम स्यूं काढे हुड हुड् करे, घर में आवण न दे कोई रे ।। धिग धिग अविनीत आतमा ।। चूणिकार और वृत्तिकार के अनुसार 'शुनी' शब्द का प्रयोग अत्यंत गर्हा एवं कुत्सा को व्यक्त करने के लिए किया गया है ।" सुश्रुत में 'पूतिकर्ण' को कान का रोग माना है, जिसमें पीब बहती है। 'सव्वसो' शब्द के तीन अर्थ प्राप्त हैं १. सभी स्थानों से ।" २. सभी प्रकार से । ३. सभी अवस्थाओं में। १०. दुःशील (दुस्सील) शील के तीन अर्थ हैं— स्वभाव, समाधि और आचार । जिसका शील राग-द्वेष तथा अन्यान्य दोषों से विकृत होता है वह दुःशील कहलाता है। आचार या चारित्र विनय के पर्यायवाची हैं। वे परस्पर जुड़े हुए हैं। विनय शील का ही एक अंग है। विनय की फलश्रुति है — चारित्र । जो अविनीत होता है, वह दुःशील होता है। दुःशील व्यक्ति विनाश को प्राप्त होता है। प्राचीन श्लोक है वृत्तं यत्नेन संरक्षेत्, वित्तमायाति पाति च। अक्षीणो वित्ततः क्षीणो, वृत्ततस्तु हतो हतः ।। ५. सुश्रुत १२६० | १४ | ६. बृहद्वृत्ति पत्र ४५ सव्वसो त्ति सर्वतः सर्वेभ्यो गोपुरगृहांगणादिभ्यः । ७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. २७ सव्वसो सव्वपागारं । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४५ । ८. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. २७ सव्वसोत्ति सर्वावस्थासु वा । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र पृ. ४५ दुष्टमिति रागद्वेषादिदोषविकृतं शीलं स्वभावः समाधिराचारो वा यस्यासी दुःशीलः । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि बौद्ध साहित्य में मानसिक, वाचिक और कायिक अनाचार को दुःशील माना है।' ११. वाचाल भिक्षु (मुहरी) अविनीत व्यक्ति वाचाल होता है। वाचालता से व्यक्ति की लघुता सामने आती है। नीति का प्रसिद्ध श्लोक हैमौखर्यं लाघवकरं, मौनमुन्नतिकारकम् । मुखरौ नूपुरो पादे, हारः कण्ठे विराजते ।। वृतिकार ने 'मुहरी' शब्द के तीन संस्कृत रूप देकर तीन भिन्न-भिन्न अर्थ किए हैं— १४ अध्ययन १ : श्लोक ५-७ टि० ११-१७ आचार या संयम 'शील' शब्द से अभिहित होता है। प्रस्तुत प्रसंग में यह शब्द 'विनीत' शिष्य के आचार की ओर इंगित करता है । सूत्रकार के अनुसार विनीत के शील का स्वरूप यह है १. मुखारि -- जिसका मुंह ही अरि-शत्रु है अथवा जिसका मुंह (वचन) इहलोक और परलोक का अपकार करने वाला है। २. मुधारि—असंबद्ध भाषा बोलने वाला । ३. मुखर वाचाल । १२. चावलों की भूसी को (कणकुण्डगं ) चूर्णि और टीका में इसके दो अर्थ किए गए हैं-पावलो की भूसी अथवा चावलमिश्रित भूसी । चूर्णिकार ने इसे पुष्टिकारक तथा सूअर का प्रिय भोजन कहा है। श्रावक धर्म विधि प्रकरण में एक कथा आई है, जिसका आशय है कि एक राजा को खाने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई । उसने विविध प्रकार के भोजन बनवाए। वह सब कुछ खा गया। यहां तक कि 'कण-कुण्डग', मंडक आदि भी खा गया। इस कथानक से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि 'कण-कुण्डग' चावलों का कुण्डा नहीं पर कोई खाद्य विशेष था । * कौटिल्य अर्थशास्त्र में कण-कुण्डक शब्द कई स्थानों में आया है (२।१५।५२,५६ २ / २६/४३) । यहां कुण्डक का अर्थ- 'लाल चूर्ण जो कि छिलके के अन्दर चावल से चिपटा रहता है'-- किया है।' जातक में 'आचामकुण्डक' शब्द आया है। वहां आचाम का अर्थ 'चावल का मांड' है। आयाम का अर्थ 'चावल से बना हुआ यूष' भी है। " १३. अज्ञानी (मिए) मृग शब्द के दो अर्थ हैं— हरिण और पशु । प्रस्तुत प्रसंग में पशु की लाक्षणिक विवक्षा से इसका अर्थ है-अज्ञानी या विवेकहीन व्यक्ति । वृत्तिकार ने अविनीत अर्थ ग्रहण किया है। १४. शील को (सीलं) ४. ५. शील का अर्थ है- -आचार अथवा संयम । मुनि का सम्पूर्ण १. विसुद्धिमग्ग, भाग १, पृष्ठ ५५ : सब्बम्पि दुस्सील्यं अनाचारी । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५ ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २७ कणा नाम तंडुला कुंडगा कुक्कसाः; कणानां कुंडगाः, कणकुंडगाः, कणमिस्सो वा कुंडकः कणकुंडक, सो य वुड्ढकरो, सूयराणं प्रियश्च । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४५ कणाः तन्दुलास्तेषां तमिश्रो वा कुण्डकःतत्क्षोदनोत्पन्नकुक्कुसः कणकुण्डकस्तम् । श्रावक-धर्मविधि प्रकरण, पत्र २४, २५ । The red powder which adheres to the rice under the husk. (Childers) १. गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन करना । २. गुरु के उपपात में बैठना, गुरु की शुश्रूषा करना । ३. गुरु के इंगित और आकार को जानना । ४. गुरु के अनुकूल वर्तन करना । ५. वाचालता का वर्जन करना, अल्पभाषी होना । बौद्ध साहित्य में शील, समाधि और प्रज्ञा-ये तीन शब्द बहुत प्रयुक्त हैं। शील का एक अर्थ है-कथनी और करनी की समानता । इसका दूसरा अर्थ है- आचार - मन, वचन और काया की सम्यक् प्रवृत्ति । १५. आत्मा का हित (डियमप्पणी) आत्मा का ऐहिक और पारलौकिक हित विनय की आराधना से संभव है। आचार्य नेमिचंद्र ने इसकी पुष्टि में एक प्राचीन गाथा उद्धृत की है" 'विणया णाणं णाणाओ दंसणं दंसणाओ चरणं च । चरणाहिंतो मोक्खो, मोक्खे सोक्खं निराबाहं ।' विनय की आराधना से ज्ञान, ज्ञान से दर्शन, दर्शन से चारित्र और चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष में निराबाध सुख उपलब्ध होता है । १६. अभाव ( हीनभाव) को सुनकर (सुणियाऽभावं ) इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं- 'श्रुत्वा अभाव' तथा 'श्रुत्वा भावं'। अकार को 'सुणिया' से युक्त मानने पर संस्कृत रूप 'श्रुत्वा अभावं' बनता है, अन्यथा 'श्रुत्वा भावं' । भाव का अर्थ है— अवस्था या स्थिति । १७. बुद्धपुत्र (आचार्य का प्रिय शिष्य ) और मोक्ष का अर्थी ( बुद्धपुत्त नियागट्ठी) आचार्य नेमिचंद्र के अनुसार 'बुद्धपुत्त' का अर्थ है--- आचार्य आदि का प्रीतिपात्र शिष्य और 'नियागट्ठी' का अर्थ है— मोक्षाभिलाषी ।१२ चूर्णि और बृहद्वृत्ति में 'बुखउत्त' पाठ है 'बुद्धउत्त' और 'नियागट्ठी' इन दोनों शब्दों को एक मानकर इसका संस्कृत रूप – 'बुद्धोक्तनिजकार्थी' - तीर्थंकर आदि द्वारा उपदिष्ट ज्ञान ६. ७. ८. ६. Jatak 254, gg/1-2: Acama is scum of boiling rice. āyama, "A thin rice porridge" (Leumann Aupapatik S. S. Z.). बृहद्वृत्ति, पत्र ४५ मृग इव मृगः अज्ञत्वादविनीत इति प्रक्रमः । विसुद्धिमग्ग, भाग १, पृ. १३ सीलं ति सम्मावाचाकम्मन्ता । १०. वही, पृ. १५ सीले ति कुसलसीले । ११. सुखबोधा, पत्र ३ । १२. वही, पत्र ३, बुद्धानाम् आचार्यादीनां पुत्र इव पुत्रो बुद्धपुत्रः - 'पुत्ता य सीसा या समं विभत्ता' इतिवचनात् स्वरूपविशेषणमेतत्, नियागार्थी मोक्षार्थी........ । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयश्रुत १५ का अभिलाषी किया गया है।' बृहद्वृत्ति में 'नियाग' का वैकल्पिक अर्थ मोक्ष किया है।" बृहद्वृत्ति में ये दो पाठान्तर माने गए हैं१. 'बुद्धबुत' बुद्धव्युक्त अर्थात् आगम २. 'बुद्धपुत्त' बुद्धपुत्र अर्थात् आचार्य आदि का प्रीतिपात्र शिष्य । चूर्णिकार ने इस अध्ययन के बीसवें श्लोक में भी 'नियागट्ठी' का अर्थ-ज्ञान, दर्शन और चारित्र का अर्थी किया है। * आगम- साहित्य में 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग अनेक स्थानों पर मिलता है। इसका अर्थ है- आचार्य, तीर्थंकर, वीतराग, ज्ञानी, गुरु आदि -आदि । बौद्ध साहित्य में इन अर्थों के साथ-साथ 'शाक्यपुत्र' के अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ है। महात्मा शाक्य मुनि को जब बोधि-लाभ हुआ तब वे बुद्ध कहलाए और उनका दर्शन भी इसी नाम से अभिहित होने लगा । परन्तु महात्मा बुद्ध बोलते समय अपने लिए विशेषतः 'तथागत' शब्द का ही प्रयोग करते थे। (१) जिसका अन्तःकरण क्रोधयुक्त न हो। (२) जिसका बाह्याकार प्रशान्त हो । ४. २०. चण्डालोचित कर्म (क्रूर व्यवहार ) ( चण्डालियं) चूर्णि में इसका मुख्य अर्थ क्रोध और अनृत किया है।" बृहद्वृत्ति में इसका मुख्य अर्थ क्रोध के वशीभूत हो अनृत भाषण करना और विकल्प में क्रूर कर्म किया है।* शान्त्याचार्य १८. ( निसन्ते... अट्ठजुत्ताणि... निरट्ठाणि) निसन्ते—चूर्णि और वृत्ति के आधार पर इसके तीन अर्थ दूसरे विकल्प में 'मा अचण्डालिय' में अचण्ड को शिष्य फलित होते हैं सम्बोधन मानकर 'अलीक' का अर्थ अनृत करते हैं।" नेमिचन्द्र ने केवल 'क्रोध के वशीभूत होकर अनृत भाषण करना' यही एक अर्थ माना है । किन्तु चण्ड और अलीक—इन दो शब्दों को भिन्न मानने की अपेक्षा चाण्डालिक को एक शब्द मानना अधि क उपयुक्त है। २१. अकेला ध्यान करे (झाएज्ज एनगो) (३) जिसकी चेष्टाएं अत्यंत शांत हों । अट्ठजुताणिइसके तीन अर्थ प्राप्त है (१) आगम-वचन" (२) मोक्ष के उपाय (३) अर्थ सहित निरट्ठाणि—चूर्णिकार ने निरर्थक शब्द के तीन उदाहरण १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २८ बुद्धैरुक्तं बुद्धोक्तं ज्ञानमित्यर्थः तदेव च नियाकं निजकमात्मीयं शेषं शरीरादि सर्व पराक्यं । (ख) बृहद्वृत्ति पत्र ४६ : बुद्धैः - अवगततत्त्वैस्तीर्थकरादिभिरुक्तम्अभिहितं तच्च तन्निजमेव निजकं च- - ज्ञानादि तस्यैव बुद्धैरात्मीयत्वेन तत्त्वत उक्तत्वात् बुद्धोक्तनिजक, तदर्थयते अभिलषतीत्येवंशीलः वुद्धोक्तनिजकार्थी । २. बृहद्वृत्ति पत्र ४६ यद्वा नितरां यजनं याग:नियागो मोक्षः । -पूजा यस्मिन् सोऽयं ३. वही, पत्र ४६ : पठन्ति च - - 'बुद्धवुत्ते नियागट्ठि त्ति' बुद्धैःउक्तरूपैयुक्तो -- विशेषेणाभिहितः, स च द्वादशांगरूप आगमस्तस्तिन् स्थित इति गम्यते, यद्वा-बुद्धानाम् आचार्यादीनां पुत्र इव पुत्रो बुद्धपुत्रः । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३५: नियागं णिदागं नियागमित्यर्थः णाणातितियं वाणियगं आत्मीयमित्यर्थः सेसं सरीरादि सव्वं परायगं णियाएणऽट्ठो जस्स सो गियागड्ढी । ५. बुद्ध और बौद्ध साधक, पृ. १५ । ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. २८ : अहियं शान्तो निशान्तः अक्रोधवानित्यर्थः, अत्यन्तशान्तचेष्टो वा । (ख) सुखबोधा, पत्र ३ : निशान्त नितरामुपशमवान् अन्तः क्रोधपरिहारेण बहिश्च प्रशान्तकारतया । ७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. २८ अर्थयुक्तानि सूत्राण्युपदेशपदानि । गम्यत इति अर्थः, स च (ख) वृहद्वृत्ति पत्र, ४६, ४७: अर्थते अध्ययन १ : श्लोक ८-१० टि० १८-२१ दिए हैं (१) भारत, रामायण आदि । ये लोकोत्तर अर्थ से शून्य हैं । (२) दित्थ, दवित्थ, पाखंड आदि । ये अर्थ या निरुक्तशून्य शब्द हैं। (३) स्त्री - कथा आदि । ये मुनि के लिए अनर्थक या अप्रयोजनीय हैं।" १९. क्रीडा (कीडं) इसका सामान्य अर्थ है—खेल-कूद, किलोल आदि । शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ — अन्त्याक्षरी, प्रहेलिका आदि से उत्पन्न कुतूहल किया है।" चूर्णिकार ने विकल्प में दोनों शब्दों (हासं कीडं) का समुच्चयार्थ 'कीड़ापूर्वक हास्य' किया है। इस शब्द से एक लौकिक प्रतिपत्ति का संकेत मिलता है कि ध्यान अकेला करे, अध्ययन दो व्यक्ति करें और ग्रामान्तर-गमन हेयउपादेयश्चोभयस्याप्यर्य्यमाणत्वात् तेन युक्तानि अन्वितानि अर्थयुक्तानि तानि च हेयोपादेयाभिधायकानि, अर्थादागमवचांसि । ८. बृहद्वृत्ति पत्र ४७ मुमुक्षुभिरर्थ्यमानत्वादर्थो - मोक्षस्तत्र युक्तानि - उपायतया संगतानि । ६. १०. वही, पत्र ४७ अर्थ वा अभिधेयमाश्रित्य युक्तानि - यतिजनोचितानि । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २८ न येषामर्थो विद्यत इति निरत्याणि..... 'भारहरामायणादीणि' अथवा दित्थो दवित्थो पाखंड इति, अथवा इत्थिकहादीणि । ११ (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४७ क्रीडां च अन्ताक्षरिकाप्रहेलिकादानादिजनिताम् । (ख) सुखबोधा, पत्र ३ । १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २६ अहवा जं कीडपुव्वगं हास्य तद् । १३. वही, पृ. २६ : चंडो नाम क्रोधः, ऋतं सत्यं, न ऋतमनृतं, पागते तु तमेव अलियं, चंड च अलियं च चंडालियं । १४. बृहद्वृत्ति पत्र ४७ : चण्डः - क्रोधस्तद्वशादलीकम् - अनृतभाषणं चण्डालीकम् । यद्वा – चण्डेनाऽऽलमस्य चण्डेन वा कलितश्चण्डालः, स चातिक्रूरत्वाच्चण्डालजातिस्तस्मिन् भवं चाण्डालिकं कर्मेति गम्यते । १५. वही, पत्र ४७ अथवा अचण्ड ! सौम्य ! अलीकम् - अन्यथात्वविधानादिभिरसत्यं । १६. सुखबोधा पत्र ३ : चण्डः क्रोधस्तद्वशाद् अलीकम् - अनृतभाषणं चण्डालिकं, लोभाद्यलीकोपलक्षणमेतत् । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १६ अध्ययन १ : श्लोक १२,१३ टि० २२-२५ तीन आदि व्यक्ति करें।' भोजन, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि जा सकता है। लघुदाक्ष्य का अर्थ होगा क्रियाशील दक्षता, सूक्ष्म प्रवृत्तियां मण्डली में की जाती हैं। ध्यान मण्डली में नहीं किन्तु निपुणता, अविलंबकारिता। अकेले में किया जाता है। इस प्राचीन परम्परा का ही यहां २५. दुराशय (दुरासयं) निर्देश है। इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं-दुराशयः और दुराश्रयः। वर्तमान में सामूहिक ध्यान (ग्रुप मेडिटेशन) को भी वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने 'दुराश्रय' शब्द मानकर इसका महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसमें शक्ति-संपन्न साधकों के अर्थ इस प्रकार किया है। अति कुपित होने के स्वभाव वाले प्रकंपनों से निर्बल साधक सहज ही लाभान्वित हो जाते हैं। गुरु का आश्रय लेना अत्यंत कष्टप्रद होता है। नेमिचन्द्र ने उनकी एकाग्रता को एक सहारा मिल जाता है और वे ध्यान की इसका अर्थ-शीघ्र कुपित होने वाला किया है। ये दोनों अर्थ गहराई में जाने लगते हैं। प्रसंगोपात्त हैं। प्राचीन परम्परा के अनुसार दिन के चार प्रहरों में मुनि व्याख्याकारों ने इस प्रसंग में एक कथा प्रस्तुत की है-- पहले और चौथे प्रहर में स्वाध्याय करे और दूसरे प्रहर में ६ आचार्य चंद्ररुद्र यान करे। इसी प्रकार रात्री के चार प्रहरों में मुनि पहले और चौथे प्रहर में स्वाध्याय करे और दूसरे प्रहर में ध्यान करे। आचार्य चंद्ररुद्र अत्यंत क्रोधी थे। एक बार वे अपने दिन-रात में चार प्रहर स्वाध्याय के और दो प्रहर ध्यान के होते शिष्यों के साथ उज्जयिनी नगरी में आए। वे एकांत में स्वाध्यायरत थे। इतने में ही एक नव विवाहित युवक अपने ध्यान के दो अर्थ हैं मित्रों के साथ वहां आया और उपहासपूर्वक साधुओं को वंदना कर बोला—भंते! मुझे धर्म की बात बताएं। साधु उसके (१) सूत्र के अर्थ का चिंतन (२) धर्म-विचय । उपहास को समझ कर मौन रहे। वह युवक फिर बोला--भंते! २२. (गलियस्स......आइण्णे) आए मुझे दीक्षा दें। मैं गृहवास से निर्विण्ण हो गया हूं। मेरे गलियस्स-इसका अर्थ है अविनीत घोड़ा।" गंडी, गली दारिद्रय को देखकर मेरी पत्नी ने भी मुझे छोड़ दिया है। मेरे और मराली-ये तीन शब्द दुष्ट घोड़े और बैल के पर्यायवाची पर कृपा करें और मेरा उद्धार करें। साधुओं ने उसे आचार्य हैं। गंडी--उछल-कूद करने वाला। गली-पेटू । मराली वाहन के पास भेजा। वह आचार्य से बोला---मुझे प्रव्रजित करें। में जोतने पर लात मारने वाला या जमीन पर लेटने वाला। मैं गहवास से ऊब गया है। आचार्य ने उसकी वाणी के उपहास आइण्णे इसका अर्थ है विनीत घोड़ा। आकीर्ण, विनीत को भांपकर रोषपूर्ण वाणी में कहा---जा, राख ले आ। वह गया। और भद्रक—ये तीन शब्द विनीत घोड़े और बैल के राख ले आया। आचार्य उसका लुंचन करने लगे। मित्र पर्यायवाची हैं। घबराए। उन्होंने अपने इस मित्र से कहा—भाग जा। अन्यथा २३. (पावगं परिवज्जए) मुनि बनना पड़ेगा। अभी-अभी तो तेरा विवाह हुआ है। उसने इसका अर्थ है-मुनि अशुभ प्रवृत्ति को छोड़ दे। सोचा, अब घर कैसे जाऊं? लोच हो गया है। वह मनि बन बृहद्वृत्तिकार ने 'पावगं पडिवज्जइ' को पाठान्तर मानकर गया, भाव श्रमण हो गया। मित्र वहां से भाग खड़े हुए। उसका अर्थ पावक अर्थात् शुभ अनुष्ठान को स्वीकार करता दूसरे दिन उस नव प्रव्रजित शिष्य ने आचार्य चंद्ररुद्र है--किया है। से कहा—भंते! यहां से अन्यत्र चलें। क्योंकि मेरे परिवार वाले २४. पटुता से कार्य को संपन्न करने वाले शिष्य मुझे घर चलने के लिए बाध्य करेंगे। रात्रि में आचार्य ने (लहुदक्खोववेया) अपने उस नव शिष्य के साथ प्रस्थान कर दिया। शिष्य आगे चल रहा था। चलते-चलते अन्धकार की सघनता के कारण प्रस्तुत प्रसंग में 'लघुदाक्ष्य' समस्त पद है। लघु शब्द के आचार्य को ठोकर लगी और वे गिर पड़े। उन्होंने क्रोध के अनेक अर्थ हैं। यहां इसका अर्थ हल्का, सक्रिय, अविलंब किया । १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २६ : उक्तं हि—'एकस्य ध्यानं द्वयोरध्ययनं ४. बृहद्वृत्ति, पृ. ४८ : गलि:-अविनीतः, स चासावश्वश्च गल्यश्वः। त्रिप्रभृतिग्रामः', एवं लौकिकाः संप्रतिपन्नाः। ५. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गा. ६४ : गंडी गली मराली अरसे गोणे य हुंति २. प्रवचनसारोद्धार गा. ६६२ : एगट्ठा। सुत्ते अत्थे भोयण काले आवस्सए य सज्झाए। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८ : आकीर्णो-विनीतः, स चेह प्रस्तावादश्वः । संथारे चेव तहा सत्तेया मंडली जइणो।। ७. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ६४ : आइन्ने य विणीए भद्दए वावि एगट्ठा। ३. उत्तराध्ययन २६/१२,१८ : ८. बृहद्वृत्ति पत्र ४८ : पापमेव पापक, गम्यमानत्वादनुष्ठानं परिवर्जयेत् - पढम पोरिसिं सज्झायं, बीयं झाणं झियायई। सर्वप्रकार परिहरेत्...पठन्ति च-'पावगं पडिवज्जइ' ति तत्र च पुनातीति तइयाए भिक्खायरियं, पुणो चउत्थीए सज्झायं ।। पावकं शुभमनुष्ठानं प्रतिपयेत--अंगीकुर्यात्। पढम पोरिसिं सज्झायं, बीयं झाणं झियायई। ६. वही, पत्र, ४६ : दुःखेनाश्रयन्ति तमतिकोपनत्वादिभिरिति दुराश्रयः । तइयाए निद्दमोक्ख तु, चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं ।। १०, सुखबोधा, पत्र ४ : दुराशयमपि आशुकोपनमपि। Jain Education Intemational Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयश्रुत १७ अध्ययन १ : श्लोक १४-१६ टि० २६-३० वशीभूत होकर दंडे से शिष्य पर प्रहार किया, सिर फूट गया, पहला भूतवादी बोला-मेरा भूत अत्यंत सुन्दर रूप पर शिष्य ने उस पीड़ा को समभाव से सहा। उसने सोचा, मैं बनाकर नगर की गलियों में क्रीड़ा करेगा। यदि कोई उसको कितना अधम हूं कि अपने शिष्यों के साथ सुखपूर्वक रहने वाले देखेगा, वह रुष्ट होकर उसको मार डालेगा। जो उसको देखकर आचार्य को मैंने इस विपत्ति में डाला। वह पवित्र अध्यवसायों नमन करेगा, वह रोग-मुक्त हो जाएगा। राजा ने कहा ऐसा की श्रेणी में आगे बढ़ा और केवली हो गया। भूत नहीं चाहिए। रात बीती। आचार्य ने रुधिर से अवलिप्त शिष्य के शरीर दूसरे भूतवादी ने कहा-राजन्! मेरा भूत अत्यन्त को देखा। मन ही मन अपने कृत्य के प्रति ग्लानि हुई। शुभ विकराल रूप बनाकर सड़क पर नाचेगा। यदि कोई उसका अध्यवसायों के आलोक में स्वयं के कत्य की निन्दा की और वे उपहास करेगा तो वह उसका सिर फोड़ डालेगा। जो उसकी भी केवली हो गए। प्रशंसा कर पूजा करेगा, वह रोगमुक्त हो जाएगा। राजा बोलाशिष्य ने अपने मृदु व्यवहार से शीघ्र कुपित होने वाले ऐसा भूत भी खतरनाक होता है। अपने गुरु को भी मृदु बना दिया।' तीसरे भूतवादी ने कहा-राजन्! मेरा भूत सीधा-साथा २६. (नापुट्ठो वागरे किंचि) है। उसकी कोई पूजा करे या उपहास करे, वह सबको रोगमुक्त इसके दो अर्थ हैं कर देता है। राजा ने कहा—'ऐसा भूत ही हमें चाहिए।' उस भूत (१) गुरु जब तक 'यह कैसे?' ऐसा न पूछे तब तक शिष्य ने सारी विपत्ति नष्ट कर दी, सारे नगर को रोगमुक्त कर डाला। ने कुछ भी न बोले, मौन रहे। जो व्यक्ति प्रिय और अप्रिय हो सहता है, वही सबके (२) गुरु ही नहीं, किसी के बिना पूछे कभी कछ न कहे। लिए ग्राह्य होता है। २७. (कोहं असच्चं कुव्वेज्जा) २९. दमन करना चाहिए (दमेयव्वो) दो भाई अपनी मां के साथ रह रहे थे। एक भाई को दमन का अर्थ है-पांचों इन्द्रियों तथा मन को उसके शत्रु ने मार डाला। मां ने अपने बेटे से कहा-बेटे! तेरे उपशांत करना। विषय दो प्रकार के होते हैं—मनोज्ञ और भाई की हत्या करने वाले को पकड़ और उसको मार डाल । बेटे अमनोज्ञ। मनोज्ञ विषयों के प्रति राग या आसक्ति और का पौरुष जाग उठा। वह उस घातक की टोह में चल पड़ा। अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष या घृणा उत्पन्न होती है। इस वृत्ति बारह वर्षों के पश्चात् वह मिला। उसका निग्रह कर वह उसे मांग पर विवेक के जागरण का अंकुश लगाना दमन है।" के समक्ष ला खड़ा किया। उसने कहा-मां! मैं शरणागत हूं। 'दमु' और 'शमु'-ये दोनों थातुएं एकार्थक हैं। प्रयोग की आप चाहें तो मारें या उबारें। मां का मन करुणा से भर गया। दृष्टि से 'दमन' का प्रयोग निग्रह करने के अर्थ में और 'शमन' बेटे ने कहा-मां! इस भ्रातृघातक को देख कर मेरा रोम-रोम का प्रयोग शांत करने के रूप में होता है। अध्यात्म के क्षेत्र में कुपित हो रहा है। कैसे सफल करूं अपने क्रोध को? मां इन्द्रिय और मन का निग्रह करना दमन कहलाता है। प्रस्तुत बोली-बेटे! क्रोध को पीना सीखो। सर्वत्र उसको सफल मत श्लोक में आत्मा का अर्थ इन्द्रिय और मन है। आत्म-दमन का करो। याद रखो अर्थ होगा-इन्द्रिय और मन का निग्रह। जैसे वल्गा को 'सरणागयाण वस्संभियाण पणयाण वसणापत्ताणं। खींचकर अश्व को नियंत्रित किया जाता है वैसे ही इन्द्रिय और रोगियअजंगमाणं, सप्पुरिसा नेव पहरंति।।' मन के अश्व को नियंत्रण में रखना आत्म-दमन है। शरण में आए हुए, विप्रब्ध, प्रणत और विपत्ति में पड़े हुए दंडनीति में जो दमन का अर्थ है, वह यहां नहीं है। तथा व्याधि से पंगु बने हुए लोगों पर कभी प्रहार मत करो। बेटे विधि-संहिता के अनुसार अपराधी का अभियोग और बलपूर्वक का क्रोध शांत हुआ। उसने अपने भ्रातृघातक को मुक्त कर दमन किया जाता है। अध्यात्म-संहिता के अनुसार एक व्यक्ति डाला। अपनी पूरी स्वतंत्रता के साथ अहिंसक विधि के द्वारा अपने २८. (धारेज्जा पियमप्पियं) इन्द्रिय और मन की चंचल प्रवृत्ति का नियंत्रण करता है। यही आत्म-दमन है। एक बार पूरा नगर भयंकर रोग से आक्रान्त हो गया। इस प्रकार एक ही शब्द दो संदर्भो में भिन्न अर्थवाला बन राजा और पीरजन अत्यन्त दुखी हो गए। वहां तीन भूतवादी जाता है। आए और बोले---राजन्! हमारे पास शक्तिशाली भूत हैं। हम ३०. 'वरं मे अप्पा दंतो' के प्रसंग में वृत्तिकार ने निम्न सारे नगर का उपद्रव शान्त कर देंगे। राजा ने तीनों से कहाअपने-अपने भूतों का परिचय दो। कथा प्रस्तुत की है १. सुखबोधा पत्र, ४,५ २. वही, पत्र ५ ३. सुखबोधा, पत्र ५,६ ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२ : दमयेत् इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन मनोज्ञेतरविषयेषु रागद्वेषवशतो दुष्टगजमिवोन्मार्गगामिनं स्वयं विवेकांकुशेनोपशमनं नयेत्। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि 1 गन्धहस्ती सेचनक एक घना जंगल वहां हाथियों का यूथ रहता था। यूथपति उस यूथ में नए उत्पन्न होने वाले सभी गज-कलभों को मार डालता था। एक बार गर्भिणी हथिनी ने सोचा, मेरे यदि बच्चा पैदा होगा तो यह यूथपति उसे मार डालेगा। अच्छा है, मैं यहां से छिटक जाऊं। एक बार अवसर देख कर वह वहां से निकल कर पास के ऋषि आश्रम में चली गई। ऋषिकुमारों ने उसे आश्रय दिया। उसने कलभ का प्रस्रव किया । वह उन ऋषिकुमारों के साथ वाटिका का सिंचन करने लगा। उन्होंने उसका नाम 'सचेनक' रखा। वह बड़ा हुआ । यूथपति को देखकर उस पर झपटा। उसे मारकर स्वयं उस यूथ का स्वामी बन गया। एक बार उसने कुछ सोचा और जिस आश्रम में वह जन्मा, बड़ा हुआ, उसी को विनष्ट कर डाला। ऋषिकुमार जान बचाकर राजा श्रेणिक के पास गए और सेचनक गन्धहस्ती की बात कही। राजा स्वयं उसे पकड़ने गया। वह गन्धहस्ती एक देवता द्वारा परिगृहीत था । उसने हाथी से कहा—'वत्स! तुम स्वयं अपना निग्रह करो। दूसरों के द्वारा बंधन और वध आदि से निगृहीत होना अच्छा नहीं है।' यह सुनकर हाथी आश्वस्त हुआ और स्वयं ही आलान स्तम्भ पर आकर खड़ा हो गया । ३१. (श्लोक १७) शिष्य गुरु के प्रतिकूल आचरण न करे। न वह वाणी से यह कहे—तुम कुछ नहीं जानते अथवा गुरु के समक्ष या परोक्ष में वाणी से उनके विरुद्ध न बोले। तथा कर्म से अर्थात् क्रिया से वह आचार्य और उपाध्याय के शय्या - संस्तारक पर न बैठे, हाथ-पैर से उनका संघटन न करे तथा आते-जाते उन पर पैर रखकर न चले—यह चूर्णिगत व्याख्या है।' वृत्तिकार की व्याख्या कुछ भिन्न है । ३२. आचायों के (किच्चाण) कृति का अर्थ है – वन्दना । जो वन्दना के योग्य होते हैं, उन्हें कृत्य - आचार्य कहा जाता है। ३३. प्रस्तुत श्लोक (१८) में आचार्य के समक्ष शिष्य को किस प्रकार नहीं बैठना चाहिए, का निर्देश करते हुए सूत्रकार चार बातों का उल्लेख करते हैंवृत्तिकार ने उनके कारणों का निर्देश इस प्रकार किया है १८ अध्ययन १ : श्लोक १७-१६ टि० ३१-३५ (२) शिष्य को गुरु के निकट आगे भी नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि गुरु- वंदना के लिए आने वाले लोगों को गुरु के मुखारबिन्द का दर्शन न होने पर उनके मन में अप्रीति उत्पन्न हो सकती है। - (१) शिष्य गुरु के दाएं-बाएं न बैठे, क्योंकि को गुरु इधर-उधर देखने में गले और कंधे में पीड़ा हो सकती है। 9. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ३४ । २. बृहद्वृत्ति पत्र ५४ : कृतिः - वन्दनकं तदर्हन्ति कृत्याः 'दण्डादित्वाद् यप्रत्ययः' ते चार्थादाचार्यादयः । ३. वही, पत्र ५४ । ४. वही, पत्र ५४ 'पर्यस्तिका' जानुजङ्घोपरिवस्त्रवेष्टनाऽऽत्मिकाम् । (३) शिष्य गुरु के पीछे भी न बैठे, क्योंकि दोनों को, गुरु और शिष्य को एक-दूसरे का मुंह न दीखने के कारण वह रसवत्ता पैदा नहीं होती जो रसवत्ता मुखदर्शन से होती है। (४) शिष्य गुरु से सटकर न बैठे, क्योंकि पूज्य व्यक्तियों के अंग के संघटन से आशातना होती है और वह अविनय का प्रतीक है। ३४. (पल्हत्थियं....... पक्खपिण्ड ) पल्हत्थियं घुटनों और जंघाओं के चारों और वस्त्र बांधकर बैठने को पर्यस्तिका कहा जाता है।* कुषाणकालीन मूर्तियों में, जो मथुरा से प्राप्त हुई हैं, यक्षकुवेर या साधु आदि अपनी टांग या पेट के चारों ओर वस्त्र बांधकर बैठे हुए दिखाए गए हैं। उसे उस समय की भाषा में 'पल्हत्थिया' (पलथी) कहते थे। वह दो प्रकार की होती थीसमग्र पल्हत्थिया या पूरी पलथी और अर्ध पल्हत्थिया या आधी पलथी । आधी पलथी दक्षिण और वाम अर्थात् दाहिना पैर या बांया पैर मोड़ने से दो प्रकार की होती थी। पलथी लगाने के लिए साटक, बाहुपट्ट, चर्मपट्ट, सूत्र, रज्जु आदि से बन्धन बांधा जाता था । ये पल्हत्थिका-पट्ट रंगीन, चित्रित अथवा सुवर्ण-रत्नमणिमुक्ता खचित भी बनाए जाते थे । * पक्खपिण्डं दोनों हाथों से घुटनों और साथल को वेष्टित कर बैठना, पक्ष- पिण्ड कहलाता है।" ३५. बुलाए जाने पर ( वाहिन्तो) चूर्णि और दोनों वृत्तियों में 'वाहिन्तो' पाठ है। उसका संस्कृत रूप 'व्याकृत' है । उत्तरवर्ती प्रतियों में यह पाठ 'वाहित्तो' के रूप में प्राप्त है। इसी आधार पर पिशेल ने इसका संस्कृत रूप 'व्याक्षिप्त' दिया है। परन्तु 'व्याक्षिप्त' का प्राकृत रूप 'वक्खित्त' होता है। अतः शब्द और अर्थ की दृष्टि से यह उचित नहीं है । इस शब्द के संदर्भ में नेमिचन्द्र ने कहा है कि गुरु के द्वारा बुलाए जाने पर शिष्य अपने आपको धन्य माने । उन्होंने एक प्राचीन पद्य उद्धृत किया है 'धन्नाण चैव गुरुणो, आदेसं देति गुणमहोयहिणो । चंदणरसो अपुन्नाण निवडए नेय अंगग्मि ।। - गुणों के सागर आचार्य योग्य शिष्य को ही आदेश देते ५. ६. ७. ८. - अंगविज्जा भूमिका, पृ. ५६ । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३५ : पक्खपिंडो दोहिंवि बाहाहिं उरूगजाणूणि घेत्तूण अच्छा । पिशेल २८६ । सुखबोधा, पत्र ६ । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयश्रुत १९ अध्ययन १ : श्लोक २०-२५ टि० ३६-४३ हैं। जो क्षीणपुण्य हैं, क्या उनके शरीर पर कभी चन्दन रस का ३. तदुभयात्मक शैली—यह कहीं सूत्रात्मक और कहीं पात होता है? व्याख्यात्मक दोनों प्रकार की होती है। ३६. समीप रहे (उवचिठे) वृत्तिकार ने सूत्र से कालिक और उत्कालिक आगम तथा चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'पास में बैठना' किया है। अर्थ से उनके अभिधेय को ग्रहण किया है। दोनों का समन्वित टीकाओं में इसका अर्थ है-'मैं आपका अभिवादन करता रूप है तदुभय। हूं'—ऐसा कहता हुआ शिष्य सविनय गुरु के पास चला ४१. (श्लोक २४) जाये। प्रस्तुत श्लोक में असत्य और निश्चकारिणी भाषा न ३७. (आलवन्ते लवन्ते वा) बोलने तथा भाषा के दोषों के परिहार का निर्देश है। आलाप और लपन-ये दो शब्द हैं। आलाप का अर्थ वृत्तिकार नेमिचन्द्र ने असत्य बोलने से होने वाले छह है.-थोड़ा बोलना या प्रश्न आदि पूछना। लपन का अर्थ है-- दोषों का निर्देश किया हैबार-बार बोलना या अनेक प्रकार से बोलना। (१) धर्म की हानि (४) अर्थ की हानि ३८. ककहू बैठ (उक्कुडुओ) (२) अविश्वास (५) निंदा स्थानंग में पांच प्रकार की निषद्या का उल्लेख है। उनमें (३) शारीरिक उत्ताप (६) दुर्गति। उत्कुटुका एक निषद्या है। दोनों पैरों को भूमि पर टिका कर, अवधारिणी या निश्चयकारिणी भाषा न बोलने के प्रसंग में दोनों पुतों को भूमि से न छुआते हुए, जमीन पर बैठना वृत्तिकार ने एक सुन्दर गाथा प्रस्तुत कर उसके वास्तविक कारण उत्कटुकासन है। इसका प्रभाव वीर्यग्रन्थियों पर पड़ता है। यह को निर्दिष्ट किया हैब्रह्मचर्य की साधना में बहुत फलदायी है। यह विनय की एक 'अन्नह परिचिंतिज्जइ, कजं परिणमइ अन्नहा चेव। विहिवसयाण जियाणं, मुहुत्तमेत्तं पि बहुविग्घं।। ३९. जो शिष्य विनययुक्त हो (विणयजुत्तस्स) -प्रत्येक प्राणी भाग्य के अधीन है, कर्मों के अधीन है। विनययुक्त मुनि का व्यवहार कैसा हो? वह गुरु के वह सोचता कुछ है और हो कुछ और ही जाता है। जीवन का प्रत्येक क्षण विघ्नों से भरा पड़ा है।" सम्मुख अपनी जिज्ञासा को कैसे प्रस्तुत करे? वह गुरु के समक्ष । असत्य भाषण, सावद्य का अनुमोदन करने वाली वाणी, कैसे अवस्थित रहे-इन प्रश्नों के संदर्भ में सूत्रकार ने कुछ निर्देश दिए हैं पापकारी भाषा, क्रोध-मान-माया और लोभ के वशीभूत होकर बोले जाने वाली भाषा ये सारी भाषाएं सदोष हैं। मुनि आसन पर आसीन होकर तथा शय्या पर स्थित होकर गुरु से जिज्ञासा न करे। वह गुरु के पास उपस्थित ४२. वेनों के प्रयोजन के लिए अथवा अकारण ही (उभयस्सन्तरेण) होकर, दोनों हाथ जोड़कर, उत्कटुक आसन में बैठकर जिज्ञासा टीकाओं में इसका अथ है—दोनों (अपने और पराए) के करे। प्रयोजन के लिए अथवा प्रयोजन के बिना।" चूर्णि में इसका अर्थ __ वर्तमान में उत्कटुक आसन के स्थान पर वंदनासन में दो या बहुत व्यक्तियों के बीच में बोलना किया है। बैठने की परम्परा प्रचलित है। ४३. निरर्थक (निरठ्ठ) ४०. सूत्र, अर्थ और तदुभय (सूत्तं अत्थं च तदुभयं) सुखबोधा टीका में इस शब्द की व्याख्या में एक प्राचीन आगम की रचना शैली तीन प्रकार की है श्लोक उद्धृत है१. सूत्रात्मक शैली—यह संक्षिप्त और सूचक मात्र 'एष वन्थ्यासुतो याति, खपुष्पकृतशेखरः। होती है। मृगतृष्णाम्भसि स्नात शश,गधनुर्धरः।।' २. अर्थात्मक शैली-यह व्याख्यात्मक होती है। ---देखो, यह बांझ का बेटा जा रहा है। यह आकाश मुद्रा है। १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३५ : उपेत्यतिष्ठेत वा चिठेज्जा। २. (क) बृहवृत्ति, पत्र ५५ : 'उपतिष्ठेत' मस्तकेनाभिवन्द इत्यादि वदन् सविनयमुपसप्पेत्। (ख) सुखबोधा, पत्र । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५ : आङ्गिति इषल्लपति वदति। ४. अभिधान चिन्तामणि कोष, २१८८ : आपृच्छालाप....। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५ : लपति या वारं वारनेकधा वाऽभिदधति। ६. ठाणं ५/५०: पंच णिसिज्जाओ पण्णत्ताओ, तं जहा–उक्कुडुया, गोदोहिया, समपायपुता, पलियंका, अद्धपलियंका। ७. उत्तरज्झयणाणि १।२१,२३ । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६। ६. 'धर्महानिरविश्वासो, देहार्थव्यसनं तथा । असत्यभाषिणां निंदा, दुर्गतिश्चोपजायते।।' १०. सुखबोधा, पत्र । ११. (क) बृहवृत्ति, पत्र ५७ : 'उभयस्स' त्ति आत्मनः परस्य च, प्रयोजनमिति गम्यते 'अन्तरेण व' त्ति विना वा प्रयोजनमित्युपस्कारः। (ख) सुखबोधा, पत्र १०। १२. उत्तरज्झयणाणि चूर्णि, पृ. ३६,३७। Jain Education Intemational Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि कुसुमों का सेहरा बांधे हुए है। इसने मृगतृष्णा के पानी में स्नान कर हाथ में खरगोश के सींग का धनुष्य ले रखा है।" ४४. मर्मभेदी वचन (मम्मयं ) चूर्णि के अनुसार 'मर्म' का निरुक्त है— ' म्रियते येन तन् मर्म'- जिससे व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होता है, वह है मर्म । जैसे किसी को कहना कि तुम अपनी पत्नी के दास हो---' इत्थीकारी भवान्'- यह मर्म वचन है । मर्म शब्द के अनेक अर्थ होते हैं रहस्यमय, कटुक, पीड़ाकारक । वृत्तिकार ने यहां इसकी व्याख्या कटुवचन के रूप में की है। काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना मर्मभेदी वचन है। यह यथार्थ होने पर भी मर्म को छूता है । यह अति संक्लेशकारी होता है । चूर्णिकार ने एक श्लोक के माध्यम से बताया है कि जैसे मर्मभेदी वचन पीड़ाकारक होता है वैसे ही जन्म संबंधी और कार्य संबंधी वचन भी मर्मभेदी वचन की श्रेणी में ही आते हैं। किसी के जन्म का उल्लेख करते हुए कुछ कहना, आजीविका के सम्बन्ध में कुछ कहना, व्यक्ति के मर्म को छूने वाला होता है । मुनि इन तीनों का परिहार करे, क्योंकि मर्मविद्ध व्यक्ति स्वयं ही आत्महत्या कर सकता है या मर्मकारी वचन कहने वाले की हत्या कर सकता है 'मम्मं जम्मं कम्मं, तिन्नि वि एयाइं परिहरिज्जासि । मा जम्ममम्मविखे, मरेज्ज मारेज्ज वा किचि ।।" ४५. ( समरे सु अगारेसु सन्धीसु ) — समरेसु पूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ 'लोहार की शाला' है । शान्त्याचार्य इसका अर्थ नाई की दुकान, लोहार की शाला और अन्य नीच स्थान करते हैं। उन्होंने समर का दूसरा अर्थ युद्ध भी किया है। नेमिचन्द्र के अनुसार इसका अर्थ नाई की दुकान है। सर मोनियर विलियम्स ने समर का अर्थ 'समूह का एकत्रित होना' किया है। यह भी अर्थ प्रकरण की दृष्टि से ग्राह्य १. सुखबोधा, पत्र १० । २. ३. वही, पृ. ३८६ । २० अध्ययन १ : श्लोक २६-२६ टि० ४४-४८ हो सकता है। समय का संस्कृत रूप स्मर भी होता है। इसका अर्थ है कामदेव सम्बन्धी या कामदेव का मंदिर। अनुवाद में हमने यही अर्थ किया है। इस शब्द के द्वारा सन्देहास्पद स्थान का ग्रहण इष्ट है । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३६ । दः ४. वही, पृ. ३७ : समरं नाम जत्थ हेट्ठा लोहयारा कम्मं करेंति । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५७: समरेषु खरकुटीषु उपलक्षणत्वादस्यान्येष्वपि नीचास्पेदेषु.. अथवा सममरिभिर्वर्तन्त इति समराः । ६. सुखबोधा, पत्र १० : समरेषु खरकुटीषु । ७. Sanskrit-English Dictionary, 1170 Samara coming together, meeting, concourse, confluence.. (क) पाइअसद्दमहण्णवो, पृ. १०६५। (ख) अंगविज्जा भूमिका, पृ. ६३: समरस्मरगृह या कामदेवगृह । अगारं नाम सुण्णागारं । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ३७ गृहेषु । संधाणं संधि, बहूण वा घराणं तिन्ह ६. : १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ७० अगारेषु ११. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३७ अगारेसु— चूर्णिकार ने इसका अर्थ शून्यागार और शान्त्याचार्य ने केवल गृह किया है। संधीसु—घरों के बीच की संधि दो दीवारों के बीच का प्रच्छन्न स्थान।" ४६. (सीएण फरुसेण) सीएण प्रकरणवश चूर्णिकार ने 'शीत' का अर्थ 'स्वादु' (मधुर), शान्त्याचार्य ने 'उपचार सहित' और नेमिचन्द्र ने आह्लादक किया है। १२ फरुसेण वर्णिकार ने 'परुष' का अर्थ स्नेह वर्जित या निष्ठुर और बृहद् वृत्तिकार ने कर्कश किया है।" गच्छाचार की वृत्ति में सुई के तुल्य चुभने वाले वचन को खर, बाण तुल्य चुभने वाले वचन को परुष और भाले के समान चुभने वाले वचन को कर्कश कहा है। " ४७. द्वेष का हेतु (वेसं) वृत्तिकारों ने इसको द्वेष्य मानकर व्याख्या की है ।" देशीनाममाला में इस अर्थ में 'वेसक्खिज्ज' शब्द प्राप्त होता है। ४८. भयमुक्त (विगयभया) । 'विगयभय' का एक अर्थ है- भयमुक्त । इसका वैकल्पिक अर्थ होता है-भय- प्राप्त। मुनि के मन में एक भय समा जाता है वह सोचता है यदि में गुरु के कठोर अनुशासन का पालन नहीं करूंगा तो दूसरों में मेरा अपमान होगा। दूसरे मुनि मेरे बारे में क्या सोचेंगे—इस अवधारणा से वह गुरु के अनुशासन को हितकर मानता है। यह रचनात्मक भय है। यह अनेक बार मुनि के जीवन में रचनात्मक एवं गुणात्मक परिवर्तन का हेतु बनता है। घराणं यदंतरा । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ५७ 'गृहसन्धिषु च' गृहद्वयान्तरालेषु च । १२. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३७ शीतेन स्वादुना इत्यर्थः । (ख) बृहद्वृत्ति पत्र ५७ 'शीतेन' सोपचारवचसा । (ग) सुखबोधा, पत्र १० शीतेन-उपचाराच्छीतलेना ाह्लादकेनेत्यर्थः । १३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. ३७ परुषं-स्नेहवर्जितं यत्परोक्षं निष्ठुराभिधानम् । (ख) बृहद्वृत्ति पत्र ५७ : 'परुषेण' कर्कशेन । १४. गच्छाचार पत्र ५६ खराः शूचीतुल्याः परुषाः बाणतुल्याः । कर्कशाः , कुन्ततुल्याः । १५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३८ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ५८ (ग) सुखबोधा, पत्र १० । १६. देशीनाममाला ७७६ । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयश्रुत २१ अध्ययन १ : श्लोक ३०-३३ टि० ४६-५३ वृत्तिकार ने 'बुद्धा' शब्द में वैकल्पिक रूप में पंचमी से भिक्षा लाने वाले गृहस्थ की अयतना का सम्यग् अवबोध नहीं विभक्ति मानकर 'बुद्धाद्' का अर्थ आचार्य आदि किया है और हो सकता। 'विगयभया' को उसका विशेषण माना है—'विगतभयाद् बुद्धाद्'।' २. जहां भोजन करने वाले गृहस्थों की पंक्ति लगी हो, ४९. हाथ-पैर से चपलता न करे (अप्पकुक्कुए) मुनि उस पंक्ति में खड़ा न रहे। क्योंकि इससे गृहस्थों के मन चूर्णि में 'अप्प' का अर्थ निषेध है। शान्त्यचार्य ने 'अप्प' में अप्रीति और अदृष्टकल्याणता (अकल्याण-दर्शन) आदि दोष शब्द के अर्थ 'थोड़ा' और 'नहीं--दोनों किए हैं। नेमिचन्द्र ने संभव हो सकते हैं। केवल 'थोड़ा' किया है। डॉ. जेकोबी ने इसका इस प्रकार अर्थ किया है, 'मुनि ५०. श्लोक ३१ : पंक्ति में बैठे हुए भोजन करने वाले व्यक्तियों के समक्ष (आहार ___काले कालं समायरे'—यह मुनि की सामाचारी का द्योतक की याचना के लिए) न जाए। है। मुनि को विविधि क्रियाओं में संलग्न होना होता है। यदि वह उन्होंने इस अर्थ का कोई आधार प्रस्तुत नहीं किया प्रत्येक क्रिया को उचित काल में या निर्धारित समय में संपन्न । तो सारी क्रियाएं ठीक समय पर परिसम्पन्न हो जाती ५२. प्रतिरूप (मुनिवेष) में (पडिरूवेण) प्रस्तुत श्लोक में प्रतिरूप शब्द है और २६वें अध्ययन के जिस देश या समाज में भिक्षा का जो काल हो, मुनि उसी ४३वें सूत्र में प्रतिरूपता। समय भिक्षा के लिए निकले। क्योंकि अकाल में जाने पर मुनि इस श्लोक की व्याख्या में चूर्णिकार ने प्रतिरूप के तीन को खिन्न होना पड़ता है, आत्म-क्लामना होती है। वह समय अर्थ किए हैपर जाए और समय पर लौट आए। यदि भिक्षा प्राप्त न हो तो (१) शोभनरूप वाला। वह घूमता ही न रहे। वह इस सूत्र का स्मरण करे कि भगवान् (२) उत्कृष्ट वेश वाला अर्थात् रजोहरण, गोच्छग और ने कहा है-अलाभोत्ति न सोएज्जा, तवोत्ति अहियासए- पात्रधारी। अप्राप्ति में दीन न बने। स्वतः तपस्या होती है, ऐसा सोचे। (३) जिनप्रतिरूपक-तीर्थंकर की भांति हाथ में भोजन मुझे थोड़ा मिला या नहीं मिला-ऐसा सोचकर घर-घर न करने वाला। भटके। इनका प्रकरणगत अर्थ यह है कि मुनि स्थविरकल्पी या केवल घूमते रहने से अन्यान्य क्रियाओं का काल अतिक्रान्त जिनकल्पी-जिस देश में हो उसी वेश में भिक्षा करे। हो जाता है। तब वह न समय पर प्रतिलेखन कर सकता है वृत्तिकाल में इसका अर्थ-'चिरंतन मुनियों के समान वेष और न स्वाध्याय-ध्यान ही कर सकता है। वाला' ही मुख्य रहा है। यही श्लोक दशवैकालिक ५।२।४ में आया है। प्रतिरूप का अर्थ प्रतिबिम्ब है। यह तीर्थंकर का भी हो ५१. परिपाटी (पंक्ति) में खड़ा न रहे (परिवाडीए न सकता है और चिरंतन मुनियों का भी हो सकता है। यहां चिठे ज्जा) चिरंतन मुनियों के समान वेष वाला—यह अर्थ प्रासंगिक है और बृहद्वृत्ति में परिपाटी के दो अर्थ प्राप्त हैं-गृहपंक्ति २६/४३ में तीर्थंकर के समान वेष वाला—यह अर्थ प्रासंगिक है। देखें-२६४३ का टिप्पण। और भोजन के लिए बैठे हुए व्यक्तियों की पंक्ति। १. गृहपंक्ति-मुनि एक स्थान पर खड़ा रहकर घरों की ५३. श्लोक ३३ लंबी पंक्ति से लाया जाने वाला आहार न ले। क्योंकि दूर के घरों इससे पूर्ववर्ती श्लोक में 'मियं कालेण भक्खए' इस पद द्वारा भोजन-विधि का उल्लेख हो चुका है। फिर भी इस १. बृहद्वृत्ति, पत्र, ५८। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३८ : 'अप्पकुक्कुए' त्ति न गात्रापी स्पंदयती ण वा अबद्धासणो भवति, अन्नत्थुसास-णीससितादी अत्थस्सेह मुक्त्वा शेषमकुकुचो। बृहद्वृत्ति, पत्र ५८, ५६ : 'अप्पकुक्कुए' त्ति अल्पस्पन्दनः करादिभिरल्पमेव चलन्, यद्वा-अल्पशब्दोऽभावाभिधायी, ततश्चाल्पम्असत् कुक्कुयं त्ति कौत्कुचं-कर-चरणभू भ्रमणाद्यसच्चेष्टात्मक मस्येत्यल्पकौत्कुचः। ४. सुखबोधा, पत्र ११॥ बृहद्वृत्ति, पत्र ५६ : परिपाटी गृहपंक्तिः , तस्यां न तिष्ठेत्-न पंक्तिस्थगृहभिक्षोपादनायैकत्रावस्थितो भवति, तत्र दायकदोषाऽनवगमप्रसंगात् यद्वा-पंक्त्यां-भोक्तुमुपविष्ट पुरुषदिसम्बन्धिन्यां न तिष्ठेत्। अप्रीत्यदृषकल्याणतादिदोषसम्भावत्। ६. जेकोबी, Jain Satras, पृष्ट ५ : Amonk Should not approach (dining people) sitting in a row : ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३६ : पडिरूवं णाम सोभणरूवं, जहा पासादिये दरिसणीज्जे अहिरूदे पडिरूवे, रूपं रूपं च प्रति यदन्यरूपं, तत्प्रतिरूपं, सर्वधर्मभूतेभ्यो हि तद्रूपमुत्कृष्टं, तत्तद् रयहरण-गोच्छ-पडिग्गह माताए, जे वा पाणिपडिग्रहिया जिणकप्पिता तेसिं गहणं, तेसिं जिनरूवप्रतिरूपक भवति, यतस्तेन प्रतिरूपेन। (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५६ : प्रतिप्रतिबिम्बं चिरन्तनमनीनां यद्वपं तेन. उभयत्र पतग्रहादिधारणात्मकेन सकलान्यधार्मिकविलक्षणेन। (ख) सुखबोधा, पत्र ११। Jain Education Intemational Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २२ अध्ययन १ : श्लोक ३४,३५ टि० ५४,५५ रता है। आए हुए दो और ८१५१ श्लोक में पुनः भिक्षाटन करने की जो बात कही है, उसकी आज कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ—इस दीन संगति इस प्रकार होती है'-साधु सामान्यतः एक बार ही भिक्षा अवस्था में न रहे। के लिए जाए परन्तु ग्लान के निमित्त या जो आहार मिला उससे डॉ. हर्मन जेकोबी ने इसका अर्थ इस प्रकार दिया हैक्षुधा शांत न होने पर वह साधु पुनः भिक्षा के लिए जाए। इसकी (MONK Should) neither boldly erect nor humbly bowing पुष्टि में टीकाकार दशवैकालिक (अ.५ उ.२) के निम्न श्लोक down,-मुनि अकड़ कर खड़ा न रहे और न दीनता से नीचे उद्धृत करते हैं झुके। ....................जई तेणं न संथरे।।२।। यह अर्थ टीकाकार के वैकल्पिक अर्थ पर आधारित है। तओ कारणमुपन्ने, भत्तपाणं गवेसए। पर यह प्रसंगोपात्त नहीं लगता। .....||३|| इसी श्लोक का दूसरा चरण 'नासन्ने नाइदूरओ'इस ३३ श्लोक का विस्तार दशवैकालिक ५२।१०, ११. गोचराग्र गए हुए मुनि के गृह-प्रवेश की मर्यादा की ओर संकेत १२ में मिलता है। करता है। इसका विस्तार दशवकालिक ५१।२४ में मिलता है। चक्खुफासओ-इसका संस्कृत रूप है 'चक्षुःस्पर्शतः।' तीसरे चरण में आए हुए दो शब्द-'फासुयं' और 'परकर्ड यह तस् प्रत्यय सप्तमी के अर्थ में है। पिण्ड' का विस्तार दशवैकालिक ८२३ और ८५१ में मिलता है। बृहद्वृत्तिकार ने इस शब्द के दो संस्कृत रूप और दिए प्रासुक का अर्थ है-बीज रहित, निर्जीव। यह उसका हैं-चक्षुःस्पर्शे और चक्षुःस्पर्शतः। व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है। इसका प्रवृत्तिलभ्य अर्थ है-निर्दोष या अइक्कमे-प्रस्तुत इसका धातुगत अर्थ है-अतिक्रम विशुद्ध। करना, उल्लंघन करना। परन्त प्रकरण की दृष्टि से इसका अर्थ इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं-प्रासुक और 'प्रवेश करना' ही संगत लगता है। कारण कि इससे पूर्व 'लंघिया' स्पर्शंक। बेचरदासजी ने इसका संस्कृत रूप 'स्पर्शक' किया है। शब्द (जिसका अर्थ है—लांघकर) आ चुका है। जार्ल सरपेन्टियर ने माना है कि केवल जैन संस्कृत में ५४. श्लोक ३४ ही इसका रूप 'प्रासुक' किया जाता है, किन्तु यह स्पष्ट ____ इस श्लोक का प्रथम चरण 'नाइउच्चे व नीए वा' अर्थ-बोधक नहीं है। ल्यूमेन ने औपपातिक में यही आशंका ऊर्ध्वमालापहृत और अधोमालापहृत नामक भिक्षा के दोषों की व्यक्त की है। किन्तु हॉरनल, पिशल और मेयर ने इसको ओर संकेत करता है। इनकी विशेष जानकारी दशवकालिक सूत्र 'स्पर्शक' माना है। इसका अर्थ है मनोज्ञ, स्वीकार करने के ५।१।६७,६८,६९ में प्राप्त है। योग्य। वृत्तिकार ने इसके कुछ वैकल्पिक अर्थ दिए हैं। ५५. प्राणी और बीज रहित (अप्पपाणेऽप्पबीयंमि) (क) १. स्थान की अपेक्षा : ऊंचे स्थान पर खड़ा न रहे। अप्पपाणे-इसका अर्थ है-प्राणी-रहित स्थान में। दोनों २. शारीरिक मुद्रा की अपेक्षा : कंधों को उकचा टीकाकार 'पाण' शब्द से द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों का ग्रहण करते कर-कड़ कर खड़ा न रहे। हैं। परन्तु चूर्णिकार इस शब्द के द्वारा समस्त प्राणियों-स्थावर ३. भाव की अपेक्षा : 'मैं लब्धि-संपन्न हूं' इस व त्रसका ग्रहण करते हैं। अहंकार-पूर्ण अवस्था में न जाए। यहां शान्त्याचार्य ने यह तर्क उपस्थित किया है कि इस (ख) १. स्थान की अपेक्षा : नीचे स्थान पर खड़ा न रहे। चरण में आए हुए दो शब्दों 'अल्प-प्राण' और 'अल्पबीज' में २. शारीरिक मद्रा की अपेक्षा : कंधों को नीचा अल्पबीज शब्द निरर्थक है, क्योंकि प्राण शब्द से समस्त प्राणियों कर-दीनता की अवस्था में खडा न रहे। का ग्रहण हो जाता है। बीज भी प्राण है। ३. भाव की अपेक्षा : मैं कितना मंदभाग्य हं कि मझे इस तर्क का उन्होंने इन शब्दों में समाधान किया है १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०: इह च मितं कालेन भक्षयेदिति भोजनमभिधाय यत्पुनर्भिक्षाटनाभिधानं तत् ग्लानादिनिमित्तं स्वयं वा बुक्षुक्षावेदनीयमसहिष्णोः पुनर्धमणमपि न दोषायेति ज्ञापनार्थम्, उक्तं च---.....। २. वही, पत्र ६० चक्षुःस्पर्शत इति सप्तम्यर्थे तसिः, ततः चक्षुःस्पर्श-दृग्गोचरे चक्षुस्पर्शगो वा दृग्गोचरगतः। वही, पत्र ६०: नात्युच्चे प्रासादो परिभूमिकादौ नीचे वा-भूमिगृहादी, तत्र तदुत्क्षेपनिक्षेपनिरीक्षणासम्भावाद् दायकापायसम्भवाच्च, यद्वा नात्युच्चः उच्चस्थानस्थितत्वेन ऊर्वीकृतकंधरतया वा द्रव्यतो, भावतस्त्वहो! अहं लब्धिमानिति मदाध्मातमानसः, नीचोऽत्यन्तावनतकन्धरो निम्नस्थानस्थितो वा द्रव्यतः, भावतस्तु न मयाऽद्य किंचित् कुतोऽप्यवाप्तमिति दैन्यवान् । ४. जैन सूत्राज, पृष्ट । ५. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६० : प्रगटा असव इति सूत्रत्वेन मतुब्लोपादसुमन्तः-सहजसंसक्तिजन्मानो यस्मात् तत् प्रासुकम्। (ख) सुखबोधा, पत्र १२। ६. दी उत्तराध्ययन, सूत्र, पृ. २८०, २८१। ७. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०। (ख) सुखबोधा, पत्र १२। ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४० : प्राणग्रहणात् सर्वप्राणीनां ग्रहणम्। Jain Education Intemational Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयश्रुत २३ अध्ययन १ : श्लोक ३६ टि०५६-५८ मुख और नासिका के द्वारा जो वायु निकलती है, उसे प्राण मण्डली-भोजी साधु हैं उनका यह कर्तव्य है कि वे अपने कहते हैं। लोक में 'प्राण' का यही अर्थ रूढ़ है। प्राण द्वीन्द्रिय सहधर्मी साधुओं को निमंत्रित कर उनके साथ भोजन करें, आदि में ही होता है। एकेन्द्रिय जीवों में वह नहीं होता। अतः एकाकी न खाएं। इस आशय का स्पष्ट उल्लेख दशवैकालिक 'अल्पबीज' का निर्देश सप्रयोजन है। ५1१६५ में मिलता है। चूर्णिकार का अभिमत है कि यहां अर्थ की दृष्टि से दोनों टीकाकार प्रधानतः इसी अर्थ को मान्य करते हैं 'अप्पाणे' पाठ होना चाहिए, किन्तु उससे श्लोक-रचना ठीक और दशवैकालिक ५११६५ का श्लोक उद्धृत करते हैं। शान्त्याचार्य नहीं बैठती, इस दृष्टि से 'अप्पाणे' के स्थान में 'अप्पपाणे' का ने विकल्प में इसका अर्थ-'सरस-विरस आहार में अनासक्त प्रयोग किया गया है। होकर'--भी किया है। टीकाकार की दृष्टि में भी अल्प शब्द अभाववाची है। चूर्णि में बताया गया है कि अकेला भोजन करे तो वह इससे भी चूर्णिकार का मत समर्थित होता है। समतापूर्वक करे और मण्डली में भोजन करे तो साधर्मिकों को अप्पबीयंमि-इसका शब्दार्थ है-बीज रहित स्थान में। निमंत्रित कर भोजन करे।" उपलक्षण से इसका अर्थ समस्त स्थावर जन्तु रहित स्थान में जयं अपरिसाडियं—यह पद दशवकालिक ५१६ में होता है। बीज सहित स्थान वर्जनीय है तो हरियाली सहित ज्यों-का-त्यों आया है। 'अपरिसाडियं का अर्थ है-भूमि पर न स्थान अपने आप वर्जनीय हो जाता है। गिराता हुआ। डॉ. जेकोबी ने इसका अर्थ-वस्त्ररहित-नग्न ५६. (पडिच्छन्नंमि संवुडे) किया है। यह समीचीन नहीं है। पडिच्छन्नमि-ऊपर से ढके हुए उपाश्रय में। ५८. श्लोक ३६ यहां प्रतिपाद्य यह है कि साधु खुले आकाश में भोजन न बृहद्वृत्ति में प्रस्तुत श्लोकगत शब्दों की मुख्य व्याख्या करे। क्योंकि वहां ऊपर से गिरने वाले सूक्ष्म जीवों का उपद्रव भोजन विषयक है और वैकल्पिक रूप में दो प्रतिपत्तियां हैंहो सकता है। अतः ऐसे स्थान में आहार करे जो ऊपर से छाया १. 'सुपक्च' शब्द को छोड़कर शेष सभी शब्दों की हुआ हो। सामान्य विषयक व्याख्या है, जैसे-इसने सुच्छिन्न किया है संवुडे-पार्श्व में भित्ति आदि से संवृत उपाश्रय में। न्यग्रोध वृक्ष आदि, इसने अच्छा बनाया है प्रासाद, कूप चूर्णिकार ने 'संवुडे' को साधु का विशेषण मानकर इसका आदि-आदि। अर्थ संयत या सर्वेन्द्रियगुप्त किया है। शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र २. 'सुकृत' आदि शब्दों का निरवद्य प्रयोग भी है, ने इसे स्थान का विशेषण माना है। अनुवाद का आधार यह जैसे-इसने सुकृत किया धर्मध्यान आदि। इसका सुपक्व है दूसरा अर्थ रहा है। शान्त्याचार्य ने वैकल्पिक रूप में 'संवुडे' को वचन-विज्ञान आदि। इसने सुच्छिन्न किया है स्नेह आदि। साधु का विशेषण भी माना है। इसने अकल्याण की शांति के लिए उपकरणों को सुहृतदेखें-दशवैकालिक ५।११८३ का टिप्पण। एकत्रित किया है। इसने सुहृत-अच्छी तरह से मार डाला है ५७. (समयं.....जयं अपरिसाडिय) कर्म-शत्रुओं को। यह सुमृत है-इसने पंडित-मरण से मृत्यु समयं-इसका अर्थ है-साथ में। इस शब्द के द्वारा प्राप्त की है। यह साध्वाचार के विषय में सुनिष्ठित है। सुलष्ट गच्छवासी साधुओं की सामाचारी का निर्देश हुआ है। जो है-अच्छा है इसका तपोनुष्ठान आदि।३ १. बृहदवृत्ति, पत्र ६० : ननु चाल्पप्राण इत्युक्ते अल्पबीज इति गतार्थ, (ख) सुखबोधा, पत्र १२। बीजानामपि प्राणत्वाद् उच्यते, मुखनासिकाभ्यां या निर्गच्छति वायुः स ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१ : संवृतो वा सकलाश्रयविरमणात् । एवेहलोक रूढितः प्राणो गृह्यते। अयं च द्वीन्द्रियादीनामेव संभवति, न १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१ : 'समकम्' अन्यैः सह, न त्वेकाक्येव रसलम्पटतया बीजायेकेन्द्रियाणामिति । समूहासहिष्णुतया वा, अत्राह च२. उत्तराध्ययन चूर्णि, ४० : अप्पाणेत्ति वत्तब्चे बंधाणुलोमे अप्पपाणे। साहवो तो चियत्तेणं, निमंतेज्ज जहक्कम । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६० : अल्पा-अविद्यमानाः प्राणा:-प्राणिनो जई तत्थ केइ इच्छेज्जा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए।। यस्मिस्तदल्पप्राणम्। (दशवै०५१६५) ४. वही, पत्र ६० : अल्पानि-अविद्यमानानि बीजानि शाल्यादीनि त्ति, गच्छस्थितसामाचारी चेयं गच्छस्यैवं जिनकाल्पिकादीनामपि यस्मिस्तदल्पबीजं तस्मिन्, उपलक्षणत्वाच्चास्य सकलैकेन्द्रियविरहिते। मूलत्वख्यापनायोक्ता। ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४०: बीजग्रहणात् तद्भेदाः यदि वा बीजान्यपि (ख) सुखबोधा, पत्र १२। वर्जयन्ति, किमुत हरितत्रसादयः? ११. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४० : समतं नाम सम्यग् रागद्वेषवियुतः एकाकी ६. सुखबोथा, पत्र १२ : प्रतिच्छन्ने- उपरिप्रावरणाऽन्विते, अन्यथा भुंक्ते, यस्तु मंडलीए भुंक्ते सोऽविसमगं संजएहि भुंजेज्ज, सहान्यैः संपातिमसत्त्वसंपातसंभवात्। साधुभिरिति, अहवा समयं जहारातिणिओ लंबणे गेण्हई ऽण्णे वा, तथा ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४० : संवुडो नाम सव्विंदियगुत्तो। अविक्कितवदनो गेण्हति। ८. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०,६१ : 'संवृते' पार्श्वतः कटकुट्यादिना संकटद्वारे, १२. डॉ. जेकोबी, Jaina Sutras, P.61 अटव्यां कुडंगादिषु वा। १३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१॥ Jain Education Intemational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि नेमिचद्राचार्य भी इन शब्दों की भोजन विषयक व्याख्या कर वैकल्पिक रूप में सामान्य विषयक व्याख्या और निरवद्य व्याख्या— दोनों करते हैं । यत्र-तत्र उदाहरणों में अन्तर है ।' २४ अध्ययन १ : श्लोक ३७-४० टि. ५६-६२ वाले आचार्य को शिष्य पापदृष्टि मानता है। वह सोचता है--ये पापी हैं। इनके मन में मेरे प्रति करुणा नहीं है। ये क्रूर हैं। ये कारावास के अधिकारी की भांति मुझे दंडित करते हैं। २. खड्डुगा मे चवेडा मे—इस पाठ के आधार पर इसका अर्थ है— मेरे लिए तो केवल ठोकरें खाना, चपेटें खाना, गाली सहना और मार खाना ही भाग्य में है-ऐसा सोचकर शिष्य कल्याण के लिए अनुशासन करने वाले आचार्य को भी पापदृष्टि वाला मानता है ।" ३. आचार्य वाणी के द्वारा शिष्य पर अनुशासन करते हैं। पापदृष्टि शिष्य उसको ठोकरें और चपेटों के समान मानता है। वह उनकी हितकारी वाणी को आक्रोश और प्रहार के समान मानता है। डॉ. हर्मन जेकोबी के अनुसार इस पद्य का अर्थ हैमुनि ऐसे आहार को वर्जनीय माने जो सुकृत, सुपक्व आदि हो । यह अर्थ प्रसंगोपात्त नहीं है, क्योंकि प्रस्तुत श्लोक में यह विवेक दिया गया है कि मुनि आहार के सम्बन्ध में क्या न बोले । प्रस्तुत श्लोक दशवैकालिक ७ 198 में भी आया है। इस सूत्र के प्राचीन चूर्णिकार अगस्त्यसिंह स्थविर इस श्लोक में प्रयुक्त शब्दों को अनेक विशिष्ट क्रियाओं के प्रशंसक वचन मानते हैं। दूसरे चूर्णिकार जिनदास और वृत्तिकार हरिभद्रसूरी इन शब्दों के उदाहरण भोजन विषयक भी देते हैं और सामान्य भी । विशेष विवरण के लिए देखें- दसवेआलियं ७।४१ का टिप्पण | ५९. श्लोक ३७ अविनीत व्यक्ति दुष्ट प्रकृति का होता है। गुरु के अनुशासन से वह प्रसन्न नहीं होता। गुरु उसके व्यवहार से खिन्न हो जाते हैं। ऐसी दुष्ट प्रकृति वाले अविनीत शिष्य की तुलना दुष्ट घोड़े से की गई है। आचार्य भिक्षु ने अविनीत की इस मनोवृत्ति का मार्मिक चित्रण किया है । गलियार गधो घोडो अविनीत ते, कूट्या बिना आगे न चाले रे ज्यूं अविनीत ने काम भोलावियां, कह्या नीठ नीठ पार घाले रे।। गलियार गधो घोडो मोल ले, खाडेती घणो दुःख पावे रे । ज्यूं अविनीत ने दिख्या दिया पर्छ, पग पग गुरु पिछतावे रे।। ६०. श्लोक ३८ प्रस्तुत श्लोक के दो प्रकार के पाठों के आधार पर चूर्णिकार ने तीन अर्थ किए हैं— १. सुखबोधा, पत्र ६ । २. जेकोबी, जैन सूत्राज पृष्ठ ६ Amonk Should avoid as unallowed such food as is well dressed, or well cooked, or well cut........... I ३. विनीत अविनीत की चौपई, ढाल २1११,१२ । ४. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ४१ : खड्डुगाहिं चवेडाहिं अक्कोसेहिं बहेहि या एवमादि भिक्खुशासने प्रकारे तमाचार्य कल्लाणमणुसासेन्तं कल्यमानयतीति कल्लाणं, इह परलोकं (कहितं) इत्यर्थः तथापि तत् कल्याणमनुशासत् कल्लाणं वा तमाचार्यमनुशासनं पावदिट्ठित्ति मण्णति, अयं हि पापो मां हंति, निर्घृणत्वात् क्रौर्य्यत्वाच्च चारपालकवद् बाधयति । अपरकल्पः खड्डुगा मे चवेडा मे सो उ गम्मो इति, एस आयरिओ अकोविओ एवं चवेउ बृहद्वृत्ति में चूर्णि के प्रथम दो अर्थ उपलब्ध हैं ।" सुखबोधा वृत्ति में तीसरा अर्थ मान्य है। यह अर्थ मुनि की जीवन शैली के अनुकूल है। इसीलिए हमने इसे स्वीकार किया है। जर्मन विद्वान् डॉ. हरमन जेकोबी और जार्ल सरपेन्टियर ने प्रस्तुत श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया है- (कुशिष्य सोचता है) मुझे ठोकर, चपेटा आक्रोश और मारपीट प्राप्त होती है। वह शिष्य अपने पर हितकारी अनुशासन करने वाले गुरु को क्रूर और चंड मानता है। ६१. श्लोक ३९ प्रस्तुत श्लोक में 'भाया' (भ्राता) और 'कल्लाणं' (कल्याण) के स्थान पर विभक्ति-विहीन 'भाय' और 'कल्ला' का प्रयोग हुआ है । सासं—प्राकृत व्याकरण के अनुसार यह 'शास्यमानं' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सरपेन्टियर ने ' शास्यमानं' को असंभव मानते हुए इसका रूप 'शास्य' ही होना चाहिए, ऐसा कहा है। ६२. आचार्य का उपघात करने वाला न हो बुद्धोवधाई न सिया) १. खड्डुगाहिं चवेडाहि.. ..इस पाठ के आधार पर इसका अर्थ है---ठोकरों, चपेटों, कटुवचनों तथा दंड आदि है या उसमें श्रद्धा करता है। के आघातों से शिष्य - हित के लिए कल्याणकारी अनुशासन करने बुद्ध या आचार्य की उपघात के तीन प्रकार हैं १. ज्ञान - उपघात - यह आचार्य अल्प श्रुत है या ज्ञान का गोपन करता है। २. दर्शन - उपघात- यह आचार्य उन्मार्ग का प्ररूपण करता ५. ६. ७. ८. ६. ३. चरित्र - उपघात -- यह आचार्य पार्श्वस्थ या कुशील है। उच्चावएहिं मं आउस्सेहिं आउस्सति एवमसी कल्लाणमणुसाससंतं पावदिट्ठित्ति मन्नति । अपर आदेशः वाग्भिरप्यसावनुशास्यमानः मन्यते तां वाचं 'खड्डुगा में चवेडा मे' तथा हितामपि वाचं अक्कोसतित्ति, सासति वधं वा । बृहद्वृत्ति, पत्र ६२ । सुखबोधा, पत्र १३ । (क) जैन सूत्राज, पृष्ठ ६ । (ख) दी उत्तराध्ययन सूत्र, पृष्ठ २८१, २८२ । बृहद्वृत्ति, पत्र ६२ । दी उत्तराध्ययन सूत्र, पृष्ठ २८२ । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयश्रुत २५ अध्ययन १: श्लोक ४१-४२ टि०६३-६६ इस प्रकार जो व्यवहार करता है, वह आचार्य का उपघाती आदि-आदि। इसका एक अर्थ यह भी किया जा सकता हैहोता है। विनीत शिष्य एक ही कार्य के लिए आचार्य से बार-बार कहलाने इसका दूसरा अर्थ यह है-जो शिष्य आचार्य की की इच्छा न करे। वृत्ति का उपघात करता है, वह भी 'बुद्धोपघाती' कहलाता है। ६४. कुपित हुए (कुवियं) आचार्य को दीर्घजीवी देख शिष्य सोचते हैं—'हमलोग कब तक विनीत शिष्य का कर्तव्य है कि वह आचार्य को कपित इनकी परिचर्या करते रहेंगे? कोई ऐसा प्रयत्न करें, जिससे ये जाने तो उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करे। प्रश्न होता है कि अनशन कर लें। वे भिक्षा में पूर्ण नीरस आहार लाते हैं यह कैसे जाना जाए कि आचार्य कुपित हुए हैं? चूर्णिकार ने और कहते हैं--भंते! क्या करें? श्रावक लोग अच्छा आहार देते कपित को जानने के छह लक्षण बताए हैं। वे ये हैं...-- ही नहीं।' उधर श्रावक लोग यह सोचकर कि आचार्य वृद्ध हैं, अचक्षुदानं कृतपूर्वनाशनं, विमाननं दुश्चरिताय कीर्तनम्। सौभाग्य से हमारे यहां स्थान-स्थित हैं, अतः हम स्वतः कथाप्रसंगो न च नाम विस्मयो, विरक्तभावस्य जनस्य लक्षणम्।। प्राप्त प्रणीत-भोजन उन्हें दें। वे भिक्षा के लिए आने वाले साधुओं १. उसकी ओर दृष्टि उठाकर भी न देखना। को प्रणीत-आहार देना चाहते हैं पर वे साधु उन्हें कहते २. पूर्वकृत को भुला देना। हैं—'आचार्य प्रणीत-भोजन नहीं लेना चाहते। वे संलेखना ३. तिरस्कार करना। कर रहे हैं अनशन की तैयारी के लिए काया को कृश कर रहे ४. दुश्चरित्र का कथन करना। हैं।' श्रावक आचार्य को कहते हैं—'भगवन्! आप महान् ५. बातचीत न करना। उद्योतकारी आचार्य हैं, फिर असमय में ही संलेखना क्यों करते ६. उसकी विशेषता पर विस्मय प्रगट न करना। हैं? आप हमारे लिए भारभूत नहीं हैं। हम शक्तिभर आपकी ६५. (पत्तिएण.....पंजलिउडो) सेवा करना चाहते हैं। आपके विनीत साधु भी आपकी सेवा 'पतिएण'-शान्त्याचार्य ने इसे आर्ष प्रयोग मानकर करना चाहते हैं। वे भी आपसे खिन्न नहीं हैं।' आचार्य इस इसके संस्कृत रूप दो किए हैं—१. प्रातीतिकेन और २. प्रीत्या। सारी स्थिति को जानकर सोचते हैं-'इस अप्रतीतिहेतुक प्राण प्रातीतिक के दो अर्थ किए गए हैं-शपथ और प्रतीति उत्पादक धारण से क्या अर्थ है? धर्मार्थी पुरुष को अप्रीति उत्पन्न करना वचन।" उन्होंने मुख्य अर्थ 'प्रातीतिक' किया है। नेमिचंद्र ने उचित नहीं।' वे तत्काल श्रावकों से कहते हैं-मैं नियत-विहारी इसका मुख्य अर्थ प्रीत्या--प्रेम से किया है।' होकर कितने दिन तक इन विनीत साधुओं को और आपको _ 'पंजलिउडो'–शान्त्याचार्य के अनुसार इसके संस्कृत रोके रहूंगा। अच्छा है, अब मैं उत्तम-अर्थ का अनुसरण करूं। रूप दो बनते हैं-प्रकताञ्जलिः और प्राजलिपुटः। नेमिचन्द्र इस प्रकार श्रावकों को समझाकर आचार्य अनशन कर लेते हैं। दसरे को मारी किया । शिष्यों की ऐसी चेष्टा भी आचार्य की उपधात करने वाली । ६६. धर्म से अर्जित (धम्मज्जियं) कहलाती है। इसलिउए विनीत शिष्य बुद्धोपघाती न हो-आचार्य । चूर्णिकार ने इस शब्द को 'धार्मिक जीतं—धम्मज्जीतं' इस को अनशन आदि के लिए बाध्य करने वाला न हो। प्रकार व्युत्पन्न कर, इकार को इस्व मान 'धम्मज्जिय' शब्द ६३. छिद्रान्वेषी (तोत्तगवेसए) माना है। इसका अर्थ है-धर्म के अनुरूप जीत व्यवहार अर्थात् जिसके द्वारा व्यथा उत्पन्न होती है उसे तोत्त-तोत्र प्राचीन बहुश्रुत आचार्यों द्वारा आचीर्ण व्यवहार। कहा जाता है। द्रव्य तोत्र हैं—चाबुक, प्रहार आदि और भाव बृहद्वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैंतोत्र हैं-दोषोद्भावन, तिरस्कारयुक्त वचन, छिद्रान्वेषण १. धर्मार्जितं क्षमा, संयम आदि धर्मों से प्राप्त। पच्चक्खायंति, इत्येवं बुद्धोपघाती न सिया। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ६२,६३ । (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४२ : बुद्धो-आयरियो, बुद्धानुपहन्तुं शीलं यस्य स भवति बुद्धोवघाती, उपेत्य घातः उपघातः, स तु त्रिविधः णाणादि, णाणे अप्पसुतो एस देसं गोप्पवइ इओ दसणे उम्मग्गं पण्णवेति सद्दहति वा, चरणे पासत्थो वा कुशीलो वा एवमादी, अहवा आयरियस्स वृत्तिमुपहंति, जहा एको आयरिओ अ (ववा) यमग्गो (अगमओ), तस्स सीसा चिंतेंति केच्चिरं कालं अम्हेहिं एयस्स ति-केच्चिरं कालं अम्हाह एयस्स वट्टियव्यंति?, तो तहा काहामो जहां भतं पच्चक्खाति, ताहे अंतं एव (विरसं भत्त) उवणेति, भणंति य–ण देति सड्ढा, किं करेमो?, सावयाणं च कहेंति-जहा आयरिया पणीयं पाणभोयणं ण इच्छंति, संलेहणं करेंतित्ति, ततो सड्ढा आगंतूणं भणंति-कि खमासमणा! संलेहणं करेह?, ण वयं पडिचारगा वा णिविपण्णत्ति, ताहे ते जाणिऊण तेहिं चेव बारितंति भणंति-किं मे सिस्सेहिं तुन्भेहिं वाऽवसोहिएहिँ?, उत्तमायरियं उत्तमट्ठ पडिवज्जामि, प, २ भत्तं (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ६२। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४२। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ६३।। ५. सुखबोधा, पत्र १४ : पत्तिएणं ति प्रीत्या साम्नैव। ७. सुखबोधा, पत्र १४ । ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४३ : धार्मिक जीतं धम्मज्जीत, इकारस्य इस्वत्वं काउं। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६४। Jain Education Intemational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २६ अध्ययन १ : श्लोक ४४-४६ टि० ६७-७३ २. धर्म्यजीतं---धर्म के अनुरूप जीत व्यवहार। ज्ञान आर्थिक कहलाता है। यह श्रुतज्ञान का विशेषण है। प्रथम अर्थ में मुनि-धर्म के दस भेदों से समन्वित ७१. पूज्यशास्त्र (पुज्जसत्थे) व्यवहार धर्मार्जित कहलाता है। दूसरे अर्थ में व्यवहार के चूर्णिकार ने इसका अर्थ पूज्यशासित किया है। आगम, धारणा आदि पांच भेदों में से 'जीत' व्यवहार को मुख्य बृहद्वृत्तिकार ने इसके तीन संस्कृत रूप प्रस्तुत कर माना गया है। उनके भिन्न-भिन्न अर्थ किए हैंप्रस्तुत प्रसंग में 'धर्मार्जित' अर्थ अधिक उपयुक्त १. पूज्यशास्त्र--जिसके शास्त्रीय ज्ञान की समस्त जनता लगता है। पूजा करती है। प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चरण में 'तत्' शब्द का प्रयोग है। २. पूज्यशास्ता—जिसके गुरु सभी के पूजनीय हैं अथवा यत् और तत् का नित्य सम्बन्ध होता है। इस आधार पर जो अपनी वृत्तियों से गुरु की पूजा में विशेष निमित्त शान्त्याचार्य ने 'धम्मज्जिय', 'ववहारं' और 'बुद्धेहायरियं'–इन बनता है। तीन शब्दों की द्वितीया विभक्ति के स्थान में प्रथमा विभक्ति भी ३. पूज्यशस्त--जो पूज्य और कल्याणकारी है। मानी है। इन तीनों में पहला अर्थ ही उपयुक्त है। नीति का ६७. कार्य (किच्चाई) वाक्य है—'शास्त्रं भारोऽविवेकिनाम्'-अविवेकी व्यक्ति के सभी व्याख्याकारों ने इसका अर्थ 'कृत्यानि'-कार्य किया लिए शास्त्र भाररूप होता है अथवा विवेक-विकल व्यक्तियों है। प्राचीन आदर्शों में यही पाठ प्राप्त होता है, किन्तु प्रस्तुत का शास्त्र या कथन भारभूत होता है। जो विवेकी होता है, प्रसंग में विभक्ति-व्यत्यय के आधार पर 'किच्चाणं' पाठ माना विनीत होता है, उसी का शास्त्रज्ञान सारभूत होता है, पूजनीय जाए तो इसका अर्थ होगा-आचार्य का। पूर्ववर्ती और पश्चात्वर्ती होता है। श्लोक में 'आयरियस्स' और 'किच्चाणं' पाठ प्राप्त है। ७२. उसके सारे संशय मिट जाते हैं (सुविणीयसंसए) ६८. प्रसन्न होते हैं (पसीयन्ति) बृहद्वृत्ति में इसके दो अर्थ प्राप्त हैं - इसका अर्थ है प्रसन्न होना। प्रश्न होता है कि क्या १. सुविनीतसंशय-जिसकी सारी जिज्ञासाएं या संशय आचार्य प्रसन्न होने पर स्वर्ग की साक्षात् प्राप्ति कराते हैं? क्या मिट गए हैं। वे मोक्ष की उपलब्धि कराते हैं? क्या वे इच्छित वरदान देते हैं? २. सुविनीतसंसत्क-जिसकी परिषद् सुविनीत है। इसके उत्तर में कहा गया कि वे स्वर्ग आदि की उपलब्धि नहीं ७३. कर्मसम्पदा (दसविध सामाचारी) से सम्पन्न करा सकते, पर वे मोक्ष के हेतुभूत श्रुतज्ञान की प्राप्ति अवश्य (कम्मसंपया) कराते हैं। प्राचीन काल में क्रिया की उपसम्पदा के लिए साधुओं की ६९. प्रसन्न होकर (प्रसन्ना) विशेष नियुक्ति होती थी। वे साधुओं को दसविध सामाचारी प्रसाद या प्रसन्नता का अर्थ चित्त की निर्मलता से का प्रशिक्षण देते और उसकी पालना कराने का ध्यान रखते किया जाने वाला अनुग्रह है। इसका सम्बन्ध हर्ष से नहीं है। थे। चर्णि में 'कर्मसम्पदा' का अर्थ 'योगज विभूति सम्पन्न' इस संदर्भ में 'अप्पाणं विप्पसायए'-आचारांग का यह किया है। सूत्र मननीय है। अध्यात्म का प्रसाद निर्विचार की अवस्था बृहद्वृत्ति में इसके दो अर्थ किए गए हैं—सामाचारी से में उपलब्ध है। महर्षि पतंजलि का अभिमत भी यहां सम्पन्न और योगज विभूति से सम्पन्न।" उल्लेखनीय है। चूर्णिकार और बृहद्वृत्तिकार ने नागार्जुनीयास्तु पठन्ति के ७०. मोक्ष के हेतुभूत (अट्ठियं) अंतर्गत इसका पाठान्तर 'मणिच्छियं संपयमुत्तमं गयत्ति' दिया है। यहां 'अर्थ' शब्द मोक्षवाची है। मोक्ष की प्राप्ति का हेतुभूत यहां संपद् का अथ है-यथाख्यातचारित्ररूप सम्पदा।२ १. बृहद्वृत्ति; पत्र ६४। २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४३। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ६५। (ग) सुखबोथा, पत्र १३। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४४। ४. आयारो, ३५५।। ५. पातंजलयोगदर्शन, १४७ : निर्विचारवैशारोऽध्यात्मप्रसादः। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५ : अर्यत इत्यों-मोक्षः स प्रयोजनमस्येत्यार्थिक। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४४ । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ६६। ६. बृहद्वृत्ति पत्र ६६ : सुष्टु-अतिशयेन विनीत-अपनीतः प्रसादितगुरुणैव शास्त्रपरमार्थसमर्पणेन संशयो- दोलायमानमानसात्मकोस्येति, सुविनीतसंशयः। सुविनीता वा संसत्-परिषदस्येति सुविनीतसंसत्कः। विनीतस्य हि स्वयमतिशयविनीतव परिषद् भवति। १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४४ : अक्खीणमहाणसीयादिलखिजुत्तो। १२. बृहवृत्ति, पत्र ६६ : कर्म-क्रिया दशविधचक्रवालसामाचारीप्रभृति रितिकर्तव्यता तस्याः सम्पत्- सम्पन्नता तया, लक्षणे तृतीया, ततः कर्मसम्पदोपलक्षितस्तिष्ठतीति सम्बन्ध,.....'कर्म-सम्पदा' अत्यनुष्ठान माहात्म्यसमुपन्नपुलाकादिलब्धिसम्पत्त्या। १२. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४५। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ६६। Jain Education Intemational Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयश्रुत २७ अध्ययन १ : श्लोक ४७-४८ टि० ७४,७५ ७४. श्लोक ४७ ७५. (देवगंधव....मलपंकपुव्वयं....अप्परए) मोक्षविनय के पांच प्रकार हैं-दर्शनविनय, ज्ञानविनय, देवगंधब्व-यहां 'देव' शब्द से वैमानिक तथा ज्योतिष्क चारित्रविनय, तपविनय और औपचारिकविनय या अनाशातना- देवों का तथा 'गंधर्व' शब्द से व्यंतर और भुवनपति देवों का विनय।' ग्रहण किया है। प्रस्तुत श्लोक में पांचों विनयों का निर्देश है---- मलपंकपुव्वयं-मनुष्य-शरीर का निर्माण मल और पंक १. पूज्यशास्त्र-ज्ञानविनय। (रक्त और वीर्य) से होता है, इसलिए उसे मल-पंक-पूर्वक कहा २. सुविनीतसंशय-दर्शनविनय। जाता है। ३. कर्मसम्पदा-औपचारिकविनय। अप्परए-जो ‘अल्परत' होता है, मोहजनित क्रीड़ा से ४. तपःसामाचारी तथा समाधि-तपविनय। रहित होता है, उसे 'अल्परत' कहा जाता है। जिसके ५. पांच महाव्रत-चारित्रविनय । बध्यमान-कर्म अल्प होते हैं उसे 'अल्परजाः' कहा जाता है। 'अप्परए' के ये दोनों अर्थ हो सकते हैं। १. दशवकालिक नियुक्ति गाथा २६१ : दसणनाणचरिते, तवे य तह ओवयारिए चेव। एसो उ मोक्खविणयो, पंचविहो होइ नायव्यो।। बृहद्वृत्ति, पत्र ६७ : 'मलपंकपुव्वयं' ति जीवशुद्ध्यपहारितया मलवन्मलः स चासी 'पावे बज्जे वेरे पंके पणए य' त्ति वचनात् पडूकश्च कर्ममलपड्कः स पूर्व-कार्यात् प्रथमभावितया कारणमस्येति मलपडूकपूर्वक, यद्वा.....'माओउय पिऊसुक्कं' त्ति वचनात् रक्तशुक्र एव मलपडूकी तत्पूर्वकम्। ३. वही, पत्र ६७ : 'अप्परए' त्ति अल्पमिति.....अविद्यमानं रतमिति.... .... क्रीडितं मोहनीयकर्मोदयजनितमस्येति अल्परतो लवसप्तमादिः, अल्परजा चा प्रतनुबध्यमानकर्मा । Jain Education Intemational Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीअं अज्झयणं परीसह पविभत्ती दूसरा अध्ययन परीषह - प्रविभक्ति Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख उत्तराध्ययन के इस दूसरे अध्ययन में मुनि के परीषहों है, वह परीषह है। का निरूपण है। कर्म-प्रवाद पूर्व के १७वें प्राभृत में परीषहों का काय-क्लेश के अभ्यास से शारीरिक दुःख को सहने की नय और उदाहरण-सहित निरूपण है। वही यहां उद्धृत किया क्षमता, शारीरिक सुखों के प्रति अनाकांक्षा और क्वचिद् जिनशासन गया है। यह नियुक्तिकार का अभिमत है।' दशवकालिक के सभी की प्रभावना भी होती है। परीषह सहने करने से स्वीकृत अध्ययन जिस प्रकार पूर्वो से उद्धृत हैं, उसी प्रकार अहिंसा आदि धर्मों की सुरक्षा होती है। उत्तराध्ययन का यह अध्ययन भी उद्धत है। इस अध्ययन के अनुसार परीषह बाईस हैंजो सहा जाता है उसे कहते हैं परीषह। सहने के दो १. क्षुधा १२. आक्रोश प्रयोजन हैं : (१) मार्गाच्यवन और (२) निर्जरा। स्वीकृत मार्ग से २. पिपासा १३. वध च्युत न होने के लिये और निर्जरा--कर्मों को क्षीण करने के ३. शीत १४. याचना लिये कुछ सहा जाता है। ४. उष्ण १५. अलाभ भगवान महावीर की धर्म-प्ररूपणा के दो मुख्य अंग हैं--- ५. दंश-मशक १६. रोग अहिंसा और कष्ट-सहिष्णुता । कष्ट सहने का अर्थ शरीर, ६. अचेल १७. तृण-स्पर्श इन्द्रिय और मन को पीड़ित करना नहीं, किन्तु अहिंसा आदि ७. अरति १८. जल्ल धर्मों की आराधना को सुस्थिर बनाये रखना है। आचार्य ८. स्त्री कुन्दकुन्द ने कहा है : १६. सत्कार-पुरस्कार ६. चर्या सुहेण भाविदं गाणं, दुहे जादे विणस्सदि। २०. प्रज्ञा तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहि भावए।। १०. निषद्या २१. अज्ञान अर्थात् सुख से भावित ज्ञान दुःख उत्पन्न होने पर नष्ट ११. शय्या २२. दर्शन हो जाता है, इसलिए योगी को यथाशक्ति अपने-आपको दुःख से तत्त्वार्थ सूत्र में भी इनकी संख्या बाईस ही है। भावित करना चाहिये। इनमें दर्शन-परीषह और प्रज्ञा-परीषह-ये दो मार्ग से इसका अर्थ काया को क्लेश देना नहीं है। यद्यपि एक अच्यवन में सहायक होते हैं और शेष बीस परीषह निर्जरा के सीमित अर्थ में काय-क्लेश भी तप रूप में स्वीकृत है किन्तु लिए होते हैं। परीषह और काय-क्लेश एक नहीं हैं। काय-क्लेश आसन समवायांग (समवाय २२) में अन्तिम तीन परीषहों का करने, ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेने, वर्षा-ऋतु में तरुमूल में क्रम उत्तराध्ययन से भिन्न है :निवास करने, शीत ऋतु में अपावृत स्थान में सोने और नाना उत्तराध्ययन समवायांग प्रकार की प्रतिमाओं को स्वीकार करने, न खुतलाने, शरीर की १. प्रज्ञा १. ज्ञान विभूषा न करने के अर्थ में स्वीकृत है।' २. अज्ञान २. दर्शन उक्त प्रकारों में से कोई कष्ट जो स्वयं इच्छानुसार झेला ३. दर्शन ३. प्रज्ञा जाता है, वह काय-क्लेश है और जो इच्छा के बिना प्राप्त होता अभयदेवसूरी ने समवायांग की वृत्ति में अज्ञान-परीषह १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ६६ ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा। कम्मप्पवायपुवे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुत्तं। उग्गा जहा धरिज्जन्ति कायकिलेसं तमाहियं ।। सयणं सोदाहरणं तं चे इहपि णायव्यं ।। (ख) ओववाइय, सूत्र ३६ : से किं तं कायकिलेसे? कायकिलेसे २. तत्त्वार्थसूत्र, ६ मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः । अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-ठाणाट्टिइए उक्कुडयासणिए पडिमठाई ३. सूयगडो, ११२।१।१४: वीरासणिए नेसज्जिए आयावए अवाउडए अकंडुयए अणिटुहए सव्वगायधुणिया कुलियं व लेववं किसए देहमणासणा इह। परिकम्मविभूसविप्पमुक्के। अविहिंसामेव पव्वए अणुधम्मो मुणिणा पवेइओ।। तत्त्वार्थ वृत्ति (श्रुतसागरीय), पृष्ठ ३०१, सू. ६१७, की वृत्ति : यदृच्छया वृत्ति-विविधा हिंसा विहिंसा न विहिंसा अविहिंसा तामेव प्रकर्षेण व्रजेत, समागतः परीषहः, स्वयमेव कृतः कायक्लेशः।। अहिंसाप्रधानो भयेदित्यर्थः अनुगतो-मोक्ष प्रयत्नुकूलो धर्मोऽनुधर्मः ७. वही : शरीरदुःखसहनार्थ शरीरसुखानभिवाञ्छार्थ जिनधर्मप्रभावनाद्यर्थञ्च । असावहिंसालक्षणः परीषहोपसर्गसहनलक्षणश्च धर्मों 'मुनिनो सर्वज्ञेन तत्त्वार्थसूत्र, EE: क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याश'प्रवेदितः' कथित इति। व्याक्रोशवधयाचनाऽलाभरोगतॄणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि । ४. अष्टपाहुड, मोक्ष प्राभृत ६२। ६. प्रवचनसारोद्धार, पत्र १६२, गाथ. ६८५ की वृत्ति : तत्र मार्गाच्यवनार्थ ५. (क) उत्तरज्झयणाणि ३०।२७ : दर्शनपरीषहः प्रज्ञापरीषहश्च, शेषा विंशतिर्निर्जरार्थम् । Jain Education Intemational Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० उत्तरज्झयणाणि अध्ययन २ : आमुख का क्वचित् श्रुति के रूप में उल्लेख किया है। ममातिशयवद्बोधनं न सञ्जायते उत्कृष्ट श्रुतव्रतादिविधायिनां तत्त्वार्थसूत्र (EIE) में 'अचेल' के स्थान पर 'नाग्नय' किल प्रातिहार्यविशेषाः प्रादुर्भवन्ति, इति श्रुतिर्मिथ्या वर्तते परीषह का उल्लेख है और दर्शन-परीषह के स्थान पर दीक्षेयं निष्फला व्रतधारणंच फल्गु एव वर्तते इति सम्यग्दर्शनविशुद्धिअनशन-परीषह का। प्रवचनसारोद्धार (गाथा ६८६) में दर्शन-परीषह सन्निथानादेवं न मनसि करोति तस्य मुनेरदर्शनपरीषहजयो के स्थान में सम्यक्त्व-परीषह माना गया है। दर्शन और भवतीत्यवसानीयम्। सम्यक्त्व यह केवल शब्द-भेद है। अर्थ :-चिर दीक्षित होने पर भी अवधिज्ञान या ऋद्धि अचेल और नाग्न्य में थोड़ा भेद भी है। अचेल का आदि की प्राप्ति न होने पर जो मुनि विचार नहीं करता है कि अर्थ है-१. नग्नता और २. फटे हुए या अल्पमूल्य वाले यह दीक्षा निष्फल है, व्रतों का धारण करना व्यर्थ है इत्यादि, उस वस्त्र। मुनि के अदर्शन-परीषह-जय होता है। तत्त्वार्थसूत्र श्रुतसागरीय वृत्ति में प्रज्ञा-परीषह और दर्शन-परीषह :अदर्शन-परीषह की व्याख्या मूल उत्तराध्ययन के प्रज्ञा और णत्थि णूणं परे लोए, इड्ढी वावि तवस्सिणो। दर्शन-परीषह से भिन्न है। उत्तराध्ययन (२।४२) में जो अदुवा वंचिओ मि त्ति, इइ भिक्खू ण चिंतए ।।४४।। अज्ञान-परीषह की व्याख्या है वह श्रुतसागरीय में अदर्शन की अभू जिणा अस्थि जिणा, अदुवावि भविस्सइ। व्याख्या है। मुसं ते एवमाहंसु, इइ भिक्खू न चिंतए।।४५।। तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरीय) पृ. २९५ अर्थ :--निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि प्रज्ञा-परीषह : भी नहीं है अथवा मैं ठगा गया हूं-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे। योग मुनिस्तर्कव्याकरणच्छन्दोलंकारसारसाहित्याध्यात्मशा जिन हुये थे, जिन हैं और जिन होंगे ऐसा जो कहते हैं वे झूट स्त्रादिनिधाननांगपूर्वप्रकीर्णकनिपूणोऽपि सन ज्ञानमदं न करोति बोलत है-भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे। ममाग्रतः प्रवादिनः सिंहशब्दश्रवणात वनगजा इव पलायन्ते... है अज्ञान-परीषह :......मदं नाधत्ते स मुनिः प्रज्ञापरीषहविजयी भवति। निरट्ठगम्मि विरओ, मेहुणाओ सुसंवुडो। अर्थ :-जो मुनि तर्क, व्याकरण, साहित्य, छन्द, अलंकार, जो सक्खं नाभिजाणामि, थमं कल्लाण पावगं।।४२।। अध्यात्मशास्त्र आदि विद्याओं में निपुन होने पर भी ज्ञान का मद तवोवहाणमादाय, पडिम पडिवज्जओ। नहीं करता है तथा जो इस बात का घमंड नहीं करता है कि एवं पि विरहओ, मे छउमं ण णियट्टइ।।४३ ।। प्रवादी मेरे सामने से उसी प्रकार भाग जाते हैं जिस प्रकार सिंह अर्थ :-मैं मैथुन से निवृत्त हुआ, इन्द्रिय और मन का के शब्द को सुनकर हाथी भाग जाते हैं, उस मुनि के मैंने संवरण किया-यह सब निरर्थक है। क्योंकि धर्म कल्याणकारी प्रज्ञा-परीषह-जय होता है। है या पापकारी—यह मैं साक्षात् नहीं जानता। उत्तराध्ययन अ. २ तपस्या और उपधान को स्वीकार करता हूं, प्रतिमा का प्रज्ञा-परीषह : पालन करता हूं इस प्रकार विशेष चर्या से विहरण करने पर से नूणं मए पुव्वं, कम्माणाणफला कडा। भी मेरा छद्म (ज्ञानावरण आदि कर्म) निवर्तित नहीं हो रहा जेणाहं नाभिजाणामि, पुट्ठो केणइ कण्हुई।।४०।। है—ऐसा चिन्तन न करे। अह पच्छा उइज्जति, कम्माणाणफलाकडा। - मूलाचार में विचिकित्सा के दो भेद किये हैं-(१) द्रव्यएवमस्सासि अप्पाणं, णच्चा कम्मविवागयं ।।४।। विचिकित्सा और (२) भाव-विचिकित्सा। भाव-विचिकित्सा के अर्थ :--निश्चय ही मैंने पूर्व काल में अज्ञान-रूप फल अंतर्गत बाईस परीषहों का उल्लेख हआ है। उनमें अरति के देने वाले कर्म किये हैं। उन्हीं के कारण मैं किसी से कछ पछे स्थान पर अरति-रति, याचना के स्थान पर अयाचना और जान पर भी कुछ नहीं जानता---उत्तर देना नहीं जानता। पहले दर्शन के स्थान पर अदर्शन-परीषह है। किये हुए अज्ञान-रूप फल देने वाले कर्म पकने के पश्चात् उदय इन बाईस परीषहों के स्वरूप के अध्ययन से यह ज्ञात में आते हैं इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर आत्मा को होता है कि कई परीषह सामान्य व्यक्तियों के लिए नहीं थे। वे आश्वासन दे। जिनकल्प-प्रतिमा को स्वीकार करने वाले विशेष संहनन और अदर्शन-परीषह : धृति-युक्त मुनियों के लिये थे। शान्त्याचार्य ने भी इस ओर संकेत यो मुनिः......चिरदीक्षितोऽपि सन्नेवं न चिन्तयति अद्यापि किया है। उनके अनुसार अचेल-परीषह (जहां हम अचेल का १. प्रवचनसारोद्धार, पत्र १६३, गा. ६८५ की वृत्ति : चेलस्य अभावो छुहतण्हा सीदुण्हा दंसमसयमचेलभावो य। अचेल जिनकल्पिकादीनां अन्येषां तु यतीनां भिन्न स्फुटितं अल्पमूल्यं च अरदि रदि इत्थि चरिया णिसीधिया सेज्ज अक्कोसो।। चेलमप्यचेलमुच्यते। वधजायणं अलाहो रोग तण'फास जल्लसक्कारो। २. मूलाचार, ५।७२,७३ : तह चेव पण्णपरिसह अण्णाणमदंसणं खमणं ।। Jain Education Intemational Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह-प्रविभक्ति ३१ अध्ययन २ : आमुख वेदनीय अर्थ नग्नता करते हैं) जिनकल्पी मुनियों के लिये तथा ऐसे १७. चर्या वेदनीय स्थविरकल्पी मुनियों के लिये ग्राह्य है, जिन्हे वस्त्र मिलना १८. शय्या अत्यन्त दुर्लभ है, जिनके पास वस्त्रों का अभाव है, जिनके वस्त्र १६. वध वेदनीय जीर्ण हो गये हैं अथवा जो वर्षा आदि के बिना वस्त्र-धारण नहीं २०. रोग वेदनीय कर सकते' और तृणस्पर्श-परीषह केवल जिनकल्पी मुनियों के २१. तृण-स्पर्श वेदनीय लिए ग्राह्य है। २२. जल्ल वेदनीय प्रवचनसारोद्धार की टीका में सर्वथा नग्न रहना तथा ये सभी परीषह नौवें गुणस्थान तक हो सकते हैं। दशवें चिकित्सा न कराना, केवल जिनकल्पी मुनि के लिये ही बतलाया गुणस्थान में चारित्र-मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले अरति आदि सात परीषह तथा दर्शन-मोहनीय से उत्पन्न दर्शन-परीषह व्याख्याकारों ने सभी परीषहों के साथ कथाएं जोड़कर उन्हें को छोड़कर शेष चौदह परीषह होते हैं। छद्मस्थ वीतराग अर्थात् सुबोध बनाया है। कथाओं का संकेत नियुक्ति में भी प्राप्त है। ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि में भी ये ही चौदह परीषह परीषह-उत्पत्ति के कारण इस प्रकार बताये गये हैं :- हो सकते हैं। केवली में मात्र वेदनीय-कर्म के उदय से होने वाले परीषह उत्पत्ति के कारण कर्म ग्यारह परीषह पाये जाते हैं।' १. प्रज्ञा ज्ञानावरणीय तत्त्वार्थ सूत्र में एक साथ उन्नीस परीषह माने हैं। जैसे--- २. अज्ञान ज्ञानावरणीय शीत और उष्ण में से कोई एक होता है। शय्या-परीषह के होने ३. अलाभ अंतराय पर निषद्या और चर्या-परीषह नहीं होते। निषद्या-परीषह होने ४. अरति चारित्र मोहनीय पर शय्या और चर्या-परीषह नहीं होते। ५. अचेल चारित्र मोहनीय बौद्ध-भिक्षु काय-क्लेश को महत्त्व नहीं देते किन्तु ६. स्त्री चारित्र मोहनीय परीषह-सहन की स्थिति को वे भी अस्वीकार नहीं करते। स्वयं ७. निषद्या चारित्र मोहनीय महात्मा बुद्ध ने कहा है-"मुनि शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, ८. याचना चारित्र मोहनीय वात, आतप, देश और सरीसृप का सामना कर खग्ग-विषाण ६. आक्रोश चारित्र मोहनीय की तरह अकेला विहरण करे।" १०. सत्कार-पुरस्कार चारित्र मोहनीय आचारांग नियुक्ति में परीषह के दो विभाग हैं :११. दर्शन दर्शन मोहनीय १. शीत-मन्द परिणाम वाले । जैसे—स्त्री-परीषह और १२. क्षुधा वेदनीय सत्कार-परीषह। ये दो अनुकूल परीषह हैं। १३. पिपासा वेदनीय २. उष्ण-तीव्र परिणाम वाले। शेष बीस। ये प्रतिकूल १४. शीत वेदनीय परीषह हैं। १५. उष्ण वेदनीय प्रस्तुत अध्ययन में परीषहों के विवेचन के रूप में १६. दंश-मशक वेदनीय मुनि-चर्या का बहुत ही महत्त्वपूर्ण निरूपण हुआ है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२,६३ : जिनकल्पप्रतिपत्ती स्थविरकल्पेऽपि दुर्लभवरवादी दसणमोहे दसणपरीसहो नियमसो भवे इक्को। . वा सर्वथा चेलाभावेन सति वा चेले विना वर्षादिनिमित्तमप्रावरणेन सेसा परीसहा खलु इक्कारस वेयणीज्जमि।। जीर्णादिवस्त्रतया वा 'अचेलक' इति अवस्त्रोऽपि भवति। पंचेव आणुपुची चरिया सिज्जा बहे च (य) रोगे य। २. वही, पत्र १२२ जिनकल्पिकापेक्षं चैतत्, स्थविरकल्पिकाश्च तणफासजल्लमेव व इक्कारस वेयणीज्जमि।। सापेक्षसंयमत्वात्सेवन्तेऽपीति। ५. वही, गाथा ७८ । ३. (क) प्रवचनसारोद्धार, पत्र १६३ : गा. ६८५ की वृत्ति : चेलस्य अभावो ६. (क) तत्त्वार्थ सूत्र, ६/१७ : एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नेकोनविंशतिः। अचेलं जिनकल्पिकादीनां...... | (ख) तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरीय), पृ. २६६ : शीतोष्णपरीषहयोर्मध्ये (ख) वही, पत्र १६४ : ६८६ की वृत्ति : ज्वरकासश्वासादिके सत्यापि अन्यतरो भवति शीतमुष्णो वा। शय्यापरीषहे सति निषद्याचर्ये न भवतः, न गच्छनिर्गता जिनकल्पिकादयश्चिकित्साविधापने प्रवर्तन्ते। निषद्यापरीषहे शय्याचार्ये द्वौ न भवतः, चर्यापरीषहे शय्यानिषधे द्वौ न उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ७३-७८ : भवतः । इति त्रयाणामसम्भवे एकोनविंशतिरेकस्मिन् युगपद् भवति। णाणावरणे येए मोहंमिय अन्तराइए चेव। ७. सुत्तनिपात, उरवग्ग, ३१८ : एएसुं बावीसं परीसहा हुंति णायव्या।। सीतं च उण्हं च खुदं पीपासं, वातातपे इंससिरिसपे च। पन्नान्नाणपरिसहा णाणावरणमि हुति दुन्नेए। सब्बानिपेतानि अभिसंभवित्वा, एको चरे खग्गविसाणकप्पो।। इक्को य अंतराए अलाहपरीसहो होई।। आधारांग नियुक्ति, गाथा २०२,२०३ : अरई अचेल इत्थी निसीहिया जायणा य अक्कोसे। इत्थी सक्कार परिसहा य, दो भाव-सीयला एए। सक्कारपुरक्कारे चरित्तमोहंपि सत्तेए।। सेसा बीसं उपहा, परीसहा होति णायव्वा ।। अरईए दुगुंछाए पुंवेय भयस्स चेव माणस्स। जे तिब्दप्परिणामा, परीसहा ते भवन्ति उण्हा उ। कोहस्स य लोहस्स य उदएण परीसहा सत्त ।। जे मन्दप्परिणामा, परीसहा ते भवे सीया।। Jain Education Intemational Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल सू. १ – सुयं मे आउस तेणं भगवया एवमक्खायं बीयं अज्झयणं परीसह पविभत्ती - इह खलु बावीसं परीसहा समणेण भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया, जे भिक्खु सोच्चा, नच्चा, जिच्या, अभिभूय भिक्वायरियाए परिव्वयंतो पुट्ठो नो विहन्नेज्जा । सू. २- कमरे ते खलु बावीस परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेण पवेइया? जे भिक्खू सोच्चा, नच्चा, जिच्चा, अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्ययतो पुट्ठो नो विहन्नेज्जा । सू. ३ – इमे ते खलु बावीसं परीसता समणेण भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया जे भिक्खू सोच्चा, नच्चा, जिच्चा, अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयन्तो पुट्ठो नो विहन्नेज्जा, तं जहा १. दिगिछापरीस २. पिवासापरीसहे, ३. सीयपरीसहे, ४. उसिणपरीसहे, ५. समसयपरीसहे ६. अचलपरीसहे, ७. अरइपरीसते, ८. इत्थीपरीस ६ चरियापरीसहे, १०. निसीहियापरीसहे, ११. सेनापरीसहे, १२. अक्कोसपरीसहे, १३. वधपरीसहे, १४. जायणापरीसहे, १५. अलाभपरीसहे, १६. रोगपरीसहे, १७. तणफासपरीसहे, १८. जल्लपरीसहे, १६. सक्कार : दूसरा अध्ययन परीषह-प्रविभक्ति संस्कृत छाया श्रुतं गया आयुष्याते भगवता एवमाख्यातम् इह खलु द्वाविंशतिः परीषहाः श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिताः यान भिक्षुः श्रुत्वा ज्ञात्वा वित्वा, अभिभूय मिश्राचर्यया परिव्रजन् स्पृष्टो नो विहन्येत । कतरे ते खलु द्वाविंशतिः परीषाहाः श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिता ? यान् भिक्षुः श्रुत्वा ज्ञात्वा चित्वा अभिभूव भिक्षाचर्यया परिवजन स्पृष्टो नो विहन्येत । इमे ते खलु द्वाविंशतिः परीषाहाः श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिताः यान् भिक्षुः श्रुत्वा, ज्ञात्वा, चित्वा, अभिभूय भिक्षाचर्यया परिव्रजन् स्पृष्टो नो विहन्येत । तद्यथा - १. 'दिगिंछा'- परीषह २. पिपासापरीषहः ३. शीतपरीषहः, ४. उष्णपरीप, ४. दशमशकपरीपत ६. अचेलपरीषहः, ७. अरतिपरीषहः, ८. स्त्रीपरीषहः, ६. चर्यापरीषहः, १०. निषीथिका (निषद्या?)परीषहः, 99. शय्यापरीषहः, १२. आक्रोशपरीषहः, १३. वधपरीषहः, १४. याचनापरीषहः, १५. अलाभपरीषहः, १६. रोगपरीषह १७. तृणस्पर्शपरीपह १८. 'जल्ल' - परीषहः, १६. सत्कार हिन्दी अनुवाद सू. १- - आयुष्मन्! मैंने सुना है, भगवान् इस प्रकार कहा -निर्ग्रथ-प्रवचन में बाईस परीषह होते हैं, जो काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा प्रवेदित हैं, जिन्हें सुनकर, जानकर, अभ्यास के द्वारा परिचितकर' पराजितकर भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन करता हुआ मुनि उनसे स्पृष्ट होने पर विचलित नहीं होता। सू. २- वे बाईस परीषह कौन से हैं जो काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा प्रवेदित हैं, जिन्हें सुनकर, जानकर, अभ्यास के द्वारा परिचितकर, पराजितकर भिक्षाचयों के लिए पर्यटन करता हुआ मुनि उनसे स्पृष्ट होने पर विचलित नहीं होता। सू. ३-वे बाईस परीयह कौन से है, जो काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा प्रवेदित हैं, जिन्हें सुनकर, जानकर, अभ्यास के द्वारा परिचितकर, पराजितकर भिक्षाचर्या के लिए पर्यटन करता हुआ मुनि उनसे स्पृष्ट होने पर विचलित नहीं होता। जैसे - १. क्षुधा परीषह, २. पिपासा परीषह, ३. शीत परीषह, ४. उष्ण परीषह, ५. दंशमशक परीषह, ६. अचेल परीषह, ७. अरति परीषह, स्त्री परीषह, ६. चर्या परीषह, १०. निषद्या परीषह, ११. शय्या परीषह, १२. आक्रोश परीषह, ८. १३. वध परीषह, १४. याचना परीषह, १५. अलाभ परीषह, १६. रोग परीषह, १७. तृणस्पर्श परीषह, १८. जल्ल परीषह, १६. सत्कार- पुरस्कार परीवह, Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह-प्रविभक्ति ३३ अध्ययन २ : श्लोक १-७ २०. प्रज्ञा परीषह, २१. अज्ञान परीषह, २२. दर्शन परीषह। परीषहों का जो विभाग कश्यप-गोत्रीय भगवान् महावीर के द्वारा प्रवेदित या परूपित है, उसे मैं क्रमवार कहता हूं। तू मुझे सुन। पुरक्कारपरीसहे, २०. पन्नापरीसहे, पुरस्कारपरीषहः, २०. प्रज्ञा२१. अन्नाणपरीसहे, २२. दंसण- परीषहः, २१. अज्ञानपरीषहः, परीसहे। २२. दर्शनपरीषहः। १. परीसहाणं पविभत्ती परीषहाणां प्रविभक्तिः कासवेणं पवेइया। काश्यपेन प्रवेदिता। तं भे उदाहरिस्सामि तां भवतामुदाहरिष्यामि आणुपुब्बिं सुणेह मे।। आनुपूर्व्या शृणुत मे।। (१) दिगिंछापरीसहे (१) 'दिगिंछा'-परीषहः २. दिगिंछापरिगए देहे 'दिगिंछा' परिगते देहे तवस्सी भिक्खु थामवं। तपस्वी भिक्षुः स्थामवान्। न छिंदे न छिन्दावए न छिन्द्यात् न छेदयेत् न पए न पयावए।। न पचेत न पाचयेत्।। ३. कालीपव्वंगसंकासे कालीपर्वाङ्गसङ्काशः किसे धमणिसंतए। कृशो धमनिसन्ततः। मायण्णे असणपाणस्स मात्रज्ञोऽशनपानयोः अदीणमणसो चरे।। आदीनमनाश्चरेत् ।। (१) क्षुधा परीषह देह में क्षुधा व्याप्त होने पर तपस्वी और प्राणवान् भिक्षु फल आदि का छेदन न करे, न कराए। उन्हें न पकाए और न पकवाए। शरीर के अंग भूख से सूखकर काकजंघा' नामक तृण जैसे दुर्बल हो जाएं, शरीर कृश हो जाए, धमनियों का ढांचा भर रह जाए तो भी आहार-पानी की मर्यादा को जानने वाला साधु अदीनभाव से विहरण करे। (२) पिपासा परीषह अहिंसक या करुणाशील' लज्जावान् संयमी साधु प्यास से पीड़ित होने पर सचित पानी का सेवन न करे, किन्तु प्रासुक जल की एषणा करे। (२) पिपासापरीषहः (२) पिवासापरीसहे ४. तओ पुट्ठो पिवासाए दोगुंछी लज्जसंजए। सीओदगं न सेविज्जा वियडस्सेसणं चरे।। ५. छिन्नावाएसु पंथेसु आउरे सुपिवासिए। परिसुक्कमुहेऽदीणे तं तितिक्खे परीसहं।। (३) सीयपरीसहे ६. चरंतं विरयं लूहं सीयं फुसइ एगया। नाइवेलं मुणी गच्छे सोच्चाणं जिणसासणं।। ततः स्पृष्टः पिपासया जुगुप्सी लज्जासंयतः। शीतोदकं न सेवेत 'वियडस्स' एषणां चरेत्।। छिन्नापातेषु पथिषु आतुरः सुपिपासितः। परिशुष्कमुखोऽदीनः तं तितिक्षेत परीषहम् ।। निर्जन मार्ग में जाते समय प्यास से अत्यंत आकुल हो जाने पर, मुंह सूख जाने पर भी साधु अदीनभाव से प्यास के परीषह को सहन करे। (३) शीतपरीषहः (३) शीत परीषह चरन्तं विरतं रूक्षं शीतं स्पृशति एकदा। नातिवेलं मुनिर्गच्छेत् श्रुत्वा जिनशासनम् ।। विचरते हुए विरत और रूक्ष शरीर वाले साधु को° शीत ऋतु में सर्दी सताती है। फिर भी वह जिन-शासन को सुनकर (आगम के उपदेश को ध्यान में रखकर) स्वाध्याय आदि की वेला (अथवा मर्यादा) का अतिक्रमण न करे। शीत से प्रताड़ित होने पर मुनि ऐसा न सोचे-मेरे पास शीत-निवारक घर आदि नहीं हैं और छवित्राण (वस्त्र, कम्बल आदि) भी नहीं है, इसलिए मैं अग्नि का सेवन करूं। ७. न मे निवारणं अत्थि छवित्ताणं न विज्जई। अहं तु अग्गिं सेवामि इइ भिक्खू न चिंतए।। न मे निवारणमस्ति छवित्राणं न विद्यते अहं तु अग्नि सेवे इति भिक्षुर्न चिन्तयेत्।। Jain Education Intemational Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३४ अध्ययन २ : श्लोक ८-१५ (४) उष्ण परीषह गरम धूलि आदि के परिताप, स्वेद, मैल या प्यास के दाह अथवा ग्रीष्मकालीन सूर्य के परिताप से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी मुनि सुख के लिए विलाप न करे-आकुल-व्याकुल न बने। गर्मी से अभितप्त होने पर भी मेधावी१२ मुनि स्नान की इच्छा न करे। शरीर को गीला न करे। पंखे से शरीर पर हवा न ले। (४) उसिणपरीसहे ८. उसिणपरियावेणं परिदाहेण तज्जिए। प्रिंसु नो परियावेणं सायं नो परिदेवए।। ६. उण्हाहितत्ते मेहावी सिणाणं नो वि पत्थए। गायं नो परिसिंचेज्जा न वीएज्जा य अप्पयं ।। (५) दंसमसयपरीसहे १०.पुट्ठो य दंसमसएहिं समरेव महामुणी। नागो संगामसीसे वा सूरो अभिहणे परं।। ११.न संतसे न वारेज्जा मणं पि न पओसए। उवेहे न हणे पाणे मुंजते मंससोणियं ।। (६) अचेलपरीसहे १२.परिजुण्णेहिं वत्थेहिं होक्खामि त्ति अचेलए। अदुवा सचेलए होक्खं इइ भिक्खू न चिंतए।। १३.एगयाचेलए होइ सचेले यावि एगया। एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए।। (४) उष्णपरीषहः उष्णपरितापेन परिदाहेन तर्जितः। ग्रीष्मे वा परितापेन सातं नो परिदेवेत।। उष्णाभितप्तो मेधावी स्नानं नो अपि पार्थयेत्। गात्रं नो परिषिञ्चेत् न वीजयेच्चात्मकम्।। (५) 'दंशमशकपरीषहः स्पृष्टश्च दंशमशकैः सम एव महामुनिः। नागः संग्रामशीर्षे इव शूरोऽभिहन्यात् परम्।। न संत्रसेत् न वारयेत् मनो पि न प्रदोषयेत्। उपेक्षेत न हन्यात् प्राणान् भुजानान्मांसशोणितम् ।। (६) अचेलपरीषहः परिजीर्णैर्वस्त्रैः भविष्यामीत्यचेलकः। अथवा सचेलको भविष्यामि इति भिक्षुर्न चिन्तयेत्।। एकदाऽचेलको भवति सचेलश्चापि एकदा। एतद् धर्महितं ज्ञात्वा ज्ञानी नो परिदेवेत।। (५) दंशमशक परीषह डांस और मच्छरों का उपद्रव होने पर भी महामुनि समभाव में रहे", क्रोध आदि का वैसे ही दमन करे जैसे युद्ध के अग्रभाग में रहा हुआ शूर" हाथी वाणों को नहीं गिनता हुआ शत्रुओं का हनन करता है। भिक्षु उन दंश-मशकों से संत्रस्त न हो', उन्हें हटाए नहीं। मन में भी उनके प्रति द्वेष न लाए। मांस और रक्त खाने-पीने पर भी उनकी उपेक्षा करे", किन्तु उनका हनन न करे। (६) अचेल परीषह "वस्त्र फट गए हैं इसलिए मैं अचेल हो जाऊंगा अथवा वस्त्र मिलने पर फिर मैं सचेल हो जाऊंगा"मुनि ऐसा न सोचे। (दीन और हर्ष दोनों प्रकार का भाव न लाए।) जिनकल्प-दशा में अथवा वस्त्र न मिलने पर मुनि अचेलक भी होता है और स्थविरकल्पदशा में वह सचेलक भी होता है। अवस्था-भेद के अनुसार इन दोनों (सचेलत्व और अचेलत्व) को यति धर्म के लिए हितकर जानकर ज्ञानी मुनि वस्त्र न मिलने पर दीन न बने ।२० (७) अरति परीषह एक गांव से दूसरे गांव में विहार करते हुए अकिंचन मुनि के चित्त में अरति उत्पन्न हो जाये तो उस परीषह को वह सहन करे। (७) अरइपरीसहे १४.गामाणुगामं रीयंतं अणगारं अकिंचणं। अरई अणुप्पविसे तं तितिक्खे परीसहं ।। १५.अरई पिट्ठओ किच्चा विरए आयरक्खिए। धम्मारामे निरारंभे उवसंते मुणी चरे।। (७) 'अरतिपरीषहः ग्रामानुग्रामं रीयमाणं अनगारमकिञ्चनम्। अरतिनुप्रविशेत् तं तितिक्षेत परीषहम्।। अरतिं पृष्ठतः कृत्वा विरतिः आत्मरक्षितः। धर्मारामो निरारम्भः उपशान्तो मुनिश्चेरत्।। हिंसा आदि से विरत रहने वाला, आत्मा की रक्षा करने वाला, धर्म में रमण करने वाला, असत् प्रवृत्ति से दूर रहने वाला, उपशान्त मुनि अरति को दूर कर विहरण करे ।२२ Jain Education Intemational Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ : श्लोक १६-२३ (E) स्त्रीपरीषहः संग एष मनुष्याणां या लोके स्त्रियः। यस्यैताः परिज्ञाताः सुकरं तस्य श्रामण्यम्।। (८) स्त्री परीषह "लोक में जो स्त्रियां हैं, वे मनुष्यों के लिए संग हैंलेप हैं"२१-जो इस बात को जान लेता है, उसके लिए श्रामण्य सुकर है। "स्त्रियां ब्रह्मचारी के लिए दल-दल के समान हैं"-यह जानकार मेधावी मुनि उनसे अपने संयम-जीवन की घात न होने दे, किन्तु आत्मा की गवेषणा करता हुआ विचरण करे।२६ परीषह-प्रविभक्ति (E) इत्थीपरीसहे १६.संगो एस मणुस्साणं जाओ लोगंमि इत्थिओ। जस्स एया परिण्णाया सुकडं तस्स सामण्णं ।। १७.एवमादाय मेहावी पंकभूया उ इथिओ। नो ताहिं विणिहन्नेज्जा चरेज्जत्तगवेसए।। (E) चरियापरीसहे १८.एग एव चरे लाढे अभिभूय परीसहे। गामे वा नगरे वावि निगमे वा रायहाणिए।। १६.असमाणो चरे भिक्खू नेव कुज्जा परिग्गह। असंसत्तो गिहत्थेहिं अणिएओ परिव्वए।। (१०) निसीहियापरीसहे २०.सुसाणे सुन्नगारे वा रुक्खमूले व एगओ। अकुक्कुओ निसीएज्जा न य वित्तासए परं।। २१.तत्थ से चिट्ठमाणस्स उवसग्गाभिधारए। संकाभीओ न गच्छेज्जा उठ्ठित्ता अन्नमासणं ।। (११) सेज्जापरीसहे २२.उच्चावयाहिं सेज्जाहिं तवस्सी भिक्खु थामवं । नाइवेलं विहन्नेज्जा पावदिट्ठी विहन्नई।। २३.पइरिक्कुवस्सयं लद्ध कल्लाणं अदु पावगं। किमेगरायं करिस्सइ एवं तत्थऽहियासए ।। एवमादाय मेधावी पंकभूताः स्त्रियः। नो ताभिर्विनिहन्यात् चरेदात्मगवेषकः।। (६) चर्यापरीषहः एक एव चरेद् लाढः अभिभूय परीषहान्। ग्रामे वा नगरे वापि निगमे वा राजधान्याम् ।। असन् चरेद् भिक्षुः नैव कुर्यात् परिग्रहम्। असंसक्तो गृहस्थैः अनिकेतः परिव्रजेत् ।। (E) चर्या परीषह संयम के लिए जीवन-निर्वाह करने वाला मुनि परीषहों को जीतकर गांव में या नगर में, निगम में या राजधानी में अकेला (राग-द्वेष रहित होकर) विचरण करे। मुनि एक स्थान पर आश्रम बनाकर न बैठे२० किन्तु विचरण करता रहे। गांव आदि के साथ ममत्व न करे, उनसे प्रतिबद्ध न हो। गृहस्थों से निर्लिप्त रहे। अनिकेत (गृह-मुक्त) रहता हुआ परिव्रजन करे।२ (१०) निषद्या परीषह राग-द्वेष रहित मुनि चपलताओं का वर्जन करता हुआ श्मशान, शून्यगृह अथवा वृक्ष के मूल में बैठे। दूसरों को त्रास न दे।५ (१०) निषीधिकापरीषहः श्मशाने शून्यागारे वा रूक्षमूले वा एककः। अकुक्कुचः निषीदेत् न च वित्रासेयत् परम् ।। तत्र तस्य तिष्ठतः उपसर्गा अभिधारयेयुः। शंकाभीतो न गच्छेत् उत्थायान्यदासनम्।। (E) शय्यापरीषहः वहां बैठे हुए उसे उपसर्ग प्राप्त हों तो वह यह चिन्तन करे- “ये मेरा क्या अनिष्ट करेंगे?" किन्तु अपकार की शंका से डर कर वहां से उठ दूसरे स्थान पर न जाए।६ (११) शय्या परीषह उच्चावचाभिः शय्याभिः तपस्वी भिक्षुः स्थामवान्। नातिवेलं विहन्येत पापदृष्टिविहन्यते।। प्रतिरिक्तामुपाश्रयं लब्ध्वा कल्याणं अथवा पापकम् । किमेकरात्रं करिष्यति एवं तत्राध्यासीत।। तपस्वी और प्राणवान् भिक्षु उत्कृष्ट या निकृष्ट उपाश्रय को पाकर मर्यादा का अतिक्रमण न करे (हर्ष या शोक न लाए)।८ जो पापदृष्टि होता है, वह विहत हो जाता है (हर्ष या शोक से आक्रान्त हो जाता है)। प्रतिरिक्त (एकान्त) उपाश्रय-भले फिर वह सुन्दर हो या असुन्दर-को पाकर “एक रात में क्या होना जाना है"- ऐया सोचकर रहे, जो भी सुख-दुःख हो उसे सहन करे।" Jain Education Intemational Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३६ अध्ययन २ : श्लोक २४-३१ (१२) आक्रोश परीषह कोई मनुष्य भिक्षु को गाली दे तो वह उसके प्रति क्रोध २ न करे। क्रोध करने वाला भिक्षु बालकों (अज्ञानियों) के सदृश हो जाता है, इसलिए भिक्षु क्रोध न करे। मुनि परुष, दारुण और ग्राम-कंटक" (कर्ण-कंटक) भाषा को सुनकर मौन रहता हुआ उसकी उपेक्षा करे, उसे मन में न लाए। ६ (१३) वध परीषह पीटे जाने पर भी मुनि क्रोध न करे, मन में भी द्वेष न लाए। तितिक्षा को परम ८ जानकर मुनिधर्म का चिन्तन करे। संयत और दान्त श्रमण को कोई कहीं पीटे तो वह “आत्मा का नाश नहीं होता''--ऐसा चिन्तन करे, पर प्रतिशोध की भावना न लाए।५२ (१२) अक्कोसपरीसहे २४.अक्कोसेज्ज परो भिक्खु न तेसिं पडिसंजले। सरिसो होइ बालाणं तम्हा भिक्खू न संजले ।। २५.सोच्चाणं फरुसा भासा दारुणा गामकंटगा। तुसिणीओ उवेहेज्जा न ताओ मणसीकरे ।। (१३) वधपरीसहे २६.हओ न संजले भिक्खू मणं पि न पओसए। तितिक्खं परमं नच्चा भिक्खुधम्म विचिंतए।। २७.समणं संजय दंतं हणेज्जा कोइ कत्थई। नत्थि जीवस्स नासु त्ति एवं पेहेज्ज संजए।। (१४) जायणापरीसहे २८.दुक्करं खलु भो! निच्चं अणगारस्स भिक्खुणो। सव्वं से जाइयं होइ नत्थि किंचि अजाइयं ।। २६.गोयरग्गपविट्ठस्स पाणी नो सुप्पसारए। सेओ अगारवासु त्ति इइ भिक्खू न चिंतए।। (१५) अलाभपरीसहे ३०.परेसु घासमेसेज्जा भोयणे परिणिट्ठिए। लद्धे पिंडे अलद्धे वा नाणुतप्पेज्ज संजए।। ३१.अज्जेवाहं न लब्मामि अवि लाभो सुए सिया। जो एवं पडिसंविक्खे अलाभो तं न तज्जए।। (१२) आक्रोशपरीषहः आक्रोशेत् परो भिक्षु न तस्मै प्रतिसंचलेत्। सदृशो भवति बालानां तस्माद् भिक्षुर्न संज्चलेत् ।। श्रुत्वा परुषाः भाषाः दारुणाः ग्रामकण्टकाः। तूष्णीक उपेक्षेत न ताः मनीकुर्यात् ।। (१३) वधपरीषहः हतो न संज्चले भिक्षुः मनो पि न प्रदोषयेत्। तितिक्षां परमां ज्ञात्वा भिक्षुधर्म विचिन्तयेत्।। श्रमणं संतयं दान्तं हन्यात् कोऽपि कुत्रचित्। नास्ति जीवस्य नाश इति एवं प्रेक्षेत संयतः।। (१४) याचनापरीषहः दुष्करं खलु भो! नित्यम् अनगारस्य भिक्षोः। सर्व तस्य याचितं भवति नास्ति किंचिदयाचितम्।। गोचराग्रप्रविष्टस्य पाणि: नो सुप्रसारकः। श्रेयानगारवास इति इति भिक्षुर्न चिन्तयेत्।। (१५) अलाभपरीषहः परेषु घासमेषयेत् भोजने परिनिष्ठिते। लब्धे पिण्डे अलब्धे वा नानुतपेत् संयतः।। अद्यैवाहं न लभे अपि लाभः श्वः स्यात् य एवं प्रतिसंवीक्षते अलाभस्तं न तर्जयति।। (१४) याचना परीषह ओह! अनगार भिक्षु की यह चर्या कितनी कठिन है कि उसे जीवन भर सब कुछ याचना से मिलता है। उसके पास अयाचित कुछ भी नहीं होता। गोचराग्र में प्रविष्ट मुनि के लिए गृहस्थों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है।५५ अतः “गृहवास ही श्रेय है५६ - मुनि ऐसा चिन्तन न करे। (१५) अलाभ परीषह गृहस्थों के घर भोजन तैयार हो जाने पर मुनि उसकी एषणा करे। आहार थोड़ा मिलने या न मिलने पर संयमी मुनि अनुताप न करे। “आज मुझे भिक्षा नहीं मिली, परन्तु संभव है कल मिल जाय"-जो इस प्रकार सोचता है, उसे अलाभ नहीं सताता। Jain Education Intemational Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह प्रविभक्ति - (१६) रोगपरीसहे ३२. नच्चा उप्पइयं दुक्खं वेयणाए दुहटिए । अदीणो थावए पन्नं पुट्ठो तत्थहियासए । । ३३. तेगिच्छं नाभिनंदेज्जा संचिक्खत्तगवे सए । एसं खु तस्स सामण्णं जं न कुज्जा न कारवे ।। (१७) तणफासपरीसहे २४. अचेलगस्स लूहस्स संजयस्स तवस्सिणो । तणेसु सयमाणस्स हुज्जा गायविराहणा ।। ३५. आयवस्स निवाएणं अउला हवइ वेयणा । एवं नच्चा न सेवंति तंतुजं ततज्जिया । । (१८) जल्लपरीसहे ३६. किलिन्नगाए मेहावी पंकेण व रएण वा । धिंसु वा परितावेण सायं नो परिदेवए । ३७. वेएज्ज निज्जरापेही आरियं धम्मऽणुत्तरं । जाव सरीरभेउ त्ति जल्लं काएण धारए ।। (१६) सक्कारपुरक्कारपरीसहे ३८. अभिवायणमब्भुट्ठाणं सामी कुज्जा निमंतणं । जे ताइं पडिसेवंति न तेसिं पीहए मुणी ।। २९. अणुक्कसाई अपिच्छे अण्णाएसी अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्झेज्जा नाणुतप्पेज्ज पण्णवं ।। ३७ (१६) रोगपरीषहः ज्ञात्वोत्पतितं दुःखं देवनया दुःखार्दितः । अदीन: स्थापयेत् प्रज्ञां स्पृष्टस्ता प्यासीत ॥ चिकित्सां नाभिनन्देत् संतिष्ठेतात्मगवेषकः । एतत् खलु तस्य श्रामण्यं यन्न कुर्यात् न कारयेत् ।। (१७) तृणस्पर्शपरीषहः अचेलकस्य रूक्षस्य संयतस्य तपस्विनः । तृणेषु शयानस्य भवेद् गात्रविराधना ।। आतपस्य निपातेन अतुला भवति वेदना । एवं ज्ञात्वा न सेवन्ते तंतुजं तृणतर्जिताः ।। (१८) जलपरीषत: क्लिन्नगात्रो मेधावी पंकेन वा रजसा वा । ग्रीष्मे वा परितापेन सातं नो परिदेवेत || / वेदयेन् निर्जरापेक्षी आर्य धर्ममनुत्तरम्। यावत् शरीरभेद इति 'जल्लं' कायेन धारयेत् ।। (१६) सत्कारपुरस्कारपरीषडः अभिवादनमभ्युत्थानं स्वामी कुर्यान् निमन्त्रणम् । ये एतानि प्रतिसेवन्ते न तेभ्यः स्पृहयेन्मुनिः ।। अनुकषायी अल्पेच्छ अज्ञातैषी अलोलुपः। रसेषु नानुगृध्येत् नानुतपेत् प्रज्ञावान् । अध्ययन २ श्लोक ३२-३६ (१६) रोग परीषह रोग को उत्पन्न हुआ जानकर तथा वेदना से पीड़ित होने पर दीन न बने । व्याधि से विचलित होती हुई प्रज्ञा को स्थिर बना और प्राप्त दुःख को समभाव से सहन करे । १० आत्म- गवेषक मुनि चिकित्सा का अनुमोदन न करे। रोग हो जाने पर समाधि पूर्वक रहे। " उसका श्रामण्य यही है कि वह रोग उत्पन्न होने पर भी चिकित्सा न करे, न कराए। १२ (१७) तृणस्पर्श परीषह अचेलक और रूक्ष शरीर वाले संयत तपस्वी के घास पर सोने से शरीर में चुभन होती है। गर्मी पड़ने से अतुल वेदना होती है६५ - यह जानकर भी तृण से पीड़ित मुनि वस्त्र का सेवन नहीं करते। (१८) जल्ल परीषह मैल, रज६६ या ग्रीष्म के परिताप से शरीर के क्लिन्न ( गीला या पंकिल) हो जाने पर मेधावी मुनि सुख के लिए विलाप न करे निर्जरार्थी मुनि अनुत्तर आर्य धर्म ( श्रुत चारित्रधर्म) को पाकर देह - विनाश पर्यन्त काया पर 'जल्ल' ( स्वेद - जनित मैल) को धारण करे और तज्जनित परीषह को सहन करे । (१६) सत्कार - पुरस्कार परीषह अभिवादन और अभ्युत्थान करना तथा 'स्वामी' - इस संबोधन से संबोधित करना - जो गृहस्थ इस प्रकार की प्रतिसेवना - सम्मान करते हैं, मुनि इन सम्मानजनक व्यवहारों की स्पृहा न करे। अल्प कषाय वाला, अल्प इच्छा वाला अज्ञात कुलों से भिक्षा लेने वाला, अलोलुप भिक्षु रसों में गृद्ध न हो । प्रज्ञावान् मुनि दूसरों को सम्मानित देख अनुताप न करे। 9 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३८ अध्ययन २ : श्लोक ४०-४६ (२०) प्रज्ञा परीषह निश्चय ही मैंने पूर्वकाल में अज्ञानरूप-फल देने वाले कर्म किए हैं। उन्हीं के कारण मैं किसी के कुछ पूछे जाने पर भी कुछ नहीं जानता-उत्तर देना नहीं जानता।२।। (२०) पण्णापरीसहे ४०.से नूणं मए पुवं कम्माणाणफला कडा। जेणाहं नाभिजाणामि पुट्ठो केणइ कण्हुई।। ४१.अह पच्छा उइज्जति कम्माणाणफला कडा। एवमस्सासि अप्पाणं नच्चा कम्मविवागयं ।। (२१) अण्णाणपरीसहे ४२.निरट्ठगम्मि विरओ मेहुणाओ सुसंवुडो। जो सक्खं नाभिजाणामि धम्म कल्लाण पावगं ।। ४३.तवोवहाणमादाय पडिम पडिवज्जओ। एवं पि विहरओ मे छाउमं न नियट्टई ।। (२०) प्रज्ञापरीषहः अथ नूनं मया पूर्व कर्माण्यज्ञानफलानि कृतानि। येनाहं नाभिजानामि पृष्टः केनचित् क्वचित् ।। अथपश्चादुदीर्यन्ते कर्माण्यज्ञानफलानि कृतानि। एवमाश्वासयात्मानं ज्ञात्वा कर्मविपाककम्।। (२१) अज्ञानपरीषहः निरर्थके विरतः मैथुनात्सुसंवृतः। यः साक्षान्नाभिजानामि धर्म कल्याणपापकम्।। “पहले किए हुए अज्ञानरूप-फल देने वाले कर्म पकने के पश्चात् उदय में आते हैं।७३- इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर मुनि आत्मा को आश्वासन दे। (२१) अज्ञान परीषह "मैं मैथुन से निवृत्त हुआ", इन्द्रिय और मन का मैंने संवरण किया-यह सब निरर्थक है। क्योंकि धर्म कल्याणकारी है या पापकारी—यह मैं साक्षात् नहीं जानता।" तप-उपधानमादाय प्रतिमा प्रतिपद्यमानस्य। एवमपि विहरतो मे छद्म न निवर्तते।। तपस्या और उपधान को स्वीकार करता हूं, प्रतिमा का पालन करता हूं-इस प्रकार विशेष चर्या से विहरण करने पर भी मेरा छद्म (ज्ञान का आवरण) निवर्तित नहीं हो रहा है-ऐसा चिंतन न करे। (२२) दर्शन परीषह "निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि" भी नहीं है अथवा मैं ठगा गया हूं"- भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे। (२२) दसणपरीसहे ४४.नत्थि नूर्ण परे लोए इड्ढी वावि तवस्सिणो। अदुवा वंचिओ मि त्ति इइ भिक्खु न चिंतए।। ४५.अभू जिणा अत्थि जिणा अदुवावि भविस्सई। मुसं ते एवमाहंसु इइ भिक्खू न चिंतए।। ४६.एए परीसहा सव्वे कासवेण पवेइया। जे भिक्खू न विहन्नेज्जा पुट्ठो केणइ कण्हुई।। (२२) दर्शनपरीषहः नास्ति नूनं परो लोकः ऋद्धिर्वापि तपस्विनः। अथवा वञ्चितोस्मि इति इति भिक्षुर्न चिन्तयेत्।। अभूवन् जिनाः सन्ति जिनाः अथवा अपि भविष्यन्ति। मृषा ते एवमाहुः इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् ।। एते परीषहाः सर्वे काश्यपेन प्रवेदिताः। यान् भिक्षुर्न विहन्येत स्पृष्टः केनापि क्वचित् ।। "जिन हुए थे, जिन हैं और जिन होंगे-ऐसा जो कहते हैं वे झूठ बोलते हैं"-भिक्षु ऐसा चिंतन न करे।२ इन सभी परीषहों का काश्यप-गोत्रीय भगवान् महावीर ने प्ररूपण किया है। इन्हें जानकर, इनमें से किसी के द्वारा कहीं भी स्पृष्ट होने पर मुनि इनसे पराजित (अभिभूत) न हो। –त्ति बेमि। इति ब्रवीमि --ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन २: परीषह-प्रविभक्ति १. अभ्यास के द्वारा परिचित कर (जिच्चा) क्षुधा के समान कोई वेदना नहीं है। बृहद्वृत्ति में 'जिच्चा' का संस्कृत रूप 'जित्वा' और प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'दिगिंछा' देशी शब्द है। इसका अर्थ---पुर:-पुनः अभ्यास के द्वारा परिचित कर, किया है। यह अर्थ है-क्षुधा, बुक्षुधा, भूख । 'जिं जये' धातु का रूप है। इसका अर्थ होता है-जीत कर। ४. काकजंघा (कालीपव्व) चूर्णि में 'जिणित्ता' जीतकर अर्थ किया है। - इसका अर्थ है 'काक-जंघा' नामक तृण। इसे हिन्दी में हमने इसको 'चिं चये' धातु से निष्पन्न कर इसका धुंघची या गुंजा कहा जाता है। संस्कृत रूप 'चित्वा' किया है। प्रस्तुत अर्थ के परिप्रेक्ष्य में यही चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'तृण विशेष' जिसको कई लोग संगत लगता है। 'काक-जंघा' कहते हैं, किया है। २. क्षुधा व्याप्त होने पर (दिगिंछापरिगए) टीकाकार भी इसी अर्थ को मान्य करते हैं। परन्तु सामान्यतः मनुष्य रोग से आक्रान्त होने पर ही क्षुधा आधुनिक विद्वान् डॉ. हरमन जेकोबी, डॉ. सांडेसरा आदि ने परीषह को सहन करता है-आहार को छोड़ता है अथवा 'काक-जंघा' का अर्थ कौए की जंघा किया है। अल्पाहार करता है। उसके लिए अल्प आहार करना एक बौद्ध साहित्य में अल्प-आहार से होने वाली शारीरिक विवशता है। भगवान् महावीर रोग से अस्पृष्ट होने पर भी अवस्था के वर्णन में 'काल-पव्वानि' शब्द आया है। राहुलजी क्षुधा परीषह को सहन करते थे—अल्प आहार का प्रयोग करते ने इसका अर्थ 'काल वृक्ष के पर्व' किया है। यह अर्थ थे। उनके लिए कहा गया है-'ओमोदरियं चाएति, अप्ठे वि टीकाकारों के अर्थ से मिलता-जुलता है। भगवं रोगेहिं ।' ___ काल-जंघा नामक तृण-वृक्ष के पर्व स्थूल और उसके ३. श्लोक २ मध्यदेश कृश होते हैं। उसी प्रकार जिस भिक्षु के घुटने, परीषह प्रकरण में 'क्षुधा परीषह' को स्थान क्यों दिया कोहनी आदि स्थूल और जंघा, ऊरु (साथल), बाहु आदि कृश गया? चूर्णिकार ने इसका समाधान 'क्षुधासमा नास्ति शरीर हात होते हैं, उसे 'कालीपव्वंगसंकासे' (कालीपर्वसंकाशाङ्ग) कहा वेदना'-भूख के समान दूसरी शारीरिक वेदना नहीं है- जाता है। कहकर किया है। ५. धमनियों का ढांचा (धमणिसंतए) नेमिचन्द्र यहां एक प्राचीन श्लोक उद्धृत करते हैं- इसका भावार्थ है-अत्यन्त कृश, जिसका शरीर केवल पंथसमा नत्थि जरा, दारिद्दसमो य परिभवो नत्थि। धमनियों का जाल-मात्र रह गया हो।३ मरणसमं नत्थि भयं, खुहासमा वेयणा नत्थिा बौद्ध-ग्रंथों में भी 'किसं धमनिसन्थतं' ऐसा प्रयोग पंथ के समान कोई बुढ़ापा नहीं है, दरिद्रता के समान आया है। उसका अर्थ-दुबला-पतला, नसों से मढ़े शरीर कोई पराभव नहीं है, मृत्यु के समान कोई भय नहीं है और वाला है।" इस प्रयोग से एक तर्क होता है कि एक ओर तो १, बृहबृत्ति, पत्र १ : जित्वा पुनः पुनरभ्यासेन परिचितान् कृत्वा । ६. (क) The Sacred Books of the East, Vol. XLV, Page 10: Emaciated २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५२ : जिच्चा ते जिणित्ता। like the joimt of a crow's (leg). ३. आयारो ६।४। (ख) उत्तराध्ययन, पृ. १७। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५२। १०. मज्झिमनिकाय, १२।६।१६। ५. सुखबोधा, पत्र १७। ११. वही, अनुवाद पृ. ५०।। ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५२ : १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५३ : कालीतृणपर्वणः पर्चभिरंगानि संकाशानि दिगिंछा णाम देसीतो खुहाभिधाणं। यस्य स भवति कालीतृणपर्वांगसंकाशः, तानि हि कालीपर्वाणि संधिस (ख) बृहवृत्ति, पत्र ८२ : थूराणि मध्ये कृशानि, एवमसावपि भिक्षुः छुहाए जानुकोप्परसंधिसु थूरो दिगिछत्ति देशीवचनेन बुभुक्षोच्यते। भवति, जंघोरुकालयिकबाहुसु कृशः। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५३ : काली नाम तृणविसेसो केइ काकजंघा १३. बृहद्वृत्ति, पत्र ८४ : भणंति, तीसे पासतो पव्वाणि तुल्लाणि तणूणि। धमनयः-शिरास्ताभिः सन्ततो-व्याप्तो धमनिसंततः। ८. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ८४ १४. धम्मपद, २६ ॥१३ : पंसूकूलधर जन्तुं, किसं धमनिसन्थतं, (ख) सुखबोधा, पत्र १८॥ एकं वनस्मिं झायंत, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं। Jain Education Intemational Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरण्झयणाणि हैं बौद्ध तपस्या का खण्डन करते हैं और दूसरी ओर 'किसं धमनिसन्थतं' को अच्छा बताते हुए उसे ब्राह्मण का लक्षण मानते । इसका क्या कारण है? इस प्रयोग को तथा मज्झिमनिकाय ( १२।६।१६ / २० ) के विवरण को देखने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि बौद्धों पर जैन साहित्य और तपस्या-विधि का प्रभाव रहा है। भागवत में भी एवं चीर्णेन तपसा मुनिधर्मनिसन्ततः ऐसा प्रयोग आया है।' इससे यह प्रतीत होता है कि तीनों (जैन, बौद्ध और वैदिक) धार्मिक परम्पराओं में कुछ रेखाएं समान रूप से खींची हुई हैं। ६. अहिंसक या करुणाशील (दोगुंछी) ४० 'दोगुछी' शब्द का संस्कृत रूपान्तरण है— जुगुप्सी। इसका शाब्दिक अर्थ है- घृणा करने वाला अथवा करुणा करने वाला । मुनि हिंसा से, अनाचार से घृणा करता है। मुनि जब प्यास से आक्रान्त भी हो जाए तब भी वह सचित्त जल का सेवन न करे, क्योंकि वह अहिंसक है। सचित्त जल का सेवन करना अनाचार है, हिंसा है। वह हिंसा से घृणा करता है अथवा प्राणी मात्र के प्रति अहिंसक व्यवहार करता है। इसलिए भावार्थ में 'दोगुंछी' का अर्थ अहिंसक होता है। चूर्णि में असंयम से जुगुप्सा करने वाले को 'दोगुंछी' कहा है । ७. सचित्त पानी (सीओदगं) 1 शीत का अर्थ है ठण्डा । शीत - उदक- यह स्वरूपस्थ ( शस्त्र से अनुपहत या सजीव) जल का सूचक है। डॉ. हरमन जेकोबी ने इसका अर्थ Cold Water 'ठण्डा पानी' किया है यह शब्द का लाक्षणिक अर्थ है, भ्रामक भी है। ठण्डा पानी सचित्त भी हो सकता है और अचित्त भी। यहां सचित्त अर्थ अभिप्रेत है। ८. प्रासुक जल की एषणा (वियडस्से सण) बृहद्वृत्तिकार ने 'वियड' का संस्कृत रूप 'विकृत' देकर, इसका अर्थ अग्नि आदि से संस्कारित किया है। प्रस्तुत प्रसंग में यह अचित्त या निर्जीव जल के लिए प्रयुक्त है ।" 'वियड' देशी शब्द है। ९. प्यास का परीषह पिता और पुत्र दोनों प्रव्रजित हो गए। एक बार वे मध्यान्ह में विहार कर एक नगर की ओर प्रस्थित हुए । रास्ते में भयंकर अटवी थी। छोटे मुनि को प्यास लगी और वह अपने १. भागवत, ११।१८/६ । २. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ५४ दुर्गुछत्तीति दोगुंछी, अस्संजम दुगुंछती । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ८६ शीतं शीतलं, स्वरूपस्थतोयोपलक्षणमेतत्, ततः स्वकीयादिशस्वानुपहतं । ४. वही, पत्र ८६ वियडस्स त्ति विकृतस्य वन्हूयादिना विकारं प्रापितस्य अध्ययन ५: श्लोक ५ टि० ७-१० पिता ( मुनि) के पीछे धीरे-धीरे चलने लगा । अन्यान्य मुनि भी साथ थे। रास्ते में एक नदी आ गई। पिता मुनि ने स्नेह से अभिभूत होकर अपने पुत्र मुनि को कहा - " वत्स ! नदी का पानी पीकर प्यास बुझाओ। फिर प्रायश्चित्त कर लेना।" पिता-मुनि नदी में उतरा। उसने सोचा- मैं कुछ आगे चलूं, जिससे कि यह बाल मुनि पानी पी ले। कहीं मेरी आशंका से यह पानी न पीएऐसा सोचकर वह एक ओर चला गया। बाल मुनि नदी में उतरा। उसका मन कुछ शिथिल हुआ। उसने अंजलि में पानी लिया। उसकी विवेक चेतना जागी । उसने मन ही मन सोचा - 'ओह! कैसे पीऊं इन जीवों को?" भगवान् ने कहा है एकम्मि उदगबिंदुग्मि, जे जीवा जिनवरेहिं पन्नता । ते पारेवयमेत्ता, जंबूद्दीवे ण माएज्जा ।। जत्थ जलं तत्थ वर्ण, जत्थ वणं निच्छिओ तेऊ । तेऊ वाउसहगओ, तसा य पच्चक्खया चेव ।। या हंतून परप्याने, अप्पान जो करेइ सप्यान अप्पाणं दिवसाणं, कएण नासेइ सप्पाणं ।। बाल मुनि को अत्यन्त विरक्ति हो गई। उसने सोचा- मैं अपने अल्प जीवितव्य के लिए इतने प्राणियों की हत्या करूंयह मेरे लिए उचित नहीं है। यह सोचकर वह वहां से प्यासा ही चला। नदी पार की प्यास बढ़ती ही गई। मृत्यु को निकट जानकर उसने एक वृक्ष के नीचे विश्राम किया और नमस्कार महामंत्र का जाप करते-करते दिवंगत हो गया। | सभी मुनियों ने बाल मुनि की धृति को सराहा और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। १०. रूक्ष शरीर वाले साधु को (लूह) शीत परीषह के संदर्भ में 'रूक्ष' शब्द का प्रयोग अर्थ-सूचक है। स्निग्धता शरीर में गर्मी पैदा करती है, इसलिए स्निग्ध शरीर वाले को सर्दी कम सताती है। मुनि रूक्ष शरीर वाला है, वह विचरणशील है और वह विरत' अग्नि के समारंभ तथा गृह-व्यापार से मुक्त है— प्रस्तुत श्लोक में उल्लिखित ये तीनों अवस्थाएं शीतस्पर्श को प्रखर बनाने वाली हैं। शरीर की रूक्षता के दो कारण हैं— स्निग्ध भोजन का अभाव और स्नान आदि का अभाव। जो मुनि निरंतर रूक्ष भोजन करता है, स्नान नहीं करता, उसका शरीर रूक्ष-सूखा हो जाता है। रूक्ष शरीर वाले को शीत, आतप आदि सताते हैं। रूक्ष आहार से मूत्र की अधिकता होती है, बार-बार शंका प्रासुकस्येति यावत् प्रक्रमादुदकस्य । सुखबोधा, पत्र १६ । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५६ : विरतं अग्गिसमारंभातो गृहारंभातो वा, बाह्याभ्यंतरस्नेहपरिहारा । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ८८ लूहं ति स्नानस्निग्धभोजनादिपरिहारेण रूक्षम् । ५. ६. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह-प्रविभक्ति ४१ अध्ययन २ : श्लोक ८-१० टि० ११-१५ निवृत्ति के लिए जाना होता है, इससे स्वाध्याय में बाधा उपस्थित एकल-विहार की साधना करने वाले साधकों की यह मर्यादा होती होती है। रूक्ष आहार से चिड़चिड़ापन भी बढ़ता है और व्यक्ति है कि जहां जब दिन का चौथा प्रहर प्रारंभ हो जाता है, उन्हें बार-बार और शीघ्र कुपित होने लगता है। वहीं प्रतिमा में स्थित हो जाना होता है। भगवान् महावीर जब लाट देश में गए तब उन्हें वहां गुफाद्वार पर स्थित मुनि के पर्वत की वायु के भयंकर अनेक कष्ट सहने पड़े। उस देश में अन्न की उपज कम होती थपेड़े लग रहे थे। पर वह मेरु की भांति निष्प्रकंप और अटल थी। प्रदेश पथरीला था। लोग रूखा-सूखा खाकर जीवन-निर्वाह रहा। वह रात्री के प्रथम प्रहर में दिवंगत हो गया। इसी प्रकार करते थे, इसलिए वे अत्यधिक क्रोधी और चिड़चिडे स्वाभाव के शीत के प्रचंड प्रकोप से पीड़ित होकर दूसरा रात्री के दूसरे प्रहर थे। में, तीसरा तीसरे प्रहर में और चौथा चौथे प्रहर में दिवंगत हो इस प्रकार रूक्ष भोजन शरीर और मन दोनों को प्रभावित गया। करता है। यह निदर्शन है शीत परीषह को समभाव से सहन करने जैन मुनियों के लिए यह विधान है कि वे स्निग्ध आहार र न करें और रूक्ष आहार भी निरंतर न करें। दोनों १२. स्वेद, मैल या प्यास के दाह (परिदाहेण) में सामंजस्य बिठाएं। केवल स्निग्ध आहार करने से उन्माद दाह दो प्रकार का होता है--बाह्य दाह और आन्तरिक बढ़ता है और केवल रूक्ष आहार करने से क्रोध आदि की वृद्धि दाह। स्वेद. मैल आदि द्वारा शरीर में जो दाह होता है वह होती है, मेधा कमजोर होती है। बाह्य-दाह है और प्यास जनित दाह को आन्तरिक दाह कहते हेराक्लाइटस ने कठोरता और रूक्षता को जगत् का मूल हैं। यहां दोनों प्रकार के दाह अभिप्रेत हैं। चूर्णिकार ने इस तत्त्व माना। उसने कहा-Keep your life dry-जीवन को प्रसंग में एक सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है: सूखा बनाओ। इसके आधार पर संयम का विकास हुआ। उवरि तावेई रवी, रविकरपरिताविता दहइ भूमी। भगवान महावीर और हेराक्लाइटस-दोनों ने संयम के अर्थ में सव्वादो, परिदाहो, दसमलपरितंगा तस्स।। एक ही शब्द-रूक्ष-का प्रयोग किया है। १३. मेधावी (मेहावी) ११. (शीत परीषह) धारणा में क्षम बुद्धि 'मेधा' कहलाती है। प्रस्तुत प्रसंग में आचार्य भद्रबाहु राजगृह नगरी में समवसृत हुए। चार मेधा का अर्थ है-मर्यादा । जो मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता वणिक् मित्र उनके पास प्रव्रजित हुए। उन चारों ने आचार्य के वह मेधावी कहलाता है। इसका निरुक्त है-'मेहया (मेरया) पास विपुल श्रुतज्ञान अर्जित किया। उन्होंने अपनी आत्मशक्ति धावतीति मेधावी। को उत्तेजित कर, एकल-विहार-प्रतिमा को स्वीकार कर चारों उपासकदशा की वृत्ति में आचार्य अभयदेवसूरी ने 'मेहावी' साथ-साथ जनपद विहार करने लगे। एक बार वे राजगृह आए। का निरुक्त इस प्रकार किया है—मेहावीत्ति सकृतदृष्टश्रुतकर्मज्ञःउस समय हेमंत ऋतु अपने यौवन पर थी। शीत का भयंकर जो एक बार देखे हुए या सुने हुए कार्य को करने की पद्धति प्रकोप सारे नगर को आतंकित कर रहा था। उस शीत वायु से जान जाता है, वह मेधावी होता है। अनेक पशु-पक्षी मर गए। वृक्ष जल गए, सूख गए। वे चारों १४. समभाव में रहे (समरेव) मुनि स्वाध्याय और ध्यान से निवृत्त होकर दिन के तीसरे प्रहर में गोचरी के लिए निकले। चारों राजगृह की भिन्न-भिन्न शान्त्याचार्य के अनुसार मूल शब्द 'सम एव' है। परन्तु दिशाओं में गए। उन्हें लौटकर वैभारगिरि पर्वत पर आना था। प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से 'ए' को 'रेफ' हो जाने पर एक मुनि भोजन लेकर आ रहा था। वैभारगिरि के गुफा द्वार पर 'समरेव' शब्द बना है। चूर्णिकार ने 'समरे' का अर्थ युद्ध किया आते-आते दिन का चौथा प्रहर प्रारंभ हो गया। वह वहीं . है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में चूर्णिकार का अनुगमन कर प्रतिमा कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। भोजन नहीं किया। दूसरा 'समर का 'समरे' को 'संगामसीसे' का विशेषण माना है।११ मुनि जब नगर के उद्यान तक पहुंचा तब चौथा प्रहर प्रारंभ हो १५. शूर (सूरा) गया। वह वहीं स्थित हो गया। तीसरा एक उद्यान के पास स्थित व्याख्याकारों ने मुख्यतः शूर शब्द को 'नाग'-हाथी का हो गया और चौथा नगर के पास प्रतिमा में खड़ा हो गया। विशेषण माना है। वैकल्पिक रूप में 'शूर' शब्द को स्वतंत्र १. आचारांग चूर्णि, पृ. ३१८ : रुक्खाहारत्ता अतीव कोहणा। २. सुखबोधा, पत्र २०। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ८६ : परिहदाहेन बहिः स्वेदमलाभ्यां यहूनिना वा, अन्तश्च तृष्णया जनितदाहस्वरूपेण। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५७। ५. अभिधान चिंतामणि कोश, २।२२३ : सा मेधा धारणक्षमा। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६० : मेधावी मर्यादानतिवर्ती। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५७। ८. उपासकदशा वृत्ति, पत्र २१८ । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१। १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५८। ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१। Jain Education Intemational Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४२ अध्ययन २ : श्लोक ११-१३ टि० १६-२० मानकर उसका अर्थ शूरवीर योद्धा किया है।' भयंकर वेदना। उसने सोचा-'यह वेदना कितने क्षणों की है? जेकोबी ने 'शूर' को स्वतंत्र मानकर इसका अर्थ इससे भी अनन्तगुणा अधिक वेदना मैंने नरकावासों में सही आत्म-योद्धा किया है। है।' मुनि आत्मस्थ हो गया। अपनी चेतना के समुद्र में १६. संत्रस्त न हो (न संतसे) निमज्जन कर उसने सोचाचूर्णिकार ने इसका अर्थ-हाथ, पैर आदि अवयवों को न 'अन्न इमं सरीर, अन्नो जीवो त्ति एव कयबुद्धी। हिलाए, न उछाले---किया है। दुक्खकरं जीव! तुम, छिंद ममत्तं सरीरम्मि।। शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ किये हैं—(१) दंशमशक --आत्मन्! तू सोच। यह शरीर भिन्न है और आत्मा आदि से संत्रस्त न हो। (२) हाथ, पैर आदि अवयवों को न भिन्न है। जो शरीर के प्रति मढ होता है वह दःख के आवर्त हिलाए। में फंसता जाता है। तू शरीर के मोह को तोड़ और अपनी डॉ. हरमन जेकोबी और डॉ. सांडेसरा ने इसका अर्थ- चेतना में उन्मज्जन-निमज्जन कर। प्राणियों को त्रसित न करना—किया है। __इस आलंबन सूत्र से मुनि ने उस पीड़ा को सहा। इसमें परस्पर कोई विरोध नहीं है, परन्तु परीषह का दंश-मशकों ने उसके शरीर को रक्तहीन कर डाला। वह उसी प्रकरण है इसलिए शान्त्याचार्य का प्रथम अर्थ अधिक उपयुक्त है। रात दिवंगत हो गया, पर अधृति में नहीं फंसा।' १७. हटाना (वारेज्जा) २०. श्लोक १३ : इसका अर्थ है हटाना, निषेध करना। मुनि हाथ, वस्त्र, इस श्लोक में आया हुआ ‘एगया' शब्द मुनि की जिनकल्पिक शाखा, धूम आदि उपायों से डांस और मच्छरों का निवारण न और और स्थविरकल्पिक अवस्थाओं तथा वस्त्राभाव आदि अवस्थाओं करे। की ओर संकेत करता है। १८. उपेक्षा करे (उवेहे) चूर्णिकार के अनुसार मुनि जिनकल्प अवस्था में 'अचेलक' दंश-मशकों के द्वारा काटे जाने पर मुनि उनकी उपेक्षा होता है। स्थविरकल्प अवस्था में वह दिन में, ग्रीष्म ऋतु में या करे, उन पर राग-द्वेष न लाए। वह यह सोचे-ये असंज्ञी हैं, वर्षा ऋतु में बरसात न आने तक भी अचेलक रहता है। भोजन के प्रयोजन से घूम रहे हैं। मेरा शरीर इनके लिए भोज्य शिशिर-रात्र (पौष और माघ), वर्षा-रात्र (भाद्र और आश्विन), है, सर्वसाधारण जैसा है। यदि ये मेरे शरीर से अत्यंत अल्प-मात्रा बरसात गिरते समय तथा प्रभात काल में भिक्षा के लिए जाते में रक्त और मांस खाते हैं तो क्या है? मुझे इन पर द्वेष नहीं समय वह 'सचेलक' रहता है। करना चाहिए। ये रक्त ही तो पी रहे हैं, मेरी आत्मा का इससे यह लगता है कि एक ही मुनि एक ही काल में उपहनन तो नहीं कर रहे हैं। अचेलक और सचेलक—दोनों अवस्थाओं में रहता है। १९. श्रमणभद्र राजपुत्र था। उसका मन विरक्त हुआ और वह शान्त्याचार्य के अनुसार जिनकल्प अवस्था में मुनि अचेलक धर्मघोष आचार्य के पास प्रवजित हो गया। वह आगमों का पूरा होता है और स्थविरकल्प अवस्था में भी जब वस्त्र दुर्लभ हो पारायण कर अपनी शक्ति को तोलकर एकलविहार प्रतिमा जाते हैं या सर्वथा मिलते ही नहीं अथवा वस्त्र होने पर भी वर्षा को स्वीकार कर विचरने लगा। शरद् ऋतु। अटवी में वह ऋतु के बिना उनको धारण न करने की परम्परा होने के कारण ध्यान-स्थित हो गया। रात्री का समय। दंश-मशकों ने अथवा वस्त्रों के फट जाने पर वह अचेलक हो जाता है। आक्रमण किया। उसके अनावृत शरीर को वे काटने लगे। नेमिचन्द्र का अभिमत भी संक्षेप में यही है। १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५६......शूरो वा योधः। (ख) बृहत्वृत्ति, पत्र ६१: शूरः-पराक्रमवान् । यद्वा शूरो-योधः । २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ : न संत्रसति अंगानि कंपयति विक्षिपति वा। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१ : 'न संत्रसेतू' नोद्विजेत् दंशादिभ्य इति गम्यते, यद्वाऽनेकार्थत्वाद्धातूनां न कम्पयेत्तैस्तुधमानोऽपि, अङ्गानीति शेषः। 8. (35) The Sacred Book of the East Vol. XLV, P.11 : He Should not ___ scare away (insects) (ख) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५६ : त्रास आपवो नहीं..... उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५६ : न चैव हस्तवस्त्रशाखाधूमादिभिस्तान्नि वारणोपायैर्वारयति। ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५६ : चैषामसंज्ञित्वात् आहारकांक्षिणां, भुंजमानानां मच्छरीरं साहारणं यदि भक्षयन्ति किं ममात्र प्रद्वेषोत्पाते? (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ६२ तथा असंज्ञिन एते आहारर्थिनश्च भोज्यमेतेषां मच्छरीरं बहुसाधारणं च यदि भक्षयन्ति किमत्र प्रद्वेषेणेति च विचिन्तयन् तदुपेक्षणपरो न तदुपघातं विदध्यादिति। ७. सुखबोधा, पत्र २२। ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६०: एगता नाम जदा जिणकप्पं पडिवज्जति, अहवा दिवा अचेलगो भवति, ग्रीष्मे वा, वासासूवि वासे अपडिते ण पाउणति, एवमेव एगता अचेलगो भवति, सचेले यावि एगता' तं जहा सिसिररातीए वरिसारत्ते वासावासे पडते भिक्खं हिंडते। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२-६३ : 'एकदा' एकस्मिन् काले जिनकल्पप्रतिपत्ती स्थविरकल्पेऽपि दुर्लभवस्वादी वा सर्वथा चेलाभावेन, सति वा चेले विना वर्षादिनिमित्तमप्रावरणेन, जीर्णादिवस्त्रतया वा 'अचेलक' इति अवस्वोऽपि भवति। १०. सुखबोधा, पत्र २२ : 'एकदा' जिनकल्पिकाद्यवस्थायां सर्वथा चेलाभावेन जीर्णादिवस्त्रतया वा अचेलको भवति। सचेलश्च 'एकदा' स्थविरकल्पिकाद्यवस्थायाम्। Jain Education Intemational Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह-प्रविभक्ति ४३ अध्ययन २ : श्लोक १४-१६ टि० २१-२४ हेमन्त के चले जाने और ग्रीष्म के आ जाने पर मुनि भय को छोड़ दिया, जिससे भय लगता था उससे छुटकारा पा एकशाटक या अचेल हो जाए यह आचारांग में बताया गया लिया। है।' रात को हिम, ओस आदि के जीवों की हिंसा से बचने के २२. आत्मा की रक्षा करने वाला (आयरक्खिए) लिए तथा बरसात में चल के जीवों से बचने के लिए वस्त्र शान्त्याचार्य ने इसके दो संस्कत रूप देकर दो भिन्न-भिन्न पहनने-ओढ़ने का भी विधान मिलता है। अर्थ किए हैंस्थानांग में कहा है-पांच स्थानों से अचेलक प्रशस्त होता आत्मरक्षितः-जिसने आत्मा की रक्षा की है। आयरक्षित:-जिसने ज्ञान आदि के लाभ की रक्षा की है। (१) उसके प्रतिलेखना अल्प होती है। 'आहिताग्न्यादिषु' के द्वारा 'रक्षित' का परनिपात हुआ है। (२) उसका लाघव (उपकरण तथा कषाय की अल्पता) २३. (श्लोक १४-१५) प्रशस्त होता है। मुनिचर्या का पालन करते-करते कभी साधक के मन में (३) उसका रूप (वेष) वैश्वासिक (विश्वास योग्य) होता संयम के प्रति अरति-अनत्साह पैदा हो सकता है। चौदहवें श्लोक में अरति उत्पन्न होने के तीन कारणों तथा पन्द्रहवें श्लोक (४) तपोनुज्ञात-उसका तप (प्रतिसंलीनता नामक बाह्य में उसके निवारण के उपायों की चर्चा है। अरति उत्पन्न होने तप का एक प्रकार-उपकरण संलीनता) जिनानुमत होता है। के तीन कारण ये हैं(५) उसके विपुल इन्द्रिय-निग्रह होता है। १. एक गांव से दूसरे गांव में विचरण करना। स्थानांग के तीसरे स्थान में कहा है-तीन कारणों से २. स्थायी स्थान या घर का न होना। निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थनियां वस्त्र धारण कर सकती हैं ३. अकिंचन होना, अपना कुछ भी न होना। (१) लज्जा निवारण के लिए। अरति निवारण के पांच उपाय ये हैं :(२) जुगुप्सा-घृणा निवारण के लिए। १. विरत होना, अप्रतिबद्ध होना। (३) परीषह निवारण के लिए। २. अरति आत्म-समुत्थ दोष है, आभ्यन्तर दोष है। जो इस अध्ययन के चौंतीसवें और पैंतीसवें श्लोक में जो आत्मरक्षित होता है, जो आत्मा से आत्मा की रक्षा वस्त्र-निषेध फलित होता है, वह भी जिनकल्पी या विशेष करता है, वैराग्यवान् है, उसको अगार-घर का अभिग्रहधारी की अपेक्षा से है—यह प्रस्तुत श्लोक से समझा जा अभाव कभी नहीं सताता। सकता है। ३. जो धर्माराम है, जो निरन्तर धर्म में रमण करता है, २१. चूर्णिकार ने चौदहवें श्लोक के प्रसंग में एक श्रुत, भावना आदि का अभ्यास करता है, वह कहीं भी कथा प्रस्तुत की है रहे, आनंद का ही अनुभव करता है। एक बौद्ध भिक्षु अपने आचार्य के साथ कहीं जा रहा ४. अकिंचन होने या अपना कुछ भी न होने पर भी था। आचार्य आगे चल रहे थे और वह उसके पीछे। कुछ दूर वह निरारंभ होने के कारण अरति का वेदन नहीं जाने पर उसने मार्ग के एक पार्श्व में पड़ी हुई एक नौली करता। आरम्भ या प्रवृत्ति के लिए 'स्व' चाहिए, देखी। उसने उसे उठाकर अपने थैले में रख ली। अब उसे __ अर्थ चाहिए। निरारम्भ व्यक्ति 'अर्थ' से मुक्त होता भय सताने लगा। वह आचार्य के पास आकर बोला--भंते! है। (चू. पृ. ६२) पीछे चलने से मुझे भय लगता है, इसलिए आपके आगे-आगे ५. उपशांत—जिसके कषाय शान्त होते हैं, वह अरति चलना चाहता हूं। आचार्य बोले-ठीक है। भय को छोड़। तू से स्पृष्ट नहीं होता। जो अहंकार, ममकार और अभय होकर आगे चल। वह कुछ दूर गया। आचार्य ने पूछा तृष्णा से अभिभूत होता है, उसे अरति पग-पग पर क्या अब भी डर लगता है? शिष्य बोला- हां, अब भी भय सताती है। लगता है। आचार्य ने उसे पुनः भय छोड़ने के लिए कहा। शिष्य २४. (संगो....इत्थिओ) में धर्मसंज्ञा का जागरण हुआ और तब उसने नौली को स्त्री अन्यान्य आसक्तियों को पैदा करने वाली महान् एक ओर फेंक दिया। आचार्य बोले--अरे, बहुत त्वरा से चल आसक्ति है। चूर्णिकार ने स्त्री-विषयक दो श्लोक उद्धृत किए रहा है। क्या अब भय नहीं लगता? शिष्य बोला-भंते! मैंने हैं १. आयारो ८५०1 ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० ६१। २. बृहवृत्ति, पत्र ६६ : तह निसि चाउक्कालं सज्झायज्झाणसाहणमिसीणं। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ६६ : आत्मा रक्षितः दुर्गतिहेतोरपध्यानादेरनेनेत्यात्मरक्षितः, हिममहियावासोसारयाइक्खाणिमित्तं तु।। आहिताग्न्यादिषु दर्शनात् क्तान्तस्य परनिपातः । आयो वा-ज्ञानादिलाभो ३. ठाणं ५।२०१। रक्षितोऽनेनेत्यायरक्षितः। ४. ठाणं ३३४७। ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६५। Jain Education Intemational Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४४ अध्ययन २ : श्लोक १७,१८ टि० २५-२७ एता हसति च रुदति च अर्थहतो कोशा वेश्या के घर चतुर्मास बिताने गया। आचार्य ने बहुत विश्वासयंति च परं न च विश्वसंति। प्रतिषेध किया, वह अहंकार वश नहीं माना। कोशा वेश्या ने तस्मान्नरेण कुलशीलसमन्वितेन, अपने हावभाव से उसे मोहित कर डाला। मुनि उसके सौन्दर्य नार्यः श्मशानसुमना इव वर्जनीयाः।। पर मुग्ध होकर भोग की याचना करने लगे। कोशा ने कहासमुद्रवीचीचपलस्वभावाः, सन्ध्याघ्ररेखा व मुहूर्तरागाः। उसका मूल्य चुकाना होगा। आप अकिंचन हैं। आप नेपाल स्त्रियः कृतार्थाः पुरुष निरर्थकं, निपीडितालक्तकवत् त्यजती।। जाएं। वहां का राजा जैन धर्म का श्रावक है। उससे लाख मूल्य २५. सुकर हैं (सुकर्ड) वाली रत्नकंबल ले आएं। चूर्णिकार ने 'सुकर' को मूल पाठ मानकर 'सुकडं' को मुनि अपनी मर्यादा और वेष की लज्जा को छोड़कर पाठान्तर माना है। बृहद्वृत्तिकार ने 'सुकडं' को मूल मानकर भयंकर अटवियों को पार करते हुए नेपाल पहुंचे। नेपालनरेश 'सुकर' का पाठान्तर के रूप में उल्लेख किया है। ने उन्हें कंबल दिया। वे लौट रहे थे। चोरों ने उन्हें लूटना चाहा। 'सुकर' का अर्थ है-जो सुखपूर्वक या सरलता से किया पर ज्यों-त्यों बचाव कर वे कोशा वेश्या के घर पहुंचे। रत्नकंबल जा सके। भेंट कर निश्चिन्त हो गए। वेश्या ने उस कंबल से अपने कीचड़ 'सुकडं' का अर्थ है-अच्छी तरह से किया हुआ।' अर्थ सने पैरों को पोंछ कर नाली में डाल दिया। मुनि ने देखा और की प्रासंगिकता की दृष्टि से यहां 'सुकरं' पाठ उपयुक्त लगता है। कहा-अरे! यह क्या कर डाला! इतनी मूल्यवान कंबल का यों वर्ण-व्यत्यय-'र' के स्थान में 'ड' के प्रयोग आगम ही नाश कर दिया! वेश्या बोली-स्वयं को देखें। क्या आपने भी साहित्य में मिलते हैं। यहां 'सुकडं' का संस्कृत रूप 'सुकृतं' की अपने संयम-रत्न का नाश नहीं किया। मुनि संभले। उन्होंने अपेक्षा 'सुकरं' अधिक संगत लगता है। आचार्य के पास आकर अपनी प्रतिशोध की भावना का प्रायश्चित्त २६. (श्लोक १७) किया। गुरु ने कहाआचार्य संभूतिविजय के अनेक मेधावी शिष्य थे। मुनि वग्धो वा सप्पो वा, सरीरपीडाकरा मुणेयव्वा। स्थूलभद्र उनके पास रहकर घोर तप तप रहे थे। एक बार नाणं च दसणं वा, चरणं व न पच्चाला भेत्तुं ।। स्थूलभद्र आदि चार अनगार आचार्य के पास आए और बोले- भयवं पिथूलभद्दो, तिक्खे चंकम्मिओ नपुण छिन्नो। हम अभिग्रह करना चाहते हैं। आप हमें अनुज्ञा दें। अग्गिसिहाए वुच्छो, चाउम्मासे न पुण दड्ढो।। एक मुनि ने कहा-मैं सिंह की गुफा में चतुर्मास करना -एवं दुक्कर-दुक्करकारओ थूलभद्दो। चाहता हूं। दूसरे ने कहा-मैं सांप की बिंबी पर, तीसरे ने -व्याघ्र, सर्प आदि शरीर को पीड़ा उत्पन्न कर सकते हैं, कहा-मैं कृप-फलक पर और स्थूलभद्र ने कहा मैं कोशा किन्तु वे ज्ञान, दर्शन और चारित्र का भेदन करने में समर्थ नहीं वेश्या के घर। गुरु ने चारों को अनुज्ञा दी। सिंह-गुफावासी मनि होते। मुनि स्थूलभद्र ऐसे स्थान पर गए, पर स्खलित नहीं के तपस्तेज से सिंह उपशांत हो गया। सांप की बिम्बी पर खड़े हुए। वे अग्निशिखातुल्य गणिका के घर में चतुर्मास के लिए मुनि की शांति से दृष्टिविष सर्प निर्विष हो गया। कूप-फलक पर रहे, पर वे उससे दग्ध नहीं हुए, अपने कर्तव्य से च्युत नहीं खड़े मुनि की एकाग्रता सधी। वेश्या के घर स्थूलभद्र मुनि को हुए। अनुकूल परीषह सहने पड़े। २७. संयम के लिए (लाढे) चातुर्मास संपन्न हुआ। चारों गुरु के पास आए। आचार्य शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ-'एषणीय-आहार' अथवा ने सिंह-गुफावासी आदि तीनों मुनियों की प्रशंसा करते हुए 'मुनि-गणों के द्वारा जीवन यापन करने वाला'–किया है। कहा-स्वागत है दुष्कर कार्य करने वालों का। मुनि स्थूलभद्र भी उनके अनुसार यह श्लाघावाची देशी शब्द है। चूर्णिकार और आए। आचार्य ने खड़े होकर स्वागत करते हुए कहा- नेमिचन्द्र भी संक्षेप में यही अर्थ करते हैं। यह विशेषण चर्या अतिदुष्कर है, अतिदुष्कर है तुम्हारा आचरण। के प्रसंग में आया है और इसके अगले चरण में परीषहों को __ तीनों ने सोचा, आचार्य श्री पक्षपात करते हैं। स्थूलभद्र जीतने की बात कही है तथा इसे श्लाघावाची शब्द कहा है। अमात्य पुत्र हैं, इसलिए उनके प्रति ये उद्गार व्यक्त किए हैं। इन सभी तथ्यों पर ध्यान देने से इसका मूल अर्थ 'लाढ' या _दूसरे वर्ष सिंहगुफावासी मुनि द्वेष से अभिभूत होकर 'राढ' देश लगता है। भगवान महावीर ने वहां विहार किया (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ.६५। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १०३। २. सुखबोधा, पत्र ३११ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र १०७ : 'लाढे' त्ति लाढयति प्रासुकैषणीयाहारेण साधुगुणैर्वाऽऽत्मानं यापयतीति लाढः, प्रशंसाभिधायि वा देशीपदमेतत् । ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ : लाढे इति फासुएण उग्गमादिशुद्धण लाढेति, साधुगुणेहिं वा लाढय इति। (ख) सुखबोधा, पत्र ३१ : लाढयति-आत्मानप्रासुकैषणीयाहारेण यापयतीति लाढः। Jain Education Intemational Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह-प्रविभक्ति ४५ अध्ययन २ : श्लोक १६ टि० २८-३१ था, तब वहां अनेक कष्ट सहे थे। आगे चलकर वह शब्द ३. अतुल्यविहारी—जिसका विहार अन्यतीर्थिकों से भिन्न कष्ट सहने वालों के लिए श्लाघा-सूचक बन गया। प्रस्तुत है। आगम के १५१२ में लाढ का अर्थ-सत् अनुष्ठान से प्रधान बृहद्वृत्ति के अनुसार इसके अर्थ ये हैं - किया है। भिक्षु असमान होता है। वह किसी घर या आश्रय में २८. निगम में (निगमे) रहता है, पर उसके प्रति मूर्च्छित नहीं होता। न वह उस चूर्णिकार के अनुसार 'निगम' का अर्थ है-वह स्थान आश्रयदाता का वर्धापन करता है, न आश्रय की प्रशंसा करता जहां नाना प्रकार के कर्म और शिल्प को जानने वाली जातियां है और न उसकी सार-संभाल करता है। आश्रय के सड़-गल निवास करती हों। जाने पर भी उसकी शिकायत गृहस्वामी से नहीं करता। बृहद्वृत्तिकार और नेमिचन्द्राचार्य के अनुसार निगम वह मुनि असमान-अहंकार रहित होता है। स्थान है जहां व्यापारी वर्ग रहता है।' वह अन्यतीर्थिकों की भांति नियत स्थानों या मठों में २९. अकेला (एग एव) निवास नहीं करता। वह अनियताविहारी होता है। इस दृष्टि से चूर्णिकार और शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ किए हैं भी वह असमान होता है। राग-द्वेष रहित अथवा एकाकी। चूर्णिकार ने 'एकाकी' उसे गृहस्थ अपने स्थान के प्रति आसक्त होते हैं, निरन्तर माना है जो अप्रतिबद्धता के कारण जनता के मध्य में (गण उसकी चिंता करते रहते हैं। भिक्षु असन्निहित होने के कारण में) रहता हुआ भी 'अकेला' रहे। 'गण में रहूं निरदाव आश्रय की वार्ता से मुक्त होता है। अकेलो'-इसी की प्रतिध्वनि है। द्वितीय अर्थ की पुष्टि के आयारचूला में अनेक स्थलों पर ये दो शब्द व्यवहृत हैंलिए शान्त्याचार्य इसी आगम के ३२वें अध्ययन का पांचवां समा' 'समाणे वा वसमाणे वा।१० श्लोक उद्धृत करते हैं।' नेमिचन्द्र ने केवल प्रथम अर्थ ही 'वसमाण' शब्द अनियतवास का वाचक है और 'समाण' स्वीकार किया है। शब्द नियतवास का।" इसी अध्ययन के बीसवें श्लोक के दूसरे चरण में 'एगओ' प्रस्तुत आगम में प्रयुक्त 'असमाण' शब्द 'वसमाण' का शब्द आया है। शान्त्याचार्य ने उसके दो अर्थ किए हैं वाचक है, अर्थात् अनियतवास का द्योतक है। आयारचूला के (१) एकग-प्रतिमा का आचरण करने के लिए अकेला संदर्भ में 'असन्'-यह मूल अर्थ प्रतीत होता है। जाने वाला। ३१. गांव आदि के साथ.....प्रतिबद्ध न हो (नेव (२) एक-अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिए अनुकूल प्रवृत्ति कुच्चा परिग्गह) करने वाला। परिग्रह का अर्थ है-ममत्व । यह चरण पूर्ववर्ती श्लोक के किन्तु उसका प्रकरणगत अर्थ एकक-अकेला उपयुक्त दो अंतिम चरणों तथा दशवकालिक सूत्र (चूलिका २८) के-गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिं चि कुज्जा--- ३०. मुनि एक स्थान पर आश्रम बना कर न बैठे (असमाणो) का द्योतक है। मुनि किसी गांव, कुल, नगर या देश के प्रति 'असमाणो' का संस्कृत रूप है-असन। चूर्णिकार ने आसक्त न हो, प्रतिबद्ध न हो। प्रतिबद्धता से संयम की हानि इसके तीन अर्थ किए हैं। - होती है। इसीलिए प्रस्तुत श्लोक के अगले दो चरणों में कहा गया १. असन् (असन्निहित) जिनके पास कुछ भी नहीं है। है कि मुनि गृहस्थों से असंबद्ध रहे तथा अनिकेत होकर २. असदृश---जो गृहस्थ के समान नहीं है। विचरण करे। १. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ४८२ : लाढेसु अ उवसग्गा, घोरा..... । ततो ६. सुखबोधा, पत्र ३१।। भगवान् लाढासु जनपदे गतः तत्र घोरा उपसर्गा अभवन।। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र १०६ : 'एकः' उक्तरूपः स एवैककः, एको वा २. बृहवृत्ति, पत्र ४१४ : 'लाढे' त्ति सदनुष्ठानतया प्रथानः । प्रतिमाप्रतिपत्त्यादी गच्छतीत्येकगः, एकं वा कर्मसाहित्यविगमतो मोक्षं ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ : नयन्तीति निगमास्त एव नगमाः, गच्छति-तत्प्राप्तियोग्यानुष्ठानप्रवृत्तेर्यातीत्येकगः। नानाकर्मशिल्पजातयः इत्यर्थः । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६७ : असमान इति असमादि (नो) कः, ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १०७ : निगमे वा वणिग्निवासे। असंनिहित इत्यर्थः....अहवा असमाण इति नो गृहितुल्यितः....अथवा (ख) सुखबोधा, पत्र ३१,३२। असमानः अतुल्यविहारः अन्यतीर्थिकैः।। ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ : एगो णाम रागद्दोसरहितो, अहवा एगो ६. बृहवृत्ति, पत्र १०७ : न विद्यते समानोऽस्य गृहिण्यश्रयामूर्छितत्वेन 'जणमझे वि वसंतो।' अन्यतीर्थिकेषु वाऽनियतविहारादिनेत्यसमानः-असदृशो, यद्वा समानः(ख) बृहवृत्ति, पत्र १०७ : 'एक एवे' ति रागद्वेषविरहितः 'चरेत्' साहड्कारो न तथेत्यसमानः, अथवा (अ) समाणो' त्ति प्राकृतत्वादसन्निवासन, अप्रतिबद्धविहारेण विहरेतू, सहायवैकल्यतो वैकस्तथाविधगीतार्थो, यत्रास्ते तत्राप्यसंनिहित एवेति हृदयम् । यथोक्तम् १०. आयारचूला, १४६।१२२,१३८ आदि। ण या लमिज्जा णिउणं सहाय, गुणाहियं वा गुणतो समं वा। ११. आचारांगवृत्ति, पत्र ३३५ : समानाः इति जंघाबलपरिक्षीणतयैकस्मिन्नेव एक्कोऽवि पावाई विवज्ज्यतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो।। क्षेत्रे तिष्ठन्तः, तथा वसमाना मासकल्पविहारिणः । Jain Education Intemational Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४६ अध्ययन २: श्लोक २० टि० ३२-३५ यह उन्नीसवां श्लोक पूर्ववर्ती श्लोक का पूरक है। दुष्टता का भान हुआ। उपद्रव मिटा। वह तत्काल गुरु-चरणों में ३२. चर्या परीषह आकर बार-बार क्षमायाचना करने लगा। उसने कहा-आप ही कोल्लकर नाम का नगर था। वहां बहश्रत स्थविर मेरे तारक हैं। आगे फिर मैं ऐसा आचरण नहीं करूंगा। आचार्य आचार्य संगम अपने अनेक साधुओं के साथ निवास कर रहे ने उसे आश्वस्त किया। शिष्य को ग्रंथकार के वचनों की स्मृति थे। वे वहां स्थिरवासी थे। वे सब निरंतर अपनी चर्या में पूर्ण हो आई। वह गुनगुनाने लगाजागरूक थे और आगमों के अनुसार चर्या का पालन करते थे। निम्ममा निरहंकारा,, उज्जुत्ता संजमे तवे चरणे। एक बार उनका शिष्य दत्त लंबे समय के बाद वहां आया और एगक्खेत्ते वि ठिया, खवंति पोराणयं कम्म।। अपने स्थिरवासी आचार्य को देख उसने सोचा, ओह! ये तो जो मुनि ममत्व और अहंकार से शून्य होते हैं, जो संयम, तप और चारित्र में जागरूक रहते हैं, वे नियतवासी होने पर 'नियतवासी' बन गए हैं। मुझे यहां नहीं ठहरना चाहिए। वह भी, एक क्षेत्र में रहने पर भी, अपने कर्मों का क्षय कर देते हैं।' अन्यत्र ठहरा। आचार्य भिक्षावेला के समय ऊंच-नीच कुल निगमन-आचार्य संगम ने चर्या परीषह को समभाव से में गोचरी करने गए। वह भी उनके साथ हो गया। कालदोष सहा। से उस दिन आचार्य को अन्त-प्रान्त भोजन मिला। आचार्य ३३. चपलताओं का वर्जन करता हुआ (अकुक्कुओ) निस्संगभाव से आहार लेते हुए अनेक घरों में घूमते रहे। शिष्य बृहद्वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैंआकुल-व्याकुल हो गया। उसने अंट-संट बोलना प्रारम्भ कर (१) अकुक्कुचः और दिया। आचार्य उसको शान्त करने के लिए एक धनी के घर में (२) अकुत्कुचः। गए। वहां गृहपत्नी रेवती अपने बच्चे को उठाए खड़ी थी। वह इनके क्रमशः अर्थ हैंबच्चा छह मास से रोता था। एक पल के लिए भी रुदन नहीं (१) अशिष्ट चेष्टाओं से रहित। रुकता था। आचार्य भीतर गए। रोते हुए लड़के के समक्ष चुटकी (२) हाथ-पैर को अनुचित रूप से न हिलाने वाला। बजाई और उसने रोना बंद कर दिया। घरवाले प्रसन्न हुए। ३४. श्मशान....अथवा वृक्ष के मूल में (सुसाणे.. उन्होंने आचार्य को परम अन्न से प्रतिलाभित किया। शिष्य रुक्खमूले) प्रसन्न हो अपने निवास स्थान पर आ गया। आचार्य छोटे-बड़े सोनियाले स्थान पर आए। सबने भोजन किया। साय विचार कई अध्ययनों में किया गया है। देखें--१५१४; १६ सू. मुनि को किस प्रकार के स्थान में रहना चाहिए इसका प्रतिक्रमण के समय आचार्य ने उससे कहा-कृत की आलोचना ३ श्लो. १; ३२।१२, १३, १६; ३५/४-६। श्मशान, शून्य-गृह करो। उसने कहा-मैं तो आपके साथ ही घूमा था। आप और वृक्ष-मूल ये सब एकान्त स्थान के उदाहरण मात्र हैं। आलोचना करें। आपने अमुक घर से धातृपिण्ड लिया है। यह अकल्प्य है। आचार्य बोले-दूसरों के अति सूक्ष्म छिद्र भी तुम श्मशान और वृक्ष-मूल में मुख्यतया विशिष्ट साधना करने वाले देख लेते हो। वह बोला-यह असत्य है। कहा है--मनुष्य के मुनि ही रहते हैं। पास अपने दोष देखने के लिए एक आंख भी नहीं है, किन्तु 'सुसाण'-यह श्मशान के अर्थ में आर्ष-प्रयोग है। परदोषों को देखने के लिए वह सहस्राक्ष हो जाता है कई बौद्ध-भिक्षु भी श्मशान में रहने का व्रत लेकर चलते एक्कं पि नत्थि लोयस्स लोयणं जेण नियह नियटोसे। थे। उनका यह व्रत 'श्मशानिकांग' कहलाता है। यही ग्यारहवां परदोसपेच्छणे पूण, लोयणलक्खाई जायंति।। 'धुताग' है।' शिष्य आचार्य को छोड़कर दूसरे कमरे में चला गया। कई बौद्ध-भिक्षु वृक्षों के नीचे भी रहते थे। वे छाए हए रात का समय। भयंकर तूफान। सघन अंधकार। वह डरा। घरों में नहीं रहते थे। उनका यह व्रत 'वृक्षमलिकांग' कहलाता उसने आचार्य को पुकारा। आचार्य ने कहा-इधर आ जाओ। है। यही नौवां 'धुतांग' है।' वह बोला-कैसे आऊं? हाथ से हाथ नहीं दीख रहा है। ३५. दसरों को त्रास न दे (न य वित्तासए परं) सर्वत्र सूचीभेद्य अन्धकार व्याप्त है। आचार्य लब्धि-संपन्न थे। उन्होंने अपनी अंगुली आगे की। वह प्रज्वलित होकर मुनि की साधना विविध प्रकार की होती है। कभी-कभी आलोक बिखेरने लगी। शिष्य ने सोचा-ये कैसे गुरु? अपने वह श्मशान-प्रतिमा की विशिष्ट साधना स्वीकार कर श्मशान में पास दीपक भी रखते हैं। वह और अधिक रुष्ट हो गया। रात्री-निवास करता है। उस समय वहां विविध प्रकार के कुछ समय बीता। उसकी विवेक-चेतना जागी। उसे अपनी भयोत्पादक उपसर्ग होते हैं। मुनि उनसे भयभीत न हो। वह १. सुखबोधा, पत्र ३२। ३. दशवैकालिक, १०।१२। २. बृहद्वृत्ति, पत्र १२E : अकुक्कुचः-अशिष्टचेष्टारहितः । ४. विशुद्धि मार्ग, पृ. ६०। ....यद्वा अकुक्कुए त्ति अकुत्कुचः...कुत्सितं हस्तपादादिभिरस्पन्दमानो... ५. वही, पृ. ६०। Jain Education Intemational Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह-प्रविभक्ति ४७ अध्ययन २ : श्लोक २१,२२ टि० ३६-३८ आगम के इस वचन का स्मरण करे—'पडिमं पडिवज्जिया पीछे-पीछे आ रहे थे। जहां मुनि कायोत्सर्ग में स्थित थे, वहां से मसाणे, णो भायए भयभेरवाई दिस्स। साथ ही साथ वह वहां दो मार्ग दो गांवों की ओर जा रहे थे। वे खोजी व्यक्ति वहां रुके। साधनारत अन्यान्य साथकों को भी न डराए। ऐसी आवाजें न मुनि से पूछा कि चोर किस ओर गए हैं? मुनि मौन थे। खोजी करे कि दूसरे डर जाएं या ऐसे हावभाव न करे कि वहां भय व्यक्तियों ने पुनः-पुनः पूछा। मुनि ने मौन भंग नहीं किया। वे का वातावरण खड़ा हो जाए।' कुपित हुए और उन्होंने मुनि के सिर पर मिट्टी की पाल ३६. (श्लोक २०,२१) बांधकर उसको दहकते अंगारों से भर दिया। वे फिर वहां से चल ये दो श्लोक निषद्या परीषह से संबंधित हैं। चूर्णिकार ने दिए। 'णिसीहिया' और 'ठाणं' को एकार्थक माना है और इसका अर्थ मुनि को असह्य विकराल वेदना हो रही थी। पर वे समता निषीदन-बैठना किया है। वृत्ति में इसका अर्थ श्मशानादि के अथाह सागर में उन्मज्जन-निमज्जन करने लगे। वे गुनगुनाने स्वाध्याय भूमि किया है। प्राचीनकाल में मुनि स्वाध्याय के लगेलिए एकान्त स्थान में जाते थे। उसको निषीधिका या निषद्या सह कलेवर! खेदमचिन्तयन्, स्ववशता हि पुनस्तव दुर्लभा। कहते थे। बहुतरं च सहिष्यसि जीव है! परवशो न च तत्र गुणोऽस्ति ते।। खारवेल के शिलालेख में 'काय निसीदिका' और 'अर्हत् शरीर! इस विपुल कष्ट को तू यह सोचकर समभाव से निसीदिका' का पाठ मिलता है। सहन कर कि कष्ट सहने की यह स्वतंत्रता अन्यत्र दुर्लभ है। इस प्रकार 'निसीदिया' और निसीहिया'—ये दो प्रकार के मनुष्य जीवन के अतिरिक्त ऐसी स्ववशता पुनः प्राप्त होना पाठ मिलते हैं। इनमें खारवेल के शिलालेख के पाठ बहुत प्राचीन कठिन है। परवशता में तूने अनेक भयंकर कष्ट सहे हैं। यह हैं। प्राचीन लिपि में 'द' और 'ह' का अंकन बहुत समान रहा तेरी कोई विशेषता नहीं है। विशेषता तब होती है जब स्ववशता है। इस आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि 'निसीदिया' में भी भयंकर कष्टों को समभाव से सहा जाए।' का 'द' 'हकार' में परिवर्तित हो गया और 'निसीहिया' पाठ मुनि के परिणामों की श्रेणी विशुद्धतम होती गई और वे प्रचलित हो गया। सभी कष्टों से सदा-सदा के लिए मुक्त हो गए। _ 'निसीदिया' का अर्थ है-निषद्या। यह स्वभाविक प्रयोग ३७. उत्कृष्ट या निकृष्ट उपाश्रय को पाकर (उच्चावयाहिं है। 'निसीहिया' का अर्थ निषीधिका, नैषेधिकी या निशीथिका किया सेज्जाहिं) जाता है। यह अर्थ मौलिक प्रतीत नहीं होता। उच्च और अवच-ये दो शब्द हैं। उच्च का अर्थ हैनिषद्या का अर्थ है--निर्वाणभूमि, स्वाध्यायभूमि या वे दुमंजिले मकान जो लिपे-पुते हुए हैं अथवा जो शीत, आतप समाधिस्थल। आदि का निवारण करने में सक्षम हैं, सभी ऋतुओं में सुखदायी निषद्या परीषह ____ हस्तिनापुर नगर। कुरुदत्त नाम का श्रेष्टिपुत्र । उसने एक अवच का अर्थ है-जमीन से सटे हुए मकान, खंडहर आचार्य के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। आचार्य बहुश्रुत थे। या जो शीत और आतप से रक्षा करने में असमर्थ ।' सकी पात्रता की परीक्षा कर उसे अनेक आगमों की शय्या का अर्थ है-वसति, गृह। वाचना दी। वह विनय की प्रतिपत्ति से ज्ञान अर्जित कर कुछ ही ३८. मर्यादा का अतिक्रमण न करे (नाइवेलं विहन्नेज्जा) वर्षों में बहुश्रुत मुनि बन गया। आचार्य की अनुज्ञा प्राप्त कर वह वेला शब्द के दो अर्थ हैं-समय और मर्यादा। एक बार एकलविहार प्रतिमा की प्रतिज्ञा कर साकेत नगर की 'हन्' धातु के दो अर्थ हैं--हिंसा और गति। यहां यह ओर चला। नगर के समीप आते-आते दिन का अंतिम प्रहर- गति अर्थ में प्रयुक्त है। चतुर्थ प्रहर का काल आ गया। उसने वहीं पैर रोक दिए। वह 'नाइवेलं विहन्नेज्जा' पद के दो अर्थ हैंस्थान था नगर का श्मशान। इधर-उधर शव जल रहे थे। वह (१) मुनि शीत, आतप आदि से प्रताड़ित होकर वहीं कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। स्वाध्यायभूमि का अतिक्रमण न करे, उसे छोड़कर अन्यत्र न निकट के एक गांव से कुछ चोर गायों को चुराकर उसी जाए। (२) मुनि उच्च या अवच स्थान को प्राप्त कर अपनी रास्ते से निकले थे। चोरी का पता लगाने वाले कुछ लोग उनके १. बहवृत्ति, पत्र १०६ । (ख) सुखबोधा, पत्र १७ : नैषेधिकी--श्मशानादिका स्वाध्यायभूमिः। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६७ : णिसीहियत्ति वा ठाणति वा एगटूट, तं तु ४. सुखबोधा, पत्र ३३।। तस्स साधोः कुत्र स्थाने स्यात? णिसीहियमित्यर्थः। ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६८। ३. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ८३ : श्मशानादिका स्वाध्यायादिभूमिः निषोति (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ११०। यावत्। (२) Jain Education Intemational Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि मर्यादा अर्थात् समभाव को न छोड़े। वह अच्छे स्थान को प्राप्त कर यह न सोचे कि मैं कितना सौभाग्यशाली हूं कि मुझे सभी ऋतुओं में सुखदायी यह स्थान प्राप्त हुआ है। बुरे स्थान को प्राप्त कर वह न सोचे कि मैं कितना मंदभाग्य हूं कि मुझे शीत आदि से बचाने वाला स्थान भी प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार मुनि हर्ष और विषाद से ग्रस्त न हो ।' ४८ अध्ययन २ श्लोक २३-२४ टि० ३८-४३ संसार से विरक्त होकर सोमभूति अनगार के पास दीक्षित हो गए। दोनों ने ज्ञानार्जन के लिए श्रम किया और कुछ ही समय में वे बहुश्रुत हो गए। एक बार वे एक पल्ली में आए। वहां के लोग मदिरापान करते थे। उन्होंने अन्य पेय द्रव्य में मदिरा का मिश्रण कर मुनिद्वय को दिया। मुनि इससे अजान थे। उन्होंने उस पेय को पीया और कुछ ही समय पश्चात् वे उन्मत्त हो गए। उन्होंने सोचा- हमने अच्छा नहीं किया। हमारे से प्रमाद हुआ है। अच्छा है, हम अनशन कर लें। वे दोनों पास ही एक नदी पर गए और वहां पड़े हुए दो काष्ठफलकों पर पादपोपगमन अनशन कर लेट गए । दो-चार दिन बीते । अकाल में वर्षा हुई और नदी में बाढ़ आ गई। उस बाढ़ में दोनों भाई बह गए। समुद्र में जा गिरे। लहरों की तीव्र चपेटों से वे हत- विहत हुए । जलचर जीवों ने उन्हें काटा। दोनों भाई पीड़ा को समता से सहकर पंडित मरण को प्राप्त हुए।" ४२. प्रति क्रोध ( पडिसनले ) आयारचूला में 'स्थान या शय्याविधि' का निर्देश देते हुए सूत्रकार कहते हैं— मुनि को कभी सम स्थान और कभी विषम स्थान, कभी वायु वाला और कभी वायु शून्य, कभी गंदा और कभी साफ-सुथरा, कभी दंश-मशकों से परिव्याप्त और कभी उनसे रहित, कभी खण्डर और कभी पूरा, कभी बाधाओं से व्याप्त और कभी निर्बाध स्थान मिलता है। मुनि इनमें समभाव रखे, राग-द्वेष न लाए। ३९. प्रतिरिक्त (एकांत) उपाश्रय को (पइरिक्कुवस्वयं) 'पइरिक्क' देशी शब्द है। इसके एकांत, शून्य, विशाल आदि अनेक अर्थ हैं। संस्कृत में भी 'प्रतिरिक्त' शब्द इन अर्थों में प्रयुक्त है । चूर्णिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं—पुण्य – सुन्दर अथवा पूर्ण, अव्याबाध, नव-नर्मापित, ऋतुक्षम सभी ऋतुओं में सुखप्रद; जो अभी तक कार्पटिक आदि भिक्षुओं से उपभुक्त न हो वैसा स्थान । * बृहद्वृत्ति में इसके दो अर्थ प्राप्त है— (१) स्त्री आदि से विरहित होने के कारण एकान्त । (२) अव्याबाध । ४०. एक रात में क्या होना जाना है (किमेरायं करिस्सइ) यह एक रात्री का प्रयोग विशेष साधनारत मुनियों के लिए है। एकलविहार की प्रतिमा अथवा अन्य प्रतिमाओं को धारण कर विचरण करने वाले मुनि गांव में एक रात और नगर में पांच रात रह सकते हैं। स्थविरकल्पी मुनि नवकोटि विहार से विचरण करते हैं। इसलिए उनके लिए यह नियम नहीं है । ४१. शय्या वसति परीषह कोशाम्बी नगरी के विश्रुत विप्र यज्ञदत्त के दो पुत्र थे। उनका नाम था- सोमदत्त और सोमदेव । वे वेदों के पारंगत विद्वान् हो गए । अकस्मात् कोई निमित्त मिला और वे दोनों १. बृहद्वृत्ति, पत्र ११० । २. आयारचूला, ८/३०। देखें - देशी शब्दकोश । ३. ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ : पयरेको णाम पुण्णो, अव्वाबाहो असु (ब्भु) ण्णवो वा ण किंचिं वि तत्थ ठविया जं निमित्तं तत्थागमिस्संति, अयं ऋतुखमितो, ण कप्पडियादीहिं य उवभुज्जति । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ११० : पइरिक्कं स्त्र्यादिविरहितत्वेन विविक्तं, अव्याबाधं वा । 'पंडिसंजले' का तात्पर्यार्थ है- कोई क्रोध से वशीभूत होकर गाली देता है, क्रोध से जलता है तो भी मुनि प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर उसके प्रति क्रोध न करे, क्रोधाग्नि में न जले। आंखों को लाल-पीला कर, सारे शरीर में दाह उत्पन्न कर, गाली का जवाब प्रचंड गाली से देना, अग्नि की भांति संज्वलित होना है। मुनि उसके प्रति भी संज्वलन क्रोधअत्यधिक हलका क्रोध भी न करे, शांत रहे। आचार्य नेमिचन्द्र ने यहां एक सुन्दर श्लोक प्रस्तुत किया आकुष्टेन मतिमता, तत्त्वार्यालोचने मतिः कार्या यदि सत्यं कः कोप, स्यादनृतं किं नु कोपेन ? ।। ( सरिसो होइ बालाणं) इस चरण का तात्पर्य यह है कि जो मुनि गाली का उत्तर गाली से देता है वह उस अज्ञानी के समान ही हो जाता है। यहां एक बड़ा सुन्दर उदाहरण है ४३. 'एक क्षपक मुनि था। देवता उसकी सेवा करता था । क्षपक जो कुछ कहता, देवता उसका पालन करता था। एक बार मुनि का एक नीच जाति वाले व्यक्ति से झगड़ा हो गया। वह हृष्ट-पुष्ट था। उसने मुनि को पछाड़ दिया। रात को देव वन्दना करने आया। मुनि मौन रहे । देव बोला- 'क्या कोई मेरा ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ : सो हि एगल्लविहारी गाये एग रातीए नगरे पंचरातीए । ७. ८. ६. (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ११० १११ प्रतिमाकल्पिकापेक्षं चैकरात्रमिति, स्थवरकल्पिकापेक्षया तु कतिपया रात्रयः । सुखबोधा, पत्र ३५ । बृहद्वृत्ति, पत्र ११-११२ । सुखबोधा, पत्र ३४ । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह प्रविभक्ति अपराध हुआ है?' मुनि ने कहा- 'तूने उस दुष्ट आदमी को डांटा तक नहीं।' देव बोला- 'गुरुदेव ! मैं वहां आया तो था पर पहचान नहीं सका कौन था दुष्ट आदमी और कौन था श्रमण ? वे दोनों एक जैसे ही थे ।' ४४. (श्लोक २५) प्रस्तुत श्लोक में भाषा के तीन विशेषण प्राप्त हैं- परुष, दारुण और ग्रामकण्टक। ४९ अध्ययन २ : श्लोक २५,२६ टि० ४४-४७ 1 अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्म की शरण हो, महावीर मेरी गति हों। इस वेला में यदि मेरे इस देह से कोई प्रमाद हो (मेरा मरण हो) तो मैं आहार, उपधि और काय का तीन करण तीन योग से प्रत्याख्यान करता हूं। वह नमस्कार मंत्र का पांच बार स्मरण कर कायोत्सर्ग में स्थित हो गया । इतने में ही अर्जुन वहां आया। पर उसे तब अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि वह उस व्यक्ति पर प्रहार करने में असमर्थ हो रहा है। उसने अपना सारा पुरुषार्थ प्रहार करने के लिए लगा दिया। पर, सब व्यर्थ । यक्ष अर्जुन के शरीर से निकल गया। अर्जुन वहीं भूमि पर गिर पड़ा । चेतना प्राप्त कर वह उठा और सुदर्शन से पूछा- मैं कहां हूं? मैंने ऐसा क्यों किया? मेरी क्या स्थिति है? मैं अपने आपको नहीं जानता । तुम मुझे बताओ। सुदर्शन ने सारी बात बताई। मालाकार का मन आन्दोलित हो उठा। वह भी सुदर्शन के साथ भगवान् की सन्निधि में पहुंचा। उसने पूछा-भंते! मैं घोर पापी हूं। मेरी विशोधि कैसे हो सकती है? भगवान बोले- विशोधि के दो साधन हैं–तपस्या और संयम यह सुनकर मालाकार भगवान के पास प्रव्रजित हो गया । परुष- वह भाषा जो स्नेहरहित, अनौपचारिक और कर्कश हो।' दारुण— वह भाषा जो मन को फाड़ डाले, कमजोर साधकों को संयम धृति को तोड़ दे । * ग्रामकण्टक—यहां ग्राम शब्द इन्द्रिय- ग्राम (इन्द्रिय समूह) के अर्थ में प्रयुक्त है। ग्रामकण्टक अर्थात् कानों में कांटों की भांति चुभने वाले इन्द्रियों के विषय, प्रतिकूल शब्द आदि । ये कांटे इसलिए हैं कि ये दुःख उत्पन्न करते हैं और मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त साधकों के लिए विघ्नकारी होते हैं। मूलाराधना में 'ग्रामवचीकंटगेहिं' का प्रयोग है। उसका अर्थ है-ग्राम्य लोगों के वचनरूपी कांटों से । प्रस्तुत श्लोक में 'ग्रामकण्ट' का प्रयोग है। यहां मध्यपद 'वची' का लोप मान लेने पर उसका अनुवाद ग्राम्य लोगों की कांटों के समान चुभने वाली भाषा — किया जा सकता है। ४५. आक्रोश परीषद राजगृह नगर मुद्गरपाणी यक्ष का आयतन । यक्ष का परम भक्त अर्जुन मालाकार । स्कन्द श्री उसकी पत्नी । दोनों का ईष्टदेव था मुद्गरपाणी यक्ष। एक बार छह युवकों ने स्कन्दश्री पर आक्रमण किया। अर्जुन मालाकार ने देखा । मुद्गरपाणी यक्ष मालाकार के शरीर में प्रविष्ट हुआ। मालाकार ने छहों व्यक्तियों तथा अपनी पत्नी को मुद्गर से मार डाला। अब वह प्रतिदिन सात व्यक्तियों (छह पुरुष और एक स्त्री) की हत्या करने लगा । कुछ समय बीता। भगवान महावीर जनपद विहार करते हुए वहां आए। राजगृह के बाह्य उद्यान में ठहरे। चारों ओर अर्जुन मालाकार का भय व्याप्त था। कोई भी व्यक्ति भगवान के दर्शन करने जाने को उद्यत नहीं था । श्रेष्ठीपुत्र सुदर्शन 'जं होइ तं होइ' को ध्यान में रख भगवद् दर्शन के लिए चला। अर्जुन को सामने आते देख, सुदर्शन ने मन ही मन कहा- मुझे उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७०: फरुसा निःस्नेहा अनुपचारा श्रमणको निल्लज्जा इत्यादि । 9. २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७० मणं दारयतीति दारुण । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ११२ दारयन्ति मन्दसत्त्वानां संयमविषयां धृतिमिति दारुणाः । ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७० ग्रसत इति ग्रामः - इन्द्रियग्रामः तस्य इन्द्रियग्रामस्य कंटगा, जहा पंथे गच्छंताणं कंटगा विघ्नाय, तहा सद्दादयोवि इन्द्रियग्रामकंटया मोक्षिणां विघ्नायेति । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १११ । (ग) देखो - दशवैकालिक १०।११ का टिप्पण । -- वह भक्तपान के लिए राजगृह में जाता। उसे देखते ही लोगों की स्मृति उभर जाती। कोई कहता- - इसने मेरे पिता को, कोई कहता मेरे भाई को, कोई कहता- मेरी पत्नी को, कोई कहता -- मेरे पुत्र को इस हत्यारे ने मारा है । वे उस पर ढेले फेंकते, मारते। पर मुनि अर्जुन उन सभी प्रकार के आक्रोशों को समभाव से सहता । संयम की विशुद्ध परिपालना और समता की आराधना से कर्मों का क्षय कर उसी भव में केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। ४६. मन में न लाए (मणसीकरे ) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-मानसिक असमाधि किया है। प्रतिकूल भाषा को सुनकर भी मुनि अपनी मानसिक समाधि न खोए, मानसिक असमाधि में न जाए। वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-परुष भाषा बोलने वाले व्यक्ति के प्रति मन में भी द्वेष न लाए।" ४७. क्रोध (संजले) चूर्णिकार ने संज्वलन का अर्थ रोषोद्गम या मानोदय किया है । उन्होंने उसका लक्षण बताते हुए एक श्लोक उद्धृत किया है । - ४. ५. ६. ७. ८. मूलाराधना, आश्वास ४, श्लोक ३०१, मूलाराधनादर्पणवृत्ति, पत्र ५१५ : दुस्सहपरीसहेहिं य, गामवचीकंटएहिं तिक्खेहिं । अभिभूदा विहु संता, मा धम्मधुरं पमुच्चेह ।। - ग्रामवचीकंटगेहिं – ग्राम्याणामविविक्तजनानां वचनानि एव कंटकास्तैराक्रोशवचनैरित्यर्थः । सुखबोथा, पत्र ३५ । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७० मन करणं णाम तदुपयोगः मनसो ऽसमाथिरित्यर्थः । बृहद्वृत्ति, पत्र ११२ : न ता मनसि कुर्यात्, तद् भाषिणि द्वेषाकरणेनेति भावः । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७२ । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि 'कपति रोषादग्निसंयुक्षितवच्च दीप्यते ऽनेन । तं प्रत्याक्रोशत्याहंति च मन्येत येन स मतः ।। -जो क्रोध से कांप उठता है, अग्नि की भांति जल उठता है, आक्रोश के प्रति आक्रोश और हनन के प्रति हनन करता है, यह संज्वलन का फल है । बृहद्वृत्ति में इस शब्द के द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि मुनि पीटे जाने पर भी शरीर से संज्वलित न हो— क्रोध से न कांपे और न पीटने वाले को पीटने का प्रयत्न ही करे। वह आक्रोश के प्रति आक्रोश कर अपने आपको अत्यन्त कुपित प्रदर्शित न करे।' ४८. परम (परमं ) प्राचीन साहित्य में दो शब्द प्रचलित हैं—–पराविद्या और अपराविद्या । पराविद्या का अर्थ है-लोकोत्तर विद्या, अध्यात्म विद्या और अपराविद्या का अर्थ है सांसारिक विद्या, व्यावहारिक विद्या । उपनिषदों में पराविद्या की जिज्ञासा के अनेक प्रसंग उपलब्ध हैं। ५० 'परम' शब्द का अर्थ है-उत्कृष्ट । शान्त्याचार्य ने तितिक्षा को उत्कृष्ट धर्म-साधन माना है। ४९. मुनि धर्म (भिक्खु धम्म) मुनि-धर्म स्थानांग (१०।७१२) तथा समवायांग (समवाय १०) के अनुसार दस प्रकार का होता है(१) क्षान्ति (७) संयम (२) मुक्ति निलभता, अनासक्ति (८) तप (३) मार्दय (४) आर्जव (५) लाघव (६) सत्य ५०. श्रमण को (समणं) चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'समान मन वाला' किया है। शान्त्याचार्य ने इस अर्थ के साथ-साथ श्रमण भी किया है।* नेमिचन्द्र ने तपस्वी किया है।' संस्कृत में इस शब्द के दो रूप हो सकते हैं— श्रमणम् और समणम् । विस्तार के लिए देखेंदसवेआलियं १।३ के 'समणा' शब्द का टिप्पण । ५१. (श्लोक २६.२७) (६) त्याग- - अपने सांभोगिक साधुओं को आहार का दान देना । (१०) ब्रह्मचर्य प्रस्तुत दो श्लोकों (२६, २७) में आक्रोश, वध आदि परीषों को झेलने के तीन आलंबन सूत्र प्राप्त होते हैं १. तितिक्षा -मुनि सोचे की सहन करने से बढ़कर १. बृहद्वृत्ति पत्र ११४ । २. वही, पत्र ११४ परमां धर्मसाधनं प्रति प्रकर्षवतीतितिक्ताम् । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ७२ समो सव्वत्थ मणो जस्स भवति स समणो । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ११४ 'समणं' - श्रमणं सममनसं वा - तथाविधवधेऽपि ३. धर्म प्रति प्रहितचेतसम् । अध्ययन २ : श्लोक २७ टि० ४८-५२ निर्जरा का कोई साधन नहीं है। क्षमा परम धर्म है। सहन करने वाला ही क्षमाशील हो सकता है। एक प्राचीन श्लोक है— 'धर्मस्य दया मूलं, न चाक्षमावान् दयां समाधत्ते । तस्माद यः क्षान्तिपरः, स साधयत्युत्तमं धर्मम् ॥' २. मुनि धर्म का चिंतन करे। मुनि धर्म दो प्रकार का है— पांच महाव्रतात्मक और क्षान्ति आदि दसविध धर्म । मुनि यह सोचे कि मुनि-धर्म का मूल है क्षमा । यह आक्रोश करने वाला व्यक्ति मुझे निमित्त बनाकर कर्मों का उपचय करता है, इसलिए परोक्षतः मैं ही दोषी हूं। अतः मुझे इसके प्रति क्रोध नहीं करना चाहिए। ३. आत्मा के अमरत्व का चिन्तन - पीटे जाने पर मुनि यह सोचे कि जीव- -आत्मा का नाश नहीं होता। इस चिन्तन का पूर्वपक्ष है कि यदि कोई दुर्जन व्यक्ति मुनि को गाली दे तो मुनि यह सोचे किचलो, गाली ही देता है, पीटता तो नहीं। पीटने पर सोचे-चलो, पीटता ही है, मारता तो नहीं। मारने पर सोचे चलो मारता ही है, धर्म से भ्रष्ट तो नहीं करता- -आत्म-धर्म का हनन तो नहीं करता, क्योंकि आत्मा अमर है, अमूर्त है। इस प्रेक्षा से मुनि अगले बड़े उपताप को सामने रखकर छोटा उपताप जो प्राप्त होता है, उसे लाभ मानता है और इस प्रकार वह मनोवैज्ञानिक विजय प्राप्त कर लेता है। ५२. वध परीषह स्कन्दक श्रावस्ती नगर के जितशत्रु राजा का राजकुमार था। उसकी माता का नाम था धारिणी और बहिन का नाम था पुरंदरयशा । पुरंदरयशा का विवाह कुंभकार नगर के राजा दंडकी के साथ हुआ । पालक दंडकी का पुरोहित था । एक बार श्रावस्ती नगरी में मुनि सुव्रत समवसृत हुए। धर्मचर्चा सुनने के लिए लोग उमड़ पड़े। युवराज स्कन्दक भी गया। धर्मदेशना सुनकर उसने श्रावक के व्रत अंगीकार कर लिए। एक बार दंडकी राजा का पुरोहित पालक श्रावस्ती नगरी मेंदूत बनकर आया। भरी सभा में वह मुनियों का अवर्णवाद बोलने लगा । स्कन्दक ने उसे निरुत्तर कर दिया। उसी दिन से पालक स्कन्दक का द्वेषी बन गया । कुछ समय बीता। स्कन्दक संसार से निर्विण्ण हुआ और उसने पांच सौ व्यक्तियों के साथ मुनि सुव्रत स्वामी के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। उसने ज्ञानाभ्यास कर बहुश्रुतता हासिल कर ली। मुनि सुव्रत स्वामी ने उसकी योग्यता का मूल्यांकन करते हुए उसे पांच सौ शिष्यों का अधिपति बना डाला। एक ५. सुखबोधा, पत्र ३६ 'श्रमणं' तपस्विनम् । ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७२ : अक्कोस हणण मारण धम्मदमंसाण बालसुलभाणं । लाभं मन्नति धीरो, जहुत्तराणं अभावमि ।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह-प्रविभक्ति ५१ अध्ययन २ : श्लोक २८,२६ टि० ५३,५४ बार मुनि स्कन्दक ने आचार्य से पूछा-भंते! मैं अपनी बहिन वरदान है और आलसी--परिग्रही के लिए मांगना अभिशाप है। के गांव कुंभकार नगर में जाना चाहता हूं। आप आज्ञा दें। विनोबाभावे ने कांचन-मुक्ति का प्रयोग किया। उन्होंने कहा'आचार्य बोले-वहां जाने पर मारणान्तिक कष्ट सहने होंगे। जहां किंचनता है वहां मांगना, भिक्षा करना, वर्जित होना चाहिए। मुनि स्कन्दक ने पूछा---'मृत्यु, भले ही हो। पर क्या हम अकिंचन त्यागी संन्यासी के लिए याचना विहित है, सम्मत है। आराधक होंगे या विराधक?' आचार्य बोले--तुमको छोड़कर सभी याचना कठिन कर्म है। नीतिकार ने दाता और याचक की मुनि आराधक होंगे। उसने कहा-चलो, कोई बात नहीं। पांच स्थिति का सुन्दर वर्णन इस श्लोक में प्रस्तत किया है... सौ में से चार सौ निन्यानवे व्यक्ति तो आराधना कर अपना 'एकेन तिष्ठाताऽधस्ताद् अन्येनोपरि तिष्ठता। कल्याण करेंगे। एक के विराधक होने से क्या अन्तर आता है? दातृयाचकयोर्भेदः, कराभ्यामेव सचितः।। मुनि स्कन्दक अन्य पांच सौ मुनियों के साथ कुंभकार देने वाले का हाथ ऊपर रहता है और लेने वाले का हाथ नगर में पहुंचा। पालक ने अवसर का लाभ उठाते हुए नीचे। यही दाता और याचक की स्थिति का द्योतक है। मुनि-निवास के चारों ओर शस्त्राशस्त्र गड़ा दिए। राजा दंडकी एक राजा अपने गुरु के पास गया और बोलाको मुनि के प्रति उकसाते हुए उसने कहा-यह आपका राज्य 'गुरुदेव! अहंकार मेरी साधना में बाधक बन रहा है। मुझे छीनने आया है। उद्यान के चारों ओर शस्त्रास्त्र छुपा कर रखे उसकी मुक्ति का उपाय बताएं।' गुरु बोले- "बहुत कठिन है अहं से मुक्त होना और वह भी एक राजा के लिए, जो सारे हैं। आपको विश्वास न हो तो जांच कराएं। राजा ने गुप्तचर देश पर शासन करता है।" राजा ने आग्रह किया। उसकी भेजे। बात सही निकली। उसने सभी मुनियों को पुरोहित पालक उत्कट भावना को देखकर गुरु ने कहा- "उपाय सरल है, पर को सौंप दिया। उसने सभी को कोल्हू में पीलने का आदेश दे तुम्हारे लिए वह कठिन हो सकता है। यदि तुम वास्तव में ही दिया। एक-एक कर मुनि कोल्हू में पील दिए गए। सभी ने अहं से छुटकारा पाना चाहते हो तो अपने राज्य के इस बड़े उत्कृष्ट अध्यवसायों से इस दारुण वध परीषह को सहा, नगर में तुम सात दिन तक भिक्षा मांगने निकलो और घर-घर केवलज्ञान प्राप्त कर सभी सिद्ध हो गए। अब केवल दो मुनि से भिक्षा लेकर जीवन-निर्वाह करो।" राजा बोला—"भंते! मांगना बचे थे--एक बाल मुनि और एक स्कन्दक। स्कन्दक का मन अत्यन्त कठिन कर्म है और वह भी अपने ही राज्य में, जहां करुणाई हो गया। उसने अधिकारी से कहा-इस बालक पर मैं इतना सम्मानित और पूजनीय हूं। आप कोई दूसरा उपाय करुणा करो। मैं कोल्हू में पीले जाते हुए इस बालक को नहीं निर्दिष्ट करें।" गुरु बोले- "तुम्हारे लिए यही उपाय कारगर हो देख सकता। पहले मुझे पील दो। पालक हंसा। उसने स्कन्दक सकता है। यदि अहंकार से मुक्त होना चाहते हो तो ऐसा करना को और अधिक पीड़ित करने के लिए बाल मुनि को कोल्हू में ही होगा।" राजा गुरु की बात मान, अकेला ही, नगर में मांगने डाल दिया। बाल मुनि ने अध्यवसायों की निर्मलता बनाए रखी। निकला। हाथ में पात्र था। लोगों ने देखा। सभी आश्चर्यचकित वह सिद्ध हो गया। स्कन्दक भान भूल बैठा। कोल्हू में पीले जाते रह गए। किसी ने आक्रोश व्यक्त किया, किसी ने घर से निकाल समय निदान कर वह अग्निकुमार देव बना और पूरे जनपद दिया। पर राजा समभाव से सब कुछ सहता हुआ, घर-घर को जलाकर राख कर दिया। गया। इस प्रकार सात दिन बीत गए। वह गुरु के पास आकर सभी मुनि वध परीषह को सहकर आराधक बन गए। बोला, पूज्य गुरुदेव! उपाय कारगर हुआ। मुझे जो पाना था, वह मुनि स्कन्दक ने इस परीषह को नहीं सहा । वह विराधक हआ। मैंने पा लिया। अहं विलीन हो गया। ५३. (सव्वं से.... किंचि अजाइयं) ५४. गोचराग्र में (गोयरग्ग....) याचना अहंकार-विलय का प्रयोग है। जिस व्यक्ति को 'गोचर' का अर्थ है---गाय की भांति चरना। गाय अपने रोटी और पानी भी मांगने से मिलता है, रोटी और पानी के से परिचित या अपरिचित का भेदभाव किए बिना ही प्राप्त भोजन लिए भी जिसको दूसरों के आगे हाथ पसारना पड़ता है, उसमें को ग्रहण कर लेती है, वैसे ही भिक्षु भी परिचित या अपरिचित अहंकार का भाव कैसे जागेगा? 'याचना' अहंकार-मुक्ति का व्यक्तियों या घरों से भिक्षा ग्रहण करता है। परन्तु गाय 'यथाकथंचित' एक आलंबन बनता है। तो कुछ भी ले लेती है, वैसे भिक्षु नहीं ले सकता। वह सदा कुछ कहते हैं, साधु-जीवन का पलायन का जीवन है। एषणायुक्त भोजन ही लेता है। यही 'अग्ग' (सं. अग्र्यं) शब्द का साधु कोई उत्पादक श्रम नहीं करता। एक ओर मांगना कठिन विशेष अर्थ है। होता है तो दूसरी ओर यह आरोप लगाया जाता है। आकिंचन्य चूर्णिकार ने 'अग्ग' शब्द के दो अर्थ किए हैं—प्रधान और उत्पादन श्रम में कोई संबंध नहीं है। और एषणायुक्त। उन्होंने यहां बछड़े के उदाहरण का संकेत सूफी परम्परा में कहा गया कि साधु के लिए मांगना किया है—पर्व का दिन था। घर की मालकिन अन्यत्र गई हुई १. सुखबोधा, पत्र ३६। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ११६ । ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७४ : अग्ग पहाणं, जतो एसणाजुत्तं । Jain Education Intemational Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५२ अध्ययन २: श्लोक ३०,३१ टि० ५५-५५ थी। पुत्रवधू साज श्रृंगार में लग गई। वह बछड़े को चारा-पानी कितना अभागा हूं कि मुझे कुछ भी नहीं मिलता। दोनों स्थितियों देना भूल गई। फिर अचानक उसे बछड़े की याद आई। वह उसी में वह धैर्य रखे, सम रहे। वह यह सोचे, आज मुझे यह पदार्थ रूप में चारा देने आई। बछड़े ने उसकी ओर आंख उठाकर भी नहीं मिला है तो क्या, संभव है कल या परसों या अगले दिन नहीं देखा। वह चारा खाने में मस्त हो गया। उसी प्रकार भिक्षु तो मिल सकेगा। इस आलंबन-सूत्र का जो सहारा लेता है, उसे भी एषणायुक्त भोजन की गवेषणा में लीन रहे।' अलाभ कभी नहीं सताता। इस आलंबन-सूत्र का मूल है—धैर्य । ५५. हाथ पसारना सरल नहीं है (पाणी नो सुप्पसारए) एक युवक टालस्टाय के पास आकर बोला-महाशय! याचना के लिए दूसरों के आगे हाथ पसारना—'मझे आपकी सफलता का सूत्र क्या है? टालस्टाय ने कहा-धैर्य। दे'—यह कहना सरल नहीं है। जैसे युवक ने दो-तीन बार पूछा और उसे यही उत्तर मिला। वह धणवइसमोऽविदो अक्खराई लज्जं भयं च मोत्तणं। असमंजस से घिर गया। वह बोला—यह भी कोई सफलता का देहित्ति जाव ण भणति पडइ मुहे नो परिभवस्स। सूत्र होता है? क्या धैर्य रखने से कभी भी चलनी में पानी ठहर कुबेर के समान धनवान व्यक्ति भी जब तक लज्जा और सकता है? असंभव है। आप बात छुपा रहे हैं, सच-सच बताएं। भय को छोड़कर 'देहि' (दो) यह नहीं कहता तब तक उसका टालस्टाय ने कहा-मित्र! जीवन की सफलता का यह महान् कोई तिरस्कार नहीं करता अर्थात धनवान व्यक्ति 'मझे दो' सूत्र है। चलनी में पानी ठहर सकता है यदि धैर्य रखा जाए। ऐसा कह दूसरों के आगे हाथ पसारता है तब वह भी तिरस्कार युवक झुझला उठा। वह बाला-कस! कब तक धय रखा जाए! का भागी बन जाता है। टालस्टाय ने कहा, धैर्य तब तक रखो जब तक कि पानी जम याचना करना मृत्यु के तुल्य है। नीतिकार ने कहा है- कर बफ न बन जाए। बर्फ चलनी में ठहर सकती है। गात्रभंगः स्वरे दैन्यं, प्रस्वेदो वेपथुस्तथा। ५८. उसे अलाभ नहीं सताता (अलामो तं न तज्जए) मरणे यानि चिन्हानि, तानि चिन्हानि याचने।। व्याख्याकारों ने यहां एक लौकिक उदाहरण प्रस्तुत किया मृत्यु के समय जो लक्षण प्रकट होते हैं-शरीर के है। अवयवों का ढीला पड़ जाना, वाणी में दीनता, पसीना तथा एक बार वासुदेव, बलदेव, सत्यक और दारुकये चारों कंपन आदि वे सभी लक्षण याचना के समय भी प्रकट होते हैं। घोड़ी पर चढ़कर घूमने निकले। घोड़े तीव्रगामी थे। वे चारों एक ५६. गृहवास ही श्रेय है (सेओ अगारवासु त्ति) भयंकर अटवी में आ पहुंचे। रात का समय होने वाला था। वे चारों एक न्यग्रोध वृक्ष के नीचे विश्राम करने ठहरे। रात्री का याचना के परीषह से पराजित होकर भिक्षु ऐसा न सोचे प्रथम पहर। सभी सो गा प्रथम प्रहर। सभी सो गए। दारुक जाग रहा था। इतने में ही कि गृहवास ही श्रेयस्कर है, अच्छा है, क्योंकि वहां कुछ भी क्रोध पिशाच का रूप धारण कर वहां आया और दारुक से किसी से मांगना नहीं पड़ता, याचना नहीं करनी पड़ती। वहां बोला---'मैं भूखा हूं। ये जो सो रहे हैं, इनको खाकर अपनी अपने पुरुषार्थ से अर्जित कमाई का खाना होता है और वह भी भूख मिटाऊंगा। अन्यथा तू मेरे साथ लड़।' दारुक ने उससे दीन, अनाथ आदि को संविभाग देकर ही खाना होता है। लड़ना प्रारंभ किया। दारुक उस पिशाच पर काबू पाने में इसलिए गृहवास ही अच्छा है।' असफल रहा। उसका क्रोध बढ़ता गया। पिशाच का क्रोध भी ५७. (श्लोक ३०) वृद्धिंगत होता गया। प्रहर बीतते-बीतते दारुक निष्प्राण होकर नीचे लुढ़क गया। लाभ और अलाभ-यह एक द्वन्द्व है। मुनि को प्रत्येक दूसरे प्रहर में सत्यक उठा। पिशाच ने उसे निष्प्राण कर पदार्थ याचित मिलता है। इसलिए उसे कभी वस्तु की प्राप्ति हो दिया। तीसरे प्रहर में बलदेव की भी यही गति हुई। जाती है और कभी नहीं भी होती। अप्राप्ति में उसका मन रात्री का चौथा प्रहर। वासुदेव उठा। पिशाच ने उसे विभाजित न हो, इसलिए बत्तीसवें श्लोक में एक आलंबन सूत्र ललकारा। दोनों लडने लगे। पिशाच जैसे-जैसे लड़ता, जैसे जैसे निर्दिष्ट है। जो मुनि लाभ में हर्षित होता है, वह अलाभ में दांव-पेच खेलता, वासुदेव प्रशंसा के स्वर में कहता—'अहो! विषण्ण होगा ही। इस स्थिति से बचने के लिए वह दोनों कितने बलसंपन्न हो तुम! अपार है तुम्हारी शक्ति। ज्यों-ज्यों अवस्थाओं में सम रहे। वस्तु की प्राप्ति हो जाने पर यह न सोचे पिशाच इन प्रशंसा के शब्दों को सुनता, उसका रोष कम हो कि मैं कितना लब्धिमान् हूं कि जो चाहता हूं वह प्राप्त हो जाता जाता। चौथे प्रहर के बीतते-बीतते पिशाच शक्तिहीन हो गया। है। वस्तु की प्राप्ति न होने पर यह भी न सोचे कि ओह! मैं वासुदेव ने उसे उठाकर एक ओर डाल दिया। प्रभात हुआ। १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७४। २. वही, पृ. ७४। ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पत्र. ७४ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ११७। ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७५,७६ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ११८ । (ग) सुखबोथा, पत्र ४५। Jain Education Intemational Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह-प्रविभक्ति ५३ अध्ययन २ : श्लोक ३२ टि० ५६,६० उसने देखा कि उसके तीनों साथी हत-प्रहत हैं। पूछने पर होता है, कभी नहीं। उसका अपना स्व है-समता। उसी से वह उन्होंने कहा-पिशाच ने हमारी यह दशा की है। वासुदेव इस परीषह का पार पा सकता है। बोला—वह क्रोधरूपी पिशाच था। मैंने उसे शान्ति या क्षमा से ५९. रोग को (दक्खं) जीत लिया है। प्रस्तुत श्लोक में दुःख शब्द रोग का वाचक है।' दुःख चार जैसे क्रोध को क्षमा से जीता जा सकता है, वैसे ही अलाभ हैं-जन्म, बढ़ापा, रोग और मृत्यु।। को संतोष से जीता जा सकता है। रोग दो प्रकार के होते हैं—आन्तरिक और बाह्य । चूर्णिकार वासूदेव का पुत्र 'ढंढ' भगवान् अरिष्टनेमि के पास ने तीन प्रकार के रोगों का उल्लेख किया है।चातुर्याम विनय धर्म को स्वीकार कर प्रव्रजित हो गया। वह १. दातिक-वायु के प्रकोप से होने वाला। समृद्ध गांव-नगरों में विहरण करता, पर कहीं भी उसे भिक्षा २. पैत्तिक—पित्त के प्रकोप से होने वाला। नहीं मिलती। यदि कभी कुछ प्राप्त होता तो वह 'जं वा तं वा'। ३. श्लेष्मज---श्लेष्म के प्रकोप से होने वाला। वह जिस घर में जाता, उस घर से दूसरे मुनियों को भी भिक्षा बाह्य रोग आगन्तुक होते हैं। वे विभिन्न प्रकार के प्राप्त नहीं होती। सबके अन्तराय होता। उसने यह अभिग्रह कर कीटाणुओं से उत्पन्न होकर पीड़ित करते हैं। आन्तरिक रोग लिया कि मुझे दूसरे मुनियों का लाभ नहीं लेना है। एक बार भावनात्मक असंतुलन तथा ईर्ष्या, द्वेष, अतिराग आदि आवेगों भगवान् द्वारका नगरी में पधारे। वासुदेव ने पूछा--भंते! आपके से उत्पन्न होकर आशुघाती रोग के रूप में प्रगट होते हैं। साधु समुदाय में दुक्कर-कारक मुनि कौन हैं? भगवान् ने अन्तव्रण, अल्सर आदि रोग भावना की विकृति से होने वाले कहा-ढंढण अनगार। पुनः पूछा-कैसे भंते! भगवान् ने रोग हैं। वे भीतर ही भीतर बढ़ते हैं और फिर बाहर में प्रगट कहा—यह मुनि अलाभ परीषह को समभाव से सह रहा है। होकर व्यक्ति की लीला ही समाप्त कर डालते हैं। 'भंते! वे कहां हैं?' भगवान् बोले-जब तुम नगर में प्रवेश करोगे तब वह सामने मिल जाएगा। स्थानांग सूत्र में रोगोत्पत्ति के नौ कारण निर्दिष्ट हैं - वासुदेव ने नगर में प्रवेश करते ही देखा कि एक अनगार अति आहार, अहित भोजन, अति निद्रा, अति जागरण सामने से आ रहा है। उसका शरीर सूखकर लकड़ी जैसा हो ।' र आदि-आदि। गया है। वह केवल हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया है। परन्तु ६० उसके मुखमण्डल का शान्तरस टपक रहा है। उसका पराक्रम साध्वी गले के केन्सर से पीड़ित थीं। वह बढ़ता ही जा अस्खलित है। वह ढंढण अनगार था। वासूदेव हाथी से नीचे रहा था। पर साध्वी समता में लीन थीं। उन्हें आलंबन सत्र उतरे। वंदना की। एक सेठ ने वासुदेव को वंदना करते देखा। मिला--'आत्मान्यः पुद्गलश्चान्यः'-आत्मा अन्य है, शरीर संयोगवश ढंढण अनगार उसी सेठ के घर गए। सेट ने उसको अन्य है। इस आलंबन सूत्र की सतत भावना से उनके मोदक बहराए। उसने भगवान् के पास आकर पूछा-भंते! क्या भावों में परिवर्तन हुआ और वे केन्सर की भयंकर पीड़ा मेरा लाभान्तराय कर्म क्षीण हो गया? भगवान् बोले-नहीं। 'क्यों होते हुए भी, उसकी संवेदना से मुक्त हो गई। उनसे पूछा जाता, भगवन्! आज मुझे भिक्षा में मोदक मिले हैं। भगवान् बोले- पीड़ा कैसे है? वे कहतीं, पीड़ा शरीरगत है, आत्मगत नहीं। आज जो भिक्षा प्राप्त हुई है, उसका मूल कारण है वासुदेव शरीर मेरा नहीं है, पीड़ा भी मेरी नहीं है। आत्मा मेरी है। का वंदन करना । उसको देखकर ही सेठ के मन में भक्ति का उसमें कोई पीड़ा नहीं है। कुछ महीनों तक उस असह्य पीड़ा की भाव उमड़ा है। ढंढण अनगार ने सोचा—मैं दूसरे के लाभ स्थिति में रहकर साध्वी ने पंडित मरण का समाधिपूर्वक वरण पर जीना नहीं चाहता। अब मैं इस भिक्षा को दूसरों को दे भी किया। नहीं सकता। यह सोचकर ढंढण अनगार भावना की शुभ श्रेणी उनका सूत्र थामें आरोहण करते-करते केवली बन गए। उसी भव में वे मुक्त 'असासए सरीरम्मि, विन्नाऐ जिणसासणे। हो गए। कम्मे वेइज्जमाणम्मि, लाभो दुःखऽहियासणं।।' मुनि लाभ-अलाभ में सम रहे। कभी कुछ मिल सकता है, --शरीर अशाश्वत है। जिन शासन को जान लेने पर कभी कुछ भी नहीं। उसका अपना कुछ भी नहीं होता। सारी यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि कर्मों को समभाव से आवश्यकताएं याचना से पूरी होती हैं। अतः उसे कभी लाभ सहना—उनसे उदीरित दुःखों में सम रहना लाभप्रद होता है। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७७ : स तु रोगो वातिकः श्लेष्मजश्चेति। ४. ठाणं ६।१३। १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७७ : रोग दुक्खं वा। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ११८ : दुःखयति दुःखं, प्रस्तावाद् ज्यरादिरोगः। उत्तरज्झयणाणि १६१५ : जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य। अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जन्तवो।। Jain Education Intemational Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५४ अध्ययन २ : श्लोक ३३-३५ टि० ६१-६४ २. मथुरा का कालवेशिक राजकुमार स्थविर आचार्य के ५. मैं नीतिपूर्वक गण की सार-संभाल करूंगा। पास प्रवजित हो गया। आगमों का अध्ययन कर वह एकल-विहार श्रीमज्जयाचार्य के अनुसार स्थविरकल्पी सावध चिकित्सा प्रतिमा को स्वीकार कर मुद्गशैलपुर आया। वह बवासीर के रोग न करे और जिनकल्पी निरवद्य चिकित्सा भी न करे। से ग्रस्त था। अर्श गुदा के बाहर लटक रहे थे। अपार पीड़ा। पर . चूर्णिकार ने जिनकल्पी और स्थिविर-कल्पी का उल्लेख वह चिकित्सा को सावध मानकर उस रोग का प्रतिकार नहीं कर नहीं किया है। उन्होंने सामान्यतः बताया है कि मुनि न तो स्वयं रहा था। एक बहिन ने मुनि की अवस्था से द्रवित होकर एक चिकित्सा करे और न वैद्यों के द्वारा कराए। श्रामण्य का पालन वैद्य से पूछा। वैद्य बोला-बहिन! मैं कुछ औषधि दूंगा। तुम नीरोग अवस्था में किया जा सकता है, यह बात अवश्य ही आहार में मिलाकर मुनि को दे देना। वे स्वस्थ हो जाएंगे। बहिन महत्त्वपूर्ण है, किन्तु इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मुनि ने वैसा ही किया। उस औषधि की गंध से बवासीर का रोग नष्ट रोगी होने पर भी सावध क्रिया का सेवन नहीं करता। यही हो गया। मुनि को पता लगा कि एक बहिन ने वैद्य से पूछताछ उसका श्रामण्य है। विशेष जानकारी के लिए देखें--दसवेआलियं, कर यह आरंभ किया है। अब मेरे इस जीवन से क्या! मुझे अब ३।४ का टिप्पण। अनशन कर लेना चाहिए। उन्होंने अनशन स्वीकार कर लिया।' ६३. (श्लोक ३४) ६१. समाधिपूर्वक रहे (संचिक्ख) प्रस्तुत श्लोक में तृणस्पर्श से होने वाले परीषह का वर्णन संस्कृत में इसके दो रूप होते हैं—संतिष्ठेत और समीक्ष्य। है। जो मुनि अचेल होता है, वस्त्ररहित होता है, तपस्या के बृहवृत्ति के अनुसार 'संतिष्ठेत' का अर्थ है-समाधिपूर्वक रहे, कारण तथा रूक्ष भोजन करने के कारण जिसका शरीर बाहर से चिल्लाए नहीं। उन्होंने 'समीक्ष्य' का अर्थ इस प्रकार किया है- या भीतर से रूखा हो जाता है, उस मुनि को तृणस्पर्श अत्यन्त रोग हो जाने पर मुनि यह सोचे कि यह उसके कर्मों का ही पीड़ित करता है। शरीर की रूक्षता के कारण तृणों की तीक्ष्णता विपाक है, फल है। या पलाल आदि घास की पोलाल के कारण मुनि के शरीर पर ६२. चिकित्सा न करे न कराए (जंन कज्जा न कारव) रेखाएं खिंच जाती हैं और दर्भ से शरीर स्थान-स्थान पर फट सहज ही प्रश्न होता है क्या यह विधान समस्त साधुओं जाता है। जिसका शरीर स्निग्ध होता है, उसके लिए ये सारी के लिए है? इसके समाधान में कहा है-'चिकित्सा न करे, न बाधाएं नहीं होतीं, शरीर पर रेखाएं नहीं उभरतीं। कराए"-यह उपदेश जिन-कल्पिक मुनियों के लिए है। प्रस्तुत प्रसंग में गात्र-विराधना का अर्थ है-शरीर का स्थविर-कल्पी मुनि सावध चिकित्सा न करे, न कराए। यह फटना, शरीर का विदारित होना, शरीर पर रेखाएं उभरना। शान्त्याचार्य का अभिमत है। ६४. अतुल वेदना होती है (अउला हवइ वेयणा) उन्होंने सावध चिकित्सा को आपवादिक विधि मानकर व्याख्याकारों ने यहां एक लघु दृष्टांत प्रस्तुत किया हैउसके समर्थन में एक प्राचीन श्लोक उद्धत किया है श्रावस्ती नगरी का राजकुमार भद्र संसार से विरक्त हो प्रव्रजित 'काहं अछित्तिं अदुवा अहीहं, तवोविहाणेण य उन्नमिस्सं। हो गया। कुछ समय बीता। एक बार वह अपने आचार्य से गणं व णीतीइ वि सारविस्सं. सालंबसेवी समवेति मोक्खा आज्ञा प्राप्त कर एकल-विहार प्रतिमा को स्वीकार कर विचरण मुनि पांच कारणों से चिकित्सा का आलम्बन ले सकता करने लगा। उस समय छोटे-छोटे राज्य होते थे। एक बार वह 'वैराज्य' की सीमा में चला गया। वहां के आरक्षकों ने उसे १. मैं परम्परा को व्युच्छिन्न नहीं होने दूंगा। गुप्तचर समझकर बंदी बना डाला। उसे बुरी तरह पीटा और २. मैं ज्ञानार्जन करूंगा। शरीर पर नमक छिड़क, घास से परिवेष्टित कर, उसे छोड़ दिया। शरीर लहुलूहान था। दर्भ के तीखे नोंक उसे अत्यंत ३. मैं तपोयोग में संलग्न होऊंगा। ४. मैं उपधान तप के लिए उद्यम करूंगा। पीड़ित करने लगे। परन्तु मुनि ने अपना समताभाव नहीं छोड़ा। १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७८ | रोग थकी दुःख उपनो जाणी, वेदन दुख पीडओ पहिछाणी। २. बृहद्वृत्ति, पत्र १२० : 'समीक्ष्य' स्वकर्मफलमेवैतत् भुज्यते इति पर्यालोच्य, थिर प्रज्ञा करि अदीन मनसूं, फरस्यूं रोग सहे दुख तन ।। यद्वा संचिक्ख 'त्ति अचां सन्धिलोपो बहुलम्' इत्येकारलोपे 'संचिक्खे' औषधि न करे ए गुण अधिक, निज कृत जाणी चरण गवेक्षक। समाधिना तिष्ठेत्, न कूजनकर्करायतादि कुर्यात् । चरण पणू सावज नहीं भावे, जिनकल्पी निरवद करै न करावै।। ३. वही, पत्र १२०॥ ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७७ : यदुत्पन्नेषु तत्प्रतिकारायोद्यमो न कुरुते, ४. वही, पत्र १२० : जिनकल्पिकापेक्षया चैतत्, स्थविरकल्पापेक्षया तु 'जं तंत्रमंत्रयोगलेपादिभिः स्वयं करणं, न स्नेहविरेचनादिना स्वयं करोति, न कुज्जा' इत्यादी सावधमिति गम्यते, अयमत्र भावः-यस्मात्कारणादिभिः कारापणं तु वैद्यादिभिः, शक्यं हि नीरोगेण श्रामण्यं कर्ता, यस्तु रागवानपि सावधपरिहार एव श्रामण्यं, सावद्या च प्रायश्चिकित्सा, ततस्तां नाभिनन्दे । न सावधक्रियामारतभ तं प्रतीत्योच्यते-एयं खु तस्स सामन्नं। ५. वही, पत्र १२०। ८. वही, पृ. ७८, ७६। ६. उत्तराध्ययन की जोड़ २३२-३३ : ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७६ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १२२। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह-प्रविभक्ति ५५ अध्ययन २ : श्लोक ३६-३६ टि० ६५-७० ६५. वस्त्र का (तंतुजं) 'सात का आश्रय लेकर' किया है। अतः इसमें चतुर्थी विभक्ति व्याख्या ग्रंथों में इसका अर्थ तंतुओं से बना हआ वस्त्र या का अर्थ निहित है। कंबल किया है।' उन्होंने इसी अर्थ में पाठान्तर के रूप में ६९. (श्लोक ३८) 'तंतयं' (सं. तन्त्रज) पाठ दिया है। प्रस्तुत श्लोक 'सत्कार-पुरस्कार' से संबंधित है। चूर्णिकार चूर्णि और वृत्ति—दोनों में इसे जिनकल्पिक मुनियों की ने इस श्लोक की व्याख्या में इसका अर्थ इस प्रकार किया हैअपेक्षा से माना है। सत्कार का अर्थ है-अच्छा करना तथा सत्कार को ही पुरः६६. मैल, रज (पंकेण वा रएण वा) आगे रखना सत्कार-पुरस्कार है। पसीने के कारण शरीर पर जमा हुआ गीला मेल 'पंक' बृहद्वृत्तिकार ने इसी अध्ययन के तीसरे सूत्र में उल्लिखित कहलाता है और वही जब सूख कर गाढ़ा हो जाता है तब उसे 'सत्कार-पुरस्कार परीषह, की व्याख्या में कहा है-अतिथि की 'रज' कहते हैं। वस्त्रदान आदि से पूजा करना सत्कार का अभ्युत्थान करना, शरीर पर लगे हुए धूलीकण 'रज' कहलाते हैं।' आसन देना आदि को पुरस्कार माना है। इसका वैकल्पिक अर्थ 'पंक' और 'रज' को एक शब्द में 'जल्ल' भी कहा गया है—अभ्युत्थान, अभिवादन आदि सारी क्रियाएं सत्कार हैं और है। इनके द्वारा किसी की अगवानी करना पुरस्कार है।" राजवार्तिक ६७. परिताप से (परितावेण) में सत्कार का अर्थ-पूजा, प्रशंसा और पुरस्कार का अर्थजो चारों ओर से परितप्त करता है, वह है परिताप । जब किसी भी प्रवृत्ति के प्रारंभ में व्यक्ति को आगे रखना, मुखिया शरीर परितप्त होता है, तब पसीना आता है और सारा शरीर बनाना अथवा आमंत्रित करना किया है। उससे लथपथ हो जाता है। मेल और रज शरीर पर जमते हैं. ७०. (अणुक्कसाई अप्पिच्छे अन्नाएसी) पसीने के कारण वे कठोर बन जाते हैं और तब खिंचाव होता अणुक्कसाई-चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'अल्प कषाय है, शरीर में पीड़ा होने लगती है। वाला' किया है। शान्त्याचार्य ने इसका मुख्य अर्थ 'अनुत्कशायी६८. सुख के लिए विलाप न करे (सायं नो परिदेवए) सत्कार आदि के लिए उत्कण्ठित न रहने वाला' किया है और मुनि आतप के कारण शरीर पर जमने वाले मेल से वैकल्पिक अर्थ-'अणु-कषायी-सत्कार आदि न करने वालों पीड़ित होकर ऐसा विलाप न करे कि मेल से लथपथ मेरे शरीर पर क्राथ नहा करने वाला' तथा 'सत्कार हान पर आभमान में कब सुख का अनुभव होगा? अच्छा होता कि मैं आज किसी नहा करन वा नहीं करने वाला' किया है। नेमिचन्द्र भी इसी का अनुसरण नदी या जलाशय के किनारे होता, किसी पर्वत शिखर पर रहता करते हैं।" या चन्दन, खसखस आदि वृक्षों के पास रहता और शीतल वायु १५।१६ की टीका में शान्त्याचार्य ने इसके दो संस्कृत रूप का सेवन करता। दिए हैं। वहां 'अनुत्कशायी' के स्थान पर 'अनुत्कषायी' माना यहां 'सायं' में द्वितीया विभक्ति है। चूर्णिकार ने इसका है। (१) अणुकषायी-अल्प कषाय वाला। (२) अनुत्कषायीअर्थ 'साता को न बुलाए' किया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ जिसके कषाय प्रबल न हों। ६ १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७६ : तंदुभ्यो जातं तन्तुजं तनुवस्त्रं १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८१ : करणं कारः, शोभनकारः सक्कारः, कंबलो वा। सक्कारमेव पुरस्करोति सक्कारपुरस्कारपरीसहे भवति। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १२२ । ११. बृहवृत्ति, पत्र ८३ : सत्कारो-वस्त्रादिभिः पूजनं, पुरस्कारः२. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७६ : तन्यते इति तन्त्र-वेमविलेखनंछनिकादि अभ्युत्थानासनादिसम्पादनं, यद् वा सकलैवाभ्युत्थानावादनदानादिरूपा तत्र जातं तंत्रज, तनुवस्त्रं कंवलो वा। प्रतिपत्तिरिह सत्कारस्तेन पुरस्करणं सत्कारपुरस्कारः। (ख) बृहदृत्ति, पत्र १२२। १२. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ६६, पृ. ६१२ : सत्कारः पूजाप्रशंसात्मकः । पुरस्कारो ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७६ : जिणकप्पिया जे अचेला। नाम क्रियारम्भादिष्वग्रतः करणमामन्त्रणं वा। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १२२ : जिनकल्पिकापेक्षं चैतत् । १३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८१ : 'अणुक्कसायो' अणुशब्द स्तोकार्थः, अतो ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७६-८० : पंको नाम स्वेदाबद्धो मलः, रजस्तु नेत्यनु, कषयंतीति कषायाः क्रोधाद्याः। कमठीभूतो जल्लो शुष्कमात्रस्तु रजः। १४. बृहद्वृत्ति, पत्र १२४ : उत्कण्ठितः सत्कारादिषु शेत इत्येवं शील ५. बृहद्वृत्ति, पत्र १२३ : पांशुना वा। उत्कशायी न तथा अनुत्कशायी, यद्वा प्राकृतत्वादणुकषायी 'सर्वधनादित्वादि' ६. वही, पत्र १२३ : जल्लं कठिनतापन्नं मलम्, उपलक्षणत्वात् पंकरजसी नि, कोऽर्थः?--न सत्कारादिकमकुर्वते कुप्यति, तत्सम्पत्ती वा नाहकारवान् च। भवति। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८०: परिदेवनं नाम सातमाह्वति, जहा जलाश्रयाः १५. सुखबोधा, पत्र ४६। होन्ति नगो वेति, तहा चन्दनोसीरोरक्षीपवायवः, एवं परिदेवति। १६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४२० : अणवः-स्वल्पाः सज्वलभनामान इति यावत् ८. वही, पृ. ८०॥ कषायाः-क्रोधादयो यस्येति 'सर्वधनादित्वादि' नि प्रत्ययेऽणुकषायी, बृहद्वृत्ति, पत्र १२३ : सातं सुखम्, आश्रित्येति शेषः, नो परिदेवेत् न प्राकृतत्वात्सूत्रे ककारस्य द्वित्वं, यद्वा उत्कषायी-प्रबलकषायी न प्रलपेत्-कथं कदा वा ममैवं मलदिग्धदेहस्य सुखानुभवः स्यात्? तथाऽनुत्कषायी। Jain Education Intemational Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५६ अध्ययन २ : श्लोक ४०-४१ टि० ७१-७३ ___ अप्पिच्छे-अल्पेच्छ-अल्प इच्छा वाला। जो मुनि शान्त्याचार्य ने भी प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या प्रज्ञा के उत्कर्ष धर्मोपकरण के अतिरिक्त कुछ भी पाने की अभिलाषा नहीं और अपकर्ष----दोनों दृष्टियों से की है। नेमिचन्द्र ने प्रज्ञा के करता, सत्कार-पूजा आदि की वांछा नहीं करता, वह 'अल्पेच्छ' अपकर्ष की दृष्टि से इसकी व्याख्या की है। उन्होंने मूल सूत्र का कहलाता है। शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ किए हैं—(१) थोड़ी ही अनुसरण किया है। कथा के प्रसंग में उन्होंने प्रज्ञामद का इच्छा वाला (२) इच्छा रहित-निरीह। उल्लेख भी किया है।" अन्नाएसी-जो अज्ञात रहकर---तप, जाति आदि का ज्ञानावरण कर्म के उपार्जन के पांच हेतु हैं"परिचय दिए बिना आहार की एषणा करता है, उसे 'अज्ञातैषी' १. ज्ञान और ज्ञानवान् की निन्दा करना। कहा जाता है। अपरिचित कुलों से एषणा करने वाला भी २. ज्ञान और ज्ञानवान् पर प्रद्वेष रखना। 'अज्ञातैषी' कहलाता है। मनुस्मृति में भी भोजन के लिए ३. ज्ञान और ज्ञानवान् के प्रति मत्सरभाव रखना। कुल-गोत्र का परिचय देने वाले ब्राह्मण को 'वान्ताशी' कहा है।" ४. ज्ञान और ज्ञानवान् का उपधात करना। ७१. प्रज्ञावान् मुनि....अनुताप न करे (नाणुतप्पेज्ज पण्णव) ५. ज्ञान और ज्ञानवान् के मार्ग में विघ्न उत्पन्न करना। मुनि अन्यतीर्थिकों को राजा, अमात्य आदि विशिष्ट जनों जब ज्ञानावरण कर्म का विपाक होता है तब ज्ञान आवृत से सत्कारित होते देखकर अपने मन में यह अनुताप न करे- हो जाता है। ऐसी स्थिति में जब कोई कुछ पूछता है तब व्यक्ति अरे! मैं भी इनमें प्रव्रजित क्यों न हो गया? मैं श्रमण बना। उसका उत्तर न दे पाने के कारण मन ही मन अपने को हीन श्रमण तो कुछेक लोगों के द्वारा पूजनीय और वन्दनीय हैं। दूसरे मानने लग जाता है। यह प्रज्ञा के अभाव के कारण उत्पन्न तीर्थिक इनको पराभूत भी कर देते हैं। मैंने क्यों श्वेत वस्त्र परीषह है। धारण किए। सूत्रकार ने इस परीषह को समभावपूर्वक सहने के कुछ मुनि कभी भी ऐसा न सोचे। जो ऐसा नहीं सोचता वही सूत्र निर्दिष्ट किए हैंप्रज्ञावान् होता है। १. मैंने स्वयं इस अज्ञान का हेतुभूत ज्ञानावरण कर्म का ७२. (श्लोक ४०) उपार्जन किया है। प्रज्ञा होने पर उसका मद करना प्रज्ञा परीषह है। इसी २. ये कर्म तत्काल ही उदय में नहीं आए। अबाधाकाल प्रकार प्रज्ञा न होने पर हीनता की अनुभूति करना भी प्रज्ञा बीत जाने पर, उपयुक्त निमित्तों का संयोग मिलने पर, परीषह है। पहले में प्रज्ञा के उत्कर्ष का भाव है और दूसरे में इनका विपाक हुआ है। अब मेरे लिए यही श्रेयस्कर प्रज्ञा के अपकर्ष का भाव है। है कि मैं इनके विघात के लिए प्रयत्न करूं, न कि मूल सूत्र में अप्रज्ञान से उत्पन्न हीनभाव को सहन करने विषादग्रस्त होकर अपने आपको दुःखी बनाऊं। का वर्णन है। प्रज्ञा-मद सूत्र से फलित नहीं है। चूर्णिकार ने ३. सहज ही आज इन कमों का विपाक हो रहा है तो मैं प्रज्ञामद का वर्णन किया है। उसकी तुलना राजवार्तिक के वर्णन इन्हें सहन करूं। से की जा सकती है। राजवार्तिक में केवल प्रज्ञा-मद का ही ७३. पश्चात् उदय में आते हैं (पच्छा उइज्जन्ति) वर्णन मिलता है। वहां प्रज्ञा के अपकर्ष से होने वाले हीनभाव कर्म-बन्ध की प्रक्रिया के अनुसार कर्मों का बन्ध होते ही का वर्णन नहीं है। चूर्णि में उसका उल्लेख भी मिलता है। वे उदय में नहीं आ जाते। प्रत्येक कर्मबन्ध का अबाधाकाल १. सुखबोधा, पत्र ४६ : 'अल्पेच्छः' धर्मोपकरणप्राप्तिमात्राभिलाषी न सत्काराद्याकांक्षी। २. बृहद्वृत्ति, पत्र १२५ । (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८१ : 'अज्ञातैषी' न ज्ञापयत्यहमेवंभूतः पूर्वमासीत्, न वा क्षपको बहुश्रुतो वेति। (ख) वही, पृ. २३५ : अज्ञातमज्ञातेन एषते-भिक्षते असौ अज्ञातैषी, निश्रादिरहित इत्यर्थः। (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ : अज्ञातः-तपस्वितादिभिर्गुणैरनवगतः एष्यते-ग्रासादिकं गवेषयत्तीत्येवंशीलः। ४. मनुस्मृति, ३।१०६ : न भोजनार्थ स्वे विप्रः कुलगोत्रे निवेदयेत्। भोजनार्थ हि ते शंसन्वान्ताशीत्युच्यते बुधैः ।। सुखबोधा, पत्र ४६ : तीर्थान्तरीयान् नृपत्यादिभिसत्क्रियमाणानवेक्ष्य किमहमेषां मध्ये न प्रव्रजितः? कि मया कतिपयजनपूज्या इतरजनस्यापि परिभवनीयाः श्वेतभिक्षयो गीकृताः? इति न पश्चात्तापं विधत्ते। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८२ : प्रज्ञायते अनयेति प्रज्ञा, प्रगता ज्ञा प्रज्ञा, प्रज्ञापरीसहो नाम सो हि साति प्रज्ञाने तेण गवितो भवति तस्य प्रज्ञापरिषहः। ७. तत्त्वार्थ राजवार्तिक पृ. ६१२ : अंगपूर्वप्रकीर्णकविशारदस्थ कृत्स्न ग्रन्थावधारिणः अनुत्तरवादिनस्त्रिकालविषयार्थविदः शब्दन्यायाध्यात्मनिपुणस्य मम पुरस्तादितरे भास्करप्रभाभिभूतोद्योतखद्योतवित् नितरामवभासन्ते इति विज्ञानमदः......| ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८२। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र १२६, १२७। १०. सुखबोथा पत्र ५०॥ ११. बृहद्वृत्ति, पत्र १२६ : ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैव, निन्दाप्रद्वेषमत्सरैः। उपघातैश्च विघ्नैश्च, ज्ञानघ्नं कर्म बध्यते।। Jain Education Intemational Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह-प्रविभक्ति ५७ अध्ययन २ : श्लोक ४२-४३ टि० ७४-७७ होता यह वह काल है जिसमें कर्म सुषुप्त रहते हैं, फल नहीं विरति, अदत्तादान विरति, मैथुन विरति और अपरिग्रह विरति। देते। जब वह काल पूर्ण होता है तब वे उदय में आते हैं, चाहे प्रस्तुत श्लोक में मैथुन विरति का ही उल्लेख है। सभी उनका विपाकोदय हो या प्रदेशोदय हो। यहां ‘पच्छा' (सं. विरतियों में मैथुन विरति सबसे कठिन है, बड़ी है, इसलिए पश्चात्) शब्द से अबाधाकाल गृहीत है।' - इसका मुख्य रूप से उल्लेख हुआ है। उइज्जन्ति यहां भविष्यत् काल का व्यत्यय मानकर बृहद्वृत्तिकार मानते हैं कि पुरुष में अब्रह्म के प्रति अति बृहद्वृत्तिकार ने इसका रूप 'उदेष्यन्ति' दिया है। हमने 'उदीर्यन्ते' आसक्ति होती है और उसके लिए इसका त्याग अत्यन्त कठिन के आधार पर अर्थ किया है। होता है, इसलिए इसका यहां ग्रहण किया गया है।' ७४. प्रज्ञा परीषह आचार्य नेमिचन्द्र ने इन्हीं कारणों का निर्देश देते हुए एक सुवर्णभूमि में आर्य सागर अपनी शिष्य मंडली के साथ सुन्दर गाथा प्रस्तुत की हैसुखपूर्वक रह रहे थे। उनके दादागुरु आचार्य कालक उज्जैनी में 'अक्खाणऽसणी कम्माण मोहणी तह वयाण बंभं च। थे। एक बार उन्होंने सोचा, ओह! मेरे सारे शिष्य मंद श्रद्धा वाले गुत्तीण य मणगुत्ती, चउरो दुक्खेण जिप्पति।। हो गए हैं। वे न सूत्र पढ़ते हैं और न अर्थ का अनुचिन्तन चार पर विजय पाना अत्यन्त कठिन होता हैकरते हैं। वे सभी साध्वाचार में भी शिथिल हो रहे हैं। मैं मृदुता १. इन्द्रियों में जिहा इन्द्रिय पर। से उनको इस ओर खींचता हूं, पर वे मेरी इस प्रेरणा को २. कर्मों में मोहनीय व्रत पर। सम्यक् नहीं लेते। उनकी बार-बार सारणा-वारणा से मेरे सूत्रार्थ ३. व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत पर। की हानि होती है और कभी-कभी रोषवश कर्मबन्ध भी होता है। ४. गुप्तियों में मनोगुप्ति पर। न कर वे रातोरात वहां से अकेले ही सुवर्णभूमी की ७६. (जो सक्खं....धम्म कल्लाण पावगं) ओर चल पड़े। आर्य सागर ने उन्हें नहीं पहचाना। वे उनके अज्ञान से आवृत साधक सोचता है कि मैं साक्षात् या गण में सम्मिलित हो गए। आर्य सागर अनुयोग की वाचना देने स्पष्ट रूप से नहीं जानता कि धर्म कल्याणकारी है या पापकारी? लगे। उन्होंने उस वृद्ध मुनि से पूछा---'कुछ ज्ञात हो रहा है?' चूर्णिकार ने इन दो पदों के तीन अर्थ किए हैं। साधक उसने कहा हां। आर्य सागर का मन प्रफुल्ल हो गया। प्रज्ञा का सोचता है-मैं साक्षात् नहीं जानता की अहं जाग उठा। कुछ दिन बीते। १. कल्याणकारी धर्म कौन सा है और पापकारी धर्म कौन उज्जैनी से आर्य कालक के सभी शिष्य उनकी टोह में सा है? निकले। वे सुवर्णभूमी में आए। आर्य सागर से पूछा-क्या यहां २. कौन से कर्म कल्याणकारी हैं और कौन से कर्म आर्य कालक आए थे? उन्होंने कहा-एक वृद्ध अवश्य आया पापकारी? था। मैं आर्य कालक को नहीं पहचानता। वे शिष्य आर्य कालक ३. ऐसे कौन से कर्म हैं, जिनका फल कल्याणकारी होता को पहचान गए। आर्य सागर ने अपने दादागुरु के प्रति हुई है और ऐसे कौन से कर्म हैं, जिनका फल पापकारी होता है? आशातना के लिए क्षमा याचना की और पूछा-क्षमाश्रमण! मेरी बृहद्वृत्ति में दो विकल्प प्रस्तुत हैं- . व्याख्या पद्धति कैसी है? आर्या कालक बोले व्याख्या शैली १. शुभ धर्म कौन सा है और अशुभ धर्म कौन सा है? सुन्दर है, पर कभी गर्व मत करना। एक-एक से बड़े ज्ञानी २. मुक्ति का हेतुभूत धर्म कौन सा है और नरक आदि संसार में हैं। 'मैं ही ज्ञानी हूं' ऐसा मानना मूर्खता का द्योतक का हेतुभूत धर्म कौन सा है? है। ज्ञान के क्षयोपशम का तरतम होता है, इसे मत भूलना। प्रस्तुत चरण में प्रयुक्त 'सक्खं' का अर्थ है-साक्षात्। आर्य सागर समझ गए। उन्होंने सोचा, अरे! मैंने ज्ञान यही शब्द १२ ॥३७ में इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। चूर्णिकार ने का गर्व कर बहुत कुछ खो डाला। प्रज्ञा का गर्व नहीं करना, यह 'समक्खं' पाठ मानकर उसका अर्थ साक्षात् किया है। है प्रज्ञा के परीषह को सहना। ७७. तपस्या और उपधान को (तवोवहाण.....) ७५. निवृत्त हुआ (विरओ) विरति के पांच प्रकार हैं-प्राणातिपात विरति, मृषावाद तप और उपधान--ये दो शब्द हैं। तप का अर्थ है-भद्र, १. बृहद्वृत्ति, पत्र १२६ : यदि पूर्व कृतानि कर्माणि किं न तदैव वेदितानि? उच्यते....पश्चाद्-अबाधोत्तरकालं, उदीर्यन्ते-विपच्यन्ते कर्माण्यज्ञान- फलानि कृतानि अलर्कमूषिकविषविकारवद् तथाविधद्रव्यसाचिव्यादेव तेषां विपाकदानात्। २. वही, पत्र १२७। ३. सुखबोध, पत्र ५१। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८४। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र १२८ । ६. सुखबोधा, पत्र ५१। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८४ । ८. बृहवृत्ति, पत्र १२८ । ६. वही, पत्र १२८ : सक्खं साक्षात् । १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८४ : समक्खं णाम सहसाक्षिभ्या साक्षात् समक्ष तो साक्षात्। Jain Education Intemational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि महाभद्र आदि तपोनुष्ठान । उपधान शब्द जैन परम्परा का पारिभाषिक शब्द है । प्रत्येक आगम का अध्ययन प्रारंभ करने से पूर्व साधक को कुछ निश्चित तपस्याएं करनी होती हैं। वे तपस्याएं उपधान कहलाती हैं। इसमें आचाम्ल तप की प्रधानता रहती है ।' आगमों के अध्ययन काल में आचाम्ल (आयंबिल) आदि तपस्या करने की परम्परा रही है। प्रत्येक आगम के लिए तपस्या के दिन निश्चित किए हुए हैं। विशेष जानकारी के लिए देखेंआचार दिनकर विभाग १; योगोद्वहनविधि, पत्र ८६ - ११० । प्रस्तुत आगम के ११1१४ में उपधान करने वाले के लिए “उवहाणवं” ( उपधानवान् ) का प्रयोग मिलता है। ७८. प्रतिमा को (पडिमं) वृत्तिकार ने अज्ञान के भावपक्ष और अभावपक्ष के आधार पर इनकी व्याख्या प्रस्तुत की है । " राजवार्तिक में अज्ञान परीषह के दो अर्थ किए गए हैं । पहला अर्थ है - तू अज्ञानी है, इत्यादि आपेक्षात्मक वचनों को सुनना। दूसरा अर्थ है - प्रस्तुत श्लोकवर्ती निरूपण । वृत्तिकार ने अज्ञान के सद्भाव को समझाने के लिए यह उदाहरण प्रस्तुत किया है दो भाई एक साथ प्रव्रजित हुए। एक बहुश्रुत था और प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग है। चूर्णि और बृहद्वृत्ति में दूसरा अल्पश्रुत। बहुश्रुत मुनि के पास अपने शिष्य प्रव्रजित हुए इसका अर्थ मासिकी आदि भिक्षु प्रतिमा किया है। और वह उन्हें अध्यापन कराने लगा। सभी शिष्य अध्यापन से संतुष्ट थे । अध्ययन-काल में उनमें जिज्ञासाएं उभरतीं और वे उनका समाधान बहुश्रुत मुनि के पास पा लेते। दिन भर मुनि को विश्राम नहीं मिलता। रात का समय भी शिष्यों को पढ़ाने और प्रश्नों का समाधान देने में बीत जाता । नींद लेने का समय भी कम रहता। किन्तु यह सांकेतिक है। प्रस्तुत प्रतिमा शब्द स्थान- मुद्रा का सूचक है। बैठी या खड़ी प्रतिमा की तरह स्थिरता से बैठने या खड़े रहने को प्रतिमा कहा गया है। प्रतिमाओं में उपवास आदि की अपेक्षा कायोत्सर्ग व आसनों की प्रधानता होती है। इसलिए उनका नाम उपवास प्रधान न होकर कायोत्सर्ग प्रधान है। वे बारह हैं। विशेष जानकारी के लिए देखें --- दशाश्रुतस्कन्ध, दशा ७ । ७९. छद्म (छउमं) जो आच्छादित करता है, वह छद्म है। आत्मगुणों को आच्छादित करने वाले चार कर्म हैं ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, मोहनीय कर्म और अन्तराय कर्म । इनकी विद्यमानता में छद्मस्थता बनी रहती है। ५८ अध्ययन २ : श्लोक ४३, टि० ७८-८० प्रज्ञा परीषह है। अज्ञान परीषह का सम्बन्ध अवधिज्ञान आदि अतीन्द्रिय ज्ञान से है। चूर्णिकार ने इन श्लोकों की व्याख्या ज्ञान परीषह इन दोनों अपेक्षाओं से की है। प्रस्तुत श्लोक के प्रसंग में यहां केवल ज्ञानवरणीय कर्म गृहीत हैं।* ८०. (श्लोक ४२ - ४३ ) सत्य का साक्षात्कार न होने के कारण हीन भावना से ग्रस्त होना अज्ञान परीषह है। प्रज्ञा परीषह और अज्ञान परीषह में क्या अन्तर है - यह प्रश्न सहज ही उभरता है। राजवार्तिक में इसका समाधान इस प्रकार मिलता है- प्रज्ञा परीषह का सम्बन्ध श्रुतज्ञान से है। सामान्य विषय की जानकारी न होना 9. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १२८ : तपो - भद्रमहाभद्रादि, उपधानम् - आगमोपचाररूपमाचाम्लादि । - (ख) वही, ३४७: उपधानम् – अङ्गानङ्गाध्ययनादी यथायोगमाचाम्लादि तपो विशेषः । २. मूलाराधना दर्पण, ८ २०७१ पाडिमा कायोत्सर्गः । ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८५ पडिमा नाम मासिकादिता । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १२८ । बृहद्वृत्ति, पत्र १२८ छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणादिकर्म । ४. ५. तत्त्वार्थ, राजवार्तिक ६।१७, पृ. ६१५ प्रज्ञाऽज्ञाने अपि विरुद्धे तयोरन्तराभावे ऽष्टादशसंख्याप्रसंग इति, तन्न, किं कारणम् ? अपेक्षातो अल्पश्रुत मुनि सुखपूर्वक रहता और खूब नींद लेता । न कोई दूसरा मुनि उसके पास जाता और न कुछ पूछता। एक बार बहुश्रुत मुनि ने सोचा — ओह! धन्य है यह साथी मुनि जो नींद तो सुख से लेता है। मैं मंदभाग्य हूं कि मुझे सोने में भी अड़चनें आती हैं। इसका मुख्य कारण है मेरा ज्ञानी होना । ज्ञान की ऐसी उपासना से क्या लेना-देना । इस चिन्तन से उसके ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध हुआ। उसने इस असद् चिन्तन का प्रायश्चित्त नहीं किया। वहां से मरकर वह देव बना। वहां का आयुष्य पूरा कर वह आभीर कुल में जन्मा । युवा होने पर किसी एक निमित्त को पाकर वह विरक्त हुआ और एक आचार्य के पास दीक्षित हो गया। गुरु ने उसे उत्तराध्ययन के प्रथम तीन अध्ययन सिखाए। जब उसे चौथे अध्ययन 'असंखयं' की वाचना दी गई, उस समय उसका पूर्व बन्धा हुआ ज्ञानावरण कर्म विपाक में आया। उसने बेला किया, आचाम्ल प्रारंभ किए, पर उस ६. ७. ८. विरुद्धाभावात् । श्रुतज्ञानापेक्षया प्रज्ञाप्रकर्षे सति अवध्याद्यभावापेक्षया अज्ञानोपपत्तेः । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ८४। बृहद्वृत्ति पत्र १२८ । तत्त्वार्थ राजवार्तिक, पृ. ६१२ अज्ञोऽयं न किञ्चिदपि वेति पशुसम इत्येवमाद्याधिक्षेपवचनं सहमानस्याऽध्ययनार्थग्रहणपराभिभवादिष्वसक्तबुद्धेश्चिरप्रव्रजितस्य विविधतपो विशेषभाराक्रान्तमूर्तेः सकलासामर्थ्यप्रमत्तस्य विनिवृत्तनिष्टमनोवाक्कायचेष्टस्याद्यपि मे ज्ञानातिशयो नोत्पद्यत इत्यनभिसन्दधतः अज्ञानपरीषहजयो ऽवगन्तव्यः । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह-प्रविभक्ति ५९ अध्ययन २: श्लोक ४४,४५ टि० ८१,८२ अध्ययन का एक भी श्लोक नहीं सीख पाया। वह आचार्य के पादरजसा प्रशमनं सर्वरुजां साधवः क्षणात्कुयुः। पास गया। आचार्य ने कहा-----जब तक यह अध्ययन न सीख त्रिभुवनविस्मयजननान् दधुः कामांस्तृणाग्राद्वा।। लो, तब तक आचाम्ल तप करते रहो। इसे शिरोधार्य कर वह धर्माद्रत्नोन्मिश्रितकाञ्चनवर्षादिसर्गसामर्थ्यम् । आयंबिल तप करने लगा। बारह वर्ष तक यह क्रम चला। इस अद्भुतभीमोरुशिलासहस्र सम्पातशक्तिश्च।। अवधि में उसने केवल 'असंखयं-यह अध्ययन मात्र सीखा। ८२. (श्लोक ४४-४५) ज्ञानावरण कर्म क्षीण हुआ और फिर उसने शीघ्र ही अन्यान्य प्रस्तुत दो श्लोक दर्शन परीषह से संबंधित हैं। प्रत्येक आगम सीख लिए। साधक किसी न किसी विचारधारा को आत्मसात् कर साधना में अज्ञान के अभावपक्ष की दृष्टि से वृत्तिकार ने लिखा है कि प्रवृत्त होता है। उस दार्शनिक धारा के प्रति उसका विश्वास साधक निरन्तर यह सोचे, यद्यपि मैं समस्त शास्त्रों का पारायण अखण्ड होना चाहिए। अन्यथा वह पार नहीं पहुंच सकता, बीच कर सभी तथ्यों को कसौटी पर कस चुका हूं, किन्तु मुझे ज्ञान में ही भटक जाता है। का गर्व नहीं करना है। क्योंकि जैन दर्शन की कुछेक मुख्य प्रतिपत्तियां ये हैं'पूर्वपुरुषसिंहानां विज्ञानातिशयसागरानन्त्यम् । (१) परलोक-जन्मान्तर है। श्रुत्वा साम्प्रतपुरुषाः, कथं स्वबुद्ध्या मदं यान्ति।' (२) तपस्या का मुख्य फल है—कमों की क्षीणता और -मेरे से पूर्व अनेक बहुश्रुत मुनि हो चुके हैं। उनका अवान्तर फल है--अनेक ऋद्धियों की उपलब्धि । विज्ञान सागर की भांति अथाह था। उनके समक्ष मैं बिन्दुमात्र हूं। (३) केवली हुए हैं और होंगे। मैं किस आधार पर अहं करूं? प्रस्तुत दो श्लोकों में तीन प्रतिपत्तियों का उल्लेख हुआ है। वृत्तिकार ने एक कथानक भी प्रस्तुत किया है जिस साधक में इनके प्रति अविश्वास होने लगता है, वह अपनी आचार्य स्थूलभद्र ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए एक नगर साधना को आगे नहीं बढ़ा सकता। में आए। वे बहुश्रुत और अनेक विद्याओं के पारगामी थे। उस नक विद्याआ क पारगामी थे। उस जब उसका मन संशय से भर जाता है कि परलोक को नगर में उनका एक पूर्व परिचित मित्र रहता था। वे उसके घर किसने देखा है? उसका अस्तित्व कैसे जाना जाए? तब उसे गए और गृहपत्नी से पूछा-अमुक व्यक्ति कहां है? उसने सारी क्रियाएं निरर्थक, कष्ट सहन व्यर्थ लगने लगता है। वह कहा—'महाराज! वे व्यापार के लिए परदेश गए हैं।' आचार्य ने अपनी कठोर चर्या से फिसल जाता है। इधर-उधर देखा। उन्हें लगा कि जो घर पहले वैभव से परिपूर्ण साधक तपस्या करता है और जानता है कि उसे ऋद्धियां और साफ-सुथरा था, वह आज खंडहर जैसा हो रहा है। योगज विशेषता प्राप्त होंगी, पर जब ऋद्धि-प्राप्ति में विलम्ब होता उन्होंने अपने ज्ञानबल से जान लिया कि इस व्यक्ति के पूर्वजों है, तब वह तपस्या से मुंह मोड़ लेता है। उसकी धृति डोल जाती ने घर के अमुक खंभे के नीचे धन गाड़ रखा था। वह आज भी है। ज्यों का त्यों पड़ा है। उनका मन पसीज गया। उन्होंने गृहपत्नी दो तपस्वी तपस्या कर रहे थे। नारदजी उधर से निकले। को खंभे की ओर अंगुली करते हुए सांकेतिक भाषा में कुछ एक ने पूछा-ऋषिवर! कहां जा रहे हैं? नारद ने कहाकहा। उसने समझा कि महाराज मुझे अनित्यता का उपदेश दे भगवान के पास। तपस्वी ने कहा-मेरा एक काम करें। रहे हैं। आचार्य वहां से चले गए। कुछ समय पश्चात् गृहपति भगवान से पूछे कि मेरी मुक्ति कब होगी? नारद आगे बढ़े। घर आया। उसकी पत्नी ने आचार्य के आगमन की बात के साथ दसरे तपस्वी ने भी यह बात कही। नारदजी लौटते समय उसी ही साथ सांकेतिक भाषा में जो कहा, वह सुनाया। गृहपति ने रास्ते से गजरे और पहले तपस्वी से कहा-भगवान् ने कहा ह सारा संदर्भ जान लिया। खंभे के नीचे से उत्खनन किया, अपार कि तम्हारी मक्ति तीन जन्मों के बाद हो जाएगी। तपस्वी ने यह धन मिला। सुना। मन में उथल-पुथल हुई। सोचा, अरे क्या? मैं साठ हजार ८१. ऋद्धि (इड्ढी ) वर्षों से तप तप रहा हूं, फिर भी मुझे तीन जन्म और लेने यहां ऋद्धि का अर्थ है-तपस्या आदि से उत्पन्न होने पड़ेंगे? यह कैसा न्याय? उसने उसी समय तपस्या को तिलांजलि वाली विशेष शक्ति-योगज विभूति।' पातंजलयोग दर्शन के देकर गांव की ओर प्रस्थान कर दिया। विभूति-पाद में जैसे योगज विभूतियों का वर्णन है वैसे ही नारदजी दूसरे तपस्वी के पास पहुंचे और बोले जैन-आगमों में तपोजनित ऋद्धियों का वर्णन मिलता है।' ऋषिवर! भगवान् ने कहा है कि तुम्हारी मुक्ति होगी अवश्य शान्त्याचार्य ने इस प्रसंग पर दो श्लोक उद्धृत किए हैं.--- ही, किन्तु जिस वृक्ष के नीचे तुम तपस्या कर रहे हो, उस वृक्ष १. बृहद्वृत्ति, पत्र १२६-१३०। २. वही, पत्र १२६ । ३. वही, पत्र १३०-१३१। ४. वही, पत्र १३१ : 'ऋद्धिर्वा, तपोमाहात्म्यरूपा....सा च आमशीपध्यादिः । ५. ओववाइय, सूत्र १५ । ६. बृहवृत्ति, पत्र १३१। Jain Education Intemational Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन २ : श्लोक ४५ टि० ८२ के जितने पत्ते हैं, उतने वर्ष और लगेंगे। तपस्वी ने सुना। के लिए छह बालकों की विकुर्वणा की। आचार्य के समक्ष पहला उसका मन हर्ष से भर गया। वह नाचते हुए गुनगुनाने लगा- बच्चा आया। उसका नाम था--पृथ्वीकाय । आचार्य ने सोचा, मैं 'मेरी मुक्ति हो जाएगी। मेरी मुक्ति हो जाएगी। इसके सारे गहने ले लूं। जीवन सुखपूर्वक बीतेगा। आचार्य ने यह है धृति और अधृति का खेल । साधना में धृति रखनी बच्चे को कहा—गहने उतार कर दो। बच्चा बोला-भंते! इस होती है। भीषण अटवी में मैं आपकी शरण में आया हूं। आप ही मुझे जब साधक में वीतराग या आप्त पुरुष के अस्तित्व के लूटते हैं। यह कैसा न्याय? मेरी बात सुनें, फिर जैसा चाहें वैसा प्रति सन्देह हो जाता है तब वह उसके वचनों के प्रति भी करें। सन्देहशील बन जाता है। 'जिन' सदा सबके प्रत्यक्ष नहीं होते। जेण भिक्खं बलिं देमि, जेण पोसेमि नायए। व्यक्ति को विश्वास पर व्यवहार करना होता है। जो शास्त्र है, सा मे मही अक्कमइ, जायं सरणओ भयं ।। वे वीतराग की वाणी के आधार पर संगृहीत हैं, ऐसा मानने जो पृथ्वी सबका संरक्षण करती है, भरण-पोषण करती है, वाला साधक ही उन वचनों के आधार पर अपनी साधना का वही पृथ्वी मेरा भक्षण करती है तो लगता है कि शरण देने वाला यात्रापथ तय कर सकता है, अन्यथा नहीं। बिना विश्वास एक ही प्राण हरण करता है। पैर भी नहीं चला जा सकता। आचार्य ने उसके गहने उतार कर उसे छोड़ दिया। गहने वर्तमान में भगवान महावीर का शासन चल रहा है। वे अपने पात्र में रख लिए। चौबीसवें तीर्थकर थे। उनसे पूर्व तेईस तीर्थकर हो चुके थे। इतने में अप्काय नामक दूसरा बालक आया। वह भी इसीलिए कहा गया-'अभु जिणा'-जिन हुए थे। 'अत्थि सुअलंकृत था। आचार्य ने कहा—गहने दे दे, अन्यथा मार जिणा'—जिन हैं—यह कथन तीर्थकर महावीर की सूचना देता डालूंगा। लड़का बोला-मेरी बात सुनें। पाटल नाम का व्याक्ति है। वृत्तिकार ने लिखा है कि यह अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व के कथा कहकर आजीविका चलाता था। एक बार वह गंगा नदी को सतरहवें प्राभृत से उद्धृत किया गया है और सुधर्मा स्वामी ने पार कर रहा था। इतने में ही उसमें तीव्र प्रवाह आया और वह प्रत्यक्षतः जम्बूस्वामी को यह कहा है, इसलिए वीतराग की पाटल बहने लगा। भंते! देखेंउपस्थिति का उल्लेख है अथवा महाविदेह आदि क्षेत्रों की अपेक्षा जेण रोहति बीयाणि, जेण जीयंति कासया। से भी यह कथन यथार्थ है। वहां तीर्थकर सदा रहते हैं। तस्स मज्झे विवज्जामि, जायं सरणओ भयं।। चौवालीसवें श्लोक के 'नत्थि नूणं परे लोए' को आधार जिस जल के प्रभाव से बीज उत्पन्न होते हैं, कृषक जीवन बनाकर व्याख्याकारों ने आचार्य आषाढ़ का कथानक प्रस्तुत यापान करते हैं, वही जल मुझे मार रहा है। यह सच है कि किया है। वह इस प्रकार है शरण देने वाला ही प्राण हरण कर रहा है। वत्सभूमि में आषाढ़ विचरण कर रहे थे। वे एक गण के आचार्य ने उसके गहने ले लिए और उसे अभयदान देकर आचार्य थे। वे बहुश्रुत और अनेक शिष्यों के आचार्य थे। उस छोड़ दिया। गण में जो-जो मुनि दिवंगत होते, वे उनको अनशन करवाते तीसरा बालक तेजस्काय सामने आया। उसने गिड़गिड़ाते और कहते-जब तुम देव बनो, तब अवश्य ही मुझे दर्शन हुए कहा--गुरुदेव! एक कथा सुनें । एक जंगल में तपस्वी रहता देना। वर्ष बीत गए। अनेक संथारे हुए, परन्तु कोई लौटकर नहीं था। वह प्रतिदिन अग्नि की पूजा करता, आहुति देता। एक बार आया। एक बार एक अत्यन्त प्रिय शिष्य मृत्यु शय्या पर था। उसी आग से उसकी झोपड़ी जल कर राख हो गई। उस तपस्वी आचार्य ने उसे भक्त प्रत्याख्यान कराते हए कहा-देवरूप में ने कहाउत्पन्न होते ही शीघ्र यहां आकर दर्शन देना, प्रमाद मत करना। जमहं दिया राओ य, तप्पेमि महुसप्पिसा। मुनि की मृत्यु हो गई। पर वह भी नहीं आया। आचार्य ने सोचा, तेण मे उडओ दड्ढो, जायं सरणओ भयं ।। यह निश्चित है कि परलोक है ही नहीं। अनेक गए, पर कोई मैं जिस आग का मधु और घृत से सिंचन करता था, उसी नहीं आया। अतः यह व्रतचर्या निरर्थक है। मैंने व्यर्थ ही भोगों अग्नि ने मेरा–उटज जला डाला। शरण देने वाला भी भयप्रद का परित्याग किया। आचार्य डावांडोल हो गए। उसी मुनिवेश हो गया। में वे गण का त्याग कर चले गए। इतने में ही उनके एक एक व्यक्ति जंगल में जा रहा था। इतने में ही व्याघ्र आता दिवंगत शिष्य ने देखा। उनको प्रतिबोध देने के लिए उसने मार्ग हुआ दिखा। उसने अग्नि की शरण ली। अग्नि जला कर वह में एक गांव की रचना की और वहां नृत्य का आयोजन किया। वहां बैठ गया। अग्नि को देखकर व्याघ्र भाग गया, पर उस आचार्य वहां छह माह तक रहे। न उन्हें भूख सताती थी, न अग्नि ने उसे जला डाला। जिसको शरण माना था, वही अशरण प्यास और न श्रम। छह माह के काल का बीतना भी हो गया। उन्होंने नहीं जाना । देवता ने अपनी माया समेटी। आचार्य वहां आचार्य ने उसके गहने ले लिए और उसे जीवित छोड़ से चले। देवता ने उनके संयम के परिणामों की परीक्षा करने दिया। Jain Education Intemational ucation Intermational Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीषह-प्रविभक्ति अध्ययन २ : श्लोक ४५ टि० ८२ 74 चौथे बालक का नाम था-वायुकाय। आचार्य के समक्ष चिन्ता न करें। मैं उपाय करूंगी। एक दिन ब्राह्मणी ने अपनी आते ही, आचार्य ने उसे आभूषण देने के लिए कहा। उसने पुत्री से कहा-बेटी! हमारी यह कुल परम्परा है कि कुल में आनाकानी की। आचार्य ने मार डालने की धमकी दी। बालक जन्मी हुई पुत्री का उपभोग पहले यक्ष करता है, फिर उसका बोला-पहले मेरी बाते सुनें, फिर जो मन चाहे करें। भंते! एक विवाह कर दिया जाता है। इस मास की कृष्ण चतुर्दशी को यक्ष युवक था। वह शक्तिसम्पन्न और शरीर-संपदा से युक्त था। आएगा। तू उसको नाराज मत करना। उस समय प्रकाश मत उसे वायु का रोग हुआ। शीतल वायु भी उसे पीड़ित करने लगी। रखना। लड़की के मन में यक्ष का कुतूहल छा गया। चतुर्दशी का जिस वायु के सहारे प्राणी जीवित रहते हैं वही वायु प्राण-हरण दिन। रात में उसने दीपक पर ढक्कन दे दिया। घोर अंधकार। भी कर लेती है। जो प्राणदाता है, वह प्राणहर्ता भी हो जाता है। यक्ष का प्रतिरूप वह पिता ब्राह्मण आया और रात भर लड़की ठीक ही कहा है के साथ रतिक्रीड़ा कर वहीं सो गया। लड़की का कुतूहल शान्त जिट्ठासाढेसु माणेसु, जो सुहोवाइ मारुओ। नहीं हुआ था। वह जाग रही थी। उसने दीपक से ढक्कन तेण मे भज्जए अंगं, जायं सरणओ भयं। उठाया। उसने आपने पास सोए पिता को देखा। उसने सोचा, जेण जीवंति सत्ताणि, निराहमि अणंतए।। जो कुछ होना है, होने दो। इनके साथ भोग भोगूं। फिर दोनों तेण मे भज्जए अंगं, जायं सरणओ भयं।। रतिक्रीड़ा में संलग्न हो गए। सूर्योदय हो गया। पर वे जागृत आचार्य ने सुना, गहने अपने पात्र में रखे और उसे नहीं हुए। ब्राह्मणी ने जगाने के लिए कुछ गीत कहा। उसके जीवित ही छोड़ दिया। प्रत्युत्तर में लड़की ने कहा-मां! तूने ही तो मुझे शिक्षा देते हुए पांचवां बालक था-वनस्पतिकाय। उसने कहा-भंते! कहा था-बेटी! आए हुए यक्ष को मत ठुकराना। मैंने वैसे ही जंगल में एक घना वृक्ष था। उस वृक्ष पर अनेक पक्षी आकर किया। अब पिता का यक्ष द्वारा हरण कर लिया गया है। तुम विश्राम करते थे। वह पक्षियों का आवास-स्थान था। पक्षियों ने दूसरे ब्राह्मण को खोजो। अपने घोंसले बना रखे थे और उन घोंसलों में उनके बच्चे ब्राह्मणी बोलीपलपुष रहे थे। एक बार उसी वृक्ष के पास से एक बेल ऊपर नवमास कुच्छीइ धालिया, पासवणे पुलिसे य महिए। उठी और पनपने लगी। धीरे-धीरे उस वल्ली ने सारे वृक्ष को धूया मे गेहिए हडे सलणए असलणए य मे जायए।। आच्छादित कर दिया। वह वल्ली ऊपर तक बढ़ गई। एक दिन जिस लड़की को मैंने नी मास तक गर्भ में रखा, उसका एक सर्प उस वल्ली के साहरे ऊपर चढ़ा और घोंसलों में स्थित मल-मूत्र साफ किया, आज उसी पुत्री ने मेरे पति का हरण कर सभी बच्चों को खा डाला। भंते! कैसा अन्याय! जो वृक्ष लिया। शरण अशरण बन गया। अभयस्थान था, वही वल्ली के कारण त्रासदायी बन गया- एक बार एक ब्राह्मण ने तालाब बनाया और उसके निकट जाव वुच्छं सुहं वुच्छ, पादवे निरुवहवे। एक मंदिर और बगीचा बना दिया। वहां यज्ञ होता था और यज्ञ मूलाउ उठ्ठिया वल्ली, जायं सरणओ भयं।। में बकरे मारे जाते थे। वह ब्राह्मण मरा और वहीं बकरा बना। आचार्य ने उसके आभूषण ले लिए और उसको छोड़ उसका पुत्र उसे उसी देवालय में बलि देने ले गया। उसे दिया। जातिस्मृति हुई। वह अपनी भाषा में बुड़बुड़ाने लगा। उसने छठे बालक का नाम था-त्रसकाय। आचार्य ने उसे सोचा-ओह! मैंने ही तो देव मंदिर बनाया और मैंने ही यह देखा। ज्यों ही आचार्य उसके आभूषण उतारने लगे, वह बोला- यज्ञ प्रवर्तित किया। वह कांप रहा था। एक ज्ञानी मुनि ने देखा। गुरुवर्य! यह आप क्या कर रहे हैं? मैं तो आपके शरणागत हूं। मुनि ने कुछ कहा और वह चुप हो गया। ब्राह्मण ने देखा और आप मुझे मारें नहीं। मेरी बात सुनें-एक नगर था। वहां का मुनि से पूछा। उसने कहा—वत्स! यह तेरा पिता है। उसने राजा, पुरोहित और कोतवाल-ये तीनों चोर थे। ये नगर को पूछा-इसकी पहचान क्या है? मुनि बोले-वत्स! यह तुम दोनों लूटते। सारी जनता त्रस्त थी। भंते! ये तीनों रक्षक होते हैं, पर ने जहां जमीन में धन गाड़ा है, वह यह जानता है। बकरा उसी भक्षक बन गए। ठीक ही कहा है-शरण भी भय देने वाली हो स्थान पर गया और अपने खुरों से पृथ्वी पर प्रहार करने लगा। जाती है। लड़का जानता था। बकरे को मुक्त कर दिया। वह साधु के जत्थ राया सयं चोरो, भंडिओ या पुरोहिओ। चरणों में लुढ़क गया। दिसं भयह नायरिया! जायं सरणओ भयं।। उस ब्राह्मण ने यज्ञ और मंदिर को शरण मान कर उनका भंते! एक बात और सुनें निर्माण किया था, पर वे भी अशरण ही निकले। एक ब्राह्मण था। उसकी पुत्री अत्यन्त रूपवती थी। उसने बालक त्रसकाय के गहने लेकर, आर्य आषाढ़ आगे चले। यौवन में पदार्पण किया। पिता उस पुत्री में आसक्त हो गया। देव ने सोचा, आचार्य चारित्र से शून्य हो गए हैं, अब देखू तो सदा उसी का चिंतन करते-करते उसका शरीर सूख गया। सही कि इनमें सम्यक्त्व है या नहीं? ब्राह्मणी ने पूछा। उसने सारी बात बता दी। ब्राह्मणी बोली--आप आचार्य आषाढ़ छहों बच्चों के आभूषण लेकर आगे चले। Jain Education Intemational Education Interational Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६२ अध्ययन २ : श्लोक ४५ टि० ८२ वह कुपिडातकारिण। यक्षिा तिला कहा उन्होंने देखा कि मार्ग के एक ओर एक गर्भवती साध्वी मेरा सौभाग्य है कि यहां जंगल में आपके दर्शन हुए। कृपा कर साज-शृंगार किए बैठी है। आषाढ़ आचार्य ने कहा आप मेरे हाथ से प्रासुक दान ग्रहण करें। आचार्य ने कहाकडए ते कुंडले य ते, अंजियक्खि ! तिलयते य ते। आज उपवास है। मैं कुछ भी नहीं ले सकता। इतने में ही एक पवयणस्स उड्डाहकारिए! दुट्ठा सेहि! कतोसी आगया।। व्यक्ति ने आचार्य के हाथ से बलात् झोली ली और उसमें मोदक देने लगा। झोली में आभरण देख, रुष्ट होकर बोला-अनार्य! राईसरिसवमेत्ताणि परच्छिड्डाणि पेच्छसे। ये क्या हैं? मेरे पुत्रों के ये आभरण हैं। बता वे कहां हैं? क्या अप्पणो बिल्लमेत्ताणि, पिच्छन्तो वि न पेच्छसे।। तूने उनको मार डाला? आचार्य भय से कांपने लगे। आप दूसरों के राई जितने छिद्र देख लेते हैं और अपने देवता ने अपनी लीला समेटी और प्रत्यक्षरूप से आकर बड़े दोषों को देखते हुए भी नहीं देखते। हाथ जोड़कर बोला-हाय! आप जैसे आगमधरों के लिए ऐसा आप श्रमण हैं, संयत हैं, ब्रह्मचारी हैं, कंचन और पत्थर सोचना उचित नहीं है कि 'परलोक नहीं है। आप जानते हैं कि को समान समझते हैं, आपका वैराग्य प्रखर है, आपका वेश देवलोक के अपार सुख हैं। उस सुख का उपभोग करते हुए मूलरूप में है। आर्य! कृपाकर बताएं आपके पात्र में क्या है। देवता नहीं जान पाते कि कितना काल बीता है। मैं इसीलिए समणो सि य संजओ य सि, बंभयारी समलेठुकंचणो। समय पर आपके समक्ष नहीं आ सका। वेहारियवायओ य ते, जेट्ठज्ज! किं ते पडिग्गहे।। आचार्य आषाढ़ की विवेक चेतना जागी। वे अपनी भूल आचार्य बिना कुछ कहे, अत्यन्त लज्जित होकर आगे बढ़ पर पश्चात्ताप करने लगे। वे अपने मूल स्थान पर आए और गए। देव हाथी की विकुर्वणा कर हाथी पर चढ़ कर आचार्य के आलोचना, प्रतिक्रमण कर वैराग्य की वृद्धि करते हुए विहरण सम्मुख आया। हाथी से उतर कर वन्दना की और कहा-भंते! करने लगे।' १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ८७-६०। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १३३-१३६। (ग) सुखबोधा, पत्र ५२-५५। Jain Education Intemational Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइअं अज्झयणं चाउरंगिज्जं तीसरा अध्ययन चतुरंगीय Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोगद्वार आगम में नामकरण के दस हेतु बतलाए गए हैं। उनमें एक हेतु 'आदान-पद' है। इस अध्ययन का नाम उसी आदान - पद (प्रथम पद) के कारण 'चतुरंगीय' हुआ है ।' इस अध्ययन में (१) मनुष्यता, (२) धर्मश्रुति, (३) श्रद्धा और ( ४ ) तप-संयम में पुरुषार्थ-इन चार अंगों की दुर्लभता का प्रतिपादन है। जीवन के ये चार प्रशस्त अंग— विभाग हैं। ये अंग प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा सहज प्राप्य नहीं हैं। चारों का एकत्र समाहार विरलों में पाया जाता है। जिनमें ये चारों नहीं पाए जाते आमुख धर्म की पूर्ण आराधना नहीं कर सकते। एक की भी कमी उनके जीवन में लंगड़ापन ला देती है। चारों अंगों की दुर्लभता निम्न विवेचन से प्रकट होगी (१) मनुष्यता आत्मा से परमात्मा बनने का एकमात्र अवसर मनुष्य जन्म से प्राप्त होता है । तिर्यंच जगत् में क्वचित् पूर्व संस्कारों से प्रेरित धर्माराधना होती है, परन्तु वह अधूरी रहती है। देवता धर्म की पूरी आराधना नहीं कर पाते। वे विलास में ही अधिक समय गंवाते हैं । श्रामण्य के लिए वे योग्य नहीं होते। नैरयिक जीव दुःखों से प्रताड़ित होते हैं अतः उनका धार्मिक - विवेक प्रबुद्ध नहीं होता । मनुष्य का विवेक जागृत होता है । वह अति सुखी और अति दुःखी भी नहीं होता अतः वह धर्म की पूर्ण आराधना का उपयुक्त अधिकारी है। (२) धर्म - श्रवण धर्म-श्रवण की रुचि प्रत्येक में नहीं होती। जिनका अन्तःकरण धार्मिक भावना से भावित होता है, वे मनुष्य धर्म-श्रवण में तत्पर रहते हैं। बहुत लोग दुर्लभतम मनुष्यत्व को पाकर भी धर्म सुनने का लाभ नहीं ले पाते। नियुक्तिकार ने धर्म - श्रुति के १३ विघ्न बतलाए हैं- का भाव । ४. स्तम्भ — जाति आदि का अहंकार । १. अणुओगदाराई, सूत्र ३२२ : से किं तं आयाणपएणं? आयाणपएणं आवंती, चाउरंगिज्जं, असंखयं, जण्णइज्जं... एलइज्जं... से तं आयाणपएणं । २. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा १६० : आलस्य मोहऽवन्ना, थंभा कोहा पमाय किविणता । (३) भय सोगा अन्नाणा, वक्खेव कुऊहला रमणा ।। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र १५२ : ननु किमेवंविधा अपि केचिदत्यन्तमृजवः सम्भवेयुः ५. क्रोध- धर्म - कथक के प्रति अप्रीति । ६. प्रमाद - निद्रा, विकथा आदि । ७. कृपणता द्रव्य-व्यय का भय । ८. भय । ६. शोक- इष्ट-वियोग से उत्पन्न दुःख । १०. अज्ञान - मिथ्या धारणा । १. आलस्य अनुद्यम । २. मोह—घरेलू धन्धों की व्यस्तता से उत्पन्न मूर्च्छा (४) तप-संयम में पुरुषार्थ अथवा हेयोपादेय के विवेक का अभाव । से उत्पन्न व्याकुलता । ११. व्याक्षेप कार्य- - बहुलता १२. कुतूहल -- इन्द्रजाल, खेल, नाटक आदि देखने की आकुलता । १३. रमण क्रीड़ा परायणता । श्रद्धा भगवान ने कहा- "सद्धा परम दुल्लहा "श्रद्धा परम दुर्लभ है। जीवन - विकास का यह मूल सूत्र है। जिसका दृष्टिकोण मिथ्या होता है वह सद्भाव को सुनकर भी उसमें श्रद्धा नहीं करता और श्रुत या अश्रुत असद्भाव में उसकी श्रद्धा हो जाती है। श्रद्धा मिथ्यादृष्टि के लिए दुर्लभ है। जिसका दृष्टिकोण सम्यग् होता है वह सद्भाव को सुनकर उसमें श्रद्धा करता है । किन्तु अपने अज्ञानवश या गुरु के नियोग से असद्भाव के प्रति भी उसकी श्रद्धा हो जाती है। इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के लिए भी श्रद्धा दुर्लभ है। शिष्य ने पूछा - "भंते! क्या सम्यग् दृष्टि इतनी ऋजु प्रकृति के होते हैं जो गुरु के कथनमात्र से असद्भाव के प्रति श्रद्धा कर लेते हैं?" निर्युक्तिकार ने संयम के आठ पर्यायवाची नाम बतलाए ३. अवज्ञा या अवर्ण-धर्म-कथक के प्रति अवज्ञा या गर्हा हैं - (१) दया (२) संयम (३) लज्जा (४) जुगुप्सा (५) अछलना (६) तितिक्षा (७) अहिंसा और (८) हिरि आचार्य ने कहा – “आयुष्मन् ! ऐसा होता है। जमालि ने जब असद्भाव की प्ररूपणा की और अपने शिष्यों को उससे परिचित किया तो कुछ शिष्य उसमें श्रद्धान्वित हो गए।"३ इसीलिए यह बहुत मार्मिक ढंग से कहा है कि- "श्रद्धा परम दुर्लभ है।" संयम के प्रति श्रद्धा होने पर भी सभी व्यक्ति उसमें ये स्वयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरुपदेशतोऽन्यथापि प्रतिपद्येरन् ? एवमेतत्, तथाहि - जमालिप्रभृतीनां निहूनवानां शिष्यास्तद्भक्तियुक्ततया स्वयमागमानुसारिमतयो ऽपि गुरुप्रत्ययाद्विपरीतमर्थं प्रतिपन्नाः । ४. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा १५८ : दया न संजमे लज्जा, दुगुंछा ऽछलणा इअ । तितिक्खा य अहिंसा य, हिरि एगट्टिया पया।। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरंगीय अध्ययन ३: आमुख पराक्रम नहीं कर पाते। जानना व श्रद्धा रखना एक वस्तु है देवयोनि से च्युत हो जब वह पुनः मनुष्य बनता है तब वह और उसको क्रियान्वित करना दूसरी। इसमें संकल्प-बल, धृति, दशांगवाली मनुष्य योनि में आता है। श्लोक १७ और १८ में ये संतोष और अनुद्विग्नता की अत्यन्त आवश्यकता होती है। दस अंग निम्नोक्त कहे गये हैंजिनका चित्त व्याक्षिप्त या व्यामूढ़ नहीं है, वे ही व्यक्ति संयम में १. कामस्कन्ध। प्रवृत्त हो सकते हैं। २. मित्रों की सुलभता। नियुक्तिकार ने दुर्लभ अंगों का कुछ विस्तार किया है। ३. बन्धुजनों का सुसंयोग। उसके अनुसार मनुष्यता, आर्य क्षेत्र, उत्तम जाति, उत्तम कुल, ४. उच्चगोत्र की प्राप्ति। सर्वांगपरिपूर्णता, नीरोगता, पूर्णायुष्य, परलोक-प्रवण बुद्धि, ५. रूप की प्राप्ति। धर्म-श्रवण, धर्म-स्वीकरण, श्रद्धा और संयम-ये सब दुर्लभ ६. नीरोगता की प्राप्ति। हैं।' मनुष्य भव की दुर्लभता से दस दृष्टांत नियुक्ति में उल्लिखित ७. महाप्रज्ञता। ८. विनीतता। श्रद्धा की दुर्लभता बताने के लिए सात निहूनवों की कथाएं ६. यशस्विता। दी गई हैं। १०. बलवत्ता। भगवान् ने कहा- 'सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स इस अध्ययन के श्लोक १४ और १६ में आया हुआ चिट्ठई'-सरल व्यक्ति की शोधि होती है और धर्म शुद्ध 'जक्ख' (सं. यक्ष) शब्द भाषा-विज्ञान की दृष्टि से ध्यान देने आत्मा में ठहरता है। जहां सरलता है वहां शुद्धि है और जहां योग्य है। इसके अर्थ का अपकर्ष हुआ है। आगम-काल में शुद्धि है वहां धर्म का निवास है। धर्म का फल आत्म-शुद्धि है। 'यक्ष' शब्द 'देव' अर्थ में प्रचलित था। कालानुक्रम से इसके अर्थ परन्तु धर्म की आराधना करने वाले के पुण्य का बन्ध होता है। का हास हुआ और आज भूत, पिशाच का-सा अर्थ देने लगा है। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १५६: माणुस्स खित्त जाई, कुल रूवारोग्ग आउयं बुद्धी। सवणुग्गह सद्धा, संजमो अ लोगंमि दुलहाई।। २. वही, गाथा १६०: चुल्लग पासग धन्ने, जूए रयणे अ सुमिण चक्के य। चम्म जुगे परमाणु, दस दिळंता मणुअलंभे।। ३. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १६४-६६ : बहुरयपएसअव्वत समुच्छ, दुगतिगअबद्धिगा चेव। एएसिं निग्गमणं, वुच्छामि अहाणुपुब्बीए।। बहुरय जमालिपभवा, जीवपएसा य तीसगुत्ताओ। अव्वात्ताऽऽसाढाओ, सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ। गंगाए दोकिरिया, छलुगा तेरासिआण उप्पत्ति। थेरा य गुट्ठमाहिल, पुट्ठमबद्धं परूविंति।। Jain Education Intemational Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं अज्झयणं : तीसरा अध्ययन चाउरंगिज्जं : चतुरंगीय मूल हिन्दी अनुवाद इस संसार में प्राणियों के लिए चार परम अंग दुर्लभ हैं'-मनुष्यत्व', श्रुति', श्रद्धा और संयम में पराक्रम। १. चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा संजमम्मि य वीरियं ।। २. समावन्नाण संसारे नाणागोत्तासु जाइस। कम्मा नाणविहा कट्टु पुढो विस्संभिया पया।। ३. एगया देवलोएसु नरएसु वि एगया। एगया आसुरं कायं आहाकम्मेहिं गच्छई।। ४. एगया खत्तिओ होइ तओ चंडाल बोक्कसो। तओ कीड पयंगो य तओ कुंथु पीविलिया।। ५. एवमावट्टजोणीसु पाणिणो कम्मकिब्बिसा। न निविज्जति संसारे सव्वट्ठेसु व खत्तिया।। संस्कृत छाया चत्वारि परमाङ्गानि दुर्लभानीह जन्तोः। मानुषत्वं श्रुतिः श्रद्धा संयमे च वीर्यम्।। समापन्नाः संसारे नानागोत्रासु जातिषु। कर्माणि नानाविधानि कृत्वा पृथग् विश्वभृतः प्रजाः।। एकदा देवलोकेषु नरकेष्यप्येकदा। एकदा आसुरं कायं यथाकर्मभिर्गच्छति।। एकदा क्षत्रियो भवति ततश्चण्डालो 'बोक्कसः'। ततः कीट: पतङ्गश्च ततः कुंथुः पिपीलिका।। एवमावर्तयोनिषु प्राणिनः कर्मकिल्विषाः। न निर्विन्दन्ते संसारे सर्वार्थष्विव क्षत्रियाः।। संसारी जीव विविध प्रकार के कर्मों का अर्जन कर विविथ गोत्र वाली जातियों में उत्पन्न हो, पृथक्-पृथक् रूप से समूचे विश्व का स्पर्श कर लेते हैं -सब जगह उत्पन्न हो जाते हैं। जीव अपने कृत कर्मों के अनुसार कभी देवलोक में कभी नरक में और कभी असुरों के निकाय में उत्पन्न होता है। वही जीव कभी क्षत्रिय होता है, कभी चाण्डाल, कभी बोक्कस', कभी कीट, कभी पतंगा, कभी कुंथु और कभी चींटी। जिस प्रकार क्षत्रिय किसी भी अर्थ (प्रयोजन) के उपस्थित होने पर हार नहीं मानते , उसी प्रकार कर्म-किल्विष (कर्म से कलुषित) जीव योनिचक्र में" भ्रमण करते हुए भी संसार में निर्वेद नहीं पाते-उससे मुक्त होने की इच्छा नहीं करते। जो जीव कर्मों के संग से सम्मूढ, दुःखित और अत्यन्त वेदना वाले हैं, वे अपने कृत कर्मों के द्वारा मनुष्येतर (नरक-तिर्यंच) योनियों में ढकेले जाते हैं। ६. कम्मसंगेहिं सम्मूढा दुक्खिया बहुवेयणा। अमाणुसासु जोणीसु विणिहम्मति पाणिणो ।। ७. कम्माणं तु पहाणाए आणुपुव्वी कयाइ उ। जीवा सोहिमणुप्पत्ता आययंति मणुस्सयं ।। ८. माणुस्सं विग्गहं लद्धं सुई धम्मस्स दुल्लहा। जं सोच्चा पडिवज्जंति तवं खंतिमहिंसयं ।। कर्मसङ्गः सम्मूढाः दुःखिता बहुवेदनाः। अमानुषीषु योनिषु विनिहन्यन्ते प्राणिनः।। कर्मणां तु प्रहाण्या आनुपूर्व्या कदाचित् तु। जीवाः शोधिमनुप्राप्ताः आददते मनुष्यताम्।। मानुष्यकं विग्रहं लब्वा श्रुतिधर्मस्य दुर्लभा। यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते तपः क्षान्तिमहिंम्रताम् ।। काल-क्रम के अनुसार कदाचित् मनुष्य-गति को रोकने वाले कमों का नाश हो जाता है। उस शुद्धि को पाकर जीव मनुष्यत्व को प्राप्त होते हैं।२ मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी उस धर्म की श्रुति दुर्लभ है जिसे सुनकर जीव तप, सहिष्णुता और अहिंसा को स्वीकार करते हैं। Jain Education Intemational Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६७ अध्ययन ३ : श्लोक ६-१७ 'आहच्च' श्रवणं लब्ध्वा श्रद्धा परम-दुर्लभा। श्रुत्वा नैर्यातृकं मार्ग बहवः परिभ्रश्यन्ति।। कदाचित् धर्म सुन लेने पर भी उसमें श्रद्धा" होना परम दुर्लभ है। बहुत लोग मोक्ष की ओर ले जाने वाले" मार्ग को सुनकर भी उससे भ्रष्ट हो जाते हैं। श्रुति और श्रद्धा प्राप्त होने पर भी संयम में वीर्य (पुरुषार्थ) होना अत्यन्त दुर्लभ है। बहुत लोग संयम में रुचि रखते हुए भी उसे स्वीकार नहीं करते। ६. आहच्च सवणं लर्छ । सद्धा परमदुल्लहा। सोच्चा नेआउयं मग्गं बहवे परिभस्सई।। १०.सुइं च लधु सद्धं च वीरियं पुण दुल्लहं। बहवे रोयमाणा वि नो एणं पडिवज्जए।। ११.माणुसत्तंमि आयाओ जो धम्म सोच्च सद्दहे। तवस्सी वीरियं लथु संवुडे निधुणे रयं ।। १२.सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। निव्वाणं परमं जाइ घयसित्त व्व पावए।। १३.विगिंच कम्मुणो हेउं जसं संचिणु खंतिए। पाढवं सरीरं हिच्चा उड्ढं पक्कमई दिसं।। १४.विसालिसेहिं सीलेहिं जक्खा उत्तरउत्तरा। महासुक्का व दिप्पंता मन्नंता अपुणच्चवं ।। श्रुति च लब्ध्वा श्रद्धां च वीर्य पुनर्दुर्लभम्। बहवो रोचमाना अपि नो एतद् प्रतिपद्यते।। मानुषत्वे आयातः यो धर्म श्रुत्वा श्रद्धत्ते। तपस्वी वीर्य लब्ध्वा संवृतो निथुनोति रजः।। शोधिः ऋजुकभूतस्य धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति। निर्वाणं परमं याति घृतसिक्तः इव पावकः।। मनुष्यत्व को प्राप्त कर जो धर्म को सुनता है, उसमें श्रद्धा करता है, वह तपस्वी संयम में पुरुषार्थ कर संवृत हो कर्मरजों को धुन डालता है। शुद्धि उसे प्राप्त होती है, जो ऋजुभूत होता है। धर्म उसमें ठहरता है जो शुद्ध होता है। जिसमें धर्म ठहरता है वह घृत से अभिषिक्त अग्नि की भांति परम निर्वाण (समाधि) को प्राप्त होता है। कर्म के हेतु को दूर कर।' सहिष्णुता से यश (संयम) का संचय कर। ऐसा करने वाला पार्थिव शरीर को२२ छोड़कर ऊर्ध्व दिशा-स्वर्ग को प्राप्त होता है।२३ वेविग्धि कर्मणो हेतुं यशः सञ्चिनु क्षान्त्या। पार्थिवं शरीरं हित्वा ऊर्ध्वा प्रक्रामति दिशम्।। विसदृशैः शीलैः यक्षाः उत्तरोत्तराः। महाशुक्लाः इव दीप्यमानाः मन्यमाना अपुनश्च्यवम् ।। १५.अप्पिया देवकामाणं कामरूवविउव्विणो। उड्ढं कप्पेसु चिट्ठति पुव्वा वाससया बहू।। १६.तत्थ ठिच्चा जहाठाणं जक्खा आउक्खए चुया। उति माणुसं जोणिं से दसंगेऽभिजायई।। अर्पिता देवकामान् कामरूपविकरणाः। ऊर्ध्व कल्पेषु तिष्ठन्ति पूर्वाणि वर्षशतानि बहूनि।। तत्र स्थिरत्वा यथास्थानं यक्षा आयुःक्षये च्युताः। उपयन्ति मानुषीं योनि स दशांगोऽभिजायते।। विविध प्रकार के शीलों की आराधना के कारण जो देव" उत्तरोत्तर--कल्पों व उसके ऊपर के देवलोकों की आयु का भोग करते हैं, वे महाशुक्ल" (चन्द्र-सूर्य) की तरह दीप्तिमान होते हैं। 'स्वर्ग से पुनः च्यवन नहीं होता' ऐसा मानते हैं।२६ वे दैवी भोगों के लिए अपने आपको अर्पित किए हुए रहते हैं, इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं२७ तथा सैकड़ों पूर्व-वर्षों तक-असंख्य काल तक ऊर्ध्ववर्ती कल्पों में रहते हैं। वे देव उन कल्पों में अपनी शील-आराधना के अनुरूप स्थानों में रहते हुए आयु-क्षय होने पर वहां से च्युत होते हैं। फिर मनुष्य-योनि को प्राप्त होते हैं। वे वहां दस अंगों वाली भोग सामग्री से युक्त होते हैं। क्षेत्र-वास्तु, स्वर्ण, पशु और दास-पौरुषेय-जहां ये चार काम-स्कन्ध होते हैं, उन कुलों में वे उत्पन्न होते हैं। १७.खेत्तं वत्थु हिरण्णं च पसवो दास-पोरुसं। चत्तारि कामखंधाणि तत्थ से उववज्जई।। क्षेत्रं वास्तु हिरणयञ्च पशवो दास-पौरुषेयं। चत्वारः कामस्कन्धाः तत्र स उपपद्यते।। Jain Education Intemational Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि १८. मिसवं नायव छोड़ उच्चागोए थ वण्णवं । उप्पायंके महापन्ने अभिजाए जसोबले ।। १६. भोच्चा माणुस्सए भोए अप्पडिसवे अहाउयं । पुवं विसुद्धसद्धम्मे केवलं बोहि बुज्झिया ।। २०. चउरंग दुल्लडं मत्ता संजमं पडिवज्जिया । तवसा धुयकम्मंसे सिद्धे हवइ सासए ।। -त्ति बेमि । ६८ मित्रवान् ज्ञातिमान् भवति उच्चैर्गोत्रश्च वर्णवान् । अल्पातङ्कः महाप्रज्ञः अभिजातो यशस्वी बली ।। मुक्या मानुष्यकान् भोगान् अप्रतिरूपान् यथायुः । पूर्व विशुद्धसद्धर्मा केवलां बोधिं बुद्ध्वा ।। चतुरंग दुर्लभं ज्ञात्वा संयम प्रतिपद्य । तपसा तत्कर्मा सिद्धो भवति शाश्वतः ।। --इति ब्रवीमि । अध्ययन ३ : श्लोक १८-२० वे मित्रवान् ज्ञातिमान्, उच्चगोत्र वाले, वर्णवान्, नीरोग, महाप्रज्ञ, अभिजात ( शिष्ट, विनीत ) यशस्वी और बलवान् होते हैं। वे अपनी आयु के अनुसार अनुपम मानवी भोगों को भोगकर, पूर्व जन्म में विशुद्ध सद्धमी (निदान रहित तप करने वाले) होने के कारण सम्पूर्ण बोधि का अनुभव करते हैं। वे उक्त चार अंगों को दुर्लभ मानकर संयम को स्वीकार करते हैं । फिर बचे हुए कर्मों को तपस्या से धुनकर" शाश्वत सिद्ध हो जाते हैं। - ऐसा मैं कहता हूं। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन ३: चतुरंगीय १. इस संसार में.....दुर्लभ है (दुल्लहाणीह) वर्ष बीत गए। अभिषेक का बारहवां वर्ष । कार्पटिक ने उपाय नियुक्तिकार ने मनुष्यत्व की दुर्लभता के प्रसंग में बारह सोचा। वह ध्वजवाहकों के साथ चल पड़ा। राजा ने उसे पहचान दुर्लभ वस्तुओं का उल्लेख किया है।' लिया। राजा ने उसको अपने पास बुलाकर कहा-जो इच्छा हो १. मनुष्य जन्म ७. आयुष्य वह मांगो। कार्पटिक बोला-राजन्! मैं पहले दिन आपके प्रासाद २. आर्यक्षेत्र ८. उज्ज्वल भविष्य में भोजन करूं, फिर बारी-बारी से आपके समस्त राज्य के सभी ३. आर्यजाति ६. धर्म की श्रवण संभ्रांत कुलों में भोजन प्राप्त कर, पुनः आपके प्रासाद में भोजन ४. आर्यकुल १०. धर्म की अवधारणा करूं--यह वरदान दें। राजा बोला-यह क्यों! तुम चाहो तो मैं ५. शरीर की सर्वांग संपूर्णता ११. श्रद्धा तुम्हें गांव दे सकता हूं, धन दे सकता हूं। तुम्हें ऐसा बना सकता ६. आरोग्य १२. संयम हूं कि तुम जीवन भर हाथी के होदे पर सुखपूर्वक घूमते रहो। चूर्णिकार ने संयम में असटकरण निश्चल आचरण को कापटिक बोला-मुझे इन सब प्रपंचों से क्या! राजा ने तथास्तु बारहवां माना है। कहा। चूर्णिकार और बृहद्वृत्तिकार ने इस प्रसंग में नियुक्ति के अब वह बारी-बारी से नगर के घरों में जीमने लगा। उस पाठान्तर का उल्लेख किया है। उसके अनुसार ये ग्यारह वस्तएं नगर में अनेक कुलकोटियां थीं। क्या वह अपने जीवन-काल में दुर्लभ हैं उस नगर के घरों का अन्त पा सकेगा? कभी नहीं। फिर संपूर्ण १. इन्द्रियलब्धि-पांच इन्द्रियों की प्राप्ति। भारत वर्ष की बात ही क्या! २. निर्वर्तना-इन्द्रियों की पूर्ण रचना। संभव है किसी उपाय या देवयोग से वह संपूर्ण भारतवर्ष ३. पर्याप्ति--पूर्ण पर्याप्तियों की प्राप्ति। के घरों का पार पा जाए, किन्तु मनुष्य जन्म को पुनः प्राप्त ४. निरुपहतता-जन्म के समय अंग-विकलता से रहित। करना दुष्कर है। ५. क्षेम-संपन्न देश की प्राप्ति। (२) पाशक-एक व्यक्ति ने स्वर्ण अर्जित करने की एक ६. ध्राण-सुभिक्ष क्षेत्र अथवा वैभवशाली क्षेत्र की प्राप्ति। युक्ति निकाली। उसने जुए का एक प्रकार निकाला और यंत्रमय ७. आरोग्य। पाशकों का निर्माण किया। एक व्यक्ति को दीनारों से भरा थाल ८. श्रद्धा। देकर घोषणा करवाई कि जो मुझे इस जुए में जीत लेगा, मैं ६. ग्राहक शिक्षक गुरु की प्राप्ति । दीनारों से भरा थाल उसे दे दूंगा। यदि वह व्यक्ति मुझे नहीं जीत १०. उपयोग-स्वाध्याय आदि में जागरूकता। सका तो उसे एक दीनार देना होगा। यंत्रमय पाशक होने के ११. अर्थ-धर्म विषयक जिज्ञासा। कारण कोई उसे जीत न सका और धीरे-धीरे उसने स्वर्ण के २. मनुष्यत्व (माणुसत्तं) अनेक दीनार अर्जित कर लिए। मनुष्य जन्म की दुर्लभता को स्पष्ट करने के लिए दस कदाचित् कोई व्यक्ति उसको जीत भी ले, पर मनुष्य जन्म दृष्टांत दिए गए हैं। उनका संक्षेप इस प्रकार है सहजता से प्राप्त नहीं कर सकता। (१) चोल्लक-बारी-बारी से भोजन। (३) धान्य-धान्य के विविध प्रकारों को मिश्रित कर ब्रह्मदत्त का एक कार्पटिक सेवक था। उसने राजा को ढेर लगा दिया। उसमें एक प्रस्थ सरसों के दाने मिला दिए। अनेक बार विपत्तियों से बचाया था। वह सदा उनका सहायक एक वृद्धा उन सरसों के दानों को बीनने बैठी। क्या वह उस बना रहा। ब्रह्मदत्त राजा बन गया। पर इस बेचारे को कहीं सरसों के दानों को पृथक् कर पाएगी? देवयोग से पृथक् कर आश्रय नहीं मिला। राजा से अब मिलना दुष्कर हो गया। बारह भी ले, फिर भी जीव को पुनः मनुष्य जन्म मिलना दुष्कर है। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १५८ : माणुस्स खित्त जाई कुल रूवारोग्ग आउयं बुद्धी। सवणुग्गह सद्धा संजमो अ लोगंमि दुलहाई।। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६४ : संजमो तमि य असढकरणं। ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६४ : अथवा अन्नपरिवाडीए गाहा....। (ख) बृहवृत्ति, पत्र १४६ : केचिदेतत् स्थाने पठन्तिइन्दियलद्धी निववत्तणा य पज्जत्ति निरुवहय खेमं। धाणारोग्गं सद्धा गाहण उवओग अट्ठो य।। Jain Education Intemational Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७० अध्ययन ३ : श्लोक १ टि० २ (४) द्यूत-राजसभा का मंडप एक सौ आठ स्तंभ पर जब वह विवाह योग्य हुई, तब राजा के पूछने पर उसने कहाआधृत था। राजकुमार का मन राज्य-लिप्सा से आक्रान्त हो पिताजी! जो राधावेध कर पाएगा, वही मेरा पति होगा। गया। उसने राजा को मार डालना चाहा। अमात्य को इसका स्वयंवर की घोषणा हुई। एक अक्ष पर आठ चक्र और पता चला। उसने राजा से कहा-हमारे वंश की यह परम्परा उस पर एक पुतली स्थापित की गई। उसकी आंख को वींधने है कि जो राजकुमार राज्य-प्राप्ति के अनुक्रम को सहन नहीं की शर्त रखी। करता, उसे जुआ खेलना होता है और उस जुए में जीतने पर इन्द्रदत्त अपने पुत्रों के साथ वहां आया। सभी बाईस पुत्रों ही उसे राज्य प्राप्त हो सकता है। उसने पूछा-जीतने की शर्त ने पुतली की आंख को वींधने का प्रयत्न किया, पर सब व्यर्थ । क्या है? राजा ने कहा.....एक गांव तुम्हारा होगा, शेष हमारे। अन्त में अमात्य के कहने पर सुरेन्द्रदत्त आया। उसको स्खलित एक ही गांव में यदि तुम आठ सौ खेमों के एक-एक कोण को करने के अनेक प्रयत्न हुए, पर उसने पुतली की आंख को आठ सौ बार जीत लोगे तो तुम्हें राज्य सौंप दिया जाएगा। बींध डाला। लोगों ने जय-जयकार किया। उसे निर्वृति और राज्य जैसे यह दुर्लभ है, वैसे ही मनुष्य जन्म भी असंभव है। प्राप्त हुआ शेष पराजित होकर अपने-अपने देश चले गए। (५) रत्न-एक वृद्ध वणिक् के पास अनेक रत्न थे। जैसे उस पुतली की आंख को बींधना कठिन था, वैसे ही एक बार वृद्ध देशान्तर चला गया। पुत्रों ने सारे रत्न अन्यान्य मनुष्य जन्म दुष्कर है। व्यापारियों को बेच डाले। वृद्ध देशान्तर से आया और रत्नों के (८) चर्मः-एक तालाब था। वह पानी से लबालब भरा विक्रय की बात सुनकर चिन्तित हो गया। उसने पुत्रों से कहा- हुआ था। पूरे तालाब पर शैवाल छाई हुई थी। एक कछुआ उसमें बेचे हुए रत्नों को पुनः एकत्रित करो। पुत्र सारे परेशान हो गए, रहता था। एक बार उसने पानी में तैरते-तैरते एक स्थान पर क्योंकि उन्होंने सारे रत्न परदेशी व्यापारियों को बेच डाले थे। वे शैवाल में छिद्र देखा। उसने छिद्र में से ऊपर देखा। आकाश में सारे व्यापारी दूर-दूर तक चले गए थे। उनसे रत्न एकत्रित चांद चमक रहा था, तारे टिमटिमा रहे थे। कुछ क्षणों तक देखता करना असंभव था। वैसे ही मनुष्य जन्म पुनः प्राप्त होना दुर्लभ रहा। फिर सोचा, परिवार के सभी सदस्यों को यहां लाकर यह मनोरम दृश्य दिखाऊं। वह तत्काल गया और पूरे परिवार के (६) स्वप्न-एक कार्पटिक ने स्वप्न में देखा कि उसने साथ लौट आया। हटी हुई शैवाल पुनः एकाकार हो गई थी। छिद्र पूर्ण चन्द्रमा को निगल लिया है। उसका फल स्वप्न-पाठकों से नहीं मिला। सभी सदस्य निराश हो लौट गए। क्या पुनः वह पूछा। उन्होंने कहा, बड़ा घर मिलेगा। उसे मिल गया। दूसरे कभी छिद्र को पा सकेगा? वैसे ही मनुष्य जन्म को पुनः पाना कार्पटिक ने भी स्वप्न में सम्पूर्ण चन्द्र-मंडल को देखा। उसने भी दुष्कर है। स्वप्न पाटकों से इसका फल पूछा। वे बोले-तुम राजा बनोगे। (६) युग (जुआ)-एक अथाह समुद्र। समुद्र के एक उस देश का राजा सात दिन के बाद मर गया। अश्व की पूजा छोर पर जुआ है और छोर पर उसकी कील पड़ी है। उस कील कर उसे गांव में छोड़ा। वह उसी व्यक्ति के पास जाकर का जुए के छिद्र में प्रवेश होना असंभव है, उसी प्रकार मनुष्य हिनहिनाया। उसे पीट पर बिठा राजमहल ले आया। वह राजा जन्म भी दुर्लभ है। बन गया। कील उस अथाह पानी में प्रवाहित हो गई। बहते-बहते पहले कार्पटिक ने सोचा मैं भी ऐसा ही स्वप्न देखू । वह संभव है वह इस छोर पर आकर जुए के छिद्र में प्रवेश कर ले, दूध पीकर सो गया। क्या वैसा स्वप्न पुनः सुलभ हो सकता है? किन्तु मनुष्य जन्म से भ्रष्ट जीव पुनः मनुष्य जन्म नहीं पा कभी नहीं। वैसे ही मनुष्य जन्म पुनः सुलभ नहीं होता। सकता। (७) चक्र-इन्द्रदत्त इन्द्रपुर नगर का राजा था। उसके (१०) परमाणु-एक विशाल स्तंभ। एक देव उस स्तंभ बाईस पुत्र थे। एक बार वह अमात्य-पुत्री में आसक्त हो उसके का चूर्ण कर, एक नलिका में भर, मंदरपर्वत पर जाकर, उसे साथ एक रात रहा। वह गर्भवती हुई। उसने पुत्र का प्रसव फूंक से बिखेर देता है। स्तंभ के वे सारे परमाणु इधर-उधर किया। उसका नाम सुरेन्द्रदत्त रखा। बिखर जाते हैं। राजा के सभी बाईस पुत्र और सुरेन्द्रदत्त कलाचार्य के क्या दूसरा कोई भी व्यक्ति पुनः उस परमाणुओं को पास शिक्षा ग्रहण करने लगे। सुरेन्द्रदत्त विनीत और अचंचल एकत्रित कर वैसे ही स्तंभ का निर्माण कर सकता है? कभी था। उसने कलाचार्य से बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त कर ली। शेष नहीं। वैसे ही एक बार मनुष्य जीवन को व्यर्थ खो देने पर, पुनः राजकुमार स्थिर नहीं थे। वे वैसे ही रह गए। उसकी प्राप्ति दुष्कर होती है। मथुरा के अधिपति जितशत्रु की पुत्री का नाम निर्वृति था। इन सारी कथाओं का मूल आधार है नियुक्ति की गाथा।' उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १५६ : चुल्लग पासग थन्ने जूए रयणे य सुमिण चक्के य। चम्म जुगे परमाणू दस दिळेंता मणुअलंभे।। Jain Education Intemational Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरंगीय ७१ अध्ययन ३ : श्लोक १ टि० ३, ४ चूर्णि में इन कथाओं के लिए 'चोल्लग पासग' इतना मात्र उल्लेख प्राप्त होता है।' होती । वह उनको देखते ही कुपित हो जाता है । अप्रीति के कारण वह उनके पास जाने से हिचकिचाता है। कोई-कोई बृहद्वृत्ति ने इन दस कथाओं को संक्षेप में प्रस्तुत किया व्यक्ति में मोह की उदग्रता होती है। वह आचार्य या मुनि से सदा द्वेष रखता है । वह भी धर्म-श्रवण के लिए नहीं जा पाता। है। सुखबोधा में ये कथाएं विस्तार से प्राप्त हैं। इनमें तथा बृहद्वृत्ति की कथाओं में भाषा और भाव का अन्तर भी स्पष्ट परिलक्षित होता है | ३. श्रुति (सुई) धर्म के चार अंग हैं— मनुष्य जन्म, श्रुति-धर्म का श्रवण, श्रद्धा-धर्म के प्रति अभिरुचि और संयम में पराक्रम । ये चारों दुर्लभ है। नियुक्तिकार ने श्रुति की दुर्लभता के तेरह कारण बतलाए १. आलस्य २. मोह ३. अवज्ञा या अश्लाघा ४. अहंकार ५. क्रोध ६. प्रमाद ७. कृपणता ८. भय ६. शोक १०. अज्ञान ११. व्याक्षेप चूर्णिकार और बृहद्वृत्तिकार ने इन कारणों को समझाने का प्रयास किया है । वह इस प्रकार है मनुष्य आलस्य के वशीभूत होकर धर्म के प्रति उद्यम नहीं करता । वह कभी धर्माचार्य के पास धर्म-श्रवण करने के लिए नहीं जाता। १२. कुतूहल १३. क्रीड़ाप्रियता । गृहस्थ के कर्तव्यों को निभाते निभाते उसमें एक मूढ़ता या ममत्व पैदा हो जाता है। वह पूरा समय उसी में डूबा रहता है। उसमें हेय और उपादेय के विवेक का अभाव हो जाता है। १. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ६४ । २. बृहद्वृत्ति पत्र १४५-१५० । ३. सुखबोधा, पत्र ५६-६७ । ४. उसके मन में श्रमणों के प्रति अवज्ञाभाव पैदा हो जाता है। वह सोचता है, ये मुंड श्रमण क्या जानते हैं? मैं इनसे अधिक जानता हूं । ये मुनि कितने मैले कुचैले रहते हैं, इनमें कोई संस्कार नहीं है। ये प्रायः अपरिपक्व अवस्था के हैं, ये मुझे क्या धर्म देशना देंगे? व्यक्ति के मन में जब जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य का अहंकार जाग जाता है तब वह सोचता है— ये मुनि अन्य जाति के हैं। मेरा कुल और जाति इतनी उत्तम है, फिर मैं इनके पास कैसे जाऊं? किसी के मन में आचार्य या मुनि के प्रति प्रीति नहीं उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा १६०, १६१ : आलस्य मोहऽवन्ना थंभा कोहा पमाय किविणता । भय सोगा अन्नाणा वक्खेव कुऊहला रमणा । । कुछ व्यक्ति निरन्तर प्रमाद में रहते हैं, नींद लेना, खाना-पीना ही उन्हें सुहाता है। वे भी धर्म-श्रवण से वंचित रहते हैं । कुछ व्यक्ति अत्यन्त कृपण होते हैं। वे सोचते हैं, यदि धर्मगुरुओं के पास जाएंगे तो अर्थ का निश्चित ही व्यय होगा । उनको कुछ देना - लेना पड़ेगा। इसलिए इनसे दूर रहना ही अच्छा है। व्यक्ति जब धर्म प्रवचन में बार-बार नारकीय जीवों की वेदना की बात सुनता है, उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं और मन भय से व्याप्त हो जाता है। यह भय धर्म-श्रवण में बाधक बनता है । शोक या चिन्ता भी धर्म-श्रवण में बाधक बनती है। पत्नी या पति का वियोग हो जाने पर निरन्तर उनकी स्मृति में खोए रहना भी एक अवरोध है। जब व्यक्ति का ज्ञान मोहावृत हो जाता है, तब वह मिथ्या धारणाओं में फंस कर धर्म की श्रुति से वंचित रह जाता है । गृहवास में व्यक्ति निरन्तर आकुल-व्याकुल रहता है। वह सोचता है, अभी वह करना है, अभी यह करना है। इससे उसका मन व्याक्षिप्त हो जाता है। कुतूहल भी एक बाधा है। व्यक्ति कभी नाटक देखने में, कभी संगीत सुनने में या अन्यान्य मनोरंजन की क्रीड़ाओं में रत रहता है । वह धर्म के प्रति आकृष्ट नहीं हो सकता। कुछ व्यक्ति सांडों को लड़ाने, तीतर और कुक्कटों को लड़ाने में रस लेते हैं। कुछ लोग जुआ खेलने में रत रहते हैं । वे धर्म श्रुति का लाभ नहीं ले पाते। ४. श्रद्धा (सद्धा) धर्मश्रुति के प्राप्त हो जाने पर भी उस पर पूर्ण श्रद्धा होना अति दुर्लभ है। मिथ्यादृष्टि मनुष्य गुरु के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन - आगम पर श्रद्धा नहीं करता। वह उपदिष्ट या अनुपदिष्ट असद्भाव पर श्रद्धा कर लेता है। सम्यग्दृष्टि मनुष्य गुरु के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन पर श्रद्धा करता है। उसके असद्भाव पर श्रद्धा करने के दो हेतु हैं एएहिं कारणेहिं लद्धूण सुदुल्लहंपि माणुस्सं । न लहइ सुइं हिअकरिं संसारुत्तारिणि जीवो ।। (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६४-६५ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १५१ । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७२ अध्ययन ३ : श्लोक २,३ टि० ५-७ अज्ञान अथवा गुरु का नियोग-नियोजन । वह नहीं जानता कि को समझाने के लिए वृत्तिकार ने एक प्राचीन गाथा उद्धृत की यह तत्त्व ऐसा ही है, पर गुरु के नियोग से वह उस पर श्रद्धा हैकर लेता है। णत्थि किर को पएसो लोए वालग्गकोडिमित्तोऽपि। प्रश्न होता है कि क्या सम्यग्दृष्टि व्यक्ति भी इतना ऋजु जम्मण मरणावाहा जत्थ जिएहि स संपत्ता।। होता है कि गुरु के कथन-मात्र से असदभाव के प्रति भी श्रद्धा केश के अग्रभाग जितना भाग भी लोक में ऐसा नहीं है कर लेता है? समाधान की भाषा में कहा गया–हां, ऐसा होता जहां इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो। है। जमालि आदि निन्हवों के शिष्य अपने-अपने गुरु के प्रति चूर्णि और वृत्ति में इसका वैकल्पिक अर्थ यह है—कर्म के पूर्ण भक्तिनत थे। वे स्वयं आगमों के रहस्यों के ज्ञाता थे। दारुण विपाक को नहीं जानने के कारण जो जीव विश्रम्भकिन्तु गुरु पर विश्वास कर वे विपरीत अर्थ में भी श्रद्धान्वित संभ्रांति को प्राप्त हो जाते हैं।' हो गए। ७. (श्लोक ३) वृत्तिकार ने यहां जमालि आदि सात निन्हवों की प्रस्तुत श्लोक में 'देवलोक' तथा 'असुरकाय'-ये दो शब्द संक्षिप्त कथावस्तु और उनके दार्शनिक पक्ष का उल्लेख किया आए हैं। असर भी देवताओं की एक जाति है। प्रश्न होता है कि फिर दो शब्दों का प्रयोग क्यों? इसका समाधान यह हैग्याहरवें श्लोक में इन चार दुर्लभ अंगों की प्राप्ति का देवलोक शब्द सौधर्म आदि वैमानिक देवों की और असुर शब्द परिणाम निर्दिष्ट है। अधोलोक के देवों की अवस्थिति का बोधक है। ५. विविध गोत्रवाली जातियों में (नानागोत्तासु नाइस) सुखबोधा वृत्ति में देवलोक, नरकलोक, असुरलोक और चूर्णि में नानागोत्र का अर्थ हीन, मध्य और उत्तम आदि व्यन्तरलोक में उत्पन्न होने योग्य कर्मों के बन्धन के कारणों की नाना प्रकार के गोत्र किया है। बृहद्वृत्तिकार ने इसका मुख्य . चर्चा चार श्लोकों में की है। वे कारण ये हैंअर्थ नाना नाम वाली जातियां और वैकल्पिक अर्थ हीन, मध्य देव-आयुष्य बन्धक -१. सराग तपःसंयम का पालन और उत्तम भेद प्रधान गोत्रों में किया है। करने वाला २. अणव्रतधर ३. दान्त ४. अज्ञान तप में चूर्णि के अनुसार जाति का अर्थ है—जन्म। शान्त्याचार्य आसक्त। ने इसका मुख्य अर्थ क्षत्रिय आदि जातियां और वैकल्पिक अर्थ नरक-आयुष्य का बन्धकर्ता-१. हिंसा में रत २. क्रूर जन्म किया है। ३. महान् आरम्भ और महान् परिग्रह में रत ४. मिथ्यादृष्टि ५. प्रस्तुत प्रसंग में जाति का अर्थ जन्म अधिक प्रासंगिक महान् पापी। असुर-आयुष्य का बन्धकर्ता-१. अज्ञान तप में प्रतिबद्ध २. प्रबल क्रोध करने वाला ३. तप का अहं करने वाला ४. वैर ६. समूचे विश्व का स्पर्श कर लेते हैं (विस्संमिया) में प्रतिबद्ध। “विस्सभिया' पद में बिन्दु अलाक्षणिक है। इसका संस्कृत व्यन्तर-आयुष्य का बन्धकर्ता-१. फांसी पर लटककर रूप है-विश्वभृतः और अर्थ है-बार-बार के जन्म-मरण से आत्महत्या करने वाला २. विषभक्षण करने वाला ३. अग्निदाह विश्व के कण-कण का स्पर्श करने वाले जीव। इसका संस्कृत में जल कर मरने वाला ४. जल में डूब मरने वाला ५. भूख रूप विश्रम्भित भी हो सकता है। 'विस्संभिया' शब्द के तात्पर्यार्थ और प्यास से क्लान्त होने वाला। १. (क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १६२, १६३ : मिच्छादिट्ठी जीवो उवइट्ठ पवयणं न सद्दहइ। सद्दहइ असब्भावं उवइट्ठ वा अणुवइ8।। सम्माद्दिट्ठी जीवो उवइट पवयणं तु सद्दहइ। सद्दहइ असब्भावं अणभोगा गुरुनिओगा वा ।। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १५१,१५२। २. बृहद्वृत्ति, पत्र १५२-१८१। ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ जननं जाति: नानागोत्रास्विति हीणमज्झिमउत्तमासु। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८१ : नाना इत्यनेकार्थः, गोत्रशब्दश्च नामपर्यायः, ततो नानागोत्रासु-अनेकाभिधानासु जायन्ते जन्तवे आस्विति जातयःक्षत्रियाद्याः तासु अथवा जननानि जातयः, ततो जातिषु क्षत्रियादिजन्मसु नाना हीनमध्यमोत्तमभेदेनानेक गोत्रं यासु तास्तथा तासु। ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ । (ख) बृहवृत्ति, पत्र १८१,१८२ : विस्संभिय ति बिन्दोरलाक्षणिकत्वाद् विश्व-जगत् विप्रति-पूरयन्ति क्वचित् कदाचिदुत्पत्था सर्वजगद्व्यापनेन विश्वभृतः....विश्रम्भिताः सजातविश्रम्भाः सत्यः प्रक्रमात् कर्मस्वेव तद्विपाकदारुणत्वापरिज्ञानात्। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र १८२। सुखबोधा, पत्र ६७: देवाउयं निबंधइ, सरागतवसंजमो। अणुव्वयधरो दंतो, सत्तो बालतवम्मि य।। जीवघायरओ कूरो, महारंभपरिग्गहो। मिच्छदिट्टी महापावो, बंधए नरयाउयं ।। बालतवे पडिबद्धा, उक्कडरोसा तवेण गारविया। वेरेण य पडिबद्धा, भरिऊणं जंति असुरेसु।। रज्जुग्गहणे विसभक्खणे य जलणे य जलपवेसे य। तण्हाछुहाकिलंता, मरिऊणं हुंति वंतरिया।। Jain Education Intemational Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरंगीय ८. (खत्तिओ, चंडाल बोक्कसो) इस श्लोक में आए हुए तीन शब्द -- क्षत्रिय, चाण्डाल और बुक्कस—संग्राहक हैं । क्षत्रिय शब्द से वैश्य, ब्राह्मण आदि उत्तम जातियों, चाण्डाल शब्द से निषाद, श्वपच आदि नीच जातियों और बुक्कस शब्द से सूत, वैदेह, आयोगव आदि संकीर्ण जातियों का ग्रहण किया गया है।" जैन और बौद्ध परम्परा में क्षत्रिय का स्थान सर्वोच्च रहा है। सुखबोधा वृत्ति में क्षत्रिय का अर्थ राजा किया है। कल्प- सूत्र में ब्राह्मण की गिनती भिक्षुक या तुच्छ कुल में की है। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि शलाका-पुरुष ब्राह्मण कुल में उत्पन्न नहीं होते। दीघनिकाय और निदान-कथा के अनुसार क्षत्रियों का स्थान ब्राह्मणों से ऊंचा है। चण्डाल - शब्द के दो अर्थ किए गए हैं – (१) मातंग और ( २ ) शूद्र से ब्राह्मण स्त्री में उत्पन्न व्यक्ति । उत्तरवर्ती वैदिक साहित्य के अनुसार चण्डाल अनार्य वर्ग की एक जाति है। वह ऋग्वेद के समय के पश्चात् आर्यों को गंगा के पूरब में मिली थी। मनुस्मृति (१०1५१, ५२ ) में चण्डाल के कर्तव्यों का प्रस्तुत करते हुए कहा है चण्डालश्वपचानां तु बहिर्ग्रामात् प्रतिश्रयः । अपपात्राश्च कर्तव्या धनमेषां श्वगर्दभम् ।। वासांसि मृतचेलानि भिन्नाभाण्डेषु भोजनम् । कार्ष्णायसमलंकाराः परिवर्ज्या च नित्यशः ।। वोक्कसो—इसके संस्कृत रूप धार मिलते हैं-बुक्कस, पुष्कस, पुक्कस और पुल्कस । बुक्कस श्मशान पर काम करने वाले कहलाते विवरण बुक्क पुष्कस — जो मरे हुए कुत्तों को उठाकर बाहर फेंकते हैं, उन्हें पुष्कस कहा जाता है। " हैं । ७३ व्याख्याकारों ने दूसरे अर्थ (सर्व विषय) का विस्तार किया है। वह इस प्रकार है-राजाओं के पास समस्त प्रकार की सुख सामग्री और कामभोगों को उत्तेजित करने वाले पदार्थ उपलब्ध रहते हैं । इन्द्रिय-विषयों का उपभोग करते हुए भी वे कभी तृप्त नहीं होते। उनकी तृष्णा बढ़ती है, साथ-साथ प्रताप पुक्कस- चाण्डाल और पुक्कस - पर्यायवाची भी माने भी बढ़ता है और वे सर्वत्र प्रसिद्ध हो जाते हैं । वे शारीरिक गए हैं। 9. पुल्कस - भंगी । (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८२, १८३ चण्डालग्रहणान्नीचजातयो बुक्कसग्रहणाच्च संकीर्णजातय उपलक्षिताः । इह च क्षत्रियग्रहणादुत्तमजातयः (ग) मनुस्मृति, १०।२५, २६, ४८ । दीघनिकाय, ३।१।२४, २६ । २. ३. निदानकथा, ११४६ । ४. सुखबोधा, पत्र ६७ 'चाण्डाल' मातङ्गः यदि वा शूद्रेण ब्राह्मण्या जातश्चाण्डालः । ५. हिन्दुस्तान की पुरानी सभ्यता, पृ. ३४ । ६. अभिधान चिंतामणि, ३।५६७ ७. वही, ३१५६७ । ८. महाभारत शान्तिपर्व १८०३८ । ६. मनुस्मृति, १०१४६ क्षत्रुग्रपुक्कसानां तु बिलौकोवधबन्धनम् । अध्ययन ३ : श्लोक ४, ५ टि०८,६ मनुस्मृति में विभिन्न वर्णों के कार्यों का विवरण दिया गया है। उसके अनुसार ' पुक्कस' का कार्य बिलों में रहने वाले गोह आदि को मारना या बांधना है। अभिधानप्पदीपिका में 'पुक्कस' का अर्थ तोड़ने वाला किया गया है । " चुर्णिकार और टीकाकार इसका अर्थ 'वर्णान्तरजन्मा ' करते हैं। जैसे—— ब्राह्मण से शूद्र स्त्री में उत्पन्न प्राणी निषाद, ब्राह्मण से वैश्य स्त्री से उत्पन्न प्राणी अम्बष्ठ और निषाद से अम्बष्ट स्त्री से उत्पन्न प्राणी बोक्कस कहलाता है।" कौटिल्य अर्थशास्त्र और मनुस्मृति में इनसे भिन्न मत का उल्लेख है । मनुस्मृति में बताया गया है कि ब्राह्मण से वैश्य कन्या से उत्पन्न अम्बष्ट और ब्राह्मण से शूद्र कन्या से उत्पन्न निषाद कहलाता है। इसको पारशव भी कहते हैं। कौटिल्य अर्थशास्त्र (पृष्ठ १६५, १६६) में ' पुक्कस' का अर्थ निषाद से उग्री में उत्पन्न पुत्र और मनुस्मृति में निषाद से शूद्र में उत्पन्न पुत्र किया गया है।" महाभारत" में चाण्डाल और पुल्कस का एक साथ प्रयोग मिलता है। 'पुल्कस' का प्राकृत 'बुक्कस' हो सकता है। पुल्कस और चाण्डाल अर्थात् भंगी और चाण्डाल । ९. ( सव्वट्ठेसु व खत्तिया) सर्वार्थ शब्द के दो अर्थ किए जा सकते हैं-सर्व प्रयोजन और सर्व विषय । जिस प्रकार कोई क्षत्रिय प्रयोजन उपस्थित होने पर पराजय स्वीकार नहीं करता, खिन्न नहीं होता, उसी प्रकार कर्म से कलुषित व्यक्ति संसार- भ्रमण से खिन्न नहीं होता । और मानसिक दुःखों को भोगते हुए भी उन कामभोगों से कभी विरक्त नहीं होते। वे और अधिक अनुरक्त होते जाते हैं। वे १०. अभिधानप्पदीपिका, पृ. ५०८ : पक्कसो पुष्पछड्डको । ११. ( क ) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ बुक्कसो वर्णान्तरभेदः, यथा बंभणेण सुद्दीए जातो णिसादोत्ति वुच्चति, बंभणेण वेसीते जातो अबटूट्ठेत्ति वुच्चति, तत्थ निसाएणं अंबटूटीए जातोसो बोक्कसो भवति । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८२ । (ग) सुखबोधा, पत्र ६७ । १२. मनुस्मृति, १० : ब्राह्मणाद् वैश्य कन्यायामम्बष्ठो नाम जायते । निषादः शूद्रकन्यायां यः पारशव उच्यते ।। १३. मनुस्मृति, १०।१८ जातो निषादाच्छूद्रायां जात्यां भवति पुक्कसः । १४. महाभारत, शान्तिपर्व, १८० / ३८ : न पुल्कसो न चाण्डाल, आत्मानं त्यक्तुमिच्छति । तया पुष्टः स्वया योन्या, मायां पश्यस्व यादृशीम् ।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७४ अध्ययन ३ : श्लोक ७-६ टि० १०-१६ जन्म-मरण के आवर्त से छुटकारा नहीं पा सकते।' विजय का परिणाम बतलाया है। शान्ति से परीषहों को जीतने वैसे ही अधर्म में रत व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्त की क्षमता प्राप्त होती है। नहीं हो सकते। १४. श्रद्धा (सद्धा) १०. कर्म-किल्विष (कम्मकिब्बिसा) बृहवृत्ति के अनुसार श्रद्धा का अर्थ है-धर्म के प्रति कर्मों से मलिन अथवा जिनके कर्म मलिन हों, वे रुचि या धर्म करने की अभिलाषा। निरुक्त में श्रत् का अर्थ कर्म-किल्विष कहलाते हैं। कर्म दो प्रकार के होते हैं शुभानुबन्धी सत्य और वह जिस बुद्धि में धारण किया जाता है, उसका नाम और अशुभानुबन्धी। जिनके अशुभानुबन्धी कर्म होते हैं वे है श्रद्धा।" 'कर्म-किल्विष' होते हैं। इन विचार-सूत्रों के आधार पर श्रद्धा का अर्थ सत्योन्मुखी ११. योनिचक्र में (आवजोणीसु) अभिरुचि किया जा सकता है। जीवों के उत्पत्ति स्थान को 'योनि' कहते हैं। वे ८४ लाख १५. मोक्ष की ओर ले जाने वाले (नेआउयं) हैं। अनादिकाल से जीव इन योनियों में जन्म-मरण करता रहा चूर्णिकार ने इसका अर्थ ले जाने वाला किया है। टीका है। जन्म-मरण का यह आवर्त है।' में इसका अर्थ न्यायोपपन्न किया गया है। डॉ. ल्यूमेन ने १२. (श्लोक ७) औपपातिक सूत्र में तथा डॉ. पिशल, डॉ. हरमन जेकोबी आदि गति के चार प्रकार हैं-१. नरकगति, २. तिर्यचगति, ३. ने इसका अर्थ न्यायोपपन्न किया है।" मनुष्यगति और ४. देवगति। तिर्यच और नरकगति के योग्य बौद्ध साहित्य में नैर्यानिक का अर्थ दुःखक्षय की ओर ले कर्म मनुष्यगति की प्राप्ति के प्रतिबन्धक होते हैं। उनके जाने वाला, पार ले जाने वाला किया गया है।" चूर्णिकार के अर्थ अस्तित्व-काल में जीव मनुष्यगति को प्राप्त नहीं होता। 'आनुपूर्वी' का इससे निकट का सम्बन्ध है। इस अर्थ के आधार पर नामकर्म की एक प्रकृति है। मनुष्य-आनुपूर्वी नामकर्म का उदय 'नेआउय' का संस्कृत रूप नैर्यातक होना चाहिए। नैर्यातक के होने पर जीव मनुष्य गति में आता है। निष्कर्ष यह है कि प्राकृत रूप 'नेआइय' और 'नेआउय' दोनों बन सकते हैं। मनुष्यगति के बाधक कर्मों का नाश तथा मनुष्य-आनुपूर्वी सूत्रकृतांग चूर्णि में ये दोनों रूप प्रयुक्त हुए हैं। वहां इनका अर्थ नामकर्म का उदय होने पर जीव को मनुष्यगति में आने की मोक्ष की ओर ले जाने वाला किया गया है।'६ शुद्धि प्राप्त होती है। उसी अवस्था में वह मनुष्य बनता है। १६. बहुत लोग....उससे प्रष्ट हो जाते हैं (बहवे परिभस्सई) १३. तप, सहिष्णुता और अहिंसा को (तवं खतियमहिंसय) इस पद में चूर्णिकार और शान्त्याचार्य ने जमाली आदि इस चरण में 'तव' के द्वारा तपस्या के बारह भेदों, ‘खंति' निह्नवों का उल्लेख किया है। ये सभी निह्नव कुछ एक के द्वारा दस-विध श्रमण-धर्म और 'अहिंसा' द्वारा पांच महाव्रतों शंकाओं को लेकर नैर्यातृकमार्ग-निग्रंथ प्रवचन से भ्रष्ट हो गए का ग्रहण किया गया है, ऐसा सभी व्याख्याकारों का मत है। थे, दूर हो गए थे। शान्ति का अर्थ है—सहिष्णुता, क्षमा। वृत्तिकार ने इसका अर्थ नेमिचन्द्र ने सातों निह्नवों का विवरण उद्धृत किया क्रोध-जय किया है। उनतीसवें अध्ययन में शान्ति को क्रोध- है। वह आवश्यक नियुक्ति में भी है। डॉ. ल्यूमेन ने १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६७। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८४ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८३। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र १८४ : शान्तिं क्रोधजयलक्षणाम्। २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६७ : 'कम्मकिब्बिसा' इति कम्मेहिं ८. उत्तराध्ययन २६६८ : कोहविजएणं खंति जणयइ। किब्बिसा, कम्मकिब्बिसा, कर्माणि तेषां किब्बिसाणि कर्मकिब्बिसा। ६. उत्तराध्ययन २६।४७ : खंतीए णं परीसहे जिणइ। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८३ : कर्मणाः--उक्तरूपेण किल्बिषा:--अधमाः १०. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १८५ : श्रद्धा रुचिरूपा प्रक्रमाद् धर्मविषयेव। कर्मकिल्बिषाः, प्राकृतत्वाद्वा पूर्वापरिनिपातः, किल्विषाणि-क्लिप्टतया (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १४४ : श्रद्धा धर्मकरणाभिलाषः । निकृष्टान्यशुभानुबन्धीनि कर्माणि येषां ते किल्विषकर्माणः। ११. पातंजल योगदर्शन १२०, टीका पृ. ५५ । ३. सुखबोधा, पत्र ६७ : आवतः-परिवतः तत्प्रधाना योनयः- १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६८: नयनशीलो नैयायिकः । चतुरशीतिलक्षप्रमाणानि जीवोत्पत्तिस्थानानि आवर्त्तयोनयस्तासु। १३. बृहवृत्ति, पत्र १८५ : नैयायिकः, न्यायोपपन्न इत्यर्थः । ४. पन्नवणा २३१५४। १४. देखें-उत्तराध्ययन चार्ल सरपेन्टियर, पृ. २६२। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६८ : तेषां मानुसजातिनिर्वर्तकानां कर्मणां १५. बृद्धचर्या, पृ. ४६७, ४८६ । प्रहीयते इति प्रहाणा, आनुपूर्वी नाम क्रमः तया आनुपूर्व्या, प्रहीयमाणेषु १६. (क) सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. ४५७ : नयनशीलो नेयाइओ मोक्ष नयतीत्यर्थः । मनुष्ययोनिघातिषु कर्मसु निर्वर्तकेषु वा आनुपूर्वेण उदीर्यमाणेसु, कथं (ख) सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. ४५५ : मोक्खं णयणशीलो णेयाउओ। आना उदीर्यते? उच्यते, उक्कड्ढतं जहा तोय, अहवा कम्मं वा जोग १७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६८। व भवं आयुगं वा मणुस्सगतिणामगोत्तस्स कस्मिंश्चित्तु काले कदाचित (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८५। पु पूरणे, न सर्वदेवैत्यर्थः, 'जीवा सोधिमणुप्पत्ता शुद्ध्यते अनेनेति वा सोधिमणुप्पत्ता शुद्धयते अनेनेति १८. सुखबोधा, पत्र ६६-७५, शोधिः तदावरणीय कर्मापगमादित्यर्थः । १६. आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरि वृत्ति, पत्र ४०१। ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६८। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरंगीय Indischen Studien, vol. XXII, pp. 91-135 में निहूनवों का विवरण सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। डॉ. हरमन जेकोबी ने अपने अन्वेषणात्मक निबन्ध— 'श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति' में भी इस विवरण का उपयोग किया है। १७. (श्लोक ११) यह श्लोक प्रथम श्लोक का निगमन प्रस्तुत करता है। प्रथम श्लोक का प्रतिपाद्य है कि चार परम अंग हैं और उनकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। इस श्लोक में इन चार परम अंगों की प्राप्ति का परिणाम निर्दिष्ट है। जिसे चतुरंग की प्राप्ति हो जाती है वह पूर्व संचित कर्मरजों को विनष्ट कर आत्मा को विशुद्ध बना लेता है। इस प्रकार चतुरंग का सिद्धांत आध्यात्मिक वि की एक प्रायोगिक भूमिका का निर्देश है। १८. (सोही उज्जुयभूयस्स) ७५ अध्ययन ३ : श्लोक ११-१३ टि० १७-२० का जीवन धर्मानुगत होता है उसमें आत्म-रमण की स्थिति सहज हो जाती है। यही सही अर्थ में स्वास्थ्य है। आत्म-रमण की अवस्था सहजानन्द की अवस्था है । उसमें सुख निरन्तर बढ़ता रहता है। जैन आगम के अनुसार एक मास की पर्याय वाला श्रमण व्यन्तर देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर जाता है । स्वस्थ श्रमण चक्रवर्ती के सुखों को भी लांघ जाता है। यह परम सुख की अनुभूति आत्म-सापेक्ष होती है । यही स्वास्थ्य या निर्वाण है। जीवन्मुक्ति का अर्थ है इसी जीवन में मुक्ति ।" शान्त्याचार्य ने यहां 'प्रशमरति' का एक श्लोक उद्धृत किया है ऋजुता शुद्धि का घटक तत्त्व है। निर्जरा हमारे प्रत्यक्ष नहीं है। शुद्धि व्यवहार में प्रत्यक्ष हो जाती है। शुद्धि और ऋजुता — दोनों में घनिष्ट सम्बन्ध है। ऋजुता का एक प्रकार है— अविसंवादन अर्थात् कथनी और करनी में संवादिता । अविसंवादिता आने पर ही जीवन में धर्म की आराधना होती है। उनतीसवें अध्ययन में इसका स्पष्ट उल्लेख है गौतम ने पूछा- ऋजुता से जीव क्या प्राप्त करता है? भगवान् बोले- ऋजुता से वह काया, मन और भाषा - वाणी की सरलता और अविसंवादन वृत्ति को प्राप्त होता है। अविसंवादन वृत्ति से सम्पन्न जीव धर्म का आराधक होता है।' माया एक शल्य है। उसकी विद्यमानता में व्रत या धर्म की प्राप्ति नहीं होती । उमास्वाति ने इसी आशय से लिखा है—व्रती या धार्मिक वही व्यक्ति होता है जो निःशल्य हो जाता है । ऋजु शब्द के दो अर्थ हैं— सरल और मोक्ष । चूर्णि में ऋजुभूत का अर्थ है- सरलता के गुण युक्त' और बृहद्वृत्ति में इसका अर्थ है चतुरंग की प्राप्ति से मुक्ति के प्रति प्रस्थित ।* १९. (निव्वाणं... पयसित्तव्य पावए) चूर्णि में निर्वाण का अर्थ मुक्ति है। शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ किए हैं— (१) स्वास्थ्य और (२) जीवन्मुक्ति । स्वास्थ्य का अर्थ है अपने आपमें अवस्थिति, आत्म-रमण। जिस व्यक्ति 9. उत्तराध्ययन २६ । सूत्र ४६ । २. तत्त्वार्थवार्तिक, ७।१८ : निःशल्यो व्रती । ३. उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. ६६ अर्जतीति ऋजुभूतः तद्गुणवतः । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र १८५ ऋजुभूतस्य चतुरंगप्राप्त्या मुक्तिंप्रति प्रगुणीभूतस्य । ५. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ६६ : निर्वृत्तिः निर्वाणम् । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र १८५, १८६ : 'निर्वाणं' निर्वृत्तिनिर्वाणं स्वास्थ्यमित्यर्थः 'परम' 'एगमासपरियाए समणे वंतरियाणं तेयल्लेसं वीईवयति' इत्याद्यागमेनोक्तं 'नैवास्ति राजराजस्य तत्सुख' मित्यादिना च वाचकवचनेनानूदितम् । निर्जितमदभवनानां वाक्कायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ।।२३८ ।। नेमिचन्द्र ने निर्वाण शब्द का अर्थ जीवन्मुक्ति किया है। और मुनि-सुख की अर्घ्यता को लक्ष्य कर एक दूसरा श्लोक भी उद्धृत किया है। - तणसंधारनिवन्नो वि, मुणिवरी भट्टारायमयमोहो। जं पावह मुत्तिसुहं, कत्तो तं चक्कवटी वि। नागार्जुनीय परम्परा में यह श्लोक भिन्न रूप से मिलता है, ऐसा चूर्णिकार और शान्त्वाचार्य ने उल्लेख किया है- चउद्धा संपयं लद्धुं इहेव ताव भायते । तेयते तेजसपन्ने, घयसित्तेव पावए ।। पलाल, उपल आदि के द्वारा अग्नि उतनी दीप्त नहीं होती जितनी कि वह घृत के सिंचन से होती है, इसलिए यहां घयसित्तव्व पाव-घृत सिंचन की उपमा को प्रधानता दी है ।" यहां निर्वाण की तुलना घृत-सिक्त अग्नि से की गई है। घृत से अग्नि प्रज्वलित होती है, बुझती नहीं, इसलिए निर्वाण का अर्थ 'मुक्ति' की अपेक्षा 'दीप्ति' अधिक उपयुक्त है। मुक्ति, स्वास्थ्य या जीवन्मुक्ति- ये सभी चेतना की प्रज्वलित-तेजोमय अवस्था के नाम हैं। इस दृष्टि को सामने रखकर निर्वाण का इनमें से कोई भी अर्थ किया जा सकता है। किन्तु उसका अर्थ 'बुझना' उपमा के साथ सामंजस्य नहीं रखता। २०. कर्म के हेतु को (कम्मणो हेउ) कर्म बन्ध के दो मुख्य हेतु हैं- -राग और द्वेष अथवा कर्मबन्ध का कारण है-आश्रव। वह पांच प्रकार का है बृहद्वृत्ति, पत्र १८६ : यद्वा निर्वाणमिति जीवन्मुक्तिम् । सुखबोधा, पत्र ७६ । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ६६ । ७. ८. ६. १०. बृहद्वृत्ति, पत्र १८६ । ११. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६: तृणतुषपलालकरीषादिभिरींधनविशेषरिंध्यमानो न तथा दीप्यते यथा घृतेनेत्यतोऽनुमानात् ज्ञायते तथा घृतेनाभिषिक्तोऽधिकं भाति । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७६ अध्ययन ३ : श्लोक १४-१५ टि० २१-२७ है और अन्तिम चरण में प्रथम पुरुष की। इससे जान पड़ता है मिथ्यात्व आश्रव, अव्रत आश्रव, प्रमाद आश्रव, कषाय आश्रव कि प्रथम दो चरणों में उपदेश है और अन्तिम दो चरणों में और योग आश्रव। सामान्य निरूपण है। २१. दूर कर (विगिंच) शान्त्याचार्य के अनुसार अन्तिम दो चरणों की व्याख्या इस चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं' प्रकार है-'ऐसा करने वाला पार्थिव शरीर को छोड़कर १. विचङ् पृथग्भागे-पृथक्-पृथक् करना। ऊर्ध्वदिशा (स्वर्ग या मोक्ष) को प्राप्त होता है, इस अर्थ के आगे २. छोड़ना त्यागना। इतना और जोड़ देना चाहिए'—इसलिए तू भी ऐसा कर।' २२. पार्थिव शरीर को (पाढवं सरीर) २४. देव (जक्खा ) बृहवृत्तिकार ने 'पाढवं' की व्याख्या इस प्रकार की है- यक्ष शब्द 'यज' धातू से बना है। इसके दो निरुक्त हैंजो पृथ्वी के तुल्य है वह पार्थिव है। पृथ्वी का एक नाम है- (१) इज्यन्ते पूज्यन्ते इति यक्षाः-जो पूजे जाते हैं वे यक्ष-देव सर्वसहा। वह सब कुछ सहन करती है। मनुष्य का शरीर सब हैं। (२) यान्ति वा तथाविधर्द्धिसमुदयेऽपि क्षयमिति यक्षाः-जो कुछ सहन करता है, सुख-दुःख में सम रहता है। सहिष्णुता की अनेक ऋद्धियों से संपन्न होने पर भी अपनी अवस्थिति से समानता के आधार पर शरीर को भी पार्थिव कहा गया है। च्यूत होते हैं, वे यक्ष हैं। __ इसका दूसरा अर्थ शैल या पर्वत किया जाता है। मनुष्य पहले इसका अर्थ देव था। उत्तरवर्ती साहित्य में इसके पर्वत की भांति अति निश्चल अवस्था को प्राप्त होता है, इसलिए अर्थ का अपकर्ष हुआ और यह शब्द निम्न कोटि की देवजाति उसके शरीर को पार्थिव कहा गया है। के लिए व्यवहृत होने लगा। वृत्तिकार के ये दोनों अर्थ पार्थिव शब्द से बहुत दूर का २५. महाशक्ल (महासूक्का ) संबंध स्थापित करते हैं। चन्द्र, सूर्य आदि अतिशय उज्ज्वल प्रभा वाले होते हैं सूत्रकृतांग की चूर्णि के अनुसार पांच भूतों में पृथ्वी को इसलिए उन्हें महाशुक्ल कहा गया है। 'सुक्क' का संस्कृत रूप मुख्य मानकर शरीर को पार्थिव कहा गया है। शरीर में कठोर शुक्त भी हो सकता है। उसका अर्थ अग्नि भी है। यह मान लेने भाग पृथ्वी, द्रव भाग अप्, उष्णता तेजस्, उच्छ्वास-निःश्वास पर इसका अर्थ होगा-महान् अग्नि । वायु और शुषिर भाग आकाश है। २६. (श्लोक १४) आयुर्वेद में शरीर को पार्थिव कहने का जो कारण बतलाया सभी देव समान शील वाले नहीं होते। उनके तप, नियम है, वह बहुत स्पष्ट है। संभावना की जा सकती है कि पार्थिव और संयम-स्थान समान नहीं होते। व्यक्ति अपने पूर्वजन्म में शब्द आयुर्वेद की परम्परा से ही संगृहीत है। जिस प्रकार से शील-संयम का पालन करता है, उसी के _ 'गंध, घ्राणेन्द्रिय तथा शरीर के अन्तर्गत समस्त कठिन अनुरूप वह देवगति को प्राप्त करता है। सभी देवताओं की अवयव, गुरुत्व (भारीपन तथा पोषण), स्थिरता-ये कार्य शरीर सम्पदा एक सी नहीं होती। पहले देवलोक से दूसरे की और में पृथिवी महाभूत के हैं......पृथिवी लोक पर पाए जाने वाले दूसरे से तीसरे की सम्पदा अधिक होती है। इसी प्रकार यह मनुष्य आदि के शरीर पार्थिव शरीर कहे जाते हैं।' ___शरीरशास्त्री कहते हैं कि शरीर का ७० प्रतिशत भाग सम्पदा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। इसका कारण है-'जहा (लगभग २/३) जल ही से बना है। अस्थि .....सदृश कठिन जहा णं तेसिं देवाणं तव-नियम-बंभचेराणि ऊसितानि भवंति, जस्स जारिसं सीलमासि तारिसो जक्खो भवति। धातु का भी अर्धांश जल ही होता है। शेष घन द्रव्य आयुर्वेद मत विसालिसेहिं यह मागधदेशी भाषा का शब्द है। इसका से पृथिवी-विकार हैं।.....इसका (शरीर का) मुख्य उपादान संस्कृत रूप है-विसदृशैः ।। (समवायि) कारण पृथ्वी ही शेष रहता है। इसी से दर्शनों में इस शरीर को पार्थिव कहा जाता है।" २७. इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं (कामरूव २३. (श्लोक १३) विउग्विणो) प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरणों में मध्य पुरुष की क्रिया कामरूव विउविणो का अर्थ है-इच्छानुसार रूप करने २. १. उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. ६६ : विचिर् पृथक्भावे, पृथक् कुरुष्व । अहवा विगिंचेति उज्झित इत्यर्थः । बृहद्वृत्ति, पत्र १८६ : पाढवं ति पार्थिवमिव पार्थिवं शीतोष्णादि- परिषहसहिष्णुतया समदुःखसुखतया च पृथिव्यामिव भवं, पृथिवी हि सर्वसहाः, कारणानुरूपं च कार्यमिति भावो। यदि वा पृथिव्या विकारः पार्थिवः, स चेह शैलः ततश्च शैलेशीप्राप्यपेक्षयाऽतिनिश्चलतया शैलोपमत्वात् परप्रसिद्धया वा पार्थिवं.... ३. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. २३,२४ । ४. आयुर्वेदीय पदार्थ विज्ञान (वैद्य रणजितराय देसाई) पृ. ६६, १०६ । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र १८६।। ६. वही, पत्र १८७। ७. वही, पत्र १८७ : 'महाशुक्ला' अतिशयोज्ज्वलतया चन्द्रादित्यादयः । ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १००। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र १८७ : विसालिसेहिं ति मागधदेशीयभाषया विसदृशैः। Jain Education Intemational Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरंगीय में समर्थ, आठ प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त । तत्त्वार्थवार्तिक में एक साथ अनेक आकार वाले रूप निर्माण की शक्ति को कामरूपीत्व कहा है। चूर्णिकार ने इसका संस्कृत रूप 'कामरूपविकुर्विणः ' और शान्त्याचार्य तथा नेमिचन्द्र ने 'कामरूपविकरणाः' दिया है। 'विकुर्विणः' प्राकृत का ही अनुकरण है। २८. सैकड़ों पूर्ववर्षों तक असंख्य काल तक (पुब्बा वाससया बहू) ८४ लाख को ८४ लाख से गुणन करने पर जो संख्या प्राप्त होती है उसे पूर्व कहा जाता है। सत्तर लाख छप्पन हजार करोड़ वर्षों - ७०५६०००००००००- को पूर्व कहा गया है। बहु अर्थात् असंख्य । असंख्य पूर्व या असंख्य सौ वर्षों तक । इसका तात्पर्य है पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक। देवों की कम से कम इतनी स्थिति तो होती ही है। मुनि पूर्वजीवी या शतवर्षजीवी होते हैं इसलिए उन्हीं के द्वारा उनका माप बतलाया गया है।* २९. (श्लोक १६-१८) ७७ अध्ययन ३ : श्लोक १६-१८ टि० २८,२६ हैं—निवास और गति जिसमें रहा जाए उसको क्षेत्र कहा जाता है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार ग्राम, आराम आदि क्षेत्र कहलाते हैं। जहां अनाज उत्पन्न होता है, वह भी क्षेत्र कहलाता है । उसके तीन प्रकार हैं सोलहवें श्लोक में कहा गया है कि वे देव मनुष्य योनि में दस अंगों वाली भोग- सामग्री से युक्त होते हैं। वे दस अंग इस प्रकार हैं (१) चार कामस्कन्ध | (२) मित्रवान् । (२) ज्ञातिमान् । (६) नीरोग । (७) महाप्रज्ञ । (८) विनीत । (E) यशस्वी । (४) उच्चगोत्र । (५) वर्णवान्। (१०) सामर्थ्यवान्। चार कामस्कन्धों का निरूपण सतरहवें श्लोक में और शेष नौ अंगों का उल्लेख अट्ठारहवें श्लोक में है। चत्तारि कामखंधाणी 'काम-स्कन्ध' का अर्थ है-मनोज्ञ शब्दादि के हेतुभूत पुद्गल समूह अथवा विलास के हेतुभूत पुद्गल समूह। वे चार हैं- ( १ ) क्षेत्र वास्तु, (२) हिरण्य, (३) पशु, (४) दास - पौरुष । क्षेत्र शब्द 'क्षि' धातु से बना है। उस धातु के दो अर्थ १. (क) सुखबोधा, पत्र ७७: 'कामरूपविकरणाः' यथेष्टरूपादिनिर्वर्त्तशक्तिसमन्विताः । (ख) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १०१ : अष्टप्रकारैश्वर्ययुक्ता इत्यर्थः । २. तत्त्वार्थवार्तिक ३।३६, पृ. २०३ : युगपदनेकाकारूपविकरणशक्तिः कामरूपित्वमिति । ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १०१ काम्यंते कमनीया वा कामाः, रोचते रोचयति वा रूपं कामतो रूपाणि विकुर्वितुं शीलं येषां त इमे कामरूपविकुर्विणः । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८७ 'कामरूवविउब्विणो' त्ति सूत्रत्वात्कामरूपविकरणाः । (ग) सुखबोधा, पत्र ७७ । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र १८७ पूर्वाणि - वर्षसप्ततिकोटिलक्षषट्पंचशत्कोटिसहस्रपरिमितानि बहूणि, जघन्यतोऽपि पल्योपमस्थितित्वात्, तत्रापि च तेषामसङ्ख्येयानामेव सम्भवात् एवं वर्षशतान्यपि बहूनि पूर्ववर्षशतायुषामेव वास्तु का अर्थ है-- अगार-गृह । चूर्णिकार ने उसके तीन मेद किए है (१) सेतुक्षेत्र-जहां सफल सिंचाई से होती है। (२) केतुक्षेत्र-जहां फसल वर्षा से होती है । (३) सेतुकेतुक्षेत्र जहां ईख आदि सिंचाई और वर्षा दोनों से उत्पन्न होते हैं। (१) खात, (२) उच्छ्रित, (३) खातोति। उनकी व्याख्या के अनुसार भूमिगृह को सेतु, ऊंचे प्रासाद को केतु और उभयगृह (भूमिगृह के ऊपर के प्रासाद) को सेतु-केतु कहा जाता है यही अर्थ खात, उच्छ्रित और खातोच्छ्रित का है। (१) सेतुवास्तु, (२) केतुवास्तु, (३) सेतुकेतुवास्तु । अथवा शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने दूसरे विकल्प का उल्लेख किया है। अर्थ में तीनों एक मत हैं। पौरुष का अर्थ है- कर्मकर और दास का अर्थ है--- खरीदा हुआ और मालिक की सम्पत्ति समझा जाने वाला व्यक्ति -गुलाम । उसके जीवन पर स्वामी का पूर्ण अधिकार होता था। अपनी जन्मजात दास्य स्थिति को बदलना उसके वश में नहीं होता था और न वह सम्पत्ति का स्वामी हो सकता था। दास और नौकर-चाकर में यही अन्तर है कि नौकर-चाकर पर स्वामी का पूर्ण अधिकार नहीं होता, वह स्वामी की सम्पत्ति नहीं समझा जाता और वह अनिश्चित काल के लिए वेतन पर रखा जाता है । निशीर्थ चूर्णि में छह प्रकार के दास बतलाए गए हैं(१) परम्परागत । (२) खरीदकर बनाया हुआ । ७. चरणयोग्यत्वेन विशेषतो देशनौचित्यमिति ख्यापनार्थमित्थमुपन्यास इति । ५. सुखबोधा, पत्र ७७ : कामाः - मनोज्ञशब्दादयः तद्धेतवः स्कंधा:तत्तत्पुद्गलसमूहाः कामस्कंधाः । ६. बृहद्वृत्ति पत्र १८८ क्षि निवासगत्योः' क्षियन्ति निवसन्त्यस्मिन्निति क्षेत्रम् - ग्रामारामादि । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १०१ तत्र क्षेत्र सेतुं केतुं वा, सेतुं केतुं वा, सेतुं रहट्टादि, केतुं वरिसेण निप्फज्जते इक्ष्वादि सेतुं केतुम् । : उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. १०१ वत्युंसि सेतुं भूमिधरादि, केतुं यदभ्युच्छ्रितं प्रासादाद्यं, उभयथा गृहं सेतुकेतुं भवति, अथवा वत्युं खायं ऊसियं खातूसियं खातं भूमिधरं ऊसितं पासाओ खातूसितं भूमिधरोवारि पासादो । ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १८६८८ तथा वसन्त्यस्मिन्निति वास्तु-खातोच्छ्रितोभयात्मकम् । (ख) सुखबोधा, पत्र ७७ । ८. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि (३) कर्ज न चुकाने पर निगृहीत किया हुआ । (४) दुर्भिक्ष आदि होने पर भोजन आदि के लिए जिसने दासत्व ग्रहण किया हो। (५) किसी अपराध के कारण जुर्माना न देने पर राजा द्वारा जो दास बनाया गया हो। (६) बन्दी बनाकर जो दास बनाया गया हो। मनुस्मृति में सात प्रकार के दास बतलाए गए हैं— (१) ध्वजाहृतदास — संग्राम में पराजित दास । (२) भक्तदास - भोजन आदि के लिए दास बना हुआ। (३) गृहजदास — अपनी दासी से उत्पन्न दास । (४) क्रीतदास - खरीदा हुआ दास । (५) दत्रिमदास - किसी द्वारा दिया हुआ दास । (६) पैतृकदास पैतृक धन रूप में प्राप्त दास । (७) दण्डदास- -ऋण निर्यातन के लिए बना हुआ दास। मनुस्मृति में यह भी कहा गया है कि दास 'अधन' होते हैं। वे जो धन एकत्रित करते हैं वह उनका हो जाता है जिनके वे दास हैं। निशीथ चूर्णि और मनुस्मृति की दास सूची सदृश है। मनुस्मृति में केवल दत्रिम दास का विशेष उल्लेख हुआ है। याज्ञवल्क्यस्मृति के टीकाकार विज्ञानेश्वर ने पन्द्रह प्रकार के दास बतलाए हैं। उनमें मनुस्मृति में कथित प्रकार तो हैं ही, साथ में जु में जीते अपने आप मिले हुए, दुर्भिक्ष के समय हुए, बचाए हुए आदि-आदि अधिक हैं। * सूत्रकार ने ‘दास-पौरुष' को कामस्कन्ध— धन-सम्पत्ति माना है । दास- पौरुष शब्द से यह पता चलता है कि उस समय ' दास - प्रथा' बहुत प्रचलित थी । टीकाकारों ने दास का अर्थ पोष्य या प्रेष्य वर्ग और पौरुषेय का अर्थ पदाति समूह किया है। अंग्रेजी में भी दो शब्द हैं। Slave और Servant | ये दोनों दास और नौकर के पर्यायवाची हैं । ७८ जैन - साहित्य के अनुसार बाह्य परिग्रह के दस भेद हैं । उनमें 'दुप्पय' अर्थात् दो पैर वाले दास-दासियों को भी बाह्य परिग्रह माना गया है। १. निशीथ चूर्णि, पृ. ११1 २. मनुस्मृति ८ । ४१५ ध्वजाहृतो भक्तदासो, गृहजः क्रीतदत्रिमी । पैत्रिको दण्डदासश्च सप्तैते दासयोनयः ॥ ३. मनुस्मृति ८ ।४१६ भार्या पुत्रश्च, दासश्च त्रय एवाधनाः स्मृताः । यत्ते समधिगच्छन्ति, यस्य ते तस्य तद्धनम् ।। ४. याज्ञवल्क्यस्मृति, २।१४, पृ. २७३ । ५. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १८८ : दास्यते - दीयते एभ्य इति दासाःपोष्यवर्गरूपास्ते च पोरुसंति - सूत्रत्वात्पौरुषेयं च- - पदातिसमूहः दासपौरुषेयम् । अध्ययन ३ : श्लोक १६ टि० ३० कौटिलीय अर्थशास्त्र में गुलाम के लिए 'दास' और नौकर के लिए 'कर्मकर' शब्दों का व्यवहार किया गया है। इसमें दासकर्मकरकल्प नाम का एक अध्याय है ।" अनगारधर्मामृत की टीका में पण्डित आशाधरजी ने 'दास' शब्द का अर्थ - खरीदा हुआ कर्मकर किया है। आजकल लोगों की धारणा है कि 'दास' शब्द का अर्थ क्रूर और जंगली लोग है। पर 'दास' शब्द का मूल अर्थ यह नहीं जान पड़ता। दास का अर्थ दाता (जिसने अंग्रेजी में Noble कहते हैं) रहा होगा। ऋग्वेद की कई ऋचाओं से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि 'सप्त-सिन्धु' पर दासों का आधिपत्य था । जान पड़ता है कि दास लोग राजपूतों की तरह शूर थे। नमूचि, शंबर आदि दास बड़े शूरवीर थे।" इस आर्यपूर्व जाति पर आधुनिक अनुसन्धाताओं ने बहुत प्रकाश डाला है। ३०. संपूर्ण बोधि का (केवलं बोहि) बोधि शब्द 'बुध' धातु से निष्पन्न है। इसका अर्थ हैज्ञान का विवेक । अध्यात्म के अर्थ में इसका अर्थ हैआत्मबोध । यही मोक्षमार्ग का बोध है। बोधि और ज्ञान एक नहीं हैं । सामान्य ज्ञान के लिए बोधि का प्रयोग नहीं हो सकता । ज्ञान पुस्तकीय तथ्यों के आधार पर होने वाली अवगति है। बोधि आन्तरिक विशुद्धि से स्वयं प्रस्फुटित होने वाला ज्ञान है। इसे अतीन्द्रिय ज्ञान या विशिष्ट ज्ञान भी कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सम्यग् बुति बोधि है 'असोच्चा केवली' इसके स्फुट निदर्शन हैं। उनमें आन्तरिक विशुद्धि से प्रज्ञा का इतना जागरण हो जाता है कि वे केवली बन जाते हैं। संपूर्ण ज्ञान के धनी बन जाते हैं ।" स्थानांग सूत्र में तीन प्रकार की बोधि का उल्लेख है— ज्ञानबोधि, दर्शनबोधि और चारित्रबोधि । वृत्तिकार ने यहां 'बोधि' का अर्थ सम्यग्बोध किया है । ३ सूत्रकृतांग २/ ७३ में 'णो सुलभं च बोहिं च आहियं'में प्रयुक्त बोधि शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने सम्यग् दर्शन की (ख) सुखबोधा, पत्र ७७ । ६. धर्मस्थीय, ३।१३, प्रकरण ६५ । ७. अनगारधर्मामृत, ४ । १२१ । भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ. ११। ८. ६. ऋग्वेद, १1३२ ।११; ५। ३० । ५ । १०. भारतीय संस्कृति और अहिंसा पृ. १३ । ११. भगवती, ६।४६ आदि । १२. ठाणं ३१७६ तिविहा बोधी पण्णत्ता, तं जहा - णाणबोधी, दंसणबोधी, चरित्तबोधी । १३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १२३ : बोधिः सम्यग्बोधः । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरंगीय प्राप्ति किया है।" आचार्य कुन्दकुन्द ने बोधि की परिभाषा इस प्रकार की है— जिस उपाय से सद्ज्ञान उत्पन्न होता है, उस उपायचिन्ता का नाम बोधि है । इन सभी संदर्भों में 'बोधि' का अर्थ है— सम्यग्दर्शन । मोक्ष प्राप्ति का पहला सोपान है— सम्यग्दर्शन और उसके पश्चात् है संयम की साधना और उसकी फलश्रुति है मोक्ष । बोधि या संबोधि का अर्थ केवलज्ञान भी होता है । परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में वह अभिप्रेत नहीं है। बृहद्वृत्तिकार ने केवल का अर्थ-अकलंकित विशुद्ध और बोधि का अर्थ-जिनप्रणीत धर्म की प्राप्ति दिया है। नेमिचन्द्र ने भी यही अर्थ किया है। * ७९ १. सूत्रकृतांगवृत्ति, पत्र ७७: बोधिं च सम्यग्दर्शनावाप्तिलक्षणाम् । २. षट्प्राभृतादि संग्रह, पृ. ४४०, द्वादशानुप्रेक्षा ८३ । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र १८८ केवलाम्-अकलंकां बोधि- जिप्रणीतधर्म्मप्राप्तिलक्षणाम् । अध्ययन ३ : श्लोक २० टि० ३१ विशेष विवरण के लिए देखें- ठाणं ३/१७६ का टिप्पण । ३१. बचे हुए कर्मों को ....घुनकर (घुयकम्मंसे) कम्मंस— यह कर्मशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है । यह सत्कर्म या विद्यमान कर्म के अर्थ में रूढ़ है । केवली के चार भवोपग्राही कर्म वेदनीय नाम गोत्र और आयुष्य शेष रहते हैं। जीवन के अन्तिम काल में उन्हें क्षीण कर वह मुक्त हो जाता है । शान्त्याचार्य ने इसका मुख्य अर्थ सत्कर्म और विकल्प में अंश का अर्थ 'भाग' किया है। नेमिचन्द्र ने भी अंश का यही अर्थ किया है। इसके अनुसार 'धुतकम्मंस' का अर्थ होगाजो सर्व कर्मों के भाग का अपनयन कर चुका। ४. सुखबोधा, पत्र ७८ । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र १८८ : कम्मंसित्ति – कार्म्मग्रन्थिकपरिभाषया सत्कर्म्म..। ६. वही, पत्र १८८ कर्म्मणो अंशः - भागाः । ७. सुखबोधा, पत्र ७८ । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं अज्झयणं असंखयं चौथा अध्ययन असंस्कृत Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन का नाम नियुक्ति के अनुसार 'प्रमादाप्रमाद" परभव में ही मिलता है। कई मानते थे कि कर्मों का फल है ही और समवायाग के अनुसार 'असंस्कृत' (प्रा० असंखयं) है। नहीं। नियुक्तिकार का नामकरण अध्ययन में वर्णित विषय के आधार भगवान् ने कहा-“किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा पर है और समवायाङ्ग का नामाकरण आदानपद (प्रथमपद) के नहीं मिलता। कर्मों का फल इस जन्म में भी मिलता है और आधार पर है। इसका समर्थन अनुयोगद्वार से भी होता है। पर-जन्म में भी।” (श्लो० ३) 'जीवन असंस्कृत है-उसका संधान नहीं किया जा ४. यह मान्यता थी कि एक व्यक्ति बहुतों के लिए कोई सकता, इसलिए व्यक्ति को प्रमाद नहीं करना चाहिए' यही कर्म करता है तो उसका परिणाम वे सब भुगतते हैं। इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है। जिन व्यक्तियों का जीवन के प्रति भगवान् ने कहा-"संसारी प्राणी अपने बन्धुजनों के लिए यह दृष्टिकोण नहीं है, वे अन्य मिथ्या धारणाओं में फंसकर जो साधारण कर्म करते हैं, उस कर्म के फल-भोग के समय वे मिथ्याभिनिवेश को प्रश्रय देते हैं। सूत्रकार जीवन के प्रति बन्धुजन बन्धुता नहीं दिखाते, उसका भाग नहीं बंटाते।” (श्लो० जागरूक रहने की बलवती प्रेरणा देते हुए तथ्यों का प्रतिपादन ४) करते हैं और मिथ्या मान्यताओं का खण्डन करते हैं। वे मिथ्या ५. यह माना जाता था कि साधना के लिए समूह विघ्न मान्यताएं ये हैं-- है। व्यक्ति को अकेले में साधना करनी चाहिए। १. यह माना जाता था कि धर्म बुढ़ापे में करना चाहिए, भगवान् ने कहा-"जो स्वतंत्र वृत्ति का त्याग कर गुरु के पहले नहीं। आश्रयण में साधना करता है, वह मोक्ष पा लेता है।" (श्लो०८) भगवान ने कहा-“धर्म करने के लिए सब काल उपयुक्त ६. लोग कहते थे कि यदि छन्द के निरोध से मुक्ति मिलती हैं, बुढ़ापे में कोई त्राण नहीं है।” (श्लो० १) है तो वह अन्त समय में भी किया जा सकता है। २. भारतीय जीवन की परिपूर्ण कल्पना में चार पुरुषार्थ भगवान ने कहा-“धर्म पीछे करेंगे यह कथन शाश्वतवादी माने गए हैं—काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष । अर्थ को येनकेन- कर सकते हैं। जो अपने आपको अमर मानते हैं, उनका यह प्रकारेण अर्जित करने की प्रेरणा दी जाती थी। लोग धन को त्राण कथन हो सकता है, परन्तु जो जीवन को क्षण-भंगुर मानते हैं, मानते थे। वे भला काल की प्रतीक्षा कैसे करेंगे? वे काल का विश्वास कैसे भगवान् ने कहा--"जो व्यक्ति अनुचित साधनों द्वारा धन करेंगे? धर्म की उपासना के लिए समय का विभाग अवांछनीय का अर्जन करते हैं, वे धन को छोड़कर नरक में जाते हैं। यहां है। व्यक्ति को प्रतिपल अप्रमत्त रहना चाहिए।” (श्लो०६-१०) या परभव में धन किसी का त्राण नहीं बन सकता। धन का इस प्रकार यह अध्ययन जीवन के प्रति एक सही व्यामोह व्यक्ति को सही मार्ग पर जाने नहीं देता।" (श्लो०२,५) दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है और मिथ्या मान्यताओं का निरसन ३. कई लोग यह मानते थे कि किए हुए कर्मों का फल करता है। १. (क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १८१ : पंचविहो अपमाओ इहमज्झयणमि अप्पमाओ य। वण्णिएज्ज उ जम्हा तेण पमायप्पमायंति।। २. समवाओ, समवाय ३६ : छत्तीसं उत्तरज्झयणा प० त०—विणयसुर्य.. .असंखयं...। ३. अणुओगदाराई, सूत्र ३२२। Jain Education Intemational Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं : अज्झयणं चौथा अध्ययन असंखयं असंस्कृत : मूल १. असंखयं जीविय मा पमायए जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं वियाणाहि जणे पमते कण्णू विहिंसा अजया गर्हिति ।। २. जे पावकम्मेहि धणं मणूसा समाययंती अमई गहाय । पहाय ते पासपयट्टिए नरे वेराणुबद्धा नरयं उदेति ।। २. तेणे जहा संधिमुहे गहीए सकम्मुणा किच्च पावकारी एवं पया पेच्च इहं च लोए कडाण कम्माण न मोक्ख अतिथ ।। । ४. संसारमावन्न परस्स अट्ठा साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वैयकाले न बंधवा बंधवयं उवेंति ।। ५. वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते इममि सोए अदुवा परत्था। दीवप्पणठे व अनंतमोहे नेयाउयं दट्ठमदट्ठमेव । । ६. सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी न वीससे पंडिए आसुन्ने । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं भारुंडपक्खी व चरप्पमत्तो ।। ७. चरे पयाइं परिसंकमाणो जं किंचि पासं इह मण्णमाणो । लाभंतरे जीविय वूहइत्ता पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ।। संस्कृत छाया असंस्कृतं जीवितं मा प्रमादी: जरोपनीतस्य खलु नास्ति त्राणम्। एवं विजानीहि जनाः प्रमत्ताः कन्नु विहिंस्म अयता ग्रहीष्यन्ति ।। ये पापकर्मभिः धनं मनुष्याः समापवते अमति गृहीत्वा प्रहाय ते पाशप्रवर्तिताः नराः वैरानुका नरकमुपयन्ति ।। रतेनो यथा सन्धिमुखे गृहीतः स्वकर्मणा कृत्यते पापकारी। एवं प्रजा प्रेत्येह च लोके कृतानां कर्मणां न मोक्षोऽस्ति ।। संसारमापन्नः परस्यार्थात् साधारणं यच्च करोति कर्म । कर्मणस्ते तस्य तु वेदकाले न बान्धवा बान्धवतामुपयन्ति ।। वित्तेन त्राणं न लभते प्रमतः अस्मिल्लोके अथवा परत्र । प्रणष्टदीप इव अनन्तमोहः नैर्मातृकं दृष्ट्वाऽष्टुवे।। हिन्दी अनुवाद जीवन सांधा नहीं जा सकता, इसलिए प्रमाद मत करो। बुढ़ापा आने पर कोई शरण नहीं होता। प्रमादी, हिंसक और अविरत मनुष्य किसकी शरण लेंगे यह विचार करो । १ जो मनुष्य कुमति को स्वीकार कर पापकारी प्रवृत्तियों से धन का उपार्जन करते हैं वे मूर्च्छा के पाश से संचालित वैर से बंधे हुए व्यक्ति धन को छोड़कर नरक में जाते हैं। जैसे सेंध लगाते हुए पकड़ा गया पापी चोर अपने कर्म से ही छेदा जाता है, उसी प्रकार इस लोक और परलोक में प्राणी अपने कृत कर्मों से ही छेदा जाता है— दण्डित होता है। किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। संसारी प्राणी अपने बन्धुजनों के लिए जो साधारण कर्म (इसका फल मुझे भी मिले और उनको भीऐसा कर्म) करता है, उस कर्म के फल भोग के समय वे बन्धुजन बन्धुता नहीं दिखाते--उसका भाग नहीं बंटाते । प्रमत्त (धन में मूर्च्छित) मनुष्य इस लोक में अथवा परलोक में धन से त्राण नहीं पाता। अन्धेरी गुफा में जिसका दीप बुझ गया हो उसकी भांति, अनन्त मोह वाला प्राणी पार ले जाने वाले मार्ग को देखकर भी नहीं देखता ।" सुप्तेषु चापि प्रतिबुद्धजीवी आशुप्रज्ञ पंडित सोए हुए व्यक्तियों के बीच" भी जागृत न विश्वस्यात् पण्डित आशुप्रज्ञः । रहे । प्रमाद में विश्वास न करे काल बड़ा घोर घोरा मुहर्त्ता अवलं शरीर ( क्रूर) होता है। शरीर दुर्बल है। इसलिए भारण्ड भारण्डपक्षीव चराप्रमतः ।। पक्षी की भांति अप्रमत्त होकर विचरण करे । चरेत्पदानि परिशङ्कमानः यत्किञ्चित्पाशमिह मन्यमानः । लाभान्तरे जीवित बृंहयता पश्चात्परिज्ञाय मलापध्वंसी ।। पग-पग पर दोषों से भय खाता हुआ, थोड़े से दोष को भी" पाश मानता हुआ चले। नए-नए गुणों की उपलब्धि हो, तब तक जीवन को पोषण दे । ६ जब वह न हो तब विचार विमर्श पूर्वक" इस शरीर का वंस कर डाले। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंस्कृत ८३ अध्ययन ४ : श्लोक ८-१३ ८. छंदं निरोहेण उवेइ मोक्खं छन्दनिरोधेनोपैति मोक्षं शिक्षित (शिक्षक के अधीन रहा हुआ) और तनुत्राणधारी आसे जहा सिक्खियवम्मधारी। अश्वो यथा शिक्षितवर्मधारी। अश्व जैसे रण का पार पा जाता है, वैसे ही पुवाई वासाई चरप्पमत्तो पूर्वाणि वर्षाणि चरति अप्रमत्तः । स्वच्छन्दता का निरोध करने वाला मुनि संसार का तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं ।। तस्मान्मुनिः क्षिप्रमुपैति मोक्षम् ।। पार पा जाता है। पूर्व जीवन में जो अप्रमत्त होकर विचरण करता है, वह उस अप्रमत्त-विहार से शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होता है। ६. स पुन्वमेवं न लभेज्ज पच्छा स पूर्वमेव न लभेत पश्चात् जो पूर्व जीवन में२२ अप्रमत्त नहीं होता, वह पिछले एसोवमा सासयवाइयाणं। एषोपमा शाश्वतवादिकानाम् । जीवन में भी अप्रमाद को नहीं पा सकता। "पिछले विसीयई सिढिले आउयंमि विषीदति शिथिले आयुषि जीवन में अप्रमत्त हो जाएंगे"—ऐसा निश्चय-वचन कालोवणीए सरीरस्स भेए।। कालोपनीते शरीरस्य भेदे।। शाश्वतवादियों के लिए ही२३ उचित हो सकता है। पूर्व जीवन में प्रमत्त रहने वाला आयु के शिथिल होने पर, मृत्यु के द्वारा शरीरभेद के क्षण उपस्थित होने पर विषाद को प्राप्त होता है। १०.खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं क्षिप्रं न शक्नोति विवेकमेतुं कोई भी मनुष्य विवेक को तत्काल प्राप्त नहीं कर तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे। तस्मात्समुत्थाय प्रहाय कामान्। सकता। इसलिए हे मोक्ष की एषणा करने वाले समिच्च लोयं समया महेसी समेत्य लोक समतया महैषी महर्षि ! तुम उत्थित बनो–“जीवन के अंतिम भाग अप्पाणरक्खी चरमप्पमत्तो।। आत्मरक्षी चरति अप्रमत्तः।। में अप्रमत्त बनेंगे"-इस आलस्य को त्यागो। काम-भोगों को छोड़ो। लोक को भलीभांति जानो। समभाव में रमण तथा आत्म-रक्षक और अप्रमत्त होकर विचरण करो। ११.मुहं मुहं मोहगुणे जयंतं मुहुर्मुहुर्मोहगुणान् जयन्तं बार-बार मोहगुणों२८ पर विजय पाने का यत्न करने अणेगरूवा समणं चरंतं। अनेकरूपाः श्रमणं चरन्तम्। वाले उग्र-विहारी श्रमण को अनेक प्रकार के फासा फुसंती असमंजसं च स्पर्शा स्पृशन्त्यसमजसं च प्रतिकूल ६ स्पर्श पीड़ित करते हैं,३० असंतुलन पैदा न तेसु भिक्खू मणसा पउस्से।। न तेषु भिक्षुर्मनसा प्रद्विष्यात् ।। करते हैं। किन्तु वह उन पर मन से भी प्रद्वेष न करे। १२.मंदाय फासा बहुलोहणिज्जा मन्दाः स्पर्शा बहुलोभनीयाः कोमल—अनुकूल स्पर्श' बहुत लुभावने होते हैं। तहप्पगारेसु मणं न कुज्जा। तथाप्रकारेषु मनो न कुर्यात्। वैसे स्पशों में मन को न लगाये। क्रोध का निवारण रक्खेज्ज कोहं विणएज्ज माणं रक्षेत् क्रोधं विनयेद् मानं करे। मान को दूर करे। माया का सेवन न करे। मायं न सेवे पयहेज्ज लोहं।। मायां न सेवेत प्रजह्याल्लोभम् ।। लोभ को त्यागे। १३.जे संखया तुच्छ परप्पवाई ये संस्कृताः तुच्छाः परप्रवादिनः जो अन्यतीर्थिक लोग “जीवन सांधा जा सकता ते पिज्जदोसाणुगया परज्झा। ते प्रेयोदोषानुगताः पराधीनाः। है"३३--ऐसा कहते हैं वे अशिक्षित हैं,३. प्रेय और एए अहम्मे त्ति दुगुंछमाणो एते अधर्माः इति जुगुप्समानः द्वेष में फंसे हुए हैं, परतन्त्र हैं।३५ “वे धर्म-रहित कंखे गुणे जाव सरीरभेओ।। काक्षेद् गुणान् यावच्छरीरभेदः।। हैं”—ऐसा सोच उनसे दूर रहे।६ अन्तिम सांस तक३७ (सम्यक्-दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि) गुणों की आराधना करे। —त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। —ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन ४: असंस्कृत १. सांधा नहीं जा सकता (असंखयं) ४. पापकारी प्रवृत्तियों से (पावकम्मे हि) जिसका संस्कार किया जा सके, सांधा जा सके, बढ़ाया जा चूर्णि में पाप-कर्म का अर्थ-हिंसा, अनृत, चोरी, अब्रह्मचर्य, सके, उसको संस्कृत कहा जाता है। जीवन असंस्कृत होता है- परिग्रह आदि कर्म—किया है। शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ 'पाप न उसको सांधा जा सकता है और न बढ़ाया जा सकता है। यह के उपादान-भूत अनुष्ठान" और नेमिचन्द्र ने 'कृषि, वाणिज्य जीवन की सचाई है। नेमिचन्द्र ने यहां एक प्राचीन श्लोक उद्धृत आदि अनुष्ठान'५ किया है। किया है ५. मूर्छा के पाश से (पास) 'वासाइंदो व तिन्नि व, वाहिज्जइ जरघरं पिसीडेवि। चूर्णि और बृहद्वृत्ति में 'पास' का मुख्य अर्थ...पश्य सा का वि नत्थि नीई, सीडिज्जइ जीवियं जीए।' 'देख' किया गया है। बृहद्वृत्ति में इसका वैकल्पिक अर्थ 'पाश' सड़े-गले घर की मरम्मत कर दो-चार वर्ष उसमें रहा जा भी है। नेमिचन्द्र ने इसे 'पाश' शब्द माना है। उन्होंने दो सकता है। किंतु ऐसा कोई साधन नहीं है, जिससे टूटे हुए प्राचीन श्लोक उद्धृत किए हैंजीवन को सांधा जा सके। वारी गयाण जाल तिमीण हरिणाण वग्गुरा चेव। २. प्रमाद मत करो (मा पमायए) पासा य सउणयाणं, गराण बंधत्थमित्थीओ।।। इसका अर्थ है-जीवन असंस्कृत है और आयुष्य अल्प उन्नयमाणा अक्खलिय-परक्कमा पंडिया कई जे य। है। प्रस्तुत श्लोक की रचना में 'मप्पमाउयं' का लिपि-विपर्यय के महिलाहिं अंगुलीए, नच्चाविज्जति ते वि नरा।।२।। कारण ‘मा पमायए' बना है, अथवा 'मा पमायए' ही मूल पाठ हाथी के लिए वारि-शृंखला, मछलियों के लिए जाल, है, यह अन्वेषणीय है। प्रकरण की दृष्टि से 'मप्पमाउयं' पाट हिरणों के लिए वागुरा और पक्षियों के लिए पाश जैसे बन्धन है, अधिक प्रासंगिक है। उसी प्रकार मनुष्यों के लिए स्त्रियां बन्धन हैं। उन्नत और ३. बुढ़ापा आने पर (जरोवणीयस्स) अस्खलित पराक्रम वाले पण्डित और कवि भी महिलाओं की जो व्यक्ति ऐसा सोचते हैं कि धर्म तो बुढ़ापे में कर लेंगे, अंगुलियों के संकेत पर नाचते हैं। वे भ्रम में जीते हैं। उन्हें सोचना चाहिए ६. वैर से बंधे हुए व्यक्ति (वेराणुबुद्धा) 'जया य रूवलावण्णं सोहग्गं च विणासए। 'वेरे वज्जे य कम्मे य'-इस वचन के अनुसार वैर के जरा विडंबए देह, तया को सरणं मवे?' दो अर्थ होते हैं--वज और कर्म। यहां इसका अर्थ कर्म है। 'बुढ़ापा रूप, लावण्य और सौभाग्य को नष्ट कर देता है। शान्त्याचार्य के अनुसार 'वेराणुबद्ध' का अर्थ 'कर्म से बद्ध" वह शरीर की विडंबना करता है। तब भला वह शरण कैसे हो और नेमिचन्द्र के अनुसार 'पाप से बद्ध" होता है। सकता है?' ७. सेंध लगाते हुए (संधिमुहे) 'रसायणं निसेवति, मंस मज्जरसं तहा। इसका शाब्दिक अर्थ है-सेंध के द्वार पर।३० चूर्णिकार मुंजंति सरसाहार, जरा तहवि न नस्सए।' और टीकाकारों ने अनेक प्रकार की सेंध बतलाई हैं--कलशाकृति, लोग रसायनों का सेवन करते हैं ; मद्य, मांस, रस, सरस नंद्यावर्ताकृति, पद्माकृति, पुरुषाकृति आदि-आदि।" आहार आदि खाते हैं, फिर भी बुढ़ापा नहीं रुकता। शूद्रक द्वारा लिखित संस्कृत नाटक 'मृच्छकटिक' (३।१३) १. सुखबोधा, पत्र ७८ । ७. सुखबोधा, पत्र ८० : पाशा इव पाशाः । २. सुखबोधा, पत्र ७६ ८. बृहद्वृत्ति, पत्र २०६ : वैरं-कर्म...तेन अनुबद्धाः-सततमनुगताः । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० ११० : पातयते तमिति पापं, क्रियत इति कर्म, ६. सुखबोधा, पत्र ८०: वैरानुबद्धाः—पापेन सततमनुगताः । कर्माणि हिंसानृतरतेयाब्रह्मपरिग्रहादीनि। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र २०७ : संधिः-क्षत्रं तस्य मुखमिव मुख-द्वारं तस्मिन। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र २०६ : 'पापकर्मभिः' इति पापोपादानहेतुभिरनुष्ठानैः। ११. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १११ : खत्ताणि य अणेगागाराणि ५. सुखबोथा, पत्र ८०: पापकर्मभिः' कृषिवाणिज्यादिभिः अनुष्ठानैः । कलसागिति-णंदियावत्त-संहितं (ताणि) पयुमामि (सुमागि) ति ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० ११० : पस्सत्ति श्रोतुरामंत्रणम् । पुरिसाकिति वा। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २०६ : 'पश्य' अवलोकय...यदि था पाशा इव पाशा। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २०७। (ग) सुखबोधा, पत्र ८१। Jain Education Intemational Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंस्कृत ८५ अध्ययन ४ : श्लोक ५ टि० ८, ६ में सात प्रकार की सेंध बतलाई गई हैं-पद्म (कमल) के आकार इस कथा की तुलना 'मृच्छकटिक' (३।१३) में आई हुई कथा से की, सूर्य के आकार की, अर्द्धचन्द्र के आकार की, जलकुंड के होती है। उसमें चारुदत्त की विशाल हवेली की दीवार के निकट आकार की, स्वस्तिक के आकार की, उभरे बर्तन (पूर्णकुम्भ) के खड़ा निष्णात चोर 'शर्विलक' सोच रहा है--'तरुलता से आकार की और आयताकार । आच्छादित इस भित्ति में सेंध कैसे लगाई जाए ? सेंध देखने के इस प्रसंग पर चूर्णि (पृष्ठ ११०, १११), बृहवृत्ति (पत्र बाद लोग विस्मयाभिभूत हो उसकी प्रशंसा न करें तो मेरी सेंध २०७, २०८) और सुखबोधा (पत्र ८१, ८२) में दो कथाओं का लगाने की विशेषता ही क्या हुई ?' उल्लेख हुआ है। ८. (वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते) दोनों कथाए इस प्रकार हैं व्यक्ति धन कमाता है, पर वह उसके लिए त्राण नहीं १. एक नगर में एक कुशल चोर रहता था। वह नाना बनता। धन सुख-सुविधा दे सकता है, पर शरण नहीं। व्याख्याग्रंथों प्रकार की सेंध लगाने में निपुण था। एक बार वह एक अभेद्य में एक कथा हैघर में कपिशीर्षक (कोंगरेवाली) सेंध लगा रहा था। इतने में ही इन्द्रमह उत्सव का आयोजन था। राजा ने अपने नगर में घर का स्वामी जाग गया। वह सेंध की ओर देखने लगा। चोर घोषणा करवाई कि आज नगर के सभी पुरुष गांव के बाहर ने सेंध लगाने का कार्य पूरा कर, उसमें अपने दोनों पैर डाले। उद्यान में एकत्रित हो जाएं। कोई भी पुरुष नगर के भीतर न घर का स्वामी सचेत था। उसने उसके दोनों पैर बलपूर्वक पकड़ रहे। यदि कोई रहेगा तो उसे मौत का दंड भोगना पड़ेगा। सभी लिए। चोर ने बाहर खड़े साथी चोर से कहा-भीतर मेरे पैर पुरुष नगर के बाहर एकत्रित हो गए। राजपुरोहित का पुत्र एक पकड़ लिए हैं। तुम जोर लगाकर मुझे बाहर खींच लो। साथी वेश्या के घर में जा छपा। राज्य कर्मचारियों को पता लगा और चोर ने वैसा ही करना प्रारम्भ किया। भीतर और बाहर दोनों वे वेश्या के घर से पकड़ कर ले गए। वह राजपुरुषों के साथ ओर से इसकी खिंचाई होने लगी। उस सेंथ के कंगरू तीखे थे। विवाद करने लगा। वे उसे राजा के समक्ष ले गए। राजाज्ञा की बार-बार की खिंचाई से सारा शरीर लहुलूहान हो गया। छोड़ा अवहेलना के जुर्म में राजा ने उसे मृत्युदंड दिया। पुरोहित राजा दोनों ने नहीं। वह विलाप करता हुआ मर गया। के समक्ष उपस्थित होकर बोला-राजन् ! मैं अपना सर्वस्व २. एक चोर घर के पिछवाड़े में सेंध लगाकर एक आपको दे देता है। आप मेरे इकलौते पत्र को मुक्त कर दें। धनाढ्य व्यक्ति के घर में घुसा। घर के सभी सदस्य निद्राधीन थे। राजा ने उसकी बात स्वीकार नहीं की और पुरोहित पुत्र को उसने मनचाहा धन चुराया और उसी सेंध से बाहर निकल कर शली पर चढ़ा दिया। घर आ गया। रात बीती। प्रभात हुआ। उसने स्नान कर नए कर नए जो धन यहां भी त्राण नहीं दे पाता, वह परलोक में प्राण कपडे पहने और उसी घर के समीप आ उपस्थित हुआ। वह कैसे बनेगा। जानना चाहता था कि लोग उस सेंध के विषय में क्या कहते हैं ? आचार्य नेमिचन्द्र ने वित्त—धन के परिणामों की चर्चा वे उसे (चोर को) पहचान पाते हैं या नहीं? यदि पहचान नहीं करते हुए एक श्लोक उद्धृत किया है--२ पाएंगे तो मैं पुनः पुनः चोरी करूंगा। वह सेंध के स्थान पर 'मोहाययणं मयकामवद्धणो जणियचित्तसंतावो। आया। वहां भीड़ एकत्रित हो गई थी। सभी सेंध लगाने वाले की आरंभकलहहे ऊ दुक्खाण परिग्गही मूलं।' निपुणता पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे। वे कहने लगे-अरे! परिग्रह मोह का आयतन, अहंकार और कामवासना को इस घर पर चढ़ना अत्यन्त कठिन है। चोर इस पर कैसे चढा? बढ़ाने वाला, चित्त में संताप पैदा करने वाला, हिंसा और कलह कैसे उसने पीछे की दीवार पर सेंध लगाई ? ओह ! इस छोटी-सी सेंध में होकर वह भीतर कैसे गया और धन की कालय ___ का हेतु तथा दुःखों का मूल है। पोटली के साथ फिर इस छोटे सेन्ध-द्वार से कैसे निकला? चोर ९. अन्धेरी गुफा में जिसका दीप बुझ गया हो (दीवपणठे) सुन रहा था। उसने अपनी कमर और पेट की ओर देखा। फिर नियुक्तिकार ने प्राकृत के अनुसार 'दीव' के दो अर्थ देखा उस छोटी-सी सेंध की ओर। दो गुप्तचर वहां खड़े थे। वे किए हैं-आश्वास-द्वीप और प्रकाश-दीप। जिससे समुद्र में इसकी सारी गतिविधियों पर ध्यान रख रहे थे। वे तत्काल आए निमग्न मनुष्यों को आश्वासन मिलता है उसे 'आश्वास-द्वीप' और उसका निग्रह कर राजा के पास ले गए। उसने चोरी की और जो अन्धकार में प्रकाश फैलाता है, उसे 'प्रकाश-दीप' कहा बात स्वीकार की। राजा ने उसे दंडित कर कारावास में डाल जाता है। आश्वास-द्वीप के दो भेद हैं-संदीन और असंदीन। दिया। जो जल-प्लावन आदि से नष्ट हो जाता है, उसे 'संदीन' प्रस्तुत कथा में चोर अपने द्वारा लगाई गई सेंध की प्रशंसा और जो नष्ट नहीं होता उसे 'असंदीन' कहते हैं। चूर्णिकार के सुनकर हर्षातिरेक से संयम न रखने के कारण पकड़ा जाता है। अनुसार असंदीन द्वीप विस्तीर्ण और ऊंचा होता है। ३. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २०६ । १. वृहद्वृत्ति, पत्र २११।। २. सुखबोधा, पत्र ८३। Jain Education Intemational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ८६ अध्ययन ४ : श्लोक ६ टि० १०-१२ जैसे—कोंकण देश का द्वीप।। ११. (सुत्तेसु) प्रकाश-दीप के दो भेद हैं-संयोगिम और असंयोगिम। सप्त शब्द में उन दोनों का समावेश होता है, जो सोया जो तैल, वर्ति आदि के संयोग से प्रदीप्त होता है वह 'संयोगिम' हआ हो और जो धर्माचरण के लिए जागृत न हो। कहलाता है और सूर्य, चन्द्र आदि के बिम्ब 'असंयोगिम' १२. जागत रहे (पडिबद्धजीवी) कहलाते हैं। प्रतिबुद्ध शब्द में उन दोनों का समावेश होता है—'जो यहां प्रकाश-दीप अभिप्रेत है। कई धातुवादी धातु प्राप्ति के नींद में न हो और जो धर्माचरण के लिए जागत हो। लिए भूगर्भ में गए। दीप, अग्नि और इंधन उनके पास थे। प्रतिबोध का अर्थ है-जागरण। वह दो प्रकार का हैप्रमादवश दीप बुझ गया, अग्नि भी बुझ गई। अब वे उस गहन (१) निदा का अभाव और (२) धर्माचरण और सत्य के प्रति अन्धकार में उस मार्ग को नहीं पा सके, जो पहले देखा हुआ जागरूकता। जिनकी चेतना द्रव्यतः सघन निद्रा के द्वारा और था। वे भटक गए। एक स्थान पर महान् विषधर सर्प थे। वे भावतः मूर्छा के द्वारा प्रसुप्त है, उनका विवेक जागृत नहीं तुवादी वहां जा निकले। सपों ने उन्हें डसा। वे वहीं एक गढ़े होता। जो व्यक्ति दोनों अवस्थाओं में जागता है, वह प्रतिबुद्धजीवी में गिरे और तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो गए। है। वह पूरा जीवन जागरण का जीवन जीता है।' सरपेन्टियर शान्त्याचार्य के दीप परक अर्थ को गलत दशवैकालिक सूत्र में प्रतिबुद्धजीवी की परिभाषा उपलब्ध मानते हैं। किन्तु शान्त्याचार्य ने नियुक्तिकार के मत का अनुसरण जो मन वचन और माया की टापनि प नियंत्रण कर 'दीव' शब्द के सम्भावित दो अर्थों की जानकारी दी है। । रखने में सक्षम होता है। उनमें प्रस्तुत अर्थ प्रकाश-दीप को ही माना है-अत्र च (२) जो धृतिमान होता है। प्रकाशदीपेनाधिकृतम् । (३) जो संयमी और जितेन्द्रिय होता है। १०. (श्लोक १-५) उत्तराध्ययन की चूर्णि के अनुसार प्रतिबुद्धजीवी वह है जो प्रस्तुत अध्ययन के प्रथम पांच श्लोकों में भगवान् महावीर कषायों और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर चलता है। के अपरिग्रह के दृष्टिकोण की व्याख्या मिलती है। संग्रह की निद्रा-अजागरूकता के प्रतिषेध के लिए व्याख्या-ग्रन्थों में व्यर्थता को बतलाने के लिए उन्होंने महत्त्वपूर्ण पांच सूत्र दिए। 'अगडदत्त' का उदाहरण दिया गया है। चूर्णि में इस कथानक का वे ये हैं रूप अत्यन्त संक्षिप्त है। बृहवृत्तिकार ने प्राकृत गद्य में १. जीवन स्वल्प है। वह सांधा नहीं जा सकता, फिर कथानक प्रस्तुत किया है" और सुखबोधा में यह कथानक ३२८ इतने छोटे से जीवन के लिए इतना संग्रह क्यों? गाथाओं में निबद्ध है। २. अशुद्ध साधनों से, पापकारी प्रवृत्तियों से धन का कथा का सार संक्षेप उपार्जन या संग्रह दुःख या दुर्गति का हेतु है। अगडदत्त एक रथिक का पुत्र था। बाल्य अवस्था में ही ३. कृत कर्मों से प्राणी छेदा जाता है--दंडित होता है। पिता का वियोग हो गया। वह वयस्क होकर कौशंबी नगरी में किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता। शस्त्र-विद्या सीखने गया। वहां एक निपुण शस्त्राचार्य के पास ४. व्यक्ति परिवार के लिए कर्म करता है, परन्तु कर्मों के शस्त्रविद्या में निपुण हो, अपनी निपुणता का प्रदर्शन करने फलभोग के समय पारिवारिक जन उसका हिस्सा राजकुल में गया। राजा और सभी सभासद् उसकी दक्षता पर नहीं बंटाते, उसको अकेले ही फल भोगना पड़ता है। मुग्ध होकर उसे नगर रक्षा का भार सौंप दिया। ५. धन त्राण नहीं दे सकता। सारा जनपद एक चोर की हरकतों से संत्रस्त हो रहा था। इन हेतुओं को सामने रखकर संग्रह की व्यर्थता का राजा ने नगर रक्षक अगडदत्त को चोर को पकड़ लाने का काम अंकन किया जा सकता है। सौंपा। वह राजकुल से चोर को पकड़ने निकला। वह एक उद्यान १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ११४-११५ : जो पुण सो विच्छिणात्तणेण ५. बृहद्वृत्ति, पत्र २१२ । उस्सित्तणेण य जलेण ण छादेज्जति सो जीतिवत्थीणं त्राणाय, असंदीणो ६. वही, पत्र २१३ : सुप्तेषु द्रव्यतः शयानेषु भावतस्तु धर्म प्रत्यजाग्रत्सु। दीवो जह कोंकणदीवो। ७. वही, पत्र २१३। २. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २०७। ८. दशवैकालिक, चूलिका २१४,१५ । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २१२, २१३ । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ ११६ : प्रतिबुद्धजीवनशील : प्रतिबुद्धजीवी, ण ४. The Uttaradyayana Sutra, P.295: दीवप्पणढे is a composition of विस्ससेज्ज कसायिदिएसु। which the two parts have a wrong position one to the other : the १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ ११६ । word ought to be re g: But S also thinks it possible to explain ११. बृहद्वृत्ति, पत्र २१३-२१६ । दीवo by द्वीप-I think that would give a rather bad sense. १२. सुखबोधा, पत्र ८४-६४। Jain Education Intemational Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंस्कृत ८७ अध्ययन ४ : श्लोक ६ टि० १३, १४ में, एक सघन वृक्ष के नीचे विश्राम के लिए बैठा और उपाय की उपमा का प्रयोग अनेक स्थलों में किया गया है। चिंता करने लगा। इतने में ही एक परिव्राजक उसी वृक्ष की छांह कल्पसूत्र में भगवान् महावीर को—'भारंडपक्खी इव में आकर बैठा। अगडदत्त को उस व्यक्ति के चोर होने का संदेह अप्पमत्ते'–भारंड पक्षी की भांति अप्रमत्त कहा गया है। चूर्णि हुआ। परिव्राजक और अगडदत्त—दोनों परस्पर बातचीत करने और टीकाओं के अनुसार ये दो जीव संयुक्त होते हैं। इन दोनों लगे। अगडदत्त बोला--भगवन् ! मैं अत्यंत दरिद्र हूं। खाने-पीने के तीन पैर होते हैं। बीच का पैर दोनों के लिए सामान्य होता के लिए भी कुछ नहीं है। परिव्राजक ने कहा मेरे साथ रहो। है और एक-एक पैर व्यक्तिगत। वे एक-दूसरे के प्रति बड़ी मैं तुम्हें आजीविका दूंगा। अब वह परिव्राजक के साथ छांया की सावधानी बरतते हैं, सतत जागरूक रहते हैं। भांति रहने लगा। छट्ठी शताब्दी की रचना वसुदेवहिण्डी नामक ग्रन्थ (पृ० वास्तव में परिव्राजक ही दुर्धर्ष चोर था। वह उस रात्री में २४८) में भारंड पक्षी का वर्णन देते हुए लिखा है-ये पक्षी अगडदत्त के साथ एक धनवान् के घर चोरी करने गया। अपार रत्नद्वीप से आते हैं। इनका शरीर बहुत विशाल होता है और धन-संपत्ति चुरा, वह एक यक्ष मंदिर से पांच-सात व्यक्तियों को ये बाघ, रीछ आदि विशालकाय जानवरों का मांस खाते हैं। लेकर आया। सभी उस धन-संपत्ति के साथ नगर के बाहर कल्पसूत्र की किरणावली टीका में भारंड पक्षी का चित्रण आए। परिव्राजक ने कहा-अभी नगर के इस बाह्य उद्यान में निम्न प्रकार से किया गया हैहम सभी विश्राम करें, फिर आगे चलेंगे। सभी सो गए। दिजिह्वा द्विमुखाश्चैकोदरा भिन्नफलंषिणः। अगडदत्त और परिव्राजक जागते हुए अपनी शय्या पर सोए पंचतंत्र के अपरीक्षित कारक में भारंड पक्षी से सम्बन्धित रहे। दूसरे सभी व्यक्ति गाढ़ निद्रा में लीन हो गए। अगडदत्त कथा का उल्लेख हुआ है। उसका प्राग्वर्ती श्लोक यह हैपरिव्राजक की आंख चुरा एक वृक्ष की ओट में जा छुपा। इधर एकोदरा: पृथग्गीवा, अन्योन्यफलभक्षिणः। परिव्राजक उठा। उसने सोए हुए उन सभी व्यक्तियों पर घोर असंहता विनश्यन्ति, मारंडा इव पक्षिणः।। प्रहार कर मौत के घाट उतार दिया। अगडदत्त को बिछौने पर एक सरोवर के तट पर भारण्ड पक्षी का एक युगल रहता न दखकर खाज म निकला। उसका एक वृक्ष का आट म दखा था। एक दिन दोनों पति-पत्नी भोजन की खोज में समुद्र के और उस पर प्रहार करने झपटा। अगडदत्त सावधान था। किनारे-किनारे घूम रहे थे। उन्होंने देखा समुद्र की तरंगों के वेग उसने उसके कंधे पर बलपूर्वक प्रहार किया। चोर मूच्छित हो से प्रवाहित होकर अमत फलों का एक समह तट पर विस्तीर्ण गिर पड़ा। कुछ चेतना आने पर वह बोला-"वत्स! तुम मेरे पडा है। उनमें से बहुत सारे फलों को नर भारण्ड पक्षी खा गया घर जाकर इस तलवार को दिखाना। वहां मेरी बहिन तुम्हें पति रूप में स्वीकार कर लेगी। इतना कह उसने वहीं प्राण छोड़ को सनकर दसरे मख ने कहा अरे भाई! यदि इन फलों में दिए।" इतना स्वाद है तो मुझे भी कुछ चखाओ, जिससे कि यह दूसरी अगडदत्त उसके घर गया। तलवार को देखते ही बहिन जीभ भी उस स्वाद के सख का तनिक अनभव कर सके। यह जान गई कि यह मेरे भाई का हत्यारा है। उसने बदला लेने, उसे सुनकर भारण्ड पक्षी ने कहा-हम दोनों का पेट एक है। मारने का उपाय किया। पर अगडदत्त सावधान था। उसने डदत्त सावधान था। उसन इसलिए एक मुख से खाने पर भी दूसरे को तृप्ति हो ही जाती उसकी चाल सफल नहीं होने दी। वह उसे लेकर राजघर में है। इसलिए और खाने से क्या लाभ ? परन्तु फलों का जो गया। राजा ने बहुत पारितोषिक देकर उसका सम्मान किया। अवशिष्ट भाग है, वह मादा भारण्ड पक्षी को दे देना १३. काल बड़ा घोर (क्रूर) होता है (घोरा मुहुत्ता) चाहिए ताकि वह भी उसका स्वाद ले सके। अवशिष्ट फल स्त्री इन शब्दों द्वारा यह संकेत किया गया है कि प्राणी की को दे दिए गए। परन्तु दूसरे मुंह को यह उचित नहीं लगा। आयु अल्प होती है और मृत्यु का काल अनियमित होता है, न वह सदा उदासीन रहने लगा और येन-केन प्रकारेण इसका जाने कब वह आ जाए और प्राणी को उठा ले जाए। बदला लेना चाहा। एक दिन संयोगवश दूसरे मुख को एक यहां 'मुहूर्त' शब्द से समस्त काल का ग्रहण किया गया विष-फल मिल गया। उसने अमृत-फल खाने वाले मुंह से है। प्राणी की आयु प्रतिपल क्षीण होती है—इस अर्थ में काल कहा-अरे अधर्म और निरपेक्ष ! मुझे आज विष-फल मिला प्रतिपल जीवन का अपहरण करता है इसीलिए उसे घोर-रौद्र है। अब मैं अपने अपमान का बदला लेने के लिए इसे खा कहा है।' रहा हूं। यह सुनकर पहला मुंह बोला-अरे मूर्ख ! ऐसा मत १४. भारण्ड पक्षी (भारंडपक्खी ) कर। ऐसा करने से हम दोनों मर जायेंगे। परन्तु वह नहीं जैन-साहित्य में 'अप्रमत्त अवस्था' को बताने के लिए इस माना और अपमान का बदला लेने के लिए विष-फल खा गया। १. सुखबोधा, पत्र ८४ : घोराः-रौद्राः सततमपि प्राणिनां प्राणापहारित्वात् (ख) बृहवृत्ति, पत्र २१७। मुहूर्ताः-कालविशेषाः, दिवसायुपलक्षणमेतत् । (ग) सुखबोधा, पत्र ६४। २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ ११७। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि विष के प्रभाव से दोनों मर गए। इस पक्षी के लिए भारंड, भारुण्ड और भेरुंड - ये तीन शब्द प्रचलित हैं। आचार्य हेमचन्द्र की देशीनाममाला में भारुण्ड का नाम भोरुड है— भारुंडयम्मि भोरुडओ ( ६ । १०८) । उनकी अनेकार्थक नाममाला ( ३।१७३ ) में "भेरुण्डो भीषण खगः 'भेरुण्ड: 5: खगः पक्षी, यथा-विसंहिता विनश्यंति, भेरुण्डा इव पक्षिणः " यह उल्लेख मिलता है । वसुदेवहिण्डी में एक कथा है कई एक बनजारे व्यापार के लिए एक साथ निकले । प्रवास करते-करते वे अजपथ' नामक देश में आ पहुंचे । वहां पहुंचकर वे सभी व्यापारी 'वज्रकोटि संस्थित' नामक पर्वत को लांघकर आगे निकल गए। परन्तु अति शीत के कारण बकरे कांपने लगे। उनकी आंखों पर से पट्टियां हटा ली गई और बाद में जिन पर बैठकर यहां आए थे उन सभी बकरों को मारकर उनकी चमड़ी से बड़ी-बड़ी मसकों का निर्माण किया । तदनन्तर रत्नद्वीप जाने के इच्छुक व्यापारी इन मसकों में एक-एक छुरा लेकर बैठ गए और अन्दर से उन्हें बन्द कर लिया। उस पर्वत पर भक्ष्य की खोज में भारंड पक्षी आए और इन मसकों को मांस का लोंदा समझकर उठा ले गए। रत्नद्वीप में नीचे रखते ही अन्दर बैठे हुए व्यापारी छुरे से मसक को काटकर बाहर निकल गए। तदनन्तर वहां से यथेष्ट रत्नों का गट्ठर बांधकर पुनः मसक में आ बैठे। भारंड पक्षियों ने उन मसकों को पुनः उस पर्वत पर ला छोड़ दिया। प्राप्त सामग्री के आधार पर यह भारंड पक्षी का संक्षिप्त परिचय है । प्राचीन काल में ये पक्षी यत्र-तत्र गोचर होते थे परन्तु आजकल उनका कोई इतिवृत्त नहीं मिलता। अभीअभी कुछ वर्ष पूर्व हमने एक पत्र में पढ़ा कि एक दिन एक विशालकाय पक्षी आकाश से नीचे उतर रहा था। उसकी गति से उठी हुई आवाज हवाई जहाज की आवाज जैसी थी । ज्यों ही वह जमीन के पास आया, त्यों ही वहां खड़े कई पशु ( व्याघ्र, सिंह आदि ) स्वतः उसकी ओर खिंच गए और वह उन्हें खा गया। १५. थोड़े से दोष को भी (जं किंचि) 'यत् किंचित्' का प्रासंगिक अर्थ थोड़ा सा प्रमाद या दोष है । दुश्चिन्तित, दुर्भाषित और दुष्कार्य- ये सब प्रमाद हैं । जो दुश्चिन्तन करता है वह भी बन्ध जाता है। जो दुश्चिन्तन कर उसे क्रियान्वित करता है, वह तो अवश्य ही बन्धता है। इसलिए 9. ८८ अध्ययन ४: श्लोक ७ टि० १५, १६ यत् किंचित् प्रमाद भी पाश है――बन्धन है ।' शान्त्याचार्य ने 'यत् किंचित्' का मुख्य आशय गृहस्थ से परिचय करना और गौण आशय प्रमाद किया है। १६. नए-नए गुण की उपलब्धि हो... पोषण दे (लानंतरे जीविय वूहइत्ता) चूर्णिकार ने 'लाभंतरे' का अर्थ-लाभ देने वाला किया है । * बृहद्वृत्ति में लाभ का अर्थ अपूर्व उपलब्धि और 'अन्तर' का अर्थ विशेष किया है। इसका तात्पर्य है विशिष्ट विशिष्टतर ज्ञान, दर्शन और चारित्र के गुणों की उपलब्धि । * वेन्नाकतट नगर में मंडिक नाम का जुलाहा रहता था। वह दूसरों के धन का अपहरण कर अपनी आजीविका चलाता था। वह अपने पैरों पर पट्टी बांधे राजमार्ग पर कपड़े बुनता । लोगों के पूछने पर कहता – मेरे पांव पर भयंकर विषफोड़ा हुआ है। वह हाथ में लाठी लिए, लंगड़ाता हुआ चलता। रात में वह घरों में सेंध लगाकर चोरी करता और गांव के निकट एक भूमिघर में उस धन को एकत्रित कर रखता। वहां उसकी रहती । उस भूमिघर के मध्य में एक गहरा कुंआ था। चोर मंडिक अपने द्वारा चुराए गए धन को उठाकर लाने वाले भारवाहकों के साथ वहां आता। उसकी बहिन उनका आतिथ्य करने के बहाने कुए पर पहले से बिछे हुए आसन पर उन्हें बिठाती और वे सारे उस अंधकूप में गिर कर मर जाते। २. वह देश जहां बकरों पर प्रवास किया जाता है। उस देश में बकरों की आंखों पर पट्टी बांधकर सवारी की जाती है। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ ११७ अंकिंचि अप्पणा पमादं पासति दुच्चितितादि, दुव्विचितिएणावि वज्झति, किं पुण जो चिंतित्तु कम्मुणा सफलीकरोति, एवं दुब्भासितदुच्चितिताति जं किंचि पासं । सारा नगर चोर से संत्रस्त था। चोर पकड़ में नहीं आ रहा था। नगर के सभ्रान्त व्यक्ति मिलकर राजा मूलदेव के पास गए। चोर की बात कही। राजा ने चिन्ता व्यक्त करते हुए उनको आश्वस्त करने दूसरे नगर-रक्षक की नियुक्ति की । वह भी चोर को पकड़ने में असफल रहा। तब राजा स्वयं काले वस्त्र पहनकर चोर की टोह में रात में निकला। वह एक सभा में जा बैठा। कोई भी उसे पहचान नहीं सका। इतने में मंडिक चोर ने वहां आकर पूछा- कौन हो तुम ? मूलदेव बोला- भैया! मैं तो कार्पटिक हूं। मंडिक ने कहा- चलो मेरे साथ । 1 में कुछ मजदूरी दूंगा। वह उठा । मंडिक आगे-आगे चल रहा था और वह गुप्तवेशधारी राजा उसके पीछे-पीछे मंडिक एक धनी व्यक्ति के घर पहुंचा, सेंध लगाई और बहुत सारा धन चुराकर गठरियां बांधी और कार्पटिक के सिर पर सारी गठरियां रखकर गांव से बाहर आया । उस भूमिघर के पास आकर इस चोर ने सारी गठरियां नीचे उतारीं और अपनी बहिन को पुकार कर कहाइस अतिथि का सत्कार करो। मंडिक अन्यत्र चला गया। भगिनी ने इस अतिथि को देखा। इसके लावण्य और मुखच्छवि को - ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २१७ यत्किंचिद् 'गृहस्थसंस्तवाद्यल्पमपिजं किंचि ' त्ति यत्किंचिदल्पमपि दुश्चिन्तितादि प्रमादपदं मूलगुणादिमालिन्यजनकतया बन्धहेतुत्वेन । ४. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृष्ठ ११७ लाभंप्रयच्छतीति लाभान्तरं । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र २१७ : लम्भनं लाभः - अपूर्वार्थप्राप्तिः, अन्तरं-विशेषः, यावद् विशिष्ट विशिष्टतर सम्यगज्ञानदर्शनचारित्रावाप्तिः... । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंस्कृत ८९ देखकर उसने सोचा, यह कोई राजघराने का व्यक्ति है। बेचारा व्यर्थ ही मारा जाएगा। उसके मन में करुणा जागी। वह बोलीभद्र ! यहां से भाग जाओ, अन्यथा मारे जाओगे। मूलदेव वहां से भाग गया। उस लड़की ने चिल्लाकर कहा-अरे, दौड़ो, दौड़ो, वह भाग गया है। मंडिक चोर ने यह सुना । वह नंगी तलवार हाथ में ले पीछे भागा। पर वह नहीं मिला। मूलदेव जाते-जाते एक शिवमंदिर में जा छुपा । चोर ने शिवलिंग को मनुष्य समझकर उस पर प्रहार कर भूमिघर पर आ गया। प्रभातकाल में वह राजपथ पर गया और कपड़े बुनने के काम में लग गया। राजपुरुषों ने उसे पकड़ कर राजा मूलदेव के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने उसको ससम्मान आसन दिया और कहा- तुम अपनी बहिन का विवाह मेरे साथ कर दो। विवाह संपन्न हुआ। राजा ने उसको प्रचुर भोग सामग्री दी। कुछ दिन बीते। एक दिन राजा ने उससे कहा- मुझे अभी कुछ चाहिए। चोर ने अपने भंडार से धन ला दिया। फिर कुछ धन मंगाया। इस प्रकार चोर का सारा धन मंगा लिया। राजा ने उसकी बहिन से पूछा—इसके पास और कितना धन है ? बहिन बोली–अब रिक्त हो गया है। तब राजा ने इस मंडिक चोर को शूली पर लटका दिया। राजा को जब तक उस चोर से धन मिलता रहा तब तक वह उसका भरण-पोषण करता रहा। जब धन मिलना बंद हो गया तब उसको मार डाला। बृहद्वृत्ति (पत्र २१८-२२२) में यह कथा विस्तार से प्राप्त है । १७. विचार-विमर्श पूर्वक (परिन्नाय) परिज्ञा का अर्थ है – सभी प्रकार से जानकर । परिज्ञा के दो प्रकार हैं-ज्ञ-परिज्ञा और प्रत्याख्यान- परिज्ञा । व्यक्ति ज्ञ परिज्ञा से जान लेता है कि अब मैं पूर्व की भांति ज्ञान, दर्शन और चारित्र के गुणों की विशिष्ट प्राप्ति करने में असमर्थ हूं, निर्जरा भी कम हो रही है क्योंकि शरीर क्षीण है। इस बुढ़ापे से जीर्ण और रोगों से आक्रान्त है, अतः अब धर्माराधना भी नहीं हो रही है। यह जानकर वह संलेखना करता है और अन्त में यावज्जीवन अनशन कर शरीर को त्याग देता है। १८. इस शरीर का ध्वंस (मलावषंसी) यहां 'मल' का अर्थ है शरीर । यह मलों का आश्रय होता है अतः इसका लाक्षणिक नाम 'मल' है। चूर्णिकार ने 'मल' का अर्थ 'कर्म" और बृहद्वृत्तिकार ने इसका मूल अर्थ कर्म और वैकल्पिक अर्थ शरीर दिया है। शरीर अर्थ ही यहां प्रासंगिक है। 9. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ ११७, ११८: मलं अष्टप्रकारं । २. बृहद्वृत्ति, पत्र २१८ मलः अष्टप्रकारं कर्म्म... यद्वा मलाश्रयत्वान्मलः औदारिकशरीरं... I ३. सूयगडो, २२ ६७, ७३। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १२२; बृहद्वृत्ति पत्र २२३ : सुखबोधा पत्र ६६ । अध्ययन ४ : श्लोक ७-८ टि० १७-२१ १९. (श्लोक ७) प्रस्तुत श्लोक में अनशन की सीमा का निरूपण किया गया है। प्रश्न होता है कि मुनि (या अन्य कोई ) अनशन कब करे ? सूत्रकार ने इसके समाधान में आयु सीमा का कोई निर्धारण नहीं किया है और न ही रोग या नीरोग अवस्था का निर्देश दिया है। यहां एक भावात्मक सीमा का निर्देश है। जब तक ज्ञान, दर्शन और चारित्र की नई-नई उपलब्धियां होती रहें, तब तक शरीर को धारण करना चाहिए। जब अपने शरीर से कोई विशिष्ट उपलब्धि न हो, उस अवस्था में संलेखना की आराधना कर अन्त में अनशन कर लेना चाहिए। सूत्रकृतांग में आबाधा ( बुढ़ापा या रोग) के होने या न होने—दोनों अवस्थाओं में अनशन की विधि का निर्देश मिलता है । यह निर्देश साधु और श्रमणोपासक दोनों के लिए है। २०. शिक्षित.... अश्व (आसे जहा सिक्खिय.....) अश्व दो प्रकार के होते हैं—प्रशिक्षित और अप्रशिक्षित । प्रशिक्षित अश्व अपने शिक्षक के अनुशासन में रहता है। वह उच्छृंखल नहीं होता। अप्रशिक्षित अश्व अपने सवार (अश्ववार) का अनुशासन नहीं मानता। वह उच्छृंखल होता है । व्याख्याकारों ने यहां एक कथानक प्रस्तुत किया है— एक राजा ने दो कुलपुत्रों को दो अश्व दिए और कहाइनको प्रशिक्षित करना है और समुचित भरण-पोषण भी करना है। एक कुलपुत्र अपने अश्व को धावन, प्लावन, वल्गन आदि अनेक कलाओं में पारंगत करता है और उसका उचित भरण-पोषण भी करता है। दूसरा कुलपुत्र सोचता है— राजकुल में इस अश्व के लिए इतना कुछ मिलता है, पर इसे क्यों खिलाया जाए ? यह सोचकर वह उस अश्व को भूसा आदि खिलाता है और अपने अरहट पर जोतकर उससे काम कराता है । वह उसे प्रशिक्षित नहीं करता । एक बार किसी शत्रु ने आक्रमण कर दिया। राजा ने उन दोनों कुलपुत्रों को अपने- अपने घोड़ों पर संग्राम में जाने का आदेश दिया। जो अश्व पूर्व प्रशिक्षित था, वह अपने सवार का अनुशासन मानता हुआ संग्राम का पार पा गया। जो अप्रशिक्षित अश्व था, वह शत्रुओं के हाथ आ गया और कुलपुत्र बंदी बना लिया गया।* २१. पूर्व जीवन में (पुव्वाइं वासाइं) पूर्व परिमान आयुष्यवालों के लिए 'पूर्व' और वर्ष परिमाण आयुष्यवालों के लिए 'वर्ष' का उल्लेख हुआ है—ऐसा चूर्णिकार और वृत्तिकार का अभिमत है । परन्तु विषय की दृष्टि से ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२२ : पूरयंतीति पूर्वं वर्षतीति वर्षं, ताणि पुव्याणि वासाणी, का भावना ? पुव्वाउसो जया मणुया तदा पुव्वाणि, जदा वरिसायुसो तया वरिसाणि । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २२४ : पूर्वाणि वर्षाणीति च एतावदायुषामेव चारित्रपरिणतिरिति । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ९० 'पुव्वाई वासाई' का अर्थ 'पूर्व जीवन के वर्ष' संगत लगता है । २२. पूर्व जीवन में (पुव्वमेवं ) 'पुव्व' (पूर्व) का अर्थ है-- पहले का जीवन । चूर्णिकार ने आठवें श्लोक के प्रसंग में एक प्रश्न उपस्थित किया है। शिष्य गुरु से पूछता है—भंते! कुछ क्षणों या दिनों तक अप्रमत्त रहा जा सकता है। जो पूर्वकाल (दीर्घकाल) तक अप्रमत्त रहने की बात कही जाती है, वह कष्टकर है, कठिन है । इसलिए जीवन के अन्तिम चरण में अप्रमत्त रहना ही श्रेयस्कर है ।" गुरु ने कहा- जो पहले जीवन में अप्रमादी नहीं होता, वह अन्त में अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त नहीं हो सकता । क्योंकि 'पुव्वमकारितजोगो पुरिसो, मरणे उवट्ठिते संते। ण चइति व सहितुं जे अंगेहिं परीसहणिवादे ।।' - जो मनुष्य पूर्वजीवन में समाधि को प्राप्त नहीं होता, वह मरणकाल में अपने प्रमाद को नहीं छोड़ सकता और अपने शिथिल शरीर से न परीषहों को ही सहन करने में सक्षम होता है । में 1 २३. शाश्वतवादियों के लिए ही (सासयवाइयाणं) प्रस्तुत चरण में शाश्वतवादी का प्रयोग आयुष्य के संदर्भ हुआ है। आयुष्य दो प्रकार का है-सोपक्रम. और निरुपक्रम जिसमें अकाल मृत्यु होती है, वह सोपक्रम आयुष्य है और जिसमें काल-मृत्यु होती है, वह निरुपक्रम आयुष्य है। शाश्वतवादी आयुष्य को निरुपक्रम मानते हैं। उनके अनुसार अकाल मृत्यु नहीं होती। वे ही लोग ऐसा मान सकते हैं - 'स पुव्वमेवं न लभेज्ज पच्छा' – जीवन के प्रारम्भ में ही क्यों, धर्माचरण तो जीवन के अन्तकाल में किया जा सकता है। जो जीवन को पानी के बुदबुदे की भांति अस्थिर मानते हैं, वे ऐसा कभी नहीं सोच सकते। २४. शरीरभेद ( सरीरस्स भेए) चूर्णिकार ने यहां एक कथा का उल्लेख किया है—एक राजा ने अपने राज्य में म्लेच्छों का आगमन जानकर पूरे जनपद में यह घोषणा करवाई कि नगर के सभी स्त्री-पुरुष दुर्ग में आ जाएं। वहां उनकी सुरक्षा होगी। कुछेक व्यक्ति तत्काल ही दुर्ग में आकर सुरक्षित हो गए । कुछेक व्यक्ति घोषणा के प्रति यान न दे, अपने परिग्रह — धन, धान्य, मकान आदि में आसक्त होकर वहीं रह गए। देखते-देखते म्लेच्छ आए और वहां अवस्थित व्यक्तियों को मारकर उनका धन लूट ले गए। जो दुर्ग 9. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृष्ठ १२२ : अत्राह चोदकः --- सक्कते मुहुत्तं दिवसं वा अप्पमादो काउं, जं पुणं भण्णति 'पुव्वाणि वासाणि चरप्पमत्तो', एवतियं कालं दुःखं अप्पमादो कज्जति, तेण पच्छिमे काले अप्पमादं करेस्सामि । २. वही, पृष्ठ १०२, १२३ । ३. वही, पृष्ठ १२३ : के य सासयवादिया उच्यते, ये निरुव्वक्कमायुणो, ण अध्ययन ४: श्लोक ६-१० टि० २२-२६ में थे, वे बच गए। म्लेच्छों के चले जाने पर वे आए और अपने स्वजनों को मरा देखकर तथा वैभव को नष्ट जानकर रोते-बिलखते रहे। * २५. विवेक को प्राप्त (विवेगमेउं) विवेक का सामान्य अर्थ है-पृथक्करण। प्रस्तुत प्रसंग में उसका अर्थ है—आसक्ति का परित्याग और कषायों का परिहार । सूत्रकार का अभिप्राय है कि कोई भी प्राणी विवेक को तत्काल प्राप्त नहीं कर सकता। कर्मों की क्षीणता होते-होते, पूरी सामग्री की उपलब्धि होने पर वह प्राप्त होता है । ऋषभ की जन्मदात्री मरुदेवा माता को तत्काल विवेक प्राप्त हो गया था। यह आपवादिक घटना है और इसे एक आश्चर्यकारी विशिष्ट घटना ही माना है। ऐसी तीव्र अभीप्सा विरलों में ही होती है । अतः इसे सामान्य नियम नहीं माना जा सकता। 'विवेक तत्काल हो नहीं सकता' इसको बताने के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत है एक ब्राह्मण परदेश गया और वहां वेद की सभी शाखाओं का पारगामी होकर घर लौटा। एक दूसरे ब्राह्मण ने इसकी बहुश्रुतता से आकृष्ट होकर अपनी सुलालित पालित पुत्री का विवाह इससे कर डाला। लोगों ने उसे प्रचुर दक्षिणा दी। धीरे-ध धीरे धन बढ़ा और वह धनाढ्य हो गया। इसने अपनी पत्नी के लिए स्वर्ण के आभूषण बनाए। वह सदा आभूषणों को पह रहती। एक दिन ब्राह्मण बोला- हम इस सीमावर्ती गांव में रह रहे हैं। यहां चोरों का भय रहता है। तुम केवल पर्व दिनों में इन आभूषणों को पहनो तो अच्छा रहेगा, क्योंकि कभी चोर आ भी जाएं तो तुम इनकी सुरक्षा नहीं कर सकोगी। वह बोली- ठीक है । पर जब चोर आएंगे तब मैं इन्हें तत्काल उतार कर छुपा लूंगी। आप चिन्ता न करें। एक बार उसी गांव में डाका पड़ा। लुटेरों ने इस ब्राह्मण के घर में प्रवेश किया और आभूषणों से अलंकृत उसकी पत्नी को पकड़कर गहने खोलने लगे। वह पौष्टिक भोजन की निरंतरता से अत्यधिक स्थूल हो गई थी। पैरों के कड़े, हाथ के कंगन नहीं निकले। चोरों ने उसके हाथ-पैर काटकर गहने ले भाग गए। * २६. मोक्ष की एषणा करने वाले (महेसी) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-मोक्ष की इच्छा करने वाला किया है। बृहद्वृत्ति में इसके दो अर्थ प्राप्त हैं —महर्षि और मोक्ष की इच्छा करने वाला। ४. ५. ६. ७. तु जेसिं फेणबुब्बुय भंगुराणि जीविताणि, अथवा सासयवादो णिण्ण अप्पमत्तो कालो मरतो जेसिं एसा दिट्ठी, जो पुव्वमेव अकयजोगो सो । वही, पृष्ठ १२३ । सुखबोधा, पत्र ६७ । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२४ : महंतं एसतीति महेसि, मोक्षं इच्छतीत्यर्थः । बृहद्वृत्ति, पत्र २२५ । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंस्कृत ९१ अध्ययन ४ : श्लोक ११-१२ टि० २७-३१ २७. अप्रमत्त होकर विचरण करो (चरमप्पमत्तो) मोहगुण की तुलना रजस् और तमस् से की जा सकती है। यहां मकार अलाक्षणिक है। पद है-चर अप्पमत्तो-तुम २९. प्रतिकूल (असमंजस) अप्रमत्त होकर विचरण करो। प्रमाद के परिहार और अपरिहार चूर्णिकार ने 'असमंजस' शब्द का बहुवचनान्त प्रयोग के द्योतक दृष्टांत इस प्रकार हैं किया है। इससे प्रतीत होता है कि उनके सामने 'असमंजसा' ___एक व्यापारी दूर देश जाने के लिए प्रस्थित हुआ। उसने पाठ था। उनके अनुसार यह 'फासा' का विशेषण है। इसका अपनी पत्नी से कहा- मुझे कुछ समय लगेगा। तुम यहां का अर्थ है-प्रतिकूल, अनभिप्रेता कारोबार संभाल लेना । कर्मचारियों को व्यवस्थित रूप से काम में बृहद्वृत्ति में 'असमंजसं' को क्रिया-विशेषण मानकर लगाए रखना। इसका अर्थ-प्रतिकूल किया है। प्रतिकूल स्पर्श असंतुलन पैदा व्यापारी परदेश चला गया। उसकी पत्नी का सारा समय करते हैं। हमने यह भावार्थ ही ग्रहण किया है। शरीर के पोषण और शृंगार में बीतने लगा। वह अत्यधिक प्रमाद ३०. स्पर्श पीड़ित करते हैं (फासा फुसंती) में रहने लगी। कर्मचारियों को न वह समय पर उचित कार्यों में यहां स्पर्श का अर्थ है-इन्द्रियों के विषय। ये विषय नियोजित करती और न उन्हें उनका वेतन ही समय पर देती। गहीत होते ही व्यक्ति के साथ संबद्ध हो जाते हैं, उसको पकड़ सारे कर्मचारी वहां से चले गए। सारा व्यापार ठप्प हो गया। लेते हैं। धन की कमी हो गई। कुछ समय पश्चात् सेठ परदेश से चूर्णिकार के अनुसार सभी इन्द्रिय-विषयों में स्पर्शलौटा। घर और कारोबार की दुर्दशा को देखकर वह झल्ला उठा। इन्द्रिय के विषय को सहन करना अत्यन्त दुष्कर होता है। उसने अपनी पत्नी को फटकारा, बुरा-भला कहा और उसको इसलिए यह प्रधान है। घर से निकाल दिया। पत्नी के प्रमाद ने सारे घर को चौपट कर बृहवृत्तिकार ने 'स्पर्श' शब्द के उपादान का औचित्य डाला। बताते हुए कहा है-इन्द्रियों के पांच विषयों में सबसे दुर्जेय हैउसी वणिक् ने प्रचुर धन व्यय कर दूसरी कन्या के साथ स्पर्श विषय। यह व्यापक भी है। इसीलिए इसके ग्रहण से सभी विवाह कर लिया। वह चतुर थी। एक बार सेठ पुनः परदेश इन्द्रिय-विषय गृहीत हो जाते हैं। गया। पत्नी अपने कर्मचारियों को यथासमय कार्य का निर्देश देती ३१. कोमल-अनुकूल (मंदाय) और उन्हें पूर्वाण्ह में और अपराण्ह में भोजन कराती। उनके व्याख्याग्रन्थों में यह शब्द 'मंदा य' (सं० मन्दाश्च) ऐसा साथ वह मृदू व्यवहार करती और मासिक वेतन यथासमय व्याख्यात है। परन्त 'मंदाय' यह एक शब्द है। रायपसेणीय सूत्र चुका देती। सारे कर्मचारी उसके व्यवहार से प्रसन्न थे। १७३ और जीवाजीवाभिगम ३/२८५ में यह शब्द इसी रूप में वह निरन्तर घर की सार-संभाल करती। अपने शरीर के प्राप्त होता है। साज-शृंगार में अधिक समय नहीं लगाती। सेठ परदेश से 'मंद' शब्द के अनेक अर्थ हैं-धीमा, मृदु, हल्का, थोड़ा, लौटा। वह घर का वातावरण देखकर संतुष्ट हुआ और उसे सब छोटा आदि। चर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं.-अल्प और कुछ सौंप दिया। स्त्री । जो प्रमाद का परिहार नहीं करता वह नष्ट हो जाता है बृहद्वृत्ति में इसके दो अर्थ इस प्रकार हैंऔर जो प्रमाद का परिहार कर श्रम में अपने आपको नियोजित १. मन्द-मूढ़। हित और अहित को जानने वाले करता है, वह स्वामी बन जाता है। व्यक्ति को भी ये स्पर्श मंद कर देते हैं, अन्यथा बना २८. मोहगुणों (मोहगुणे) डालते हैं। इसका अर्थ है-मोह के सहायभूत इन्द्रियों के विषय २. स्त्री। शब्द, रूप आदि। जो जानकार व्यक्ति को भी आकुल-व्याकुल सुखबोधा में भी ये ही दो अर्थ प्राप्त हैं। कर उन्मार्ग में ले जाता है, वह मोह है। उस मोह को उत्तेजना डॉ० हरमन जेकोबी ने 'मंदा' का अर्थ बाह्य (external) देने वाले इन्द्रिय-विषय 'गुण' कहलाते हैं। किया है। सांख्य दर्शन प्रकृति और पुरुष-इन दो तत्वों को मुख्य हमने इसका अर्थ कोमल-अनुकूल किया है, जो कि मानता है। प्रकृति के तीन गुण हैं-सत्व, रजस् और तमस्। प्रसंग की दृष्टि से संगत है। १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२४, १२५ । ६. बृहवृत्ति, पत्र २२६ : स्पर्शोपादानं चास्यैव दुर्जयत्वाद् व्यापित्वाच्च । २. वही, पृष्ट १२५। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२५ : मंदा णाम अप्पा, अथवा मंदंतीति ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २२६ । मंदाः स्त्रियः...। ४. वही, पत्र २२६ । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र २२७॥ ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२५ : एतेसिं पुणो विसयाणं सव्वेसिं दुरधियासतरा ६. सुखबोधा, पत्र ६८। फासा, जतो ववदेस्सते। १०. उत्तराध्ययन सूत्र, पृष्ठ २० : मंदा य फासा... external things | Jain Education Intemational Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवज्ञ में वचन के दो और दूसरा अर्थ अप्पयु उत्तरज्झयणाणि ९२ अध्ययन ४ : श्लोक १३ टि० ३२-३७ ३२. निवारण करे (रक्खेज्ज) किया है। यहां 'रक्ष' धातु निवारण के अर्थ में प्रयुक्त है। ३६. दूर रहे (दुगुंछमाणो) ३३. जीवन सांधा जा सकता है (संखया) इसका शब्दार्थ है-जुगुप्सा करता हुआ, घृणा करता चूर्णि में 'संखया' अर्थात् संस्कृत का पहला अर्थ- हुआ। मुनि किसी की निन्दा नहीं करता, किसी से घणा नहीं 'सस्कृत वचन वाले अर्थात् सर्वज्ञ में वचन के दोष दिखाने करता। इसलिए इस शब्द का यहां तात्पर्य है कि मनि उन वाले' और दूसरा अर्थ 'संस्कृत बोलने में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को भलीभांति जान ले कि वे उन्मार्गगामी हैं, उनका किया गया है। शान्त्याचार्य ने इसका एक अर्थ-'संस्कृत संसर्ग अभिलषणीय नहीं है। सिद्धान्त का प्ररूपण करने वाले'-किया है। उनका संकेत आचार्य नेमिचन्द्र ने इस प्रसंग में दो गाथाएं उद्धत की निरन्वयोच्छेदवादी बौद्धों, एकान्त-नित्यवादी सांख्यों और हैसंस्कारवादी स्मृतिकारों की ओर है। बौद्ध लोग वस्तु को एकान्त 'सुवि उज्जममाणं, पंचेव करेंति रित्तयं समणं। अनित्य मानकर फिर 'सन्तान' मानते हैं तथा सांख्य उसे अप्पधुई परनिंदा, जिन्मोवत्था कसाया य॥' एकान्त-नित्य मानकर फिर 'आविर्भाव तिरोभाव' मानते हैं। -श्रामण्य में परम पुरुषार्थ करने वाले श्रमण को भी ये इसलिए ये दोनों 'संस्कृत धर्मवादी' हैं। स्मृतिकारों के अभिमत पांच बातें श्रामण्य से रिक्त कर देती हैंमें प्राचीन ऋषियों द्वारा निरूपित सिद्धान्त का प्रतिषेध और (१) स्वप्रशंसा (४) कामवासना उसका पुनः संस्कार करके स्मृतियों का निर्माण किया गया (२) परनिन्दा (५) कषाय चतुष्का इसलिए वे भी संस्कारवादी हैं। (३) रसलोलुपता डॉ० हरमन जेकोबी तथा अन्य विद्वानों ने मूल में 'संतेहिं असंतेहिं परस्स किं जंपिएहिं दोसेहि। 'असंखया' शब्द माना है। डॉ० सांडेसरा ने इसका तात्पर्यार्थ अत्यो जसो न लन्मइ, सो य अमित्तो कओ होइ।' असहिष्णु, असमाधानकारी किया है। --दूसरों में विद्यमान या अविद्यमान दोषों की चर्चा करने पहले श्लोक के पहले चरण में जीवन को असंस्कृत कहा का लाभ ही क्या है ? न इससे अर्थ-प्रयोजन ही सिद्ध होता है। उसके संदर्भ में 'संस्कृत' का अर्थ...'जीवन का संस्कार हो है और न इससे यश ही मिलता है। पर जिसके दोषों की चर्चा सकता है, वह फिर सांधा जा सकता है, ऐसा मानने वाले.... की जाती है, वह शत्रु अवश्य बन जाता है। 'यह अर्थ अधिक उपयुक्त लगता है। ३७. अन्तिम सांस तक (जाव सरीरमेओ) ३४ अशिक्षित हैं (तुच्छ) आत्मा का शरीर से भिन्न होना या शरीर का आत्मा से चूर्णिकार ने इसका अर्थ-अशिक्षित किया है।' वृत्ति में शुन्य हो जाना शरीरभेद है। यह मरण या विमुक्ति का वाचक इसका अर्थ है—निस्सार वचन कहने वाला, अपनी इच्छानुसार है। सामान्य मरण में स्थूल शरीर छूटता है, पर सूक्ष्म शरीर नहीं सिद्धान्त की प्ररूपणा करने वाला। छूटते। जब मुक्ति होती है तब स्थूल और सूक्ष्म-दोनों प्रकार ३५. परतंत्र हैं (परज्झा ) के शरीर छूट जाते हैं। यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है-परतंत्र। 'परज्झ' एक चोर धनाढ्य व्यक्तियों के घरों में सेंध लगाकर चोरी (स्था० १०/१०८) तथा 'परज्झा'--ये दोनों शब्द इसी अर्थ में करता था। वह अपार धन चुराकर अपने घर ले जाता और घर व्यवहृत हैं। में एक ओर बने कुएं में डाल देता। वह रूपवती कन्याओं के चूर्णि में इसके तीन अर्थ प्राप्त हैं—परवश, राग-द्वेष के साथ विवाह करने का शौकीन था। वह उस कूप से धन वशवर्ती तथा अजितेन्द्रिय। निकालता और मनचाही कन्या से विवाह रचाता। वह कन्या वृत्तिकार ने इसे देशीपद मानकर इसका अर्थ परवश गर्भवती होती तब उसे मारकर वह उसी कुए में डाल देता। वह १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२६ : संस्कृता नाम संस्कृतवचना ३. उत्तराध्ययन सूत्र, पृ० ३७, फुट नो०२। सर्वज्ञवचनदत्तदोषाः, अथवा संस्कृताभिधानरुचयः । ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १२७ : तुच्छा णाम असिक्खिता इति। बृहवृत्ति, पत्र २२७ : यद्वा संस्कृतागमप्ररूपकत्वेन संस्कृता, यथा ५. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २२७ । सीगताः, ते हि स्वागमे निरन्धयोच्छेदमभिधाय पुनस्तेनैव निर्वाहमपश्यन्तः (ख) सुखबोधा, पत्र । परमार्थतोऽन्वयिद्रव्यरूपमेव सन्तानमुपकल्पांबभूवुः, सांख्याश्चैकान्त- ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १२६ : परज्झा परवसा रागद्दोसवसगा नित्यतामुक्त्वा तत्त्वतः परिणामरूपां चै (पावे) व पुनराविर्भावतिरो- अजितिंदिया। भावावुक्तवन्तो, यथा वा ७. बृहद्वृत्ति, पत्र २२७ : परज्झ त्ति देशीपदत्वात् परवशा राग-द्वेषग्रह“उक्तानि प्रतिषिद्धानि, पुनः सम्भावितानि च। ग्रस्तमानसतया न ते स्वतंत्राः। सापेक्षनिरपेक्षाणि ऋषिवाक्यान्यनेकशः।।" ८. सुखबोधा, पत्र ६६) इतिवचनाद्वचननिषेधनसम्भवादिभिरुपस्कृतस्मृत्यादिशास्त्रा मन्वादयः।। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १२६ : भिद्यते इति भेदः, जीवो वा सरीरातो सरीरं वा जीवातो। २. Jain Education Intemational Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंस्कृत ९३ अध्ययन ४ : श्लोक १३ टि० ३७ यह चाहता था कि मेरी पत्नी बच्चों की मां होकर दूसरों को मेरे धन की जानकारी न दे, इसलिए वह ऐसा क्रूर कर्म करता। इस प्रकार उसने अनेक कन्याओं की जीवनलीला समाप्त कर डाली। एक बार उसने अतीव रूपवती कन्या को देखा और उसके परिवार को अपार धनराशि देकर उससे विवाह कर लिया । वह गर्भवती हुई। उसने उसे नहीं मारा। उसने पुत्र का प्रसव किया। पुत्र आठ वर्ष का हो गया। चोर ने सोचा, बहुत काल बीत गया है। अब मैं पहले पत्नी को मारकर फिर बच्चे को भी मार डालूं तो अच्छा रहेगा। उसने एक दिन अवसर देखकर पत्नी को मार डाला। बच्चे ने यह देख लिया । वह भागा और गली में आकर चिल्लाने लगा । पास-पड़ोस के लोग एकत्रित हो गए। लड़के ने कहा इसने मेरी मां को मार डाला है। राजपुरुषों ने उसे पकड़ लिया। घर की जांच की गई। उन्होंने देखा, कुंआ धन से भरा पड़ा है उसमें हड्डियां भी पड़ी हैं। उसे राजा के समक्ष उपस्थित किया गया। सारा धन उस बच्चे को दे दिया और उस चोर को फांसी पर लटका दिया। १. सुखबोधा, पत्र ८ १ | जो पापकारी प्रवृत्तियों से धन एकत्रित करता है और धन को ही सब कुछ मानता है, उसकी यही दशा होती है। धनत्राण नहीं देता।" Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं अकाममरणिज्जं पांचवां अध्ययन अकाममरणीय Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन का नाम 'अकाममरणिज्ज'-'अकाम- (२) अवधि-मरण (२) तद्भव-मरण मरणीय' है। नियुक्ति में इसका दूसरा नाम 'मरणविभत्तीइ'- (३) आत्यन्तिक-मरण (३) अवधि-मरण 'मरणविभक्ति' भी मिलता है। (४) वलन्मरण (४) आदि-अन्त-मरण जीवन यात्रा के दो विश्राम हैं-जन्म और मृत्यु । जीवन (५) वशात-मरण (५) बाल-मरण कला है तो मृत्यु भी उससे कम कला नहीं है। जो जीने की कला (६) अन्तःशल्य-मरण (६) पंडित-मरण जानते हैं और मृत्यु की कला नहीं जानते, वे सदा के लिए (७) तद्भव-मरण (७) अवसन्न-मरण अपने पीछे दूषित वातावरण छोड़ जाते हैं। व्यक्ति को कैसा मरण (८) बाल-मरण (८) बाल-पंडित-मरण नहीं करना चाहिए, इसका विवेक आवश्यक है। मरण के (६) पण्डित-मरण (६) सशल्य-मरण विविध प्रकारों के उल्लेख इस प्रकार मिलते हैं... (१०) बाल-पंडित-मरण (१०) वलाय-मरण मरण के चौदह भेद (११) छद्मस्थ-मरण (११) व्युत्सृष्ट-मरण भगवती सूत्र में मरण के दो भेद-बाल और पंडित किए (१२) केवलि-मरण (१२) विप्रनास-मरण हैं। बाल-मरण के बारह प्रकार हैं और पंडित-मरण के दो (१३) वैहायस-मरण (१३) गृद्धपृष्ठ-मरण प्रकार । कुल मिलाकर चौदह भेद वहां मिलते हैं (१४) गृद्धपृष्ठ-मरण (१४) भक्त-प्रत्याख्यान-मरण बाल-मरण के बारह भेद हैं: (१५) भक्त-प्रत्याख्यान-मरण (१५) प्रायोपगमन-मरण (१) वलय (७) जल-प्रवेश (१६) इंगिनी-मरण (१६) इंगिनी-मरण (२) वशाल (८) अग्नि-प्रवेश (१७) प्रयोपगमन-मरण' (१७) केवली-मरण।' (३) अन्तःशल्य (E) विष-भक्षण समवायांग के तीसरे, दसवें और पन्द्रहवें मरण के नाम (४) तद्भव (१०) शस्त्रावपाटन उत्तराध्ययन नियुक्ति के अनुसार क्रमशः अत्यन्त-मरण, (५) गिरि-पतन (११) वैहायस मिश्र-मरण और भक्त-प्रतिज्ञा-मरण हैं। यह केवल शाब्दिक (६) तरु-पतन (१२) गृद्धपृष्ट। अन्तर है, नामों अथवा क्रम में भी और कोई अन्तर नहीं है। पंडित-मरण के दो भेद हैं: विजयोदया में क्रम तथा नामों में अन्तर है। वैहायस' के (१) प्रायोपगमन (२) भक्त-प्रत्याख्यान।' स्थान पर 'विप्रनास' तथा 'अन्तःशल्य' और 'आत्यन्तिक' के मरण के सतरह भेद स्थान पर क्रमशः 'सशल्य' और 'आद्यन्त' नाम उल्लिखित हैं। समवायांग में मरण के सतरह भेद बतलाए हैं। मूलाराधना समवायांग में वशार्त्त-मरण और छद्मस्थ-मरण हैं जबकि में भी मरण के सतरह प्रकारों का उल्लेख है और उनका विजयोदया में अवसन्न-मरण और व्युत्सृष्ट-मरण। भगवती के विस्तार विजयोदयावृत्ति में मिलता है। उक्त परम्पराओं के उपर्युक्त पांचवें से लेकर दसवें तक के ६ भेद विजयोदया के अनुसार मरण के सतरह प्रकार इस तरह हैं:--- 'बाल-मरण' भेद में समाविष्ट होते हैं। समवायांग मूलाराधना (विजयोदयावृत्ति) उक्त सतरह प्रकार के मरणों की संक्षिप्त व्याख्या इस (१) आवीचि-मरण (१) आवीचि-मरण प्रकार है: १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २३३ : सव्व एए दारा मरणविभत्तीइ वण्णिआ कमसो। भगवई २४६ : दुविहे मरणे पण्णत्ते, तं जहा-बालमरणे य पंडियमरणे य। से कि तं बालमरणे? बालमरणे दुवालसविहे पण्णत्त तं जहावलयमरणे, वसट्टमरणे, अंतोसल्लमरणे, तब्भवमरणे, गिरिपडणे, तरुपडणे, जलप्पवेसे, जलणप्पवेसे, विसभक्खणे, सत्थोवाडणे, वेहाणसे, गद्धपढे। ३. वही, २४: से कि तं पंडियमरणे? पंडियमरणे दुविहे पण्णते, तं। जहा...पाओवगमणे य भत्तपच्चक्खाणे य। ४. समवाओ १७।सत्तरसविहे मरणे प०-आवीईमरणे, ओहिमरणे आयंतियमरणे, वलायमरणे, वसट्टमरणे, अंतोसल्लमरणे, तब्भवमरणे, बालमरणे, पंडितमरणे, बालपंडितमरणे, छउमत्थमरणे, केवलिमरणे, भत्तपच्चक्खाणमरणे, इंगिणिमरणे पाओवगमणमरणे। ५. (क) मूलाराधना आश्वास १, गाथा २५ : मरणाणि सत्तरस देसिदाणि तित्थंकरेहिँ जिणवयणे। तत्थ विय पंच इह संगहेण मरणाणि वोच्छामि।। (ख) विजयोदया वृत्ति, पत्र ८७। ६. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २१२, २१३ : आवीचि ओहि अंतिय बलायमरणं वसट्टमरणं च। अंतोसल्लं तब्भव बालं तह पंडियं मीसं ।। छउमत्थमरण केवलि देहाणस गिद्धपिट्ठमरणं च। मरण भत्तपरिण्णा इंगिणी पाओवगमणं च।। Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १. आवीचि मरण आयुकर्म के दलिकों की विच्युति अथवा प्रतिक्षण आयु की विच्युति, आवीचि मरण कहलाता है।' वीचि का अर्थ है— तरंग । समुद्र और नदी में प्रतिक्षण लहरें उठती हैं। वैसे ही आयु-कर्म भी प्रतिसमय उदय में आता है। आयु का अनुभव करना जीवन का लक्षण है। प्रत्येक समय का जीवन प्रतिसमय में नष्ट होता है। यह प्रत्येक समय का मरण आवीचि मरण कहलाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव की अपेक्षा से आवीचि-मरण के पांच प्रकार हैं। २. अवधि-मरण जीव एक बार नरक आदि जिस गति में जन्म-मरण करता है, उसी गति में दूसरी बार जब कभी जन्म-मरण करता है तो उसे अवधि मरण कहा जाता है।* ३. आत्यन्तिक- मरण जीव वर्तमान आयु-कर्म के पुद्गलों का अनुभव कर मरण प्राप्त हो, फिर उस भाव में उत्पन्न न हो तो उस मरण को आत्यन्तिक मरण कहा जाता है। वर्तमान मरण - 'आदि' और वैसा मरण आगे न होने से उसका 'अन्त' - इस प्रकार इसे 'आद्यन्त मरण' भी कहा जाता है। ४. वलन्मरण जो संयमी जीवन-पथ से भ्रष्ट होकर मृत्यु पाता है, उसकी मृत्यु को वलन्मरण कहा जाता है। भूख से तड़पते हुए मरने को भी वलन्मरण कहा जाता है। विजयोदया में वलाय मरण कहा है। इसकी व्याख्या इस प्रकार है -विनय, वैयावृत्य आदि को सत्कार न देने वाले, नित्य नैमित्तिक कार्यों में आलसी, व्रत, समिति और गुप्ति के पालन में अपनी शक्ति को छिपाने वाले, धर्म-चिन्तन के समय नींद लेने वाले, ध्यान और नमस्कार आदि से दूर भागने वाले व्यक्ति के मरण को वलाय मरण कहा जाता है। - ९६ ५. वशार्त - मरणदीप - कलिका में शलभ की तरह जो इन्द्रियों के वशीभूत होकर मृत्यु पाते हैं, उसे 'दशा-मरण' कहा आयुर्दलिकविच्युतिलक्षणावस्था १. समवाओ १७१६ वृत्ति पत्र ३४ यस्मिंस्तदावीचि अथवा वीचिः - विच्छेदस्तदभावादवीचि... एवं भूतं मरणमावीचिमरणं प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटनलक्षणम् । २. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८६ । ३. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गा० २१५ : अणु समयनिरन्तरमवीइसन्नियं तं भणन्ति पंचविहं । दव्वे खित्ते काले भवे य भावे य संसारे ।। ४. (क) समवाओ १७१६ वृत्ति पत्र ३४ मर्यादा तेन मरणमवधिमरणम्, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुः कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा तदवधिमरणमुच्यते । तद्द्रव्यापेक्षया पुनस्तद्ग्रहणावधिं यावज्जीवस्य मृतत्वादिति । (ख) उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गा० २१६ एमेव ओहिमरणं जाणि मओ ताणि चैव मरइ पुणो । (ग) विजयोदया वृत्ति, पत्र ८७ । ५. (क) समवाओ १७१६ वृत्ति पत्र ३४ यानि नारकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय मरष्यितीति एवं यन्मरणं तद्द्व्यापेक्षया अत्यन्तभावित्वादात्यन्तिकमिति । अध्ययन ५ आमुख जाता है।" विजयोदया में भी यह नाम मिलता है। यह मरण आर्त्त और रौद्र ध्यान में प्रवृत्त रहने वालों के होता है। इसके चार भेद हैं इन्द्रिय- यशात वेदना यशानं कषाय- बशार्त्त और नो- कषाय-यशार्थ " " ६. अन्त:शल्य मरण-भगवती की वृत्ति में इसके दो भेद किए गए हैं-- (१) द्रव्य और (२) भाव । शरीर में शस्त्र की नोक आदि रहने से जो मृत्यु होती है वह द्रव्य अन्तःशल्य-मरण कहलाता है । लज्जा और अभिमान आदि के कारण अतिचारों की आलोचना न कर दोषपूर्ण स्थिति में मरने वाले की मृत्यु को भाव अन्तःशल्य - मरण कहा जाता है। विजयोदया में इसका नाम सशल्य-मरण है। उसके भी दो भेद हैं--- द्रव्य शल्य और भाव शल्य । मिथ्यादर्शन, माया और निदान -इन तीनों शल्यों की उत्पत्ति के हेतुभूत कर्म को द्रव्य शल्य कहा जाता है। द्रव्य शल्य की दशा में होने वाला मरण द्रव्य शल्य-मरण कहलाता है। यह मरण पांच स्थावर और अमनस्क त्रस जीवों के होता है। उक्त तीन शल्यों के हेतुभूत कर्मों के उदय से जीव में जो माया, निदान और मिथ्यात्व का परिणाम होता है, उसे भाव शल्य कहा जाता है इस दशा में होने वाला मरण भाव शल्य मरण कहा जाता है 1 1 जहां भाव शल्य है वहां द्रव्य शल्य अवश्य होता है, किन्तु भाव शल्य केवल समनस्क जीवों में ही होता है। अमनस्क जीवों में संकल्प या चिन्तन नहीं होता, इसलिए उनके केवल द्रव्य शल्य ही होता है। इसीलिए अमनस्क जीवों के मरण को द्रव्य शल्य - मरण और समनस्क जीवों के मरण को भाव शल्य-मरण कहा गया है। * भविष्य में मुझे अमुक वस्तु मिले, आदि-आदि मानसिक संकल्पों को निदान कहते हैं । निदान शल्य-मरण असंयत सम्यक् दृष्टि और श्रावक के होता है। (ख) उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गा० २१६ एमेव आइयंतियमरणं नवि मरइ ताइ पुणो । ६. विजयोदया, वृत्ति, पत्र ८७ । ७. (क) समवाओ, १७१६ वृत्ति पत्र ३४ : संयमयोगेभ्यो वलतांभग्नव्रतपरिणतीनां व्रतिनां वलन्मरणम् । (ख) उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गा० २१७ : संयमजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणं तु । ८. भगवई, २४६ वृत्ति, पृ० २११ : बलतो-बुभुक्षापरिगतत्वेन वलवलायमानस्य संयमाद्धा भ्रश्यतो (यत्) मरणं तवलन्मरणम् । विजयोदया वृत्ति, पत्र ८६ । ६. १०. समवाओ १७१६ वृत्ति, पत्र ३४ इन्द्रियविषयपारतन्त्र्येण ऋता बाधिता दशार्त्ताः स्निग्धदीपकलिकावलोकनात् शलभवत् तथाऽन्तः । ११. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८६, ६० १२. भगवई २४६ वृत्ति, पत्र २११ : अन्तःशल्यस्य द्रव्यतो ऽनुद्धततोमरादेः भावतः सातिचारस्य यद्मरणं तद् अन्तःशल्यमरणम् । १३. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८८ । १४. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८६ । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाममरणीय ९७ मार्ग (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) को दूषित करना, मार्ग का नाश करना, उन्मार्ग की प्ररूपणा करना, मार्ग में स्थित लोगों का बुद्धि-भेद करना — इन सबको एक शब्द में मिथ्यादर्शन- शल्य कहा जाता है।" पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त आदि मुनि धर्म से भ्रष्ट होकर मरण-समय तक दोषों की आलोचना किए बिना जो मृत्यु पाते है। विजयोदया में इसके चार भेद किए हैंहैं, उसे माया- शल्य-मरण कहा जाता है। यह मरण मुनि, श्रावक और असंयत सम्यक् दृष्टि को प्राप्त होता है। (३) ज्ञान- पंडित (४) चारित्र - पंडित ।' ७. तद्भव - मरण— वर्तमान भव (जन्म) से मृत्यु होती है, उसे तद्भव - मरण कहा जाता है। ८. बाल-मरण- मिथ्यात्वी और सम्यकदृष्टि का मरण बाल-मरण कहलाता है। भगवती में बाल-मरण के १२ भेद प्राप्त हैं। विजयोदया में पांच भेद किए हैं- (१) अव्यक्त-बाल (२) व्यवहार - बाल (३) ज्ञान- बाल (४) दर्शन - बाल और (५) चारित्र बाल। इनकी व्याख्या संक्षेप में इस प्रकार है: (१) अव्यक्त - बाल -छोटा बच्चा जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को नहीं जानता तथा इन चार पुरुषार्थों का आचरण करने में भी समर्थ नहीं होता। (२) व्यवहार - बाल - लोक व्यवहार, शास्त्र - ज्ञान आदि को जो नहीं जानता । - (३) ज्ञान - बाल - जो जीव आदि पदार्थों को यथार्थ रूप से नहीं जानता। (४) दर्शन - बाल - जिसकी तत्त्वों के प्रति श्रद्धा नहीं होती । दर्शन - बाल के दो भेद हैं—इच्छा-प्रवृत्त और अनिच्छा-प्रवृत्त। इच्छा-प्रवृत्त-अग्नि, धूप, शस्त्र, विष, पानी, पर्वत से गिरकर, श्वासोच्छ्वास को रोक कर, अति सर्दी या गर्मी होने से, भूख और प्यास से, जीभ को उखाड़ने से, प्रकृत्तिविरुद्ध आहार करने से इन साधनों के द्वारा जो इच्छा से प्राण त्याग करता है, वह इच्छा-प्रवृत्त दर्शनबाल-मरण कहलाता है। अनिच्छा-प्रवृत्त योग्यकाल में या अकाल में मरने की इच्छा के बिना जो मृत्यु होती है, वह अनिच्छा-प्रवृत्त दर्शन-बाल-मरण कहलाता है। (५) चारित्र - बाल - जो चरित्र से हीन होता है। विषयों में १. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८८,८६ २. (क) समवाओ १७/६ वृत्ति, पत्र ३४ : यस्मिन् भवे — तिर्यग्मनुष्यभवलक्षणे वर्त्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवायुर्बद्ध्वा पुनः तत्क्षयेण म्रियमाणस्य यद्भवति तत्तद्भवमरणम् (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २२१ : मोत्तुं अकम्मभूमगनरतिरिए सुरगणे अ नेरइए । सेसाण जीवाणं तब्भवमरणं तु केसिंचि ।। (ग) विजयोदया वृत्ति, पत्र ८७ । ३. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा २२२ अविरयमरणं बालं मरणं.. ४. भगवई २१४६ । अध्ययन ५ : आमुख आसक्त, दुर्गति में जाने वाले, अज्ञानान्धकार से आच्छादित, ऋद्धि में आसक्त, रसों में आसक्त और सुख के अभिमानी जीव बाल-मरण से मरते हैं । ९. पंडित मरण संयति का मरण पंडित मरण कहलाता (१) व्यवहार- पंडित (२) सम्यक्त्व - पंडित इनकी व्याख्या इस प्रकार है : (१) व्यवहार - पंडित—जो लोक, वेद और समय के व्यवहार में निपुण, उनके शास्त्रों का ज्ञाता और शुश्रूषा आदि गुणों से युक्त हो । ( २ ) दर्शन - पंडित जो सम्यक्त्व से युक्त हो । ज्ञान- पंडित जो ज्ञान से युक्त हो । (३) (४) चारित्र - पंडित — जो चारित्र से युक्त हो । १०. बाल - पंडित मरण -- संयतासंयत का मरण बाल- पंडित मरण कहलाता है।" स्थूल हिंसा आदि पांच पापों के त्याग तथा सम्यक् - दर्शन युक्त होने से वह पंडित है। सूक्ष्म असंयम से निवृत्त न होने के कारण उसमें बालत्व भी है।" ११. छद्मस्य मरण मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मतिज्ञानी श्रमण के मरण को छद्मस्थ-मरण कहा जाता है। " ८. ६. विजयोदया में इसके स्थान पर 'ओसण्ण-मरण' नाम मिलता है।" उसकी व्याख्या इस प्रकार है— रत्नत्रय में विहार करने वाले मुनियों के संघ से जो अलग हो गया हो उसे 'अवसन्न' कहते हैं। उसके मरण को अवसन्न-मरण कहा जाता है। पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील, संसक्त और अवसन्नये पांच भ्रष्ट मुनि 'अवसन्न' कहलाते हैं। ये ऋद्धि में आसक्त, दुःख से भयभीत, कषायों में परिणत हो आहार आदि संज्ञाओं के वशवर्ती, पाप शास्त्रों के अध्येता, तेरह क्रिया (३ गुप्ति, ५ समिति और ५ महाव्रत ) में आलसी, संक्लिष्ट परिणामी, भक्तपान और उपकरणों में आसक्त, निमित्त, तंत्र-मंत्र और औषध से आजीविका करने वाले, गृहस्थों का वैयावृत्य करने वाले, उत्तर गुणों से हीन, गुप्ति और समिति में अनुद्यत, संसार के दुःखों से भय न करने वाले, क्षमा आदि दश धर्मों में प्रवृत्त न होने वाले - ५. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८७ ८८ ६. वही, पत्र ८८ ७. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा २२२ जाणाहि बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं । विजयोदया वृत्ति, पत्र ८८ उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा २२३ : मणपज्जवोहिनाणी सुअमइनाणी मरंति जे समणा । छउमत्थमरणमेयं केवलिमरणं तु केवलिणो ।। १०. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८८ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ५ : आमुख तथा चारित्र में दोष लगाने वाले होते हैं। ये अवसन्न मुनि मर आता है। भव का अन्त करने योग्य संहनन और संस्थान को कर हजारों भवों में भ्रमण करते हैं और दुःखों को भोगते हुए 'प्रायोग्य' कहा जाता है। उसकी प्राप्ति को 'प्रायोग्य-गमन' कहा जीवन को पूरा करते हैं। है। विशिष्ट संहनन और विशिष्ट संस्थान वाले के मरण को १२. केवलि-मरण-केवलज्ञानी का मरण केवलि-मरण प्रायोग्य-गमन-मरण कहा जाता है। कहलाता है। श्वेताम्बर परम्परा में 'पादपोपगमन' शब्द मिलता है और १३. वैहायस-मरण-वृक्ष की शाखा पर लटकने, पर्वत दिगम्बर परम्परा में 'प्रायोपगमन', 'प्रायोग्य' और 'पादोपगमन' से गिरने और झंपा लेने आदि कारण से होने वाला मरण पाठ मिलता है। वैहायस मरण कहलाता है। विजयोदया में इसके स्थान पर भगवती में पादपोपगमन के दो भेद किए हैं—निर्हारि 'विप्रणास-मरण' है। और अनिर्हारि। निर्हारि-इसका अर्थ है बाहर निकालना। १४. गृद्धपृष्ठ-मरण हाथी आदि के कलेवर में प्रविष्ट उपाश्रय में मरण प्राप्त करने वाले साधु के शरीर को वहां से होने पर उस कलेवर के साथ-साथ उस जीवित शरीर को भी बाहर ले जाना होता है, इसलिए उस मरण को निर्हारि कहते हैं। गीध आदि नोंच-नोंच कर मार डालते हैं. उस स्थिति में जो अनिहारि-अरण्य में अपने शरीर का त्याग करने वाले साधु मरण होता है, वह गृद्धपृष्ठ-मरण कहलाता है। के शरीर को बाहर ले जाना नहीं पड़ता, इसलिए उसे १५. भक्त-प्रत्याख्यान-मरण-यावज्जीवन के लिए विविध अनियरि-मरण कहा जाता है। अथवा चतुर्विध आहार के त्यागपूर्वक जो मरण होता है, उसे भगवती में इंगिनी-मरण को भक्त-प्रत्याख्यान का एक भक्त-प्रत्याख्यान-मरण कहा जाता है। प्रकार स्वीकार कर उसकी स्वतंत्र व्याख्या नहीं की है। १६. इंगिनी-मरण प्रतिनियत स्थान पर अनशनपर्वक मूलाराधना में भक्त-प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन ये मरण को इंगिनी-मरण कहते हैं। जिस मरण में अपने अभिप्राय ताना पाडत मरण क भद मान गए ह। से स्वयं अपनी शुश्रूषा करे, दूसरे मुनियों से सेवा न ले उसे उपर्युक्त सतरह मरण विभिन्न विवक्षाओं से प्रतिपादित इंगिनी-मरण कहा जाता है। यह मरण चतर्विध आहार का हैं। आवीचि, अवधि, आत्यन्तिक और तद्भव-मरण भव की प्रत्याख्यान करने वाले के ही होता है। दृष्टि से, वलन्, वैहायस, गृद्धपृष्ठ, वशाल और अन्तःशल्य-मरण १७. प्रायोपगमन, पादपोपगमन, पादोपगमन-मरण- आत्म-दोष, कषाय आदि की दृष्टि से, बाल और पण्डित मरण अपनी परिचर्या न स्वयं करे और न दूसरों से कराए, ऐसे मरण चारित्र की दृष्टि से, छद्मस्थ और केवलि-मरण ज्ञान की दृष्टि को प्रायोपगमन अथवा प्रायोग्य-मरण कहते हैं। वृक्ष के नीचे से तथा भक्त-प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन-मरण अनशन स्थिर अवस्था में चतुर्विध आहार के त्यागपूर्वक जो मरण होता की दृष्टि से प्रतिपादित हैं। है, उसे पादपोपगमन-मरण कहते हैं। अपने पांवों के द्वारा संघ उपर्युक्त सतरह मरणों में आवीचि मरण प्रतिपल होता है से निकल कर और योग्य प्रदेश में जाकर जो मरण किया जाता और सिद्धों को छोड़ सब प्राणियों के होता है। शेष मरण है उसे पादोपगमन-मरण कहा जाता है। इस मरण को चाहने जीव-विशेषों के होते हैं। वाले मुनि अपने शरीर की परिचर्या न स्वयं करते हैं और न एक समय में कितने मरण होते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर दूसरों से करवाते हैं। कहीं 'पाउग्गमण' (प्रायोग्य) पाठ भी उत्तराध्ययन की नियुक्ति में है। एक समय में दो मरण, तीन १. (क) भगवई २४६ वृत्ति, पत्र २२१: । ७. विजयोदया वृत्ति, पत्र ११३ । वृक्षशाखाधुबन्धनेन यत्तन्निरुक्तिवशाद्वैहानसम् । ८. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), गाथा ६१। (ख) उत्तराध्यययन नियुक्ति, गाथा २२४ : ६. विजयोदया वृत्ति, पत्र ११३ । गिद्धाइभक्खणं गिद्धपिट्ट उब्बंधणाइ वेहासं। १०. विजयोदया वृत्ति, पत्र ११३ । एए दुन्निवि मरणा कारणजाए अणुण्णाया।। ११. भगवई २ ME वृत्ति, पत्र २१२ : निहरिण निर्वृत्तं यत्तन्निारिम, प्रतिश्रये २. विजयोदया वृत्ति, पत्र 01 यो म्रियते तस्यैतत्, तत्कडेवरस्य निर्हारणात् । अनिर्हारिमं तु योऽटव्यां ३. (क) भगवई २१४९ वृत्ति, पत्र २११ : पक्षिविशेषैर्गदैर्वा-मांसुलुब्धैः म्रियते इति। शृगालादिभिः स्पृष्टस्य–विदारितस्य करिकरभरासभादिशरीरान्त- १२. भगवई २४९ वृत्ति, पत्र २१२ : इङ्गितमरणमभिधीयते र्गतत्वेन यन्मरणं तद्गृध्रस्पृष्टं वा गृद्धस्पृष्टं वा, गृधैर्वा भक्षितस्य- तद्भक्तप्रत्याख्यानस्यैव विशेषः। स्पृष्टस्य यत्तद्गृध्रस्पृष्टम्। १३. मूलाराधना, गाथा २६: पायोपगमण मरणं भत्तपइण्णा च इंगिणी चेव। (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २२४ । तिविहं पंडियमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स।। ४. (क) भगवई २४६ वृत्ति, पत्र २११, २१२। १४. उत्तराध्ययन नियुक्ति-गाथा २२७-२२६: (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा २२५, वृत्ति, पत्र २३५।। दुन्नि व तिन्न व चत्तारि पंच मरणाइ अवीइमरणमि। ५. भगवई २४ वृत्ति, पत्र २१२ : चतुर्विधाहारपरिहारनिष्पन्नमेव भवतीति। कइ मरइ एगसमयंसि विभासावित्थरं जाणे ।। (क) भगवई २४६वृत्ति, पत्र २१२। सव्वे भवत्थजीवा मरंति आवीइअंसया मरणं। (ख) समवाओ १७।६ वृत्ति, पत्र ३५ : पादस्येवोपगमनम्-अवस्थानं ओहिं च आइअंतिय दुन्निवि एयाइ भयणाए।। यस्मिन् तत्पादपोपगमनं तदेव मरणम् । ओहिं च आइअंतिअ बालं तह पंडिअंच मीसं च। (ग) उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा २२५, वृत्ति पत्र २३५ । छउमं केवलिमरणं अन्नुन्नेणं विरुज्झति।। Jain Education Intemational Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाममरणीय मरण, चार मरण और पांच मरण भी होते हैं । बाल, बाल-पंडित और पंडित की अपेक्षा से वे इस प्रकार हैंबाल की अपेक्षा (१) एक समय में दो मरण-अवधि और आत्यन्तिक में से एक और दूसरा बाल-मरण । (२) एक समय में तीन मरण-जहां तीन होते हैं वहां तद्भव मरण और बढ़ जाता है। ९९ (३) एक समय में चार मरण-जहां चार होते हैं वहां वशार्त्त-मरण और बढ़ जाता है। पंडित की अपेक्षा पंडित मरण की विवक्षा दो प्रकार से की है— दृढ़ संयमी पंडित और शिथिल संयमी पंडित । (क) दृढ़ संयमी पंडित (४) एक समय में पांच मरण-जहां आत्मघात करते हैं। वहां वैहायस और गृद्धपृष्ठ में से कोई एक बढ़ जाता है। वलन्मरण और शल्य मरण को बाल-मरण के अन्तर्गत स्वीकार किया है। (१) जहां दो मरण एक समय में होते हैं वहां अवधि - मरण और आत्यन्तिक-मरण में से कोई एक होता है क्योंकि दोनों परस्पर विरोधी हैं। दूसरा पंडित-मरण । (२) जहां तीन मरण एक साथ होते हैं, वहां छद्मस्थ-मरण और केवलि-मरण में से एक बढ़ जाता है 1 (३) जहां चार मरण की विवक्षा है, वहां भक्त - प्रत्याख्यान, इंगिनी और पादपोगमन में से एक बढ़ जाता है। (४) जहां पांच मरण की विवक्षा है, वहां वैहायस और गृद्ध-पृष्ठ में से एक मरण बढ़ जाता है । (ख) शिथिल संयमी पंडित (१) जहां दो मरण की एक समय में विवक्षा है, वहां अवधि और आत्यन्तिक में से एक और किसी कारणवश वैहायस और गृद्धपृष्ठ में से एक। (२) कथंचिद् शल्य-मरण होने से तीन भी हो जाते हैं। (३) जहां वलन्मरण होता है वहां एक साथ चार हो जाते हैं । (४) छद्मस्थ- मरण की जहां विवक्षा होती है, वहां एक साथ पांच मरण हो जाते हैं। भक्त - प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन-मरण विशुद्ध संयम वाले पंडितों के ही होता है। दोनों प्रकार के पंडित-मरण की विवक्षा में तद्भव - मरण नहीं लिया गया है, क्योंकि वे देवगति में ही उत्पन्न होते हैं । १. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा २२७-२२६ बृहद्वृत्ति पत्र, २३७-३८ । २. गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड), गाथा ५७-६१। बाल - पंडित की अपेक्षा (9) (२) (३) (४) तद्भव - मरण साथ होने से तीन मरण । वशात मरण साथ होने से चार मरण । कथंचिद् आत्मघात करने वाले के वैहायस और गृद्ध-पृष्ठ में से एक साथ होने से पांच' । मरण के दो भेद ३. जहां दो मरण की एक समय में विवक्षा है, वहां अवधि और आत्यन्तिक में से कोई एक और बाल - पंडित । अध्ययन ५ : आमुख गोम्मटसार में मरण के दो भेद किए गए हैं- (१) कदलीघात ( अकालमृत्यु) और (२) संन्यास विष भक्षण, विषैले जीवों के काटने, रक्तक्षय, धातुक्षय, भयंकर वस्तुदर्शन तथा उससे उत्पन्न भय, वस्त्रघात, संक्लेश क्रिया, श्वासोच्छ्वास के अवरोध और आहार न करने से समय में जो शरीर छूटता है, उसे कदलीघात मरण कहा जाता है। कदलीघात सहित अथवा कदलीघात के बिना जो संन्यास रूप परिणामों से शरीर त्याग होता है, उसे त्यक्त-शरीर कहते हैं । त्यक्त-शरीर के तीन भेद हैं- ( १ ) भक्त - प्रतिज्ञा, (२) इंगिनी और (३) प्रायोग्य। इनकी व्याख्या इस प्रकार है (१) भक्त- प्रतिज्ञा भोजन का त्याग कर जो संन्यास मरण किया जाता है, उसे 'भक्त-प्रतिज्ञा मरण' कहा जाता है । इसके तीन भेद हैं— जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । जघन्य का कालमान अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट का १२ वर्ष और शेष का मध्यवर्ती । (२) इंगिनी अपने शरीर की परिचर्या स्वयं करे, दूसरों से सेवा न ले, इस विधि से जो संन्यास धारण पूर्वक मरण होता है उसे 'इंगिनी मरण' कहा जाता है। (३) प्रायोग्य, प्रायोपगमन अपने शरीर की परिचर्या न स्वयं करे और न दूसरों से कराए, ऐसे संन्यास पूर्वक मरण को प्रायोग्य या प्रायोपगमन मरण कहा है। ४. मरण के पांच भेट मूलाराधना में दूसरे प्रकार से भी मरण विभाग प्राप्त होता १. पंडित - पंडित मरण २. पंडित-मरण ३. बाल-पंडित-मरण ४. बाल-मरण ५. बाल-बाल-मरण । प्रस्तुत अध्ययन में मरण के दो प्रकार बतलाए गए हैं। इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है अकाम-मृत्यु का परिहार और सकाम-मृत्यु का स्वीकरण । ३. मूलाराधना, आश्वास १, गाथा २६ पंडिदं पंडिदं मरणं पंडिदयं बालपंडिदं चेव । बालमरणं चउत्थं पंचमयं बालबालं च ।। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं : पांचवां अध्ययन अकाममरणिज्जं : अकाम-मरणीय हिन्दी अनुवाद इस महा प्रवाह वाले दुस्तर संसार-समुद्र से कई तिर गए। उसमें एक महाप्रज्ञ (महावीर) ने इस प्रश्न का व्याकरण किया। संस्कृत छाया अर्णवे महौधे एकस्तीर्णो दुरुत्तरां तत्रैको महाप्रज्ञः इदं पृष्टमुदाहरेत्।। स्त इमे च द्वे स्थाने आख्याते मारणान्तिके। अकाममरणं चैव सकाममरणं तथा।। मृत्यु के दो स्थान कथित हैं-अकाम-मरण और सकाम-मरण। बाल जीवों के अकाम-मरण बार-बार होता है। पण्डितों के सकाम-मरण उत्कर्षतः एक बार होता महावीर ने उन दो स्थानों में पहला स्थान यह कहा है, जैसे कामासक्त बाल-जीव बहुत क्रूर-कर्म करता १. अण्णवंसि महोहंसि, एगे तिण्णे दुरुत्तरं। एत्थ एगे महापन्ने, इमं पट्ठमुदाहरे।। २. संतिमे य दुवे ठाणा, अक्खाया मारणंतिया। अकाममरणं चेव, सकाममरणं तहा।। ३. बालाणं अकामं तु, मरणं असई भवे। पंडियाणं सकामं तु, उक्कोसेण सइं भवे।। ४. तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं। कामगिद्धे जहा बाले, भिसं कूराइं कुव्वई ।। ५. जे गिद्धे कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छई। न मे दिठे परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमा रई।। ६. हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अणागया। को जाणइ परे लोए, अस्थि वा नत्थि वा पुणो? ।। ७. जणेण सद्धिं होक्खामि, इइ बाले पगब्भई। कामभोगाणुराएणं, केसं संपडिवज्जई।। ८. ओ से दंडं समारभई, तसेसु थावरेसु य। अट्ठाए य अणट्ठाए, भूयग्गामं विहिंसई ।। बालानामकामं तु मरणमसकृद् भवेत्। पण्डितानां सकामं तु उत्कर्षेण सकृद् भवेत्।। तत्रेदं प्रथम स्थानं महावीरेण देशितम्। कामगृद्धो यथा बालो भृशं क्रूराणि करोति।। यो गृद्धः कामभोगेषु एकः कूटाय गच्छति न मया दृष्ट: परो लोकः चक्षुर्दृष्टेयं रतिः।। हस्तागता इमे कामाः कालिका येऽनागताः। को जानाति परो लोकः अस्ति वा नास्ति वा पुनः ?।। जनेन सार्धं भविष्यामि इति बालः प्रगल्भते। कामभोगानुरागेण क्लेशं सम्प्रतिपद्यते।। जो कोई कामभोगों में आसक्त होता है, उसकी गति मिथ्या भाषण की ओर हो जाती है। वह कहता है-- परलोक तो मैंने देखा नहीं, यह रति (आनन्द) तो चक्षु-दृष्ट है-आंखों के सामने है। ये कामभोग हाथ में आए हुए हैं। भविष्य में होने वाले संदिग्ध हैं। कौन जानता है-परलोक है या नहीं? "मैं लोक समुदाय के साथ रहूंगा" (जो गति उनकी होगी वही मेरी)-ऐसा मानकर बाल-अज्ञानी मनुष्य धृष्ट बन जाता है। वह काम-भोग के अनुराग से क्लेश'२ (संक्लिष्ट परिणाम) को प्राप्त करता है। फिर वह त्रस तथा स्थावर जीवों के प्रति दण्ड का प्रयोग करता है और प्रयोजनवश अथवा बिना प्रयोजन ही प्राणी-समूह की" हिंसा करता है। ततः स दण्डं समारभते त्रसेषु स्थावरेषु च। अर्थाय चानाय भूतग्रामं विहिनस्ति।। dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाममरणीय ६. हिंसे बाले मुसावाई, माइल्ले पिसुणे सढे । भुजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नई । १०. कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धे य इत्थिसु । दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु व्व मट्टियं ॥ ११. तओ पुट्ठो आयंकेणं, गिलाणो परितप्पई । पभीओ परलोगस्स, कम्माणुप्पेहि अप्पणो ।। १२. सुया मे नरए ठाणा, असीलाणं च जा गई । बाला कूरकम्माणं, पगाढा जत्थ वेयणा ।। १३. तत्थोववाइयं ठाणं, जहा मेयमणुस्सुयं । आहाकम्मेहिं गच्छतो, सो पच्छा परितप्पई ।। १४. जहा सागडिओ जाणं, समं हिच्चा महापहं । विसमं मग्गमोइण्णो, अक्खे भग्गंमि सोयई । १५. एवं धम्मं विउक्कम्म, अहम्मं पडिवज्जिया । बाले मच्चुमुहं पत्ते, अक्खे भग्गे व सोयई । । १६. तओ से मरणंतमि, बाले संतस्सई भया । अकाममरणं मरई, धुत्ते व कलिना जिए ।। १७. एयं अकाममरणं, बालाणं तु पवेइयं । एतौ सकाममरणं, पंडियाणं सुणेह मे ॥ १०१ हिंस्प्रे बालो मृषावादी मायी पिशुनः शठः । भुंजानः सुरां मांसं श्रेय एतदिति मन्यते ।। कायेन वचसा मत्तः वित्ते गृद्धश्च स्त्रीषु । द्विधा मलं संचिनोति शिशुनाग इव मृत्तिकाम् ।। ततः स्पृष्टः आतंकेन ग्लानः परितप्यते । प्रभीतः परलोकात् कर्मानुप्रेक्षी आत्मनः ।। श्रुतानि मया नरके स्थानानि आशीलानां च या गतिः । बालानां क्रूरकर्मणा प्रगाढा यत्र वेदनाः ।। रात्रीपपातिक स्थान, यथा ममैतवनुतम्।। यथाकर्मभिर्गच्छन्, सः पश्चात् परितप्यते ।। यथा शाकटिको जानन्, समं हित्वा महापथम् । विषमं मार्गमवतीर्णः, अक्षे भग्ने शोचति ।। एवं धर्म व्युत्क्रम्य, अधर्मं प्रतिपद्य । बालः मृत्युमुखं प्राप्तः, अक्षे भग्ने इव शोचति ।। ततः स मरणान्ते, बालः संत्रस्यति भयात् । अकाममरणं म्रियते, धूर्त्त इव कलिना जितः ।। एतदकाममरणं, बालानां तु प्रवेदितम् । इतः सकाममरणं, पण्डितानां शृणुत मम ।। अध्ययन ५ : श्लोक ६-१७ हिंसा करने वाला, झूठ बोलने वाला, छल-कपट करने वाला, चुगली खाने वाला, वेश-परिवर्तन कर अपने आपको दूसरे रूप में प्रगट करने वाला " अज्ञानी मनुष्य मद्य और मांस का भोग करता है और 'यह श्रेय है' ऐसा मानता है । वह शरीर और वाणी से मत्त होता है। धन और स्त्रियों में गृद्ध होता है। वह आचरण और चिंतनदोनों से उसी प्रकार कर्म मल का संचय करता है जैसे शिशुनाग (अलस या केचुआ मुख और शरीरदोनों से मिट्टी का फिर वह आतंक से स्पृष्ट होने पर ग्लान बना हुआ परिताप करता है। अपने कर्मों का चिन्तन कर परलोक से भयभीत होता है। वह सोचता है— मैंने उन नारकीय स्थानों के विषय में सुना है, जो शील रहित तथा क्रूर कर्म करने वाले अज्ञानी मनुष्यों की अन्तिम गति हैं और जहां प्रगाढ़ वेदना है। उन नरकों में जैसा औपपातिक" (उत्पन्न होने का ) स्थान है, वैसा मैंने सुना है। वह आयुष्य क्षीण होने पर अपने कृत- - कर्मों के अनुसार वहां जाता हुआ अनुताप करता है। जैसे कोई गाड़ीवान् समतल राजमार्ग को जानता हुआ भी उसे छोड़कर विषम मार्ग से चल पड़ता है और गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है । इसी प्रकार धर्म का उल्लंघन कर, अधर्म को स्वीकार मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ अज्ञान धुरी टूटे हुए गाड़ीवान् की तरह शोक करता है। कर, फिर मरणान्त के समय वह अज्ञानी मनुष्य परलोक के भय से संत्रस्त होता है और एक ही दाव में हार जाने वाले जुआरी की तरह शोक करता हुआ अकाम मरण से मरता है। - यह अज्ञानियों के अकाम-मरण का प्रतिपादन किया गया है। अब पण्डितों के सकाम-मरण का मुझसे सुनो।" Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ५ : श्लोक १८-२६ जैसा मैंने सुना भी है-पुण्यशाली, संयमी और जितेन्द्रिय पुरुषों का मरण प्रसन्न और आघात रहित होता है। यह सकाम-मरण न सब भिक्षुओं को प्राप्त होता है और न सभी गृहस्थों को। क्योंकि गृहस्थ विविध प्रकार के शील वाले होते हैं और भिक्षु भी विषम-शील वाले होते हैं। कुछ भिक्षुओं से गृहस्थों का संयम प्रधान होता है। किन्तु साधुओं का संयम सब गृहस्थों से प्रधान होता १०२ मरणमपि सपुण्यानां, यथा ममैतदनुश्रुतम्। विप्रसन्नमनाघातं, संयतानां वृषीमताम् ।। नेदं सर्वेषु भिक्षुषु, नेदं सर्वेषु अगारिषु। नानाशीला अगारस्थाः, विषमशीलाश्च भिक्षवः ।। सन्त्येकेभ्यो भिक्षुभ्यः, अगारस्थाः संयमोत्तराः। अगारस्थेभ्यश्च सर्वेभ्यः, साधवः संयमोत्तराः।। चीराजिनं नाग्न्यं, जटी सङ्घानिमुण्डित्वम्। एतान्यपि न त्रायन्ते, दुःशीलं पर्यागतम्। पिण्डावलगो वा दुःशीलो, नरकान्न मुच्यते। भिक्षादो वा गृहस्थो वा, सुव्रतः क्रामति दिवम्।। अगारि-सामायिकाङ्गानि, श्रद्धी कायेन स्पृशति। पौषधं द्वयोः पक्षयोः, एकरात्रं न हापयति।। १५.मरणं पि सपुण्णाणं, जहा मेयमणुस्सुयं। विप्पसण्णमणाघायं, संजयाण वुसीमओ।। १६.न इमं सव्वेसु भिक्खूसु, न इमं सव्वेसुऽगारिसु। नाणासीला अगारत्था, विसमसीला य भिक्खुणो।। २०. संति एगेहिं भिक्खूहिं, गारत्था संजमुत्तरा। गारेत्थेहि य सव्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा।। २१.चीराजिणं नगिणिणं, जडी संघाडि मुंडिणं। एयाणि वि न तायंति, दुस्सीलं परियागयं ।। २२. पिंडोलए व दुस्सीले, नरगाओ न मुच्चई। भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुव्वए कम्मई दिवं ।।। २३. अगारि-सामाइयंगाई सड्डी काएण फासए। पोसहं दुहओ पक्खं, एगरायं न हावए।। २४. एवं सिक्खासमावन्ने, गिहवासे वि सुव्वए। मुच्चई छविपव्वाओ, गच्छे जक्ख-सलोगयं ।। २५. अह जे संवुडे भिक्खू, दोण्हं अन्नयरे सिया। सव्वदुक्खप्पहीणे वा, देवे वावि महड्डिए।। २६. उत्तराई विमोहाई, जुइमंताणुपुव्वसो। समाइण्णाई जक्खेहिं, आवासाइं जसंसिणो ।। चीवर, चर्म, नग्नत्व, जटाधारीपन, संघाटी (उत्तरीय वस्त्र) और सिर मुंडाना—ये सब दुष्टशील वाले साधु की३२ रक्षा नहीं करते। भिक्षा से जीवन चलाने वाला भी यदि दुःशील हो तो वह नरक से नहीं छूटता।" भिक्षु हो या गृहस्थ, यदि वह सुव्रती है तो स्वर्ग में जाता है।५ श्रद्धालु श्रावक गृहस्थ-सामायिक के अंगों का आचरण करे। दोनों पक्षों में किए जाने वाले पौषध को एक दिन-रात के लिए भी न छोड़े। इस प्रकार व्रतों के आसेवन की शिक्षा से समापन्न सुव्रती मनुष्य गृहवास में रहता हुआ भी औदारिक शरीर से मुक्त होकर यक्ष-सलोकता को प्राप्त होता. है३६—देवलोक में चला जाता है। जो संवृत भिक्षु होता है, वह दोनों में से एक होता है-सब दुःखों से मुक्त या महान् ऋद्धि वाला देव । एवं शिक्षासमापन्नः, गृहवासेऽपि सुव्रतः। मुच्यते छविपर्वणः, गच्छेद् यक्ष-सलोकताम् ।। अथ यः संवृतो भिक्षुः, द्वयोरन्यतरः स्यात्। सर्वदुःखप्रहीणो वा, देवो वाऽपि महर्द्धिकः ।। उत्तरा विमोहाः, द्युतिमन्तोऽनुपूर्वशः। समाकीर्णा यक्षैः, आवासा यशस्विनः।। देवताओं के आवास उत्तरोत्तर उत्तम'' मोह रहित'२ और द्युतिमान् तथा देवों से आकीर्ण होते हैं। उनमें रहने वाले देव यशस्वी Jain Education Intemational Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाममरणीय १०३ अध्ययन ५ : श्लोक २७-३२ दीर्घायुषः ऋद्धिमन्तः, समिद्धाः कामरूपिणः। अधुनोपपन्नसंकाशा, भूयोऽर्चिमालिप्रभाः।। दीर्घायु, ऋद्धिमान्, दीप्तिमान्, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, अभी उत्पन्न हुए हों-ऐसी कान्ति वाले र और सूर्य के समान अति-तेजस्वी होते हैं। जो उपशान्त होते हैं,५ वे संयम और तप का अभ्यास कर उन देव-आवासों में जाते हैं, भले फिर वे भिक्षु हों या गृहस्थ। २७. दीहाउया इहिमंता, समिद्धा कामरूविणो। अहुणोववन्नसंकासा, भुज्जो अच्चिमालिप्पभा ।। २८. ताणि ठाणाणि गच्छंति, सिक्खित्ता संजमं तवं। भिक्खाए वा गिहत्थे वा, जे संति परिनिव्वुडा।। २६. तेसिं सोच्चा सपुज्जाणं, संजयाण वुसीमओ। न संतसंति मरणंते, सीलवंता बहुस्सुया ।। ३०. तुलिया विसेसमादाय दयाधम्मस्स खंतिए। विप्पसीएज्ज मेहावी, तहाभूएण अप्पणा।। तानि स्थानानि गच्छन्ति, शिक्षित्वा संयमं तपः। भिक्षादा वा गृहस्था वा, ये सन्ति परिनिर्वृताः।। तेषां श्रुत्वा सत्पूज्यानां, संयतानां वृषीमताम्। न संत्रस्यन्ति मरणान्ते, शीलवन्तो बहुश्रुताः।। तोलयित्वा विशेषमादाय, दयाधर्मस्य क्षान्त्या। विप्रसीदेन्मेधावी, तथाभूतेनात्मना।। उन सत्-पूजनीय, संयमी और जितेन्द्रिय भिक्षुओं का पूर्वोक्त विवरण सुनकर शीलवान् और बहुश्रुत भिक्षु मरणकाल में भी संत्रस्त नहीं होते।६।। मेधावी मुनि अपने आपको तोल कर, अकाम और सकाम-मरण के भेद को जानकर अहिंसा धर्मोचित सहिष्णुता और तथाभूत (उपशान्त मोह) आत्मा के द्वारा प्रसन्न रहे—मरण-काल में उद्विग्न न बने। ३१.तओ काले अभिप्पए, सड्डी तालिसमंतिए। विणएज्ज लोमहरिसं, भेयं देहस्स कंखए।। ततः काले अभिप्रेते, श्रद्धी तादृशान्तिके। विनयेल्लोमहर्ष, भेदं देहस्य काक्षेत्।। जब मरण अभिप्रेत हो,५० उस समय जिस श्रद्धा से मुनि-धर्म या संलेखना को स्वीकार किया, वैसी ही श्रद्धा रखने वाला भिक्षु गुरु के समीप कष्टजनित रोमांच को" दूर करे, शरीर के भेद की प्रतीक्षा करेउनकी सार संभाल न करे।१२ ३२. अह कालंमि संपत्ते, आघायाय समुस्सयं । सकाममरणं मरई, तिण्हमन्नयरं मुणी।। अथ काले संप्राप्ते, आघातयन् समुच्छ्रयम्। सकाममरणं म्रियते, त्रयाणामन्यतरं मुनिः।। वह मरणकाल प्राप्त होने पर संलेखना के द्वारा शरीर का त्याग करता है," भक्त-प्रतिज्ञा, इङ्गिनी या प्रायोपगमन-इन तीनों में से किसी एक को५ स्वीकार कर सकाम-मरण से मरता है। –त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन ५: अकाममरणीय १. महाप्रवाह वाले...संसार समुद्र से (अण्णसि महोहंसि) की भांति उत्सव-रूप मानता है, उस व्यक्ति के मरण को संस्कृत कोश में पानी का एक नाम है 'अर्णस्'। यह सकाममरण कहा जाता है। इसे पंडितमरण (विरति का मरण) सकारान्त शब्द है। व्याकरण के अनुसार 'सकार' का लोपकर भी कहा जा सकता है। 'वकार' का आदेश करने पर 'अर्णव' शब्द निष्पन्न होता है। ५. (श्लोक ३) इसका अर्थ है-समुद्र । प्रस्तुत प्रकरण में भाव अर्णव का प्रसंग इस श्लोक में कहा गया है कि पंडित (चरित्रवान्) है। इसका अर्थ होगा-संसार रूपी समुद्र। व्यक्तियों का 'सकाममरण' एक बार ही होता है। यह कथन ओघ का अर्थ है-प्रवाह । इसका प्रयोग अनेक संदों में केवली' की अपेक्षा से ही है। अन्य चरित्रवान् मुनियों का होता है, जैसे-जल का प्रवाह, जन्म-मरण का प्रवाह, दर्शनों 'सकाममरण' सात-आठ बार हो सकता है। या मतों का प्रवाह आदि। इसमें आए हुए बाल और पंडित शब्दों का विशेष अर्थ है। प्रस्तुत प्रकरण में 'ओघ' शब्द जल-प्रवाह के अर्थ में जिस व्यक्ति के कोई व्रत नहीं होता उसे बाल कहा जाता है। प्रयुक्त है। सर्वव्रती व्यक्ति को पंडित कहा जाता है। २. महाप्रज्ञ (महापन्ने) ६. (कामगिद्धे ......कूराई कुव्वई) इसका अर्थ है-महान् प्रज्ञावान् । वृत्तिकार ने प्रकरणवश धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—यह पुरुषार्थ-चतुष्टयी दो इसका अर्थ केवलज्ञानी, तीर्थंकर किया है। युगलों में विभक्त है। एक युगल है धर्म और मोक्ष का और दूसरा ३. प्रश्न (पट्ठ) युगल है अर्थ और काम का। पहले युगल में धर्म साधन है और इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं-पृष्ट और स्पष्ट। मोक्ष साध्य तथा दूसरे युगल में अर्थ (धन) साधन है और काम पृष्ट का अर्थ है--पूछना या प्रश्न और स्पष्ट का अर्थ है- साध्य। इनके आधार पर दो विचारधाराएं बनीं--लौकिक और स्पष्ट, असंदिग्ध । इसके स्थान पर 'पण्ह' पाठ भी मिलता है। आध्यात्मिक। लौकिक धारा ने अर्थ और काम के आधार पर उसका अर्थ है-प्रश्न, जिज्ञासा। जीवन की व्याख्या की और आध्यात्मिक धारा ने धर्म और मोक्ष चूर्णि और वृत्ति में 'पट्ट' का अर्थ स्पष्ट, असंदिग्ध किया के आधार पर जीवन की व्याख्या की। दोनों की समन्विति ही जीवन की समग्रता है। ४. (अकाममरणं.....सकाममरणं) ___ दो वाद प्रचलित हैं—सुखवाद और दुःखवाद । सुखवाद का अकाममरण-जो व्यक्ति विषय में आसक्त होने के मूल है—काम। व्यक्ति सुख से प्रेरित होकर नहीं, कामना से कारण मरना नहीं चाहता किन्तु आयु पूर्ण होने पर वह मरता प्रेरित होकर प्रवृत्ति करता है। महावीर कहते हैं-'कामकामी है, उसका मरण विवशता की स्थिति में होता है इसलिए उसे खलु अयं पुरिसे'--यह मनुष्य काम (कामना) से प्रेरित होकर अकाममरण कहा जाता है। इसे बालमरण (अविरति का मरण) प्रवृत्ति करता है। काम ही मनुष्य की प्रेरणा है। फ्रायड ने भी भी कहा जा सकता है। काम को ही सभी प्रवृत्तियों और विकासों का मूल माना है। सकाममरण-जो व्यक्ति विषयों के प्रति अनासक्त होने यह सच है, मनुष्य कामनाओं से प्रेरित होकर या के कारण मरण-काल में भयभीत नहीं होता किन्तु उसे जीवन कामनाओं की संपूर्ति के लिए हिंसा आदि करता है। जब वह १. अभिधान चिन्तामणि कोश, ४ ॥१३८ । मरणस्य, तथा च वाचक:२. बृहद्वृत्ति, पत्र १४१: महती-निरावरणतयाऽपरिमाणा प्रज्ञा केवलज्ञाना- "संचिततपोधनानां नित्यं व्रतनियमसंयमरतानाम् । त्मिका संवित् अस्येति महाप्रज्ञः। उत्सवभूतं मन्ये मरणमनपराधवृत्तीनाम् ।।१।।" ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १३० : स्पष्टं नामासंदिग्धं । बृहद्वृत्ति, पत्र २४२ : तच्च 'उत्कर्षेण' उत्कर्षोपलक्षितं, केवलिसम्बन्धीत्यर्थः, (ख) बृहवृत्ति, पत्र २४१। अकेवलिनो हि संयमजीवितं दीर्घमिच्छेयुरपि, मुक्त्यवाप्तिः इतः-स्यादिति, ४. बृहद्वृत्ति, पत्र २४२ : ते हि विषयाभिष्वङ्गतो मरणमनिच्छन्त एव केवलिनस्तु तदपि नेच्छन्ति, आस्तां भवजीवितमिति, तन्मरणस्योत्कर्षण म्रियन्ते। मकामता 'सकृद्' एकवारमेव भवेत्, जघन्येन तु शेषचारित्रिणः सप्ताष्ट बृहद्वृत्ति, पत्र २४२ : सह कामेन-अभिलाषेण वर्तते इति सकामं वा वारान् भवेदित्याकूतमिति सूत्रार्थः । सकाममिव सकाम मरणं प्रत्यसंत्रस्ततया, तथात्वं चोत्सवभूतत्वात् तादृशां Jain Education Intemational Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाममरणीय १०५ अध्ययन ५ : श्लोक ५ टि०७-१० 3. स्लिम कामनाओं में गृद्ध होता है, उनकी पूर्ति की उदग्र अभिलाषा २. काम-वासना। उसमें जागती है, तब वह क्रूर बनता है, क्रूर कर्म करता है। भोग- १. जिनका उपभोग किया जाता है। उसमें करुणा का सोता सूख जाता है। २. सभी इन्द्रियों के विषय। कामनाओं की संपूर्ति का एकमात्र साधन है अर्थ। मनुष्य बृहद्वृत्ति में इनके तीन अर्थ ये हैंनानाविध उपायों से अर्थ का अर्जन करता है। वह साधन-शुद्धि १. जिनकी कामना की जाती है वे हैं काम और के विवेक को भुला बैठता है। जिनका उपभोग किया जाता है वे हैं भोग। चार पुरुषार्थ में धर्म और मोक्ष स्थविर हैं, बड़े हैं २. शब्द और रूप है काम तथा स्पर्श, रस और गंध 'स्थविरे धर्ममोक्षे'। इसका अर्थ यह नहीं है कि अर्थ और काम है भोग। जीवन की आवश्यकता नहीं हैं। ये भी जीवन के लिए अनिवार्य स्त्रियों का संसर्ग या आसक्ति है काम तथा हैं। किन्तु भगवान् महावीर ने अध्यात्म-शास्त्र के आधार पर शरीर के परिकर्म के साधन-धूपन, विलेपन आदि धर्म और मोक्ष को अधिक मूल्य दिया और अर्थ और काम को हैं भोग। हेय बताया। ८. मिथ्या भाषण (कूडाय) विश्वविजेता सिकन्दर की कामनाएं आकाश को छू रही 'कूट' शब्द के अनेक अर्थ हैं-माया, झूट, यथार्थ का थीं। उनकी पूर्ति के लिए उसने खून की नदियां बहाई और अपलाप, धोखा, चालाकी, अंत, समूह, मृग को पकड़ने का यंत्र विश्व-विजेता बनने के स्वप्न की संपूर्ति में लगा रहा। अन्ततः । आदि-आदि। उसे निराशा ही मिली और उसकी सारी कामनाएं मन में ही रह प्रस्तुत प्रकरण की चूर्णि में इसके तीन अर्थ प्राप्त हैंगईं। एक कामना की पूर्ति दूसरी कामना को जन्म देती है और नरक, मृग को पकड़ने का यंत्र और इन्द्रिय-विषय। यह शृंखला कभी टूटती नहीं, अनन्त बन जाती है। 'इच्छा हु वृत्तिकार ने भी इसके तीन अर्थ किए हैं। प्रथम दो अर्थ आकाससमा अणंतिया'-भगवान की यह वाणी अक्षरशः चर्णि के समान हैं और तीसरा अर्थ है-मिथ्या भाषण आदि। सत्य है। कामनाओं का पार वही पाता है जो अकाम हो जाता है। सबकतांग 4/1/10 में 'गन्तकडे' तथा 'कडेन'-ये कामनाओं से ग्रस्त प्राणी अत्यन्त क्रूर करें या विचार दो पद प्रयक्त हैं। 'एगन्तकड' में कड का अर्थ है.....विषम। करता रहता है। मगरमच्छ की भौहों में एक प्रकार का अत्यन्त एगन्तकड का अर्थ है---ऐसा स्थान जहां कोई भी समतल भूमि सूक्ष्म समनस्क प्राणी उत्पन्न होता है। उसे 'तंदुलमत्स्य' कहा न हो। जाता है। मगरमच्छ समुद्र में मुंह बाएं पड़ा रहता है। उसके 'कूडेन' शब्द में 'कूड' का अर्थ है-गलयंत्रपाश अथवा खुले मुंह में जल के साथ-साथ हजारों छोटे-बड़े मत्स्य प्रवेश पाषाणसमूह। करते हैं और जल-प्रवाह के निर्गमन के साथ बाहर निकल जाते सूत्रकृतांग १/१३/६ में भी 'कूडेण' शब्द का प्रयोग है। हैं। यह क्रम चलता रहता है। वह तंदुलमत्स्य मन ही मन वहां इसका अर्थ है-माया। वृत्ति में इसका अर्थ मृगपाश किया सोचता है—'अरे! कितना मूर्ख है यह मगरमच्छ ! क्यों नहीं गया है। यह मुंह में स्वतः प्रविष्ट होने वाले मत्स्यों को निगल जाता? मिल जाता प्रस्तुत प्रकरण में 'कूट' का अर्थ मिथ्या वचन अधिक यदि मैं इसके स्थान पर होता तो सबको निगल जाता।' यह संगत लगता है। विचार उसके मन में निरन्तर बना रहता है। उसकी शक्ति नहीं ९. रति (आनन्द) (रई) कि वह उन मत्स्यों को निगल जाए, पर वह मन से इतना क्रूर । विचार कर प्रचुर कमों का संचय कर लेता है। चूर्णि में 'रति' का अर्थ है--इष्ट विषय में प्रीति उत्पन्न ७. कामभोगों में (कामभोगेसु) करने वाली वृत्ति। वृत्ति में इसका अर्थ है--कामवासना के सेवन से उत्पन्न चित्त का आह्लाद। काम और भोग-ये दो शब्द हैं। चूर्णिकार ने इन दोनों । शब्दों के दो-दो अर्थ किए हैं १०. (न मे दिठे परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमा रई) काम--- १. जिसकी कामना की जाती है। परलोक तो मैने देखा नहीं, यह रति (आनन्द) तो १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १३१ : काम्यन्त इति कामाः, भुज्जत इति ६. सूत्रकृतांग वृत्ति, पत्र १३६ : कूटेन गलयन्त्रपाशादिना पाषाणसमूहलक्षणेन भोगाः, कामा इति विसयाः, भोगाः सेसिंदियविसया। वा। २. बृहद्वृत्ति, पत्र २४३ : काम्यन्त इति कामाः, भुज्यन्त इति भोगाः... ७. सूत्रकृतांग वृत्ति, पत्र २४१ : कूटवत्कूट यथा कूटेन मृगादिर्बद्धः। कामा दुविहा पण्णत्ता-सद्दा रूवा य, भोगा तिविहा पण्णत्ता, तंजहा- .. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३२ : इष्टविषयप्रीतिप्रादुर्भावात्मिका रतिः । ___गंधा रसा फासा य ति......कामेषु-स्त्रीसंगेषु, भोगेषु धूपनविलेपनादिषु। ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २४३ : रम्यतेऽस्यामिति रतिः-स्पर्शनादिसम्भोग३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३१-१३२ । जनिता चित्तप्रहलत्तिः। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र २४३। (ख) सुखबोधा, पत्र १०२ । ५. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ० १३८ : एर्गतकूडो णाम एकान्तविषमः । Jain Education Intemational Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १०६ चक्षु दृष्ट है। इन दो पदों में अनात्मवादियों के अभिमत का उल्लेख है । वे प्रत्यक्ष को ही वास्तविक मानते हैं तथा भूत और अनागत को अवास्तविक । कामासक्त व्यक्तियों का यह चिन्तन अस्वाभाविक नहीं है। ११. (हत्यागया इमे कामा, कालिया ने अणागया) चूर्णिकार ने लिखा है— कोई मूर्ख भी अपनी गांठ में बन्धे हुए चावलों को छोड़कर भविष्य में होने वाले चावलों के लिए आरम्भ नहीं करता ।" जो आत्मा, परलोक व धर्म का मर्म समझता है वह अनागत भोगों की प्राप्ति के लिए हस्तगत भोगों को नहीं छोड़ता । इसलिए अनात्मवादियों का यह चिन्तन यथार्थ नहीं है। इसकी चर्चा नौवें अध्ययन में श्लोक ५१-५३ में भी हुई है। १२. क्लेश (केसं ) शान्त्याचार्य ने लिखा है— हाथ में आए हुए द्रव्यों को कोई छेद डाला। एक बार एक राजपुत्र उस वट वृक्ष की छाया में भी पैरों से नहीं रौंदता । जा बैठा । उसने छिदे हुए पत्रों को देखकर ग्वाले से पूछा -- ये किसने छेदे हैं? उसने कहा—ये मैंने छेदे हैं। राजपुत्र ने कहा- किसलिए ? ग्वाले ने कहा- विनोद के लिए। तब राजपुत्र ने उसे धन का प्रलोभन देते हुए कहा — मैं कहूं कि उसकी आंखें बींध दो, तो उसकी आंखें क्या तू बींध देगा ? ग्वाले ने कहा- हां, मैं बींध सकता हूं, यदि वह मेरे नजदीक हो । राजपुत्र उसे अपने नगर ले गया। राजपथ में आए हुए प्रासाद में उसे ठहरा दिया। उस राजपुत्र का भाई राजा था। वह उसी मार्ग से अश्वरथ पर चढ़कर जाता था। राजपुत्र ने ग्वाले से कहा—इसकी आंखें फोड़ डाल। उस ग्वाले ने अपने गोफन से उसकी दोनों आंखें फोड़ डालीं। अब वह राजपुत्र राजा बन गया। उसने ग्वाले से कहा- -बोल, तू क्या चाहता है ? उसने -आप मुझे वह गांव दें जहां मैं रहता हूं। राजा ने उसे वही गांव दे दिया। उसी सीमान्त के गांव में उसने ईख की खेती की और तुम्बी की बेल लगाई। गुड़ हुआ और तुम्बे हुए। उसने तुम्बों को गुड़ में पका गुड़-तुम्बक तैयार किया। उसे खाता और गाता कहा क्लेश शब्द के अनेक अर्थ हैं—पीड़ा, परिताप, शारीरिक या मानसिक वेदना, दुःख, क्रोध, पाप आदि । प्रस्तुत प्रसंग में क्लेश का अर्थ है—संक्लिष्ट परिणाम । जो व्यक्ति कामभोगों में अनुरक्त होता है, वह शारीरिक और मानसिक उत्ताप से उत्तप्त रहता है । पतंजलि ने क्लेश के पांच प्रकार बतलाए हैं—अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश । गीता में कहा है-- जो व्यक्ति विषयों का चिन्तन निरंतर करता रहता है, उसमें उन विषयों के प्रति आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से काम, काम से क्रोध, क्रोध से संमूढता, संमूढता से स्मृतिभ्रंश, स्मृतिभ्रंश से बुद्धि का नाश और बुद्धि-नाश से व्यक्ति स्वयं नष्ट हो जाता है।* प्रस्तुत श्लोक में भी यही प्रतिपाद्य है कि कामभोग की आसक्ति से क्लेश पैदा होता है। वह व्यक्ति आसक्ति के संक्लिष्ट परिणामों के आवर्त में फंस कर नष्ट हो जाता है। कामभोग से होने वाला क्लेश बहुत दीर्घकालीन होता है। सुखबोधा में इसकी पुष्टि के लिए एक श्लोक उद्धृत किया गया अध्ययन ५ श्लोक ६-८ टि० ११-१४ १३. प्रयोजनवश अथवा बिना प्रयोजन ही (अट्ठाए य अणद्वार) हिंसा के दो प्रकार हैं-अर्थ-हिंसा और अनर्थ हिंसा । इन्हें एक उदाहरण के द्वारा समझाया गया है एक ग्वाला था। वह प्रतिदिन बकरियों को चराने जाता था। मध्याहून में बकरियों को एक वट वृक्ष के नीचे बिठाकर स्वयं सीधा सोकर बांस के गोफन से बेर की गुठलियों को फेंक बरगद के पत्रों को छेदता था। इस प्रकार उसने प्रायः पत्तों को १. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृष्ठ १३२ : न हि कश्चित् मुग्धोऽपि ओदनं बलनकं मुक्त्वा कालिकस्योदनस्यारंभं करोति । २. बृहद्वृत्ति पत्र २४३ । ३. ४. पातंजलयोगदर्शन २३ अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः । गीता २१६२, ६३ ध्यायतो विषयान् पुंसः, संगस्तेषूपजायते । संगात् संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते ।। अट्टमट्टं च सिक्खिजा, सिक्खियं ण णिरत्थं । अट्टमट्टपसाएण, भुजए गुतुम्बयम् ।।" अर्थात् उटपटांग जो भी हो सीखना चाहिए। सीखा हुआ व्यर्थ नहीं जाता। इसी अट्टमट्ट के प्रसाद से यह गुड़तुम्बा मिल रहा है। ग्वाला पत्रों को बिना प्रयोजन छेदता था और उसने आंखों को प्रयोजनवश छेदा । 1 यह उदाहरण एक स्थूल भावना का स्पर्श करता है साधारण उद्देश्य की पूर्ति के लिए राजा की आंखें फोड़ डाली वरि विसु भुजिउ मं विसय, एक्कसि विसिण मरति । गईं—यह वस्तुतः अनर्थ हिंसा ही है। अर्थ-हिंसा उसे कहा जा नर विसयामिसमोहिया, बहुसो नरइ पडति । । 1 सकता है, जहां प्रयोजन की अनिवार्यता हो । १४. प्राणी समूह (भूयग्गाम) इसका आशय है कि विष पीना अच्छा है, विषय नहीं । मनुष्य विष से एक ही बार मरते हैं, किन्तु विषय रूप मांस में मोहित मनुष्य अनेक बार मरते हैं-नरक में जाते हैं। ५. ६. - सामान्यतः 'भूत' का अर्थ है--प्राणी और ग्राम का अर्थ -समूह । भूतग्राम अर्थात् प्राणियों का समूह । समवायांग में सुखबोधा, पत्र १०३ । बृहद्वृत्ति, पत्र २४४, २४५ । क्रोधाद् भवति संमोहः, संमोहात् स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशः, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ।। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाममरणीय १०७ चौदह भूतग्रामों— जीवसमूहों का उल्लेख है।' चूर्णिकार ने भी सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त के भेद से चौदह प्रकार के जीवों का उल्लेख किया है।" वृत्ति में इसका अर्थ है-प्राणियों का समूह | १५. वेश परिवर्तन कर अपने आपको दूसरे रूप में प्रकट करने वाला (सढे) इसका सामान्य अर्थ है—धूर्त, मूढ़, आलसी। यहां इसका अर्थ-वेष परिवर्तन कर अपने आपको दूसरे रूप में प्रगट करने वाला है।" टीकाओं में 'मंडिक चोरवत्' ऐसा उल्लेख किया है। मंडिक चोर की कथा इसी आगम के चौथे अध्ययन के सातवें श्लोक की व्याख्या में है । १६. (श्लोक १०) प्रस्तुत श्लोक में व्यक्ति की अहंमन्यता और आसक्ति का सुन्दर चित्रण है । व्यक्ति मन, वचन और काया से मत्त हुआ होता है। शरीर से मत्त होकर वह मानने लगता है--मैं कितना रूप-संपन्न और शक्ति-संपन्न हूं ! वाणी का अहं करते हुए वह सोचता है - मैं कितना सु-स्वर हूं ! मेरी वाणी में कैसा जादू है ! मानसिक अहं के वशीभूत होकर वह सोचता है—ओह ! मैं अपूर्व अवधारणा शक्ति से संपन्न हूं। इस प्रकार वह अपना गुण-ख्यापन करता है। आसक्ति के दो मुख्य हेतु हैं—धन और स्त्री । धन की आसक्ति से वह अदत्त का आदान करता है और परिग्रह का संचय करता है। स्त्री की आसक्ति से वह स्त्री को संसार का सर्वस्व मानने लगता है— सत्यं व हिवं वच्मि सारं वच्मि पुनः पुनः । अस्मिन्नसारे संसारे, सारं सारंवलोचनाः ।। अहंमन्यता और आसक्ति से ग्रस्त व्यक्ति भीतर के अशुद्ध भावों से तथा बाहर की असत् प्रवृत्ति से दोनों ओर से कर्मों का बंधन करता है। आस्था और आचरण—दोनों से वह कर्म का संचय करता है। वह इस लोक में भी जानलेवा रोगों से अभिभूत होता है और मरण के पश्चात् भी दुर्गति में जाता है । सूत्रकार ने यहां शिशुनाग का उदाहरण प्रस्तुत किया है। शिशुनाग - अलस या केंचुआ मिट्टी खाता है। उसका शरीर गीला होता है और वह निरंतर मिट्टी के ढेरों में ही घूमता रहता है, इसलिए उसके शरीर पर मिट्टी चिपक जाती है। वह शीतयोनिक होता है अतः सूर्य की उत्तप्त किरणों से स्नेह १. समवाओ, समवाय १४ ।9। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३३ भूतग्गामं चोद्दसविहं...एवं चोद्दसविर्हपि । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २४५ भूयगामं ति भूताः प्राणिनस्तेषां ग्रामः समूहः । ४. वही, पत्र २४५ 'शट:' तत्तन्नेपथ्यादिकरणतोऽन्यथाभूतमात्मानमन्यथा दर्शयति । अध्ययन ५ श्लोक ६-११ टि० १५-१८ गीलापन सूख जाता है। वह तब गर्म मिट्टी से झुलस-झुलस कर मर जाता है। इस प्रकार दोनों ओर से गृहीत मिट्टी उसके विनाश का कारण बन जाती है। * चूर्णिकार ने 'दुहओ' — दो प्रकार से—के अनेक विकल्प किए हैं 12 जैसे- स्वयं करता हुआ या दूसरों से करवाता हुआ, अन्तःकरण से या वाणी से, राग से या द्वेष से पुण्य या पाप का, इहलोक बन्धन या परलोक बंधन संचय करता है । १७. आतंक से (आर्यकेण) आतंक का अर्थ है- शीघ्रघाती रोग। शिरःशूल, विसूचिका आदि रोग आतंक माने जाते हैं। आज के परिप्रेक्ष्य में हृदय रोग इस कोटि में आ सकता है। चूर्णि में आतंक शब्द का केवल निरुक्त प्राप्त है-जो विविध प्रकार के दुःखों से जीवन को तंकित करता है--कष्टमय बनाता है, वह है आतंक १८. (पभीओ.....अप्पणो ) जब व्यक्ति बुढ़ापे में जर्जर हो जाता है या रोगग्रस्त हो जाता है, तब उसे मृत्यु की सन्निकटता का भान होता है । वह सोचता है, अब यहां से सब कुछ छोड़कर जाना होगा। 'अब आगे क्या होगा' इस आशंका से वह भयभीत हो जाता है। वह अतीत की स्मृति करता है और अपने सारे आचरणों पर दृष्टिपात करता है। वह सोचता है— मैंने कुछ भी शुभ नहीं किया। केवल हिंसा, झूट, असत् आचरण में ही सदा लिप्त रहा। मैंने धर्म और धर्मगुरुओं की निन्दा की, असत्य आरोप लगाए और न जाने क्या-क्या अनर्थ किया। सारा अतीत उसकी आंखों के सामने नाचने लगता है। वह सोचता है, अरे, मैंने ये सारे पापकारी आचरण इस विचार से प्रेरित होकर किए थे कि मानो मैं सदा अजर-अमर रहूंगा, कभी नहीं मरूंगा। मैं भूल गया था कि जो जन्मता है, वह एक दिन अवश्य ही मरता है । 'कम्मसच्चा हु पाणिणो' भगवान की इस वाणी को भी मैं भूल गया था। किए हुए कर्मों का भोग अवश्य ही करना होता है 1 मृत्यु के भय के साथ-साथ उसको नरक का भय भी सताता है। नरक प्रत्यक्ष नहीं है, पर उसके विचारों में नरक प्रत्यक्ष होता है और वह संत्रस्त होकर 'कर्मानुप्रेक्षी' बन जाता है— अपने समस्त आचरणों को देखता है। वृत्तिकार ने यहां एक सुन्दर श्लोक प्रस्तुत किया है उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १३४ । वही, पृ० १३४ । बृहद्वृत्ति, पत्र २४६ आतंकेन- आशुघातिना शूलविसूचिकादिरोगेण । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १३४ : तैस्तैर्दुःखप्रकारैरात्मानं तंकयतीत्यातंकः । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ । ८. ५. ६. ७. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यति जराजा बाईवृत्तिासादिकमित्यक्षो धू-धुरा हो उत्तरज्झयणाणि १०८ अध्ययन ५ : श्लोक १२-१६ टि० १६-२४ मवित्री भूतानां परिणतिमनालोच्य नियता, २३. धुरी (अक्खे) पुरा यत् यत् किञ्चिद् विहितमशुभ यौवनमदात्। अक्ष शब्द के अनेक अर्थ हैं—पहिया, चक्र, चौसर, पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, पहिए का धुरा, गाड़ी का जुआ आदि। तदेवैकं पुंसां व्यथयति जराजीवपुषाम् ॥ प्रस्तुत श्लोक में अक्ष का अर्थ धुरा है। थुरा का अर्थ हैसुखबोधा में एक प्राचीन गाथा उद्धृत है'--- लकड़ी या लोहे का वह डंडा जिसके सहारे पहिया घूमता है। कीरांति जाई जोवणमएण अवियारिऊण कज्जाई। वृत्ति में जो निरुक्त है वह इसी अर्थ का द्योतक है-अश्नीते वयपरिणामे सरियाई ताई हियए खुडुक्कांति॥ नवनीतादिकमित्यक्षो धू:-जो स्निग्ध पदार्थ—धी, तेल आदि से १९. स्थानों (ठाणा) व्याप्त रहता है, वह धू-धुरा होता है। २४. एक ही दाव में (कलिना) वृत्ति में इसके चार अर्थ प्राप्त हैं ...--- १. नारकों का उत्पत्ति-स्थान-नारक संकरे मंह वाले चूर्णिकार कलि के विषय में मौन हैं। शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने 'कलिना दायेन' इतना कहकर छोड़ दिया है।" घड़ों आदि में उत्पन्न होते हैं। २. एक ही नरक में सीमन्तक, अप्रतिष्ठान भिन्न-भिन्न किन्तु अन्य प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार जुए में दो प्रकार के दाव होते थे-कृतदाव और कलिदाव। 'कृत' जीत का दाव स्थान। है और 'कलि' हार का। दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं। ३. कुंभी, वैतरणी, असिपत्रक वनस्थान आदि। ४. भिन्न-भिन्न आयुष्य वाले नरक-स्थान। सूत्रकृतांग के अनुसार जुआ चार अक्षों से खेला जाता था। उनके नाम हैं२०. जहां प्रगाढ वेदना है (पगाढा जत्थ वेयणा) १. कलि—एकक। ३. त्रेता—त्रिक। प्रगाढ के तीन अर्थ हैं—निरंतर, तीव्र और उत्कट। चूर्णि २. द्वापर-द्विक। ४. कृत-चतुष्क। में वेदना के दो प्रकार निर्दिष्ट हैं-शीत और उष्ण वेदना अथवा चारों पासे सीधे या औंधे एक से पड़ते हैं, उसे 'कृत' शारीरिक और मानसिक वेदना। कहा जाता है। यह जीत का दाव है। एक, दो या तीन पासे २१. औपपातिक (उववाइयं) उल्टे पड़ते हैं उन्हें क्रमशः कलि, द्वापर, त्रेता कहा जाता है। ये जीवों की उत्पत्ति के तीन प्रकार हैं-गर्भ, सम्मूर्छन और हार के दाव हैं। कुशल जुआरी इन्हें छोड़ ‘कृतदाव' ही लेता उपपात । पशु, पक्षी, मनुष्य आदि गर्भज होते हैं, द्वीन्द्रिय आदि है।" जीव सम्मूर्छनज और नारक तथा देव औपपातिक होते हैं। काशिका में लिखा गया है कि पंचिका नाम का जुआ औपपातिक जीव अन्तर्मुहूर्त मात्र में पूर्ण शरीर वाले हो जाते हैं। अक्ष या पांच शलकाओं से खेला जाता था। जब पांचों पासे अतः नरक में उत्पन्न होते ही वे जीव नरक की वेदना से सीधे या औंधे एक से गिरते हैं तब पासा फेंकने वाला जीतता अभिभूत हो जाते हैं। है, इसे 'कृतदाव' कहते हैं। 'कलिदाव' इससे विपरीत है। जब २२. कृत कर्मों के अनुसार (आहाकम्मे हिं) कोई पासा उलटा या सीधा गिरता है तब उसे 'कलिदाव' कहते ___ चूर्णिकार और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ 'कों के अनुसार' हैं। किया है। शान्त्याचार्य ने इसका मूल अर्थ 'अपने किए हुए कर्मों भूरिदत्त जातक में 'कलि' और 'कृत' दोनों को एक-दूसरे के द्वारा किया है और विकल्प में इसका अर्थ किया है...-'कर्मों के विपरीत माना है।'२ के अनुसार'। छान्दोग्य उपनिषद् में भी ‘कृत' जीत का दाव है।" १. सुखबोधा, पत्र १०४। यद्वाऽर्षत्चात् 'आहेति' आधाय कृत्वा, कर्माणीति गम्यते, ततस्तैरेव २. बृहद्वृत्ति, पत्र २४७। कर्मभिः,...यद्वा-'यथाकर्मभिः' गमिष्यमाणगत्यनुरूपैः तीव्रतीव्रतरायनु३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३५ : पगाढा णाम णिरंतराः तीव्राः भावान्वितैः। उक्कड़ा। ८. बृहद्वृत्ति, पत्र २४७। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २४७। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३६ । ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३५ : वेद्यंत इति वेदनाः शीता उष्णा च, अथवा १०. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २४८। शारीरमानसाः। (ख) सुखबोधा, पत्र १०५। ५. वही, पृ० १३५ : उपपातात्संजातमीपपातिक, न तत्र गर्भव्युक्रांतिरस्ति ११. सूयगडो, १२।४५ : येन गर्भकालान्तरितं तन्नरकदुःखं स्यात, ते हि उत्पन्नमात्रा एव कुजए अपराजिए जहा अक्खेहिं कुसलेहिं दीवयं। नरकवेदनाभिरभिभूयन्ते। कडमेव गहाय णो कलिं णो तेयं णो चेव दापरं ।। ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३५ : आधाकम्मेहिं यथाकर्मभिः । १२. जातक, संख्या ५४३।। (ख) सुखबोधा, पत्र १०५ । १३. छान्दोग्य उपनिषद्, ४।१18 : यथा कृतायविजितायाधरेयाः संयन्त्येवमेन बृहद्वृत्ति, पत्र २४७ : 'आहाकम्मेहिं' ति आधानमाधाकरणम्, आत्मनेति सर्वं तदभिसमेति। गम्यते, तदुपलक्षितानि कर्माण्याथाकर्माणि, तैः आधाकर्मभिः-स्वकृतकर्मभिः, Jain Education Intemational Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाममरणीय १०९ अध्ययन ५: श्लोक १७-१८ टि०२५-२७ महाभारत (सभापर्व ५२।१३) में शकुनि को 'कृतहस्त' कहा गया वस्तुतः 'बुसीम' शब्द या तो देशी है जिसका संस्कृत रूप कोई है अर्थात् जो सदा जीत का दाव ही फेंकता है। होता ही नहीं और यदि देशी नहीं है तो इसका संस्कृत रूप पाणिनी के समय दोनों प्रकार के दाव फेंकने के लिए भाषा 'वृषीमत्' होना चाहिए। में अलग-अलग नामधातुएं चल गई थीं। उनका सूत्रकार ने 'वृषी' का अर्थ है—'मुनि का कुश आदि का आशन।" स्पष्ट उल्लेख किया है—कृतं गृण्हाति—कृतयति, कलिं सत्रकतांग में श्रमण के उपकरणों में 'वधिक' (भिसिग) का गृण्हाति- कलयति। (३१।२१) उल्लेख है। इसके सम्बन्ध में मुनि को 'वृषीमान' कहा जाता है। विधुर पंडित जातक में भी ‘कृतं गृण्हाति कलिं गृण्हाति' व्याकरण की दृष्टि से 'वुसीम' का संस्कृत रूप 'वृषीमत्' होता ऐसे प्रयोग हुए हैं। है। इसका प्रवृत्तिलभ्य अर्थ है—मुनि, संयमी या जितेन्द्रिय। जए के खेल के नियमों के अनुसार जब तक किसी निशीथ भाष्य में इसी अर्थ में 'चुसिराती" (सं० वृषिराजिन्) खिलाडी का 'कतदाव' आता रहता, वही पासा फेंकता जाता था। तथा 'वसि' (सं० वषिन) शब्द प्राप्त होते हैं। 'सि' का अर्थ पर जैसे ही 'कलिदाव' आता, पासा डालने की बारी दूसरे 'संविग्न' किया गया है। खिलाड़ी की हो जाती। सूत्रकृतांग में 'वुसीमओ' का अनेक बार प्रयोग हुआ है। २५. जुआरी (धुत्ते) चूर्णिकार ने इसके अर्थ इस प्रकार किये हैंधूर्त शब्द के अनेक अर्थ हैं-वंचक, ठग, मायावी, बुसिमतां वसूनि ज्ञानादीदि (१८।१६ चूर्णि, पृ०२१३)। जुआरी आदि। सामान्यतः यह शब्द 'ठग' के अर्थ में बहुत सिमानिति संयमवान् (१।११।१५ चूर्णि पृ० २४५)। प्रयुक्त होता है, परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में यह जुआरी के अर्थ वसिमांश्च भगवान-साधुर्वा वुसीमान् (१।१५।४ चूर्णि पृ० २६६)। से व्यवहृत है। वुसिय वुसिमं वुत्तो (२।६।१४ चूर्णि, पृ० ४२३)। २६. (श्लोक १७) पहले अर्थ से लगता है कि चूर्णिकार 'वसुमओ' पाठ प्रस्तुत अध्ययन के प्रथम सतरह श्लोकों में अज्ञानी की व्याख्या कर रहे हैं। आयारो ११७४ में 'वसुम' शब्द मुनि व्यक्तियों की विचारधारा, जीवन शैली, मरणकाल की स्थिति तथा के लिए प्रयुक्त हुआ है। शीलांकसूरि ने इसका अर्थ 'वसुमान्' परलोकगमन की दिशा का वर्णन प्राप्त होता है। शेष आगे के सम्यक्त्व आदि धन से धनी–किया है।" दूसरे अर्थ में 'वुसि' श्लोकों में संयमी मुनि और व्रती श्रावकों की विचारधारा, जीवन संयम का पर्यायवाची है। तीसरे में वही भगवान् या साधु के शैली, मारणान्तिक अवधारणा और सुगतिगमन का सुन्दर वर्णन लिये प्रयुक्त है। चौथा अर्थ स्पष्ट नहीं है। शीलांकसूरि ने वहां 'वुसिम' का अर्थ संयमवान् किया है।'२ लगता यह है 'वृषी' २७. जितेन्द्रिय पुरुषों का (वुसीमओ) उपकरण के कारण वृषीमान् (वुसीम) मुनि का एक नाम बन यहां बहुवचन के स्थान पर एकवचन है। बृहद्वृत्ति में गया। इसका संस्कृत रूप है 'वश्यवताम्'। आत्मा और इन्द्रिय जिसके बौद्ध साहित्य में वशी या वृषी का अर्थ है-कौशल । वश्य-अधीन होते हैं, उसे 'वश्यवान' कहा जाता है। 'वसीम उसके पांच प्रकार हैं....... के दो अर्थ और किए गए हैं-(१) साधु गुणों में बसने वाला १. आवर्जन वशी-मन को ध्यान में लगाने का कौशल। और (२) संविग्न । २. समापजनवशी-ध्यान में प्रवेश पाने का कौशल। सरपेन्टियर ने लिखा है कि इसका संस्कृत रूप 'वश्यवन्त' ३. अधिष्ठानवशी-ध्यान में अधिष्ठान बनाये रखने का शंकास्पद है। मैं इसके स्थान पर दूसरा उचित शब्द नहीं दे कौशल। सकता। परन्तु इसके स्थान पर 'व्यवसायवन्तः' शब्द की योजना ४. व्युत्थानवशी--ध्यान संपन्न करने का कौशल। कुछ हद तक संभव हो सकती है।' ५. प्रत्यवेक्षणवशी-ध्यान की सारी विधियों तथा तथ्यों का सरपेन्टियर की यह संभावना बहुत उपयोगी नहीं है। समालोचन करने में कौशल । १. पाणिनीकालीन भारतवर्ष, पृ० १६७। ५. उत्तराध्ययन सूत्र, पृ० २६६ का फुटनोट १८ । २. जातक, संख्या ५४५। ६. अभिधान चिंतामणि, ३४८०। ३. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २४८ : धूर्त इव-द्यूतकार इव। ७. सूयगडो २।२।३०: दंडगं वा, छत्तगं वा, भण्डगं वा, मत्तगं वा, लट्टिगं (ख) अभिधान चिंतामणि ३१४६ : कितवो द्यूतकधूर्तोऽक्षधूर्तः। वा, भिसिगं वा...। ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २४९ : 'वुसीमतो' त्ति, आर्षत्त्वावश्यवां वश्य ८. निशीथ भाष्य, गाथा ५४२०। इत्यावत्तः, स चेहात्मा इन्द्रियाणि था, वश्यानि विद्यन्ते येषां ते अमी ६. वही, गाथा ५४२१। वश्यवन्तः तेषाम्, अयमपरः सम्प्रदायार्थः---- वसंति वा साहुगुणेहिं १०. वही, गाथा ५४२१ । वुसीमन्तः, अहवा वुसीमा—संविग्गां तेसिं ति। ११. आयारो १११७४, वृत्ति-भाव वसूनि सम्यक्त्वादीनि तानि यस्य यस्मिन (ख) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १३७ : 'वुसीमतो' वशे येषामिन्द्रियाणिवा सन्ति स वसुमान् द्रव्यवानित्यर्थः ।। ते भवति वुसीम, वसंति वा साधुगुणेहिं बुसीमंतः, अथवा वुसीमंतः १२. सूयगडो २।६।१४, वृत्ति १४४ : बुसिमति संयमवान् । ते संविग्गा, तेसिं वुसीमतां संविग्गाणं वा। Jain Education Intemational Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ५ : श्लोक १६-२१ टि० २८-३२ ये पांच प्रकार के वशी (कौशल) ध्यान में प्रवेश करने की सर्वव्रती। इस श्लोक में बताया गया है कि अव्रती या नामधारी कुशलता, योग्यता और गति में तीव्रता उत्पन्न करते हैं। इनसे भिक्षुओं से देशव्रती गृहस्थ संयम से प्रधान होते हैं और उनकी व्यक्ति में ध्यान पर पूरा नियन्त्रण प्राप्त हो जाता है। अपेक्षा सर्वव्रती भिक्षु संयम से प्रधान होते हैं। इसे एक उदाहरण २८. प्रसन्न (विप्पसन्न) द्वारा समझाया गया है।'यह मरण का विशेषण है। जो व्यक्ति मरण-काल में विविध 'एक श्रावक ने साधु से पूछा-'श्रावक और साधुओं में भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करता है, मूर्छा से कितना अन्तर है ? ' साधु ने कहा-'सरसों और मन्दर पर्वत अपहत नहीं होता, अनाकुल रहता हुआ प्रसन्नता से मरण का जितना। तब उसने पुनः आकुल होकर पूछा---'कुलिंगी (वेषधारी) वरण करता है, उसका मरण विप्रसन्न मरण कहलाता है। और श्रावक में कितना अन्तर है?' साधु ने कहा---'वही, सरसों २९. विविध प्रकार के शील वाले (नाणासीला) और मन्दर पर्वत जितना।' उसे समाधान मिला। कहा भी है गृहस्थ नानाशील-विविध शील वाले, विभिन्न रुचि वाले सुविहित आचार वाले मुनियों के श्रावक देश विरत होते हैं। और विभिन्न अभिप्राय वाले होते हैं। इसकी व्याख्या करते हुए कुतीर्थिक उनकी सौवीं कला को भी प्राप्त नहीं होते। नेमिचन्द्र ने लिखा है—“कई कहते हैं-गृहस्थाश्रम का पालन प्रस्तुत श्लोक के प्रसंग में आचार्य नेमिचन्द्र की वृत्ति में करना ही महाव्रत है।" कई कहते हैं-'गृहस्थाश्रम से उत्कष्ट एक संदर्भ प्राप्त हैधर्म न हुआ और न होगा।' जो शूरवीर होते हैं, वे इसका एक बार एक श्रावक ने साधु से पूछा-भंते ! श्रावकों में पालन करते है और क्लीव व्यक्ति पाखण्ड का आश्रय लेते हैं। और साधुओं में अन्तर क्या है? वत्स! दोनों में सर्षप और कई कहते हैं-'सात सौ शिक्षाप्रद गृहस्थों के व्रत हैं' आदि-आदि। मन्दर पर्वत जितना अन्तर है। यह सुनकर श्रावक का मन ३०. विषमशील वाले (विसमसीला) आकुल-व्याकुल हो गया। उसने पुनः पूछा-भंते ! कुलिंगी साधु भी विषमशील वाले अर्थात् विषम आचार वाले होते साधुओं में और श्रावकों में क्या अन्तर है? साधु ने कहाहैं। शान्त्याचार्य ने लिखा है-कई पांच यम और पांच नियमों दोनों में सर्षप और मन्दर पर्वत जितना अन्तर है। यह सनकर को, कई कन्द, मुल, फल के आहार को और कई आत्म-तत्त्व श्रावक का मन आश्वस्त हुआ। एक पद्य हैके परिज्ञान को ही व्रत मानते हैं। देसिक्कदेसविरया समणाणं सावगा सुविहियाणं। चूर्णिकार के अनुसार-कुछ कुप्रवचन-भिक्षु अभ्युदय की तेसिं परपासंडा एक्कपि कलं नग्गहन्ति। ही कामना करते हैं, जैसे तापस और पांडुरक (शिवभक्त, देशविरति श्रावक सुविहित साधुओं की बराबरी नहीं कर संन्यासी)। जो मोक्ष चाहते हैं, वे भी उसके साधन को सम्यक सकते, उनकी सोलहवीं कला के एक अंश की भी तुलना में नहीं प्रकार से नहीं जानते। वे आरम्भ (हिंसा) से मोक्ष मानते हैं। आ सकते। इसी प्रकार पासंडी साधु इन श्रावकों की आंशिक लोकोत्तर भिक्षु भी सबके सब निदान और शल्य रहित नहीं होते. तुलना में भी नहीं ठहर सकते। आशंसा रहित तप करने वाले नहीं होते, इसलिए भिक्षुओं को ३२. साधु की (परियागयं) विषम-शील कहा है। वृत्तिकार ने 'पर्यागत' का अर्थ-पर्याय-आगत-प्रव्रजित ३१. (श्लोक २०) किया है। 'पर्यागत' शब्द ही प्रव्रजित के अर्थ में व्यवहृत है।' तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं-अवती, देशव्रती और इसलिए 'पर्यायागत' शब्द मानकर उसके 'या' को लोप करने १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३७ : नानार्थांतरत्वेन शीलयंति तदिति शीलं तथा तापसाः पांडुरागाश्च, येऽपि मोक्षायोत्थिता तेऽपि तमन्यथा पश्यन्ति. स्वभावः, अगारे तिष्ठतीत्यागारत्था, ते हि नानाशीला नानारुचयो ..तथैव लोकोत्तरभिक्षयोऽपि ण सव्वे अणिदाणकरा णिस्सल्ला वा, ण वा नानाच्छंदा भवंति। सब्वे आसंसापयोगनिरुपहततपसो भवंति इत्यतो विसमसीला य भिक्षुणो। सुखबोधा, पत्र १०६ : तेषु हि गृहिणस्तावद् अत्यन्तनानाशीला एव, यतः ५. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २५० तथा च वृद्धसम्प्रदायः-एगो सावगो साहुं केचित् गृहाश्रमप्रतिपालनमेव महाव्रतमिति प्रतिपन्नाः । पुच्छति-सावगाणं साहूणं किमंतरं? साहुणा भण्णतिगृहाश्रमपरो धर्मों, न भूतो न भविष्यति। सरिसवमंदरंतरं, ततो सो आउलीहूओ पुणो पुच्छति-कुलिंगीणं पालयन्ति नराः शूराः क्लीबाः पाखण्डमाश्रिताः ।। १।। सावगाण य किमंतरं?, तेण भण्णति-तदेव सरिसवमंदरंतरंति, इति वचनात् । अन्ये तु 'सप्तशिक्षापदशतानि गृहिणां व्रतम्' इत्यायनेकथैव ततो समासासितो, जतो भणीयं। ब्रुवते। “देसेक्कदेसविरया समणाणं सावगा सुविहियाण । बृहद्वृत्ति, पत्र २४६ : 'विषमम्' अतिदुर्लक्षतयाऽतिगहनं विसदृशं वा जेसिं पारपासंडा सतिमंपिकलं न अग्धंति।।" शीलमेषां विषमशीलाः.....भिक्षयोऽप्यत्यन्तं विषमशीला एव, यतस्तेषु ६. सुखबोधा, पत्र १२७। केषाञ्चित्पञ्चयमनियमात्मक व्रतमिति दर्शनम्, अपरेषां तु कन्दमूलफला- ६. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी। शितैव इति, अन्येषामात्मतत्त्वपरिज्ञानमेवेति विसदृशशीलता। ७. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३७ : कुप्रवचनभिक्षवोऽपि केचिदभ्युदयावेव ३. Jain Education Intemational Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाममरणीय १११ अध्ययन ५ : श्लोक २२ टि० ३३-३५ की जटिल प्रक्रिया अपेक्षित नहीं है। गया है। वृत्ति में इसका वैकल्पिक अर्थ-दुःशील की पर्याय को ३४. (पिंडोलए.....ण मुच्चइ) प्राप्त किया है।' भिक्षाजीवी भी यदि दुःशील होता है तो उसे भी नरक की पर्यागत के मूल अर्थ की परम्परा विलुप्त हो जाने के यातना भोगनी पड़ती है। कारण ये अर्थ किये गये हैं। राजगृह नगर के नागरिक समय-समय पर मनोरंजन के ३३. (श्लोक २१) लिए पर्वत की तलहटी पर एकत्रित होते थे। उस दिन एक इस श्लोक में वल्कल धारण करने वाले, चर्म धारण करने भिक्षुक भी वहां भिक्षा के लिए जाता था। एक बार उसे भिक्षा वाले, जटा रखने वाले, संघाटी रखने वाले और मुंड रहने नहीं मिली। वह अत्यन्त रुष्ट हो गया। उसके मन में प्रतिशोध वाले---इन विचित्र लिंगधारी कुप्रवचन-भिक्षुओं का उल्लेख हुआ की भावना उत्कट हुई। वह वैभार पर्वत पर चढ़ा। पर्वत की है। ये सारे शब्द उस समय के विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के तलहटी में सैकड़ों लोग गोष्ठी में मग्न थे। उसने एक विशाल सूचक हैं। मिलाइये चट्टान को नीचे लुढ़काया और मन ही मन सोचा, इस चट्टान के नीचे अनेक लोग आकर मर जाएं तो मजा आ जाएगा। (क) न नग्गचरिया न जटा न पंका, मुझे भिक्षा न देने का फल उन्हें मिल जायेगा। वह रोद्र ध्यान नानासका थंडिलसायिका वा। में लीन हो गया। संयोगवश उसी बड़ी चट्टान के साथ उसका रज्जो च जल्लं उक्कटिकप्पधानं, पैर फिसला और वह स्वयं उस चट्टान के नीचे दब कर सोधेति मच्चं अवितिण्णकंखं ।। चूर-चूर हो गया। रौद्र ध्यान में मरकर वह नरक में उत्पन्न (धम्मपद १०।१३) हुआ। (ख) तथा च वाचकःचर्मवल्कलचीराणि, कूर्चमुण्डशिखाजटाः। ३५. (भिक्खाए.....कम्मई दिवं) न व्यपोहन्ति पापानि, शोधको तु दयादमी।। __ व्रतों के परिपालन का मुख्य उद्देश्य है—निर्जरा, मोक्ष की (सुखबोधा, पत्र १२७) प्राप्ति, मोक्ष की ओर प्रस्थान। चूर्णि में चीर का अर्थ वल्कल और बृहवृत्ति में चीवर प्रस्तुत प्रसंग में देवलोकगमन की जो बात कही गई है, किया गया है। वह व्रत-पालन का जघन्य परिणाम है। व्रतों के पालन की __ नगिणिणं का अर्थ है नग्नता। यहां चूर्णिकार ने उस समय तरतमता के अनुसार फल-प्राप्ति होती है। व्रत-पालन का में प्रचलित कुछ नग्न सम्प्रदायों का नामोल्लेख किया है। उत्कृष्ट परिणाम है-मोक्ष और जघन्य परिणाम है-देवलोक मृगचारिक, उद्दण्डक (हाथ में दण्ड ऊंचा रखकर चलने वाले की प्राप्ति । प्राचीन श्लोक हैतापसों का सम्प्रदाय) और आजीवक सम्प्रदाय के साधु नग्न 'अविराहियसामण्णस्स साहुणो, सावगस्स य जहण्णो। रहते थे। उववातो सोहम्मे भणितो तेलोक्कदंसीहिं।।' ____ संघाटी—कपड़ों के टुकड़ों को जोड़कर बनाया गया -जो व्यक्ति अपने श्रामण्य या श्रावकत्व का अविराधित साधुओं का एक उपकरण।' इस शब्द के द्वारा सत्रकार ने रूप से पालन करता है, उसकी जघन्य परिणति सौधर्म देवलोक संभवतः बौद्ध श्रमणों के प्रति संकेत किया है। महात्मा बद्ध ने होती है। यह तीर्थंकरों का कथन है। तेरह धुतांगों का वर्णन किया है। उसमें दूसरा धुतांग है यह वृत्तिकार का अभिमत है। त्रैचीवरिकाङ्ग। संघाटी, उत्तरासंग और अन्तर-वासक-बौद्ध ठाणं सूत्र में स्वर्गप्राप्ति के चार कारण बतलाए हैं--- भिक्षु के ये तीन वस्त्र हैं। जो भिक्षु केवल इन्हीं को धारण करता १. सराग संयम ३. बालतपःकर्म है उसे त्रैचीवरिक कहते हैं और उसका वह धुतांगव्रत त्रैचीवरिकांग २. संयमासंयम ४. अकामनिर्जरा।'० कहलाता है। व्रत और संयम—ये स्वर्ग के साक्षात् हेतु नहीं हैं। सूत्र जो अपने सिद्धान्त के अनुसार चोटी कटाते थे उन का आशय यह है कि व्रती और संयमी की सुगति होती है। संन्यासियों के आचार का 'मुंडित्व' शब्द के द्वारा उल्लेख किया उसका साक्षात् हेतु पुण्यबन्ध है। व्रत के साथ निर्जरा होती है १. बृहद्वृत्ति, पत्र २५० : परियागयं ति पर्यायागतं--प्रवज्यापर्यायप्राप्तम्, ६. विशुद्धिमार्ग १२, पृ०६०। आर्षत्वाच्च याकारस्यैकस्य लोपः ।..... दुःशीलमेव दुष्टशीलात्मकः ७. (क) बृहवृत्ति, पत्र २५० : 'मुंडिणं' ति यत्र शिखाऽपि स्वसमयतश्छिद्यते, पर्यायस्तमागतम् दुःशीलपर्यायागतम्। ततः प्राग्वत् मुण्डित्वम्। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३८ : चीरं—वल्कलम् । (ख) सुखबोधा, पत्र १०६ । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २५० : चीराणि च-चीवराणि। ८. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३८ । ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३८ : णियणं णाम नग्गा एव, यथा मृगचारिका (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २५१। उद्दण्डकाः आजीवकश्च। ६. बृहवृत्ति, पत्र २५१। ५. बृहवृत्ति, पत्र ५२० : संघाटी-वस्त्रसंहतिजनिता। १०. ठाणं 31६३१। Jain Education Intemational Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ११२ अध्ययन ५ : श्लोक २३ टि० ३६, ३७ और पुण्यबंध उसका प्रासंगिक फल है। २८०-२६४ ३६. गृहस्थ-सामायिक के अंगों का (अगारि- स्थानांग में 'पोषधोपवास' और 'परिपूर्ण पोषध'—ये दो सामाइयंगाई) शब्द मिलते हैं। पोषध (पर्व दिन) में जो उपवास किया जाता है, सामायिक शब्द का अर्थ है----सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान उसे पोषधोपवास कहा जाता है। पर्व तिथियों में दिन-रात तक और सम्यक् चारित्र। उसके दो प्रकार हैं--अगारी (गृहस्थ) का आहार, शरार-सत्कार आदि का त्याग ब्रह्मचर्य पूर्वक जो धमोरा सामायिक और अनगार का सामायिक। चूर्णिकार ने ना का अगारि-सामायिक के बारह अंग बतलाएं हैं।' वे श्रावक के बारह उक्त वर्णन के आधार पर पोषध की परिभाषा इस प्रकार व्रत कहलाते हैं। बनती है-अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा आदि पर्व-तिथियों में शान्त्याचार्य ने अगारि-सामायिक के तीन अंगों का उल्लेख गृहस्थ उपवास पूर्वक चामिक आराधना करता ह, उस व्रत किया है--निःशंकभाव, स्वाध्याय और अणुव्रत। पोषध कहा जाता है। बौद्ध साहित्य में भी चतुर्दशी और पूर्णिमा विशेषावश्यक भाष्यकार ने सामायिक के चार अंग बतलाये को उपोसथ करने का वर्णन मिलता है। शान्त्याचार्य ने आसनेन का एक श्लोक उद्धृत किया है। उसमें भी अष्टमी और (१) सम्यक् दृष्टि सामायिक। पूर्णिमा का पोषध करने का विधान है।" 'पोसह' शब्द का मूल (२) श्रुत सामायिक। 'उपवसथ' होना चाहिये। 'पोसह' का संस्कृत रूप पोषथ किया (३) देशव्रत (अणुव्रत) सामायिक। जाता है और उसकी व्युत्पत्ति की जाती है-पोषध अर्थात् धर्म (४) सर्वव्रत (महाव्रत) सामायिक। की पुष्टि को धारण करने वाला। यह इस भावना को अभिव्यक्त इनमें प्रथम तीन अगारि-सामायिक के अंग हो सकते हैं। नहीं करती। ३७. पोषध को (पोसह) चतुर्दशी आदि पर्व-तिथियों को उपवास करने का विधान इसे श्वेताम्बर साहित्य में 'पोषध' या 'प्रोषध' (उत्तराध्ययन है, इसलिये वे तिथियां भी 'उपोस्थि' कहलाती हैं। और उन तिथियों में की जाने वाली उपवास आदि धर्माराधना को भी चूर्णि पृ० १३६), दिगम्बर साहित्य में 'प्रोषध' और बौद्ध साहित्य में 'उपोसथ' कहा जाता है। यह श्रावक के बारह व्रतों में उपोसथ कहा जाता है। उपोसथ के उकार का अन्तर्धान और ग्यारहवां व्रत है। इसमें असन, पान, खाद्य, स्वाद्य का तथा 'थ' को 'ह' करने पर उपोसथ का 'पोसह' रूप भी हो सकता मणि, सुवर्ण, माला, उबटन, विलेपन, शस्त्र-प्रयोग का प्रत्याख्यान बौद्ध-सम्मत उपोसथ तीन प्रकार का होता है-- और ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। इसकी आराधना (१) गोपाल-उपोसथ (२) निर्ग्रन्थ-उपोसथ (३) आर्य-उपोसथ। अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या-इन पर्व-तिथियों में की जाती है। शंख श्रावक के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि अशन, (१) गोपाल-उपोसथ पान आदि का त्याग किए बिना भी पोषध किया जाता था। जैसे ग्वाला मालिकों को गाएं सौंपकर यह सोचता है कि वसुनन्दि श्रावकाचार में प्रोषध के तीन प्रकार आज गायों ने अमुक-अमुक जगह चराई की, कल अमुक-अमुक बतलाए गये हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य । उत्तम प्रोषध में जगह चरेंगी। उसी प्रकार उपोसथ व्रती ऐसा सोचता है कि आज चतुर्विध आहार और मध्यम प्रोषध में जल छोड़कर त्रिविध मैंने यह खाया, कल क्या खाऊंगा आदि। वह लोभयुक्त चित्त से आहार का प्रत्याख्यान किया जाता है। आयंबिल (आचाम्ल), दिन गुजार देता है, यह गोपाल-उपसथ-व्रत है। इसका न महान् निर्विकृति, एकस्थान और एकभक्त को जघन्य प्रोषध कहा जाता फल होता है, न महान् परिणाम होता है, न महान प्रकाश होता है। विशेष जानकारी के लिए देखें-वसुनन्दि श्रावकाचार श्लोक है और न महान् विस्तार।" १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १३९ : अगारमस्यास्तीति अगारी, ७. ठाणं, ४३६२। अगारसामाइयरस वा अंगाणि आगारिसामाईयंगाणि, समय एव सामाइयं, ८. ठाणं, ४३६२, वृत्ति, पत्र २२५ : उद्दिष्टेत्यमावास्या परिपूर्णमिति अङ्ग्यतेऽनेनेति अंगं तस्स अंगाणि बारसविधो सावगधम्मो, अहोरात्रं यावत् आहारशरीरसत्कारत्यागब्रह्मचर्याव्यापारलक्षणभेदोपेतम् । तान्यगारसामाइयंगाणि, अगारिसामाइस्स वा अंगाणि।। बृहवृत्ति, पत्र ३१५ : पोषं-धर्मपुष्टि धत्त इति पोषधः--अष्टम्यादितिथिषु बृहद्वृत्ति, पत्र २५१ : अगारिणो---गृहिणः सामायिकं सम्यक्त्वश्रुतदेश- व्रतविशेषः। विरतिरूप तस्याङ्गानि निःशंकताकालाध्ययनाणुव्रतादिरूपाणि अगारि- १०. विशुद्धिमार्ग, पृ० २७३। सामायिकाङ्गानि। ११. बृहवृत्ति, पत्र ३१५ : आह आसनेन:३. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ११६६ : सम्मसुयदेससव्ववयाण सामाइयाण 'सर्वेष्वपि तपोयोगः प्रशस्तः कालपर्वसु। मेक्कंपि। अष्टम्यां पंचदश्यां च, नियतं पोषधं वसेद् ।।' ४. भगवई, १२।६। १२. मज्झिमनिकाय, पृ०४५६। ५. ठाणं, ४३६२। १३. वही, पृ०३३८ । ६. भगवई, १२।६। १४. अंगुत्तर निकाय, भा० १ पृ० २१२ । Jain Education Intemational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकाममरणीय ११३ अध्ययन ५: श्लोक २४-२६ टि०३५-४१ (२) निर्गन्थ-उपोसथ हैं-इस तथ्य को अनाग्रह-बुद्धि से समझने का प्रयत्न किया निग्रन्थ अपने अनुयायियों को इस प्रकार व्रत लिवाते जाता तो ये आक्षेप आवश्यक नहीं होते। हैं—पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में सौ-सौ योजन ३८. औदारिक शरीर (छविपव्वाओ): तक जितने प्राणी हैं तू उन्हें दण्ड से मुक्त कर। इस प्रकार कुछ छवि का अर्थ है चमड़ी और पर्व का अर्थ है शरीर के के प्रति दया व्यक्त करते हैं और कुछ के प्रति नहीं। संधिस्थल-घुटना, कोहनी आदि। छविपर्व का तात्पर्यार्थ हैनिर्ग्रन्थ कहते हैं-तू सभी वस्तुओं को त्याग कर इस प्रकार औदारिक-चर्म, अस्थि आदि से बना हुआ शरीर। व्रत ले। न मैं कहीं किसी का हूं और न मेरा कहीं कोई कुछ ३९. यक्ष-सलोकता....को प्राप्त होता है (जक्ख सलोगय) है-ऐसा व्रत लेना मिथ्या है, झूठा है। वे मृषावादी हैं। उस यक्ष-सलोकता-देवों के तुल्य लोक अर्थात् देवगति ।' रात्रि के बीतने पर वे उन त्यक्त वस्तुओं को बिना किसी के दिये 'ऐतरेय आरण्यक' और 'बृहदारण्यक उपनिषद्' में सलोकता का ही उपयोग में लाते हैं। इस प्रकार वे चोरी करने वाले होते हैं। प्रयोग मिलता है। इस व्रत का न महान् फल होता है, न महान् परिणाम होता है, आचार्य सायण और शंकराचार्य ने सलोकता का अर्थ न महान प्रकाश होता है और न महान् विस्तार।' 'समान-लोक या एक स्थान में बसना' किया है।' (३) आर्य-उपोसथ दीघनिकाय के अनुवाद में भी इसका अर्थ यही है।" आर्य-श्रावक तथागत का अनुस्मरण करता है। उसका दीघनिकाय मल में सलोकता के अर्थ में सहव्यता का प्रयोग चित्त मेल रहित हो जाता है। आर्य-श्रावक धर्म का, संघ का, मिलता मिलता है। देवताओं का अनुस्मरण करता है। वह हिंसा, चोरी, अब्रह्मचर्य, ४०. उत्तरोत्तर (.....अणुपुव्वसो) मृषावाद का त्याग करता है, एकाहारी होता है। पाणं न हाने न चादिन्नं आदिए। सौधर्म देवलोक से अनुत्तरविमान पर्यन्त देवलोकों में निवास करने वाले देवों में मोह आदि क्रमशः कम होते जाते हैं। मुसा न भासे न च मज्जपो सिया।। अनुत्तर विमान वासी देवों का मोह अत्यंत उपशांत होता है। वे अब्रह्मचर्या विरमेय्य मेथुना। वीतराग की-सी स्थिति में रहते हैं। 'अणुपुब्बसो' शब्द से यही रत्तिं न मुंजेय्य विकालभोजनं। सूचित किया गया है। मालं न धारेय्य न च गन्धआचरे। तत्त्वार्थ के अनुसार देवलोकों में उत्तरोत्तर अभिमान कम मंचे छमायं वसथेय सन्यते।। होता है। वे देव स्थान, परिवार, शक्ति, अवधि, सम्पत्, आयुष्य एतं हि अट्ठगिकमाहुपोसथं। की स्थिति आदि का अभिमान नहीं करते। बुद्धण दुक्खंतगुणं पकासित।' ४१. उत्तम (उत्तराई) चातुद्दसी पंचदसी याव पक्खस्स अट्ठमी। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ-सबसे ऊपर पाटिहारियपक्खंच अलैंगसुसमागतं। स्थित देवलोक-अनुत्तरविमान किया है। किन्तु पूरे श्लोक उपोसथं उपवसेय्य, यो पंसस मादिसो नरो के संदर्भ में यह अर्थ विमर्शणीय है। इसका अर्थ यदि इन प्रकारों में निर्ग्रन्थ-उपोसथ पर कुछ आक्षेप किये गये अनुत्तरविमान किया जाए तो अगले श्लोक में प्रयुक्त 'कामरूविणो' हैं। किन्तु उपोसथ की साधना अमुक काल के लिये की जाती की संगति नहीं बैठती। इसीलिए उन्हें स्पष्टीकरण देना पड़ा, है और उसके व्रत भी अमुक काल तक स्वीकार किए जाते अन्यथा उसकी आवश्यकता नहीं होती। १. अंगुत्तर निकाय, भा० १ पृ० २१२-१३ । ८. दीघनिकाय, पृ० ८८। २. वही, भा० १ पृ०२१३-२२१॥ ६. दीघनिकाय, ११३, पृ० २७३ : चन्दिम-सुरियानां सहव्यताय मग्ग ३. वही, भा० १ पृ० १४७। देसेतुं-अजयमेव उजु-मग्गो। ४. सुखबोधा, पत्र १०७ : छविश्च-त्वक पाणि च-जानुकूर्परादीनि छविपर्व १० बरवत्ति पत्र : अणपब्बयो नि प्राग्वदनपर्वत. कमेण तद्योगाद् औदारिकशरीरमपि छविपर्व ततः। विमोहादिविशेषणविशिष्टाः, सीधादिषु अनुत्तरविमानावसानेषु पूर्वपूर्वापेक्षया ५. वही, पत्र १०७ : यक्षाः-देवा, समानो लोकोऽस्येति सलोकस्तद्भाव प्रकर्षवन्त्येव विमोहत्वादीनी। सलोकता य: सलोकता यक्षसलोकता ताम्। ११. तत्त्वार्थ ४॥२२ भाष्य। ६. (क) ऐतरेयारण्यक, ३।२।१७ पृ० २४२, २४३ : वेदान्हं सायुज्यं । १२. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४० : उत्तराणि नाम सब्बोवरिमाणि सरूपता सलोकतामश्नुते। जाणि, ताणि हि सव्वविमाणुत्तराणि । (ख) बृहदारण्यक, १।५।२३, पृष्ट ३८८ : एतस्यै देवतायै सायुज्यं (ख) बृहवृत्ति, पत्र २५२। सलोकतां जयति। १३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४० : कामतः रूपाणि कुर्वन्तीति रूपाः ७. (क) ऐतरेयारण्यक, पृ०२४३ : सलोकता समानलोकतां था एकस्थानत्वम्। कामरूपाः, स्यादू-अनुत्तरा न विकुर्वन्ति, ननु तेषां तदेवेष्टं रूपं (ख) बृहदारण्यक उपनिषद्, पृ० ३६१ : सलोकतां समानलोकतां या येन सत्यां शक्ती प्रयोजनाभावाच्च नान्यद् विकुर्वन्ति। एकस्थानत्वम्। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २५२। Jain Education Intemational Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है। उत्तरज्झयणाणि ११४ अध्ययन ५ : श्लोक २७-२६ टि० ४२-४६ प्रस्तुत श्लोक में 'उत्तराई' के द्वारा सभी देवलोक विवक्षित ___ महामारी घोड़े पर चढ़ कर जा रही थी। एक व्यक्ति हैं, केवल अनुत्तरविमान ही नहीं। सामने मिला। उसने पूछा कौन हो तुम? उसने कहा-मैं ४२. मोह रहित (विमोहाई): महामारी हूं। तुम कहां जा रही हो? क्यों जा रही हो? चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-अन्धकार रहित महामारी बोली---मैं अमुक नगर में हजार व्यक्तियों को मारने और स्त्रियों से रहित।' शान्त्याचार्य के अनुसार वे कामात्मक जा रही हूं। कुछ दिनों बाद वह उसी रास्ते से लौटी। संयोगवश मोह से रहित होते हैं। द्रव्य-मोह (अन्धकार) तथा भाव-मोह वही व्यक्ति पुनः मिल गया। उसने कहा--देवी ! तुम तो गई थी (मिथ्यादर्शन) ये दोनों वहां नहीं होते इसलिए उन्हें विमोह कहा हजार आदमियों को मारने और वहां मरे हैं पांच हजार आदमी। तुमने झूट क्यों कहा? महामारी बोली-भैया ! मैंने ४३. दीप्तिमान् (समिद्धा) झूठ नहीं कहा। मैंने तो हजार व्यक्तियों को ही मारा था। शेष 'समिद्ध' शब्द के संस्कृतरूप दो हो सकते हैं-समिद्ध । चार हजार आदमी मौत के भय से मर गए। उसका मैं क्या और समृद्ध। समिद्ध का अर्थ है-दीप्तिमान् और समृद्ध का करूं? अर्थ है...-वैभवशाली । शान्त्याचार्य ने पहला अर्थ मान्य किया है।' इसी अध्ययन के सोलहवें श्लोक में 'तओ से मरणंतंमि, चूर्णिकार तथा नेमिचन्द्र ने दूसरा अर्थ मान्य किया है।" बाले संतस्सई भया'...ऐसा उल्लेख है। इसका तात्पर्य है कि ४४. अभी उत्पन्न हुए हों-ऐसी कान्ति वाले बाल-अज्ञानी व्यक्ति अपने जीवनकाल में धर्म को छोड़कर अधर्म से जीवन-यापन करता है। वह मरणकाल में (अहुणोववन्नसंकासा) परलोक-गमन-नरकगमन के भय से संत्रस्त हो जाता है। वह चूर्णिकार ने इसका अर्थ-अभिनव उत्पन्न की तरह सोचता है मैंने नरक-प्रायोग्य कर्म किए हैं और मुझे उनको किया है। टीकाकारों ने इसका अर्थ 'प्रथम उत्पन्न देवता के । तुल्य' किया है। इसका तात्पर्य है कि उनमें औदारिक शरीरगत प्रस्तुत श्लोक में 'न संतसन्ति मरणन्ते'.....पद के अवस्थाएं नहीं होतीं। वे न बालक होते हैं और न बूढ़े, सदा पूसपा तात्पर्यार्थ में बताया है कि शीलवान् और संयमी मुनि मरणकाल ना एक से रहते हैं। उनका रूप-रंग और लावण्य जैसा उत्पत्ति के । में भी संत्रस्त नहीं होता। वह जानता है कि उसकी सुगति समय होता है वैसा ही अन्तकाल में होता है।६।। होगी, क्योंकि उसने धर्म के प्रशस्त मार्ग का अनुसरण किया है। ४५. जो उपशान्त होते हैं (जे संति परिनिब्बुडा) पानिप्युठा) वह संलेखना कर, अनशनपूर्वक मृत्यु का स्वेच्छा से वरण इसमें 'सन्ति' क्रियापद है। फिर भी व्याख्याकारों ने इसका करता है। मूल अर्थ इस प्रकार किया है जो मुनि शान्तिपरिनिर्वृत होता इस शताब्दी के महान् वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने है अर्थात् शान्ति या उपशम से शीतीभूत, कषाय रहित, कषायरूपी __अपना अन्त निकट जानकर कहा था-मुझे जितना जीना था, अग्नि को बुझाने वाला होता है। उतना जी लिया, अब जबरदस्ती मैं जीवन को लंबाना नहीं शान्त्याचार्य ने वैकल्पिक रूप में 'सन्ति' को क्रियापद चाहता। मानकर इसका अर्थ-विद्यन्ते किया है। यह भावना भी 'न संतसंति मरणंते' की ही द्योतक है। ४६. (श्लोक २९) नेमिचन्द ने यहां एक सुन्दर पद्य उद्धृत किया हैसभी प्रकार के भयों में मरण का भय अत्यंत कष्टप्रद 'सुगहियतवपव्वयणा, विसुद्धसम्मत्तणाणचरित्ता। होता है। कभी-कभी ऐसे अवसर भी आते हैं कि वास्तविक मृत्यु मरणं उस्सवभूयं मण्णंति समाहियपण्णओ।' से मरने वाले लोगों से भी अधिक लोग मृत्यु के भय से मर अर्थात् जिनके पास तप रूपी पाथेय है, जिनकी श्रद्धा, जाते हैं। ज्ञान और चारित्र विशुद्ध है, वे समाहित आत्मा वाले मुनि मरण उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४०: 'विमोहाई' विमोहानीति निस्तमासीत्यर्थ, तमो हि बाह्यमाभ्यन्तरं च, बाह्यं तावदन्येष्वपि देवलोकेषु तमो नास्ति, किं पुनरनुत्तरविमानेषु? अभ्यंतरतममधिकृत्यापदिश्यते सर्व एव हि सम्यग्दृष्टयः, अथवा मोहयंति पुरुष मोहसंज्ञातः स्त्रियः, ताः तत्र न। २. बृहद्वृत्ति, पत्र २५२ : विमोहा इवाल्पवेदादिमोहनीयोदयतया विमोहाः, अथवा मोहो द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतोऽन्धकारो भावतश्च मिथ्यादर्शनादिः, स द्विविधोऽपि सततरत्नद्योतितत्वेन सम्यग्दर्शनस्यैव च तत्र सम्भवेन विगतो येषु ते विमोहाः। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २५२ : समिद्धा-अतिदीप्ताः। ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४० : समृद्धाः सर्वसंपदुपपेताः । (ख) सुखबोधा, पत्र १०८ । ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४० : 'अहुणोववन्नसंकासा' अभिनवोपपन्नस्य देहस्य सर्वस्यैवाभ्यधिका द्युतिर्भवति अनुत्तरेष्वपि। ६. (क) बृहवृत्ति, पत्र २५२ : अधुनोपपन्नसंकाशाः प्रथमोत्पन्नदेवतुल्याः, अनुत्तरेषु हि वर्णद्युत्यादि यावदायुस्तुल्यमेव भवति। (ख) सुखबोथा, पत्र १०८।। ७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १४१। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २५३ । (ग) सुखबोधा, पत्र १०८। ८. बृहद्वृत्ति, पत्र २५३। ६. सुखबोधा, पत्र १०८। Jain Education Intemational Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nिd) अकाममरणीय ११५ अध्ययन ५ : श्लोक ३०-३२ टि० ४७-५३ को उत्सव मानते हैं। आदमी मरना कब और क्यों चाहता है? इस प्रश्न का ४७. अहिंसाधर्मोचित सहिष्णुता (दयाधम्मस्स खंतिए) समाधान है कि जब मुनि यह देखता है कि उसकी मन, वचन दया का अर्थ है-अहिंसा और क्षान्ति का अर्थ है- और काया की शक्ति क्षीण हो रही है, ज्ञान, दर्शन और चारित्र सहिष्णुता। अहिंसा और सहिष्णुता में गहरा संबंध है। कष्ट सहने के गुणों की अभिवृद्धि नहीं हो रही है, तब उसे मरण अभिप्रेत की क्षमता को विकसित किए बिना अहिंसा का विकास संभव नहीं होता है। है। इस विषय में सूत्रकृतांग आगम का यह श्लोक द्रष्टव्य है'- इसकी ध्वनि यह है कि मनुष्य जैसे जीने के लिए स्वतंत्र 'घुणिया कुलियं व लेववं, कसए देहमणसणादिहिं। है वैसे मरने के लिए भी स्वतंत्र है। मरण भी वांछनीय है। अविहिंसामेव पचए, अणधम्मो मणिणा पवेडओ। उसकी शर्त है कि वह आवेशकृत न हो। जब यह स्पष्ट प्रतीत वृत्तिकार शान्त्याचार्य ने 'दयाधम्मस्स..........' का अर्थ होने लगे कि योग क्षीण हो रहे हैं, उस समय समाधिपूर्ण मरण दसविध मुनिधर्म किया है। वांछनीय है। ४८. तथाभूत (उपशान्त) (तहाभूएण) ५१. कष्टजनित रोमांच को (लोमहरिस) तथाभूत का अर्थ है-आत्मभूत, स्वाभाविक । वही आत्मा चूर्णिकार ने रोमांचित होने के तीन कारण माने हैं-(१) तथाभूत होती है जो राग-द्वेष से रहित होती है। यह चर्णि का भय (२) अनुकूल उपसर्ग और (३) हर्ष ।' अभिमत है। 'रलयोरैक्यं'—इस न्याय से लोमहरिस शब्द के दो संस्कृत याचार्य ने तथाभत का अर्थ उपशांत मोह किया के रूप बनते हैं—लोमहर्ष और रोमहर्ष। इसका वैकल्पिक अर्थ है-मरणकाल से पूर्व जो मनि ५२. (भेदं देहस्स कंखए) अनाकुलचित्त वाला था, वह मरणकाल में भी वैसा ही रहे, वह मुनि शरीर के भेद की प्रतीक्षा करे। चूर्णिकार का मानना तथाभूत होता है। है कि औदारिक शरीर के भेद की नहीं, किन्तु आठ प्रकार के ४९. प्रसन्न रहे.....उद्विग्न न बने (विप्पसीएज्ज) कर्मरूपी शरीर के भेद की आकांक्षा करें।' इसका तात्पर्य यह है कि मुनि पंडितमरण और बालमरण वृत्तिकार ने माना है कि मुनि मरण की आशंसा न करे, दोनों की परीक्षा कर अपने कषायों का अपनयन कर प्रसन्न किन्तु शरीर की सार-संभाल न करता हुआ मरण की प्रतीक्षा रहे, स्वस्थ रहे। अपनी तपस्या का गर्व कर वह अपनी आत्मा या करे। मुनि के लिए मरण की आशंसा वर्जनीय है। को कलुषित न करे। ५३. मरण-काल प्राप्त होने पर (अह कालम्मि संपत्ते) एक शिष्य तपस्या में संलग्न था। उसने बारह वर्ष की मुनि अपनी संयम-यात्रा का निर्वहन करते-करते जब संलेखना की। एक दिन वह गुरु के पास आकर बोला-गुरुदेव! यह देखता है कि शरीर और इन्द्रियों की हानि हो रही है, योग अब मैं क्या करूं? गुरु उसकी आंतरिकता से परिचित थे। क्षीण हो रहे हैं, स्वाध्याय आदि में बाधा आ रही है, तब वह उन्होंने कहा-वत्स ! कृश कर। वह समझा नहीं। बार-बार शरीर-त्याग की तैयारी में लग जाए। वह सोचे, मुझे जो करना पूछने पर भी गुरु का यही उत्तर रहा—कृश कर, कृश कर। एक था, वह मैं कर चुका हूं। मुझ पर जो दायित्व था, उसका मैंने ही उत्तर सुनकर शिष्य तिलमिला उठा और उसने अपनी उचित निर्वाह किया हैअंगुली को तड़ाक से तोड़ते हुए कहा—अब और क्या कृश निफाइया य सीसा, सउणी जह अंडयं पयत्तेणं। करूं? शरीर तो अस्थिपंजर मात्र रह गया है। गुरु बोले—जिससे बारससंवच्छरियं, अह संलेह ततो करइ।' प्रेरित होकर तूने अंगुली तोड़ी, उस प्रेरणा को कृश कर, क्रोध जैसे पक्षिणी अपने अंडे को प्रयत्नपूर्वक सेती हुई उसे को कृश कर, कषाय को कृश कर। अब वह समझ गया। निष्पादित करती है, वैसे ही मैंने भी अपने गण में शिष्यों का ५०. जब मरण अभिप्रेत हो (तओ काले अभिप्पेए) निष्पादन कर अपने दायित्व का निर्वाह किया है। अब मरणकाल प्रश्न होता है कि क्या कभी मरण भी अभिप्रेत होता है? संप्राप्त है, अतः मुझे बारह वर्षों की संलेखना में लग जाना सूयगडो १२।१४। २. बृहद्वृत्ति, पत्र २५३ : दयाप्रधानो धर्मों दयाधर्मो दशविधयतिधर्मरूप, तस्य सम्बन्धिनी या क्षान्तिस्तया। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४१ : तथाभूतेन अप्पणा--तेन प्रकारेण भूतस्तथाभूतः, रागद्वेषवशगो ह्यात्मा अन्यथा भवति, मद्यपानां विश्व (चित्तवत्), तदभावे तु आत्मभूत एव। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र २५३ : तथाभूतेन-उपशान्तमोहोदयेन। ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४१ : अथवा यथैव पूर्वमव्याकुलमनास्तथा मरणकालेऽपि तथाभूत एव।। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २५३ । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २५३। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४२ : स तु भयाद् भवति, अनुलोमै र्वा उपसर्गः हर्षाद् भवति। ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४२ : भिद्यते इति भेदः, अष्टविधकर्मशरीरभेद कांक्षति, न तूदारिकस्य। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २५४ । Jain Education Intemational Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ११६ अध्ययन ५ : श्लोक ३२ टि० ५४-५५ चाहिए। यह सोच वह तपोयोग में संलग्न हो जाता है। बात की पुष्टि की है। ५४. शरीर का त्याग करता है (आघायाय समुस्सय) ५५. तीनों में से किसी एक को (तिण्हमन्नयर) शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ 'बाह्य और आंतरिक शरीर का भक्त-परिज्ञा, इंगिनी और पादोपगमन-ये अनशन के नाश करता हुआ' किया है। इस अर्थ के आधार पर इसका तीन प्रकार हैं। मुनि को इन तीनों में से किसी एक के द्वारा संस्कृत रूप—'आघातयन् समुच्छ्य म्' बनता है। इस देह-त्याग करना चाहिए। इसलिए उसके मरण के भी ये तीन चरण का वैकल्पिक अर्थ 'शरीर के विनाश का अवसर आने प्रकार के हो जाते हैं। चतुर्विध आहार तथा बाह्य और पर' भी किया गया है। यह अर्थ करने में विभक्ति का व्यत्यय आभ्यन्तर उपधि का जो यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान किया मानना पड़ा, अतः इसमें उसका संस्कृत रूप भी बदल गया, जाता है उस अनशन को भक्त-परिज्ञा कहा जाता है। इंगिनी जैसे-'आघाताय समुच्छ्रयस्य'। आचारांग (१।४।४४) वृत्ति में में अनशन करने वाला निश्चित स्थान में ही रहता है, उससे समुच्छ्रय का अर्थ 'शरीर' किया गया है। बौद्ध साहित्य में बाहर नहीं जाता। पादोपगमन में अनशन करने वाला कटे हुए समुच्छ्रय का अर्थ 'देह' मिलता है। इस श्लोक में 'आघायाय' वृक्ष की शाखा की भांति स्थिर रहता है और शरीर की शब्द 'आघायाये' के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है-ऐसा सरपेन्टियर सार-संभाल नहीं करता।' ने लिखा है और उन्होंने पिसेल का नामोल्लेख कर अपनी १. बृहवृत्ति, पत्र २५४ : 'आघायाय' त्ति आर्षत्वात आघातयन् संलेखनादिभिरुपक्रमणकारणः समन्ताद् घातयन्विनाशयन्, कं?— समुच्छ्रयम्अन्तः कार्मणशरीरं बहिरौदारिकम् । २. वही, पत्र २५४ : यद्वा-'समुस्सतं' त्ति सुळ्ययात्समुच्छ्रयस्याघाताय विनाशाय काले सम्प्राप्त इति। ३. महावस्तु, पृ० ३६६। ४. उत्तराध्ययन, पृष्ठ ३०१। ५. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २२५ । Jain Education Intemational Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठं अज्झयणं खुड्डागनियंठिज्जं छठा अध्ययन क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन का नाम 'खुड्डागनियंठिज्ज'--'क्षुल्लक- त्राण नहीं है। साधु देह-मुक्त नहीं होता फिर भी प्रतिपल निर्ग्रन्थीय' है। दशवैकालिक के तीसरे अध्ययन का नाम उसके मन में यह चिन्तन होना चाहिए कि देह-धारण का 'खुड्डियायारकहा'-'क्षुल्लकाचारकथा' और छठे अध्ययन का प्रयोजन पूर्व-कों को क्षीण करना है। लक्ष्य जो है वह बहुत नाम 'महायारकहा'-'महाचारकथा' है। इनमें क्रमशः मुनि के ऊंचा है, इसलिए साधक को नीचे कहीं भी आसक्त नहीं होना आचार का संक्षिप्त और विस्तृत निरूपण हुआ है। इसी प्रकार चाहिए। उसकी दृष्टि सदा ऊर्ध्वगामी होनी चाहिए (श्लोक १३)। इस अध्ययन में भी निर्ग्रन्थ के बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ-त्याग इस प्रकार इस अध्ययन में अध्यात्म की मौलिक विचारणाएं (परिग्रह-त्याग) का संक्षिप्त निरूपण है।' उपलब्ध हैं। - 'निर्ग्रन्थ' शब्द जैन-दर्शन का बहुत प्रचलित और बहुत इस अध्ययन के अन्तिम श्लोक का एक पाठान्तर है। प्राचीन शब्द है। बौद्ध-साहित्य में स्थान-स्थान पर भगवान् उसके अनुसार इस अध्ययन के प्रज्ञापक भगवान् पार्श्वनाथ हैं। महावीर को 'निगण्ठ' (निर्ग्रन्थ) कहा है। तपागच्छ पट्टावली के मूल-- अनुसार सुधर्मा स्वामी से आठ आचार्यों तक जैनधर्म एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी अगुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदंसणघरे। 'निर्ग्रन्थ-धर्म' के नाम से प्रचलित था। अशोक के एक अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए। स्तम्भ-लेख में भी 'निर्ग्रन्थ' का द्योतक 'निघंठ' शब्द प्रयुक्त पाठान्तरहुआ है। एवं से उदाहु अरिहा पासे पुरिसादाणीए। अविद्या और दुःख का गहरा सम्बन्ध है। जहां अविद्या है भगवं वेसालीए बुद्ध परिणिब्बुए। बहवृत्ति, पत्र २७०) वहां दुःख है, जहां दुःख है, वहां अविद्या है। पतंजलि के शब्दों यद्यपि चूर्णि और टीकाकार ने इस पाठान्तर का अर्थ में अविद्या का अर्थ है-अनित्य में नित्य की अनुभूति, अशुचि भी महावीर से सम्बन्धित किया है। 'पास' का अर्थ हैमें शुचि की अनुभूति, दुःख में सुख की अनुभूति और अनात्मा 'पश्यतीति पाशः' या 'पश्यः' किया है। किन्तु यह संगत नहीं में आत्मा की अनुभूति। लगता। पुरुषादानीय यह भगवान् पार्श्वनाथ का सुप्रसिद्ध सूत्र की भाषा में विद्या का एक पक्ष है सत्य और दूसरा विशेषण है। इसलिए उसके परिपार्श्व में 'पास' का अर्थ पार्श्व पक्ष है मैत्री—'अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्तिं भूएसु कप्पए, (श्लोक ही होना चाहिये। यद्यपि 'वेसालीय' विशेषण भगवान् महावीर २)। जो कोरे विद्यावादी या ज्ञानवादी हैं उनकी मान्यता है कि से अधिक सम्बन्धित है फिर भी इसके जो अर्थ किये गए हैं यथार्थ को जान लेना पर्याप्त है, प्रत्याख्यान की कोई आवश्यकता उनकी मार्यादा से वह भगवान् पार्श्व का भी विशेषण हो सकता नहीं है। क्रिया का आचरण उनकी दृष्टि में व्यर्थ है। किन्तु है। भगवान् पार्श्व इक्ष्वाकुवंशी थे। उनके गुण विशाल थे और भगवान् महावीर इसे वागवीर्य मानते थे, इसलिए उन्होंने उनका प्रवचन भी विशाल था, इसलिए उनके 'वैशालिक' होने में आचरण-शून्य भाषावाद और विद्यानुशासन को अत्राण बतलाया कोई आपत्ति नहीं आती। इस पाठान्तर के आधार से यह (श्लोक ८-१०)। अनुमान किया जा सकता है कि यह अध्ययन मूलतः पार्श्व की ग्रन्थ (परिग्रह) को त्राण मानना भी अविद्या है। इसलिए परम्परा का रहा हो और इसे उत्तराध्ययन की श्रृंखला में भगवान् महावीर ने कहा- “परिवार त्राण नहीं है", "धन भी सम्मिलित करते समय इसे महावीर की उपदेश-धारा का रूप त्राण नहीं है" (श्लोक ३-५)। और तो क्या, अपनी देह भी दिया गया हो। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २४३ : सावज्जगंथमुक्का, अब्मिन्तरबाहिरेण गंथेण। एसा खलु निज्जुत्ती, खुड्डागनियंठसुत्तस्स ।। २. तपागच्छपट्टावलि (पं० कल्याणविजय संपादित) भाग १, पृष्ठ २५३: श्री सुधर्मास्वामिनोऽष्टी सूरीन् यावत् निर्ग्रन्थाः। ३. दिल्ली-टोपरा का सप्तमस्तम्भ लेख : निघंटेसु पि में कटे (,) इमे वियापटा होहति। ४. पातंजल योगसूत्र २।५ : अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्या तिरविद्या। ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १५६-५७ : गुणा अस्य विशाला इति वैशालियः, विशालं शासनं वा, विशाले वा इक्ष्वाकुवंशे भवा वैशालीया। “वैशाली जननी यस्य, विशालं कुलमेव च। विशालं प्रवचनं वा, तेन वैशालिको जिनः ।।" Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठें अज्झयणं : छठा अध्ययन खुड्डागनियंठिज्जं : क्षुल्लक-निन्थीय हिन्दी अनुवाद जितने अविद्यावान्' (मिथ्यात्व से अभिभूत) पुरुष हैं, वे सब दुःख को उत्पन्न करने वाले हैं। वे दिङ्मूढ़ की भांति मूढ़ बने हुए इस अनन्त संसार में बार-बार लुप्त होते हैं। इसलिए पण्डित पुरुष प्रचुर पाशों (बन्धनों) व जाति-पथों' (जन्म मरण का पथ) की समीक्षा कर स्वयं सत्य की गवेषणा करे' और सब जीवों के प्रति मैत्री का आचरण करे। जब मैं अपने द्वारा किए गए कमों से छिन्न-भिन्न होता हूं, तब माता, पिता, पुत्र-वधू, भाई, पत्नी और पुत्र—ये सभी मेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं होते। मूल १. जावंतऽविज्जापुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा। लुप्पंति बहुसो मूढा संसारंमि अणंतए।। २. समिक्ख पंडिए तम्हा पासजाईपहे बहू। अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्तिं भूएसु कप्पए।। ३. माया पिया ण्हुसा भाया भज्जा पुत्ता य ओरसा। नालं ते मम ताणाय लुप्पंतस्स सकम्मुणा।। ४. एयमढें सपेहाए पासे समियदंसणे। छिंद गेहिं सिणेहं च न कंखे पुवसंथवं ।। ५. गवासं मणिकुंडलं पसवो दासपोरुसं। सव्वमेयं चइत्ताणं कामरूवी भविस्ससि ।। (थावरं जंगमं चेव धणं धण्णं उवक्खरं। पच्चमाणस्स कम्मे हिं नालं दुक्खाउ मोयणे।।) ६. अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियायए। न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए।। संस्कृत छाया यावन्तोऽविद्याः पुरुषाः सर्वे ते दुःखसम्भवाः। लुप्यन्ते बहुशो मूढाः संसारेऽनन्तके।। समीक्ष्य पण्डितस्तस्मात् पाशजातिपथान् बहून्। आत्मना सत्यमेषयेत् मैत्री भूतेषु कल्पयेत्।। माता पिता स्नुषा भ्राता भार्या पुत्राश्चौरसाः। नालं ते मम त्राणाय लुप्यमानस्य स्वकर्मणा ।। एतमर्थं स्वप्रेक्षया पश्येत् सम्यग्दर्शनः। छिन्द्याद् गृद्धिं स्नेहं च न काक्षेत् पूर्वसंस्तवम्।। गवावं मणिकुण्डलं पशवो दासपौरुषम्। सर्वमेतत् त्यक्त्वा कामरूपी भविष्यसि।। (स्थावरं जंगमं चैव धनं धान्यमुपस्करम्। पच्यमानस्य कर्मभिः नालं दुःखान्मोचने।।) अध्यात्म सर्वतः सर्वं दृष्ट्वा प्राणान् प्रियात्मकान्। न हन्यात् प्राणिनः प्राणान् भयवैरादुपरतः।। सम्यक्दर्शन वाला पुरुष अपनी प्रेक्षा से यह अर्थ---- कोई त्राण नहीं है.---देखे और उसके प्रति जो गृद्धि और स्नेह" है उसका छेदन करे तथा परिचय की अभिलाषा न करे। गाय, घोड़ा, मणि, कुण्डल, पशु, दास और कर्मकरों का समूह इन सबको छोड़। ऐसा करने पर तृ कामरूपी (इच्छानुकूल रूप बनाने में समर्थ) होगा। (चल और अचल सम्पत्ति, धन, धान्य और गृहोपकरण----ये सभी पदार्थ कमों से दुःख पाते हुए प्राणी को दुःख से मुक्त करने में समर्थ नहीं होते सब दिशाओं से होने वाला सब प्रकार का अध्यात्म-जीवन की आशंसा'२ जैसे मुझमें है वैसे ही दूसरों में है। सब प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है ....इस सत्य को देखकर भय और वैर से उपरत पुरुष प्राणियों के प्राणों का घात न करे। Jain Education Intemational Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १२० अध्ययन ६ : श्लोक ७-१५ “परिग्रह नरक है"१५—यह देखकर वह एक तिनके को भी अपना बनाकर न रखे। अहिंसक या करुणाशील मुनिअपने पात्र में गृहस्थ द्वारा प्रदत्त भोजन करे। ७. आयाणं नरयं दिस्स नायएज्ज तणामवि। दोगुंछी अप्पणो पाए दिन्नं भुंजेज्ज भोयणं ।। ८. इहमेगे उ मन्नति अप्पच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदित्ताणं सव्वदुक्खा विमुच्चई।। ६. भयंता अकरेंता य बंधमोक्खपइण्णिणो। वायाविरियमेत्तेण समासासेंति अप्पयं ।। आदानं नरकं दृष्ट्वा नाददीत तृणमपि। जुगुप्सी आत्मनः पात्रे दतं भुंजीत भोजनम्।। इहैके तु मन्यन्ते अप्रत्याख्याय पापकम् । आर्य विदित्वा सर्व-दुःखाद् विमुच्यते।। इस संसार में कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि पापों का त्याग किये बिना ही तत्व को जानने मात्र से जीव सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। भणन्तोऽकुर्वन्तश्च बन्धमोक्षप्रतिज्ञावन्तः। वागवीर्यमात्रेण समाश्वासयन्त्यात्मकम् ।। “ज्ञान से ही मोक्ष होता है"-जो ऐसा कहते हैं, पर उसके लिए कोई क्रिया नहीं करते, वे केवल बन्ध और मोक्ष के सिद्धान्त की स्थापना करने वाले हैं। वे केवल वाणी के वीर्य (वाचालता) से अपने आपको आश्वस्त करते हैं। विविध भाषाएं त्राण नहीं होती। विद्या का अनुशासन२० भी कहां त्राण देता है ? (जो इनको त्राण मानते हैं वे) अपने आपको पण्डित मानने वाले अज्ञानी मनुष्य प्रायः कर्मों द्वारा विषाद को प्राप्त हो १०.न चित्ता तायए भासा कओ विज्जाणुसासणं? विसन्ना पावकम्मे हिं बाला पंडियमाणिणो।। न चित्रा त्रायते भाषा कुतो विद्यानुशासनम् ? विषण्णाः पापकर्मभिः बालाः पण्डितमानिनः।। जो कोई मन, वचन और काया से शरीर, वर्ण और रूप में सर्वशः आसक्त होते हैं, वे सभी अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं। वे इस अनन्त संसार में जन्म-मरण के लम्बे मार्ग को प्राप्त किए हुए हैं। इसलिए सब दिशाओं (दृष्टिकोणों) को देखकर मुनि अप्रमत्त होकर विचरे । ११.जे केई सरीरे सत्ता वण्णे रूवे य सव्वसो। मणसा कायवक्केणं सव्वे ते दुक्खसंभवा।। १२.आवन्ना दीहमद्धाणं संसारंमि अणंतए। तम्हा सव्वदिसं पस्स अप्पमत्तो परिव्वए।। १३.बहिया उड्डमादाय नावकंखे कयाइ वि। पुव्वकम्मखयट्ठाए इमं देहं समुद्धरे।। १४.विविच्च कम्मुणो हेउं कालकंखी परिव्वए। मायं पिंडस्स पाणस्स कडं लभ्रूण भक्खए।। ये केचित् शरीरे सक्ताः वर्णे रूपे च सर्वशः। मनसा कायवाक्येन सर्वे ते दुःखसंभवाः।। आपन्ना दीर्घमध्वानं संसारेऽनन्तके। तस्मात् सर्वदिशो दृष्ट्वा अप्रमत्तः परिव्रजेत्।। बहिरू मादाय नावकाक्षेत् कदाचिदपि। पूर्वकर्मक्षयार्थ इमं देहं समुद्धरेत्।। विविच्च कर्मणो हेतुं कालकांक्षी परिव्रजेत्। मात्रां पिण्डस्य पानस्य कृतं लब्ध्वा भक्षयेत् ।। बाह्य-शरीर से भिन्न ऊर्ध्व-आत्मा है इसे स्वीकार कर किसी प्रकार की आकांक्षा न करे। पूर्व कर्मों के क्षय के लिए ही इस शरीर को धारण करे। कर्म के हेतुओं का विवेचन (विश्लेषण या पृथक्करण) कर मुनि मृत्यु की प्रतीक्षा करता हुआ विचरे। संयम-निर्वाह के लिए आहार और पानी की जितनी मात्रा आवश्यक हो उतनी गृहस्थ के घर में सहज निष्पन्न भोजन से प्राप्त कर आहार करे। १५.सन्निहिं च न कुव्वेज्जा लेवमायाए संजए। पक्खी पत्तं समादाय निरवेक्खो परिव्वए।। सन्निधिं च न कुर्वीत लेपमात्रया संयतः। पक्षी पात्रं समादाय निरपेक्षः परिव्रजेत् ।। संयमी मुनि पात्रगत लेप को छोड़कर अन्य किसी प्रकार के आहार का संग्रह न करे। पक्षी अपने पंखों को साथ लिए उड़ जाता है वैसे ही मुनि अपने पात्रों को साथ ले, निरपेक्ष हो, परिव्रजन करे।' Jain Education Intemational Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय १२१ - अध्ययन ६ : श्लोक १६, १७ १६. एसणासमिओ लज्जू एषणासमितो लज्जावान् एषणा-समिति से युक्त और लज्जावान् मुनि'५ गांवों गामे अणियओ चरे। ग्रामेऽनियतश्चरेत्। में अनियत चर्या करे। वह अप्रमत्त रहकर गृहस्थों अप्पमत्तो पमत्तेहिं अप्रमत्तः प्रमत्तेभ्यः से२ पिण्डपात की गवेषणा करे। पिंडवायं गवेसए ।। पिण्डपातं गवेषयेत् ।। १७. एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी एवं सो उदाहृतवान् अनुत्तरज्ञानी अनुत्तर-ज्ञानी, अनुत्तर-दर्शी, अनुत्तर-ज्ञानदर्शनधारी", अणुत्तरदंसी अनुत्तरदर्शी अर्हन, ज्ञातपुत्र, वैशालिक और व्याख्याता भगवान अणुत्तरनाणदंसणधरे। अनुत्तरज्ञानदर्शनधरः। ने ऐसा कहा है। अरहा नायपुत्ते अर्हन् ज्ञातपुत्रः भगवं वेसालिए वियाहिए।। भगवान् वैशालिको व्याख्याता।। -त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण: अध्ययन ६: क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय है। १. अविद्यावान् (अविज्जा) रखा और कहा-मेरे लिए घर, शय्या और स्त्री की व्यवस्था अविद्या शब्द के अनेक अर्थ हैं-आध्यात्मिक अज्ञान, करो। देखते-देखते वहां सब उपस्थित हो गए। उस चांडाल ने भान्ति या माया, अज्ञान, मिथ्यादर्शन, तत्त्वज्ञान का अभाव आदि। स्त्री के साथ भोग भोगा। प्रभात होते-होते विद्या का साहरण प्रस्तुत प्रकरण में चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं- किया और सब कुछ पूर्ववत् हो गया। अज्ञान और मिथ्यादर्शन।' शान्त्याचार्य के अनुसार इसके दो उस आलसी का मन ललचाया। उसने सोचा, व्यर्थ ही अर्थ ये हैं-तत्त्वज्ञान से शून्य, पर्याप्त ज्ञान से रहित। जिसमें परिभ्रमण से क्या? मैं इस चांडाल की सेवा कर घड़े को प्राप्त तत्त्वज्ञानात्मिका विद्या न हो उसे 'अविद्य' कहा जाता है। अविद्य कर लूं तो सब कुछ हो जाएगा। वह उस चांडाल की सेवा का अर्थ सर्वथा अज्ञानी नहीं, किन्तु अतत्त्वज्ञ है। जीव सर्वथा करने लगा। कुछ दिन बीते। एक दिन चांडाल ने पूछा- क्या ज्ञानशून्य होता ही नहीं। यदि ऐसा हो तो फिर जीव और अजीव चाहता है तू? वह बोला-आप जैसा जीवन जी रहे हैं, मैं भी में कोई भेद ही नहीं रह जाता। वैसा ही जीवन जीना चाहता हूं। चांडाल बोला-घड़ा लोगे या यहां 'अविद्या' का अर्थ मिथ्यादर्शन होना चाहिए। पतंजलि विद्या? उसने सोचा, विद्या साधने का कष्ट कौन करेगा। उसने के अनुसार अनित्य आदि में नित्य आदि की अनुभूति ‘अविद्या' कहा-घड़ा दो। उसे घड़ा मिल गया। वह घर पहुंचा। घड़े के प्रभाव से उसे सारी सामग्री मिली। एक दिन वह मद्यपान कर, २. वे सब दुःख को उत्पन्न करने वाले हैं (सव्वे घड़े को वह कंधे पर रख नाचने लगा। प्रमाद बढ़ा। घड़ा ते दुक्खसंभवा) जमीन पर गिरा और फूट गया। साथ ही साथ विद्या के प्रभाव सभा अविद्यावान् पुरुष दुःख को उत्पन्न करने वाले हैं। से होने वाली सारी लीला समाप्त हो गई। अब वह सोचने लगा. चूर्णिकार ने यहां एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है यदि मैं उस चांडाल से घड़ा न लेकर विद्या लेता तो कितना नातः परतरं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् । अच्छा होता ! पर अब..... । वह पुनः दरिद्रता के दुःखों से घिर यथाऽज्ञानमहारोग, सर्वरोगप्रणायकम् ।। गया। शान्त्याचार्य ने दुःख का अर्थ-पाप कर्म किया है। ३. बार-बार लुप्त होते हैं (लुप्पंति बहुसो मूढा) अज्ञान से होने वाले दुःख को समझाने के लिए व्याख्याकारों चूर्णि में 'लुप्पन्ति' का अर्थ है शारीरिक और मानसिक ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है-एक आलसी व्यक्ति गरीबी से दुःखों से बाधित होना। वृत्तिकार ने इसका अर्थ दरिद्रता आदि प्रताड़ित होकर घर से धन कमाने निकला। वह सभी नगरों और दुःखों से बाधित होना किया है। यहां मूढ़ का अर्थ हैगांवों में घूमा। उसे कहीं कुछ नहीं मिला। उसने घर की ओर तत्त्व-अतत्त्व के ज्ञान से शून्य, हित-अहित के विवेक से विकल। प्रस्थान किया। रास्ते में वह एक देव मंदिर में ठहरा। वह गांव ४. पाशों (बंधनों) व जातिपथों (पासजाई पहे) चांडालों का था। रात में उसने देखा, एक चांडाल मंदिर में आया चूर्णि में 'पास' का अर्थ 'पश्य' और 'जातिपथ' का अर्थ है। उसके हाथ में एक विचित्र घड़ा है। उसने घड़े को एक ओर चौरासी लाख जीवयोनि किया गया है। वृत्ति में 'पास' का अर्थ १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४७, १४८ : विद्यत इति विद्या, नैषां विद्या ५. बृहद्वृत्ति, पत्र २६२ : दुःखयतीति दुःखं पापं कर्म। अस्तीति अविद्या.......अविद्यादनं (नरा) मिथ्यादर्शनमित्यर्थः । ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४८। २. वृहद्वृत्ति, पत्र २६२ : वेदनं विद्या तत्त्वज्ञानात्मिका, न विद्या अविद्या- (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६२, २६३ । मिथ्यात्वोपहतकुत्सितज्ञानात्मिका, तत्प्रधानाः पुरुषाः अविद्यापुरुषाः, ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४६ : सारीरमाणसेहिं दुक्खेहिं लुपंति। अविद्यमाना वा विद्या येषां ते अविद्यापुरुषाः। इह च विद्या शब्देन . बृहद्वृत्ति, पत्र २६३ : लुप्यन्ते दारिद्रयादिभिर्बाध्यन्ते। प्रभूतश्रुतमुच्यते, न हि सर्वथा श्रुताभावः जीवस्य, अन्यथा अजीवत्वप्राप्तेः ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १४९ : मूढा-तत्त्वातचअजाणगा। उक्तं हि (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६२ : मूढा हिताहितविवेचनं प्रत्यसमाः । सव्वजीवाणंपि य अक्खरस्सऽणतभागो णिच्चुघाडितो। १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४९: पास ति पास, जायत इति जाती, जदि सोवि आवरिज्जेज्ज तो णं जीवो अजीवत्तणं पावेज्जा।। जातीनां पंथा जातिपंथाः, अतस्ते जातिपंथा बहुं 'चुलसीति खलु लोए ३. देखें इसी अध्ययन का आमुख। जोणीणं पमुहसयसहरसाई।' ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १४८ । Jain Education Intemational Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय १२३ अध्ययन ६ : श्लोक २ टि० ५, ६ 'स्त्री' आदि का संबंध है। वे एकेन्द्रिय आदि जातियों के मार्ग की गवेषणा का कोई अर्थ नहीं होता। वे चार हेतु हैंहोते हैं, अतः उन्हें जातिपथ कहा गया है। 'पाशजातिपथ' अर्थात् (१) किसी दूसरे के विकास के आधार पर सत्य मान लेना (२) एकेन्द्रिय आदि जातियों में ले जाने वाले स्त्री आदि के संबंध।' भय से (३) लोक-रंजन के लिए और (४) दूसरों के दबाव से।' हमने 'पास' और 'जाइपह' को असमस्त मानकर अनुवाद इसलिए कहा गया है.-सर्वदा सर्वत्र आत्मना-स्वयं किया है। आचार्य नेमिचन्द्र ने स्त्री आदि के संबंध के विषय में अपनी स्वतंत्र भावना से सत्य की मार्गणा करे। एक सुन्दर श्लोक उद्धृत किया है सच्च--चूर्णिकार ने सत्य का अर्थ संयम किया है। भार्या या निगड दत्त्वा, न सन्तुष्टः प्रजापतिः। वृत्तिकार ने सत् का अर्थ जीव और उसके लिए जो हितकर भूयोऽप्यपत्यदानेन, ददाति गलइखलाम् ॥ होता है, उसे सत्य कहा है। यथार्थ-ज्ञान और संयम जीव के प्रजापति ने मनुष्य को भार्यारूपी सांकल देकर भी संतोष लिए हितकर होते हैं। इसलिए ये सत्य कहलाते हैं। नहीं किया। उसने उसी मनुष्य को अनेक सन्तान देकर उसके चूर्णि और वृत्तिकार ने सत्य का जो अर्थ किया है वह गले में एक सांकल और डाल दी। आचारपरक है। सत्य का सम्बन्ध केवल आचार से ही नहीं है, ५. स्वयं सत्य की गवेषणा करे (अप्पणा सच्चमेसेज्जा) इसलिए व्यापक संदर्भ में सत्य के तीन अर्थ किए जा सकते इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति स्वयं सत्य की खोज करे। है (१) अस्तित्व' (२) संयम (३) ऋजुता। जैन दर्शन पुरुषार्थवादी दर्शन है। वह मानता है कि व्यक्ति-व्यक्ति चूर्णिकार ने नामोल्लेखपूर्वक नागार्जुनीय वाचना का को सत्य की खोज करनी चाहिए। दूसरों के द्वारा खोजा गया पाठांतर 'अत्तट्ठा सच्चमेसेज्जा' दिया। शान्त्याचार्य ने यह पाठांतर सत्य दूसरे के लिए प्रेरक बन सकता है, निमित्त कारण बन बिना किसी विशेष नाम के निर्दिष्ट किया है। इन दोनों का सकता है, पर उपादान कारण नहीं हो सकता। व्यक्ति निरन्तर मानना है कि इस पाठांतर में 'अत्तट्ठा' शब्द विशेष महत्त्व का सत्य की खोज करे, रुके नहीं। सत्य की खोज का द्वार बन्द न है। सत्य की खोज का प्रमुख उद्देश्य है 'स्व' । वह पर के लिए नहीं होती। वैदिक मानते हैं कि वेद ही प्रमाण हैं, परुष प्रमाण हो इस श्लोक का सार यह है कि सत्य की खोज स्वयं के नहीं सकता, क्योंकि वह सत्य को साक्षात देख नहीं सकता- लिए स्वयं करो। सत्य की खोज वही व्यक्ति कर सकता है जो 'तस्मादतीन्द्रियार्थानां साक्षाद द्रष्टरभावतः। नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो बंधनों की समीक्षा में पंडित है, हित-अहित की विवेक-चेतना यथार्थत्वविनिश्चयः।' जैन परम्परा मानती है-ग्रन्थ प्रमाण नहीं का धनी हो। सत्य को वही पा सकता है जो स्वतंत्र चेतना से होता, प्रमाण होता है पुरुष। सर्वज्ञ थे, हैं और होंगे। सर्वज्ञता उसका शाथ करता ह। सत्य-शाध का नवनात ह–विश् की नास्ति नहीं मानी जा सकती। सर्वभूतमैत्री। सत्य की खोज के विषय में वैज्ञानिक अवधारणा भी यही ६. आचरण कर (कप्पए) है। दूसरे वैज्ञानिकों ने जो खोजा है, उससे आगे बढ़ो और सत्य चूर्णिकार ने 'कल्प' शब्द के छह अर्थ निर्दिष्ट किए हैं:के एक नए पर्याय को अभिव्यक्ति दो। खोज खोज है। उसमें १. सामर्थ्य आठवें मास में वृत्ति या जीविका में समर्थ निर्माणात्मक तत्त्व भी प्राप्त हो सकते हैं और विध्वंसात्मक तत्त्व होना। भी मिल सकते हैं। सत्य की खोज में भी यही लागू होता है। पर २. वर्णन-विस्तार से वर्णन करने वाला सूत्र-कल्पसूत्र। जो व्यक्ति 'मित्ति मे सव्वभूएसु'–विश्व-मैत्री का सूत्र लेकर ३. छेदन-चार अंगुलमात्र केशों को छोड़कर आगे के चलता है, वह खोजी कहीं विमूढ़ नहीं होता। वह विध्वंस को भी केशों की कप्पति—काटना। निर्माण में बदल देता है। ४. करण करना। चूर्णिकार के अनुसार चार हेतुओं से की जाने वाली सत्य ५. औपम्य-चांद और सूर्य जैसे साधु । १. बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ : पाशा-अत्यन्तपारवश्यहेतवः, कलत्रादिसम्बन्धास्त एव तीव्रमोहोदयादिहेतुतया जातीनाम्-एकेन्द्रियादिजातीनां पन्थान: तत्प्रापकत्वान् मार्गाः पाशजातिपथाः तान्। २. सुखबोधा वृत्ति, पत्र ११२।। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४९ : मा भूत् कस्यचित् परप्रत्ययात् सत्यग्रहणं, तथा परो भयात् लोकरंजनार्थ पराभियोगाद् वा। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १४६ : सच्चो संजमो...। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ : सद्भ्यो-जीवादिभ्यो हितः-सम्यग रक्षण प्ररूपणादिभिः सत्यः-संयमः सदागमो वा। ६. तत्त्वार्थ ५३० : उत्पाद-व्यय-धीव्ययुक्तं सत्। ७. ठाणं ४११०२ : चउविहे सच्चे पण्णते-काउजुयया, भासुज्जुयया भावुज्जुयया, अविसंवायणाजोगे। ८. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०१४६ : नागार्जुनीयानां अत्तट्टा सच्चमेसेज्जा।' (ख) बृहवृत्ति, पत्र २६४। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १४६, १५०: कल्पनाशब्दोप्यनेकार्थः, तद्यथा-- सामर्थ्य वर्णनायां च, छेदणे करणे तथा। औपम्ये चाधिवासे च, कल्पशब्द विदुर्बुधाः ।। सामर्थ्य अट्ठममासे वित्तीकप्पो भवति, वर्णने विस्तरतः सूत्रं कल्पं, छेदने चतुरंगुलवज्जे अग्गकेसे कप्पति, करणे 'न वृत्तिं चिन्तयेत् प्रातः, धर्ममेवानुचिन्तयेत् । जन्मप्रभृतिभूतानां, वृत्तिरायश्च कल्पितम्।। औपम्ये यथा चन्द्राऽदित्यकल्पाः साधवः, अधिवासे जहा सोहम्मकप्पवासी देवो। Jain Education Intemational Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १२४ अध्ययन ६ : श्लोक ४-६ टि० ७-१३ ६. अधिवास—सौधकर्मकल्पवासी देव। १२. जीवन की आशंसा (अज्झत्थं) प्रस्तुत प्रसंग में 'कल्प' शब्द का प्रयोग 'करण'—करने अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है--आत्मा में होने वाला। के अर्थ में है। प्राणी में कुछ मौलिक मनोवृत्तियां या संज्ञाएं होती हैं। वे सबमें ७. सम्यग् दर्शन वाला पुरुष (समियदंसणे) समान रूप से मिलती हैं। जीवन की आशंसा या इच्छा एक जिसका मिथ्यादर्शन शमित हो गया हो उसे शमितदर्शन मौलिक मनोवृत्ति है। यहां 'अध्यात्म' शब्द के द्वारा वही विवक्षित अथवा जिसे दर्शन समित—प्राप्त हुआ हो उसे समितदर्शन कहा है। वह व्यापक है, इसलिए उसे 'सव्वओ सव्वं' (सर्वतः सर्व) जाता है। इन दोनों का अर्थ है--सम्यग्दृष्टि संपन्न व्यक्ति। कहा गया है। चूर्णिकार ने वैकल्पिक रूप से इसे संबोधन भी माना है। 'अज्झत्थ' के स्थान पर 'अब्भत्थ' शब्द का प्रयोग भी ८. अपनी प्रेक्षा से (सपेहाए) मिलता है। दोनों समानार्थक हैं। चूर्णि में इसका अर्थ 'सम्यक्बुद्धि' से है। शान्त्याचार्य ने १३. सब प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है (पियायए) इसके दो अर्थ किए हैं—सम्यक्-बुद्धि से अथवा अपनी बुद्धि चूर्णि और वृत्तियों में इसकी व्याख्या प्रियात्मक या प्रियदय से। नेमिचन्द्र ने केवल अपनी बुद्धि से' किया है। यही शब्द के रूप में की गई है।२ सरपेन्टियर ने इस शब्द की मीमांसा ७।१६ में आया है। वहां इसका अर्थ 'सम्यक्-आलोचना करके' करते हए लिखा है कि पाली साहित्य में 'पियायति' धातु का किया गया है। अपनी बुद्धि से—यह अर्थ अधिक उपयुक्त है। प्रयोग मिलता है, जिसका अर्थ है चाहना, उपासना करना, ९. देखे (पासे) सत्कार करना आदि और संभव है यही क्रिया जैन-महाराष्ट्री में चूर्णि में इसका अर्थ 'पाश'—बंधन है। वृत्तिकार ने इसे भी आई हो। अतः इस धातु के 'पियायइ', 'पियाएइ' रूप भी क्रियापद मानकर इसका अर्थ--देखे, अवधारण करे-किया सहज गम्य हो जाता है। इस रूप को मानने पर ही प्रथम दो है। यही अर्थ प्रासंगिक लगता है। चरणों का अर्थ सहज सुगम हो जाता है। १०. गृद्धि और स्नेह (गेहिं सिणेह) यदि हम टीकाकारों का अनुसरण करते हैं तो हमें 'दिस्स' _ गृद्धि का अर्थ है-आसक्ति। वह पशु, धन, धान्य आदि शब्द को दोनों ओर जोड़ना पड़ता है और यदि हम 'पियायए' के प्रति होती है। स्नेह परिवार, मित्र आदि के प्रति होता है।० को धातु मान लेते हैं तो ऐसा नहीं करना पड़ता और अर्थ में गृद्धि किसी मनुष्य के प्रति नहीं हो सकती। यहां गृद्धि भी विपर्यास नहीं होता। इसके अनुसार 'पाणे पियायए' का अर्थ और स्नेह-दोनों शब्द प्रयुक्त हैं। इसलिए उनमें यह भेदरेखा होगा-प्राणियों के साथ मैत्री करे। की गई है। किन्तु आचारांग के-सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया, ११. दास और कर्मकरों का समूह (दासपोरुसं) दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा, पियजीविणो, जीविउकामा, सव्वेसिं _ इसमें दो शब्द हैं-दास और पौरुस । दास का अर्थ है- जीवियं पियं (२।६३, ६४) के संदर्भ में इस श्लोक को पढ़ते हैं जो घर की दासी से उत्पन्न हैं अथवा क्रीत हैं, वे दास कहलाते तो 'पियायए' का अर्थ प्रियायुष् (प्रियायुषः) संभव लगता है और हैं। 'पौरुष' का अर्थ है-पुरुषों का समूह अर्थात् कर्मकरों का अर्थसंगति की दृष्टि से भी यह उचित है। 'पियायए'-यहां समूह। पियाउए पाठ की परावृत्ति हुई है—ऐसा लगता है। शान्त्याचार्य ने वैकल्पिक रूप से 'दासपोरुस' को समस्त आचारांग वृत्ति में 'सव्वे पाणा पियाउया' का पाठान्तर पंद मानकर इसका अर्थ-दास पुरुषों का समूह किया है।" है-'सव्वे पाणा पियायया'। शीलांकसूरि ने 'पियायया' का विस्तार के लिए देखें-३१६ का टिप्पण। । अर्थ-जिन्हें अपनी आत्मा प्रिय हो वे प्राणी किया है। पर १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट १५० : अत्र करण कल्पः शब्दः । २. बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ : शमितं दर्शनं प्रस्तावात् मिथ्यात्वात्मकं येन स तथोक्तः, यदि वा सम्यक् इतं-गतं जीवादिपदार्थेषु दर्शनं दृष्टिरस्येति समितदर्शनः । कोऽर्थः ? सम्यग्दृष्टिः। . ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १५१: .....आमन्त्रणे वा। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १५० : सम्यकप्रेक्षया सपेहाए। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ : 'सपेहाए' त्ति प्राकृतत्वात् संप्रेक्षया-सम्यग्बुढ्या स्वप्रेक्षया वा। ६. सुखबोधा, पत्र ११२ : स्वप्रेक्षया स्वबुद्धया। ७. सुखबोधा, पत्र १२१ : 'सपेहाए' त्ति सम्प्रेक्ष्य-सम्यगालोच्य। ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ १५० : पाश्यतेऽनेनेति पाशः। ६. बृहवृत्ति, पत्र २६४ : पासे त्ति पश्येदवधारयेत्। १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५१ : गृद्धिः द्रव्यगोमहिष्यजाविकाधनधान्यादिषु, स्नेहस्तु बान्धवेषु। ११. बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ : यद् वा दासपोरुसं ति दासपुरुषाणां समूहो दासपौरुषं। १२. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ १५१ : "पियायए' प्रिय आत्मा येषां ते प्रियात्मानः। (ख) बृहवृत्ति, पत्र २६५ : 'पयादए' त्ति आत्मवत् सुखप्रियत्वेन प्रिया दया-रक्षणं येषां तान् प्रियदयान्, प्रियआत्मा येषां तान् प्रियात्मकान् वा। (ग) सुखबोधा, पत्र ११२ । १३. उत्तराध्ययन, पृ० ३०३। १४. आयारो २६३, वृत्ति पत्र, ११०, १११ : पाठान्तर वा 'सव्वेपाणा पियायया', आयतः--आत्माऽनाद्यनन्तत्वात् स प्रिये येषां ते तथा सर्वेपि प्राणिनः प्रियात्मानः । Jain Education Intemational Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय १२५ अध्ययन ६ : श्लोक ७-८ टि० १४-१५ पियायया प्रथमा का बहुवचन है और पियायए द्वितीया का जुगुप्सा करने वाला । तात्पर्यार्थ में 'दोगुंछी' का अर्थ है—अहिंसक, बहुवचन। इस प्रकार घूम-फिर कर हम फिर 'पियायय' के करुणाशील । जो संयमी होता है उसमें ये दोनों गुण होते हैं। प्रियात्मक अर्थ पर ही आ पहुंचते हैं। १७. अपने पात्र में गृहस्थ द्वारा प्रदत्त (अप्पणो पाए दिन्न) १४. (श्लोक ६) चूर्णिकार ने कहा है-संयमी-जीवन के निर्वाह के लिए प्रस्तुत श्लोक में हिंसा से उपरत रहने का निर्देश दिया पात्र आवश्यक है। वह परिग्रह नहीं है।' मुनि अपने पात्र में गया है। उसके मुख्य हेतु हैं भोजन करे, गृहस्थ के पात्र में भोजन न करे। इसके समर्थन १. जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही सभी प्राणियों को में शान्त्याचार्य ने “पच्छाकम्मं पुरेकम्मं" (दशवैकालिक ६।५२) सुख प्रिय है। श्लोक उद्धृत किया है। उन्होंने इस उद्धरण के पूर्व 'शय्यम्भवाचार्य' २. जैसे मुझे अपना जीवन प्रिय है, वैसे ही सभी का उल्लेख किया है। प्राणियों को अपना-अपना जीवन प्रिय है। _ 'पाए दिन्नं'-मिलाइए-बौद्धों का छट्ठा धुतांग 'पात्रदशवकालिक ६/१० में कहा है-'सब्वे जीवा वि इच्छंति पिंडिकांग'। (विशुद्धि मार्ग १२, पृ०६०) जीविउं न मरिज्जिउं'-सब प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई १८. तत्त्व को (आयरियं) नहीं चाहता। इसलिए किसी को किसी प्राणी को मारने का अधि चूर्णिकार ने इसका संस्कृत रूप 'आचरितं' और शान्त्याचार्य कार नहीं है। ने 'आर्यम्' किया है। नेमिचन्द्र ने 'आयारियं' पाठ मानकर हिंसा करने के अनेक कारण हैं। उनमें ये दो कारण और इसका संस्कृत रूप 'आचारिकम्' किया है। आचारित का अर्थ आचार", आर्य का अर्थ तत्त्व और आचारिक का अर्थ १. व्यक्ति भय के कारण हिंसा करता है। अपने-अपने आचार में होने वाला अनुष्ठान है। २. व्यक्ति वैर के वशीभूत होकर प्रतिशोध की भावना से डॉ० हरमन जेकोबी ने पूर्व व्याख्याओं को अमान्य किया हिंसा में प्रवृत होता है। है। वे इसका अर्थ 'आचार्य' करते हैं। अहिंसा की अराधना के लिए हिंसा के सभी कारणों से आयरिय' के संस्कत रूप आचरित और आचार्य दोनों निवृत्त होना होता है। हो सकते हैं, इसलिए आचरित को अमान्य करने का कोई १५. परिग्रह नरक है (आयाणं नरयं) कारण प्राप्त नहीं है। किन्तु इस श्लोक में ऐकान्तिक ज्ञानवाद का आदान का अर्थ है-परिग्रह । वह नरक का हेतु है, इसलिए निरसन है। सांख्य आदि तत्त्वज्ञता, भेदज्ञान या विवेकज्ञान से कारण में कार्य का उपचार कर परिग्रह को नरक कह दिया गया मोक्ष मानते हैं। उनकी सुप्रसिद्ध उक्ति है-- है। इसका दूसरा अर्थ यह किया जा सकता है-अदत्त का पंचविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र तात्रमे रतः। आदान नरक है।' आयारों में हिंसा को नरक कहा है। शिखी मुण्डी जटी वापि, मुच्यते नात्र संशयः।। १६. अहिंसक या करुणाशील मुनि (दोगुंछी) 'आर्य' का अर्थ तत्त्व भी है इसलिए प्रकरण की दृष्टि चूर्णिकार के अनुसार जुगुप्सा का अर्थ 'संयम' है। जो से शान्त्याचार्य की व्याख्या अनुपयुक्त नहीं है। वे 'आयरित' असंयम से जुगुप्सा करता है वह जुगुप्सी है। के संस्कृत रूप 'आर्य' होने में स्वयं संदिग्ध थे, इसलिए शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ-आहार किए उन्होंने इस प्रयोग को सौत्रिक बतलाया। 'आयारिय' का बिना धर्म करने में असमर्थ शरीर से जुगुप्सा करने वाला- संस्कृत रूप आकारित भी होता है। आकारित अर्थात् किया है। आहान-वचन। कुछ लोग केवल आहान-वचनों-मंत्रों के जप ___पहले अर्थ की ध्वनि है-असंयम के प्रति जुगुप्सा करने से सर्वदुःख मानते हैं, प्रत्याख्यान या संयम करना आवश्यक वाला और दूसरे की ध्वनि है.-शरीर की असमर्थता के प्रति नहीं मानते। 'आयारिय' पाठ के आधार पर यह व्याख्या भी १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५२ । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : पात्रग्रहणं तु व्याख्याद्वयेऽपि मा भूत निष्परिग्रहतया (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६६। पात्रस्याप्यग्रहणमिति कस्यचिद् व्यामोह इति ख्यापनार्थ, तदपरिग्रहे हि २. आयारो १२५। तपाविधलब्ध्याद्यभावेन पाणिभोक्तृत्वाभावाद्गृहिभाजन एव भोजनं भवेत, ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०१५२: दुगुंछा.संजमो, किं दुग्छति? असंजमम्। तत्र च बहुदोषसम्भवः, तथा च शय्यम्भवाचार्य:४. (क) बृहवृत्ति, पत्र २६६ : जुगुप्सते आत्मानमाहार बिना पच्छाकम्मं पुरेकम्म, सिया तत्थ ण कप्पइ। धर्मधुराधरणाक्षममित्येवंशीलो जुगुप्सी। एयमझें ण भुंजंति, णिग्गंथा गिहिभायणे।। (ख) सुखबोधा, पत्र ११२ । ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५२ : आचारो निविष्टमाचरितं, आचारणीयं वा। ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५२ : पाति जीवानात्मानं वा तेनेति पात्र, ८. बृहवृत्ति, पत्र २६६ : 'आयरियं' ति सूत्रत्वात आराद्यातं सर्वकयक्तिभ्य आत्मीयपात्रग्रहणात् मा भूत्कश्चित्परपात्रे गुहीत्वा भक्षयति तेन पात्रग्रहणं, इत्यार्य तत्त्वम्। ण सो परिग्गह इति। ६. सुखबोधा, पत्र ११३ : 'आचारिक' निजनिजाऽचारभवमनूष्ठानमेव । 90. Sacred Books of the East. Vol. XLV, Uttarādyayana, P. 25. Jain Education Intemational Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १२६ अध्ययन ६ : श्लोक १०-१३ टि० १६-२५ हो सकती है। लगता है। १९. विविध (चित्ता) २४. बाह्य-शरीर से भिन्न ऊर्ध्व-आत्मा है, इसे चित्रा' भाषा का विशेषण है। वह धातु, उपसर्ग, संधि, स्वीकार कर (बहिया उड्ढमादाय) तद्धित, काल, प्रत्यय, प्रकृति, लोप, आगम आदि भेदों से बहिया–बाह्य । यह इन्द्रिय-जगत् का वाचक है। उडूढंविभिन्न शब्दों वाली', अथवा प्राकृत, संस्कृत आदि विभिन्न रूपों ऊध्वं । यह आत्म-जगत् का वाचक है। जो व्यक्ति इन्द्रिय-जगत् वाली होती है इसलिए उसे विचित्र कहा गया है।' में जीता है, वह विषयों की आकांक्षा न करे, यह कभी संभव २०. विद्या का अनुशासन (विज्जाणुसासणं) नहीं है। क्योंकि इस जगत् में विषयों के आधार पर ही जीवन - इसका अर्थ है--मंत्र आदि का शिक्षण। डॉ० हरमन की ऊंचाई और नीचाई मापी जाती है। पर जो व्यक्ति जेकोबी ने इसका अर्थ-दार्शनिक शिक्षण किया है। इन्द्रिय-जगत् से परे हटकर ऊर्ध्व-मोक्ष को अपना लक्ष्य २१. (श्लोक ११) बनाकर चलता है, वह विषयों से विरक्त होता है, उनसे _ 'मन, वचन और काया से शरीर में आसक्त होते हैं। इसे आकर्षित नहीं होता। वह विषयों को भोगता है, पर उनसे स्पष्ट करते हुए नेमिचन्द्र ने कहा है-'हम सुन्दर और मोटे बंधता नहीं। शरीर वाले कैसे बनें'-मन से सतत यह चिन्तन करना, काया संसार का सारा व्यवहार पदार्थाश्रित है। जीवन पदार्थों पर से सदा रसायन आदि का उपयोग कर शरीर को बलिष्ट बनाने आधृत है। ऐसी स्थिति में उनको सर्वथा नकारना किसी के वश का प्रयत्न करना और वाणी से रसायन आदि से सम्बन्धित की बात नहीं है। परन्तु जो ऊर्ध्वलक्षी होता है वह पदार्थों को प्रश्न करते रहना आसक्ति है। देहासक्ति पदार्थासक्ति का मल काम में लेता हुआ भी उनसे अभिष्वंग नहीं करता और जो कारण है। जो देहासक्ति से बचता है वह पदार्थों के प्रति इन्द्रिय-चेतना के स्तर पर जीता है वह उनसे बंध जाता है। अनासक्त रह सकता है। सूत्रकृतांग सूत्र का यह वाक्य 'माणसे खलु दुल्लहे' इसी २२. जन्म-मरण के लंबे मार्ग को (दीहमद्धाणं) बात का साक्ष्य है कि लक्ष्य की ऊर्ध्वता के कारण ही मनुष्य जन्म चूर्णिकार ने यहां एक श्लोक उद्धृत किया है की दुर्लभता है, इसलिए इसकी रक्षा वांछनीय है। 'प्रपन्ना दीर्घ मध्वानमनादिकमनन्तकम्। लोकायत मानते हैं कि 'ऊर्ध्व देहात् पुरुषो न विद्यते, देह स तु कर्मभिरापन्न: हिंसादेरुपचीयते॥' एव आत्मा'-देह से ऊर्ध्व-परे कोई आत्मा नहीं है, देह ही २३. सब दिशाओं (सव्वदिसं)। आत्मा है। इसका निरसन करते हुए सूत्रकार ने कहा है 'बहिया उड्ढं'-शरीर से परे भी आत्मा है। यह चूर्णि की दिशा शब्द के दो अर्थ किए जा सकते हैं-१. दृष्टिकोण, व्याख्या है। वृत्ति के अनुसार 'बहिया उड्ढं' का अर्थ मोक्ष है। २. उत्पत्ति-स्थान। चूर्णि और वृत्ति में दिशा शब्द से समस्त जो संसार से बहिर्भूत है और सबसे ऊर्ध्ववर्ती है, उसे 'बहिः भाव-दिशाओं का ग्रहण किया गया है। भाव-दिशा अठारह प्रकार ऊर्ध्व' कहा जाता है। की है। जैसे-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, मूलबीज, २५. किसी प्रकार की आकांक्षा न करे (नावकंखे कयाइ वि) स्कंधबीज, अग्रबीज, पर्वबीज, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, नारक, देव, सम्मूर्च्छनज, कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, व्यक्ति ऊर्ध्वलक्षी होकर, मोक्ष को अपना लक्ष बनाकर अन्तर-द्वीपज। किसी भी स्थिति में, कहीं भी विषयों के प्रति आसक्त न हो। ज्ञानवाद और क्रियावाद की दृष्टि से विमर्श करें तो 'दिशा' उपसर्ग और परीषहों से प्रताड़ित होने पर भी वह विषयाभिमुख का अर्थ दृष्टिकोण होना चाहिए। कोरा ज्ञानवादी अप्रमत्त नहीं हो रहा। सकता। अप्रमत्त होने के लिए ज्ञान और क्रिया-दोनों का यहां एक प्रश्न उभरता है कि यदि यह यथार्थ है तो फिर समन्वय आवश्यक है। शरीर को धारण करना भी अयुक्त ही होगा, क्योंकि इसके प्रति प्रस्तुत प्रसंग में 'दिशा' का अर्थ दृष्टिकोण ही समीचीन भी आकांक्षा या आसक्ति होती है। शरीर भी आत्मा से बाह्य है। १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५३ : चित्रानाम धातूपसर्गसंधितद्धितकालप्रत्ययप्रकृतिलोपापगमविशुद्ध्या। बृहद्वृत्ति, पत्र २६७ : 'चित्रा' प्राकृतसंस्कृतादिरूपा आर्यविषयं ज्ञानमेव मुक्त्यगंमित्यादिका वा। बृहवृत्ति, पत्र २६७ : विदन्त्यनया तत्त्वमिति विद्या-विचित्रमंत्रात्मिका तस्या अनुशासनं—शिक्षणं विद्यानुशासनम् । ४. Sacred Books of the East, Vol. XLV, Uttaradhyayana, P. 26, ५. सुखबोधा, पत्र ११३, ११४ । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५४ । ७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५४। (ख) बृहवृत्ति, पत्र २६८ : पुढविजलजलणवाया मूला खंधग्गपोरबीया य। बितिचउपणिंदितिरिया य नारया देवसंघाया।। सम्मुच्छिम कम्माकम्मभूमिगणरातहतरद्दीवा। भावदिसा दिस्सइ जं संसारी णियगमेयाहिं।। ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५५ । ६. बृहदृत्ति, पत्र २६८। Jain Education Intemational Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय १२७ अध्ययन ६ : श्लोक १४-१६ टि० २६-३२ इसका उत्तर अगले दो चरणों में दिया गया है। ३०. (सन्निहिं च कुव्वेज्जा, लेवमायाए संजए) २६. (पुव्वकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे) सन्निधि का अर्थ है—अशन आदि को स्थापित करके प्रस्तुत दो चरणों में शरीर के धारण और पोषण करने का रखना, दूसरे दिन के लिए संग्रह करना। सटीक उत्तर है। शरीर को धारण करने का और उसको उचित निशीथ चूर्णि में थोड़े समय के बाद विकृत हो जाने वाले आहार से पुष्ट रखने का एकमात्र उद्देश्य है कि पूर्वसंचित कर्मों दूध, दही आदि के संग्रह को सन्निधि और चिरकाल तक न का क्षय किया जा सके और संयम की पालना से नए कर्मों को बिगड़ने वाले घी, तेल आदि के संग्रह को संचय कहा है।० रोका जा सके। शरीर-धारण का यह आध्यात्मिक अथवा परमार्थिक लेप मात्र का अर्थ है-जितनी वस्तु से पात्र पर लेप लगे हेतु है। उतनी मात्रा। मात्रा शब्द के अनेक अर्थ होते हैं२७. कर्म के हेतुओं (कम्मणो हेउ) ईषदर्थ क्रियायोगे, मर्यादायां परिच्छदे। चूर्णिकार ने अविद्या और राग-द्वेष को कर्मबंध का हेतु परिमाणे घने चेति, मात्रा शब्दः प्रकीर्तितः।। माना है।' वृत्ति के अनुसार कर्मबंध के उपादान हेतु हैं- यहां मात्रा शब्द परिमाण के अर्थ में है।" शान्त्याचार्य ने मिथ्यात्व और अविरति। इसे मर्यादा के अर्थ में भी माना है। उनके अनुसार इसका अर्थ २८. मृत्यु की प्रतीक्षा (कालकंखी) होगा—मुनि अपने काष्ट पात्र पर गाढ़े तेल या रोगन आदि का चर्णिकार ने इसका अर्थ-पण्डित-मरण के काल की लेप लगाए। उसके अतिरिक्त किसी प्रकार की सन्निधि न आकांक्षा करने वाला अर्थात आजीवन संयम की इच्छा करने रखें। वाला--किया है। ३१. (पक्खी पत्तं समादाय रिवेक्खो परिव्वए) शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ क्रियोचित काल यहां ‘पत्त' शब्द में श्लेष है। इसके दो अर्थ होते हैं--पत्र की आकांक्षा करने वाले किया है। 'कालकंखी परिव्वए'—ये दो (पंख) और भिक्षा-पात्र। चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है-जैसे शब्द आचारांग १३३८ में ज्यों-के-त्यों आए हैं। पक्षी अपने पंखों को साथ लिए उड़ता है, इसलिए उसे पीछे की २९. आहार और पानी की (पिंडस्स पाणस्स) कोई अपेक्षा चिन्ता नहीं होती, वैसे ही भिक्षु अपने पात्र आदि इस श्लोक में केवल दो शब्द-पिण्ड और पान आये हैं। उपकरणों को जहां जाए वहां साथ ले जाए, संग्रह करके कहीं अन्यत्र अनेक स्थानों पर-असणं, पाणं. खाइम, साइम-ऐसे रखे नहीं अर्थात पीछे की चिन्ता से मक्त होकर निरपेक्ष टोकर चार शब्द आते हैं। चूर्णिकार ने पिण्ड शब्द को अशन, खाद्य विहार करे। और स्वाद्य-इन तीनों का सूचक माना है।' मुनि खाद्य और वृत्तिकारों ने इसका तात्पर्यार्थ किया है कि संयमोपकारी स्वाद्य का प्रायः उपभोग नहीं करते, ऐसा वृत्तिकारों का अभिमत पात्र आदि उपकरणों की सन्निधि करने में दोष नहीं है।" है। अभयदेव सूरि ने भी स्थानांग वृत्ति में ऐसा मत प्रकट किया शान्त्याचार्य ने वैकल्पिक अर्थ में 'पत्त' को पात्र मानकर है। चौदह प्रकार के दान जो बतलाये हैं उनमें खाद्य, स्वाद्य भी व्याख्या की है। हमारा अनुवाद इसी पर आधारित है।" सम्मिलित हैं। इन दोनों प्रकारों के उल्लेखों से यही जान पड़ता ३२. लज्जावान् मुनि (लज्ज) है कि इनका ऐकान्तिक निषेध नहीं है। चूर्णि में इसका अर्थ लज्जावान् है। वृत्तिकार ने इसे १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५५ । २. बृहद्वृत्ति, पत्र २६८ : कम्मणो-ज्ञानावरणादेः, हेतु-उपादान कारणं मिथ्यात्वाविरत्यादि। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५५ : कालनाम यावदायुषः तं पंडितमरणकालं काक्षमाणः। ४. (क) बृहवृत्ति, पत्र १६८, १६६ : कालं अनुष्ठानप्रस्तावं काश्त इत्येवंशीलः कालकांक्षी। (ख) सुखबोधा, पत्र ११४ । ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५५ : पिण्डग्रहणात् त्रिविध आहारः। ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : 'पिण्डस्य' ओदनादेरन्नस्य 'पानस्य च' आयामादेः, खायस्वाद्यानुपादानं च यतेः प्रायस्तत्परिभोगासम्भवात्। (ख) सुखबोधा, पत्र ११५ । ठाणं ६३ : णो पाणभोयणस्स....., वृत्ति, पत्र ४२२ : खाद्यस्वाद्ययोरुत्सर्गतो यतीनामयोग्यत्वात्पानभोजनयोर्ग्रहणमिति। उपासकदसा २ : असणपाणखाइमसाइमेणं....पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६: सन्निधिः-प्रातरिद भविष्यतीत्याद्यभिसन्धितोऽतिरिक्ताशनादिस्थापनम् । १०. निशीथ चूर्णि, उद्देशक ८, सूत्र १८ । ११. सुखबोधा, पत्र ११४ : लेपमात्रया' यावतापात्रमुपलिप्यते तावत्परिमाणमपि । १२. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : लेपः-शकटाक्षादिनिष्पादितः पात्रगतः परिगृह्यते, तस्य मात्रा-मर्यादा, मात्राशब्दस्य मर्यादावाचित्वेनापि रूढत्वात्... लेपमात्रतया, किमुक्तं भवति?-लेपमेकं मर्यादीकत्य न स्वल्पमप्यन्यत् सन्निदधीत। १३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५६ : यथाऽसी पक्षी तं पत्रभारं समादाय गच्छति एवमुपकरणं भिक्षुरादाय णिरवेक्खी परिव्यए। १४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : तथा च प्रतिदिनमसंयमपलिमन्थभीरुतया पात्रायुपकरणसन्निधिकरणेऽपि न दोषः । (ख) सुखबोथा, पत्र ११५ । १५. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : पक्षीव निरपेक्षः, पात्रं पतद्ग्रहादिभाजनमर्थात्तन्निर्योग च समादाय व्रजेद्-भिक्षार्थं पर्यटेद्, इदमुक्तं भवति-मधुकरवृत्या हि तस्य निर्वहणं, तत्किं तस्य सन्निथिना? १६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५६ । Jain Education Intemational Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १२८ अध्ययन ६ : श्लोक १७ टि० ३३-३७ आर्ष प्रयोग मानकर इसका अर्थ यति-मुनि किया है। लज्जा ३६. ज्ञातपुत्र (नायपुत्ते) -संयम। संयम के प्रति अनन्य उपयोगवान् होने के चूर्णि में नायपुत्त का अर्थ-ज्ञातकुल में प्रसूत सिद्धार्थ कारण यति 'लज्जू' कहलाता है।' सुखबोधा में इसका अर्थ क्षत्रिय के पुत्र है।' वृत्तियों में ज्ञात का अर्थ उदार क्षत्रिय, 'संयमी' है। प्रकरण वश सिद्धार्थ किया गया है। ज्ञातपुत्र अर्थात् सिद्धार्थ-पुत्र।' ३३. अप्रमत्त रहकर गृहस्थों से (अप्पमत्तो पमत्तेहिं) आचारांग में भगवान् के पिता को काश्यपगोत्री कहा गया है।" यहां अप्रमत्त और प्रमत्त-दोनों शब्द सापेक्ष हैं। अप्रमत्त भगवान् इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए, यह भी माना जाता है। का प्रयोग अप्रमत्त-संयती (सप्तम गुणस्थानवर्ती) के अर्थ में नहीं भगवान् ऋषभ इक्ष्वाकुवंशी और काश्यपगोत्री थे। इसीलिए वे है, किन्तु प्रमादरहित जागरूक संयती के अर्थ में है। प्रमत्त शब्द आदि-काश्यप कहलाते हैं। भगवान् महावीर भी इक्ष्वाकुवंशी का प्रयोग गृहस्थ के अर्थ में किया गया है। और काश्यपगोत्री थे। 'ज्ञात' काश्यपगोत्रियों का कोई अवान्तर ३४. (श्लोक १६) भेद था या सिद्धार्थ का ही कोई दूसरा नाम था अथवा 'नाय' का प्रस्तुत श्लोक में मुनि की निरपेक्षता निर्दिष्ट है। उसके मूल अर्थ समझने में भ्रम हुआ है। हो सकता है उसका अर्थ हेतु ये हैं नाग हो और ज्ञात समझ लिया गया हो। १. एषणा समिति में उपयुक्त होना। वज्जी देश के शासक लिच्छवियों के नौ गण थे। ज्ञात या २. गांव, नगर आदि में अनियत चर्या करना। नाग उन्हीं का एक भेद था। देखें-दशवैकालिक ६।२० का ३. अप्रमत्त रहना। टिप्पण। ३५. अनुत्तर ज्ञानदर्शनधारी (अणुत्तरनाणदंसणघरे) ३७. वैशालिक (वेसालिए) प्रस्तुत श्लोक में इस पद से पूर्व 'अणूत्तरणाणी चूर्णिकार ने वैशालिक के कई अर्थ किए हैं-जिसके गुण अणुत्तरदंसी'-ये दो विशेषण आ चुके हैं। इसलिए यह प्रश्न विशाल हों, जो विशाल इक्ष्वाकुवंश में जन्मा हो, जिसकी माता अस्वाभाविक नहीं है कि पुनः इन्हीं दो विशेषणों की क्या वैशाली हो, जिसका कुल विशाल हो, उसे वैशालिक कहा जाता उपयोगिता है? क्या यह पुनरुक्त दोष नहीं है? है। इसके संस्कृत रूप वैशालीयः, वैशालियः, विशालिकः, विशालीयः समाधान में वृत्तिकार ने कहा है कि अनुत्तर ज्ञान और और वैशालिकः हैं। दर्शन लब्धिरूप में एक साथ रहते हैं, किन्तु इनका उपयोग जैनागों में स्थान-स्थान पर भगवान महावीर को 'बेसालिय' युगपत् एक साथ नहीं होता। ज्ञान और दर्शन की भिन्नकालता कहकर सम्बोधित किया गया है। इसका कारण यह है कि अनुत्तरज्ञानी और अनुत्तरदर्शी-इन दो पदों के पृथक कथन से __भगवान् का जन्म स्थान कुण्डग्राम था। वह वैशाली के पास था। स्पष्ट है। यह उपयोग की दृष्टि से प्रतिपादित है। लब्धिरूप में जन्म-स्थान के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर एक मत नहीं इन दोनों की युगपत् अवस्थिति में भिन्नकालता स्वीकृत नहीं है। हैं परन्तु वैसालिय शब्द पर ध्यान जाते ही वैशाली की याद आ इसी व्यामोह को दूर करने के लिए यह विशेषण जाती है। 'अणुत्तरनाणदंसणधरे' पुनरुक्त नहीं है, एक विशेष अवस्था का भगवान् की माता त्रिशला वैशाली गणराज्य के अधिपति द्योतक है। चेटक की बहिन थी। इसके अनुसार चूर्णिकार का यह अर्थ--- वैशाली जिसकी माता हो-बहूत संगत लगता है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : लज्जा-संयमस्तुदुपयोगानन्यतया यतिरपि तथोक्तः, आर्षत्वाच्चैवं निर्देशः। २. सुखबोथा, पत्र ११५। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : पमत्तेहि ति प्रमत्तेभ्यो गृहस्थेभ्यः, ते हि विषयादि प्रमादसेवनात् प्रमत्ता उच्यन्ते। ४. बृहवृत्ति, पत्र २७०। ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५६ : णातकुलप्पभू (स) सिद्धत्थखत्तियपुत्ते। ६. (क) वृहद्वृत्ति, पत्र २७० : ज्ञातः--उदारक्षत्रियः स चेह प्रस्तावात् सिन्द्रार्थः तस्य पुत्रो ज्ञातपुत्रः-वर्तमानतीर्थाधिपतिर्महावीर इति यावत्। (ख) सुखबोधा, पत्र ११५ । ७. आयारचूला १५ ॥१७ : समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पिआ कासवगोत्तेणं। ८. अभिधान चिन्तामणि, १३५। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५६, १५७ : 'वेसालीए' त्ति, गुणा अस्य विशाला इति वैशालीयः, विशाल शासन वा वीशाले वा इक्ष्वाकुवंशे भवा वैशालिया, “वैशाली जननी यस्य, विशाल कुलमेव च। विशाल प्रवचनं वा, तेन वैशालिको जिनः ।।" Jain Education Intemational Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयणं उरब्भज्जं सातवां अध्ययन उरभ्रीय Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन का नामकरण इसके प्रारम्भ में प्रतिपादित आतुर-लक्षण है। आतुर (मरणासन्न) प्राणी को पथ्य और 'उरभ्र' के दृष्टान्त के आधार पर हुआ है। अपथ्य जो कुछ वह चाहता है, दिया जाता है। सूखी घास खाकर समवायांग (समवाय ३६) तथा उत्तराध्ययन नियुक्ति में जीना दीर्घायु का लक्षण है। इस मेंढ़े का मरण-काल सन्निकट इसका नाम 'उरभिज्जं' है। किन्तु अनुयोगद्वार (सूत्र ३२२) में है।" इसका नाम 'एलइज्ज' है। मूल पाठ (श्लोक १) में 'एलयं' शब्द कुछ दिन बीते। सेठ के घर मेहमान आए। बछड़े के का ही प्रयोग हुआ है। 'उरभ्र' का नहीं। उरभ्र और एलक- देखते-देखते मोटे-ताजे मेंढ़े के गले पर छुरी चली और उसका ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं, इसलिए ये दोनों नाम प्रचलित रहे हैं। मांस पकाकर मेहमानों को परोसा गया। बछड़े का दिल भय से श्रामण्य का आधार अनासक्ति है। जो विषय-वासना में भर गया। उसने खाना-पीना छोड़ दिया। मां ने कारण पूछा। आसक्त होता है, वह कभी दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। बछड़े ने कहा-'मां! जिस प्रकार मेंढा मारा गया क्या मैं भी विषयानुगृद्धि में रसासक्ति का भी प्रमुख स्थान है। जो रसनेन्द्रिय मारा जाऊंगा?' मां ने कहा-"वत्स ! यह भय वृथा है। जो पर विजय पा लेता है, वह अन्यान्य विषयों को भी सहजतया रस-गृद्ध होता है, उसे उसका फल भी भोगना पड़ता है। तू वश में कर लेता है। इस कथन को सूत्रकार ने दृष्टान्त से सूखी घास चरता है, अतः तुझे ऐसा कटु विपाक नहीं सहना समझाया है। प्रथम चार श्लोकों में दृष्टान्त के संकेत दिए गए पडेगा।" हैं। टीकाकार ने 'सम्प्रदायादवसेयम्' ऐसा उल्लेख कर उसका इसी प्रकार हिंसक, अज्ञ, मृषावादी, मार्ग में लूटने वाला, विस्तार किया है: चोर, मायावी, चुराने की कल्पना में व्यस्त, शठ, स्त्री और एक सेठ था। उसके पास एक गाय, गाय का बछड़ा और विषयों में गृद्ध, महाआरम्भ और महापरिग्रह वाला, सुरा और एक मेंढा था। वह मेंढे को खूब खिलाता-पिलाता। उसे प्रतिदिन मांस का उपभोग करने वाला, दूसरों का दमन करने वाला, स्नान कराता, शरीर पर हल्दी आदि का लेप करता। सेठ के कर-कर शब्द करते हुए बकरे के मांस को खाने वाला, तोंद पुत्र उससे नाना प्रकार की क्रीड़ा करते। कुछ ही दिनों में वह वाला और उपचित रक्त वाला व्यक्ति उसी प्रकार नरक के स्थूल हो गया। बछड़ा प्रतिदिन यह देखता और मन ही मन आयुष्य की आकांक्षा करता है जिस प्रकार मेमना पाहुने की। सोचता कि मेंढे का इतना लालन-पालन क्यों हो रहा है ? सेठ (श्लोक ५-७) का हम पर इतना प्यार क्यों नहीं है? मेंढ़े को खाने के लिए भगवान् महावीर ने कहा-“अल्प के लिए बहुत को मत जौ देता है और हमें सूखी घास। यह अन्तर क्यों ? इन विचारों खोओ। जो ऐसा करता है, वह पीछे पश्चात्ताप करता है।" इसी से उसका मन उदास हो गया। उसने स्तन-पान करना छोड़ भावना को सूत्रकार ने दो दृष्टान्तों से समझाया है : दिया। उसकी मां ने इसका कारण पूछा। उसने कहा-'मां ! यह (१) एक दमक था। उसने भीख मांग-मांग कर एक हजार मेंढा पुत्र की तरह लालित-पालित होता है। इसे बढ़िया भोजन कार्षापण एकत्रित किए। एक बार वह उन्हें साथ ले एक सार्थवाह दिया जाता है। विशेष अलंकारों से इसे अलंकृत किया जाता है। के साथ अपने घर की ओर चला। रास्ते में भोजन के लिए और एक मैं हूं मन्द-भाग्य कि कोई भी मेरी परवाह नहीं उसने एक कार्षापण को काकिणियों में बदलाया और प्रतिदिन करता। सूखी घास चरता हूं और वह भी भरपेट नहीं मिलती। कुछ काकिणियों को खर्च कर भोजन लेता रहा। कई दिन बीते। समय पर पानी भी नहीं मिलता। कोई मेरा लालन-पालन नहीं उसके पास एक काकिणी शेष बची। उसे वह एक स्थान पर भूल करता। ऐसा क्यों है मां ?' आया। कुछ दूर जाने पर उसे वह काकिणी याद आ गई। अपने मां ने कहा पास के कार्षापणों की नौली को एक स्थान पर गाड़ उसे लाने आउरचिन्नाइं एयाई, जाइं चरइ नंदिओ। दौड़ा। परन्तु वह काकिणी किसी दूसरे के हाथों पड़ गई। उसे सुक्कत्तणेहिं लाढाहि, एयं दीहाउलक्खणं।। बिना प्राप्त किए लौटा तब तक एक व्यक्ति उस नौली को लेकर (उत्त०नि०गा० २४६) भाग गया। वह लुट गया। ज्यों-त्यों वह घर पहुंचा और "वत्स ! तू नहीं जानता। मेंढा जो कुछ खा रहा है, वह पश्चात्ताप में डूब गया। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २४६ : उरभाउणामगोयं, वेयतो भावओ उ ओरभो। तत्तो समुट्ठियमिणं, उरम्भिज्जन्ति अज्झयणं ।। २. बृहवृत्ति, पत्र २७२-२७४। ३. वही, पत्र २७६। Jain Education Intemational Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरथ्रीय १३१ अध्ययन ७: आमुख (२) एक राजा था। वह आम बहुत खाता था। उसे आम व्यापार करो और अमुक समय के बाद अपनी-अपनी पूंजी ले का अजीर्ण हुआ। वैद्य आए। चिकित्सा की। वह स्वस्थ हो गया। मेरे पास आओ।” पिता का आदेश पा तीनों पुत्र व्यापार के लिए वैद्यों ने कहा-"राजन् ! यदि तुम पुनः आम खाओगे तो जीवित निकले। वे एक नगर में पहुंचे और तीनों अलग-अलग स्थानों नहीं बचोगे।" उसने अपने राज्य के सारे आम्र के वृक्ष उखड़वा पर ठहरे। एक पुत्र ने व्यापार आरम्भ किया। वह सादगी से दिए। एक बार वह अपने मंत्री के साथ अश्व-क्रीड़ा के लिए रहता और भोजन आदि पर कम खर्च कर धन एकत्रित करता। निकला। अश्व बहुत दूर निकल गया। वह थक कर एक स्थान इससे उसके पास बहुत धन एकत्रित हो गया। दूसरे पुत्र ने भी पर रुका। वहां आम के बहुत वृक्ष थे। मंत्री के निषेध करने पर व्यापार आरम्भ किया। जो लाभ होता उसको वह भोजन, वस्त्र, भी राजा एक आम्र वृक्ष के नीचे विश्राम करने के लिए बैठा। मकान आदि में खर्च कर देता। इससे वह धन एकत्रित न कर वहां अनेक फल गिरे पड़े थे। राजा ने उन्हें छुआ और सूंघा तथा सका। तीसरे पुत्र ने व्यापार नहीं किया। उसने अपने शरीर-पोषण खाने की इच्छा व्यक्त की। मंत्री ने निषेध किया पर राजा नहीं और व्यसनों में सारा धन गंवा डाला। माना। उसने भरपेट आम खाए। उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। तीनों पुत्र यथासमय घर पहुंचे। पिता ने सारा वृत्तान्त इसी प्रकार जो मनुष्य मानवीय काम-भोगों में आसक्त पूछा। जिसने अपनी मूल पूंजी गंवा डाली थी, उसे नौकर के हो, थोड़े से सुख के लिए मनुष्य-जन्म गंवा देता है वह शाश्वत स्थान पर नियुक्त किया, जिसने मूल की सुरक्षा की थी, उसे गृह सुखों को हार जाता है। देवताओं के काम-भोगों के समक्ष मनुष्य का काम-काज सौंपा और जिसने मूल को बढ़ाया था, उसे के काम-भोग तुच्छ और अल्पकालीन हैं। दोनों के काम-भोगों गृहस्वामी बना डाला। में आकाश-पाताल का अन्तर है। मनुष्य के काम-भोग कुश के मुनष्य-भव मूल पूंजी है। देवगति उसका लाभ है और अग्रभाग पर टिके जल-बिन्दु के समान है और देवताओं के नरकगति उसका छेदन है। काम-भोग समुद्र के अपरिमेय जल के समान है। (श्लोक २३)। इस अध्ययन में पांच दृष्टान्तों का निरूपण हुआ है।' अतः मानवीय काम-भोगों में आसक्त नहीं होना चाहिए। उनका प्रतिपाद्य भिन्न-भिन्न है। पहला (उरभ्र) दृष्टान्त विषय-भोगों जो मनुष्य है और अगले जन्म में भी मनुष्य हो जाता है, के कटु-विपाक का दर्शन है (श्लोक १ से लेकर १० तक)। दूसरे वह मूल पूंजी की सुरक्षा है। जो मनुष्य-जन्म में अध्यात्म का और तीसरे (काकिणी और आम्रफल) दृष्टान्तों का विषय देव-भोगों आचरण कर आत्मा को पवित्र बनाता जाता है, वह मूल को के सामने मानवीय-भोगों की तुच्छता का दर्शन है। (श्लोक ११ बढ़ाता है। जो विषय-वासना में फंसकर मनुष्य जीवन को हार से लेकर १३ तक)। चौथे (व्यवहार) दृष्टान्त का विषय आय-व्यय देता है--तिर्यंच या नरक में चला जाता है—वह मूल को भी के विषय में कुशलता का दर्शन है। (श्लोक १४ से २२ तक)। गंवा देता है (श्लोक १५)। इस आशय को सूत्रकार ने निम्न- पांचवें (सागर) दृष्टान्त का विषय आय-व्यय की तुलना का दर्शन व्यावहारिक दृष्टान्त से समझाया है: है (श्लोक २३ से २४ तक)। एक बनिया था। उसके तीन पुत्र थे। उसने तीनों को इस प्रकार इस अध्ययन में दृष्टान्त शैली से गहन तत्त्व एक-एक हजार कार्षापण देते हुए कहा-“इनसे तुम तीनों की बड़ी सरस अभिव्यक्ति हुई है। १. बृहदृवृत्ति, पत्र २७७। २. वही, पत्र २७८, २७६। ३. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २४७ : ओरउभे अ कागिणी, अंबए अ वबहार सागरे घेव। पंचेए दिट्टता, उरभिजमि अज्झयणे।। Jain Education Intemational Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं अज्झयणं : सातवां अध्ययन उरब्भिज्जं : उरधीय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद जैसे पाहुने के उद्देश्य से कोई मेमने का पोषण करता है। उसे चावल, मूंग, उड़द आदि खिलाता है और अपने आंगन में ही पालता है।' १. जहाएसं समुद्दिस्स कोइ पोसेज्ज एलयं । ओयणं जवसं देज्जा पोसेज्जा वि सयंगणे।। २. तओ से पुढे परिवूढे जायमेए महोदरे। पीणिए विउले देहे आएसं परिकंखए।। ३. जाव न एइ आएसे ताव जीवइ से दुही। अह पत्तमि आएसे सीसं छेत्तूण भुज्जई।। ४. जहा खलु से उरब्मे आएसाए समीहिए। एवं बाले अहम्मिट्ठे ईहई नरयाउयं ।। ५. हिंसे बाले मुसावाई अद्धाणंमि विलोवए। अन्नदत्तहरे तेणे माई कण्हुहरे सढे ।। यथावेशं समुद्दिश्य कोऽपि पोषयेदेडकम्। ओदनं यवसं दद्यात् पोषयेदपि स्वकाङ्गणे ।। ततः स पुष्टः परिवृढ़ः जातमेदाः महोदरः। प्रीणितो विपुले देहे आवेशं परिकाङ्क्षति।। यावन्नत्यावेशः तावज्जीवति सो दुःखी। अथ प्राप्ते आवेशे शीर्ष छित्त्वा भुज्यते।। इस प्रकार वह पुष्ट, बलवान्, मोटा, बड़े पेट वाला, तृप्त और विशाल देहवाला होकर पाहुने की आकांक्षा करता है। जब तक पाहुना नहीं आता है तब तक ही वह बेचारा जीता है। पाहुने के आने पर उसका सिर छेदकर उसे खा जाते हैं। यथा खलु स उरभ्रः आवेशाय समीहितः। एवं बालोऽधर्मिष्ठः ईहते नरकायुष्कम्।। हिंसमे बालो मृषावादी अध्वनि विलोपकः। अन्यदत्तहरः स्तेनः मायी कुतोहरः शठः ।। जैसे पाहुने के लिए निश्चित किया हुआ वह मेमना यथार्थ में उसकी आकांक्षा करता है, वैसे ही अधर्मिष्ट अज्ञानी जीव यथार्थ में नरक के आयुष्य की इच्छा करता है। हिंसक, अज्ञ, मृषावादी, मार्ग में लूटने वाला, दूसरों की दी हुई वस्तु का बीच में हरण करने वाला , चोर, मायावी, चुराने की कल्पना में व्यस्त, (किसका धन हरण करूंगा-ऐसे अध्यवसाय वाला) शठ---वक्र आचरण वाला, स्त्री और विषयों में गृद्ध, महाआरंभ' और महापरिग्रह वाला, सुरा और मांस का उपभोग करने वाला, बलवान् , दूसरों का दमन करने वाला, ६. इत्थीविसयगिद्धे य महारंभपरिग्गहे। भुंजमाणे सुरं मंसं परिवूढे परंदमे।। ७. अयकक्करभोई य तुंदिल्ले चियलोहिए। आउयं नरए कंखे जहाएसं व एलए।। स्त्री-विषय-गृद्धश्च महारम्भपरिग्रहः। भुजानः सुरां मांसं परिवृढः परन्दमः।। अजकर्करभोजी च तुन्दिलः चितलोहितः। आयुर्नरके काङ्क्षति यथाऽऽवेशमिव एडकः।। कर-कर शब्द करते हुए" बकरे के मांस को खाने वाला, तोंद वाला और उपचित लोही वाला व्यक्ति उसी प्रकार नरक के आयुष्य की आकांक्षा करता है'२, जिस प्रकार मेमना पाहुने की। Jain Education Intemational Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरनीय ८. आसणं सयणं जाणं वित्तं कामे य भुजिया । दुस्साहढं धणं हिच्या बहुं संचिणिया रयं ।। ६. तओ कम्मगुरू जंतू पच्चुष्पन्नपरायणे । अय व्व आगयाएसे मरणंतमि सोयई । १०. तओ आउपरिक्खीणे चुया देहा विहिंसगा । आसुरियं दिसं बाला गच्छंति अवसा तमं ।। ११. जहा कागिणिए हेउं सहस्सं हारए नरो । अपत्थं अंबगं भोच्चा राया रज्जं तु हारए ।। १२. एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अंतिए । सहस्सगुणिया भुज्जो आउं कामा य दिव्विया ।। १३. अणेगवासानउया जा सा पन्नवओ ठिई। जाणि जीयंति दुम्मेहा ऊणे वाससयाउए । । १४. जहा य तिन्नि वणिया मूलं घेत्तूण निग्गया । एगो ऽत्य लहई लाह एगो मूलेण आगओ ।। १५. एगो मूलं पि हारिता आगओ तत्थ वाणिओ । ववहारे उवमा एसा एवं धम्मे वियाणह ।। १६. माणुसत्तं भवे मूलं लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएण जीवाणं नरगतिरिक्त्तणं सुवं ॥ १३३ आसनं शयनं यानं वित्तं कामांश्च भुक्त्वा । दुःसंहृतं धनं हित्वा बहु संचित्य रजः ।। ततः कर्मगुरुर्जन्तुः प्रत्युत्पन्नपरायणः । अज इव आगते आवेशं मरणान्ते शोचति ॥ तत आयुषि परिक्षीणे च्युताः देहाद् विहिंसकाः । आसुरीयां दिशं बालाः गच्छन्ति अवशाः तमः ।। यथा काकिण्या हेतो: सहस्रं हारयेन्नरः । अपथ्यमाम्रकं भुक्त्वा राजा राज्यं तु हारयेत् ।। एवं मानुष्यकाः कामाः देवकामानामन्तिके । सहस्रं गुणिता भूयः आयुः कामाश्च दिव्यकाः ।। अनेकवर्ष- नयुतानि या सा प्रज्ञावतः स्थितिः । यानि जीयन्ते दुर्मेधसा ऊने वर्षशतायुषि ।। यथा च त्रयो वणिजः मूलं गृहीत्वा निर्गताः । एकोऽत्र लभते लाभम् एको मुलेनागतः ।। एको मूलमपि हारयित्वा आगतस्तत्र वाणिजः । व्यवहारे उपमेषा एवं धर्मे विजानीत ।। मानुषत्वं भवेन्मूलं लाभो देवगतिर्भवेत् । मूलच्छेदेन जीवानां नरकतिर्यक्त्वं ध्रुवम् ।। अध्ययन ७ : श्लोक ८-१६ आसन, शय्या, यान, धन और काम-विषयों को भोगकर, दुःख से एकत्रित किये हुए" धन को द्यूत आदि के द्वारा गंवाकर", बहुत कर्मों को संचित कर कर्मों से भारी बना हुआ, केवल वर्तमान को ही देखने वाला जीव मरणान्तकाल में उसी प्रकार शोक करता है जिस प्रकार पाहुने के आने पर मेमना । " फिर आयु क्षीण होने पर वे नाना प्रकार की हिंसा करने वाले कर्मवशवर्ती अज्ञानी जीव देह से च्युत होकर अन्धकारपूर्ण आसुरीय दिशा (नरक) की ओर जाते हैं। जैसे कोई मनुष्य काकिनी के लिए हजार (कार्षापण) - गंवा देता है, जैसे कोई राजा अपथ्य आम को खाकर राज्य से हाथ धो बैठता है, वैसे ही जो व्यक्ति मानवीय भोगों में आसक्त होता है, वह देवी भोगों को हार जाता है । २१ दैवी भोगों की तुलना में मनुष्य के कामभोग उतने ही नगण्य हैं जितने कि हजार कार्षापणों की 'तुलना में एक काकिणी और राज्य की तुलना में एक आम । दिव्य आयु और दिव्य काम भोग मनुष्य की आयु और काम-भोगों से हजार गुना अधिक हैं । प्रज्ञावान् पुरूष की‍ देवलोक में अनेक वर्ष नयुत ( असंख्यकाल) की‍ स्थिति होती है—यह ज्ञात होने पर भी मूर्ख मनुष्य सौ वर्ष जितने अल्प जीवन के लिए उन दीर्घकालीन सुखों को हार जाता है। 1 जैसे तीन वणिक् मूल पूंजी को लेकर निकले उनमें से एक लाभ उठाता है, एक मूल लेकर लौटता है, और एक मूल को भी गंवाकर वापस आता है। यह व्यापार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में जानना चाहिए। मनुष्यत्व मूलधन है । देवगति लाभ रूप है। मूल के नाश से जीव निश्चित ही नरक और तिर्यञ्च गति में जाते हैं। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १३४ अध्ययन ७: श्लोक १७-२५ द्विधा गतिर्बालस्य आपद् वधमूलिका। देवत्वं मानुषत्वं च यज्जितो लोलता-शठः।। अज्ञानी जीव की दो प्रकार की गति होती है—नरक और तिर्यञ्च। वहां उसे वधहेतुकर आपदा प्राप्त होती है। वह लोलुप और वंचक पुरुष देवत्व और मनुष्यत्व को पहले ही हार जाता है। द्विविध दुर्गति में गया हुआ जीव सदा हारा हुआ होता है। उसका उनसे बाहर निकलना दीर्घकाल के बाद भी दुर्लभ है। इस प्रकार हारे हुए को देखकर तथा बाल और पण्डित की तुलना कर जो मानुषी योनि में आते हैं, वे मूलधन के साथ प्रवेश करते हैं। १७. दुहओ गई बालस्स आवई वहमूलिया। देवत्तं माणुसत्तं च जं जिए लोलयासढे।। १८.तओ जिए सई होइ दुविहं दोग्गइं गए। दुल्लहा तस्स उम्मज्जा अखाए सुइरादवि।। १६.एवं जियं सपेहाए तुलिया बालं च पंडियं । मूलियं ते पवेसंति माणुसं जोणिमेंति जे।। २०. वेमायाहिं सिक्खाहिं जे नरा गिहिसुव्वया। उवेंति माणुसं जोणिं कम्मसच्चा हु पाणिणो।। २१.जेसिं तु विउला सिक्खा मूलियं ते अइच्छिया। सीलवंता सवीसेसा अद्दीणा जंति देवयं ।। २२. एवमद्दीणवं भिक्खुं अगारिं च वियाणिया। कहण्णु जिच्चमेलिक्खं जिच्चमाणे न संविदे?।। ततो जितः सदा भवति द्विविधां दुर्गतिं गतः। दुर्लभा तस्योन्मज्जा अध्वनः सुचिरादपि।। एवं जितं सम्प्रेक्ष्य तोलयित्वा बालं च पण्डितम्।। मूलिकां ते प्रविशन्ति मानुषीं योनिमायान्ति ये।। विमात्राभिः शिक्षाभिः ये नराः गृहिसुव्रताः। उपयन्ति मानुषीं योनि कर्मसत्याः खलु प्राणिनः।। येषां तु विपुला शिक्षा मूलिकां तेऽतिक्रम्य। शीलवन्तः सविशेषाः अदीना यान्ति देवताम्।। एवमदैन्यवन्तं भिडं अगारिणं च विज्ञाय। कथं नु जीयते ईदृक्षं जीयमानो न संवित्ते?।। जो मनुष्य विविध परिमाण वाली शिक्षाओं द्वारा घर में रहते हुए भी सुव्रती हैं, वे मानुषी योनि में उत्पन्न होते हैं। क्योंकि प्राणी कर्म-सत्य होते हैं-अपने किये हुए का फल अवश्य पाते हैं।२८ जिनके पास विपुल शिक्षा है वे शील-संपन्न और उत्तरोत्तर गुणों को प्राप्त करने वाले अदीनपराक्रमी" पुरुष मूलधन (मनुष्यत्व) का अतिक्रमण करके देवत्व को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार पराक्रमी भिक्षु और गृहस्थ को (अर्थात् उनके पराक्रम-फल को) जानकर विवेकी पुरुष ऐसे लाभ को कैसे खोएगा? वह कषायों के द्वारा पराजित होता हुआ क्या यह नहीं जानता कि 'मैं पराजित हो रहा हूं?' यह जानते हुए उसे पराजित नहीं होना चाहिए। मनुष्य सम्बन्धी काम-भोग देव सम्बन्धी काम-भोगों की तुलना में वैसे ही हैं, जैसे कोई व्यक्ति कुश की नोक पर टिके हुए जल-बिन्दु की समुद्र से तुलना करता है। २३.जहा कुसग्गे उदगं समुद्देण समं मिणे। एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अंतिए।। २४. कुसग्गमेत्ता इमे कामा सन्निरुद्धंमि आउए। कस्स हेउं पुराकाउं जोगक्खेमं न संविदे?।।। २५. इह कामाणियट्टस्स अत्तठे अवरज्झई। सोच्चा नेयाउयं मग्गं जं भुज्जो परिभस्सई ।। यथा कुशाग्रे उदकं समुद्रेण समं मिनुयात्। एवं मानुष्यकाः कामाः देवकामानामन्तिके।। कुशाग्रमात्रा इमे कामाः सन्निरुद्ध आयुषि। कं हेतुं पुरस्कृत्य योगक्षेमं न संवित्ते?।। इस अति-संक्षिप्त आयु में३३ ये काम-भोग कुशाग्र पर स्थित जल-बिन्दु जितने हैं। फिर भी किस हेतु को सामने रखकर मनुष्य योगक्षेम को नहीं समझता ?३५ इस मनुष्य भव में काम-भोगों से निवृत्त न होने वाले पुरुष का६ आत्म-प्रयोजन नष्ट हो जाता है। वह पार ले जाने वाले मार्ग को सुनकर भी बार-बार भ्रष्ट होता है। इह कामाऽनिवृत्तस्य आत्मार्थोऽपराध्यति। श्रुत्वा नैर्यातृकं मार्ग यद् भूयः परिभ्रश्यति।। Jain Education Intemational Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरनीय इह कामणियस्स अत्तट्ठे नावरझई। पूइदेहनिरोहेणं भवे देव त्ति मे सुयं ।। २७. इड्डी जुई जसो वण्णो आर्ड सुहमणुत्तरं । भुज्जो जत्थ मणुस्सेसु तत्थ से उववज्जई ।। २६. २८. बालस्स पस्स बालत्तं अहम्मं पडिवज्जिया । चिच्चा धम्मं अहम्मिट्ठे नरए उववज्जई २६. धीरस्स पस्स धीरतं सव्वधम्माणुवत्तिणो । चिच्चा अधम्मं धम्मिट्ठे देवेसु उववज्जई ।। ३०. तुलियाण बालभावं अबालं चैव पंडिए । चइऊण बालभावं अबालं सेवए मुणि ।। —त्ति बेमि । १३५ इह कामानिवृत्तस्य आत्मार्थी नापराध्यति । पूतिदेहनिरोधेन भवेद् देव इति मया श्रुतम् ।। ऋद्धितिर्यशोषण आयुः सुखमनुत्तरम् । भूयो यत्र मनुष्येषु तत्र स उपपद्यते ।। बालस्य पश्य बालत्वम् अधर्मं प्रतिपद्य । त्यक्त्वा धर्ममधर्मिष्ठः नरके उपपद्यते ।। धीरस्य पश्य धीरत्वं सर्वधर्मानुवर्तिनः । त्यक्त्वाऽधर्मं धर्मिष्टः देवेषु उपपद्यते ।। तोलयित्वा बालभावम् अबालं चैव पण्डितः । त्यक्त्वा बालभावम् अबालं सेवते मुनिः ।। - इति ब्रवीमि अध्ययन ७ : श्लोक २६-३० इस मनुष्य भव में काम-भोगों से निवृत्त होने वाले पुरुष का आत्म-प्रयोजन नष्ट नहीं होता। वह पूतिदेह ( औदारिक शरीर) का निरोध कर देव होता हैऐसा मैंने सुना है । ( देवलोक से च्युत होकर) वह जीव विपुल ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण, आयु और अनुत्तर सुख वाले मनुष्य-कुलों में उत्पन्न होता है। 1 तू बाल ( अज्ञानी) जीव की मूर्खता को देख वह अधर्म को ग्रहण कर, धर्म को छोड़, अधर्मिष्ठ बन नरक में उत्पन्न होता है। सब धर्मों का पालन करने वाले धीरर-पुरुष की धीरता को देख । वह अधर्म को छोड़कर धर्मिष्ठ बन देवों में उत्पन्न होता है । पण्डित मुनि बाल-भाव और अबाल-भाव की तुलना कर, बाल-भाव को छोड़, अबाल-भाव का सेवन करता है। - ऐसा मैं कहता हूं। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन ७: उरभ्रीय १. पाहुने के (आएस) रोगी अन्तकाल में पथ्य या अपथ्य जो कुछ मांगता है, वह सब चूर्णि के अनुसार 'आएस' के संस्कृत रूप दो होते हैं- उसे दे दिया जाता है। वत्स! सूखे तिनकों से जीवन चलाना आदेश और आवेश।' इसका अर्थ है-पाहुना। दीर्घायु का लक्षण है।" २. मूंग, उड़द आदि (जवस) इसकी तुलना मुनिक जातक (नं ३०) के श्लोक से होती चूर्णिकार और टीकाकारों ने इसका अर्थ 'मूंग, उड़द हैआदि धान्य' किया है। शब्दकोश में इसका अर्थ-तृण, घास मा मुनिकस पिहपि, आतुरन्नानि भुजति। तथा गेहूं आदि धान्य किया गया है। अप्पोसुक्को मुसं खाद, एतं दीघायुलक्खणं। डॉ० हरमन जेकोबी ने इस शब्द पर टिप्पणी देते हुए ५. विशाल देहवाला होकर पाने की आकांक्षा लिखा है कि भारतवर्ष में धान्य कणों द्वारा पोषित भेड़ का मांस करता है। (विठले देहे आएसं परिकंखए) अच्छा गिना जाता है। चूर्णिकार ने विशाल देह का अर्थ-मांस से उपचित शरीर ३. अपने आंगन में (सयंगणे) किया है। प्रश्न होता है कि मरना कोई नहीं चाहता, फिर पाहुने इसका अर्थ है-अपने घर के आंगन में चूर्णिकार ने की आकांक्षा करना कैसे संभव हो सकता है? मूल में तथा शान्त्याचार्य ने वैकल्पिक रूप में 'विसयंगणे' मानकर चूर्णिकार ने समाधान की भाषा में कहा है-मांस के 'विसय' का अर्थ 'गृह' और 'आंगण' का अर्थ 'आंगन' किया है। अत्यधिक उपचित हो जाने के कारण शरीर स्वयं मेद से फटने विषयांगण अर्थात् गृहांगण। इसका दूसरा अर्थ-इन्द्रियों के विषयों जैसी स्थिति में हो जाता है। इस तथ्य को रूपक की भाषा में की गणना करता हुआ-चिन्तन करता हुआ—किया गया है। 'आकांक्षा करता है' निरूपित किया है। ४. (श्लोक १) ६. बेचारा (दुही) चूर्णिकार और टीकाकार ने यहां एक कथा प्रस्तुत की है। सूत्रकार ने उस उपचित मेमने को दुःखी बताया है। प्रश्न कथा के प्रसंग में नियुक्ति की एक गाथा है होता है कि समस्त सुखोपभोग करते हुए भी वह दुःखी क्यों है ? आउरचिन्नाई एयाई, जाइं चरइ नंदिओ। चूर्णिकार और नेमिचन्द्र इसका समाधान इन शब्दों में देते हैं कि सुक्कत्तणेहि लाढाहि, एवं दीहाउलक्षणम्।। जिस प्रकार मारे जाने वाले मनुष्य या पशु को अलंकृत करना गाय ने अपने बछड़े से कहा-“वत्स ! यह नंदिक- तत्त्वतः उसे दुःखी करना ही है। वैसे ही मेमने को खिलाए जाने मेमना जो खा रहा है, वह आतुर (मरणासन्न) का चिन्ह है। वाले ओदन आदि तत्त्वतः दुःख देने वाले हैं।" १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५८ आएस जाणतित्ति आइसो, ओवेसो वा, गृहांगनमित्यर्थः, अथवा विषया रसादयः तान् गणयन–प्रीणितोऽस्य आविशति वा वेश्मनि, तत्र आविशति वा गत्वा इत्याएसा। मांसेन विषयान् भोक्ष्यामीति, अथवा विषयान् इति। २. बृहद्वृत्ति, पत्र २७२ : आदिश्यते-आज्ञाप्यते विविधव्यापारेषु (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २७२ : यदि वा 'पोसेज्जा विसयंगणे' त्ति विशन्त्यस्मिन् परिजनोऽस्मिन्नायात इत्यादेशः-अभ्यर्हितः प्राहुणकः । विषयो-गृहं तस्यांगणं विषयांगणं तस्मिन् अथवा विषयं-रसलक्षणं ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५८ : जवसो मुग्गमासादि। वचनव्यत्यया विषयान्वा गणयन-संप्रधारयन् धर्मनिरपेक्ष इति (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २७२ : 'यवसं' मुद्गमाषादि। भावः। (ग) सुखबोधा, पत्र ११६ । ८. उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा २४६ । ४. (क) पाइयसद्दमहण्णवो, पृ०४३६। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५९ : विपुलदेहे नाम मांसोपचितः । (ख) अभिधान चिन्तामणि, ४२६१। १०. वही, पृ० १५६ : मांसोपचयादसी स्वयमेव मेदसा स्फुटन्निव आएस Sacred Books of the East, Vol. XLV, Uttaradhyayana, p. 27. परिकंखए, कथं सो आगच्छेदिति। Fool-no1 3. Mutton of gramfed sheep is greatly appreciated in ११. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५६ : कहं दुही जवसोदनेऽपि दीयमाने ?, India. उच्यते, वधस्य वध्यमाने इष्टाहारे वा वध्यालंकारेण वाऽलक्रियमाणस्स ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २७२ : 'स्वकाङ्गणे' स्वकीयगृहाङ्गणे। किमिव सुखं ?, एवमसी जवसोदगादिसुखेऽपि सति दुःखमानेव। ७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५८ : जो जस्स विसाति स तस्स विसयो (ख) सुखबोधा, पत्र ११७ : 'दुहि' त्ति वध्यमण्डनमिवाऽस्यौदनदानादीनि भवति, यथा राज्ञो विषयः, एवं यद्यस्य विषयो भवति, लोकेऽपि तत्वतो दुःखमेव तदस्यास्तीति दुःखी। वक्तारो भवन्ति सर्वोह्यात्मगृहे राजा, अंगं ति तस्मिन्निति अंगनं, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरश्रीय १३७ शान्त्याचार्य ने 'सेऽदुही' में आकार को लुप्त मानकर प्रथम व्याख्या 'अदुही' की है।' परन्तु यहां 'दुही' शब्द 'अदुही' की अपेक्षा अधिक अर्थ देता है। ७. (अन्नदत्तहरे ) अन्नदत्तहर शब्द के चार अर्थ किए हैं (१) दूसरों को दी गई वस्तु को बीच में ही छीन लेने वाला । (२) जो दूसरा देना नहीं चाहता, उसे बलात् छीन लेने वाला । (३) गांव, नगर आदि में चोरी करने वाला । (४) ग्रन्थिछेद कर दूसरों का धन चुराने वाला । ८. महाआरंभ (महारंभ ) जिस व्यवसाय में बहुत प्राणियों की घात होती है उसे महा-आरंभ कहा जाता है । महान् आरम्भ अर्थात् अपरिमित हिंसा का व्यापार । ९. बलवान् (परिवूढे ) इसका शाब्दिक अर्थ है— जिसका शरीर मांस और शोणित से उपचित हो गया है। तात्पर्य में यह बलवान् और समर्थ का सूचक है। १०. दूसरों का दमन करने वाला (परंदमे) जो दूसरों को अपनी इच्छानुसार कार्यों में नियोजित करने में समर्थ हो, वह 'परंदम' होता है। जो दूसरों का दमन करने में समर्थ होता है, वह 'परंदम' है। ' विशेष: पांचवें और छठे श्लोक में जैनधर्म का आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण प्रतिपादित है । ११. कर-कर शब्द करते हुए (कक्कर) चूर्णिकार ने इसका अर्थ--मधुर और दंतुर मांस किया है। वृत्ति में इसका अर्थ है - जो मांस खाते समय चने की भांति 'करकर' शब्द करता है वैसा मेदुर, दंतुर और अत्यन्त पका हुआ मांस ।" १२. नरक के आयुष्य की आकांशा करता है (आठयं नरए कंखे) प्रस्तुत तीन श्लोकों (५, ६, ७) में कुछेक प्रवृत्तियों का नामोल्लेख कर उनसे होने वाले परिणाम अर्थात् नरकगमन का निर्देश किया है। वे प्रवृत्तियां संक्षेप में इस प्रकार हैं २ अध्ययन ७ (१) हिंसा (२) मृषावाद (३) अदत्तादान (४) विषयासक्ति माने हैं (५) महान् आरम्भ (६) महान् परिग्रह (७) मांस-मदिरा का सेवन (८) शोषण । स्थानांग (४।६२८) में नरकयोग्य कर्मार्जन के चार हेतु : श्लोक ५-८ टि० ७-१४ ३. पंचेन्द्रिय वध १. महान् आरम्भ २. महान् परिग्रह ४. मांस भक्षण । इन चार कारणों का विस्तार इन तीन श्लोकों (५-७) में है। नरकगमन के ये चार हेतु ही नहीं हैं, और भी अनेक हेतु हो सकते हैं। अध्यवसायों की क्लिष्टता और उससे संचालित कोई भी प्रवृत्ति नरक का कारण बन सकती है। वृत्तिकार के अनुसार पांचवें और छठे श्लोक के दो चरणों में आरम्भ-हिंसा का कथन किया गया है तथा छठे के शेष दो चरणों तथा सातवें श्लोक के प्रथम दो चरणों में रसमृद्धि का निर्देश है और अवशिष्ट दो चरणों में आरम्भ और रसगृद्धि से होने वाले परिणाम — दुर्गतिगमन का निर्देश १३. दुःख से एकत्रित हुए (दुस्साहड) चूर्णिकार ने 'दुस्साहडं' के तीन अर्थ किए हैं। १. 'दुट्टं साहडं — दुस्साहडं'–कष्टपूर्वक उपार्जित, दूसरों को राजी कर उपार्जन करना । ६. ७. ८. €. २. दुक्खेण वा साहडं दुस्साहडं शीत, वात आदि अनेक कष्टों को सहते हुए उपचित। स्वयं ३. दुष्ट उपायों से दूसरे की संपत्ति को टान लेना 1 शान्त्याचार्य ने इसका मूल अर्थ इस प्रकार किया है--- दुःख को भोगकर तथा दूसरों को भी दुःखी बना कर उपार्जित करना। इसका वैकल्पिक अर्थ है- - अत्यन्त कष्टपूर्वक संचित । " आचार्य नेमिचन्द्र ने एक श्लोक उद्धृत कर धन के 'दुस्साहड' का समर्थन किया है 'अर्थानामर्जने दुःखगर्जितानां च रक्षणे । नाशे दुःखं व्यये दुःखं, घिगर्थं दुःखभाजनम् ।।' १४. द्यूत आदि के द्वारा गंवाकर (हिव्या) १. बृहद्वृत्ति, पत्र २७३ : 'सेऽदुहि' त्ति अकारप्रश्लेषात् स इत्युरओ दुःखी सुखी सन्, अथवा वध्यमण्डनमिवास्यौदनदानादिनीति तत्त्वतो दुःखितैवारयेति दुःखी । वही, पत्र २७५ । (क) उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६० । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २७४ । ३. वृहद्वृत्ति, पत्र २७५ महान अपरिमितः, आरम्भः अनेकजन्तूपघातकृद् उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६१: साहड णाम उपार्जितं, दुट्ठ साहड दुस्साहडं, परेसिं परेसिं उवरोधं काऊणंति भणितं होति । दुक्खेण वा साहडं दुस्साहडं, सीतावातादिकिलेसेहिं उवचितंति, अथवा कताकतं देतव्यमदेतव्वं खेत्थखलावत्थं दुस्साहडं, दुस्सारवितंति भणितं होति । १०. बृहद्वृत्ति, पत्र २७५ । व्यापारः । ४. वही, पत्र २७५ परिवूढे त्ति परिवृढः प्रभुरुपचितमांसशोणिततया तत् क्रिया समर्थ इति यावत् । ११. सुखबोधा, पत्र ११७ । ५. वही, पत्र २७५ : परान् — अन्यान् दमयति-— यत् कृत्याभिमतकृत्येषु १२. वही, पत्र ११७ : 'हित्वा' द्यूताद्यसद्व्ययेन त्यक्त्वा । प्रवर्तयतीति परन्दमः । इसका सामान्य अर्थ है— छोड़कर । परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में इसका अर्थ है— द्यूत आदि व्यसनों के द्वारा गंवाकर । कक्करं नाम महुरं दंतुरं मांसं । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६० बृहद्वृत्ति, पत्र २७५ । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि नेमिचन्द्र ने इसी आशय का एक श्लोक उद्धृत किया हैद्यूतेन मद्येन पणाङ्गनाभिः तोयेन भूपेन हुताशनेन । मलिम्लुचेनांशहरे राशी वित्तं च धने स्थिरत्वम् ।। १५. केवल वर्तमान को ही देखने वाला जीव (पपन्नपरायणे) प्रत्युत्पन्न का अर्थ है-वर्तमान । जो केवल वर्तमान के लिए एकनिष्ठ है, वह प्रत्युत्पन्नपरायण होता है। केवल वर्तमान को देखने वाला नास्तिक होता है और वह परलोक से सर्वथा निरपेक्ष होकर मानता है— 'एतावानेव लोको ऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः ' —लोक इतना ही है, जितना दृष्टिगोचर होता है। परलोक, स्वर्ग, नरक केवल कल्पना है। १६. मरणान्तकाल में..... शोक करता है (मरणंतम्मि सोयई) नास्तिकता का जीवन जीने वाला व्यक्ति भी के समय मृत्यु शोक-निमग्न होकर सोचता है-हाय ! अब मुझे यहां से जाना होगा। मैं नहीं जानता कि मैं कहां जाऊंगा। मेरी क्या गति होगी ? मैने अपना सारा जीवन मोड़ से मूर्चित होकर यों ही बिता डाला । वृत्तिकार का मत है कि अत्यन्त नास्तिक व्यक्ति भी मृत्यु-काल में मारणान्तिक वेदना से अभिभूत होकर अपने जीवन पर आंसू बहाता है।" १७. मेमना (अय) १३८ अध्ययन ७ : श्लोक ६-११ टि० १५-१६ द्वितीय अर्थ के अनुसार वह 'आसुरीय' होना चाहिए। १९. काकिणी के (कागिणिए) चूर्णि के अनुसार एक रुपये के अस्सीवें भाग तथा विसोवग के चौथे भाग को काकिणी कहा जाता था। वि (वी) सोवग— विशोषक- -देशी शब्द है। यह एक प्रकार का सिक्का था। यह रुपये का बीसवां भाग था। शान्त्याचार्य ने 'अज' का अर्थ 'पशु तथा प्रस्तावानुसार उरभ्र (मेमना) किया है।" अज शब्द अनेकार्थक है। इसके बकरा, भेड़, मेंढ़ा आदि अनेक अर्थ होते हैं। यहां इसका अर्थ- -भेड़ या मेंढ़ा है। इसके स्थान पर एड़क और उरभ्र ये दो शब्द और यहां प्रयुक्त हैं। एड़क का अर्थ- मेंढ़ा और बकरा भी हो सकता है किन्तु उरभ्र का अर्थ भेड़ व मेंढ़ा ही है १८. आसुरीय दिशा (नरक) की ओर (आसुरियं दिसं) 1 जहां सूर्य न हो उसे आसुरिय ( असूर्य) कहा जाता है। इसका दूसरा अर्थ 'आसुरीय' किया गया है। रौद्र कर्म करने वाला असुर कहलाता है। असुर की जो दिशा होती है उसे 'आसुरीय' कहा जाता है। इसका तात्पर्यार्थ है— नरक। वहां सूर्य नहीं होता तथा वह क्रूर कर्म करने वालों की दिशा है इसलिए वह 'आसुरीय' है। तात्पर्य में वह अंधकारपूर्ण दिशा है । प्रथम अर्थ के अनुसार 'असुरिय' पाठ होना चाहिए और १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २७५ । (ख) सुखबोधा, पत्र ११८ । २. बृहद्वृत्ति, पत्र २७५ अजः पशुः स चेह प्रक्रमादुरभ्रः । ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६१: नास्य सूरो विज्जति, आसुरियं वा नारका, जेसिं चक्खिदियअभावो सूरो ऊद्योतो णत्थि, जहा एगेंदियाणं दिसा भावदिसा खेत्तदिसावि घेप्पति, असतीत्यसुराः, असुराणामियं आसुरीयं अधोगतिरित्यर्थः । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २७६ अविद्यमानसूर्याम् उपलक्षणत्वाद्ग्रहनक्षत्रविरहितां च दिश्यते नारकादित्वेनास्यां संसारीति दीक् ताम्, अर्थात् भावदिशम्, अथवा रौद्रकर्मकारी सर्वोऽप्यसुर उच्यते, शान्त्याचार्य ने लिखा है— बीस कौड़ियों की काकिणी होती है। मोनियर-मोनियर विलियम्स के अनुसार बीस कौड़ियों की अथवा 'पण' के चतुरंश की एक काकिणी होती है। बीस मासों का एक 'पण' होता है और पांच मासों की एक काकिणी । इस विवरण से यह स्पष्ट पता लगता है कि उस समय अन्यान्य सिक्कों के साथ-साथ काकिणी, वीसोपग, पण, कौड़ी आदि भी चलते थे । यदि हम रुपये को मध्य - बिन्दु मानकर सोचते हैं तो८० काकिणी २० विसोपग २० पण ४. - १६०० कौड़ियां २० कौड़ियां १/४ वीसोपग १/४ पण अथवा ५ मासा तौलने के बाटों में गुंजा, काकिणी आदि का उल्लेख हुआ अनुयोगद्वार (सूत्र १३२ ) में सोना, चांदी, रत्न आदि है। काकिणी को सवा रत्ती परिमाण का माना है। यह भी उपर्युक्त तालिका से सही लगता है। पाणिनी के व्याकरण में 'काकिणी' का प्रयोग नहीं हुआ है। इससे यह अनुमान किया जाता है कि उस समय इस सिक्के का प्रचलन नहीं हुआ होगा। चाणक्य ने ताम्बे की सूची में इसका नाम दिया है। (कौटिलीय अर्थशास्त्र, २।१६) । बौद्ध साहित्य में काकिणी तथा कार्षापण का उल्लेख मिलता है। आठ काकिणी का एक कार्षापण होता था। चार काकिणी के तीन मासे होते थे। कात्यायन ने सूत्र ५।१।३३ पर दो वार्तिकों में काकिणी और अर्ध काकिणी का उल्लेख किया है। वहां एक, डेढ़ और दो काकिणी से मोल ली जाने वाली वस्तु के लिए काकणीक, अध्यर्धकाकणी और द्विकाकणिक प्रयोग सिद्ध किए गए हैं। देखिए - २०१४२ के ५. ६. ७. १ रुपया १ रुपया १ रुपया १ रुपया } १ काकिणी ततश्चासुराणामियामासुरी या तामासुरीयां दिशम् । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६१: कागीणी णाम रूवगस्स असीतिमो भागो, वीसोवगस्स चतुभागो । पाइयसद्दमहण्णव, पृ० १००७ । बृहद्वृत्ति, पत्र २७२, 'काकिणिः 'विंशतिकपर्दकाः । A Sanskrit English Dictionary p. 267: A small coin or a small sum of money equal to twenty Kapardas or Cowries or to a quarter of a Pana. (क) संयुत्तनिकाय, ३ ।२।३। (ख) चुल्लसेट्ठि जातक ४, प्रथम खण्ड, पृ० २०३ | Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरभ्रीय १३९ अध्ययन ७: श्लोक १३-१६ टि०२०-२५ 'कहावणे' का टिप्पण। 'वर्ष नयुत' वर्षों की संख्या देता है। 'नयुत' में जितने वर्ष होते २०. हजार (कार्षापण) (सहस्स) हैं उनका परिमाण इस प्रकार है'सहस्स' शब्द के द्वारा हजार कार्षापण उपलक्षित किए ८४००००० वर्ष १ पूर्वाड्क गए हैं। ऐसा चूर्णि और वृत्ति का अभिमत है।' कार्षापण एक ८४००००० पूर्वाङ्क १ पूर्व प्रकार का सिक्का है। इसका मान, जो धातु तोली जाती है उसके ८४००००० पूर्व १नयुतांग आधार पर भिन्न-भिन्न होता है। जैसे-यदि सोना हो तो १६ ८४००००० नयुतांग १ नयुत मासा, यदि चांदी हो तो १६ पण अथवा १२८० कौड़ियां, यदि (८४ लाख ४८४ लाख ४८४ लाख ८४ लाख) = १ तांबा हो तो ८० रक्तिकाएं अथवा १७६ ग्रेन आदि। नारद नयुत। अर्थात् एक नयुत में इतने-४६७८६१३६ ०००, ०००, (जिसका समय १०० और ३०० ई० के बीच में पडता है) ने ०००, ०००, ०००, ०००, ०० वर्ष होंगे। एक स्थान में कहा है कि चांदी का कार्षापण दक्षिण में चालू था २४. सौ वर्ष जितने अल्प जीवन के लिए (ऊणे वाससयाउए) और प्राच्य देश में वह २० पण के बराबर था और पंचनद प्रदेश इसका शाब्दिक अर्थ है-सौ वर्ष जितनी अल्प आयुष्य में चालू कार्षापण को वे प्रमाण नहीं मानते थे। विशेष विवरण की स्थिति में। चूर्णि के अनुसार भगवान् महावीर ने जब धर्म के लिए देखिए-२०॥४२ के 'कहावणे' का टिप्पण। का प्रतिपादन किया तब सामान्यतः मनुष्य की आयु सौ वर्ष की २१. (श्लोक ११) थी। यह आयु 'नयुत' की अपेक्षा बहुत न्यून है। वृत्ति के इस श्लोक में दो कथाओं का संकेत है अनुसार भगवान् महावीर के तीर्थ में मनुष्य प्रायः सौ वर्ष १. एक काकिणी के लिए सहन कार्षापण को हारना। जितनी न्यून आयु वाले होते थे। तुलना प्रस्तुत श्लोक में विषय और आयुष्य की तुलना की गई सीलव्वयाई जो बहुफलाई, तण सुखमहिलसही है। स्वर्ग की स्थिति दीर्घकालीन होती है। उसकी तुलना में मनुष्य पिइदुबलो तवस्सी, कोडीए कागिणिं किणई। जीवन की स्थिति अल्पकालीन बताई गई है। (उपदेशमाला श्लोक १९८) २५. (श्लोक १४-१६) २. आम्रफल में आसक्त हो राजा के द्वारा अपने जीवन सूत्रकार ने दो श्लोकों (१४-१५) में एक व्यावहारिक और राज्य को खो देना। उपमा का उल्लेख किया है। सोलहवें श्लोक में उसका निगमन दोनों कथाओं के लिए देखें इसी अध्ययन का आमुख। प्रस्तुत किया है। नेमिचन्द्र ने सरस शब्दों में उस कथा का २२. प्रज्ञावान् पुरुष की (पण्णवओ) विस्तार इस प्रकार किया हैशान्त्याचार्य के अनुसार वही व्यक्ति प्रज्ञावान कहलाता है एक धनिक बनिये के तीन पुत्र थे। उसने अपने पुत्रों की जो ज्ञान और क्रिया-दोनों से युक्त हो, जो हेय और उपादेय बुद्धि, व्यवसाय-कौशल, पुण्यशालिता और पुरुषार्थ की परीक्षा की विवेक-बुद्धि से युक्त हो। निश्चयनय के अनुसार क्रियारहित लेनी चाही। उसने एक उपाय किया। तीनों पुत्रों को एक-एक प्रज्ञा अप्रज्ञा ही होती है। हजार कार्षापण देते हुए उसने कहा-'इस पूंजी से तुम तीनों नेमिचन्द्र के अनुसार प्रकृष्ट ज्ञान प्रज्ञा है। क्रिया-विकल व्यापार करो और अमुक काल के बाद मेरे पास पूंजी लेकर ज्ञान प्रकृष्ट होता ही नहीं, क्योंकि उसमें राग-द्वेष आदि आओ।' वे तीनों मूल पूंजी को लेकर अपने नगर से चले और समन्वित रहते हैं। अतः वह अप्रज्ञा ही है।' भिन्न-भिन्न नगरों में व्यापार करने के लिए अवस्थित हो गए। २३. अनेक वर्ष नयुत (असंख्यकाल) की एक ने सोचा-'पिताजी हमारी परीक्षा करना चाहते हैं। इसीलिए (अणेगवासानउया) उन्होंने परदेश भेजा है। अब मेरा कर्त्तव्य है कि मैं प्रचुर अर्थ वर्षों के अनेक नयुत–अर्थात् पल्योपम सागरोपम । 'नयुत' का उपार्जन करूं और पिताजी को संतुष्ट करूं।' जो मनुष्य एक संख्यावाची शब्द है। वह पदार्थ की गणना में भी प्रयुक्त पुरुषार्थ नहीं करता वह केवल 'हडप्पा' जैसा होता है, केवल होता है और आयुष्य काल की गणना में भी। यहां आयुष्य काल घास-फूस का पुतला होता है। इसलिए अपना पुरुषार्थ करना की गणना की गई है। अतः इसके पीछे वर्ष शब्द जोड़ना पड़ा। अपेक्षित है। मेरे लिए अर्थ के उपार्जन का यह सुन्दर अवसर १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २६२। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २७६ : 'सहस्रं' दशशतात्मक, कार्षापणानामिति गम्यते। २. Monier Monier-Williams, Sanskrit English Dictionary, p. 276. ३. हिन्दू सभ्यता, पृ० १७४, १७५। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र २७८। ५. सुखबोधा, पत्र ११६ । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६३ : भगवता वरिससताउएस मणुएसु धम्मो पणीतो इत्यतः ऊणे वाससयाउए। ७. बृहवृत्ति, पत्र २७८ : भगवतश्च वीरस्य तीर्थे प्रायो न्यूनवर्षशतायुष एव जन्तव इतीत्थमुपन्यासः। Jain Education Intemational Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १४० अध्ययन ७: श्लोक १७,२० टि०२६-२८ है। कहा भी है---प्रथमे नार्जिता विद्या, द्वितीये नार्जितं धनं। व्यापार करने लग गया। तीसरे ने मूल पूंजी को इतना बढ़ाया तृतीये न तपस्तप्तं, चतुर्थे किं करिष्यति ? जिस व्यक्ति ने कि वह अपने परिवार के साथ आनन्द से रहने लगा।' अपने प्रथम वय में विद्या का अध्ययन नहीं किया, दूसरे वय में सोलहवें श्लोक का निगमन इस प्रकार हैधन नहीं कमाया और तीसरे वय में तपस्या नहीं की, साधना तीन संसारी प्राणी मनुष्य योनि में जन्मे। उनमें से एक नहीं की, वह भला अंतिम वय में क्या कर पाएगा? यह व्यक्ति संयम, आर्जव, मार्दव आदि गुणों से समन्वित होकर, सोचकर वह धन के उपार्जन में लगा। सादगीमय जीवन जीने सामान्य आरम्भ और परिग्रह से जीवन यापन करने लगा। वह का लक्ष्य बनाया और द्यूत आदि व्यसनों से दूर रहकर व्यापार मर कर पुनः मनुष्यभव में आया। यह मूल की सुरक्षा है। दूसरा में एकनिष्ठ हो गया। व्यापार चला और उसके विपुल लाभ सम्यक्-दर्शन और चारित्रिक गुणों से युक्त होकर, सरागसंयम हुआ। का पालन कर देवलोक में गया। उसने मूल पूंजी को बढ़ाया। दूसरे लड़के ने सोचा-'हमारे घर में धन की कमी नहीं तीसरे ने अपना जीवन हिंसा आदि में व्यतीत कर, मर कर है। प्रचुर धन है हमारे पास, किन्तु बिना कुछ नया उपार्जित नरक योनि या तिर्यञ्च योनि में जन्मा। यह मूल पूंजी को हार किए, वह धन भी कभी न कभी पूरा हो जाएगा। इसलिए मुझे जाने की बात है। मूलधन की सुरक्षा करनी चाहिए। वह व्यापार करने लगा। जो २६. वष-हेतुक (वहालिया) लाभ प्राप्त होता, उसको भोजन आदि में खर्च कर देता। बचाता चूर्णि के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'व्यधमूलिका' और कुछ भी नहीं। वृत्ति के अनुसार 'वधमूलिका' है। व्यध का अर्थ प्रमारण या तीसरे लड़के ने सोचा-विचित्र है कि हमारे घर में सात ताडन और 'वध' का अर्थ प्राणिघात, विनाश या ताड़न किया गया है। पीढ़ी तक खर्च करने जितना धन है। परन्तु पिताजी वृद्ध हैं। २७. लोलप और वंचक पुरुष (लोलयासढे) उनमें सोचने का शाक्त नहा है। धन का न्यूनता नहा जाए यहां 'लोलया' शब्द चिन्तनीय है। यह पुरुष का विशेषण इसलिए उन्होंने हमें परदेश भेजा है। यह ठीक ही कहा है- हो तो इसका रूप 'लोलए' होना चाहिए। 'लोलए सढे' का अर्थ पंचासा वोलीणा, छट्ठाणा नणं जति पुरिसस्स। 'लोलपता से शठ' हो तो उक्त पाठ हो सकता है किन्तु यह अर्थ रूवाणा ववसायो, हिरि सत्तोदारया चेव।। मान्य नहीं रहा है। वृत्तिकार ने 'लोलया' पाठ की संगति इस जब व्यक्ति पचास वर्ष की अवस्था को पार कर जाता है प्रकार की है—जो मनुष्य मांस आदि में अत्यन्त लोलय होता है, तब उसमें छह कमियां आती हैं--(१) रूप की कमी (२) आज्ञा वह उसी में तन्मय हो जाता है। उसी तन्मयता को प्रगट करने देने की अक्षमता (३) व्यवसाय करने की निपुणता में कमी (४) के लिए यहां लोल (लोलुप) को भी लोलता (लोलुपता) कहा गया लज्जाहीनता (५) शक्ति की न्यूनता और (६) उदारता की कमी। है। या से आ को अलाक्षणिक माना जाए तो लोलय का लोलक मैं क्यों धन कमाने के क्लेश में पडूं? उसने यह सोच बनता है—लोलक अर्थात् लोलुप। कर व्यापार नहीं किया और केवल द्यूत, मद्य, मांस आदि के शट का अर्थ है-आलसी या विश्वस्त व्यक्तियों को ठगने सेवन में लगा रहा। कुछ ही दिनों में मूल पूंजी खर्च हो गई। वाला। मांसाहार नरकगति और वंचना तिर्यक्गति में उत्पन्न काल की अवधि पूरी हुई। तीनों अपने नगर लौटे। जिस होने हेतु हैं। इसलिए इस श्लोक में 'लोलय' और 'शट' का पुत्र ने अपनी मूल पूंजी गंवा डाली थी, पिता ने उसे अपने ही प्रयोग सापेक्ष है। घर में नौकर की तरह रहने के लिए बाध्य किया। जिसने मूल २८. (श्लोक २०) पूंजी की सुरक्षा की थी, उसे घर का काम-काज सौंपा और इस श्लोक में विमात्रशिक्षा, गृहिसुव्रत और कर्मसत्य–ये जिसने पूंजी को बढ़ाया था उसे घर का स्वामी नियुक्त किया। तीन शब्द विशेष अर्थवान् हैं। इसी कथा का दूसरा कोण इस प्रकार है चूर्णि में शिक्षा का अर्थ शास्त्र-कला का कौशल है। तीनों व्यापार करने लगे। जिसने अपनी मूल पूंजी गंवा शान्त्याचार्य ने शिक्षा का अर्थ-प्रकृतिभद्रता आदि गुणों का डाली, वह आगे व्यापार करने में असमर्थ रहा। उसने फिर अभ्यास किया है। प्रस्तुत प्रकरण में यह अर्थ अधिक उपयुक्त है। नौकरी प्रारंभ की। दूसरे ने मूल पूंजी की सुरक्षा की तो वह पुनः चूर्णि में सुव्रत का अर्थ 'ब्रह्मचरणशील' है। शान्त्याचार्य ने सेवन मी अवधि पूरी हुई। पिता ने उसे १. सुखबोधा, पत्र ११६, १२०। २. वही, पत्र १२०। ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६४। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २८०। (ग) सुखबोधा, पत्र १२०। ४. बृहवृत्ति, पत्र २८० : 'लोलायासढे' त्ति लोलया-पिशितादिलाम्पट्यं तद्योगाज्जुन्तुरपि तन्मयत्वख्यापनार्थ लोलतेत्युक्तः । ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६४ : न धर्मचरणोधमवान्। (ख) बृहवृत्ति, पत्र २८०: शाठ्ययोगाच्छठः विश्वस्तजनवंचकः । ६. ठाणं, ४।६२८, ६२६। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६५ : शिक्षानाम शास्त्रकलासु कौशल्यम्। ८. बृहवृत्ति, पत्र २८१ : "शिक्षाभिः' प्रकृतिभद्रकत्वाद्यभ्यासरूपाभिः । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६५ : ब्रह्मचरणशीला सुव्रताः । Jain Education Intemational Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरवीय सुव्रत का अर्थ सत्पुरुषोषित, अविषाद आदि गुणों से युक्तकिया है।' यहां व्रत का प्रयोग आगमोक्त श्रावक के बारह व्रतों के अर्थ में नहीं है। उन व्रतों को धारण करने वाला 'देवगति' (वैमानिक) में ही उत्पन्न होता है। यहां सुव्रती की उत्पत्ति मनुष्ययोनि में बतलाई गई है। इसलिए यहां व्रत का अर्थप्रकृतिभद्रता आदि का अनुशीलन होना चाहिए। स्थानांग में बताया है कि मनुष्य-गति का बन्ध चार कारणों से होता है १. प्रकृति - भद्रता, २. प्रकृति- विनीतता, ३. सानुक्रोशता, ४. अमत्सरता जीव जैसा कर्म - बन्ध करते हैं, वैसी गति उन्हें प्राप्त होती है। इसलिए उन्हें कर्म-सत्य कहा है। जीव जो कर्म करते हैं उसे भोगना ही पड़ता है, बिना भोगे उससे मुक्ति नहीं मिलती।" इसलिए जीवों को कर्म-सत्य कहा है। जिनके कर्म ( मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियां) सत्य (अविसंवादी) होते हैं, वे कर्म-सत्य कहलाते हैं। जिनके कर्म निश्चित रूप से फल देने वाले होते हैं, वे कर्म-सत्य कहलाते हैं। 'कम्मसच्चा हु पाणिणो' यह अर्थान्तरन्यास है । २९. विपुल शिक्षा (विठला सिक्खा) शिक्षा दो प्रकार की होती है— ग्रहण अर्थात् जानना और आसेवन अर्थात् ज्ञात विषय का अभ्यास करना।" ज्ञान के बिना आसेवन सम्यक् नहीं होता और आसेवन के बिना ज्ञान सफल नहीं होता, इसलिए ज्ञान और आसेवन दोनों मिलकर ही शिक्षा को पूर्ण बनाते हैं। जिन व्यक्तियों की शिक्षा विपुल होती है— सम्यक्-दर्शन युक्त अणुव्रतों या महाव्रतों की आराधना से सम्पन्न होती है वे देवलोक में उत्पन्न होते हैं। ३०. शीलसंपन्न..... करनेवाले ( सीलवंता सवीसेसा) १४१ अध्ययन ७ : श्लोक २१, २४ टि० २६-३४ (२) असंयम का परिहार करने वाला, (३) सदा प्रसन्न रहने वाला । १० शील का अर्थ है- सदाचार। जो उत्तरोत्तर गुणों को प्राप्त करते हैं, जो लाभोन्मुख होते हैं, वे सविशेष कहलाते हैं । ३१. अदीन - पराक्रमी (अद्दीणा) चूर्णि में अदीन के तीन अर्थ प्राप्त हैं – (१) कष्टसहिष्णु, १. बृहद्वृत्ति, पत्र २८१ 'सुव्रताश्च' धृतसत्पुरुषव्रताः, ते हि प्रकृतिभद्रकत्वाद्यभ्यासानुभावत एव न विपद्यपि विषीदन्ति सदाचारं वा नावधीरयन्तीत्यादिगुणान्विताः । २. वही, पत्र २८१ : आगमविहितव्रतधारणं त्वमीषामसम्भवि, देवगतिहेतुतयैव तदभिधानात् । ३. ठाणं, ४१६३० चउहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्साउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तंजहा - पगतिभद्दताए, पगतिविणीययाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरिताए । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६५ : कम्माणि सच्चाणि जेसिं ते कम्मसच्चा, तस्य जारिसाणि से तावं विधिं गतिं लभति, तं सुभमसुभं वा । ५. वही, पृ० १६५: अथवा कम्मसत्या हि, सच्चं कम्मं, कम्मं अवेदे नवेइत्ति, यदि हि कृतं कर्म्म न वेद्यते ततो न कर्म्म-सत्याः स्युरिति । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २८१ : कर्म्मणा मनोवाक्कायक्रियालक्षणेन सत्याअविसंवादिनः कर्म्मसत्याः । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र २८१ : सत्यानि अवन्ध्यफलानि कर्माणि ज्ञानावरणादीनि येषां ते सत्यकर्माणः । ८. सुखबोधा, पत्र १२२ 'शिक्षा' ग्रहणाऽऽसेवनात्मिका । ४. वृत्ति में इसके दो अर्थ प्राप्त हैं - ( १ ) जो इस चिन्ता से मुक्त होता है कि मुझे यहां से मर कर कहां जाना है, (२) जो परीषह और उपसर्गों के आने पर दीन नहीं होता ।" ३२. देवत्व को (देवयं) 1 यह सोलहवें श्लोक के 'लाभो देवगई भवे' का निगमन है। वृत्तिकार ने यहां प्रश्न उपस्थित किया है कि यहां देवत्व के लाभ की बात क्यों कही गई ? वास्तव में मुक्ति-लाभ की बात कहनी चाहिए थी। इसका समाधान देते हुए वे कहते हैं- आगम त्रैकालिक होते हैं, किसी समय विशेष के नहीं होते। वर्तमान में विशिष्ट संहनन के अभाव में मुक्ति की प्राप्ति असंभव है, इसलिए यहां 'देवत्व' की बात कही गई है।" वृत्ति की इस व्याख्या से विषय का प्रसंगान्तर हो जाता है । ३३. इस अति संक्षिप्त आयु में (सन्निरुद्धमि आउए) इस काल में मनुष्य की सामान्य आयु सी वर्ष की मानी जाती है। इससे अधिक आयुष्य वाले मनुष्य बहुत ही कम होते हैं । यह अति संक्षिप्त आयुष्य है। यह इसका एक अर्थ है। इसका दूसरा अर्थ है- आयुष्य दो प्रकार का होता हैसोपक्रम और निरुपक्रम । सोपक्रम आयुष्य में अनेक अवरोध आते हैं और प्राणी असमय में ही काल-कवलित हो जाता हैं। वह अपने आयुष्य कर्म के पुद्गलों को शीघ्र (संक्षेप में) भोग लेता है। ** ३४. योगक्षेम को (जोगक्खेम) योग का अर्थ है— अप्राप्त की प्राप्ति और क्षेम का अर्थ है-- प्राप्त का संरक्षण। यहां 'योगक्षेम' का तात्पर्य है— अध्यात्म की उन अवस्थाओं को प्राप्त करना जो आज तक प्राप्त नहीं थीं और जो प्राप्त हैं उनका सम्यग् संरक्षण करना, परिपालन करना । * प्रस्तुत श्लोक में प्रश्न किया गया है कि जब आयुष्य इतना अल्प है तो मनुष्य किन कारणों से अपने योगक्षेम को नहीं जानता ? अथवा जानता हुआ भी उसकी उपेक्षा करता है ? ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २८२ : विपुला' निःशंकितत्वादिसम्यक्त्वाचाराणुव्रतमहाव्रतादिविषयत्वेन विस्तीर्णा । १०. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६५ णो दीणो अद्दीणो इति अद्दीणो णाम जो परीसहोदर ण दीपो भवति, अथवा रोगिवत् अपत्थाहारं अकामः असंजमं वज्जतीति अदीनः, जे पुण हृष्यन्ति इव ते अद्दीणा । ११. बृहद्वृत्ति पत्र २८२ अदीनाः कथं वयममुत्र भविष्याम इति वैक्लव्यरहिताः परिषहोपसर्गादिसम्भवे वा न दैन्यभाज इत्यदीनाः । १२. वही, पत्र २८२ : ननु तत्त्वतो मुक्तिगतिरेव लाभ:, तत् किमिह तत्परिहारतो देवगतिरुक्तेति ? उच्यते, सूत्रस्य त्रिकालविषयत्वात्, मुक्तेश्चेदानीं विशिष्टसंहननाभावतो ऽभावाद् देवगतेश्च 'छेवट्ठेण उ गम्मइ चत्तारि उ जाय आदिमा कप्पा' इति वचनाच्छेदपरिवर्तिसंहननिनामिदानींतनानामपि सम्भवादेवमुक्तमिति । १३. (क) उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६८ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २८३ । १४. बृहद्वृत्ति, पत्र २८३ : अलब्धस्य लाभो योगो, लब्धस्य च परिपालनं---: क्षमो ऽनयोः समाहारो योगक्षेमं कोऽर्थः ? अप्राप्तविशिष्टधर्मप्राप्तिः प्राप्तस्य च परिपालनम् । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १४२ अध्ययन ७ : श्लोक २५-२६ टि०३५-४० प्रस्तुत श्लोक में प्रश्न किया गया है कि जब आयुष्य उनमें प्राथमिकता है धर्म की, फिर अर्थ की और काम का स्थान इतना अल्प है तो मनुष्य किन कारणों से अपने योगक्षेम को है सबसे अन्त में। नहीं जानता? अथवा जानता हुआ भी उसकी उपेक्षा करता है? जो मनुष्य अर्थ का अतिसेवन करता है, वह काम और योगक्षेम को न जानने के कारण अगले श्लोक (२५) में धर्म का अतिक्रमण करता है। जो काम का अतिसेवन करता है, निर्दिष्ट हैं—(१) कामभोगों से निवृत्त न होना और (२) पार ले वह धर्म और अर्थ का अतिक्रमण करता है। जो धर्म का जाने वाले मार्ग को सुनकर-जानकर भी उसकी उपेक्षा करना। अतिसेवन करता है वह अर्थ और काम का अतिक्रमण करता गीता में भी योगक्षेम शब्द प्रयुक्त है। वहां उसका अर्थ है। जीवन के लिए धर्म, अर्थ और काम-तीनों आवश्यक हैं, है-अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा।' पर इनका संतुलित सेवन ही सुखद अवस्था पैदा कर सकता है। ३५. (श्लोक २४) ३७. पार ले जाने वाले मार्ग को (नेयाउयं मग्ग) प्रस्तुत श्लोक के अन्त में वृत्तिकारों ने इस अध्ययन में प्रयुक्त सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र-यही नैर्यात्रिक पांच दृष्टान्तों का निगमन प्रस्तुत किया है। वह इस प्रकार है- मार्ग है, मुक्ति-मार्ग है। यही पार ले जाने वाला है।' १. उरभ्र का दृष्टान्त--भोगों के उपभोग से भविष्य में ३८. पुतिदेह (औदारिक शरीर) का (पूइदेह) होने वाले दोषों का निदर्शक। शरीर पांच प्रकार के होते हैं औदारिक, वैक्रिय, आहारक, २-३. काकिणी और आम्रफल का दृष्टान्त-भविष्य में तैजस और कार्मण। औदारिक शरीर रक्त, मांस, हड्डी आदि से अपाय-बहूल होने पर भी जो अतुच्छ है-प्रचुर है, उसे नहीं यक्त होता है। अतः उसे 'पूतिदेह'-दुर्गन्ध पैदा करने वाला छोड़ा जा सकता-इसका निदर्शक। शरीर माना गया है। ४. वणिग् का दृष्टान्त-तुच्छ को भी वही छोड़ सकता है ३९. (श्लोक २७) जो लाभ और अलाभ को जानने में कुशल है, जो आय-व्यय को ऋद्धि-स्वर्ण आदि का समुदय। तोलने में कुशल है-इस तथ्य का निदर्शक दृष्टान्त।। द्युति-शरीर की कान्ति। ५. समुद्र का दृष्टान्त-आय-व्यय को कैसे तोला जाए, यश:-पराक्रम से होने वाली प्रसिद्धि । उसका निदर्शक दृष्टान्त । जैसे-दिव्यकामभोग समुद्र के जल के वर्ण-गांभीर्य आदि गुणों से होने वाली श्लाघा अथवा गौरव । समान है। उसका उपार्जन महान् आय है और अनुपार्जन सुख-इष्ट विषयों की उपलब्धि से होने वाला आह्लाद । महान् व्यय है। ४०. (श्लोक २८-२९) ३६. कामभोगों से निवृत्त न होने वाले पुरुष का इन श्लोकों में व्यवहृत कुछ शब्दों के अर्थ(कामाणियट्टस्स) १. धर्म-अहिंसा, संयम और तप लक्षण वाला आचार। काम-निवृत्ति प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है। २. अधर्म-विषयासक्ति, पदार्थासक्ति। सोमदेवसूरि ने त्रिवर्ग के संतुलन पर विमर्श किया है। उनके ३. बाल–अज्ञानी। अनुसार जिससे सब इन्द्रियों से प्रीति होती है, उसका नाम है ४. धीर-धृतिमान् । जिसमें धृति-मन के नियमन की 'काम'। उन्होंने काम-सेवन के विषय में कुछ विकल्प प्रस्तुत शक्ति होती है, वह। किए हैं वृत्ति में इसके दो अर्थ प्राप्त हैं-(१) बुद्धिमान और (२) १. काम का सेवन उस सीमा तक हो, जिससे धर्म और कष्टों से अक्षुब्ध रहने वाला। अर्थ की सिद्धि में विरोध न आए। कवि की प्रसिद्ध उक्ति है-"विकारहेतौ सति विक्रियन्ते २. धर्म, अर्थ और काम का संतुलित सेवन हो। येषां न चेतांसि त एव धीरा:-विकार के हेतु उपस्थित होने पर ३. काम का अतिसेवन शरीर को पीड़ा पहुंचाता है तथा भी जिन मनुष्यों का मन विकारग्रस्त नहीं होता, वे धीर होते हैं। धर्म और अर्थ में बाधा डालता है। दशवकालिक सूत्र के टीकाकार आचार्य हरिभद्रसूरी कहते __४. जहां धर्म, अर्थ और काम का युगपत प्रसंग हो तो हैं-दशवैकालिक के प्रथम अध्ययन में धर्म का वर्णन है। वह १. गीता, २२ ★ धर्मार्थकामानां युगपत् समवाये पूर्वः पूर्वो गरीयान्। २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २८३, २८४ । ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६७ : नयणशीलो नैयायिकः, मग ति (ख) सुखबोधा, पत्र १२२। दसणचरित्तमइयं। ३. सोमदेव नीतिसूत्राणि, कामसमुद्देश, १ : आभिमानिकरसानुविद्धा यतः ६. सुखबोधा, पत्र १२३ : 'ऋद्धिः' कनकादिसमुदायः, 'द्युतिः' शरीरकान्तिः, सर्वन्द्रियप्रीतिः स कामः। 'यशः' पराक्रमकृता प्रसिद्धिः, 'वर्णः' गांभीर्यादिगुणः श्लाघा गौरवत्वादि सोमदेव नीतिसूत्राणि, कामसमुद्देश, २, ३, ४, १३ : वा,... 'सूखं' यथेप्सितविषयायाप्ती आहूलादः। * धर्मार्थाविरोधेन काम सेवेत.....। ७. बृहदृवृत्ति, पत्र २८५ : धीः-बुद्धिस्तया राजत इति धीरः-धीमान् * समं वा त्रिवर्ग सेवेत। परीषहाद्यक्षोभ्यो वा धीरः । * एको ह्यत्यासेवितो धर्मार्थकामानां आत्मानमितरी च पीडयति। कामाना आत्मानमितरी च पीडयति। ८. कुमारसंभव, ११५६। Jain Education Intemational Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उरभ्रीय १४३ अध्ययन ७:श्लोक २६ टि० ४० धृति के बिना टिक नहीं सकता। अतः दूसरे अध्ययन ‘सामण्णपुवयं' लिए तप भी निश्चित ही दुर्लभ है। में धृति का प्रतिपादन है। श्रामण्य और तप का मूल धृति है- महाभारत के अनुसार सुख और दुःख में विचलित नहीं जस्स थिई तस्स तवो जस्स तवो तस्स सुग्गई सुलभा। होना, सम रहना, धृति है।' धृति दूसरा साथी है। जे अधिइभंतपुरिसा तवोऽपि खलु दुल्लहो तेसिं। ५. सर्वधर्मानुवर्ती-वृत्तिकार ने सर्वधर्म का अर्थ—शान्ति जिसमें धृति होती है, उसके तप होता है। जिसके तप आदि दसविध यतिधर्म किया है। उसका अनुवर्तन करने वाला होता है, उसको सुगति सुलभ है। जो अधृतिमान पुरुष हैं, उनके सर्वधर्मानुवर्ती होता है। १. महाभारत, शान्तिपर्व १६२।१६ : धृति म सुखे दुःखे यया नाप्नोति विक्रियाम्। २. वही, वनपर्व २६७।२६ : धुत्या द्वितीयवान् भवति। ३. बृहवृत्ति, पत्र २८५ : सर्व धर्म क्षान्त्यादिरूपमनुवर्तते तदनुकूलाचारतया स्वीकुरुत इत्येवंशीलो यस्तस्य सर्वधर्मानुवर्तिनः। Jain Education Intemational Education Intermational Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमं अज्झयणं काविलीयं आठवां अध्ययन कापिलीय Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख कपिल ब्राह्मण था। लोभ की बाढ़ ने उसके मन में विरक्ति अपनी मां को रोते देखा तो इसका कारण पूछा। यशा ने कहाला दी। उसे सही स्वरूप ज्ञात हुआ। वह मुनि बन गया। “पुत्र! एक समय था जब तेरे पिता इसी प्रकार छत्र लगाकर संयोगवश एक बार उसे चोरों ने घेर लिया। तब कपिल मुनि ने दरबार में जाया-आया करते थे। वे अनेक विद्याओं के पारगार्मा उन्हें उपदेश दिया। वह संगीतात्मक था। उसी का यहां संग्रह थे। राजा उनकी विद्याओं से आकृष्ट था। उनके निधन के बाद किया गया है। प्रथम मुनि गाते, चोर भी उनके साथ-ही-साथ राजा ने वह स्थान दूसरे को दे दिया है।" तब कपिल ने कहागाने लग जाते। 'अधुवे असासयंमि, संसारंमि दुक्खपउराए।... "मां ! मैं भी विद्या पढूंगा।" न गच्छेज्जा।।' यह प्रथम श्लोक ध्रुवपद था। मुनि कपिल द्वारा यशा ने कहा—“पुत्र ! यहां सारे ब्राह्मण ईर्ष्यालु हैं। यहां यह–अध्ययन गाया गया था, इसलिए इसे कापिलीय कहा गया कोई भी तुझे विद्या नहीं देगा। यदि तू विद्या प्राप्त करना चाहता है।' सूत्रकृतांग चूर्णि में इस अध्ययन को 'गेय' माना गया है। है तो श्रावस्ती नगरी में चला जा। वहां तेरे पिता के परम मित्र नाम दो प्रकार से होते हैं :-(१) निर्देश्य (विषय) के इन्द्रदत्त नाम के ब्राह्मण हैं। वे तुझे विद्या पढ़ाएंगे।” आधार पर और (२) निर्देशक (वक्ता) के आधार पर। इस कपिल ने मां का आशीर्वाद ले श्रावस्ती की ओर प्रस्थान अध्ययन का निर्देशक कपिल है, इसलिए इसका नाम कापिलीय किया। पूछते-पूछते वह इन्द्रदत्त ब्राह्मण के यहां जा खड़ा हुआ। रखा गया है। अपने समक्ष एक अपरिचित यवक को देखकर इन्द्रदत्त ने इसका मुख्य प्रतिपाद्य है--उस सत्य का शोध जिससे पूछा---"तुम कौन हो? कहां से आए हो? यहां आने का क्या दुर्गति का अन्त हो जाए। सत्य-शोध में जो बाधाएं हैं उन पर प्रयोजन है ?" भी बहुत सुन्दर प्रकाश डाला गया है। लोभ कैसे बढ़ता है, कपिल ने सारा वृत्तान्त सुनाया। इन्द्रदत्त कपिल के उत्तर इसका स्वयं अनुभूत चित्र प्रस्तुत किया गया है। से बहुत प्रभावित हुआ। उसने उसके भोजन की व्यवस्था व्यक्ति के मन में पहले थोड़ा लोभ उत्पन्न होता है। वह शालिभद्र नामक एक धनाढ्य वणिक् के यहां करके अध्यापन उसकी पूर्ति करता है। मन पुनः लोभ से भर जाता है। उसकी शुरू कर दिया। कपिल भोजन करने प्रतिदिन सेठ के यहां जाता पूर्ति का प्रयत्न होता है। यह क्रम चलता है परन्तु हर बार लोभ और इन्द्रदत्त से अध्ययन करता। उसे एक दासी की पुत्री भोजन का उभार तीव्रता लिए होता है। ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है त्यों-त्यों परोसा करती थी। वह हंसमुख स्वभाव की थी। कपिल कभी-कभी लोभ भी बढ़ता है। इसका अन्त तभी होता है जब व्यक्ति उससे मजाक कर लेता था। दिन बीते, उनका सम्बन्ध गाढ़ हो निर्लोभता की पूर्ण साधना कर लेता है। गया। एक बार दासी ने कपिल से कहा-“तुम मेरे मेरा सर्वस्व उस काल और उस समय में कौशाम्बी नगरी में जितशत्रु है। तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। मैं निर्वाह के लिए दूसरों के राजा राज्य करता था। उसकी सभा में चौदह विद्याओं का यहां रह रही हूं अन्यथा तो मैं तुम्हारी आज्ञा में रहती।" पारगामी काश्यप नाम का ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम यशा इसी प्रकार कई दिन बीते। दासी-महोत्सव का दिन निकट था। उसके कपिल नाम का एक पुत्र था। राजा काश्यप से आया। दासी का मन बहुत उदास हो गया। रात्रि में उसे नींद प्रभावित था। वह उसका बहुमान करता था। अचानक काश्यप नहीं आई। कपिल ने इसका कारण पूछा। उसने कहा----- की मृत्यु हो गई। उस समय कपिल की अवस्था बहुत छोटी थी। “दासी-महोत्सव आ गया है। मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। राजा ने काश्यप के स्थान पर दूसरे ब्राह्मण को नियुक्त कर मैं कैसे महोत्सव मनाऊं? मेरी सखियां मेरी निर्धनता पर दिया। वह ब्राह्मण जब घर से दरबार में जाता तब घोड़े पर हंसती हैं और मुझे तिरस्कार की दृष्टि से देखती हैं।" कपिल आरूढ़ हो छत्र धारण करता था। काश्यप की पत्नी यशा जब यह का मन खिन्न हो गया। उसे अपने अपौरुष पर रोष आया। देखती तो पति की स्मृति में विहल हो रोने लग जाती थी। कुछ दासी ने कहा-“तुम इतना धैर्य मत खोओ। समस्या का एक काल बीता। कपिल भी बड़ा हो गया था। एक दिन जब उसने समाधान भी है। इसी नगर में धन नाम का एक सेट रहता है। बृहवृत्ति, पत्र २८६ : .......ताहे ताणवि पंचवि चोरसयाणि ताले कुटुंति, सोऽवि गायति धुवर्ग, “अधुवे असासयंमि दुक्खपउराए। किं णाम तं होज्ज कम्मयं? जेणाहं दुग्गई ण गच्छेज्जा ।।१।।" एवं सव्वत्थ सिलोगन्तरे धुवगं गायति 'अधुवेत्यादि', तत्थ केइ पढमसिलोगे संबुद्धा, के। बीए, एवं जाव पंचवि सया संबुद्धा पव्वतियत्ति। ...स हि भगवान् कपिलनामा...धूवकं सगीतवान् । २. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ०७ : गेयं णाम सरसंचारेण, जधा काविलिज्जे-“अधुवे असासयंमि संसारम्मि दुक्खपउराए। ...न गच्छेज्जा ।।" ३. आवश्यक नियुक्ति, गाथा १४१, वृत्ति : निर्देशकवशाज्जिनवचनं कापिलीयम् । Jain Education Intemational Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १४६ अध्ययन ८ : आमुख जो व्यक्ति प्रातःकाल उसे सबसे पहले बधाई देता है उसे वह दो भीतर करोड़ से भी अधिक मूल्यवान वस्तु पैदा हो गई है। मैं माशा सोना देता है। तुम वहां जाओ। उसे बधाई देकर दो माशा अब करोड़ मोहरों का क्या करूं?" मुनि कपिल राजा के सोना ले आओ। इससे मैं पूर्णता से महोत्सव मना लूंगी।" सान्निध्य से दूर चला गया। साधना चलती रही। वे मुनि छह कपिल ने बात मान ली। कोई व्यक्ति उससे पहले न पहुंच मास तक छमस्थ अवस्था में रहे। जाए, यह सोच वह तुरन्त घर से रवाना हो गया। रात्रि का राजगृह और कौशाम्बी के बीच १८ योजन का एक समय था। नगर-आरक्षक इधर-उधर घूम रहे थे। उन्होंने उसे महाअरण्य था। वहां बलभद्र प्रमुख इक्कडदास जाति के पांच सौ चोर समझ पकड़ कर बांध लिया और प्रभात में प्रसेनजित राजा चोर रहते थे। कपिल मुनि ने एक दिन ज्ञान-बल से जान लिया के सामने प्रस्तुत किया। राजा ने उससे रात्रि में अकेले घूमने कि सभी चोर एक दिन अपनी पापकारी वृत्ति को छोड़कर संबुद्ध का कारण पूछा। कपिल ने सहज व सरल भाव से सारा वृत्तान्त हो जाएंगे। उन सबको प्रतिबोध देने के लिए कपिल मुनि सुना दिया। राजा उसकी स्पष्टवादिता पर बहुत प्रसन्न हुआ श्रावस्ती से चलकर उस महा अटवी में आए। चोरों के और बोला-"ब्राह्मण ! आज मैं तुझ पर बहुत प्रसन्न हूं। तू जो सन्देशवाहक ने उन्हें देख लिया। वह उन्हें पकड़ अपने सेनापति कुछ मांगेगा वह मिलेगा।" कपिल ने कहा-“राजन् ! मुझे सोचने के पास ले गया। सेनापति ने इन्हें श्रमण समझ कर छोड़ते हुए का कुछ समय दिया जाए।" राजा ने कहा-“यथा इच्छा।" कहा-“श्रमण ! कुछ संगान करो।" श्रमण कपिल ने हावभाव कपिल राजा की आज्ञा ले अशोक वनिका में चला गया। से संगान शुरू किया। “अधुवे असासयंमि, संसारंमि दुक्खपउराए. वहां उसने सोचा--"दो माशा सोने से क्या होगा? क्यों न मैं सौ ....”—यह ध्रुवपद था। प्रत्येक श्लोक के साथ यह गाया जाता मोहरें मांग लूं ?" चिन्तन आगे बढ़ा। उसे सौ मोहरें भी तुच्छ था। वहां उपस्थित सभी चोर “अधुवे असासयंमि" का सह-संगान लगने लगीं। हजार, लाख, करोड़ तक उसने चिन्तन किया। करते हुए ताली बजाने लगे। उनके द्वारा इस पद्य का पुनरुच्चारण परन्तु मन नहीं भरा। सन्तोष के बिना शान्ति कहां? उसका मन हो जाने पर कपिल ने आगे के श्लोक कहे। कई चोर प्रथम आंदोलित हो उठा। तत्क्षण उसे समाधान मिल गया। मन वैराग्य श्लोक सुनते ही संबुद्ध हो गए, कई दूसरे, कई तीसरे, कई चौथे से भर उठा। चिन्तन का प्रवाह मुड़ा। उसे जाति-स्मृति-ज्ञान श्लोक आदि सुनकर । इस प्रकार पांच सौ चोर प्रतिबद्ध हो गए। प्राप्त हो गया। वह स्वयं-बुद्ध हो गया। वह स्वयं अपना लुंचन मुनि कपिल ने उन्हें दीक्षा दी और वे सभी मुनि हो गए। कर, प्रफुल्ल वदन हो राजा के पास आया। राजा ने पूछा-“क्या प्रसंगवश इस अध्ययन में ग्रन्थित्याग, संसार की असारता, सोचा है, जल्दी कहो।” कपिल ने कहा-"राजन् ! समय बीत कुतीर्थिकों की अज्ञता, अहिंसा-विवेक, स्त्री-संगम का त्याग चुका है। मुझे जो कुछ पाना था पा लिया है। तुम्हारी सारी वस्तुएं आदि-आदि विषय भी प्रतिपादित हुए हैं। मुझे तृप्त नहीं कर सकीं। किन्तु उनकी अनाकांक्षा ने मेरा मार्ग यह अध्ययन 'ध्रुवक' छन्द में प्रतिबद्ध है। जो छन्द प्रशस्त कर दिया है। जहां लाभ है वहां लोभ है। ज्यों-ज्यों लाभ सर्वप्रथम श्लोक में तथा प्रत्येक श्लोक के अन्त में गाया जाता बढ़ता है त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता जाता है। दो माशा सोने की है, उसे 'ध्रुवक' कहते हैं। वह तीन प्रकार का होता है-छह प्राप्ति के लिए मैं घर से निकला था किन्तु मेरी तृप्ति करोड़ में पदों वाला, चार पदों वाला और दो पदों वालाःभी नहीं हुई। तृष्णा अनन्त है। इसकी पूर्ति वस्तुओं की जं गिज्जइ पुबं विय, पुणो-पुणो सव्वकव्वबंधेसु। उपलब्धियों से नहीं होती, वह होती है त्याग से, अनाकांक्षा से।" घुवयति तमिह तिविहं, छप्पायं चउपयं दुपयं।। राजा ने कहा-“ब्राह्मण ! मेरा वचन पूरा करने का मुझे (बुहद्वृत्ति, पत्र २८६) अवसर दें। मैं करोड़ मोहरें भी देने के लिए तैयार हूं।” कपिल इस अध्ययन में चार पदों वाले ध्रुवक का प्रयोग हुआ है। ने कहा-“राजन् ! तृष्णा की अग्नि अब शान्त हो गई है। मेरे Jain Education Intemational Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठम अज्झयणं : आठवां अध्ययन काविलीयं : कापिलीय मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. अधुवे असासयंमि, अधुवेऽशाश्वते अध्रुव, अशाश्वत' और दुःख-बहुल संसार में ऐसा - संसारंमि दुक्खपउराए। संसारे दुःखप्रचुरके। कौन-सा कर्म-अनुष्ठान है, जिससे मैं दुर्गति में न किं नाम होज्ज तं कम्मयं, किं नाम भवेत् तद् कर्मकं जाऊं? जेणाहं दोग्गई न गच्छेज्जा।। येनाहं दुर्गतिं न गच्छेयम्।। २. विजहित्तु पुवसंजोगं, विहाय पूर्वसंयोगं पूर्व संबन्धों का त्याग कर, किसी के साथ स्नेह न न सिणेहं कहिंचि कुव्वेज्जा। न स्नेहं क्वचित् कुर्वीत् । करे। स्नेह करने वालों के साथ भी स्नेह न करने असिणेह सिणेहकरेहिं, अस्नेहः स्नेहकरेषु वाला भिक्षु दोषों और प्रदोषों से मुक्त हो जाता है। दोसपओसेहिं मुच्चए भिक्खू।। दोषप्रदोषैः मुच्यते भिक्षुः ।। ३. तो नाणदंसणसमग्गो, ततो ज्ञानदर्शनसमग्रः केवल ज्ञान और दर्शन से परिपूर्ण तथा विगतमोह हियनिस्सेसाए सव्वजीवाणं। हितनिःश्रेयसाय सर्वजीवानाम्।। मुनिवर ने सब जीवों के हित और कल्याण के लिए तेसिं विमोक्खणट्ठाए, तेषां विमोक्षणार्थ तथा उन पांच सौ चोरों की मुक्ति के लिए कहा। भासई मुनिवरो विगयमोहो।। भाषते मुनिवरो विगतमोहः ।। ४. सव्वं गंथं कलहं च, सर्वं ग्रन्थं कलहं च भिक्षु कर्मबन्ध की हेतुभूत सभी ग्रन्थियों और विप्पजहे तहाविहं भिक्खू। विप्रजह्यात् तथाविधं भिक्षुः। कलह का त्याग करे। कामभोगों के सब प्रकारों में सव्वेसु कामजाएसु, सर्वेषु कामजातेषु दोष देखता हुआ वीतराग तुल्य मुनि" उसमें लिप्त न पासमाणो न लिप्पई ताई।। पश्यन् न लिप्यते तादृक् ।। बने। ५. भोगामिसदोसविसण्णे, भोगामिषदोषविषण्णः आत्मा को दूषित करने वाले भोगामिष-(आसक्ति जनक हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे। व्यत्यस्तहितनिःश्रेयसबुद्धिः। भोग) में निमग्न, हित और निःश्रेयस् मोक्ष में बाले य मंदिए मूढे, बालश्च मन्दो मूढः विपरीत बुद्धि वाला, अज्ञानी, मन्द और मूढ' जीव बज्झई मच्छिया व खेलंमि।। बध्यते मक्षिकेव श्वेले।। उसी तरह (कर्मों से) बन्ध जाता है जैसे श्लेष्म" सें मक्खी । ६. दुपरिच्चया इमे कामा, दुष्परित्यजा इमे कामाः ये काम-भोग दुस्त्यज हैं। अधीर पुरुषों द्वारा ये नो सुजहा अधीरपुरिसेहिं। नो सुहानाः अधीरपरुषैः । सुत्यज नहीं हैं। जो सुव्रती साधु हैं, वे दुस्तर अह संति सुव्वया साहू, अथ सन्ति सुव्रताः साधवः काम-भोगों को उसी प्रकार तर जाते हैं जैसे वणिक् जे तरंति अतरं वणिया व।। ये तरन्त्यतरं वणिज इव।। समुद्र को। ७. समणा मु एगे वयमाणा, श्रमणाः स्मः एके वदन्तः कुछ पशु की भांति अज्ञानी पुरुष 'हम श्रमण हैं' ऐसा पाणवहं मिया अयाणंता। प्राणवधं मृगा अजानन्तः । कहते हुए भी प्राण-वध को नहीं जानते। वे मन्द और मंदा निरयं गच्छंति, मन्दा निरयं गच्छन्ति बाल-पुरुष अपनी पापमयी दृष्टियों से नरक में बाला पावियाहिं दिट्ठीहिं।। बालाः पापिकाभिर्दृष्टिभिः।। जाते हैं। ५९ मूड, Jain Education Intemational Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ८: श्लोक ८-१६ प्राण-वध का अनुमोदन करने वाला पुरुष कभी भी सर्वदुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। उन आर्योंतीर्थड्करों ने" ऐसा कहा है, जिन्होंने इस साधु-धर्म (महाव्रत) की प्रज्ञापना की। जो जीवों की हिंसा नहीं करता वैसे मुनि को 'समित' (सम्यक् प्रवृत्त) कहा जाता है। उससे पाप-कर्म वैसे ही दूर हो जाते हैं, जैसे उन्नत प्रदेश से पानी। जगत् के आश्रित जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनके प्रति मन, वचन और काया--किसी भी प्रकार से दण्ड का प्रयोग न करे। उत्तरज्झयणाणि १४८ ८. न हु पाणवहं अणुजाणे, न खलु प्राणवधमनुजानन् मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं। मुच्येत कदाचित् सर्वदुःखैः। एवारिएहिं अक्खार्य, एवमार्यैराख्यातं जेहिं इमो साहुधम्मो पण्णत्तो।। यैरयं साधुधर्मः प्रज्ञप्तः।। ६. पाणे य नाइवाएज्जा, प्राणांश्च नातिपातयेत् से समिए त्ति वुच्चई ताई। स समित इत्युच्यते तादृक् । तओ से पावयं कम्म, ततः अथ पापकं कर्म निज्जाइ उदगं व थलाओ।। निर्याति उदकमिव स्थलात् ।। १०.जगनिस्सिएहिं भूएहिं, जगन्निथितेषु भूतेषु तसनामेहिं थावरेहिं च।। त्रसनामसु स्थावरेषु च। नो तेसिमारमे दंडं, न तेषु आरभेत दण्ड मणसा वयसा कायसा चेव।। मनसा वचसा कायेन चैव।। ११.सुद्धसणाओ नच्चाणं, शुद्घषणाः ज्ञात्वा तत्थ ठवेज्ज भिक्खू अप्पाणं। तत्र स्थापयेद् भिक्षुरात्मानम्। जायाए घासमेसेज्जा, यात्रायै घासमेषयेद् रसगिद्धे न सिया भिक्खाए।। रसगृद्धो न स्याद् भिक्षादः।। १२.पंताणि चेव सेवेज्जा, प्रान्त्यानि चैव सेवेत सीयपिंडं पुराणकुम्मासं। शीतपिण्ड पुराणकुल्माषम्। अदु वुक्कसं पुलागं वा, अथ 'बुक्कसं' पुलाकं वा जवणट्ठाए निसेवए मंथु ।। यमनार्थ निषेवेत मन्थुम् ।। १३.जे लक्खणं च सुविणं च, ये लक्षणं च स्वप्नं च अंगविज्जं च जे पउंजंति।। अङ्गविद्यां च ये प्रयुञ्जन्ति। न हु ते समणा वुच्चंति, न खलु ते श्रमणा उच्यन्ते एवं आयरिएहिं अक्खायं ।। एवमाचार्यैराख्यातम् ।। १४.इह जीवियं अणियमेत्ता, इह जीवितं अनियम्य पब्मट्ठा समाहिजोएहिं। प्रभ्रष्टाः समाधियोगेभ्यः। ते कामभोगरसगिद्धा, ते कामभोगरसगृद्धाः उववज्जति आसुरे काए।। उपपद्यन्ते आसुरे काये।। १५.तत्तो वि य उवट्टिता, ततोऽपि च उद्धृत्य संसारं बहु अणुपरियडंति। संसारं बहु अनुपर्यटन्ति। बहुकम्मलेवलित्ताणं, बहुकर्मलेपलिप्तानां बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं।। बोधिर्भवति सुदुर्लभा तेषाम् ।। १६. कसिणं पि जो इमं लोयं, कृत्स्नमपि य इमं लोक पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स। प्रतिपूर्ण दद्यादेकस्मै। तेणावि से न संतुस्से, तेनापि स न सन्तुष्येत् इइ दुप्पूरए इमे आया।। इति दुष्पूरकोऽयमात्मा ।। भिक्षु शुद्ध एषणाओं को जानकर उनमें अपनी आत्मा को स्थापित करे। यात्रा (संयम-निर्वाह) के लिए भोजन की एषणा करे। भिक्षा-जीवी रसों में गृद्ध न हो। भिक्षु इन्द्रिय संयम के लिए प्रान्त (नीरस) अन्न-पान, शीत-पिण्ड, पुराने उड़द, बुक्कस (सारहीन), पुलाक (रूखा) या मंथु (वैर या सत्तू का चूर्ण) का सेवन करे।२० जो लक्षण-शास्त्र, स्वप्न-शास्त्र और अङ्गविद्या का प्रयोग करते हैं, उन्हें साधु नहीं कहा जाता-ऐसा आचार्यों ने कहा है।" जो इस जन्म में जीवन को अनियंत्रित रखकर२२ समाधि-योग से परिभ्रष्ट होते हैं, वे कामभोग और रसों से आसक्त बने हुए पुरुष असुर-काय में२५ उत्पन्न होते हैं। वहां से निकल कर भी वे संसार में बहुत पर्यटन करते हैं। वे प्रचुर कर्मों के लेप से लिप्त होते हैं। इसलिए उन्हें बोधि प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है। धन-धान्य से परिपूर्ण यह समूचा लोक भी यदि कोई किसी को दे दे-उससे भी वह संतुष्ट नहीं होतातृप्त नहीं होता, इतना दुष्पूर है यह आत्मा। Jain Education Intemational Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपिलीय १४९ अध्ययन ८: श्लोक १७-२० १७. जहा लाहो तहा लोहो, यथा लाभस्तथा लोभः जैसे लाभ होता है वैसे ही लोभ होता है। लाभ से लाहा लोहो पवड्ढई। लाभाल्लोभः प्रवर्धते। लोभ बढ़ता है।६ दो माशे सोने से पूरा होने वाला दोमासकयं कज्जं, द्विमाषकृतं कार्य कार्य करोड़ से भी पूरा नहीं हुआ। कोडीए वि न निट्ठियं ।। कोट्याऽपि न निष्ठितम् ।। १८. नो रक्खसीसु गिज्झेज्जा, न राक्षसीषु गृध्येत् वक्ष में ग्रन्थि (स्तनों) वाली, अनेक चित्त वाली" गंडवच्छासुऽणेगचित्तासु। गण्डवक्षस्स्वनेकचित्तासु। तथा राक्षसी की भांति भयावह स्त्रियों में आसक्त न जाओ पुरिसं पलोभित्ता, याः पुरुष प्रलोभ्य हो, जो पुरुष को प्रलोभन में डालकर उसे दास की खेल्लंति जहा व दासेहिं।। खेलन्ति यथेव दासैः।। भांति नचाती हैं ।३३ १६. नारीसु नो पगिज्झेज्जा, नारीषु नो प्रगृध्येत् स्त्रियों को त्यागने वाला अनगार उनमें गृद्ध न बने। इत्थीविप्पजहे अणगारे। स्त्रीविप्रजहोऽनगारः। भिक्षु धर्म को अति मनोज्ञ* जानकर उसमें अपनी धमं च पेसलं नच्चा, धर्म च पेशलं ज्ञात्वा आत्मा को स्थापित करे।२५ तत्थ ठवेज्ज भिक्खू अप्पाणं।। तत्र स्थापयेद् भिक्षुरात्मानम् ।। २०. इइ एस धम्मे अक्खाए, इत्येष धर्म आख्यातः इस प्रकार विशुद्ध प्रज्ञा वाले कपिल ने यह धर्म कहा। कविलेणं च विसुद्धपण्णेणं। कपिलेन च विशुद्धप्रज्ञेन। जो इसका आचरण करेंगे वे तरेंगे और उन्होंने दोनों तरिहिंति जे उ काहिंति, तरिष्यन्ति ये तु करिष्यन्ति लोकों को आराध लिया।३६ तेहिं आराहिया दुवे लोग।। तैराराधितौ द्वौ लोकौ।। —त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन ८: कापिलीय १. अघुव अशाश्वत (अधुवे असासयंमि) पीछे किया जाता है—इन भावनाओं के आधार पर चूर्णिकार ने आचारांग वृत्ति में अधूव के दो अर्थ प्राप्त हैं-अनित्य पूर्व-संयोग का अर्थ संसार का सम्बन्ध, असयम का सम्बन्ध और चल।' अनित्य वह होता है जिसका नाश अवश्यंभावी है। और ज्ञाति का सम्बन्ध किया है। शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने चल वह होता है जो चलमान-गतिशील होता है। पूर्व-संयोग का अर्थ—पूर्व-परिचितों का संयोग अर्थात् माता-पिता शान्त्याचार्य ने एक ही स्थान से प्रतिबद्ध वस्तु को धूव आदि तथा धन आदि का सम्बन्ध किया है। माना है। संसार अध्रुव है क्योंकि उसमें प्राणी उच्च-अवच आदि ३. दोषों और प्रदोषों से (दोसपओसेहि) स्थानों में भ्रमण करते रहते हैं। वे एक स्थान से प्रतिबद्ध नहीं यहां दो शब्द हैं-दोष और प्रदोष । दोष का अर्थ है--- होते। मानसिक संताप आदि। प्रदोष का अर्थ है-नरकगति आदि। शाश्वत का अर्थ है-सदा होने वाला। जो सदा नहीं होता ४. हित और कल्याण के लिए (हियनिस्सेसाए) वह अशाश्वत है। संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं है। राज्य, धन, हित का अर्थ है—निरुपम सुख का हेतुभूत, आत्मा के धान्य, परिवार आदि अशाश्वत हैं। हारिलवाचक ने कहा है'- लिए स्वास्थ्यकर। निःश्रेयस् का अर्थ है-मोक्ष अथवा कल्याण। चलं राज्यश्वर्य धनकनकसारः परिजनो, चूर्णि में निःश्रेयस् का अर्थ इहलोक, परलोक में निश्चित श्रेय नृपाद्वाल्लभ्यं च चलममरसौख्यं च विपुलम् । अथवा अक्षय श्रेय किया है। चलं रूपाउरोग्यं चलमिह चरं जीवितमिदं, प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'निस्सेस' का अर्थ निःशेष जनो दृष्टो यो वै जनयति सुखं सोऽपि हि चलः॥ अथवा समस्त, संपूर्ण भी हो सकता है। इस संदर्भ में निःशेषहित अध्रुव और अशाश्वत—ये दोनों शब्द एकार्थवाची भी हैं। का अर्थ-संपूर्ण हित है। इसमें पुनरुक्त दोष नहीं है। चूर्णिकार ने पुनरुक्त न होने के ५. म पांच सौ चोरों की मुक्ति के लिए (तसिं विमोक्खणट्ठाए) सामान्यतः पांच कारण बतलाए हैं—(१) भक्तिवाद (२) शब्द पर कपिल ने पूर्व-भव में इन सभी पांच सौ चोरों के साथ विशेष बल देने के लिए (३) कृपा में (४) उपदेश में (५) भय संयम का पालन किया था और उन सबके द्वारा यह संकेत दिया प्रदर्शित करने के लिए। हुआ था कि समय आने पर हमें सम्बोधि देना। उसकी पूर्ति के प्रस्तुत प्रसंग में चूर्णिकार ने पुनरुक्त न होने के ये दो लिए कपिल मुनि उन्हें संबुद्ध कर रहे हैं उनकी मुक्ति के लिए कारण दिए हैं:-उपदेश और भय-दर्शन तथा वृत्तिकार ने ये दो प्रवचन कर रहे हैं।" कारण दिए हैं—उपदेश में और किसी शब्द पर विशेष बल देते ६. कलह का (कलह) समय। शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ 'क्रोध और २. पूर्व संबंधों का (पुब्बसंजोग) चूर्णिकार ने 'भण्डन' किया है।३ भण्डन का अर्थ है-- संसार पहले होता है और मोक्ष पीछे। असंयम पहले वाक्-कलह, गाली देना और क्रोध। होता है और संयम पीछे। ज्ञातिजन पहले होते हैं, उनका त्याग डॉ० हरमन जेकोबी ने इसका अर्थ 'तिरस्कार'-घृणा १. आचारांगवृत्ति, पत्र २६६ । २. बृहद्वृत्ति, पत्र २८६ । ३. वही, पत्र २८६। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७०। ५. वही, पृ० १७०। ६. बृहवृत्ति, पत्र २८६ । ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७१ : पुज्यो णाम संसारो, पच्छा मोक्खो, पुव्वेण संजोगो पुब्बस्स वा संजोगो पुवसंजोगो, अथवा पुवसंजोगो असंजमेण णातीहिं वा। ८. (क) बृहबृत्ति, पत्र २६०: पुरा परिचिता मातृपित्रादयः पूर्वशब्देनोच्यन्ते ___ ततस्तैः, उपलक्षणत्वादन्यैश्च स्वजनधनादिभिः संयोगः-सम्बन्धः पूर्वसंयोगः। (ख) सुखबोधा, पत्र १२६ ।। ६. सुखबोधा, पत्र १२६ : दोषाः-इहैव मनस्तापादयः, प्रदोषाः--परत्र नरकगत्यादयः। १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७१ : इह परत्र च नियतं निश्चित वा श्रेयः निःश्रेयसं अखय। ११. वही, पृ० १७१ : तेसिं चोराणं, तेहिं सव्वेहिं पुवभवे सह कविलेण एगट्ठ संजमो कतो आसि, ततो तेहिं सिंगारो कतिल्लओ जम्हा अम्हे संबोधितव्वेति। १२. (क) बृहवृत्ति, पत्र २६१ : कलहहेतुत्वात्कलहः-क्रोधस्तम् । (ख) सुखबोधा, पत्र १२६ । १३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७१ : कलाभ्यो हीयते येन स कलह: भण्डनमित्यर्थः । Jain Education Intemational Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कापिलीय १५१ अध्ययन ८ :श्लोक ४-५टि० ७-६ किया है।' मोनियर विलियम्स ने इसके मुख्यतः तीन अर्थ किए “भन्ते ! आमिष (भोजन आदि) के (विषय में) कैसे करना हैं-झगड़ा, झूठ या धोखा, गाली-गलौज। चाहिए ?" __ कलह क्रोधपूर्वक होता है। अतः कारण में कार्य का “सारिपुत्र ! आमिष सबको समान बांटना चाहिए।" उपचार कर 'कलह' को क्रोध कहा गया है। "भिक्षुओ! ये दो दान हैं-आमिष-दान और धर्म-दान। ७. वीतरागतुल्य मुनि (ताई) इन दो दानों में जो धर्म-दान है, वह श्रेष्ठ है।" इस प्रकार व्याख्याकारों ने इसके संस्कृत रूप दो दिए हैं तायी और आमिष-संविभाग (अनुग्रह) और आमिष-योग (पूजा) के प्रयोग त्रायी। जार्ल सरपेन्टियर टीकाकारों द्वारा किए गए इस अर्थ को मिलते हैं। भोग-सन्निधि के अर्थ में आमिष-सन्निधि का प्रयोग ठीक नहीं मानते। उनका अभिमत है कि ताई को तादि-तादक किया गया है।" अभिधानप्पदीपिका के श्लोक २८० में आमिष के समान मानना चाहिए। तब इसका अर्थ होगा—उस जैसा को मांस का तथा श्लोक ११०४ में उसे अन्नाहार का पर्यायवाची वैसा। वे कहते हैं कि कालान्तर में इस शब्द के अर्थ का उत्कर्ष माना है। हुआ और इसका अर्थ-उस जैसा अर्थात् बुद्ध जैसा यह भोग अत्यन्त आसक्ति के हेतु हैं, इसलिए यहां उन्हें हुआ। तदनन्तर इसका अर्थ-पवित्र संत व्यक्ति आदि हुआ। आमिष कहा गया है।२ इस आशय का आधार प्रस्तुत करते हुए वे चाइल्डर्स S.V. और चूर्णिकार के अनुसार जो वस्तु सामान्य रूप से बहुत दीघनिकाय पृ० ८८ पर फ्रेंक का नोट देखने का अनुरोध करते लोगों द्वारा अभिलषणीय होती है, उसे आमिष कहा जाता है। ह। सरपन्टियर का यह अभिमत संगत लगता है। हमने इसी भोग बहुत लोगों के द्वारा काम्य हैं. इसलिए उन्हें आमिष कहा आधार पर इसका संस्कृत रूप तादृक् दिया है। विशुद्धिमार्ग पृ० है। भोगामिष अर्थात् आसक्ति-जनक भोग अथवा बहुजन १८० में तादिन शब्द का प्रयोग एक जैसे रहने वाले के अर्थ में अभिलषणीय भोग।३ देखिए १४।४१ का टिप्पण। हुआ है शान्त्याचार्य ने इस भावना के समर्थन में दशवकालिक की यस्मा नत्थि रहो नाम, पापकम्मेसु तादिनो। प्रथम चूलिका के दो श्लोक उद्धृत किए हैंरहाभावेन तेनेस, अरहं इति विस्सुनो। १. जया य कुकुडंबस्स......। ८. भोगामिष-आसक्ति-जनक भोग में (भोगामिस) २. पुत्तदारपरिकिण्णो........ । (चूलिका १७,८) वर्तमान में आमिष का सीधा अर्थ मांस किया जाता है। ९. विपरात (वाच्चत्य) प्राचीन काल में इसका प्रयोग अनेक अर्थों में होता था। इसी चूर्णि में 'वोच्चत्थ' का अर्थ विपरीत और बृहद्वृत्ति में आगम के चौदहवें अध्ययन में इसका छह बार प्रयोग हुआ है। विपययवान् या व विपर्ययवान् या विपर्यस्त किया गया है। बुद्धि का विशेषण माना अनेकार्थ कोष में आमिष के—फल, सुन्दर आकृति, रूप, है वहां विपरीत या विपर्यस्त और बाल का विशेषण माना है वहां सम्भोग, लोभ और लंचा-इतने अर्थ मिलते हैं। उत्तराध्ययन विपर्ययवान् किया गया है। इसका संस्कृत रूप व्यत्यस्त होना १४।४६ में यह मांस के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पंचासक चाहिए। डॉ० पिसेल ने इसका मूल उच्चस्थ माना है।" प्रकरण में यह आहार या फल आदि के अर्थ में प्रयक्त हआ देशीनाममाला में इसका अर्थ 'विपरीत मैथुन-क्रिया' किया गया है। आसक्ति के हेतुभूत जो पदार्थ होते हैं उन सबके अर्थ में है।'६ सम्भव है उस समय यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त रहा इसका प्रयोग किया जाता था। बौद्ध साहित्य में भोजन व हो और बाद में इस अर्थ के एकांश को लेकर इसका अर्थ विषय-भोग-इन अर्थों में भी 'आमिष' शब्द प्रयुक्त हुआ है। “विपरीत' रूढ़ बन गया हो। इसका मूल उच्चस्थ की अपेक्षा १. Sacred Books of the East, Vol. XLV, Uttaradhyayana, p.33. २. Sanskrit English Dictionary, p. 261... ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २८१ : तायते-त्रायते वा रक्षति दुर्गतरात्मानम् एकेन्द्रियादिप्राणिनो वाऽवश्यमिति तायी-त्रायी वा। ४. उत्तराध्ययन, पृ० ३०७,३०८। उत्तराध्ययन १४।४१, ४६, ४६। ६. अनेकार्थ कोष, पृ० १३३० : आमिषं-फले सुन्दराकाररूपादौ सम्भोगे लोभलंचयोः। ७. बृहवृत्ति, पत्र ४१० : सहामिषेण—पिशितरूपेण वर्तत इति सामिषः। ८. पंचासक प्रकरण ६३१॥ ६. बुद्धचर्या, पृ० १०२। १०. इतिवृत्तक, पृ० ८६। ११. बुद्धचर्या, पृ० ४३२। १२. बृहद्वृत्ति, पत्र २६१ : भोगा:-मनोज्ञाः शब्दादयः ते च ते आमिषं चात्यन्तगृद्धिहेतुतया भोगामिषम् । १३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७२ : भुज्यंत इति भोगाः, यत् सामान्य बहुभिः प्रार्थ्यते तद् आमिषं, भोगा एव आमिष भोगामिषम्। १४ (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७२ : वुच्चित्थोत्ति जस्स हिते निःश्रेयसे अहितानिःश्रेयससंज्ञा, विपरीतबुद्धिरित्यर्थः।। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६१ : तत्र तयोर्वा 'बुद्धिः' तत्प्राप्युपायविषया मतिः तस्यां विपर्य यवान् सा वा विपर्यस्ता यस्य स हितनिःश्रेयसबुद्धिविपर्यस्तः विपर्यस्तहिनिःश्रेयसबुद्धिर्वा, विपर्यस्तशब्दस्य तु परनिपातः प्राग्वत् यद्वा विपर्यस्ता हिते निःशेषा बुद्धिर्यस्य स तथा। १५. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृ०४७६ : वोच्चत्थ (विपरीत रतिः देशी०७,५८)-उच्चस्थ जो उच्च से सम्बन्धित है। १६. देशीनाममाला, ७॥५६॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १५२ अध्ययन ८ : श्लोक ६-६ टि० १०-१६ व्यत्यस्त में ढूंढना अधिक उपयुक्त है। भाषाशास्त्र की दृष्टि से सकते हैं । सत्पुरुष — सबल व्यक्तियों पर उनका कोई प्रभाव नहीं यह वोच्चत्थ के अधिक निकट है। होता । मकड़ी का तन्तु मच्छर को बांध सकता है, पर हाथी को नहीं बांध सकता । १०. मन्द या मूढ ( मंदिए मूढे ) चूर्णि में मंद का अर्थ है-स्थूलबुद्धि वाला ।' चूर्णिकार ने महाराष्ट्र में मंद के प्रचलित अर्थ का भी उल्लेख किया है। वहां उपचित-स्थूल शरीर वाले को भी 'मंद' कहते हैं और अपचितकृश शरीर वाले को भी 'मंद' कहते हैं । मूढ शब्द के दो अर्थ हैं—कार्य और अकार्य के विवेक से विकल अथवा श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में आसक्त । * वैकल्पिक रूप से बाल, मंद और मूढ — इन तीनों शब्दों को एकार्थक भी माना है। * शान्त्याचार्य के अनुसार मंद वह है जो धर्म-कार्य में अनुद्यत है और मूढ वह है जो मोह से आकुल है। ११. श्लेष्म में (खेलॉग) चूर्ण में खेल का अर्थ 'चिक्कन' किया है। बृहद्वृत्ति में खेल का अर्थ ' श्लेष्म' किया है। किन्तु श्लेष्म इसकी संस्कृत छाया नहीं है। जाल सरपेन्टियर ने इसका संस्कृत रूप - 'वेट''वेद' दिया है ।" 'वेड' का भी एक अर्थ चिकनाई श्लेष्म होता है। राजवार्तिक में इसका संस्कृत रूप 'क्ष्वेल' मिलता है। यही सर्वाधिक है । उपयुक्त १२. अधीर पुरुषों द्वारा (अधीर पुरिसेहिं) धीर का प्रतिपक्ष है— अधीर । देखें ७।२८, २६ का टिप्पण । १३. समुद्र को (अतरं) चूर्णि में 'अतर' का अर्थ समुद्र है। वृत्ति में इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - जिसे तैरना अशक्य हो । तात्पर्यार्थ में इसके तीन अर्थ हैं— (१) विषयगण (२) भव या संसार तथा (३) समुद्र ।" वृत्तिकार ने एक सुन्दर श्लोक उद्धृत कर प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य स्पष्ट किया है१२. विषयगण: कापुरुषं करोति वशवर्तिनं न सत्पुरुषम् । नाति मशकं एव हि लूतातन्तुर्न मातंगम् ॥ इन्द्रियों के विषय दुर्बल व्यक्ति को ही अपने वश में कर - 9. उत्तराध्ययन, चूर्णि, पृ० १७२ जस्स थूला बुद्धि सो मंदबुद्धी भण्णइ । २. वही, चूर्णि, पृ० १७२ उवचए धूलसरीरो मरहट्ठाणं मंदो भन्नति, अवचए जो किससरीरो सोवि मंदो भण्णति । ३. वही, चूर्णि, पृ० १७२ मूढो णाम कज्जाकज्जमयाणाणो, सोतिंदियविसदोदो ( यवसट्टो) वा । वही, चूर्णि, पृ० १७२ अहवा बालमंदमूढ शक्रपुरन्दरवदेकार्थमेव । ४. ५. बृहद्वृत्ति, पत्र २६१: मंदिए त्ति सूत्रत्वान् मन्दो — धर्मकार्यकरणं प्रति अनुद्यतः, मूढो — मोहाकुलितमानसः । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७२ खेलेण चिक्कणेण । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र २६१ : 'खेले' श्लेष्मणि । उत्तराध्ययन, पृ० ३०८ १४. पापमयी दृष्टियों से (पावियाहिं दिट्ठीहिं) शान्त्याचार्य ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैंप्रापिकाभिर्दृष्टिभिः और पापिकाभिर्दृष्टिभिः । प्रथम का अर्थ है'नरक को प्राप्त करने वाली दृष्टि ।' दूसरे का अर्थ है'पापमयी, परस्पर विरोधी आदि दोषों से दूषित दृष्टि' अथवा पाप-हेतुक दृष्टि ।" वास्तविक अर्थ यही है । पापिकादृष्टि के आशय को स्पष्ट करते हुए उद्धरण प्रस्तुत किए गए हैं। जैसे*न हिंस्यात् सर्वभूतानि । * "श्वेतं लभेत वायव्यां दिशि भूतिकामः * "ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेव, इन्द्राय शात्रियं मरुदुद्भ्यो वैश्यं तपसे शूदम् तथा च "यस्य बुद्धि में लिप्यते, हत्वा सर्वमिदं जगत्। आकाशमिव पंकेन, न स पापेन लिप्यते ।।" अर्थात् एक ओर वे कहते हैं- -' सब जीवों की हिंसा नहीं करना चाहिए।' दूसरी ओर वे कहते हैं— ऐश्वर्य चाहने वाले को वायव्यकोण में श्वेत बकरे की, ब्रह्म के लिए ब्राह्मण की, पुरुष इन्द्र के लिए क्षत्रिय की, मरुत् के लिए वैश्य की और तप के लिए शूद्र की बलि कर देनी चाहिए। यह परस्पर विरोधी दृष्टिकोण है। जैसे आकाश पंक से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार सारे संसार की हत्या करके भी जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह पाप से लिप्त नहीं होता। यह पाप हेतुक दृष्टिकोण है। १५. उन आय - तीर्थंकरों ने (आरिएहिं ) यहां आर्य शब्द तीर्थंकर के लिए प्रयुक्त है । 'जिन्होंने साधु-धर्म का प्रज्ञापन किया इस निगमात्मक वाक्यांश से 'आर्य' शब्द का प्रयोग तीर्थंकर के लिए भी अभिप्रेत है। १६. समित (सम्यक् प्रवृत्त) (समिए) चूर्णिकार ने इसका अर्थ- शमित, शांत किया है।" वृत्तिकार ने पांच समितियों से युक्त को 'समित' (जागरूकतापूर्वक प्रवृत्ति करने वाला) बतलाया है। ६. तत्त्वार्थ राजवार्तिक ३।३६, पृ० २०३ : क्ष्वेली निष्ठीवनमौषधिर्येषां ते क्ष्वेलौषधिप्राप्ताः । १०. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १७२ ११. बृहद्वृत्ति, पत्र २६२ : अतरं अतरं नीरधिम् । १२. वही, पत्र २६२ । १३. वही, पत्र २६२ 'पावियाहिं' ति प्रापयन्ति नरकमिति प्रापिकास्ताभिः, यद्वा- पापा एव पापिकास्ताभिः परस्परविरोधादिदोषात् स्वरूपेणैव कुत्सिताभिः । १४. वही, पत्र २६२, २६३। १५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७३ : सम्यक् इतः शमितः, शान्त इत्यर्थः । १६. बृहद्वृत्ति, पत्र २६३ : समितः समितिमान् इति । अतरो णाम समुद्दो । तरीतुमशक्यं विषयगणं भवं वा... Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कापिलीय १५३ अध्ययन ८:श्लोक १०-१२ टि० १७-२० १७. दूर हो जाते हैं (निज्जाइ) १९. यात्रा (संयम-निर्वाह) के लिए भोजन की एषणा करे चूर्णि में इसका अर्थ-अधो गच्छति-नीचे जाता है किया (जायाए घासमेसेज्जा) है। वृत्ति में इसका मूल अर्थ है—निकल जाना। वृत्तिकार ने संयम-जीवन की यात्रा के लिए भोजन की गवेषणा करेपाठान्तर के रूप में देशी शब्द 'णिण्णाई' को प्रस्तुत कर उसका इस प्रसंग में शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने एक श्लोक उद्धृत अर्थ-अधो गच्छति-नीचे जाता है--किया है। किया है१८. (श्लोक १०) जह सगडक्खोवंगो कीरइ भरवहणकारणा गवरं। ___ चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'हिंकार' के विषय की तह गुणभरवहणत्यं आहारो भयारीणं। चर्चा की है-हिंकार का प्रयोग सन्निधान और कारण इन दो -जैसे गाड़ी के पहिए की धुरी को भार-बहन की दृष्टि अर्थों में होता है। कारण के अर्थ में 'हिंकार' का प्रयोग बहुवचन से चुपड़ा जाता है, वैसे ही गुणभार के वहन की दृष्टि से में ही होता है, जैसे-तेहिं कयं । सन्निधान के अर्थ में 'हिंकार' ब्रह्मचारी आहार करे, शरीर को पोषण दे। का प्रयोग एकवचन में ही होगा, जैसे--कहिं गतो आसि? कहिं प्रस्तुत श्लोक में 'जायाए घासमेसेज्जा' से एषणाशुद्धि का च ते सद्धा? और 'रसगिद्धे न सिया भिक्खाए' से परिभोगैषणाशुद्धि का इस श्लोक में प्राणातिपातविरमण का स्पष्ट निर्देश है। विवेक दिया गया है। मुनि मनसा, वाचा, कर्मणा किसी भी प्राणी के प्रति हिंसा का इसी आगम में छह कारणों से आहार करने और छह प्रयोग न करे, फिर चाहे स्वयं को कितनी ही ताड़ना सहन कारणों से आहार न करने का उल्लेख है।६ करनी क्यों न पडे। २०. (श्लोक १२) उज्जयिनी नगरी में एक श्रावक था। उसका पुत्र पूर्णरूपेण पंताणि चेव सेवेज्जा—इसकी व्याख्या दो प्रकार से संस्कारी था। एक बार चोरों ने उसका अपहरण कर मालव होती है-'प्रान्तानि च सेयेतेव' और 'प्रान्तानि चैव सेवेत।' प्रदेश ले गए और वहां एक सूपकार के हाथों बेच डाला। गच्छवासी मुनि के लिए यह विधि है कि वह प्रान्त-भोजन मिले सूपकार ने एक दिन उसे कहा-'बेटे! तुम जंगल में जाओ तो उसे खाए ही, किन्तु उसे फेंके नहीं। गच्छनिर्गत (जिनकल्पी) और बटेरों को मार कर लाओ। मैं भोजन के लिए उन्हें मुनि के लिए यह विधि है कि वह प्रान्त-भोजन ही करे। प्रान्त पकाऊंगा।' वह बोला--'मैं एक श्रावक का पुत्र हूं। मैंने अहिंसा का अर्थ है-नीरस-भोजन। शीतपिण्ड (ठण्डा आहार) आदि को समझा है। में ऐसा काम कभी नहीं कर सकता।' सूपकार उसके उदाहरण हैं। ने कहा-'अब तुम मेरे द्वारा खरीद लिए गए हो। मेरी आज्ञा जवणट्ठाए-शान्त्याचार्य ने 'जवण' का अर्थ-यापनका पालन करना ही होगा।' लड़के ने आज्ञा मानने से इनकार किया है। गच्छवासी की अपेक्षा से 'जवणट्ठाए' का अर्थ होगाकर दिया तब सूपकार बोला--'मेरी आज्ञा न मानने के भयंकर यदि प्रान्त-आहार से जीवन-यापन होता है तो खाए, वायु बढ़ने परिणाम भोगने होंगे। मैं तुम्हें हाथी के पैर तले कुचलवा दूंगा। से जीवन-यापन न होता हो तो न खाए। गच्छनिर्गत की अपेक्षा मैं तुम्हारे सिर पर गीला चमड़ा बांधकर मार डालूंगा।' बालक से इसका अर्थ होगा-जीवन-यापन के लिए प्रान्त-आहार ने कहा-'कुछ भी क्यों न हो, मैं प्राणवध का यह कार्य नहीं कर करे। सकता।' सूपकार ने तब उसे हाथी के पैरों तले कुचलवा कर 'जवण' का संस्कृत रूप 'यमन' होना चाहिए। प्राकृत में मार डाला। 'मकार' को 'वकार' आदेश भी होता है, जैसे-श्रमण के दो अहिंसा के क्षेत्र में सत्याग्रह की यह महत्त्वपूर्ण घटना है।' रूप बनते हैं-समणो, सवणो। प्रकरण की दृष्टि से यमन शब्द १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७३, १७४ : निज्जाइ नाम अधो गच्छति। २. बृहद्वृत्ति, पत्र २६३ : निर्याति-निर्गच्छति, पटन्ति च-णिण्णाई त्ति अत्र देशीपदत्वादधोगच्छति। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७४ : हिंकारस्य सन्निधानत्वात् कारणत्वाच्च, तत्र कारणे बहुवचन एव उपयोगो हिंकरणस्य, तथा तेहिं कयं, सन्निधाने तु एकवचन एव हिंकारोपयोगः, तं जहा--कहिं गतो आसि? कहिं च ते सद्धा? ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७४। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ | ५. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २६४। (ख) सुखबोधा, पत्र १२८ । ६. उत्तराध्ययन, २६ ॥३२, ३४। ७. बृहवृत्ति, पत्र २६४, २६५ : 'प्रान्तानि' नीरसानि, अन्नपानानीति गम्यते, च शब्दादन्तानि च, एवाऽवधारणे, स च भिन्नक्रमः सेविज्जा इत्यस्यान्तरं द्रष्टव्यः, ततश्च प्रान्तान्यन्तानि च सेवेतैव न त्वसाराणीति परिष्ठापयेद्, गच्छनिर्गतापेक्षया वा प्रान्तानि चैव सवेत, तस्य तथाविधानामेव ग्रहणानुज्ञानातू, कानि पुनस्तानीत्याह-'सीयपिंड' ति शीतलः पिण्ड:-- आहारः, शीतश्चासौ पिण्डश्च शीतपिण्डः। बृहद्वृत्ति, पत्र २६५ : सूचितं--यदि शरीरयापना भवति तदैव निषेवेत, यदि त्वतिवातोद्रेकादिना तद्यापनैव न स्यात्ततो न निषेवेतापि, गच्छगतापेक्षमेतत्, तन्निर्गतश्चैतान्येव यापनार्थमपि निषेवेत। Jain Education Intemational Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १५४ अध्ययन ८:श्लोक १३ टि० २१ अधिक उपयुक्त लगता है। इन्द्रियों का यमन अथवा संयम करने यह बहुत रूखा होता है, इसलिये इसे प्रान्त-भोजन कहा है। के लिए प्रान्त भोजन का सेवन उपयुक्त है। जीवन-यापन के देखें-दसवेआलियं, ५११६८ का टिप्पण। लिए इस भोजन की उपयुक्तता नहीं है। २१. (श्लोक १३) कुम्मासं-शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ इस श्लोक में कहा गया है कि जो मुनि लक्षण-विद्या, 'राजमाष'-बड़े उड़द किया है।' मोनियर मोनियरविलियम्स ने स्वप्न-विद्या और अंग-विद्या का प्रयोग करते हैं, वे सही अर्थ इसका अर्थ 'तरल और खट्टा पेय-भोजन, जो फलों के रस से में मुनि नहीं हैं। अथवा उबले हुए चावलों से बनाया जाता है' किया है। नेमिचन्द्र ने इन तीनों के विषय में प्राचीन श्लोक और अभिधानप्पदीपिका में कुल्माष व्यंजन को 'सूप' कहा है। प्राकृत गाथाएं उद्धृत की हैं। उन्होंने लक्षणशास्त्र से सम्बद्ध विशुद्धिमार्ग में इसी अर्थ को मान्य कर 'कुल्माष' का अर्थ 'दाल' अठारह श्लोक, स्वप्नशास्त्र की तेरह गाथाएं और अंगविद्या से किया है।' संबद्ध सात गाथाएं दी हैं। उनकी तुलना डॉ० जे० व्ही० ___ सिंहलसन्नय (व्याख्या) में 'कुल्माष' शब्द का अर्थ- जेडोलियम द्वारा सम्पादित जगदेव की स्वप्न-चिंतामणि से की जा 'कोमु' अर्थात् पिट्ठा लिखा गया है। 'कुल्माष' के अनेक अर्थ सकती है। जार्ल सरपेन्टियर ने इसकी विस्तृत जानकारी प्रस्तुत हैं—कुलथी (उड़द की जाति का एक मोटा अन्न), मूंग आदि की है। शान्त्याचार्य ने इसका विस्तृत वर्णन नहीं किया है, द्विदल, कांजी। उस समय ओदन, कुल्माष, सत्तू आदि प्रचलित केवल एक-दो श्लोक उद्धृत किए हैं। थे। 'कुल्माष' दरिद्र लोगों का भोजन था। वह उड़द आदि द्विदल बौद्ध-ग्रन्थों में अंग-निमित्त, उत्पाद, स्वप्न, लक्षण आदि में थोड़ा जल, गुड़ या नमक और चिकनाई डालकर बनाया विद्याओं को 'तिर्यक्-विद्या' कहा है। इनसे आजीविका करने को जाता था। देखें-दसवेआलियं, ५।१।६८ का टिप्पण। मिथ्या-आजीविका कहा है। जो इनसे परे रहता है वही वुक्कसं-चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं–तीमन 'आजीव-परिशुद्धिशील' होता है।५ अथवा सुरा के लिए पसाए हुए आटे का शेष भाग। लक्खणं शरीर के लक्षणों, चिन्हों को देखकर शुभ-अशुभ शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ-मूंग, उड़द फल कहने वाले शास्त्र को 'लक्षण-शास्त्र' या 'सामुद्रिक-शास्त्र' आदि की कणियों से निष्पन्न अन्न अथवा जिसका रस निकाल कहते हैं। कहा भी है-'सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम्'–सभी (शुभाशुभ लिया गया हो, वैसा अन्न किया है।' फल देने के लक्षण) जीवों में विद्यमान हैं। जैसेपुलागं चूर्णिकार ने 'पुलाक' के दो अर्थ किए हैं अस्थिवर्थाः सुखं मांसे, त्वचि भोगा: स्त्रियोऽक्षिषु। १. वल्ल, चना आदि रूखे अनाज। गती यानं स्वरे चाज्ञा, सर्व सत्त्वे प्रतीष्ठितम्॥" २. जो स्वभाव से नष्ट हो गया हो (जिसका बीज भाग अर्थात् अस्थि में धन, मांस में सुख, त्वचा में भोग, आंखों नष्ट हो गया हो) वह अनाज। में स्त्रियां, गति में वाहन और स्वर में आज्ञा-इस प्रकार पुरुष शान्त्याचार्य ने असार वल्ल, चना आदि को 'पुलाक' कहा है। में सब कुछ प्रतिष्ठित है। महाभारत में भी 'पूलाक' शब्द का प्रयोग मिलता है। यह शब्द इसी आगम के १५७, २०६४५ में भी आया है। उसका अर्थ किया गया है-दाना जो भूमि के अन्दर की गर्मी सुविणं-स्वप्न शब्द यहां 'स्वप्न-शास्त्र' का वाचक है। से सूख जाता है। स्वप्न के शुभाशुभ फल की सूचना देने वाले शास्त्र को 'स्वप्न-शास्त्र' मंथु-इसका अर्थ है--बैर” का चूर्ण, सत्तू का चूर्ण।'२ कहा जाता है। १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २६५ : 'कुल्माषाः' राजमाषाः । (ख) सुखबोधा, पत्र १२६। २. A Sanskrit English Dictionary. p. 296 : Sour gruel (prepared by the spontaneous fermentation of the juice of fruits or boiled rice.) ३. अभिधानप्पदीपिका, पृ० १०४८ : सूपो (कुम्मास व्यंजने)। ४. विशुद्धिमार्ग, ११११ पृ०३०५॥ ५. विनयपिटक, 81१७६ । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७५ : बुक्कसो णाम कुसणणिब्भाडणं च, अथवा सुरागलितसेसं बुक्कसो भवति। ७. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २६५ : 'बुक्कसं' मुद्गमाषादि नखिकानिष्पन्नमन्न- मतिनिपीडितरसं वा। (ख) सुखवोधा, पत्र १२६ | ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७५ : पुलागं णाम निस्साए णिप्फाए चणगादि यद्वा विनष्ट स्वभावतः तत् पुलागमुद्दिश्यते। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २६५ : 'पुलाकम्' असार वल्लचनकादि। १०. महाभारत, शांतिपर्व १८१७ : ___ 'पुलाका इव धान्येषु, पुत्तिका इव पक्षिषु। तद्विधास्ते मनुष्याणां, येषां धर्मों न कारणम् ।।' ११. सुखबोधा, पत्र १२६ : 'मथु' बदरादि चूर्णम् । १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७५ : मथ्यते इति मंथु सत्तचुन्नाति । १३. बृहवृत्ति, पत्र २६५ : मन्थु वा-बदरादि चूर्णम्, अतिरूक्षतया चास्य प्रान्तत्वम्। १४. दि उत्तराध्ययन सूत्र ३०६-३१२। १५. विशुद्धिमार्ग ११, पृ० ३०, ३११ १६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७५ : लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं, सामुद्रवत्। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६५ : 'लक्षणं च' शुभाशुभ सूचक पुरुषलक्षणादि, रूढितः तत्प्रतिपादक शास्त्रमणि लक्षणम्। १७. बृहवृत्ति, पत्र २६५।। १८. वही, पत्र २E५ : 'स्वप्नं चे' त्यत्रापि रूढितः स्वप्नस्य शुभाशुभफलसूचक शास्त्रमेव। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कापिलीय अंगविज्जं अंगवि शरीर के अवयवों के स्फुरण से शुभाशुभ बताने वाले शास्त्र को 'अंग विद्या' कहा जाता है।" चूर्णिकार ने अंग-विद्या का अर्थ 'आरोग्य-शास्त्र' किया है । किन्तु प्रकरण की दृष्टि से अंग-विचार अधिक संगत लगता है । ' शान्त्याचार्य ने 'अंगविज्जा' के तीन अर्थ किए हैं-स्फुरण से शुभ-अशुभ बताने शरीर के अवयवों के इन्द्रियों के विषयों के आसेवन को भोग कहते हैं । भोग काम का उत्तरवर्ती है। पहले कामना होती है, फिर भोग होता है । आगमों में रूप और शब्द को काम तथा स्पर्श, रस और गंध को भोग कहा है। चूर्णि में रस का अर्थ है – तिक्त, मधुर आदि रस और वृत्ति में उसके दो अर्थ प्राप्त हैं” – अत्यन्त आसक्ति अथवा श्रृंगार आदि रस । २२. अनियंत्रित रखकर (अणियमेत्ता) वृत्तिकार का कथन है कि रस भोग के अन्तर्गत आते हैं, चूर्णिकार ने इसका अर्थ मन और इन्द्रियों का अनियमन परन्तु अतिगृद्धि को निदर्शित करने के लिए उनका पृथक् ग्रहण किया है। * किया है।" १. १५५ अध्ययन ८ : श्लोक १४-१५ टि०२२-२७ २४. काम, भोग और रसों में आसक्त (कामभोगरसगिद्धा) विषयासक्त मनुष्यों द्वारा काम्य इष्ट शब्द, रूप, गंध, रस तथा स्पर्श को काम कहते हैं। इसके दो प्रकार हैं—द्रव्यकाम और भावकाम। भावकाम के दो प्रकार हैं-इच्छाकाम और मदनकाम। अभिलाषारूप काम को इच्छाकाम और वेदोपयोग काम को मदनकाम कहते हैं। " २. ३. ४. वाला शास्त्र । प्रणव, मायाबीज आदि वर्ण विन्यास युक्त विद्या । अंग अर्थात् अंगविद्या में वर्णित भौम, अन्तरिक्ष आदि, उनके शुभ-अशुभ को बताने वाली विद्या, विद्यानुप्रवाद में प्रसिद्ध विद्याएं, जैसे—हलि ! हलि ! मातङ्गिनी स्वाहा । 'जीवियं अणियमेत्ता' का 'जीविकां अनियम्य' भी हो सकता है। इसका अर्थ होगा- जीविका का अनियमन कर । २३. समाधियोग से ( समाहिजो एहिं ) समाधि का अर्थ है-एकाग्रता । उससे आत्मा के साथ सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है, इसलिए वह योग है। दशवैकालिक आगम में समाधि के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं१. विनय समाधि, २ श्रुत समाधि ३ तपः समाधि और ४. आचार समाधि । वृत्ति में समाधियोग के दो अर्थ प्राप्त हैं १. समाधि का अर्थ है-चित्त-स्वास्थ्य और योग का अर्थ है---मन, वचन और काया की शुभ प्रवृत्ति । २. समाधि का अर्थ है शुभ चित्त की एकाग्रता और योग का अर्थ है-प्रत्युप्रेक्षण आदि प्रवृत्तियां। १. बृहद्वृत्ति, पत्र २६५ : अंगविद्यां च शिरःप्रभृत्यंगस्फुरणतः शुभाशुभसूचिकाम् । २. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १७५: अंगविद्या नाम आरोग्यशास्त्रम् । ३. बृहद्वृत्ति पत्र २६५ : अंगविद्यां च शिरःप्रभृत्यंगस्फुरणतः शुभाशुभसूचिकां 'सिरफुरणे किर रज्ज' इर्त्यादिकां विद्यां प्रणवमायाबीजादिवर्णविन्यासात्मिका वा यद् वा अंगानि अंगविद्याव्यावर्णितानि भीमन्तरीक्षादीनि विद्या 'हलि ! हलि मातंगिनी स्वाहा' इत्यादयो विद्यानुवादप्रसिद्धाः, ततश्च अंगानि च विद्याश्चांगविद्याः, प्राग्वद् वचनव्यत्ययः । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७७ : न नियमित्ता अनियमित्ता, इंदियनियमेणं, नो-इंदियनियमेणं । ५. दसवेआलियं, ६।४।३। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : समाधियोगेहिं - समाधिः - चित्तस्वास्थ्यं तत्प्रधाना योगाः - शुभमनोवाक्कायव्यापाराः समाधियोगाः । यद् वा समाधिश्चशुभचित्तैकाग्रता योगाश्च - पृथगेव प्रत्युपेक्षणादयो व्यापाराः समाधियोगाः । ७. विशेष विवरण के लिए देखें-दसवे आलियं, २19 का काम शब्द पर टिप्पण । ८. विशेष विवरण के लिए देखें दसवे आलियं, २।३ का भोग शब्द देखें- ५१५ का टिप्पण २५. असुरकाय में (आसुरे काए) चूर्ण में इसके दो अर्थ किए गए हैं-असुर देवों के निकाय में अथवा रोह तिर्यक योनि में" बृहद्वृत्ति में केवल पहला ही अर्थ है ।३ २६. बहुत (बहु) चूर्णि और वृत्ति में इसे संसार का विशेषण माना है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ चौरासी लाख भेद वाला संसार किया है । वृत्तिकार ने इस अर्थ को वैकल्पिक मानकर मुख्य अर्थ विपुल या विस्तीर्ण किया है। हमने इसे क्रिया - विशेषण माना है। २७. बोधि (बोही) बोधि का अर्थ है-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और पर टिप्पण । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७५ रसास्तिक्तादयः । १०. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ रसः अत्यन्तासक्तिरूपः.. शृङ्गारादयो वा । ११. वही, पत्र २६६ : भोगान्तर्गतत्वेऽपि चैषां (रसानां) पृथगुपादानमतिगृद्धिविषयताख्यापनार्थम् । १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७५, १७६ : असुराणामयं आसुरः, ते हि (बहिचा) रियसमणा असत्यभावणाभाविया असुरेसु वा उववज्र्ज्जति, अथवा असुरसदृशो भावः आसुरः, क्रूर इत्यर्थः, 'उववज्जति आसुरे काए' त्ति रौद्रेषु तिर्यग्योनिकेषु उववज्जति । १३. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ 'आसुरे' असुरसम्बंधि-निकाये, असुरनिकाये इत्यर्थः । १४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७६: बहुति चउरासीतियोनिलक्षभेदः । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : बहुशब्दस्य 'बहुप्टपे घृतं श्रेयः' इत्यादिषु विपुलवाचिनो ऽपि दर्शनाद् बहुविपुलं विस्तीर्णमिति यावत्, बहुप्रकारं या चतुरशीति योनिलक्षतया । यद् वा रसाः पृथगेव Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १५६ अध्ययन ८:श्लोक १६-१६ टि०२८-३४ सम्यक् चारित्रात्मक जिन-धर्म की प्राप्ति।' अन्न भणति पुरतो, अन्नं पासेण बज्जमाणीओ। स्थानांग में इसके तीन प्रकार बतलाए गए हैं--ज्ञानबोधि, अन्नं च तासि हियए, नजं खमं तं करेंति महिलाओ। दर्शनबोधि और चारित्रबोधि। (उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० १७६) २८. दुष्पूर है यह आत्मा (दुप्पूरए इमे आया) 'अन्यस्यांके ललति विशदं चान्यमालिंग्य शेते, एक भिखारी भिक्षा मांगने निकला। वह घर-घर जाकर अन्यं वाचा चपयति हसत्यन्यमन्यं च रौति। कहता, मेरा पात्र मोहरों से भर दो। किसी भी व्यक्ति में यह अन्यं वेष्टि स्पशति कशति प्रोणुते वान्यमिष्ट, सामर्थ्य नहीं था कि वह उस पात्र को मोहरों से भर दे। यह बात नार्यो नृत्यत्तडित इव धिक् चञ्चलाश्चालिकाश्च।।' राजा तक पहुंची। राजा ने उसे दरबार में बुलाकर कहा-मैं (बृहद्वृत्ति, पत्र २६७) भरता हूं तेरे पात्र को मोहरों से। राजा ने खजानची को आदेश हृद्यन्यद् वाक्यन्यत् कार्येप्यन्यत् पुरोऽथ पृष्ठेऽन्यत्। दिया। खजानची भिखारी के पात्र में मोहरें डालने लगा, पर यह क्या? वह पात्र भर ही नहीं रहा था। राजा को आश्चर्य हुआ। अन्यत् तव मम चान्यत्, स्त्रीणां सर्व किमप्यन्यत् ।। उसने भिखारी को पूछा। भिखारी बोला-महाराज ! यह सामान्य (सुखबोधा पत्र १३२) पात्र नहीं है। यह मनुष्य की खोपड़ी है। यह कभी नहीं भरती। ३२. राक्षसी की भांति भयावह स्त्रियों में (रक्खसीसु) यह दुष्पूरक है। यहां स्त्री को राक्षसी कहा है। जिस प्रकार राक्षसी समस्त २९. (श्लोक १७) रक्त को पी जाती है और जीवन हर लेती है, वैसे ही स्त्रियां प्रस्तुत श्लोक में 'लाभ से लोभ बढ़ता है' के प्रसंग में भी मनुष्य के ज्ञान आदि गुणों तथा जीवन और धन का सर्वनाश कपिल की कथा की ओर संकेत है। पूरे कथानक के लिए देखें कर देती हैं। राक्षसी शब्द लाक्षणिक है, अभिधा वाचक नहीं है। इसी अध्ययन का आमुख पृ० १६७, १६८। यह कामासक्ति या वासना का सूचक है। पुरुष के लिए स्त्री वृत्तिकार ने प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'मास' (सं० माषः) वासना के उद्दीपन का निमित्त बनती है, इस दृष्टि से उसे शब्द का मान दिया है। उस समय ढाई रत्ती का एक माषा राक्षसी कहा है। स्त्री के लिए पुरुष वासना के उद्दीपन का होता था। आज छह या आठ रत्ती का एक माषा माना जाता निमित्त बनता है, इस दृष्टि से उसे राक्षस कहा जा सकता है। इसी तथ्य को पुष्ट करने वाला श्लोक है३०. ग्रन्थि (गंड) दर्शनात् हरते चित्तं, स्पर्शनात् हरते बलम्। यहां गंड का अर्थ-ग्रन्थि (गांठ) या फोड़ा हो सकता है। मैथुनात् हरते वित्तं, नारी प्रत्यक्षराक्षसी।। स्तन मांस की ग्रंथि' या फोड़े के समान होते हैं, इसलिए उन्हें ३३. दास की भांति नचाती हैं (खेल्लति जहा व दासेहि) गंड कहा गया है। कामवासना के वशवर्ती व्यक्तियों को स्त्रियां दास की भांति ३१. अनेक चित्तवाली (अणेगचित्तास) आज्ञापित करती हैं। वे कहती हैं आओ, जाओ, बैठो, यह आचारांग का एक सूक्त है-अणेगचित्ते खलु अयं पूरिसे- मत करो, वह मत करो आदि-आदि। इस प्रकार वे उनको पुरुष अनेक चित्तवाला होता है। प्रस्तुत श्लोक में स्त्री के लिए नचाती हैं। 'अणेगचित्ता' का प्रयोग हुआ है। सूत्रकृतांग (श्रुतस्कंध १ अध्ययन ४) में इसका विशद चूर्णिकार और वृत्तिकार ने स्त्री की अनेकचित्तता के विषय वर्णन मिलता है। में कुछ श्लोक प्रस्तुत किए हैं ३४. अति मनोज्ञ (पेसलं) कुर्वन्ति तावत् प्रथमं प्रियाणी, यावन्न जानन्ति नरं प्रसक्तम्। चूर्णिकार ने 'प्रियं करोतीति पेशलः'-ऐसी व्युत्पत्ति कर ज्ञात्वा च तन्मन्मथपाशबद्ध, यस्तामिषं मीनमिवोदरंति। इसका अर्थ प्रिय करने वाला किया है। अथवा वृत्तिकार ने इहलोक और परलोक के लिए हितकारी होने १. बृहद्वृत्ति, पत्र २६६ : 'बोधिः' प्रेत्य जिनधर्माविाप्तिः। २. ठाणं, ३१७६। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २६७ : द्वाभ्यां--द्विसंख्याभ्यां माषाभ्यां पशूचरत्ति कामानाभ्याम्। ४. वैराग्य शतक, श्लोक २१: स्तनी मांस-ग्रन्थी कनककलशावित्युपमित्ती। ५. बृहवृत्ति, पत्र २६७ : गण्डं-गडु चोपचितपिशितपिण्डरूपतया ___गलत्पूतिरुधिरार्द्रतासम्भवाच्च तदुपमत्वाद् गण्डे कुचायुक्ती। ६. वही, पत्र २६७ : राक्षस्व इव राक्षस्यः-स्त्रियः तासु, यथा ही राक्षस्यो रक्तसर्वस्वमपकर्षन्ति जीवितं च प्राणीनामपहरन्ति एवमेता अपि, तच्चतो ही ज्ञानादीन्येव जीवितं च अर्थश्च (सर्वस्वं) तानी च ताभिरपहीयन्त एव, तथा च हारिल:“वातोद्भूतो दहति हुतभुग्देहमेकं नराणां, मत्तो नागः कुपितभुजगश्चैकदेहं तथैव। ज्ञानं शीलं विनयविभवौदार्यविज्ञानदेहान्। सर्वानर्थान् दहति वनिताऽऽमुष्मिकानैहिकांश्च।" ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७७। Jain Education Intemational Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कापिलीय के कारण जो अति मनोज्ञ होता है, उसे पेशल माना है ।" ३५. (श्लोक १९) मनोवैज्ञानिक मानते हैं जो व्यक्ति कामवासना की पूर्ति नहीं करता, उसमें वित्त - विक्षेप या पागलपन आ जाता है। इस मान्यता में सापेक्ष सचाई है। इस सचाई का जो दूसरा पहलू है, उसका प्रतिपादन प्रस्तुत श्लोक में हुआ है । कामवासना के प्रति आकर्षण हो और उसकी पूर्ति न हो तथा सुख प्राप्ति का कोई दूसरा विकल्प सामने न हो, उस अवस्था में मनोवैज्ञानिक मान्यता में सचाई हो सकती है। १५७ अध्ययन ८ : श्लोक २० टि० ३५,३६ है । यही रूपान्तरण की प्रक्रिया का सूत्र है । जिस वस्तु या प्रवृत्ति से अनुराग हटाना हो, उससे अनुराग को हटाकर दूसरी अन्य वस्तु या प्रवृत्ति पर उसको स्थापित कर दो। उस नई वस्तु या प्रवृत्ति पर अनुराग होने लगेगा और पूर्व अनुराग विराग में सूत्रकार का अभिमत है- जो कामवासना के प्रति विराग या अनाकर्षण करना चाहता है वह धर्म के प्रति अनुराग या आकर्षण उत्पन्न करे। जो व्यक्ति धर्म के प्रति अनुरक्त होकर उसमें अपनी आत्मा का नियोजन कर देता है, वह कामवासना पर विजय पा लेता है और विक्षिप्तता की स्थिति से भी बच जाता है। यह 'अनुरागात् विरागः' अथवा प्रतिपक्ष भावना का सिद्धान् १. बृहद्वृत्ति, पत्र २६८ पेशलम् - इह परत्र चैकान्तहितत्वेनातिमनोज्ञम् । बदल जाएगा। ३६. दोनों लोकों को आराध लिया (आराहिया दुबे लोग) इस विषय में तीन पक्ष प्रचलित हैं१. केवल वर्तमान को सुधारना। २. केवल परलोक को सुधारना । ३. इहलोक और परलोक दोनों को सुधारना । प्रस्तुत आगम में तीसरा पक्ष मान्य किया गया है। धर्म का आचरण करने वाले दोनों—इहलोक और परलोकको सुधारते हैं। वे वर्तमान जीवन को पवित्र बनाते हैं और अगले जीवन को भी पवित्र बना लेते हैं। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं अज्झयणं नमिपव्वज्जा नौवां अध्ययन नमि-प्रव्रज्या Jain Education Intemational Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख मुनि वही बनता है जिसे बोधि प्राप्त है। वे तीन प्रकार के उसने कण्डूयन को एक ओर छिपा लिया। द्विमुख ने यह देख होते हैं--स्वयं-बुद्ध, प्रत्येक-बुद्ध और बुद्ध-बोधित (१) जो लिया। उसने कहा-“मुने ! अपना राज्य, राष्ट्र, पुर, अंतःपुरस्वयं बोधि प्राप्त करते हैं, उन्हें स्वयं-बुद्ध कहा जाता है, (२) आदि सब कुछ छोड़कर आप इस (कण्डूयन) का संचय क्यों जो किसी एक घटना के निमित्त से बोधि प्राप्त करते हैं, उन्हें करते हैं ?" यह सुनते ही करकण्डु के उत्तर देने से पूर्व ही नमि प्रत्येक-बुद्ध कहा जाता है और (३) जो बोधि-प्राप्त व्यक्तियों के ने कहा-“मुने! आपके राज्य में आपके अनेक कृत्यकरउपदेश से बोधि-लाभ करते हैं, उन्हें बुद्ध-बोधित कहा जाता है। आज्ञा पालने वाले थे। उनका कार्य था दण्ड देना और दूसरों का इस सूत्र में तीनों प्रकार के मुनियों का वर्णन है--(१) पराभव करना। इस कार्य को छोड़ आप मुनि बने। आज आप स्वयं-बुद्ध कपिल का आठवें अध्ययन में, (२) प्रत्येक-बुद्ध नमि दूसरों के दोष क्यों देख रहे हैं ?" यह सुन नग्गति ने कहाका नौवें अध्ययन में और (३) बुद्ध-बोधित संजय का अठारहवें “जो मोक्षार्थी हैं, जो आत्म-मुक्ति के लिए प्रयत्न करते हैं, अध्ययन में। जिन्होंने सब कुछ छोड़ दिया है, वे दूसरों की गर्दा कैसे करेंगे?" इस अध्ययन का सम्बन्ध प्रत्येक-बुद्ध मुनि से है। तब करकण्डु ने कहा-“मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त साधु और ब्रह्मचारी करकण्डु, द्विमुख, नमि और नग्गति—ये चारों समकालीन यदि अहित का निवारण करते हैं तो वह दोष नहीं है। नमि, प्रत्येक-बुद्ध हैं। इन चारों प्रत्येक-बुद्धों के जीव पुष्पोत्तर नाम के द्विमुख और नग्गति ने जो कुछ कहा है, वह अहित-निवारण विमान से एक साथ च्युत हुए थे। चारों ने एक साथ प्रव्रज्या ली, के लिए ही कहा है अतः दोष नहीं है।" एक ही समय में प्रत्येक-बुद्ध हुए, एक ही समय में केवली बने ऋषिभाषित प्रकीर्णक में ४५ प्रत्येक-बुद्ध मुनियों का और एक ही समय में सिद्ध हुए। जीवन निबद्ध है। उनमें से बीस प्रत्येक-बुद्ध अरिष्टनेमि के करकण्डु कलिंग का राजा था, द्विमुख पंचाल का, नमि तीर्थ में, पन्द्रह पार्श्वनाथ के तीर्थ में और दस महावीर के तीर्थ विदेह का और नग्गति गंधार का। में हुए हैं। बूढ़ा बैल, इन्द्रध्वज, एक कंकण की नीरवता और (१) अरिष्टनेमि के तीर्थ में होने वाले प्रत्येक-बुद्धमंजरी-विहीन आम्र वृक्ष---ये चारों घटनाएं क्रमशः चारों की १. नारद ११. मंखलीपुत्र बोधि-प्राप्ति की हेतु बनीं। २. वज्जियपुत्र १२. याज्ञवल्क्य एक बार चारों प्रत्येक-बुद्ध विहार करते हुए क्षितिप्रतिष्ठित ३. असित्त दविल १३. मैत्रय भयाली नगर में आए। वहां व्यन्तरदेव का एक मन्दिर था। उसके चार ४. भारद्वाज अंगिरस १४. बाहुक द्वार थे। करकण्डु पूर्व दिशा के द्वार से प्रविष्ट हुआ, द्विमुख ५. पुष्पसालपुत्र १५. मधुरायण दक्षिण द्वार से, नमि पश्चिम द्वार से और नग्गति उत्तर द्वार से। ६. वल्कलचीरि १६. सोरियायण व्यन्तरदेव ने यह सोच कर कि मैं साधुओं को पीठ देकर कैसे ७. कुर्मापुत्र १७. विदु बैटूं, अपना मुंह चारों ओर कर लिया। ८. केतलीपुत्र १८. वर्षण कृष्ण करकण्डु खुजली से पीड़ित था। उसने एक कोमल ६. महाकाश्यप १६. आरियायण कण्डूयन लिया और कान को खुजलाया। खुजला लेने के बाद १०. तेतलिपुत्र २०. उत्कलवादी १. नंदी, सूत्र ३०। ४. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २७६-२७६ : २. (क) सुखवोधा, पत्र १४४ : नग्गति का मूल नाम सिंहरथ था। वह जया रज्जं च रटुं च, पुरं अंतेउरं तहा। कनकमाला (वैताढ्य पर्वत पर तोरणपुर नगर के राजा दृढ़शक्ति सव्वमेअं परिच्चज्ज, संचयं किं करेसिमं? || की पुत्री) से मिलने पर्वत पर जाया करता था। प्रायः वहीं पर जया ते पेइए रज्जे, कया किच्चकरा बहू। रहने के कारण उसका नाम 'नग्गति' पड़ा। तेसिं किच्चं परिच्चज्ज, अज्ज किच्चकरो भवं ।। (ख) कुम्भकार जातक में उसे तक्षशिला का राजा बताया गया है और जया सव्वं परिच्चज्ज, मुक्खाय घडसी भवं। नाम नग्गजी (नग्गजित्) दिया है। परं गरहसी कीस?, अत्तनीसेसकारए।। ३. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २७० : मुक्खमग्गं पवन्नेसु, साहूसु बंभयारिसु। पुप्फुत्तराउ चवर्ण पव्वज्जा होइ एगसमएणं। अहिअत्थं निवारिंतो, न दोसं वत्तुमरिहसि ।। पत्तेयबुद्धकेवलि सिद्धि गया एगसमएणं ।। इसिभासिय, पढमा संगहिणी, गाथा १ : पत्तेयबुद्धमिसिणो, वीसं तित्थे अरिट्टणेमिस्स । पासस्स य पण्णरस, वीरस्स विलीणमोहस्स ।। Jain Education Intemational Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरयज्झणाणि १६० अध्ययन ६ : आमुख (२) पार्श्वनाथ के तीर्थ में होने वाले प्रत्येक-बुद्ध- कंकण से घर्षण नहीं होता और घर्षण के बिना शब् कहां से १. गाहावती-पुत्र तरुण ६. वर्द्धमान उठे?" २. दगभाल १०. वायु राजा नमि प्रबुद्ध हो गया। उसने सोचा सुख अकेलेपन ३. रामपुत्र ११. पार्श्व में है। जहां द्वन्द्व है—दो हैं—वहां दुःख है। विरक्त भाव से वह ४. हरिगिरि १२. पिंग आगे बढ़ा। उसने प्रव्रजित होने का दृढ़ संकल्प किया। ५. अम्बड १३. महाशाल-पुत्र अरुण अकस्मात् ही नमि को राज्य छोड़ प्रव्रजित होते ६. मातंग १४. ऋषिगिरि देख उसकी परीक्षा के लिए इन्द्र ब्राह्मण का वेश बनाकर ७. वारत्तक १५. उद्दालक आता है, प्रणाम कर नमि को लुभाने के लिए अनेक प्रयास ८. आर्द्रक करता है और कर्त्तव्य-बोध देता है। राजा नमि ब्राह्मण को (३) महावीर के तीर्थ में होने वाले प्रत्येक-बुद्ध अध्यात्म की गहरी बात बताता है और संसार की असारता का १. वित्त तारायण ६. इन्द्रनाग बोध देता है। २. श्रीगिरि ७. सोम इन्द्र ने कहा-“राजन् ! हस्तगत रमणीय भोगों को ३. साति-पुत्र बुद्ध ८. यम छोड़कर परोक्ष काम-भोगों की वांछा करना क्या उचित कहा जा ४. संजय ६. वरुण सकता है?" (श्लोक ५१) राजा ने कहा- "ब्राह्मण ! काम त्याज्य ५. द्वीपायन १०. वैश्रमण हैं, वे शल्य हैं, विष के समान हैं, आशीविष सर्प के तुल्य हैं। करकण्डु आदि चार प्रत्येक-बुद्धों का उल्लेख इस तालिका काम-भोगों की इच्छा करने वाले उनका सेवन न करते हुए भी में नहीं है। दुर्गति को प्राप्त होते हैं (श्लोक ५३)।" विदेह राज्य में दो नमि हुए हैं। दोनों अपने-अपने राज्य 'आत्म-विजय ही परम विजय है'—इस तथ्य को स्पष्ट का त्याग कर अनगार बने। एक तीर्थंकर हुए, दूसरे अभिव्यक्ति मिली है। इन्द्र ने कहा----“राजन् ! जो कई राजा प्रत्येक-बुद्ध।' इस अध्ययन में दूसरे नमि (प्रत्येक-बुद्ध) की तुम्हारे सामने नहीं झुकते, पहले उन्हें वश में करो, फिर मुनि प्रव्रज्या का विवरण है। इसलिए इसका नाम नमि-प्रव्रज्या रखा बनना (श्लोक ३२)।" नमि ने कहा---"जो मनुष्य दुर्जेय संग्राम गया है। में दस लाख योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो व्यक्ति ___ मालव देश के सुदर्शनपुर नगर में मणिरथ राजा राज्य एक आत्मा को जीतता है, यह उसकी परम विजय है। आत्मा करता था। उसका कनिष्ठ भ्राता युगबाहु था। मदनरेखा युगबाहु के साथ युद्ध करना ही श्रेयस्कर है। दूसरों के साथ युद्ध करने की पत्नी थी। मणिरथ ने कपटपूर्वक युगबाहु को मार डाला। से क्या लाभ? आत्मा को आत्मा के द्वारा जीत कर मनुष्य सुख मदनरेखा उस समय गर्भवती थी। उसने जंगल में एक पुत्र को पाता है। पांच इन्द्रियां तथा क्रोध, मान, माया, लोभ और मनजन्म दिया। उस शिशु को मिथिला-नरेश फ्मरथ ले गया। उसका ये दुर्जेय हैं। एक आत्मा को जीत लेने पर ये सब जीत लिये जाते नाम 'नमि' रखा। हैं (श्लोक ३४-३६)।" पद्मरथ के श्रमण बन जाने पर 'नमि' मिथिला का 'संसार में न्याय-अन्याय का विवेक नहीं है'-इसकी राजा बना। एक बार वह दाह-ज्वर से आक्रान्त हुआ। छह मास स्पष्ट अभिव्यक्ति यहां हुई है। इन्द्र ने कहा-“राजन् ! अभी तक घोर वेदना रही। उपचार चला। दाह-ज्वर को शान्त तुम चोरों, लुटेरों, गिरहकटों का निग्रह कर नगर में शान्ति करने के लिए रानियां स्वयं चन्दन घिसतीं। एक बार स्थापित करो, फिर मुनि बनना (श्लोक २८)।" नमि ने कहासभी रानियां चन्दन घिस रही थीं। उनके हाथों में पहिने हुए “ब्राह्मण ! मनुष्यों द्वारा अनेक बार मिथ्या-दण्ड का प्रयोग किया कंकण बज रहे थे। उनकी आवाज से 'नमि' खिन्न हो उठा। जाता है। अपराध नहीं करने वाले पकड़े जाते हैं और अपराध उसने कंकण उतार लेने को कहा। सभी रानियों ने करने वाले छूट जाते हैं (श्लोक ३०)।" सौभाग्य-चिन्हस्वरूप एक-एक कंकण को छोड़कर शेष सभी इस प्रकार इस अध्ययन में जीवन के समग्र दृष्टिकोण को उतार दिए। उपस्थित किया गया है। दान से संयम श्रेष्ठ है (श्लोक ४०), कुछ देर बाद राजा ने अपने मन्त्री से पूछा-“कंकण का अन्यान्य आश्रमों में संन्यास आश्रम श्रेष्ठ है (श्लोक ४४), शब्द सुनाई क्यों नहीं दे रहा है ?" मंत्री ने कहा--"स्वामिन् ! सन्तोष त्याग में है, भोग में नहीं (श्लोक ४८-४६) आदि-आदि कंकणों के घर्षण का शब्द आपको अप्रिय लगा था इसलिए सभी भावनाओं का स्फुट निर्देश है। जब इन्द्र ने देखा कि राजा नमि रानियों ने एक-एक कंकण रखकर शेष सभी उतार दिए। एक अपने संकल्प पर अडिग है, तब उसने अपना मूल रूप प्रकट १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २६७ : दुन्निवि नमी विदेहा, रज्जाई पयहिऊण पव्वइया। एगो नमितित्थयरो, एगो पत्तेयबुद्धो अ।। Jain Education Intemational Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमि-प्रव्रज्या किया और उसकी स्तुति कर चला गया। प्रस्तुत अध्ययन में ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र राजा नमि को राज्यधर्म के विविध कर्त्तव्यों की याद दिलाता है और महर्षि नमि उन सारे कर्त्तव्यों के प्रतिपक्ष में आत्मधर्म की बात करते हैं। इस प्रकार इस अध्ययन में राज्यधर्म और आत्मधर्म के अनेक बिन्दु अभिव्यक्त हुए हैं- * राज्यधर्म निजी संपत्ति या स्वजनों की रक्षा (श्लोक १२) । देश-रक्षा के लिए प्राकार आदि का निर्माण (श्लोक १८) । * प्रासाद, वर्धमानगृहों आदि का निर्माण (श्लोक २४ ) | ★ अपराधी व्यक्तियों का निग्रह ( श्लोक २८ ) । ★ राजाओं पर विजय ( श्लोक ३२ ) । ⭑ यज्ञ, ब्रह्मभोज आदि से कीर्ति का अर्जन ( श्लोक ३८ ) | १६१ * ★ ★ ⭑ ★ ⭑ ⭑ अध्ययन : आमुख कोशागार का संवर्धन ( श्लोक ४६ ) । आत्मधर्म प्रिय अप्रिय कुछ भी नहीं। मैं अकेला हूं-यही यथार्थबोध (श्लोक १५-१६) | सुरक्षा का साधन-संयम । शारीरिक और मानसिक दुःखों से रक्षा ही यथार्थ रक्षा (श्लोक २०-२२ ) शाश्वत स्थान मोक्ष के प्रति जागरूकता । (श्लोक २६-२७) अपनी दुष्प्रवृत्ति का निग्रह (श्लोक २० ) इन्द्रिय-विजय, आत्म-विजय (श्लोक ३४-३६) संयम ही श्रेयस्कर । (श्लोक ४० ) संन्यास की श्रेष्ठता । ( श्लोक ४४ ) संतोष का संवर्धन । लोभ को अलोभ से जीतना । ( श्लोक ४८ - ४६ ) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. चइऊण देवलोगाओ उववन्नो माणुसंमि लोगंमि । उवसंतमोहणिज्जो सरई पौराणियं जाई || २. जाई सरितु भयवं सहसंबुद्धो अणुत्तरे धम्मे । पुत्तं ठवेत्तु रज्जे अभिविखमई नमी राया। ३. से देवलोगसरिसे अंतेउरवरगओ वरे भोए । भुंजित्तु नमी राया बुद्धो भोगे परिच्चयई । ४. मिहिलं सपुरजणवयं बलमोरोहं च परियणं सव्वं चिच्चा अभिनिक्खंतो एगंतमहिट्ठिओ भयवं ।। ५. कोलाहलगभूयं आसी मिहिलाए पव्वयंतंमि । तइया रायरिसिमि नमिंमि अभिणिक्खमंतंमि ।। ६. अब्मुट्ठियं रायरिसिं पव्वज्जाठाणमुत्तमं । सक्को माहणरूवेण इमं वयणमब्बवी ॥। ७. किण्णु भो ! अज्ज मिहिलाए कोलाहलगसंकुला । सुव्वंति दारुणा सद्दा पासासु गिहेसु य ? ।। ८. एयम निसामित्ता हेऊकारणचीइओ । तओ नमी रायरिसी देविंदं इणमब्बवी ।। नवमं अज्झयणं नमिपव्वज्जा संस्कृत छाया व्युत्वा देवलोकात उपपन्नो मानुषे लोके । उपशान्तमोहनीयः स्मरति पौराणिकी जाति ।। : जातिं स्मृत्वा भगवान् स्वसंरे धर्म । पुत्रं स्थापयित्वा राज्ये अभिनिष्क्रामति नमिः राजा ।। स देवलोक सदृशान् वारान्तःपुरगतो वरान् भोगान् । भुक्त्वा नमिः राजा बुद्धो भोगान् परित्यजति ।। मिथिलासपुरजनपद बलमवरोध व परिजन सर्वम्। त्यक्त्वाऽभिनिष्क्रान्तः एकान्तमधिष्ठितो भगवान् ।। अभ्युत्थितं राजर्षि प्रव्रज्यास्थानमुत्तमम् । शको ब्राह्मणरूपेण हवं वचनमब्रवीत्।। नौवां अध्ययन नमि-प्रव्रज्या कोलाहलकभूतम् आसीमिथिलायां प्रव्रजति । तदा राजर्षी नमौ अभिनिष्क्रामति ।। श्रूयन्ते दारुणाः शब्दाः प्रासादेषु गृहेषु च ? || किन्नु भो ! अद्य मिथिलायां कोलाहलकसंकुलाः एतमर्थं निशम्य हेतुकारणवोदितः । ततो नमिः राजर्षिः देवेन्द्रमिदमब्रवीत ।। हिन्दी अनुवाद नमिराज का जीव देवलोक से च्युत होकर मनुष्य-लोक में उत्पन्न हुआ।' उसका मोह उपशान्त था जिससे उसे पूर्व जन्म की स्मृति हुई।' भगवान् * नमिराज पूर्व जन्म की स्मृति पाकर अनुत्तर धर्म की आराधना के लिए स्वयं संबुद्ध हुआ और राज्य का भार पुत्र के कंधों पर डालकर अभिनिष्क्रमण किया—प्रव्रज्या के लिए चल पड़ा। उस नमराज ने प्रवर अन्तःपुर में रहकर देवलोक के भोगों के समान प्रधान भोगों का भोग किया और संबुद्ध होने के पश्चात् उन भोगों को छोड़ दिया । भगवान् नमिराज ने नगर और जनपद सहित मिथिला नगरी, सेना, रनिवास और सब परिजनों को छोड़ कर अभिनिष्क्रमण किया और एकान्तवासी या एकत्व अधिष्ठित" हो गया। जब राजर्षि नमि अभिनिष्क्रमण कर रहा था, प्रव्रजित हो रहा था, उस समय मिथिला में सब जगह कोलाहल जैसा होने लगा । " उत्तम प्रव्रज्या - स्थान के लिए उद्यत हुए राजर्षि से देवेन्द्र ने ब्राह्मण के रूप में आकर इस प्रकार कहा---- हे राजर्षि ! आज मिथिला के प्रासादों और गृहों में " कोलाहल से परिपूर्ण दारुण" शब्द क्यों सुनाई दे रहे हैं ? यह अर्थ सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमि-प्रव्रज्या १६३ अध्ययन ६ : श्लोक ६-१७ मिथिला में एक चैत्य-वृक्ष" था, शीतल छाया वाला, मनोरम, पत्र, पुष्प और फलों से लदा हुआ और बहुत पक्षियों के लिए सदा उपकारी।" मिथिलायां चैत्यो वृक्षः शीतच्छायो मनोरमः। पत्रपुष्पफलोपेतः बहूनां बहुगुणः सदा।। वातेन हियमाणे चैत्ये मनोरमे। दुःखिता अशरणा आर्ताः एते क्रन्दन्ति भोः! खगाः।। एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमिं राजर्षि देवेन्द्र इदमब्रवीत्।। एषोऽग्निश्च वायुश्च एतद् दह्यते मन्दिरम्। भगवन् ! अन्तःपुरं तेन कस्मान्नावप्रेक्षसे ?!! एक दिन हवा चली और उस मनोरम चैत्य-वृक्ष को उखाड़ कर फेंक दिया। हे ब्राह्मण ! उसके आश्रित रहने वाले ये पक्षी दुःखी, अशरण और पीड़ित होकर आक्रन्दन कर रहे हैं। इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा यह अग्नि है और यह वायु है। यह आपका मन्दिर जल रहा है। भगवन् ! आप अपने रनिवास की ओर क्यों नहीं देखते ? यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा ६. मिहिलाए चेइए वच्छे सीयच्छाए मणोरमे। पत्तपुप्फफलोवेए बहूणं बहुगुणे सया।। १०.वाएण हीरमाणंमि चेइयंमि मणोरमे। दुहिया असरणा अत्ता एए कंदंति भो! खगा।। ११.एयम8 निसामित्ता हेऊकारणचोइयो। तओ नमिं रायरिसिं देविंदो इणमब्बवी।। १२.एस अग्गी य वाऊ य एयं डज्झइ मंदिरं। भयवं! अंतेउरं तेणं कीस णं नावपेक्खसि ? || १३.एयमढें निसामित्ता हेऊकारणचोइयो। तओ नमी रायरिसी देविंदं इणमब्बवी।। १४.सुहं वसामो जीवामो जेसिं मो नत्थि किंचण। मिहिलाए डज्झमाणीए न मे डज्झइ किंचण।। १५.चत्तपुत्तकलत्तस्स निव्वावारस्स भिक्खुणो। पियं न विज्जई किंचि अप्पियं पि न विज्जए।। १६.बहुं खु मुणिणो भई अणगारस्स भिक्खुणो। सव्वओ विप्पमुक्कस्स एगंतमणुपस्सओ।। १७.एयमलृ निसामित्ता हेऊकारणचोइओ। तओ नमिं रायरिसिं देविंदो इणमब्बवी।। एतदर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमिः राजर्षिः देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।। सुखं वसामो जीवामः येषां नः नास्ति किंचन। मिथिलायां दह्यमानायां न मे दह्यते किंचन।। वे हम लोग, जिनके पास अपना कुछ भी नहीं है, सुखपूर्वक रहते और सुख से जीते हैं। मिथिला जल रही है उसमें मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है। पुत्र और स्त्रियों से मुक्त तथा व्यवसाय से निवृत्त२० भिक्षु के लिए कोई वस्तु प्रिय भी नहीं होती और अप्रिय भी नहीं होती। त्यक्तपुत्रकलत्रस्य नियापारस्य भिक्षोः। प्रियं न विद्यते किंचित् अप्रियमपि न विद्यते।। बहु खलु मुनेर्भद्रं अनगारस्य भिक्षोः। सर्वतो विप्रमुक्तस्य एकान्तमनुपश्यतः।। सब बन्धनों से मुक्त, 'मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं'– इस प्रकार एकत्व-दर्शी", गृह-त्यागी एवं तपस्वी भिक्षु को विपुल सुख होता है। इस अर्थ को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमि राजर्षि देवेन्द्र इदमब्रवीत्।। Jain Education Intemational Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १६४ अध्ययन ६ : श्लोक १५-२६ प्राकारं कारयित्वा गोपुराट्टालकानि च। अवचूलक-शतघ्नीः ततो गच्छ क्षत्रिय !" एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमिः राजर्षिः देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।। हे क्षत्रिय ! अभी तुम परकोटा२२, बुर्ज वाले नगर-द्वार, खाई और शतघ्नी (एक बार में सौ व्यक्तियों का संहार करने वाला यंत्र) बनवाओ, फिर मुनि बन जाना। यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अर्गला, क्षमा या सहिष्णुता को त्रिगुप्त बुर्ज, खाई और शतघ्नी स्थानीय मन, वचन और काय-गुप्ति से सुरक्षित, दुर्जेय और सुरक्षा-निपुण परकोटा बना, पराक्रम को धनुष, ईर्यापथ२७ को उसकी डोर और धृति को उसकी मूठ बना उसे सत्य से बांथे। १५.पागारं कारइत्ताणं गोपुरट्टालगाणि च। उस्सूलगसयग्घीओ तओ गच्छसि खत्तिया!।। १६.एयमलै निसामित्ता हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी देविंदं इणमब्बवी।। २०.सद्धं नगरं किच्चा तवसंवरमग्गलं। खंतिं निउणपागारं तिगुत्तं दुप्पधंसयं ।। २१.धणुं परक्कम किच्चा जीवं च इरियं सया। धिई च केयणं किच्चा सच्चेण पलिमंथए।। २२.तवनारायजुत्तेण भेत्तूणं कम्मकंचुयं। मुणी विगयसंगामो भवाओ परिमुच्चए।। २३.एयमझें निसामित्ता हेऊकारणचोइओ। तओ नमिं रायरिसिं देविंदो इणमब्बवी।। २४.पासाए कारइत्ताणं वद्धमाणगिहाणि य। बालग्गपोइयाओ य तओ गच्छसि खत्तिया!।। २५.एयमट्ठ निसामित्ता हेऊकारणचोइयो। तओ नमी रायरिसी देविंदं इणमब्बवी।। २६.संसयं खलु सो कुणई जो मग्गे कुणई घरं। जत्थेव गंतुमिच्छेज्जा तत्थ कुब्वेज्ज सासयं ।। तप-रूपी लोह-वाण से युक्त धनुष के द्वारा कर्म-रूपी कवच को भेद डाले। इस प्रकार संग्राम का अन्त कर मुनि संसार से मुक्त हो जाता है। इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा श्रद्धां नगरं कृत्वा तपःसंवरमर्गलाम्। क्षान्ति निपुणप्राकारं त्रिगुप्तं दुष्प्रधर्षकम् ।। धनुः पराक्रमं कृत्वा जीवां चेयाँ सदा। धृतिं च केतनं कृत्वा सत्येन परिमथ्नीयात् ।। तपोनाराचयुक्तेन भित्वा कर्मकंचुकम्। मुनिर्विगतसङ्ग्रामः भवात् परिमुच्यते।। एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमि राजर्षि देवेन्द्र इदमब्रवीत्।। प्रासादान् कारयित्वा वर्धमानगृहाणि च। 'वालग्गपोइयाओ' च ततो गच्छ क्षत्रिय !" एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमिः राजर्षिः देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।। संशयं खलु स कुरुते यो मार्गे कुरुते गृहम्। यत्रैव गन्तुमिच्छेत् तत्र कुर्वीत शाश्वतम्।। और हे क्षत्रिय ! अभी तुम प्रासाद, वर्धमान-गृह चन्द्रशाला बनवाओ, फिर मुनि बन जाना। यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा वह संदिग्ध ही बना रहता है जो मार्ग में घर बनाता है। (न जाने कब उसे छोड़ कर जाना पड़े)। अपना घर वहीं बनाना चाहिए जहां जाने की इच्छा हो--- जहां जाने पर फिर कहीं जाना न हो।" Jain Education Intemational Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमि-प्रव्रज्या अध्ययन ६ : श्लोक २७-३५ इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा हे क्षत्रिय ! अभी तुम बटमारों, प्राण-हरण करने वाले लुटेरों, गिरहकटों और चोरों का निग्रह कर नगर में शान्ति स्थापित करो, फिर मुनि बन जाना। यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा मनुष्यों द्वारा अनेक बार मिथ्यादण्ड का प्रयोग किया जाता है। अपराध नहीं करने वाले यहां पकड़े जाते हैं और अपराध करने वाला छूट जाता है। इस अर्थ को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा २७.एयम8 निसामित्ता एतमर्थं निशम्य हेऊकारणचोइओ। हेतुकारणचोदितः। तओ नमिं रायरिसिं ततो नमि राजर्षि देविंदो इणमब्बवी।। देवेन्द्र इदमब्रवीत्।। २८.आमोसे लोमहारे य आमोषान् लोमहारान् गंठिभेए य तक्करे। ग्रन्थिभेदांश्च तस्करान्। नगरस्स खेमं काऊणं नगरस्य क्षेमं कृत्वा तओ गच्छसि खत्तिया !।। ततो गच्छ क्षत्रिय!। २६.एयमलृ निसामित्ता एतमर्थं निशम्य हेऊकारणचोइओ। हेतुकारणचोदितः। तओ नमी रायरिसी ततो नमिः राजर्षिः देविंदं इणमब्बवी। देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।। ३०.असई तु मणुस्सेहिं असकृत्तु मनुष्यैः मिच्छा दंडो पर्जुजई। मिथ्यादण्डः प्रयुज्यते। अकारिणोऽत्थ बज्झंति अकारिणोऽत्र बध्यन्ते मुच्चई कारओ जणो।। मुच्यते कारको जनः।। ३१.एयमलै निसामित्ता एतमर्थं निशम्य हेऊकारणचोइओ। हेतुकारणचोदितः। तओ नर्मि रायरिसिं ततो नमि राजर्षि देविंदो इणमब्बवी।। देवेन्द्र इदमब्रवीत्।। ३२.जे केइ पत्थिवा तुन्म ये केचित् पार्थिवास्तुभ्यं नानमंति नराहिवा!। नानमन्ति नराधिप! वसे ते ठावइत्ताणं वशे तान् स्थापयित्वा तओ गच्छसि खत्तिया!।। ततो गच्छ क्षत्रिय !11 ३३.एयमट्ठ निसामित्ता एतमर्थं निशम्य हेऊकारणचोइओ। हेतुकारणचोदितः। तओ नमी रायरिसी ततो नमिः राजर्षिः देविंदं इणमब्बवी।। देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।। ३४.जो सहस्सं सहस्साणं यः सहनं सहसाणां संगामे दुज्जए जिणे। सङ्ग्रामे दुर्जये जयेत्। एगं जिणेज्ज अप्पाणं एकं जयेदात्मानं एस से परमो जओ।। एष तस्य परमो जयः।। ३५.अप्पाणमेव जुज्झाहि आत्मनैव युद्धयस्व किं ते जुज्झेण बज्झओ?। किं ते युद्धेन बाह्यतः। अप्पाणमेव अप्पाणं आत्मनैव आत्मानं जइत्ता सुहमेहए।। जित्वा सुखमेधते।। हे नराधिप क्षत्रिय ! जो कई राजा तुम्हारे सामने नहीं झुकते उन्हें वश में करो, फिर मुनि बन जाना। यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा जो पुरुष दुर्जेय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा वह एक अपने आपको जीतता है, यह उसकी परम विजय है। आत्मा के साथ ही युद्ध कर, बाहरी युद्ध से तुझे क्या लाभ? आत्मा को आत्मा के द्वारा ही जीत कर मनुष्य सुख पाता है। Jain Education Intemational Education international Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १६६ अध्ययन ६ : श्लोक ३६-४४ पंचेन्द्रियाणि क्रोधः मानो माया तथैव लोभश्च । दुर्जयश्चैव आत्मा सर्वमात्मनि जिते जितम् ।। पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया, लोभ और मन-ये दुर्जेय हैं। एक आत्मा को जीत लेने पर ये सब जीत लिये जाते हैं। इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमि राजर्षि देवेन्द्र इदमब्रवीत्।। इष्ट्वा विपुलान् यज्ञान् भोजयित्वा श्रमण-ब्राह्मणान्। दत्वा भुक्चा च इष्ट्वा च ततो गच्छ क्षत्रिय!।। हे क्षत्रिय ! अभी तुम प्रचुर यज्ञ करो, श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन कराओ, दान दो, भोग भोगो और यज्ञ करो, फिर मुनि बन जाना।३५ यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमिः राजर्षिः देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।। ३६.पंचिंदियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोहं च। दुज्जयं चेव अप्पाणं सव्वं अप्पे जिए जियं ।। ३७.एयमलै निसामित्ता हेऊकारणचोइओ। तओ नमि रायरिसिं देविंदो इणमब्बवी।। ३८.जइत्ता विउले जन्ने भोइत्ता समणमाहणे। दच्चा भोच्चा य जट्ठा य तओ गच्छसि खत्तिया !।। ३६.एयमलै निसामित्ता हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी देविंदं इणमब्बवी।। ४०.जो सहस्सं सहस्साणं मासे मासे गवं दए। तस्सावि संजमो सेओ अदितस्स वि किंचण।। ४१.एयमलृ निसामित्ता हेऊकारणचोइओ। तओ नमि रायरिसिं देविंदो इणमब्बवी।। ४२.घोरासमं चइत्ताणं अन्नं पत्थेसि आसमं । इहेव पोसहरओ . भवाहि मणुयाहिवा!।। ४३.एयमलृ निसामित्ता हेऊकारणचोइओ। तओ नमी रायरिसी देविंदं इणमब्बवी।। ४४.मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेण तु भुंजए। न सो सुयक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं ।। जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गायों का दान देता है उसके लिए भी संयम ही श्रेय है, भले फिर वह कुछ भी न दे।३६ इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा यः सहनं सहस्मणां मासे मासे गाः दद्यात्। तस्यापि संयमः श्रेयान् अददतोऽपि किंचन।। एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमि राजर्षि देवेन्द्र इदमब्रवीत्।। घोराश्रमं त्यक्चा अन्यं प्रार्थयसे आश्रमम्। इहैव पौषधरतः भव मनुजाधिप !।। एतमर्थं निशम्य हेतुकारणचोदितः। ततो नमिः राजर्षिः देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।। मासे मासे तु यो बालः कुशाग्रेण तु भुङ्क्ते। न स स्वाख्यातधर्मणः कलामर्हति षोडशीम् ।। हे मनुजाधिप ! तुम घोराश्रम (गार्हस्थ्य) को छोड़ कर दूसरे आश्रम (संन्यास) की इच्छा करते हो, यह उचित नहीं। तुम यहीं रह कर पौषध में रत२७ होओ-अणुव्रत, तप आदि का पालन करो। यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा कोई बाल (गृहस्थ) मास-मास की तपस्या के अनन्तर कुश की नोक पर टिके उतना सा आहार" करे तो भी वह सु-आख्यात धर्म–चारित्र धर्म की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं होता। Jain Education Intemational Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमि-प्रव्रज्या १६७ अध्ययन ६ : श्लोक ४५-५३ ४५.एयमलैं निसामित्ता एतमर्थं निशम्य इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए हेऊकारणचोइओ। हेतुकारणचोदितः। देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहातओ नमि रायरिसिं ततो नमि राजर्षि देविंदो इणमब्बवी।। देवेन्द्र इदमब्रवीत्।। ४६.हिरण्णं सुवण्णं मणिमुत्तं हिरण्यं सुवर्ण मणिमुक्तां हे क्षत्रिय ! अभी तुम चांदी, सोना २, मणि, मोती, कंसं दूसं च वाहणं। कांस्यं दूष्यं च वाहनम् । कांसे के बर्तन, वस्त्र, वाहन और भण्डार की वृद्धि कोसं वड्डावइत्ताणं कोशं वर्धयित्वा करो, फिर मुनि बन जाना। तओ गच्छसि खत्तिया !।।। ततो गच्छ क्षत्रिय!।। ४७.एयमढें निसामित्ता एतमर्थं निशम्य यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि हेऊकारणचोइओ। हेतुकारणचोदितः। राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहातओ नमी रायरिसी ततो नमिः राजर्षिः देविंदं इणमब्बवी।। देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।। ४८.सुवण्णरुप्पस्स उ पव्वया भवे सुवर्णरूप्यस्य तु पर्वता भवेयुः कदाचित् सोने और चांदी के कैलास के समान सिया हु केलाससमा असंखया। स्यात खलु कैलाससमा असंख्यकाः। असंख्य पर्वत हो जाएं, तो भी लोभी पुरुष को उनसे नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि नरस्य लुब्धस्य न तैः किंचित् कुछ भी नहीं होता, क्योंकि इच्छा आकाश के समान इच्छा उ आगाससमा अतिया।। इच्छा तु आकाशसमा अनन्तिका।। अनन्त है। ४६.पुढवी साली जवा चेव पृथिवी शालिर्यवाश्चैव पृथ्वी, चावल, जौ, सोना और पशु-ये सब एक की हिरण्णं पसुभिस्सह। हिरण्यं पशुभिः सह। इच्छापूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं हैं, यह जान कर तप पडिपुण्णं नालमेगस्स प्रतिपूर्ण नालमेकस्मै का आचरण करे। इइ विज्जा तवं चरे।। इति विदित्वा तपश्चरेत् ।। ५०. एयमझें निसामित्ता एतमर्थं निशम्य यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए हेऊकारणचोइओ। हेतुकारणचोदितः। देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहातओ नमिं रायरिसिं ततो नमि राजर्षि देविंदो इणमब्बवी।। देवेन्द्र इदमब्रवीत्।। ५१.अच्छेरगमब्भुदए आश्चर्यमभ्युदये हे पार्थिव ! आश्चर्य है कि तुम इस अभ्युदय-काल में भोए चयसि पत्थिवा!। भोगांस्त्यजसि पार्थिव!। सहज प्राप्त भोगों को त्याग रहे हो और अप्राप्त असंते कामे पत्थेसि असतः कामान् प्रार्थयसे काम-भोगों की इच्छा कर रहे हो—इस प्रकार तुम संकप्पेण विहन्नसि ।। संकल्पेन विहन्यसे।। अपने संकल्प से ही प्रताड़ित हो रहे हो। ५२.एयमझें निसामित्ता एतमर्थं निशम्य यह अर्थ सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि हेऊकारणचोइओ। हेतुकारणचोदितः। राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहातओ नमी रायरिसी ततो नमिः राजर्षिः देविंदं इणमब्बवी।। देवेन्द्रमिदमब्रवीत्।। ५३.सल्लं कामा विसं कामा शल्यं कामा विष कामाः काम-भोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के कामा आसीविसोवमा। कामा आशीविषोपमाः। तुल्य हैं। काम-भोगों की इच्छा करने वाले", उनका कामे पत्थेमाणा कामान् प्रार्थयमाना सेवन न करते हुए भी दुर्गति को प्राप्त होते हैं। अकामा जंति दोग्गई।। अकामा यान्ति दुर्गतिम् ।। Jain Education Intemational ducation Intermational Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १६८ अध्ययन ६ : श्लोक ५४-६२ ५४.अहे वयइ कोहेणं अधो व्रजति क्रोधेन मनुष्य क्रोध से अधोगति में जाता है। मान से अधम माणेणं अहमा गई। मानेनाधमा गतिः। गति होती है। माया से सुगति का विनाश होता है। माया गईपडिग्घाओ मायया गतिप्रतिघातः लोभ से दोनों प्रकार का—ऐहिक और पारलौकिकलोभाओ दुहओ भयं ।। लोभाद् द्विधा भयम्।। भय होता है। ५५.अवउज्झिऊण माहणरूवं अपोज्झ्य ब्राह्मण-रूपं देवेन्द्र ने ब्राह्मण का रूप छोड़, इन्द्र रूप में प्रकट हो विउव्विऊण इंदत्तं। विकृत्येन्द्रत्वम्। नमि राजर्षि को वन्दना की और वह इन मधुर शब्दों वंदइ अभित्थुणंतो वन्दतेऽभिष्टुवन् में स्तुति करने लगा-- इमाहि महुराहिं वग्गूहिं।। आभिर्मधुराभिर्वाग्भिः।। ५६.अहो! ते निज्जिओ कोहो अहो ! त्वया निर्जितः क्रोधः हे राजर्षि ! आश्चर्य है तुमने क्रोध को जीता है! अहो! ते माणो पराजिओ। अहो! त्वया मानः पराजितः। आश्चर्य है तुमने मान को पराजित किया है ! आश्चर्य अहो! ते निरक्किया माया अहो ! त्वया निराकृता माया है तुमने माया को दूर किया है ! आश्चर्य है तुमने अहो! ते लोभो वसीकओ।। अहो ! त्वया लोभो वशीकृतः।। लोभ को वश में किया है! ५७.अहो! ते अज्जवं साहु अहो ! ते आर्जवं साधु अहो! उत्तम है तुम्हारा आर्जव। अहो! उत्तम है अहो! ते साहु मद्दवं। अहो! ते साधु मार्दवम्। तुम्हारा मार्दव। अहो ! उत्तम है तुम्हारी क्षमा या अहो! ते उत्तमा खंती अहो! ते उत्तमा क्षान्तिः सहिष्णुता। अहो ! उत्तम है तुम्हारी निर्लोभता। अहो! ते मुत्ति उत्तमा।। अहो ! ते मुक्तिरुत्तमा।। ५८.इहं सि उत्तमो भंते ! इहास्युत्तमो भदन्त ! भगवन् ! तुम इस लोक में भी उत्तम हो और परलोक पेच्चा होहिसि उत्तमो। प्रेत्य भविष्यस्युत्तमः। में भी उत्तम होओगे। तुम कर्म-रज से मुक्त होकर लोगुत्तमुत्तमं ठाणं लोकोत्तमोत्तमं स्थानं लोक के सर्वोत्तम स्थान (मोक्ष) को प्राप्त करोगे। सिद्धिं गच्छसि नीरओ।। सिद्धिं गच्छसि नीरजाः।। ५६.एवं अभित्थुणंतो एवमभिष्टुवन् इस प्रकार इन्द्र ने उत्तम श्रद्धा से राजर्षि की स्तुति रायरिसि उत्तमाए सखाए। राजर्षिमुत्तमया श्रद्धया। की और प्रदक्षिणा करते हुए बार-बार वन्दना की। पयाहिणं करेंतो प्रदक्षिणां कुर्वन् पुणो पुणो वंदई सक्को। पुनः पुनन्दिते शक्रः।। ६०.तो वंदिऊण पाए ततो वन्दित्वा पादौ इसके पश्चात् मुनिवर नमि के चक्र और अंकुश से चक्कंकुसलक्खणे मुणिवरस्स। चक्रांकुशलक्षणौ मुनिवरस्य। चिन्हित चरणों में वन्दना कर ललित और चपल आगासेणुप्पइओ आकाशेनोत्पतितः कुण्डल एवं मुकुट को धारण करने वाला इन्द्र ललियचवलकुंडलतिरीडी।। ललितचपलकुण्डलकिरीटी।। आकाश-मार्ग से चला गया। ६१.नमी नमेइ अप्पाणं नमिर्नमयत्यात्मानं नमि राजर्षि ने अपनी आत्मा को नमा लिया - सक्खं सक्केण चोइओ। साक्षाच्छक्रेण चोदितः। संयम के प्रति समर्पित कर दिया। वे साक्षात् देवेन्द्र के चइऊण गेहं वइदेही त्यक्त्वा गृहं वैदेहीं द्वारा प्रेरित होने पर भी धर्म से विचलित नहीं हुए सामण्णे पज्जुवट्ठिओ।। श्रामण्ये पर्युपस्थितः।। और गृह और वैदेही (मिथिला) को त्याग कर श्रामण्य में उपस्थित हो गये। ६२.एवं करेंति संबुद्धा एवं कुर्वन्ति संबुद्धाः संबुद्ध, पण्डित और प्रविचक्षण पुरुष इसी प्रकार पंडिया पवियक्खणा। पण्डिताः प्रविचक्षणाः। करते हैं वे भोगों से निवृत्त होते हैं जैसे कि नमि विणियटॅति भोगेसु विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः राजर्षि हुए। जहा से नमी रायरिसि।। यथा स नमिः राजर्षिः।। -त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण : अध्ययन ६ : १. उत्पन्न हुआ ( उववन्नो) आगमों में यह शब्द बहु व्यवहृत है। इसका सामान्य अर्थ -उत्पत्ति । देवता और नैरयिक के अतिरिक्त मनुष्य (उत्तरा० ६ 1१), स्थावरकाय (सूत्रकृतांग २ 1७1१०) तथा त्रसकाय (सूत्रकृतांग २।७।१६ ) की उत्पत्ति में भी यह शब्द प्रयुक्त है। उत्तरवर्ती साहित्य में यह शब्द देवता और नारक की उत्पत्ति के अर्थ में रूद्र हो गया तत्त्वार्थ में 'नारकदेवानामुपपातः ऐसा प्रयोग मिलता है।' उपपात का अर्थ भी उत्पत्ति है । परन्तु उत्पत्ति और उपपात की प्रक्रिया भिन्न है। गर्भज और सम्मूर्च्छनज प्रक्रिया उत्पत्ति की प्रक्रिया है । उपपात की प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाला जीव अंतर्मुहूर्त में युवा बन जाता है।" २. उसका मोह उपशान्त था ( उवसंतमोहणिज्जो) यहां उपशम का अर्थ — अनुदयावस्था है। प्रस्तुत प्रसंग में चूर्णिकार ने दर्शनमोह और चारित्रमोह--दोनों की उपशांत दशा का उल्लेख किया है । वृत्ति में केवल दर्शनमोहनीय की उपशांत दशा का उल्लेख है। * जातिस्मृति ज्ञान के लिए चारित्रमोहनीय का उपशांत होना भी आवश्यक है। शुभ परिणाम और लेश्या की विशुद्धि के क्षणों में जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न होता है। ३. पूर्वजन्म की स्मृति हुई (सरई पोराणियं जाई) जाति का अर्थ उत्पत्ति या जन्म है। आत्मवाद के अनुसार जन्म की परम्परा अनादि है। इसलिए उसे पुराण कहा है। पुराण - जाति अर्थात् पूर्व जन्म । पूर्व जन्म की स्मृति को 'जातिस्मृति ज्ञान' कहा जाता है। यह मतिज्ञान का एक प्रकार है। इसके द्वारा पूर्ववर्ती संख्येय जन्मों की स्मृति होती है। वे सारे समनस्क जन्म होते हैं। प्रचलित धारणा यह है कि जातिस्मृति से उत्कृष्टतः पूर्व के नौ जन्म जाने जा सकते हैं। किसी हेतु से संस्कार का जागरण होता है और अनुभूत विषय की स्मृति हो जाती है । संस्कार मस्तिष्क में संचित होते हैं। प्रयत्न करने पर वे उबुद्ध हो जाते हैं। आजकल मस्तिष्क पर यांत्रिक व्यायाम कर शिशु जीवन की १. तत्त्वार्थवार्तिक २३५ । २. तत्त्वार्थवार्तिक २।३२, भाष्य । ३. उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० १८० उवसंतमोहणिज्जो दंसणमोहणिज्जं चरित्रमोहणिज्जं च उवसंतं जस्स सो भवति उवसंतमोहणिज्जो । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०६ उपशान्तं अनुदयं प्राप्तं मोहनीयं दर्शनमोहनीयं यस्यासावुपशान्तमोहनीयः । नमि- प्रव्रज्या घटनाओं की स्मृति कराई जाती है। यह सारी वर्तमान जीवन की स्मृति की प्रक्रिया है। पूर्व जन्म के संस्कार सूक्ष्म शरीर-कार्मण- शरीर में संचित रहते हैं। मन की एकाग्रता तथा पूर्व-जन्म को जानने की तीव्र अभिलाषा से अथवा किसी अनुभूत घटना की पुनरावृत्ति देख जाति स्मृति हो जाती है। जैन आगमों में इसके अनेक उल्लेख हैं। वर्तमान में भी इससे संबद्ध घटनाएं सुनी जाती है। पूर्वजन्म की स्मृति के चार कारण निर्दिष्ट हैं"मोहनीय कर्म का उपशम । १. २. ३. ४. अध्यवसायों की शुद्धि अथवा लेश्या की शुद्धि । ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा । जातिस्मृति ज्ञान को आवृत करने वाले कर्मों का क्षयोपशम । प्रस्तुत श्लोक में केवल एक ही कारण मोहनीय कर्म का उपशम निर्दिष्ट है । जातिस्मृति ज्ञान के दो प्रकार हैं—सनिमित्तक और अनिमित्तक । कुछेक व्यक्तियों में जातिस्मृति ज्ञान के आवारक कर्मों के क्षयोपशम से वह ज्ञान स्वतः उद्भूत हो जाता है। यह अनिमित्तक है। कुछेक व्यक्तियों में यह ज्ञान बाह्य निमित्त से होता है । यह सनिमित्तक है। उद्भूत चूर्णिकार के अनुसार प्रस्तुत प्रसंग में नमि जान जाते हैं। कि देवभव से पूर्व वे मनुष्य थे और वहां उन्होंने संयम की आराधना की थी। वहां से वे पुष्पोत्तर विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए थे। 'सरई' वर्तमान काल का रूप है । शान्त्याचार्य ने 'स्म' को नेमिचन्द्र ने उस समय की अपेक्षा से इसे वर्तमान का रूप माना 'शेष' माना है । 'स्मरतिस्म' अर्थात् याद किया— स्मृति हुई। है ।" ४. भगवान् (भयवं) 'भग' शब्द के अनेक अर्थ हैं--धैर्य, सौभाग्य, माहात्म्य, यश, सूर्य, श्रुल, बुद्धि, लक्ष्मी, तप, अर्थ, योनि, पुण्य, ईश, ५. आयारो १३, वृत्ति पत्र १८ जातिस्मरणं त्वाभिनिबोधिकविशेषः । ६. आयारो ११३, वृत्ति पत्र १६ : जातिरमरणस्तु नियमतः संख्येयान् । ७. नायाधम्मकहाओ १।१६० । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८० । ए. ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०६ । १०. सुखबोधा, पत्र १४५ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १७० प्रयत्न और तनु । यहां प्रकरणवश उसका अर्थ बुद्धि या ज्ञान है । भगवान् अर्थात् बृद्धिमान ।' आचार्य नेमिचन्द्र ने धैर्य आदि समस्त गुणों से युक्त व्यक्ति को भगवान् माना है।" ५. स्वयं संबुद्ध हुआ (सहसंबुद्धो) चूर्णिकार ने "सहसंबुद्ध की व्युत्पत्ति सहसा संबुद्धीइस रूप में देकर इसका अर्थ स्वयंबुद्ध किया है। वृत्तिकार ने 'सह' का मुख्य अर्थ स्वयं और संबुद्ध का अर्थ सम्यग् तत्त्व का ज्ञाता किया है। जो स्वयं संबुद्ध होता है, किसी के द्वारा नहीं, वह सहसंबुद्ध है। उन्होंने इसका वैकल्पिक अर्थ-सहसा संबुद्ध अर्थात् जातिस्मृति के अनन्तर शीघ्र ही संबुद्ध होने वाला - किया है। * आगम साहित्य में 'सह' शब्द 'स्व' के अर्थ में प्रयुक्त होता है।" मुनि तीन प्रकार के होते हैं १. स्वयंबुद्ध बिना किसी निमित्त के बुद्ध होने वाले । २. प्रत्येकबुद्ध निमित्त से प्रतिबुद्ध होने वाले। ३. बुद्धबोधित प्रतिबुद्ध व्यक्ति से प्रेरणा पाकर बुद्ध होने वाले । नमि स्वयंयुद्ध नहीं, प्रत्येकबुद्ध थे कथानक के अनुसार वे चूड़ियों की ध्वनि के निमित्त को पाकर प्रतिबुद्ध हुए थे। अठारहवें अध्ययन (श्लोक ४५) के चार प्रत्येकबुद्धों में 'नमि' का भी उल्लेख है । किन्तु मूलपाठ के आधार पर यह फलित होता है कि नमि को पूर्वजन्म की स्मृति हुई और उसके पश्चात् वे स्वयं संबुद्ध हो गए।" ६. सेना (बल.....) चूर्णिकार के अनुसार 'बल' शब्द चतुरंगिणी सेना का द्योतक है। प्राचीन काल में सेना के चार अंग ये थे१. हस्तिसेना, २. अश्वसेना, ३. रथसेना और ४. पदातिसेना । ७. एकान्तवासी या एकत्व अधिष्ठित (एगंतमहिडिओ) एकान्त शब्द के तीन अर्थ किए गए हैं— मोक्ष, विजन स्थान और एकत्व भावना । जो मोक्ष के उपाय- सम्यक् दर्शन आदि का सहारा लेता है, वह यहीं जीवन मुक्त हो जाता है, १. बृहद्वृत्ति पत्र ३०६ भगशब्दो यद्यपि धैर्यादिष्वनेकेषु अर्थेषु वर्तते, यदुक्तं धैर्यसोभाग्यमाहात्म्ययशो ऽर्कश्रुतधीश्रियः । तपोऽर्थोपस्थपुण्येशप्रयत्नतनवो भगाः ।। इति, तथापीह प्रस्तावाद् बुद्धिवचन एव गृह्यते, ततो भगोबुद्धिर्यस्यास्तीति भगवान् । २. सुखबोधा, पत्र १४५ । ३. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८० सहसा संबुद्धो सहसंबुद्धो, असंगत्तणो समणत्तणे स्वयं नान्येन बोधितः - स्वयंबुद्धः । ४. वृहद्वृत्ति पत्र ३०६ सहति-स्वयमात्मनैव सम्बुद्धः सम्यगवगततत्त्वः सहसम्बुद्धो, नान्येन प्रतिबोधित इत्यर्थः अथवा सहस त्ति आर्यत्वात् सहसा —– जातिस्मृत्यनन्तरं झगित्येव बुद्धः । ५. आयारो, १३ सहसम्मुइयाए... 1 ६. देखें- इसी अध्ययन के प्रथम दो श्लोक । अध्ययन ६ : श्लोक २-५ टि० ५-६ इसलिए वह एकान्ताधिष्ठित कहलाता है। उद्यान आदि विजन स्थानों में रहने वाला तथा 'मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूं। मैं उनको नहीं देखता कि जिसका मैं होऊं और जो मेरा हो वह भी मुझे नहीं दीखता ' --इस प्रकार अकेलेपन की भावना करने वाला भी एकांताधिष्ठित कहलाता है। एकांतवासी में ये तीनों अर्थ गर्भित हैं। इन सभी अर्थों के साथ ही साथ चूर्णिकार ने एकांत का अर्थ 'वैराग्य' भी किया है।" प्रस्तुत श्लोक में 'एगंतमहिडिओ' तथा सोलहवें श्लोक में एगंतमणुपस्सओ' पाठ है। अर्थ के संदर्भ में दोनों स्थानों पर 'एगत्त' पाठ होना चाहिए। 'एगत्त' और 'एगंत' में लिखने में अधिक अन्तर नहीं होता। संभवतः 'एगत्त' पाठ ही 'एगंत' बन गया हो। 'एगतमहिट्टिओ' का अर्थ एकांतवासी की अपेक्षा एकत्व अधिष्ठित अधिक संगत लगता है। इसी प्रकार 'एगंतमणुपस्सओ' का अर्थ एकान्तदर्शी की अपेक्षा एकत्वदर्शी अधिक उपयुक्त लगता है। 'मैं अकेला हूं' 'मेरा कोई नहीं है' – यह बात एकत्वदर्शी ही कह सकता है। (देखें- श्लोक १६ का टिप्पण:) ८. राजर्षि नगि (रायरिसिंमि) नमि मिथिला जनपद के राजा थे। प्रव्रज्या के लिए उद्यत होने पर वे ऋषि बन गए। इसलिए उन्हें, 'राजर्षि' के रूप में अभिहित किया गया है। अथवा राजा की अवस्था में भी वे एक ऋषि की भांति जीवन बिताते थे, इसलिए भी वे राजर्षि कहलाए। राजनीति का एक श्लोक है 'कामः क्रोधस्वथा लोगो, हाँ मानो मदस्तथा । षड्वर्गमुत्सृजेदेनं, तस्मिंस्त्यक्ते सुखी नृपः ।।' --जो काम, क्रोध, लोभ, हर्ष, मान और मद-अहंकारइस षड्वर्ग को छोड़ देता है, वह राजर्षि कहलाता है। वह सुखी होता है । ९. कोलाहल जैसा होने लगा (कोलाहलगभूग) ७. जब नमि राजर्षि ने प्रव्रज्या के लिए अभिनिष्क्रमण किया उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८१ : बलं चतुरंगिणीसेनाम् । बृहद्वृत्ति, पत्र ३०७ 'एगंत' त्ति एवः — अद्वितीयः कर्म्मणामन्तो यस्मिन्निति, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, तत एकान्ती मोक्षस्तम् 'अधिष्ठित:' इव आश्रितवानियाधिष्ठितः, तदुपायसम्यग्दर्शनाद्यासेवनादधिष्ठितः एव वा इहैव जीवन्मुक्त्यावाप्तेः यद्वैकान्तं-द्रव्यतो विजनमुद्यानादि भावतश्च सदा एकोऽहं न च मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं नासौ दृश्योऽस्ति यो मम ।। इति भावनात एक एवाहमित्यन्तो निश्चय एकांतः, प्राग्वत् समासः, तमधिष्ठितः । ६. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८१ : एगंतमहिट्टियो वैराग्येनेत्यर्थः । १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०७ : राजा चासौ राज्यावस्थामाश्रित्य ऋषिश्च तत्कालापेक्षया राजर्षिः, यदि वा राज्यावस्थायामपि ऋषिरिव ऋषि:-- क्रोधादिषड्वर्गजयात्, तथा च राजतीतिः काम.. सुखी नृपः । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमि-प्रव्रज्या १७१ अध्ययन ६:श्लोक ६-७ टि०१०-१२ तब कुछ पौरजन विलाप करने लगे, कुछ आक्रन्दन करने लगे ६. ब्राह्मणकुलसंभूतः (बृ० ५० ५२२) और कुछ चिल्लाने लगे। उन सभी कलकल शब्दों से सारा नगर ब्राह्मणसम्पदः (बृ० प० ५२६) कोलाहलमय हो गया, कोलाहल से आकुल हो गया। ब्राह्मणः (बृ०प०५२६) भूत शब्द के आठ अर्थ प्राप्त हैं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् (बृ० प०५२६) १. बना हुआ ५. यथार्थ ब्राह्मण: माहणः (बृ० प०५२) २. अतीत ६. विद्यमान ब्राह्मणत्वम् (बृ०प०५२६) ३. प्राप्त ७. उपमा उक्त अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ४. सदृश ८. तदर्थभाव। शान्त्याचार्य ने १८२१ में प्रयुक्त 'माहण' शब्द की व्याख्या वृत्तिकार ने प्रस्तुत प्रकरण में भूत शब्द के दो अर्थ किए अहिंसक के रूप में की है और शेष स्थानों में प्रयुक्त 'माहण' हैं-जात-उत्पन्न और सदृश।' यहां पहला अर्थ ही प्रसंगोपात्त का अर्थ उन्होंने ब्राह्मण जाति या ब्राह्मणत्व से संबद्ध माना है। है। इस अर्थ में 'भूत' शब्द का परनिपात प्राकृत के नियमानुसार ब्राह्मण का प्राकृत रूप 'बंभण' बनता है किन्तु इस आगम में हुआ है। ब्राह्मण के लिए 'बंभण' का प्रयोग २५११६, २९, ३०, ३१ में १०. बाह्मण (माहण) हुआ है। इसके सिवा सर्वत्र ‘माहण' का प्रयोग मिलता है। उत्तराध्ययन में 'माहण' शब्द का प्रयोग निम्नांकित स्थलों 'माहण' और 'बंभण' की प्रकृति एक नहीं है। 'माहण' अहिंसा पर हुआ है का और 'बंभण' ब्रह्मचर्य (ब्रह्म-आराधना) का सूचक है। अहिंसा १. ६६,३८,५५। के बिना ब्रह्म की आराधना नहीं हो सकती और ब्रह्म की २. १२।११,१३,१४,३०,३८ । आराधना के बिना कोई अहिंसक नहीं हो सकता। इस प्रगाढ़ ३. १४१५,३८,५३। सम्बन्ध से दोनों शब्द एकार्थवाची बन गए। आगमिक व्याकरण ४. १५।६। के अनुसार ब्राह्मण का 'माहण' रूप बनता हो, यह भी संभव ५. १८२१। है। ब्राह्मण के लिए 'माहण' शब्द के प्रयोग की प्रचुरता को देखते । ६.२५।१,४,१८-२७,३२,३४,३५। हुए इस संभावना की उपेक्षा नहीं की जा सकती। शान्त्याचार्य ने इन विभिन्न स्थलों में प्रयुक्त 'माहण' शब्द मलयगिरि ने 'माहण' का अर्थ परम गीतार्थ श्रावक भी का अर्थ इस प्रकार किया है किया है। इस प्रकार 'माहण' शब्द साधु, श्रावक और ब्राह्मण-- १. माहणरूयेण-ब्राह्मणवेषेण (बृ० प०३०७) इन तीनों के लिए प्रयुक्त होता है, यह आगम की व्याख्याओं से ब्राह्मणाश्च द्विजाः (बृ० प० ३१४) प्राप्त होने वाला निष्कर्ष है। पर वह कहां साधु के लिए, कहां ब्राह्मणरूपम् (बृ० प० ३१८) श्रावक के लिए और कहां ब्राह्मण के लिए है—इसका निर्णय २. माहणानां ब्राह्मणानाम् (बृ० प० ३६०) करना बहुत विवादास्पद रहा है। ब्राह्मणाः द्विजाः (बृ० प० ३६१) ११. प्रासादों और गृहों में (पासाएसु गिहेसु) ब्राह्मणानाम् (बृ० प० ३६२) चूर्णिकार ने प्रासाद का व्युत्पत्तिपरक अर्थ इस प्रकार ब्राह्मणो द्विजातिः (बृ० प० ३६७) किया है--जिसको देखकर जनता के नयन और मन आनन्दित माहना ब्राह्मणाः (बृ० प० ३७०) हो जाते हैं, वह है प्रासाद।' ३. माहनस्य ब्राह्मणस्य (बृ० प० ३६७) वृत्ति के अनुसार सात मंजिल वाला या इससे अधिक ब्राह्मणेन (बृ० प० ४०८) मंजिल वाला मकान ‘प्रासाद' कहलाता है और साधारण मकान ब्राह्मणः, ब्राह्मणी (बृ० प० ४१२) 'गृह' । प्रासाद का दूसरा अर्थ देवकुल और राज-भवन भी है।" ४. माहना ब्राह्मणाः (बृ० प० ४१८) १२. दारुण (दारुणा) | ५. 'माहण' त्ति मा वधीत्येवंरूपं मनो वाक् क्रिया च जो शब्द जनमानस को विदारित कर देते हैं, मन को फाड़ यस्यासी माहनः, सर्वे धातवः पचादिषु दृश्यन्त इति देते हैं अथवा जो शब्द हृदय में उद्वेग पैदा करते हैं, वे दारुण बचनात्पचादित्वादच् (बृ० प० ४४२) कहलाते हैं। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०७ : भूत इति जात....यदि वा भूत शब्द उपमार्थः। २. रायपसेणइयं, दृत्ति ३०० : 'माहनः' परमगीतार्थः श्रावकः । ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५१ : पसीदन्ति जणस्य नयनमनांसि इति प्रासादः। ४. बृहवृत्ति, पत्र ३०८ : 'प्रासादेषु'-सप्तभूमादिषु, 'गृहेषु' सामान्यवेश्मसु, यद्वा 'प्रासादो देवतानरेन्द्राणा' मितिवचनातू प्रासादेषु देवतानरेन्द्रसम्ब न्धिष्वास्पदेषु 'गृहेषु' तदितरेषु। ५. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३०८। (ख) सुखबोधा, पत्र १४६ । Jain Education Intemational Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि १३. सुनकर, हेतु और कारण से (निसामित्ता हे ऊकारण...) संस्कृत भाषा में श्रुत्वा (सोच्चा) और निशम्य ( निसामित्ता) ये सामान्यतः पर्यायवाची माने जाते हैं। अर्थ की अभिव्यंजना की दृष्टि से दोनों में अन्तर है। श्रुत्वा का अर्थ है— सुनकर और निशम्य का अर्थ है- अवधारण कर ।' साध्य के बिना जिसका न होना निश्चित हो उसे हेतु कहा जाता है। इन्द्र ने कहा- 'तुम जो अभिनिष्क्रमण कर रहे हो वह अनुचित है (पक्ष), क्योंकि तुम्हारे अभिनिष्क्रमण के कारण समूचे नगर में हृदय-वेधी कोलाहल हो रहा है (हेतु) 12 अदृष्ट पदार्थ जिस दृष्ट वस्तु के द्वारा गृहीत होता है, उसे हेतु कहा जाता है। जैसे—-अदृष्ट अग्नि के लिए दृष्ट धुआं हेतु है । १७२ अध्ययन ६ : श्लोक ८-१० टि० १३-१६ जाती। स्थानांग में 'चेइयरुक्ख' शब्द मिलता है। उससे भी यह प्रमाणित होता है कि 'चेइए वच्छे' का अर्थ 'चैत्यवृक्ष' ही होना चाहिए। जिसके बिना कार्य की उत्पत्ति न हो सके और जो निश्चित रूप से कार्य का पूर्ववर्ती हो उसे कारण कहा जाता है। यदि तुम अभिनिष्क्रमण नहीं करते तो इतना हृदय-वेधी कोलाहल नहीं होता। इस हृदय-वेधी कोलाहल का कारण तुम्हारा अभिनिष्क्रमण है। १४. चैत्यवृक्ष (चेइए वच्छे ) घृणिं और टीका में चैत्यवृक्ष का अर्थ उद्यान और उसके वृक्ष किया गया है। किन्तु वस्तुतः 'चेइए वच्छे' का अर्थ 'चैत्यवृक्ष' होना चाहिए । चैत्य को वियुक्त मानकर उसका अर्थ उद्यान करने का कोई प्रयोजन नहीं है । पीपल, बड़, पाकड़ और अश्वत्थ-ये चैत्य जाति के वृक्ष है। मल्लिनाथ ने रथ्या वृक्षों को चैत्यवृक्ष माना है / शान्त्याचार्य के जिस अनुसार वृक्ष के मूल में चबूतरा बना हो और ऊपर झण्डा लगा हुआ हो, वह चैत्यवृक्ष कहलाता है । " चैत्य शब्द को उद्यानवाची मानने पर वृक्ष शब्द को तृतीया विभक्ति का बहुवचन (वच्छेहि) और उसका (हि) लोप मानना पड़ा। किन्तु 'चेइए' को 'वच्छे' का विशेषण माना जाता तो वैसा करना आवश्यक नहीं होता और व्याख्या भी स्वयं सहज हो १. आचारांगवृत्ति, पत्र २४८ श्रुत्वा आकर्ण्य निशम्य अवधार्य । २. सुखबोधा, पत्र १४६ अनुचितमिदं भवतोऽभिनिष्क्रमणमिति प्रतिज्ञा, आक्रन्दादिदारुणशब्दहेतुत्वादिति हेतुः । ३. वही, पत्र १४६ : आक्रन्दादिदारुणशब्दहेतुत्वं भवदभिनिष्क्रमणानुचितत्वं विनानुपन्नमित्येतावन्मात्रं कारणम् । (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० १८१, १८२ । (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ३०९ चयनं चितिः इह प्रस्तावात् पत्रपुष्पाद्युपचयः, तत्र साधुरित्यन्ततः प्रज्ञादेराकृतिगणत्वात् स्थार्थिकेऽपि चैत्यम्उद्यानं तस्मिन्, 'वच्छे' ति सूत्रत्वाद्धिशब्दलोपे वृक्षः । ४. ५. कालीदास का भारत, पृष्ठ ५२ । ६. मेघदूत, पूर्वार्द्ध, श्लोक २३ । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०६ : चितिरिहेष्टकादिचयः, तत्र साधुः योग्यश्चित्यः प्राग्वत् स एव चैत्यस्तस्मिन् किमुक्तं भवति ? अधोबद्धपीठिके उपरि चोच्छ्रितपताके वृक्ष इति शेषः । (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८२ : एत्थ सिलोगभंगभया हिकारस्स ८. 'वच्छे' के संस्कृत रूप दो होते हैं-वत्स और वृक्ष। यहां यह वृक्ष के अर्थ में प्रयुक्त है। प्रिय पुत्र का एक संबोधन है 'वत्स' । वृक्षों का पुत्र की भांति पालन-पोषण होता है, इसलिए उन्हें भी वत्स कह दिया जाता है । १५. बहुत पक्षियों के लिए सदा उपकारी (बहूणं बहुगुणे) चूर्णिकार ने 'बहूणं' से द्विपद, चतुष्पद तथा पक्षियों का ग्रहण किया है ।" वृत्तिकार ने इसे केवल पक्षियों का ही वाचक माना है ।२ शीतलवायु, पत्र, पुष्प आदि के द्वारा सबका उपकार करता था, 'बहुगुण' का अर्थ है-प्रचुर उपकारी।" वह चैत्यवृक्ष, इसलिए वह 'बहुगुण' था । १६. (श्लोक १०) प्रस्तुत श्लोक में पक्षियों के उपचार से सूत्रकार यह बताना चाहते हैं कि नमि राजर्षि के अभिनिष्क्रमण को लक्ष्य कर मिथिला के पौरजन और राजर्षि के स्वजन आक्रन्दन कर रहे हैं, मानो कि चैत्य-वृक्ष के धराशायी हो जाने पर पक्षिगण आक्रन्दन कर रहे हों। पक्षियों और स्वजनों का साम्य है। जैसे पक्षी एक वृक्ष पर रात बिताते हैं, फिर प्रातः अपनी-अपनी दिशा में उड़ जाते हैं, वैसे ही स्वजनों का एक निश्चित काल मर्यादा के लिए संयोग होता है, फिर सब बिछुड़ जाते हैं। वृत्तिकार ने उपसंहार में बताया है कि पौरजनों या स्वजनों का आक्रन्दन करने का मूल हेतु नमि राजर्षि का अभिनिष्क्रमण नहीं है। आक्रन्दन का मूल हेतु है अपना-अपना स्वार्थ या प्रयोजन। स्वार्थ को विघटित होते देख सब आक्रन्दन कर रहे हैं।" लोवो कओ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३०६ : 'वच्छे' ति सुत्रत्वाद्धिशब्दलोपे वृक्षैः । ६. ठाणं ३८५ तिहिं ठोणहिं देवाणं चेइयरुक्खा चलेज्जा । १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८२ : वच्छे त्ति रुक्खस्साभिघाणं सुतं प्रियवायरणं वच्छा, पुत्ता इव रक्खिज्जति वच्छा। ११. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८२ : वहूणं दुप्पयचउप्पदपक्खीणं च । १२. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०६ : बहूनां प्रक्रमात् खगादीनाम् । १३. वही, पत्र ३०६ बहवो गुणा यस्मात् तत् तथा तस्मिन् । कोर्थः ? फलादिभिः प्रचुरोपकारकारिणि । १४. वही, पत्र ३०६ । १५. वही, पत्र ३०६ : आत्मार्थं सीदमानं स्वजनपरिजनो रौति हाहारवार्तो, भार्या चात्मोपभोगं गृहविभवसुखं स्वं च यस्याश्च कार्यम् । क्रन्दत्यन्यो ऽन्यमन्यस्त्विह हि बहुजनो लोकयात्रानिमित्तं, यो वान्यस्तन्त्र किंचिन् मृगयति हि गुणं रोदितीष्टः स तस्मै ।। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमि-प्रव्रज्या १७३ अध्ययन ६:श्लोक १२-१८टि०१७-२४ १७. मन्दिर (मंदिर) इसी प्रकार एक दूसरा श्लोक हैचूर्णिकार ने इसका अर्थ नगर' और वृत्तिकार ने घर, अनन्तमिव में वित्तं, यस्य मे नास्ति किंचन। प्रासाद किया है। मिथिलायां प्रदीप्तायां, न मे दाति किंचन।। १८. रनिवास की ओर (अंतेउरं तेण) २०. व्यवसाय से निवृत्त (निव्वावारस्स) वृत्तिकार ने इसे एक पद मानकर इसका अर्थ- वृत्तिकार ने यहां कृषि, पशु-पालन आदि को व्यवसाय अन्तःपुराभिमुख किया है। माना है। १९. (श्लोक १४) साधु निर्व्यापार होता है। वह निवृत्तिप्रधान जीवन जीता साधना की दो भूमिकाएं हैं—निवृत्ति—एकत्व की साधना है। उसके लिए प्रिय या अप्रिय कुछ भी नहीं होता। वह और लोक-संग्रह की भूमिका । प्रत्येकबुद्ध में एकत्व की भूमिका भिक्षाजीवी होता है। सारी आवश्यकताएं भिक्षा से पूरी हो जाती इतनी प्रबल हो जाती है कि उस भूमिका में केवल आत्मा ही शेष हैं, इसलिए उसे व्यवसाय करना नहीं पड़ता। रहती है। निर्ममत्व की साधना का यह उत्कर्ष है। २१. एकत्वदर्शी (एगंतमणुपस्सओ) मिथिला नगरी धूं-धूं कर जल रही है। नगरी के राजप्रासाद चूर्णिकार ने एकान्त के दो अर्थ किए हैं--(१) एकत्वदर्शीतथा अन्यान्य गृह भी अग्नि की लपेट में हैं। उस समय नमि मैं अकेला हूं, मैं किसी का नहीं हूं, और (२) निर्वाणदर्शी।' सोचते हैं, 'जो जल रहा है उसमें मेरा कुछ भी नहीं है। क्योंकि वृत्तिकार ने एकान्त का अर्थ-मैं अकेला हूं-किया है। मैं अकेला हूं। मेरे लिए अपना या पराया कुछ भी नहीं है।' नमि चूर्णि और वृत्ति की व्याख्या के आधार पर यह अनुमान राजर्षि का यह चिन्तन निर्ममत्व या एकत्व की उत्कृष्ट साधना किया जा सकता है कि चूर्णिकार और वृत्तिकार के सामने का सूचक है। 'एगत्तमणुपस्सओ' पाठ था। मिथिला का दाह एक रूपक है। अध्यात्म की भूमिका में देखें-श्लोक ४ का टिप्पण। एकत्व का मूल्य प्रदर्शित करने के लिए इस रूपक का उपयोग २२. परकोटा (पागार) किया गया है। व्यवहार की भूमिका इससे भिन्न है। भूमिका-भेद प्राचीन काल में नगर या किले की सुरक्षा के लिए मिट्टी को हृदयंगम करने पर ही इसका तात्पर्य समझा जा सकता है। या ईंटों की एक सदढ दीवार बनाई जाती थी. उसे प्राकार या यह चिन्तन बौद्ध साहित्य और महाभारत में भी उपलब्ध है। परकोटा कहा जाता था। वह तीन प्रकार के होती थी-पांसु बौद्ध परम्परा के महाजनक जातक में प्रस्तुत श्लोक की प्राकार, इष्टिका प्राकार और प्रस्तर प्राकार। प्रस्तर प्राकार भांति तीन श्लोक मिलते हैं प्रशस्त माना जाता था। सुसुखं बत जीवाम येसं नो नत्थि किञ्चनं। २३. बर्ज वाले नगर-द्वार (गोपुरट्टालगाणि) मिथिलाय डबमानाय न मे किंचि अहथ।।१२५॥ गोपुर का अर्थ 'नगर-द्वार' है। सुसुखं बत जीवाम येसं नो नत्थि किंचनं। टीकाकार ने इसका अर्थ प्रतोली द्वार–नगर के बीच की रठे विलुप्पमानम्हि न मे किंचि अजीरथ।।१२७॥ सड़क का या गली का द्वार, किया है। अट्टालक का अर्थ 'बुर्ज' सुसुखं बत जीवाम येसं नो नत्थि किंचना है। गोपुर अट्टालक-बुर्ज वाले नगर-द्वार सुरक्षा तथा पर्यवेक्षण पीविभक्खा भविस्साम देवा आभास्सरा यथा॥१२८॥ के लिए बनाए जाते थे। वाल्मीकि रामायण में गोपुरट्टालक और महाभारत में मांडव्य मुनि और राजा जनक का संवाद साट्टगोपुर के प्रयोग मिलते हैं। आया है। एक प्रश्न के उत्तर में महाराज जनक कहते हैं:- २४. खाई और शतघ्नी (उस्सूलग सयग्घीओ) सुसुखं बत जीवामि, यस्य में नास्ति किंचन। 'उस्सूलग' का एक अर्थ है-खाई।" खाई शत्रुसेना को मिथिलायां प्रदीप्तायां, न मे दहाति किंचन।। पराजित करने के लिए बनाई जाती थी। वह बहुत ही गहरी १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८२ : मंदिरं णाम नगरं। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१० : मंदिरं वेश्म। ३. वही, पत्र ३१० : अन्तेउरतेणं ति अन्तःपुराभिमुखं । ४. महाजनक जातक, संख्या ५३६ । ५. महाभारत, शांतिपर्व २७६।४। ६. वही, शांतिपर्व १७८।२। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१० : निर्व्यापारस्य-परिहतकृषिपाशुपाल्यादिक्रियस्य। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८२ : एकत्वं नाहं कस्यचित्, अथवा एकान्तं निर्वाणं। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१० : एकान्तम्-- एकोऽहम् । १०. वही, पत्र ३११ : प्रकर्षेण मर्यादया च कुर्वन्ति तमिति प्राकारस्तं--- धूलीष्टकादिविरचितम्। ११. अभिधान चिन्तामणि, ४।४७ : पुरि गोपुरम् । १२. बृहद्वृत्ति, पत्र ३११ : गोभिः पूर्यन्त इति गोपुराणि-प्रतोलीद्वाराणि । १३. वही, पत्र ३११ : अट्टालकानि प्राकारकोष्टकोपरिवर्तीनि आयोधनस्थानानि । १४. वाल्मीकि रामायण, ५५८ १५८। १५, बृहदवृत्ति, पत्र ३११ : 'उस्सूलय' त्ति खातिका। Jain Education Intemational Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १७४ अध्ययन ६:श्लोक २०-२४ टि०२५-३० और चौड़ी होती थी। उसमें जल भरा रहता था इसलिए सम्बन्धित हैं। सिंहद्वार को किवाड़ों पर भीतर से अर्गला देकर शत्रु-सेना उसे सहज ही पार नहीं कर पाती थी। 'उस्सूलग' का बन्द किया जात था। शान्त्याचार्य ने गोपुर शब्द के द्वारा दूसरा अर्थ ऊपर से ढंका हुआ गड्ढा भी किया गया है। जार्ल अर्गला'३—कपाट का सूचन किया है। अर्गला शब्द गोपुर का सरपेन्टियर के अभिमत में 'उस्सूलग' का अर्थ 'खाई' यथार्थ सूचक है। नहीं है। सर्वार्थसिद्धि में 'उच्छूलग' शब्द है। चूर्णि, बृहद्वृत्ति २६. त्रिगुप्त (तिगुत्त) और सखबोधा में 'उस्सुलग' है। बीसवें श्लोक के 'तिगुत्त' शब्द त्रिगप्त प्राकार का विशेषण है। इसके अठारहवें श्लोक में की व्याख्या में, बृहदवृत्ति में 'उच्चूलक' और सुखबोधा में अद्रालग. उस्सलग और सयग्घी--इन तीनों शब्दों का संग्रह 'उच्छ्रलक' पाट है। इससे जान पड़ता है कि 'उस्सूलग' और किया गया है। इनके द्वारा जैसे प्राकार सुरक्षित होता है वैसे ही 'उच्छूलग' एक शब्द के ही दो रूप हैं। मन, वचन और काया की गुप्तियों से क्षमा अथवा सहिष्णुता जार्ल सरपेन्टियर ने इसका अर्थ 'ध्वज' किया है। रूपी प्राकार सुरक्षित होता है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में 'ओचूलग' (अवचूलक) शब्द आया है। २७. ईर्यापथ (इरियं) वत्तिकार ने उसका अर्थ 'अधोमुखांचल-नीचे लटकता हुआ चर्णि और वत्ति में ईर्या का अर्थ ईर्यासमिति किया गया वस्त्र' किया है। इसलिए 'उस्सूलग' या 'उच्चूलक' का अर्थ है किन्त पराक्रम और धति ..इन दोनों के साथ ईर्यासमिति 'ध्वज' भी किया जा सकता है। किन्तु 'तिगुत्त' शब्द को देखते ___ की कोई संगति नहीं है। इसलिए यहां ईर्या का अर्थ--ईर्यापथहए इसका अर्थ खाई या गड्ढा होना चाहिए। नगर की गुप्ति- जीवन की समग्रचर्या होना चाहिए। बौद्ध साहित्य में 'ईर्यापथ' सुरक्षा के लिए प्राचीन काल में खाई का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा यी अर्थ में व्यवहत है। २८. मूठ (केयणं) 'सयग्घी' का अर्थ है शतघ्नी। यह एक बार में सौ धनुष के मध्य भाग में जो काठ की मुष्टि होती है, उसे व्यक्तियों का संहार करने वाला यंत्र है। कौटिल्य ने इसे 'केतन' कहा जाता है। 'चल-यंत्र' माना है। अर्थशास्त्र की व्याख्या के अनुसार शतघ्नी २९.वर्द्धमानगृह (वद्धमाणगिहाणि) का अर्थ है. दुर्ग की दीवार पर रखा हुआ एक विशाल स्तंभ, जिस पर मोटी और लम्बी कीलें लगी हुई हों। चूर्णि और टीका में इसका स्पष्ट अर्थ नहीं है। मोनियर आचार्य हेमचन्द्र ने 'सयग्घी' को देशी शब्द भी माना है। मोनियर-विलियम्स ने इसका अर्थ 'वह घर जिसमें दक्षिण की इसका पर्यायवाची शब्द 'घरट्टी' है। शेषनाममाला में इसके दो ओर द्वार न हो' किया है। मत्स्यपुराण का भी यही अभिमत पर्यायवाची नाम हैं—चतुस्ताला और लोहकण्टकसंचिता।" इसके है। वास्तुसार में घरों के चौसठ प्रकार बतलाए हैं। उनमें अनुसार यह चार बालिश्त की और लोहे के कांटों से संचित तीसरा प्रकार वर्धमान है। जिसके दक्षिण दिशा में मुखवाली होती थी। इसे एक बार में सैकड़ों पत्थर फेंकने का यंत्र, गावी शाला हो, उसे वर्धमान कहा है।२० आधुनिक तोप का पूर्व रूप कहा जा सकता है। डॉ० हरमन जेकोबी ने वराहमिहिर की संहिता (५३३६) प्राकार, गोपुर-अट्टालक, परिखा और शतघ्नी—ये प्राचीन के आधार पर माना है कि यह समस्त गृहों में सुन्दर होता है।" नगरों, दुर्गों या राजधानियों के अभिन्न अंग होते थे।२ वर्धमान गृह धनप्रद होता है।२२ २५. अर्गला (अग्गलं) ३०. चन्द्रशाला (बालग्गपोइयाओ) गोपुर (सिंहद्वार), किवाड़ और अर्गला—ये तीनों परस्पर यह देशी शब्द है। इसका अर्थ 'वलभी' है। वलभी के १. बृहद्वृत्ति, पत्र ३११: परबलपातार्थमुपरिच्छादितगर्ता वा। 2. The Uttaradhyayana Sutra. p. 314. ३. सर्वार्थसिन्ति, पृ० २०७ : 'उठूलग' त्ति खातिका। ४. वृहद्वृत्ति, पत्र ३११ : सुखबोधा, पत्र १४८ । ५. The Uttaridhyayana Sutra, p. 314. ६. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, ३६१। ७. कालीदास का भारत, पृ०२१८ : रामायणकालीन संस्कृति, पृ०२१३। ८. वृहदवृत्ति, पब ३११: शतं घ्नन्तीति शतज्यः, ताश्च यंत्रविशेषरूपाः ।। ६. कौटिल्य अर्थशास्त्र, अधिकरण २, अध्याय १८, सूत्र ७। १०. देशीनाममाला ८1५, पृ० ३१५ । ११. शेषनाममाला, श्लोक १५०, पृ० ३६९: शतघ्नी तु चतुस्ताला, लोहकण्टकसंचिता। १२. कौटिल्य अर्थशास्त्र, अधिकरण २, अध्याय ३, सूत्र । १३. सुखबोधा, पत्र ३११ : गोपुरग्रहणमगलाकपाटोपलक्षणम् । १४. वही, पत्र ३११ : तिसृभिः-अट्टालकोच्चुलकशतघ्नीसंस्थानीया भिर्मनोगुप्त्यादिभिर्गुप्तिभिः गुप्तं त्रिगुप्त, मयूरव्य॑सकादित्वात समासः । १५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८३।। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३११। १६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३११ : 'केतनं' शृङ्गमयधनमध्ये काष्टमयमुष्टिकात्मकम् । १७. A Sanskrit English Dictionary. p. 926. १८. मत्स्यपुराण, पृ० २५४ : दक्षिणद्वारहीनं तु वर्धमानमुदाहृतम् । १६. वास्तुसार, ७५ पृ० ३६। २०. वास्तुसार, ८२, पृ०३८। २१. Sucred Books of the East. Vol, XLV. The Uttaradhyayana Sutra, p. 38. Foot Note, 1. २२. वाल्मीकी रामायण, ५१८ : दक्षिणद्वाररहित वर्धमानं मुष्टिधनप्रदम् । Jain Education Intemational Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमि-प्रव्रज्या १७५ अध्ययन ६:श्लोक २६-४० टि०३१-३६ अनेक अर्थ हैं। यहां इसका अर्थ चन्द्रशाला या जलाशय में अर्थ 'मारकर सर्वस्व का अपहरण करने वाला तथा ग्रन्थि-भेदक निर्मित लघु प्रासाद है। का अर्थ 'गिरह-कट' किया है। ३१. (श्लोक २६) प्रस्तुत लोक में आमोष आदि को द्वितीया विभक्ति का इस श्लोक में राजर्षि ने कहा-"यह घर एक पथिक का बहुवचन मानकर जहां व्याख्या की है, वहां 'उत्साद्य' का विश्रामालय है। जहां मझे जाना है वह स्थान अभी दूर है। पर अध्याहार किया है और वैकल्पिक रूप में सप्तमी का एक वचन मुझे दृढ़ विश्वास है कि मैं वहां पहुंच जाऊंगा और वहां पहंच मानकर भी व्याख्या की है। आमोष आदि का उत्सादन करकर ही मैं अपना घर बनाऊंगा। जिस व्यक्ति को यह संशय होता निग्रहकर अथवा आमोष आदि के होते हुए नगर जो अशान्त है कि मैं अपने अभीष्ट स्थान पर पहुंच सकूगा या नहीं, वही है, उसे शान्त बना, तुम मुनि बन जाना। मार्ग में घर बनाता है।" ३३. (श्लोक ३०) राजर्षि ने कहा-"मुझे मुक्ति-स्थान में जाना है। वहां इस श्लोक में राजर्षि ने वस्तुस्थिति का मर्मोद्घाटन किया पहुंचने के साधन सम्यक्-दर्शन आदि मुझे प्राप्त हो चुके हैं। मैं है। उन्होंने कहा—“मनुष्य में अज्ञान, अहंकार आदि दोष होते उनके सहारे गन्तव्य की ओर प्रयाण कर चुका हूं। फिर मैं यहां हैं। उनके वशीभूत होकर वह निरपराध को भी अपराधी की किसलिए घर बनाऊं ?"२ भांति दण्डित करता है और अज्ञानवश या घूस लेकर अपराधी शान्त्याचार्य ने 'सासय' के संस्कृत रूप 'स्वाश्रय' और को भी छोड़ देता है। अज्ञानी, अहंकारी और लालची मनुष्य 'शाश्वत' किए हैं। स्वाश्रय अर्थात् अपना घर शाश्वत अर्थात् मिथ्यादण्ड का प्रयोग करता है। इससे नगर का क्षेम नहीं हो सकता।" नित्य। यहां ये दोनों अर्थ प्रकरणानुसारी हैं।' 'मिच्छादंडो' मिथ्या का अर्थ 'झूठा' और दण्ड का अर्थ ३२. (श्लोक २८) 'देश-निष्कासन व शारीरिक यातना देना है। इस श्लोक में आमोष, लोमहार, ग्रन्थि-भेद और तस्कर- ३४. सुख पाता है (सुहमेहए) ये चार शब्द विभिन्न प्रकारों से धन चुराने वाले व्यक्तियों के एध' धातु अकर्मक है। इसका अर्थ है- 'वृद्धि होना।' वाचक हैं। तस्कर का अर्थ 'चोर' है। शेष तीन शब्दों के अर्थ धातु अनेकार्थक होते हैं, इस न्याय से इसका अर्थ 'प्राप्त करना' चूर्णि और टीका में समान नहीं हैं। चूर्णि के अनुसार आमोष भी होता है। 'सुहमेहए' अर्थात् सुख को प्राप्त करता है। इसका का अर्थ 'पंथ-मोषक–वटमार, राह में लूट लेने वाला' है। वैकल्पिक अर्थ है-शुभ को बढ़ाता है। लोमहार का अर्थ 'पेल्लणमोषक' है।' यहां पेल्लण का संस्कृत ३५. (श्लोक ३८) रूप सम्भवतः पीडन है। पीडनमोषक अर्थात् पीड़ा पहुंचा कर ब्राह्मण-परम्परा में यज्ञ करना, ब्राह्मणों को भोजन कराना लूटने वाला। सूत्रकृतांग की चूर्णि के अनुसार लोमहार का अर्थ और दान देना-इनका महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जैन-आगमों है....गुप्त रहकर चोरी करने वाला, लूटने वाला। जो में इनका पूर्व-पक्ष के रूप में कई स्थानों पर उल्लेख हुआ है। युक्तिसुवर्ण-..-यौगिक या नकली सोना बनाकर तथा इसी कोटि के देखें उत्तराध्ययन, १४।६; सूत्रकृतांग, २।६।२६। दुसरे कार्यों द्वारा लोगों को ठगता है, उसे ग्रन्थि-भेदक कहा जाता ३६. (श्लोक ४०) है। टीका में आमोष की केवल व्युत्पत्ति दी गई है। लोमहार का ब्राह्मण ने राजर्षि के सामने यज्ञ, ब्राह्मण-भोजन, दान १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८३ : वालग्गपोतिया णाम मूतियाओ, केचिदाहुः-जो आगासतलागरस मज्झे खुडलओ पासादो कज्जति। (ख) बृहद्रवृत्ति, पत्र ३१२ : 'वालग्गपोइयातो य' त्ति देशीपदं वलभीवाचकं, ततो वलभीश्च कारयित्वा, अन्ये त्वाकाशतडागमध्यस्थितं क्षुल्लकप्रासादमेव 'वालग्गपोइया य' त्ति देशीपदाभिधेयमाहुः । २. सर्वार्थसिद्धि, पृ० २०८, २०६। ३. बृहदवृत्ति, पत्र ३१२ : रवस्य--आत्मन आश्रयो-वेश्म स्वाश्रयस्तं, यद्वा शाश्वतं--नित्यं, प्रक्रमाद् गृहमेव। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८३ : आमोक्खंतीत्यामोक्खा पंथमोषका इत्यर्थः। ५. वहीं चूर्णि, पृ० १८३ : लोमहारा णाम पेल्लणमोसगा। सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ०३७७ : जे अदीसंता चोराः हरन्ति ते लोमहारा, वुच्चंति। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८३ : ग्रन्थि भिदंति ग्रन्थिभेदका, जुत्तिसुवण्णगादीहिं। बृहद्वृत्ति, पत्र ३१२ : आ---समन्तात् मुण्णन्ति--स्तैन्यं कुर्वन्तीत्यामोषाः । वही, पत्र ३१२: लोमानि---रोमाणि हरन्ति-अपनयन्ति प्राणिनां ये ते लोमहागः। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१२ : ग्रन्थि-द्रव्यसम्बन्धिनं भिन्ति-घुर्घरकद्वि कर्तिकादिना विदारयन्तीति ग्रन्थिभेदाः। ११. (क) वृहवृत्ति, पत्र ३१३ : 'मिथ्या' व्यलीकः, किमुक्तं भवति?-- अनपराधित्वज्ञानाहंकारादिहेतुभिरपराधिष्विवादण्डनं दण्डः देशत्यागशरीरनिग्रहादिः। (ख) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८४ : लंचापाशैः (पक्षः) कारकमपि मुंचति। १२. वृहद्वृत्ति, पत्र ३१४ : सुखम् एकान्तिकात्यन्तिकमुक्तिसुखात्मकम, एधते इत्यनेकार्थत्वाद् धातूनां प्राप्नोति, अथवा सुहमेहए त्ति शुभं-पुण्यमेधते अन्तर्भावितण्यर्थत्वात् वृन्द्रिं नयति। १३. (क) पद्मपुराण, १८४३७ : तपः कृते प्रशंसन्ति, त्रेतायां ज्ञानकर्म च। द्वापरे यामेवाहुर्दानमेकं कली युगे।। (ख) मनुस्मृति, २०२८ : स्वाध्यायेन व्रतोंमेस्वैविद्येनेज्यया सुतैः । महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः ।। Jain Education Intemational Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १७६ और भोग- सेवन ये चार प्रश्न उपस्थित किये थे । राजर्षि ने उनमें से केवल एक दान के प्रश्न का उत्तर दिया, शेष प्रश्नों के उत्तर इसी में गर्भित हैं। शान्त्याचार्य ने लिखा है कि गो-दान सबसे अधिक प्रचलित है, इसलिए उसे प्रधानता दी है। यह यज्ञ आदि का उपलक्षण है।' इस श्लोक में संयम को श्रेय कहा है। यज्ञ आदि प्रेय हैं, सावध हैं, यह स्वयं फलित हो जाता है। टीकाकार के शब्दों में "यज्ञ इसलिए सावद्य है कि उसमें पशु-वथ होता है, स्थावर जीवों की भी हिंसा होती है। साधु को उसके योग्य अशन-पान और धर्मोपकरण दिए जाते हैं, वह धर्म-दान है। इसके अतिरिक्त जो सुवर्ण दान, गोदान, भूमि दान आदि है वे प्राणियों के विनाश के हेतु हैं इसलिए सावद्य हैं और भोग तो सावद्य हैं ही।” प्रतिवादी ने कहा- -यज्ञ, दान आदि प्राणियों के प्रीतिकर हैं, इसलिए वे सावद्य नहीं हैं। आचार्य ने कहा- यह हेतु सही नहीं है। जो सावद्य है वह प्राणियों के लिए प्रीतिकर नहीं होता, जैसे- हिंसा आदि । यज्ञ आदि सावद्य हैं, इसलिए वे प्रीतिकर नहीं हैं । ३७. पोषध में रत (पोसहरओ) जो अनुष्ठान धर्म की पुष्टि करता है वह पोषध कहलाता है । यह पर्वतिथियों— अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावस्या में तपस्थापूर्वक किया जाने वाला अनुष्ठान विशेष है। आससेन ने कहा है 'सर्वेष्वपि तपोयोगः प्रशस्त: कालपर्वसु । अष्टम्यां पञ्चदश्यां व नियतं पोषयं वसेत् ॥ * 9. उपलक्षण का अर्थ है-शब्द की वह शक्ति जिससे निर्दिष्ट वस्तु के अतिरिक्त उस तरह की और वस्तुओं का भी बोध हो । २. वृहद्वृत्ति पत्र ३१५ गोदानं चेह यागाद्युपलक्षणम्, अतिप्रभूतजनाचरितमित्युपात्तम् एवं च संयमस्य प्रशस्यतरत्वमभिदधता यागादीनां सावद्यत्वमर्थादावेदितं तथा च यज्ञप्रणेतृभिरुक्तम् षट् शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभिरित्रभिः ।। इयत्पशुवधे च कथमसावद्यता नाम ?, तथा दानान्यप्यशनादिविषयाणि धम्र्मोपकरणगोचराणि च धर्माय वर्ण्यन्ते, आह अशनादीनि दानानि, धम्र्मोपकरणानि च । साधुभ्यः साधुयोग्यानि देयानि विधिना बुधैः ।। शेषाणि तु सुवर्णगोभूम्यादीनि प्राण्युपमर्दहेतुतया सावद्यान्येव, भोगानां तु सावद्यत्वं सुप्रसिद्धं । तथा च प्राणिप्रीतिकरत्वादित्यसिद्ध हेतु:, प्रयोगश्चयत्सावद्यं न तत् प्राणिप्रीतिकरं यथा हिंसादि, सावधानि च यागादीनि । ३. वृहद्वृत्ति, पत्र ३१५ । ४. महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय १४१ : शीलवृत्तविनीतस्य निगृहीतेन्द्रियस्य च ।। आर्जवे वर्तमानस्य सर्वभूतहितैषिणः । प्रियातिथेश्च क्षान्तस्य धर्मार्जितधनस्य च ।। गृहाश्रमपदस्थस्य किमन्यैः कृत्यमाश्रमैः । यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः ।। तथा गृहाश्रमं प्राप्य सर्वे जीवन्ति चाश्रमाः । अध्ययन ६ : श्लोक ४२ टि० ३७-३८ विशेष विवरण के लिए देखें-- ५ १३३ पोसहं दुहओपक्खं । ३८. (श्लोक ४२ ) ब्राह्मण परम्परा में संन्यास की अपेक्षा गृहस्थाश्रम का अधिक महत्त्व रहा है। महाभारत में बताया गया है कि जो शील और सदाचार से विनीत है, जिसने अपनी इन्द्रियों को काबू में कर रखा है, जो सरलतापूर्वक बर्ताव करता है और समस्त प्राणियों का हितैषी है, जिसको अतिथि प्रिय है, जो क्षमाशील है. जिसने धर्मपूर्वक धन का उपार्जन किया है ऐसे गृहस्थ के लिए अन्य आश्रमों की क्या आवश्यकता ? जैसे सभी जीव माता का सहारा लेकर जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार सभी आश्रम गृहस्थ आश्रम का आश्रय लेकर ही जीवन यापन करते हैं। महर्षि मनु ने भी गृही को 'ज्येष्ठाश्रम' कहा है। उसकी ज्येष्ठता इसलिए है कि शेष तीनों आश्रमों को वही धारणा करता है। इस गुरुतम उत्तरदायित्व की मान्यता को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने गार्हस्थ्य के लिए 'घोराश्रम' शब्द का प्रयोग किया है। चूर्णिकार ने इस भावना को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है कि प्रव्रज्या का पालन करना सरल है, किन्तु गृहस्थाश्रम चलाना बहुत कठिन है क्योंकि शेष सब आश्रम वाले उसी पर निर्भर रहते हैं ।" चूर्णिकार ने जो 'तर्कयन्ति' का प्रयोग किया है, वह सहज ही 'तर्कयन्ति गृहाश्रमम्' महाभारत के इस चरण की याद दिला देता है। आगमकार भी गृहस्थ को श्रमण के जीवन का आश्रयदाता मानते हैं। फिर भी जैन- परम्परा में श्रमण की अपेक्षा गृहस्थाश्रम का स्थान बहुत निम्न है। मैं घर को छोड़ कर कब श्रमण बनूं- यह गृहस्थ का पहला मनोरथ है।" ५. मनुस्मृति, ३१७७, ७८ : ६. पालयन्ति नराः शूराः, क्लीबाः पाखण्डमाश्रिताः ।। उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८४ : आश्रयन्ति तमित्याश्रयाः, का भावना ? सुखं हि प्रव्रज्या क्रियते, दुःखं गृहाश्रम इति तं हि सर्वाश्रमास्तर्कयन्ति । महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय १४१ : राजानः सर्वपाषण्डाः सर्वे रंगोपजीविनः ।। व्यालग्रहाश्च डम्भाश्च चोरा राजभटास्तथा । सविद्याः सर्वशीलज्ञाः सर्वे वै विचिकित्सकाः ।। दूराध्वानं प्रपन्नाश्च क्षीणपथ्योदना नराः । एते चान्ये च बहवः तर्कयन्ति गृहाश्रमम् ।। ठाणं ५ ।१६२ धम्मण्णं चरमाणरस पंच णिरसाद्वाष्णा पं० तं० छक्काया, गणे, राया गाहावती, सरीरं । १०. वही, ३१४६७ कया णं अहं मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारितं पव्वइरसामि । ७. ८. यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः । तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः ।। यस्मात्त्रयो ऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम् । गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही ।। बृहद्वृत्ति, पत्र ३१५: 'घोरः' अत्यन्तदुरनुचरः, स चासावाश्रमश्च आङिति स्वपरप्रयोजनाभिव्याप्त्या श्राम्यन्ति खेदमनुभवन्त्यरिमन्नितिकृत्वा घोराश्रमो गार्हस्थ्यं तस्यैवाल्पसत्त्वैर्दुष्करत्वात् यत आहु गृहाश्रमसमो धर्मो न भूतो न भविष्यति । ६. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमि- प्रव्रज्या १७७ अध्ययन ६ : श्लोक ४४-५१ टि० ३६-४४ ३९. कुश की नोक पर टिके उतना सा आहार (कुसग्गेण तु चूर्णिकार ने हिरण्य का अर्थ 'चाँदी' और सुवर्ण का अर्थ 'सोना' मुंजए) किया है। शान्त्याचार्य ने हिरण्य का अर्थ 'सोना' किया है। उनके अनुसार सुवर्ण हिरण्य का विशेषण है। सुवर्ण अर्थात् श्रेष्ट वर्ण वाला।" वैकल्पिक रूप में हिरण्य का अर्थ गढ़ा हुआ सोना और सुवर्ण का अर्थ बिना गढ़ा हुआ सोना है। सुखबोधा और सर्वार्थसिद्धि में यही अभिमत है। ४३. पर्याप्त नहीं है (नालं) अलं शब्द के तीन अर्थ हैं--पर्याप्त, वारण और भूषण । प्रस्तुत प्रसंग में चूर्णिकार ने अलं का अर्थ- पर्याप्त और वृत्तिकार ने समर्थ अर्थ किया है। " इसके दो अर्थ होते हैं-जितना कुश के अग्र भाग पर टिके उतना खाता है यह एक अर्थ है। अर्थ है -कुश दूसरा के अग्र भाग से ही खाता है, अंगुली से उठा कर नहीं खाता। पहले का आशय एक बार खाने से है और दूसरे का कई बार खाने से मात्रा की अल्पता दोनों में है । ४०. सु-आख्यात धर्म (सुवक्वावधम्मस्स) स्थानांग ( ३।५०७ ) के अनुसार सुअधीत, सुध्यात और सुतपस्थित धर्म स्वाख्यात कहलाता है। इन तीनों का पौर्वापर्य है । जब धर्म सुअधीत होता है, तब वह सुध्यात होता है। जब वह सुध्यात होता है, तब यह सुतपस्थित होता है। इन तीनों की संयुति ही स्वाख्यात धर्म है। वृत्तिकार का अभिमत यह है--भगवान् ने समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों की विरति को 'धर्म' कहा है, इसलिए उनका धर्म सु-आख्यात है। इसकी समग्रता से आराधना करने वाला स्वाख्यातधर्मा मुनि होता है । ४१. (श्लोक ४४ ) ब्राह्मण ने कहा- 'धर्मार्थी पुरुष को घोर अनुष्ठान करना चाहिए। संन्यास की अपेक्षा गृहस्थाश्रम घोर है, इसलिए उसे छोड़कर संन्यास में जाना उचित नहीं । * इसके उत्तर में राजर्षि ने कहा- 'घोर होने मात्र से कोई वस्तु श्रेष्ठ नहीं होती। बाल अर्थात् गृहस्थ आश्रम में रहने वाला घोर तप करके भी सर्व सावद्य की विरति करने वाले मुनि की तुलना में नहीं आता, उसके सोलहवें भाग का भी स्पर्श नहीं करता।' धर्मार्थी के लिए घोर अनुष्ठेय नहीं है। उसके लिए अनुष्ठेय है स्वाख्यात धर्म, भले फिर घोर हो या अघोर । गृहस्थाश्रम घोर होने पर भी स्वाख्यात-धर्म नहीं है, इसलिए उसे मैं जो छोड़ रहा हूं, वह अनुचित नहीं है। ४२. चाँदी, सोना (हिरण्णं सुवण्णं) हिरण्य शब्द चाँदी और सोना दोनों का वाचक है। 9. वृहद्वृत्ति, पत्र ३१६ : 'कुशाग्रेणैव' तृणविशेषप्रान्तेन भुंक्ते, एतदुक्तं भवति यावत् कुशाग्रे ऽवतिष्ठते तावदेवाभ्यवहरति नातोऽधिकम्, अथवा कुशाग्रेणेति जातावेकवचनं तृतीया तु ओदनेनासी भुंक्त इत्यादिवत् साधकतमत्वेनाभ्यवह्निन्यमा णत्वेऽपि विवक्षितत्वात् । २. सुखबोधा, पत्र १५० 'कुशाग्रेणैव' दर्भायेणैव भुंक्ते न तु कराड्गुल्यादिभिः । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१६ । ४. वही, पत्र ३१५ यद्यद् घोरं तत्तद् धर्मार्थिनाऽनुष्ठेयं यथाऽनशनादि, तथा चायं गृहाश्रमः । ५. वहीं, पत्र ३१६ यदुक्तम्— 'यद्यद् घोरं तत्तद्धर्मार्थिना ऽनुष्ठेयमनशनादिवदिति, अत्र घोरत्वादित्यनैकान्तिको हेतु:, घोरस्यापि स्वाख्यातधर्मस्यैव धर्मार्थिना ऽनुष्ठेयत्वाद्, अन्यस्य त्वात्मविधातादिवत्, अन्यथात्वात्, प्रयोगश्चात्र -यत स्वाख्यातधर्मरूपं न भवति घोरमपि न तद्धर्मार्थिना ऽनुष्ठेयं यथाऽऽत्मवधादिः तथा च गृहाश्रमः, तद्रूपत्वं चास्य सावद्यत्वाद्धिसावदित्यलं प्रसंगेन । ४४. ( अब्भुद ..... संकप्पेण विहन्नसि ) शान्त्याचार्य ने 'अभुदर' का संस्कृत रूप 'अद्भुतकानु' कर इसे भोगों का विशेषण माना है। इसका अर्थ है आश्चर्यकारी भोगों को विकल्प में उन्होंने इसका संस्कृत रूप 'अभ्युदयेअभ्युदय काल में माना है।" प्रस्तुत प्रसंग में यही उपयुक्त व्याख्या है। 1 संकल्प का अर्थ है— उत्तरोत्तर भोग-प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा । इसका कहीं अन्त नहीं आता। जैसे-जैसे भोगों की प्राप्ति होती रहती है, अभिलाषा आगे से आगे बढ़ती जाती है। कहा भी है 'अमीषा' स्थूलसूक्ष्माणामिन्द्रियार्थविधायिनाम् । शक्रादयोऽपि दृप्ति, विषयाणामुपागताः ॥' ऐसे संकल्प-विकल्पों के वशीभूत होकर मनुष्य निरंतर प्रताड़ित होता रहता है। " चूर्णिकार ने यहां असत्संकल्प का ग्रहण किया है। संकल्प-विकल्प की जटिलता से होने वाली हानि को सूचित करने वाली यह कथा है श्रेष्ठीपुत्र जंबूकुमार प्रव्रजित होने के लिए उत्कंठित है 1 उस समय उसकी नवोढा पत्नियां उसे समझाने का प्रयत्न करती हैं। समुद्रश्री नामक पत्नी ने जंबू को कहा—प्रिय ! आप भी उस भोले किसान की भांति हैं जिसने इक्षु के लोभ में अपने ६. ७. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८५: हिरण्यं रजतं शोभनवर्ण सुवर्णम् । बृहद्वृत्ति, पत्र ३१६ 'हिरण्यं' स्वर्ण 'सुवर्ण' शोभनवणं विशिष्टवर्णकमित्यर्थः । ८. वही, पत्र ३१६ : यद्वा हिरण्यं--घटितस्वर्णमितरत्तु सुवर्णम् । ६. (क) सुखबोधा, पत्र १५१। (ख) सर्वार्थसिद्धि पत्र २११। १०. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० १८५: अलं पर्याप्तिवारणभूषणेषु, न अलं नालं पर्याप्तिक्षमानि स्युः । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३१७: अलं समर्थम् । ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१७ 'अब्भुदए' त्ति अद्भुतकान् आश्चर्यरूपान् ।..... 'अथवा 'अब्भुदए' त्ति अभ्युदये, ततश्च यदभ्युदयेऽपि भोगास्त्वं जहासि तदाश्चर्यं वर्तते । १२. वही, पत्र ३१७ । १३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८५। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १७८ अध्ययन ६ :श्लोक ५३-६१टि०४५-५० खेत में उत्पन्न मोठ-बाजरे की फसल को उखाड़ दिया था। पानी सम्मोह, सम्मोह से स्मृति-विभ्रम और स्मृति-विभ्रम से बुद्धि का के अभाव में इक्षु हुआ नहीं। वह दोनों से हाथ धो बैठा। वैसे नाश हो जाता है। बुद्धि नष्ट होने पर वह व्यक्ति नष्ट हो जाता है।' ही आप भी मुक्ति-सुख के लोभ में इस ऐहिक सुख को छोड़ रहे हैं। ४७. (श्लोक ५४) मरुप्रदेश में 'सुवरी' नामक एक गांव था। वहां बग नाम प्रस्तत श्लोक में क्रोध, मान, माया और लोभ के परिणामों का किसान रहता था। एक बार वह अपने खेत में मोठ, बाजरी का प्रतिपादन है। जो व्यक्ति कामनाओं के वशीभूत होता है, बोकर ससुराल गया। वहां ईख बहुत होते थे। ससुराल वालों ने प्राप्त भोगों में आसक्त होता है और अप्राप्त भोगों को सतत दामाद के स्वागत में ईक्षुरस के मालपूए बनाए। उसे बहुत वांछा करता है, उसमें ये चारों कषाय अवश्य होते हैं। भोगों की स्वादिष्ट लगे। भोजन के पश्चात् उसने अपने ससुर से ईक्षु बोने वांछा के साथ इनका होना अनिवार्य है। ये चारों अधोगति के हेत हैं। की विधि पूछी। उन्होंने ईक्षु बोने से लेकर मालपूए बनाने तक यहां क्रोध से नरकगति, मान से अधम गति, माया से की सारी प्रक्रिया बता दी। ससुराल से आते समय वह बोने के सुगति का विनाश अर्थात दुर्गति की प्राप्ति और लोभ से ऐहिक लिए ईक्षखंड भी ले आया। वह अपने गांव पहुंचा। मोठ-बाजरे तथा पारलौकिक दुःख की प्राप्ति का उल्लेख है। अनुसंधान के की फसल अच्छी थी। उसने मोठ-बाजरे को उखाड़ फेंका। खेत लिए देखें-२६।४। साफ कर उसमें ईक्षु बो दिया। मरुप्रदेश में पानी है कहां ! बिना स्थानांग (४।६२६) में माया को तिर्यञ्चयोनि का कारण पानी के ईक्षु की खेती होती नहीं। ईक्षु बोने का प्रयत्न व्यर्थ गया। माना है। उस खेत से उसे न मोठ-बाजरे की फसल ही प्राप्त हुई और आयर्वेद में हृदय-दौर्बल्य, अरुचि, अग्निमांद्य आदि का न ईक्ष ही मिले। वह दोनों को खो बैठा । वह न इधर का रहा मल कारण लोभ माना है। यह व्यवहार संगत भी है। क्योंकि न उधर का—'नो हव्वाए नो पाराए।' लोभी व्यक्ति सदा भयभीत रहता है, सत्य कहने या स्वीकारने में ४५. कामभोग की इच्छा करने वाले (कामे पत्थेमाणा) उसका हृदय निर्बल हो जाता है। निरंतर अर्थार्जन की बात नमि राजर्षि ने कहा-इन्द्र ! कामभोग की इच्छा करने सोचते रहने से उसमें अरुचि और अग्निमांद्य का होना वाले उनका सेवन न करने पर भी दुर्गति में जाते हैं तो भला, स्वाभाविक है। असद् भोगों की वांछा की, जो तुमने मेरे प्रति संभावना की है, ४८. मुकुट को धारण करने वाला (तिरीडी) वह सर्वथा असंगत है, क्योंकि मुमुक्षु व्यक्ति कहीं भी आकांक्षा जिसके तीन शिखर हों उसे 'मुकुट' और जिसके चौरासी नहीं करता। कहा भी है—'मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो शिखर हों उसे 'किरीट' कहा जाता है। जिसके सिर पर किरीट मुनिसत्तमः'-मुनि मोक्ष और संसार के प्रति सर्वथा निस्पृह हो वह 'किरीटी' कहलाता है। सामान्यतया मुकुट और किरीट होता है, इसलिए इंद्र ! तुम्हारा कथन सार्थक नहीं है। पर्यायवाची माने जाते हैं। ४६. (श्लोक ५३) ४९. (नमी नमेइ अप्पाण) प्रस्तुत श्लोक में काम को शल्य, विष और आशीविष सर्प वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं'...के तुल्य कहा गया है। काम की चुभन निरंतर बनी रहती है, १. राजर्षि नमि ने अपने उत्प्रेरित आत्मा को स्वतत्त्वभावना इसलिए वह शल्य (अन्तर्वण) है। उसमें मारक-शक्ति है, से प्रगुणित किया, किन्तु इन्द्र की स्तुति सुनकर गर्वित नहीं हुए। इसलिए वह विष है। आशीविष सर्प वे होते हैं जिनकी दाढाओं २. इन्द्र की स्तुति सुनकर नमि ने अपने आपको संयम में विष होता है। वे मणिधारी सर्प होते हैं। उनकी दीप्तमणि से के प्रति और अधिक संलग्न कर दिया। विभूषित फण लोगों को सुंदर लगते हैं। लोग उन फणों का स्पर्श आचार्य नेमिचन्द्र ने यहां एक श्लोक प्रस्तुत किया है - करने की इच्छा का संवरण नहीं कर पाते। ज्योंही वे उन सो संतगुणकित्तणेण वि, पुरिसा लज्जति जे महासत्ता। का स्पर्श करते हैं, तत्काल उनके द्वारा डसे जाने पर मृत्यु को इयरे पुण अलियपसंसणे वि अंगे न मायति॥' प्राप्त कर लेते हैं। इसी प्रकार काम भी लुभावने होते हैं और ५०. वैदेही (मिथिला) (वइदेही) प्राणी इनका सहज शिकार हो जाता है।' नमि विदेह जनपद के अधिपति थे, इसलिए उन्हें 'विदेही' गीता में कहा है-जो व्यक्ति इन्द्रिय-विषयों का निरन्तर कहा है। 'वइदेही' का दूसरा संस्कृत रूप 'वैदेही' है। विभक्ति का चिंतन करता रहता है, उसके मन में आसक्ति पैदा होती है। व्यत्यय माना जाए तो इसका अर्थ 'वैदेहीं' (मिथिला को) किया आसक्ति से काम-वासना उभरती है। उससे क्रोध, क्रोध से जा सकता है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१८ ।। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१६-३२०। २. गीता २१६२, ६३। ६. सुखबोधा, पत्र १५३।। ३. सूत्रकृताङ्ग चूर्णि, पृ० ३६० : तिहिं सिहरएहिं मउडो चतुरसीहिं . ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३२० : 'वइदेहीत्ति सूत्रत्वाद्विदेहो नाम जनपदः सोऽस्यास्तीति तिरीडं। विदेही विदेहजनपदाधिपो, न त्वन्य एव कश्चिदिति भावः, यद्वा विदेहेषु ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१६ : किरीटी च-मुकुटवान्। भवा वैदेही—मिथिलापुरी, सुब्ब्यत्ययात्ताम् । Jain Education Intemational Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमं अज्झयणं दुमपत्तयं दशवां अध्ययन द्रुमपत्रक Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन का नाम आद्य-पद (आदान-पद) 'दुमपत्तए' वन्दना की और उन सबको वन्दना करने के लिए कहा। के आधार पर 'द्रुमपत्रक' रखा गया है। भगवान् ने गौतम को सम्बोधित कर कहा- “गौतम ! केवलियों कई कारणों से गौतम गणधर के मन में विचिकित्सा हुई। की आशातना मत करो।" गौतम ने उनसे क्षमा याचना की, पर भगवान् महावीर ने उसका निराकरण करने के लिए इस मन शंकाओं से भर गया। उन्होंने सोचा-“मैं सिद्ध नहीं अध्ययन का प्रतिपादन किया। नियुक्तिकार तथा बृहद्वृत्तिकार ने होऊंगा।" यहां एक कथानक का उल्लेख किया है। उसका संक्षेप इस प्रकार एक बार गौतम अष्टापद पर्वत पर गए। वहां पहले से ही तीन तापस अपने-अपने पांच-पांच सौ शिष्यों के परिवार से उस काल और उस समय पृष्टचम्पा नाम की नगरी थी। तप कर रहे थे। उनके नाम थे कौडिन्य, दत्त और शैवाल । वहां शाल नाम का राजा था और युवराज का नाम था महाशाल। दत्त बेले-बेले की तपस्या करता। वह नीचे पड़े पीले पत्ते उसके यशस्वती नाम की बहिन थी। उसके पति का नाम पिठर खा कर रहता था। वह अष्टापद की दूसरी मेखला तक ही चढ़ था। उसके एक पुत्र हुआ। उसका नाम गागली रखा गया। एक पाया। बार भगवान महावीर राजगृह से विहार कर पृष्ठचम्पा पधारे। कौडिन्य उपवास-उपवास की तपस्या करता और पारणे सुभूमि-भाग उद्यान में ठहरे। राजा शाल भगवान् की वन्दना में मूल, कन्द आदि सचित्त आहार करता था। वह अष्टापद करने गया। भगवान् से धर्म सुना और विरक्त हो गया। उसने पर्वत पर चढ़ा किन्तु एक मेखला से आगे नहीं जा सका। भगवान् से प्रार्थना की—“भन्ते ! मैं महाशाल का राज्याभिषेक शेवाल तेले-तेले की तपस्या करता था। वह सूखी शैवाल कर दीक्षित होने के लिए अभी वापस आ रहा हूं।" वह नगर (सेवार) खाता था। वह अष्टापद की तीसरी मेखला तक ही चढ़ में गया। महाशाल से सारी बात कही। उसने भी दीक्षा लेने की सका। भावना व्यक्त की। वह बोला-"मैं आपके साथ ही प्रव्रजित गौतम आए। तापस उन्हें देख परस्पर कहने लगे."हम होऊंगा।” राजा ने अपने भानजे गागली को काम्पिल्यपुर से महातपस्वी भी ऊपर नहीं जा सके, तो यह कैसे जाएगा ?" बुलाया और उसे राज्य का भार सौंप दिया। गागली अब राजा गौतम ने जंघाचरण-लब्धि का प्रयोग किया और मकड़ी के हो गया। उसने अपने माता-पिता को भी वहीं बुला लिया। जाले का सहारा ले पर्वत पर चढ़ गये। तापसों ने आश्चर्य इधर शाल और महाशाल भगवान के पास दीक्षित हो गए। भरी आंखों से यह देखा और वे अवाक रह गए। उन्होंने मन यशस्वती भी श्रमणोपासिका हुई। उन दोनों श्रमणों ने ग्यारह ही मन यह निश्चय कर लिया कि ज्योंही मुनि नीचे उतरेंगे, हम अंगों का अध्ययन किया। उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लेंगे। गौतम ने रात्रिवास पर्वत भगवान् महावीर पृष्टचम्पा से विहार कर राजगृह गए। पर ही किया। जब सुबह वे नीचे उतरे, तव तापसों ने उनका वहां से विहार कर चम्पा पधारे। शाल और महाशाल भगवान के रास्ता रोकते हए कहा-“हम आपके शिष्य हैं और आप पास आए और प्रार्थना की---“यदि आपकी अनुज्ञा हो तो हम हमारे आचार्य ।” गौतम ने कहा-“तुम्हारे और हमारे आचार्य पृष्ठचम्पा जाना चाहते हैं। सम्भव है किसी को प्रतिबोध मिले त्रैलोक्य गुरु भगवान महावीर हैं।" तापसों ने साश्चर्य पूछा--- और कोई सम्यग्दर्शी बने।" भगवान् ने अनुज्ञा दी और गौतम "तो क्या आपके भी आचार्य हैं ?" गौतम ने भगवान् के के साथ उन्हें वहां भेजा। वे पृष्ठचम्पा गए। वहां के राजा गागली गुणगान किए और सभी तापसों को प्रव्रजित कर भगवान् की और उसके माता-पिता को दीक्षित कर वे पुनः भगवान् महावीर दिशा में चल पड़े। मार्ग में भिक्षा-वेला के समय भोजन के पास आ रहे थे। मार्ग में चलते-चलते मुनि शाल और करते-करते शैवाल तथा उसके सभी शिष्यों को केवलज्ञान महाशाल के अध्यवसायों की पवित्रता बढ़ी और वे केवली हो प्राप्त हो गया। दत्त तथा उसके शिष्यों को छत्र आदि अतिशय गए। गागली और उसके माता-पिता–तीनों को केवलज्ञान देख कर केवलज्ञान हुआ। कौडिन्य तथा उसके शिष्यों को हुआ। सभी भगवान् के पास पहुंचे। गौतम ने भगवान् की भगवान् महावीर को देखते ही केवलज्ञान हो गया। गौतम इस १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २८३ : दुमपत्तेणोवम्म अहाठिईए उवक्कमेणं च। इत्थ कयं आईमी तो तं दुमपत्तमज्झयणं ।। समवाओ (प्रकीर्णक समवाय ३८) में भगवान महावीर के केवलज्ञानी शिष्यों की संख्या सात सी है। प्रस्तुत कथा के अनुसार पन्द्रह सी की संख्या केवल इन्हीं तापसों की हो जाती है। यह आगम के अनुसार संगत नहीं है। Jain Education Intemational Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रुमपत्रक १८१ अध्ययन १० : आमुख स्थिति से अनभिज्ञ थे। सभी भगवान् के पास आए। गौतम ने को सम्बोधित कर 'दुमपत्तए' (द्रुमपत्रक) अध्ययन कहा । ' | वंदना की, स्तुति की वे सभी तापस मुनि केवली परिषद् में चले गए। गौतम ने उन्हें भगवान् की वन्दना करने के लिए कहा। भगवान् ने कहा- “ गौतम ! केवलियों की आशातना मत करो।” गौतम ने 'मिच्छामि दुक्कड़ लिया। इस अध्ययन के प्रत्येक श्लोक के अन्त में 'समयं गोयम ! मा पमायए' है। नियुक्ति (गा० ३०६ ) में 'तणिस्साए भगवं सीसाणं देइ अनुसट्ठि' - यह पद है। इसका तात्पर्य है कि भगवान् महावीर गौतम को सम्बोधित कर उनकी निश्राय में, अन्य सभी शिष्यों को अनुशासन-शिक्षा देते हैं । गौतम का धैर्य टूट गया। भगवान् ने उनके मन की बात जान ली। उन्होंने कहा—“गौतम! देवताओं का वचन प्रमाण है या जिनवर का ?" दशवैकालिक नियुक्ति गाथा ७८ में 'निश्रावचन' का उदाहरण यही अध्ययन है। इसकी चर्चा आवश्यक निर्युक्ति में भी मिलती है । गौतम ने कहा- “भगवन् ! जिनवर का वचन प्रमाण है ।" भगवान् ने कहा - " गौतम ! तू मुझ से अत्यन्त निकट है, चिर-संसृष्ट है। तू और मैं दोनों एक ही अवस्था को प्राप्त होंगे। दोनों में कुछ भी भिन्नता नहीं रहेगी।” भगवान् ने गौतम १. (क) उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा २६१-३०६ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३२३-३३३ तेणं कालेणं तेणं समएणं पिट्टीचंपा णाम णयरी... ताथे सामी दुमपत्तयं णाम अज्झयणं पण्णवे । इस अध्ययन में जीवन की अस्थिरता, मनुष्य भव की स्नेहापनयन दुर्लभता, शरीर तथा इन्द्रिय बल की उत्तरोत्तर क्षीणता, की प्रक्रिया, वान्त भोगों को पुनः स्वीकार न करने की शिक्षा आदि-आदि का सुन्दर चित्रण है। दशवैकालिक नियुक्ति गाथा ७८ पुच्छाए नाहियवाई पुच्छे जीवत्थित्तं अणिच्छंतं ।। कोणिओ खलु निस्सावयणमि गोयमस्सामी । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमं अज्झयणं : दशवां अध्ययन दुमपत्तयं : द्रुमपत्रक हिन्दी अनुवाद रात्रियां बीतने पर वृक्ष का पका हुआ पत्ता' जिस प्रकार गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन एक दिन समाप्त हो जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। कुश' की नोक पर लटकते हुए ओस-बिन्दु की अवधि जैसे थोड़ी होती है वैसे ही मनुष्य जीवन की गति है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। यह आयुष्य क्षणभंगुर है, यह जीवन विघ्नों से भरा हुआ है, इसलिए हे गौतम ! तू पूर्व संचित कर्म-रज को प्रकम्पित कर और क्षण भर भी प्रमाद मत कर। सब प्राणियों को चिरकाल तक भी मनुष्य-जन्म मिलना दुर्लभ है। कर्म के विपाक तीव्र होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। मूल संस्कृत छाया १. दुमपत्तए पंडुयए जहा द्रुमपत्रकं पाण्डुकं यथा निवडइ राइगणाण अच्चए। निपतति रात्रिगणानामत्यये। एवं मणुयाण जीवियं एवं मनुजानां जीवितं समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः।। २. कुसग्गे जह ओसबिंदुए कुशाग्रे यथा 'ओस' बिन्दुकः थोवं चिट्ठइ लंबमाणए। स्तोकं तिष्ठति लम्बमानकः। एवं मणुयाण जीवियं एवं मनुजानां जीवितं समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम! मा प्रमादीः।। ३. इइ इत्तरियम्मि आउए इतीत्वरिके आयुषि जीवियए बहुपच्चवायए। जीवितके बहुप्रत्यपायके। विहुणाहि रयं पुरेकडं विधुनीहि रजः पुराकृतं समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। ४. दुलहे खलु माणुसे भवे दुर्लभः खलु मानुषो भवः चिरकालेण वि सव्वपाणिणं। चिरकालेनापि सर्वप्राणिनाम्। गाढा य विवाग कम्मुणो गाढाश्च विपाकाः कर्मणः समयं गोयम! मा पमायए। समयं गौतम ! मा प्रमादी:।। ५. पुढविक्कायमइगओ पृथिवीकायमतिगतः उक्कोसं जीवो उ संवसे।। उत्कर्ष जीवस्तु संवसेत्। कालं संखाईयं कालं संख्यातीतं समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः।। आउक्कायमइगओ अप्कायमतिगतः उक्कोसं जीवो उ संवसे। उत्कर्ष जीवस्तु संवसेत् । कालं संखाईयं कालं संख्यातीतं समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। ७. तेउक्कायमइगओ तेजस्कायमतिगतः उक्कोसं जीवो उ संवसे। उत्कर्ष जीवस्तु संवसेत्। कालं संखाईयं कालं संख्यातीतं समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। ८. वाउक्कायमइगओ वायुकायमतिगतः उक्कोसं जीवो उ संवसे।। उत्कर्ष जीवस्तु संवसेत्। कालं संखाईयं कालं संख्यातीतं समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। पृथ्वीकाय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक असंख्य काल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। अप्काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक असंख्य काल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। तेजस्काय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक असंख्य काल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। वायुकाय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक असंख्य काल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। Jain Education Intemational Education International Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १० : श्लोक ६-१७ वनस्पतिकाय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक दुरन्त अनन्त काल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। द्वीन्द्रियकाय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक संख्येय काल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। त्रीन्द्रियकाय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक संख्येय काल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। चतुरिन्द्रिकाय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक संख्येय काल तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। द्रुमपत्रक १८३ ६. वणस्सइकायमइगओ वनस्पतिकायमतिगतः उक्कोसं जीवो उ संवसे। उत्कर्ष जीवस्तु संवसेत् । कालमणंतदुरंतं कालमनन्तं दुरन्तं समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। १०.बेइंदियकायमइगओ द्वीन्द्रियकायमतिगतः उक्कोसं जीवो उ संवसे। उत्कर्ष जीवस्तु संवसेत् । कालं संखिज्जसन्नियं कालं संख्येयसंज्ञितं समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम! मा प्रमादीः।। ११.तेइंदियकायमइगओ त्रीन्द्रियकायमतिगतः उक्कोसं जीवो उ संवसे।। उत्कर्ष जीवस्तु संवसेत् । कालं संखिज्जसन्नियं कालं संख्येयसंज्ञितं समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम! मा प्रमादीः।। १२.चउरिंदियकायमइगओ चतुरिन्द्रियकायमतिगतः उक्कोसं जीवो उ संवसे। उत्कर्ष जीवस्तु संवसेत् ।। कालं संखिज्जसन्नियं कालं संख्येयसंज्ञितं समयं गोयम! मा पमायए। समयं गौतम ! मा प्रमादीः।। १३.पंचिदियकायमइगओ पंचेन्द्रियकायमतिगतः उक्कोसं जीवो उ संवसे। उत्कर्ष जीवस्तु संवसेत् । सत्तट्ठभवग्गहणे सप्ताष्टभवग्रहणानि समयं गोयम ! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः।। १४.देवे नेरइए य अइगओ देवान्नैरयिकांश्चातिगतः उक्कोसं जीवो उ संवसे। उत्कर्ष जीवस्तु संवसेत् । इक्किक्कभवग्गहणे एकैकभवग्रहणं समयं गोयम ! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः।। १५.एवं भवसंसारे एवं भवसंसारे संसरइ सुहासुहेहि कम्मेहिं। संसरति शुभाशुभैः कर्मभिः। जीवो पमायबहुलो जीवः प्रमादबहुलः समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम! मा प्रमादीः।। १६.लभ्रूण वि माणुसत्तणं लब्ध्वापि मानुषत्वं आरिअत्तं पुणरावि दुल्लहं। आर्यत्वं पुनरपि दुर्लभम् । बहवे दसुया मिलेक्खुया बहवो दस्यवो म्लेच्छाः समयं गोयम! मा पमायए। समयं गौतम ! मा प्रमादी:।। १७.लक्ष्ण वि आरियत्तणं लब्ब्वाप्यार्यत्वं अहीणपंचिंदियया हु दुल्लहा। विगलिंदियया हु दीसई विकलेन्द्रियता खलु दृश्यते समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम! मा प्रमादीः।। पंचेन्द्रियकाय में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक सात-आठ जन्म-ग्रहण तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। देव और नरक-योनि में उत्पन्न हुआ जीव अधिक से अधिक एक-एक जन्म-ग्रहण तक वहां रह जाता है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। इस प्रकार प्रमाद-बहुल जीव शुभ-अशुभ कर्मों द्वारा जन्म-मृत्युमय संसार में परिभ्रमण करता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। मनुष्य-जन्म दुर्लभ है, उसके मिलने पर भी आर्यत्व" और भी दुर्लभ है। बहुत से लोग मनुष्य होकर भी दस्यु और म्लेच्छ होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। आर्य देश में जन्म मिलने पर भी पांचों इन्द्रियों से पूर्ण स्वस्थ होना दुर्लभ है। बहुत से लोग इन्द्रियहीन दीख रहे हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। Jain Education Intemational Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १८४ अध्ययन १० : श्लोक १८-२६ १८.अहीणपंचिंदियत्तं पि से लहे अहीनपंचेन्द्रियत्वमपि स लभेत पांचों इन्द्रियां पूर्ण स्थान होने पर भी उत्तम धर्म" की उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा। उत्तमधर्मश्रुतिः खलु दुर्लभा। श्रुति दुर्लभ है। बहुत सारे लोग कुतीर्थिकों की सेवा कुतित्थिनिसेवए जणे कुतीर्थिनिषेवको जनो करने वाले होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम! मा प्रमादीः।। भी प्रमाद मत कर। १६.लक्ष्ण वि उत्तमं सुई लब्ध्वाप्युत्तमां श्रुति उत्तम धर्म की श्रुति मिलने पर भी श्रद्धा होना और सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा। श्रद्धानं पुनरपि दुर्लभम् । अधिक दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मिथ्यात्व का सेवन मिच्छत्तनिसेवए जणे मिथ्यात्वनिषेवको जनो करने वाले होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। भी प्रमाद मत कर। २०.धम्म पि हु सद्दहंतया धर्ममपि खलु श्रद्दधतः उत्तम धर्म में श्रद्धा होने पर भी उसका आचरण दुल्लहया काएण फासया। दुर्लभकाः कायेन स्पर्शकाः। करने वाले दुर्लभ हैं। इस लोक में बहुत सारे इह कामगुणेहि मुच्छिया इह कामगुणेषु मूछिताः कामगुणों में मूच्छित होते हैं, इसलिए हे गौतम ! तू समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। क्षण भर भी प्रमाद मत कर। २१.परिजूरइ ते सरीरयं परिजीर्यति ते शरीरक तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं केसा पंडुरया हवंति ते। केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते। और श्रोत्र का पूर्ववर्ती बल क्षीण हो रहा है, इसलिए से सोयबले य हायई तच्छोत्रबलं च हीयते हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः।। २२.परिजूरइ ते सरीरयं परिजीर्यति ते शरीरक तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं केसा पंडुरया हवंति ते। केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते। और चक्षु का पूर्ववर्ती बल क्षीण हो रहा है, इसलिए से चक्खुबले य हायई तच्चक्षुर्बलं व हीयते हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम! मा प्रमादीः ।। २३.परिजूरइ ते सरीरयं परिजीर्यति ते शरीरकं तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं केसा पंडुरया हवंति ते। केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते। और घ्राण का पूर्ववर्ती बल क्षीण हो रहा है, इसलिए से घाणबले य हायई तद् घाणबलं च हीयते हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम! मा प्रमादीः।। २४.परिजूरइ ते सरीरयं परिजीयति ते शरीरकं तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं केसा पंडुरया हवंति ते। केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते। और जीहा का पूर्ववर्ती बल क्षीण हो रहा है, इसलिए से जिब्भबले य हायई तज्जिहाबलं च हीयते हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। समयं गोयम! मा पमायए।। समय गौतम! मा प्रमादीः।। २५.परिजूरइ ते सरीरयं परिजीर्यति ते शरीरकं तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं केसा पंडुरया हवंति ते। केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते। और स्पर्श का पूर्ववर्ती बल क्षीण हो रहा है, इसलिए से फासबले य हायई तत् स्पर्शबलं च हीयते हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।" समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः।। २६.परिजूरइ ते सरीरयं परिजीर्यति ते शरीरक तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं केसा पंडुरया हवंति ते। केशाः पाण्डुरका भवन्ति ते। और सब प्रकार का पूर्ववर्ती बल" क्षीण हो रहा है, से सव्वबले य हायई तत् सर्वबलं च हीयते इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः।। Jain Education Intemational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रुमपत्रक २७. अरई गंडं विसूया आयंका विविहा फुसंति ते। विवss विद्धंसह ते सरीरयं समयं गोयम ! मा पमायए ।। २८. वोछिंद सिणेहमप्पणी कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सव्वसिणेहवज्जिए समयं गोयम ! मा पमायए ।। २६. चिच्चाण धणं च भारियं पव्वइओ हि सि अणगारियं मा तं पुणो वि आइए समयं गोयम ! मा पमायए ।। ३०. अवउज्झिय मित्तबंधर्व विउलं चैव धणोहसंचयं । मा तं बिइयं गवेसए समयं गोयम ! मा पमायए ।। ३१. न हु जिणे अज्ज दिस्सई बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए । संपइ नेयाउए पहे समयं गोयम ! मा पमायए ।। । ३२. अवसोहिय कंटगापहं ओइण्णो सि पहं महालयं । गच्छसि मग्गं विसोहिया समयं गोयम ! मा पमायए ।। ३३. अबले जह भारवाहए मा मग्गे विसमे ऽवगाहिया । पच्छा पच्छाणुतावए समयं गोयम ! मा पमायए ।। २४. तिष्णो हु सि अण्णवं महं किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ । अभितुर पारं गमित्तए समयं गोयम ! मा पमायए ।। ३५. अकलेवरसेणिमुस्सिया सिद्धिं गोयम ! लोयं गच्छसि । खेमं च सिवं अणुत्तरं समयं गोयम ! मा पमायए ।। १८५ अरतिर्गण्ड विसूचिका आतङ्का विविधाः स्पृशन्ति ते । विपतति विश्वस्यते ते शरीर समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। व्युच्छिन्धि स्नेहमात्मनः कुमुई शारदिकमिव पानीयम्। तत्सर्वस्नेहवर्जितः समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। त्यक्त्वा धनं च भार्यां प्रवजितोस्यनगारिताम् । मायान्तं पुनरप्यापिय समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। अपोज्झय मित्रबान्धवं विपुलं चैव धनौघसंचयम् । मा तद् द्वितीयं गवेषय समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। न खलु जिनोऽद्य दृश्यते बहुमतो दृश्यते मार्गदेशिकः । सम्प्रति नैर्यातृके पथि समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। अवशोध्य कंटकपथं अवतीर्णोऽसि पथं महान्तं । गच्छसि मार्गं विशोध्य समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। अबलो यथा भारवाहकः मा मार्ग विषममवगाह्य । पश्चात्पश्चादनुतापकः समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। तीर्णः खलु असि अर्णवं महान्तं किं पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः । अभित्वरस्व पारं गन्तुं समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। अक्लेयर श्रेणिमुच्छ्रित्य सिद्धिं गौतम ! लोकं गच्छसि । क्षेमं व शिवमनुतरं समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। अध्ययन १० : श्लोक २७-३५ १७ पित्त रोग, फोड़ा - फुन्सी, हैजा और विविध प्रकार के शीघ्रघाती रोग शरीर का स्पर्श करते हैं जिनसे यह शरीर शक्तिहीन और विनष्ट होता है, इसलिए है गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। जिस प्रकार शरद ऋतु का कुमुद (रक्त कमल ) जल में लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तू अपने स्नेह का विच्छेद कर निर्लिप्त बन हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। ६ 1 गाय आदि धन और पत्नी का त्याग कर तू अनगार-वृत्ति के लिए घर से निकला है। वमन किए हुए काम-भोगों को फिर से मत पी । हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । मित्र, बान्धव और विपुल धन राशि को छोड़कर फिर से उनकी गवेषणा मत कर। हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। " आज जिन नहीं दीख रहे हैं, जो मार्ग-दर्शक हैं वे एकमत नहीं हैं” अगली पीढ़ियों को इस कठिनाई का अनुभव होगा, किन्तु अभी मेरी उपस्थिति में तुझे पार ले जाने वाला पथ प्राप्त है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर कांटों से भरे मार्ग को छोड़ कर तू विशाल पथ पर चला आया है।" दृढ़ निश्चय के साथ उसी मार्ग पर चल । हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। बलहीन भार वाहक की भांति तू विषम मार्ग में मत चले जाना। विषम मार्ग में जाने वाले को पछतावा होता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।२३ तू महान् समुद्र को तैर गया, अब तीर के निकट पहुंच कर क्यों खड़ा है ?* उसके पार जाने के लिए जल्दी कर हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर २५ हे गौतम! तू क्षपक- श्रेणी पर आरूढ़ होकर उस सिद्धिलोक को प्राप्त होगा, जो क्षेम, शिव और अनुत्तर है । इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १० : श्लोक ३६, ३७ तू गांव में या नगर में संयत, बुद्ध और उपशान्त होकर विचरण कर, शांतिमार्ग को बढ़ा। हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। उत्तरज्झयणाणि १८६ ३६.बुद्धे परिनिब्बुडे चरे बुद्धः परिनिर्वृतश्चरेः गामगए नगरे व संजए। ग्रामे गतो नगरे वा संयतः। संतिमग्गं च बूहए शान्तिमार्गं च बुंहयेः समयं गोयम! मा पमायए।। समयं गौतम ! मा प्रमादीः।। ३७.बुद्धस्स निसम्म भासियं बुद्धस्य निशम्य भाषितं सुकहियमट्ठपओवसोहियं । सुकथितमर्थपदोपशोभितम्। रागं दोसं च छिंदिया रांग दोषं च छित्त्वा सिद्धिगई गए गोयमे।। सिद्धिगतिं गतो गौतमः।। अर्थपद (शिक्षापद) से उपशोभित एवं सुकथित भगवान् की वाणी को सुनकर राग और द्वेष का छेदन कर गौतम सिद्धिगति को प्राप्त हुए। —त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन १०: द्रुमपत्रक १. वृक्ष का पका हुआ पत्ता (दुमपत्तए पंडुयए) की आयु मानी जाती है। यह सामान्य नियम है। विशेष रूप में जीवन की नश्वरता को पके हुए द्रुम-पत्र की उपमा से वह अधिक भी हो सकती है। समझाया गया है। नियुक्तिकार ने यहां पके हुए पत्र और कोंपल ४. विघ्नों से भरा हुआ (पच्चवायए) का एक उद्बोधक संवाद प्रस्तुत किया है। पके हुए पत्र ने प्रत्यपाय का अर्थ है-विघ्न । जीवन को घटाने या उसका किसलयों से कहा-“एक दिन हम भी वैसे ही थे, जैसे कि तुम उपघात करने वाले अनेक हेतु हैं। स्थानांग सूत्र में आयुष्य-भेद हो और एक दिन तुम भी वैसे ही हो जाओगे, जैसे कि हम हैं।" के सात कारण निर्दिष्ट हैं - अनुयोगद्वार में इस कल्पना को और अधिक सरस रूप १. अध्यवसान-राग, स्नेह, भय आदि की तीव्रता। दिया गया है। पके हुए पत्तों को गिरते देख कोपलें हंसी। तब २. निमित्त-शस्त्रप्रयोग आदि। पत्तों ने कहा-"जरा ठहरो, एक दिन तुम पर भी वही बीतेगी, ३. आहार-आहार की न्यूनाधिकता। जो आज हम पर बीत रही है।"२ ४. वेदना-नयन आदि की तीव्रतम वेदना। तुलना ५. पराघात-गढे आदि में गिरना। पान पड़तो देख नै, हंसी रे कोपलियां। ६. स्पर्श-सर्प आदि का स्पर्श । मों बीती तो बीतसी, धीरी बापडियां। ७. आन-अपान—उच्छ्वास-निःश्वास का निरोध । जैसे वृन्त से टूटते हुए पीले पत्ते ने किसलयों को मर्म की ५. कर्म के विपाक तीव्र होते हैं (गाढा य विवाग कम्मुणो) बात कही, वैसे ही जो पुरुष यौवन से मत्त होते हैं, उन्हें यह गाढ के दो अर्थ हैं चिकना और दृढ़। 'विवाग कम्मुणो'सोचना चाहिए। कर्म का विपाक-यहां विशेष अर्थ का द्योतक है। इस वाक्यांश परिभवसि किमिति लोक, जरसा परिजर्जरीकृतशरीरम्। के द्वारा मनुष्यगति की विघातक प्रकृतियों का ग्रहण किया गया अचिरात् त्वमपि भविष्यसि, यौवनगर्व किमुद्वहसि ? है। मनुष्यगति प्राप्त होना सुलभ नहीं है-यह इसका तात्पर्यार्थ 'पंहुयए'-इसका शाब्दिक अर्थ-सफेद-पीला या सफेद है। जीव अन्यान्य जीव-निकायों में चिरकाल तक रह सकता है, रंग है। वृक्ष का पत्ता पकने पर इस रंग का हो जाता है। इसके किन्तु मनुष्य भव में उसकी स्थिति अल्प होती है, इसलिए दो कारण हैं-(१) काल का परिपाक (२) किसी रोग-विशेष का उसकी प्राप्ति दुर्लभ मानी जाती है। आक्रमण। पंडुयए का भावानुवाद 'पका हुआ' किया गया है। ६. (श्लोक ५-१४) २. कुश (कुस) जीव एक जन्म में जितने काल तक जीते हैं, उसे यह दर्भजाति या तृणविशेष है। यह दर्भ से पतला होता है 'भव-स्थिति' कहा जाता है और मृत्यु के पश्चात् उसी और इसकी नोंक तीखी होती है। जीव-निकाय के शरीर में उत्पन्न होने को 'काय-स्थिति' कहा ३. क्षणभंगुर (इत्तरियम्मि) जाता है। देव और नारकीय जीव मृत्यु के पश्चात् पुनः देव इत्वरिक का अर्थ है—अल्पकालिक। वर्तमान में सौ वर्ष और नारक नहीं बनते। उनके 'भव-स्थिति' ही होती है, १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३०८: ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८८ : कुसो दब्भसरिसो...तत् कुशो हि जह तुम्भे तह अम्हे, तुब्मेवि अ होहिहा जहा अम्हे। तनुतरो भवति दर्भात्। अप्पाहेइ पडतं पंडुरवत्तं किसलयाणं ।। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८८ : इत्तरियं अल्पकालिक वर्षशतमात्र। अणुओगदाराई, सूत्र ५६६ : ७. ठाणं ७७२ : सत्तविथे आउभेदे पण्णत्ते, तं जहापरिजरियपेरंतं, चलंतवेंट पडतनिच्छीरं। अज्झवसाणणिमित्ते, आहारे वेयणा पराघाते। पत्तं वसणप्पत्तं, कालप्पत्तं भणइ गाहं ।। फासे आणापाणू, सत्तविधे भिज्जए आउं।। जह तुब्भे तह अम्हे, तुम्हेऽवि अ होहिहा जहा अम्हे। (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८८, १८६ । अप्पाहेइ पडतं, पंडुयपत्तं किसलयाणं ।। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३३५।। ३. सुखबोधा, पत्र १६०। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८६ : सुदुर्लभं मानुष्यं यस्माद् अन्येषु जीवस्थानेषु ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३३३ : 'पंडुयए' ति आर्षत्यात पाण्डरकं चिरं जीवोऽवतिष्ठते, मनुष्यत्वे तु स्तोक कालमित्यतो दुर्लभं। कालपरिणामतस्तथाविधरोगादेर्वा प्राप्तवलक्षभावम्। १०. स्थानांग, २२५६। Jain Education Intemational Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १८८ अध्ययन १० :श्लोक १५-१७ टि० ७-१० 'काय-स्थिति' नहीं होती।' तिर्यंच और मनुष्य मृत्यु के पश्चात् प्रस्तुत प्रकरण में क्षेत्र की दृष्टि से आर्यत्व विवक्षित है। पुनः तिर्यंच और मनुष्य बन सकते हैं इसलिए उनके 'काय-स्थिति' चूर्णिकार का अभिमत भी यही है। क्षेत्रार्य की परिभाषा समय-समय भी होती है। पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु के जीव लगातार पर बदलती रही है। प्रज्ञापना में क्षेत्रार्य का एक वर्गीकरण असंख्य अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी परिमित काल तक अपने-अपने मिलता है। उसके अनुसार मगध, अंग, बंग आदि साढ़े पचीस स्थानों में जन्म लेते रहते हैं। वनस्पतिकाय के जीव अनंत काल देश क्षेत्रार्य माने गए हैंतक वनस्पतिकाय में ही रह जाते हैं। दो, तीन और चार इन्द्रिय १. मगध १०. जांगल १६. चेदि वाले जीव हजारों-हजारों वर्षों तक अपने-अपने निकायों में २. अंग ११. सौराष्ट्र २०. सिंधु-सौवीर जन्म ले सकते हैं। पांच इन्द्रिय वाले जीव लगातार एक सरीखे ३. बंग १२. विदेह २१. शूरसेन सात-आठ जन्म ले सकते हैं। ४. कलिंग १३. वत्स २२. भंगि पांच इन्द्रिय वाले तिर्यंच जीवों की कायस्थिति जघन्यतः ५. काशी १४. शांडिल्य २३. वट्ट अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्टतः तीन पल्योपम पृथक् पूर्वकोटि की ६. कौशल १५. मलय २४. कुणाल है।" पृथक् पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है—दो से नौ तक। ७. कुरु १६. मत्स्य २५. लाढ पृथक् पूर्वकोटि अर्थात् दो से नौ पूर्वकोटि तक। तीन पल्योपम ८. कुशावर्त १७. वरणा अर्ध कैकय। का आयुष्य यौगलिक तिर्यंचों का होता है। इस दृष्टि से पांच ६. पांचाल १८. दशार्ण इन्द्रिय वाले तिर्यंचों की उत्कृष्ट भवस्थिति एक कोटिपूर्व होने से ९. दस्यु और म्लेच्छ (दसुया मिलेक्खुया) सात भवों का कालमान सात कोटिपूर्व होता है। कोई तिर्यंच दस्य का अर्थ है देश की सीमा पर रहने वाला चोर।० पंचेन्द्रिय जीव सात भव इस अवधि का करता है और आठवां मिलेक्खु का अर्थ 'म्लेच्छ' है। सूत्रकृतांग में 'मिलक्खु" भव तिर्यंच यौगलिक का करता है। कुल मिलाकर उसकी स्थिति और अभिधानप्पदीपिका में 'मिलक्ख' शब्द मिलता है। यहां तीन पल्य और सात कोटिपूर्व की हो जाती है। एकार अधिक है। यह शब्द संस्कृत के म्लेच्छ शब्द का रूपान्तर ७. (श्लोक १५) नहीं, किन्तु मूलतः प्राकृत भाषा का है। जीव जो संसार में परिभ्रमण करता है, उसका हेतु बन्धन जिसकी भाषा अव्यक्त होती है, जिसका कहा हुआ आर्य है। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म जीव को बांधे हुए रहते लोग नहीं समझ पाते, उन्हें म्लेच्छ कहा जाता है। वृत्तिकार ने हैं। ये बन्धन टूटते हैं तब जीव मुक्त हो जाते हैं।' इस श्लोक शक, यवन, शबर आदि देशों में उत्पन्न लोगों को म्लेच्छ कहा में संसार के हेतु का वर्णन है। बन्धन के इन दोनों प्रकारों और है। वे आर्यों की व्यवहार-पद्धति-धर्म-अधर्म, गम्य-अगम्य, उनका नाश होने पर मुक्त होने का सिद्धान्त गीता में भी मिलता भक्ष्य-अभक्ष्य-से भिन्न प्रकार का जीवन जीते थे, इसलिए आर्य लोग उन्हें हेय दृष्टि से देखते थे। आचार्य नेमिचन्द्र ने ८. आर्यत्व (आरियत्तं) म्लेच्छ देशों के कुछेक नाम तथा म्लेच्छ लोगों के व्यवहार का आर्य नौ प्रकार के बतलाए गए हैं - निदर्शन किया है। १. क्षेत्र आर्य ६. भाषा आर्य १०. इन्द्रियहीन (विगलिंदियया) २. जाति आर्य ७. ज्ञान आर्य विकलेन्द्रिय'-यह जीवों का एक वर्गीकरण है। इसमें ३. कुल आर्य ८. दर्शन आर्य द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का समाहार होता है। ४. कर्म आर्य ६. चारित्र आर्य। यहां विकलेन्द्रिय का प्रयोग इस पारिभाषिक अर्थ में नहीं है। ५. शिल्प आर्य इसका अर्थ है-इन्द्रियों की विकलता, आंख-कान आदि इन्द्रियों १. स्थानांग, २।२६१ : दोण्ह भवट्ठिती....... | ६. प्रज्ञापना १६३ । २. वही, २२६०: दोण्ह कायट्टिती......। १०. बृहवृत्ति, पत्र ३३७ : दस्यवो-देशप्रत्यन्तवासिनश्चीरा। ३. बृहवृत्ति, पत्र ३३६। ११. सूयगडो, ११।४२ : मिलक्खू अमिलक्खुस्स, जहा वुत्ताणुभासए। ४. जीवाजीवाभिगम ६२२५। ण हेउं से वियाणाइ, भासियं तऽणुभासए।। ५. उत्तराध्ययन, २१।२४। १२. (क) अभिधानप्पदीपिका, २१८६ : मिलक्ख देसो, पच्चन्तो। ६. (क) गीता, २५० : बुद्धियुक्तो जहातीह, उभे सूकतदुष्कते। (ख) वही, २१५१७ : मिलक्ख जातियो (प्यथ)। तस्माद्योगाय युज्यस्व, योगः कर्मसु कौशलम् ।। १३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६०। (ख) गीता, ६२८ : (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३३७ : "मिलेक्खु य' त्ति म्लेच्छा-अव्यक्तबाबो, शुभाशुभफलैरेवं, मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः । न यदुक्तमायैरवधार्यते, ते च शकयवनशबरादिदेशोद्भवाः, येप्यवाप्यापि संन्यासयोगयुक्तात्मा, विमुक्तो मामुपैष्यसि ।। मनुजत्व जन्तुरुत्पद्यते, एते च सर्वेऽपि धर्माधर्मगम्यागम्यभक्ष्याभक्ष्या७. प्रज्ञापना ११६२। दिसकलार्यव्यवहारबहिष्कृतास्तिर्यक्प्राया एव । ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६०। १४. सुखबोथा, पत्र १६२। Jain Education Intemational Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रुमपत्रक १८९ अध्ययन १० : श्लोक १८-२७ टि०११-१७ उत्तम शब्द का प्रयोग क्रम से श्री कम से क्षीण होती क्षमा धर्म की प्रकष्ट तो उनके सार मार्दव आदि धोका नाम उत्तम का अभाव। यह अभाव धर्म की आराधना में बाधक बनता है। फिर क्रमशः चक्षुरिन्द्रिय, घाणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय ११. उत्तम धर्म (उत्तम धम्म.....) का हास होता है। कादंबिनी के एक लेख में इन्द्रियों के हास का चूर्णिकार ने सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत धर्म को उत्तम धर्म माना प्रारम्भ इस प्रकार बताया गया हैहै।' वृत्तिकार ने उत्तम का अर्थ श्रेष्ट किया है। 'मानव जीवन के इस काल में उसकी विभिन्न शक्तियां भी उमास्वाति ने दस यतिधर्मों के साथ उत्तम शब्द का प्रयोग क्रम से क्षीण होती हैं। सबसे पहला लक्षण आंख पर प्रकट होता किया है। क्षमा धर्म की प्रकष्ट साधना का नाम उत्तम क्षमा ई है। आंख के लेंस के लचीलेपन की कमी दसवें वर्ष में ही प्रारम्भ गर्म है। इसी प्रकार मार्दव आदि धर्मों की प्रकृष्ट साधना होती है हो जाती है और साठ वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते वह तो उनके साथ उत्तम शब्द का प्रयोग होता है। समाप्त हो जाती है। आंख की शक्ति के क्षय के दूसरे लक्षण १२. कुतीर्थिकों (कुतित्थि) हैं-दृष्टि के प्रसार में कमी, किसी चीज का साफ-साफ नजर कुतीर्थिकों का अर्थ 'एकान्तदृष्टि वाला' और 'असत्य न आना तथा हल्के प्रकाश में दिखलाई न पड़ना। ये लक्षण ४० मंतव्य वाला दार्शनिक' है। वह जन-रुचि के अनुकूल उपदेश वर्ष की उम्र में प्रारम्भ होते हैं। इसी प्रकार मानव की दूसरी देता है इसीलिए उसकी सेवा करने वाले को उत्तम धर्म सुनने शक्तियां भी कम होती हैं। स्वाद की तेजी ५० वर्ष की उम्र में का अवसर ही नहीं मिलता। घटने लगती है और घ्राण शक्ति ६० वर्ष की उम्र में। श्रवण १३. कामगुणों में मूञ्छित (कामगुणेहिं मुच्छिया) शक्ति का क्षय तो २० वर्ष की उम्र में ही प्रारम्भ हो जाता है। मानव मस्तिष्क की ग्रहण-शक्ति २२ वर्ष की उम्र में सबसे _ 'कामगुण' का अर्थ है-इन्द्रियों के शब्द आदि विषय । गुण अधिक होती है और उसके बाद घटती है पर वह अत्यन्त अल्प शब्द आयारो में भी विषय के अर्थ में प्रयुक्त है। जैसे मनुष्य गति से। ४० वर्ष की उम्र के बाद घटने का क्रम कुछ बढ़ जाता पित्त आदि के प्रकोप से होने वाली मूर्छा से मूच्छित होकर लौकिक अपायों-दोषों का चिंतन नहीं कर पाता, वैसे ही मनुष्य है और ८० वर्ष की उम्र तक पहुंचने पर वह फिर उतनी रह जाती है। इन्द्रिय-विषयों में मूच्छित होकर उसके परिणामों का चिन्तन नहीं करता हुआ दुःखी होता है। १६. सब प्रकार का पूर्ववर्ती बल (सव्वबले) आतुर व्यक्ति अपथ्य विषयों के प्रति आकर्षित होता है चूर्णि में 'सर्वबल' के दो अर्थ प्राप्त हैं-इन्द्रियों की शक्ति प्रायेण हि यदपध्यं तदेव चातुरजनप्रियं भवति। ___ अथवा शारीरिक, वाचिक और मानसिक शक्ति। शारीरिक शक्ति-प्राणबल, बैठने-चलने की शक्ति। विषयातुरस्य जगतस्तथानुकूला: प्रिया विषयाः।। वाचिक शक्ति स्निग्ध, गंभीर और सुस्वर में बोलने की १४. जीर्ण हो रहा है (परिजूरइ) शक्ति । इसका संस्कृत रूप 'परिजीर्यति' होता है और प्राकृत में मानसिक शक्ति-ग्रहण और धारण करने में क्षम मनोबल। 'निद्' और 'खिद्' धातु को 'जूर' आदेश होता है। इसलिए शान्त्याचार्य ने भी सर्वबल के दो अर्थ किए हैं'परिजूरइ' का अनुवाद 'जीर्ण हो रहा है' के अतिरिक्त 'अपने १. हाथ, पैर आदि शारीरिक अवयवों की शक्ति। आपको कोस रहा है' या 'खिन्न हो रहा है' भी हो सकता है। २. मन, वचन और काया की ध्यान, अध्ययन, चंक्रमण १५. (श्लोक २०-२५) आदि चेष्टाएं। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों में इन्द्रिय-विकास का १७. पित्त-रोग (अरई) क्रम इस प्रकार है-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। अरति के अनेक अर्थ होते हैं। शान्त्याचार्य ने इसका प्रस्तुत पांच सूत्रों में इन्द्रियों में हास का क्रम बतलाया अर्थ 'वायु आदि से उत्पन्न होने वाला चित्त का उद्वेग' किया गया है। सबसे पहले श्रोत्रेन्द्रिय का हास होना प्रारम्भ होता है, है।" किन्तु इस श्लोक में शरीर का स्पर्श करने वाले रोगों का १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६०: उत्तमा–अनन्यतुल्या सर्वज्ञोक्ता धर्मस्य..। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३३७ : उत्तमधर्मविषयत्वादुत्तमा। ३. तत्त्वार्थसूत्र ६६ : उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशीचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्- चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३३७ : कुत्सितानि च तानि तीर्थानि कुतीर्थानि च- शाक्यौलूक्यादिप्ररूपितानि तानि विद्यन्ते येषामनुष्ठेयतया स्वीकृतत्वात्ते कुतीर्थिनस्तान्नितरा सेवते यः स कुतीर्थिनिषेवको जनो-लोकः कुतीर्थिनो हि यशः सत्काराद्येषिणो यदेव प्राणिप्रियं विषयादि तदेवोपदिशन्ति, ततीर्थकृतामप्येवंविधत्वात्, उक्तं हिसत्कारयशोलाभार्थिभिश्च मूरिहान्यतीर्थकरैः । अवसादितं जगदिदं प्रियाण्यपथ्यान्युपदिशद्भिः।। इति सुकरैव तेषां सेवा, तत्सेविनां च कुत उत्तमधर्मश्रुतिः? ५. बृहवृत्ति, पत्र ३३८।। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र २३८ : यद् वा 'परिजूरइ' त्ति निन्देजूर इति प्राकृतलक्षणात् परिनिन्दतीवात्मानमिति गम्यते, यथा-धिग्मां कीदृशं जातमिति। ७. हेमशब्दानुशासन, ८।४।१३२ : खिदेजुरविसूरी। ८. कादम्बिनी, सितम्बर १९८५, 'जवानी के बिना यह देह शव है' रतनलाल जोशी। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६१। १०. बृहवृत्ति, पत्र २२८।। ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ३३८ : 'अरतिः' वातादिजनितश्चित्तोद्वेगः । Jain Education Intemational Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १९० अध्ययन १० :श्लोक २८-३१ टि०१८-२२ उल्लेख है। इस दृष्टि से अनुवाद में इसका अर्थ 'पित्त-रोग' जल में उत्पन्न होकर भी उसमें लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार किया गया है। अरति का अर्थ पित्त-रोग भी है।' जो कामों से अलिप्त रहता है, वह ब्राह्मण है। निर्लेपता के १८. हैजा (विसूचिका) लिए कुमुद और जल दो ही शब्द पर्याप्त हैं। स्नेह शारद-जल यह वह रोग है जो शरीर में सूई की भांति चुभन पैदा की तरह मनोरम होता है, यह दिखलाने के लिए शारद-पानीय करता है। वृत्तिकार ने इसे अजीर्ण-विशेष माना है। आज की का प्रयोग किया गया है। धम्मपद में 'पाणिना' में तृतीया भाषा में इसे 'हैजा' कहा जा सकता है। विभक्ति का एक वचन है और उसका अर्थ है 'हाथ'। प्रस्तुत श्लोक के प्रसंग में आचार्य नेमिचन्द्र ने अन्य उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन में 'पाणियं' द्वितीया का एकवचन है और इसका अनेक रोगों के नाम गिनाए हैं-श्वास, खांसी, ज्वर, दाह, अथ __ अर्थ है 'जल'। कुक्षिशूल, भगंदर, अर्स, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मुखशूल, अरुचि, २०. (श्लाक ३१) अक्षिवेदना, खाज, कर्णबाधा, जलोदर, कोढ आदि। चूर्णि और टीका में 'बहुमए' का अर्थ 'मार्ग' और १९. (श्लोक २८) 'मग्गदेसिए' का अर्थ 'मोक्ष को प्राप्त करने वाला किया है। इस श्लोक में भगवान् ने गौतम को स्नेह-मुक्त होने का इसके अनुसार इस श्लोक का अनुवाद इस प्रकार होगाउपदेश दिया है। गौतम पदार्थों में आसक्त नहीं थे। विषय-भोगों “आज जिन नहीं दीख रहे हैं फिर भी उनके द्वारा निरूपित मोक्ष में भी उनका अनुराग नहीं था। केवल भगवान् से उन्हें स्नेह को प्राप्त कराने वाला मार्ग दीख रहा है यह सोच भव्य लोग था। भगवान् स्वयं वीतराग थे। वे नहीं चाहते थे कि कोई उनके प्रमाद से बचेंगे। अभी मेरी उपस्थिति में तुझे न्यायपूर्ण पथ प्राप्त स्नेह-बंधन में बंधे। भगवान् के इस उपदेश की पृष्ठ-भूमि में है, इसलिए.....।" किन्तु 'मग्गदेसिए' का अर्थ 'मार्ग का उपदेश उस घटना का भी समावेश होता है, जिसका एक प्रसंग में देने वाला' और 'बहुमए' का अर्थ 'विभिन्न विचार रखने वाला' भगवान् ने स्वयं उल्लेख किया था। भगवान् ने कहा था सहज संगत लगता है, इसलिए हमने अनुवाद में इन शब्दों का “गौतम ! तू मेरा चिरकालीन सम्बन्धी रहा है।" यही अर्थ किया है। प्रस्तुत-श्लोक के प्रथम दो चरण धम्मपद के मार्ग-वर्ग २१. (श्लोक ३२) श्लोक १३ से तुलनीय हैं कंटकापहं—इसका अर्थ है.-कांटों से भरा मार्ग। कांटे 'उच्छिद सिनेहमत्तनो कमदं सारदिक व पाणिना- दो प्रकार के होते हैं-(१) द्रव्य-कंटक...-बबल आदि के कांटे अर्थात्-अपने प्रति आसक्ति को इस तरह काट दो जैसे कोको और (२) भाव-कंटक-मिथ्या या एकान्तदृष्टि वाले दार्शनिकों के आर (२) भाव वचन। शरद् ऋतु में हाथों से कमल का फूल काट दिया जाता है। शरद् ऋतु का कमल इतना कोमल होता है कि वह सहज पहं महालयं यहां पथ का अर्थ है--सम्यग् दर्शन, ही हाथों से काटा जा सकता है। यह धम्मपद गत उपमा का __ सम्यग् चारित्रमय मोक्षमार्ग। महालय का अर्थ है—महामार्ग।" आशय है। उत्तराध्ययन के टीकाकारों ने इस उपमा का आशय २२. दृढ़ निश्चय के साथ (विसोहिया) इस प्रकार व्यक्त किया है.---"कुमुद पहले जल-मग्न होता है इसका संस्कृत रूप है—विशोध्य। चूर्णिकार ने इसका और बाद में जल के ऊपर आ जाता है।" अर्थ-अतिचार से रहित करके किया है।" वृत्ति में इसका निर्लेपता के लिए कमल की उपमा का प्रयोग सहज रूप अर्थ है-निश्चय करके। में होता है। उत्तराध्ययन २५।२६ में लिखा है कि जैसे पद्म एक आचार्य अपने तीन शिष्यों के साथ एक नगर में १. चरकसंहिता, ३०६८: कमला वातरक्तं च, विसर्प हच्छिरोग्रहम। उन्मादारत्यपरमारान्, वातपित्तात्मकान् जयेत।। २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६१ : सूचिरिव विध्यतीति विसूचिका। (ख) वृहवृत्ति, पत्र २३८ : विध्यतीव शरीरं सूचिभिरिति विसूचिका- अजीर्णविशेषः । सुखबोधा, पत्र १६३: सासे खासे जरे डाहे, कुच्छिसूले भगंदरे। अरिसा अजीरए दिट्ठीमुहसूले अरोयए।। अच्छिवेयण कंडू य, कन्नाबाहा जलोयरे। कोढे एमाइणो रोगा, पीलयंति सरीरिण।। ४. भगवती, १४७। ५. बृहवृत्ति, पत्र ३३६ : 'पानीयं' जलं, यथा तत् प्रथमं जलमग्नमपि जलमपहाय वर्तते तथा त्वमपि चिरसंसृष्टचिरपरिचितत्वादिभिर्मद्विषय स्नेहवशगोऽपि तमपनय। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३३६ : इह च जलमपहायतावति सिद्धे यच्छारदशब्दोपादानं तच्छारदजलस्येवस्नेहस्याप्यातिमनोरमत्वख्यापनार्थम् । ७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६२ : बहुमतो णाम पंथो। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३३६ : 'बहुमए' त्ति पन्थाः । ८. सुखबोधा, पत्र १६४ : 'मग्गदेसिय' ति माय॑माणत्वाद मार्गः-मोक्षरतस्य 'देसिए' त्ति सूत्रत्वात् देशक:-प्रापको मार्गदेशकः । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६२-१९३। १०. वही, पृ० १६३ : पथं सम्यग्दर्शनचारित्रमयं । महालय ति आलीयन्ते तस्मिन्नित्यालयः महामार्ग इत्यर्थः । ११. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६३ : विशोधयितुं अतिचारविरहितं कृत्येत्यर्थः । १२. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४०: विशोध्य इति विनिश्चित्य। Jain Education Intemational Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रुमपत्रक १९१ अध्ययन १० : श्लोक ३३-३५ टि०२३-२६ आए। वे तीनों का परीक्षण करना चाहते थे। वे उन्हें ध्यान का है। अब थोड़ी देर के लिए रंग में भंग मत करो। प्रशिक्षण दे रहे थे। काफी दिनों के बाद उन्होंने सोचा, परीक्षा ले नट के करतब देखने एक मुनि भी आया हुआ था। वह लूं कि इनकी चेतना बदली या नहीं बदली? तीनों को बुलाकर खड़ा हुआ। सवा लाख की रत्नकंबल उसने नट के हाथ में थमा कहा-आज अमुक रास्ते से तुम्हें गुजरना है। सामने कंटीली दी। राजकुमार उठा और उसने कुंडल नट की झोली में डाल बाड़, कांटे बिखरे हुए हैं। गुरु ने कहा-इसी रास्ते से जाना है, दिए। राजकुमारी ने अपमा हार नटी को पहना दिया। रास्ता बदलना नहीं है। राजा अचम्भे में था। सभा अवाक थी। दो क्षण वातावरण पहला शिष्य बहुत विनीत था। उसमें समर्पण की चेतना मौन रहा। इतना अनुग्रह कैसे? राजा ने मुनि से पूछा। मुनि जाग गई थी। वह गुरु के आदेशानुसार उसी मार्ग से चला। शूलों बोला-मैंने तो इसे रत्नकंबल ही दिया है, इसने मुझे जीवन से उसके पैर लहूलुहान हो गए और वह वेदना से कराहता दिया है। इसके वाक्य से प्रेरणा ले मैं वापस मुनिधर्म में स्थिर हुआ बैठ गया। हो गया हूं। दूसरे शिष्य में चेतना का रूपान्तरण घटित नहीं हुआ था। राजा ने युवराज से पूछा—मुझे बिना पूछे कुंडल दिए, उसने गुरु के आदेश को अव्यावहारिक माना। वह उस मार्ग को इतना साहस कैसे हुआ? युवराज बोला-मैं तो तुला हुआ था छोड़ दूसरे मार्ग से चल पड़ा। तीसरा शिष्य आया। देखा, बड़ा महाराज! आपकी हत्या के लिए। 'रंग में भंग मत करो'-इस कठिन काम है कांटों पर चलना। तत्काल गया, बुहारी लाया वाक्य ने मुझे उबार लिया। राजा ने कन्या से पूछा-रत्नहार और रास्ते में बिखरे सारे कांटे बुहार कर रास्ते को साफ कर इतना सस्ता तो नहीं है। कन्या बोली-आपने मेरी चिंता कब दिया। अब वह निश्चितता से उसी मार्ग से आगे बढ़ा और की? मैं मंत्रीपुत्र के साथ भागने की तैयारी में थी। किन्तु नट गंतव्य पर पहुंच गया। यह है चेतना का रूपान्तरण। तीनों की के वाक्य ने मुझे बचा लिया। दो क्षण के लिए फिर एक बार सभा कसौटी हो गई। में सन्नाटा छा गया। २३. (श्लोक ३३) २५. (श्लोक ३४) जैसे कोई एक आदमी धन कमाने के लिए विदेश गया। अर्णव का शाब्दिक अर्थ है--समुद्र। यहां इसका प्रयोग वहां से बहुत सारा सोना लेकर वापस घर को आ रहा था। लाक्षणिक अर्थ में हुआ है। लाक्षणिक अर्थ के आधार पर इसके कंधों पर बहुत वजन था। शरीर से था वह दुबला-पतला। मार्ग दो अर्थ किए जा सकते हैं--(क) जन्म-मरणरूपी समुद्र और सीधा-सरल आया तब तक वह ठीक चलता रहा और जब (२) उत्कृष्ट स्थितिक कर्ममय समुद्र। कंकरीला, पथरीला मार्ग आया तब वह आदमी घबड़ा गया। भगवान् महावीर गौतम से कह रहे हैं—गौतम ! तुम दोनों उसने धन की गठरी वहीं छोड़ दी और अपने घर चला आया। प्रकार के समुद्र तर गए हो। तुमने भव-संसार का पार पा अब वह सब कुछ गंवा देने के कारण निर्धन हो पछतावा करता लिया है और तुमने उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों का भी क्षय कर है। इसी प्रकार जो श्रमण प्रमादवश विषय-मार्ग में जा डाला है। अब तो तुम्हारे अल्प कर्म शेष रहे हैं। अब तुम इन संयम-धन को गंवा देता है, उसे पछतावा होता है।' अवशिष्ट कर्मों का क्षय करने के लिए त्वरा करो। तुम तीर पर २४. (तिण्णो हु सि.....तीरमागओ) पहुंच चुके हो। एक चरण आगे बढ़ाओ, बस, कृतकृत्य हो जाओगे। इस भाव को स्पष्ट करने वाली एक कथा है २६. क्षपक-श्रेणी पर (अकलेवरसेणिं) . राजधानी में नट-मंडली आई। बहुत विश्रुत, बहुत कलेवर अर्थात् शरीर। मुक्त आत्माओं के कलेवर नहीं कुशल । राजसभा में नाटक आयोजित हुआ। नटी ने अपूर्व होता इसलिए वे अकलेवर कहलाते हैं। उनकी श्रेणी की तरह कौशल दिखलाया। प्रहर पर प्रहर बीत गए पर जनता की पवित्र भावनाओं की श्रेणी होती है, उसे अकलेवर-श्रेणी कहते आंखें अब भी प्यासी थीं। कृपण था राजा और कृपण थी प्रजा। हैं। तात्पर्य की भाषा में इसका अर्थ क्षपक-श्रेणी कर्मों का क्षय नट राजा की दृष्टि देख रहा था पर राजा देख रहा था नटी के करने वाली भाव-श्रेणी है। कलेवर-श्रेणी का दूसरा अर्थ अपूर्व करतब। न राजा पसीजा और न नट ने नाटक थामा। 'सोपान-पंक्ति' हो सकता है। मुक्ति-स्थान तक पहुंचने के लिए आखिर नटी ने थककर गाया-हे मेरे नायक ! पंजर थक गया विशुद्ध भाव-श्रेणी का सहारा लिया जाता है। सोपान-पंक्ति वहां है। अब तुम कोई मधुर तान छेड़ो, मधुर ताल दो। काम नहीं देती। इसलिए उसे 'अकलेवर-श्रेणी' कहा है। नट ने गाया-बहुत लम्बी रात बीत चुकी। भोर होने को अकलेवर का एक अर्थ विदेह अवस्था भी है। १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६३ । मकडेवराः-सिद्धास्तेषां श्रेणिरिव श्रेणिर्ययोत्तरोत्तरशुभपरिणामप्राप्तिरूपया (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३४०। ते सिद्धिपदमारोहन्ति (तां), क्षपकश्रेणिमित्यर्थः । यद्वा कडेवराणि२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६३ : द्रव्यार्णवः समुद्रः, भावार्णवस्तु संसार एव, एकेन्द्रियशरीराणि तन्मयत्वेन तेषां श्रेणिः कडेवर श्रेणिः-वंशादिविरचिता उक्कोसट्ठितियाणि वा कम्माणि। प्रसादादिष्वारोहणहेतुः, तथा च या न सा अकडेवर श्रेणि:-अनन्तरोक्तरूपैव ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २४१ : कलेवर-शरीरम् अविद्यमानं कडेवरमेषा- ताम्। Jain Education Intemational Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २७. शांति-मार्ग को (संतिमग्गं) शांति का अर्थ है 'निर्वाण, उपशम और अहिंसा' । शांति-मार्ग अर्थात् मुक्तिमार्ग। यह दसविध यति-धर्म का सूचक है ।' १९२ अध्ययन १०: श्लोक ३६, ३७ टि० २७, २८ चतुर्व्यूह को अर्थ-पद कहा गया है । अर्थ-पद का अर्थ है 'पुरुषार्थ का स्थान' । न्याय की परिभाषा में चार अर्थ-पद इस प्रकार हैं 'सन्तिमग्गं च बूहए' – इस पद की तुलना धम्मपद २०।१३ के तीसरे चरण से होती है- 'सन्तिमग्गमेव ब्रूहय' । २८. अर्थपद ( शिक्षापद) से (अट्ठपअ ) चूर्णिकार ने अर्थ-पद का कोई अर्थ नहीं किया है। शान्त्याचार्य ने उसका एक शाब्दिक-सा अर्थ किया हैअर्थ-पद अर्थात् अर्थ-प्रधान पद । न्यायशास्त्र में मोक्ष-शास्त्र के १. बृहद्वृत्ति, पत्र २४१ शाम्यन्त्यस्यां सर्वदुरितानीति शांतिः --- निर्वाणं तस्या मार्ग:---पंथाः, यद्वा शांतिः उपशमः सैव मुक्तिहेतुतया मार्गः शांतिमार्गों, दशविधधर्मोपलक्षणं शांतिग्रहणम् । (१) हेय - दुःख और उसका निर्वर्तक ( उत्पादक) अर्थात् दुःख - हेतु | (२) आत्यन्तिक- हान—दुःख - निवृत्ति रूप मोक्ष का कारण अर्थात् तत्त्वज्ञान | (३) इसका उपाय ( शास्त्र ) । (४) अधिगन्तव्य - लभ्यमोक्ष । २. बृहद्वृत्ति पत्र २४१ अर्थप्रधानानि पदानि अर्थपदानि । ३. न्याय भाष्य, 9 19 19 । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कारसमं अज्झयणं बहुस्सुयपूया ग्यारहवां अध्ययन बहुश्रुतपूजा Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन में बहुश्रुत की भाव-पूजा का निरूपण है, १२. बहुश्रुत जम्बू वृक्ष की भांति श्रेष्ठ होता है। इसलिए इसका नाम 'बहुस्सुयपूया'-'बहुश्रुतपूजा' रखा गया १३. बहुश्रुत सीता नदी की भांति श्रेष्ट होता है। है। यहां बहुश्रुत का मुख्य अर्थ चतुर्दश-पूर्वी है। यह सारा १४. बहुश्रुत मन्दर पर्वत की भांति श्रेष्ट होता है। प्रतिपादन उन्हीं से संबद्ध है। उपलक्षण से शेष सभी बहुश्रुत १५. बहुश्रुत नाना रत्नों से परिपूर्ण स्वयम्भूरमण समुद्र मुनियों की पूजनीयता भी प्राप्त होती है।' की भांति अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण होता है। निशीथ-भाष्य-चूर्णि के अनुसार बहुश्रुत तीन प्रकार के बहुश्रुतता का प्रमुख कारण है विनय। जो व्यक्ति विनीत होते हैं होता है उसका श्रुत फलवान् होता है। जो विनीत नहीं होता १. जघन्य बहुश्रुत--जो निशीथ का ज्ञाता हो। उसका श्रुत फलवान नहीं होता। स्तब्धता, क्रोध, प्रमाद रोग २. मध्यम बहुश्रुत-जो निशीथ और चौदह-पूर्वो का और आलस्य-ये पांच शिक्षा के विघ्न हैं। इनकी तुलना मध्यवर्ती ज्ञाता हो। योगमार्ग के नौ विघ्नों से होती है। ३. उत्कृष्ट बहुश्रुत—जो चतुर्दश-पूर्वी हो। आठ लक्षणयुक्त व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त होती है (श्लोक सुत्रकार ने बहुश्रुत को अनेक उपमाओं से उपमित किया ४, ५) -- है। सारी उपमाएं बहुश्रूत की आंतरिक शक्ति और तेजस्विता को १. जो हास्य नहीं करता। प्रकट करती हैं..-- २. जो इन्द्रिय और मन का दमन करता है। १. बहुश्रुत कम्बोज के घोड़ों की तरह शील से श्रेष्ठ ३. जो मर्म प्रकाशित नहीं करता। होता है। ४. जो चरित्रवान् होता है। २. बहुश्रुत दृढ़ पराक्रमी योद्धा की तरह अजेय होता ५. जो दुःशील नहीं होता। ६. जो रसों में अतिगृद्ध नहीं होता। बहुश्रुत साठ वर्ष के बलवान हाथी की तरह अपराजेय ७. जो क्रोध नहीं करता। होता है। ८. जो सत्य में रत रहता है। ४. बहुश्रुत यूथाधिपति वृषभ की तरह अपने गण का सूत्रकार ने अविनीत के १४ लक्षण और विनीत के १५ प्रमुख होता है। गुणों का प्रतिपादन कर अविनीत और विनीत की सुन्दर समीक्षा बहुश्रुत दुष्पराजेय सिंह की तरह अन्य तीर्थकों में की है (श्लोक ६-१३)। श्रेष्ट होता है। इस अध्ययन में श्रुत-अध्ययन के दो कारण बताए हैं बहुश्रुत वासुदेव की भांति अबाधित पराक्रमवाला (श्लोक ३२)होता है। १. स्व की मुक्ति के लिए। बहुश्रुत चतुर्दश रत्नाधिपति चक्रवर्ती की भांति २. पर की मुक्ति के लिए। चतुर्दश-पूर्वधर होता है। दशवैकालिक में श्रुत-अध्ययन के चार कारण निर्दिष्ट हैंबहुश्रुत देवाधिपति शक्र की भांति संपदा का अधिपति १. मुझे श्रुत प्राप्त होगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। होता है। २. मैं एकाग्रचित्त होऊंगा, इसलिए अध्ययन करना बहुश्रुत उगते हुए सूर्य की भांति तप के तेज से चाहिए। प्रज्वलित होता है। ३. मैं आत्मा को धर्म में स्थापित करूंगा, इसलिए १०. बहुश्रुत पूर्णिमा के चन्द्रमा की भांति सकल कलाओं अध्ययन करना चाहिए। से परिपूर्ण होता है। ४. मैं धर्म में स्थित होकर दूसरे को उसमें स्थापित ११. बहुश्रुत धान के भरे कोठों की भांति श्रुत से परिपूर्ण करूंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। होता है। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३१७ : ३. उत्तराध्ययन ११३: ते किर चउदसपुची, सव्वक्खरसन्निवाइणो निउणा। अह पंचहि ठाणेहि, जेहिं सिक्खा न लब्भइ। जा तेसिं पूया खलु, सा भावे ताइ अहिगारो।। थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणाऽलस्सएण य।। निशीथ पीठिका भाष्य चूर्णि, पृ० ४६५ : बहुस्सुयं जस्स सो बहुस्सुतो, ४. पातंजल योगदर्शन १३० : व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिसो तिविहो-जहण्णो, मज्झिमो, उक्कोसो। जहण्णो जेणपकप्पज्झयणं दर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः। अधीतं, उक्कोसो चोद्दस्स पुव्वधरो, तम्मज्झे मज्झिमो। ५. दशवकालिक ६ सूत्र ५ : सुयं मे भविस्सइ त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्यं भवइ । अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। ठिओ पर ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्यं भवइ। Jain Education Intemational Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कारसमं अज्झयणं : ग्यारहवां अध्ययन बहुस्सुयपूया : बहुश्रुतपूजा हिन्दी अनुवाद जो संजोग से मुक्त है, अनगार है, भिक्षु है, उसका मैं क्रमशः आचार' कहूंगा। मुझे सुनो। जो विद्याहीन है, विद्यावान् होते हुए भी जो अभिमानी है, जो सरस आहार में लुब्ध है, जो अजितेन्द्रिय है, जो बार-बार असम्बद्ध बोलता है, जो अविनीत है, वह अबहुश्रुत कहलाता है। मान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य-इन पांच स्थानों (हेतुओं) से शिक्षा प्राप्त नहीं होती। मूल संस्कृत छाया १. संजोगा, विप्पमुक्कस्स संयोगाद् विप्रमुक्तस्य अणगारस्स भिक्खुणो। अनगारस्य भिक्षोः। आयारं पाउकरिस्सामि आचारं प्रादुष्करिष्यामि आणुपुट्विं सुणेह मे।। आनुपूर्व्या शृणुत मे।। २. जे यावि होइ निविज्जे यश्चापि भवति निर्विद्यः थद्धे लुद्धे अणिग्गहे। स्तब्धो लुब्धोऽनिग्रहः। अभिक्खणं उल्लवई अभीक्ष्णमुल्लपति अविणीए अबहुस्सुए।। अविनीतोऽबहुश्रुतः।। ३. अह पंचहिं ठाणेहि अथ पञ्चभिः स्थानैः जेहिं सिक्खा न लब्मई। यैः शिक्षा न लभ्यते। थंभा कोहा पमाएणं स्तम्भात् क्रोधात् प्रमादेन रोगेणाऽलस्सएण य।। रोगेणालस्येन च।। ४. अह अट्ठहिं ठाणेहिं अथाष्टभिः स्थानैः सिक्खासीले त्ति वुच्चई। शिक्षाशील इत्युच्यते। अहस्सिरे सया दंते अहसिता सदा दान्तः न य मम्ममुदाहरे।। न च मर्म उदाहरेत्।। ५. नासीले न विसीले नाशीलो न विशीलः न सिया अइलोलुए। न स्यादतिलोलुपः। अकोहणे सच्चरए अक्रोधनः सत्यरतः सिक्खासीले त्ति वुच्चई।। शिक्षाशील इत्युच्यते।। अह चउदसहिं ठाणेहिं अथ चतुर्दशसु स्थानेषु वट्टमाणे उ संजए। वर्तमानस्तु संयतः। अविणीए वुच्चई सो उ अविनीत उच्यते स तु निव्वाणं च न गच्छद।। निर्वाणं च न गच्छति।। ७. अभिक्खणं कोही हवइ अभीक्ष्णं क्रोधी भवति पबंधं च पकुव्वई। प्रबन्धं च प्रकरोति। मेत्तिज्जमाणो वमइ मित्रीय्यमाणो वमति सुयं लभ्रूण मज्जई।। श्रुतं लब्ध्वा माद्यति।। ८. अवि पावपरिक्खेवी अपि पापपरिक्षेपी अवि मित्तेसु कुप्पई। अपि मित्रेभ्यः कुप्यति। सुप्पियस्सावि मित्तस्स सुप्रियस्यापि मित्रस्य रहे भासइ पावगं ।।। रहसि भाषते पापकम् ।। आठ स्थानों (हेतुओं) से व्यक्ति को शिक्षाशील कहा जाता है। (१) जो हास्य न करे (२) जो सदा इन्द्रिय और मन का दमन करे (३) जो मर्म-प्रकाशन न करे। (४) जो चरित्र से हीन न हो (५) जिसका चरित्र दोषों से कलुषित न हो (६) जो रसों में अति लोलुप न हो (७) जो क्रोध न करे और (८) जो सत्य में रत होउसे शिक्षा-शील कहा जाता है। चौदह स्थानों (हेतुओं) में वर्तन करने वाला संयमी अविनीत कहा जाता है। वह निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। (१) जो बार-बार क्रोध करता है (२) जो क्रोध को टिका कर रखता है (३) जो मित्रभाव रखने वाले को भी ठुकराता है। (४) जो श्रुत प्राप्त कर मद करता है, (५) जो किसी की स्खलना होने पर उसका तिरस्कार करता है, (६) जो मित्रों पर कुपित होता है, (७) जो अत्यन्त प्रिय मित्र की भी एकांत में बुराई करता है, Jain Education Intemational Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ११ : श्लोक ६-१७ ६. पइण्णवाई दुहिले थद्धे लुद्ध अणिग्गहे। असंविभागी अचियत्ते अविणीए त्ति वुच्चई।। १९६ प्रकीर्णवादी द्रोही स्तब्धो लुब्धोऽनिग्रहः। असंविभागी 'अचियत्त' अविनीत इत्युच्यते।। अथ पंचदशभिः स्थानः सुविनीत इत्युच्यते। नीचवर्त्यचपलः अमाय्यकुतूहलः।। १०.अह पन्नरसहिं ठाणेहिं सुविणीए त्ति वुच्चई। नीयावत्ती अचवले अमाई अकुऊहले।। ११.अप्पं चाऽहिक्खिवई पबन्धं च न कुव्वई। मेत्तिज्जमाणो भयई सुयं लद्धं न मज्जई।। १२.न य पावपरिक्खेवी न य मित्तेसु कुप्पई। अप्पियस्सावि मित्तस्स रहे कल्लाण भासई ।। १३.कलहडमरवज्जए बुद्धे अभिजाइए। हिरिमं पडिसंलीणे सुविणीए त्ति वुच्चई।। (८) जो असंबद्ध-भाषी है,° (E) जो द्रोही है, (१०) जो अभिमानी है, (११) जो सरस आहार आदि में लुब्ध है, (१२) जो अजितेन्द्रिय है, (१३) जो असंविभागी है और (१४) जो अप्रीतिकर है"—वह अविनीत कहलाता है। पन्द्रह स्थानों (हेतुओं) से सुविनीत कहलाता है—(१) जो नम्र व्यवहार करता है,१२ (२) जो चपल नहीं होता,२ (३) जो मायावी नहीं होता," (४) जो कुतूहल नहीं करता,५ (५) जो किसी का तिरस्कार नहीं करता, (६) जो क्रोध को टिका कर नहीं रखता, (७) जो मित्रभाव रखने वाले के प्रति कृतज्ञ होता है, (८) जो श्रुत प्राप्त कर मद नहीं करता, (E) जो स्खलना होने पर किसी का तिरस्कार नहीं करता,७ (१०) जो मित्रों पर क्रोध नहीं करता, (११) जो अप्रिय मित्र की भी एकान्त में प्रशंसा करता अल्पं चाधिक्षिपति प्रबन्धं च न करोति। मित्रीय्यमाणो भजति श्रुतं लब्ध्वा न माद्यति।। न च पाप-परिक्षेपी न च मित्रेभ्यः कुप्यति। अप्रियस्यापि मित्रस्य रहसि कल्याणं भाषते।। कलह-'डमर'-वर्जकः बुद्धोऽभिजातिगः। हीमान् प्रतिसंलीनः सुविनीत इत्युच्यते।। १४.वसे गुरुकुले निच्चं वसेद् गुरुकुले नित्यं जोगवं उवहाणवं। योगवानुपधानवान्। पियंकरे पियंवाई प्रियकरः प्रियवादी से सिक्खं लडुमरिहई।। स शिक्षा लब्धुमर्हति।। १५.जहा संखम्मि पयं यथा शखे पयो निहियं दुहओ वि विरायइ। निहितं द्विधापि विराजते। एवं बहुस्सुए भिक्खू एवं बहुश्रुते भिक्षौ धम्मो कित्ती तहा सुयं ।। धर्मः कीर्तिस्तथा श्रुतम् ।। (१२) जो कलह और हाथापाई का वर्जन करता है (१३) जो कुलीन होता है (१४) जो लज्जावान् होता है और (१५) जो प्रतिसंलीन (इन्द्रिय और मन का संगोपन करने वाला) होता है-वह बुद्धिमान् मुनि सुविनीत कहलाता है। जो सदा गुरुकुल में वास करता है, जो एकाग्र होता है," जो उपधान (श्रुत-अध्ययन के समय तप) करता है, जो प्रिय व्यवहार करता है, जो प्रिय बोलता हैवह शिक्षा प्राप्त कर सकता है। जिस प्रकार शङ्ख में रखा हुआ दूध दोनों ओर (अपने और अपने आधार के गुणों) से सुशोभित होता है उसी प्रकार बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति और श्रुत" दोनों ओर (अपने और अपने आधार के गुणों) से सुशोभित होते हैं। जिस प्रकार कम्बोज के घोड़ों में से कन्थक घोड़ा शील आदि गुणों से आकीर्ण और वेग से श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार भिक्षुओं में बहुश्रुत श्रेष्ट होता है।" १६.जहा से कंबोयाणं आइण्णे कंथए सिया। आसे जवेण पवरे एवं हवइ बहुस्सुए।। १७.जहाइण्णसमारूढे सूरे दढपरक्कमे। उभओ नंदिघोसेणं एवं हवइ बहुस्सुए।। यथा स काम्बोजानां आकीर्णः कन्थकः स्यात् । अश्वो जवेन प्रवरः एवं भवति बहुश्रुतः।। यथाऽऽकीर्णसमारूढः शूरो दृढपराक्रमः। उभयतो नन्दिघोषेण एवं भवति बहुश्रुतः।। जिस प्रकार आकीर्ण (जातिमान) अश्व पर चढ़ा हुआ दृढ़ पराक्रम वाला योद्धा दोनों ओर होने वाले मंगलपाठकों के घोष से२५ अजेय होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अपने आसपास होने वाले स्वाध्याय-धोष से अजेय होता। Jain Education Intemational Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ अध्ययन ११ : श्लोक १८-२६ जिस प्रकार हथिनियों से परिवृत साठ वर्ष का२७ बलवान् हाथी किसी से पराजित नहीं होता, उसी प्रकार बहुश्रुत दूसरों से पराजित नहीं होता। जिस प्रकार तीक्ष्ण सींग और अत्यन्त पुष्ट स्कन्ध वाला बैल यूथ का अधिपति बन सुशोभित होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत आचार्य बनकर सुशोभित होता जिस प्रकार तीक्ष्ण दाढ़ों वाला पूर्ण युवा और दुष्पराजेय सिंह आरण्य-पशुओं में श्रेष्ट होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अन्य तीर्थकों में श्रेष्ठ होता है। जिस प्रकार शङ्ख, चक्र और गदा" को धारण करने वाला वासुदेव अबाधित बल वाला योद्धा होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अबाधित बल वाला होता है। बहुश्रुतपूजा १८.जहा करेणुपरिकिण्णे कुंजरे सट्ठिहायणे। बलवंते अप्पडिहए एवं हवइ बहुस्सुए।। १६.जहा से तिक्खसिंगे जायखंधे विरायई। वसहे जूहाहिवई एवं हवइ बहुस्सुए।। २०.जहा से तिक्खदाढे उदग्गे दुप्पहंसए। सीहे मियाण पवरे एवं हवइ बहुस्सुए।। २१.जहा से वासुदेवे संखचक्कगयाधरे। अप्पडिहयबले जोहे एवं हवइ बहुस्सुए।। २२.जहा से चाउरते चक्कवट्टी महिड्ढिए। चउदसरयणाहिवई एवं हवइ बहुस्सुए।। २३.जहा से सहस्सक्खे वज्जपाणी पुरंदरे। सक्के देवाहिवई एवं हवइ बहुस्सुए।। २४.जहा से तिमिरविद्धंसे उत्तिटुंते दिवायरे। जलते इव तेएण एवं हवइ बहुस्सुए।। २५.जहा से उडुवई चंदे नक्खात्तपरिवारिए। पडिपुण्णे पुण्णमासीए एवं हवइ बहुस्सुए।। २६.जहा से सामाइयाणं कोट्ठागारे सुरक्खिए। नाणाधन्नपडिपुण्णे एवं हवइ बहुस्सुए।। यथा करेणुपरिकीर्णः कुञ्जरः षष्टिहायनः। बलवानप्रतिहतः एवं भवति बहुश्रुतः।। यथा स तीक्ष्णशृंगः जातस्कन्धो विराजते। वृषभो यूथाधिपतिः एवं भवति बहुश्रुतः ।। यथा स तीक्ष्णदंष्ट्रः उदग्रो दुष्प्रधर्षकः। सिंहो मृगाणां प्रवरः एवं भवति बहुश्रुतः।। यथा स वासुदेवः शङ्खचक्रगदाधरः। अप्रतिहतबलो योधः एवं भवति बहुश्रुतः।। यथा स चतुरंतः चक्रवर्ती महर्द्धिकः। चतुर्दशरत्नाधिपतिः एवं भवति बहुश्रुतः।। यथा स सहस्मक्षः वज्रपाणिः पुरन्दरः। शक्रो देवाधिपतिः एवं भवति बहुश्रुतः।। यथा स तिमिरविध्वंशः उत्तिष्ठन् दिवाकरः। ज्चलन्निव तेजसा एवं भवति बहुश्रुतः।। यथा स उडुपतिश्चन्द्रः नक्षत्रपरिवारितः। प्रतिपूर्णः पौर्णमास्यां एवं भवति बहुश्रुतः ।। यथा स सामाजिकानां कोष्ठागारः सुराक्षितः। नानाधान्यप्रतिपूर्णः एवं भवति बहुश्रुतः ।। जिस प्रकार महान् ऋद्धिशाली, चतुरन्त चक्रवर्ती चौदह रत्नों का अधिपति होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत चतुर्दश पूर्वथर होता है।" जिस प्रकार सहनचक्षु,३२ वज्रपाणि और पुरों का विदारण करने वाला शक्र देवों का अधिपति होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत दैवी सम्पदा का अधिपति होता जिस प्रकार अन्धकार का नाश करने वाला उगता हुआ" सूर्य तेज से जलता हुआ प्रतीत होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत तप के तेज से जलता हुआ प्रतीत होता जिस प्रकार नक्षत्र५ परिवार से परिवृत ग्रहपति चन्द्रमा पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण होता है, उसी प्रकार साधुओं के परिवार से परिवृत बहुश्रुत सकल कलाओं में परिपूर्ण होता है। जिस प्रकार सामाजिकों (समुदायवृत्ति वालों) का कोष्ठागार ६ सुरक्षित और अनेक प्रकार के धान्यों से परिपूर्ण होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत नाना प्रकार के श्रुत से परिपूर्ण होता है। Jain Education Intemational Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १९८ अध्ययन ११ : श्लोक २७-३२ २७.जहा सा दमाण पवरा यथा सा दुमाणां प्रवरा - जिस प्रकार अनादृत देव का आश्रय सुदर्शना नाम जंबू नाम सुदंसणा। जम्बूर्नाम्ना सुदर्शना। का जम्बू वृक्ष सब वृक्षों में श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार अणाढियस्स देवस्स अनादृतस्य देवस्य बहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ होता है।३७ एवं हवइ बहुस्सुए।। एवं भवति बहुश्रुतः।। २८.जहा सा नईण पवरा यथा सा नदीनां प्रवरा जिस प्रकार नीलवान् पर्वत से निकल कर समुद्र में सलिला सागरंगमा। सलिला सागरगमा। मिलने वाली शीता नदी शेष नदियों में श्रेष्ठ है, उसी सीया नीलवंतपवहा शीता नीलवत्प्रवहा प्रकार बहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ होता है। एवं हवइ बहुस्सुए।। एवं भवति बहुश्रुतः।। २६.जहा से नगाण पवरे यथा स नगानां प्रवरः जिस प्रकार अतिशय महान् और अनेक प्रकार सुमहं मंदरे गिरी। सुमहान्मन्दरो गिरिः। की औषधियों से दीप्त मंदर पर्वत सब पर्वतों में नाणासहिपज्जलिए नानौषधिप्रज्वलितः श्रेष्ठ है, उसी प्रकार बहुश्रुत सब साधुओं में श्रेष्ठ एवं हवइ बहुस्सुए।। एवं भवति बहुश्रुतः।। होता है। ३०.जहा से सयंभूरमणे यथा स स्वयम्भूरमणः जिस प्रकार अक्षय जल वाला स्वयंभूरमण समुद्र उदही अक्खओदए। उदधिरक्षयोदकः। अनेक प्रकार के रत्नों से भरा हुआ होता है, उसी नाणारयणपडिपुण्णे नानारत्नप्रतिपूर्णः प्रकार बहुश्रुत अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण होता है। एवं हवइ बहुस्सुए।। एवं भवति बहुश्रुतः।। ३१.समुद्दगंभीरसमा दुरासया समुद्रगाम्भीर्यसमा दुराशयाः समुद्र के समान गम्भीर", दुराशय-जिसके आशय अचक्किया केणई दुप्पहंसया। अशक्याः केनापि दुष्प्रधर्षकाः। तक पहुंचना सरल न हो, अशक्य-जिसके ज्ञानसिन्धु सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो श्रुतेन पूर्णा विपुलेन तादृशः को लांघना शक्य न हो, किसी प्रतिवादी के द्वारा खवित्तु कम्मं गइमुत्तमं गया। क्षपयित्वा कर्म गतिमुत्तमां गताः।। अपराजेय और विपुलश्रुत से पूर्ण१२ वैसे बहुश्रुत मुनि कर्मों का क्षय करके उत्तम गति (मोक्ष) में गए। ३२.तम्हा सुयमहिढेज्जा तस्मात् श्रुतमधितिष्ठेत् इसलिए उत्तम अर्थ-३ (मोक्ष) की गवेषणा करने उत्तमट्ठगवेसए। उत्तमार्थगवेषकः। वाला मुनि श्रुत का आश्रयण करे,*५ जिससे वह जेणऽप्पाणं परं चेव येनात्मानं परं चैव अपने आपको और दूसरों को सिद्धि की प्राप्ति करा सिद्धिं संपाउणेज्जासि ।। सिद्धिं संप्रापयेत्।। सके। –त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। —ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. आचार (आयारं) आचार का अर्थ 'उचित क्रिया' या 'विनय' है ।' चूर्णिकार के अनुसार पूजा, विनय और आचार एकार्थक शब्द हैं। जैन और बौद्ध साहित्य में विनय शब्द भी आचार के अर्थ में बहुलता से प्रयुक्त हुआ है। प्रस्तुत अध्ययन में बहुश्रुत की पूजा और शिक्षा की अर्हता पर प्रकाश डाला गया है।* आचार के पांच प्रकार हैं—ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपः आचार और वीर्याचार। बहुश्रुतता का संबंध ज्ञानाचार या शिक्षा से है । २. (अवि, पडे, अणिग्महे) अध्ययन ११ : बहुश्रुतपूजा प्रस्तुत प्रकरण बहुश्रुत की पूजा का है। बहुश्रुत की पूजा उसके स्वरूप को जानने से होती है। बहुश्रुत का प्रतिपक्ष बहुश्रुत है। बहुश्रुत को जानने से पहले अबहुश्रुत को जानना आवश्यक है। इसलिए इस श्लोक में अबहुश्रुत का स्वरूप बतलाया गया है। 'अवि' का अर्थ है— विद्यावान् होते हुए भी। निर्विद्य ( विद्याहीन) शब्द मूल पाठ में प्रयुक्त है किन्तु विद्यावान् का उल्लेख 'अपि' शब्द के आधार पर किया गया है। जो स्तब्धता आदि दोषों से युक्त है वह विद्यावान होते हुए भी अबहुश्रुत है। इसका कारण यह है कि स्तब्धता आदि दोषों से बहुश्रुतता का . फल नहीं होता। 'थ' का अर्थ है-अभिमानी। ज्ञान से अहंकार का नाश होता है किन्तु जब ज्ञानं भी अहंकार की वृद्धि का साधन बन जाए तब अहंकार कैसे मिटे ? जब औषध भी विष का काम 9. २. ३. ४. बृहद्वृत्ति पत्र ३४४ स चेह बहुश्रुतपूजात्मक एव गृह्यते, तस्या एवात्राधिकृतत्वात् । वृहद्वृत्ति, पत्र ३४४ : आचरणमाचारः उचितक्रिया विनय इति यावत् । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८५ पूयत्ति वा विणओत्ति वा आयारोत्ति वा एगट्टं । देखें- १1१ का टिप्पण । ५. ठाणं ५।१४७ । ६. बृहद्वृत्ति पत्र ३४४ €. इह च बहुश्रुतपूजा प्रक्रान्ता सा च बहुश्रुतस्वरूपपरिज्ञान एव कर्त्तुं शक्या, बहुश्रुतस्वरूपं च तद्विपर्ययपरिज्ञा तद्विविक्तं सुखेनैव ज्ञायत इत्यबहुश्रुतस्वरूपमाह । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४४ अपिशब्दसम्बन्धात् सविद्योऽपि । ८. वहीं, पत्र ३४४ सविद्यस्याप्यबहुश्रुतत्वं बाहुश्रुत्यफलाभावादिति भावनीयम् । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६५ : ज्ञानं मदनिर्मथनं माद्यति यस्तेन दुश्चिकित्स्यः सः । अगदो यस्य विषायति, तस्य चिकित्सा कुतोऽन्येन ।। करे तो चिकित्सा किसके द्वारा की जाए ? 'अणिग्गहे' का अर्थ है- अजितेन्द्रिय । इन्द्रियों पर नियंत्रण करने के लिए विद्या अंकुश के समान है। उसके अभाव में व्यक्ति अनिग्रह होता है। जो इन्द्रियों का निग्रह न कर सके वह अनिग्रह– अजितेन्द्रिय कहलाता है।" ३. (श्लोक ३) प्रस्तुत श्लोक के कुछेक शब्दों का विवरणठाणेहिं स्थानों से स्थान शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यहां इसका अर्थ हेतु " या प्रकार" है । सिक्खा शिक्षा । शिक्षा के दो प्रकार हैं-ग्रहण और आसेवन । ज्ञान प्राप्त करने को ग्रहण और उसके अनुसार आचरण करने को आसेवन कहा जाता है।" अभिमान आदि कारणों से ग्रहण - शिक्षा भी प्राप्त नहीं होती तो भला आसेवन-शिक्षा कैसे प्राप्त हो सकती है ?१५ थंभा - इसका अर्थ है – 'मान' । अभिमानी व्यक्ति विनय नहीं करता, इसलिए उसे कोई नहीं पढ़ाता। अतः मान शिक्षा प्राप्ति में बाधक है।" पमाएणं प्रमाद के पांच प्रकार हैं (१) मद्य, (२) विषय, (३) कषाय, (४) निद्रा और (५) विकथा ! ७ रोगेण पूर्णिकार ने रोग उत्पन्न होने के दो कारण बतलाए हैं १०. ११. (१) अति-आहार और (२) अपथ्य आहार । आलस्सएण आलस्य का अर्थ है—उत्साहहीनता । वही, पृ० १६५ : अंकुशभूता विद्या तस्या अभावादनिग्रहः । बृहद्वृत्ति, पत्र ३४४ न विद्यते इन्द्रियनिग्रहः इन्द्रियनियमनात्मको ऽस्येति अनिग्रहः । १२. वही, पत्र ३४४ - ३४५ : 'यैः' इति वक्ष्यमाणैर्हेतुभिः । १३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६५ : ठाणेहिंति प्रकारा । १४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४५ : शिक्षणं शिक्षा ग्रहणासेवनात्मिका । १५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६५ : गहणसिक्खावि णत्थि, कतो आसेवणसिक्खा । १६. वही, पृ० १६५ तत्थ ते णो कोइ पाढेति इयरो थद्धत्तेण ण वंदति । १७. वही, पृ० १६५ : पमादो पंचविधो, तंजहा- मज्जप० विसयप० कसायप० णिद्दाप० विगहापमादो। १८. वही, पृ० १६५: अत्याहारेण अपत्थाहारेण वा रोगो भवति । १६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४५ 'आलस्येन' अनुत्साहात्मना । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४. (सिक्खासीले, अहस्सिरे, मम्म) सिक्खासीले- -शिक्षा में रुचि रखने वाला या शिक्षा का अभ्यास करने वाला 'शिक्षाशील' कहलाता है।' अहस्सिरे—जो हास्य न करे। अकारण या कारण उपस्थित होने पर भी जिसका स्वभाव हंसने का न हो उसे 'अहसिता' कहा जाता है। २०० अध्ययन ११ : श्लोक ४-१० टि० ४-१२ गया है । कोई साधु पात्र रंगना नहीं जानता। वैसी स्थिति में दूसरा साधु उसका पात्र रंगने को तैयार है किन्तु वह सोचने लगता है कि मैं इससे अपना पात्र रंगाऊंगा तो मुझे भी इसका काम करना पड़ेगा। इस प्रत्युपकार के भय से वह उससे पात्र नहीं रंगवाता और कहता है मुझे तुमसे पात्र नहीं रंगवाना है। इस तरह मित्रभाव रखने की इच्छा करने वाले का तिरस्कार करता है। मम्मं मर्म का अर्थ है लज्जाजनक, अपवादजनक या निन्दनीय आचरण सम्बन्धी गुप्त बात । ५. (नासीले न विसीले अकोहणे, सच्चरए) , पूर्णिकार ने अशील शब्दे का अर्थ गृहस्थ की भांति आचरण करने वाला और विशील का अर्थ जादू-टोना आदि करने वाला किया है।* वृत्ति में अशील का अर्थ है— चारित्र धर्म से सर्वधा हीन और विशील का अर्थ है-अतिवारी से कलुषित व्रत वाला ।" जो निरपराध या अपराधी पर क्रोध न करे, वह 'अक्रोधन' कहलाता है। चूर्णि के अनुसार जो मृषा न बोले या संयम में रत हो, वह 'सत्यरत' कहलाता है।" ६. बार-बार (अभिक्खणं) बृहद्वृत्ति के अनुसार इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं'अभीक्ष्णं' और 'अभिक्षणं । अभीक्ष्णं का अर्थ बार-बार और अभिक्षण का अर्थ निरंतर है। ७. जो क्रोध को टिकाकर रखता है (पबंध) प्रबंध का अर्थ है—अविच्छेद। बार-बार क्रोध आना और आए हुए क्रोध को टिका कर रखना एक बात नहीं है। इसका वैकल्पिक अर्थ है- विकथाओं में निरंतर लगे रहना। ८. जो मित्रभाव रखने वाले को भी ठुकराता है (मेसिनमाणे वाह) इसका आशय एक व्यावहारिक उदाहरण द्वारा समझाया 9. बृहद्वृत्ति पत्र ३४५: शिक्षायां शीलः स्वभावो यस्य शिक्षां वा शीलयति---अभ्यस्यतीति शिक्षाशीलः द्विविधशिक्षाभ्यासकृद् । २. वही पत्र ३४५ अहसितान सहेतुकमहेतुकं वा हसन्नेवास्ते । ३. वही, पत्र ३४५ 'मर्म' परापभाजनाकारि कुत्सितं जात्यादि । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६६ अशीलो गृहस्थ इव.. विशीलो भूतिकम्मादीहिं । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४५ अशीलः अविद्यमानशीलः, सर्वथा विनष्टचारित्रधर्म ४. इत्यर्थः, विशीलः - विरूपशीलः अतिचारकलुषितव्रत इति यावत् । ६. वही, पत्र ३४५ 'अक्रोधनः' अपराधिन्यनपराधिनि वा न कथंचित् क्रुध्यति । ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६६ : सच्चरतो ण मुसावादी, संजमरतो वा । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ : अभीक्ष्णं पुनः पुनः, यद् वा क्षणं क्षणमभि अभिक्षणम्-अनवरतम् । ६. वही, पत्र ३४६ प्रबन्धं च प्रकृतत्वात् कोपस्यैवाविच्छेदात्मकम्.... विकथादिषु वाऽविच्छेदेन प्रवर्तनं प्रबन्धः । १०. वहीं, पत्र ३४६ : 'मेत्तिज्जमाणो' त्ति मित्रीय्यमाणोऽपि मित्र मायमरित्वतीप्यमाणो ऽपि अपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वात् 'वमति' त्यजति, प्रस्तावान्मित्रयितारं मैत्रीं वा, किमुक्तं भवति ? यदि कश्चिद्धार्मिकतया ९. बुराई करता है (भासद पावगं ) बुराई करता है - इसका तात्पर्य यह है कि सामने मीठा बोलता है और पीछे 'यह दोष का सेवन करता है' इस प्रकार उसका अपवाद करता है।" १०. जो असंबद्ध भाषी है (पइण्णवाई) बृहद्वृत्ति के अनुसार 'पइण्णवाई' के संस्कृत रूप दो बनते हैं— प्रकीर्णवादी और प्रतिज्ञावादी । जो सम्बन्ध रहित बोलता है या पात्र या अपात्र की परीक्षा किए बिना ही श्रुत का रहस्य बता देता है, वह 'प्रकीर्णवादी' कहलाता है। 'यह ऐसे ही है' इस तरह जो ऐकांतिक आग्रहपूर्वक बोलता है, वह 'प्रतिज्ञावादी' कहलाता है।" चूर्णिकार को पहला रूप अभिमत है" और सुखबोधा को दूसरा ।" प्रकरण की दृष्टि से पहला अर्थ ही अधिक संगत है। जार्ल सरपेन्टियर ने पहला अर्थ ही मान्य किया है।" ११. जो अप्रीतिकर है (अवियत्ते) अचियत्त - यह देशी पद है। चूर्णि में इसके दो अर्थ प्राप्त हैं— अदर्शनीय और अप्रीतिकर ।" वृत्ति के अनुसार जिस देखने से या बोलते हुए सुनने से अप्रीति उत्पन्न होती है, वह व्यक्ति अचियत्त- अप्रीतिकर कहलाता है।" १२. जो नम्र व्यवहार करता है (नीयावत्ती ) बृहद्वृत्ति के अनुसार 'नीचवर्ती' के दो अर्थ हैं वति यथा त्वं न वैत्सीत्यहं तव पात्रं लेपयामि, ततोऽसौ प्रत्युपकारभीरुतया प्रतिवक्ति-ममालमेतेन । ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ 'भाषते' वक्ति पापमेव पापकं किमुक्तं भवति ?अग्रतः प्रियं वक्ति पृष्ठतस्तु प्रतिसेवको ऽयमित्यादिकमनाचारमेवाविष्करोति । १२. वही, पत्र ३४६ प्रकीर्णम् इतस्ततो विक्षिप्तम् असम्बद्धमित्यर्थः, वदति-- जल्पतीत्येवंशीलः प्रकीर्णवादी, वस्तुतत्त्वविचारेऽपि यत्किंचनवादीत्यर्थः, अथवा यः पात्रमिदमपात्रमिदमिति वाऽपरीक्ष्यैव कथचिंदधिगतं श्रुतरहस्यं वदतीत्येवंशीलः प्रकीर्णवादी इति, प्रतिज्ञया वा इदमित्थमेव इत्येकान्ताभ्युपगमरूपया वदनशीलः प्रतिज्ञावादी । १३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६६ : अपरिक्खिउं जस्स व तरस व कहेति । १४. सुखबोधा, पत्र १६८ प्रतिज्ञया इत्थमेवेदमित्येकान्ताभ्युपगमरूपया वदनशीलः प्रतिज्ञावादी । १५. The Uttarādhyayana Sutra, p. 320 अप्रिय १६. उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० १६६ : अचियत्तो ऽदरिणो वा अथवा.... इत्यर्थः । १७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ अधियत्ते ति अप्रीतिकरः दृश्यमानः सम्भाष्यमाणो वा सर्वस्याप्रीतिमेवोत्पादयति । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुश्रुतपूजा १. नीच अर्थात् नम्र वर्तन करने वाला । २. शय्या आदि में गुरु से नीचा रहने वाला।' इसकी विशेष जानकारी के लिए देखें- -दशवैकालिक २०१ ६।२।१७ । १३. जो चपल नहीं होता ( अचवले) चपल चार प्रकार के होते हैं १. २. ३. गति - चपल -- जो दौड़ता हुआ चलता है। स्थान- चपल - जो बैठा-बैठा हाथ-पैर आदि को हिलाता रहता है, जो स्थिरता से एक आसन पर नहीं बैठता । भाषा - चपल - इसके चार प्रकार हैं--- (क) असत् प्रलापी—असत् (अविद्यमान) कहने वाला । (ख) असभ्य प्रलापी-कड़ा या रूखा बोलने वाला। (ग) असमीक्ष्य प्रलापी - बिना सोचे-विचारे बोलने वाला । (घ) अदेशकाल प्रलापी कार्य संपन्न हो जाने के बादउस-उस प्रदेश में यह कार्य किया जाता तो सुन्दर होता- इस प्रकार कहने वाला। ४. भाव-चपल – प्रारम्भ किए हुए सूत्र और अर्थ को बीच में छोड़कर दूसरे सूत्र और अर्थ का अध्ययन प्रारम्भ करने वाला। --- १४. जो मायावी नहीं होता ( अमाई ) चूर्णिकार ने मायापूर्ण व्यवहार को समझाने के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत किया है—किसी साधु को भिक्षा में सरस भोजन मिला। उसने सोचा — गुरु इस भोजन को देखेंगे तो स्वयं ले लेंगे। इस डर से उसने सरस भोजन को रूखे-सूखे भोजन से ढक दिया - यह मायापूर्ण व्यवहार है। जो ऐसे व्यवहारों का आसेवन नहीं करता, वह अमायी होता है। विशेष विवरण के लिए देखें- दशवैकालिक ५।२।३१ । १५. जो कुतूहल नहीं करता (अकुऊहले) इन्द्रियों के विषय और चामत्कारिक विद्याएं पाप-स्थान होती हैं, यह जान कर जो उनके प्रति उदासीन रहता है, उसे अकुतूहल कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति नाटक, इन्द्रजाल आदि १. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ : नीचम् - अनुद्धतं यथा भवत्येवं नीचेषु वा शय्यादिषु वर्तते इत्येवंशीलो नीचवर्ती - गुरुषु न्यग्वृत्तिमान्। २. वही, पत्र ३४६-३४७ 'अचपलः' नाऽऽरब्धकार्यं प्रत्यस्थिरः, अथवाऽचपलो- गतिस्थान भाषाभावभेदतश्चतुर्धा, तत्र गतिचपलः द्रुतचारी, स्थानचपलः तिष्ठन्नपि चलन्नेवास्ते हस्तादिभिः, भाषाचपलः-असदसभ्यासमीक्ष्यादेशकालप्रलापिभेदाच्चतुर्द्धा तत्र असद्— अविद्यमानमसभ्यं खरपरुषादि, असमीक्ष्य-अनालोच्य प्रलपन्तीत्येवंशीला असदसभ्यासमीक्ष्यप्रलापिनस्त्रयः, अदेशकालप्रलापी चतुर्थः अतीते कार्ये यो वक्तियदिदं तत्र देशे काले वाऽकरिष्यत् ततः सुन्दरमभविष्यद् भावचपलः सूत्रे ऽर्थे वाऽसमाप्त एव योऽन्यद् गृह्णाति । ३. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १६७ : 'अमाई' त्ति जो मायं न सेवति, साय माया एरिसप्पगारा, जहा कोइ मणुन्नं भोयनं लद्दूण पंतेण छातेति 'मा मेयं दाइयं संतं दद्दूणं सयमादिए।' ४. वही, पृ० १६७ : अकुतूहली विसएस विज्जासु पावठाणत्ति ण वट्टतित्ति । को देखने के लिए कभी उत्सुक नहीं होता।* १६. जो किसी का तिरस्कार नहीं करता (अणं चाऽहिक्खिवई) 'अल्प' शब्द के दो अर्थ होते हैं—थोड़ा और अभाव । पहले अर्थ के अनुसार इस चरण का अनुवाद होगाथोड़ा तिरस्कार करता है। इसका भाव यह है कि ऐसे तो वह किसी का तिरस्कार नहीं करता किन्तु अयोग्य को धर्म में प्रेरित करने की दृष्टि से उसका थोड़ा तिरस्कार करता है । " चूर्णि के अनुसार यहां 'अल्प' शब्द अभाववाची है।" १७. जो स्खलना होने पर किसी का तिरस्कार नहीं करता (न व पावपरिक्खेबी) अध्ययन ११ : श्लोक ११-१३ टि० १३-१६ प्रस्तुत श्लोक में 'पाप' शब्द का प्रयोग पापी अथवा दोषपूर्ण व्यक्ति के अर्थ में किया गया है। अविनीत व्यक्ति दोषी का तिरस्कार करता है। विनीत व्यक्ति दोष का तिरस्कार करता है, दोषी का नहीं। यह दोनों के दृष्टिकोण में बहुत बड़ा अन्तर है । गोशालक ने आर्द्रकुमार से कहा- 'तुम यह कहकर सभी प्रावादुकों की गर्हा कर रहे हो। वे प्रावादुक अपने-अपने दर्शन का निरूपण करते हुए अपनी-अपनी दृष्टि को प्रकट करते हैं।' तब आर्द्रकुमार ने कहा- ' गरहामो दिहिं ण गरहामो किंचि' हम दृष्टि (दर्शन) की गर्ता कर रहे हैं, किसी प्राचादुक की गह नहीं कर रहे हैं। १८. प्रशंसा करता है (कल्लाण मासई) : कुछ व्यक्ति कृतघ्न होते हैं। वे एक दोष को सामने रख कर सौ गुणों को भुला देते हैं। कुछ व्यक्ति कृतज्ञ होते हैं। वे एक गुण को सामने रख कर सौ दोषों को भुला देते हैं। यहां बतलाया गया है कि कृतज्ञ व्यक्ति अपकार करने वाले मित्र के पूर्वकृत किसी एक उपकार का स्मरण कर उसके परोक्ष में भी उसका दोष -गान नहीं करता किन्तु गुणगान करता है, प्रशंसा करता है । " १९. ( कलहडमर, बुद्धे अभिजाइए, हिरिमं पडिसंलीणे) कलहडमर - 'कलह' का अर्थ है-वाचिक विग्रह अर्थात् ५. ६. ७. ८. ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ 'अकुतूहल: ' न कुहुकेन्द्रजालाद्यवलोकनपरः । वही, पत्र ३४७ 'अल्पं च' इति स्तोकमेव 'अधिक्षिपति' तिरस्कुरुते, किमुक्तं भवति ? - नाधिक्षिपत्येव तावदसौ कंचन, अधिक्षिपन् वा कंचन ककटुकरूपं धर्म प्रति प्रेरयन्नल्पमेवाधिक्षिपति । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६७ अल्पशब्दो हि स्तोके अभावे वा अत्र अभावे द्रष्टव्यः, ण किंचि अधिक्खिदति, नाभिक्रमतीत्यर्थः । बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ । सूयगडो, २६ ११, १२ । १०. बृहद्वृत्ति पत्र ३४७ कल्याणं भाषते, इदमुक्तं भवति - मित्रमिति यः प्रतिपन्नः स यद्यप्यपकृतिशतानि विधत्ते तथाऽप्येकमपि सुकृतमनुस्मरन् न रहस्यपि तद्दोषमुदीरयति तथा चाहएकसुकृतेन दुष्कृतशतानि ये नाशयन्ति ते धन्याः । न त्वेकदोषजनितो येषां कोपः स च कृतघ्नः ।। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २०२ अध्ययन ११ :श्लोक १४-१५ टि०२०-२२ वचन से झगड़ा करना और 'डमर' का अर्थ है-हाथापाई छोड़ते।' करना। दोनों एकार्थक भी माने गए हैं। २१. जो एकाग्र होता है (जोगवं) बुद्ध-बुद्ध अर्थात् बुद्धिमान्, तत्त्व को जानने वाला। योग शब्द दो धातुओं से निष्पन्न होता है। एक का अर्थ चौदह स्थानों में बुद्ध की स्वतंत्र गणना नहीं है। इसका सम्बन्ध है जुड़ना और दूसरी का अर्थ है समाधि। चूर्णिकार ने योग के सुविनीत के प्रत्येक स्थान से है। तीन अर्थ किए हैं। -(१) मन, वाणी और काया की प्रवृत्ति अभिजाइए-अभिजाति का अर्थ है-कुलीनता। जो (२) संयमयोग (३) पढ़ने का उद्योग। कुलीनता रखता है अर्थात् लिए हुए भार का निर्वाह करता है, शान्त्याचार्य ने योग के दो अर्थ किए हैं-धार्मिक प्रयत्न वह अभिजातिग (कुलीन) कहलाता है। तथा समाधि। हिरिमं-इसका अर्थ है लज्जावान् । लज्जा एक प्रकार का गीता में एक स्थान पर कर्म-कौशल को योग कहा है तो मानसिक संकोच है। वह कभी-कभी मनुष्य को उबार देती है। दूसरे स्थान पर समत्व को योग कहा है। इस प्रकार योग की लज्जाहीन मनुष्य मन के विकृत होने पर अनुचित कार्य कर सत् कर्म विषयक और समाधि विषयक दोनों प्रकार की व्याख्या डालता है, किन्तु लज्जावान् पुरुष उस स्थिति में भी अनुचित मिलती है। धार्मिक-प्रयत्न और समाधि दोनों मोक्ष के हेतु हैं, आचरण नहीं करता। इसलिए लज्जा व्यक्ति का बहुत बड़ा गुण इसलिए दोनों में सर्वथा भेद नहीं है। इसीलिए हरिभद्रसूरि ने है। जो अनुचित कार्य करने में लजाता हो, वह हीमान् अर्थात् मोक्ष से योग कराने वाले समूचे धर्म-व्यापार को योग कहा है।'२ लज्जावान् कहलाता है। दशवैकालिक ८४२ में कहा है-मुनि को योग करना पडिसंलीणे-इसका अर्थ है प्रतिसंलीन। कुछ लोग दिन चाहिए। वहां योग का मुख्य अर्थ श्रमण-धर्म की आराधना है। भर इधर-उधर फिरते रहते हैं। कार्य में संलग्न व्यक्ति को ऐसा अनगारधर्मामृत में कायक्लेश तप के छह प्रकारों का नहीं करना चाहिए। उसे अपने स्थान पर स्थिरता पूर्वक बैठे निर्देश है-अयन (सूर्य आदि की गति), शयन, आसन, स्थान, रहना चाहिए। इन्द्रिय और मन को भी करणीय कार्य में संलग्न अवग्रह और योग। रखना चाहिए। प्रयोजनवश कहीं जाना भी पड़ता है किन्त ग्रीष्म ऋतु में पर्वत के शिखर पर सूर्य के सम्मुख निष्प्रयोजन इन्द्रिय, मन और हाथ-पैर की चपलता के कारण इट खड़ा होना आतापनायोग है। वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे र-उधर नहीं फिरना चाहिए। प्रतिसंलीन शब्द के द्वारा इसी बैठना वृक्षमूल योग है। शीतकाल में चौराहे पर या नदी के आचरण की शिक्षा दी गई है। किनारे ध्यान में स्थित होना शीतयोग है। इस प्रकार योग के २०. गुरुकुल में (गुरुकुले) अनेक भेद हैं। 'गुरुकुल' का अर्थ गच्छ या गण है। यहां कहा गया है २२. दोनों ओर (अपने और अपने आधार के गुणों से कि मुनि 'गुरुकुल' में रहे अर्थात् गुरु की आज्ञा में रहे, सुशोभित होता है दुहओ वि विरायइ) स्वच्छन्द विहारी होकर अकेला न विचरे। गुरुकुल में रहने से शंख भी स्वच्छ होता है और दूध भी स्वच्छ होता है। जब उसे ज्ञान की प्राप्ति होती है। दर्शन और चारित्र में स्थिरता शंख के पात्र में दूध रखा जाता है तब दूध पात्र की स्वच्छता के आती है। वे धन्य हैं जो जीवनपर्यन्त 'गुरुकुल-वास' नहीं कारण अधिक स्वच्छ हो जाता है। वह न तो झरता है और न १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १९७ : कलह एव डमर कलहडमर, कलहेति ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६८ : आयरियसमीवे अच्छति.... आह हि वा भंडणेति वा डमरेति वा एगट्ठो, अथवा कलहो वाचिको डमरो णाणस्स होइ भागी थिरयरगो दंसणे चरिते य। हत्थारंभो। धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति।। बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ : 'बुद्धो' बुद्धिमान्, एतच्च सर्वत्रानुगम्यत एवेति ८. वही, पृ० १९८ : जोगो मणजोगादि संजमजोगो वा, उज्जोगं पठितव्वते न प्रकृतसङ्ख्याविरोधः। करेइ। ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६७ : अभिजाणते, विणीतो कुलीणे य।। । य। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ : योजनं योगो-व्यापारः, स चेह प्रक्रमाद्धर्मगत (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ : अभिजातिः—कुलीनता ता गच्छति एव तद्वान, अतिशायने मतुप्, यद्वा योगः-समाधिः सोऽस्यास्तीति उत्क्षिप्तभारनिर्वाहणादिनेत्यभिजातिगः। योगवान्। (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६७: ही लज्यायां, लज्जति अचोच्खमायरंतो।। १०. गीता, २५०: योगः कर्मसु कौशलम् । बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ : ही:-लज्जा सा विद्यतेऽस्य हीमान्। ११. वही, २४८ : समत्वं योग उच्यते। ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १७, १६८ : पंडिसंलीणो आचार्यसकासे १२. योगविंशिका-१ : मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्योवि धम्मवावारो। इंदियणोइंदिएहिं। १३. अनगारधर्मामृत ७।३२।६८३ : (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ : 'प्रतिसंलीनः'-गुरुसकाशेऽन्यत्र वा कार्य । विना न यतस्ततश्चेष्टते। ऊर्ध्वार्काद्ययनैः शवादिशयनैर्वीरासनाद्यासनैः, ६. बृहवृत्ति, पत्र ३४७ : गुरूणाम्-आचार्यदीनां कुलम्-अन्चयो गच्छ स्थानैरेकपदाग्रगामिभिः अनिष्टीवाग्रमावग्रहः । इत्यर्थः गुरुकुलं तत्र, तदाज्ञोपलक्षणं च कुलग्रहणं......किमुक्तं भवति?. योगैश्चातपनादिभिः प्रशमिना संतापनं यत् तनोः, ....गुर्वाज्ञायामेव तिष्ठेत्। कायक्लेशमिदं तपोऽर्युपमिती सद्ध्यानसिद्ध्यै भजेत् ।। Jain Education Intemational Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुश्रुतपूजा खट्टा होता है।" २३. बहुश्रुत (बहुस्सुए) बहुश्रुत शब्द जैन आगमों में बहुत प्रचलित है। श्रुत का अर्थ है— ज्ञान। जिसका श्रुत व्यापक और विशाल होता है उसे बहुश्रुत कहा जाता है । व्याख्या साहित्य में इसकी निश्चित परिभाषाएं मिलती हैं। बृहत्कल्प भाष्य के अनुसार बहुश्रुत तीन प्रकार के होते हैं १. जघन्य बहुश्रुत — निशीथ का ज्ञाता । २. मध्यम बहुश्रुत ——कल्प और व्यवहार का ज्ञाता । ३. उत्कृष्ट बहुश्रुत — नौवें और दशवें पूर्व का ज्ञाता । निशीथ चूर्णि का मत इससे बहुत भिन्न है। उसके अनुसार उत्कृष्ट बहुश्रुत वह होता है जो चतुर्दशपूर्वर हो।" धवला में बारह अंगों के धारक को बहुश्रुत कहा गया है। प्रस्तुत अध्ययन में बहुश्रुत के व्यक्तित्व का सर्वांगीण परिचय उपलब्ध है । वह केवल ज्ञानी ही नहीं होता, व्यक्तित्व की अनेक विशेषताओं से संपन्न होता है। यहां उसकी सोलह विशेषताएं बतलाई गई हैं। उनका निर्देश काव्य की भाषा में है । प्रश्नव्याकरण में निरूपित मुनि की विशेषताओं के साथ इनका तुलनात्मक अध्ययन बहुत ज्ञानवर्धक हो सकता है। १. निर्मलता—शंख में निहित दूध की उपमा बहुश्रुत की निर्मल आभा की द्योतक है। प्रश्नव्याकरण में मुनि को शंख की भांति निरंजन – राग-द्वेष और मोह से मुक्त बतलाया गया है। " २. जागरूकता - जैसे आकीर्ण या भद्र अश्व चाबुक को देखते ही वेगवान् हो जाता है, वैसे ही बहुश्रुत निरन्तर जागरूक रहता है। यह तात्पर्यार्थ उत्तराध्ययन १।१२ में खोजा जा सकता है। धम्मपद में भी इस अर्थ के द्योतक दो श्लोक मिलते हैं।" ३. शौर्य - बहुश्रुत परिस्थितियों से हार नहीं मानता। वह योद्धा की भांति पराक्रमी होता है। २०३ ४. अप्रतिहत- बहुश्रुत हाथी की भांति अप्रतिहत होता है। प्रश्नव्याकरण में मुनि का एक विशेषण है— हाथी की भां शौण्डीर -- समर्थ या बलवान् । 9. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६८ : 'संखिभि' संखभायणे पयं खीरं णिसितं ठवियं न्यस्तमित्यर्थः, उभयतो दुहतो, संखो खीरं च, अहवा तओ खीरं व, खीरं संखे ण परिस्सयति ण य अंबिलं भवति । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४८ : 'दुहओवि' त्ति द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां द्विधा, न शुद्धतादिना स्वसम्बन्धिगुणलक्षणेनैकेनैव प्रकारेण, किन्तु स्वसम्बन्ध्याश्रयसम्बन्धिगुणद्वयलक्षणेन प्रकारद्वयेनापीत्यपिशब्दार्थः, 'विराजते' शोभते, तत्र हि न तत् कलुषीभवति, न चाम्लतां भजते, नापि च परिस्रवति । २. देखें इसी अध्ययन का आमुख | ३. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ४०२ : तिविहो बहुस्सुओ खलु, जहण्णाओ मज्झिमो उ उक्कोसो। आयारपकप्पे कप्प नवम दसमे य उक्कोसो।। अध्ययन ११ : श्लोक १५ टि० २३ ५. भार- निर्वाहक- बहुश्रुत अपने दायित्व का वृषभ की तरह भलीभांति निर्वाह करता है। प्रश्नव्याकरण में मुनि की प्राणवान् ऋषभ से तुलना की गई है। ६. दुष्षधर्ष - बहुश्रुत सिंह की भांति दुष्प्रधर्षअनाक्रमणीय होता है। अन्यदर्शनी उस पर वैचारिक आक्रमण नहीं कर सकते । प्रश्नव्याकरण में मुनि के लिए भी इस उपमा का प्रयोग किया गया है।" ७. अपराजेय - बहुश्रुत वासुदेव की भांति अपराजेय होता है। ८. लब्धिसंपन्न- -जैसे चक्रवर्ती ऋद्धिसंपन्न होता है, वैसे ही बहुश्रुत भी योगज विभूतियों से संपन्न होता है । ९. आधिपत्य या स्वामित्व जैसे इन्द्र देवों का अधिपति होता है, वैसे ही बहुश्रुत भी दिव्य शक्तियों का अधिपति होता है। १०. तेजस्वी - बहुश्रुत सूर्य की भांति तेज से दीप्त होता है। प्रश्नव्याकरण में मुनि का एक विशेषण है— सूर्य की भांति तेजस्वी ।" ११. कलाओं से परिपूर्ण और सौम्यदर्शन — बहुश्रुत पूर्णिमा के चन्द्रमा की भांति समस्त कलाओं से परिपूर्ण होता है। उसका दर्शन सौम्यभाव युक्त होता है। प्रश्नव्याकरण में मुनि का एक विशेषण है—चन्द्रमा की भांति सौम्य ।२ १२. संपन्न बहुश्रुत कोष्ठागार की भांति श्रुत से परिपूर्ण होता है। १३. आदर्श - बहुश्रुत जम्बू वृक्ष की भांति श्रेष्ठ होता है, आदर्श होता है। उसका ज्ञान संजीवनी का काम करता है, जैसे जम्बू वृक्ष का फल । १४. ज्ञान की निर्मलता - बहुश्रुत निर्मल जलवाली शीता नदी की भांति निर्मल ज्ञान से युक्त होता है। १५. अडोल और दीप्तिमान् जैसे मंदर पर्वत अडोल और नानाविध वनस्पतियों से दीप्त होता है, वैसे ही बहुश्रुत ज्ञान से अत्यन्त स्थिर और ज्ञान के प्रकाश से दीप्त होता है । ४. देखें—इसी अध्ययन का आमुख | ५. ६. ७. धवला ८ ३ १४१ बारसंगपारया बहुसुदा णाम । प्रश्नव्याकरण १० 199 संखे विव निरंगणे विगय-राग-दोस मोहे। धम्मपद १०1१५, १६ : हरीनिसेधो पुरिसो कोचि लोकस्मि विज्जति । यो निन्दं अप्पबोधति अस्सो भद्दो कसामिव । अस्सो यथा भद्रो कसानिविट्टो, आतापिनो संवेगिनो भवाथ। सद्धाय सीलेन च वीरियेन च समाधिना धम्मविनिच्छयेन च ।। प्रश्नव्याकरण, १०1११ : सोंडीरे कुंजरे व्व । छ ६. वही, १० 199 वसभे व्व जायथामे । १०. वही, १०1११: सीहे वा... होतिदुप्पधरिसे । ११. वही, १०1११ : सूरोव्व दित्ततेए । १२ . वही, १०।११ चंदो इव सोमभावयाए। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २०४ अध्ययन ११ : श्लोक १६-२२ टि० २४-३१ प्रश्नव्याकरण में मुनि का एक विशेषण है— गिरिवर मंदर पर्वत हाथी की पूर्ण बलवत्ता बतलाने के लिए साठ वर्ष का उल्लेख की तरह अचल ।' किया गया है। १६. अक्षयकोष — बहुश्रुत समुद्र की भांति अक्षय ज्ञान और अतिशयों से संपन्न होता है। प्रश्नव्याकरण में मुनि का एक विशेषण है— अक्षुब्ध सागर की भांति शांत । २४ धर्म, कीर्ति और श्रुत (धम्मो कित्ती तहा सुयं) चूर्णिकार ने इस चरण का अर्थ दो प्रकार से किया हैयोग्य व्यक्ति को ज्ञान देने वाले बहुश्रुत के धर्म होता है, उसकी कीर्ति होती है और उसका ज्ञान अबाधित रहता है। दूसरे प्रकार से इसका अर्थ है - बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति और श्रुत अबाधित रहते हैं । २५. (कंबोयाणं, आइण्णे कंथए) कंबो याणं - कम्बोज (प्राचीन जनपद, जो अब अफगानिस्तान का भाग है) में उत्पन्न अश्व 'कम्बोज कहलाते हैं। आइ-आकीर्ण अर्थात् शील, रूप, बल आदि गुणों से युक्त अश्व कंथए— खड़खड़ाहट या शस्त्र प्रहार से नहीं चौंकने वाला श्रेष्ठ जाति का घोड़ा 'कन्थक' कहलाता है।" २६. मंगलपाठकों के घोष से (नंदिषो से णं) चूर्णि में इसका अर्थ है— मंगलपाठकों की जय-जय ध्वनि । वृत्तिकार ने इसको वैकल्पिक अर्थ मानकर इसका मूल अर्थ बारह प्रकारों के वाद्यों की ध्वनि किया है। कोश में जय-जय की ध्वनि को नान्दी कहा गया है । यही अर्थ प्रसंगोपात्त है । २७. साठ वर्ष का (सडिहायणे) साठ वर्ष की आयु तक हाथी का बल प्रतिवर्ष बढ़ता रहता है और उसके बाद में कम होना शुरू हो जाता है। इसीलिए यहां 9. प्रश्नव्याकरण, १० 199 अचले जह मंदरे गिरिवरे । २. वही, १०1११ अक्खोमे सागरोव्व थिमिए । ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६८ : भायणे देतस्स धम्मो भवति कित्ती वा, सो तहा सुत्तं अबाधितं भवति, अपत्ते देतस्स असुतमेव भवति, अथवा इहलोगे परलोगे जसो भवति पत्तदाई (त्ति), अहवा एवंगुणजातीए भिक्खू बहुस्सुते भवति, धम्मो कित्ती जसो भवति, सुयं व से भवति । ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६८ : कंबोतेसु भवा कंबोजाः, अश्वा इति वाक्यशेषः । ५. (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ३४८ 'काम्बोजानां' कम्बोजदेशोद्भवानां प्रक्रमादश्वानाम् । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६६ : आकीर्णे गुणेहिं सीलरूपबलादीहि य। ६ वृहद्वृत्ति, पत्र ३४७ 'कन्थकः' प्रधानोऽश्यो, यः किल दृषच्छकलभृतकुतुपनिपतनध्वने र्न सन्त्रस्यति । ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६६ । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६: नन्दीघोषेण-द्वादशतूर्यनिनादात्मकेन, यद् वा आशीर्वचनानि नान्दी जीयास्त्वमित्यादीनि । ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० १६६ : हायणं वरिसं, सट्टिवरिसे परं बलहीणो, अपत्तवलो परेण परिहाति । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६: षष्टिहायनः षष्टिवर्षप्रमाणः, तस्य हि एतावत्कालं यावत् प्रतिवर्षं बलोपचयः ततस्तदपचय इत्येवमुक्तम् । २८. अत्यन्त पुष्ट स्कन्ध वाला (जायखंधे) 'जाय' का अर्थ है-पुष्ट । जिसका कंधा पुष्ट होता है, उसे 'जात-स्कन्ध' कहा जाता है। जिसका कन्धा पुष्ट होता है उसके दूसरे अंगोपांग पुष्ट ही होते हैं।" २९. ( श्लोक २० ) उदग्गे उदग्र के अनेक अर्थ हैं—प्रधान, शोभन, उत्कट, पूर्ण युवा आदि। यहां 'उदय' का अर्थ वयःप्राप्त पूर्ण युवा है।" मियाण - यहां 'मृग' का अर्थ जंगली पशु है ।” देखिएउत्तराध्ययन १।५ का टिप्पण । ३०. शङ्ख, चक्र और गदा (संखचक्कगया) वासुदेव के शङ्ख का नाम पाञ्चजन्य, चक्र का नाम सुदर्शन और गदा का नाम कौमोदकी है। २ लोहे के दण्ड को गदा कहा जाता है । अर्थशास्त्र के अनुसार यह चल-यंत्र होता है।" ३१. (चाउरते, चक्कवट्टी, चउदसरयण) चाउरन्ते जिसके राज्य में एक दिगन्त में हिमवान् पर्वत और तीन दिगन्तों में समुद्र हो, वह 'चातुरन्त' कहलाता है। इसका दूसरा अर्थ है-- हाथी, अश्व, रथ और मनुष्य- इन चारों के द्वारा शत्रु का अन्त करने वाला - नाश करने वाला।" चक्कवट्टी- छह खण्ड वाले भारतवर्ष का अधिपति 'चक्रवर्ती' कहलाता है।" चउदसरयण- चक्रवर्ती के चौदह रत्न ये हैं (१) सेनापति (२) गाथापति (३) पुरोहित (४) गज (५) अश्व (६) बढई (७) स्त्री (८) चक्र (६) छत्र (१०) चर्म (११) मणि (१२) काकिणी (१३) खड्ग और (१४) दण्ड 1 -- १२. १३. १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६: जातः — अत्यन्तोपचितीभूतः स्कन्धः प्रतीत एवास्येति जातस्कन्धः, समस्ताङ्गोपाङ्गोपचितत्वोपलक्षणं चैतत्, तदुपचये हि शेषाङ्गान्युपचितान्येवास्य भवन्ति । ११. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६६ उदग्गं पधानं शोभनमित्यर्थः, उदग्रं वयसि वर्त्तमानम् । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६ 'उदग्र' उत्कट उदग्रवयः स्थितत्वेन वा उदग्रः । बृहद्वृत्ति, पत्र ३४६: 'मृगाणाम्' आरण्यप्राणिनाम् । वही, पत्र ३५० -कौमोदकी । च--- १४. कौटिल्य अर्थशास्त्र, २।१८३६, पृ० ११० । १५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५० चतसृष्वपि दिश्वन्तः - पर्यन्त एकत्र हिमवानन्यत्र शङ्खश्च पाञ्चजन्यः, चक्रं च - सुदर्शनं, गदा च दित्रये समुद्रः स्वसम्बन्धितयाऽस्येति चतुरन्तः, चतुर्भिर्वा -- हयगजरथनरात्मकैरन्तः - शत्रुविनाशात्मको यस्य स तथा । १६. वही, पत्र ३५० : 'चक्रवर्ती' षट्खण्डभरताधिपः । १७. वही, पत्र ३५० : चतुर्दश च तानि रत्नानि च चतुर्दशरत्नानि तानि चामूनि - सेणावइ गाहावइ पुरोहिय गय तुरंग वहुइग इत्थी । चक्कं छत्तं चम्मं मणि कागिणी खग्ग दंडो य ।। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पता। बहुश्रुतपूजा २०५ अध्ययन ११ : श्लोक २३-२८ टि० ३२-३८ ३२. सहसचक्षु (सहस्सक्खे) और (२७) रेवती। ___इसका परम्परागत अर्थ यह है कि इन्द्र के पांच सौ ३६. सामाजिकों (समुदायवृत्ति वालों) का कोष्ठागार मन्त्री होते हैं। राजा मन्त्री की आंखों से देखता है, अपनी (सामाइयाणं कोट्ठागारे) नीति निश्चित करता है, इसलिए इन्द्र को 'सहसाक्ष' कहा गया आजकल जैसे सामुदायिक अन्न-भण्डार होते हैं, है। जो हजार आंखों से देखता है, इन्द्र अपनी दो आंखों से उसी प्रकार प्राचीन काल में भी सामुदायिक अन्न-भण्डार होते उससे अधिक देख लेता है, इसलिए वह 'सहसाक्ष' कहलाता थे। उनमें नाना प्रकार के अनाज रखे जाते थे। चोर. अग्नि. चूहों आदि से बचाने के लिए उनकी पूर्णतः सुरक्षा की जाती थी। ३३. पुरों का विदारण करने वाला (पुरंदरे) उन अन्न-भण्डारों को 'कोष्ठागार' या 'कोष्ठाकार' कहा जाता चूर्णि में पुरन्दर की व्याख्या नहीं है। शान्त्याचार्य ने था। इसका लोक-सम्मत अर्थ किया है-इन्द्र ने पुरों का विदारण ३७. (श्लोक २७) किया था, इसलिए वह 'पुरन्दर' नाम से प्रसिद्ध हो गया। प्रस्तुत श्लोक में जम्बू वृक्ष की उपमा से बहुश्रुत को पुरं-दर-पुरों को नष्ट करने वाला। ऋग्वेद में दस्युओं या दासों उपमित किया है। जम्बू वृक्ष जम्बूद्वीप में अवस्थित है। इस द्वीप के पुरों को नष्ट करने के कारण इन्द्र को 'पुरन्दर' कहा गया का अधिपति है अनादृत नाम का व्यन्तर देव। जम्बू वृक्ष इसी है। देव का निवास स्थान है। इस वृक्ष का अपर नाम है-सुदर्शना। ३४. उगता हुआ (उत्तिट्टते) यह वस्तुतः पृथ्वीकायिक होता है। यह द्रुम की अनुकृति वाला चूर्णिकार ने मध्याह्न तक के सूर्य को उत्थित होता हुआ होने के कारण द्रुम कहलाता है। माना है। उस समय तक सूर्य का तेज बढ़ता है। मध्याह्न के विशेष विवरण के लिए देखें-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति पश्चात् वह घटने लग जाता है। इसका दूसरा अर्थ 'उगता हुआ' ४१४६-१६०।। किया गया है। उगता हुआ सूर्य सोम होता है। ३८. (सलिला, सीया नीलवंतपवहा) बृहद्वृत्ति के अनुसार उगता हुआ सूर्य तीव्र नहीं होता, सलिला --यहां सलिला का प्रयोग नदी के अर्थ में किया बाद में वह तीव्र हो जाता है, इसलिए 'उत्तिष्टन्' शब्द के द्वारा गया है। बाल सूर्य ही अभिप्रेत है। सीया नीलवंतपवहा---नीलवान मेरु पर्वत के उत्तर में ३५. नक्षत्र (नक्खत्त) अवस्थित वर्षधर पर्वत है। शीता नदी इस पर्वत से प्रवाहित होती नक्षत्र सताईस हैं। उनके नाम ये हैं है। यह सबसे बड़ी नदी है और अनेक जलाशयों से व्याप्त (१) अश्विनी (२) भरणी (३) कृत्तिका (४) रोहिणी है।२ (५) मृगशिर (६) आर्द्रा (७) पुनर्वसू (८) पुष्य (६) अश्लेषा वर्तमान भूगोल-शास्त्रियों के अनुसार चीन, तुर्किस्तान (१०) मघा (११) पूर्वा फल्गुनी (१२) उत्तरा फल्गुनी (१३) हस्त के चारों ओर स्थित पर्वतों से कई नदियां निकलती हैं, जो (१४) चित्रा (१५) स्वाति (१६) विशाखा (१७) अनुराधा (१८) ज्येष्ठा 'तकलामकान' मरुस्थल की ओर जाती हैं और अन्त में इसी (१६) मूल (२०) पूर्वाषाढा (२१) उत्तराषाढा (२२) श्रवण मरुस्थल की राह में सूख जाती हैं। काशगर नदी और (२३) घनिष्ठा (२४) शतभिषक् (२५) पूर्वभद्रपदा (२६) उत्तरभद्रपदा यारकन्द नदी क्रमशः 'तियेन-शान' और पामीर से निकलती १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६६ : सहस्सक्खेत्ति पंच मंतिसयाई देवाणं ७. वही, पत्र ३५१ : नाना-अनेकप्रकाराणि धान्यानि-शालिमुद्गादीनि तरस, तेसिं सहरसो अक्खीणं, तेसिं णीतिए दिट्ठमीति, अहवा जं तैः प्रतिपूर्णी-भृतः नानाधान्यप्रतिपूर्णः । सहस्सेण अक्खाणं दीसति तं सो दोहिं अक्खीहिं अब्भहियतरायं पेच्छति। ८. वही, पत्र ३५१ : सुष्टु-प्राहरिकपुरुषादिव्यापारणद्वारेण रक्षितःबृहद्वृत्ति, पत्र ३५० : लोकोक्त्या च पृरणात् पुरन्दरः। पालितो दस्युमूषिकादिभ्यः सुरक्षितः । ३. ऋग्वेद, ११०२७; ११०६।८२१२०७; ३१५४१५, ५।३०।११; ६. वही, पत्र ३५१ : कोष्ठा-धान्यपल्यास्तेषामगारं-तदाधारभूतं गृहम्, ६।१६।१४ । उपलक्षणत्वादन्यदपि प्रभूतधान्यस्थानं, यत्र प्रदीपनकादिभयात् धान्यकोष्ठाः ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०० : जाव मज्झण्णो ताव उठेति, ताव से क्रियते तत् कोष्ठागारमुच्यते, यदि वा कोष्ठान् आ--समन्तात कुर्वते तेयलेसा वद्धति, पच्छा परिहाति, अहवा उत्तिटतो सोमो भवति तस्मिन्निति कोष्ठाकारः।। हेमंतियबालसूरिओ। १०. वही, पत्र ३५२ : सलिलं जलमस्यामरतीति, आर्शआदेराकृतिगणत्वादचि बृहद्वृत्ति, पत्र ३५१ : 'उत्तिष्ठन्' उद्गच्छन 'दिवाकरः' सूर्यः, स हि ऊ सलिला-नदी। व नभोभागमाक्रामन्नतितेजस्वितां भजते अवतरंस्तु न तथेत्येवं विशिष्यते, ११. वही, पत्र ३५२ : 'शीता' शीतानाम्नी, नीलवान-मेरोरुत्तरस्या दिशि यद्वा उत्थान-प्रथममुद्गमनं तत्र चायं न तीव्र इति तीव्रत्वाभावख्याप- वर्षधरपर्वतस्ततः.....प्रवहति...नीलवतप्रवहा वा। कमेतत, अन्यदा हि तीव्रोऽयमिति न सम्यगू दृष्टान्तः स्यात्।। १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०० : सीता सव्वणदीण महल्ला बहूहि च ६. वही, पत्र ३५१: समाजः-समूहस्तं समवयन्ति सामाजिकाः-समूहवृत्तयो जलासतेहिं च आइण्णा। 'लोकारतेषां,........कोडागारे। Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २०६ हैं। दोनों नदियां मिलकर तारिम नदी हुई, जो 'लोबनोर' तक जाती है। भारतीय साहित्य में यही नदी 'शीता' के नाम से प्रख्यात है।" पौराणिक विद्वान् नील पर्वत की पहचान आज के कारकोरम से करते हैं। पुराणों के हेमकूट, निषध, नील, श्वेत तथा शृङ्गी पर्वत अनुक्रम से आज के हिन्दुकुश, सुलेमान, काराकोरम, कुवेनलुन तथा थियेनशान हैं। ३९. मंदर पर्वत (मंदरे गिरी ) मन्दर पर्वत सबसे ऊंचा पर्वत है और वहां से दिशाओं का प्रारम्भ होता है। उसे नाना प्रकार की औषधियों और वनस्पतियों से प्रज्वलित कहा गया है। वहां विशिष्ट औषधियां होती हैं। उनमें से कुछ प्रकाश करने वाली होती हैं। उनके योग से मंदर पर्वत भी प्रकाशित होता है। सूत्रकृतांग की वृत्ति में भी मेरुमन्दर पर्वत को औषधि सम्पन्न कहा है। कश्मीर के उत्तर में एक ही स्थान या बिंदु से पर्वतों की छह श्रेणियां निकलती हैं। इनके नाम हैं---हिमालय, काराकोरम, कुवेनलुन, हियेनशाल, हिन्दुकुश और सुलेमान । इनमें जो केन्द्र-बिन्दु है, उसे पुराणों के रचयिता मेरु पर्वत कहते हैं। यह पर्वत भू-पद्म की कर्णिका जैसा है।' ४०. ( समुद्दगंभीरसमा ) व्याकरण की दृष्टि से यह 'समुद्दसमगम्भीरा' होना चाहिए था, किन्तु छन्द - रचना की दृष्टि से 'गम्भीर' का पूर्व निपात हुआ है। बृहद्वृत्ति के अनुसार 'गाम्भीर्य' के स्थान में 'गम्भीर' का आर्ष-प्रयोग हुआ है । " 9. India and Central Asia (by P.C. Bagchi) p. 43. २. वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० १६४ । ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०० जहा मन्दरो थिरो उस्सिओ दिसाओ य अत्थ पवत्तंति । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५२ : 'नानौषधिभिः' अनेकविधविशिष्टमाहात्म्यवनस्पतिविशेषरूपाभिः प्रकर्षेण ज्वलितो— दीप्तः नानौषधिप्रज्वलितः, ता ह्यतिशायिन्यः प्रज्वलन्त्य एवासत इति तद्योगादसावपि प्रज्वलित इत्युक्तः, यद्वाप्रज्वलिता नानौषधयोऽस्मिन्निति प्रज्वलितनानौषधिः, प्रज्वलितशब्दस्य तु परनिपातः प्राग्वत् । ५. सूत्रकृतांग, १६ ।१२, वृत्ति पत्र १४७ 'गिरिवरे से जलिएव भोगे' असी मणिभिरौषधिभिश्च देदीप्यमानतया "भीम इव" भूदेश इव ज्वलित इति । अध्ययन ११ : श्लोक २६-३२ टि० ३६-४४ दुराशय (दुरासया) 'दुरासय' शब्द के संस्कृत रूप तीन होते हैं१. दुराश्रय- जिसका आश्रयण दुःखपूर्वक होता है । २. दुरासद -- जिसको प्राप्त करना कठिन होता है। ३. दुराशय - दुष्ट आशय वाला। आगमों में इन तीनों अर्थों में यह शब्द प्राप्त होता है । प्रस्तुत प्रसंग में 'दुराशय' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार है-जिसके आशय को गंभीरता के कारण कठिनाई से जाना जाता है । वृत्तिकार ने इसके संस्कृत रूप दो दिए हैंदुराश्रय और दुरासद । अभिभूत करने की बुद्धि से जिसके पास पहुंचना कठिन होता है उसे दुराश्रय या दुरासद कहा जाता है। चूर्णि में केवल दुराश्रय की व्याख्या प्राप्त है। ४२. विपुल श्रुत से पूर्ण (सुयस्स पुण्णा विठलस्स) इसके तीन अर्थ हैं ११ १. चीदह पूर्वो से प्रतिपूर्ण २. विमल और निःशंकित वाचना से युक्त अथवा प्रचुर अर्थ के ज्ञाता । ३. अंग, अंगबाह्य आदि विस्तृत श्रुत के ज्ञाता । ४३. उत्तम अर्थ (मोक्ष) (उत्तमट्ठ) ४१. साधना का लक्ष्य है-बंधनमुक्ति या मोक्ष की प्राप्ति । पुरुषार्थ चतुष्टयी में मोक्ष को उत्तम कहा गया है। प्रस्तुत प्रसंग में उत्तमार्थ का अर्थ है- मोक्ष | ४४. श्रुत का आश्रयण करे (सुयमहिट्ठेज्जा) वृत्तिकार ने श्रुत के आश्रयण या अधिष्ठान के अनेक साध न बतलाए हैं-अध्ययन, श्रवण, चिंतन आदि । ६. वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० १६४ । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५३ । ८. (क) दशवैकालिक २६ : पक्खंदे जलियं जोई धूमकेउं दुरासयं । (दुरा (ख) उत्तराध्ययन १1१३: पसायए ते हु दुरासयं पि। (दुरासदं) (ग) प्रस्तुत श्लोक - दुराशय । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५३ । १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०१ | ११. ( क ) उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २०१ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३५३ । १२. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५३ अध्ययनश्रवणचिन्तनादिना आश्रयेत् । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमं अज्झयणं हरिएसिज्जं बारहवां अध्ययन हरिकेशीय Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख यह अध्ययन मुनि हरिकेशबल से सम्बन्धित है, इसलिए आ उसने मुनि पर थूक दिया। यक्ष ने यह देखा। उसने सोचाइसका नाम 'हरिएसिज्जं'-'हरिकेशीय' है। “इस कुमारी ने मुनि की आशातना की है। इसका फल इसे मथुरा नगरी के राजा 'शंख' विरक्त हो मुनि बन गए। मिलना ही चाहिए।" यक्ष कुमारी के शरीर में प्रविष्ट हो गया। ग्रामानुग्राम घूमते हुए एक बार वे हस्तिनागपुर (हस्तिनापुर) कुमारी पागल हो गयी। वह अनर्गल बातें कहने लगी। दासियां आए और भिक्षा के लिए नगर की ओर चले। ग्राम-प्रवेश के दो उसे राजमहल में ले गयीं। उपचार किया गया पर सब व्यर्थ। यक्ष मार्ग थे। मुनि ने एक ब्राह्मण से मार्ग पूछा। एक मार्ग का नाम ने कहा- "इस कुमारी ने एक तपस्वी मुनि का तिरस्कार किया 'हुताशन' था और वह अत्यन्त निकट था। वह अग्नि की तरह है। यदि यह उस तपस्वी के साथ पाणिग्रहण करना स्वीकार कर प्रज्वलित रहता था। ब्राह्मण ने कुतूहलवश उस उष्ण मार्ग की लेती है तो मैं इसके शरीर से बाहर निकल सकता हूं, अन्यथा ओर संकेत कर दिया। मुनि निश्छलभाव से उसी मार्ग पर चल नहीं।" राजा ने बात स्वीकार कर ली। पड़े। वे लब्धि-सम्पन्न थे। अतः उनके पाद-स्पर्श से मार्ग ठण्डा राजा अपनी कन्या को साथ ले यक्ष-मन्दिर में आया और हो गया। मुनि को अविचल भाव से आगे बढ़ते देख ब्राह्मण भी उसने मुनि को नमस्कार कर अपनी कन्या को स्वीकार करने उसी मार्ग पर चल पड़ा। मार्ग को बर्फ जैसा ठण्डा देख उसने की प्रार्थना की। मुनि ने ध्यान पारा और कहा- “राजन् ! मैं सोचा-“यह मुनि का ही प्रभाव है।" उसे अपने अनुचित कृत्य मुमुक्षु हूं। स्त्री मोक्ष-मार्ग में बाधक है, इसलिए मैं इसका स्पर्श पर पश्चात्ताप हुआ। वह दौड़ा-दौड़ा मुनि के पास आया और भी नहीं कर सकता।" इतना कह मुनि पुनः ध्यानलीन हो गए। उसने अपना पाप प्रकट कर क्षमायाचना की। मुनि ने धर्म का कन्या को मुनि के चरणों में छोड़ राजा अपने स्थान पर उपदेश दिया। ब्राह्मण के मन में विरक्ति के भाव उत्पन्न हुए। वह आ गया। यक्ष ने मुनि का रूप बनाया और राजकन्या का मुनि के पास प्रव्रजित हो गया। उसका नाम सोमदेव था। उसमें पाणिग्रहण किया। रात भर कन्या वहीं रही। प्रभात में यक्ष दूर जाति का अवलेप था। 'मैं ब्राह्मण हूं, उत्तम जातीय हूं'—यह मद हुआ। मुनि ने सही-सही बात कन्या से कही। वह दौड़ी-दौड़ी उसमें बना रहा। कालक्रम से मर कर वह देव बना । देव-आयुष्य राजा के पास गई और उसने यक्ष द्वारा ठगे जाने की बात को पूरा कर जाति-मद के परिपाक से गंगा नदी के तट पर बताई। राजा के पास बैठे रुद्रदेव पुरोहित ने कहा--"राजन् ! हरिकेश के अधिप 'बलकोष्ट' नामक चाण्डाल की पत्नी 'गौरी' यह ऋषि-पत्नी है। मुनि ने इसे त्याग दिया है, अतः इसे किसी के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम बल रखा ब्राह्मण को दे देना चाहिए।" राजा ने उसी पुरोहित को कन्या गया। यही बालक हरिकेशबल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सौंप दी। वह उसके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगा। कुछ काल एक दिन वह अपने साथियों के साथ खेल रहा था। बीता। पुरोहित ने यज्ञ किया। दूर-दूर से विद्वान् ब्राह्मण बुलाए खेलते-खेलते वह लड़ने लगा। लोगों ने जब यह देखा तो उसको गए। उन सबके आतिथ्य के लिए प्रचुर भोजन-सामग्री एकत्रित दूर ढकेल दिया। दूसरे बालक पूर्ववत् खेलने लगे किन्तु वह की गई। दर्शक मात्र ही रहा। इतने में ही एक भयंकर सर्प निकला। लोगों उस समय मुनि हरिकेशबल एक-एक मास का तप कर ने उसे पत्थर से मार डाला। कुछ ही क्षणों बाद एक अलसिया रहे थे। पारणे के दिन वे भिक्षा के लिए घर-घर घूमते हुए उसी निकला। लोगों ने उसे छोड़ दिया। दूर बैठे बालक हरिकेश ने यह यज्ञ-मण्डप में जा पहुंचे। सब देखा। उसने सोचा-"प्राणी अपने दोषों से ही दुःख पाता उसके बाद मुनि और वहां के वरिष्ठ ब्राह्मणों के बीच जो है। यदि मैं सर्प के समान विषैला होता हूं तो यह स्वाभाविक ही वार्ता-प्रसंग चला उसका संकलन सूत्रकार ने किया है। वार्ता के है कि लोग मुझे मारेंगे और यदि मैं अलसिए की तरह निर्विष माध्यम से ब्राह्मण-धर्म और निर्ग्रन्थ-प्रवचन का सार प्रतिपादित होता हूं तो कोई दूसरा मुझे क्यों सताएगा?" चिन्तन आगे बढ़ा। हुआ है। सर्वप्रथम ब्राह्मणकुमार मुनि की अवहेलना करते हैं जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। जाति-मद के विपाक का चित्र परन्तु अन्त में वे उनसे मार्ग-दर्शन लेते हैं। सामने आ गया। निर्वेद को प्राप्त हो उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। इस अध्ययन में निम्न विषयों पर चर्चा हुई हैमुनि हरिकेशबल श्रामण्य का विशुद्ध रूप से पालन करते हुए १. दान का अधिकारी -श्लोक १२ से १८ । तपस्या में लीन रहने लगे। तप के प्रभाव से अनेक यक्ष उनकी २. जातिवाद -श्लोक ३६ सेवा करने लगे। मुनि यक्ष-मन्दिर में कायोत्सर्ग, ध्यान आदि ३. यज्ञ -श्लोक ३८ से ४४। करते। एक बार वे ध्यानलीन खड़े थे। उस समय वाराणसी के ४. जल-स्नान -श्लोक ३८,४५,४६,४७। राजा कौशिक की पुत्री भद्रा यक्ष की पूजा करने वहां आई। पूजा बौद्ध-साहित्य में मातंग जातक (४६७) में यह कथा कर वह प्रदक्षिणा करने लगी। उसकी दृष्टि ध्यानलीन मुनि पर प्रकारांतर से मिलती है। जा टिकी। उनके मैले कपड़े देख उसे घृणा हो आई। आवेश में Jain Education Intemational Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमं अज्झयणं : बारहवां अध्ययन हरिएसिज्जं : हरिकेशीय २. मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. सोवागकुलसंभूओ श्वपाककुलसंभूतः चाण्डाल-कुल' में उत्पन्न, ज्ञान आदि उत्तम गुणों को गुणुत्तरधरो मुणी। उत्तरगुणधरो मुनिः। धारणा करने वाला, धर्म-अधर्म का मनन करने हरिएसबलो नाम हरिकेशबलो नाम वाला हरिकेशबल नामक जितेन्द्रिय भिक्षु था। आसि भिक्खू जिइंदिओ।। आसीद् भिक्षुर्जितेन्द्रियः ।। इरिएसणभासाए ईयैषणाभाषायां वह ईर्या, एषणा, भाषा, उच्चार, आदाननिक्षेपउच्चारसमिईसु य। उच्चारसमिती च। इन समितियों में सावधान था, संयमी और समाधिस्थ जओ आयाणनिक्खेवे यत आदाननिक्षेपे था। संजओ सुसमाहिओ।। संयतः सुसमाहितः।। ३. मणगुत्तो वयगुत्तो मनोगुप्तो वचोगुप्तः वह मन, वचन और काया से गुप्त और जितेन्द्रिय कायगत्तो जिइंदिओ। कायगुप्तो जितेन्द्रियः। था। वह भिक्षा लेने के लिए यज्ञ-मण्डप में गया, जहां भिक्खट्ठा बंभइज्जम्मि भिक्षार्थं ब्रह्मज्ये ब्राह्मण यज्ञ कर रहे थे। जन्नवाडं उवट्ठिओ।। यज्ञवाटे उपस्थितः।। ४. तं पासिऊणमेजंतं तं दृष्ट्वा आयन्तं वह तप से कृश हो गया था। उसके उपधि और तवेण परिसोसियं। तपसा परिशोषितम्। उपकरण प्रांत (जीर्ण और मलिन) थे। उसे आते पंतोवहिउवगरणं प्रान्त्योपध्युपकरणं देख, वे अनार्य (ब्राह्मण) हंसे। उवहसंति अणारिया।। उपहसत्यनार्याः ।। ५. जाईमयपडिथद्धा जातिमदप्रतिस्तब्धाः जातिमद से मत्त, हिंसक, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी हिंसगा अजिइंदिया। हिंसका अजितेन्द्रियाः। और अज्ञानी ब्राह्मणों ने परस्पर इस प्रकार कहा--- अबंभचारिणो बाला अब्रह्मचारिणो बालाः इमं वयणमब्बवी।। इदं वचनमब्रुवन् ।। ६. कयरे आगच्छइ दित्तरूवे कतर आगच्छति दृप्तरूपः वीभत्स रूप वाला, काला, विकराल, बड़ी नाक काले विगराले फोक्कनासे। कालो विकरालः 'फोक्क' नासः। वाला, अधनंगा, पांशु-पिशाच (चुड़ेल) सा, गले में ओमचेलए पंसुपिसायभूए अवमचेलकः पाशुपिशाचभूतः संकर-दूष्य (उकुरडी से उठाया हुआ चिथड़ा) डाले संकरदूसं परिहरिय कंठे?।। संकरदूष्यं परिधाय कण्ठे ?।। हुए वह कौन आ रहा है? ७. कयरे तुम इय अदंसणिज्जे कतरस्त्वमित्यदर्शनीयः ओ अदर्शनीय मूर्ति ! तुम कौन हो? किस आशा से काए व आसा इहमागओ सि। कया वाऽऽशयेहागतोऽसि ? यहां आए हो? अधनंगे तुम पांशु-पिशाच (चुड़ेल) से ओमचेलगा पंसुपिसायभूया अवमचेलकः पांशुपिशाचभूतः लग रहे हो। जाओ, आंखों से परे चले जाओ" ! यहां गच्छ क्खलाहि किमिहं ठिओसि?।। गच्छ ‘खलाहि' किमिह स्थितोसि?| क्यों खड़े हो? जक्खो तहिं तिंदुयरुक्खवासी यक्षस्तस्मिन् तिन्दुकरूक्षवासी उस समय महामुनि हरिकेशबल की अनुकंपा करने अणुकंपओ तस्स महामुणिस्स। अनुकम्पकस्तस्य महामुनेः । वाला तिन्दुक (आबनूस) वृक्ष का वासी यक्ष अपने पच्छायइत्ता नियगं सरीरं प्रच्छाद्य निजकं शरीरं शरीर का गोपन कर मुनि के शरीर में प्रवेश कर इस इमाइं वयणाइमुदाहरित्था।। इमानि वचनानि उदाहार्षीत्।। प्रकार बोला ८. Jain Education Intemational Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २१० अध्ययन १२ : श्लोक ६-१७ ६. समणो अहं संजओ बंभयारी श्रमणोऽहं संयतो ब्रह्मचारी "मैं श्रमण हूं, संयमी हूं, ब्रह्मचारी हूं, धन व विरओ धणपयणपरिग्गहाओ। विरतो धनपचनपरिग्रहात्। पचन-पाचन और परिग्रह से" विरत हूं। यह भिक्षा परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले परप्रवृत्तस्य तु भिक्षाकाले का काल है। मैं सहज निष्पन्न भोजन पाने के लिए अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि।। अन्नस्यार्थं इहाऽऽगतोस्मि।। यहां आया हूं।" १०.वियरिज्जइ खज्जइ भुज्जई य वितीर्यते खाद्यते भुज्यते च “आपके यहां पर यह बहुत सारा भोजन दिया जा अन्नं पभूयं भवयाणमेयं । अन्नं प्रभूतं भवतामेतत् । रहा है, खाया जा रहा है और भोगा जा रहा है।" जाणाहि मे जायणजीविणु ति जानीत मां याचना-जीविनमिति मैं भिक्षा-जीवी हूं,१७ यह आपको ज्ञात होना चहिए। सेसावसेसं लभऊ तवस्सी।। शेषावशेषं लभतां तपस्वी।। अच्छा ही है कुछ बचा भोजन इस तपस्वी को मिल जाए।" ११.उवक्खडं भोयण माहणाणं उपस्कृतं भोजनं ब्राह्मणानां (सोमदेव.-.) यहां जो भोजन बना है, वह केवल अत्तट्ठियं सिद्धिमिहेगपक्खं। आत्मार्थिकं सिद्धमिहैकपक्षम्। ब्राह्मणों के लिए ही बना है। वह एक-पाक्षिक हैन ऊ वयं एरिसमन्नपाणं न तु वयमीदृशमन्नपानं अब्राह्मण को अदेय है। ऐसा अन्न-पान" हम तुम्हें दाहामु तुझं किमिहं ठिओसि?|| दास्यामः तुभ्यं किमिह स्थितोऽसि?|| नहीं देंगे, फिर यहां क्यों खड़े हो? १२.थलेसु बीयाइ ववंति कासगा स्थलेषु बीजानि वपन्ति कर्षकाः (यक्ष-) “अच्छी उपज की आशा से२१ किसान जैसे तहेव निन्नेसु य आससाए। तथैव निम्नेषु चाऽऽशंसया। स्थल (ऊंची भूमि) में बीज बोते हैं, वैसे ही नीची भूमि एयाए सद्धाए दलाह मज्झं एतया श्रद्धया दद्ध्वं मह्यं में बोते हैं। इसी श्रद्धा से (अपने आपको निम्न भूमि आराहए पुण्णमिणं खु खेत्तं ।। आराधयत पुण्यमिदं खलु क्षेत्रम् ।। और मुझे स्थल तुल्य मानते हुए भी तुम) मुझे दान दो, पुण्य की आराधना करो। यह क्षेत्र है, बीज खाली नहीं जाएगा।" १३.खेत्ताणि अम्हं विइयाणि लोए क्षेत्राण्यस्माकं विदितानि लोके (सोमदेव-) “जहां बोए हुए सारे के सारे बीज उग जहिं पकिण्णा विरुहति पुण्णा। येषु प्रकीर्णानि विरोहन्ति पूर्णानि। जाते हैं, वे क्षेत्र इस लोक में हमें ज्ञात हैं। जो ब्राह्मण जे माहणा जाइविज्जोववेया ये ब्राह्मणा जातिविद्योपेताः जाति और विद्या से युक्त हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र ताइं तु खेत्ताइं सुपेसलाई।। तानि तु क्षेत्राणि सुपेशलानि।। हैं।"२३ १४.कोहो य माणो य वहो य जेसिं क्रोधश्च मानश्च वधश्च येषां (यक्ष-) "जिनमें क्रोध है, मान है, हिंसा है, झूठ है, मोसं अदत्तं च परिग्गहं च। मृषा अदत्तं च परिग्रहश्च। चोरी है और परिग्रह है—वे ब्राह्मण जाति-विहीन, ते माहणा जाइविज्जाविहणा ते ब्राह्मणा जातिविद्याविहीनाः विद्या-विहीन और पाप-क्षेत्र हैं।" ताइं तु खेत्ताइं सुपावयाई।। तानि तु क्षेत्राणि सुपापकानि।। १५.तुब्मेत्थ भो! भारधरा गिराणं यूयमत्र भो ! भारधरा गिरा "हे ब्राह्मणो ! इस संसार में तुम केवल वाणी का भार अट्ठ न जाणाह अहिज्ज वेए। अर्थं न जानीथाधीत्य वेदान्। ढो रहे हो। वेदों को पढ़कर भी उनका अर्थ नहीं उच्चावयाई मुणिणो चरंति उच्चावचानि मुनयश्चरन्ति जानते। जो मुनि उच्च और नीच घरों में भिक्षा के ताई तु खेत्ताई सुपेसलाई।। तानि तु क्षेत्राणि सुपेशलानि।। लिए जाते हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र हैं।" १६.अज्झावयाणं पडिकूलभासी अध्यापकानां प्रतिकूलभाषी (सोमदेव-) “ओ! अध्यापकों के प्रतिकल बोलने पभाससे किं तु सगासि अम्हं। प्रभाषसे किंतु सकाशेऽस्माकम्। वाले साधु ! हमारे समक्ष तू क्या बढ़-बढ़ कर बोल अवि एवं विणस्सउ अन्नपाणं अप्येतद् विनश्यतु अन्नपानं रहा है? हे निर्ग्रन्थ ! यह अन्न-पान भले ही सड न य णं दाहामु तुमं नियंठा !|| न च दास्यामः तुभ्यं निर्ग्रन्थ!|| कर नष्ट हो जाए किन्तु तुझे नहीं देंगे।" १७.समिईहि मज्झं सुसमाहियस्स समितिभिर्मह्यं सुसमाहिताय (यक्ष-) “मैं समितियों से समाहित, गुप्तियों से गुप्त गृत्तीहि गृत्तस्स जिइंदियस्स। गुप्तिभिर्गुप्ताय जितेन्द्रियाय। और जितेन्द्रिय हूं। यह एषणीय (विशुद्ध) आहार यदि जइ मे न दाहित्थ अहेसणिज्जं यदि मह्यं न दास्यथाऽथैषणीयं तुम मुझे नहीं दोगे, तो इन यज्ञों का आज तुम्हें क्या किमज्न जण्णाण लहित्य लाहं?|| किमद्य यज्ञानां लप्स्यध्वे लाभम् ?|| लाभ होगा?" Jain Education Intemational ation Intermational Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिकेशीय २११ अध्ययन १२ : श्लोक १८-२६ १८.के एत्थ खत्ता उवजोइया वा केऽत्र क्षत्रा उपज्योतिषा वा (सोमदेव-) “यहां कौन है क्षत्रिय,२६ रसोइया,२९, अज्झावया वा सह खंडिएहिं। अध्यापका वा सह खण्डिकैः । अध्यापक या छात्र, जो डण्डे से पीट, एड़ी का एयं दंडेण फलेण हंता एनं दण्डेन फलेन हत्वा प्रहार कर,२६ गलहत्था दे इस निर्ग्रन्थ को यहां से कंठम्मि घेतूण खलेज्ज जो णं?।। कण्ठे गृहीत्वा अपसारयेयुः?|| बाहर निकाले ?" १६.अज्झावयाणं वयणं सुणेत्ता अध्यापकानां वचनं श्रुत्वा अध्यापकों का वचन सुनकर बहुत से कुमार उधर उद्धाइया तत्थ बहू कुमारा। उद्धावितास्तत्र बहवः कुमाराः।। दौड़े। वहां आ डण्डों, बेतों और चाबुकों से उस ऋषि दंडेहि वित्तेहि कसेहि चेव दण्डैत्रैः कशैश्चैव को पीटने लगे। समागया तं इसि तालयंति।। समागतास्तमृर्षि ताडयन्ति।। २०.रन्नो तहिं कोसलियस्स धूया राज्ञस्तत्र कौशलिकस्य दुहिता राजा कौशलिक की सुन्दर पुत्री भद्रा यज्ञ-मण्डप में भद्द त्ति नामेण अणिंदियंगी। भद्रेति नाम्ना अनिन्दिताङ्गी। मुनि को प्रताड़ित होते देख क्रुद्ध कुमारों को शांत तं पासिया संजय हम्ममाणं तं दृष्ट्वा संयतं हन्यमानं करने लगी। कुद्धे कुमारे परिनिव्ववेइ।। क्रुद्धान् कुमारान् परिनिर्वापयति।। २१.देवाभिओगेण निओइएणं देवाभियोगेन नियोजितेन (भद्रा-) “राजाओं और इन्द्रों द्वारा पूजित यह वह दिन्ना मु रन्ना मणसा न झाया। दत्ताऽस्मि राज्ञा मनसा न ध्याता। ऋषि हैं, जिसने मेरा त्याग किया। देवता के अभियोग नरिंददेविंदऽभिवंदिएणं नरेन्द्रदेवेन्द्राभिवन्दितेन से प्रेरित होकर राजा द्वारा मैं दी गई, किन्तु जिसने जेणम्हि वंता इसिणा स एसो।। येनास्मि वान्ता ऋषिणा स एषः।। मुझे मन से भी नहीं चाहा।" २२.एसो हु सो उग्गतवो महप्पा एष खलु स उग्रतपा महात्मा _ “यह वही उग्र तपस्वी, महात्मा, जितेन्द्रिय, संयमी जिइंदिओ संजओ बंभयारी। जितेन्द्रियः संयतो ब्रह्मचारी। और ब्रह्मचारी है, जिसने मुझे स्वयं मेरे पिता राजा जो मे तया नेच्छा दिज्जमाणिं यो मां तदा नेच्छति दीयमानां कौशलिक द्वारा दिए जाने पर भी नहीं चाहा।" पिउणा सयं कोसलिएण रन्ना।। पित्रा स्वयं कौशलिकेन राजा।। २३.महाजसो एस महाणुभागो महायशा एष महानुभागः “यह महान् यशस्वी है। महान् अनुभाग (अचिन्त्य घोरव्वओ घोरपरक्कमो य। घोरव्रतो घोरपराक्रमश्च । शक्ति) से सम्पन्न है। घोर व्रती है। घोर पराक्रमी मा एयं हीलह अहीलणिज्जं मैनं हीलयताहीलनीयं है। इसकी अवहेलना मत करो, यह अवहेलनीय मा सव्वे तेएण भे निद्दहेज्जा।। मा सर्वान तेजसा भवतो निर्धाक्षीतः।। नहीं है। कहीं यह अपने तेज से तुम लोगों को भस्मसात् न कर डाले?" २४.एयाई तीसे वयणाइ सोच्चा एतानि तस्या वचनानि श्रुत्वा सोमदेव पुरोहित की पत्नी भद्रा के सुभाषित वचनों को पत्तीइ भद्दाइ सुहासियाई। पल्या भद्रायाः सुभाषितानि। सुनकर यक्षों ने ऋषि का वैयापृत्य' (परिचर्या) करने इसिस्स वेयावडियट्टयाए ऋषेयापृत्यार्थं के लिए कुमारों को भूमि पर गिरा दिया। जक्खा कुमारे विणिवाडयंति॥ यक्षाः कुमारान् विनिपातयन्ति।। २५.ते घोररूवा ठिय अंतलिक्खे ते घोररूपाः स्थिता अन्तरिक्षे घोर रूप और रौद्र भाव वाले यक्ष आकाश में स्थिर असुरा तहिं तं जणं तालयंति। असुरास्तत्र तं जनं ताडयन्ति। हो कर उन छात्रों को मारने लगे। उनके शरीरों को ते भिन्नदेहे रुहिरं वमते तान् भिन्नदेहान् रुधिरं वमतः क्षत-विक्षत और उन्हें रुधिर का वमन करते देख पासित्तु भद्दा इणमाहु भुज्जो।। दृष्ट्वा भद्रेदमाह भूयः ।। भद्रा फिर कहने लगी-- २६.गिरि नहेहिं खणह गिरि नखैः खनथ “जो तुम इस भिक्षु का अपमान कर रहे हो, वे तुम अयं दंतेहिं खायह। अयो दन्तैः खादथ। नखों से पर्वत खोद रहे हो, दांतों से लोहे को चबा जायतेयं पाएहि हणह जाततेजसं पादैर्हथ रहे हो और पैरों से अग्नि को प्रताड़ित कर रहे जे भिक्खुं अवमन्नह ।। ये भिक्षुमवमन्यध्वे।। हो।" २४.एयाई भाइ सुहालिए Jain Education Intemational ation Intermational Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २७. आसीविसो उग्गतवो महेसी घोरव्वओ घोरपरक्कमो य । अगणिं व पक्खंद पयंगसेणा जे भिक्खुयं भत्तकाले वहेह ।। २८. सीसेण एवं सरणं उदेह समागया सव्वजणेण तुम्मे । जइ इच्छह जीवियं वा धणं वा लोगं पि एसो कुविओ डहेज्जा ।। २६. अवहेडियपिट्ठसउत्तमंगे पसारियाबाहु अकम्मचेट्ठे । निब्मेरियच्छे रुहिरं वमंते उड्ढमुहे निग्गयजीहनेत्ते ।। ३०. ते पासिआ खंडिय कट्टभूए विमणो विसण्णो अह माहणो सो । इसि पसाएइ समारियाओ हीलं च निंदं च खमाह भंते ! ।। ३१. बालेहि मूढेहि अयाणएहिं जं हीलिया तस्स खमाह भंते! | महप्पसाया इसिणो हवंति न हु मुणी कोवपरा हवंति ।। ३२. पुव्विं च इहि च अणागयं च मणप्पदोसो न मे अत्थि कोइ । जक्खा हु वेयावडियं करेंति तम्हा हु एए निहया कुमारा ।। ३३. अत्यं च धम्मं च वियाणमाणा तुमे न वि कुप्पह भूइपन्ना । तुमं तु पाए सरणं उवेमो समागया सव्वजणेण अम्हे ।। ३४. अच्चेमु ते महाभाग ! न ते किंचि न अच्चिमो भुंजाहि सालिमं कूरं नाणावं जणसंजुयं ।। ३५. इमं च मे अस्थि पभूयमन्नं तं भुंजसु अम्ह अणुग्गहट्ठा । बाढं ति पडिच्छद् भत्तपाण मासस्स ऊ पारणए महप्पा || २१२ आशीविष उग्रतपा महर्षिः घोरव्रतो घोरपराक्रमश्च । अग्निमिव प्रस्कन्दथ पतङ्गसेना ये भिक्षुकं भक्तकाले विध्यथ ।। शीर्षेणैनं शरणमुपेत समागताः सर्वजनेन यूयम् । यदीच्छथ जीवितं वा धनं वा लोकमध्ये कुपितो दहेत् ॥ अनहेटित-पृष्ठ- सबुत्तमाङ्गान् प्रसारितबावकर्मचेष्टान् । प्रसारिताक्षान् रुधिरं वमतः ऊर्ध्वमुखान् निर्गतजिह्वानेत्रान् ।। तान् दृष्ट्या खण्डिकान् काष्ठभूतान् विमना विषण्णोऽथ ब्राह्मणः सः । ऋषि प्रसादयति सभार्याकः हीलां च निन्दां च क्षमस्वभदन्त ! | बाले रशके यद् हीलितास्तत्क्षमस्व भदन्त ! | महाप्रसादा ऋषयो भवन्ति न खलु मुनयः कोपपरा भवन्ति ।। पूर्वं चेदानीं चानागतं च मनःप्रदोषो न मेऽस्ति कोऽपि । यक्षाः खलु वैयापृत्यं कुर्वन्ति तस्मात् खलु एते निहताः कुमाराः ।। अर्थं च धर्मं च विजानन्तः यूयं नापि कुप्यथ भूतिप्रज्ञाः । युष्माकं तु पावी शरणमुपेम समागताः सर्वजनेन वयम् ।। अर्चयामस्ते महाभाग ! न ते किंचिन्नार्चयामः । भुङ्क्ष्व शालिमत् कूरं नानाव्यञ्जनसंयुतम् ।। इयं च मेऽस्ति प्रभूतमन्न तद् मुख्यवास्माकमनुग्रहार्थ। बाढमिति प्रतीच्छति भक्तपानं मासस्य तु पारणके महात्मा ।। अध्ययन १२ : श्लोक २७-३५ "यह महर्षि आशीविष लब्धि से सम्पन्न है । २२ उग्र तपस्वी है। घोर व्रती और घोर पराक्रमी है। भिक्षा के समय तुम इस भिक्षु को व्यथित कर पतंग सेना की भांति अग्नि में झंपापात कर रहे हो।" “यदि तुम जीवन और धन चाहते हो तो सब मिलकर, सिर झुका कर इस मुनि की शरण में आओ । कुपित होने पर यह समूचे संसार को भस्म कर सकता है।"३४ उन छात्रों के सिर पीठ की ओर झुक गए। उनकी भुजाएं फैल गई । वे निष्क्रिय हो गए। उनकी आंखें खुली की खुली रह गईं। उनके मुंह से रुधिर निकलने लगा। उनके मुंह ऊपर को हो गए। उनकी जीभें और नेत्र बाहर निकल आए। उन छात्रों को काठ की तरह निश्चेष्ट देख कर वह सोमदेव ब्राह्मण उदास और घबराया हुआ अपनी पत्नी सहित मुनि के पास आ उन्हें प्रसन्न करने लगा- "भंते! हमने जो अवहेलना और निन्दा की उसे क्षमा करें।" "भंते! मूढ़ बालकों ने अज्ञानवश जो आपकी अवहेलना की, उसे आप क्षमा करें। ऋषि महान् प्रसन्नचित्त होते हैं। मुनि कोप नहीं किया करते।” (मुनि) "मेरे मन में कोई प्रद्वेष न पहले था, न अभी है और न आगे भी होगा किंतु पक्ष मेरा वैयापृत्य कर रहे हैं। इसीलिए ये कुमार प्रताड़ित हुए।" (सोमदेव) "अर्थ" और धर्म को जानने वाले भूति - प्रज्ञ ( मंगल- प्रज्ञा युक्त) आप कोप नहीं करते। इसलिए हम सब मिल कर आपके चरणों की शरण ले रहे हैं।" “महाभाग ! हम आपकी अर्चा करते हैं। आपका कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसकी हम अर्चा न करें। आप नाना व्यंजनों से युक्त चावल- निष्पन्न भोजन ले कर खाइए।" "मेरे यहां प्रचुर भोजन" पड़ा है। हमें अनुगृहीत करने के लिए आप कुछ खाएं।" महात्मा हरिकेशबल ने हां भर ली और एक मास की तपस्या का पारणा करने के लिए भक्त पान लिया। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्मितस्मिन् सुरैः हरिकेशीय २१३ अध्ययन १२ : श्लोक ३७-४४ ३६.तहियं गंधोदयपुष्फवासं तस्मिन् गन्धोदकपुष्पवर्षः देवों ने वहां सुगन्धित जल, पुष्प और दिव्य धन की दिव्वा तहिं वसुहारा य वुट्ठा। दिव्या तस्मिन् वसुधारा च वृष्टा। वर्षा की। आकाश में दुन्दुभि बजाई और 'अहोदानम्' पहयाओ दुंदुहीओ सुरेहिं प्रहता दुन्दुभयः सुरैः (आश्चर्यकारी दान)-इस प्रकार का घोष किया। आगासे अहो दाणं च घुट्ठ।। आकाशेऽहोदानं च घुष्टम् ।। ३७.सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो साक्षात् खलु दृश्यते तपोविशेषः । यह प्रत्यक्ष ही तप की महिमा दीख रही है, जाति की न दीसइ जाइविसेस कोई। न दृश्यते जातिविशेषः कोऽपि।। कोई महिमा नहीं है। जिसकी ऋद्धि ऐसी महान् सोवागपुत्ते हरिएससाहू श्वपाकपुत्रं हरिकेशसाधु (अचिन्त्य शक्ति-सम्पन्न) है, वह हरिकेश मुनि चाण्डाल जस्सेरिसा इड्डि महाणुभागा।। यस्येदृशी ऋद्धिर्महानुभागा।। का पुत्र है। ३८.किं माहणा! जोइसमारभंता किं ब्राह्मणा ! ज्योतिः समारभमाणाः (मुनि-) "ब्राह्मणो! अग्नि का समारम्भ (यज्ञ) करते उदएण सेहि बहिया विमग्गा?। उदकेन शुद्धिं बाह्यां विमार्गयथा हुए तुम बाहर से (जल से) शुद्धि की क्या २ मांग जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं यद् मार्गयथ बाह्यां विशुद्धि कर रहे हो? जिस शुद्धि की बाहर से मांग कर रहे न तं सुदिळं कुसला वयंति।। न तत् सुदृष्टं कुशला वदन्ति।। हो, उसे कुशल लोग*३ सुदृष्ट (सम्यग्दर्शन) नहीं कहते।" ३६.कुसं च जूवं तणकट्ठमगि कुशं च यूपं तृणकाष्ठमग्नि "दर्भ, यूप (यज्ञ-स्तम्भ), तृण, काष्ठ और अग्नि का सायं च पायं उदगं फुसंता। सायं च प्रातरुदकं स्पृशन्तः। उपयोग करते हुए, संध्या और प्रातःकाल में जल का पाणाइ भूयाइ विहेडयंता प्राणान् भूतान् विहेठयन्तः स्पर्श करते हुए, प्राणों ओर भूतों की हिंसा करते हुए, भुज्जो वि मंदा! पगरेह पावं।। भूयोऽपि मन्दाः प्रकुरुथ पापम् ।। मंदबुद्धि वाले तुम बार-बार पाप करते हो।” । ४०.कहं चरे? भिक्खु ! वयं यजामो? कथं चरामो ? भिक्षो ! वयं यजामः? (सोमदेव-) "हे भिक्षो! हम कैसे प्रवृत्त हों? यज्ञ पावाइ कम्माइ पणोल्लयामो?। पापानि कर्माणि प्रणुदामः?/ कैसे करें ? जिससे पाप-कर्मों का नाश कर सकें। अक्खाहि णे संजय ! जक्खड्या! आख्याहि नः संयत ! यक्षपूजित ! यक्ष-पूजित संयत ! आप हमें बताएं-कुशल पुरुषों कह सुजठं कुसला वयंति?।। कथं स्विष्टं कुशला वदन्ति?/ ने सुइष्ट (श्रेष्ठ-यज्ञ) का विधान किस प्रकार किया है ?" ४१.छज्जीवकाए असमारभंता षड्जीवकायानसमारभमाणाः (मुनि-) “मन और इन्द्रियों का दमन करने वाले मोसं अदत्तं च असेवमाणा। मृषा अदत्तं चासेवमानाः। छह जीव-निकाय की हिंसा नहीं करते; असत्य और परिग्गहं इत्थिओ माणमायं परिग्रहं स्त्रियो मानं मायां चौर्य का सेवन नहीं करते; परिग्रह, स्त्री, मान और एयं परिन्नाय चरंति दंता।। एतत् परिज्ञाय चरन्ति दान्ताः।। माया का परित्याग करके विचरण करते हैं।" ४२.सुसंवुडो पंचहिं संवरेहिं सुसंवृतः पञ्चभिः संवरैः "जो पांच संवरों से सुसंवृत होता है, जो असंयम इह जीवियं अणवकंखमाणो। इह जीवितमनवकांक्षमाणः। जीवन की इच्छा नहीं करता, जो काय का व्युत्सर्ग वोसट्ठकाओ सुइचत्तदेहो व्युत्सृष्टकायः शुचित्यक्तदेहः करता है, जो शुचि है और जो देह का त्याग करता महाजय जयई जन्नसिटूठं।। महायजं यजते यज्ञश्रेष्ठम्।। है, वह यज्ञों में श्रेष्ठ महायज्ञ ६ करता है।" ४३.के ते जोई? के व ते जोडठाणे? किं ते ज्योतिः? किंवा ते ज्योतिरथानं? (सोमदेव-) “भिक्षो! तुम्हारी ज्योति---अग्नि कौन-सी को ते सया? किंव ते कारिसंगं ?। कारसुवः ? किंवा ते करीषागम् ?। है? तुम्हारा ज्योति-स्थान (अग्नि-स्थान) कौन-सा एहा य ते कयरा? संति? भिक्ख! एधाश्च ते कतराः? शांतिः ? भिक्षो! है? तुम्हारे घी डालने की करछियां कौन-सी हैं ? कयरेण होमेण हुणासि जोइं?|| कतरेण होमेन जुहोषि ज्योतिः?|| तुम्हारे अग्नि को जलाने के कण्डे कौन-से हैं ? तुम्हारे ईंधन और शांति-पाठ कौन-से हैं ? और किस होम से तुम ज्योति को हुत (प्रीणित) करते हो?" ४४. तवो जोइ जीवो जोइठाणं तपोज्योतिर्जीवो ज्योतिःस्थानं (मुनि) “तप ज्योति है। जीव ज्योति-स्थान है। योग जोगा सुया सरीरं कारिसंग। योगा: श्रुवः शरीरं करीषाङ्गम्। (मन, वचन और काया की सत् प्रवृत्ति) घी डालने की कम्म एहा संजमजोगसंती कर्मेधाः संयमयोगाः शांतिः करछियां हैं। शरीर अग्नि जलाने के कण्डे हैं। कर्म होमं हुणामी इसिणं पसत्यं ।। होमं जुहोमि ऋषीणां प्रशस्तम्।। ईंधन है। संयम की प्रवृत्ति शांति-पाठ है। इस प्रकार मैं ऋषि-प्रशस्त (अहिंसक) होम करता हूं।" HTHEHATAR Jain Education Intemational Education International For Private & Personal use only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २१४ अध्ययन १२ : श्लोक ४५-४७ ४५.के ते हरए ? के य ते सतितित्थे ? कस्ते हृदः ? किंच ते शांतितीर्थ? (सोमदेव-) “आपका नद (जलाशय) कौन सा है ? कर्हिसि पहाओ व रयं जहासि? कस्मिन् स्नातो वा रजो जहासि?। आपका शान्तितीर्थ कौन-सा है? आप कहां नहा आइक्ख णे संजय! जक्खपूइया! आचक्ष्व नः संयत ! यक्षपूजित ! कर कर्मरज धोते हैं ? हे यक्ष-पूजित संयत ! हम इच्छामो नाउं भवओ सगासे।। इच्छामो ज्ञातुं भवतः सकाशे।। आपसे जानना चाहते हैं, आप बताइए।" ४६.धम्मे हरए बंभे संतितित्थे धर्मो इदः ब्रह्म शांतितीर्थ (मुनि-) “अकलुषित एवं आत्मा का प्रसन्न-लेश्या अणाविले अत्तपसन्नलेसे। अनाविल आत्मप्रसन्नलेश्यः। वाला धर्म मेरा इद (जलाशय) है। ब्रह्मचर्य मेरा जहिंसि पहाओ विमलो विसुद्धो यस्मिन् स्नातो विमलो विशुद्धः शांतितीर्थ है, जहां नहा कर मैं विमल, विशुद्ध और सुसीइभूओ पजहामि दोसं।। सुशीतीभूतः प्रजहामि दोषम् ।।। सुशीतल होकर कर्म-रज का त्याग करता हूं।"५१ ४७.एयं सिणाणं कुसलेहि दिह्र एतत्स्नानं कुशलैर्दृष्टं “यह स्नान कुशल पुरुषों द्वारा दृष्ट है। यह महास्नान महासिणाणं इसिणं पसत्थं। महास्नानमृषीणां प्रशस्तम्। है।२ अतः ऋषियों के लिए यही प्रशस्त है। इस जर्हिसि ण्हाया विमला विसुद्धा यस्मिन् स्नाता विमला विशुद्धाः धर्म-नद में नहाए हुए महर्षि विमल और विशुद्ध महारिसी उत्तम ठाण पत्त।। महर्षय उत्तमं स्थान प्राप्ताः।। होकर उत्तम-स्थान (मुक्ति) को प्राप्त हुए।" —त्ति बेमि। --इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन १२: हरिकेशीय १. चाण्डाल कुल (सोवागकुल) वाले को आर्य और अधर्म-आचरण करने वाले को अनार्य कहा बृहद्वृत्ति के अनुसार 'श्वपाक' का अर्थ चाण्डाल है। जाने लगा। ब्राह्मणों को यहां आचरण की दृष्टि से अनार्य कहा है। चूर्णिकार के अनुसार जिस कुल में कुत्ते का मांस पकाया जाता ६. बीभत्स रूप वाला (दित्तरूवे) है, वह 'श्वपाक-कुल' कहलाता है। श्वपाक-कुल की तुलना 'दित्तरूवे'—इसके संस्कृत रूप दो होते हैं-दीप्तरूप वाल्मीकि रामायण में वर्णित मुष्टिक लोगों से होती है। वे और दृप्तरूप। दीप्त के अनेक अर्थ हैं----भास्वर, तेजस्वी, श्वानमांस-भक्षी, शव के वस्त्रों का उपयोग करने वाले, कांतियुक्त आदि। दृप्त के अर्थ हैं-गर्वयुक्त, बीभत्स, डरावना भयंकर-दर्शन-विकृत आकृति वाले तथा दुराचारी होते थे। आदि । प्रस्तुत प्रसंग में यह शब्द 'दृप्तरूप' बीभत्स रूप वाला के २. (मुणी) अर्थ में प्रयुक्त है। चूर्णिकार के अनुसार धर्म-अधर्म का मनन करने वाला चूर्णिकार ने 'दीप्तरूप' के दो अर्थ किए हैं-अदीप्तरूप मुनि होता है। बृहद्वृत्तिकार ने सर्व विरति की प्रतिज्ञा लेने वाले अथवा पिशाच की भांति विकृत दीप्तरूप। वृत्तिकार ने 'दीप्त' को मुनि कहा है। शब्द को बीभत्स वाचक माना है। जिस प्रकार अत्यन्त जलने ३. हरिकेशबल (हरिएसबलो) वाले फोड़ों के लिए 'शीतल' (शीतला का रोग) शब्द का व्यवहार मुनि का नाम 'बल' था और 'हरिकेश' उनका गोत्र था। होता है, उसी प्रकार विकृत दुर्दर्शरूप वाले के लिए 'दीप्तरूप' का नाम के पूर्व गोत्र का प्रयोग होता था, इसलिए वे 'हरिकेशबल' प्रयाग हुआ है।" नाम से प्रसिद्ध थे। ७. बड़ी नाक वाला (फोक्कनासे) ४. (पंतोवहिठवगरणं) _ 'फोक्क' देशी शब्द है। इसका अर्थ है-आगे से मोटा इसमें तीन शब्द हैं—प्रान्त्य, उपधि और उपकरण। प्रान्त्य ' और उभरा हुआ।२ हरिकेशबल की नाक ऐसी ही थी। का अर्थ है-जीर्ण और मलिन। जो वस्त निम्नकोटि की होती ८. अधनंगा (ओमचेलए) है, उसे प्रान्त्य या प्रान्त कहा जाता है। यहां यह उपधि और ओमचेल का अर्थ 'अचेल' भी हो सकता है। किन्तु यहां उपकरण से संबद्ध है। उपधि का अर्थ है--साध के रखने इसका अर्थ-अल्प या जीर्ण वस्त्र वाला है।३ योग्य वस्त्र आदि। ये धार्मिक शरीर का उपकार करते हैं, ९. पांशु-पिशाच (चुडेल) सा (पंसुपिसायभूए) इसलिए इन्हें उपकरण कहा जाता है। लौकिक मान्यता के अनुसार पिशाच के दाढ़ी, नख ५. अनार्य (अणारिया) और रोंए लम्बे होते हैं और वह धूल से सना हुआ होता अनार्य शब्द मूलतः जातिवाचक था। किन्तु अर्थ-परिवर्तन है। मुनि भी शरीर की सार-सम्हाल न करने और धूल से होते-होते वह आचरणवाची बन गया। उत्तम-आचरण करने सने हुए होने के कारण पिशाच जैसे लगते थे।" पांशुपिशाच १. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५७ : श्वपाकाः-चाण्डालाः। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०३ : शयति श्वसिति वा श्वा श्वेन पचतीति श्वपाकः। ३. वाल्मीकि रामायण, ११५६१६,२०। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०३ : मनुते मन्यते वा थाऽधानिति ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५७ : मुणति-प्रतिजानीते सर्वविरतिमिति मुणिः। ६. वही, पत्र ३५७ : हरिकेशः सर्वत्र हरिकेशतयैव प्रतीतो बलो नाम- बलाभिधानः। ७. वही, पत्र ३५८ : प्रान्तं-जीर्णमलिनत्वादिभिरसारम्। ८. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०४ : उपदधाति तीर्थ उपथिः, उपकरोतीत्युपकरणम्। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३५८ : उपधिः-वर्षाकल्पादिः स एव व उपकरणं धर्मशरीरोपष्टम्भहेतुरस्येति। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५८ । १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०४ : दित्तरूवे त्ति, दीप्तरूपं प्रकारवचनं, अदीप्तरूप इत्यर्थः, अथवा विकृतेन दीप्तरूपो भवति पिशाचवत्। ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५८ : दीप्तवचनं त्वतिबीभत्सोपलक्षकम् । अत्यन्तदाहिषु स्फोटकेषु शीतलकव्यपदेशवत, विकृततया वा दुर्दशमिति दीप्तमिव दीप्तमुच्यते। १२. वही, पत्र ३५८ : फोक्क त्ति देशीपदं, ततश्च फोक्का-अग्रे स्थूलोन्नता। १३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०४ : ओमं नाम स्तोक, अचेलओ वि ओमचेलओ भवति, अयं ओमचेलगो असर्वांगप्रावृतः जीर्णवासो वा। १४. बृहवृत्ति, पत्र ३५६ : पांशुना-रजसा पिशाचवद् भूतो-जातः पांशुपिशाचभूतः, गमकत्वात्समासः, पिशाचो हि लौकिकानां दीर्घश्मश्रुनखरोमा पुनश्च पांशुभिः समविध्वस्त इष्टः, ततःसोऽपि निष्परिकर्मतया रजोदिग्धदेहतया चैवमुच्यते। Jain Education Intemational Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २१६ अध्ययन १२ :श्लोक ६-१०टि०१०-१७ का अर्थ चुड़ेल भी है। करता था, जो चेष्टाएं कीं, वे इस श्लोक में बताई गई हैं। मुनि १०. (संकरदूसं परिहरिय) जहां-जहां जाते वह यक्ष अदृश रूप में सदा उनके साथ रहता। इसका अर्थ है-गले में संकर-दूष्य (उकुरड़ी से उठाया चूर्णिकार के अनुसार आबनूस का एक वन था। उसके हुआ चिथड़ा) डाले हुए। संकर का अर्थ है-तृण, धूल, राख, बीच में एक बड़ा आबनूस का वृक्ष था। उस पर वह यक्ष गोबर आदि कूड़े-कर्कट का ढेर, उकुरड़ी। वहां वे ही वस्त्र निवास करता था। उसके नीचे चैत्य था। मुनि उसमें ध्यान करते डाले जाते हैं जो अत्यन्त निकृष्ट एवं अनपयोगी होते हैं। मनि थे।" के वस्त्र भी वैसे ही थे या वे फेंकने योग्य वस्त्रों को भी ग्रहण १४. (समणो संजओ बंभयारी) करते थे, इसलिए उनके दूष्य (वस्त्र) को 'संकर-दूष्य' कहा मैं श्रमण हूं, संयमी हूं, ब्रह्मचारी हूं। श्रमण वही होता है गया है। जो संयत है। संयत वही होता है जो ब्रह्मचारी है। इस प्रकार मुनि अभिग्रहधारी थे। जो अभिग्रहधारी होते हैं वे अपने इन तीनों शब्दों में हेतु-हेतुमद्भाव सम्बन्ध है। वस्त्रों को जहां जाते हैं वहां साथ ही रखते हैं, कहीं पर भी १५. धन व पचन-पाचन और परिग्रह से (घणपयणपरिग्गहाओ) छोड़कर नहीं जाते। इसलिए उनके वस्त्र भी उनके साथ ही थे। गाय आदि चतुष्पद प्राणियों को धन कहते हैं।" राजस्थान वस्त्र मुनि के कन्धे पर रखे हुए थे। कन्धा कण्ठ का में अब भी यह शब्द इस अर्थ में प्रचलित है। चूर्णिकार पार्श्ववर्ती भाग है। इसलिए उसे कण्ठ ही मान कर यहां कण्ठ ने परिग्रह का अर्थ स्वर्ण आदि किया है। शान्त्याचार्य के शब्द का प्रयोग हुआ है।' अनुसार इसका अर्थ द्रव्य आदि में होने वाली मूर्छा-ममत्व _ 'परिहर' यह पहनने के अर्थ में आगमिक धातु है। ११. (खलाहि) १६. खाया जा रहा है और भोगा जा रहा है (खज्जइ भुज्जई) यह देशीपद है। चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं"- यहां खाद और भुज् दो धातुओं का प्रयोग हुआ है। १. 'चला जा'—ऐसा तिरस्कारयुक्त गमन का निर्देशवचन। सामान्यतः इन दोनों का प्रयोग खाने के अर्थ में होता है, किन्तु २. इस स्थान से हट जा। इनमें अर्थ-भेद भी है। चूर्णि के अनुसार खाद्य खाया जाता है वत्तिकार ने केवल दसरा अर्थ ही माना है। इसका तात्पर्य और भोज्य भोगा जाता है। है-हमारी आंखों के सामने से हट जा। बृहद्वृत्ति के अनुसार 'खाजा' आदि तले हुए पदार्थ खाद्य १२. अनुकम्पा करने वाला (अणुकंपओ) हैं और दाल-चावल आदि पदार्थ भोज्य कहलाते हैं।" अनुकम्पा का अर्थ है---अनुरूप या अनुकूल क्रिया की १७. भिक्षा-जीवी हूं (जायणजीविणु) प्रवृत्ति । यक्ष मुनि के प्रति आकृष्ट था, उनके अनुकूल प्रवर्तन इसका संस्कृत रूप 'याचनजीवनम्' या 'याचनजीविनम्' करता था, इसलिए उसे 'अनुकम्पक' कहा गया है। बनता है। जहां 'याचनजीवनम्' माना जाए वहां प्राकृत में जो १३. तिन्दुक (आबनूस) वृक्ष का वासी (तिंदुयरुक्खवासी) इकार है, वह अलाक्षणिक माना जाए। इसका अर्थ है-याचना ब्राह्मणों ने मुनि का तिरस्कार किया किन्तु वे कुछ भी के द्वारा जीवन चलाने वाला। इसका वैकल्पिक रूप नहीं बोले, शांत रहे। उस समय आबनूस वृक्ष पर रहने वाले याचनजीविनम्' है। इसके प्राकृत रूप में द्वितीया विभक्ति के यक्ष ने, जो मुनि के तप से आकृष्ट हो मुनि का अनुगमन अर्थ में षष्टी विभक्ति है। याचन-जीवी अर्थात् याचना से १, वृहद्वृत्ति, पत्र ३५६ : 'संकरे' ति सकरः, स चेह प्रस्तावात्तृणभस्म- गोमयागारदिमीलक उवकुरुडिकेति यावत, तत्र दुष्यं-वस्त्रं संकरदुष्यं, तत्र हि यदत्यन्तनिकृष्ट निरुपयोगि तल्लीकैरुत्सृज्यते, ततस्तत्प्रायमन्यदपि तथोक्तं, यद्वा उज्झितधर्मकमेवासी गृह्यतीत्येवमभिधानम्। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०४ : स भगवान् अनिक्षिप्तोपकरणत्वात् यत्र यत्र गच्छति तत्र तत्र तं पंतोवकरणं कंठे ओलंबेत्तुं गच्छद। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५६ : अत्र कण्टैकपार्श्वः कण्ठशब्दः । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०४ : खलाहि—स्खल इति परिभवगमननिर्देशः, तद यथा---खलयस्सा उच्छज्जा अथवा अवसर अस्मात् स्थानात। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५९ : खलाहि नि देशीपदमपसरेत्यर्थे वर्त्तते ततोऽयमर्थ: अस्मद् दृष्टिपथदपसर। (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३५६ : 'अणुकंपउ' त्ति अनुशब्दोऽनुरूपाथै ततश्चानुरूपं कम्पते-चेष्टत इत्यनुकम्पकः----अनुरूपक्रियाप्रवृत्तिः। (ख) सुखबोधा, पत्र १७६ : 'अनुकम्पकः'-अनुकूलक्रियाप्रवृत्तिः। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५९ : एवमधिक्षिप्तेऽपि तस्मिन भुनी प्रशमपरतया किञ्चिदप्यजल्पति तत्सान्निध्यकारी गण्डीतिन्दुकयक्षो यदचेष्टत तदाह। ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०४ : स च भगवान् यत्र यत्र गच्छति तत्र तत्रांतर्हितो भूत्वा स यक्षः तेन्दुकवृक्षवासी तमनुगच्छति। ६. वही, पृ० २०४-२०५ : तस्स तिंदुगठाणस्स मज्झे महतो तिदुगरक्खो, तहिं सो भवति वसति, तस्सेव हिट्ठा चेइय, जत्थ सो साह ठितो, सव्वतेण उद्वितो। १०. वही, पृ० २०५ : कः श्रमणः?, यः संयतः। कः संयतः?, यो ब्रह्मचारी। ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० : धनं चतुष्पदादि। १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०५ : परिग्रहो-हिरण्णादि । १३. बावृत्ति, पत्र ३६० : परिग्रहो द्रव्यादिपु मूर्छा। १४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०५ : खाइम खज्जति वा भोज्ज अँजति। १५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० : खाद्यते खण्डखाद्यादि, भुज्यते च भक्तसूपादि। Jain Education Intemational Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिकेशीय २१७ अध्ययन १२ : श्लोक ११-१७टि०१५-२५ जीवन चलाने के स्वभाव वाला। 'जायणजीविण' का पाठांतर है २२. जाति और विद्या से युक्त (जाइविज्जोववेया) 'जायण जीवण'। इसमें प्रथमा विभक्ति है।' चूर्णिकार ने 'विज्जा' का अर्थ वेद किया है। उनका १८. कुछ बचा भोजन (सेसावसेस) अभिमत है कि यहां छंद रचना की दृष्टि से वेद के स्थान पर चूर्णि के अनुसार इसका अर्थ है—खा लेने के बाद बचा विज्जा का प्रयोग किया है। हुआ भोजन। वृत्ति में इसका अर्थ है—काम में ले लेने के २३. पुण्य-क्षेत्र हैं (सपेसलाई) पश्चात् शेष में बचा-खुचा अर्थात् अन्तप्रांत भोजन। अन्तप्रांत सुपेशल का अर्थ श्रेष्ट या प्रीतिकर किया गया है। किन्तु का एक अर्थ तुच्छ भोजन भी होता है।' यह ‘सुपावयाई' (श्लोक १४) का प्रतिपक्षी है, इसलिए हमने १९. एकपाक्षिक (एगपक्खं) इसका अनुवाद 'पुण्य' किया है। यज्ञ का भोजन केवल ब्राह्मणों को दिया जा सकता है। वह यज्ञवाट के ब्राह्मणों ने मुनि हरिकेश से कहा ब्राह्मण ब्राह्मणेतर जातियों को नहीं दिया जा सकता, शूद्रों को तो दिया ही ही श्रेष्ठ क्षेत्र हैं। तुम शूद्र जाति के हो, इसीलिए वेद आदि नहीं जा सकता। इस मान्यता के आधार पर उसे 'एकपाक्षिक' चौदह विद्याओं से बहिर्भूत हो। तुम दानपात्र नहीं हो सकते। कहा गया है।" कहा हैचूर्णिकार ने यहां एक प्राचीन श्लोक उद्धृत कर शूद्रों के सममबाह्मणे दान, द्विगुणं बाबन्धुषु। प्रति किए जाने वाले व्यवहार का निर्देश किया है' सहस गुणमाचार्य, अनन्तं वेदपारगे।' 'न शूद्राय बलिं दद्यात्, नोच्छिष्टं न हवि:कृतम्। -अब्राह्मण को दिया गया दान समफल वाला, ब्राह्मण को न चास्योपदिशेद् धर्म, न चास्य व्रतमादिशेत् ॥' दिया गया दान दुगुने फल वाला, आचार्य को दिया गया दान शूद्र व्यक्ति को न बलि का भोजन दिया जाए, न सहसगुण फल वाला और वेद के पारगामी विद्वान् को दिया गया उच्छिष्ट भोजन और न आहुतिकृत भोजन ही दिया जाए। उसे दान अनन्त फल वाला होता है। धर्म का उपदेश भी नहीं देना चाहिए और व्रत भी नहीं दिलाना बृहद्वृत्ति में यही श्लोक कुछ पाठभेद से प्राप्त है।१० चाहिए। २४. उच्च और नीच घरों में (उच्चावयाई) २०. पान (पाणं) 'उच्चावयाइ' के संस्कृत रूप दो बन सकते हैं-उच्चावचानि यह शब्द सामान्य पानी के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। इसका और उच्चव्रतानि। 'उच्चावच' का अर्थ-ऊंच-नीच घर या नाना अर्थ है-द्राक्षापान आदि पानक। सोलहवें श्लोक में प्रयुक्त प्रकार के तप । उच्चव्रत अर्थात् दूसरे व्रतों की अपेक्षा से महान् 'पान' का अर्थ है-कांजि आदि। व्रत—महाव्रत।" मुनि ऊंच-नीच घरों में भिक्षा के लिए भ्रमण देखें-दसवेआलियं ५।१।४७ का टिप्पण। करते हैं अथवा नाना प्रकार के तपों और महाव्रतों का आचरण २१. आशा से (आससाए) करते हैं। जो अधिक वर्षा होगी तो ऊंची भूमि में अच्छी उपज होगी २५. आज (अज्ज) और कम वर्षा होगी तो नीची भूमि में अच्छी उपज होगी– इस इसके संरकृत रूप दो बनते हैं और अर्थ भी दो हैं—१२ आशा से किसान ऊंची और नीची भूमि में बीज बोते हैं। अज्ज-अद्य-आज। (ख) १९५४ बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० : 'जायणजीविणो' त्ति याचनेन जीवनं- ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०६ : जननं जायते वा जातिः, वेद्यतेऽनेनेति प्राणधारणमस्येति याचनजीवनं, आर्षत्चादिकारः, पठ्यते च—'जायणजीवणो' वेदः, वेदउपवेत्ता, बन्धानुलोम्यात् विज्जोववेया। त्ति, इतिशब्द: स्वरूपपरामर्शकः, तत एवं स्वरूपं, यतश्चैवमतो मह्यमपि ८. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०६ : सुपेसलाणि...... शोभनं प्रीतिकरं वा। ददध्यमिति भावः, कदाचिदुत्कृष्टमेवासी याचत इति तेषामाशयः स्यादत (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३६०। आह, अथवा जानीत मां यायनजीविनं-याचनेन जीवनशीलं, द्वितीयार्थे ६ उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०६। षष्ठी, पाठान्तरे तु प्रथमा। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६१ : २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०५ : सेसावसेसं—यदत्र भुक्तशेष । सममश्रोत्रिये दानं, द्विगुणं ब्राह्मणब्रुवे। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० : शेषावशेषम् - उद्धरितस्याप्युद्धरितम, अन्तप्रांत- सहस्त्रगुणमाचार्ये अनन्तं वेदपारगे।। मित्यर्थः। ११. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०६ : उच्चावचं नाम नानाप्रकार, ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०५ : एगपक्खं नाम नाब्राह्मणेभ्यो दीयते। नानाविधानि तपांसि, अहवा उच्चावयानि शोभनशीलानि । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० : एकः पक्षो-ब्राह्मणलक्षणो यस्य तदेकपक्ष, (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३६२-३६३ : उच्चावयाई त्ति उच्चावयानिकिमुक्त भवति?-यदस्मिन्नुपस्क्रियते न तद् ब्राह्मणव्यतिरिक्ता उत्तमाधमानि मुनयश्चरन्ति भिक्षानिमित्तं पर्यटन्ति गृहाणि,.... यान्यस्मै दीयते विशेषतस्तु शूद्राय। यदिवोच्चावचानि-विकृष्टाविकृष्ट तया नानाविधानि, तपासीति ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०५। गम्यते, उच्चव्रतानि वा शेषव्रतापेक्षया महाव्रतानि।। ६. बृहवृत्ति, पत्र ३६१ : 'आससाए' त्ति आशंसया-यद्यत्यन्तप्रवर्षणं भावि १२. बृहवृत्ति, पत्र ३६३ : अज्ज त्ति अद्य ये यज्ञास्तेषामिदानीमारब्धयज्ञाना, तदा स्थलेषु फलावाप्तिरथान्यथा तदा निम्नेष्वित्येवमभिलाषात्मिकया। यद् वा 'अज्ज' त्ति हे आर्या । Jain Education Intemational Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २१८ अध्ययन १२ : श्लोक १८-२७ टि०२६-३२ अज्ज-आर्य-आर्य पुरुष। जिसे महान् अचिन्त्य शक्ति प्राप्त हो उसे 'महाभाग' (महाप्रभावशाली) २६. क्षत्रिय (खत्ता) कहा जाता है।" चूर्णिकार के अनुसार यह पाठ 'महाणुभावो' है खत्ता शब्द के संस्कृत रूप दो हो सकते हैं—क्षत्राः और और इसका अर्थ है-अनुग्रह और निग्रह करने में समर्थ।२ क्षत्ताः । इन दोनों के दो अर्थ हैं । क्षत्र का अर्थ है-क्षत्रिय और घोरव्वओ-जो अत्यन्त दुर्धर महाव्रतों को धारण किए क्षत्ता का अर्थ है-वर्णसंकर।' हुए हो, उसे 'घोरव्रत' कहा जाता है।३ २७. (उवजोइया) घोरपरक्कमोजिसमें कषाय आदि को जीतने का उपज्योतिष्क का अर्थ है-अग्नि के समीप रहने वाला प्रचुर सामर्थ्य हो, उसे 'घोर पराक्रम' कहा जाता है।" रसोइया या यज्ञ करने वाला। देखें-१४।५० के 'घोरपरक्कमा' का टिप्पण। २८. छात्र (खंडिएहिं) ३१. वैयापृत्य (परिचर्या) (वेयावडिय) यह देशी शब्द है। इसके तीन अर्थ हैं-छात्र, स्ततिपाठक जिससे कर्म का विदारण होता है, उसे 'वेदावडित' कहा और अनिषेध्य। यहां प्रथम दो अर्थ प्रासंगिक हैं। चूर्णि में जाता है, यह चूर्णि की व्युत्पत्ति है। 'चट्टा-छात्रा' यह वाक्यांश प्राप्त है। वृत्ति में खंडिक का अर्थ शान्त्याचार्य ने इसका संस्कृत रूप वैयावृत्त्य किया है। यहां छात्र किया है। और ३२वें श्लोक में वैयावृत्त्य का प्रयोग प्रत्यनीक-निवारण २९. (दंडेण फलेण) (विरोधी से रक्षा) के अर्थ में हुआ है। वैयापृत्त्य और वैयावृत्त्य बृहदवत्ति में दण्ड का मख्य अर्थ 'बांस की लाठी आदि की विशेष जानकारी के लिए देखें-दसवेआलियं ३६ का मारक-वस्तु' और विकल्प में उसका अर्थ 'कोहनी का प्रहार' टिप्पण। किया गया है। चूर्णि में इसका अर्थ 'कोहनी का प्रहार' किया है।६ ३२. आशीविषलब्धि से संपन्न है (आसीविओ) चूर्णि में 'फल' का अर्थ 'एड़ी का प्रहार' किया है। आशीविषलब्धि एक योगजन्य विभूति है। इसके द्वारा बृहद्वृत्ति में फल का मूल अर्थ 'बिल्व आदि फल' किया है व्यक्ति अनुग्रह और निग्रह करने में समर्थ हो जाता है। इसका और इसका वैकल्पिक अर्थ-मुष्टि का प्रहार—माना है। दूसरा अर्थ है—यह मुनि आशीविष सांप जैसा है। जो सांप की समवायांग की वृत्ति में इसका अर्थ योगभावित मातुलिंग आदि अवहेलना करता है वह मृत्यु को प्राप्त करता है, उसी प्रकार फल मिलता है। हिन्दी कोश में फल का अर्थ-तलवार आदि मुनि की अवहेलना करने वाले को भी मरना पड़ता है। की धार भी मिलता है। बृहद्वृत्तिकार का अर्थ अप्रासंगिक नहीं तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार 'आस्याविष' और 'आस्यविष' ये भिन्न-भिन्न लब्धियां हैं। उग्र विष से मिश्रित आहार जिनके ३०. (महाजसो महाणुभागो घोरव्वओ घोरपरक्कमो) मुख में जाकर निर्विष हो जाता है अथवा मुख से निकले हुए प्रस्तुत तेवीसवें श्लोक के प्रथम दो चरणों में ये चार विशेष वचनों को सुनने मात्र से महाविष व्याप्त व्यक्ति निर्विष हो जाते शब्द प्रयुक्त हुए हैं। उनका अर्थ-बोध इस प्रकार है- हैं, वे 'आस्याविष' हैं। जिस प्रकृष्ट तपस्वी यति के 'मर महाजसो-जिसका यश त्रिभुवन में विख्यात है, वह जाओ' आदि शाप से व्यक्ति तुरन्त मर जाता है, वे 'आस्यविष' हैं।' 'महायशा' कहलाता है। आशी का एक अर्थ इच्छा भी हो सकता है। जिसकी इच्छा महाणुभागो-भाग का अर्थ है—'अचिन्त्य शक्ति'। विष बन जाती है उसे आशीविष कहा जाता है। ऐसा देखा जाता १. बृहवृत्ति, पत्र ३६३ : 'क्षत्राः' क्षत्रियजातयो वर्णसंकरोत्पन्ना वा। १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०८ : अणुभाव णाम शापानुग्रहसामर्थ्यम्। २. वही, पत्र ३६३-३६४ : 'उवजोइय' ति ज्योतिषः समीपे ये त १३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६५ : 'घोरव्रतो' धृतात्यन्तदुर्द्धरमहाव्रतः। उपज्योतिषस्त एवोपज्योतिष्काः-अग्निसमीपवर्त्तिनो महानसिका ऋत्विजो १४. वही, पत्र ३६५ : 'घोरपराक्रमश्च' कषायादिजयं प्रति रौद्रसामर्थ्यः । वा। १५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०२०८ : विदारयति वेदारयति वा कर्म वेदावडिता। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०७। १६. (क) बृहवृत्ति, पत्र ३६५ : 'वेयावडियट्ठयाए' त्ति सूत्रत्वाद्वैयावृत्त्यार्थमेतत ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६४। प्रत्यनीकनिवारणलक्षणे प्रयोजने व्यावृत्ता भवाम इत्येवमर्थम् । ५. वही, पत्र ३६४ : 'दण्डेन' वंशयष्ट्यादिना......... यद्वा 'दण्डेने' ति (ख) बृहबृत्ति, पत्र ३६८ : वैयावृत्त्य-प्रत्यनीकप्रतिघातरूपम्। कूपराभिघातेन। १७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६६ : आस्यो—दंष्ट्रास्तासु विषमस्येत्यासीविषः६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०२०७ : दण्ड्यतेऽनेनेति दण्डः कोप्पराभिधातः । असीविषलब्धिमान्, शापानुग्रहसमर्थ इत्यर्थः, यद्वा आसीविष इव आस्त्रीविषः, ७. वही, पृ० २०७ : फलं तु पार्षणीघातः। यथाहि तमत्यन्तमवजानानो मृत्यु मे वाप्नोति, एवमे नमपि ८. बृहवृत्ति, पत्र ३६४ : 'फलेन' विल्वादिना.... यद् वा मुष्टिप्रहारेण वृद्धाः । मुनिमवमन्यमानानामवश्यं भावि मरणमित्याशयः । ६. समवायांग ३०, वृत्ति पृ०५०: फलेन-योगभावितेन मातुलिगादिना। १८. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, पृ०२०३ : उग्रविषसंपृक्तोऽप्याहारो येषामास्यगतो १०. विशेषावश्यकभाष्य, १०६४ : तिहुयणविक्खायजसो महाजसो। निर्विषीभवति यदीयास्यनिर्गतवचःश्रवणाद्वा महाविषपरीता अपि ११. (क) विशेषावश्यकभाष्य, १०६३ : भागो चिंतासत्ती, स महाभागो निर्विषीभवन्ति ते आस्याविषाः। महप्पभावोति। १६. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, पृ० २०३-४ : प्रकृष्टतपोबला यतयो यं बुयते (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ३६५ : महानुभाग:-अतिशयाचिन्त्यशक्तिः । नियस्वेति स तत्क्षण एव महाविषपरीतो म्रियते, ते आस्यविषाः । Jain Education Intemational Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिकेशीय २१९ अध्ययन १२ :श्लोक २८-३७ टि०३३-४० है कि किसी-किसी मनुष्य की इच्छा (टपकार) से मकान फट का प्रतिपाद्य अथवा अभिधेय वस्तु, सत्य, धन आदि। वृत्ति में दो जाता है। अर्थ उपलब्ध हैं-वस्तु और अभिधेय। ३३. उग्र तपस्वी है (उग्गतवो) अर्थ ज्ञेय होता है, इसलिए उसका एक अर्थ-सब वस्तुएं जो एक, दो, तीन, चार, पांच पक्ष अथवा मास आदि हो सकता है। किन्तु यहां प्रकरण से शुभ-अशुभ कर्मों या उपवास-योग में से किसी एक उपवास-योग का आरम्भ कर राग-द्वेष के फल को 'अर्थ' कहा गया है। अथवा शास्त्रों का जीवन पर्यन्त उसका निर्वाह करता है, उसे 'उग्र तपस्वी' कहा । प्रतिपाद्य-इस अर्थ में भी वह प्रयुक्त हो सकता है। यहां अर्थ जाता है। शब्द 'सत्य' के अर्थ में प्रयुक्त है। ३४. (लोग पि एसो........) ३८. भूतिप्रज्ञ (भूइपन्ना) मुनि कुपित होने पर समूचे विश्व को भस्म कर सकता भूति के तीन अर्थ किए गए हैं—मंगल, वृत्ति और रक्षा। है। वाचक का मन्तव्य है-'कल्पान्तोग्रानलवत् प्रज्वलनं प्रज्ञा का अर्थ है वह बुद्धि जिससे पहले ही जान लिया जाता है। तेजसैकतस्तेषाम्'-जैसे प्रलयकाल की उग्र अग्नि प्रज्वलित जिसकी बुद्धि सर्वोत्तम मंगल, सर्वश्रेष्ठ वृद्धि या सर्वभूत-हिताय होती है, वैसे ही ये तपस्वी मुनि अपनी तैजस शक्ति से युक्त प्रवृत्त हो, वह 'भूतिप्रज्ञ' कहलाता है।" होते हैं। ३९. प्रचुर भोजन (पभूयमन्न) 'न तद् दूरं यदश्वेषु, यच्चाग्नी यच्च मारुते। यहां प्रचुर अन्न के द्वारा यज्ञ में बने पूड़े, खाजे आदि विषे च रुधिरप्राप्ते, साधां च कृतनिश्चये। सारे खाद्य पदार्थों को लेने का मुनि से अनुरोध किया गया है। -अश्व, अग्नि और पवन के लिए कुछ भी दूर नहीं चावल के बने भोजन को सबसे मुख्य माना जाता था। इसलिए होता। जो विष रक्तगत हो जाता है, उसके लिए मारना सरल हो पिछले श्लोक में उसके लिए पृथक् रूप से अनुरोध किया है। जाता है। वैसे ही संकल्पवान् मुनि के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं ४०. जाति की कोई महिमा नहीं है (ल दीसई जाइविसेस कोई) होता। . जैन दर्शन के अनुसार जातिवाद अतात्त्विक है। भगवान् ३५. निष्क्रिय (अकम्मचेठे) महावीर ने कहा—एक जीव अनेक बार उच्च गोत्र में उत्पन्न बृहद्वृत्ति में इसके दो अर्थ प्राप्त होते हैं हुआ और अनेक बार नीच गोत्र में जन्मा, इसलिए न कोई (१) जिनके कार्य की हेतुभूत चेष्टाएं रुक गई हों। छोटा है और न कोई बड़ा। मनुष्य अपने कर्मों से ब्राह्मण (२) जिनकी यज्ञ की अग्नि में ईंधन आदि डालने की होता है, कर्मों से क्षत्रिय, कर्मों से वैश्य और कर्मों से शूद्र। प्रवृत्ति बन्द हो गई हो। मनुष्य की सुरक्षा उसके ज्ञान और आचार से होती है, जाति ३६. (निम्मे रिय......) और कुल से नहीं।" भगवान् महावीर ने यह कभी स्वीकार निब्भेरिय—यह देशी शब्द है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ नहीं किया कि ब्राह्मण जाति में उत्पन्न व्यक्ति चाहे कैसी भी निर्गत-बाहर निकला हुआ और वृत्तिकार ने प्रसारित किया दुष्प्रवृत्ति करे, श्रेष्ठ है और शूद्र जाति में उत्पन्न व्यक्ति चाहे कितना भी तपश्चरण करे, नीच है। वस्तुतः व्यक्ति की उच्चता ३७. अर्थ (अत्यं) और नीचता की कसौटी तप, संयम और पवित्रता है, जाति 'अर्थ' शब्द के अनेक अर्थ हैं—प्रयोजन, अध्यात्मशास्त्र नहीं। जो जितना आचारवान् है वह उतना ही उच्च है और १. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, पृ० २०३ : तपोऽतिशयर्द्धिः सप्तविधा-उग्र- ७. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१० : भूतिं मंगलं वृद्धिः रक्षा, प्रागर दीप्त-तप्त-महा-घोर-तपो-वीरपराक्रम-घोरब्रह्मचर्यभेदात्ः चतुर्थ (गेव) ज्ञायते अनयेति प्रज्ञा, तत्र मंगले सर्वमंगलोत्तमाऽस्य प्रज्ञा, षष्ठाष्टमदशमद्वादशपक्षमासाद्यनशनयोगेष्वन्यतमयोगमारभ्य आमरणाद अनन्तज्ञानवानित्यर्थः, रक्षायां तु रक्षाभूताऽस्य प्रज्ञा सर्वलोकस्य निवर्तका उग्रतपसः। सर्वसत्त्वानां वा। २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०६। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३६८ : भूतिर्मगलं वृद्धि रक्षा चेति वृद्धाः, (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३६७। प्रज्ञायतेऽनया वस्तुतत्त्वमिति प्रज्ञा, ततश्चः भूति:--मंगलं बृहद्वृत्ति, पत्र ३६७ : अकर्मचेष्टाश्च-अविद्यमानकर्माहतुव्यापारतया सर्वमंगलोत्तमत्वेन वृद्विर्वा वृद्रि विशिष्टत्वेन रक्षा वा प्राणिरक्षकत्वेन प्रसारितबाहवकर्मचेष्टास्तान, यद्वा क्रियन्त इति कर्माणि-अग्नी प्रज्ञा–बुद्धिरस्येति भूतिप्रज्ञः। समित्प्रक्षेपणादीनि तद्विषया चेष्टा कर्मचेष्टेह गृह्यते। ८. बृहवृत्ति, पत्र ३६६ : 'प्रभूतं' प्रचुरमन्नं-मण्डकखण्डखाद्यादि समस्तमपि ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०६ : णिभरित-निर्गतमित्यर्थः। भोजन, यत्प्राक् पृथगोदनग्रहणं तत्तस्य सर्वान्नप्रधानत्वख्यापनार्थम् । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६७ : निब्भेरिय त्ति प्रसारित........। ६. आयारो २४६ : से असई उच्चागोए। असई णीआगोए : णो हीणे, णो ६. वही, पत्र ३६८ : अर्यत इत्यों -ज्ञेयत्त्वात्सव्यमेव वस्तु, इह तु अइरित्ते.....। प्रक्रमाच्छुभाशुभकर्मविभागो रागद्वेषविपाको वा परिगृह्यते, यद्वा अर्थः-- १०. उत्तराध्ययन, २५॥३१॥ अभिधेयः स चार्थाच्छास्त्राणामेव तम्। ११. सूत्रकृतांग, ११३ ११ : न तस्य जाई व कुलं व ताणं, नन्नत्थ विज्जाचरणं सुचिण्णं। Jain Education Intemational Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २२० जो जितना आचार भ्रष्ट है वह उतना ही नीच है। वह फिर जाति से ब्राह्मण हो या शूद्र । शूद्र जाति में उत्पन्न होने से वह ज्ञान का अधिकारी नहीं, यह भी मान्य नहीं है । ब्राह्मण परम्परा के अनुसार ब्राह्मणों के लिए शूद्र को वेदों का ज्ञान देना निषिद्ध था। लंका में विलाप करती हुई सीता कहती है – “मैं अनार्य रावण को अपना अनुराग वैसे ही अर्पित नहीं कर सकती जैसे ब्राह्मण शूद्र को मंत्र ज्ञान नहीं दे सकता।"" जैन संघ में दीक्षित होकर जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को साधना करने का अधिकार था, वैसे ही शूद्रों को । हरिकेशबल मुनि उसके एक ज्वलन्त उदाहरण हैं। ४१. बाहर से (जल से) शुद्धि की (सोहिं बहिया) शोधि का अर्थ है-शुद्धि - निर्मलता । शोधि दो प्रकार की होती है द्रव्यशोधि और भावशोधि । मलिन वस्त्रों को पानी से धोना द्रव्यशोधि है और तप, संयम आदि के द्वारा आठ प्रकार के कर्ममलों का प्रक्षालन करना भावशोधि है । द्रव्यशोधि बाह्यशोधि होती है। इसका कोई धार्मिक मूल्य नहीं है। वाचक प्रवर ने लिखा है- " 'शौचमाध्यात्मिकं त्यक्त्वा, भावशुद्धयात्मकं शुभं । जलादिशांचं यथेष्टं मूढविस्मापकं हि तत् ।।' ४२. (किं) इसका प्रयोग दो अर्थों में होता है—क्षेप और पृच्छा। यहां यह क्षेप--निंदा या तिरस्कार के अर्थ में प्रयुक्त है।" ४३. कुशल लोग (कुसला) 'कुशं सुनातीति कुशल : ' जो कुश पास को काटता है, वह कुशल कहलाता है। यह इस शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है । चूर्णि में 'कुशल' का अर्थ-कर्म-बंधन को काटने वाला किया है। वृत्ति के अनुसार कुशल वह है जो तत्त्व - विचारणा में निपुण है।" ४४. ( श्लोक ३८ ) प्रस्तुत श्लोक का चौथा पद है- 'न तं सुदिट्टं कुसला वयंति' तथा चालीसवें श्लोक का चौथा पद है- 'न तं सुज 9. वाल्मीकीय रामायण, ५१२८ १५ भावं न चारयाहमनुप्रदातुमलं द्विजो मंत्रमिवाद्विजाय । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३७० : 'सोहिं' ति शुद्धिं निर्मलताम् । ३. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २११: दुविधा सोधी— दव्वसोधी भावसोधी य, दव्वसोधी मलिनं वस्त्रादि पानीयेन शुद्धयते, भावसोधी तवसंजमादीहिं अट्ठविहकम्ममललित्तो जीवो सोधिज्जति, अदव्वसोधी भावसोधी बाहिरियं, जं तं जलेण बाहिरसोथी । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३७० । ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१० किंसद्दो खेवे पुच्छाए य वट्टति, खेवो निंदा, एत्थ निंदाए । ६. वही, पृ० २११ अट्ठप्पगार कम्मं... लूनंतीति कुसला । ७. बृहद्वृत्ति पत्र ३७० : कुशलाः तत्त्वविचारं प्रति निपुणाः । अध्ययन १२ : श्लोक ३८-४३ टि० ४१-४७ कुसला वयंति' । 'सुजट्ट' का संस्कृत रूप है 'सु-इष्ट' (स्विष्टं) और अर्थ है- -श्रेष्ठ यज्ञ । प्रस्तुत श्लोक के चौथे पद का भी यहीं अर्थ अभिप्रेत है। इसलिए 'सुदिट्ठ' के स्थान पर 'सुजट्ट' अथवा 'सुइट्ठ' पाठ की संभावना की जा सकती है। चूर्णि और वृत्ति में 'सुदिट्ठ' पाठ ही व्याख्यात है। ४५. (सुसंवुडो पंचहिं संवरेहिं, वोसट्टकाओ सुइचत्तदेहो ) सुसंवुडो - जिसके प्राणातिपात आदि आश्रव-द्वार रुक गए हों, उसे 'सुसंवृत' कहा जाता है। 5 पंचहिं संवरेहिं संवर के पांच प्रकार ये हैं (१) प्राणातिपात विरति । (२) मृषावाद - विरति । (३) अदत्तादान - विरति । (४) मैथुन-विरति । (५) परिग्रह - विरति । वोसटुकाओ - जिसने विविध या विशिष्ट प्रकार से काया का उत्सर्ग किया हो, उसे 'व्युत्सृष्ट- काय' कहा जाता है।" सुइचत्तदेहो — जो गृहीत व्रतों में दोष न लगाएअकलुषित व्रत हो, उसे 'शुचि' कहा जाता है।" जिसने देह के प्रतिकर्म (संवारने) का त्याग किया हो, उसे त्यक्त किया हो, उसे 'त्यक्त-देह' कहा जाता है।" विशेष जानकारी के लिए देखें-दसवेआलियं १०।१३ का टिप्पण | ४६. महायज्ञ ( महाजयं) चूर्णि और वृत्ति में 'महाजय' का अर्थ महान् जय मिलता है । किन्तु 'जण्णसे' – यह विशेषण - पद है । इसलिए 'महाजय' का संस्कृत रूप 'महायज' होना चाहिए। यज्ञों में महायज्ञ ही श्रेष्ठ माना जाता है। 'यकार' को 'जकार' और 'जकार' का लोप तथा उसे यकारादेश करने पर 'महायज' रूप बन जाता है। ४७. घी डालने की करछियां (सुया) इसका संस्कृत रूप है 'स्रुव' और अर्थ है-यज्ञ में आहुति देते समय अग्नि में घी आदि डालने का पात्र - विशेष । स्थगितसमस्ताश्रवद्वारः सुसंवृतः । 'वोसडकाए' विविधमुत्सृष्टो विशिष्टो शरीरम् । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३७१: व्युत्सृष्टो - विविधैरुपायैर्विशेषेण वा परीषहोपसर्गसहिष्णुतालक्षणेनोत्सृष्टः त्यक्तः कायः--: -शरीरमनेनेति ८. वही, पत्र ३७१ सुष्ठु संवृतः (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २११ विशेषेण वा उत्सृष्टः कायः ६. व्युत्सृष्टकायः । १०. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २११ : शुचिः अनाश्रवः अखण्डचरित्र इत्यर्थः । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३७१ शुचिः अकलुषव्रतः । ११. (क) उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २११ : त्यक्तदेह इव त्यक्तदेहो नाम निष्प्रतिकर्म्मशरीरः । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३७१: त्यक्तदेहश्च अत्यन्तनिष्प्रतिकर्म्मतया । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिकेशीय २२१ अध्ययन १२ : श्लोक ४५-४६ टि०४८-५१ 'सुव' खदिर (कत्थे) की लकड़ी से बनाई जाती थी। इसके आत्मा और वैकल्पिक अर्थ इष्ट किया है। पीत आदि लेश्याएं दो प्रकार होते थे' इष्ट होती हैं, वे शुद्ध लेश्याएं हैं। अशुद्ध लेश्याएं (कृष्ण आदि) १. अधरा सुव-इसको उपभृत् कहा जाता था। यह इष्ट नहीं होती। शत्रुपक्षीय और नीचे रखा जाता था। वृत्तिकार ने 'पसन्न' का अर्थ-विशुद्ध और 'अत्त' का २. उत्तरा स्रुव-इसे जुहू कहा जाता था। यह अर्थ आत्मा किया है। उन्होंने 'अत्त' का संस्कृत रूप 'आप्त' यजमानपक्षीय और उपभृत् से ऊपर रखा जाता मानकर उसके दो अर्थ और किए हैं-हितकर और प्राप्त।' था। 'अत्तपसन्नलेसे' के संस्कृत रूप 'आत्मप्रसन्नलेश्यः' या विशेष विवरण के लिए देखें-अभिधान चिन्तामणि कोश 'आप्तप्रसन्नलेश्यः' होता है। लेश्या प्रसन्न (धर्म) और अप्रसन्न ३।४६२ का विमर्श। (अधर्म)--दो प्रकार की होती है। आत्मा की प्रसन्न--सर्वथा ४८. शांतितीर्थ (संतितित्थे) अकलुषित लेश्या जहां होती है, उसे प्रसन्न लेश्या कहा गया है। चूर्णिकार और बृहद्वृत्तिकार ने 'संति' का अर्थ-शांति या आप्त-पुरुष के द्वारा प्रसन्न लेश्या का निरूपण हो अथवा जहां 'सान्त' (अस् धातु का बहुवचन) किया है। इसका अर्थ शांति प्रसन्न लेश्या प्राप्त हो, उस धर्म या शांतितीर्थ को 'आप्तप्रसन्नलेश्य मानने पर 'तीर्थ' में एक वचन है। 'सन्ति' को क्रिया मानने पर कहा गया है। उसमें बहुवचन है। बृहद्वृत्ति के अनुसार तीर्थ का अर्थ ५०. कर्म-रज (दोस) 'पुण्यक्षेत्र' या 'संसार समुद्र को तैरने का उपायभूत घाट' है। चूर्णिकार ने इसका अर्थ पाप' और वृत्तिकार ने 'कर्म' चूर्णि के अनुसार तीर्थ के दो भेद हैं-द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ। किया है। कर्म विशुद्ध आत्मा को भी दृषित कर देता है, इसलिए प्रभास आदि द्रव्यतीर्थ कहलाते हैं और ब्रह्मचर्य भावतीर्थ या वह दोष है। शांतितीर्थ कहलाते हैं। ५१. (श्लोक ४६) अगले श्लोक (४६) में सूत्रकार ने स्वयं ब्रह्मचर्य को महात्मा बुद्ध ने भी जलस्नान को धार्मिक महत्त्व नहीं शांतितीर्थ माना है। शान्त्याचार्य ने इस प्रसंग में इसका अर्थ इस दिया। उन्होंने भी धार्मिक महत्त्व आत्मशुद्धि को ही दिया है। प्रकार किया है-मत् प्रत्यय का लोप तथा ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचारी इस विषय पर मज्झिमनिकाय का निम्नोक्त प्रसंग सुन्दर का अभेद मान लेने पर यह होता है कि ब्रह्मचारी तीर्थ है। इस प्रकाश डालता है।"- अर्थ में 'बंभे' में वचन-व्यत्यय मानना होगा। उस समय सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण भगवान के अविदूर ४९. आत्मा का प्रसन्न लेश्या वाला (अत्तपसन्नलेसे) में बैठा था। तब सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण ने भगवान् से यह चूर्णि में पीत आदि लेश्याओं को प्रसन्न माना है। लेश्या कहा-- दो प्रकार की होती है-शरीरलेश्या (आभामंडल) और आत्मलेश्या क्या आप गौतम स्नान के लिए बाहूका नदी चलेंगे? (भावधारा)। 'अत्तपसन्नलेसे'-इस पद के द्वारा आत्मलेश्या का ब्राह्मण ! बाहुका नदी से क्या (लेना) है ? बाहुका नदी क्या ग्रहण किया गया है। शरीर की लेश्याएं अशुद्ध होने पर भी करेगी? आत्मा की लेश्याएं शुद्ध हो सकती हैं। शरीर की लेश्याएं शुद्ध हे गौतम ! बाहुका नदी लोकमान्य (=लोक-सम्मत) है, होने पर आत्मा की लेश्या शुद्ध और अशुद्ध-दोनों प्रकार की बाहुका नदी बहुत जनों द्वारा पवित्र (=पुण्य) मानी जाती है। हो सकती है। बहुत से लोग बाहुका नदी में (अपने) किए पापों को बहाते हैं। 'अत्त' शब्द पांच अर्थों में प्रयुक्त होता है-आत्मा, इष्ट, तब भगवान् ने सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण को गाथाओं में कान्त, प्रिय और मनोज्ञ। चूर्णि में 'अत्त' का मुख्य अर्थ कहा---- १. का० श्री० सू १३४० : खादिर खुवः ।। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३७३ : ब्रह्मेति-व्रह्मचर्य शान्तितीर्थ..... अथवा ब्रह्मेति २. शतपथब्राह्मण १।४।४।१८,१६। ब्रह्मचर्यवन्तो मतुब्लोपाद् अभेदोपचाराद् वा साधव उच्यन्ते, सुब्यत्य३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१२ : 'संतितित्थे' ति शमनं शांतिः, याच्चैकवचनं, संति-विद्यन्ते तीर्थानि ममेति गम्यते। शांतिरेव तीर्थः, अथवा सन्तीति विद्यन्ते, कतराणि संति तित्थाणि? ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०२१२: शरीरलेश्यासु हि अशुद्धास्वपि आत्मलेश्या (ख) बृहद्रवृत्ति, पत्र ३७३ : संतितित्थे ति कि च ते-तव शुद्धा भवंति, शुद्धा अपि शरीरलेश्या भजनीया, अथवा अत्त इति इष्टाः, शान्त्यैपापोपशमननिमित्तं तीर्थ-पुण्यक्षेत्र शान्तितीर्थम्, अथवा कानि ताश्च पीताद्याः, ताश्च शुद्धाः, अनिष्टास्तु अणत्ताओ, उक्त हि-अत्ता च किं रूपाणी ते-तव सन्ति विद्यन्ते तीर्थानि संसारोदधितरणो- इट्ठा कंता पिया मणुण्णा,.....| पायभूतानि। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३७३ । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१२ : तित्थं दुविहं--दव्वतित्थं भावतित्थं च, ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१२ : दोसमिति पापं। प्रभासादीनि द्रव्यतीर्थानि, जीवानामुपरोधकारीनीतिकृत्वा न शान्तितीर्थानि ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३७३ : दोषं-कर्म। भवंति, यस्तु आत्मनः परेषां च शान्तये तद् भावतीर्थं भवति, ब्रह्म एव १०. मज्झिमनिकाय, ११७, पृ० २६ । शान्तितीर्थम्। Jain Education Intemational Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २२२ अध्ययन १२ :श्लोक ४७ टि० ५२ बाहुका, अविकक्क, गया और सुन्दरिका में। ब्राह्मण ! यहीं नहीं, सारे प्राणियों का क्षेम कर। सरस्वती और प्रयाग तथा बाहुमती नदी में। यदि तू झूठ नहीं बोलता, यदि प्राण नहीं मारता। काले कर्मों वाला मूढ़ चाहे नित्य नहाए, (किन्तु) शुद्ध नहीं यदि बिना दिया नहीं लेता, (और) श्रद्धावान् मत्सर-रहित होगा। क्या करेगी सुन्दरिका, क्या प्रयाग और क्या बाहुलिका (तो) गया जाकर क्या करेगा, क्षुद्र जलाशय (=उपादान) भी नदी? तेरे लिए गया है। (वह) पापकर्मी-कृत किल्बिष दुष्ट नर को नहीं शुद्ध कर ५२. महास्नान है (महासिणाणं) सकते। इसका शाब्दिक अर्थ है—महास्नान अर्थात् श्रेष्ठ स्नान । शुद्ध (नर) के लिए सदा ही फल्गु है, शुद्ध के लिए सदा चर्णिकार ने इसका लाक्षणिक अर्थ-समस्त कर्मों का क्षय किया ही उपोसथ है। शुद्ध और शुचिकर्मा के व्रत सदा ही पूरे होते रहते हैं। १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१२ : महासिणाणं णाम सव्वकम्मक्खओ। Jain Education Intemational Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं अज्झयणं चित्तसंभूइज्जं तेरहवां अध्ययन चित्र-संभूतीय Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन में चित्र और संभूत के पारस्परिक सम्बन्ध था। नमुचि उसका मंत्री था। एक बार उसके किसी अपराध और विसम्बन्ध का निरूपण है, इसलिए इसका नाम 'चित्तसंभूइज्जं' पर राजा क्रुद्ध हो गया और वध की आज्ञा दे दी। चाण्डाल 'चित्र-संभूतीय' है। भूतदत्त को यह कार्य सौंपा गया। उसने नमुचि को अपने घर में उस काल और उस समय साकेत नगर में चन्द्रावतंसक छिपा लिया और कहा-“मंत्रिन् ! यदि आप मेरे तल-घर राजा का पुत्र मुनिचन्द्र राज्य करता था। राज्य का उपभोग में रहकर मेरे दोनों पुत्रों को अध्यापन कराना स्वीकार करें तो करते-करते उसका मन काम-भोगों से विरक्त हो गया। उसने मैं आपका वध नहीं करूंगा।" जीवन की आशा में मंत्री ने मुनि सागरचन्द के पास दीक्षा ग्रहण की। वह अपने गुरु के बात मान ली। अब वह चाण्डाल के पुत्रों—चित्र और संभूत को साथ-साथ देशान्तर जा रहा था। एक बार वह भिक्षा लेने गांव पढ़ाने लगा। चाण्डालपत्नी नमुचि की परिचर्या करने लगी। में गया, पर सार्थ से बिछुड़ गया और एक भयानक अटवी में कुछ काल बीता। नमुचि चाण्डाल-स्त्री में आसक्त हो गया। जा पहुंचा। वह भूख और प्यास से व्याकुल हो रहा था। वहां भृतदत्त ने यह बात जान ली। उसने नमुचि को मारने का चार ग्वाल-पुत्र गाएं चरा रहे थे। उन्होंने मुनि की अवस्था देखी। विचार किया। चित्र और संभूत दोनों ने अपने पिता के विचार उनका मन करुणा से भर गया। उन्होंने मुनि की परिचर्या की। जान लिए। गुरु के प्रति कृतज्ञता से प्रेरित हो उन्होंने नमुचि को मुनि स्वस्थ हुए। चारों ग्वाल-बालकों को धर्म का उपदेश दिया। कहीं भाग जाने की सलाह दी। नमुचि वहां से भागा-भागा चारों बालक प्रतिबुद्ध हुए और मुनि के पास दीक्षित हो गए। वे हस्तिनापुर में आया और चक्रवर्ती सनत्कुमार का मंत्री बन सभी आनन्द से दीक्षा-पर्याय का पालन करने लगे। किन्तु उनमें गया। से दो मुनियों के मन में मैले कपड़ों के विषय में जुगुप्सा रहने चित्र और संभूत बड़े हुए। उनका रूप और लावण्य लगी। चारों मर कर देव-गति में गए। जुगुप्सा करने वाले दोनों आकर्षक था। नृत्य और संगीत में वे प्रवीण हुए। वाराणसी के देवलोक से च्युत हो दशपुर नगर में शांडिल्य ब्राह्मण की दासी लोग उनकी कलाओं पर मुग्ध थे। यशोमती की कुक्षी से युगल रूप में जन्मे । वे युवा हुए। एक बार एक बार मदन-महोत्सव आया। अनेक गायक-टोलियां वे जंगल में अपने खेत की रक्षा के लिए गए। रात हो गई। मधुर राग में अलाप रही थीं और तरुण-तरुणियों के अनेक गण वे एक वट वृक्ष के नीचे सो गए। अचानक ही वृक्ष की कोटर नृत्य कर रहे थे। उस समय चित्र-संभूत की नृत्य-मण्डली भी से एक सर्प निकला और एक को डस कर चला गया। वहां आ गई। उनका गाना और नृत्य सबसे अधिक मनोरम था। दूसरा जागा। उसे यह बात मालूम हुई। तत्काल ही वह सर्प उसे सुन और देख कर सारे लोग उनकी मण्डली की ओर चले की खोज में निकला। वही सर्प उसे भी डस गया। दोनों मर आए। युवतियां मंत्र-मुग्ध सी हो गयीं। सभी तन्मय थे। ब्राह्मणों कर कालिंजर पर्वत पर एक मृगी के उदर से युगल रूप में ने यह देखा। मन में ईर्ष्या उभर आई। जातिवाद की आड़ ले उत्पन्न हुए। एक बार दोनों आसपास चर रहे थे। एक व्याध वे राजा के पास गए और सारा वृत्तान्त कह सुनाया। राजा ने ने एक ही बाण से दोनों को मार डाला। वहां से मर कर वे दोनों मातंग-पुत्रों को नगर से निकाल दिया। वे अन्यत्र चले गंगा नदी के तीर पर एक राजहंसिनी के गर्भ में आए। युगल गए। रूप में जन्मे। वे युवा बने। वे दोनों साथ-साथ घूम रहे थे। एक कुछ समय बीता। एक बार कौमुदी-महोत्सव के अवसर बार एक मछुए ने उन्हें पकड़ा और गर्दन मरोड़ कर मार पर वे दोनों मातंग-पुत्र पुनः नगर में आए। वे मुंह पर कपड़ा डाला। डाले महोत्सव का आनन्द ले रहे थे। चलते-चलते उनके मुंह उस समय वाराणसी नगरी में चाण्डालों का एक अधिपति से संगीत के स्वर निकल पड़े। लोग अवाक् रह गए। वे उन रहता था। उसका नाम था भूतदत्त । वह बहुत समृद्ध था। वे दोनों के पास आए। आवरण हटाते ही उन्हें पहचान गए। दोनों हंस मर कर उसके पुत्र हुए। उनका नाम चित्र और संभूत उनका रक्त ईर्ष्या से उबल गया। "ये चाण्डाल-पुत्र हैं".-ऐसा रखा गया। दोनों भाइयों में अपार स्नेह था। कहकर उन्हें लातों और चाटों से मारा और नगर से बाहर उस समय वाराणसी नगरी में शङ्ख राजा राज्य करता निकाल दिया। वे बाहर एक उद्यान में ठहरे। उन्होंने सोचा उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३३२ : चित्तेसंभूआउं वेअंतों, भावओ अ नायव्यो। तत्तो समुट्टिअमिणं, अज्झयणं चित्तसंभूयं ।। Jain Education Intemational Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र-सम्भूतीय २२५ अध्ययन १३ : आमुख “धिक्कार है हमारे रूप, यौवन, सौभाग्य और कला-कौशल धैर्य के साथ अनशन ग्रहण किया। को ! आज हम चाण्डाल होने के कारण प्रत्येक वर्ग से तिरस्कृत चक्रवर्ती सनत्कुमार ने जब यह जाना कि मन्त्री नमुचि हो रहे हैं। हमारा सारा गुण-समूह दूषित हो रहा है। ऐसा के कारण ही सभी लोगों को संत्रास सहना पड़ा है तो उसने जीवन जीने से लाभ ही क्या ?" उनका मन जीने से ऊब मन्त्री को बांधने का आदेश दिया। मन्त्री को रस्सों से बांध कर गया। वे आत्म-हत्या का दृढ़ संकल्प ले वहां से चले। एक मुनियों के पास लाए। मुनियों ने राजा को समझाया और उसने पहाड़ पर इसी विचार से चढ़े। ऊपर चढ़कर उन्होंने देखा कि मन्त्री को मुक्त कर दिया। चक्रवर्ती दोनों मुनियों के पैरों पर गिर एक श्रमण ध्यान-लीन हैं। वे साधु के पास आए और बैठ गए। पड़ा। रानी सुनन्दा भी साथ थी। उसने भी वन्दना की। ध्यान पूर्ण होने पर साधु ने उनका नाम-धाम पूछा। दोनों अकस्मात् ही उसके केश मुनि सम्भूत के पैरों को छू गए। मुनि ने अपना पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया। मुनि ने कहा-"तुम सम्भूत को अपूर्व आनन्द का अनुभव हुआ। उसने निदान अनेक कला-शास्त्रों के पारगामी हो। आत्म-हत्या करना करने का विचार किया। मुनि चित्र ने ज्ञान-शक्ति से यह जान नीच व्यक्तियों का काम है। तुम्हारे जैसे विमल-बुद्धि वाले लिया और निदान न करने की शिक्षा दी, पर सब व्यर्थ । मुनि व्यक्तियों के लिए यह उचित नहीं। तुम इस विचार को छोड़ो और सम्भूत ने निदान किया—“यदि मेरी तपस्या का फल है तो मैं जिन-धर्म की शरण में आओ। इससे तुम्हारे शारीरिक चक्रवर्ती बनूं।" और मानसिक-सभी दुःख उच्छिन्न हो जायेंगे।" उन्होंने दोनों मुनियों का अनशन चालू था। वे मर कर सौधर्म मुनि के वचन को शिरोधार्य किया और हाथ जोड़कर कहा- देवलोक में देव बने। वहां का आयुष्य पूरा कर चित्र का जीव “भगवन् ! आप हमें दीक्षित करें।” मुनि ने उन्हें योग्य पुरिमताल नगर में एक इभ्य सेठ का पुत्र बना और सम्भूत का समझ दीक्षा दी। गुरु-चरणों की उपासना करते हुए वे अध्ययन जीव कांपिल्यपुर के ब्रह्म राजा की रानी चुलनी के गर्भ में आया। करने लगे। कुछ समय बाद वे गीतार्थ हुए। विचित्र तपस्यायों से रानी ने चौदह महास्वप्न देखे। बालक का जन्म हुआ। उनका आत्मा को भावित करते हुए वे ग्रामानुग्राम विहार करने लगे। नाम ब्रह्मदत्त रखा गया। एक बार वे हस्तिनापुर आए। नगर के बाहर एक उद्यान में राजा ब्रह्म के चार मित्र थे—(१) काशी का अधिपति ठहरे। एक दिन मास-क्षमण का पारणा करने के लिए मुनि कटक (२) गजपुर का राजा कणेरदत्त (३) कौशल देश का संभूत नगर में गए। भिक्षा के लिए वे घर-घर घूम रहे थे। मंत्री राजा दीर्घ और (४) चम्पा का अधिपति पुष्पचूल। राजा ब्रह्म का नमुचि ने उन्हें देख कर पहचान लिया। उसकी सारी स्मृतियां इनके साथ अगाध प्रेम था। वे सभी एक-एक वर्ष एक-दूसरे के सद्यस्क हो गईं। उसने सोचा--यह मुनि मेरा सारा वृत्तान्त राज्य में रहते थे। एक बार वे सब राजा ब्रह्म के राज्य में जानता है। वहां के लोगों के समक्ष यदि इसने कुछ कह समुदित हो रहे थे। उन्हीं दिनों की बात है, एक दिन राजा ब्रह्म डाला तो मेरी महत्ता नष्ट हो जाएगी। ऐसा विचार कर उसने को असह्य मस्तक-वेदना उत्पन्न हुई। स्थिति चिन्ताजनक बन लाठी और मुक्कों से मार कर मुनि को नगर से बाहर गई। राजा ब्रह्म ने अपने पुत्र ब्रह्मदत्त को चारों मित्रों को सौंपते निकालना चाहा। कई लोग मुनि को पीटने लगे। मुनि शांत रहे। हुए कहा--"इसका राज्य तुम्हें चलाना है।" मित्रों ने स्वीकार परन्तु लोग जब अत्यन्त उग्र हो गए, तब मुनि का चित्त अशांत किया। हो गया। उनके मुंह से धुंआ निकला और सारा नगर अंध कुछ काल बाद राजा ब्रह्म की मृत्यु हो गई। मित्रों ने कारमय हो गया। लोग घबड़ाए। अब वे मुनि को शांत करने उसका अन्त्येष्टि-कर्म किया। उस समय कुमार ब्रह्मदत्त छोटी लगे। चक्रवर्ती सनत्कुमार भी वहां आ पहुंचा। उसने मुनि से अवस्था में था। चारों मित्रों ने विचार-विमर्श कर कौशल देश के प्रार्थना की--भंते ! यदि हम से कोई त्रुटि हुई हो तो आप क्षमा राजा दीर्घ को राज्य का सारा भार सौंपा और बाद में सब करें। आगे हम ऐसा अपराध नहीं करेंगे। आप महान् हैं। अपने-अपने राज्य की ओर चले गये। राजा दीर्घ राज्य की नगर-निवासियों को जीवन-दान दें।” इतने से मुनि का क्रोध व्यवस्था देखने लगा। सर्वत्र उसका प्रवेश होने लगा। रानी चुलनी शांत नहीं हुआ। उद्यान में बैठे मुनि चित्र ने यह संवाद सुना के साथ उसका प्रेम-बन्धन गाढ़ होता गया। दोनों निःसंकोच और आकाश को धूम्र से आच्छादित देखा। वे तत्काल वहां आए विषय-वासना का सेवन करने लगे। और उन्होंने मुनि सम्भूत से कहा-“मुने ! क्रोधानल को रानी के इस दुश्चरण को जानकर राजा ब्रह्म का विश्वस्त उपशांत करो, उपशांत करो! महर्षि उपशम-प्रधान होते हैं। वे मन्त्री धनु चिन्ताग्रस्त हो गया। उसने सोचा--"जो व्यक्ति अधम अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते। तुम अपनी शक्ति का संवरण आचरण में फंसा हुआ है, वह भला कुमार ब्रह्मदत्त का क्या हित करो!" मुनि संभूत का मन शान्त हुआ। उन्होंने तेजोलेश्या का साथ सकेगा ?" संवरण किया। अन्धकार मिट गया। लोग प्रसन्न हुए। दोनों मुनि उसने रानी चुलनी और राजा दीर्घ के अवैध-सम्बन्ध की उद्यान में लौट गए। उन्होंने सोचा—“हम काय-संलेखना कर बात अपने पुत्र वरधनु के माध्यम से कुमार तक पहुंचाई। चुके हैं, इसलिए अब हमें अनशन करना चाहिए।" दोनों ने बड़े कुमार को यह बात बहुत बुरी लंगी। उसने एक उपाय ढूंढा। Jain Education Intemational Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २२६ अध्ययन १३ : आमुख एक कौवे और एक कोकिल को पिंजरे में बन्द कर अन्तःपुर में दूर जा कर ठहरे। लम्बी यात्रा के कारण घोड़े खिन्न हो कर गिर ले गया और रानी चुलनी को सुनाते हुए कहा—“जो कोई भी पड़े। अब वे दोनों वहां से पैदल चले। वे चलते-चलते वाराणसी अनुचित सम्बन्ध जोड़ेगा, उसे मैं इसी प्रकार पिंजरे में डाल पहुंचे। राजा कटक ने जब यह संवाद सुना, तब वह बहुत ही दूंगा।" राजा दीर्घ ने यह बात सुनी। उसने चुलनी से कहा-“कुमार प्रसन्न हुआ और उसने पूर्ण सम्मान से कुमार ब्रह्मदत्त का ने हमारा सम्बन्ध जान लिया है। मुझे कौवा और तुम्हें कोयल नगर में प्रवेश करवाया। अपनी पुत्री कटकावती से उसका मान संकेत दिया है। अब हमें सावधान हो जाना चाहिए।" विवाह किया। राजा कटक ने दूत भेजकर सेना सहित पुष्पचूल चुलनी ने कहा-“वह अभी बच्चा है। जो कुछ मन में आता को बुला लिया। मन्त्री धनु और राजा कणेरदत्त भी वहां आ है कह देता है।” राजा दीर्घ ने कहा-“नहीं, ऐसा नहीं है। वह पहुंचे। और भी अनेक राजा मिल गए। उन सबने वरधनु को हमारे प्रेम में बाधा डालने वाला है। उसको मारे बिना अपना सेनापति के पद पर नियुक्त कर कांपिल्यपुर पर चढ़ाई कर दी। सम्बन्ध नहीं निभ सकता।" चुलनी ने कहा-"जो आप कहते घमासान युद्ध हुआ। राजा दीर्घ मारा गया। “चक्रवर्ती की विजय हैं, वह सही है किन्तु उसे कैसे मारा जाये? लोकापवाद से भी हुई”—यह घोष चारों और फैल गया। देवों ने आकाश से फूल तो हमें डरना चाहिए।" राजा दीर्घ ने कहा—“जनापवाद से बरसाए। “बारहवां चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है”—यह नाद हुआ। बचने के लिए पहले हम इसका विवाह कर दें, फिर ज्यों-त्यों सामन्तों ने कुमार ब्रह्मदत्त का चक्रवर्ती के रूप में अभिषेक इसे मार देंगे।" रानी ने बात मान ली। किया। एक शुभ वेला में कुमार का विवाह सम्पन्न हुआ। उसके राज्य का परिपालन करता हुआ ब्रह्मदत्त सुखपूर्वक रहने शयन के लिए राजा दीर्घ ने हजार स्तम्भ वाला एक लाक्षा-गृह लगा। एक बार एक नट आया। उसने राजा से प्रार्थना कीबनवाया। “मैं आज मधुकरी गीत नामक नाट्य-विधि का प्रदर्शन करना इधर मन्त्री धनु ने राजा दीर्घ से प्रार्थना की--"स्वामिन् ! चाहता हूं।” चक्रवर्ती ने स्वीकृति दे दी। अपरान्ह में नाटक होने मेरा पुत्र वरधनु मन्त्री-पद का कार्यभार संभालने के योग्य हो लगा। उस समय एक कर्मकरी ने फूल-मालाएं लाकर राजा के गया है। मैं अब कार्य से निवृत्त होना चाहता हूं।" राजा ने सामने रखीं। राजा ने उन्हें देखा और मधुकरी गीत सुना। तब उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और छलपूर्वक कहा-“तुम और चक्रवर्ती के मन में एक विकल्प उत्पन्न हुआ---“ऐसा नाटक कहीं जाकर क्या करोगे? यहीं रहो और दान आदि धर्मों का उसके पहले भी इसने कहीं देखा है।" वह इस चिन्तन में लीन पालन करो।" मन्त्री ने राजा की बात मान ली। उसने नगर के हुआ और उसे पूर्व-जन्म की स्मृति हो आई। उसने जान लिया बाहर गङ्गा नदी के तट पर एक विशाल प्याऊ बनाया। वहां कि ऐसा नाटक मैंने सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान वह पथिकों और परिव्राजकों को प्रचुर अन्न-पान देने लगा। में देखा था। दान और सम्मान से वशीभूत हुए पथिकों और परिव्राजकों द्वारा इसकी स्मृति मात्र से वह मूछित होकर भूमि पर गिर उसने लाक्षा-गृह से प्याऊ तक एक सुरंग खुदवाई। राजा-रानी पड़ा। पास में बैठे हुए सामन्त उटे, चन्दन का लेप किया। राजा को बात ज्ञात नहीं हुई। की चेतना लौट आई। सम्राट् आश्वस्त हुआ। पूर्वजन्म के भाई रानी चुलनी ने कुमार ब्रह्मदत्त को अपनी नववधू के की याद सताने लगी। उसकी खोज करने के लिए एक मार्ग साथ उस लाक्षा-गृह में भेजा। दोनों वहां गए। रानी ने शेष ढूंढा। रहस्य को छिपाते हुए सम्राट् ने महामात्य वरधनु से सभी ज्ञाति-जनों को अपने-अपने घर भेज दिया। मन्त्री का कहा—आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा'पुत्र वरधनु वहीं रहा। रात्रि के दो पहर बीते। कुमार ब्रह्मदत्त इस श्लोकार्द्ध को सब जगह प्रचारित करो और यह घोषणा गाढ़ निद्रा में लीन था। वरधनु जाग रहा था। अचानक करो कि इस श्लोक की पूर्ति करने वाले को सम्राट् अपना आध लाक्षा-गृह एक ही क्षण में प्रदीप्त हो उठा। हाहाकार मचा। राज्य देगा। प्रतिदिन यह घोषणा होने लगी। यह अर्द्धश्लोक कुमार जागा और दिङ्मूढ़ बना हुआ वरधनु के पास आ दूर-दूर तक प्रसारित हो गया और व्यक्ति-व्यक्ति को कण्ठस्थ हो बोला-“यह क्या हुआ? अब क्या करें?" वरधनु ने कहा-“यह गया। राज-कन्या नहीं है, जिसके साथ आपका पाणि-ग्रहण हुआ है। इधर चित्र का जीव देवलोक से च्युत हो कर पुरिमताल इसमें प्रतिबन्ध करना उचित नहीं है। चलो हम चलें।" उसने नगर में एक इभ्य सेठ के घर जन्मा। युवा हुआ। एक दिन कुमार ब्रह्मदत्त को एक सांकेतिक स्थान पर लात मारने पूर्वजन्म की स्मृति हुई और वह मुनि बन गया। एक बार को कहा। कुमार ने लात मारी। सुरंग का द्वार खुल गया। वह ग्रामानुग्राम विहार करते-करते वहीं कांपिल्यपुर में आया और उसमें घुसे। मन्त्री ने पहले ही अपने दो विश्वासी पुरुष सुरंग मनोरम नाम के कानन में ठहरा। एक दिन वह कायोत्सर्ग कर के द्वार पर नियुक्त कर रखे थे। वे घोड़ों पर चढ़े हुए थे। ज्यों रहा था। उसी समय रहंट को चलाने वाला एक व्यक्ति वहां बोल ही कुमार ब्रह्मदत्त और वरधनु सुरंग से बाहर निकले त्यों ही उठाउन्हें घोड़ों पर चढ़ा दिया। वे दोनों वहां से चले। पचास योजन "आस्व दासा मृगौ हंसौ, मातंगावमरी तथा।' Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र सम्भूतीय २२७ अध्ययन १३ : आमुख मुनि ने यह सुना और उसके आगे के दो चरण पूरा “मुझे मत मारो। श्लोक की पूर्ति मैंने नहीं की है।” “तो किसने करते हुए कहाकी है ?" -- सभासदों ने पूछा। वह बोला- “मेरे रहंट के पास खड़े एक मुनि ने की है।” अनुकूल उपचार पाकर सम्राट् सचेतन हुआ। सारी बात की जानकारी प्राप्त कर वह मुनि के दर्शन के लिए सपरिवार चल पड़ा। कानन में पहुंचा। मुनि को देखा । वन्दना कर विनयपूर्वक उनके पास बैठ गया । बिछुड़ा हुआ योग पुनः मिल गया। अब वे दोनों भाई सुख-दुःख के फल- विपाक की चर्चा करने लगे। यही चर्चा इस अध्ययन में प्रतिपादित है।' बौद्ध ग्रंथों में भी इस कथा का प्रकारांतर से उल्लेख मिलता है । "एषा नौ षष्ठिका जातिः, अन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः ॥ रहंट चलाने वाले उस व्यक्ति ने उन दोनों चरणों को एक पत्र में लिखा और आधा राज्य पाने की खुशी में वह दौड़ा-दौड़ा राज दरबार में पहुंचा। सम्राट् की अनुमति प्राप्त कर वह राज्यसभा में गया और एक ही सांस में पूरा श्लोक सम्राट् को सुना डाला। उसे सुनते ही सम्राट् स्नेहवश मूच्छित हो गया । सारी सभा क्षुब्ध हो गई। सभासद् क्रुद्ध हुए और उसे पीटने लगे। उन्होंने कहा – “तू ने सम्राट् को मूच्छित कर दिया । यह कैसी तेरी श्लोक-पूर्ति ?” मार पड़ी तब वह बोला 9. कथा के विस्तार के लिए देखें-सुखवोधा, पत्र १८५-१६७ । २. चित्र-संभूत जातक संख्या ४६८ । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं अज्झयणं : तेरहवां अध्ययन चित्तसंभूइज्जं : चित्र-संभूतीय मूल वफलविवागं संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. जाईपराजिओ खलु जातिपराजितः खलु जाति से पराजित हुए संभूत ने हस्तिनापुर में कासि नियाणं तु हत्थिणपुरम्मि। अकार्षीत् निदानं तु हस्तिनापुरे। निदान' (चक्रवर्ती होऊ—ऐसा संकल्प) किया। वह चुलणीए बंभदत्तो चुलन्यां ब्रह्मदतः सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में देव उववन्नो पउमगुम्माओ।।। उपपन्नः पद्मगुल्मात् ।। बना। वहां से च्युत होकर चुलनी की कोख में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में उत्पन्न हुआ। २. कंपल्लेि संभूओ काम्पिल्ये सम्भूतः संभूत काम्पिल्य नगर में उत्पन्न हुआ। चित्र पुरिमताल चित्तो पुण जाओ पुरिमतालम्मि। चित्रः पुनर्जातः पुरिमताले। में एक विशाल श्रेष्टिकुल में उत्पन्न हुआ। वह धर्म सेट्ठिकुलम्मि विसाले श्रेष्ठिकुले विशाले सुन प्रव्रजित हो गया। धम्मं सोऊण पव्वइओ।। धर्म श्रुत्वा प्रव्रजितः ।। ३. कंपिल्लम्मि य नयरे काम्पिल्ये च नगरे काम्पिल्य नगर में चित्र और सभृत दोनों मिले। दोनों समागया दो वि चित्तसंभूया। समागतौ द्वावपि चित्रसम्भूतौ। ने परस्पर एक-दूसरे के सुख-दुःख के विपाक की सुहदुक्खफलविवागं सुखदुःखफलविपाकं बात की। कहेंति ते एक्कमेक्कस्स।। कथयतस्तावेकैकस्य।। ४. चक्कवट्टी महिड्ढीओ चक्रवर्ती महर्द्धिकः महान ऋद्धि-सम्पन्न और महान यशस्वी चक्रवर्ती बंभदत्तो महायसो। ब्रह्मदत्तो महायशाः। ब्रह्मदत्त ने बहुमानपूर्वक अपने भाई से इस प्रकार भायरं बहुमाणेणं भ्रातरं बहुमानेन कहाइमं वयणमब्बवी।। इदं वचनमब्रवीत्।। आसिमो भायरो दो वि आस्व भ्रातरौ द्वावपि "हम दोनों भाई थे—एक दूसरे के वशवर्ती, परस्पर अन्नमन्नवसाणुगा। अन्योऽन्यवशानुगौ। अनुरक्त और परस्पर हितैषी।" अन्नमन्नमणूरत्ता अन्योऽन्यमनुरक्तौ अन्नमन्नहिएसिणो।। अन्योऽन्यहितैषिणौ।। ६. दासा दसण्णे आसी दासौ दशणेषु आस्व "हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर मिया कालिंजरे नगे। मृगौ कालिंजरे नगे। हरिण, मृतगङ्गा के किनारे हंस और काशी देश में हंसा मयंगतीरे हंसौ मृतङ्गातीरे चांडाल थे।" सोवागा कासिभूमिए ।। श्वपाकौ काशीभूम्याम् ।। ७. देवा य देवलोगम्मि देवौ च देवलोके "हम दोनों सौधर्म देवलोक में महान ऋद्धि वाले देव आसि अम्हे महिड्ढिया। आस्वाऽऽवां महर्द्धिकौ। थे। यह हमारा छठा जन्म है, जिसमें हम एक-दूसरे इमा नो छट्ठिया जाई इयं नौ षष्ठिका जातिः से बिछुड़ गये।" अन्नमन्नेण जा विणा।। अन्योऽन्येन या विना।। Jain Education Intemational Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र-संभूतीय २२९ अध्ययन १३ : श्लोक ८-१६ ८. कम्मा नियाणप्पगडा कर्माणि निदानप्रकृतानि (मुनि-) “राजन् ! तू ने निदानकृत कर्मों का चिन्तन तुमे राय! विचिंतिया। त्वया राजन् ! विचिन्तितानि। किया। उनके फल-विपाक से हम बिछुड़ गये।" तेसिं फलविवागेण तेषां फलविपाकेन विप्पओगमुवागया।। विप्रयोगमुपागतौ।। ६. सच्चसोयप्पगडा सत्यशौचप्रकृतानि (चक्री—) “चित्र ! मैंने पूर्वजन्म में सत्य और शौचमय कम्मा मए पुरा कडा। कर्माणि मया पुराकृतानि। शुभ अनुष्ठान किये थे। आज मैं उनका फल भोग ते अज्ज परिभुंजामो तान्यद्य परिभुंजे रहा हूं। क्या तू भी वैसा ही भोग रहा है ?" किं नु चित्ते वि से तहा?|| किन्नु चित्रोऽपि तानि तथा?।। १०.सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं सर्व सुधीर्ण सफल नराणां (मुनि-) “मुनष्यों का सब सुचीर्ण सफल होता है। कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि। कृतेभ्यः कर्मभ्यो न मोक्षोऽस्ति। किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना मोक्ष (उससे अत्थेहि कामेहि य उत्तेमेहिं अर्थैः कामैश्चोत्तमैः छुटकारा) नहीं होता। मेरी आत्मा उत्तम अर्थ और आया ममं पुण्णफलोववेए।। आत्मा मम पुण्यफलोपेतः।। कामों के द्वारा पुण्य-फल से युक्त है।" ११.जाणासि संभूय! महाणुभागं जानासि सम्भूत ! महानुभागं “संभूत ! जिस प्रकार तू अपने को महानुभाग महिड्ढियं पुण्णफलोववेयं। महर्दिकं पुण्यफलोपेतम्। (अचिंत्य-शक्ति) सम्पन्न, महान् ऋद्धिमान् और चित्तं पि जाणाहि तहेव रायं! चित्रमपि जानीहि तथैव राजन् ! पुण्य-फल से युक्त मानता है, उसी प्रकार चित्र को भी इड्ढी जुई तस्स वि य प्पभूया।। ऋद्धिर्युतिस्तस्यापि च प्रभूता।। जान। राजन् ! उसके भी प्रचुर ऋद्धि और द्युति थी।" १२.महत्थरूवा वयणप्पभूया महार्थरूपा वचनाऽल्पभूता "स्थविरों ने जन समुदाय के बीच अल्पाक्षर और गाहाणुगीया नरसंघमज्झे। गाथाऽनुगीता नरसंघमध्ये। महान् अर्थ वाली जो गाथा गाई, जिसे शील और श्रुत जं भिक्खुणो सीलगुणोववेया या भिक्षवः शीलगुणोपेताः से सम्पन्न भिक्षु बड़े यत्न से अर्जित करते हैं, उसे इहऽज्जयंते समणो म्हि जाओ।। इहार्जयन्ति श्रमणोऽस्मि जातः।। सुनकर मैं श्रमण हो गया। १३.उच्चोयए महु कक्के य बंभे उच्चोदयो मधुः कर्कश्च ब्रह्मा (चक्री-) “उच्चोदय, मधु, कर्क, मध्य और ब्रह्मा पवेइया आवसहा य रम्मा। प्रवेदिता आवसथाश्च रम्याः। ये प्रधान प्रासाद' तथा दूसरे अनेक रम्य प्रासाद हैं। इमं गिहं चित्त! धणप्पभूयं इदं गृहं चित्र ! प्रभूतधनं चित्र! पंचाल देश की विशिष्ट वस्तुओं से युक्त और पसाहि पंचालगुणोववेयं ।। प्रशाधि पञ्चालगुणोपेतम्।। प्रचुर धन से पूर्ण यह घर है इसका तू उपभोग कर।" १४.नट्टेहि गीएहि य वाइएहिं नाट्यैीतैश्च वादित्रैः “हे भिक्षु ! तू नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ नारीजणाइं परिवारयंतो। नारीजनान् परिवारयन्। नारी-जनों को परिवृत करता हुआ इन भोगों को भुंजाहि भोगाइ इमाइ भिक्खू! भुच भोगानिमान् भिक्षो! भोग। यह मुझे रुचता है। प्रव्रज्या वास्तव में ही मम रोयई पव्वज्जा हु दुक्खं ।। मह्य राचत प्रमज्या खलु दुःखम्।। कष्टकर १५.तं पुवनेहेण कयाणुरागं तं पूर्वस्नेहेन कृतानुरागं धर्म में स्थित और उस (राजा) का हित चाहने वाले नराहिवं कामगुणेस गिद्धं। नराधिपं कामगुणेषु गृद्धम्। चित्र मुनि ने पूर्वभव के स्नेह-वश अपने प्रति धम्मस्सिओ तस्स हियाणुपेही धर्माश्रितस्तस्य हितानुप्रेक्षी अनुराग रखने वाले कामगुणों में आसक्त राजा से चित्तो इमं वयणमुदाहरित्था ।। चित्र इदं वचनमुदाहार्षीत्।। यह वचन कहा१६.सव्वं विलवियं गीयं सर्व विलपितं गीतं सब गीत विलाप हैं, सब नाट्य विडम्बना हैं, सब सव्वं नट्ट विडंबियं। सर्वं नाट्यं विडम्बितम्। आभरण भार हैं और सब काम-भोग दुःखकर हैं।" सव्वे आभरणा भारा सर्वाण्याभरणानि भाराः सव्वे कामा दुहावहा।। सर्वे कामा दुःखावहाः ।। Jain Education Intemational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २३० अध्ययन १३ : श्लोक १७-२५ १७.बालाभिरामेसु दुहावहेसु बालाभिरामेषु दुःखावहेषु “राजन् ! अज्ञानियों के लिए रमणीय और दुःखकर न तं सुहं कामगुणेसु रायं! न तत्सुखं कामगुणेषु राजन् ! काम-गुणों में वह सुख नहीं है, जो सुख कामों से विरत्तकामाण तवोधणाणं विरक्तकामानां तपोधनानां विरक्त, शील और गुणों में रत तपोधन भिक्षु को प्राप्त जं भिक्खुणं सीलगुणे रयाणं ।। यद् भिक्षूणां शीलगुणे रतानाम् ।। होता है।" १८.नरिंद! जाई अहमा नराणं नरेन्द्र ! जातिरधमा नराणां "नरेन्द्र ! मनुष्यों में चांडाल-जाति अधम है। उसमें सोवागजाई दुहओ गयाणं। श्वपाकजातिद्धयोः गतयोः । हम दोनों उत्पन्न हो चुके हैं। वहां हम चाण्डालों की जहिं वयं सव्वजणस्स वेस्सा यस्यामावां सर्वजनस्य द्वेष्यो बस्ती में रहते थे और सब लोग हमसे द्वेष करते वसीय सोवागनिवेसणेसु ।। अवसाव श्वपाकनिवेशनेषु ।। थे।" १६.तीसे य जाईइ उ पावियाए तस्यां च जातौ तु पापिकायाम् "दोनों ने कुत्सित चाण्डाल जाति में जन्म लिया और वुच्छामु सोवागनिवेसणेसु। उषितौ श्वपाकनिवेशनेषु। चांडालों की बस्ती में निवास किया। सब लोग हमसे सव्वस्स लोगस्स दुगंछणिज्जा सर्वस्य लोकस्य जुगुप्सनीयौ घृणा करते थे। इस जन्म में जो उच्चता प्राप्त हुई है, इहं तु कम्माइं पुरेकडाई।। इह तु कर्माणि पुराकृतानि ।। वह पूर्वकृत शुभ कमों का फल है।” २०.सो दाणिसिं राय ! महाणुभागो स इदानीं राजन् ! महानुभागः । हे राजन् ! वर्तमान में “उसी के कारण वह तू महिड्ढिओ पुण्णफलोववेओ। महर्धिकः पुण्यफलोपेतः। महान् अनुभाग (अचिन्त्य-शक्ति) सम्पन्न, ऋद्धिमान चइत्तु भोगाइ असासयाइं त्यक्त्वा भोगानशाश्वतान् और पुण्य-फल युक्त राजा बना है। इसलिए तू आयाणहेउं अभिणिक्खमाहि।। आदानहेतोरभिनिष्क्राम।। अशाश्वत भोगों को छोड़कर आदान–चारित्र धर्म की" आराधना के लिए अभिनिष्क्रमण कर।" २१.इह जीविए राय ! असासयम्मि इह जीविते राजन् ! अशाश्वते "राजन् ! जो इस अशाश्वत जीवन में प्रचुर" शुभ धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो। 'धणियं तु पुण्यान्यकुर्वाणः। अनुष्ठान नहीं करता, वह मृत्यु के मुंह में जाने पर से सोयई मच्चुमुहोवणीए स शोचति मृत्युमुखोपनीतः पश्चात्ताप करता है और धर्म की आराधना नहीं होने धम्मं अकाऊण परंसि लोए।। धर्ममकृत्वा परस्मिल्लोके ।। के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है।" २२.जहेह सीहो व मियं गहाय यथेह सिंहो व मृगं गृहीत्वा "जिस प्रकार सिंह हरिण को पकड़ कर ले जाता है, मच्चू नरं नेइ हु अंतकाले। मृत्युर्नर नयति खलु अन्तकाले। उसी प्रकार अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। न तस्स माया व पिया व भाया न तस्य माता वा पिता वा भ्राता काल आने पर उसके माता-पिता या भाई अंशधर" कालम्मि तम्मिसहरा भवंति।। काले तस्यांशधरा भवन्ति।। नहीं होते-अपने जीवन का भाग दे कर बचा नहीं पाते।" पइत्तु भोग पुण्णफलोवभागो २३.न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ न तस्य दुःखं विभजन्ति ज्ञातयः ज्ञाति, मित्र-वर्ग, पुत्र और बान्धव" उसका दुःख न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा। न मित्रवर्गा न सुता न बान्धवाः। नहीं बंटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं एकः स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखं करता है। क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ।। करिमेवानुयाति कम।। २४.चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च त्यक्त्वा द्विपदं च चतुष्पदं च यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, धान्य, खेत्तं गिहंधणधन्नं च सव्वं। क्षेत्र गृहं धन-धान्यं च सर्वम। वस्त्र आदि सब कुछ छोड कर केवल अपने किये कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ कर्मात्मद्वितीयोऽवशः प्रयाति कों को साथ लेकर सुखद या दुःखद पर-भव में परं भवं सुंदर पावगं वा।। परं भवं सुन्दरं पापकं वा।। जाता है। २५.तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से तदेककं तुच्छशरीरकं तस्य उस अकेले और असार शरीर को अग्नि से चिता में चिईगयं डहिय उ पावगेणं। चितिगतं दग्ध्वा तु पावकेन। जलाकर स्त्री, पुत्र और ज्ञाति किसी दूसरे दाता भज्जा य पुत्ता वि य नायओय भार्या च पुत्रोपि च ज्ञातयश्च (जीविका देने वाले) के पीछे चले जाते हैं।२० दायारमन्नं अणुसंकमंति।। दातारमन्यमनुसङ्क्रमन्ति।। Jain Education Intemational Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र-संभूतीय २३१ अध्ययन १३ : श्लोक २६-३४ २६.उवणिज्जई जीवियमप्पमायं उपनीयते जीवितमप्रमादं “राजन् ! कर्म बिना भूल किए (निरन्तर) जीवन को वण्णं जरा हरइ नरस्स रायं!। वर्ण जरा हरति नरस्य राजन् !। मृत्यु के समीप ले जा रहे हैं। बुढ़ापा मनुष्य के वर्ण पंचालराया! वयणं सुणाहि पञ्चालराज ! वचनं शृणु (सुस्निग्ध कांति) का हरण कर रहा है। पंचालराज ! मा कासि कम्माई महालयाई।। मा कार्षीः कर्माणि महान्ति।। मेरा वचन सुन। प्रचुर कर्म" मत कर।" २७.अहं पि जाणामि जहेह साहू ! अहमपि जानामि यथेह साधो ! (चक्री-.) “साधो ! तू जो मुझे यह वचन जैसे कह जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं। यन्मम त्वं साधयसि वाक्यमेतत् । रहा है, वैसे मैं भी जानता हूं कि ये भोग आसक्तिजनक भोगा इमे संगकरा हवंति। भोगा इमे सङ्गकरा भवंति होते हैं। किन्तु हे आर्य ! हमारे जैसे व्यक्तियों के लिए जे दुज्जया अज्जो! अम्हारिसेहिं। ये दुर्जया आर्य ! अस्मादृशैः।। ये दुर्जय हैं।" २८.हत्थिणपुरम्मि चित्ता! हस्तिनापुरे चित्र! “चित्र मुने! हस्तिनापुर में महान् ऋद्धि वाले चक्रवर्ती ठूणं नरवई महिड्ढियं। दृष्ट्वा नरपतिं महर्द्धिकम् । (सनत्कुमार) को देख भोगों में आसक्त होकर मैंने कामभोगेसु गिद्धेणं कामभोगेषु गृढेन अशुभ निदान (भोग-संकल्प) कर डाला।" नियाणमसुहं कडं।। निदानमशुभं कृतम्।। २६.तस्स मे अपडिकंतस्स तस्य मेऽप्रतिक्रांतस्य “उसका मैने प्रतिक्रमण (प्रायश्चित्त) नहीं किया। उसी इमं एयारिसं फलं। इदमेतादृशं फलम्। का यह ऐसा फल है कि मैं धर्म को जानता हुआ भी जाणमाणो वि जं धम्म जानन्नपि यद धर्म काम-भोगों में मूछित हो रहा हूं।" कामभोगेसु मुच्छिओ।। कामभोगेषु मूछितः ।। ३०.नागो जहा पंकजलावसन्नो नागो यथा पङ्कजलावसन्नः “जैसे पंक-जल (दलदल) में फंसा हुआ हाथी स्थल दटुं थलं नाभिसमेइ तीरं। दृष्ट्वा स्थलं नाभिसमेति तीरम्। को देखता हुआ भी किनारे पर नहीं पहुंच पाता, वैसे एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा एवं वयं कामगुणेषु गृद्धाः ही काम-गुणों में आसक्त बने हुए हम श्रमण-धर्म को न भिक्खुणो मग्गमणुव्वयामो।। न भिक्षोर्मार्गमनुव्रजामः ।। जानते हुए भी उसका अनुसरण नहीं कर पाते।" ३१.अच्चेइ कालो तूरंति राइओ अत्येति कालस्त्वरन्ते रात्रयः (मुनि-) “जीवन बीत रहा है। रात्रियां दौड़ी जा रही न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा। न चापि भोगाः पुरुषाणां नित्याः। हैं। मनुष्यों के भोग भी नित्य नहीं हैं। वे मनुष्य को उविच्च भोगा पुरिसं चयंति उपेत्य भोगाः पुरुषं त्यजन्ति प्राप्त कर उसे छोड़ देते हैं, जैसे क्षीण फल वाले वृक्ष दुमं जहा खीणफलं व पक्खी।। द्रुमं यथा क्षीणफलमिव पक्षी।। को पक्षी।" ३२.जइ ता सि भोगे चइउं असत्तो यदि तावदसि भोगान् त्यक्तुमशक्त: “राजन् ! यदि तू भोगों का त्याग करने में असमर्थ है अज्जाई कम्माई करेहि रायं!। आर्याणि कर्माणि कुरु राजन् !। तो आर्य-कर्म कर। धर्म में स्थित होकर सब जीवों की धम्मे ठिओ सव्वपयाणकंपी धमे स्थितः सर्वप्रजानुकम्पी अनुकम्पा करने वाला बन, जिससे तू जन्मान्तर में तो होहिसि देवा इओ विउवी।। तस्माद् भविष्यसि देव इतौ वैक्रियी।। वैक्रिय शरीर वाला देव होगा।" । ३३.न तुज्झ भोगे चइऊण बुद्धी न तव भोगान् त्यक्तुं बुद्धिः "तुझ में भोगों को त्यागने की बुद्धि नहीं है। तू गिद्धो सि आरंभपरिग्गहेस। गृद्धोसि आरम्भपरिग्रहेषु। आरम्भ और परिग्रह में३ आसक्त है। मैंने व्यर्थ ही मोहं कओ एत्तिउ विप्पलावो मोघं कृत एतावान् विप्रलापः इतना प्रलाप किया। तुझे आमंत्रित (सम्बोधित) किया। गच्छामि रायं! आमंतिओ सि।। गच्छामि राजन् ! आमन्त्रितोऽसि ।। राजन् ! अब मैं जा रहा हूं।" ३४.पंचालराया वि य बंभदत्तो पञ्चालराजोपि च ब्रह्मदत्तः पंचाल जनपद के राजा ब्रह्मदत्त ने मुनि के वचन का साहुस्स तस्स वयणं अकाउं। साधोस्तस्य वचनमकृत्वा। पालन नहीं किया। वह अनुत्तर काम भोगों को भोग अणुत्तरे भुंजिय कामभोगे अनुत्तरान् भुक्त्वा कामभोगान् कर अनुत्तर (अप्रतिष्ठान) नरक में गया। अणुत्तरे सो नरए पविट्रो।। अनुत्तरे स नरके प्रविष्टः।। Jain Education Intemational Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १३ : श्लोक ३५ उत्तरज्झयणाणि २३२ ३५.चित्तो वि कामेहि विरत्तकामो चित्रोपि कामेभ्यो विरक्तकामः उदग्गचारित्ततवो महेसो। उदग्रचारित्रतपा महर्षिः। अणुत्तरं संजम पालइत्ता अनुत्तरं संयम पालयित्वा अणुत्तरं सिद्धिगई गओ।। अनुत्तरां सिद्धिगतिं गतः ।। कामना से विरक्त और उदात्त चारित्र-तप वाला महर्षि चित्र अनुत्तर संयम का पालन कर अनुत्तर सिद्धिगति को प्राप्त हुआ। —त्ति बेमि। --इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन १. हस्तिनापुर में (हत्थिणपुरम्मि) वर्तमान में इसकी पहचान हस्तिनापुर गांव से की जाती है । यह मेरठ जिले के मवाना तहसील में मेरठ से बाईस मील उत्तर-पूर्व में स्थित है। विशेष विवरण के लिए देखें-- परिशिष्ट ५ । २. निदान ( नियाणं) निदान का अर्थ है - पौद्गलिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला संकल्प । यह आर्त्तध्यान के चार भेदों में से चौथा भेद है दशाश्रुतस्कंध दशा १० में इसका विस्तृत वर्णन प्राप्त है। प्रस्तुत प्रसंग में मुनि संभूत द्वारा किए गए निदान का उल्लेख है । नमुचि से पराजित होकर मुनि संभूत ने तेजोलेश्या का प्रयोग किया। सारा नगर अन्धकारमय हो गया। पौरजन भयभीत हो गए। चक्री सनत्कुमार और पौरजन मुनि के पास आए। अनुनय-विनय कर तेजोलेश्या के संहरण की प्रार्थना की। चक्रवर्ती की पत्नी सुनन्दा मुनि के चरणों में गिर पड़ी। उसके केशों के सुखद और कोमल स्पर्श से मुनि विचलित हो गए। उन्होंने निदान किया -- यदि मेरी तपस्या का फल है तो मैं अगले जन्म में चक्रवर्ती बनूं। पूरे कथानक के लिए देखें – आमुख । ३. कांपिल्य नगर में (कंपिल्ले) १३ : चित्र - संभूतीय ४. ( श्लोक ६ ) दसणे दशार्ण देश । बुंदेलखंड और केन नदी का प्रदेश दशार्ण माना जाता है। इस नाम के दो देश मिलते हैं—पूर्व दशार्ण और पश्चिम दशार्ण । पूर्व दशार्ण मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ जिले में माना जाता है। पश्चिम दशार्ण में भोपाल राज्य और पूर्व मालव का समावेश होता है। उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में फतेहगढ़ से अठाइस मील उत्तर-पूर्व गंगा के समीप कांपिल गांव है। कांपिल्य की पहचान इसी गांव से की जाती है। विशेष विवरण के लिए देखें—परिशिष्ट ५ । 9. पुरिमताल में ( पुरिमतालम्मि) मानभूम के पास 'पुरुलिया' नाम का गांव है। यह अयोध्या का शाखा-नगर है। माना जाता है कि यही पुरिमताल है। विशेष विवरण के लिए देखें—परिशिष्ट ५ । (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१५: मतगंगा-हेट्ठाभूमीए गंगा, अण्णमणेहिं मग्गेहिं जेण पुव्वं वोढूणं पच्छा ण वहति सा भतगंगा भण्णति । (ख) सर्वार्थसिद्धि, पृ० २६१ : गंगा विशति पाथोधिं, वर्षे वर्षे पराध्वना । वाहस्तत्रचिरात् त्यक्तो, मृतगंगेति कथ्यते ।। कालिंजरे नगे — कालिंजर पर्वत । यह बांदा के पूरब में स्थित एक पहाड़ है। यह तीर्थस्थान भी माना जाता है। 1 मयंगतीरे—मृतगंगा के किनारे । चूर्णि और सर्वार्थसिद्धि के अनुसार गंगा प्रति वर्ष नए-नए मार्ग से समुद्र में जाती है। जो मार्ग चिर- त्यक्त हो- बहते - बहते गंगा ने जो मार्ग छोड़ दिया हो उसे मृतगंगा कहा जाता है।' 1 कासिभूमि— काशी देश में काशी जनपद पूर्व में मगध, पश्चिम में वत्स, उत्तर में कौशल और दक्षिण में 'सोन' नदी तक विस्तृत था। इसकी राजधानी थी वाराणसी। आज बनारस को ही काशी कहा जाता है। 1 विशेष विवरण के लिए देखें—परिशिष्ट ५ । ५. सत्य और शौचमय (सच्चसोय.... ..) चूर्णिकार ने सत्य के दो अर्थ किए हैं—सबके 'लिए हितकर और संयम । शौच शब्द के तीन अर्थ प्राप्त हैं— विशुद्धि, मायारहित अनुष्ठान अर्थात् व्रतों का स्वीकरण और तप । * वृत्ति में सत्य का अर्थ है— मृषा भाषा का परिहार और शौच का अर्थ है—मायारहित अनुष्ठान । ६. (श्लोक १०) प्रस्तुत श्लोक का वाक्य है—कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि - किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। प्रश्न होता है— क्या सभी कर्मों का फल भुगतना पड़ता है ? चूर्णिकार का मत है कि जो कर्म निधत्ति और निकाचित रूप में बद्ध है, उन्हें भोगना ही पड़ता है। शेष कर्मों को बदला जा सकता है—उनके रस को मंद और स्थिति को कम किया जा सकता है। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१५ । २. ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३८४ । ४. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २१५: बद्धपुव्वा णिधत्तणिकाइयाणं ण मोक्खो अत्थि । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २३४ अध्ययन १३ : श्लोक १२-१४ टि० ७-१० किन्तु कर्म-सिद्धांत के अनुसार चूर्णि का यह मंतव्य किए हैं—आश्चर्यकारी अथवा अनेक प्रकार का। विचारणीय है। निधत्ति में उद्वर्तना और अपवर्तना-दोनों होते वास्तव में यहां 'चित्त' (सं० चित्र) शब्द संबोधन है और हैं। निकाचित में कोई परिवर्तन नहीं होता। 'धणप्पभूयं' गृह का विशेषण है। ७. (श्लोक १२) जेकोबी ने भी यही मानकर अपने मंत के समर्थन में वयणप्पभूया-इसके संस्कृत रूप 'वचनाप्रभता' या ल्यूमेन को साक्ष्य माना है। 'वचनाल्पभूता....दोनों हो सकते हैं। दोनों का अर्थ है- १०. नाट्य (नट्टेहि) अल्पाक्षर वाली।' शान्त्याचार्य ने नट्ट की व्याख्या नाट्य और नृत्य इन दोनों सीलगुणोववेया इसका अर्थ है-शील और श्रुत से रूपों में की है। जिसमें बत्तीस पात्र हों, वह 'नाट्य' होता है। सम्पन्न । शील और गुण-इन दो शब्दों का अर्थ 'अपृथक' और जिसमें अंगहार (अंगविक्षेप) की प्रधानता हो, वह 'नृत्य' होता है। 'पृथक्'-दोनों रूप से किया जा सकता है। वृत्तिकार ने 'शील' भारतीय नृत्य के तीन विभाग हैं-नाट्य, नृत्य और नृत्त। का अर्थ चारित्र कर उसी को गुण माना है-चारित्र रूप गुण। नाट्य-किसी रस-मूलक अवस्था के अनुकरण को विकल्प में उन्होंने गुण का अर्थ श्रुत किया है। नाट्य कहते हैं। नाट्य के आठ रस होते हैं-शृङ्गार, हास्य, विशेषावश्यक भाष्य में 'चरणगुण' शब्द प्रयुक्त है। वृत्तिकार करुण, वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स और अद्भुत । नवां शान्तरस मलधारी हेमचन्द्र ने इन दोनों शब्दों की व्याख्या इस प्रकार की है-३ नाट्य में नगण्य है। रस का आधार है भाव। भाव के उद्दीप्त चरण----महाव्रत, श्रमण-धर्म आदि मूलगुण अथवा सर्वचारित्र होने पर रस की सृष्टि होती है। या देशचारित्र। नाट्य की अवस्थानुकृति चार प्रकार के साधनों से होती गुण-उत्तरगुण अथवा दर्शन और ज्ञान। अज्जयंते—यह क्रियापद है। बृहद्वृत्तिकार ने 'अज्जयते' (१) आंगिक हाथ-पैर का संचालन। इसके अन्तर्गत (अर्जयन्ति) या 'जयंते' (यतन्ते) इन दोनों की व्याख्या की है। मुद्राएं हैं। 'अर्जयन्ति' अर्थात् पठन, श्रवण और अनुष्ठान द्वारा प्राप्त करते (२) वाचिक स्वर, वाणी तथा भाव का अनुकरण। हैं 'यतन्ते' क्रिया मानने पर तीसरे चरण का अनुवाद होगा- (३) आहार्य-वेशभूषा का अनुकरण। जिसे सुनकर चारित्रगुणयुक्त भिक्षु जिन-प्रवचन में यत्न करते हैं।' (४) सात्त्विक-सात्त्विक भावों का अनुकरण। ८. प्रासाद (आवसहा) सात्त्विक भाव आठ हैंप्रस्तुत श्लोक में मूलतः चार प्रकार के प्रासादों का उल्लेख (१) स्तम्भ-अंग-संचालन शक्ति का लोप होना है-उच्चोदय, मधु, कर्क और ब्रह्मा । श्लोक के प्रथम चरण में (२) प्रलय-संज्ञा का लोप होना। प्रयुक्त 'च' से 'मध्य' नामक प्रासाद का ग्रहण अभिप्रेत है। चूर्णि (३) रोमांचरोंगटे खड़े होना। और वृत्ति में इन पांचों प्रासादों का नामोल्लेख है, पर इनका (४) स्वेद-पसीना छलकना। स्वरूप-विमर्श नहीं है। इन पांच भवनों के अतिरिक्त भवन (५) वैवर्ण्य-रंग बदलना। चक्रवर्ती जहां चाहते हैं उसी स्थान में वकिरत्न द्वारा तैयार हो (६) वेपथु-कंपकंपी। जाते हैं। (७) अश्रु-आंसू बहाना। हरमन जेकोबी ने 'उच्चोदए' शब्द को तोड़कर 'उच्च' (८) वैस्वर्य-स्वर विकृत होना। और 'उदय'--नाम के प्रासाद मानकर पांच की संख्या पूरी की नृत्य-भाव-मूलक अवस्थानुकृति को 'नृत्य' कहते हैं। है। उन्होंने 'मध्य' नामक प्रासाद को नहीं माना है। भाव मन के विकार को कहते हैं। भाव दो प्रकार के होते हैं९. चित्र !...प्रचुर धन से पूर्ण (चित्त ! घणप्पभूयं) स्थायीभाव और संचारीभाव। स्थायीभाव हृदय पर देर तक वृत्तिकार ने 'चित्तधणप्पभूयं' ऐसा पद मानकर इसका अंकित रहते हैं। संचारीभाव तरंगों की भांति थोड़े काल के लिए संस्कृत रूप 'प्रभूतचित्रधनं' दिया है। उन्होंने 'चित्र' के दो अर्थ उठते हैं। इनकी संख्या तेतीस कही गई है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ३८५। ६. जैन सूत्राज, पृ०५८। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३८५ : शीलं चारित्रं, तदेव गुणः, यद् वा गुणः पृथगेव ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३८६ : चित्तधणप्पभूयं ति तत्र प्रभूत-बहुचित्रम्ज्ञानम् । ततः शीलगुणेन शीलगुणाभ्यां वा चारित्रज्ञानाभ्याम् । आश्चर्यमनेकप्रकारं वा धनमस्मिन्निति प्रभूतचित्रधनं, सूत्रे तु प्रभूतशब्दस्य ३. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १, शिष्यहिता व्याख्या, पृ०२। परनिपातः। ४. वृहद्वृत्ति, पत्र ३८५ : अज्जयंते त्ति अर्जयन्ति पठनश्रवणतदर्थानुष्ठाना- ८. जैन सूत्राज, पृ० ५८, फुटनोट नं १।। दिभिरावर्जयन्ति। यद्धा 'जं भिक्खुणो' इत्यत्र श्रुत्वेति शेषः, ततो यां ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३८६ : ‘ण हिं' ति द्वात्रिंशत्पात्रोपलक्षितैर्नाट्यैर्नृत्यैर्वा श्रुत्वा 'जयंत' त्ति इह--अस्मिन् जिनप्रवचने 'यतन्ते' यत्नवन्तो भवन्ति। विविधाङ्गहारादिस्वरूपैः। ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१६। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र-संभूतीय २३५ अध्ययन १३ : श्लोक १६-२० टि०११-१४ नृत्त लय तथा तालमूलक अवस्थाकृति को 'नृत्त' कहते पीड़ित होता है। जो दूसरों को विस्मित करने के लिए उन्हीं हैं। नृत्य और नृत्त मूक होते हैं। इनमें वाचिक साधन का प्रयोग आभरणों को स्वयं धारण करता है तब कार्य की गुरुता को ध्यान नहीं होता। मूक नृत्य की भाषा अनुभाव (सात्त्विक-भाव) और में रखकर भार को महसूस नहीं करता। पर वे वास्तव में मुद्राएं हैं। नृत्य द्वारा भाव-प्रदर्शन होता है और नृत्त द्वारा लय भारभूत ही होते हैं।' और ताल-प्रदर्शन होता है। ___ एक श्रेष्टिपुत्र की पुत्रवधू बहुत प्रेमालु और कोमलांगी ११. (श्लोक १६) थी। एक बार सासू ने कहा-बहू ! चौक में जो पत्थर की लोढी प्रस्तुत श्लोक में जिन चार बातों का कथन किया गया है. पड़ी है, उसे उठा ला। वह बोली-'मां! वह बहत भारी है. मैं यह सापेक्ष वक्तव्य है। यह विराग या परमार्थ की भूमिका का उसे उठा नहीं सकती। पति ने सोचा-यह शारीरिक श्रम से जी दृष्टिकोण है। चुरा रही है। उसने एक उपाय सोचा। उसने उस पत्थर पर (१) सव्वं विलवियं गीयं-- स्वर्ण का झोल चढ़वाया और उसे गले के आभूषण का रूप दे “विलवियं" का अर्थ है--विलाप। वृत्तिकार ने विलाप के दिया। उसे लेकर वह पत्नी के पास आकर बोला-मैं स्वर्ण का दो हेतु माने हैं-निरर्थकता और रुदनमूलकता। गीत विलाप एक आभूषण लाया हूं। वह भारी अवश्य है, पर है सुन्दर और इसलिए है कि वह मत्त बालकों की भांति निरर्थक होता है। वह मूल्यवान्। पत्नी बोली—कोई चिन्ता नहीं है। मैं उसे गले में विलाप इसलिए है कि वह विधवा या परदेशांतर गए हुए पति की धारण कर लूंगी। उसने उसे गले में पहन लिया। वह भारी-भरकम पत्नी के रुदन से उद्भूत होता है, इसलिए वह रुदनधर्मा है। था। गले के लिए आरामदेय भी नहीं था। पर था स्वर्ण का नौकर अपने कुपित स्वामी को प्रसन्न करने के लिए आभूषण। कुछ दिन बीते। एक दिन पति ने मुस्करा कर कहाजो-जो वचन कहता है, अपने आपको दास की भांति खड़ा प्रिये ! तुमने उस दिन कहा था कि पत्थर की लोढी भारी है, रखकर, प्रणत होकर जो कुछ याचना करता है, वह सारा विलाप इसलिए उठा नहीं सकती। पर तुम बीस दिनों से उसी लोढी को ही है। प्रोषितभर्तृका स्त्री और नौकर जो क्रियाएं करते हैं, वे सब गले में लटकाए घूम रही हो। क्या भार नहीं लगा ? इतना सुनते गीत कहलाती हैं। क्या यह विलाप नहीं है ? रोग से अभिभूत हा व अथवा इष्ट के वियोग से दुःखी व्यक्ति क्या विलाप नहीं करता? १२. दाना न.....निवास किया (छामु) उसी प्रकार जो गीत आदि गाते हैं, वे राग की वेदना से अभिभूत वृत्ति में 'वुच्छा' और 'मु' को अलग-अलग मानकर होकर गाते हैं। यह भी विलाप ही है।' 'वुच्छा' का अर्थ निवास किया है और 'मु' का अर्थ- हम दोनों (२) सव्वं नटें विवियं ने किया है। चूर्णिकार ने विडंबना की व्याख्या इस प्रकार की है-जो १३. वर्तमान में (दाणिसिं) स्त्री या पुरुष यक्षाविष्ट है, शत्रु पक्ष के द्वारा अवरुद्ध है अथवा बृहद्वृत्तिकार ने 'सिं' को पद-पूर्ति के लिए माना है और पीकर उन्मत्त हो चुका है वह शरीर और वाणी से जो चेष्टाएं वैकल्पिक रूप में 'दाणिसिं' को देशी भाषा का शब्द मानकर करता है, वे सारी विडंबना हैं। इसी प्रकार जो स्त्री या पुरुष इसका अर्थ इदानीं-वर्तमान में किया है।' अपने स्वामी के परितोष के लिए अथवा किसी धनवान् के द्वारा १४. आदान-चारित्र धर्म की (आयाण) नियुक्त किए जाने पर शास्त्रीय विधि के अनुसार नाट्य का 'आयाण' के संस्कृत रूप दो बनते हैं-आदान सहारा लेकर हाथ, पैर, नयन, होठ आदि का संचालन करता और आयान। आगमों में यह शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है—विविध प्रकार की मुद्राओं में हावभाव करता हुआ नाचता हैहै, यह सारी विडंबना ही है। १. इन्द्रिय ५. व्रतों का स्वीकार । (३) सव्वे आभरणा मारा २. ज्ञान आदि। ६. संयम।" जो व्यक्ति किसी की आज्ञा का वशवर्ती होकर मुकुट आदि ३. मार्ग। ७. कर्म।२ आभरण धारण करता है, वह भार का अनुभव करता हुआ ४. आदि-प्रथम। ८. चारित्र।३ १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१६, २१७ ॥ ८. सूयगडो १।१।५३ : संति मे तओ आयाणा, जेहिं केरइ पावं । २. वही, पृ०२१७। ९. अणुओगदाराई, सूत्र ३१६ : से किं तं दस नामे?.....-आयाणपएणं। ३. वही, पृ० २१७। १०. सूयगडो २७।२२ : समणोवासगरस आयाणसो आमरणंताए। ४. वृहद्वृत्ति, पत्र ३८७ : वुक्छे ति उषितौ, 'मु' इत्यावां । ११. सूत्रकृतांगवृत्ति, पत्र २३५ : तथा मोक्षार्थिनाऽदीयते-गृह्यते इत्यादानं५. वही, पत्र ३८७ : इदानीम् काले 'सि' ति पूरेणे यद् वा 'दाणिसिं' ति संयमः। देशीयभाषयेदानीम्। १२. वही, पत्र २३५ : यदि वा मिथ्यात्वादिनादीयते इत्यादान-अष्टप्रकार ६. (क) सूयगडो १।१२।२२ : आयाणगुत्ते वलयाविमुक्के। कर्म। (ख) आयारो ६३५ : .....आयाणप्पभिई सुपणिहिए चरे। १३. उत्तरज्झयणाणि १३।२० : आयाणहेडं अभिणिक्खमाहि। ७. सृयगडो १।१४।१७ : आदाणमट्ठी वोदाणमोणं। चूर्णि पृ०२१८ : आदाणं णाम चारित्तं । Jain Education Intemational Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २३६ अध्ययन १३ :श्लोक २१-३५ टि०१५-२४ ६. उपादान। कुछ लौकिक कृत्य करते हैं, रोते हैं, विलाप करते हैं, फिर उसे १०. परिग्रह। विस्मृत कर अपने स्वार्थ-संपादन के लिए आजीविका देने वाले ११. ज्ञान, दर्शन और चरित्र । दूसरे दाता का आश्रय ले लेते हैं। फिर वे कभी उसकी बात भी १५. प्रचुर (धणियं) नहीं करते, अनुगमन तो दूर रहा। यह देशीपद प्रचुर के अर्थ में प्रयुक्त है। २१. प्रचुर कर्म (कम्माइं महालयाई) १६. शुभ अनुष्ठान (पुण्णाई) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-अनन्त और दीर्घ यहां पुण्य पद धर्म के अर्थ में प्रयुक्त है। चौथे चरण में स्थिति वाले कर्म। उनको क्षीण करना कष्टसाध्य होता है, धर्म शब्द का प्रयोग भी है। 'पुव्वाइं अकुव्वमाणो' और 'धम्मं इसलिए दीर्घकाल तक उन्हें भोगना पड़ता है। अकाऊण'-इन दोनों में संबद्धता है। पुण्य नौ पदार्थों में एक वृत्ति में इसका मुख्य अर्थ प्रचुर या अनन्त है और पदार्थ है। उसका अर्थ है-शुभ कर्म पुद्गल का उदय। यहां यह वैकल्पिक अर्थ है-अत्यन्त चिकने कर्म, वैसे कर्म जिनका अर्थ प्रासंगिक नहीं है। अनुभाग-आश्लेष बहुत सघन हो।' १७. अंशधर (अंसहर) २२ (व) इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं-अंशधर और अंशहर। 'इव' अर्थ में चार अव्यय प्रयुक्त होते हैं-पिव, मिव, 'अंशधर' का अर्थ है-अपने जीवन का अंश देकर मरते हुए को विव और व। यहां 'व इव अर्थ में प्रयुक्त है।' बचाने वाला। 'अंशहर' का अर्थ है-दुःख में भाग बंटाने वाला। २३. आरंभ और परिग्रह में (आरंभ परिग्गहेसु) १८. ज्ञाति.....बांधव (नाइओ...बंधवा) आरम्भ और परिग्रह-यह एक युगल है। आरम्भ का ज्ञाति और बन्धु-इन दोनों शब्दों के अर्थ भिन्न-भिन्न अर्थ है-हिंसा और परिग्रह का अर्थ है-पदार्थ का संग्रह। हैं। जो दूरवर्ती स्वजन हैं, वे ज्ञाति कहलाते हैं। जो निकटवर्ती दोनों अन्योन्याश्रित हैं। परिग्रह हिंसामूलक होता है। हिंसा के सगे-संबंधी हैं, वे बन्धु कहलाते हैं।' लिए परिग्रह नहीं होता, परिग्रह के लिए हिंसा होती है, इसलिए १९. (एक्को.....अणुजाइ कम्म) हिंसा और परिग्रह साथ-साथ चलते हैं-हिंसा+परिग्रह, कर्मवाद का सिद्धांत है—प्राणी अकेला ही अपने दुःख परिग्रा परिग्रह+हिंसा। और सुख का अनुभव करता है। कोई भी उसमें हिस्सा नहीं स्थानांग सूत्र में जीव को अनेक वस्तुओं की अनुपलब्धि बंटाता। जैसे-वत्सो विन्दति मातरं-बछडा गाय के पीछे-पीट के आरम्भ और परिग्रह को मुख्य हेतु माना है-आरंभे चेव चलता है, वैसे ही कर्म कर्ता का अनुगमन करता है। कर्म का परिग्गहे चेव। सिद्धांत नितांत व्यक्तिवादी है। कर्म करने और भोगने में व्यक्ति २४. (श्लोक ३४-३५) केवल व्यक्ति रहता है। इस क्षेत्र में वह कभी सामुदायिक नहीं 'अणुत्तर'-अनुत्तर शब्द दो श्लोकों में चार बार प्रयुक्त बनता। है। चौंतीसवें श्लोक में वह काम-भोग और नरक का विशेषण २०. दूसरे दाता के पीछे चले जाते हैं (दायारमन्नं अणुसंकमति) है। पैंतीसवें में वह संयम और सिद्धि-गति का विशेषण है। __यह पद्यांश प्राचीन कौटुम्बिक परम्परा का द्योतक है। उस अनुत्तर का अर्थ है-प्रकृष्ट । ब्रह्मदत्त के काम-भोग प्रकृष्ट थे, समय घर का मुखिया मर जाने पर, दूसरे को मुखिया बना लिया इसलिए वह मर कर प्रकृष्ट (सर्वोत्कृष्ट) नरक में उत्पन्न हुआ। जाता था। घर का स्वामित्व उसी का हो जाता था। स्थानांग में बताया गया है कि ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती मर कर सातवीं व्यक्ति जब मर जाता है तब ज्ञातिजन उसे यथाशीघ्र पृथ्वी अप्रतिष्ठान नामक नरक में गया। श्मशान घाट ले जाना चाहते हैं। वे उस शव को श्मशान में ले चित्र का संयम प्रकृष्ट था, इसलिए वह प्रकृष्ट (सर्वोत्कृष्ट जाकर लोकलाज से उसे जलाकर राख कर डालते हैं। वे फिर सुखमय) सिद्धिगति में गया। १. आयारो ३७३ : आयाणं (णिसिद्धा?) सगडभि। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३८६ : ज्ञातयः-दूरवर्तिनः स्वजनाः ।.....बान्धवा२. वही ६५६ : एवं खु मुणी आयाणं.....। निकटवर्तिनः स्वजनाः। वृत्ति पत्र २२१ : आदानं-वस्त्रं कर्म वा। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१६ : कम्माई महालयाई.....अनन्तानीत्यर्थः, ३. आचारांग चूर्णि, पत्र २१७ : आयाणं नाणादि तियं। दुर्मोचकत्वाच्च चिरस्थितिकानि। ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २१८ : अंशो नाम दुःखभागः, तमस्य न ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६० : महालयाणि ति अतिशयमहान्ति, महान् वा हरन्ति, अहवा स्वजीवितांशेन ण तं मरतं धारयति। लयः-कर्माश्लेषो येषु तानि। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३८८-३८९ : अंश-प्रक्रमाज्जीवितव्यभागं धारयति- ८. ठाणे २४१-६२। मृत्युना नीयमानं रक्षन्तीत्यंशधराः......अथवा अंशो-दुःखभागस्तं हरन्ति-- ६. ठाणं २४४८ : दो चक्कवट्टी अपरिचत्तकामभोगा कालमासे काल अपनयन्ति ये ते अंशहरा भवन्तीति। किच्चा असेहत्तमाए पुढवीए अपइट्ठाणे णरए नेरइत्ताए उववन्ना तं जहा-सुभूमे चेव बंभदते चेय। Jain Education Intemational Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउदसमं अज्झयणं उसुयारिज्जं चौदहवां अध्ययन इषुकारीय Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन के छह पात्र हैं-(१) महाराज इषुकार हुई। वे वहां से मर कर देवलोक में गए। वहां से च्युत होकर (२) रानी कमलावती (३) पुरोहित भृगु (४) पुरोहित की पत्नी उन्होंने क्षितिप्रतिष्ठित नगर में एक इभ्य-कुल में जन्म लिया। वे यशा और (५-६) पुरोहित के दो पुत्र । बड़े हुए। चार इभ्य-पुत्र उनके मित्र बने। उन सबने युवावस्था __ इनमें भृगु पुरोहित का कुटुम्ब ही इस अध्ययन का प्रधान में कामभोगों का उपभोग किया, फिर स्थविरों से धर्म सुन पात्र है। किन्तु राजा की लौकिक प्रधानता के कारण इस अ प्रव्रजित हुए। चिरकाल तक संयम का अनुपालन किया। अन्त ययन का नाम 'इषुकारीय' रखा गया है।' में अनशन कर सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है 'अन्यत्व भावना' का चार पल्य की स्थिति वाले देव बने। दोनों ग्वाल-पुत्रों को छोड़ उपदेश । आगम-काल में कई मतावलम्बियों की यह मान्यता थी कर शेष चारों मित्र वहां से च्युत हुए। उनमें एक कुरु कि पुत्र के बिना गति नहीं होती, स्वर्ग नहीं मिलता। जो व्यक्ति जनपद के इषुकार नगर में इषुकार नाम का राजा हुआ और गृहस्थ-धर्म का पालन करता है वह स्वर्ग प्राप्त कर लेता है। दूसरा उसी राजा की रानी कमलावती। तीसरा भृगु नाम का जिसके कोई सन्तान नहीं है उसका कोई लोक नहीं होता। पुत्र पुरोहित हुआ और चौथा भृगु पुरोहित की पत्नी यशा। बहुत से ही परभव होता है--सुधरता है। इसी के फलस्वरूप -- काल बीता। भृगु पुरोहित के कोई पुत्र नहीं हुआ। पति-पत्नी १. 'अपुत्रस्य गति स्ति, स्वर्गो नैव च नैव च। चिन्तित रहने लगे। गृहिधर्ममनुष्ठाय, तेन स्वर्ग गमिष्यति।।' ___ एक बार दोनों ग्वाल-पुत्रों ने, जो तब देव-भव में थे, २. “अनपत्यस्य लोका न सन्ति।" अवधिज्ञान से जाना कि वे भृगु पुरोहित के पुत्र होंगे। वे वहां ३. “पुत्रेण जायते लोकः, इत्येषा वैदिकी श्रुतिः। से चले। श्रमण का रूप बना भृगु पुरोहित के पास आए। भृगु अथ पुत्रस्य पुत्रेण, स्वर्गलोके महीयते।।" और यशा दोनों ने वन्दना की। मुनियों ने धर्म का उपदेश दिया। आदि-आदि सूक्त प्रचलित हो रहे थे और लोगों का अधि भृगु-दम्पति ने श्रावक के व्रत स्वीकार किए। पुरोहित ने पूछाक भाग इसमें विश्वास करने लगा था। पुत्र-प्राप्ति के लिए सभी “भगवन् ! हमारे कोई पुत्र होगा या नहीं ?" श्रमण-युगल ने संभावित प्रयत्न किए जाते थे। पुत्रोत्पत्ति से जीवन की महान् कहा--- "तुम्हारे दो पुत्र होंगे किन्तु वे बाल्यावस्था में ही दीक्षित सफलता मानी जाती थी। इस विचारधारा ने दाम्पत्य-जीवन का हो जायेंगे। उनकी प्रव्रज्या में तुम्हें कोई व्याघात उपस्थित नहीं उद्देश्य स्पष्ट कर दिया था, परन्तु अध्यात्म के प्रति उदासीन करना होगा। वे दीक्षित होकर धर्म-शासन की प्रभावना करेंगे।" भाव प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। उस समय यह मान्यता प्रचलित इतना कह दोनों श्रमण वहां से चले गए। पुरोहित पति-पत्नी को थी कि यदि पुत्र से ही स्वर्ग-प्राप्ति हो जाती है तो दान आदि प्रसन्नता हुई। कालान्तर में वे दोनों देव पुरोहित पत्नी के गर्भ गर्म व्यर्थ हैं। में आए। दीक्षा के भय से पुरोहित नगर को छोड़ व्रज गांव में भगवान महावीर स्वर्ग और नरक की प्राप्ति में व्यक्ति-व्यक्ति जा बसा। वहां पुरोहित की पत्नी यशा ने दो पुत्रों को जन्म दिया। की प्रवृत्ति को महत्व देते थे। उन्होंने कहा—“पुण्य-पाप व्यक्ति-व्यक्ति वे कुछ बड़े हुए। माता-पिता ने सोचा ये कहीं दीक्षित न हो जाएं का अपना होता है। माता-पिता, भाई-बन्धु, पुत्र-स्त्री आदि कोई अतः एक बार उनसे कहा-"पुत्रो! ये श्रमण सुन्दर-सुन्दर भी प्राणी त्राण नहीं होता है। सबको स्वतंत्र रूप से अपने-अपने बालकों को उठा ले जाते हैं और मार कर उनका मांस खाते हैं। कर्मों का फल-विपाक भोगना पड़ता है।" इस अध्ययन में इस उनके पास तुम दोनों कभी मत जाना।" भावना का स्फुट चित्रण है। एक बार दोनों बालक खेलते-खेलते गांव से बहुत दूर नियुक्तिकार ने ग्यारह गाथाओं में कथावस्तु को प्रस्तुत निकल गए। उन्होंने देखा कि कई साधु उसी मार्ग से आ रहे हैं। किया है। उसमें सभी पात्रों के पूर्व-भव, वर्तमान-भव में उनकी भयभीत हो वे एक वृक्ष पर चढ़ गए। संयोगवश साधु भी उसी उत्पत्ति तथा निर्वाण का संक्षिप्त चित्रण है। वृक्ष की सघन छाया में आ बैठे। बालकों का भय बढ़ा। पूर्व अध्ययन में वर्णित चित्र और सम्भूत के पूर्व-जन्म में माता-पिता की शिक्षा स्मृति पटल पर नाचने लगी। साधुओं ने दो ग्वाले मित्र थे। उन्हें साधु के अनुग्रह से सम्यक्त्व की प्राप्ति कुछ विश्राम किया। झोली से पात्र निकाले और सभी एक २. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३६३-३७३ । १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३६२ : तत्तो समुट्टियमिणं उसुआरिज्जति अज्झयणं । उसुआरनामगोए वेयंतो भावओ अ उसुआरो।। Jain Education Intemational Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इषुकारीय २३९ अध्ययन १४ : आमुख मण्डली में भोजन करने लगे। बालकों ने देखा कि मुनि के पात्रों में मांस जैसी कोई वस्तु है ही नहीं। साधुओं को सामान्य भोजन करते देख बालकों का भय कम हुआ। बालकों ने सोचा“ अहो ! हमने ऐसे साधु अन्यत्र भी कहीं देखे हैं ।” चिंतन चला। उन्हें जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हुआ। वे नीचे उतरे, मुनियों की वन्दना को और सीधे अपने माता-पिता के पास जाता है । " अरणि में अग्नि, दूध में घृत और तिल में तेल अविद्यमान होने पर भी उचित प्रक्रिया के द्वारा उत्पन्न हो जाते हैं। उसी प्रकार भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति माननी चाहिए ।" (श्लोक १८ ) आस्तिक मान्यता को स्पष्ट करते हुए पुत्रों ने कहा" आत्मा अमूर्त है इसलिए यह इन्द्रियों द्वारा गम्य नहीं है। यह अमूर्त है इसलिए नित्य है । आत्मा के आन्तरिक दोष ही उसके बंधन के हेतु हैं और बंधन ही संसार का हेतु है ।” (श्लोक १६) आए। पिता-पुत्र का यह वार्तालाप आगे चलता है। पिता ब्राह्मण संस्कृति का प्रतिनिधित्व कर बातें करता है और दोनों पुत्र श्रमण संस्कृति की भित्ति पर चर्चा करते हैं । अन्त में पुरोहित को संसार की असारता और क्षणभंगुरता पर विश्वास पैदा हो जाता है और उसका मन संवेग से भर जाता है। वह अपनी पत्नी को समझाता है। पूर्ण विचार-विमर्श कर चारों ( माता-पिता तथा दोनों पुत्र ) प्रव्रजित हो जाते हैं। यहां एक सामाजिक तथ्य का उद्घाटन हुआ है। उस समय यह राज्य का विधान था कि जिसके कोई उत्तराधिकारी नहीं होता उसकी सम्पत्ति राजा की मानी जाती थी। भृगु पुरोहित का सारा परिवार दीक्षित हो गया। राजा ने यह बात सुनी। उसने सारी सम्पत्ति पर अधिकार करना चाहा। रानी कमलावती को यह मालूम हुआ और उसने राजा से कहा – “राजन् ! वमन को खाने वाले पुरुष की प्रशंसा नहीं होती। आप ब्राह्मण के द्वारा परित्यक्त धन को लेना चाहते हैं, यह वमन पीने जैसा है।" (श्लोक ३७, ३८) उन्होंने माता-पिता से कहा- “हमने देख लिया है कि मनुष्य जीवन अनित्य है, विघ्न-बहुल है और आयु थोड़ी है इसलिए घर में हमें कोई आनन्द नहीं है। हम मुनि-चर्या को स्वीकार करने के लिए आपकी अनुमति चाहते हैं।” (श्लोक ७) पिता ने कहा- “ पुत्रो ! वेदों को जानने वाले इस प्रकार कहते हैं कि जिनके पुत्र नहीं होता उनकी गति नहीं होती। इसलिए वेदों को पढ़ो। ब्राह्मणों को भोजन कराओ। स्त्रियों के साथ भोग करो। पुत्रोत्पन्न करो। पुत्रों का विवाह कर, उन्हें घर सौंप कर अरण्यवासी प्रशस्त मुनि हो जाना।” (श्लोक ८, E) पुत्रों ने कहा- “ वेद पढ़ने पर भी वे त्राण नहीं होते । ब्राह्मणों को भोजन कराने पर वे नरक में ले जाते हैं । औरस पुत्र भी त्राण नहीं होते । काम-भोग क्षण भर सुख और चिरकाल दुःख देने वाले, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देने वाले, संसार- मुक्ति के विरोधी और अनर्थों की खान हैं। काल सदा तैयार खड़ा है। ऐसी स्थिति में प्रमाद कैसे किया जाए ?" (श्लोक १२, १३, १५) पिता ने कहा- “पुत्रो ! जिसके लिए सामान्यतया लोग तप किया करते हैं वह सब कुछ प्रचुर धन, स्त्रियां, स्वजन और इन्द्रियों के विषय तुम्हें यहीं प्राप्त हैं फिर तुम किसलिए श्रमण होना चाहते हो ?” (श्लोक १६ ) पुत्रों ने कहा - " जहां धर्म की धुरा को वहन करने का अधिकार है वहां धन, स्वजन और इन्द्रियों के विषयों का क्या प्रयोजन ? हम सभी प्रतिबन्धों से मुक्त होकर भिक्षा से निर्वाह करने वाले श्रमण होंगे।” (श्लोक १७) 9. नास्तिक मान्यता का यह घोष था कि शरीर से भिन्न कोई चैतन्य नहीं है। पांच भूतों के समवाय से उसकी उत्पत्ति होती के साथ इस कथा का निरूपण हुआ है। है और जब वे भूत विलग हो जाते हैं तब चैतन्य भी नष्ट हो उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ३७३ सीमंधरो य राया..... । रानी ने भोगों की असारता पर पूर्ण प्रकाश डाला। राजा के मन में विराग जाग उठा राजा-रानी दोनों प्रव्रजित हो गए। इस प्रकार यह अध्ययन ब्राह्मण-परम्परा तथा श्रमण परम्परा की मौलिक मान्यताओं की चर्चा प्रस्तुत करता है। नियुक्तिकार ने राजा के लिए 'सीमंधर' नाम का भी प्रयोग किया है। वृत्तिकार ने 'इषुकार' को राज्यकालीन नाम और 'सीमंधर' को राजा का मौलिक नाम होने की कल्पना की है। बौद्ध साहित्य के हस्तिपाल जातक (५०६) में कुछ परिवर्तन २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६४ अत्र चेषुकारमिति राज्यकालनाम्ना सीमन्धरश्चेति मौलिकनाम्नेति सम्भावयामः । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउदसमं अज्झयणं : चौदहवां अध्ययन उसुयारिज्जं : इषुकारीय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. देवा भवित्ताण पुरे भवम्मी देवा भूत्वा पुरा भवे पूर्वजन्म में, देवता होकर एक ही विमान में रहने केई चुया एगविमाणवासी। केचिच्च्युता एकविमानवासिनः। वाले' कुछ जीव देवलोग से च्युत हुए। उस समय पुरे पुराणे उसुयारनामे पुरे पुराणे इषुकारनाम्नि इषुकार नाम का एक नगर था-प्राचीन, प्रसिद्ध, खाए समिद्धे सुरलोगरम्मे।।। ख्याते समृद्धे सुरलोकरम्ये।। समृद्धिशाली और देवलोक के समान। २. सकम्मसेसेण पुराकरण स्वकर्मशेषेण पुराकृतेन उन जीवों के अपने पूर्वकृत पुण्य-कर्म बाकी थे। कुलेसु दग्गेसु य ते पसूया। कुलेषूदग्रेषु च ते प्रसूताः। फलस्वरूप वे इषुकार नगर के उत्तम कुलों में उत्पन्न निविणसंसारभया जहाय निर्विण्णाः संसारभयाद् हित्वा हुए। संसार के भय से खिन्न होकर उन्होंने भोगों को जिणिंदमग्गं सरणं पवन्ना।। जिनेन्द्रमार्ग शरणं प्रपन्नाः।। छोड़ा और जिनेन्द्रमार्ग की शरण में चले गए। ३. पुमत्तमागम्म कुमार दो वी पुंस्त्वमाऽऽगम्य कुमारौ द्वावपि दोनों पुरोहित कुमार, पुरोहित, उसकी पत्नी यशा, पुरोहिओ तस्स जसा य पत्ती। पुरोहितः तस्य यशा च पत्नी।। विशाल कीर्ति वाला इषुकार राजा और उसकी रानी विसालकित्ती य तहोसुयारो विशालकीर्तिश्च तथेषुकारः कमलावती--ये छहों व्यक्ति मनुष्य जीवन प्राप्त कर रायस्थ देवी कमलावई य।।। राजात्र देवी कमलावती च।। जिनेन्द्र-मार्ग की शरण में चले गए। जाईजरामच्चुभयाभिभूया जातिजरामृत्युभयाभिभूतौ ब्राह्मण के योग्य यज्ञ आदि करने वाले पुरोहित के बहिंविहाराभिनिविट्ठचित्ता। बहिर्विहाराभिनिविष्टचित्तौ। दोनों प्रिय पुत्रों ने एक बार निर्ग्रन्थ को देखा। उन्हें संसारचक्कस्स विमोक्खणट्ठा संसारचक्रस्य विमोक्षणार्थं पूर्वजन्म की स्मृति हुई और भलीभांति आचरित तप दठूण ते कामगुणे विरत्ता।। दृष्ट्वा तौ कामगुणेभ्यो विरक्तौ।। और संयम की स्मृति जाग उठी। वे जन्म, जरा और ५. पियपुत्तगा दोन्नि वि माहणस्स प्रियपुत्रको द्वावपि ब्राह्मणस्य मृत्यु के भय से अभिभूत हुए। उनका चित्त मोक्ष की ओर खिंच गया। संसारचक्र से मुक्ति पाने के लिए सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स। स्वकर्मशीलस्य पुरोहितस्य। वे कामगुणों से विरक्त हो गए। सरित्तु पोराणिय तत्थ जाई स्मृत्वा पौराणिकीं तत्र जाति तहा सुचिणं तवसंजमं च।। तथा सुचीर्णं तपः संयमं च।। ते कामभोगेसु असज्जमाणा तौ कामभोगेष्वसजन्तौ उनकी मनुष्य और देवता सम्बन्धी काम-भोगों में माणुस्सएसु जे यावि दिव्वा। मानुष्यकेषु ये चापि दिव्याः। आसक्ति जाती रही। मोक्ष की अभिलाषा और धर्म की मोक्खाभिकंखी अभिजायसड्ढा मोक्षाभिकाक्षिणावभिजातश्रद्धौ। श्रद्धा से प्रेरित होकर वे पिता के पास आए और इस तायं उवागम्म इमं उदाहु।। तातमुपागम्येदमुदाहरताम् ।। प्रकार कहने लगे७. असासयं दठु इमं विहारं अशाश्वतं दृष्ट्रमेवं विहारं "हमने देखा है कि यह मनुष्य जीवन अनित्य बहुअंतरायं न य दीहमाउं। बह्वन्तरायं न च दीर्घमायुः। है, उसमें भी विघ्न बहुत हैं और आयु थोड़ी है। तम्हा गिर्हसि न रइं लहामो तस्माद् गृहे न रतिं लभावहे इसलिए घर में हमें कोई आनन्द नहीं है। हम आमंतयामो चरिस्सामु मोणं।। आमंत्रयावहे चरिष्यावो मौनम्।। मुनि-चर्या को स्वीकार करने के लिए आपकी अनुमति चाहते हैं।" aa Jain Education Intemational Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इषुकारीय २४१ अध्ययन १४ : श्लोक ८-१६ ५. अह तायगो तत्थ मुणीण तेसिं अथ तातकस्तत्र मुन्योस्तयोः उनके पिता ने उन कुमार मुनियों की तपस्या में तवस्स वाघायकरं वयासी। तपसो व्याघातकरमवादीत्। बाधा उत्पन्न करने वाली बातें कहीं-'पुत्रो ! वेदों को इमं वयं वेयविओ वयंति इमां वाचं वेदविदो वदन्ति जानने वाले इस प्रकार कहते हैं कि जिनको पुत्र नहीं जहा न होई असुयाण लोगो।। यथा न भवत्यसुतानां लोकः ।। होता उनकी गति नहीं होती।' ६. अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे अधीत्य वेदान् परिवेष्य विप्रान् “पुत्रो! इसलिए वेदों को पढ़ो। ब्राह्मणों को भोजन पुत्ते पडिट्ठप्प गिहंसि जाया!। पुत्रान् प्रतिष्ठाप्य गृहे जातौ !। कराओ। स्त्रियों के साथ भोग भोगो। पुत्रों को उत्पन्न भोच्चाण भोए सह इत्थियाहिं भुक्वा भोगान् सह स्त्रीभिः करो। उनका विवाह कर, घर का भार सौंप फिर आरण्णगा होह मुणी पसत्था।। आरण्यको भवतं मुनी प्रशस्तौ।। अरण्यवासी प्रशस्त मुनि हो जाना।"१० १०. सोयरिंगणा आयगुणिंधणेणं शोकाग्निना आत्मगुणेन्धनेन दोनों कुमारों ने सोच-विचारपूर्वक उस पुरोहित को-- मोहाणिला पज्जलणाहिएणं।। मोहानिलात् प्रज्वलनाधिकेन। जिसका मन और शरीर आत्मगण रूपी इन्धन और संतत्तभावं परितप्पमाणं संतप्तभावं परितप्यमानं मोह रूपी पवन से अत्यन्त प्रज्वलित शोकाग्नि से लोलुप्पमाणं बहुहा बहु च।। लोलुप्यमानं बहुधा बहुं च।। संतप्त और परितप्त हो रहा था", जिसका हृदय वियोग की आशंका से अतिशय५२ छिन्न हो रहा था, ११. पुरोहियं तं कमसोऽणुणतं पुरोहितं तं क्रमशोऽनुनयन्तं जो एक-एक कर अपने अभिप्राय अपने पुत्रों को निमंतयंतं च सुए धणेणं। निमंत्रयन्तं च सुती धनेन। समझा रहा था और उन्हें धन और क्रमप्राप्त कामभोगों जहक्कम कामगुणेहि चेव यथाक्रम कामगुणैश्चैव का निमंत्रण दे रहा था ये वाक्य कहेकुमारगा ते पसमिक्ख वक्कं ।। कुमारको तौ प्रसमीक्ष्य वाक्यम् ।। १२.वेया अहीया न भवंति ताणं वेदा अधीता न भवन्ति त्राणं "वेद पढ़ने पर भी वे त्राण नहीं होते। ब्राह्मणों को भुत्ता दिया निति तमं तमेणं। भोजिता द्विजा नयन्ति तमस्तमसि। भोजन कराने पर वे अन्धकारमय नरक में ले जाते जाया य पुत्ता न हवंति ताणं जाताश्च पुत्रा न भवन्ति त्राणं हैं। औरस पुत्र भी त्राण नहीं होते।" इसलिए आपने को णाम ते अणुमन्नेज्ज एयं ।। को नाम तवानुमन्येतैतत् ।। कहा उसका अनुमोदन कौन कर सकता है ?" १३. खणमेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा क्षणमात्रसौख्या बहुकालदुःखाः “ये कामभोग क्षण भर सुख और चिरकाल दुःख पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा। प्रकामदुःखा अनिकामसौख्याः।। देने वाले हैं, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देने वाले संसारमोक्खस्स विपक्खभूया संसारमोक्षस्य विपक्षभूताः हैं, संसार-मुक्ति के विरोधी हैं और अनर्थों की खान खाणी अणत्थाण उ कामभोगा। खानिरनर्थानां तु कामभोगाः।। १४. परिव्ययंते अणियत्तकामे परिव्रजन्ननिवृत्तकामः "जिसे कामनाओं से मुक्ति नहीं मिली वह पुरुष अहो य राओ परितप्पमाणे। अनि च रात्री परितप्यमानः।। अतृप्ति की अग्नि से संतप्त होकर दिन-रात परिभ्रमण अन्नप्पमत्ते धणमेसमाणे अन्यप्रमत्तो धनमेषयन् करता है। दूसरों के लिए प्रमत्त होकर" धन की पप्पोति मच्चुं पुरिसे जरं च।। प्राप्नोति मृत्युं पुरुषो जरां च।।। खोज में लगा हुआ वह जरा और मृत्यु को प्राप्त होता १५. इमं च मे अस्थि इमं च नत्थि इदं च मेऽस्ति इदं च नास्ति "यह मेरे पास है और यह नहीं है, यह मुझे करना इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं। इदं च मे कृत्यमिदमकृत्यम्। .. है और यह नहीं करना है-इस प्रकार वृथा बकवास तं एवमेवं लालप्पमाणं तमेवमेवं लालप्यमानं करते हुए पुरुष को उठाने वाला काल'६ उठा लेता है। हरा हरंति त्ति कहं पमाए?।। हरा हरन्तीति कथ प्रमादः।।। हरा हरन्तीति कथं प्रमादः?।। इस स्थिति में प्रमाद कैसे किया जाए ?" इस स्थिति में प्रमा १६.धणं पभूयं सह इत्थियाहिं धनं प्रभूतं सह स्त्रीभिः "जिसके लिए लोग तप किया करते हैं वह सब सयणा तहा कामगुणा पगामा। स्वजनास्तथा कामगुणाः प्रकामाः। कुछ–प्रचुर धन, स्त्रियां, स्वजन और इन्द्रियों के तवं कए तप्पइ जस्स लोगो तपः कृते तप्यति यस्य लोकः विषय तुम्हें यहीं प्राप्त हैं फिर किसलिए तुम श्रमण तं सव्व साहीणमिहेव तुम।। तत् सर्वं स्वाधीनमिहैव युवयोः।। होना चाहते हो?"-पिता ने कहा। Jain Education Intemational Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २४२ अध्ययन १४ : श्लोक १७-२५ १७.धणेण किं थम्मधुराहिगारे धनेन किं धर्मधुराधिकारे पुत्र बोले-“पिता ! जहां धर्म की धुरा को वहन करने सयणेण वा कामगुणेहि चेव। स्वजनेन वा कामगुणैश्चैव। का अधिकार है वहां धन, स्वजन और इन्द्रिय-विषय समणा भविस्सामु गुणोहधारी श्रमणी भविष्यावो गुणीधधारिणी का क्या प्रयोजन है? कुछ भी नहीं। हम गुण-समूह बहिंविहारा अभिगम्म भिक्खं ।। बहिर्विहारावभिगम्य भिक्षाम् ।। से सम्पन्न श्रमण होंगे, प्रतिबन्ध-मुक्त होकर गांवों और नगरों में विहार करने वाले और भिक्षा लेकर जीवन चलाने वाले।"१७ १८.जहा य अग्गी अरणीउसंतो यथा चाग्निररणितोऽसन् “पुत्रो ! जिस प्रकार अरणी में अविद्यमान अग्नि खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु। क्षीरे घृतं तैलं महातिलेषु। उत्पन्न होती है, दूध में घी और तिल में तेल पैदा एमेव जाया ! सरीरंसि सत्ता एवमेव जातौ ! शरीरे सत्त्वाः होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव उत्पन्न होते हैं संमुच्छई नासइ नावचिठे।। संमूर्च्छन्ति नश्यन्ति नावतिष्ठन्ते।। और नष्ट हो जाते हैं। शरीर का नाश हो जाने पर उनका अस्तित्व नहीं रहता।"-पिता ने कहा।" १६.नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा नो इन्द्रियग्राह्योऽमूर्तभावात् । कुमार बोले—“पिता ! आत्मा अमूर्त है इसलिए यह अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो। अमूर्तभावादपि च भवति नित्यः। इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता। यह अमूर्त है अज्झत्थहेउं निययस्स बंधो अध्यात्महेतुर्नियतोऽस्य बन्धः इसलिए नित्य है। यह निश्चय है कि आत्मा के संसारहेउं च वयंति बंधं ।। संसारहेतुं च वदन्ति बन्धम् ।। आन्तरिक दोष ही उसके बन्धन के हेतु हैं और बन्धन ही संसार का हेतु है।"--ऐसा कहा है। २०.जहा वयं धम्ममजाणमाणा यथाऽऽवां धर्ममजानानौ "हम धर्म को नहीं जानते थे तब घर में रहे, हमारा पावं पुरा कम्ममकासि मोहा। पापं पुरा कर्माकार्ब मोहात्। पालन होता रहा और मोह-वश हमने पाप-कर्म का ओरुज्झमाणा परिरक्खियंता अवरुध्यमानौ परिरक्ष्यमाणौ आचरण किया। किन्तु अब फिर पाप-कर्म का आचरण तं नेव भुज्जो वि समायरामो।। तन्नैव भूयोऽपि समाचरावः।। नहीं करेंगे।" २१. अब्माहयंमि लोगंमि अभ्याहते लोके “यह लोक पीड़ित हो रहा है, चारों ओर से घिरा सव्वओ परिवारिए। सर्वतः परिवारिते। हुआ है, अमोघा आ रही है। इस स्थिति में हमें अमोहाहिं पडंतीहिं अमोघाभिः पतन्तीभिः सुख नहीं मिल रहा है।" गिहंसि न रइं लभे।। गृहे न रतिं लभावहे।। २२.केण अब्माहओ लोगो? केनाभ्याहतो लोकः? "पुत्रो! यह लोक किससे पीड़ित है? किससे घिरा केण वा परिवारिओ?| केन वा परिवारितः?। हुआ है ? अमोघा किसे कहा जाता है ? मैं जानने के का वा अमोहा वुत्ता ? | का वाऽमोघा उक्ताः? लिए चिन्तित हूं।"---पिता ने कहा। जाया ! चिंतावरो हुमि।। जातौ ! चिन्तापरो भवामि।। २३. मच्चुणाऽब्माहओ लोगो मृत्युनाऽभ्याहतो लोकः कुमार बोले--- "पिता! आप जानें कि यह लोक मृत्यु जराए परिवारिओ। जरया परिवारितः। से पीड़ित है, जरा से घिरा हुआ है और रात्रि को अमोहा रयणी वुत्ता अमोघा रात्रय उक्ताः अमोघा कहा जाता है।" एवं ताय! वियाणह ।। एवं तात ! विजानीहि।। २४.जा जा वच्चइ रयणी या या व्रजति रजनी “जो-जो रात बीत रही है, वह लौट कर नहीं न सा पडिनियत्तई। न सा प्रतिनिवर्तते। आती। अधर्म करने वाले की रात्रियां निष्फल चली अहम्मं कुणमाणस्स अधर्म कुर्वाणस्य जाती हैं।" अफला जंति राइओ।। अफला यान्ति रात्रयः।। २५.जा जा वच्चइ रयणी या या व्रजति रजनी “जो-जो रात रात बीत रही है वह लौट कर नहीं न सा पडिनियत्तई। न सा प्रतिनिवर्तते। आती। धर्म करने वाले की रात्रियां सफल होती हैं।" धम्मं च कुणमाणस्स धर्मं च कुर्वाणस्य सफला जंति राइओ।। सफला यान्ति रात्रयः ।। Jain Education Intemational Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इषुकारीय २४३ अध्ययन १४ : श्लोक २६-३४ २६.एगओ संवसित्ताणं एकतः समुष्य "पुत्रो! पहले हम सब एक साथ रहकर सम्यक्त्व दुहओ सम्मत्तसंजुया। द्वितः सम्यक्त्वसंयुताः। और व्रतों का पालन करें फिर तुम्हारा यौवन बीत पच्छा जाया ! गमिस्सामो पश्चाज्जातौ ! गमिष्यामः जाने के बाद घर-घर से भिक्षा लेते हुए विहार भिक्खमाणा कुले कुले।। भिक्षमाणाः कुले कुले।। करेंगे।"-पिता ने कहा।" २७.जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं यस्यास्ति मृत्युना सख्यं पुत्र बोले-"पिता कल की इच्छा वही कर सकता है, जस्स वत्थि पलायणं। यस्य वास्ति पलायनम्। जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री हो, जो मौत के मुंह से जो जाणे न मरिस्सामि यो जानीते न मरिष्यामि बच कर पलायन कर सके और जो जानता हो-मैं सो हु कंखे सुए सिया।। स खलु काङ्क्षति श्वः स्यात्।।। नहीं मरूंगा।" २८.अज्जेव धम्म पडिवज्जयामो अद्यैव धर्मं प्रतिपद्यावहे “हम आज ही उस मुनि-धर्म को स्वीकार कर रहे जहिं पवन्ना न पुणब्भवामो। यत्र प्रपन्ना न पुनर्भविष्यावः।। हैं, जहां पहुंच कर फिर जन्म लेना न पड़े। अणागयं नेव य अस्थि किंचि अनागतं नैव चास्ति किंचित् भोग हमारे लिए अप्राप्त नहीं हैं हम उन्हें अनेक सद्धाखमं णे विणइत्तु रागं।। श्रद्धाक्षमं नो विनीय रागम् ।। बार प्राप्त कर चुके हैं।२२ राग-भाव को दूर कर श्रद्धा-पूर्वक श्रेय की प्राप्ति के लिए हमारा प्रयत्न युक्त है।" २६.पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो प्रहीणपुत्रस्य खलु नास्ति वासः “पुत्रों के चले जाने के बाद मैं घर में नहीं रह वासिट्ठि! भिक्खायरियाइ कालो। वासिष्ठि ! भिक्षाचर्यायाः कालः। सकता। हे वाशिष्टि !२२ अब मेरा भिक्षाचर्या का काल साहाहि रुक्खो लहए समाहिं शाखाभिवृक्षो लभते समाधि आ चुका है। वृक्ष शाखाओं से समाधि को प्राप्त होता छिन्नाहि साहाहि तमेव खाणुं| छिन्नाभिः शाखाभिस्तमेव स्थाणुम्।। है। उनके कट जाने पर लोग उसे ढूंठ कहते हैं।" ३०.पंखाविहूणो ब्व जहेह पक्खी पक्षविहीन इव यथेह पक्षी "बिना पंख का पक्षी, रण-भूमि में सेना रहित राजा भिच्चाविहूणो व्व रणे नरिंदो। भृत्यविहीन इव रणे नरेन्द्रः। और जल-पोत पर धन-रहित व्यापारी जैसा असहाय विवन्नसारो वणिओ व्व पोए विपन्नसारो वणिगिव पोते होता है, पुत्रों के चले जाने पर मैं भी वैसा ही हो पहीणपुत्तो मि तहा अहं पि।। प्रहीणपुत्रोऽस्मि तथाऽहमपि।। जाता हूं।" ३१. सुसंभिया कामगुणा इमे ते सुसंभृताः कामगुणा इमे ते वाशिष्ठी ने कहा-“ये सुसंस्कृत और प्रचुर संपिंडिया अग्गरसापभूया। सम्पिण्डिता अय्यरसप्रभूताः। शृंगार-रस से परिपूर्ण इन्द्रिय-विषय, जो तुम्हें प्राप्त भुंजामु ता कामगुणे पगामं भुंजीवहि तावत् कामगुणान् प्रकामं हैं, उन्हें अभी हम खूब भोगें। उसके बाद हम पच्छा गमिस्सामु पहाणमग्गं ।। पश्चात् गमिष्यावः प्रधानमार्गम् ।। मोक्ष-मार्ग को स्वीकार करेंगे।" ३२.भुत्ता रसा भोइ ! जहाइ णे वओ भुक्ता रसा भवति ! जहाति नो वयः पुरोहित ने कहा- “हे भवति !२७ हम रसों को भोग न जीवियट्ठा पजहामि भोए। न जीवितार्थं प्रजहामि भोगान्। चुके हैं, वय हमें छोड़ता चला जा रहा है। मैं असंयम लाभं अलाभं च सहं च दक्खं लाभमलाभं च सुखं च दु:खं जीवन के लिए भोगों को नहीं छोड़ रहा है लाभ-अलाभ संचिक्खमाणो चरिस्सामि मोणं।। संतिष्ठमानश्चरिष्यामि मौनम्।। और सुख-दुःख को समदृष्टि से देखता हुआ मैं मुनि-धर्म का आचरण करूंगा।" ३३.मा हू तुम सोयरियाण संभरे मा खलु त्वं सोदर्याणां स्मार्षीः वाशिष्ठी ने कहा-“प्रतिस्रोत में बहने वाले बूढ़े हंस जुण्णो व हंसो पडिसोत्तगामी। जीर्ण इव हंसः प्रतिस्रोतोगामी। की तरह तुम्हें पीछे अपने बन्धुओं को याद करना न मुंजाहि भोगाए मए समाणं भुंश्व भोगान् मया समं पड़े, इसलिए मेरे साथ भोगों का सेवन करो। यह दुक्खं खु भिक्खायरियाविहारो।। दुःखं खलु भिक्षाचर्याविहारः।। भिक्षाचर्या और ग्रामानुग्राम विहार सचमुच दुःखदायी है।" यथा च भवति! तनुजां भुजंगः “हे भवति ! जैसे सांप अपने शरीर की केंचुली को निम्मोयणिं हिच्च पलेइ मुत्तो। निर्मोचनीं हित्वा पर्येति मुक्तः। छोड़ मुक्त-भाव से चलता है वैसे ही पुत्र भोगों को एवमेती जातौ प्रजहीतो भोगान् छोड़ कर चले जा रहे हैं। पीछे मैं अकेला क्यों रहूं, ते हं कहं नाणगमिस्समेक्को?|| तो अहं कथं नानुगमिष्याम्येक:?। उनका अनुगमन क्यों न करूं?" Jain Education Intemational Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३५. छिंदित्तु जालं अबलं व रोहिया मच्छा जहा कामगुणे पहाय । थोरेयसीला तवसा उदारा धीरा हु भिक्खायरियं चरति ।। ३६. नहेव कुंचा समइक्कर्मता तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा । पति पुत्ताय पई य मज्झं ते हं कहं नानुगमिस्समेक्का ? ।। ३७. पुरोहियं तं ससुयं सदारं सोच्चाऽभिनिक्खम्म पहाय भोए । कुटुंबसारं विउलुत्तमं तं रायं अभिक्खं समुवाय देवी || ३८. वंतासी पुरिसो रायं ! न सो होड पसंसिओ माहणेण परिच्चत्तं धणं आदाउमिच्छसि ।। ३६. सर्व जग गइ तुढं सव्वं वावि धणं भवे । सव्वं पि ते अपज्जतं नेव ताणाय तं तव ।। ४०. मरिहिसि रायं जया तया वा मणोरमे कामगुणे पहाय एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं न विज्जई अन्नमिहेह किंचि ।। ४१. नाहं रमे पक्खिण पंजरे वा संताणछिन्ना चरिस्सामि मोणं । अकिंचना उज्जुकडा निरामिसा परिग्गहारंभनियत्तदोसा ।। ४२. दवग्गिणा जहा रण्णे डज्झमाणे जंतुसु । अन्ने सत्ता पमोति रागद्दोसवसं गया। ४३. एवमेव वयं मूढा कामभोगेसु मुच्छिया । उज्झमाणं न बुज्झामो रागद्दोसग्गिणा जगं ।। २४४ छित्त्वा जालमबलमिव रोहिताः मत्स्या यथा कामगुणान् प्रहाय । धौरेयशीलास्तपसा उदाराः धीराः खलु भिक्षाचर्यां चरन्ति ।। नभसीवा क्रौंचाः समतिक्रामन्तः ततानि जालानि दलित्वा हंसाः । परियान्ति पुत्रौ च पतिश्च मम तानहं कथं नानुगमिष्याम्येका ?।। पुरोहितं तं समुतं सवार पुरोहित अपने पुत्र और पत्नी के साथ भोगों को छोड़ श्रुत्वाऽभिनिष्क्रम्य प्रहाय भोगान् । कर प्रव्रजित हो चुका है, यह सुन राजा ने उसके कुटुम्बसारं विपुलोत्तमं तद् प्रचुर और प्रधान धन-धान्य आदि को लेना चाहा राजानमभीक्ष्णं समुवाच तब महारानी कमलावती ने बार-बार कहा— २६ देवी ।। यान्ताशी पुरुषो राजन् ! न स भवति प्रशंसनीयः । ब्राह्मणेन परित्यक्तं धनमादातुमिच्छसि ।। सर्वं जगद्यदि त सर्वं वापि धनं भवेत् । सर्वमपि से अपर्याप्त नैव त्राणाय तत्तव ।। मरिष्यसि राजन् ! यदा तदा वा मनोरमान् कामगुणान् प्रहाय । एकः खलु धर्मो नरदेव ! त्राणं न विद्यते ऽन्यमिहेह किंचित् ।। नाहं रमे पक्षिणी पंजर इव छिन्नसन्ताना चरिष्यामि मौनम् । अकिंचना ऋजुकृता निरामिषा परिग्रहारम्भदोषनिवृत्ता ।। दवाग्निना यथारण्ये दह्यमानेषु जन्तुषु । अन्ये सत्त्वाः प्रमोदन्ते रागद्वेषवशं गताः । । अध्ययन १४ : श्लोक ३५-४३ "जैसे रोहित मच्छ जर्जरित जाल को काट कर बाहर निकल जाते हैं वैसे ही उठाए हुए भार को वहन करने वाले प्रधान तपस्वी और धीर पुरुष कामभोगों को छोड़ कर भिक्षाचर्या को स्वीकार करते हैं।” वाशिष्ठी ने कहा- "जैसे क्रौंच पक्षी और हंस बहेलियों द्वारा बिछाए हुए जालों को काट कर आकाश में उड़ जाते हैं वैसे ही मेरे पुत्र और पति जा रहे हैं। पीछे मैं अकेली क्यों रहूं ? उनका अनुगमन क्यों न करूं ?” | एवमेव वयं मूढाः कामभोगेषु छताः । दयमानं न बुध्यामहे रागद्वेषाग्निना जगत् ।। “राजन् ! वमन खाने वाले पुरुष की प्रशंसा नहीं होती । तुम ब्राह्मण के द्वारा परित्यक्त धन को लेना चाहते हो—यह क्या है ?" “यदि समूचा जगत् तुम्हें मिल जाए अथवा समूचा धन तुम्हारा हो जाए तो भी वह तुम्हारी इच्छा-पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होगा और वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा । ३० " राजन् ! इन मनोरम कामभोगों को छोड़ कर जब कभी मरना होगा"। हे नरदेव ! एक धर्म ही त्राण है। उसके सिवाय कोई दूसरी वस्तु त्राण नहीं दे सकती ।३३ " जैसे पक्षिणी पिंजड़े में आनन्द नहीं मानती, वैसे ही मुझे इस बन्धन में आनन्द नहीं मिल रहा है। मैं स्नेह के जाल को तोड़ कर अकिंचन, सरल क्रिया वाली", विषय-वासना से दूर और परिग्रह एवं हिंसा के दोषों से मुक्त होकर मुनि-धर्म का आचरण करूंगी।" ३७ " जैसे दावाग्नि लगी हुई है, अरण्य में जीव-जन्तु जल रहे हैं, उन्हें देख राग-द्वेष के वशीभूत होकर दूसरे जीव प्रमुदित होते हैं । ३८ “ उसी प्रकार कामभोगों में मूच्छित हो कर हम मूढ़ लोग यह नहीं समझ पाते कि यह समूचा संसार राग-द्वेष की अग्नि से जल रहा है।" Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इषुकारीय ४४. भोगे भोच्चा वमित्ता य लहुभूयविहारिणो । आमोयमाणा गच्छति दिया कामकमा इव ।। ४५. इमे व बच्चा फंदंति मम हत्थ ऽज्जमागया । वयं च सत्ता कामेसु भविस्सामो जहा इमे ॥ ४६. सामिसं कुललं दिस्स बज्झमाणं निरामिसं । आमि सव्वमुज्झित्ता विहरिस्सामि निरामिसा ।। ४७. गिद्धोवमे उ नच्चाणं कामे संसारवणे । उरगो सुवण्णपासे व कमाणो तनुं चरे ।। ४८. नागो व्व बंधणं छित्ता अप्पणी वसहिं वए । एवं पत्थं महाराय ! उयारिति मे सुयं ॥ ४६. चइत्ता विउलं रज्जं कामभोगे य दुच्चए । निव्विसया निरामिसा निन्नेहा निष्परिग्गहा ।। ५०. सम्मं धम्मं वियाणित्ता चेच्चा कामगुणे वरे । तवं पगिज्झऽहक्खायं घोरं घोरपरक्कमा ।। ५१. एवं ले कमसो बुद्धा सव्वे धम्मपरायणा । जम्ममच्चुभउब्विग्गा दुक्खरसंतगवेसिणो ।। २४५ भोगान् भुक्त्वा वान्त्वा च लघुभूतविहारिणः । आमोदमाना गच्छन्ति द्विजाः कामक्रमा इव ।। इमे च बद्धाः स्पन्दन्ते मम हस्तमार्य ! आगताः । वयं च सक्ताः कामेषु भविष्यामो यथेमे ॥ सामिषं कुललं दृष्ट्वा बाध्यमानं निरामिषम् । आमिषं सर्वमुज्झित्वा विहरिष्यामि निरामिषा ।। गृध्रोपमांस्तु ज्ञात्वा कामान् संसारवर्धनान्। उरगः सुपर्णपार्श्वे इव शङ्कमानस्तनु चरेत् ।। नाग इव बन्धनं छित्त्वा आत्मनो वसतिं व्रजेत् । एतत् पथ्यं महाराज ! इषुकार ! इति मया श्रुतम् ।। त्यक्त्वा विपुलं राज्यं कामभोगांश्च दुस्त्यजान् । निर्विषयी निरामिषौ निःस्नेही निष्परिग्रहौ ।। सम्यग् धर्मं विज्ञाय त्यक्त्वा कामगुणान् वरान् । तपः प्रगृह्य यथाख्यातं घोरं घोरपराक्रमौ ।। एवं ते क्रमशो बुद्धाः सर्वे धर्मपरायणाः । जन्ममृत्युभयद्विग्नाः दुःखस्यान्तगवेषिणः ।। अध्ययन १४ : श्लोक ४४-५१ “विवेकी पुरुष भोगों को भोग कर फिर उन्हें छोड़ वायु की तरह अप्रतिबद्ध-विहार करते हैं और वे स्वेच्छा से विचरण करने वाले पक्षियों की तरह प्रसन्नतापूर्वक स्वतंत्र विहार करते हैं।" “आर्य! जो कामभोग अपने हाथों में आए हुए हैं और जिनको हमने नियंत्रित कर रखा है, वे कूद - 1 -फांद कर रहे हैं। हम कामनाओं में आसक्त बने हुए हैं किन्तु अब हम भी वैसे ही होंगे, जैसे कि अपनी पत्नी और पुत्रों के साथ भृगु हुए हैं।" "जिस गीध के पास मांस होता है उस पर दूसरे पक्षी झपटते हैं और जिसके पास मांस नहीं होता उस पर नहीं झपटते—यह देख कर मैं आमिष (धन, धान्य आदि) को छोड़, निरामिष हो कर विचरूंगी।" " गीध की उपमा से काम-भोगों को संसारवर्धक जान कर मनुष्य को इनसे इसी प्रकार शंकित होकर चलना चाहिए, जिस प्रकार गरुड़ के सामने सांप शंकित होकर चलता है।" " जैसे बन्धन को तोड़ कर हाथी अपने स्थान ( विध्याटवी ) में चला जाता है, वैसे ही हमें अपने स्थान (मोक्ष) में चले जाना चाहिए। हे महाराज इषुकार ! यह पथ्य है इसे मैने ज्ञानियों से सुना है।" 3 राजा और रानी विपुल राज्य और दुस्त्यज कामभोगों को छोड़ निर्विषय* २, निरामिष, निःस्नेह और निष्परिग्रह हो गए। धर्म को सम्यक् प्रकार से जान, आकर्षक भोग-विलास को छोड़, वे तीर्थंकर के द्वारा उपदिष्ट घोर तपश्चया को स्वीकार कर संयम में घोर पराक्रम करने लगे। इस प्रकार वे सब क्रमशः बुद्ध होकर, धर्म-परायण, जन्म और मृत्यु के भय से उद्विग्न बन गए तथा दुःख के अन्त की खोज में लग गए। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २४६ अध्ययन १४ : श्लोक ५२, ५३ जिनकी आत्मा पूर्व-जन्म में कुशल-भावना से भावित थी वे सब–राजा, रानी, ब्राह्मण पुरोहित, ब्राह्मणी और दोनों पुरोहित कुमार अर्हत् के शासन में आकर दुःख का अंत पा गए—मुक्त हो गए। ५२.सासणे विगयमोहाणं पुब्बिं भावणभाविया। अचिरेणेव कालेण दुक्खस्संतमुवागया।। ५३. राया सह देवीए माहणो य पुरोहिओ। माहणी दारगा चेव सव्वे ते परिनिव्वुड।। शासने विगतमोहानां पूर्वं भावनाभाविताः। अचिरेणैव कालेन दुःखस्यान्तमुपागताः।। राजा सह देव्या ब्राह्मणश्च पुरोहितः। ब्राह्मणी दारको चैव सर्वे ते परिनिर्वृताः।। -त्ति बेमि।। -इति ब्रवीमि।। -ऐसा मैं कहता हूं। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. ( एगविमाणवासी) ये सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक एक ही विमान में रहते थे, इसलिए इन्हें 'एक विमानवासी' कहा गया है।" २. अपने... पुण्य कर्म बाकी थे (सकम्मसे सेण) अध्ययन १४ : इषुकारीय पुनर्जन्म के अनेक कारणों में यह भी एक प्रमुख कारण है । अपने किए हुए कर्म जब तक शेष रहते हैं तब तक जीव को जन्म लेना ही पड़ता है। इन छहों व्यक्तियों के पुण्य कर्म शेष थे, इसलिए इनका जन्म उत्तम कुल में हुआ। ३. जन्म, जरा और मृत्यु ( जाईजरामच्यु.....) जन्म, जरा और मृत्यु — ये तीन भय माने जाते हैं। गीता में जन्म, जरा, मृत्यु और दुःख-इन चारों का एक साथ उल्लेख प्राप्त है। ये भय के कारण भी हैं और वैराग्य के हेतु भी बनते हैं। रोग भी वैराग्य का कारण है। महात्मा बुद्ध को वृद्ध, रोगी और मृत व्यक्ति को देखकर वैराग्य हुआ था। ४. संसारचक्र (संसारचक्कस्स) चूर्णिकार ने संसार-चक्र के छह आरे - विभाग माने हैंजन्म, जरा, सुख, दुःख, जीवन और मरण। इन सबसे आत्यन्तिक छुटकारा पाना ही मोक्ष है। इसका साधन है— विरति । ५. (बहिं विहार, कामगुणे विरत्ता) 1 बडिविहार बहिर्विहार अर्थात् मोक्ष मोक्ष संसार के बाहर है-उससे भिन्न है, इसलिए उसे 'बहिर् - विहार' कहा गया है। 1 कामगुणे विरत्ता - शब्द आदि इन्द्रियों के विषय कामनाओं को उत्तेजित करते हैं, इसलिए ये 'काम-गुण' कहलाते हैं। दूसरे श्लोक में बताया है कि वे छहों व्यक्ति जिनेन्द्र मार्ग की शरण में चले गए। यहां 'कामगुणे- विरत्ता' की व्याख्या में बताया गया है कि काम - गुणों की विरक्ति का अर्थ ही जिनेन्द्र मार्ग की शरण में जाना है । १. बृहद्वृत्ति पत्र ३६६ एकस्मिन् पद्मगुल्मनाम्नि विमाने वसन्तीत्येवंशीला एकविमानवासिनः । २. गीता, १४।२० गुणानेतानतीत्य त्रीन् देही समुद्भवान् । जन्ममृत्युजरादुःखै-विमुक्तो ऽमृतमश्नुते ।। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२२ संसारचक्कं छव्विहं तं जहा जाती जरा सुहं दुक्खं जीवितं मरणं । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६७: बहिं संसाराद्विहारः स्थानं बहिर्विहारः, स चार्थान्मोक्षः । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६७ अत्र कामगुणविरक्तिरेव जिनेन्द्रमार्गप्रतिपत्तिः । ३. ६. मनुष्य जीवन (बिहार) विहार शब्द के अनेक अर्थ हैं--मनोरंजन, घूमना, हाथ-पैर आदि का संचालन आदि। यहां विहार का अर्थ हैजीवन की समग्रता या संपूर्ण जीवन यापन । चूर्णि में इसका अर्थ भोग और वृत्ति में मनुष्यभव में अवस्थिति किया है। ७. मुनि चर्चा (मोण) इसका अर्थ है-मुनि-चर्या, संयम मीन शब्द की व्युत्पत्ति है-मुनेर्भावः मीनम्। मुनि का भाव अर्थात् ज्ञान या ज्ञानयुक्त आचरण । ८. (मुणीण) टीकाकारों के अनुसार यह कुमारों का विशेषण है। यहां भावी मुनि को 'मुनि' कहा गया है।' किन्तु जिन मुनियों को देख कर कुमारों को प्रवजित होने की प्रेरणा मिली, उनके तपोमार्ग का व्याघात करना पुरोहित के लिए इष्ट था, इसलिए मुनि शब्द के द्वारा उन मुनियों का भी ग्रहण किया जा सकता है । ९. अरण्यवासी (आरण्णगा) ऐतरेय, कौशीतकी और तैतरीय —ये शास्त्र 'आरण्यक' कहलाते हैं। इनमें वर्णित विषयों के अध्ययन के लिए अरण्य का एकान्तवास आवश्यक था, इसलिए इन्हें आरण्यक कहा गया। अरण्य में रहकर साधना करने वाले मुनि भी आरण्यक कहलाते थे । १०. ( श्लोक ८-९ ) ब्राह्मण और स्मृतिशास्त्र का अभिमत रहा है कि जो द्विज वेदों को पढ़े बिना, पुत्रों को उत्पन्न किए बिना और यज्ञ किए बिना मोक्ष की इच्छा करता है, वह नरक में जाता है, इसलिए वह विधिवत् वेदों को पढ़ कर, पुत्रों को उत्पन्न कर ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२३ : विहरणं-विहारः, भोगाः इत्यर्थः । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३६८ विहरणं विहार, मनुष्यत्वे नावस्थानमित्यर्थः । 'मुन्यो:' भावतः प्रतिपन्नमुनिभावयोः । नापुत्रस्य लोको ऽस्ति । ७ ८. ६. वृहद्वृत्ति, पत्र ३६८ ऐतरेय ब्राह्मण, ७३ मनुस्मृति, ६ । ३६, ३७ : अधीत्य विधिवद्वेदान्पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः । इष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत् ।। अनधीत्य द्विजो वेदाननुत्पाद्य तथा सुतान् । अनिष्ट्वा चैव यज्ञैश्च मोक्षमिच्छन्द्रजत्यधः ।। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि २४८ और यज्ञ कर मोक्ष में मन लगाए—संन्यासी बने । पुरोहित ने इसी सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। बौद्धयन धर्मसूत्र के अनुसार ब्राह्मण जन्म से ही तीन ऋणों— पितृ ऋण, ऋषि ऋण और देव ऋणको साथ लिए उत्पन्न होता है। इन ऋणों को चुकाने के लिए यज्ञ, याग आदि पूर्वक गृहस्थाश्रम का आश्रय करने वाला मनुष्य ब्रह्मलोक को पहुंचता है और ब्रह्मचर्य या संन्यास की प्रशंसा करने वाले लोग धूल में मिल जाते हैं।' स्मृतिकारों के अनुसार पितृ ऋण सन्तानोत्पत्ति के द्वारा ऋषि ऋण स्वाध्याय के द्वारा और देवऋण यज्ञ आदि के द्वारा चुकाया जा सकता है। महाभारत (शांतिपर्व, मोक्ष धर्म, अध्याय २७७) में एक ब्राह्मण और उसके मेधावी नामक पुत्र का संवाद है । पिता मोक्ष - धर्म में अकुशल और पुत्र मोक्ष-धर्म में विचक्षण था। उसने पिता से पूछा - " तात ! मनुष्यों की आयु तीव्र गति से बीती जा रही है। इस बात को अच्छी तरह जानने वाला धीर पुरुष किस धर्म का अनुष्ठान करे ? पिता ! यह सब क्रमशः और यथार्थ रूप से आप मुझे बताइए, जिससे मैं भी उस धर्म का आचारण कर सकूं ।” पिता ने कहा- "बेटा ! द्विज को चाहिए कि वह पहले ब्रह्मचर्य आश्रम में रह कर वेदों का अध्ययन कर ले, फिर पितरों का उद्धार करने के लिए गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके पुत्रोत्पादन की इच्छा करे। वहां विधि-पूर्वक अग्नियों की स्थापना करके उनमें विधिवत् अग्निहोत्र करे । इस प्रकार यज्ञ कर्म का सम्पादन करके वानप्रस्थ आश्रम में प्रविष्ट हो मुनिवृत्ति से रहने की इच्छा करे ।" स्मृति ग्रन्थों में ब्राह्मणों को भोजन कराने का पुनः पुनः विधान मिलता है। ११. संतप्त और परितप्त हो रहा था (संतत्तभावं परितप्यमाण) संतप्तभाव और परितप्यमान इन दोनों में कार्य-कारण का सम्बन्ध है । जिसका भाव (अन्तःकरण) संतप्त रहता है, वह परितप्यमान हो जाता है। यह शोक का आवेश शरीर में दाह उत्पन्न करने का हेतु बनता है।' व्यक्ति दाह से चारों ओर परितप्त होता है। १२. अतिशय (बहुहा बहुं च) चूर्णि में बहुधा का अर्थ पुनः पुनः : और बहु का अर्थबहुत प्रकार का है। वृत्ति में बहुधा का अर्थ-अनेक 9. बौद्धायन धर्मसूत्र, २।६।११।३३-३४ । २. मनुस्मृति, ३१३१, १८६, १८७१ ३. वृहद्वृत्ति, पत्र ३६६ : समिति - समन्तात् तप्त इव तप्तः अनिर्वृतत्वेन भावः -- अन्तःकरणमरयेति संतप्तभावः तम्, अत एव च परितप्यमानंसमन्ताद् दह्यमानम्, अर्थात् शरीरे दाहस्यापि शोकावेशत उत्पत्तेः । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२३ । ४. ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०० | अध्ययन १४ : श्लोक १२-१७ टि० ११-१७ प्रकार का और बहु का अर्थ- प्रचुर है ।" १३. अन्धकारमय नरक (तमं तमेणं) वृत्तिकार ने 'तम' का अर्थ नरक और 'तमेण' का अर्थ अज्ञान से, किया है। 'तमंतमेणं' को एक शब्द तथा सप्तमी के स्थान में तृतीया विभक्ति मानी जाए तो इसका वैकल्पिक अर्थ होगा— अन्धकार से भी जो अति सघन अन्धकारमय हैं वैसे रौरव आदि नरक । १४. ( जाया य पुत्ता.....) मनुस्मृति आदि में 'अपुत्रस्य गति र्नास्ति', 'अनपत्यस्य लोका न सन्ति', 'पुत्रेण जायते लोक आदि सूक्तियां मिलती हैं। भगवान् महावीर ने कहा— माता, पिता, पुत्र, भार्या आदि कोई त्राण नहीं हो सकते। स्वर्ग या नरक की प्राप्ति में व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ ही काम आता है । पुत्रोत्पत्ति से ही यदि स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो भला कौन धर्म का आचरण करेगा ? १५. दूसरों के लिए प्रमत्त होकर (अन्नप्पमत्ते) 'अन्न' के संस्कृत रूप दो होते हैं— अन्य और अन्न । अन्य - प्रमत्त अर्थात् मित्र- स्वजन आदि के लिए प्रमाद में फंसा हुआ। अन्न- प्रमत्त अर्थात् भोजन या जीविका के लिए प्रमाद में फंसा हुआ । १६. उठाने वाला काल (हरा) 1 यहां 'हर' शब्द का प्रयोग काल के अर्थ में किया गया है रोग भी आयु का हरण करता है, इसलिए उसे भी 'हर' कहा जाता है । एक प्राचीन गाथा है किं तेसिं ण बीभेया, आसकिसोरीहिं सिम्पलग्गाणं । आयुबल मोडयाणं दिवसाणं आवडवा ? (श्लोक १७) १७. 'धन के लिए धर्म नहीं करना चाहिए और धन से धर्म नहीं होता' - इस जैन- दृष्टि से परिचित कुमारों ने जो कहा वह धर्म के उद्देश्य के सर्वथा अनुरूप है | प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि धर्म के क्षेत्र में आत्मा के पवित्र आचरणों का ही महत्त्व है; धन, स्वजन और कामगुणों का कोई महत्त्व नहीं है। शान्त्याचार्य ने इस विचार के समर्थन में 'वेदेप्युक्तं ' लिख कर एक वाक्य उद्धृत किया है--'न सन्तान के द्वारा, न धन के द्वारा किन्तु अकेले त्याग से ही लोगों ने अमृतत्व को प्राप्त किया है ' ' न प्रजया न धनेन त्यागैनैकनामृतत्वमानशुः । गुणोह— चूर्णि में गुणौघ से अठारह हजार शीलांग" का ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०० : तमोरूपत्वात् तमो - नरकस्तत्तमसा- - अज्ञानेन यद् वा तमसोऽपि यत्तमस्तस्मिन् अतिरौद्रे रौरवादिनरके । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४००, ४०१ : अन्ये- सुहत्रवजनादयः, अथवा अन्नं भोजनं तदर्थं प्रमत्तः- तत्कृत्यासक्तचेता अन्यप्रमत्तः अन्नप्रमत्तो वा । उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० २२५ । ८. ६. वृहद्वृत्ति, पत्र ४०१ | १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२५ गुणोहो- अट्ठारस सीलंगसहस्साणि । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इषुकारीय २४९ अध्ययन १४ : श्लोक १८-२६ टि० १८-२१ और टीका में सम्यक्-दर्शन आदि गुण-समूह का ग्रहण किया समय भी। पिता के इस प्रतिपादन का प्रतिवाद कुमारों ने इन गया है।' शब्दों में किया--"आत्मा नहीं दीखती इतने मात्र से उसका बहिविहारा-इसका द्रव्य और भाव-दोनों दृष्टियों से नास्तित्व नहीं माना जा सकता। इन्द्रियों के द्वारा मूर्त-द्रव्य ही अर्थ किया गया है। द्रव्य-दृष्टि से बहिर्विहार का अर्थ है 'नगर जाने जा सकते हैं। आत्मा अमूर्त है इसलिए वह इन्द्रियों के आदि से बाहर रहने वाला' और भाव-दृष्टि से इसका अर्थ है द्वारा ग्राह्य नहीं है, किन्तु मन के द्वारा ग्राह्य है।" प्रस्तुत श्लोक 'प्रतिबन्ध रहित विहार करने वाला। तीसरे श्लोक में यह शब्द में-आत्मा है, वह नित्य है, उसके कर्म का बन्ध होता है और मोक्ष के अर्थ में प्रयुक्त है। बन्ध के कारण वह बार-बार जन्म का वरण करती है१८. (श्लोक १८) आस्तिकता के आधारभूत इन चार तथ्यों का निरूपण है। धर्माचरण का मूल आत्मा है। पुरोहित ने सोचा यदि मेरे नो इंदिय-चूर्णि में 'नो-इंदिय' को एक शब्द माना है। पुत्र आत्मा के विषय में संदिग्ध हो जाएं तो इनमें मुनि बनने इसलिए उसके अनुसार इसका अर्थ मन होता है और टीका की प्रेरणा स्वतः समाप्त हो जाएगी। उसने इस भावना से आत्मा में 'नो' और 'इन्द्रिय' को पृथक-पृथक माना है। के नास्तित्व का दृष्टिकोण उपस्थित करते हुए जो कहा, वही इस अज्झत्थ-अध्यात्म का अर्थ है 'आत्मा में होने वाला'। श्लोक में है। मिथ्यात्व आदि आत्मा के आन्तरिक दोष हैं। इसलिए उन्हें 'अ असंतो-तत्त्व की उत्पत्ति के विषय में दो प्रमुख विचारधाराएं यात्म' कहा जाता है। सूत्रकृतांग में क्रोध आदि को 'अध्यात्म-दोष' हैं-सदवाद और असदवाद। असदवादियों के अभिमत में कहा है। आत्मा उत्पत्ति से पूर्व असत होती है। कारण-सामग्री मिलने पर २०. अमोघा (अमोहाहिं) वह उत्पन्न होती है, नष्ट होती है, अवस्थित नहीं रहती- अमोघ का शाब्दिक-अर्थ अव्यर्थ—अचूक है। किन्तु यहां जन्म-जन्मान्तर को प्राप्त नहीं होती।' अमोघा का प्रयोग रात्रि के अर्थ में किया गया है। महाभारत में १९. (श्लोक १९) इसका अर्थ दिन-रात किया है। चूर्णिकार ने एक प्रश्न खड़ा आस्तिकों के अभिमत में सर्वथा असत की उत्पत्ति होती किया है.--अमोघा का अर्थ रात ही क्यों ? क्या कोई दिन में नहीं ही नहीं। उत्पन्न वही होता है, जो पहले भी हो और पीछे भी मरता? इसके समाधान में उन्होंने बताया है—यह लोक-प्रसिद्ध हो। जो पहले भी नहीं होता, पीछे भी नहीं होता, वह बीच में बात है कि मृत्यु को रात कहा जाता है, जैसे दिन की समाप्ति भी नहीं होता। आत्मा जन्म से पहले भी होती है और मृत्यु रात में होती है वैसे ही जीवन की समाप्ति मृत्यु में होती है।" के पश्चात् भी होती है, इसलिए वर्तमान शरीर में उसकी उत्पत्ति काल-प्रवाह के अर्थ में उत्तराध्ययन में रात्रि शब्द का प्रयोग को असत् की उत्पत्ति नहीं कहा जा सकता। अनेक स्थलों पर मिलता है। जहां रात होती है, वहां दिवस नास्तिक लोग आत्मा को इसलिए असत मानते हैं कि अवश्य होता है, इसलिए शान्त्याचार्य ने अमोघा से दिवस का भी जन्म से पहले उसका कोई अस्तित्व नहीं होता और उसको ग्रहण किया है।" अनवस्थित इसलिए मानते हैं कि मृत्यु के पश्चात् उसका २१. (पच्छा, गमिस्सामो) अस्तित्व नहीं रहता। इसका कारण यह है कि आत्मा न तो पच्छा–पश्चात् शब्द के द्वारा पुरोहित ने आश्रम-व्यवस्था शरीर में प्रवेश करते समय दीखती है और न उससे बिछुड़ते की ओर पुत्रों का ध्यान खींचने का यत्न किया है। इसकी १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०१ : गुणोघं-सम्यग्दर्शनादिगुणसमूहम्। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०१ : बहिः-ग्रामनगरादिभ्यो बहिर्वर्तित्वाद् द्रव्यतो भावतश्च क्वचिदप्रतिवद्धत्वाद् विहारः-विहरणं ययोस्ती बहिर्विहारी अप्रतिबद्धविहारावितियावत। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०१ : आत्मास्तित्वमूलत्वात्सकलधर्मानुष्टानस्य तन्निराकरणायाह पुरोहितः। बृहद्वृत्ति, पत्र ४०१, ४०२ : 'सत्त्वाः' प्राणिनः ‘समुच्छंति' त्ति समूर्छन्ति, पूर्वमसन्त एव शरीराकारपरिणतभूतसमुदायत उत्पद्यन्ते, तथा चाहु:-"पृथिव्यापरतेजोवायुरिति तत्त्वानि, एतेभ्यश्चैतन्य, मद्यांगेभ्यो मदशक्तिवत्", तथा 'नासइ' त्ति नश्यन्ति---अभपटलवत्प्रलयमुपयान्ति 'णावचिटूठे' ति न पुनः अवतिष्ठन्ते-शरीरनाशे सति न क्षणमप्यवस्थितिभाजो भवन्ति। (क) आयारो, ४१४६ : जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कओ सिया। (ख) माध्यमिककारिका, ११२ : नैवाग्रं नावरं यस्य, तस्य मध्यं कुतो भवेत्। (ग) माण्डूक्यकारिका, २६ : आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमाने पितत यथा। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२६ : नोइन्द्रिय मनः। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०२ : 'नो' इति प्रतिषेधे इन्द्रियैः-श्रोत्रादिभिर्गाह्यः-संवेद्य इन्द्रियग्राह्यः । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०२ : अध्यात्मशब्देन आत्मरथा मिथ्यात्वादय इहोच्यन्ते। ६. सूयगडो, १।६।२५ : कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा। १०. महाभारत, शान्तिपर्व, २७७।६। ११. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२७ : अमोहा रयणी, कि दिवसतो ण मरति ?, उच्यते-लोकसिद्धं यन्मरतीति (रति) वाहरंती य, अहवा सो न दिवसे विणा (रत्तीए) तेण रत्ती भण्णति, अपच्छिमत्वाद्वा णियमा रत्ती। १२. उत्तरज्झयणाणि, १०।१; १४।२३-२५ । १३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०३ : अमोघा 'रयणि' ति रजन्य उक्ताः, दिवसाविनाभावित्वात्तासां दिवसाश्च। १४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०४ : 'पश्चाद्' यौवनावस्थोत्तरकालं, कोऽर्थः?-पश्चिमे वयसि। Jain Education Intemational Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २५० व्याख्या के शब्द सहसा कालिदास के इस श्लोक की याद दिला देते हैं- शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् । वार्धक्ये मुनिवृत्तीनां योगेनानी तनुत्यजाम्॥ १४८) पिता के कहने का अभिप्राय था कि हम लोग बुढ़ापे में मुनि बनेंगे। गमिस्सामो— यह अनियत वास का संकेत है। चूर्णिकार ने यहां गांव में एक रात और नगर में पांच रात रहने का उल्लेख किया है।' २२. भोग हमारे लिए अप्राप्त नहीं हैं हम उन्हें अनेक बार प्राप्त कर चुके हैं (अणागयं नेव य अत्थि किंचि) आत्मा को पुनर्भवि मानने वालों के लिए यह एक बहुत बड़ा तथ्य है। लोग कहते हैं—यह दीक्षित हो रहा है, इसने संसार में आकर क्या देखा है, क्या पाया है ? इसे अभी घर में रहना चाहिए। इस बात का उत्तर कुमारों ने आत्मवाद के आ र पर दिया है। उन्होंने कहा - अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करने वाली आत्मा के लिए अप्राप्त कुछ भी नहीं है, उसे सब कुछ प्राप्त हो चुका है। पदार्थ की प्राप्ति के लिए उसे घर में रहना आवश्यक नहीं है। जहां मृत्यु न पहुंच पाए वैसा कोई स्थान नहीं है—यह इसका दूसरा अर्थ है। २३. हे वाशिष्ठि ! ( वासिट्ठि ! ) गोत्र से सम्बोधित करना गौरव सूचक समझा जाता था, इसलिए पुरोहित ने अपनी पत्नी को 'वाशिष्टि' कह कर सम्बोधि त किया।" देखें- दसवे आलियं, ७।१७ का टिप्पण । २४. सुसंस्कृत ( सुसंभिया) जो इन्द्रियों के विषय को संपादित करने वाली सारी सामग्री से युक्त होते हैं, सुसंस्कृत होते हैं, वे सुसंभृत कहलाते हैं। यह शब्द 'कामगुण' का विशेषण है। २५. श्रृंगार रस ( अग्गरसा...) नौ रसों में शृंगार पहला रस है, इसलिए इसे अग्रचरस कहा जा सकता है । वृत्ति में यह वैकल्पिक अर्थ के रूप में प्रस्तुत है। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३७ : गमिस्सामो, अणियत्तवासी गामे एगरातीओ नगरे पंचरातीयो । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०४ 'अनागतम्' अप्राप्तं नैव चास्ति किंचिदिति मनोरममपि विषयसौख्यादि अनादी संसारे सर्वस्य प्राप्तपूर्वत्वात्ततो न तदर्थमपि गृहावस्थानं युक्तमिति भावः । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०४ : यद्वाऽनागतं यत्र मृत्योरागतिर्नास्ति तन्न किंचित्स्थानमस्ति । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०५ वाशिष्ठि ! - वशिष्टगोत्रोद्भवे, गोरवख्यापनार्थं गोत्राभिधानम् । ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२६ : अग्गरसानां सुखानां । १. अध्ययन १४ : श्लोक २८-३६ टि० २२-३० और वृत्ति में मधुर आदि प्रधान चूर्ण में रस किया है।" २६. मोक्ष मार्ग ( पहाणमग्गं) प्रधान का अर्थ है-मोक्ष। चूर्णिकार ने इस पद के तीन अर्थ किए हैं – (१) ज्ञान, दर्शन और चारित्र (२) दसविध श्रमण धर्म (३) तीर्थंकरों का मार्ग। वृत्ति के अनुसार इसका अर्थ हैमहापुरुषों द्वारा आसेवित प्रव्रज्यारूपी मुक्तिमार्ग ।" 'गमिस्सामुपहाणमग्गं' में संधि-विच्छेद करने पर 'उपहाणमग्गं' पाठ होता है। इसका संस्कृत रूप होगा'उपधानमार्ग' और अर्थ होगा - तपस्या का मार्ग । २७. हे भवति ! ( भोइ !) इसका अर्थ महाराष्ट्र में यह शब्द पूज्य के अर्थ में प्रचलित है । चूर्णि और वृत्ति में इसको आमंत्रण-वचन मानकर भवति ! रूप में प्रस्तुत किया है। २८. घन, धान्य आदि (कुडुंबसारं ) सुख कुटुम्ब के लिए वे ही सारभूत पदार्थ होते हैं जिनसे कुटुम्ब का भरण-पोषण होता है। हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य आदि कुटुम्बसार माने जाते हैं । यह लाक्षणिक अर्थ की अभिव्यंजना है। २९. बार-बार (अभिक्ख) चूर्णि और वृत्ति में इसका अर्थ 'अभीक्ष्णं पुनः पुनः किया है।' 'कुटुम्बसार विलुत्तमं त इस वाक्य का कोई क्रियापद नहीं है। इसलिए वृत्तिकार ने 'गेण्हतं' पद का अध्याहार किया है।" यदि 'अभिक्ख' पद का अभिकांक्षत् रूप माना जाए तो अध्याहार की आवश्यकता नहीं रहती। वर्णलोप के द्वारा यह सिद्ध हो सकता है। ३०. वह तुम्हें त्राण भी नहीं दे सकेगा (नेव ताणाय तं तव) ६. रानी कमलावती ने राजा से कहा- -धन-धान्य या परिवार परलोक में त्राण नहीं दे सकता। चूर्णिकार ने यहां एक श्लोक उद्धृत किया है" अत्येण गंदराया ण वाइओ गोहणेण कुइनो धन्ने तिलयसेनी पुन ताइओ सगरो । (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ४०७ । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २२६ : पहाणमग्गो णाम ज्ञानदंसणचरिताणि, दसविधो वा समणधम्मो, पहाणं वा मग्गं पहाणमग्गं, तीर्थकराणामित्यर्थः । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०६ प्रधानमार्ग महापुरूषसेवितं प्रव्रज्यारूपं मुक्तिपथमिति । (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २२६ : हे भवति !..... । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४०६ हे भवति ! आमन्त्रणवचनमेतत् । ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३० । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४०८ । १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०८ तदिति यत् पुरोहितेन त्यक्तं गृहलन्तमिति शेषः । ११. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २३० । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इषुकारीय २५१ अध्ययन १४ :श्लोक ४०-४४ टि०३१-४० ३१. मरना होगा (मरिहिसि......) और 'निर' के साथ तथा स्वतंत्र रूप में और ४६ वें श्लोक में 'जातस्य ही ध्रुवो मृत्युः'—यह अटल सिद्धान्त है। जो 'निर' के साथ---इस प्रकार आमिष शब्द का छह बार प्रयोग जन्मता है, वह अवश्य ही मरता है, फिर चाहे कोई राजा हो हुआ है। ४६ वें श्लोक के प्रथम दो चरणों में वह मांस के अर्थ या रंक, स्त्री हो या पुरुष। कहा भी है में तथा शेष स्थानों में आसक्ति के हेतुभूत काम-भोग या धन १. 'घुवं उड्ढे तणं कठ्ठ, धुवभिन्नं मट्टियामयं भाणं। के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जातस्य धुवं मरणं, तूरह हितमप्पणो काउं।। बौद्ध साहित्य में भी धन या भोग के अर्थ में आमिष ३. कश्चित् तावत् त्वया दृष्टः श्रुतो वा शकितोऽपिवा। शब्द का प्रयोग हुआ है।" देखें-उत्तरज्झयणाणि, ८।५ का क्षितौ वा यदि वा स्वर्गे, यो जातो न मरिष्यति॥२ टिप्पण। ३७. (परिग्गहारंपनियत्तदोसा) ३२. एक धर्म ही त्राण है (एक्को हु.....) जो आरम्भ और परिग्रह के दोष से निवृत्त हो गई हो उस _ 'मरणसमं नत्यि भयं'-मरण के समान दूसरा कोई भय नहीं है। धर्म इस भय से त्राण दे सकता है। स्त्री का विशेषण ‘परिग्रहारम्भदोषनिवृत्ता' होता है। शान्त्याचार्य ने वैकल्पिक रूप में 'परिग्रहारम्भनिवृत्ता' और 'अदोषा' ये दो महान् वैज्ञानिक आइंस्टीन को डॉक्टर ने कहा-एक विशेषण भी माने हैं। ऑपरेशन और करना होगा। आइंस्टीन ने कहा-“मैं हठपूर्वक जीना नहीं चाहता। मुझे जितना समय जीना था जी लिया। जो ३८. राग-द्वेष...... (रागद्दोस......) काम करना था, कर लिया। अब मेरे मन में जीने की कोई 'दावाग्नि लगी हुई है। अरण्य में जीव-जन्तु जल रहे हैं। आकांक्षा नहीं है।" उन्हें देख राग-द्वेष के वशीभूत होकर दूसरे जीव प्रमुदित हो रहे ३३. (इहेह) हैं।' प्रस्तुत प्रसंग में द्वेष शब्द की सार्थकता हो सकती है, पर राग शब्द की उपयोगिता क्या है ? यह प्रश्न स्वाभाविक है। राग इसमें 'इह' शब्द का दुबारा प्रयोग है-इह+इह इहेह। का अर्थ यदि मनोरंजन किया जाए तो प्रसंग की संगति बैट यह दुबारा होने वाला प्रयोग सम्भ्रम का सूचक है।' सकती है। अथवा अपने प्रति राग और दूसरों के प्रति द्वेष अर्थ ३४. पिंजड़े (पंजरे.....) हो तो दोनों की सार्थकता हो सकती है। तुलना-- सच्चाई यह है कि किसी के प्रति द्वेष होने का अर्थ उद्घाटिते नवद्वारे पजरे विहगोऽनिलः। है—किसी के प्रति राग है। राग मौलिक प्रवृत्ति है। द्वेष उसका यत्तिष्ठति तदाश्चर्य, प्रयाणे विस्मयः कुतः।। एक स्फुलिंग है। इसलिए जहां द्वेष है वहां राग का होना ३५. सरल क्रियावाली (उज्जु कडा) नैसर्गिक है। चूर्णि में इसका अर्थ-अमायी और वृत्ति में मायारहित ३९. वायु की तरह अप्रतिबद्ध विहार करते हैं (लहुभूयविहारिणो) अनुष्ठान दिया है। यही शब्द १५१ में भी प्रयुक्त हुआ है। वायु की तरह विहार करने वाला अथवा संयमपूर्वक वहां चर्णि के अनुसार इसका अर्थ है. जो व्यक्ति ज्ञान, दर्शन, विहार करने वाला 'लघुभूतविहारी' कहलाता है। मिलाइएचारित्र और तप से अपने भावों को ऋजु बना लेता है, वह दसवेआलियं ३१०। ऋजुकृत कहलाता है। वृत्तिकार ने ऋजु के दो अर्थ किए हैं- ४०. स्वेच्छा से निवारण करने वाले (कामकमा) संयम अथवा मायारहित अनुष्ठान। जो अपनी स्वतंत्र इच्छा से इधर-उधर घूमते हैं वे ३६. विषय-वासना से दूर (निरामिसा) कामक्रम कहलाते हैं। मुक्त पक्षी अपनी इच्छा के अनुसार सभी इस श्लोक में 'निर' के साथ और ४६ वें श्लोक में 'स' । दिशाओं में उड़ने के लिए स्वतंत्र होते हैं। वे अप्रतिबद्ध होते हैं। १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३०। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४०८। ३. बृहदवृत्ति, पत्र ४०६ : इहेहे ति दीप्ताभिधानं सम्भ्रमख्यापनार्थम् । ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३० : उज्जुकडा-अमायी। (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ४०६ : ऋजु-मायाविरहितं, कृतं अनुष्ठितमस्या इति ऋजुकृता। ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०२३४ : ज्ञानदर्शनचारित्रतपोभिः उज्जुकडे- ऋजुभावं कृत्वा। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ४१४ । ६. वृहवृत्ति, पत्र ४१० : सहामिषेण-पिशितरूपेण वर्तत इति सामिषः। ७ (क) बृहदवृत्ति, पत्र ४०६ : निष्कान्ता आमिषाद्-गृन्द्रितोरभिल षितविषयादेः। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१० : 'आमिषम्' अभिष्वंगहेतु धनधान्यादि। ८. मज्झिमनिकाय, २।२।१०, पृ०२७८। ६. बृहवृत्ति, पत्र ४०६ : निवृत्ता-उपरता परिग्रहारम्भदोषनिवृत्ता, यद्वा परिग्रहारम्भनिवृत्ता अतएव चादोषा-विकृतिविरहिता। १०. बृहदवृत्ति, पत्र ४१० : लघुः-वायुस्तद्वद्भूतं-भवनमेषां लघुभूताः, कोऽर्थः ? वायूपमाः तथाविधाः सन्तो विहरन्तीत्येवंशीलाः लघुभूतविहारिणःअप्रतिबद्धविहारिण इत्यर्थः, यद्वा लघुभूतः-सयमस्तेन विहर्तुं शीलं येषां ते तथाविधाः। Jain Education Intemational Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २५२ अध्ययन १४ : टि०४८-५२ ४१. पथ्य है (पत्थं) महाभयंकर रोगों के होने पर भी जो अनशन, काया-क्लेश आदि इसके संस्कृत पर्याय चार होते हैं-पथ्य, प्रार्थ्य, पार्थ में मन्द नहीं होते और भयानक श्मशान, पहाड़ की गुफा आदि और प्रस्थ । प्रस्तुत प्रसंग में पथ्य और प्रार्थ्य-ये दोनों उचित में रहने के अभ्यासी हैं वे 'घोर तप' हैं। ये ही जब तप और लगते हैं। योग को उत्तरोत्तर बढ़ाते जाते हैं तब 'घोर पराक्रम' कहे जाते ४२. निर्विषय (निव्विसय) हैं। यह व्याख्या तत्त्वार्थ राजवार्तिक में प्राप्त होती है।' पचासवें श्लोक के अन्तिम दो चरणों के अनुसार यह उपयुक्त विषय शब्द के दो अर्थ होते हैं-शब्द आदि विषय और प्रतीत होती है। 'तवं पगिज्झऽहक्खायं घोर घोरपरक्कमा' इसमें देश। वृत्तिकार ने निर्विषय का मूल अर्थ शब्द आदि इन्द्रिय घोरता की भावना निहित है और 'घोरपरक्कमा' उसी का अग्रिम विषयों का त्याग और वैकल्पिक अर्थ देश-त्याग किया है।' रूप है। चूर्णि और टीका में इनका केवल शाब्दिक अर्थ मिलता चूर्णि में पहला अर्थ ही मान्य है। प्रस्तुत प्रसंग में विपुल राज्य को छोड़ने के कारण निर्विषय का अर्थ-देश रहित ही होना ४४. (सासणे विगयमोहाणं, पुचि भावणभाविया) चाहिए। इन ६ जीवों ने पूर्व में जैन शासन में दीक्षित होकर ४३. घोर पराक्रम करने लगे (घोरपरक्कमा) अनित्य, अशरण आदि भावनाओं के द्वारा अपनी आत्मा तप के अतिशय की ऋद्धि सात प्रकार की बतलाई गई है। को भावित किया था। इन चरणों में उसी तथ्य की सूचना दी गई उसका छट्ठा प्रकार 'घोर पराक्रम' है। ज्वर, सन्निपात आदि है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४११। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३१॥ ३. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ३३६, पृ० २०३। ४. बृहवृत्ति, पत्र ४१२। Jain Education Intemational Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनरसमं अज्झयणं सभिक्खुयं पन्द्रहवां अध्ययन सभिक्षुक Jain Education Intemational Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अध्ययन में भिक्षु के लक्षणों का निरूपण है, इसलिए इसका नाम 'सभिक्खुयं' - 'सभिक्षुक' रखा गया है। भिक्षु अकेला होता है। उसके न कोई मित्र होता और न कोई शत्रु । वह सभी सम्बन्धों से विप्रमुक्त होता है। वह साधना करता है। वह अध्यात्म की कला को कभी जीविका उपार्जन के लिए प्रयुक्त नहीं करता। वह सदा जितेन्द्रिय रहता है । (श्लोक १६) जीवन भयाकुल है। उसके प्रत्येक चरण में भय ही भय है। भिक्षु अभय की साधना करता है। पहले-पहल वह भय को जीतने के लिए उपाश्रय में ही मध्य रात्रि में उठ कर अकेला ही कायोत्सर्ग करता है। दूसरी बार उपाश्रय से बाहर, तीसरी बार दूर 'चौराहे पर, चौथी बार शून्य-गृह में और अन्त में श्मशान में अकेला जा कायोत्सर्ग करता है। वह भय मुक्त हो जाता है। अभय अहिंसा का परिपाक है। (श्लोक १४ ) - आमुख मुनि को प्रत्येक वस्तु याचित ही मिलती है । अयाचित कुछ भी नहीं मिलता। जो इच्छित वस्तु मिलने पर प्रसन्न और न मिलने पर अप्रसन्न नहीं होता वह भिक्षु है। भिक्षु के लिए सभी द्वार खुले हैं। कोई दाता देता है और कोई नहीं भी देता। इन दोनों स्थितियों में जो सम रहता है वह भिक्षु है। ( श्लोक ११, १२) 1 मुनि सरस आहार मिलने पर उसकी प्रशंसा और नीरस मिलने पर उसकी गर्हा न करे। ऊंचे कुलों की भिक्षा करने के साथ-साथ प्रान्त कुलों से भी भिक्षा ले । भिक्षा में जो कुछ प्राप्त हो उसी में सन्तोष करने वाला भिक्षु होता है। (श्लोक १३ ) मुनि अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए हीन भाव से किसी के आगे हाथ नहीं पसारता। वह याचना में भी अपने आत्म गौरव को नहीं खोता । बड़े व्यक्तियों की न वह चापलूसी करता है और न छोटे व्यक्तियों का तिरस्कार, न वह धनवानों की श्लाघा करता है और न निर्धनों की निन्दा। सबके प्रति उसका बर्ताव सम होता है। (श्लोक ६ ) दशवैकालिक का दसवां अध्ययन 'सभिक्खु' है। उसमें २१ श्लोक हैं। इस अध्ययन में १६ श्लोक हैं। उद्देश्य साम्य होने पर भी दोनों के वर्णन में अन्तर है। कहीं-कहीं श्लोकों के पदों में शब्द-साम्य है । इस अध्ययन में प्रयुक्त भिक्षु के कई विशेषण नए हैं। इसके समग्र अध्ययन से भिक्षु को जीवन-यापन विधि का १. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ३७८-३७६ रागद्दोसा दंडा जोगा तह गारवा य सल्ला य विगहाओ सण्णाओ खुहं कसाया पमाया य ।। अथ से इति तक सम्यक् परिज्ञान हो जाता है । इस अध्ययन में अनेक दार्शनिक तथा सामाजिक तथ्यों का संकलन हुआ है । आगम काल में कुछ श्रमण और ब्राह्मण मंत्र, चिकित्सा आदि का प्रयोग करते थे। भगवान् महावीर ने जैन मुनि के लिए ऐसा करने का निषेध किया है। वमन, विरेचन और धूमनेत्र – ये चिकित्सा प्रणाली के अंग हैं। आयुर्वेद में प्रचलित 'पंचकर्म' की प्रक्रिया में प्रथम दो का महत्त्वपूर्ण स्थान है और आज भी इस प्रक्रिया से चिकित्सा की जाती है। धूमनेत्र मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों का निवारण करने के लिए प्रयुक्त होता था। इसका उल्लेख दशवैकालिक ३१६ ओर सूत्रकृतांग २ ।४ ।६७ में भी हुआ है। सातवें श्लोक में अनेक विद्याओं का उल्लेख हुआ है। आजीवक आदि श्रमण इन विद्याओं का प्रयोग कर अपनी आजीविका चलाते थे। इससे लोगों में आकर्षण और विकर्षण--- दोनों होते थे। साधना भंग होती थी। भगवान् ने इस विद्या-प्रयोगों से आजीविका चलाने का निषेध किया है। नियुक्तिकार ने भिक्षु के लक्षण इस प्रकार बतलाए हैं"भिक्षु वह है जो राग-द्वेष को जीत लेता है । भिक्षु वह है जो मन, वचन और काया- इन तीनों दण्डों में सावधान रहता है 1 भिक्षु वह है जो न सावद्य कार्य करता है, न दूसरों से करवाता है और न उसका अनुमोदन करता है । भिक्षु वह है जो ऋद्धि, रस और साता का गौरव नहीं करता। भिक्षु वह है जो मायावी नहीं होता, जो निदान नहीं करता और जो सम्यग्दर्शी होता है। भिक्षु वह है जो विकथाओं से दूर रहता है। 1 भिक्षु वह है जो आहार, भय, मैथुन और परिग्रह — इन चार संज्ञाओं को जीत लेता है। भिक्षु वह है जो कषायों पर विजय पा लेता है। भिक्षु वह है जो प्रमाद से दूर रहता है। भिक्षु वह है जो कर्म-बन्धन को तोड़ने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। जो ऐसा होता है वह समस्त ग्रन्थियों का छेदन कर अजर-अमर पद को पा लेता है। एयाई तु खुहाई जे खलु भिंदंति सुव्वया रिसओ । ते भिन्नकम्मगंठी उविंति अयरामरं ठाणं ।। 4 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनरसमं अज्झयणं : पन्द्रहवां अध्ययन सभिक्खुयं : सभिक्षुक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १. मोणं चरिस्सामि समिच्च धम्म मौनं चरिष्यामि समेत्य धर्म 'धर्म को स्वीकार कर मुनि-व्रत का' आचरण सहिए उज्जुकडे नियाणछिन्ने। सहित ऋजुकृतः छिन्ननिदानः।। करूंगा-जो ऐसा संकल्प करता है, जो सहिष्णु संथवं जहिज्ज अकामकामे संस्तवं जह्यादकामकामः है, जिसका अनुष्ठान ऋजु है', जो वासना के अन्नायएसी परिव्वए जेस भिक्खू।। अज्ञातैषी परिव्रजेत् स भिक्षुः ।। संकल्प का छेदन करता है', जो परिचय का' त्याग करता है, जो काम-भोगों की अभिलाषा को छोड़ चुका है, जो तप आदि का परिचय दिए बिना भिक्षा की खोज करता है, जो अप्रतिबद्ध विहार करता है.--वह भिक्षु है। २. राओवरयं चरेज्ज लाढे रागोपरतं चरेद् लाढः जो राग से उपरत होकर विहार करता है, जो विरए वेयवियाऽऽयरक्खिए। विरतो वेदविदात्मरक्षिकः। निर्दोष आहार से जीवन-यापन करता है, जो पन्ने अभिभूय सव्वदंसी प्रज्ञोऽभिभूय सर्वदर्शी विरत, आगम को जानने वाला और आत्म-रक्षक जे कम्हिचि न मुच्छिए स भिक्खू।। यः कस्मिनपि न मूछितः स भिक्षुः।। है', जो प्रज्ञ है, जो परीषहों को जीतने वाला और सब जीवों को आत्म-तुल्य समझने वाला है", जो किसी भी वस्तु में मृञ्छित नहीं होता-वह भिक्षु है। ३. अक्कोसवहं विइत्तु धीरे आक्रोशवधं विदित्वा धीरः जो धीर मुनि कठोर वचन और ताड़ना को मुणी चरे लाढे निच्चमायगुत्ते। मुनिश्चरेद् लाढः नित्यमात्मगुप्तः। अपने कर्मों का फल जानकर शान्त भाव से अव्वग्गमणे असंपहिडे अव्यग्रमना असंप्रहृष्टः विचरण करता है, जो प्रशस्त है, जो सदा जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ।। यः कृत्स्नमध्यास्ते स भिक्षुः ।। आत्मा का संवरण किये रहता है२. जिसका मन आकुलता और हर्ष से रहित होता है, जो सब कुछ सहन करता है-वह भिक्षु है। ४. पंतं सयणासणं भइत्ता प्रान्त्यं शयनासनं भुक्त्वा तुच्छ शयन और आसन का सेवन करके सीउण्हं विविहं च दंसमसगं। शीतोष्णं विविधं च दंशमशकम्।। तथा सर्दी, गर्मी, डांस और मच्छरों के त्रास को अव्वग्गमणे असंपहिडे अव्यग्रमना असंप्रहृष्टः सहन करके भी जिसका मन आकुलता और जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ।। यः कृत्स्नमध्यास्ते स भिक्षुः ।। हर्ष से रहित होता है, जो सब कुछ सहन करता है वह भिक्षु है। ५. नो सक्कियमिच्छई न पूर्य नो सत्कृतमिच्छति न पूजा जो सत्कार, पूजा और वन्दना की इच्छा नहीं नो वि य वंदणगं कुओ पसंसं?। नो अपि च वंदनकं कुतः प्रशंसाम् ? करता वह प्रशंसा की इच्छा कैसे करेगा? जो से संजए सुब्बए तवस्सी स संयतः सुव्रतस्तपस्वी संयत, सुव्रत, तपस्वी, दूसरे भिक्षुओं के साथ रहने सहिए आयगवेसए स भिक्खू।। सहित आत्मगवेषकः स भिक्षुः।। वाला और आत्म-गवेषक है"-वह भिक्षु है। Jain Education Intemational Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६. जेण पुण जहाइ जीवियं मोहं वा कसिणं नियच्छई । नरनारिं पजहे सया तवस्सी न य कोऊहलं उवेइ स भिक्खू ।। ७. छिन्नं सरं भोमं अंतलिक्खं सुमिणं लक्खणदंडवत्थुविज्जं । अंगवियारं सरस्स विजयं जो विज्जाहिं न जीवइ स भिक्खू ।। ८. मंतं मूलं विविहं वेज्जचिंतं वमणविरेयणधूमणेत्तसिणाणं । आउरे सरणं तिगिच्छियं च तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ।। ६. खतियगणउग्गरायपुत्ता माहणभोइय विविठा व सिप्पिणी। नो तेसिं वयइ सिलोगपूयं तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ।। २५६ येन पुनर्जहाति जीवितं मोहं वा कृत्स्नं नियच्छति । नरनारीं प्रजह्यात् सदा तपस्वी न च कौतूहलमुपैति स भिक्षुः ।। छिन्नं स्वरं भौममन्तरिक्षं स्वप्नं लक्षणदण्डवास्तुविद्यां । अंगविकारः स्वरस्य विचयः यो विद्याभिर्न जीवति स भिक्षुः ।। मन्त्रं मूलं विविधां वैद्यचिन्तां वमन विरेचन- धूमनेत्र - स्नानम् । आतुरे शरणं चिकित्सितं च मन्त्र, मूल, विविध प्रकार की आयुर्वेद सम्बन्धी चिन्ता, वमन, विरेचन, धूम्र-पान की नली, स्नान, आतुर होने पर स्वजन की शरण, तत् परिज्ञाय परिव्रजेत् स भिक्षुः ।। चिकित्सा - इनका परित्याग कर जो परिव्रजन करता है-वह भिक्षु है । १०. गिहिणो जे पव्वइएण दिट्ठा अप्पव्वइएण व संयुमा हविज्जा तेसिं इहलोइयफलद्वा जो संघवं न करेइ स भिक्खू ।। ११. सयणासणपाणभोयणं शयनासनपानभोजनं विवहं खाइमसाइमं परेसिं । विविधं खाद्यस्वाद्यं परेभ्यः । अदए पडिसेहिए नियंठे अददद्भ्यः प्रतिषिद्धो निर्ग्रन्थः जे तत्थ न पउस्सई स भिक्खू ।। यस्तत्र न प्रदुष्यति स भिक्षुः ।। १२. जं किंचि आहारपाणं विविहं यत्किंचिदाहरपानं विविधं खाइमसाइमं परेसिं लधुं । खाद्यस्वाद्यं परेभ्यो लब्ध्वा । जो तं तिविहेण नाणुकंपे यस्तेन विविधेन नानुकम्पते मणवयकायसुसंवुडे स भिक्खू ।। सुसंवृतमनोवाक्कायः स भिक्षुः ।। अध्ययन १५ : श्लोक ६-१३ जिसके संयोग मात्र से संयम जीवन छूट जाये और समग्र मोह से बंध जाए वैसे स्त्री या पुरुष की संगति का जो त्याग करता है, जो सदा तपस्वी है, जो कुतूहल नहीं करता- वह भिक्षु है । क्षत्रियगणोग्रराजपुत्राः क्षत्रिय, गण, उग्र, राजपुत्र, ब्राह्मण, भोगिक ब्राह्मणभोगका विविधाश्च शिल्पिनः । (सामन्त ) और विविध प्रकार के शिल्पी जो होते नो तेषां वदति श्लोकपूजे हैं, उनकी श्लाघा और पूजा नहीं करता किन्तु तत्परिज्ञाय परिव्रजेत् स भिक्षुः ।। उसे दोष-पूर्ण जान उसका परित्याग कर जो परिव्रजन करता है - वह भिक्षु है। १३. आयामगं चेव जवोदणं च आयामकं चैव यवौदनं च सीयं च सोवीरजवोदगं च । शीतं सौवीरं यवोदकं च । नो हीलए पिंडं नीरसं तु न हीलयेत् पिण्ड नीरस तु पंतकुलाई परिव्वए स भिक्खू ।। प्रान्त्यकुलानि परिव्रजेत् स भिक्षुः ।। प्रान्त्यकुलानि परिव्रजेत् स भिक्षुः ।। जो छिन्न ( छिद्र - विद्या), स्वर (सप्त-स्वर विद्या), भौम, अन्तरिक्ष, स्वप्न, लक्षण, दण्ड, वास्तु-विद्या, अंग-विकार और स्वर- विज्ञान ( पशु-पक्षी स्वर - विद्या) — इन विद्याओं के द्वारा आजीविका नहीं करतावह भिक्षु है ।" गृहिणो ये प्रव्रजितेन दृष्टाः दीक्षा लेने के पश्चात् जिन्हें देखा हो या उससे अप्रव्रजितेन च संस्तुता भवेयुः । पहले जो परिचित हों उनके साथ इहलौकिक तेषामिहलौकिकफलार्थ फल (वस्त्र पात्र आदि) की प्राप्ति के लिए जो यः संस्तवं न करोति स भिक्षुः । परिचय नहीं करता — वह भिक्षु है । शयन, आसन, पान, भोजन और विविध प्रकार के खाद्य-स्वाद्य गृहस्थ न दे तथा कारणविशेष से मांगने पर भी इन्कार हो जाए, उस स्थिति में जो प्रद्वेष न करे वह भिक्षु है । गृहस्थों के घर से जो कुछ आहार, पानक और विविध प्रकार के खाद्य-स्वाद्य प्राप्त कर जो गृहस्थ की मन, वचन और काया से अनुकम्पा नहीं करता - उन्हें आशीर्वाद नहीं देता, जो मन, वचन और काया से सुसंवृत होता हैवह भिक्षु है । ओसामन, जौ का दलिया, ठण्डा-वासी आहार, कांजी का पानी ", जौ का पानी जैसी नीरस भिक्षा की जो निन्दा नहीं करता, जो सामान्य घरो में भिक्षा के लिए जाता है—वह भिक्षु है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभिक्षुक १४. सद्दा विविहा भवंति लोए दिव्वा माणुस्सगा तहा तिरिच्छा । भीमा भयभेरवा उराला जो सोच्चा न वहिज्जई स भिक्खू ।। १५. वादं विविहं समिच्च लोए सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी उवसंते अविहेडए स भिक्खू ।। उपशान्तो ऽविहेठकः स भिक्षुः ।। १६. असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते जिइंदिए सव्वओ विप्पमुक्के । अणुक्कसाई लहुअप्पभक्खी चेच्चा गिहं एगचरे स भिक्खू ।। —त्ति बेमि । २५७ शब्दा विविधा भवन्ति लोके दिव्या मानुष्यकास्तथा तैरश्चाः । भीमा भयभैरवा उदाराः यः श्रुत्वा न व्यथते स भिक्षुः ।। वादं विविधं समेत्य लोके जो लोक में विविध प्रकार के वादों को जानता सहितः खेदानुगतश्च कोविदात्मा । है, जो सहिष्णु है, जो संयमी है, जिसे आगम प्रज्ञो ऽभिभूय सर्वदर्शी का परम अर्थ प्राप्त हुआ है, जो प्रज्ञ है, जो परीषहों को जीतने वाला और सब जीवों को आत्म-तुल्य समझने वाला है, जो उपशान्त और किसी को भी अपमानित न करने वाला २६ होता है वह भिक्षु है । अशिल्पजीव्यगृहो ऽमित्रः जितेन्द्रियः सर्वतो विप्रयुक्तः अनुभवाची लध्वल्पभक्षी त्यक्त्वा गृहमेकचरः स भिक्षुः ।। - इति ब्रवीमि । अध्ययन १५ : श्लोक १४-१६ लोक में देवता, मनुष्य और तिर्यञ्चों के अनेक प्रकार के रौद्र, अति भयंकर और ऊंचे स्वर में३ शब्द होते हैं, उन्हें सुनकर जो व्यथित नहीं होता - वह भिक्षु है । जो शिल्प-जीवी नहीं होता, जिसके घर नहीं होता, जिसके मित्र नहीं होते, जो जितेन्द्रिय और सब प्रकार के परिग्रह से मुक्त होता है, जिसका कषाय मन्द होता है, जो हलका और थोड़ा भोजन करता है, जो घर को छोड़ अकेला ( राग-द्वेष से रहित हो) विचरता है—वह भिक्षु है । ---ऐसा मैं कहता हूँ । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन १५ : सभिक्षुक १. मुनि-व्रत का (मोणं) शब्द प्रयुक्त है। वहां चूर्णिकार ने इसका अर्थ---ज्ञान आदि से जो त्रिकालावस्थित जगत् को जानता है, उसे मुनि कहा सहित किया है और शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ किए हैंजाता है। मुनि के भाव या कर्म को मौन कहा जाता है। मौन (१) सम्यग् ज्ञान और क्रिया से युक्त। का बहु-प्रचलित अर्थ है-वचन-गुप्ति। किन्तु यहां इसका (२) भविष्य के लिए कल्याणकारी अनुष्ठान से युक्त।' अर्थ-समग्र मुनि-धर्म है।' पन्द्रहवें श्लोक में भी इसका प्रयोग हुआ है। २. जो सहिष्णु है (सहिए) किन्तु इन व्याख्याओं में ज्ञान आदि का अध्याहार करने यहां 'सहिए' शब्द का अर्थ है सहिष्णु। 'षह्' धातु मर्षण न पर ही ‘सहित' का अर्थ पूर्ण होता है। सहिष्णु-इस अर्थ में प अर्थात् क्षमा के अर्थ में है। इस धातु का प्राकृत में क्त प्रत्ययांत किस न किसी दूसरे पद के अध्याहार की अपेक्षा नहीं होती। रूप 'सहिय' बनता है। संस्कृत में 'इट' होने पर 'सहित' और ३. जिसका अनुष्ठान ऋजु है (उज्जुकड) 'इट' न होने पर 'सोढ' बनता है। सेतुबन्ध (१५५) में इसका अर्थ है--संयम प्रधान या मायारहित अनुष्ठान। 'सहिय' शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है। चूर्णि के अनुसार जो व्यक्ति ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से चूर्णिकार ने इसका अर्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप अपने भावों को ऋजु-सरल बना लेता है, वह ऋजुकृत से युक्त किया है। बृहद्वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं- कहलाता है। वृत्तिकार ने ऋजु का अर्थ संयम तथा मायारहित सम्यग-दर्शन आदि से युक्त अथवा दूसरे साधुओं के साथ। किया है।' उन्होंने इसका दूसरा संस्कृत रूप 'स्वहित' देकर उसका अर्थ- देखें--१४।४ का टिप्पण। अपने लिए हितकर किया है। ४. जो वासना के संकल्प का छेदन करता है आचार्य नेमिचन्द्र ने 'सहिए' का अर्थ--अन्य साधुओं से (नियाणछिन्ने) समेत किया है। वे यहां एकल-विहार का प्रतिषेध बतलाते हैं। निदान का अर्थ है—किसी व्रतानुष्ठान की फल-प्राप्ति के साधुओं को एकाकी विहार नहीं करना चाहिए-इस तथ्य की लिए मोहाविष्ट-संकल्प, जैसे-'मेरे साधुपन का यदि फल हो पुष्टि में वे एक गाथा प्रस्तुत करते हैं तो मैं देव बनूं, धनी बनूं आदि-आदि।' साधक के लिए ऐसा 'एगागियस्स दोसा, इत्थी साणे तहेव पडिणीए। भिक्खविसोहि महव्वय, तम्हा सेविज्ज दोगमणं। शान्त्याचार्य ने निदान के दो अर्थ किए हैं-विषयों अर्थात् एकाकी रहने से की आसक्ति तथा प्राणातिपात आदि कर्म-बन्धन का कारण। १. स्त्री-प्रसंग की संभावना रहती है। उन्होंने संयुक्त पद 'नियाणछिन्न' का अर्थ 'अप्रमत्त-संयत' २. कुत्ते आदि का भय रहता है। किया है। ३. शत्रु का भय रहता है। ५. परिचय का (संथव) ४. भिक्षा की विशुद्धि नहीं रहती। इसके दो अर्थ हैं-स्तुति और परिचय। चूर्णिकार और ५. महाव्रतों के पालने में जागरूकता नहीं रहती। टीकाकारों को यहां 'परिचय' अर्थ ही अभीष्ट है। अतः एकाकी न रह कर साथ में रहना चाहिए।' चूर्णिकार के अनुसार संस्तव दो प्रकार का है--- इसी अध्ययन के पांचवें श्लोक के चौथे चरण में 'सहित' संवास-संस्तव और वचन-संस्तव। असाथ व्यक्तियों के साथ १. (क) उत्तराध्यवन चूर्णि, पृ० २३४ : मन्यते त्रिकालावस्थितं जगदीति ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३६ : ज्ञानादिसहितः। मुनिः, मुनिभावो मौनम्। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ४१६ : सहितः सम्यग्ज्ञानक्रियाभ्यां, यद् वा सह (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ : मुनेः कर्म मौनं तच्च सम्यक्चारित्रम्। हितेन-आयतिपथ्येन अर्थादनुष्ठानेन वर्त्तत इति सहितः। (ग) सुखबोधा, पत्र २१४ : मौनं श्रामण्यम् । ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०२३४। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३४ : ज्ञानदर्शनचारित्रतपोभिः । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ : सहितः-सम्यग्दर्शनादिभिरन्यसाधुभिर्वेति गम्यते। ८. वही, पत्र ४१४ : निदानं—विषयाभिष्वंगात्मकं, यदि वा.....निदानं--- ......स्वरमै हितः स्वहितो वा सदनुष्ठानकरणतः। प्राणातिपातादिकर्मबन्धकारणम् । ४. सुखबोधा, पत्र २१४ । ६. वही, पत्र ४१४ : छिन्ननिदानो वा अप्रमत्तसंयत इत्यर्थः । Jain Education Intemational Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षुक २५९ रहना 'संवास संस्तव' है और असाधु व्यक्तियों के साथ आलाप संलाप करना 'वचन-संस्तव' है।' वृत्तिकार ने संस्तव के प्रकारांतर से दो भेद किए हैंपूर्व-संस्तव और पश्चात् संस्तव । पितृ पक्ष का सम्बन्ध 'पूर्व- संस्तव' और ससुर पक्ष, मित्र आदि का सम्बन्ध 'पश्चात् संस्तव' कहलाता है।" ६. जो काम-भोगों की अभिलाषा को छोड़ चुका है (अकामकामे) चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'मोक्ष की कामना करने वाला' किया है। शान्त्याचार्य के अनुसार काम दो प्रकार के होते हैं— इच्छाकाम और मदनकाम। जो इन दोनों की कामना नहीं करता, वह 'अकामकाम' है।* विकल्प में उन्होंने चूर्णिकार का अनुसरण किया है। ७. जो तप आदि का परिचय.....खोज करता है (अन्नायएसी) दशवैकालिक १० । १६ में 'अन्नायउंछं' शब्द प्रयुक्त है। वहां अन्नाय - 'अज्ञात' का अर्थ है-अज्ञातकुल प्रस्तुत प्रकरण में 'अज्ञात' का अर्थ है-तप आदि का ज्ञान कराए बिना।" अज्ञातैषी का अर्थ होता है-तप आदि का परिचय दिए बिना भिक्षा की खोज करने वाला। चूर्णिकार ने इसका अर्थ-किसी की निश्रा आश्रय लिए बिना भिक्षा करने वाला किया है । " ८. जो राग से उपस्त होकर विहार करता है (ओवरयं चरेज्ज) 'राओवरयं' के संस्कृत रूप दो हो सकते हैं रागोपरतम् और रात्रि - उपरतम् । प्रथम रूप के अनुसार शांत्याचार्य ने इस वाक्य का अर्थ 'राग (मैथुन) से निवृत्त होकर विहरण करे' और दूसरे रूप के अनुसार 'रात्रि भोजन से निवृत्त होकर विहरण करे' किया है।" चूर्णिकार ने 'रात्रि - उपरत' के अनुसार इसका अर्थ 'रात्रि में भोजन न करे, रात्रि में गमन आदि क्रियाएं न करे' किया है। नेमिचन्द्र ने शान्त्याचार्य के प्रथम अर्थ का अनुसरण किया उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० २३४-२३५ संस्तवो द्विविधः संवाससंस्तवः वचनसंस्तवश्च, अशोभनैः सह संवासः, वचनसंस्तवश्च तेषामेव । २. वृहद्वृत्ति पत्र ४१४ : पूर्वसंस्तुतैर्मात्रादिभिः पश्चात्संस्तुतैश्च श्वशवादिभिः । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २३५: अकामः अपगतकामः कामो द्विविधःइच्छाकामो मदनकामश्च, अपगतकामस्य या इच्छा तो कामयति सा च कामेच्छा मोक्षं कामयतीति प्रार्थयतीत्यर्थः । ३. १. ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४: कामान्-इच्छाकाममदनकामभेदान् कामयतेप्रार्थयते यः स कामकामो, न तथा अकामकामः । ५. वृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ यद्वा ऽकामो मोक्षस्तत्र सकलाभिलाषनिवृत्तेस्तं कामयते यः स तथा । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ | ७. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २३५ । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ : रागः - अभिष्वंगः उपरतो— निवृत्तो यस्मिंस्तद्रा गोपरतं यथा भवत्येवं 'चरेद्' विहरेत् क्तान्तस्य परनिपातः प्राग्वात्, अनेन मैथुननिवृत्तिरुक्ता, रागाविनाभावित्वान्मैथुनस्य, यद्वाऽऽवृत्तिन्यायेन 'रातोवरयं' ति रात्र्युपरतं चरेत्, भक्षयेदित्यनेनैव रात्रिभोजननिवृत्तिरप्युक्ता । है ।" वह अधिक प्रासंगिक है। ९. आगम को जानने वाला और आत्म-रक्षक है (वेयवियाऽऽयर विहार) शांत्याचार्य ने मुख्य रूप से इन दो शब्दों को एक मान कर इसका अर्थ 'सिद्धांतों को जान कर उनके द्वारा आत्मा की रक्षा करने वाला' किया है और गौण रूप में इन दोनों शब्दों को अलग-अलग मान कर 'वेयविय' का अर्थ 'ज्ञानवान्' और 'आयरक्खिए' का अर्थ 'सम्यग्दर्शन आदि के लाभ की रक्षा करने वाला' किया है।" १०. जो प्रज्ञ है (पन्ने) अध्ययन १५ : श्लोक १-२ टि० ६-११ चूर्णिकार ने प्राज्ञ (प्रज्ञ) का अर्थ-आय और उपाय की विधि को जानने वाला किया है। प्राज्ञ वह होता है जो आयसम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र के लाभ तथा उत्सर्ग, अपवाद, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि की विधियों को जानने वाला हो। वृत्ति में इसका अर्थ- 'हेय और उपादेय को जानने वाला' किया है ।" ११. जो परीषहों को..... आत्म-तुल्य समझने वाला है (अभिभूय सव्वदंसी) चूर्णि में 'अभिभूय' का अर्थ-तिरस्कार कर तथा 'सर्वदर्शी ' का अर्थ -- सबको आत्मतुल्य समझने वाला — किया है। वृत्ति मे 'अभिभूय के दो अर्थ प्राप्त है परीबों तथा उपसर्गों को पराजित कर तथा राग-द्वेष का अभिभव कर । वृत्तिकार ने 'सव्वदंसी' के दो संस्कृत रूप देकर दो भिन्न-भिन्न अर्थ किए हैंसर्वदर्शी प्राणीमात्र को आत्मवत् देखने वाला अथवा सर्व वस्तुजात को समदृष्टि से देखने वाला । १. £. २. सर्वदशी - सब कुछ खा जाने वाला, लेपमात्र भी नहीं छोड़ने वाला । " आचारांग में 'वीरेहिं एवं अभिभूय दिट्ठ' ऐसा पाठ है।" यहां 'अभिभूय' शब्द विशेष अर्थ का द्योतक है। इसका अर्थ उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० २३५: रात्रादुपरतं चरेत्, किमुक्तं भवति ?, रात्रौ न भुंक्ते, रात्रौ गतादिक्रियां न कुर्यात् । १०. सुखबोधा, पत्र २१५ । ११. बृहद्वृत्ति पत्र ४१४ वेद्यतेऽनेन तत्त्वमिति वेदः सिद्धान्तरतस्य वेदनं वित् तया आत्मा रक्षितो दुर्गतिपतनात्त्रातो ऽनेनेति वेदविदात्मरक्षितः, यद्वा वेदं वेत्तीति वेदवित् तथा रक्षिता आयाः सम्यग्दर्शनादिलाभा येनेति रक्षितायः । १२. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २३५: प्राज्ञो विदुः संपन्नो आयोपायविधिज्ञो भवेत्, उत्सर्गापवादद्रव्याद्यापदादिको य उपायः । १३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१४ : प्राज्ञ:---- --- हेयोपादेयबुद्धिमान् । १४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३५: अभिभूय — तिरस्कृत्य सव्वदसीआत्मवत् सर्वदर्शी भवेत् । १५. बृहद्वृत्ति पत्र ४१४-४१५ अभिभूय पराजित्य परीषहोपसर्गादिति गम्यते, सर्व समस्तं गम्यमानत्वात् प्राणिगणं पश्यति--आत्मवत् प्रेक्षत इत्येवंशीलः, अथवाऽभिभूय रागद्वेषी सर्व वस्तु समतया पश्यतीत्येवंशीलः सर्वदर्शी, यदि वा सर्व दशति - भक्षयतीत्येवंशीलः सर्वदंशी । १६. आयारो १।६८ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २६० अध्ययन १५ : श्लोक ३-७ टि० १२-१६ है---ज्ञान और दर्शन के आवरण को हटाकर। जो इन आवरणों वस्त्र, शस्त्र, काठ, आसन, शयन आदि में चूहे, शस्त्र, से मुक्त होता है, वही सर्वदर्शी हो सकता है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान कांटे आदि से हुए छेद के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना छिन्न की उपलब्धि का सोपान है। निमित्त है। १२. जो आत्मा का संवरण किए रहता है (आयगुत्ते) स्वरों को सुन कर शुभाशुभ का ज्ञान कर लेना स्वर-निमित्त है। शान्त्याचार्य ने इसका मुख्य अर्थ 'शारीरिक अवयवों को स्वर के तीन अर्थ किए जा सकते हैं—(१) सप्तस्वर-विद्या, नियंत्रित रखने वाला' किया है और गौण रूप में 'आत्म-रक्षक' (२) स्वरोदय के आधार पर शुभ-अशुभ फल का निर्देश करना किया है। उन्होंने एक प्राचीन श्लोक को उद्धत करते हए आत्मा और (३) अक्षरात्मक शब्द अथवा पश-पक्षियों के अनक्षरात्मक का अर्थ 'शरीर' किया है।' नेमिचन्द्र ने 'आत्म-रक्षक' अर्थ शब्दों के आधार पर शुभ-अशुभ का निर्देश करना। तत्त्वार्थ-वार्तिक मान्य किया है। में स्वर का यह अर्थ उपलब्ध है। १३. जिसका मन आकुलता...से रहित होता है (अवम्गमणे) भूकम्प आदि के द्वारा अथवा अकाल में होने वाले मन की दो अवस्थाएं हैं-व्यग्र और एकाग्र। व्यग्र का पुष्प-फल, स्थिर वस्तुओं के चलन एवं प्रतिमाओं के बोलने से अर्थ है-चंचल। अव्यग्र शब्द एकाग्र के अर्थ में प्रयुक्त है। भूमि का स्निग्ध-रुक्ष आदि अवस्थाओं के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना अथवा भूमिगत धन आदि द्रव्यों का ज्ञान करना १४. तुच्छ (पंत) भौम-निमित्त है। यह देशी शब्द है। प्रस्तुत प्रसंग में यह 'सयणासणं' का आकाश में होने वाले गन्धर्व-नगर, दिग्दाह, धूली की वृष्टि विशेषण है। इसका अर्थ है-तुच्छ, सामान्य। बंगला भाषा में आदि के द्वारा अथवा ग्रहों के युद्ध तथा उदय-अस्त के द्वारा इसका अर्थ है बासी चावल। शुभाशुभ का ज्ञान करना अंतरिक्ष-निमित्त है। १५. आत्म-गवेषक है (आयगवेसए) स्वप्न के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना स्वप्न-निमित्त है। __ शान्त्याचार्य ने 'आय' शब्द के तीन संस्कृत रूपों की शरीर के लक्षणों के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना कल्पना कर इस शब्द समूह के तीन अर्थ किए हैं लक्षण-निमित्त है। १. आत्म-गवेषक-आत्मा के शुद्ध स्वरूप की गवेषणा शिर:-स्फुरण आदि के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना करने वाला। अंगविकार-निमित्त है। २. आय-गवेषक सम्यग् दर्शन आदि की आय (लाभ) यष्टि के विभिन्न रूपों के द्वारा शुभाशुभ का ज्ञान करना की गवेषणा करने वाला। यष्टि-विद्या है। ३. आयात-गवेषक मोक्ष की गवेषणा करने वाला। प्रासाद आदि आवासों के शुभाशुभ लक्षणों का ज्ञान करना १६. (श्लोक ७) वास्तु-विद्या है। इस श्लोक में दस विद्याओं का उल्लेख किया गया है। षड्ज, ऋषभ आदि सात स्वरों के शुभाशुभ निरूपण का उनमें दण्ड-विद्या, वास्तु-विद्या और स्वर को छोड़ शेष सात अभ्यास करना स्वर-विचय है। विद्याएं निमित्त के अंग हैं। अंग, स्वर, लक्षण, व्यंजन, स्वप्न, चर्णि में जो व्याख्या 'स्वर' की है, वह बृहवृत्ति में छिन्न, भीम और अन्तरिक्ष—ये अष्टांग निमित्त हैं। प्रस्तुत 'स्वर-विचय' की और जो 'स्वर-विचय' की है, वह 'स्वर' की श्लोक में व्यंजन का उल्लेख नहीं है। है। निमित्त या विद्या के द्वारा भिक्षा प्राप्त करना 'उत्पादना' १. वृहद्वृत्ति, पत्र ४१५ : आत्मा' शरीरम्, आत्मशब्दस्य शरीरवचनस्यापि ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३६ : पुरूषः दुदुभिस्वरो काकस्वरी वा दर्शनात, उक्तं हि थर्मधृत्यग्निधीन्द्वकत्वक्तत्त्वस्वार्थदेहिपु। एवमादिस्वरव्याकरणम्। शीलानिलमनोयत्नैकवीर्येष्वात्मनः स्मृतिः।। (ख) वही, पृ०२३६ : ऋषभगान्धारादीनां स्वराणां विजयः अभ्यासः । इति, तेन गुप्त आत्मगुप्तो-न यतस्ततः करणचरणादिविक्षेपकृत, यद्वा (ग) बृहवृत्ति, पत्र ४१६ : ‘सरं' ति स्वरस्वरूपाभिधानं, गुप्तो-रक्षितोऽसंयमस्थानेभ्य आत्मा येन स तथा। “सज्ज रवइ मयूरो, कुक्कुडो रिसभं सरं। २. सुखबोधा, पत्र २१५ : 'आयगुत्ते' त्ति गुप्तः-रक्षितोऽसंयमस्थानेभ्य हंसो रवति गंधार, मज्झिमं तु गवेलए।।" आत्मा येन स। इत्यादि, तथा३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१६ । “सज्जेण लहइ वित्तिं, कयं च न विणस्सई। ४. (क) अंगविज्जा , १२ : गावो पुत्ता य मित्ता य, नारीण होइ वल्लहो।। अंग सरो लक्खणं च वंजणं सुविणो तहा। रिसहेण उ ईसरियं, सेणावच्चं धणाणि य।" छिण्ण भोम्मऽतलिक्खाए, एमए अह आहिया।। (घ) वही, पत्र ४१७ : स्वर:-पोदकीशिवादिरुतरूपरतस्य विषयः(ख) मूलाचार, पिण्डशुद्धि अधिकार, ३०॥ तत्सम्बन्धी शुभाशुभनिरूपणाभ्यासः, यथा(ग) तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ३३६।। गतिस्तारा स्वरो वामः, पोदक्याः शुभदः स्मृतः । ५. तत्त्वार्थवार्तिक ३३६ : अक्षरानक्षरशुभाशुभशब्दश्रवण नेष्टानिष्टफला विपरीतः प्रवेशे तु, स एवाभीष्टदायकः ।। विर्भावनं महानिमित्तं स्वरम् । Jain Education Intemational Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभिक्षुक २६१ अध्ययन १५ :श्लोक ८-१५ टि० १७-२४ नामक एक दोष है, इसलिए कहा है विद्याओं के द्वारा जो जीवन गण--भगवान् महावीर के काल में अनेक शक्तिशाली नहीं चलाता, वह भिक्षु है। गणतंत्र थे। वज्जी-गणतंत्र में नौ लिच्छवि और नी मल्लकी१७. मंत्र (मंतं) ये काशी-कोशल के १८ गणराज्य सम्मिलित थे। शान्त्याचार्य ने जो देवाधिष्ठित होता है, जिसके आदि में 'ओं और अन्त मल्ल शब्द के द्वारा इसी गणराज्य की ओर संकेत किया है। में 'स्वाहा' होता है, जो 'ही' आदि वर्ण-विन्यासात्मक होता है, उग्ग--आरक्षक। उसे 'मंत्र' कहा जाता है।' मोइय—भोगिक का अर्थ 'सामन्त' है। शान्त्याचार्य ने १८. घूमपान की नली (घूमणेत्त) इसका अर्थ 'राजमान्य प्रधानपुरुष' किया है। नेमिचन्द्र के चूर्णिकार ने धूमनेत्र को संयुक्त माना है। अनुसार इसका अर्थ है-विशिष्ट वेशभूषा का भोग करने वाले टीकाकारों ने दोनों शब्दों को अलग-अलग मान कर अर्थ अमात्य आदि।" किया है। उनके अनुसार 'धूम' का अर्थ है—मनःशिलादि धूप २१. कांजी का पानी (सोवीर) से शरीर को धूपित करना और 'नेत्त' का अर्थ है-नेत्र-संस्कारक इसका अर्थ है---कांजी। गुजरात में चावल के मांड को अंजन आदि से नेत्र आंजना। परन्तु यह अर्थ संगत नहीं कांजी और तमिल भाषा में उसे गंजी कहते हैं। लगता। यहां मूल शब्द है 'धूमणेत्त' । इसका अर्थ है-धूएं की नली से धुंआ लेना। विस्तार के लिए देखें- दसवेआलियं, ३ २२. अति भयंकर (भयभेरवा) के 'धूवणेत्ति' का टिप्पण। चूर्णिकार ने इसका अर्थ-निरन्तर उत्रास पैदा करने १९. स्नान (सिणाण) वाला किया है और शान्त्याचार्य ने 'अत्यन्त भय उत्पन्न करने - इसका अर्थ-पुत्र-प्राप्ति के लिए मंत्र-औषधि आदि से वाला' किया है। संस्कारित जल से स्नान करना किया गया है।" अध्ययन २१ (श्लोक १६) में भी 'भयभेरवा' का अर्थ २०. (खत्तियगणउग्ग...मोइय) भीषण-भीषणतम है। दशवैकालिक की वृत्ति में हरिभद्र सूरि ने खत्तिय-शान्त्याचार्य ने क्षत्रियों को 'हैहय' आदि वंशों में इसका यही अर्थ किया है। उत्पन्न माना है। पुराणों के अनुसार हैहय 'ऐलवंश' या मज्झिम-निकाय में एक 'भय-भैरव' नाम का सुत्तन्त 'चन्द्रवंश' की एक शाखा है। भगवान ऋषभ ने मनुष्यों के चार है।" जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की वृत्ति में आकस्मिक भय को 'भय' और वर्ग स्थापित किए थे सिंह आदि से उत्पन्न होने वाले भय को 'भैरव' कहा है।" १. उग्र---आरक्षक। २३. ऊंचे स्वर में (उराला) २. भोग-गुरुस्थानीय। यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है—सुन्दर, प्रधान, ३. राजन्य-समवयस्क या मित्रस्थानीय। भयंकर, विशाल आदि। चूर्णि और वृत्ति में इसका अर्थ४. क्षत्रिय-शेष सारी प्रजा। महान् (शब्द) किया है। इस व्यवस्था से लगता है कि कुछ लोगों को छोड़ कर अघि २४. जो संयमी है (खेयाणुगए) कांश क्षत्रिय ही थे। इसीलिए श्रमण-परम्परा में क्षत्रियों का चूर्णिकार ने खेद का अर्थ 'विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय महत्त्व रहा। आदि प्रवृत्तियों में होने वाला कष्ट' किया है। १. वहवृत्ति, पत्र ४१७ : 'मन्त्रम्' Eकारादिस्वाहापर्यन्तो हींकारादिवर्ण- ११. सुखबोधा, पत्र २१७ : भोगिकाः विशिष्टनेपथ्यादिभोगवन्तो मात्यादयः । विन्यासात्मकस्तम्। १२. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०२३७ : भयभैरवाः सुतरां उत्त्रासजनकाः। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३७ : वमनविरेचनधूमनेत्ररनात्रादिकान्। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१६ भयेन भैरवाः-अत्यन्तसाध्वसोत्पादका ३. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४१७ : धूम-मनःशिलादिसम्बन्धि नेतंति भयभैरवाः। नेत्रशब्देन नेत्रसंस्कारकमिह समीरांजनादि परिगृहाते। १३. बृहवृत्ति, पत्र ४८६ : 'भयभैरवा' भयोत्पादकत्वेन भीषणाः । (ख) सुखवोधा, पत्र २१७। १४. दशवैकालिक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र २६७ : ४. वही, पत्र ४१७ : स्नानम्-अपत्यार्थ मन्त्रौषधिसंस्कृतजलाभिषेचनम्। _ 'भैरवभया' अत्यन्तरौद्रभयजनकाः।, ५. वही, पत्र ४१ : क्षत्रियाः--हैहेयाद्यन्वयजाः । १५. मज्झिम निकाय, ११४, पृ० १३॥ ६. (क) Ancient Indian Historical Tradition, pp. 85-87. १६. जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, वृत्ति, पत्र १४३ : 'भयं' आकस्मिक, 'भैरव' (ख) भारतीय इतिहास की रूपरेखा, जिल्द १, पृ० १२७-१२। सिंहादिसमुत्थम्। ७. आवश्यक नियुक्ति, १६८ : उग्गा भोगा रायण खत्तिया संग हो भवे चउहा। १७. देशीशब्दकोश।। आरक्खगुरुवयंसा सेसा जे खत्तिया ते उ।। १८. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३७ : ओराला-महंता। ८. बृहवृत्ति, पत्र ४१८ : गणाः मल्लादिसमूहाः । (ख) बृहवृत्ति, पत्र ४१६ : उदाराः महान्तो। ६. वही, पत्र४१८ : उग्रा:-आरक्षकादयः । १६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३८ : खेदेन अनुगतो, खेदो विनयवैयावृत्त्य१०. वही, पत्र ४१८ : भोगिकाः--नृपतिमान्याः प्रधानपुरुषाः । स्वाध्यायादिषु। Jain Education Intemational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २६२ अध्ययन १५ : श्लोक १६ टि० २५-२८ शान्त्याचार्य के अनुसार इसका अर्थ 'संयम' है । खेदानुगत २७. जिसके मित्र नहीं होते (अमित्त) अर्थात् जो संयमी है। यहां मित्र शब्द का प्रयोग आसक्ति के हेतुभूत वयस्क के २५. जिसे आगम का परम अर्थ प्राप्त हुआ है (कोवियप्पा) अर्थ में हुआ है। मुनि को सबके साथ मैत्री रखनी चाहिए चूर्णिकार के अनुसार कोविदात्मा वह है जिसने सभी किन्तु राग-वृत्ति करने वाले को मित्र नहीं बनाना चाहिए, यही ज्ञातव्य तथ्यों का पारायण या अभ्यास कर लिया है। इसका हार्द है। वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-वह व्यक्ति जिसने २८. जिसका कषाय मंद होता है (अणुक्कसाई) शास्त्र का परम अर्थ पा लिया है। इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं-अणुकषायी और २६. किसी को भी अपमानित न करने वाला (अविहेडए) अनुत्कषायी। चूर्णिकार के अनुसार जो वचन और काया से दूसरों का चूर्णि में इसका अर्थ है-अल्पकषायी। वृत्तिकार ने मुख्य अपवाद नहीं करता वह 'अविहेटक' होता है। रूप से संज्वलन कषाययुक्त व्यक्ति को अणुकषायी माना है। शान्त्याचार्य ने 'अविहेटक' का अर्थ 'अबाधक' किया है। इसका वैकल्पिक अर्थ है-जो उत्कषायी–प्रबल कषायी न हो देखें-दसवेआलियं १०।१० का टिप्पण। वह अणुकषायी होता है। १. बृहवृत्ति, पत्र ४१६ : खेदयत्यनेन कर्मेति खेदः-संयमस्तेनानुगतो- युक्तः खेदानुगतः। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३८ : कोविपप्पा कोविदात्मा ज्ञातव्येषु सर्वेषु परिचेष्ठित इत्यर्थः। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४१६, ४२०: कोविदः-लब्ध-शास्त्रपरमार्थ, आत्माऽत्रस्येति कोविदात्मा। ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३८ : विहेडनं प्रपंचनं, बाचा कायेन च परापवाद इत्यर्थः, अनपवादी। ५. वृहद्वृत्ति, पत्र ४२० : ‘अविठकः' न करयचिद्विबाधकः । ६. वही, पत्र ४२० : अविद्यमानानि मित्राणि अभिष्वंगहेतवो वयस्या यस्यासावमित्रः। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २३८ : अणु-रतोक अल्पं अल्पकषायी। ८. बृहवृत्ति, पत्र ४२० : अणवः-स्वल्पाः सज्वलननामान इति यावत् कपायाः-कोधादयो यस्येति सर्वधनादित्वादिनि प्रत्ययेऽणुकषायी प्राकृतत्वात सूत्रे ककारस्य द्वित्वं, यद् वा उत्कषायी--प्रबलकषायी न तथाऽनुत्कषायी। Jain Education Intemational Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमं अज्झयणं बंभचेरसमाहिठाणं सोलहवां अध्ययन ब्रह्मचर्यसमाधि स्थान Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमख ब्रह्मचर्य-समाधि का निरूपण होने के कारण इस अध्ययन ८. मात्रा से अधिक न खाए और न पीए। का नाम 'बंभचेरसमाहिठाणं'–'ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान' है। इसमें ६. विभूषा न करे। ब्रह्मचर्य-समाधि के दस स्थानों का वर्णन है। स्थानाग और १०. शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में आसक्त न हो। समवायाङ्ग में भी ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों का वर्णन प्राप्त होता उत्तराध्ययन में जो दसवां स्थान है, वह स्थानाङ्ग और है। तुलनात्मक तालिका यों है समवायाङ्ग में आटवां स्थान है। अन्य स्थानों का वर्णन प्रायः स्थानाङ्ग तथा समवायाङ्ग में वर्णित नौ गुप्तिया समान है। केवल पांचवां स्थान स्थानाङ्ग तथा समवायाग में १. निग्रंथ स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन और नहीं है। आसन का सेवन न करे। प्रस्तुत अध्ययन में चक्षु-गृद्धि की भांति पांचवे स्थान में २. केवल स्त्रियों के बीच कथा न कहे अर्थात् स्त्री-कथा शब्द-गृद्धि का भी वर्जन किया गया है और दसवें स्थान में पांचों न करे। इन्द्रियों की आसक्ति का समवेत रूप से वर्जन किया गया है। ३. स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे। यहां दस समाथि स्थानों का वर्णन बहुत ही मनोवैज्ञानिक ४. स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को न देखे ढंग से हुआ है। शयन, आसन, काम-कथा, स्त्री-पुरुष का एक और न अवधानपूर्वक उनका चिन्तन करे। आसन पर बैठना, चक्षु-गृद्धि, शब्द-गृद्धि, पूर्व क्रीड़ा का ५. प्रणीत रसभोजी न हो। स्मरण, सरस आहार, अतिमात्र आहार, विभूषा, इन्द्रिय-विषयों ६. मात्रा से अधिक न खाए और न पीए। की आसक्ति-ये सब ब्रह्मचर्य की साधना में विघ्न हैं। इसलिए ७. पूर्व-क्रीड़ाओं का स्मरण न करे। इनके निवारण को 'ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान' या 'ब्रह्मचर्य-गुप्ति' शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श तथा श्लोक-कीर्ति में कहा गया है। आसक्त न हो। ब्रह्मचर्य का अर्थ वस्ति-निग्रह है। वह पांचों इन्द्रियों तथा ६. साता और सुख में प्रतिबद्ध न हो। मन के संयम के बिना प्राप्त नहीं होता। इसलिए उसका अर्थ उत्तराध्ययन के दस स्थान 'सर्वेन्द्रिय-संयम' है। ये समाधि-स्थान इन्द्रिय-संयम के ही १. निर्ग्रन्थ स्त्री, पशु और नपुंसक से आकीर्ण शयन स्थान हैं : और आसन का प्रयोग न करे। स्पर्शन-इन्द्रिय-संयम के लिए सह-शयनासन और एक २. स्त्रियों के बीच कथा न कहे। आसन पर बैठना वर्जित है। ३. स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे। रसन-इन्द्रिय-संयम के लिए सरस और अति-मात्रा में ४. स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि आहार करना वर्जित है। गड़ा कर न देखे। घाण-इन्द्रिय-संयम के लिए कोई पृथक् विभाग निर्दिष्ट स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, विलाप आदि नहीं है। के शब्द न सुने। चक्षु-इन्द्रिय-संयम के लिए स्त्री-देह व उसके हाव-भावों ६. पूर्व-क्रीड़ाओं का अनुस्मरण न करे। का निरीक्षण वर्जित है। ७. प्रणीत आहार न करे। श्रोत्र-इन्द्रिय-संयम के लिए हास्य-विलास पूर्ण शब्दों (क) ठाणं, ६३ : नव बंभचेरगुत्तीओ पं० त०१. विवित्ताई सयणासणाई भवइ। ३. नो इत्थीणं ठाणाइ सेवित्ता भवइ। ४. नो इत्थीण सेवित्ता भवति---णो इत्थिससत्ताई णो पसुससत्ताइ नो पंडगससत्ताई। इंदियाणि मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निझाइत्ता भवइ । २. णो इत्विणं कहं कहेत्ता भवति। ३. णो इत्थिटाणाई सेवित्ता ५. नो पणीयरसभोई भवई। ६. नो पाणभोयणरस अतिमायं भवति। ४. णो इत्थीणमिदियाई मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता आहारइत्ता भवइ । ७. नो इत्थीण पुबरयाइ पुबकीलिआइ सुमरइत्ता निझाइना भवति। ५. णो पणीतरसभोई (भवति?)। ६. णो भवइ। ८. नो सद्दाणुवाई नो ख्वाणुयाई नो गंधाणुवाई नो पाणभोयणस्स अतिमाहारए सया भवति। ७. णो पुव्वरतं पुव्वकीलियं रसाणुवाई नो फासाणुवाई नो सिलोगाणुवाई। नो सायासोक्खपटिबजे सरेत्ता भवति । ८. णो सद्दाणुवाती णो ख्वाणुवाती णो सिलोगाणुवाती यावि भवइ। (भवति?)। E. णो सातसोक्खपडिबद्धे यावि भवति। २. समवायाग में इसके स्थान पर-निग्रंथ स्त्री-समुदाय की उपासना न (ख) समवाओ, समवाय ६ : नव बंभचेरगुत्तीओ पं० सं०-१. नोक रे...ऐसा पाठ है। देखें--पा० टि०१ (ख)। इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणि सेवित्ता भवइ। २. नो इत्थीणं कहं कहित्ता Jain Education Intemational Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान २६५ अध्ययन १६ : आमुख का सुनना वर्जित है। ५. वराङ्गेदृशं मा दा--स्त्रियों के अंगों को न देखे। मानसिक-संयम के लिए काम-कथा, पूर्व-क्रीड़ा का ६. स्त्री मा सत्कुरु-स्त्रियों का सत्कार न करे। स्मरण और विभूषा वर्जित है। ७. मा च संस्कुरु-शरीर-संस्कार न करे। दसवां स्थान इन्द्रिय-संयम का संकलित रूप है। ८. रतं वृत्तं मा स्मर-पूर्व सेवित का स्मरण न करे। मूलाचार में शील-विराधना (अब्रह्मचर्य) के दस कारण ६. वय॑न् मा इच्छ-भविष्य में क्रीड़ा करने का न बतलाए गए हैं: सोचे। १. स्त्री-संसर्ग-स्त्रियों के साथ संसर्ग करना। १०. इष्टविषयान् मा जुषस्व--इष्ट रूपादि विषयों का २. प्रणीत-रस-भोजन---अत्यन्त गृद्धि से पांचों इन्द्रियों सेवन न करे। के विकारों को बढ़ाने वाला आहार करना। इनमें क्रमांक १, ३, ४, ५ और ७ तो वे ही हैं जो ३. गंधमाल्य-संस्पर्श-सुगन्धित द्रव्यों तथा पुष्पों के श्वेताम्बर आगमों में हैं, शेष भिन्न हैं। द्वारा शरीर का संस्कार करना। वेद अथवा उपनिषदों में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ४, शयनासन-शयन और आसन में गृद्धि रखना।। शृंखलाबद्ध नियमों का उल्लेख नहीं मिलता। स्मृति में कहा है५. भूषण-शरीर का मण्डन करना। स्मरण, क्रीड़ा, देखना, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यवसाय और गीत-वाद्य-नाट्य, गीत आदि की अभिलाषा करना। क्रिया-इस प्रकार मैथुन आठ प्रकार के हैं। इन सबसे विलग ७. अर्थ-संप्रयोजन-स्वर्ण आदि का व्यवहरण। हो ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिए। ८. कुशील-संसर्ग-कुशील व्यक्तियों का संसर्ग। बौद्ध-साहित्य से भी ब्रह्मचर्य-गुप्तियों जैसा कोई व्यवस्थित ६. राज-सेवा-विषयों की पूर्ति के लिए राजा का क्रम नहीं मिलता, किन्तु विकीर्ण रूप में कुछ नियम मिलते हैं। गुण-कीर्तन करना। वहां रूप के प्रति अति आसक्ति-भाव को दूर करने के लिए १०. रात्रि-संचरण-बिना प्रयोजन रात्रि में इधर-उधर अशुचि भावना के चिन्तन का मंत्र मान्य रहा है। यह जाना। 'कायगता-स्मृति' के नाम से विख्यात है। दिगम्बर विद्वान् पण्डित आशाधरजी ने ब्रह्मचर्य के दस बुद्ध मृत्यु-शय्या पर थे तब शिष्यों ने पूछा- “भंते ! नियमों को निम्नांकित रूप में रखा है स्त्रियों के साथ हम कैसा व्यवहार करेंगे?" १. मा रूपादिरसं पिपास सुदृशाम्-ब्रह्मचारी रूप, रस, “अदर्शन, आनन्द !" गन्ध, स्पर्श शब्द के रसों को पान करने की इच्छा "दर्शन होने पर भगवन् ! कैसा बर्ताव करेंगे?". न करे। “अलाप न करना, आनन्द !" २. मा वस्तिमोक्षं कृथा—वह ऐसा कार्य न करे, जिससे "बातें करने वाले को कैसा करना चाहिए ?" लिंग-विकार हो। "स्मृति को संभाल रखना चाहिए।" वृष्यं मा भज-वह कामोद्दीपक आहार न करे। उक्त अनेक परम्पराओं के संदर्भ में दस समाधि-स्थानों स्त्रीशयनादिकं च मा भज-स्त्री तथा शयन-आसन का अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है। आदि का प्रयोग न करे। कार मैथुन गुयभाषण, सका। स्मृति में कहा लिए -साहित्य सरनी चाहिए। के हैं। इन सबस और १. मूलाचार ११:१३, १४ : इत्थीसंसग्गी पणीदरसभोयण गंधमल्लसंठप्पं । सवणासणभूसणयं, छटुं पुण गीयवाइयं चेव।। अत्थस्स संपओगो, कुसीलसंसम्गि रायसेवा य। रत्ति वि य संयरणं, दस सील विराहणा भणिया।। अनगारधर्मामृत ४।६१: मा रूपादिरस पिपास सुदृशा मा वस्तिमोक्षं कृथा, वृष्यं स्वीशयनादिकं च भज मा मा दा वरांगे दृशम् । मा स्त्री सत्कुरु मा च संस्कुरु रतं वृत्तं स्मरस्मार्य मा, वचन्मेच्छ जुषस्य मेष्टविषयान् द्विःपञ्चधा ब्रह्मणे।। ३. दक्षस्मृति ७।३१-३३ : ब्रह्मचर्य सदा रक्षेदष्टधा मैथुनं पृथक् । स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् ।। संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च। एतन्मैथुनमष्टाङ्ग प्रवदन्ति मनीषिणः ।। न ध्यातव्यं न वक्तव्यं न कर्त्तव्यं कदाचन। एतैः सर्वैः सुसम्पन्नो यतिर्भवति नेतरः।। ४. सुत्तनिपात १११, विसुन्द्रिमग्ग (प्रथम भाग) परिच्छेद ८, पृ० २१८-२६०। ५. दीघनिकाय (महापरिनिव्वाण सुत्त) २।३। Jain Education Intemational Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमं अज्झयणं सोलहवां अध्ययन बंभचेरसमाहिठाणं : ब्रह्मचर्य-समाधि स्थान मूल १. सुयं मे आउ ! तेणं भगवया एवमक्खायं --- इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा पण्णत्ता, जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुसिदिए गुत्तरं भयारी सया अप्पमत्ते विहरेज्जा । २. कमरे खलु ते चेरेहिं भगवंतेहिं ते थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा पण्णत्ता, जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुतिदिए गुत्तर्वभयारी सया अप्पमत्ते विहरेज्जा ? ३. इमे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा पण्णत्ता, जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिंदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमत्ते विहरेज्जा, तं जहा - विवित्ताइं सयणासणाइं सेविज्जा, से निग्गंथे । नो इत्वीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासाई सेवित्ता हवइ, से निग्गंथे । तं कहमिति चे ? आयरियाह-- निग्गंथस्स खलु इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा संस्कृत छाया श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवतै वमाख्यातम् इह खलु स्थविरैर्भ गवद्भिर्दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि यानि भिक्षुः श्रुत्वा निशम्य संयमबहुलः संवरबहुलः समाधि बहुल गुप्ता गुप्तेन्द्रियः गुप्तब्रह्मचारी सदाऽप्रमतो विहरेत्। कतराणि खलु तानि स्थविरैर्भगवदिर्दश ब्रह्मचर्य समाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि यानि भिक्षुः श्रुत्वा निशम्य संयमबहुलः संवरबहुलः समाधि बहुत गुप्तः गुप्तेन्द्रियः गुप्तवासात विहरेत् ? इमानि खलु स्थविरैर्भगवद्भिर्दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि प्रज्ञप्तानि, यानि भिक्षुः श्रुत्वा निशम्य संयमबहुलः संरबहुलः समाधिबहुलः गुप्तः गुप्तेन्द्रियः गुप्तब्रह्मचारी सदाऽप्रमत्तो विहरेत्। तद्यथा विविक्तानि शयनासनानि सेवेत, स निर्ग्रन्थः । नो स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तानि शयनासनानि सेविता भवति, स निर्ग्रन्थः । तत् कथमिति चेत् ? आचार्य आह-निर्ग्रन्थस्य खलु स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तानि शयनासनानि सेवमानस्य ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात्, हिन्दी अनुवाद आयुष्मन् !' मैंने सुना है, भगवान् (प्रज्ञापक आचार्य) ने ऐसा कहा है-निर्ग्रन्थ प्रवचन में जो स्थविर ( गणधर ) भगवान हुए हैं उन्होंने ब्रह्मचर्य-समाधि के दस स्थान बतलाए हैं, जिन्हें सुन कर जिनके अर्थ का निश्चय कर, भिक्षु संयम, संवर और समाधि का पुनः पुनः अभ्यास करे मन, वाणी और शरीर का गोपन करे, इन्द्रियों को उनके विषयों से बचाए, ब्रह्मचर्य को नौ सुरक्षाओं से सुरक्षित रखे और सदा अप्रमत्त होकर विहार करे। स्थविर भगवान् ने वे कौन से ब्रह्मचर्य-समाधि के दस स्थान बतलाए हैं, जिन्हें सुन कर जिनके अर्थ का निश्चय कर, भिक्षु संयम, संबर और समाधि का पुनः - पुनः अभ्यास करे, मन, वाणी और शरीर का गोपन करे, इन्द्रियों को उनके विषयों से बचाए, ब्रह्मचर्य को नी सुरक्षाओं से सुरक्षित रखे और सदा अप्रमत्त होकर विहार करे ? स्थविर भगवान् ने ब्रह्मचर्य-समाधि के दस स्थान ये बतलाए हैं, जिन्हें सुन कर जिनके अर्थ का निश्चय कर, भिक्षु संयम, संवर और समाधि का पुनः पुनः अभ्यास करे। मन, वाणी और शरीर का गोपन करे, इन्द्रियों को उनके विषयों से बचाए, ब्रह्मचर्य को नौ सुरक्षाओं से सुरक्षित रखे और सदा अप्रमत्त होकर विहार करे। वे इस प्रकार हैंजो एकांत शयन और आसन का सेवन करता है, वह निर्ग्रन्थ है। निर्ग्रन्थ स्त्री, पशु और नपुंसक से आकीर्ण शयन और आसन का सेवन नहीं करता।" यह क्यों ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-स्त्री. पशु और नपुंसक से आकीर्ण शयन और आसन का सेवन करने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह केवली - कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-समाधि स्थान रोगायकं हवेज्जा, केवलिपण्णताओ वा धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा नो इत्थिपसुपंडगसंसत्ताइं सयणासणाई सेवित्ता हवइ, से निग्गंथे । ४. नो इत्थीर्ण कह कहित्ता हवड़, से निग्गंथे । । तं कहमिति चे ? आयरियाह—निग्गंथस्स खलु इत्थीणं कहं कहेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्पज्जि - ज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपण्णताओ वा धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा नो इत्थीणं कह कहेज्जा । ५. नो इत्थीहिं सद्धिं सन्निसेज्जागए विहरित्ता हव से निग्गंथे । तं कहमिति चे ? आयरियाह— निग्गंथस्स खलु इत्थीहिं सद्धिं सन्निसेज्जागयस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा, समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मार्थ वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा, केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ सेज्जा । तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्वीहिं सद्धिं सन्निसेज्जागए विहरेज्जा । ६. नो इत्थीणं इंदियाई मणोहराई, मणोरमाई आलोइत्ता निज्झाइत्ता हवइ, से निग्गंथे। तं कहमिति चे ? आयरिवाह— निग्गंधस्स खलु इत्थीण इंदियाई मणोहराई मणो रमाई आलीएमाणस्स निज्झायमाणस्स बंभयारिस्स बंगचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगच्छ वा समुप्यज्जिज्जा, भेयं या सभेज्जा, उम्मायं वा २६७ । दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत, केवलिप्रज्ञप्ताद् धर्माद् भ्रश्येत् तस्मान्नो स्त्रीपशुपण्डकसंसक्तानि शयनासनानि सेविता भवति, स निर्ग्रन्थः । नो स्त्रीणां कथां कथयिता भवति, स निर्ग्रन्थः । तत्कथमिति चेत् ? आचार्य आह— निर्ग्रन्थस्य खलु स्त्रीणां कथां कथयतो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंकावाकांक्षा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत भेदं वा लभेत, उन्माद वा प्राप्नुयात् दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत्, केवलिप्रज्ञप्ताद् वा धर्माद् भ्रश्येत् । तस्मान्नो स्वीणां कथां कथयेत् । नो स्त्रीभिः सार्धं सन्निषद्यागतो विहर्ता भवति, स निर्ग्रन्थः । तत्कथमिति चेत ? आचार्य आह-निर्ग्रन्थस्य खलु स्त्रीभिः सार्धं सन्निषद्यागतस्य ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत्, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात्, दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत्, केवली प्रज्ञप्ताद् वा धर्माद् भ्रश्येत् । तस्मात् खलु नो निर्ग्रन्थः स्त्रीभिः सार्धं सन्निवागत विहरेत्। नो स्त्रीणामिन्द्रियाणि मनोहराणि मनोरमाण्यालोकयिता निर्ध्याता भवति, स निर्ग्रन्थः । तत्कथमिति चेत् ? आचार्य आह-निर्ग्रन्थस्य खलु स्त्रीणामिन्द्रियाणि मनोहराणि मनोरमाण्यवलोकमानस्य निर्व्यायतो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा वा विचिकित्सा वा समुप्तद्येत, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात्, दीर्घकालिको वा रोगातको अध्ययन १६ : सूत्र ४-६ है, इसलिए जो स्त्री, पशु और नपुंसक से आकीर्ण शयन और आसन का सेवन नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है । जो केवल स्त्रियों के बीच में कथा नहीं करता वह निर्ग्रन्थ है ।" यह क्यों ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं केवल स्त्रियों के बीच कथा करने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह केवली कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए केवल स्त्रियों के बीच में कथा न करे । जो स्त्रियों के साथ पीठ आदि एक आसन पर नहीं बैठता, वह निर्ग्रन्थ है । यह क्यों ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-स्त्रियों के साथ, एक आसन पर बैठने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह केवली कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे। जो स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि गड़ा कर नहीं देखता, उनके विषय में चिन्तन नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है । यह क्यों ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि गढ़ा कर देखने वाले और उनके विषय में चिन्तन करने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २६८ अध्ययन १६ : सूत्र ७, ८ पाउणिज्जा, दीहकालियं वा भवेत्, केवलीप्रज्ञप्ताद् वा केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपण्ण- धर्माद् भ्रश्येत्। तस्मात् खलु स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि त्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। निर्ग्रन्थः नो स्त्रीणामिन्द्रियाणि गड़ा कर न देखे और उनके विषय में चिन्तन न तम्हा खलु निग्गंथे नो इत्थीणं मनोहराणि मनोरमाण्यालोकयेन्नि- करे। इंदियाइं मणोहराई मणोरमाई ायेत् । आलोएज्जा, निज्झाएजजा। ७. नो इत्थीणं कुड्डंतरंसि वा, नो स्त्रीणां कुड्यान्तरे वा, दूष्यान्तरे जो मिट्टी की दीवार के अन्तर से, परदे के अन्तर से, दूसंतरंसि वा, भित्तंतरंसि वा, वा, भित्त्यन्तरे वा, कूजितशब्दं वा, पक्की दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, कुइयसदं वा, रुइयसदं वा, रुदितशब्दं वा, गीतशब्द वा, गीत, हास्य, गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को गीयसई वा, हसियसदं वा, हसितशब्द वा, स्तनितशब्दं वा, नहीं सुनता, वह निर्ग्रन्थ है। थणियसदं वा, कंदियसई वा, क्रन्दितशब्दं वा, विलपितशब्दं वा, यह क्यों? विलवियस वा, सणेत्ता श्रोता भवति, स निर्यन्थः। ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-मिट्टी की दीवार के हवइ, से निग्गंथे। तत्कथमिति चेत् ? अन्तर से, परदे के अन्तर से, पक्की दीवार के तं कहमिति चे? आचार्य आह-निर्ग्रन्थस्य खलु अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, आयरियाह-निग्गंथस्स खलु स्त्रीणां कुड्यान्तरे वा, दूष्यान्तरे गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को सुनने वाले, इत्थीणं 'कुड्डंतरंसि वा, वा, भित्त्यन्तरे वा, कूजितशब्दं वा, ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा दूसंतरंसि वा, भित्तंतरंसि वा, रुदितशब्दं वा, गीतशब्दं वा, या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का कुइयसई वा, रुइयसदं वा, हसितशब्दं वा, स्तनितशब्द वा, विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा गीयसदं वा, हसियसई वा, क्रन्दितशब्द वा, विलपितशब्द वा, दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह थणियसई वा, कंदियसई वा, शृण्वतो ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंका केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए मिट्टी विलवियसई वा, सुणेमाणस्स वा कांक्षा वा विचिकित्सा वा, की दीवार के अन्तर से, परदे के अन्तर से, पक्की बंभयारिस्स बंभचेरे संका समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्माद दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा वा प्राप्नुयात्, दीर्घ-कालिको वा हास्य, गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को न समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, रोगातको भवेत, केवलि- प्रज्ञप्ताद् सुने। उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीह- वा धर्माद् भ्रश्यते। तस्मात् खलु कालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, निम्रन्थः नो स्त्रीणां कुड्यान्तरे केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ वा, दूष्यान्तरे वा, भित्त्यन्तरे वा भंसेज्जा। तम्हा खलु निग्गंथे कूजितशब्दं वा, रुदितशब्दं वा, नो इत्थीणं कुड्डंतरंसि वा, गीतशब्दं वा हसितशब्द वा, दूसंतरंसि वा, भित्तंतरंसि वा, स्तनितशब्द वा, क्रन्दितशब्दं वा. कुइयसदं वा, रुइयसरं वा, विलपितशब्द वा शृण्वन् विहरेत् । गीयसई वा, हसियसई वा, थणियसई वा, कंदियसई वा, विलवियसदं वा सुणेमाणे विहरेज्जा।' ८. नो निग्गंथे पुवरयं पुबकीलियं नो निर्ग्रन्थः पूर्वरतं पूर्वक्रीडितमनु- जो गृहवास में की हुई रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण अणुसरित्ता हवइ, से निग्गंथे। स्मर्ता भवेत, स निर्ग्रन्थः। नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। तं कहमिति चे? तत्कथमिति चेत् ? यह क्यों? आयरियाह-निग्गंथस्स खलु आचार्य आह-निर्ग्रन्थस्य खलु ऐसा पृछने पर आचार्य कहते हैं-गृहवास में की पुवरयं पुवकीलियं अणुसरमा- पूर्वरतं पूर्वक्रीडितमनुस्मरतो ब्रह्म- हुई रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण करने वाले णस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका चारिणो ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान २६९ अध्ययन १६ : सूत्र ६-११ समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, वा लभेत, उन्माद वा प्राप्नुयात, का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीह- दीर्घकालिको वा रोगातड्को भवेत्, दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह कालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिप्रज्ञप्ताद् वा धर्माद् भ्रश्येत्। केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ तस्मात् खलु नो निर्ग्रन्थः स्त्रीणां गृहवास में की हुई रति और क्रीड़ा का अनुस्मरण न भंसेज्जा। तम्हा खलु नो निग्गथे पूर्वरत पूर्वक्रीडितमनुस्मरेत्। करे। पुव्वरयं पुव्वकीलियं अणुस रेज्जा । ६. नो पणीयं आहारं आहारित्ता नो प्रणीतमाहारमाहर्ता भवति, स जो प्रणीत आहार नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ है। हवइ, से निग्गंथे। निर्ग्रन्थः। यह क्यों? तं कहमिति चे? तत्कमिति चेत् ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-प्रणीत पान-भोजन आयरियाह-निग्गंथस्स खलु आचार्य आह-निर्ग्रन्थस्य खलु करने वाले ब्रह्मचारी निम्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में पणीयं पाणभोयणं आहारेमाणस्स प्रणीतमाहारमाहरतो ब्रह्मचारिणो शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा वा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुप्प- विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है ज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, वा लभेत, उन्माद वा प्राप्नुयात्, अथवा वह केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहका- दीर्घकालिको वा रोगातंको भवेत्, इसलिए प्रणीत आहार न करे। लियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिप्रज्ञप्ताद् वा धर्माद् अश्येत् । केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ तरमात् खलु नो निर्ग्रन्थः प्रणीतभंसेज्जा। तम्हा खलु नो निग्गंथे माहारमाहरेत् । पणीयं आहारं आहारेज्जा। १०.नो अइमायाए पाणभोयणं नो अतिमात्रया पानभोजनमाहर्ता जो मात्रा से अधिक नहीं पीता और नहीं खाता, वह आहारेत्ता हवइ, से निग्गंथे। भवति, स निर्ग्रन्थः। निर्ग्रन्थ है। तं कहमिति चे? तत्कथमिति चेत् ? यह क्यों? आयरियाह-निग्गंथस्स खल आचार्य आह-निर्ग्रन्थस्य खल्च- ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं--मात्रा से अधिक अइमायाए पाणभोयणं आहारे- तिमात्रया पानभोजनमाहरतो ब्रह्म- पीने और खाने वाले ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य माणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे चारिणो ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा वा लभेत, उन्माद वा प्राप्नुयात् पैदा होता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक लमेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा दीर्घकालिको वा रोगातड्को भवेत्. होता है अथवा वह केवली-कथित धर्म से भ्रष्ट हो दीहकालियं वा रोगायंक केवलिप्रज्ञप्ताद् वा धर्माद् भश्येत्। जाता है, इसलिए मात्रा से अधिक न पीए और न हवेज्जा, केवलिपण्णत्ताओ तस्मात् खलु नो निन्थोऽतिमात्रया खाए। वा धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा पानभोजनं भुंजीत। खलु नो निग्गंथे अइमायाए पाणभोयणं भुंजिज्जा। ११.नो विभसाणवाई हवड. से नो विभूषानुपाति भवति, स जो विभूषा नहीं करता-शरीर को नहीं सजाता वह निग्गंथे। निर्ग्रन्थः। निर्ग्रन्थ है। तं कहमिति चे? तत्कथमिति चेत् ? यह क्यों? आयरियाह-विभूसावत्तिए आचार्य आह-विभूषावर्तिको ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं जिसका स्वभाव विभूसियसरीरे इत्थिजणस्स विभूषितशरीरः स्त्रीजनस्याभिल- विभूषा करने का होता है, जो शरीर को विभूषित अभिलसणिज्जे हवइ। तओ षणाया भवात। ततस्तस्य स्त्रा- किए रहता है, षणीयो भवति। ततस्तस्य स्त्री- किए रहता है, उसे स्त्रियां चाहने लगती हैं। पश्चात् णं तस्स इत्थिजणेणं अभिल- जननाभिलष्यमाणस्य ब्रह्मचारिणी स्त्रियों के द्वारा चाहे जनेनाभिलष्यमाणस्य ब्रह्मचारिणो स्त्रियों के द्वारा चाहे जाने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य सिज्जमाणस्स बंभयारिस्स ब्रह्मचर्य शका वा कांक्षा वा के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न Jain Education Intemational Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि बंभचेरे संका वा, कंखा वा, वितिमिच्छा वा समुप्यज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालिय वा रोगायक हवेज्जा केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा खलु नो निम्गंधे विभूसाणुवाई सिया १२.नो सद्दरूवरसगंधफासाणुवाई हवह से निग्गंथे। तं कहमिति चे ? आयरियाह निग्गंथस्स खलु सदरूवरसगंधफासाणुवाइस्स बं भयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा वितिगिच्छा वा समुपज्जज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा खलु नो निग्गथे सद्दरूवरसगंधफासाणुवाई हविज्जा | दसमे बंभचेरसमाहिठाणे हवइ । भवति इत्य सिलोगा, तं जहा१. जं विवित्तमणाइण्णं रहियं थीजणेण य । बंभचेरस्स रक्खट्ठा आलयं तु निसेवए ।। २. मणपल्हायजणणिं कामरागविवणि । बंभचेररओ भिक्खू चीकहं तु विवज्जए ।। ३. समं च संथवं थीहिं संकहं च अभिक्खणं । बंभचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए ।। ४. अंगपच्चंगसं ठाणं चारुल्लवियपेहियं । बंभचेररओ थीणं चक्खुगिज्झं विवज्जए ।। २७० विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात्, दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत्, केवलिप्रज्ञप्ताद् वा धर्माद् भ्रश्येत् । तस्मात् खलु नो निर्ग्रन्थो विभूषानुपाली स्यात् । नो शब्दरूपरसगन्धस्पर्शानुपाती भवति, स निर्ग्रन्थः । तत्कथमिति चेत् ? आचार्य आह ङ- निर्ग्रन्थस्य खलु शब्दरूपरसगन्धस्पर्शानुपातिनो - चारिणो ब्रह्मचर्ये शंका वा कांक्षा वा विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदं वा लभेत, उन्मादं वा प्राप्नुयात्, दीर्घकालिको वा रोगातको भवेत्, केवलिप्रनप्ता वा धर्मा प्रश्येत् । तस्मात् खलु नो निर्ग्रन्थः शब्दरूपरसगन्धस्पर्शानुपाती भवेत् । दशमं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं भवति । भवन्ति अत्र श्लोकाः, तद् यथायो विविक्तोनाकीर्णः रहितं स्त्रीजनेन च । ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थम् आलयं तु निषेवते ।। मनःप्रहलादजननी कामरागविवर्धनीम् । ब्रह्मचर्यरतो मधुः स्वीकथा तु विवर्जयेत् ॥ समं च संस्तवं स्त्रीभिः संरुधां वाभीक्ष्णम्। वरतो भिक्षुः नित्यशः परिवर्जयेत् ।। अध्ययन १६ : सूत्र १२ श्लोक १-४ होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह केवली कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है. इसलिए विभूषा न करे । अंगप्रत्यंगसंस्थानं चारुल्लपितप्रेक्षितम्। ब्रह्मचर्यरतः स्त्रीणां चक्षुर्ग्राह्यं विवर्जयेत् ।। जो शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त नहीं होता, वह निर्ग्रन्थ है । यह क्यों ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त होने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है अथवा उन्माद पैदा होता है अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है अथवा वह केवली कथित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त न बने। ब्रह्मचर्य की समाधि का यह दसवां स्थान है। यहां श्लोक है, जैसे- ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए मुनि वैसे आलय में रहे जो एकांत, अनाकीर्ण और स्त्रियों से रहित हो । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु मन को आहूलाद देने वाली तथा काम-राग बढ़ाने वाली स्त्री-कथा का वर्जन करे । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु स्त्रियों के साथ परिचय और बार-बार वार्तालाप का सदा वर्जन करे । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु स्त्रियों के चक्षु-ग्राह्य अंग-प्रत्यंग, आकार, बोलने की मनहर - मुद्रा और चितवन को न देखे -देखने का यत्न न करे। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य - समाधि - स्थान ५. कुइयं रुइयं गीयं हसियं थणियकंदियं । बंभचेररओ थीणं सोयगिज्झं विवज्जए ।। ६. हासं किड्ड रई दप्पं सहसावत्तासियाणि य बंभवेररओ थीण नाणुचंते कयाइ वि ।। ७. पणीयं भत्तपाणं तु खिप्यं मयविवहणं । बंभचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए ।। ८. धम्मलद्धं मियं काले जत्तत्थं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु भुजेज्जा बंभचेररओ सया ।। ६. विभूसं परिवज्जेज्जा सरीरपरिमंडणं । बंभवेररओ भिक्खू सिंगारत्थं न धारए । १०. सद्दे रूवे य गंधे य रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे निच्चसौ परिवज्जए ।। ११. आलओ थीजणाइण्णो थीकहा य मणोरमा । संथवो चैव नारीर्ण तासि इंदियदरिसणं ।। १२. कुइयं रुइयं गीय इसियं मुत्तासियाणि च । पणीयं भत्तपाणं च अइमायं पाणभोयणं ।। १३. गत्तभूसणमिट्ठ च कामभोगा य दुज्जया। नरस्सत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा ।। २७१ कूजितं रुदितं गीतं हसितं स्तनितन्दितम्। ब्रह्मचर्यरतः स्त्रीणां श्रोत्र विवर्जयेत् ।। हासं क्रीडां रतिं दर्पं सहसाऽवत्रासितानि च । ब्रह्मचर्यरतः स्वीणां नानुचिन्तयेत् कदाचिदापि ।। प्रणीतं भक्तपानं तु क्षिप्रं मदविवर्धनम् । ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः नित्यशः परिवर्जयेत् । धर्म्यलब्धं मितं काले यात्रार्थ प्रणिधानवान्। नातिमा तु भुञ्जीत ब्रह्मचर्यरतः सदा ।। विभूषां परिवर्जयेत शरीरपरिमण्डनम् । ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः शृङ्गारार्थं न धारयेत् ।। शब्दान् रूपांश्च गंधांश्च रसान् स्पर्शास्तथैव च । पञ्चविधान् कामगुणान् नित्यशः परिवर्जयेत्॥" आलयः स्त्रीजनाकीर्णः स्त्रीकथा च मनोरमा । संस्तवश्चैव नारीणां तासामिन्द्रियदर्शनम् ॥ कूजितं रुदितं गीतं हसितं मुक्तासितानि च। प्रणीतं भक्तपानं च अतिमात्र पानभोजनम् ।। गात्रभूषणमिष्टं च कामभोगाश्च दुर्जयाः । नरस्यात्मगयेषिणः विषं तालपुटं यथा ।। अध्ययन १६ : श्लोक १-१३ ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु स्त्रियों के श्रोत्र - ग्राह्य कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन और क्रन्दन को न सुने-सुनने का यत्न न करे। ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु पूर्व-जीवन में स्त्रियों के साथ अनुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, अभिमान और आकस्मिक प्रास का कभी भी अनुचिंतन न करे ।" ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु शीघ्र ही कामवासना को बढ़ाने वाले प्रणीत भक्त-पान का सदा वर्जन करे । ब्रह्मचर्य - रत और स्वस्थ चित्त वाला भिक्षु जीवन निर्वाह के लिए उचित समय में निर्दोष, भिक्षा द्वारा प्राप्त," परिमित भोजन करे, किन्तु मात्रा से अधिक न खाए । ब्रह्मचर्य में रत रहने वाला भिक्षु विभूषा का वर्जन करे और शरीर की शोभा बढ़ाने वाले केश, दाढ़ी आदि को शृंगार के लिए धारण न करे। शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-इन पांचों प्रकार के काम-गुणों का सदा वर्जन करे। (१) स्त्रियों से आकीर्ण आलय, (२) मनोरम स्त्री - कथा, (३) स्त्रियों का परिचय, (४) उनके इन्द्रियों को देखना, (५) उनके कूजन, रोदन, गीत और हास्य युक्त शब्दों को सुनना, (६) भुक्त भोग और सहावस्थान को याद करना, (७) प्रणीत पान - भोजन, (८) मात्रा से अधिक पान- भोजन, (E) शरीर को सजाने की इच्छा और (१०) दुर्जय काम भोग-ये दस आत्म- गवेषी मनुष्य के लिए तालपुट विष के समान हैं। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २७२ अध्ययन १६ : श्लोक १४-१७ एकाग्रचित वाला मुनि दुर्जय काम-भोगों और ब्रह्मचर्य में शंका उत्पन्न करने वाले पूर्वोक्त सभी स्थानों का वर्जन करे। दुर्जयान् कामभोगांश्च नित्यशः परिवर्जयेत्। शंकास्थानानि सर्वाणि वर्जयेत् प्रणिधानवान् ।। धर्माराम चरेद् भिक्षुः धृतिमान् धर्मसारथिः। धर्मारामरतो दान्तः ब्रह्मचर्यसमाहितः।। धैर्यवान्,३ धर्म के रथ को चलाने वाला, धर्म के आराम में रत, दांत और ब्रह्मचर्य में चित्त का समाधान पाने वाला भिक्षु धर्म के आराम में विचरण करे। १४.दुज्जए कामभोगे य निच्चसो परिवज्जए। संकट्ठाणाणि सव्वाणि वज्जेज्जा पणिहाणवं ।। १५.धम्माराम चरे भिक्खू धिइमं धम्मसारही। धम्मारामरए दंते बंभचेरसमाहिए। १६.देवदाणवगंधव्वा जक्खरक्खसकिन्नरा। बंभयारिं नमसंति दुक्करं जे करंति तं।। १७.एस धम्मे धुवे निअए सासए जिणदेसिए। सिद्धा सिझंति चाणेण सिज्झिस्संति तहापरे ।। उस ब्रह्मचारी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर-ये सभी नमस्कार करते हैं, जो दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है। देवदानवगन्धर्वाः यक्षराक्षसकिन्नराः। ब्रह्मचारिणं नमस्कुर्वन्ति दुष्करं यः करोति तत् ।। एष धर्मो ध्रुवो नित्यः शाश्वतो जिनदेशितः। सिद्धाः सिध्यन्ति चानेन सेत्स्यन्ति तथापरे। यह ब्रह्मचर्य-धर्म ध्रुव, नित्य, शाश्वत" और अर्हत् के द्वारा उपदिष्ट है। इसका पालन कर अनेक जीव सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं और भविष्य में भी होंगे। -त्ति बेमि।। -इति ब्रवीमि। —ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन १६ : ब्रह्मचर्यसमाधि-स्थान १. आयुष्मन् ! (आउस) का कार्य था— श्रामण्य में शिथिल हुए साधुओं को पुनः संयम में आयुष्मन् शब्द शिष्य के आमंत्रण के लिए बहु-प्रयुक्त है। स्थिर करना । ये अनेक संपदाओं से युक्त होते थे। चूर्णिकार ने प्रश्न होता है कि जाति, कुल आदि के आधार पर भी आमंत्रण इसी ओर संकेत किया है।' शब्द प्रयुक्त हो सकता है, फिर आयुष्य के साथ ही उसका प्रयोग शान्त्याचार्य ने स्थविर का अर्थ गणधर किया है।' क्यों ? चूर्णिकार का अभिमत है कि सभी आमंत्रणवाची शब्दों में अगस्त्यचूर्णि में दशवैकालिक (189) में प्रयुक्त 'स्थविर' शब्द आयुष्यवाची आमंत्रण ही गुरुतर है। जब आयुष्य होता है तभी का यही अर्थ है।' गणधर के प्रमुख रूप से दो अर्थ होते हैंजाति आदि अन्यान्य बातें होती हैं। आयुष्य के अभाव में उनका (१) तीर्थंकर के प्रमुख शिष्य (२) अनुपम ज्ञान आदि के धारक। कोई मूल्य नहीं होता।' प्रस्तुत प्रकरण में गणधर का तात्पर्य गौतम आदि नौ गणधरों से चूर्णिकार ने विभिन्न पृष्ठभूमियों में 'आयुष्मन्' शब्द की नहीं है। अर्थ-मीमांसा प्रस्तुत की है। वह इस प्रकार है ३. (दस बंभचेरसमाहिठाणा) १. हे आयुष्मन् !-सुधर्मा स्वामी अपने प्रमुख शिष्य विशेष विमर्श के लिए देखें-इसी अध्ययन का आमुख। जम्बू को सम्बोधित कर कहते हैं- 'जैसा मैंने भगवान् ४. (संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले) महावीर के पास सुना है, वैसा मैं कहता हूं।' इससे इनमें 'बहुल' शब्द उत्तर-पद में है, जब कि वह पूर्व-पद शिष्य और आचार्य की व्यवस्था ज्ञापित होती है। में होना चाहिए-बहुलसंजमे, बहुलसंवरे, बहुलसमाहि । वृत्तिकार २. मैंने भगवान् के जीवनकाल में ऐसा सुना था-इससे ने इसका समाधान 'प्राकृतत्वात्' कह कर दिया है। बौद्धदर्शन सम्मत क्षणभंगुरवाद का निरसन होता है। संयम, संवर और समाधि का अर्थ चूर्णि और वृत्तियों में ३. मैंने भगवान् के समीप रहते हुए ऐसा सुना है- भिन्न-भिन्न हैइससे गुरुकुलवास में रहने की बात स्पष्ट होती है चर्णि बृहद्वृत्ति सुखबोधा और यह ख्यापित होती है कि शिष्य को सदा १. संयम-पृथ्वीकाय आश्रव-विरमण। संयम। गुरुकुलवास में रहना चाहिए-वसे गुरुकुले निच्चं। आदि का संयम। ४. मैंने गुरु (भगवान्) के चरणों की सेवा करते हुए २. संवर-पांच महाव्रत। आश्रवद्वार-निरोध। इंद्रिय-संवरण। ऐसा सुना है तात्पर्य है कि मैंने ये बातें विनय से ३. समाधि--ज्ञान आदि।' चित्त की चित्त की प्राप्त की हैं। इससे विनयमूल धर्म की बात स्पष्ट स्वस्थता। होती है। प्रस्तुत प्रसंग में संयम और संवर का सम्बन्ध इन्द्रियों के चूर्णिकार ने भगवान् महावीर, सुधर्मा और जम्बू का जो साथ है। इन्द्रियों का निग्रह करना संयम और उनका निरोध उल्लेख किया है, वह विमर्शनीय है। इस अध्ययन का संबंध करना संवर है। समाधि का अर्थ है—चित्त की स्वस्थता अथवा स्थविरों से है। इसलिए प्रज्ञापक आचार्य स्थविरों से श्रुत प्रज्ञप्ति एकाग्रता। का उल्लेख कर रहे हैं। ५. (सूत्र ३) २. स्थविर (गणघर) (थेरेहिं) इस अध्ययन में ब्रह्मचर्य के साधनों का निरूपण किया प्राचीनकाल की गण-व्यवस्था में सात पदों में एक पद गया है। साधन-शुद्धि के बिना साध्य की सिद्धि नहीं होती। जो 'स्थविर' का होता था। सातों पदों के कार्य विभक्त थे। स्थविर ब्रह्मचारी साधनों के प्रति उपेक्षा भाव रखता है, उसका ब्रह्मचर्य १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४१ : सत्स्वप्यन्येषु जात्यादिषु आमंत्रणेषु आयुरेव गरीयः, कुतः? आयुषि सति सर्वाण्येव जात्यादीनी भवंति। २. वही, पृ०२४१। ३. वही, पृ० २४१ : धम्में स्थिरीकरणात् स्थविराः...... स्थविरैः-ऐश्वर्यादिसम्पदुपेतैः। ४. बृहपृत्ति, पत्र ४२२ : स्थविरैः—गणधरैः । ५. अगस्त्यचूर्णि: थेरो पुण गणहरो। ६. सुखबोधा, पत्र २१६। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ०२४११ ८. बृहवृत्ति, पत्र ४२२-४२३ । ६. सुखबोधा, पत्र २१६। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि नष्ट हो जाता है। उसके नाश की संभावनाएं इस प्रकार हैं(१) र (२) वसा (३) विचिकित्सा (४) भेद (५) उन्माद (६) दीर्घकालीन रोग और आतंक (७) धर्म - भ्रंश । (१) शंका- ब्रह्मचर्य का पालन करने में कोई लाभ है या नहीं ? तीर्थंकरों ने अब्रह्मचर्य का निषेध किया है या नहीं ? अब्रह्मचर्य के सेवन में जो दोष बतलाए गए हैं, वे यथार्थ हैं या नहीं - इस प्रकार अनेक संशय उत्पन्न होते हैं (२) कांक्षा-शंका के की अभिलाषा । I I (३) विचिकित्सा-चित्त- विप्लव । जब अभिलाषा तीव्र हो जाती है तब मन समूचे धर्म के प्रति विद्रोह करने लग जाता है धर्माचरण के प्रति अनेक सन्देह उठ खड़े होते हैं, इसी अवस्था का नाम विचिकित्सा है। (४) भेद – जब विचिकित्सा का भाव पुष्ट हो जाता है तब चारित्र का भेद — विनाश होता है। (५, ६) उन्माद और दीर्घकालीन रोग और (आतंक)कोई मनुष्य ब्रह्मचारी तभी रह सकता है जब वह ब्रह्मचर्य में अब्रह्मचर्य की अपेक्षा अधिक आनन्द माने । यदि कोई हठपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करता है किन्तु इन्द्रिय और मन को आत्मवश रखने में आनन्द की अनुभूति नहीं कर पाता तो वह उन्माद या रोग और आतंक से अभिभूत हो जाता है। (७) धर्म-भ्रंश- इन पूर्व अवस्थाओं से जो नहीं बच पाता वह धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए कहा गया है कि ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य के विघातक निमित्तों से बचे। मूलतः उसके मन में ब्रह्मचर्य के प्रति संदेह ही उत्पन्न नहीं होना चाहिए। उसके होने पर अगली अवस्थाओं से बचना कठिन हो जाता है। ये अवस्थाएं किसी व्यक्ति के एक-दो और किसी के अधिक भी हो जाती हैं। मिलाइए —— दशवैकालिक, ८ ५१,५२ । ६. केवल स्त्रियों के बीच में कथा न करे (नो इत्लीणं कह) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है - स्त्री संबंधी कथा न करे । स्त्री कथा के चार प्रकार हैं । - २७४ 'आलोएमाण' के संस्कृत रूप दो किए जा सकते हैंपश्चात् उत्पन्न होने वाली अब्रह्मचर्य आलोकमान और आलोचमान। दोनों क्रियापदों का अर्थ हैदेखता हुआ । 'निज्झायमाण' के भी संस्कृत रूप दो हो सकते हैं—निर्ध्यायन् और निध्यायन् । निर्ध्यायन् का अर्थ है--चिन्तन करता हुआ और निध्यायन् का अर्थ है—देखता हुआ । आलोकन और निर्ध्यान की प्रक्रिया में अन्तर है। आलोकन का अर्थ है— चारों ओर से देखना अथवा एक बार दृष्टिपात करना । निर्ध्यान का अर्थ है— देखने के पश्चात् उसके विषय में चिन्तन करना । ८. मिट्टी की दीवार... पक्की दीवार (कुडू... भित्त) भींत, नेमिचन्द्र ने पत्थरों से रचित भींत* और चूर्णिकार ने शान्त्याचार्य ने 'कु' का अर्थ खड़िया मिट्टी से बनी हुई पक्की ईंटों से बनी हुई भींत किया है। शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने 'भित्ति' का अर्थ 'पक्की ईंटों से बनी भीत" और वर्णिकार ने 'केतुक' आदि किया है।" शब्द-कोशों के निर्माण-काल में ये दोनों शब्द पर्यायवाची माने जाते रहे हैं। लगता है कि 'भित्ति' 'कुड्य' का ही एक प्रकार है। उसके प्रकारों की चर्चा प्राचीन ग्रन्थों में प्राप्त होती है। कुड्य का अर्थ है—भींत । वह अनेक प्रकार की होती थी । १. स्त्रियों की जाति विषयक कथा, जैसे—यह क्षत्रियाणी है, ब्रह्माणी है आदि । २. स्त्रियों की कुल विषयक कथा, जैसे—यह उग्रकुल की है, द्रविड कुल की है, मराठाकुल की है। ३. स्त्रियों की रूप विषयक कथा | ४. स्त्रियों की नैपथ्य वेशभूषा विषयक कथा, जैसे १. २. बृहद्वृत्ति पत्र ४२४ । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४२ । ३. वही, पत्र ४२५ : कुड्यं-खटिकादिरचितम् । ४. सुखबोधा, पत्र २२१ कुड्यं लेष्टुकादिरचितम् । ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४२ पक्केष्टकादि कुड्यम् । अध्ययन १६ : सूत्र ४-७ टि० ६-८ अमुक देश की स्त्रियों की वेशभूषा सुन्दर है, असुन्दर है आदि । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं—केवल स्त्रियों में कथा न करे तथा स्त्रियों के जाति, कुल, रूप, संस्थान, नैपथ्य आदि की कथा न करे। इन्होंने रूप का अर्थ संस्थान किया है। ७. (आलो एमाणस्य निन्द्रायमाणस्स) जैसे (१) लिपी हुई भींत । (२) बिना लिपी हुई भींत । (३) चेलिम कुड्य — वस्त्र की भींत या पर्दा । (४) फलमय कुड्य -- लकड़ी के तख्तों से बनी हुई भींत । (५) फलकपासित कुछ जिसके केवल पार्श्व में तख्ते लगे हों और अन्दर गारे आदि का काम हो । (६) मट्ठ— रगड़ कर चिकनी की हुई दीवार । (७) चित्त-चित्र युक्त भित्ति । (८) कडित - चटाई से बनी हुई दीवार । (६) तणकुड-फूस से बनी हुई दीवार आदि-आदि। ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४२५ भित्तिः– पक्केष्टकादिरचिता । (ख) सुखबोधा, पत्र २२१ । ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४२ : केतुगादि भित्ती । अभिधान चिंतामणि, ४।६६ । ८. ६. अंगविज्जा, भूमिका, पृ० ५८-५६ । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान २७५ अध्ययन १६ :श्लोक ६-१७ टि० ६-१४ ९. प्रणीत (पणीय) ताली बजाने जितने अल्प समय में व्यक्ति को मार डालता है। जिससे घृत, तेल आदि की बूंदें टपकती हों अथवा जो यह सद्योधाती विष है। तु-वृद्धिकारक हो, उसे 'प्रणीत' आहार कहा जाता है।' देखें-दशवैकालिक ८५६ । मिलाइए—दशवैकालिक, ८५६। १३. (घिइम) १०. (श्लोक ६) धृत्ति का सामान्य अर्थ है-धैर्य। वृत्तिकार ने इसका अर्थ . प्रस्तुत श्लोक में शृंगार रस की कुछेक बातें कही गई हैं। चित्त का स्वास्थ्य किया है। जिसका चित्त स्वस्थ होता है, वही वे कामशास्त्र की उपजीवी हैं। प्रयुक्त कछेक शब्दों के अर्थ इस धृतिमान् होता है। प्रकार हैं १४. धुव, नित्य, शाश्वत (धुवे निअए सासए) * रति-दयिता के सहवास से उत्पन्न प्रीति। इस श्लोक में प्रयुक्त इन तीन शब्दों का अर्थ-बोध इस ★ दर्प-मनस्विनी नायिका के मान को खंडित करने प्रकार हैके लिए उत्पन्न गर्व। १..घुवजो प्रमाणों से प्रतिष्ठित और पर-प्रवादियों सहसा अवत्रासित-पराङ्मुख दयिता को प्रसन्न से अखंडित। करने के लिए आकस्मिक त्रास का उत्पन्न करना, २. नित्य-जो अप्रच्युत, अनुत्पन्न और स्थिर जैसे-आंखमिचौनी करना, मर्मस्थानों का घट्टन स्वभाववाला है, जो त्रिकालवर्ती होता है, वह नित्य करना आदि। है। यह द्रव्यार्थिक दृष्टिकोण है। ११. भिक्षा द्वारा प्राप्त (धम्मलद्ध) ३. शाश्वत-जो निरंतर बना रहता है वह शश्वद् है। वृत्तिकार ने इसके संस्कृत रूप दो किए हैं-धर्म्यलब्ध अथवा जो शश्वद् अन्यान्य रूप में उत्पन्न होता और धर्मलब्ध। धर्म्यलब्ध का अर्थ है—एषणा से प्राप्त और रहता है। यह पर्यायार्थिक दृष्टिकोण है।' धर्मलब्ध का अर्थ है-अध्यात्म के उपदेश से प्राप्त, न कि वृत्तिकार का कथन है कि इन तीनों शब्दों को एकार्थक भी टोटका, कुण्टल आदि से प्राप्त। माना जा सकता है। यह इसलिए कि नाना देशों के शिष्यों पर १२. तालपुट (तालउड) अनुग्रह करने के लिए इन एकार्थवाचक भिन्न-भिन्न शब्दों का यह तीव्रतम विष है। यह ओष्टपुट के भीतर जाते ही, प्रयोग किया गया है। १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४२-२४३ : प्रणीतं-गलत्स्नेहं तेलघृतादिभिः। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ४२६ : 'प्रणीत' गलद्विन्दु, उपलक्षणत्वादन्यमप्यत्यन्त- धातूद्रककारिणम् २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४२८ । ३. वही, पत्र ४२६ : तालपुटं सद्योघाति यत्रौष्टपुरान्तर्वतिनि तालमात्रकालविलम्बतो मृत्युरूपजायते।। ४. वही, पत्र ४३० : धृतिमान-धृतिः-चित्तस्वास्थ्यं तद्वान्। ५. वही, पत्र ४३०। ६. वही, पत्र ४३० : एकार्थिकानि वा नानादेशजविनेयनुग्रहार्थमुक्तानि । Jain Education Intemational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतरसमं अज्झयणं पावसमणिज्जं सतरहवां अध्ययन पाप-श्रमणीय Jain Education Intemational Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अध्ययन में पाप श्रमण के स्वरूप का निरूपण है, इसलिए इसे 'पावसमणिज्जं'- -'पाप-श्रमणीय' कहा गया है। श्रमण दो प्रकार के होते हैं— श्रेष्ठ- श्रमण और पाप श्रमण । जो ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप और वीर्य इन पांच आचारों का पालन करता है वह श्रेष्ठ श्रमण है। उसके लक्षण पन्द्रहवें अध्ययन में बताए गए हैं। जो ज्ञान आदि आचारों का सम्यक् पालन नहीं करता, इस अध्ययन में वर्णित अकरणीय कार्यों का आचरण करता है, वह पाप श्रमण होता है ।' जो प्रव्रज्या ग्रहण कर सुख-शील हो जाता है— 'सीहत्ताए णिक्खतो सियालत्ताए विहरति ' — सिंह की भांति निष्क्रांत होने पर भी गीदड़ की तरह प्रव्रज्या का पालन करता है, वह पाप श्रमण होता है। (श्लोक १) आमुख जो खा-पीकर सो जाता है वह पाप श्रमण होता है। जैन परम्परा में यह औत्सर्गिक मर्यादा रही है कि मुनि दिन में न सोए। इसके कई अपवाद भी हैं। जो मुनि विहार से परिश्रान्त हो गया हो, वृद्ध हो गया हो, रोगी हो, वह मुनि आचार्य से आज्ञा लेकर दिन में भी सो सकता है, अन्यथा नहीं ।" १. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ३६० : जे भावा अकरणिज्जा, इहमज्झयणमि वन्निअ जिणेहिं । ते भावे सेवतो, नायव्वो पावसमणोत्ति ।। २. ओघनियुक्ति, गाथा ४१६ : अद्धाण परिस्संतो, गिलाण वुड्ढो अणुन्नवेत्ताणं । संथात्तरपट्टो, अत्थरण निवज्जणा लोगं ।। आयुर्वेद के ग्रन्थों में सोने का विधान इस प्रकार है— नींद लेने का उपयुक्त काल रात है। यदि रात में पूरी नींद न आए तो प्रातःकाल भोजन से पूर्व सोए। रात में जागने से रूक्षता और दिन में लेटकर नींद लेने से स्निग्धता पैदा होती है। परंतु दिन में बैठे-बैठे नींद लेना न रूक्षता पैदा करता है और न स्निग्धता । यह स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है । जो मुनि आचार्य और उपाध्याय का प्रत्यनीक होता है, पापों से नहीं डरता, कलह की उदीरणा करता है, चंचल होता है, रस-गृद्ध होता है, तपः कर्म नहीं करता, गण और गणी को छोड़ देता है, वह पाप श्रमण है। इस अध्ययन में श्लोक १-४ में ज्ञान आचार की निरपेक्षता का वर्णन है। श्लोक ५ में दर्शन - आचार की निरपेक्षता का वर्णन है । श्लोक ६- १४ में चरित्र - आचार की निरपेक्षता का वर्णन है । श्लोक १५-१६ में तपः- आचार की निरपेक्षता का वर्णन है। श्लोक १७-१६ में वीर्य आचार की निरपेक्षता का वर्णन है । ३. अष्टांगहृदय सूत्रस्थान ७१५५, ६५ यथाकाल मतो निद्रा, रात्री सेवेत सात्मतः । असात्म्या जागरादर्थं प्रातः स्वप्यादभुक्तवान् । रात्री जागरणं रूक्षं, स्निग्धं प्रस्वपनं दिवा । अरूक्षमनभिस्यन्दि, त्वासीनप्रचलायितम् ।। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सतरसमं अज्झयणं पावसमणिज्जं मूल १. जे के इमे पव्वइए नियंठे धम्मं सुणित्ता विणओववन्ने सुदुल्लाहं लहिउं बोहिलामं विहरेज्न पच्छा य जहासुहं तु । २. सेज्जा दढा पाउरणं मे अत्थि उप्पज्जई भोतुं तहेब पाउं जानामि जे वह आउसु । ति किं नाम काहामि सुएण भत । ॥ ३. जे के इमे पव्वइए निद्दासीले पगामसो । भोच्चा पेच्चा सुहं सुवइ पावसमणि त्ति वुच्चई || ४. आयरियउवज्झाए हिं सुर्य विषयं च गाहिए। ते चैव खिंसई बाले पावसमणि त्ति वुच्चई || ५. आयरियउवज्झायाणं सम्मं नो पडितप्पड़ । अप्पडिपूयए थ पावसमणि त्ति दुच्चई ।। ६. सम्मद्दमाणे पाणाणि बीयाणि हरियाणि य । असंजए संजयमन्नमाणे पावसमणि ति बुच्चई । ७. संथारं फलगं पीछे निसेज्जं पायकंबलं । अप्पमज्जियमारुहइ पावसमणि त्ति वुच्चई ।। । सतरहवां अध्ययन पाप- श्रमणीय संस्कृत छाया यः कश्चिदयं प्रव्रजितो निर्ग्रन्थः धर्म श्रुत्वा विनयोपपन्नः । सुदुर्लभं लब्ध्वा बोधिलाभं विहरेत् पश्चाच्च यथासुखं तु ।। शय्या दृढा प्रावरणं मेऽस्ति, उत्पद्यते भोक्तु तथैव पातुम् । जानामि यद्वर्तत आयुष्मन् ! इति किं नाम करिष्यामि श्रुतेन भदन्त ? यः कश्चिदयं प्रव्रजितो निद्राशीलः प्रकामशः । भुक्त्वा पीत्वा सुखं स्वपिति पापश्रमण इत्युच्यते ।। आचार्योपाध्यायः श्रुतं विनयं च ग्राहितः । तांश्चैव खिंसति बालः पापश्रमण इत्युच्यते ।। आचार्योपाध्यायानां सम्यग् न प्रतितप्यते । अप्रतिपूजकः स्तब्धः पापश्रमण इत्युच्यते ।। संमदयन् प्राणान् बीजानि हरितानि च । असंयतः संयतं मन्यमानः पापश्रमण इत्युच्यते ।। संस्तारं फलकं पीठं निषद्यां पादकम्बलम् । अप्रमृज्यारोहति पापश्रमण इत्युच्यते । । हिन्दी अनुवाद जो कोई निर्ग्रन्थ धर्म को सुन, दुर्लभतम बोधि-लाभ ' को प्राप्त कर विनय से युक्त हो प्रव्रजित होता है किन्तु प्रव्रजित होने के पश्चात् स्वच्छन्द - विहारी हो जाता है। ( गुरु के द्वारा अध्ययन की प्रेरणा प्राप्त होने पर वह कहता है — ) मुझे रहने को अच्छा उपाश्रय मिल रहा है, कपड़ा भी मेरे पास है, खाने-पीने को भी मिल जाता है। आयुष्मन् ! जो हो रहा है, उसे मैं जान लेता हूं। भंते! फिर मैं श्रुत का अध्ययन कर क्या करूंगा ?" जो प्रव्रजित होकर बार-बार नींद लेता है, खा-पी कर आराम से लेट जाता है, वह पाप श्रमण कहलाता है । जिन आचार्य और उपाध्याय ने श्रुत और विनय सिखाया उन्हीं की निन्दा करता है, वह विवेक-विकल भिक्षु पाप श्रमण कहलाता है। जो आचार्य और उपाध्याय के कार्यों की सम्यक् प्रकार से चिन्ता नहीं करता उनकी सेवा नहीं करता, जो बड़ों का सम्मान नहीं करता, जो अभिमानी होता है, वह पाप श्रमण कहलाता है। द्वीन्द्रिय आदि प्राणी तथा बीज और हरियाली का मर्दन करने वाला, असंयमी होते हुए भी अपने आपको संयमी मानने वाला, पाप- श्रमण कहलाता है। जो बिछौने, पाट, पीठ, आसन और पैर पोंछने के कम्बल का प्रमार्जन किए बिना (तथा देखे बिना ) उन पर बैठता है, वह पाप श्रमण कहलाता है । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप - श्रमणीय ८. दवदवस्स चरई पमत्ते य अभिक्खणं । उल्लंघणे व चंडे य पावसमणि त्ति वुच्चई ।। ८. पडिलेड पमत्ते अवउज्झइ पायकंबलं । पडिले हणाअणाउत्ते पावसमणि ति बुच्चई ।। १०. पडिलेहेइ पमत्ते से किंचि हु निसामिया । गुरुपरिभावए निच्चं पावसमणि ति बुच्चई ।। ११. बहुमाई मुहरे थद्धे लुद्धे अणिग्गहे । असंविभागी अचियत्ते पावसमणि त्ति दुच्चई ।। १२. विवादं च उदीरेह अहम्मे अत्तपण्णहा । वुग्गहे कलहे रत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई ।। १३. अथिरासणे कुक्कुईए जत्य तत्थ निसीयई । आसणम्मि अणाउते पावसमणि त्ति वुच्चई ।। १४. ससरक्खपाए सुवई सेज्जं न पडिलेहइ । संथारए अणाउत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई ।। १५. दुद्धदहीविगईओ आहारेइ अभिक्खणं । अरए य तवोकम्मे पावसमणि त्ति वुच्चई ।। १६. अत्यंतम्मिय सूरम्मि आहारेह अभिक्खणं । चोइओ पडिचोएइ पावसमणि त्ति वुच्चई || २७९ 'दवदवस्स' चरति प्रमत्तश्चाभीक्ष्णम्। उल्लंघनश्च चण्डश्च पापश्रमण इत्युच्यते ।। प्रतिलेखयति प्रमत्तः अपोज्झति पादकम्बलम् । प्रतिलेखना ऽनायुक्तः पापश्रमण इत्युच्यते ।। प्रतिलेखयति प्रमत्तः स किंचित् खलु निशम्य । गुरुपरिभावको नित्यं पापश्रमण इत्युच्यते ।। बहुमायी प्रमुखरः स्तब्धी योनिग्रहः । असंविभागी 'अचियत्ते' पापश्रमण इत्युच्यते ।। विवादं चोदीरयति अधर्मः आत्मप्रज्ञाहा । व्युद्ग्रहे कलहे रक्तः पापश्रमण इत्युच्यते ।। अस्थिरासनः कौकुचिका यत्र तत्र निषीदति । आसने ऽनायुक्तः पापश्रमण इत्युच्यते ।। ससरक्षपादः स्वपिति शय्यां न प्रतिलिखति । संस्तारक उनायुक्तः पापश्रमण इत्युच्यते ।। दुग्बदमिविकृतीः आहारत्यनीक्ष्णम्। अरतश्च तपःकर्मणि पापश्रमण इत्युच्यते ।। अस्तान्ते च सूर्ये आहरत्यभीक्ष्णम् । चोदितः प्रतिचोदयति पापश्रमण इत्युच्यते ।। अध्ययन १७ : श्लोक ८-१६ जो द्रुतगति से चलता है, जो बार-बार प्रमाद करता है, जो प्राणियों को लांघ कर उनके ऊपर होकर चला जाता है, जो क्रोधी है, वह पाप श्रमण कहलाता है । जो असावधानी से प्रतिलेखन करता है, जो पादकम्बल को जहां कहीं रख देता है, इस प्रकार जो प्रतिलेखना में असावधान होता है, वह पाप श्रमण कहलाता है। जो कुछ भी बातचीत हो रही हो उसे सुनकर प्रतिलेखना में असावधानी करने लगता है, जो गुरु का तिरस्कार करता है" शिक्षा देने पर उनके सामने बोलने लगता है, वह पाप श्रमण कहलाता है।" जो बहुत कपटी, वाचाल, अभिमानी, लालची, इन्द्रिय और मन पर नियंत्रण न रखने वाला, भक्त पान आदि का संविभाग न करने वाला और गुरु आदि से प्रेम न रखने वाला होता है, वह पाप श्रमण कहलाता है। जो शांत हुए विवाद को फिर से उभाड़ता है, जो सदाचार से शून्य होता है, जो (कुतर्क से अपनी प्रज्ञा का हनन करता है, १३ जो कदाग्रह और कलह में* रक्त होता है, वह पाप श्रमण कहलाता है। जो स्थिरासन नहीं होता-बिना प्रयोजन इधर-उधर चक्कर लगाता है, जो हाथ, पैर आदि अवयवों को हिलाता रहता है, जो जहां कहीं बैठ जाता है" इस प्रकार आसन (या बैठने) के विषय में जो असावधान होता है, वह पाप श्रमण कहलाता है । जो सचित्त रज से भरे हुए पैरों का प्रमार्जन किए बिना ही सो जाता है, सोने के स्थान का प्रतिलेखन नहीं करता इस प्रकार बिछौने (या सोने) के विषय में जो असावधान होता है, " वह पाप श्रमण कहलाता है। जो दूध, दही आदि विकृतियों का" बार-बार आहार करता है और तपस्या में रत नहीं रहता, वह पाप श्रमण कहलाता है 1 जो सूर्य के उदय से लेकर अस्त होने तक बार-बार खाता रहता है। ऐसा नहीं करना चाहिए'- इस प्रकार सीख देने वाले को कहता है कि तुम उपदेश देने में कुशल हो, करने में नहीं, वह पाप - श्रमण कहलाता है। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २८० अध्ययन १७ : श्लोक १७-२१ १७.आयरियपरिच्चाई आचार्यपरित्यागी जो आचार्य को छोड़ दूसरे धर्म-सम्प्रदायों में२० चला परपासंडसेवए। परपाषण्डसेवकः। जाता है, जो छह मास की अवधि में एक गण से गाणंगणिए दुब्भूए गाणगणिको दुर्भूतः दूसरे गण में संक्रमण करता है, जिसका आचारण पावसमणि त्ति वुच्चई।। पापश्रमण इत्युच्यते।। निन्दनीय है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। १८.सयं गेहं परिचज्ज स्वकं गेहं परित्यज्य जो अपना घर छोड़कर (प्रव्रजित होकर) दूसरों के घर परगेहंसि वावडे। परगेहे व्याप्रियते। में व्याप्त होता है२२–उनका कार्य करता है, जो निमित्तेण य ववहरई निमित्तेन च व्यवहरति शुभाशुभ बता कर धन का अर्जन करता है, वह पावसमणि त्ति वुच्चई।। पापश्रमण इत्युच्यते।। पाप-श्रमण कहलाता है। १६.सन्नाइपिंडं जेमेइ स्वज्ञातिपिण्डं जेमति जो अपने ज्ञाति-जनों के घर का भोजन करता है, नेच्छई सामुदाणियं। नेच्छति सामुदानिकम्। किन्तु सामुदायिक भिक्षा करना नहीं चाहता, जो गिहिनिसेज्जं च वाहेइ गृहिनिषद्यां च वाहयति गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, वह पाप-श्रमण पावसमणि त्ति वुच्चई।। पापश्रमण इत्युच्यते।। कहलाता है। २०.एयारिसे पंचकुसीलसंवुडे एतादृशः पंचकुशीलाऽसंवृतः जो पूर्वोक्त आचरण करने वाला, पांच प्रकार के रूवंधरे मुणिपवराण हेट्ठिमे। रूपधरो मुनिप्रवराणामधस्तनः।। कुशील साधुओं* की तरह असंवृत, मुनि के वेश को अयंसि लोए विसमेव गरहिए अस्मिल्लोके विषमिव गर्हितः धारण करने वाला और मुनि-प्रवरों की अपेक्षा तुच्छ न से इहं नेव परत्थ लोए।। न स इह नैव परत्र लोके।। संयम वाला होता है, वह इस लोक में विष की तरह निंदित होता है। वह न इस लोक में कुछ होता है और न परलोक में। २१.जे वज्जए एए सया उ दोसे यो वर्जयत्येतान् सदा तु दोषान् जो इन दोषों का सदा वर्जन करता है वह मुनियों में से सुव्वए होइ मुणीण मज्झे। स सुव्रतो भवति मुनिनां मध्ये। सुव्रत होता है। वह इस लोक में अमृत की तरह अयंसि लोए अमयं व पूइए अस्मिँल्लोकेऽमृतमिव पूजितः पूजित होता है तथा इस लोक और परलोक-दोनों आराहए दुहओ लोगमिणं ।। आराधयति द्विधा लोकमिमम्।। लोकों की आराधना करता है। —त्ति बेमि।। --इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन १७ : पाप श्रमणीय १. बोधि - लाभ (बोहिलाभ) प्रस्तुत प्रसंग में 'बोध' का अर्थ है– (१) चेतना का जागरण, विशेष प्रकार की समझ और (२) धर्म अथवा तत्त्व | वृत्ति में इसका अर्थ केवली प्रणीत धर्म किया है।' विशेष विवरण के लिए देखें- सूयगडो 919 19 का टिप्पण । २. विनय... (विणओ...) विनय का सामान्य अर्थ नम्रता है। प्रस्तुत संदर्भ में यह शब्द ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय अथा उपचारविनय ( शिष्टाचार ) इस चतुर्विध विनय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।" विनय का एक अर्थ है- आचार । विशेष विवरण के लिए देखें - उत्तरज्झयणाणि के प्रथम अध्ययन का आमुख तथा पहले श्लोक का टिप्पण | ३. स्वच्छंद विहारी (जहासुई) इसका शाब्दिक अर्थ है—जिन प्रवृत्तियों में स्वयं को सुख की अनुभूति हो वैसी प्रवृत्ति करना अर्थात् स्वच्छन्द विहारी बनना । प्रव्रजित होते समय व्यक्ति सिंहवृत्ति से प्रव्रजित होता है। फिर विकथा आदि में संलग्न होकर वह खिन्नता का अनुभव करता हुआ शृगालवृत्ति वाला हो जाता है, शिथिल हो जाता है-'सीहत्ताए णिक्खतो सीयालत्ताए विहरति । ४. (किं नाम काहामि सुएण भंते !) गुरु के द्वारा श्रुत की आराधना की प्रेरणा देने पर आलसी शिष्य कहता है- "भंते! श्रुत के अध्ययन से क्या ? बहुश्रुत और अल्पश्रुत में कोई विशेष भेद नहीं होता। आप श्रुत की आराधना करते हैं, पर अतीन्द्रिय वस्तु को जानने में असमर्थ हैं। जो प्रत्यक्ष है उसे ही देख पाते हैं। हम भी वर्तमानग्राही हैं, जो प्रत्यक्ष है उसे जानते हैं। फिर हृदय, कंठ और तालु को सुखाने वाले अध्ययन से क्या प्रयोजन ?" १. बृहद्वृत्ति पत्र ४३२ बोधिलाभं - जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिरूपम् । २. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २४४ विनयोपपन्नो— ज्ञानदर्शनचारित्र उपचारविनयसम्पन्न इत्यर्थः । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३२ । ४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४४ न च बहुश्रुताल्पश्रुतयोः कश्चिद् विशेषः, ततः किं मम गलतालुविशोषणेण । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४३३: ये भवन्तो भदन्ता अधीयन्ते तेऽपि नातीन्द्रियं वस्तु किञ्चनावबुध्यन्ते, किन्तु साम्प्रतमात्रेक्षिण एव तच्चैतावदस्मास्येवमप्यस्ति तत् किं हृदयगलतालुशोषविधा यिनाऽधीतेनेति ? " ५. निंदा करता है (खिंसई) यह देशी धातु है । इसके दो अर्थ किए गए हैंतिरस्कार करना, निन्दा करना । * ६. आसन (निखेज्ज) वृत्तिकार ने निषद्या का अर्थ स्वाध्याय भूमि आदि किया है। प्राचीनकाल में स्वाध्याय के लिए एकान्त स्थान का उपयोग किया जाता था, वह मुनियों का समाधिस्थल होता था, उसे निषद्या कहा जाता था। आजकल प्रचलित 'निसीहिआ' शब्द भी उसी का द्योतक है। किन्तु यहां निषद्या का अर्थ आसन ही प्रासंगिक है। संस्तार, फलक, पीठ, पाद कम्बल-इन पदों के साथ निषद्या का प्रयोग आसनवाची ही होना चाहिए। देखें— अध्ययन २ में निषद्या परिषह का टिप्पण । ७. प्रमार्जन किए बिना (तथा देखे बिना) (अप्पमज्जियं) 'प्रमार्जन' और 'प्रतिलेखन' ये दोनों सम्बन्धित कार्य हैं, इसलिए जहां प्रमार्जन का विधान हो वहां प्रतिलेखन का विधान स्वयं समझ लेना चाहिए। ८. ( दवदवस्स चरई) मिलाएं- दसवे आलियं, ५1१1१४ । ९. प्राणियों को लांघ कर (उल्लंघणे) वृत्तिकार ने इसका मुख्य अर्थ बालक आदि को लांघकर जाना किया है। वैकल्पिक रूप में उन्होंने बछड़ा, डिम्भ आदि का उल्लंघन करना भी किया है।" दशवैकालिक में मुनि के लिए भेड़, बच्चा, कुत्ता और बछड़ा-इन चारों को लांघकर या हटाकर प्रवेश करने का निषेध है ।" १०. जो गुरु का तिरस्कार करता है (गुरुपरिभावए) जो गुरु के साथ विवाद करता है अथवा गुरु के द्वारा किसी कार्य के लिए प्रेरित किए जाने पर 'आप ही यह कार्य ५. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० २४५ ॥ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४३३ । बृहद्वृत्ति, पत्र ४३४ : निषद्यां— स्वाध्यायभूम्यादिकां यत्र निषद्यते । जैनेन्द्र कोश, भाग २, पृष्ठ ६२७ । बृहद्वृत्ति, पत्र ४३४ 'अप्रमृज्य' रजोहरणादिनाऽसंशोध्य उपलक्षणत्वादप्रत्युपेक्ष्य च । ६. वही, पत्र ४३४ उल्लंघनश्च बालादीनामुचितप्रतिपत्त्यकरणतोऽधः कर्ता । १०. वही, पत्र ४३४ उल्लंघनश्च वत्सडिम्भादीनाम् । ११. दसवेआलियं, ५।२२ : एलगं दारगं साणं, वच्छगं वावि कोट्टए । उल्लंघिया न पविसे, विऊहित्ताण व संजए।। ६. ७. ८. Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २८२ करें, आप ही ने तो हमें ऐसा सिखाया था और आज आप ही इसमें दोष निकालते हैं अतः यह आपका ही दोष है, हमारा नहीं'---इस प्रकार असभ्य वचनों से जो उन्हें अपमानित करता है, उसे 'गुरुपरिभावक' कहा जाता है।' ११. (श्लोक ९, १० ) - देखें— उत्तरज्झयणाणि, २६ २६, ३० । १२. भक्त पान आदि का संविभाग न करने वाला (असंविभागी ) जो गुरु, ग्लान, बाल आदि साधुओं को उचित अशन-पान आदि देता है, वह 'संविभागी' होता है और जो केवल अपने आत्म पोषण का ही ध्यान रखता है, वह 'असंविभागी होता है। देखें—– दसवै आलियं, ६।२।२२। १३. जो (कुतर्क से) अपनी प्रज्ञा का हनन करता है (अत्तपन्नहा) शान्त्याचार्य ने इसके तीन संस्कृत रूप दिए हैं(१) आत्मप्रश्न्हा ( २ ) आत्तप्रज्ञाहा (३) आप्तप्रज्ञाहा। जो आत्मा संबंधी प्रश्नों का वाचालता से हनन कर देता है, वह 'आत्मप्रश्नहा' कहलाता है। जो अपनी या दूसरों की बुद्धि का कुतकों के द्वारा हनन करता है, वह 'आत्तप्रज्ञाहा' अथवा 'आप्तप्रज्ञाहा' कहलाता है। १४. जो कदाग्रह और कलह में (वुग्गहे कलहे) चूर्णि की भाषा में सामान्य लड़ाई को 'विग्रह' और वाचिक लड़ाई को 'कलह' कहा जाता है।* बृहद्वृत्ति के शब्दों में दंड आदि की घात से जनित विरोध को 'व्युद्ग्रह' और वचन आदि से उत्पन्न विरोध को 'कलह' कहा जाता है।* १५. जो जहां कहीं बैठ जाता है (जत्थ तत्थ निसीयई) इस श्लोक में आसन का विवेक है। 'जहां कहीं बैठ जाता है-इसका आशय है कि सजीव और सरजस्क स्थान पर बैठ जाता है। उपयुक्त स्थान का विवेक दशवैकालिक में १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३४ गुरुपरिभावकः किमुक्तं भवति ? - असम्यक्प्रत्युपेक्षमाणोऽन्यद्वा वितथमाचरन् गुरुभिश्चोदितस्तानेव विवदतेऽभिभवति वाऽसभ्यवचनैः, यथा - स्वयमेव प्रत्युपेक्षध्वं युष्माभिरेव वयमित्थं शिक्षितास्ततो युष्माकमेवैष दोष इत्यादि । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३४ : संविभजति गुरुग्लानवालादिभ्य उचितमशनादि यच्छतीत्येवंशीलः संविभागी न तथा य आत्मपोषकत्वेनैव सोऽसंविभागी । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३४, ४३५ । ४. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २४६ : विग्रहः सामान्येन कलहो वाचिकः । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३५ : 'दुग्गहे' त्ति व्युद्ग्रहे दण्डादिघातजनिते विरोधे 'कलहे' तस्मिन्नेव वाचिके । ६. दसवेआलियं ८५ ७ सुद्धपुढवीए न निसिए, ससरक्खम्मि य आसणे । पमज्जित्तु निसीएज्जा, जाइत्ता जस्स ओग्गहं ।। उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २४६ : सुद्धपुढवीए ण नीसीएज्जत्ति एतन्न स्मरति । . अध्ययन १७ : श्लोक ६-१५ टि० ११-१७ है। चूर्णिकार ने इसका संकेत भी दिया है।" १६. बिछौने (या सोने) के विषय में जो असावधान होता है (संथारए अणावत्ते ) इसकी व्याख्या में शान्त्याचार्य ने ओपनियुक्ति की एक गाथा का उल्लेख किया है। देखें— उत्तरज्झयणाणि २६ 199 का टिप्पण । १७. विकृतियों का (विगईओ) 'विकृति और रस ये दोनों समान अर्थवाची हैं। यहां दूध, आदि को 'विकृति' कहा है और इसी आगम में अन्यत्र दूध, दही, घी आदि को 'रस' कहा है। विकृति के नौ प्रकार बतलाए गए हैं— " (१) दूध (२) दही (३) नवनीत (४) घृत (५) तैल (६) गुड (७) मधु (८) मद्य और (६) मांस। स्थानांग में तैल, घृत, वसा ( चर्बी ) और नवनीत को स्नेह - विकृति भी कहा गया है।" इसी सूत्र में मधु, मद्य, मांस और नवनीत को महाविकृति भी कहा गया है। दूध, दही आदि विकार बढ़ाने वाले हैं, इसलिए इनका नाम विकृति है । विकृति खाने से मोह का उदय होता है। इसलिए बार-बार उन्हें नहीं खाना चाहिए। देखिए - दशवैकालिक, चूलिका २७ । मद्य और मांस ये दो विकृतियां तथा वसा-ये अभक्ष्य हैं। मधु और नवनीत को कुछ आचार्य अभक्ष्य मानते हैं और कुछ आचार्य विशेष स्थिति में उन्हें भक्ष्य भी मानते हैं। यहां उन्हीं विकृतियों के बार-बार खाने का निषेध किया गया है, जो भक्ष्य हैं। चूर्णिकार ने 'विगति' शब्द के आधार पर इसका निर्वचन इस प्रकार किया है—'अशोभनं गतिं नयन्तीति विगतयः' जो बुरी गति में ले जाती है, वह विगति है । " ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३५ : 'संस्तारके' फलककम्बलादी, सुप्त इति शेषः, 'अनायुक्तः ' "कुक्कुडिपायपसारण आयामेउं पुणोवि आउंटे" इत्याद्यागमार्थानुपयुक्तः । ६. उत्तरज्झयणाणि, ३० । २६ : खीरदहिसप्पिमाई, पणीयं पाणभोयणं । परिवज्जणं रसाणं तु, भणियं रसविवज्जणं ।। १०. ठाणं, ६।२३। ११. वही, ५।१८४ चत्तारि सिणेहविगतीओ पन्नत्ताओ, तं जहा--- -तेल्ल घयं वसा णवणीतं । १२. वही, ४।१८५ चत्तारि महाविगतीओ पन्नत्ताओ, तं जहा—महुं, मंसं, मज्जे, णवणीतं । १३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३५ विकृतिहेतुत्वाद्विकृती । १४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४६ : विगतीमाहारयतः मोहोद्भवा भवति । १५. वहीं, पृ० २४६ विकृति अशोभनं गतिं न्यन्तीति विगतयः, ताश्च क्षीरविगत्यादयः । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप-श्रमणीय २८३ अध्ययन १७ : श्लोक १६-२१ टि०१८-२५ १८. बार-बार (अभिक्खण) गृहस्थों को आप्तभाव दिखा कर उनके कार्यों में व्याप्त होता अभीक्ष्ण का शब्दार्थ 'पुनः-पुनः' होता है। चूर्णि और है' किया है। वृत्ति में इसका भावार्थ प्रतिदिन किया गया है। पुनः पुनः २३. सामुदायिक-भिक्षा (सामुदाणिय) आहार करता है अर्थात् प्रतिदिन आहार करता है। इसका सामुदायिक-भिक्षा की व्याख्या का एक अंश दशवैकालिक मूल अर्थ 'बार-बार खाता है, सूर्योदय से सूर्यास्त तक खाता ५।१।२५ में तथा दूसरा अंश इस श्लोक में मिलता है। उसके रहता है'—होना चाहिए। इसका सम्बन्ध ‘एगभत्तं च भोयणं' अनुसार ऊंच नीच सभी कुलों से भिक्षा लेना सामुदायिक-भिक्षा (दशवैकालिक ६।२२) से होना चाहिए। है। इसके अनुसार ज्ञात-अज्ञात सभी कुलों से भिक्षा लेना १९. आचार्य को छोड़ (आयरियपरिच्चाई) सामुदायिक-भिक्षा है। आचार्य मुझे तपस्या में प्रेरित करते हैं तथा मेरे द्वारा शान्त्याचार्य ने 'सामुदायिक' के दो अर्थ किए हैंआनीत आहार को बाल, ग्लान आदि साधुओं में वितरित कर (१) अनेक घरों से लाई हुई भिक्षा। देते हैं-इन या इन जैसे दूसरे कारणों से जो आचार्य को छोड़ (२) अज्ञात उंछ-अपरिचित घरों से लाई हुई भिक्षा ।। देता है, वह...। २४. पांच प्रकार के कुशील साधुओं (पंचकुसीले) २०. दूसरे धर्म-संप्रदायों में (परपासंड) जैन आगमों में पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ बतलाए गए वृतिकार ने 'परपासंड' का अर्थ सौगत आदि किया है। . ही हैं-पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक। विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तरज्झयणाणि २३।१६ मूल तथा उत्तर गुणों में दोष लगाने वाला मुनि कुशील का टिप्पण। निर्ग्रन्थ कहलाता है। इसके मुख्यतः दो प्रकार हैं-प्रतिसेवना २१. एक गण से दूसरे गण में संक्रमण करता है (गाणंगणिए) कुशील और कषाय कुशील। दोनों के पांच-पांच प्रकार हैं (१) ज्ञान कुशील (२) दर्शन कुशील (३) चारित्र कुशील (४) भगवान् महावीर की यह व्यवस्था थी कि जो निर्ग्रन्थ लिंग कुशील (५) यथासूक्ष्मकुशील।" सूत्रकृतांग की चूर्णि में नौ जिस गण में दीक्षित हो, वह जीवन-पर्यन्त उसी में रहे। विशेष प्रकार के कुशील बतलाए गए हैं--(१) पार्श्वस्थ (२) अवसन्न प्रयोजनवश (अध्ययन आदि के लिए) वह गुरु की आज्ञा से (३) कुशील (४) संसक्त (५) यथाछंद (६) काथिक (७) जा सकता है। परन्तु दूसर गण म सक्रमण प्राश्निक (८) संप्रसारक (६) मामक। करने के पश्चात् छह मास तक वह पुनः परिवर्तन नहीं कर प्रस्तुत प्रसंग में दोनों प्रकार के कुशील-प्रतिसेवना सकता। छह मास के पश्चात् यदि वह परिवर्तन करना चाहे कशील और कषाय कुशील निग्रंथों का वर्णन है।३ तो कर सकता है। जो मुनि विशेष कारण के बिना छह मास २५. अमत की तरह पूजित (अमयं व पडए) के भीतर ही परिवर्तन करता है उसे 'गाणंगणिक' कहते हैं। चर्णि में अमत का वर्णन इस प्रकार है-अमत उत्त २२. दूसरों के घर में व्याप्त होता है-उनका कार्य करता वर्ण, गंध और रस से युक्त होता है। वह शरीर की क्रांति को है (परगेहंसि वावडे) बढ़ाता है, शक्ति का संवर्धन करता है तथा अवयवों को पुष्ट चूर्णि में पर-गृह-व्यापार का अर्थ 'निमित्त आदि का करता है। वह सौभाग्य का जनक, सभी रोगों का नाश करने व्यापार' किया गया है। वाला और अनेक गुणों से सम्पन्न होता है। वह कल्पवृक्ष के बृहद्वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'जो मुनि आहारार्थी होकर फल की भांति अमृतमय होता है। (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४६ : नित्यमाहारयति, यदि नाम ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४६-२४७ : परगृहेषु व्यापारं करोति, निमित्तादीनां कश्चिद् चोदयति किमिति भवं आहारं नित्यमाहारयति न चतुर्थषष्ठादि च व्यापार करोति। कदाचिदपि करोति? बृहवृत्ति, पत्र ४३६ : 'परगेहे' अन्यवेश्मनि 'वावरे' ति व्याप्रियते(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४३५ : अभीक्ष्णं...प्रातरारभ्य सन्ध्यां यावत् पुनः पिण्डार्थी सन् गृहिणामाप्तभावं दर्शयन् स्वतस्तत्कृत्यानि कुरुते। पुनः भुंक्ते, यदि वा...अभीक्ष्णं पुनः पुनः, दिने दिने इत्युक्तं भवति । ६. वही, पत्र ४३६ : समुदानानि-भिक्षास्तेषां समूहः सामुदानिकम्... २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३५ : 'आचार्यपरित्यागी' ते हि तपःकर्मणि बहुगृहसम्बन्धिनं भिक्षासमूहमज्ञातोञ्छमितियावत्। विषीदन्तमुद्यमयन्ति, आनीतमपि चान्नादि बालग्लानादिभ्यो १०. ठाणं : ५१८४। दापयन्त्यतोऽतीवाहारलौल्यात्तत्परित्यजनशीलः। ११. ठाणं, : ५।१८७ : कुसीले पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा–णाणकुसीले, ३. वही, पत्र ४३५ : परान्-अन्यानू पाषण्डान-सौगतप्रभृतीन 'मृद्वी दसणकुसीले, चरितकुसीले, लिंगकुसीले, अहासुहुमकुसीले णामं पंचमे। शय्या प्रातरुत्थाय पेया' इत्यादिकादभिप्रायतोऽत्यन्तमाहारप्रसक्तान्। १२. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ० १०७।। ४. ठाणं, ७१। १३. देखें ठाणं ५११८४ का टिप्पण। ५. दसाओ २३। १४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४७ : अमृत कियद् वर्णगन्धरसोपेत ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३५-४३६ : स्वेच्छाप्रवृत्ततया 'गाणंगणिए' त्ति गणाद् वर्णबलपुष्टिसौभाग्यजननं सर्वरोगनाशनं अनेकगुणसंपन्नं कल्पवृक्षफलवद गणं षण्मासाभ्यन्तर एव संक्रामतीति गाणंगणिक इत्यागमिकी परिभाषा। मृतमभिधीयते। Jain Education Intemational Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २८४ अध्ययन १७ : श्लोक २१ टि० २६ २६. (श्लोक २०-२१) खरगोश था। जंगल में शिकार कर वापिस आते समय वह इन दो श्लोकों में दो मार्ग उपदिष्ट हैं—एक कुवत का, मार्ग भूल गया। उसने सामने एक तापस के आश्रम को देखा। दूसरा सुव्रत का। मार्ग पूछने के लिए वह तापस की कुटिया में आया और पहला अधोगमन का मार्ग है। वह व्यक्ति के वर्तमान बोला-महात्मन् ! मैं भटक गया हूं। मुझे मार्ग बताएं। संन्यासी और भविष्य दोनों को बिगाडता है। दसरा ऊर्ध्वगमन का ने कहा-राजन ! मैं तो दो ही मार्ग जानता हूं-अहिंसा स्वर्ग मार्ग है। वह व्यक्ति के वर्तमान और भविष्य-दोनों को का मार्ग है और हिंसा नरक का मार्ग है। तीसरा मार्ग मैं नहीं सुधारता है जानता। राजा ने सदा-सदा के लिए अहिंसा का मार्ग चुन किसी अरण्य में एक संन्यासी साधना कर रहा था। एक लिया। यह सुव्रत का मार्ग है। साधना करने वाले व्यक्ति को भी दिन कोई राजा उधर से निकला। उसके हाथ में मरा हुआ सुव्रत का मार्ग चुनना है। Jain Education Intemational Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारसमं अज्झयणं संजइज्जं अठारहवां अध्ययन संजयीय Jain Education Intemational Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख यह अध्ययन राजा संजय के वर्णन से समुत्पन्न है, विशेष दृढ़ करने के लिए महापुरुषों के उदाहरण दिए तथा इसलिए इसका नाम 'संजइज्जं'-'संजयीय' है।' संयमपूर्ण जीवन बिताने का उपदेश दिया। संयमी कैसा होता कांपिल्य नगर में संजय नाम का एक राजा राज्य करता है? उसे क्या करना होता है ? तप का आचरण क्यों करना था। एक बार वह शिकार के लिए निकला। उसके साथ चारों चाहिए ? सुदुश्चर धर्म का आचरण कैसे किया जा सकता प्रकार की सेनाएं थीं। वह केसर उद्यान में गया। वहां उसने है आदि प्रश्नों का समाधान दिया। संत्रस्त मृगों को मारा। इधर-उधर देखते उसकी दृष्टि गर्दभाली जब संजय राजर्षि ने अपना आयुष्य-काल जानने की मुनि पर जा टिकी। वे ध्यानस्थ थे। उन्हें देख वह संभ्रान्त हो जिज्ञासा रखी तब क्षत्रिय मुनि ने कहा-राजर्षि ! जैन प्रवचन गया। उसने सोचा-मैंने यहां के मृगों को मार मुनि की में त्रिकालज्ञ तीर्थंकर की आराधना करने वाला मुनि साधना के आशातना की है। वह घोड़े से नीचे उतरा। मुनि के पास जा द्वारा स्वयं त्रिकालज्ञ हो जाता है। मैं तुम्हारे आयुष्य-काल को वन्दना कर बोला—“भगवन्! मुझे क्षमा करें।” मुनि ध्यानलीन जानता हूं और तुमने विशुद्ध प्रज्ञा से प्रश्न पूछा है, इसलिए थे। वे कुछ नहीं बोले । राजा का भय बढ़ा। उसने सोचा–यदि वह तुमको बता देता हूं। मुनि क्रुद्ध हो गए तो वे अपने तेज से समूचे विश्व को नष्ट अध्ययन बहुत सूत्रात्मक शैली में लिखा गया है, इसलिए कर देंगे। उसने पुनः कहा—“भंते ! मैं राजा संजय हूं। मौन इसमें उक्त घटना का संकेत मिलता है। उसका पूरा विवरण तोड़ कर मुझे कुछ कहें।” (श्लोक १-१०) उपलब्ध नहीं है। वृत्तिकार ने संकेत की भाषा को स्पष्ट करने मुनि ध्यान संपन्न कर राजा को अभयदान देते हुए का किञ्चित् प्रयत्न किया है। (श्लोक ३०,३१,३२) बोले-“राजन् ! तुझे अभय है। तू भी अभयदाता बन। इस क्षत्रिय मुनि ने राजर्षि संजय से दार्शनिक चर्चा भी की। अनित्य जीव-लोक में तू क्यों हिंसा में आसक्त हो रहा है" भगवान् महावीर के समय में दर्शन की चार मुख्य धाराएं (श्लोक ११)। मुनि ने जीवन की अस्थिरता, ज्ञाति-सम्बन्धों की थीं-क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद। असारता, कर्म-परिणामों की निश्चितता का उपदेश दिया। उन्होंने इन चारों की जानकारी दी और निष्कर्ष की राजा ने सुना। वैराग्य उभर आया। वह राज्य को त्याग कर भाषा में क्रियावाद के प्रति रुचि के संवर्धन की प्रेरणा दी। मुनि गर्दभाली के पास श्रमण बन गया। प्रसंगवश उन्होंने अपने अनुभवों का उल्लेख कर पुनर्जन्म और एक दिन वह क्षत्रीय मुनि संजय मुनि के पास आया आत्मा की स्थापना की। (श्लोक ३३) और बोला--"तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारा गोत्र क्या है? इस अध्ययन से एक नवदीक्षित मुनि के स्थिरीकरण की किसलिए तुम माहन-मुनि बने हो? तुम किस प्रकार आचार्यों प्रक्रिया सहज ही फलित होती है। की सेवा करते हो और किस प्रकार विनीत कहलाते हो?" इस अध्ययन में भरत, सगर, मघव, सनत्कुमार, शांति, (श्लोक २१) अर, कुन्थु, महापद्म, हरिषेण, जय आदि दस चक्रवर्तियों और मुनि संजय ने उत्तर दिया-"नाम से मैं संजय हूं। गोत्र दशार्णभद्र, करकण्डु, द्विमुख, नमि, नग्गति, उद्रायण, काशीराज, मेरा गौतम है। गर्दभाली मेरे आचार्य हैं। मुक्ति के लिए मैं विजय, महाबल आदि नौ नरेश्वरों का वर्णन है। माहन बना हूं। आचार्य के उपदेशानुसार मैं सेवा करता हूं इसमें दशार्ण, कलिंग, पांचाल, विदेह, गान्धार, सौवीर, इसलिए मैं विनीत हूं।" (श्लोक २२) काशी आदि देशों का नामोल्लेख भी हुआ है। यह अध्ययन क्षत्रिय मुनि ने उनके उत्तर से आकृष्ट हो बिना पूछे ही प्राग ऐतिहासिक और ऐतिहासिक जैन शासन की परम्परा का कई तथ्य प्रकट किए और मुनि संजय को जैन प्रवचन में संकलन-सूत्र जैसा है। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३६४ : संजयनाम गोयं, वेयंतो भावसंजओ होइ। तत्तो समुट्ठियमिणं, अज्झयणं संजइज्जति ।। dain Education Intermational Jain Education Intemational For Priva Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. कंपिल्ले नयरे राया उदिण्णबलवाहणे । अट्ठारसमं अज्झयणं नामेणं संजए नाम मिगव्वं उवणिग्गए ।। २. हायणीए गयाणीए रहाणीए तहेव य पावत्ताणीए महया सव्यओ परिवारिए । ३. मिए छुभित्ता हयगओ कपिल्लुज्जाणकेसरे । भीए संते मिए तत्य वहेइ रसमुच्छिए ।। ४. अह केसरम्मि उज्जाणे अणगारे तवोधणे । सज्झायज्झाणजुत्ते धम्मज्झाणं शियायई । ५. अप्फोवमंडवम्मि झायई झवियासवे । तस्सागए मिए पासं वहेई से नराहिवे ॥ ६. अह आसगओ राया खिप्यमागम्म सो तहिं । हुए मिए उपासित्ता अणगारं तत्थ पासई ।। ७. अह राया तत्थ संभंतो अणगारो मणाहओ । मए उ मंदपुणेणं रसगिद्धेण पंतुणा ।। संजइज्जं : संजयीय संस्कृत छाया काम्पिल्ये नगरे राजा उदीर्णबलवाहनः । नाम्ना संजयो नाम मृगव्यामुपनिर्गतः ।। हयानीकेन गजानीकेन रथानीकेन तथैव च । पादातानीकेन महता सर्वतः परिवारितः ।। मृगान् क्षिप्त्वा हयगतः काम्पिल्योद्यानकेसरे । भीतान् श्रान्तान् मृगान् तत्र विध्यति रसमुच्छितः ॥ अथ केसर उद्याने अनगारस्तपोधनः । स्वाध्यायध्यानयुक्तः धर्म्यध्यानं ध्यायति ।। अठारहवां अध्ययन 'अप्फोव' मण्डपे ध्यायति क्षपितास्रवः । तस्यागतान् मृगान् पार्श्व विध्यति स नराधिपः ।। अथाश्वगतो राजा क्षिप्रमागम्य स तस्मिन् । हतान् मृगान् तु दृष्ट्वा अनगारं तत्र पश्यति ।। अथ राजा तत्र सम्भ्रान्तः अनगारो मनागाहतः । मया तु मन्दपुण्येन रसगृद्धेन घातुकेन ।। हिन्दी अनुवाद कांपिल्य' नगर में सेना और वाहनों से सम्पन्न संजय नाम का राजा था। एक दिन वह शिकार करने के लिए गया। वह महान् अश्वसेना, हस्तिसेना, रथसेना और पैदलसेना से चारों ओर से घिरा हुआ था । वह घोड़े पर चढ़ा हुआ था। सैनिक हिरणों को कांपिल्य नगर के केशर नामक उद्यान की ओर ढकेल रहे थे। वह रस- मूच्छित होकर उन डरे हुए और खिन्न बने हुए हिरणों को वहां व्यथित कर रहा था मार रहा था। उस केशर नाम उद्यान में स्वाध्याय और ध्यान में लीन रहने वाले एक तपोधन अनगार गर्दभाली धर्म्य - ध्यान में एकाग्र हो रहे थे। कर्म-बन्धन के हेतुओं को निर्मूल करने वाले अनगार लता - मण्डप में ध्यान कर रहे थे। राजा ने उनके समीप आए हुए हिरणों पर बाणों के प्रहार किए। राजा अश्व पर आरूढ़ था। वह तुरन्त वहां आया। उसने पहले मरे हुए हिरणों को ही देखा, फिर उसने उसी स्थान में अनगार को देखा । राजा अनगार को देख कर भयभ्रान्त हो गया। उसने सोचा भाग्यहीन, रस-लोलुप और जीवों को मारने वाला हूं। मैंने तुच्छ प्रयोजन के लिए मुनि को आहत किया है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २८८ अध्ययन १८ : श्लोक ८-१६ वह राजा घोड़े को छोड़ कर विनयपूर्वक अनगार के चरणों में वन्दना करता और कहता है--"भगवन ! इस कार्य के लिए मुझे क्षमा करें।" वे अनगार भगवान् मौनपूर्वक ध्यान में लीन थे। उन्होंने राजा को प्रत्युत्तर नहीं दिया। उससे राजा और अधिक भयाकुल हो गया। राजा बोला-“हे भगवन् ! मैं संजय हूं। आप मुझसे बातचीत कीजिए। अनगार कुपित होकर अपने तेज से करोड़ों मुनष्यों को जला डालता है।" अनगार बोले-“पार्थिव ! तुझे अभय है और तू भी अभयदाता बन। इस अनित्य जीव-लोक में तु क्यों हिंसा में आसक्त हो रहा है?"५ ८. आसं विसज्जइत्ताणं अणगारस्स सो निवो। विणएण वंदए पाए भगवं! एत्थ मे खमे ।। ६. अह मोणेण सो भगवं अणगारे झाणमस्सिए। रायाणं न पडिमंतेइ तओ राया भयदुओ।। १०.संजओ अहमस्सीति भगवं! वाहराहि मे। कुद्धे तेएण अणगारे डहेज्ज नरकोडिओ।। ११.अभओ पत्थिवा! तुम अभयदाया भवाहि य। अणिच्चे जीवलोगम्मि किं हिंसाए पसज्जसि?।। १२.जया सव्वं परिच्चज्ज गंतव्वमवसस्स ते। अणिच्चे जीवलोगम्मि किं रज्जम्मि पसज्जसि?|| १३.जीवियं चेव रूवं च विज्जुसंपायचंचलं। जत्थं तं मुज्झसी रायं पेच्चत्थं नावबुज्झसे।। १४.दाराणि य सुया चेव मित्ता य तह बंधवा। जीवंतमणुजीवंति मयं नाणुव्वयंति य।। १५.नीहरंति मयं पुत्ता पियरं परमदुक्खिया। पियरो वि तहा पुत्ते बंधू रायं! तवं चरे।। १६.तओ तेणऽज्जिए दव्वे दारे य परिरक्खिए। कीलंतऽन्ने नरा रायं! हट्ठतुट्ठमलंकिया।। अश्वं विसृज्य अनगारस्य स नृपः। विनयेन वन्दते पादौ भगवन् ! अत्र मे क्षमस्व।। अथ मौनेन स भगवान् अनगारो ध्यानमाश्रितः। राजानं न प्रतिमन्त्रयते ततो राजा भयद्रुतः।। संजयोऽहमस्मीति भगवन् ! व्याहर माम्। क्रुद्धस्तेजसाऽनगारः दहेत् नरकोटीः।। अभयं पार्थिव! तव अभयदाता भव च। अनित्ये जीवलोके किं हिंसायां प्रसजसि? यदा सर्वं परित्यज्य गन्तव्यमवशस्य ते। अनित्ये जीवलोके कि राज्ये प्रसजसि? जीवितं चैव रूपं च विद्युत्सम्पातचंचलम्। यत्र त्वं मुह्यसि राजन् ! प्रेत्यार्थं नावबुध्यसे।। दाराश्च सुताश्चैव मित्राणि च तथा बान्धवाः। जीवन्तमनुजीवन्ति मृतं नानुव्रजन्ति च।। निःसारयन्ति मृतं पुत्राः पितरं परमदुःखिताः। पितरोऽपि तथा पुत्रान् बन्धवो राजन् ! तपश्चरेः।। ततस्तेनार्जित द्रव्ये दारेषु च परिरक्षितेषु। क्रीडन्त्यन्ये नरा राजन् ! हृष्टतुष्टाऽलङ्कृताः ।। “जबकि तू पराधीन है और इसलिए सब कुछ छोड़ कर तुझे चले जाना है तब इस अनित्य जीव-लोक में तू क्यों राज्य में आसक्त हो रहा है ?" "राजन ! तू जहां मोह कर रहा है वह जीवन और सौन्दर्य बिजली की चमक के समान चंचल है। तू परलोक के हित को क्यों नहीं समझ रहा है?" "स्त्रियां, पुत्र, मित्र और बान्धव जीवित व्यक्ति के साथ जीते हैं किन्तु वे मृत के पीछे नहीं जाते।" "पुत्र अपने मृत पिता को परम दुःख के साथ श्मशान ले जाते हैं और इसी प्रकार पिता भी अपने पुत्रों और बंधुओं को श्मशान में ले जाता है, इसलिए हे राजन् ! तू तपश्चरण कर।" “राजन् ! मृत्यु के पश्चात् उस मृत व्यक्ति के द्वारा अर्जित धन और सुरक्षित स्त्रियों को हृष्ट, तुष्ट और अलंकृत होकर दूसरे व्यक्ति भोगते हैं।" Jain Education Intemational Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १८ : श्लोक १७-२५ "उस मरने वाले व्यक्ति ने भी जो कर्म किया--- सुखकर या दुःखकर उसी के साथ वह परभव में चला जाता है।" वह संजय राजा अनगार के समीप महान् आदर के साथ धर्म सुन कर मोक्ष का इच्छुक और संसार से उद्विग्न हो गया। संजय राज्य छोड़ कर भगवान् गर्दभालि अनगार के समीप जिन-शासन में दीक्षित हो गया। संजयीय २८९ १७.तेणावि जं कयं कम्म तेनापि यत् कृतं कर्म सुहं वा जइ वा दुहं। सुखं वा यदि वा दुःखम्। कम्मुणा तेण संजुत्तो कर्मणा तेन संयुक्तः गच्छई उ परं भवं ।। गच्छति तु परं भवम् ।। १८.सोऊण तस्स सो धर्म श्रुत्वा तस्य स धर्म अणगारस्स अंतिए। अनगारस्यान्तिके। महया संवेगनिव्वेयं महता संवेगनिर्वेद समावन्नो नराहिवो।। समापन्नो नराधिपः।। १६.संजओ चइउं रज्जं संजयस्त्यक्त्वा राज्यं निक्खंतो जिणसासणे। निष्क्रान्तो जिनशासने। गद्दमालिस्स भगवओ गर्दभालेभगवतः अणगारस्स अंतिए।। अनगारस्यान्तिके।। २०.चिच्चा रट्ठ पव्वइए त्यक्त्वा राष्टं प्रव्रजितः खत्तिए परिभासइ। क्षत्रियः परिभाषते। जहा ते दीसई रूवं यथा ते दृश्यते रूपं पसन्नं ते तहा मणो।। प्रसन्नं ते तथा मनः।। २१.किंनामे ? किंगोत्ते? किंनामा? किंगोत्रः? कस्सट्ठाए व माहणे?। कस्मै अर्थाय वा माहनः?। कहं पडियरसी बुद्धे? कथं प्रतिचरसि बुद्धान् ? कहं विणीए ति वुच्चसि ?।। कथं विनीत इत्युच्यसे ?।। २२.संजओ नाम नामेणं संजयो नाम माम्ना तहा गोत्तेण गोयमो। तथा गोत्रेण गौतमः। गद्दभाली ममायरिया गर्दभालयो ममाचार्याः विज्जाचरणपारगा।। विद्याचरणपारगाः।। जिसने राष्ट्र को छोड़ कर प्रव्रज्या ली, उस क्षत्रिय ने० (अप्रतिबद्ध विहारी राजा संजय से) कहा--- "तुम्हारी आकृति जैसे प्रसन्न दीख रही है वैसे ही तुम्हारा मन भी प्रसन्न दीख रहा है।" “तुम्हारा क्या नाम है? गोत्र क्या है ? किसलिए तुम माहन-मुनि बने हो? तुम किस प्रकार आचार्यों की सेवा करते हो और किस प्रकार विनीत कहलाते हो?" “नाम से मैं संजय हूं। गोत्र से गौतम हूं। गर्दभालि मेरे आचार्य हैं विद्या और चारित्र के पारगामी। मुक्ति के लिए मैं माहन बना हूं। आचार्य के उपदेशानुसार मैं सेवा करता हूं इसलिए मैं विनीत कहलाता हूं।" वे क्षत्रिय श्रमण बोले-"महामुने ! क्रिया, अक्रिया, विनय और अज्ञान-इन चार स्थानों के द्वारा एकान्तवादी तत्त्ववेत्ता'२ क्या तत्त्व बतलाते हैं१३ क्रियः किया विनयः अज्ञानं च महामुने! एतैश्चतुर्भिः स्थानैः मेयज्ञः किं प्रभाषते।। २३.किरियं अकिरियं विणयं अन्नाणं च महामुणी!। एएहिं चउहिं ठाणेहिं मेयण्णे किं पभासई ?|| २४.इइ पाउकरे बुद्धे नायए परिनिव्वुडे। विज्जाचरणसंपन्ने सच्चे सच्चपरक्कमे ।। २५.पडंति नरए घोरे जे नरा पावकारिणो। दिव्वं च गई गच्छति चरित्ता धम्ममारियं ।। "उसे तत्त्ववेत्ता ज्ञात-वंशीय, उपशांत, विद्या और चारित्र से सम्पन्न, सत्यवाक् और सत्य-पराक्रम वाले भगवान् महावीर ने प्रकट किया है।" इति प्रादुरकरोद् बुद्धः ज्ञातकः परिनिर्वृतः। विद्याचरणसंपन्नः सत्यः सत्यपराक्रमः।। पतन्ति नरके घोरे ये नराः पापकारिणः। दिव्यां च गतिं गच्छन्ति चरित्वा धर्ममार्यम् ।। “जो मनुष्य पाप करने वाले हैं वे घोर नरक में जाते हैं और आर्य-धर्म का आचरण कर मनुष्य दिव्य-गति को प्राप्त होते हैं।" Jain Education Intemational Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २९० अध्ययन १८ : श्लोक २६-३४ मायोक्तमेतत् तु मृषाभाषा निरर्थिका। संयच्छन्नप्यहम् वसामि ईर च।। सर्वे ते विदिता मम मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः। विद्यमाने परे लोके सम्यग् जानाम्यात्मानम्।। अहमासं महाप्राणे द्युतिमान् वर्षशतोपमः। या सा पाली महापाली दिव्या वर्षशतोपमा।। "इन एकान्त-दृष्टि वाले क्रियावादी आदि वादियों ने जो कहा है, वह माया-पूर्ण है इसलिए वह मिथ्या-वचन है, निरर्थक है। मैं उन माया-पूर्ण एकान्तवादों से बच कर रहता हूं और चलता हूं।"* "मैंने उन सब एकान्तदृष्टि वालों को जान लिया है। वे मिथ्या-दृष्टि और अनार्य हैं। मैं परलोक के अस्तित्व में आत्मा को भलीभांति जानता हूं।" “मैं महाप्राण" नामक विमान में कान्तिमान देव था। मैंने वहां पूर्ण आयु का भोग किया। जैसे यहां सी वर्ष की आयु पूर्ण होती है, वैसे ही देवलोक में पल्योपम और सागरोपम की आयु पूर्ण मानी जाती है।" “वह मैं ब्रह्मलोक से च्युत होकर मनुष्य-लोक में आया हूं। मैं जिस प्रकार अपनी आयु को जानता हूं उसी प्रकार दूसरों की आयु को भी जानता हूं।"१८ अथ च्युतो ब्रह्मलोकात् मानुष्यं भवमागतः। आत्मनश्च परेषां च आयुर्जानामि यथा तथा।। २६.मायावुइयमेयं तु मुसाभासा निरत्थिया। संजममाणो वि अहं वसामि इरियामि य।। २७.सब्वे ते विइया मज्झं मिच्छादिट्ठी अणारिया। विज्जमाणे परे लोए सम्मं जाणामि अप्पगं ।। २८.अहमासी महापाणे जुइमं वरिससओवमे। जा सा पाली महापाली दिव्वा वरिससओवमा।। २६.से चुए बंभलोगाओ माणुस्सं भवमागए। अप्पणो य परेसिं च आउं जाणे जहा तहा।। ३०.नाणा रुई च छंदं च परिवज्जेज्ज संजए। अणट्ठा जे य सव्वत्था इइ विज्जामणुसंचरे।। ३१.पडिक्कमामि पसिणाणं परमंतेहिं वा पुणो। अहो उठ्ठिए अहोरायं इइ विज्जा तवं चरे। ३२.जं च मे पुच्छसी काले सम्मं सुद्धेण चेयसा। ताई पाउकरे बुद्ध तं नाणं जिणसासणे।। ३३.किरियं च रोयए धीरे अकिरियं परिवज्जए। दिट्ठीए दिट्ठिसंपन्ने धम्म चर सुदुच्चरं।। ३४.एयं पुण्णपयं सोच्चा अत्थधम्मोवसोहियं । भरहो वि भारहं वासं चेच्चा कामाइ पव्वए।। नाना रुचिं च छन्दश्च परिवर्जयेत् संयतः। अनर्था ये च सर्वार्थाः इति विद्यामनुसंचरेः।। प्रतिक्रमामि प्रश्नेभ्यः परमन्त्रेभ्यो वा पुनः। अहो उत्थितोऽहोरात्रम् इति विद्वान् तपश्चरेः।। यच्च मां पृच्छसि काले सम्यक् शुद्धेन चेतसा। तत् प्रादुरकरोद् बुद्धः तज्ज्ञानं जिनशासने।। क्रियां च रोचयेद् धीरः अक्रियां परिवर्जयेत्। दृष्ट्या दृष्टिसंपन्नः धर्मं चर सुदुश्चरम्।। एतत् पुण्यपदं श्रुत्वा अर्थधर्मोपशोभितम्। भरतोऽपि भारतं वर्ष त्यक्त्वा कामान् प्रावजन्।। "संयमी को नाना प्रकार की रुचि अभिप्राय और जो सब प्रकार के अनर्थ२० हैं उनका वर्जन करना चाहिए-इस विद्या के पथ पर तुम्हारा संचरण हो।"—(क्षत्रिय मुनि ने राजर्षि से कहा“मैं (शुभाशुभ सूचक) प्रश्नों और गृहस्थ-कार्य-संबंधी मंत्रणाओं से दूर रहता हूं। अहो ! मैं दिन-रात धर्माचरण के लिए सावधान रहता हूं--यह समझ कर तुम तप का आचरण करो।" "जो तुम मुझे सम्यक् शुद्ध-चित्त से आयु के विषय में पूछते हो, उसे सर्वज्ञ भगवान् ने प्रकट किया है, वह ज्ञान जिनशासन में विद्यमान है।"२३ “धीर-पुरुष को क्रियावाद पर रुचि करनी चाहिए और अक्रियावाद" को त्याग देना चाहिए। सम्यक् दृष्टि के द्वारा दृष्टि सम्पन्न होकर तुम सुदुश्चर धर्म का आचरण करो। अर्थ (मोक्ष) और धर्म से उपशोभित इस पवित्र उपदेश को सुनकर भरत चक्रवर्ती ने भारतवर्ष और कामभोगों को छोड़कर प्रव्रज्या ली। Jain Education Intemational Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजयीय २९१ अध्ययन १८ : श्लोक ३५-४३ सगरो पिसागरान्तं भरतवर्ष नराधिपः। ऐश्वर्यं केवलं हित्वा दयया परिनिर्वृतः।। “सगर चक्रवर्ती सागर पर्यन्त५ भारतवर्ष और पूर्ण ऐश्वर्य को छोड़ अहिंसा की आराधना कर मुक्त हुए।" “महर्द्धिक और महान् यशस्वी मघवा चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर प्रव्रज्या ली।" त्यक्चा भारतं वर्ष चक्रवर्ती महर्द्धिकः। प्रव्रज्यामभ्युपगतः मघवा नाम महायशाः।। “महर्द्धिक राजा सनत्कुमार चक्रवर्ती ने पुत्र को राज्य पर स्थापित कर तपश्चरण किया।" "महर्द्धिक और लोक में शान्ति करने वाले शान्तिनाथ चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर अनुत्तर गति प्राप्त की।" ३५.सगरो वि सागरंतं भरहवासं नराहिवो। इस्सरियं केवलं हिच्या दयाए परिनिव्वुडे।। ३६.चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी महिडिओ। पव्वज्जमब्भुवगओ मघवं नाम महाजसो।। ३७.सणंकुमारो मणुस्सिदो चक्कवट्टी महिडिओ। पुत्तं रज्जे ठवित्ताणं सो वि राया तवं चरे।। ३८.चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी महिडिओ। संती संतिकरे लोए पत्तो गइमणुत्तरं ।। ३६.इक्खागरायवसभो कुंथू नाम नराहिवो। विक्खायकित्ती धिइम मोक्खं गओ अणुत्तरं ।। ४०.सागरंतं जहित्ताणं भरहं वासं नरीसरो। अरो य अरयं पत्तो पत्तो गइमणुत्तरं ।। ४१.चइत्ता भारहं वासं चक्कवट्टी नराहिओ। चइत्ता उत्तमे भोए महापउमे तवं चरे।। ४२.एगच्छत्तं पसाहित्ता महिं माणनिसूरणो। हरिसेणी मणुस्सिदो पत्तो गइमणुत्तरं ।। ४३.अन्निओ रायसहस्सेहिं सुपरिच्चाई दमं चरे। जयनामो जिणक्खायं पत्तो गइमणुत्तरं ।। सनत्कुमारो मनुष्येन्द्रः चक्रवर्ती महद्धिकः । पुत्रं राज्ये स्थापयित्वा सोऽपि राजा तपोऽचरत् ।। त्यक्वा भारतं वर्ष चक्रवर्ती महाद्धिकः। शान्तिः शान्तिकरो लोके प्राप्तो गतिमनुत्तराम् ।। इक्ष्वाकुराजवृषभः कुन्थुर्नाम नराधिपः। विख्यातकीर्तिधृतिमान् मोक्षं गतोऽनुत्तरम् ।। सागरान्तं हित्वा भारतं वर्ष नरेश्वरः। अरश्चारजः प्राप्तः प्राप्तो गतिमनुत्तराम्।। त्यक्त्वा भारतं वर्ष चक्रवर्ती नराधिपः। त्यक्चा उत्तमान् भोगान् महापद्मस्तपोऽचरत् ।। "इक्ष्वाकु कुल के राजाओं में श्रेष्ठ, विख्यात कीर्ति वाले, धृतिमान् भगवान् कुन्थु नरेश्वर ने अनुत्तर मोक्ष प्राप्त किया।" “सागर पर्यन्त भारतवर्ष को छोड़कर, कर्मरज से मुक्त होकर 'अर' नरेश्वर ने अनुत्तर गति प्राप्त की।" “विपुल राज्य, सेना और वाहन तथा उत्तम भोगों को छोड़कर महापद्म चक्रवर्ती ने तप का आचरण किया।" “(शत्रु-राजाओं का) मान-मर्दन करने वाले हरिषेण चक्रवर्ती ने पृथ्वी पर एक-छत्र शासन किया, फिर अनुत्तर गति प्राप्त की।" एकच्छत्रां प्रसाध्य महीं माननिषूदनः। हरिषेणो मनुष्येन्द्रः प्राप्तो गतिमनुत्तराम्।। अन्वितो राजसहनैः सुपरित्यागी दममचरत् । जयनामा जिनाख्यातं प्राप्तो गतिमनुत्तराम् ।। "जय चक्रवर्ती ने हजार राजाओं के साथ राज्य का परित्याग कर जिन-भाषित दम (संयम) का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की।" Jain Education Intemational Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४४. दसणरज्जं मुइयं चइत्ताणं मुणी चरे । दसण्णभद्दो निक्खंतो सक्खं सक्केण चोड़ओ ।। ( नमी नमेइ अप्पाणं सक्खं सक्केण चोइओ । चइऊण गेहं वहदेही सामण्णे पज्जुवद्विओ । ।) ४५. करकंडू कलिंगेसु पंचालेसु स दुम्मुहो । नमी राया विदेहेसु गंधारेसु य नग्गई ।। ४६. एए नरिंदवसभा निक्खता जिणसासणे । पुत्ते रज्जे ठवित्ताणं सामण्णे पज्जुवट्ठिया । । ४७. सोवीररायवसभो चेच्चा रज्जं मुणी चरे । उद्दायणो पव्वइओ पत्ती गइमणुत्तरं । ४८. तहेव कासीराया सेओ सव्यपरक्कमे । कामभोगे परिच्चज्ज पहणे कम्ममहावणं || ४६. तहेव विजओ राया अणट्ठाकित्ति पव्वए । रज्जं तु गुणसमिद्धं पयहित्तु महाजसो || ५०. तहेवुग्गं तवं किच्चा अव्वक्खित्तेण चेयसा । महाबलो रायरिसी अद्दाय सिरसा सिरं ।। ५१. कई धीरो अहेऊहिं उम्मत्तो व्व महिं चरे ? | एए विसेसमादाय सूरा दढपरक्कमा ।। २९२ दशार्णराज्यं मुदितं त्यक्त्वा मुनिरचरत् । दशार्णभद्रो निष्कान्तः साक्षाच्छक्रेण चोदितः ।। ( नमिर्नामयति आत्मानं साक्षाच्छक्रेण चोदितः त्यक्त्वा गेहं वैदेही श्रामण्ये पर्युपस्थितः ।।) करकण्डुः कलिङ्गेषु पञ्चालेषु च द्विमुखः । नमो राजा विदेहेषु गान्धारेषु च नग्गतिः ।। एते नरेन्द्रवृषभाः निष्क्रान्ता जिनशासने । पुत्रान् राज्ये स्थापयित्वा श्रमन्ये पर्युपस्थिताः ।। सौवीरराजवृषभः त्यक्त्वा राज्यं मुनिरचरत् । उद्रायणः प्रव्रजितः प्राप्तो गतिमनुत्तराम् ।। तथैव काशीराजः श्वेतः सत्यपराक्रमः । कामभोगान् परित्यज्य प्राह कर्ममहावनम् ।। तथैव विजयो राजा अनष्टकीर्तिः प्राव्रजत् । राज्य तु गुणसमुख प्रहाय महायशाः ।। तथैवोग्रं तपः कृत्वा अव्याक्षिप्तेन चेतसा । महाबलो राजर्षिः आदित शिरसा शिरः ।। कथं धीरः अहेतुभिः उन्मत्त इव महीं चरेत् ? । एते विशेषमादाय शूरा दृढपराक्रमाः ।। अध्ययन १८ : श्लोक ४४-५१ “साक्षात् शक्र के द्वारा प्रेरित दशार्णभद्र ने दशार्ण देश का प्रमुदित राज्य छोड़कर प्रव्रज्या ली और मुनि धर्म का आचरण किया।” को त्याग " (विदेह के अधिपति नमिराज ने, जो गृह कर श्रामण्य में उपस्थित हुए और देवेन्द्र ने जिन्हें साक्षात् प्रेरित किया, आत्मा को नमा लिया वे अत्यन्त नम्र बन गये ।) २७ “कलिंग में करकण्डु, पांचाल में द्विमुख, विदेह में नमि राजा और गान्धार में नग्गति” “राजाओं में वृषभ के समान ये अपने-अपने पुत्रों को राज्य पर स्थापित कर जिन शासन में प्रव्रजित हुए और श्रमण-धर्म में सदा यत्नशील रहे ।" “सौवीर राजाओं में वृषभ के समान उद्रायण राजा ने राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली, मुनि-धर्म का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की।” “इसी प्रकार सत्य के लिए पराक्रम करने वाले काशीराज श्वेत ने काम भोगों का परित्याग कर कर्म रूपी महावन का उन्मूलन किया।” “इसी प्रकार विमल - कीर्ति, महायशस्वी विजय राजा ने गुण से समृद्ध राज्य को छोड़ कर जिन शासन में प्रव्रज्या ली।" - " इसी प्रकार अनाकुल- चित्त से उग्र तपस्या कर राजर्षि महाबल ने अपना शिर देकर शिर (मोक्ष) को प्राप्त किया । "३" "ये भरत आदि शूर और दृढ़ पराक्रम-शाली राजा दूसरे धर्म शासनों से जैन शासन में विशेषता पाकर यहीं प्रव्रजित हुए तो फिर धीर पुरुष एकान्त - दृष्टिमय अहेतुवादों के द्वारा उन्मत्त की तरह कैसे पृथ्वी पर विचरण करे ?" Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजयीय २९३ अध्ययन १८ : श्लोक ५२, ५३ “मैंने यह अत्यन्त युक्तियुक्त३ और सत्य बात कही है। इसके द्वारा कई जीवों ने संसार समुद्र का पार पाया है, पा रहे हैं और भविष्य में पाएंगे।" ५२.अच्चंतनियाणखमा सच्चा मे भासिया वई। अतरिंसु तरंतेगे तरिस्संति अणागया ।। ५३.कहं धीरे अहेऊहिं अत्ताणं परियावसे? सव्वसंगविनिम्मुक्के सिद्धे हवइ नीरए।। अतयन्तनिदानक्षमा सत्या मया भाषिता वाक् । अतीर्घः तरन्त्येके तरिष्यन्ति अनागताः।। कथं धीरः अहेतुभिः आत्मानं पर्यावासयेत् ?। सर्वसंगविनिर्मुक्तः सिद्धो भवति नीरजाः।। "धीर पुरुष एकान्त दृष्टिमय अहेतुवादों में अपने आपको कैसे लगाए ? जो सब संगों से मुक्त होता है वह कर्म-रहित होकर सिद्ध हो जाता है।"३५ –त्ति बेमि।। -इति ब्रवीमि। —ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. कांपिल्य (कंपिल्ले) देखें- १३१२ का टिप्पण । २. (अणगारे तवोधणे) इस श्लोक ( ४ ) में केवल 'अनगार तपोधन' है। अनगार का नामोल्लेख नहीं हुआ है। किन्तु इसी प्रकरण में नियुक्तिकार ने अनगार का नाम 'गद्दभालि' – गर्दभाली बताया है ।' ३. लता - मंडप ( अप्फोव) अध्ययन १८ : संजयीय यह देशी शब्द है । चूर्णि और वृत्ति में इसका अर्थ हैवृक्ष आदि से आकीर्ण, विस्तृत, वृक्ष-गुच्छ गुल्म-लता से आच्छन्न ।' ४. तेज से (तेषण) 1 तपस्या के प्रभाव से अनेक लब्धियां उत्पन्न होती हैं। उनमें एक है—तेजीलब्धि इससे अनुग्रह और निग्रह दोनों किए जा सकते हैं। निग्रह की अवस्था में अनेक प्रदेशों और प्राणियों को भस्मसात् किया जा सकता है। (रट्ठ) राष्ट्र का अर्थ 'ग्राम, नगर आदि का समुदाय" या 'मण्डल' है।" प्राचीन काल में 'राष्ट्र' शब्द आज जितने व्यापक अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता था। वर्तमान में राष्ट्र का अर्थ हैपूर्ण प्रभुसत्ता प्राप्त देश। प्राचीन काल में एक ही देश में अनेक राष्ट्र होते थे। उनकी तुलना आज के प्रमण्डलों या राज्य सरकारों से की जा सकती है। मनुस्मृति में राष्ट्र का प्रयोग कुछ व्यापक अर्थ में भी हुआ लगता है।" १०. उस क्षत्रिय ने (खत्तिए) यहां क्षत्रिय का नाम नहीं बताया गया है। परम्परा के अनुसार यह व्यक्ति पूर्वजन्म में वैमानिक देव था। वहां से अनित्यता की विस्मृति मनुष्य को हिंसा की ओर ले जाती होकर क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुआ। उचित बाह्य निमित्त मिलने है । उसकी स्मृति अहिंसा की एक प्रबल प्रेरणा है । ६. अपने बन्धुओं को (बंधू) पर विरक्त हुआ और राष्ट्र को छोड़ कर प्रव्रजित हो गया। वह जनपद विहार करता हुआ संजय मुनि से मिला और उसने अनेक जिज्ञासाएं कीं।" ११. ५. (श्लोक ११) प्रस्तुत श्लोक में अहिंसा के आधारभूत दो तत्त्व प्रतिपादित हैं-अभय और अनित्यता का बोध । भय हिंसा का मुख्य कारण है । भय की आशंका से ही मनुष्य ने शस्त्र आदि का निर्माण किया है। सबसे अधिक भय मृत्यु का होता है। जो किसी का प्राण हरण नहीं करता वह अभयदाता हो जाता है। 9. यहां 'बंधू' शब्द प्रथमान्त बहुवचन है। 'बन्धून्' यह पद अध्याहार्य है। इसके आधार पर इसका अनुवाद होगा— बन्धु अपने बन्धुओं को श्मशान में ले जाते हैं।' उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ३१७ अह केसरमुज्जाणे नामेणं गद्दभालि अणगारो । २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २४८ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४३८ अप्फोवमण्डवमिति वृक्षाद्याकीर्णे, तथा च वृद्धाः अप्फोव इति किमुक्तं भवति ? आस्तीर्णे, वृक्षगुच्छगुल्मलतासंछन्न इत्यर्थः । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४१ 'बन्धु' त्ति बन्धवश्च बन्धूनिति शेषः । ४. वही, पत्र ४४१ हृष्टाः बहिः पुलकादिमन्तः, तुष्टाः - आन्तरप्रीतिभाजः । ५. वही, पत्र ४४१ 'महय' त्ति महता आदरेणेतिशेषः, सुव्यत्ययेन वा महत् । ६. वही, पत्र ४४२ : 'राष्ट्र' ग्रामनगरादिसमुदायम् । ७. हृष्ट-तुष्ट (हट्ठतुट्ठ) बाहर से पुलकित होने को 'हृष्ट' और मानसिक प्रीति का अनुभव करने को 'तुष्ट' कहा जाता है।" ८. महान् आदर के साथ ( महया) I वृत्तिकार को यहां 'महया' शब्द के दोनों अर्थ अभिप्रेत हैं। इसका एक अर्थ होगा- महान् आदर के साथ । विभक्ति व्यत्यय द्वारा तृतीया के स्थान पर प्रथमा विभक्ति मान लेने पर इसका संस्कृत रूप महत् होता है ।' तब वह धर्म का विशेषण बनता है और इसका अर्थ होता है—महान् धर्म । 'महता' यह साधन बनता है। ९. राष्ट्र को ( श्लोक २१, २२) यहां क्षत्रिय ने पांच प्रश्न पूछे ७. वही, पत्र ४४१ 'राष्ट्र' मण्डलम् । ८. राजप्रश्नीयवृत्ति, पृ० २७६ : राज्यम् - राष्ट्रादिसमुदायात्मकम् । राष्ट्र च जनपदं च । ६. मनुस्मृति, १० १६१ : यत्र त्वेते परिध्वंसाज्जायन्ते वर्णदूषकाः । राष्ट्रिकैः सह तद्राष्ट्रं क्षिप्रमेव विनश्यति ।। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४२ 'क्षत्रियः' क्षत्रजातिरनिर्दिष्टनामा परिभाषते, संजयमुनिमित्युपस्कारः, स हि पूर्वजन्मनि वैमानिक आसीत्, ततश्च्युतः क्षत्रियकुलेऽजनि तत्र च कुतश्चित्तथाविधनिमित्ततः स्मृतपूर्वजन्मा तत एव चोत्पन्नवैराग्यः प्रव्रज्यां गृहीतवान् गृहीतप्रव्रज्यश्च विहरन् संजयमुनिं दृष्ट्वा तद्विमर्शार्थमिदमुक्तवान् । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजयीय २९५ अध्ययन १८ :श्लोक २३ टि० १२-१३ (१) तुम्हारा नाम क्या है? (३) अज्ञानवाद : जो अज्ञान से ही सिद्धि मानते हैं वे (२) तुम्हारा गोत्र क्या है ? अज्ञानवादी हैं। इनकी मान्यता है कि कई जगत् को ब्रह्मादि (३) तुम माहन किसलिए बने हो? विवर्त्तमय, कई प्रकृति-पुरुषात्मक, कई षड्द्रव्यात्मक, कई (४) तुम आचार्यों की प्रतिचर्या कैसे करते हो? चतुःसत्यात्मक, कई विज्ञानमय, कई शून्यमय आदि-आदि मानते (५) तुम विनीत कैसे कहलाते हो? हैं। इसी प्रकार आत्मा भी नित्य, अनित्य आदि अनेक प्रकारों संजय मुनि ने इनके उत्तर में कहा-- से जानी जाती है-इन सबके ज्ञान से क्या? यह ज्ञान (१) मेरा नाम संजय है। स्वर्ग-प्राप्ति के लिए अनुपयुक्त है, अकिंचित्कर है आदि-आदि। (२) मेरा गोत्र गौतम है। (४) विनयवाद : जो विनय से ही मुक्ति मानते हैं वे (३) मैं मुक्ति के लिए माहन बना हूं। विनयवादी हैं। इनकी मान्यता है कि देव, दानव, राजा, तपस्वी, (४) मैं अपने आचार्य गर्दभालि के आदेशानुसार प्रतिचर्या हाथी, घोड़ा, हरिण, गाय, भैंस, शृंगाल आदि को नमस्कार करने ___ करता हूं। से क्लेश का नाश होता है। विनय से ही कल्याण होता है, (५) मैं आचार्य के उपदेश का आसेवन करता हूं, अन्यथा नहीं। इसलिए 'विनीत' कहलाता हूं। क्रियावादियों के १८० भेद, अक्रियावादियों के ८४ भेद, २२वें श्लोक में नाम और गोत्र के उत्तर स्पष्ट शब्दों में वैनयिकों के ३२ भेद और अज्ञानियों के ६७ भेद मिलते हैं। इस हैं। शेष तीन उत्तर 'गद्दभाली ममायरिया, विज्जाचरणपारगा' इन प्रकार इन सबके ३६३ भेद होते हैं। दो चरणों में समाहित किए गए हैं।' अकलंकदेव ने इन वादों के आचार्यों का भी नामोल्लेख १२. एकांतवादी तत्त्ववेत्ता (मेयन्ने) किया हैमेय का अर्थ है-ज्ञेय। मेय को जानने वाला मेयज्ञ कोक्कल, कांठेविद्धि, कौशिक, हरि, श्मश्रुमान, कपिल, कहलाता है। क्षत्रिय मुनि ने एकान्त क्रियावादी, अक्रियावादी रोमश, हारित, अश्व, मुण्ड, आश्वलायन आदि १८० क्रियावाद दार्शनिकों के सिद्धान्तों की चर्चा पर महावीर के अनेकान्तवादी के आचार्य व उनके अभिमत हैं। दृष्टिकोण से संजय ऋषि को परिचित कराया। मरीचि, कुमार, उलूक, कपिल, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वादलि, १३. (श्लोक २३) माठर, मौद्गल्यायन आदि ८४ अक्रियावाद के आचार्य व उनके इस श्लोक में चार वादों-(१) क्रियावाद (२) अक्रियावाद अभिमत हैं। (३) अज्ञानवाद (४) विनयवाद के विषय में राजर्षि से पूछा गया साकल्य, वाष्कल, कुथुमि, सात्यमुनि, चारायण, काठ, है। भगवान् महावीर के समसामयिक सभी वादों का यह माध्यन्दिनी मौद, पैप्पलाद, बादरायण, स्विष्टिकृत, 'ऐतिकायन, वर्गीकरण है। सूत्रकृतांग में इन्हें 'चार समवसरण' कहा गया वसु, जैमिनी आदि ६७ अज्ञानवाद के आचार्य व उनके अभिमत है। इनके तीन सौ तिरसठ भेद होते हैं। (१) क्रियावाद : क्रियावादी आत्मा का अस्तित्व मानते हैं वशिष्ट, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षिणि, सत्यदत्त, किन्तु वह व्यापक है या अव्यापक, कर्ता है या अकर्ता, क्रियावान व्यास, एलापुत्र, औपमन्यव, इन्द्रदत्त, अयस्थूल आदि ३२ है या अक्रियावान, मूर्त है अमूर्त- इसमें उन्हें विप्रतिपत्ति रहती विनयवाद के आचार्य व उनके अभिमत हैं। इस संसार में भिन्न-भिन्न रुचि वाले लोग हैं। कई (२) अक्रियावाद: जो आत्मा के अस्तित्व को नहीं क्रियावाद में विश्वास करते हैं और कई अक्रियावाद में। राजर्षि मानते वे अक्रियावादी हैं। दूसरे शब्दों में इन्हें नास्तिक भी कहा ने कहा-धीर पुरुष क्रियावाद में रुचि रखे और अक्रियावाद का जा सकता है। कई अक्रियावादी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार वजन कर। करते हैं, परन्तु “आत्मा का शरीर के साथ एकत्व है या जैन दर्शन क्रियावादी है पर एकांतदृष्टि नहीं है, अन्यत्व, यह नहीं कहा जा सकता"-ऐसा मानते हैं। कई इसलिए वह सम्यग्वाद है। जिसे आत्मा आदि तत्त्वों में अक्रियावादी आत्मा की उत्पत्ति के अनन्तर ही उसका प्रलय विश्वास होता है, वही क्रियावाद (अस्तित्ववाद) का निर पण मानते हैं। कर सकता है। १. बृहद्वृति, पत्र ४४२-४४३ : विद्याचरणपारगत्वाच्च तैस्तन्निवृत्ती मुक्तिलक्षणं एवं त्रिषष्ट्यधिकशतत्रयम् । फलमुक्त, ततस्तदर्थं माहनोऽस्मि, यथा च तदुपदेशस्तथा गुरुन् प्रतिचरामि, ४. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ८१, पृ०५६२। तदुपदेशासेवनाच्च विनीतः। ५. सूयगडो, १।१०।१७। २. सूयगडो, १।१२।१। ६. उत्तरज्झयणाणि, १८।३३। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४४ : तत्र तावच्छतमशीतं क्रियावादिनां अक्रियावादिनश्च ७. सूयगडो, १।१२।२०-२१॥ चतुरशीतिसंख्याः, अज्ञानिकाः सप्तषष्टिविधाः वैनयिकवादिनो द्वात्रिंशत् Jain Education Intemational Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २९६ अध्ययन १८ : श्लोक २६-३१ टि० १४-२२ देखें-२४वां टिप्पण। १८. (श्लोक २९) १४. (श्लोक २६) क्षत्रिय मुनि ने संजय मुनि को अपने पूर्वजन्म की क्षत्रिय श्रमण ने कहा-मैं उन मायापूर्ण एकांतवादों से जानकारी दी। इससे ध्वनित होता है कि उन्हें जातिस्मरण ज्ञान बचकर रहता हूं और चलता हूं। वृत्तिकार के अनुसार क्षत्रिय उपलब्ध था। जातिस्मरण के द्वारा अपने पूर्वजन्म को जाना जा मुनि ने यह बात संजय मुनि के स्थिरीकरण के लिए कही।' सकता है। उन्होंने आगे कहा-मैं जिस प्रकार अपनी आयु को १५. महाप्राण (महापाणे) जानता हूं उसी प्रकार दूसरों की आयु को भी जानता हूं। यह पांचवें देवलोक का एक विमान है। जातिस्मरण से दूसरों की आयु को नहीं जाना जा सकता। इससे १६. मैंने वहां पूर्ण आयु का भोग किया है (वरिससमोवमे) ज्ञात होता है कि उन्हें दूसरों का पूर्वजन्म जानने की विद्या भी मनुष्य-लोक में सौ वर्ष की आयु पूर्ण आयु मानी जाती प्राप्त है। इसी दृष्टि से देवलोक की पूर्ण आयु की उससे तुलना की गई १९. रुचि (रुई) है। क्षत्रिय मुनि ने कहा-जैसे मनुष्य यहां सौ वर्ष की आयु यहां रुचि का अर्थ है-क्रियावाद, अक्रियावाद आदि भोगते हैं, वैसे मैंने वहां दिव्य सौ वर्ष की आयु का भोग किया दर्शनों के प्रति होने वाली अभिलाषा। २०. सब प्रकार के अनर्थ (सव्वत्था) १७. (पाली महापाली) इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं और उनके आधार पर पाल जैसे जल को धारण करती है वैसे ही भव-स्थिति अर्थ भी दो होते हैंजीवन-जल को धारण करती है। इसलिए उसे 'पाली' कहा गया १. सर्वार्थाः-हिंसा आदि अशेष विषय। २. सर्वत्र-आकार को अलाक्षणिक मानने पर इसका 'पाली' को पल्योपम-प्रमाण और 'महापाली' को संस्कृत रूप 'सर्वत्र' होगा और अर्थ होगा सभी सागरोपम-प्रमाण माना गया है। यह गणनातीत (उपमेय) काल क्षेत्र आदि में। है। असंख्य-काल का एक पल्य होता है और दस कोडाकोड २१. गृहस्थ-कार्य-सम्बन्धी मंत्रणाओं से (परमंतेहिं) पल्यों का एक सागर है। विशद जानकारी के लिए देखिए- मुनि ने कहा-मैं अंगुष्ठ-विद्या आदि प्रश्नों से दूर रहता अणुओगदाराई, सूत्र ४१८ आदि। हूं, किन्तु गृहस्थ-कार्य-सम्बन्धी मंत्रणाओं से विशेष दूर रहता यहां 'महापाली' भव-स्थिति को 'वर्षशतोपमा' माना है। हूं। क्योंकि वे अतिसावध होती हैं। अतः मेरे लिए करणीय नहीं मनुष्य-लोक में सौ वर्ष की आयु पूर्ण आयु मानी जाती है, होती। उसी तरह महाप्राण देवलोक में महापाली परम आयु मानी २२. समझकर (विज्जा) जाती है। इसलिए पुनः महापाली को वर्षशतोपम कहा गया। विज्जा' (सं० विद्वान) शब्द क्वसु प्रत्ययान्त है। क्वसु पल्योपम काल को एक पल्य की उपमा से समझाया गया है। प्रत्यय भूत और वर्तमान—दोनों अर्थों में होता है। प्रस्तुत संदर्भ पल्य में से एक बाल सौ-सौ वर्षों के अन्तर से निकाला जाता में क्वस प्रत्यय वर्तमान अर्थ में निर्दिष्ट है। इसका अर्थ है है। इसीलिए उसे 'वर्षशतोपम' कहा हो, यह भी कल्पना की जा जानकर-समझकर। वृत्ति में विद्वान् का अर्थ जानता हुआ सकती है। किया है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४५ : 'संजममाणोऽवि' त्ति 'अपि' एवकारार्थस्ततः ततो वर्षशते पूर्णे, एकैकं केशमुद्धरेत्। संयच्छन्नेव-उपरमन्नेव तदुक्त्याकर्णनादितः 'अहम्' इत्यात्मनिर्देशे क्षीयते येन कालेन, तत्पल्योपममुच्यते।।२।।" विशेषतस्तत्स्थिरीकरणार्थम्, उक्तं हि-'ठियतो ठावए परं' ति। इति वचनाद्वर्षशतैः केशोद्धारहेतुभिरुपमा अर्थात् पल्यविषया यस्या सा २. वही, पत्र ४४५ : महाप्राणे महाप्राणनाम्नि ब्रह्मलोकविमाने। वर्षशतोपमा, द्विविधाऽपि स्थितिः, सागरोपमस्यापि पल्योपमनिष्पाद्यत्वात, ३. वही, पत्र ४४५ : 'वरिससतोवमे' त्ति वर्षशतजीविना उपमा-दृष्टान्तो तत्र मम महापाली दिव्या भवस्थितिरासीदित्युपस्कारः, अतश्चाहं यस्यासी वर्षशतोपमो मयूरव्यंसकादित्वात्समासः, ततोऽयमर्थः—यथेह वर्षशतोपमायुरभूवमिति भावः । वर्षशतजीवी इदानी परिपूर्णायुरुच्यते, एवमहमपि तत्र परिपूर्णायुरभूवम्। ६. वही, पत्र ४४६ : रुचिं च–प्रक्रमात् क्रियावाद्यादिमतविषयमभिलाषम् । ४. वही, पत्र ४४५ : तथाहि-य सा पालिरिव पालिः-जीवितजलधारणाद् ७. वही, पत्र ४४६ । भवस्थितिः, सा चोत्तरत्र महाशब्दोपादानादिह पल्योपमप्रमाणा। ८. वही, पत्र ४४६ : प्रतीपं क्रामामि प्रतिक्रामामि-प्रतिनिवर्ते, केभ्यः ?वही, पत्र ४४५-४४६ : दिवि भवा दिव्या वर्षशतेनोपमा यस्याः सा 'पसिणाणं' ति सुब्यत्ययात् 'प्रश्नेभ्यः' शुभाशुभसूचकेभ्योऽङ्गुष्ठप्रश्नादिभ्यः, वर्षशतोपमा, यथा हि वर्षशतमिह परमायुः तथा तत्र महापाली, अन्येभ्यो वा साधिकरणेभ्यः, तथा परे-गृहस्थास्तेषां मन्त्राः परमन्त्राःउत्कृष्टतोऽपि हि तत्र सागरोपमैरेवायुरुपनीयते, न तूत्सर्पिण्यादिभिः तत्कार्यालोचनरूपास्तेभ्यः,....प्रतिकमामि, अतिसावद्यत्वात्तेषाम् । अथवा ६. श्रीभिक्षुशब्दानुशासनं, ५३१६ : 'वेत्तेर्वा क्वसुः'। “योजनं विस्तृतः पल्यस्तथा योजनमुत्सृतः। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४६ : "विज्ज' त्ति विद्वान् जानन्। सप्तरात्रप्ररूढाणां केशाग्राणां स पूरितः।। १।। Jain Education Intemational Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजयीय २३. (श्लोक ३१-३२) क्षत्रिय मुनि ने राजर्षि संजय से कहा- तुमने मुझे आयु के विषय में प्रश्न किया है। मैं अपना आयुष्य-काल और दूसरों का आयुष्य काल भी जानता हूं, किन्तु मैं ऐसे प्रश्नों से अतीत हो चुका हूं। फिर भी तुमने जानने की दृष्टि से मुझे पूछा है। वह मैं बताता हूं। फिर क्षत्रिय मुनि ने संभवतः संजय को उनके आयुष्यकाल के विषय में कुछ बताया हो, ऐसा प्रतीत होता है। उन्होंने आगे कहा- मृत्यु विषयक ज्ञान जैन शासन में विद्यमान है। जिनशासन की आराधना करो, वह ज्ञान तुम्हें भी उपलब्ध हो सकेगा।' २४. क्रियावाद... अक्रियावाद (किरिय... अकिरिय) सूत्रकृतांग चूर्णि के अनुसार क्रिया का अर्थ है-कंपन । एजन, कंपन, गमन, और क्रिया ( प्रवृत्ति) ये सब एकार्थक हैं। महर्षि पतंजलि ने चित्त निरोध के प्रयत्न को क्रिया कहा है। उन्होंने तीन प्रकार की क्रियाएं मानी हैं—१. शारीरिक क्रियायोगतपस्या आदि २. वाचिक क्रियायोग — स्वाध्याय आदि और ३. मानस क्रियायोग — ईश्वर प्रणिधान आदि । * २९७ भगवान महावीर के समय में चार प्रकार के वाद प्रचलित थे— क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद । प्रस्तुत प्रसंग में 'किरिआ' शब्द क्रियावाद के अर्थ में प्रयुक्त है। क्रियावाद का अर्थ है-आत्मा आदि पदार्थों में विश्वास करना तथा आत्मकर्तृत्व को स्वीकार करना। इसके चार अर्थ फलित होते हैं—आस्तिकवाद, सम्यग्वाद, पुनर्जन्मवाद और कर्मवाद अक्रियावाद की चार प्रतिपत्तियां हैं १. आत्मा का अस्वीकार । २. आत्मा के कर्तृत्व का अस्वीकार । ३. कर्म का अस्वीकार । ४. पुनर्जन्म का अस्वीकार । अक्रियावादी को नास्तिकवादी, नास्तिकप्रज्ञ और नास्तिकदृष्टि कहा गया है। स्थानांग सूत्र में अक्रियावादी के आठ प्रकार बतलाए हैं १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४७ 'अप्पणो य परेसिं च' इत्यादिना तस्यायुर्विज्ञतामवगम्य संजयमुनिनाऽसौ पृष्टः कियन्ममायुरिति, ततोऽसौ प्राह यच्च त्वं मां कालविषयं पृच्छसि तत्प्रादुष्कृतवान् 'बुद्ध' सर्वज्ञोऽत एव तज्ज्ञानं जिनशासने व्यवच्छेदफलत्वाज्जिनशासन एव न त्वन्यस्मिन् सुगतादिशासने, अतो जिनशासन एव यत्नो विधेयो येन यथाऽहं जानामि तथा त्वमपि जानीषे । २. सूत्रकृतांग चूर्णि पृष्ठ ३३६ एजनं कंपन गमनं क्रियेत्यनर्थान्तरम् । ३. पातंजलयोगदर्शनम् २।१ 'तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ।' ४. द. चू. १। पृष्ठ २७ किरिया नाम अत्थिवादो भण्णइ । ५. देखें-सूयगडो १।१२।१ का टिप्पण। ६. दशाश्रुतस्कन्ध दशा ६, सूत्र ३ । ७. दशाश्रुतस्कन्ध दशा ६, सूत्र ६ । अध्ययन १८ श्लोक ३२-४४ टि० २३-२७ १. एकवादी ५. सातवादी २. अनेकवादी ३. मितवादी ६. समुच्छेदवादी ७. नित्यवादी ४. निर्मितवादी ८. असत्परलोकवादी इनके विशेष विवरण के लिए देखें— ठाणं ८ २२ का टिप्पण तथा सूयगडो १।१२।१ का टिप्पण | वृत्तिकार ने क्रिया का अर्थ अस्तिवाद और सत्अनुष्ठान तथा अक्रिया का अर्थ नास्तिवाद और मिथ्याअनुष्ठान किया है। देखें- इसी अध्ययन का १३ वां टिप्पण । २५. सागर पर्यन्त (सागरंत) तीन दिशाओं-पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में सागर पर्यन्त और एक दिशा उत्तर में हिमालय पर्वत तक। २६. अहिंसा ( दवाए) प्रश्न व्याकरण में अहिंसा के ६० नाम गिनाएं हैं। उनमें एक नाम है--दया। यहां दया अहिंसा के अर्थ में प्रयुक्त है।" वृत्तिकार ने दया का अर्थ संयम किया है।" दशवैकालिक में लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य — ये चार विशुद्धि स्थान बतलाए गए हैं।" अहिंसा की परिभाषा सब जीवों के प्रति संयम है । अतः दया का अर्थ संयम भी किया जा सकता है। २७. ( नमी नमेइ अप्पाणं..... सामण्णे पज्जुवट्ठिओ) यह श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। इस निर्णय के अनेक कारण हैं १. यह नौवें अध्ययन (६।६१) में आ चुका है । २. शान्त्याचार्य ने अपनी वृत्ति में इसकी व्याख्या नहीं की है | ३. इससे अग्रवर्ती श्लोक में नमीराज का उल्लेख आया है। ४. शान्त्याचार्य ने 'सूत्राणि सप्तदश' ऐसा उल्लेख किया है । 'एयं पुण्णपयं सोच्या' (३४ ये श्लोक ) में 'तहेतुग्गं तवं किच्चा' (५० वें श्लोक) तक १७ श्लोक होते हैं। उनमें 'नमि ठाणं ८।२२। ८. ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४७ : 'क्रियां' च 'अस्ति जीव इत्यादिरूपां सदनुष्ठानात्मिकां वा... तथा 'अक्रियां' नास्त्यात्मेत्यादिकां मिथ्यादृक्परिकल्पिततत्तदनुष्ठानरूपां वा । १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४८ सागरान्तं समुद्रपर्यन्तं दित्रये, अन्यत्र तु हिमवत्पर्यन्तमित्युपस्कारः । ११. प्रश्नव्याकरण, ६ 1१1३ । १२. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४८ दयया- संयमेन । १३. दसवेआलियं ६।१।१३ लज्जा दया संजम बंभचेर, कल्लाणभागिरस विसोहिठाणं । १४. दसवेआलियं ६८ अहिंसा निउणं दिट्ठा, सब्बभूएस संजमो ।। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि २९८ अध्ययन १८ : श्लोक ४५ टि० २८ नमेइ अप्पाणं' तथा 'करकंडू कलिंगेसु' श्लोकों की व्याख्या रानी राजा का वेष धारण कर हाथी पर बैठी। राजा स्वयं बृहद्वृत्ति में नहीं है। दोनों को प्रक्षिप्त मानने से 'सप्तदश उसके मस्तक पर छत्र लगा कर खड़ा था। रानी का दोहद पूरा सूत्राणि' की बात नहीं बैठती और 'करकंडू कलिंगेसु' को प्रक्षिप्त हुआ। वर्षा आने लगी। हाथी वन की ओर भागा। राजा रानी मानना भी युक्तियुक्त नहीं लगता। क्योंकि 'नमि नमेइ अप्पाणं' घबड़ाए। राजा ने रानी से वट वृक्ष की शाखा पकड़ने के लिए इसकी तो पुनरावृत्ति हुई है और 'करकंडू कलिंगेसु'- यह कहा। हाथी उस वट वृक्ष के नीचे से निकला। राजा ने एक डाल श्लोक पहली बार आया है। अतः 'नमी नमेइ अप्पाणं' को ही पकड़ ली। रानी डाल नहीं पकड़ सकी। हाथी रानी को ले भागा। प्रक्षिप्त मानना चाहिए।' राजा अकेला रह गया। रानी के वियोग से वह अत्यन्त दुःखी २८. (श्लोक ४५) हो गया। मुनि के तीन प्रकार होते हैं हाथी थककर निर्जन वन में जा ठहरा। उसे एक तालाब १. स्वयंबुद्ध-जो स्वयं बोधि प्राप्त करते हैं। दिखा। वह प्यास बुझाने के लिए पानी में घुसा। रानी अवसर २. प्रत्येकबुद्ध-जो किसी एक निमित्त से बोधि प्राप्त देख नीचे उतरी और तालाब से बाहर आ गई। करते हैं। वह दिग्मूढ़ हो इधर-उधर देखने लगी। भयाक्रांत हो वह ३. बुद्धबोधित--जो गुरु के उपदेश से बोधि प्राप्त करते एक दिशा की ओर चल पड़ी। उसने एक तापस देखा। उसके निकट जा प्रणाम किया। तापस ने उसका परिचय पूछा। रानी प्रत्येकबुद्ध एकाकी विहार करते हैं। वे गच्छवास में नहीं ने सब बता दिया। तापस ने कहा-“में भी महाराज चेटक का रहते। प्रस्तुत श्लोक में चार प्रत्येकबुद्धों का उल्लेख है- सगोत्री हूं। अब भयभीत होने की कोई बात नहीं।" उसने रानी १. करकण्डु-कलिंग का राजा। को आश्वत कर, फल भेंट किए। रानी ने फल खाए। दोनों वहां २. द्विमुख-पंचाल का राजा। से चले। कुछ दूर जाकर तापस ने गांव दिखाते हुए कहा—'मैं ३. नमि-विदेह का राजा। इस हल-कृष्ट भूमि पर चल नहीं सकता। वह दंतपुर नगर दीख ४. नग्गति-गान्धार का राजा। रहा है। वहां दंतवक्र राजा है। तुम निर्भय हो वहां चली जाओ इनका विस्तृत वर्णन टीका में प्राप्त है। ये चारों प्रत्येकबुद्ध और अच्छा साथ देखकर चम्पापुरी चली जाना। एक साथ, एक ही समय में देवलोक से च्युत हुए, एक साथ रानी पद्मावती दंतपुर पहुंची। वहां उसने एक उपाश्रय में प्रव्रजित हुए, एक ही समय में बुद्ध हुए, एक ही समय में साध्वियों को देखा। उनके पास जा वन्दना की। साध्वियों ने केवली बने और एक साथ सिद्ध हुए।" परिचय पूछा। उसने सारा हाल कह सुनाया. पर गर्भ की बात करकण्डु बूढ़े बैल को देखकर प्रतिबुद्ध हुआ। गुप्त रख ली। द्विमुख इन्द्रध्वज को देखकर प्रतिबुद्ध हुआ। साध्वियों की बात सुन रानी को वैराग्य हुआ। उसने दीक्षा नमि एक चूड़ी की नीरवता को देखकर प्रतिबुद्ध हुआ। ले ली। गर्भ वृद्धिंगत हुआ। महत्तरिका ने यह देख रानी से नग्गति मजरी विहीन आम्र-वृक्ष को देखकर प्रतिबुद्ध हुआ। पूछा। साध्वी रानी ने सच-सच बात बता दी। महत्तरिका ने यह बौद्ध ग्रन्थों में भी इन चार प्रत्येकबुद्धों का उल्लेख मिलता बात गुप्त रखी। काल बीता। गर्भ के दिन पूरे हए। रानी ने है। किन्तु इनके जीवन-चरित्र तथा बोधि-प्राप्ति के निमित्तों के शय्यातर के घर जा प्रसव किया। उस नवजात शिशु को उल्लेख में भिन्नता है। रत्नकम्बल में लपेटा और अपनी नामांकित मुद्रा उसे पहना चारों प्रत्येकबुद्धों का जीवनवृत्त इस प्रकार है श्मशान में छोड़ दिया। श्मशानपाल ने उसे उठाया और अपनी १. करकण्डु स्त्री को दे दिया। उसने उसका नाम 'अवकीर्णक' रखा। साध्वी चम्पा नगरी में दधिवाहन नाम का राजा राज्य करता था। रानी ने श्मशानपाल की पत्नी से मित्रता की। रानी जब उपाश्रय उसकी रानी का नाम पद्मावती था। वह गणतन्त्र के अधिनेता में पहुंची तब साध्वियों ने गर्भ के विषय में पूछा। उसने कहामहाराज चेटक की पुत्री थी। मृत पुत्र हुआ था। मैंने उसे फेंक दिया। एक बार रानी गर्भवती हुई। उसे दोहद उत्पन्न हुआ। बालक श्मशानपाल के यहां बड़ा हुआ। वह अपने परन्तु वह उसे व्यक्त करने में लज्जा का अनुभव करती रही। समवयस्क बालकों के साथ खेल खेलते समय कहता-'मैं शरीर सूख गया। राजा के पूछने पर रानी ने अपने मन की बात तुम्हारा राजा हूं। मुझे 'कर' दो।' कह दीं। एक बार उसके शरीर में सूखी खुजली हो गई। वह अपने १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४७-४४८। ५. सुखबोधा, पत्र १३३ : २. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५२५-५२८। वसहे च इन्दकेऊ, वलए अम्बे य पुफ्फिए बोही। ३. सुखबोधा, पत्र १३३-१४५। करकंड दुम्मुहस्सा, नमिस्स गन्धाररन्नो य। ४. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २७०। ६. कुम्भकार जातक (सं०४०८)। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजयीय साथियों से कहता- -'मुझे खुजला दो।' ऐसा करने से उसका नाम 'करकण्डु' हुआ। करकण्डु उस साध्वी के प्रति अनुराग रखता था । वह साध्वी मोहवश उसे भिक्षा में प्राप्त लड्डू आदि दिया करती थी। बालक बड़ा हुआ। वह श्मशान की रक्षा करने लगा। वहां पास ही बांस का वन था। एक बार दो साधु उस ओर से निकले। एक साधु दण्ड के लक्षणों को जानता था। उसने कहा'अमुक प्रकार का दण्ड जो ग्रहण करेगा, वह राजा होगा।' करकण्डु तथा एक ब्राह्मण के लड़के ने यह बात सुनी। ब्राह्मण कुमार तत्काल गया और लक्षण वाले बांस का दण्ड काटा। करकण्डु ने कहा - ' यह बांस मेरे श्मशान में बढ़ा है, अतः इसका मालिक मैं हूं।' दोनों में विवाद हुआ न्यायाधीश के पास गए। उसने न्याय देते हुए करकण्डु को दण्ड दिला दिया। ब्राह्मण कुपित हुआ और उसने चाण्डाल परिवार को मारने का षड्यन्त्र रचा। चाण्डाल को इसकी जानकारी मिल गई। वह अपने परिवार को साथ ले काञ्चनपुर चला गया। काञ्चनपुर का राजा मर चुका था। उसके पुत्र नहीं था । राजा चुनने के लिए घोड़ा छोड़ा गया। घोड़ा सीधा वहीं जा रुका, जहां चाण्डाल विश्राम कर रहा था। घोड़े ने कुमार करकण्डु की प्रदक्षिणा की और वह उसके निकट ठहर गया। सामंत आए। कुमार को ले गए। राज्याभिषेक हुआ। वह काञ्चनपुर का राजा २९९ अध्ययन १८ : श्लोक ४५ टि० २८ जा रही हैं, पैर लड़खड़ा रहे हैं और दूसरे छोटे-बड़े बैलों का संघट्टन सह रहा है। राजा का मन वैराग्य से भर गया। संसार की परिवर्तनशीलता का भान हुआ। वह प्रतिबुद्ध होकर प्रत्येक-बुद्ध हो गया। वह प्रव्रजित होकर विहरण करने लगा। २. बन गया। जब ब्राह्मणकुमार ने यह समाचार सुना तो वह एक गांव लेने की आशा से करकण्डु के पास आया और याचना की कि मुझे चम्पा राज्य में एक गांव दिया जाए। करकण्डु ने दधिवाहन के नाम पत्र लिखा। दधिवाहन ने इसे अपना अपमान समझा । उसने करकण्डु को बुरा-भला कहा । करकण्डु ने यह सब सुन कर चम्पा पर चढ़ाई कर दी। साध्वी रानी पद्मावती ने युद्ध की बात सुनी। मनुष्य-संहार की कल्पना साकार हो उठी। वह चम्पा पहुंची। पिता- पुत्र का परिचय कराया। युद्ध बन्द हो गया। राजा दधिवाहन अपना सारा राज्य करकण्डु को दे प्रव्रजित हो गया। करकण्डु गो- प्रिय था । एक दिन वह गोकुल देखने गया । उसने एक पतले बछड़े को देखा। उसका मन दया से भर गया। उसने आज्ञा दी कि इस बछड़े को उसकी मां का सारा दूध पिलाया जाए और जब वह बड़ा हो जाए तो दूसरी गायों का दूध भी उसे पिलाया जाए। गोपालों ने यह बात स्वीकार की। बछड़ा सुखपूर्वक बढ़ने लगा। वह युवा हुआ। उसमें अपार शक्ति थी। राजा ने देखा। वह बहुत प्रसन्न हुआ। कुछ समय बीता। एक दिन राजा पुनः वहां आया। उसने देखा कि वही बछड़ा आज बूढ़ा हो गया है, उसकी आंखें धंसी १. सुखबोधा, पत्र १३३-१३५। द्विमुख पंचाल देश में काम्पिल्य नाम का नगर था। वहां जय नाम का राजा राज्य करता था। वह हरिकुलवंश में उत्पन्न हुआ था । उसकी रानी का नाम गुणमाला था । एक दिन राजा आस्थान मण्डप में बैठा था । उसने दूत से पूछा - 'संसार में ऐसी कौन-सी वस्तु है जो मेरे पास नहीं है और दूसरे राजाओं के पास है ?" दूत ने कहा- 'राजन् ! तुम्हारे यहां चित्र सभा नहीं है।' राजा ने तत्काल चित्रकारों को बुलाया और चित्र - सभा का निर्माण करने की आज्ञा दी । चित्रकारों ने कार्य प्रारम्भ किया । पृथ्वी की खुदाई होने लगी । पांचवें दिन एक रत्नमय देदीप्यमान् महामुकुट निकला। राजा को सूचना मिली। वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ । थोड़े ही काल में चित्र सभा का कार्य सम्पन्न हुआ । शुभ दिन देखकर राजा ने वहां प्रवेश किया और मंगल वाद्य ध्वनियों के बीच उस मुकुट को धारण किया। उस मुकुट के प्रभाव से उसके दो मुंह दीखने लगे। लोगों ने उसका नाम 'द्विमुख' रखा। काल अतिक्रांत हुआ। राजा के सात पुत्र हुए, पर एक भी पुत्री नहीं हुई । गुणमाला उदासीन रहने लगी। उसने मदन नामक यक्ष की आराधना प्रारम्भ की। यक्ष प्रसन्न हुआ। उसके एक पुत्री हुई। उसका नाम 'मदनमञ्जरी' रखा। उज्जैन के राजा चण्डप्रद्योत ने मुकुट की बात सुनी। उसने दूत भेजा । दूत ने द्विमुख राजा से कहा- -या तो आप अपना मुकुट चण्डप्रद्योत राजा को समर्पित करें या युद्ध के लिए तैयार हो जाएं । द्विमुख राजा ने कहा- 'मैं अपना मुकुट तभी दे हूं जबकि वह मुझे चार वस्तुएं दे- १. अनलगिरि हाथी २. अग्निभीरु रथ ३. शिवा देवी और ४. लोहजंघ लेखाचार्य ।' दूत ने जाकर चण्डप्रद्योत से सारी बात कही। वह कुपित हुआ और उसने चतुरंगिणी सेना ले द्विमुख पर चढ़ाई कर दी। वह सीमा पर पहुंचा। उसने सेना का पड़ाव डाला और गरुड़ - व्यूह की रचना की। द्विमुख भी अपनी सेना ले सीमा पर आ डटा । उसने सागर-व्यूह की रचना की। दोनों ओर भयंकर युद्ध हुआ। मुकुट के प्रभाव से द्विमुख की सेना अजेय रही। प्रद्योत की सेना भागने लगी। वह हार गया । द्विमुख ने उसे बन्दी बना डाला । चण्डप्रद्योत कारागृह में बन्दी था। एक दिन उसने राजकन्या Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि मदनमञ्जरी को देखा। वह उसमें आसक्त हो गया । ज्यों-त्यों रात बीती । प्रातःकाल हुआ। राजा द्विमुख वहां आया। उसने प्रद्योत को उदासीन देखा। कारण पूछने पर उसने सारी बात कही। उसने कहा- 'यदि मदनमञ्जरी नहीं मिली तो मैं अग्नि में कूद कर मर जाऊंगा।' द्विमुख ने अपनी कन्या का विवाह उससे कर दिया । चण्डप्रद्योत अपनी नववधू को साथ ले उज्जैनी चला गया। एक बार इन्द्र महोत्सव' आया। राजा की आज्ञा से नागरिकों ने इन्द्रध्वज की स्थापना की। वह इन्द्रध्वज अनेक प्रकार के पुष्पों, घण्टियों तथा मालाओं से सज्जित किया गया। लोगों ने उसकी पूजा की। स्थान-स्थान पर नृत्य, गीत होने लगे । सारे लोग मोद-मग्न थे। इस प्रकार सात दिन बीते। पूर्णिमा के दिन महाराज द्विमुख ने इन्द्रध्वज की पूजा की। पूजा-काल समाप्त हुआ। लोगों ने इन्द्रध्वज के आभूषण उतार लिए और काष्ठ को सड़क पर फेंक दिया। एक दिन राजा उसी मार्ग से निकला। उसने उस इन्द्रध्वज काष्ठ को मलमूत्र में पड़े देखा। उसे वैराग्य हो आया। वह प्रत्येक-बुद्ध हो पंचमुष्टि लोच कर प्रव्रजित हो गया। ३. नमि अवन्ती देश में सुदर्शन नाम का नगर था। वहां मणिरथ नाम का राजा राज्य करता था। युगबाहु उसका भाई था । उसकी पत्नी का नाम मदनरेखा था। मणिरथ ने युगबाहु को मार डाला। मदनरेखा गर्भवती थी। वह वहां से अकेली चल पड़ी। जंगल में उसने एक पुत्र को जन्म दिया। उसे रत्नकम्बल में लपेटकर वहीं रख दिया और स्वयं शौच कर्म करने जलाशय में गई। वहां एक जलहस्ती ने उसे सूंड में पकड़ा और आकाश में उछाला। विदेह राष्ट्र के अन्तर्गत मिथिला नगरी का नरेश पद्मरथ शिकार करने जंगल में आया। उसने उस बच्चे को उठाया। वह निष्पुत्र था । पुत्र की सहज प्राप्ति पर उसे प्रसन्नता हुई। बालक उसके घर में बढ़ने लगा। उसके प्रभाव से पद्मरथ के शत्रु राजा भी नत हो गए। इसलिए बालक का नाम 'नमि' रखा । युवा होने पर उसका विवाह १००८ कन्याओं के साथ सम्पन्न हुआ। ३०० पद्मरथ विदेह राष्ट्र की राज्यसत्ता नमि को सौंप प्रव्रजित हो गया। एक बार महाराज नमि को दाह ज्वर हुआ। उसने छह मास तक अत्यन्त वेदना सही। वैद्यों ने रोग को असाध्य बतलाया । दाह-ज्वर को शांत करने के लिए रानियां स्वयं चन्दन घिस रही थीं। उनके हाथ में पहिने कंकण बज रहे थे उनकी आवाज से राजा को कष्ट होने लगा। उसने कंकण 1 9. इस महोत्सव का प्रारम्भ भरत ने किया था। निशीथचूर्णि (पत्र ११७४) में इसको आषाढी पूर्णिमा के दिन मनाने का तथा आवश्यक निर्युक्ति हारिभद्रीया वृत्ति (पत्र ३५६) में कार्तिक पूर्णिमा को मनाने का उल्लेख है। लाड देश में श्रावण पूर्णिमा को यह महोत्सव मनाया जाता था। अध्ययन १८ : श्लोक ४५ टि० २८ उतार देने के लिए कहा। सभी रानियों ने सौभाग्य चिन्ह स्वरूप एक-एक कंकण को छोड़कर शेष सभी कंकण उतार दिए। कुछ देर बाद राजा ने अपने मंत्री से पूछा - 'कंकण का शब्द क्यों नहीं सुनाई दे रहा है ?' मंत्री ने कहा- 'राजन् ! उसके घर्षण से उठे हुए शब्द आपको अप्रिय लगते हैं, यह सोचकर सभी रानियों ने एक-एक कंकण के अतिरिक्त शेष कंकण उतार दिए हैं। अकेले में घर्षण नहीं होता। घर्षण के बिना शब्द कहां से उठे ?" राजा नमि ने सोचा- 'सुख अकेलेपन में है। जहां द्वंद्व है, दो हैं वहां दुःख है ।' विचार आगे बढ़ा। उसने सोचा यदि मैं इस रोग से मुक्त हो जाऊंगा तो अवश्य ही प्रव्रज्या ग्रहण कर लूंगा। उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा थी। राजा इसी चिंतन में लीन हो सो गया। रात्रि के अन्तिम प्रहर में उसने स्वप्न देखा । नन्दीघोष की आवाज से जागा । उसका दाह-ज्वर नष्ट हो चुका था। उसने स्वप्न का चिन्तन किया। उसे जाति-स्मृति हो गई। वह प्रतिबुद्ध हो प्रव्रजित हो गया। * ४ नग्गति ( नग्गई ) गांधार जनपद में पुण्ड्रवर्द्धन नाम का नगर था। वहां सिंहरथ नाम का राजा राज्य करता था। एक बार उत्तरापथ से उसके दो घोड़े भेंट आए। एक दिन राजा और राजकुमार दोनों घोड़ों पर सवार हो उनकी परीक्षा करने निकले। राजा ज्यों-ज्यों लगाम खींचता त्यों-त्यों वह तेजी से दौड़ता था। दौड़ते-दौड़ते वह बारह योजन तक चला गया। राजा ने लगाम ढीली छोड़ दी। घोड़ा वहीं रुक गया। उसे एक वृक्ष के नीचे बांध राजा घूमने लगा। फल खाकर भूख शांत की। रात बिताने के लिए राजा पहाड़ पर चढ़ा। वहां उसने सप्तभौम वाला एक सुन्दर महल देखा। राजा अन्दर गया। वहां एक सुन्दर कन्या देखी। एक दूसरे को देख दोनों में प्रेम हो गया। राजा ने कन्या का परिचय पूछा, पर उसने कहा-'पहले मेरे साथ विवाह करो, फिर मैं अपना सारा वृत्तांत तुम्हें बताऊंगी।' राजा ने उसके साथ विवाह किया। कन्या का नाम कनकमाला था। रात बीती । प्रातःकाल कन्या ने कथा सुनाई। राजा ने दत्तचित्त हो कथा सुनी। उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया । वह एक महीने तक वहीं रहा। एक दिन उसने कनकमाला से कहा- 'प्रिये ! शत्रुवर्ग कहीं मेरे राज्य का नाश न कर दे, इसलिए अब मुझे वहां जाना चाहिए। तू मुझे आज्ञा दे।' कनकमाला ने कहा- 'जैसी आपकी आज्ञा ! परन्तु आपका नगर यहां से दूर है। आप २. ३. ४. विस्तार के लिए देखें- सुखबोधा, पत्र १३५-१४१ । सुखबोधा, पत्र १३६-१४५ । बौद्ध जातक (सं० ४४८) में नग्गजी और शतपथ ब्राह्मण ( ८1918190) में नग्नजित् नाम है। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजयीय ३०१ अध्ययन १८ : श्लोक ४५-५२ टि० २६-३३ पैदल कैसे चल सकेंगे? मेरे पास प्रज्ञप्ति विद्या है। आप इसे था जयंती। उसके पुत्र का नाम था नन्दन। वह सातवां बलदेव साध लें। राजा ने विद्या की साधना की। विद्या सिद्ध होने पर था। उसका छोटा भाई शेषवती का पुत्र दत्त वासुदेव था। उसके प्रभाव से वह अपने नगर पहुंच गया। सुखबोधा के इस मंतव्य का कोई प्राचीन आधार ज्ञात नहीं राजा को प्राप्त कर लोगों ने महोत्सव मनाया। सामंतों ने है। राजा से पूर्व वृत्तांत पूछा। राजा ने सारी बात बताई। सब डॉ० हर्मन जेकोबी ने फुटनोट में इस मत को उद्धृत आश्चर्य से भर गए। किया है। राजा पांच-पांच दिनों से उसी पर्वत पर कनकमाला से ३०. सिर देकर सिर (मोक्ष) को (सिरसा सिरं) मिलने जाया करता था। वह कुछ दिन उसके साथ बिता कर सिरसा'—सिर दिए बिना अर्थात् जीवन-निरपेक्ष हुए अपने नगर को लीट आता। इस प्रकार काल बीतने लगा। लोग बिना साध्य की उपलब्धि नहीं होती। 'सिरसा'-इस शब्द में कहते राजा 'नग' अर्थात् पर्वत पर है। उसके बाद उसका 'इष्टं साधयामि पातयामि वा शरीरम' की प्रतिध्वनि है।। नाम 'नग्गति' पड़ा। शान्त्याचार्य ने इसके साथ में 'इव' और जोड़ा है। एक दिन राजा भ्रमण करने निकला। उसने एक पुष्पित 'सिर'-शरीर में सबसे ऊंचा स्थान सिर का है। लोक में आम्र वृक्ष देखा। एक मञ्जरी को तोड़ वह आगे निकला। साथ सबसे ऊंचा मोक्ष है। इसी समानता से सिर-स्थानीय मोक्ष को वाले सभी व्यक्तियों ने मञ्जरी, पत्र, प्रवाल, पुष्प, फल आदि 'सिर' कहा है। सारे तोड डाले। आम्र का वृक्ष अब केवल ढूंठ मात्र रह गया। ३१. (श्लोक ३४-५०) राजा पुनः उसी मार्ग से लौटा। उसने पूछा---'वह आम्र-वृक्ष इन सतरह श्लोकों में जिनशासन में दीक्षित होने वाले कहां है। मंत्री ने अंगुली के इशारे से उस लूंठ की ओर संकेत राजाओं की तालिका दी गई है। इनमें दस चक्रवर्ती और शेष नौ किया। राजा आम की उस अवस्था को देख अवाक् रह गया। माण्डलिक राजे हैंउसे कारण ज्ञात हुआ। उसने सोचा-'जहां ऋद्धि है, वहां चक्रवर्ती शोभा है परन्तु ऋद्धि स्वभावतः चंचल होती है।' इन विचारों से १. भरत १. दशार्णभद्र वह संबुद्ध हो गया। २. सगर २. करकण्डु २९. श्वेत (सेओ) ३. मघवा ३. द्विमुख प्रस्तुत श्लोक में आया हुआ 'सेओ' (श्वेत) काशीमंडल के ४. सनत्कुमार ४. नमिराज अधिपति का नाम है। स्थानांग सूत्र में यह उल्लेख है कि ५. शांतिनाथ ५. नग्गति भगवान महावीर ने आठ राजाओं को प्रव्रजित किया था। उनमें एक 'सेय' (श्वेत) नाम का राजा था। स्थानांग की टीका में उसे ६. कुन्थु ६. उद्रायण ७. अर ७. श्वेत आमलकल्पा नगरी का राजा बतलाया गया है। उसकी रानी का नाम धारणी था। एक बार भगवान महावीर जब आमलकल्पा ८. महापद्म ८. विजय नगरी में आए तब राजा-रानी—दोनों प्रवचन सुनने गए और ६. हरिषेण ६. महाबल प्रव्रजित हो गए। स्थानांग के आधार पर काशीराज का नाम १०. जय श्वेत था, यह संभावना की जा सकती है। ३२. अहेतुवादों के द्वारा (अहेऊहिं) उत्तराध्ययन की बृहद्वृत्ति में 'सेओ' का अर्थ श्रेयस् बृहद्वृत्ति में अहेतु का अर्थ कुहेतु किया गया है। जो अतिप्रशस्य किया है। डॉ० हर्मन जेकोबी ने भी इसका अपने साध्य की सिद्धि करने में सक्षम होता है वह साधन अनुसरण कर सेय का अनुवाद Best किया है और इसे सत्य अथवा हेतु कहलाता है। एकांतदृष्टि वाले जितने विचार हैं वे का विशेषण माना है। अपने साध्य की सिद्धि करने में सफल नहीं होते, इसलिए सुखबोधा में काशीराज का परिचय सातवें बलदेव नन्दन एकांतवादी दृष्टिकोण को अहेतु कहा जा सकता है। के रूप में दिया गया है। उनका जीवनवृत्त इस प्रकार है- ३३. अत्यन्त युक्तियुक्त (अच्चंतनियाणखमा) वाराणसी नगरी में अग्निशिख राजा था। उसकी रानी का नाम शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ किए हैं १. सुखबोधा, पत्र १४१-१४५। २. ठाणं, ८१४१ ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०८। ४. बृहवृत्ति, पत्र ४४८ : श्रेयसि-अतिप्रशस्ये। ५. जैनसूत्राज, उत्तराध्ययन : १८४६, पृ० ८७। ६. सुखबोधा, पत्र २५५ । ७. जैनसूत्राज, उत्तराध्ययन : १८४६, पृ० ८७, फुट नोट ४ । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४६ : शिरसेव-शिरसा शिरःप्रदानेनेव जीवितनिरपेक्षमिति। ६. वही, पत्र ४४७ : "शिरं' ति शिर इव शिरः सर्वजगदुपरिवर्तितया मोक्षः। १०. वही, पत्र ४४६ : अहेतुभिः क्रियावाद्यादिपरिकल्पितकुहेतुभिः । Jain Education Intemational Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३०२ अध्ययन १८ : श्लोक ५३ टि० ३४, ३५ (१) अतिशय निदान (हेतु) युक्त। (२) अतिशय निदान (कर्ममल शोधन) में क्षम।' चूर्णिकार ने 'अनियाणखम' पद मानकर अनिदान का अर्थ अबंध किया है। ३४. संगों से (संग) जिससे कर्म का बंधन होता है, उसे 'संग' कहते हैं। वह दो प्रकार का है-द्रव्यसंग और भावसंग। द्रव्यतः संग पदार्थ होते हैं और भावतः संग होते हैं एकांतवादी दर्शन। ३५. (श्लोक २०-५३) इन चौंतीस श्लोकों में क्षत्रिय और राजर्षि संजय के बीच हए वार्तालाप का संकलन है। क्षत्रिय ने बिना पूछे ही अपना परिचय दिया और फिर अनेक राजाओं के उदाहरणों से संजय को समझाया। अन्त में क्षत्रिय वहां से चलकर अपने विवक्षित स्थान पर आ गए। राजर्षि संजय तप के आचरण द्वारा आस्रवों को क्षीण कर मुक्त हो गए। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४६ : अतिशयेन निदानैः-कारणैः, कोऽर्थः?- हेतुभिर्न तु परप्रत्ययेनेव, क्षमा-युक्ताऽत्यन्तनिदानक्षमा, यद्वा निदानं--- कर्ममलशोधनं तस्मिन् क्षमाः-समर्थाः । २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २५०। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४४६-४५० : सजन्ति कर्मणा संबध्यन्ते जन्तव एभिरिति संगाः-द्रव्यतो द्रविणादयो भावतस्तु मिथ्यात्वरूपत्वादेत एव क्रियादिवादाः । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५० : इत्थं तमनुशास्य गतो विवक्षितं स्थानं क्षत्रियः । ५. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ४०४ : काऊण तवच्चरणं बहूणि वासाणि सो धुयकिलेसो। तं ठाणं संपत्तो जं संपत्ता न सोयंति।। Jain Education Intemational Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणविंसइमं अज्झयणं मियापुत्तिज्जं उन्नीसवां अध्ययन मृगापुत्रीय Jain Education Intemational Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्युक्तिकार के अनुसार इस अध्ययन का नाम 'मिगपुत्तिज्जं ' —– 'मृगापुत्रीय' है । मृगा रानी के पुत्र से यह अध्ययन समुत्पन्न है, इसलिए इसका नाम 'मृगापुत्रीय' रखा गया है।' समवायांग के अनुसार इसका नाम 'मियचारिया' 'मृगचारिका' है।' यह नामकरण प्रतिपाद्य के आधार पर है । सुग्रीव नगर में बलभद्र नाम का राजा राज्य करता था । उसकी पटरानी का नाम मृगावती था। उसके एक पुत्र था । माता-पिता ने उसका नाम बलश्री रखा। वह लोक में मृगापुत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ। युवा हुआ। पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ । एक बार वह अपनी पत्नियों के साथ प्रासाद के झरोखे में बैठा हुआ क्रीड़ा कर रहा था। मार्ग में लोग आ जा रहे थे । स्थान-स्थान पर नृत्य संगीत की मण्डलियां आयोजित थीं । एकाएक उसकी दृष्टि राजमार्ग पर मन्द गति से चलते हुए निर्ग्रन्थ पर जा टिकी। मुनि के तेजोदीप्त ललाट, चमकते हुए नेत्रों तथा तपस्या से कृश शरीर को वह अनिमेषदृष्टि से देखता रहा । मन आलोकित हुआ । चिन्तन तीव्र हुआ। उसने सोचा“ अन्यत्र भी मैंने ऐसा रूप देखा है।” इन विचारों में वह लीन हुआ और उसे जाति-स्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। पूर्व जन्म की सारी घटनाएं प्रत्यक्ष हो गईं। उसने जान लिया कि पूर्व-भव में वह श्रमण था। इस अनुभूति से उसका मन वैराग्य से भर गया । वह अपने माता-पिता के पास आया और बोला- “ तात ! मैं प्रव्रज्या लेना चाहता हूं। शरीर अनित्य है, अशुचिमय है, दुःख और क्लेशों का भाजन है। मुझे इसमें कोई रस नहीं है। जिसे आज या कल छोड़ना ही होगा, उसे मैं अभी छोड़ देना चाहता हूं। संसार में दुःख ही दुःख है। जन्म दुःख है, मरण दुःख है, जरा दुःख है। सारे भोग आपात भद्र और परिणाम - विरस हैं।" (श्लोक ६-१५) माता-पिता ने उसे समझाया और श्रामण्य की कठोरता और उसकी दुश्चरता का दिग्दर्शन कराया। उन्होंने कहा “पुत्र ! श्रामण्य दुश्चर है। मुनि को हजारों गुण धारण करने होते हैं। उसे जीवन भर प्राणातिपात से विरति करनी होती है। इसी प्रकार मृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का विवर्जन करना होता है। रात्रि-भोजन का सर्वथा त्याग अत्यन्त 9. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ४०८ : मिगदेवीपुत्ताओ, बलसिरिनामा समुट्टियं जम्हा । तम्हा मिगपुत्तिज्जं, अज्झयणं होइ नायव्वं ।। आमुख - कठिन है । अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं ।" “भिक्षाचर्या दुःखप्रद होती है । याचना और अलाभ- दोनों को सहना दुष्कर है । साधु को कुक्षि-संबल होना पड़ता है।" “तुम सुकोमल हो, श्रामण्य अत्यन्त कठोर है। तुम उसका पालन नहीं कर सकोगे। दूसरी बात है कि यह श्रामण्य यावज्जीवन का होता है। इसमें अवधि नहीं होती । श्रामण्य बालुका- कवल की तरह निःस्वाद और असि धारा की तरह दुश्चर है। इसका पालन करना लोहे के यव चबाने जैसा है।” ( श्लोक २४-३८) इस प्रकार मृगापुत्र और उसके माता-पिता के बीच सुन्दर संवाद चलता है। माता-पिता उसे भोग की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं और वह साधना की ओर अग्रसर होना चाहता है। माता-पिता ने श्रामण्य को जिन उपमाओं से उपमित किया है वे संयम की गुरुता और दुष्करता को प्रमाणित करती हैं। मृगापुत्र का आत्म-विश्वास मूर्त हो जाता है और वह इन सबको आत्मसात् करने के लिए अपने आपको योग्य बताता है। अन्त में माता-पिता कहते हैं- “ वत्स ! जो कुछ तू कहता है वह सत्य है परंतु श्रामण्य का सबसे बड़ा दुख हैनिष्प्रति-कर्मता अर्थात् रोग की चिकित्सा न करना।” (श्लोक ७५) मृगापुत्र ने कहा – “ तात ! अरण्य में बसने वाले मृग आदि पशुओं तथा पक्षियों की कौन चिकित्सा करता है ? कौन उनको औषधि देता है ? कौन उनकी सुख-पृच्छा करता है ? कौन उनको भक्त-पान देता है ? मैं भी उन्हीं की भांति रहूंगा मृगचारिका से अपना जीवन बिताऊंगा।” (श्लोक ७६-८५) माता-पिता ने मृगापुत्र की बातें सुनी। उसकी संयम-ग्रहण की दृढ़ता से पराभूत हो उन्होंने प्रव्रज्या की आज्ञा दे दी । मृगापुत्र मुनि बन गया। उसने पवित्रता से श्रामण्य का पालन किया और अन्त में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गया। २. समवाओ, समवाय ३६ । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणविंसइमं अज्झयणं : उन्नीसवां अध्ययन मियापुत्तिज्जं : मृगापुत्रीय हिन्दी अनुवाद कानन और उद्यान' से शोभित सुरम्य सुग्रीव नगर में बलभद्र राजा था। मृगा उसकी पटरानी थी। उनके 'बलश्री'२ नाम का पुत्र था। जनता में वह 'मृगापुत्र' इस नाम से विश्रुत था। वह माता-पिता को प्रिय, युवराज और दमीश्वर' था। वह दोगुन्दग' देवों की भांति सदा प्रमुदित-मन रहता हुआ आनन्द लेने वाले प्रासाद में स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहा था। १. सुग्गीवे नयरे रम्मे काणणुज्जाणसोहिए। राया बलभद्दो त्ति मिया तस्सग्गमाहिसी। २. तेसिं पुत्ते बलसिरी मियापुत्ते त्ति विस्सुए। अम्मापिऊण दइए जुवराया दमीसरे।। ३. नंदणे सो उ पासाए कीलए सह इत्थिहिं। देवो दोगुंदगो चेव निच्चं मुइयमाणसो।। ४. मणिरयणकुट्टिमतले पासायालोयणट्ठिओ। आलोएइ नगरस्स चउक्कतियचच्चरे।। ५. अह तत्थ अइच्छंतं पासई समणसंजयं। तवनियमसंजमधरं सीलड्ढं गुणआगरं।। ६. तं देहई मियापुत्ते दिट्ठीए अणिमिसाए उ। कहिं मन्नेरिसं रूवं दिट्ठपुव्वं मए पुरा।। ७. साहुस्स दरिसणे तस्स अज्झवसाणम्मि सोहणे। मोहंगयस्स संतस्स जाईसरणं समुप्पन्नं।। संस्कृत छाया सुग्रीवे नगरे रम्ये काननोद्यानशोभिते। राजा बलभद्र इति मृगा तस्याग्रमहिषी।। तयोः पुत्रो बलश्रीः मृगापुत्र इति विश्रुतः। अम्बापित्रोदयितः युवराजो दमीश्वरः।। नन्दने स तु प्रासादे क्रीडति सह स्त्रीभिः। देवो दोगुन्दकश्चेव नित्यं मुदितमानसः।। मणिरत्नकुट्टिमतले प्रासादालोकनस्थितः। आलोकते नगरस्य चतुष्कत्रिकचत्वराणि।। अथ तत्रातिक्रामन्त पश्यति श्रमणसंयतम्। तपोनियमसंयमधरं शीलाढ्यं गुणाकरम्।। तं पश्यति मृगापुत्रः दृष्ट्याऽनिमेषया तु। कुत्र मन्ये ईदृशं रूपं दृष्टपूर्वं मया पुरा।। साधोर्दर्शने तस्य अध्यवसाने शोभने। मोहं गतस्य शान्तस्य जातिस्मरणं समुत्पन्नम्।। मणि और रत्न से जड़ित फर्श वाले प्रासाद के गवाक्ष में बैठा हुआ मृगापुत्र नगर के चौराहों, तिराहों और चौहट्टों को देख रहा था। उसने वहां जाते हुए एक संयत श्रमण को देखा, जो तप, नियम और संयम को धारण करने वाला, शील से समृद्ध और गुणों का आकर था। मृगापुत्र ने उसे अनिमेष-दृष्टि से देखा और मन ही मन चिन्तन करने लगा-“मैं मानता हूं कि ऐसा रूप मैंने पहले कहीं देखा है।" साधु के दर्शन और अध्यवसाय पवित्र होने पर “मैंने ऐसा कहीं देखा है"-इस विषय में सम्मोहित हो गया, चित्तवृत्ति सघनरूप में एकाग्र हो गई" और विकल्प शांत हो गए। इस अवस्था में उसे जाति स्मरण-पूर्व-जन्म की स्मृति हो आई। Jain Education Intemational Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. वित उत्तरज्झयणाणि ३०६ अध्ययन १६ : श्लोक ८-१५ (देवलोग चुओ संतो (देवलोकच्युतः सन् (देवलोक से च्युत हो मनुष्य-जन्म में आया। माणुसं भवमागओ। मानुषं भवमागतः। समनस्क-ज्ञान उत्पन्न हुआ। तब पूर्व-जन्म की सन्निनाणे समुप्पण्णे संज्ञिज्ञाने समुत्पन्ने स्मृति हुई।) जाइं सरइ पुराणयं ।।) जातिं स्मरति पौराणिकीम् ।।) जाईसरणे समुप्पन्ने जातिस्मरणे समुत्पन्ने जाति-स्मृति ज्ञान उत्पन्न होने पर महर्द्धिक मृगापुत्र मियापुत्ते महिड्ढिए। मृगापुत्रो महर्द्धिकः। को पूर्व-जन्म और पूर्व-कृत श्रामण्य की स्मृति हो सरई पोराणियं जाई स्मरति पौराणिकी जाति आई। सामण्णं च पुराकयं।। श्रामण्यं च पुराकृतम् ।। विसएहि अरज्जंतो विषयेष्वरज्यन् अब विषयों में उसकी आसक्ति नहीं रही। वह संयम रज्जंतो संजमम्मि य। रज्यन् संयमे च। में अनुरक्त हो गया। माता-पिता के समीप आ अम्मापियरं उवागम्म अम्बापितरावुपागम्य उसने इस प्रकार कहाइमं वयणमब्बवी।। इदं वचनमब्रवीत्।। १०. सुयाणि मे पंच महव्वयाणि श्रुतानि मया पंच महाव्रतानि “मैंने पांच महाव्रतों को सुना है। नरक और तिर्यंच नरएसु दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु। नरकेषु दुःखं च तिर्यग्योनिषु। योनियों में दुःख है। मैं संसार-समुद्र से निर्विण्ण-काम निविण्णकामो मि महण्णवाओ निर्विणकामोऽस्मि महार्णवात् (विरक्त) हो गया हूं। मैं प्रव्रजित होऊंगा। माता ! अणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मो!।। अनुजानीत प्रव्रजिष्यामि अम्ब!|| मुझे आप अनुज्ञा दें।" ११. अम्मताय ! मए भोगा अम्ब-तात! मया भोगाः "माता-पिता ! मैं भोगों को भोग चुका हूं। ये भोग भुत्ता विसफलोवमा। भुक्ता विषफलोपमाः। विष-तुल्य हैं, इनका परिणाम कटु होता है और ये पच्छा कडुयविवागा पश्चात् कटुकविपाकाः निरन्तर दुःख देने वाले हैं।"१२ अणुबंधदुहावहा।। अनुबन्धदुःखावहाः।। १२. इमं सरीरं अणिच्चं इदं शरीरमनित्यं “यह शरीर अनित्य है, अशुचि है, अशुचि से असुई असुइसंभवं। अशुच्यशुचिसंभवम् । उत्पन्न है, आत्मा का यह अशाश्वत आवास है तथा असासयावासमिणं अशाश्वतावासमिदं दुःख और क्लेशों का भाजन है।" दुक्खकेसाण भायणं ।। दुःखक्लेशानां भाजनम् ।। १३. असासए सरीरम्मि अशाश्वते शरीरे “इस अशाश्वत-शरीर में मुझे आनन्द नहीं मिल रई नोवलभामहं। रतिं नोपलभेऽहम्। रहा है। इसे पहले या पीछे जब कभी छोड़ना है। पच्छा पुरा व चइयव्वे पश्चात् पुरा वा त्यक्तव्ये यह पानी के बुलबुले के समान नश्वर है।" फेणबुब्बुयसन्निभे।। फेनबुदबुदसन्निभे।। १४. माणुसत्ते असारम्मि मानुषत्वे असारे “मनुष्य-जीवन असार है, व्याधि और रोगों का" वाहीरोगाण आलए। व्याधिरोगाणामालये। घर है, जरा और मरण से ग्रस्त है। इसमें मुझे एक जरामरणपत्थम्मि जरामरणग्रस्ते क्षण भी आनन्द नहीं मिल रहा है।" खणं पि न रमामहं।। क्षणमपि न रमेऽहम् ।। १५. जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं जन्म दुःखं जरा दुःखं “जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और रोगा य मरणाणि य। रोगाश्च मरणानि च। मृत्यु दुःख है। अहो! संसार दुःख ही है, जिसमें अहो दुक्खो हु संसारो अहो दुःखं खलु संसारः जीव क्लेश पा रहे हैं।" जत्थ कीसंति जंतवो।। यत्र क्लिश्यन्ति जन्तवः।। Jain Education Intemational Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगापुत्रीय १६. खेत्तं वत्युं हिरण्णं च पुत्तदारं च बंधवा । चइत्ताणं इमं देहं गंतव्यमवसस्स मे॥ १७. जहा किंपागफलाणं परिणामो न सुंदरी । एवं भुत्ताण भोगाणं परिणामो न सुंदरी ।। १८. अयाण जो महंतं तु अपाहेओ पवज्जई। गच्छंतो सो दुही होई मुहातण्हाए पीडिओ ।। १६. एवं धम्मं अकाऊ‍ जो गच्छइ परं भवं । गच्छंतो सो दुही होइ वाहीरोगेहिं पीडिओ ।। २०. अाणं जो महंतं तु सपाहेओ पवज्जई। गच्छतो सो सुही होइ मुहातण्हाविवज्जिओ ।। २१. एवं धम्मं पि काऊणं जो गच्छइ परं भवं । गच्छंतो सो सुही होइ अप्पकम्मे अवेयणे ।। २२. जहा गेहे पलित्तम्मि तस्स गेहस्स जो पहू । सारभंडाणि नीणेइ असारं अवउज्झइ । २३. एवं लोए पलित्तम्मि जराए मरणेण य । अप्पार्ण तारइस्सामि तुमेहिं अणुमन्निओ ।। २४. तं बिंतम्मापियरो सामण्णं पुत्त दुच्चरं । गुणाणं तु सहस्साइं धारेयव्वाइं भिक्खुणो ।। ३०७ क्षेत्रं वास्तु हिरण्यं च पुत्रदारांश्च धान्यवान् । त्वक्लेम देह गन्तव्यमवशस्य मे ॥ यथा किम्पाकफलानां परिणामो न सुन्दरः । एवं मुक्तानां भोगानां परिणामो न सुन्दरः ।। अध्वानं यो महान्तं तु अपाथेयः प्रव्रजति । गच्छन्स दुःखी भवति क्षुधातृष्णया पीडितः ।। एवं धर्ममकृत्वा यो गच्छति परं भवम् । गच्छन् स दुःखी भवति व्याधिरोगैः पीडितः ।। अध्वानं यो महान्तं तु सपाथेयः प्रव्रजति गच्छन् स सुखी भवति सुधातृष्णाविवर्जितः । एवं धर्ममपि कृत्वा यो गच्छति परं भवम् । गच्छन् स सुखी भवति अल्पकर्मा ऽवेदनः ।। यथा गेहे प्रदीप्ते तस्य गेहस्य यः प्रभुः । सारभाण्डानि गमयति असारमपोज्झति । एवं लोके प्रदीप्ते जरया मरणेन च । आत्मानं तारयिष्यामि युष्माभिरनुमतः ।। तं ब्रूतोऽम्बापितरौ श्रामण्यं पुत्र ! दुश्चरम् । गुणानां तु सहस्वाणि धारयितव्यानि भिक्षोः ।। अध्ययन १६ : श्लोक १६-२४ “भूमि, घर, सोना, पुत्र, स्त्री, बान्धव और इस शरीर को छोड़कर मुझे अवश हो चले जाना है।” "जिस प्रकार किम्पाक फल खाने का परिणाम सुन्दर नहीं होता उसी प्रकार भोगे हुए भोगों का परिणाम भी सुन्दर नहीं होता।" “जो मनुष्य लम्बा मार्ग लेता है और साथ में सम्बल नहीं लेता, वह भूख और प्यास से पीड़ित होकर चलता हुआ दुःखी होता है।” “इसी प्रकार जो मनुष्य धर्म किए बिना परभव में जाता है वह व्याधि और रोग से पीड़ित होकर जीवन-यापन करता हुआ दुःखी होता है।” “जो मनुष्य लम्बा मार्ग लेता है, किन्तु सम्बल के साथ, वह भूख-प्यास से रहित हो कर चलता हुआ सुखी होता है । " “इसी प्रकार जो मनुष्य धर्म की आराधना कर परभव में जाता है, वह अल्पकर्म वाला और वेदना रहित होकर जीवन-यापन करता हुआ सुखी होता है ।" " जैसे घर में आग लग जाने पर उस घर का जो स्वामी होता है, वह मूल्यवान वस्तुओं को उसमें से निकालता है और मूल्यहीन वस्तुओं को वहीं छोड़ देता है।" “इसी प्रकार यह लोक जरा और मृत्यु से प्रज्वलित हो रहा है। मैं आपकी आज्ञा पाकर उसमें से अपने आपको निकालूंगा !" माता-पिता ने उससे कहा – “पुत्र ! श्रामण्य का आचरण बहुत कठिन है । भिक्षु को हजारों गुण‍ धारण करने होते हैं।" Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३०८ अध्ययन १६ : श्लोक २५-३३ "विश्व के शत्रु और मित्र सभी जीवों के प्रति समभाव रखना और यावज्जीवन प्राणातिपात की विरति करना बहुत ही कठिन कार्य है।" "सदा अप्रमत्त रह कर मृषावाद का वर्जन करना और सतत सावधान रह कर हितकारी सत्य वचन बोलना बहुत ही कठिन कार्य है।" "दतौन जितना वस्तुखंड भी बिना दिए न लेना और ऐसी दत्त वस्तु भी वही लेना, जो अनवद्य और एषणीय हो-बहुत ही कठिन कार्य है।" “काम-भोग का रस जानने वाले व्यक्ति के लिए अब्रह्मचर्य की विरति करना और उग्र ब्रह्मचर्य महाव्रत को धारण करना बहुत ही कठिन कार्य है।" २५.समया सव्वभूएसु सत्तुमित्तेसु वा जगे। पाणाइवायविरई जावज्जीवाए दुक्करा।। २६.निच्चकालऽप्पकत्तेणं मुसावायविवज्जणं। भासियव्वं हियं सच्चं निच्चाउत्तेण दुक्करं।। २७.दंतसोहणमाइस्स अदत्तस्स विवज्जणं। अणवज्जेसणिज्जस्स गेण्हणा अवि दुक्करं।। २८.विरई अबंभचेरस्स कामभोगरसन्नुणा। उग्गं महब्वयं बंभ धारेयव्वं सुदुक्करं।। २६.घणधन्नपेसवग्गेसु परिग्गहविवज्जणं। सव्वारंभपरिच्चाओ निम्ममत्तं सुदुक्करं।। ३०.चउविहे वि आहारे राईभोयणवज्जणा। सन्निहीसंचओ चेव वजजेयव्वो सुदुक्करो।। ३१.छुहा तण्हा य सोउण्हं दंसमसगवेयणा। अक्कोसा दुक्खसेज्जा य तणफासा जल्लमेव य॥ ३२. तालणा तज्जणा चेव वहबंधपरीसहा। दुक्खं भिक्खायरिया जायणा य अलाभया।। ३३. कावोया जा इमा वित्ती केसलोओ य दारुणो। दुक्खं बंभवयं घोरं धारेउं अ महप्पणो।। समता सर्वभूतेषु शत्रुमित्रेषु वा जगति। प्राणातिपातविरतिः यावज्जीवं दुष्करा।। नित्यकालाप्रमत्तेन मृषावादविवर्जनम्। भाषितव्यं हितं सत्यं नित्यायुक्तेन दुष्करम्।। दन्तशोधनमात्रस्य अदत्तस्य विवर्जनम्। अनवद्यैषणीयस्य ग्रहणमपि दुष्करम् ।। विरतिरब्रह्मचर्यस्य कामभोगरसज्ञेन। उग्रं महाव्रतं ब्रह्म धारयितव्यं सुदुष्करम् ।। धनधान्यप्रेष्यवर्गेषु परिग्रहविवर्जनम्। सर्वारम्भपरित्यागः निर्ममत्वं सुदुष्करम्।। चतुर्विधेऽप्याहारे रात्रिभोजनवर्जनम्। सन्निधिसंचयश्चैव वर्जयितव्यः सुदुष्करः।। क्षुधा तृषा च शीतोष्णं दंशमशकवेदना। आक्रोशा दुःखशय्या च तृणस्पर्शा 'जल्ल' मेव च।। ताडना तर्जना चैव वधबन्धौ परीषहौ। दुःख भिक्षाचर्या याचना चालाभता।। कापोती येयं वृत्तिः केशलोचश्च दारुणः। दुःखं ब्रह्मव्रतं घोरं धारयितुं च महात्मनः।। “धन-धान्य' और प्रेष्य-वर्ग के परिग्रहण२० का वर्जन करना, सब आरम्भों (द्रव्य की उत्पत्ति के व्यापारों) और ममत्व का त्याग करना बहुत ही कठिन कार्य है।" “चतुर्विध आहार को रात में खाने का त्याग करना तथा सन्निधि और संचय का वर्जन करना बहुत ही कठिन कार्य है।" "भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, डांस और मच्छरों का कष्ट, आक्रोश-वचन, कष्टप्रद उपाश्रय, घास का बिछौना, मैल, ताड़ना, तर्जना, बध, बन्धन" का कष्ट, भिक्षा-चर्या, याचना और अलाभ-इन्हें सहन करना बहुत ही कठिन कार्य है।" “यह जो कापोती-वृत्ति२२ (कबूतर के समान दोष-भीरु वृत्ति), दारुण केश-लोच और घोर ब्रह्मचर्य को धारण करना है, वह महान् आत्माओं के लिए भी दुष्कर है।" Jain Education Intemational Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगापुत्रीय ३०९ अध्ययन १६ : श्लोक ३४-४२ "पुत्र ! तू सुख भोगने योग्य है, सुकुमार है, साफ-सुथरा रहने वाला है।५ पुत्र! तू श्रामण्य का पालन करने के लिए समर्थ नहीं है।" "पुत्र ! श्रामण्य में जीवन पर्यन्त विश्राम नहीं है। यह गुणों का महान् भार है। भारी भरकम लोह-भार की भांति इसे उठाना बहुत ही कठिन है।" “आकाश-गंगा के स्त्रोत,२६ प्रति-स्त्रोत और भुजाओं से सागर को तैरना जैसे कठिन कार्य है वैसे ही गुणोदधि-संयम को तैरना कठिन कार्य है।" “संयम बालू के कोर की तरह स्वाद-रहित है। तप का आचरण करना तलवार की धार पर चलने जैसा ३४.सुहोइओ तुमं पुत्ता! सुकुमालो समुज्जिओ। न हु सी पभू तुमं पुत्ता! सामण्णमणुपालिउं।। ३५. जावज्जीवमविस्सामो गुणाणं तु महाभरो। गुरुओ लोहमारो व जो पुत्ता! होइ दुब्वहो।। ३६.आगासे गंगसोउ व्व पडिसोओ ब्व दुत्तरो। बाहाहिं सागरो चेव तरियव्वो गुणोयही।। ३७.वालुयाकवले चेव निरस्साए उ संजमे। असिधारागमणं चेव दुक्करं चरित्रं तवो।। ३८.अहीवेगंतदिट्ठीए चरित्ते पुत्त! दुच्चरे। जवा लोहमया चेव चावेयव्वा सुदुक्करं।। ३६.जहा अग्गिसिहा दित्ता पाउं होइ सुदुक्करं। तह दुक्करं करेउं जे तारूण्णे समणत्तणं।। ४०.जहा दुक्खं भरेउं जे होइ वायस्स कोत्थलो। तहा दुक्खं करेऊ जे कीवेणं समणत्तणं।। ४१. जहा तुलाए तोलेउं दुक्करं मंदरो गिरी। तहा निहुयं नीसंकं दुक्करं समणत्तणं।। ४२.जहा भुयाहिं तरिउं दुक्करं रयणागरो। तहा अणुवसंतेणं दुक्करं दमसागरो।। सुखोचितस्त्वं पुत्र! सुकुमारश्च सुमज्जितः। न खलु असि प्रभुस्त्वं पुत्र! श्रामण्यमनुपालयितुम् ।। यावज्जीवमविश्रामः गुणानां तु महाभरः। गुरुको लोहभार इव यः पुत्र ! भवति दुर्वहः।। आकाशे गंगास्त्रोत इव प्रतिस्पेत इव दुस्तरः। बाहुभ्यां सागरश्चैव तरितव्यो गुणोदधिः।। बालुकाकवलश्चैव निरास्वादस्तु संयमः। असिधारागमनं चेव दुष्करं चरितुं तपः।। अहिरिवैकान्तदृष्टिकः चारित्रं पुत्र! दुश्चरम्। यवा लोहमयाश्चैव चर्वयितव्या सुदुष्करम् ।। यथाग्निशिखा दीप्ता पातुं भवति सुदुष्करम् । तथा दुष्करं कर्तुं 'जे' तारुण्ये श्रमणत्वम् ।। यथा दुःखं भर्तुं 'जे' भवति वातस्य 'कोत्थलो'। तथा दुष्करं कर्तुं 'जे' क्लीवेन श्रमणत्वम् ।। यथा तुलया तोलयितुं दुष्करं मन्दरो गिरिः। तथा निभृतं निःशड़कं दुष्करं श्रमणत्वम् ।। यथा भुजाभ्यां तरितुं दुष्करं रत्नाकरः। तथाऽनुपशान्तेन दुष्करं दमसागरः।। "पुत्र ! सांप जेसे एकाग्रदृष्टि से चलता है, वैसे एकाग्रदृष्टि से चारित्र का पालन करना बहुत ही कठिन कार्य है। लोहे के यवों को चबाना जैसे कठिन है वैसे ही चारित्र का पालना कठिन है।" "जैसे प्रज्वलित अग्नि-शिखा को पीना बहुत ही कठिन कार्य है वैसे ही यौवन में श्रमण-धर्म का पालन करना कठिन है।" “जैसे वस्त्र के थैले को हवा से भरना कठिन कार्य है वैसे ही सत्वहीन व्यक्ति के लिए श्रमण-धर्म का पालन करना कठिन कार्य है।" “जैसे मेरु-पर्वत को तराजू से तौलना बहुत ही कठिन कार्य है वैसे ही निश्चल और निर्भय भाव से श्रमण-धर्म का पालन करना बहुत ही कठिन कार्य है।" "जैसे समुद्र को भुजाओं से तैरना बहुत ही कठिन कार्य है, वैसे ही उपशमहीन व्यक्ति के लिए दमरूपी समुद्र को तैरना बहुत ही कठिन कार्य है।" Jain Education Intemational Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३१० अध्ययन १६ : श्लोक ४३-५१ "पुत्र ! तू मनुष्य सम्बन्धी पांच इन्द्रियों के भोगों का भोग कर। फिर भुक्त-भोगी होकर मुनि-धर्म का आचरण करना।" मृगापुत्र ने कहा--"माता-पिता ! जो आपने कहा वह सही है किन्तु जिस व्यक्ति की ऐहिक सुखों की प्यास बुझ चुकी है उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं “मैंने भयंकर शारीरिक और मानसिक वेदनाओं को अनन्त बार सहा है और अनेक बार दुःख एवं भय का अनुभव किया है।" ४३. मुंज माणुस्सए भोगे पंचलक्खणए तुम। भुत्तभोगी तओ जाया! पच्छा धम्मं चरिस्ससि।। ४४.तं बिंतम्मापियरो एवमेयं जहा फुडं। इह लोए निप्पिवासस्स नत्थि किंचि वि दुक्करं।। ४५.सारीरमाणसा चेव वेयणाओ अणंतसो। मए सोढाओ भीमाओ असई दुक्खभयाणि य।। ४६.जरामरणकंतारे चाउरते भयागरे। मए सोढाणि भीमाणि जम्माणि मरणाणि य।। ४७.जहा इहं अगणी उण्हो एत्तोणतगुणे तहिं। नरएसु वेयणा उण्हा अस्साया वेइया मए।। ४८.जहा इमं इहं सीयं एत्तोणंतगुणं तहिं। नरएसु वेयणा सीया अस्साया वेइया मए।। ४६.कंदंतो कंदुकुंभीसु उड्ढपाओ अहोसिरो। हुयासणे जलंतम्मि पक्कपुवो अणंतसो।। ५०.महादवग्गिसंकासे मरुम्मि वइरवालुए। कलंबवालुयाए य दड्ढपुवो अणंतसो।। ५१. रसंतो कंदुकुंभीसु उड्ढे बद्धो अबंधवो। करवत्तकरकयाईहिं छिन्नपुचो अणंतसो।। भुक्ष्व मानुष्यकान् भोगान् पंचलक्षणकान् त्वम्। भुक्तभोगी ततो जात! पश्चाद् धर्मं चरेः।। तद् ब्रूतो अम्बापितरौ एवमेतद् यथास्फुटमा इह लोके निष्पिपासस्य नास्ति किंचिदपि दुष्करम् । शारीरमानस्यश्चैव वेदनास्तु अनन्तशः। मया सोढा भीमाः असकृद् दुःखभयानि च।। जरामरणकान्तारे चतुरन्ते भयाकरे। मया सोढानि भीमानि जन्मानि मरणानि च।। यथेहाग्निरुष्णः इतोऽनन्तगुणस्तत्र। नरकेषु वेदना उष्णा असाता वेदिता मया।। यथेदमिह शीतम् इतोऽनन्तगुणं तत्र। नरकेषु वेदना शीता असाता वेदिता मया।। “मैंने चार अन्त वाले" और भय के आकर जन्म-मरणरूपी जंगल में भयंकर जन्म-मरणों को सहा है।" "जैसे यहां अग्नि उष्ण है, इससे अनन्त गुना अधिक दुःखमय उष्ण-वेदना वहां नरक में मैंने सही है।"३२ “जैसे यहां यह शीत है, इससे अनन्त गुना अधिक दुःखमय शीत-वेदना वहां नरक में मैंने सही है।" “पकाने के पात्र में, जलती हुई अग्नि में पैरों को ऊंचा और सिर को नीचा कर आक्रन्दन करता हुआ मैं अनन्त बार पकाया गया हूं।" क्रन्दन् कन्दुकुम्भीषु ऊर्ध्वपादोऽधःशिराः। हुताशने उचलति पक्वपूर्वोऽनन्तशः।। महादवाग्निसंकाशे मरौ वज्रबालुकायाम्। कदम्बबालुकायां च दग्धपूर्वोऽनन्तशः।। “महा दवाग्नि तथा मरु-देश और वज़बालुका जैसी कदम्ब नदी के बालु में५ मैं अनन्त बार जलाया गया हूं।" रसन् कन्दुकुम्भीषु ऊर्ध्वं बद्धोऽबान्धवः। करपत्रक्रकचादिभिः छिन्नपूर्वोऽनन्तशः।। "मैं पाक-पत्र में त्राण रहित होकर आक्रन्द करता हुआ ऊंचा बांधा गया और करवत और आरा आदि के द्वारा अनन्त बार छेदा गया हूं।" ३५ Jain Education Intemational Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगापुत्रीय ५२. अइतिक्खकंटगाइण्णे तुंगे सिंबलिपायवे । खेवियं पासब कड्ढोकडूढाहिं दुक्करं ।। ५३. महाजंतेसु उच्छू वा आरसंतो सुभेरवं। पीलिओ मि सकम्मेहिं । पावकम्मो अनंतसो । ५४. कूवंतो कोलसुणएहिं सामेहिं सबलेहि य । पाडिओ फालिओ छिन्नो विष्फुरंतो अणेगसो।। ५५. असीहि अयसिवण्णाहिं भल्लीहिं पट्टिसेहि य । छिन्नो भिन्नो विभिन्नो य ओइणी पावकम्मुणा ।। ५६. अवसो लोहरहे जुत्तो जलते समिलाजुए। चोइओ तोत्तजुत्तेहिं रोज्झो वा जह पाडिओ ।। ५७. हुपासणे जलतम्मि चियासु महिसो विव दड्ढो पक्को य अवसो पावकम्मेहि पाविओ ।। ५८. बला डाडेहिं लोहडेहि परिि विलुत्तो विलवंतो हं ढंकगिद्धेहिणंतसो । ५६. तहाकिलंतो धावंतो पत्तो वेयरणिं नदिं । जलं पाहिं ति चिंतंतो खुरधाराहिं विवाइओ ।। ६०. उण्हाभितत्तो संपत्तो असिपत्तं महावणं । असिपत्तेहिं पडतेहिं छिन्नपुव्वो अणेगसो ।। ३११ अतितीक्ष्णकण्टकाकीर्णे लुंगे शाल्मलिपादपे । क्षेपितं पाशबद्धेन कर्षापकर्षैः दुष्करम् ।। महायन्त्रेविधुरिय आरसन् सुभैरवम् । पीडितोऽस्मि स्वकर्मभिः पापकर्मा ऽनन्तशः ।। कूजन् कोलशुनकैः श्यामैः शबलैश्च । पातितः स्फाटितः छिन्नः विस्फुरन्ननेकशः || असिभिरतसीवर्णाभिः भल्लीभिः पट्टिशैश्च । छिन्नो भिन्नो विभिन्नश्च अवतीर्णः पापकर्मणा ।। अपशो लोहरचे युक्तः ज्वलति समिलाते। चोदितस्तोत्रयोक्त्रैः 'रोज्झो' वा यथा पातितः ।। हुताशने ज्वलति चितासु महिष इव । दग्धः पक्वश्चावशः पापकर्मभिः पापिकः ।। बलात् संदेश: लोहतुण्डैः पक्षिभिः । विलुप्तो विलपन्नहं ध्वंक्षगृधैरनन्तशः ।। तृष्णाक्लान्तो धावन् प्राप्तो वैतरणी नदीम् । जलं पारयामीति चिन्तयन क्षुरधाराभिर्विपादितः ॥ उष्णाभितप्तः संप्राप्तः असिपत्रं महावनम् । असिपत्रः पतद्भिः छिन्नपूर्वी अनेकशः 11 अध्ययन १६ : श्लोक ५२-६० “ अत्यन्त तीखे कांटों वाले ऊंचे शाल्मलि वृक्ष पर पाश से बांध, इधर-उधर खींच कर असह्य वेदना से मैं खिन्न किया गया हूं।” " पापकर्मा मैं अति भयंकर आक्रन्द करता हुआ अपने ही कर्मों द्वारा महायन्त्रों में ऊख की भांति अनन्त बार पेरा गया हूं।” “मैं इधर-उधर जाता और आक्रन्द करता हुआ काले और चितकबरे सूअर एवं कुत्तों के द्वारा अनेक बार गिराया, फाड़ा और काटा गया हूं। ३८ “पाप कर्मों के द्वारा नरक में अवतरित हुआ मैं अलसी के फूलों के समान नीले रंग वाली तलवारों, भल्लियों और लोहदण्डों के द्वारा छेदा, भेदा और छोट-छोटे टुकड़ों में विभक्त किया गया हूं।” - “युग- कीलक ( जुए के छेदों में डाली जाने वाली लकड़ी की कीलों से युक्त जलते हुए लोह रथ में परवश बना हुआ मैं जोता गया, चाबुक और रस्सी के द्वारा हांका गया तथा रोझ" की भांति भूमि पर गिराया गया हूं।" “पाप कर्मों से घिरा * और परवश हुआ मैं भैंसे की भांति ** अग्नि की जलती हुई चिताओं में जलाया और पकाया गया हूं।" “संडासी जैसी चोंच वाले और लोहे जैसी कठोर चोंच वाले ढंक और गीध पक्षियों के द्वारा, विलाप करता हुआ मैं, बल-प्रयोग पूर्वक अनन्त बार नोचा गया हूं।” प्यास से पीड़ित होकर में दौड़ता हुआ वैतरणी नदी पर पहुंचा। जल पीऊंगा-यह सोच रहा था, इतने में छूरे की धार से चीरा गया।” “गर्मी से संतप्त होकर असि पत्र महावन में गया। वहां गिरते हुए तलवार के समान तीखे पत्तों से अनेक बार छेदा गया हूं।” Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन १६ : श्लोक ६१-६६ "मुद्गरों, मुसुण्डियों, शूलों और मुसलों से त्राण-हीन दशा में मेरा शरीर चूर-चूर किया गया इस प्रकार मैं अनन्त बार दुःख को प्राप्त हुआ हूं।" "तेज धार वाले छूरों, छुरियों और कैचियों से मैं अनेक बार खण्ड-खण्ड किया गया, दो टूक किया गया और छेदा गया हूं तथा मेरी चमड़ी उतारी गयी “पाशों और कूटजालों द्वारा मृग की भांति परवश बना हुआ मैं अनेक बार ठगा गया, बांधा गया, रोका गया और मारा गया हूं।" ६१. मुग्गरेहिं मुसंढीहिं सूलेहिं मुसलेहि य। गयासं भग्गगत्तेहिं पत्तं दुक्खं अणंतसो।। ६२.खुरेहिं तिक्खधारेहि छुरियाहिं कप्पणीहि य। कप्पिओ फालिओ छिन्नो उक्कत्तो य अणेगसो।। ६३.पासेहिं कूडजालेहिं मिओ वा अवसो अहं। वाहिओ बद्धरुद्धो अ बहु सो चेव विवाइओ।। ६४.गलेहिं मगरजालेहिं मच्छो वा अवसो अहं उल्लिओ फालिओ गहिओ मारिओ य अणंतसो।। ६५.वीदंसएहि जालेहि लेप्पाहिं सउणो विव। गहिओ लग्गो बद्धो य मारिओ य अणंतसो।। ६६.कुहाडफरसुमाईहिं वड्डईहिं दुमो विव। कुट्टिओ फालिओ छिन्नो तच्छिओ य अणंतसो।। ६७.चवेडमुट्ठिमाईहिं कम्मारेहिं अयं पिव। ताडिओ कुट्टियो भिन्नो चुण्णिओ य अणंतसो।। ६८.तत्ताई तंबलोहाई तउयाइं सीसयाणि य। पाइओ कलकलंताई आरसंतो सुभेरवं ।। ६६.तुहं पियाई मंसाई खंडाई सोल्लगाणि य। खाविओ मि समंसाई अग्गिवण्णाई णेगसो।। ३१२ मुद्गरैः 'मुसुंढीहिं' शूलैर्मुसलैश्च। गतांश भग्नगात्रैः प्राप्तं दुःखमनन्तशः।। क्षुरैः तीक्ष्णधारैः क्षुरिकाभिः कल्पनीभिश्च। कल्पितः पाटितश्छिन्नः उत्कृत्त चानेकेशः।। पाशैः कूटजालैः मृग इव अवशोऽहम्। वाहितो बद्धरुद्धश्च बहुशश्चैव विपादितः।। गलैर्मकरजालैः मत्स्य इव अवशोऽहम्। उल्लिखितः पाटितो गृहीतः मारितश्चाऽनन्तशः।। विदंशकैलैिः लेपैः शकुन इव। गृहीतो लग्नो बद्धश्च मारितश्चाऽनन्तशः।। कुठारपरश्वादिभिः वर्धकिभिर्दुम इव। कुट्टितः पाटितश्छिन्नः तक्षितश्चाऽनन्तशः।। चपेटामुष्ट्यादिभिः कर रय इव। ताडितः कट्टितो भिन्नः चूर्णितश्चाऽनन्तशः।। तप्तानि ताम्रलोहानि पुकानि सीसकानि च। पायितः कलकलायमानानि आरसन् सुभैरवम्।। तव प्रियाणि मांसानि खण्डानि शूल्यकानि च। खादितोऽस्मि स्वमांसानि अग्निवर्णान्यनेकशः।। "मछली के फंसाने की कंटियों और मगरों को पकड़ने के जालों के द्वारा मत्स्य की तरह परवश बना हुआ मैं अनन्त बार खींचा, फाड़ा, पकड़ा और मारा गया हूं।" “बाज पक्षियों, जालों और वज्रलेपों के द्वारा पक्षी की भांति मैं अनन्त बार पकड़ा, चिपकाया, बांधा और मारा गया हूं।" “बढ़ई के द्वारा वृक्ष की भांति कुल्हाड़ी और फरसा आदि के द्वारा मैं अनन्त बार कूटा, दो टूक किया, छेदा और छीला गया हूं।" “लोहार के द्वारा लोहे की भांति चपत और मुट्ठी आदि के द्वारा मैं अनन्त बार पीटा, कूटा, भेदा और चूरा किया गया हूं।" "भयंकर आक्रन्द करते हुए मुझे गर्म और कलकल शब्द करता हुआ तांबा, लोहा, रांगा और सीसा पिलाया गया।" "तुझे खण्ड किया हुआ और शूल में खोंस कर पकाया हुआ मांस प्रिय था—यह याद दिलाकर मेरे शरीर का मांस काट अग्नि जैसा लाल कर मुझे खिलाया गया।" Jain Education Intemational Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगापुत्रीय ७०. तुहं पिया सुरा सीहू मेरओ व महणि य पाइओ मि जलतीओ वसाओ रुहिराणि य ।। ७१. निच्च भीएण तत्थेण दुहिएण वहिएण य । परमा दुहसंबद्धा वेयणा वेइया मए । ७२. तिब्वयंडप्पगाढाओ घोराओ अड्दुस्सहा । महमयाओ भीमाओ नरपसु वेइया मए । ७३. जारिसा माणुसे लोए ताया ! दीसंति वेयणा । एत्तो अनंतगुणिया नरएसु दुक्खवेयणा ।। ७४. सव्वभवेसु अस्साया वेयणा वेइया मए । निमेसंतरमित्तं पि जं साया नत्थि वेयणा ।। ७५. तं चिंतम्मापियरी छंदेणं पुत्त ! पव्वया । नवरं पुण सामण्णे दुक्खं निष्पडिकम्मया ।। ७६. सो तिम्मापियरो | एवमेयं जहाफुडं । पडिकम्म को कुणई अरण्णे मियपक्खिणं ? ।। ७७. एगभूओ अरण्णे वा जहा उ चरई मिगो । एवं धम्मं चरिस्सामि संजमेण तवेण य ।। ७८. जया मिगस्स आर्यको महारष्णम्मि जायई । अच्छंतं रुक्खमूलम्मि को णं ताहे तिगिच्छई ? ।। ३१३ तव प्रिया सुरा सीधुः मेरकश्च मधूनि च । पायितोऽस्मि ज्वलन्तीः वसा रूधिराणि च ॥ नित्यं भीतेन त्रस्तेन दुःखितेन व्यथितेन च । परमा दुःखसंबद्धा वेदना वेदिता मया ।। तीव्रचण्डप्रगाढा घोरा अतिदुस्सहाः । महाभया भीमाः नरकेषु वेदिता मया ।। यादृश्यों मानुषे लोके तात ! दृश्यन्ते वेदनाः । इतो ऽनन्तगुणिताः नरकेषु दुःखवेदनाः ।। सर्वभवेष्वसाता वेदना वेदिता मया । निमेषान्तरमात्रमपि यत् साता नास्ति वेदना ।। तं ब्रूतोऽम्बापितरौ छन्दसा पुत्र ! प्रव्रज । 'नवरं' पुनः श्रामण्ये दुःखं निष्प्रतिकर्मता ।। स ब्रूतेऽम्बापितरौ ! एवमेतद् यथास्फुटम् । प्रतिकर्म कः करोति अरण्ये मृगपक्षिणाम् ? ।। एकभूतोऽरण्ये वा यथा तु चरति मृगः एवं धर्मं चरिष्यामि संयमेन तपसा च ॥ यथा मृगस्यातङ्कः महारण्ये जायते । तिष्ठन्तं रूक्षमूले क एनं तदा चिकित्सति ? ।। अध्ययन १६ : श्लोक ७०-७८ "तुझे सुरा, सीयु, मैरेय और मधुये मदिराएं प्रिय थीं - - यह याद दिलाकर मुझे जलती हुई चर्बी और रुधिर पिलाया गया।" “सदा भयभीत, संत्रस्त, दुःखित और व्यथित रूप में रहते हुए मैंने परम दुःखमय वेदना का अनुभव किया है। " xe “तीव्र, चण्ड, प्रगाढ़, घोर, अत्यन्त दुःसह, भीम और अत्यन्त भयंकर वेदनाओं का मैंने नरक-लोक में अनुभव किया है।” “माता-पिता ! मनुष्य लोक में जैसी वेदना है उससे अनन्तगुना अधिक दुःख देने वाली वेदना नरक-लोक में है ।" “मैंने सभी जन्मों में दुःखमय वेदना का अनुभव किया है। वहां एक निमेष का अन्तर पड़े उतनी भी सुखमय वेदना नहीं है । ५० माता-पिता ने उससे कहा- “पुत्र ! तुम्हारी इच्छा है। तो प्रव्रजित हो जाओ । परन्तु श्रमण बनने के बाद रोगों की चिकित्सा नहीं की जाती, " यह कितना कठिन मार्ग है । (यह जानते हो ? ) ” उसने कहा- "माता-पिता! आपने जो कहा वह ठीक है। किन्तु जंगल में रहने वाले हरिण और पक्षियों की चिकित्सा कौन करता है ?"५३ " जैसे जंगल में हरिण अकेला विचरता है, वैसे मैं भी संयम और तप के साथ एकाकी भाव को प्राप्त कर धर्म का आचरण करूंगा।” "जब महावन में* हरिण के शरीर में आतंक – रोग उत्पन्न होता है तब किसी वृक्ष के पास बैठे हुए उस हरिण की कौन चिकित्सा करता है ?" Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३१४ अध्ययन १६ : श्लोक ७६-८७ ७६.को वा से ओसहं देई? को वा तस्मै औषधं दत्ते? “कौन उसे औषध देता है ? कौन उससे सुख की को वा से पुच्छई सुहं ?। को वा तस्य पृच्छति सुखम् ?। बात पूछता है ? कौन उसे खाने-पीने को भक्त-पान को से भत्तं च पाणं च कस्तस्मै भक्तं च पानं च लाकर देता है ?"५५ आहरित्त पणामए ?।। आहृत्याऽर्पयेत् ?।। ५०.जया य से सुही होइ यदा च स सुखी भवति "जब वह स्वस्थ हो जाता है तब गोचर में जाता है। तया गच्छइ गोयरं।। तदा गच्छति गोचरम्। खाने-पीने के लिए लता-निकुंजों और जलाशयों भत्तपाणस्स अट्ठाए भक्तपानस्याऽर्थाय में'६ जाता है।" वल्लराणि सराणि य।। वल्लराणि सरांसि च।। ८१.खाइत्ता पाणियं पाउं खादित्वा पानीयं पीत्वा “लता-निकुंजों और जलाशयों में खा-पीकर वह वल्लरेहिं सरेहि वा। वल्लरेषु सरस्सु वा। मृगचर्या (कुदान) के द्वारा मृगचर्या (स्वतन्त्र-विहार) मिगचारियं चरित्ताणं मृगचारिकां चरित्वा को चला जाता है।"५७ गच्छई मिगचारियं ।। गच्छति मृगचारिकाम्।। ८२.एवं समुट्ठिओ भिक्खू एवं समुत्थितो भिक्षुः “इसी प्रकार संयम के लिए उठा हुआ भिक्षु स्वतंत्र एवमेव अणेगओ। एवमेवाऽनेकगः। विहार करता हुआ मृगचर्या का आचरण कर मिगचारियं चरित्ताणं मृगचारिकां चरित्वा ऊंची दिशा-मोक्ष को चला जाता है।" उड्ढं पक्कमई दिसं।। ऊर्जा प्रक्रामति दिशम् ।। ८३.जहा मिगे एग अणेगचारी यथा मृग एकोऽनेकचारी "जिस प्रकार हरिण अकेला अनेक स्थानों से भक्त-पान अणेगवासे धुवगोयरे य। अनेकवासो धुवगोचरश्च। लेने वाला, अनेक स्थानों में रहने वाला ओर गोचर एवं मुणी गोयरियं पविट्ठे एवं मुनिर्गोचर्या प्रविष्टः से ही जीवन-यापन करने वाला होता है, उसी नो हीलए नो विय खिंसएज्जा।। नो हीलयेन्नो अपि च खिसयेत्।। प्रकार गोचर-प्रविष्ट मुनि जब भिक्षा के लिए जाता है तब किसी की अवज्ञा और निन्दा नहीं करता।" १४.मिगचारियं चरिस्सामि मृगचारिकां चरिष्यामि (मृगापुत्र ने कहा-) “मैं मृगचर्या का आचरण एवं पुत्ता! जहासुहं। एवं पुत्र! यथासुखम्। करूंगा।” (माता-पिता ने कहा--) “पुत्र ! जैसे तुम्हें अम्मापिऊहिंणुण्णाओ। अम्बापितृभ्यामनुज्ञातः सुख हो वैसे करो।" इस प्रकार माता-पिता की जहाइ उवहिं तओ।। जहात्युपधिं ततः।। अनुमति पाकर वह उपथि को छोड़ रहा है। ८५.मियचारियं चरिस्सामि मृगचारिकां चरिष्यामि "मैं तुम्हारी अनुमति पाकर सब दुःखों से मुक्ति सव्वदुक्खविमोक्खणिं। सर्वदुःखविमोक्षणीम्। दिलाने वाली मृगचर्या का आचरण करूंगा।" तुब्मेहिं अम्मपुण्णाओ युवाभ्यामम्ब! अनुज्ञातः (माता-पिता ने कहा-) “पुत्र ! जैसे तुम्हें सुख हो गच्छ पुत्त ! जहासुहं।। गच्छ पुत्र! यथासुखम्।। वैसे करो।" ८६.एवं सो अम्मापियरो एवं सोऽम्बापितरौ "इस प्रकार वह नाना उपायों से माता-पिता को अणुमाणित्ताण बहुविहं। अनुमान्य बहुविधम्। अनुमति के लिए राजी कर ममत्व का छेदन कर ममत्तं छिंदई ताहे ममत्वं छिनत्ति तदा रहा है जैसे महानाग कांचुली का छेदन करता है।" महानागो ब्व कंचुयं ।। महानाग इव कंचुकम्।। ८७.इडिं वित्तं च मित्ते य ऋद्धिं वित्तं च मित्राणि च “ऋद्धि, धन, मित्र, पुत्र, कलत्र और ज्ञाति-जनों को पुत्तदारं च नायओ। पुत्रदारांश्च ज्ञातीन्। कपड़े पर लगी हुई धूलि की भांति झटकाकर वह रेणुयं व पडे लग्गं रेणुकमिव पटे लग्नं निकल गया-प्रव्रजित हो गया।" निर्बुणित्ताण निग्गओ।। निय निर्गतः।। Jain Education Intemational Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगापुत्रीय ३१५ अध्ययन १६ : श्लोक ८५-६६ “वह पांच महाव्रतों से युक्त, पांच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, आंतरिक और बाहरी तपस्या में तत्पर-" “ममत्व रहित, अहंकार रहित, निर्लेप, गौरव को त्यागने वाला, त्रस और स्थावर सभी जीवों में समभाव रखने वाला—" “लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान में सम रहने वाला-" ८८.पंचमहव्वयजुत्तो पंचसमिओ तिगुत्तिगुत्तो य। सन्भितरबाहिरओ तवोकमंसि उज्जुओ।। ८६.निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्तगारवो। समो य सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य।। ६०.लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा। समो निंदापसंसासु तहा माणावमाणओ।। ६१. गारवेसु कसाएसु दंडसल्लभएसु य। नियत्तो हाससोगाओ अनियाणो अबंधणो।। ६२.अणिस्सिओ इहं लोए परलोए अणिस्सिओ। वासीचंदणकप्पो य। असणे अणसणे तहा।। ६३. अप्पसत्थेहिं दारेहि सब्बओ पिहियासवे। अज्झप्पज्झाणजोगेहिं पसत्थदमसासणे।। ६४.एवं नाणेण चरणेण दसणेण तवेण य। भावणाहि य सुद्धाहिं सम्मं भावेत्तु अप्पयं ।। ६५.बहुयाणि उ वासाणि सामण्णमणुपालिया। मासिएण उ भत्तेण सिद्धिं पत्तो अणुत्तरं।। ६६.एवं करंति संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा। विणियटॅति भोगेसु मियापुत्ते जहारिसी।। पञ्चमहाव्रतयुक्तः पञ्चसमितस्त्रिगुप्तिगुप्तश्च। साभ्यन्तरबार्बी तपः कर्मणि उद्युतः।। निर्ममो निरहंकारः निस्सङ्गस्त्यक्तगौरवः। समश्च सर्वभूतेषु त्रसेषु स्थावरेषु च।। लाभालाभे सुखे दुःखे जीविते मरणे तथा। समो निन्दाप्रशंसयोः तथा मानापमानयोः।। गौरवेभ्यः कषायेभ्यः दण्डशल्यभयेभ्यश्च। निवृत्तो हासशोकात् अनिदानोऽबन्धनः।। अनिश्रित इह लोके परलोकेऽनिश्रितः। वासीचन्दनकल्पश्च अशनेऽनशने तथा।। अप्रशस्तेभ्यो द्वारेभ्यः सर्वतः पिहितासवः। अध्यात्मध्यानयोगैः प्रशस्तदमशासनः।। “गौरव, कषाय, दण्ड, शल्य, भय," हास्य और शोक से निवृत्त, निदान और बन्धन से रहित-" "इहलोक और परलोक में अनासक्त, वसूले से । काटने और चन्दन लगाने पर तथा आहार मिलने या न मिलने पर सम रहने वाला-" अप्रशस्त द्वारों से आने वाले कर्म-पुद्गलों का सर्वतोनिरोध करने वाला, अध्यात्मध्यान-योग के द्वारा प्रशस्त एवं उपशम-प्रधान शासन में रहने वाला हुआ। “इस प्रकार ज्ञान, चारित्र, तप और विशुद्ध भावनाओं के द्वारा आत्मा को भली-भांति भावित कर-" एवं ज्ञानेन चरणेन दर्शनेन तपसा च। भावनाभिश्च शुद्धाभिः सम्यग् भावयित्वाऽऽत्मकम् ।। बहुकानि तु वर्षाणि श्रामण्यमनुपाल्य। मासिकेन तु भक्तेन सिद्धि प्राप्तोऽनुत्तराम् ।। एवं कुर्वन्ति संबुद्धाः पण्डिताः प्रविचक्षणाः। विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः मृगापुत्रो यथा ऋषिः।। "बहुत वर्षों तक श्रमण-धर्म का पालन कर, अन्त में एक महीने का अनशन कर वह अनुत्तर सिद्धिमोक्ष को प्राप्त हुआ।" “संबुद्ध, पण्डित और प्रविचक्षण जो होते हैं वे ऐसा करते हैं। वे भोगों से उसी प्रकार निवृत्त होते हैं, जिस प्रकार मृगापुत्र ऋषि हुए थे।" Jain Education Intemational Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३१६ अध्ययन १६ : श्लोक ६७, ६८ ६७.महापभावस्स महाजसस्स महाप्रभावस्य महायशसः __ “महा प्रभावशाली, महान् यशस्वी मृगापुत्र का५७ मियाइपुत्तस्स मिसम्म भासियं। मृगायाः पत्रस्य निशम्य भाषितम। कथन. तप-प्रधान मृगायाः पुत्रस्य निशम्य भाषितम्। कथन, तप-प्रधान उत्तम-आचरण और त्रिलोक-विश्रुत तवप्पहाणं चरियं च उत्तम तपःप्रधानं चरितं चोत्तम प्रधान गति (मोक्ष) को सुनकर--६८ गइप्पहाणं च तिलोगविस्सुयं ।। प्रधानगतिं च त्रिलोकविश्रुताम् ।। ६८.वियाणिया दुक्खविवद्धणं धणं विज्ञाय दुःखविवर्धनं धनं “धन को दुःख बढ़ाने वाला और ममता के बन्धन ममत्तबंधं च महब्भयावहं। ममत्वबन्धं च महाभयावहम्। को महान् भयंकर जानकर, सुख देने वाली, अनुत्तर सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं सुखावहां धर्मधुरामनुत्तरां निर्वाण के गुणों को प्राप्त कराने वाली, महान् धर्म धारेह निव्वाणगुणावहं महं।। धारय निर्वाणगुणावहां महतीम्।। की धुरा को धारण करो।” -ति बेमि।। -इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन १६ : मृगापुत्रीय १. कानन और उद्यान (काणणुज्जाण) प्रथम अर्थ वार्तमानिक अवस्था का बोधक है और दूसरा कानन वह होता है जहां बड़े वृक्ष हों।' उद्यान का अर्थ भविष्यकाल की अपेक्षा से कहा गया है। है-क्रीडा-वन । वृत्तिकार ने उद्यान का अर्थ 'आराम' भी किया नेमिचन्द्र ने केवल द्वितीय अर्थ ही किया है। है। आराम जन-साधारण के घूमने-फिरने का स्थान होता था। ५. दोगुन्दग (दोगुंदगो) क्रीडा-वन ऐसा स्थान था जहां नौका-विहार, खेल-कूद तथा 'दोगुन्दग' त्रायस्त्रिश जाति के देव होते हैं। वे सदा अन्यान्य क्रीडा सामग्री की सुलभता रहती थी। भोग-परायण होते हैं। उनकी विशेष जानकारी के लिए देखेंदेखें-दशवैकालिक, ६।१ का टिप्पण भगवती, १०।४। २. बलत्री (बलसिरी) ६. मणि और रत्न (मणिरयण) मृगापुत्र के दो नाम थे—बलश्री और मृगापुत्र । 'बलश्री' सामान्यतः मणि और रत्न पर्यायवाची माने जाते हैं। माता-पिता द्वारा दिया हुआ नाम था और जन-साधारण में वह वृत्तिकार ने इनमें यह भेद किया है कि विशिष्ट माहात्म्य युक्त 'मृगापुत्र' के नाम से प्रसिद्ध था।' रत्नों को 'मणि' कहते हैं, जैसे चन्द्रकांतमणि, सूर्यकान्तमणि ३. युवराज (जुवराया) आदि-आदि तथा शेष गोमेदक आदि 'रत्न' कहलाते हैं। राजाओं में यह परम्परा थी कि बड़ा पुत्र ही राज्य का ७. गवाक्ष (आलोयण) अधिकारी होता था। जब वह राज्य का कार्यभार संभालने में दशवैकालिक, ५।११५ में गवाक्ष के अर्थ में 'आलोय' का समर्थ हो जाता तब उसको 'युवराज पद' दे दिया जाता। वह प्रयोग हुआ है। यहां उसी अर्थ में 'आलोयण' शब्द है। राज्य पद की पूर्व-स्वीकृति का वाचक है। शान्त्याचार्य ने इसका एक अर्थ 'सबसे ऊंची चतुरिका' भी प्राचीन साहित्य में यह मिलता है कि राज्याभिषेक से पूर्व किया है। गवाक्ष या चतुरिका से दिशाओं का अवलोकन किया जा 'युवराज' भी एक मन्त्री होता था, जो राजा को राज्य-संचालन सकता है, इसलिए उसे 'आलोकन' कहा जाता है। में सहायता देता था। उसकी विशेष मुद्रा होती थी और उसकी ८. नियम (नियम) पदवी का सूचक एक निश्चित पद होता था। महाव्रत, व्रत, नियम-ये सभी साधारणतया संवर के _ 'युवराज' को 'तीर्थ' भी कहा गया है। कौटिल्य ने अपने वाचक हैं। किन्त रूढिवशात इनमें अर्थ-भेद भी है। योग-दर्शन अर्थशास्त्र में १८ तीर्थ गिनाएं हैं, उनमें 'युवराज' का उल्लेख भी सम्मत अष्टांग योग में नियम का दूसरा स्थान है। उसके हुआ है। तीर्थ का अर्थ है-महा अमात्य।' अनुसार शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप और देवताप्रणिधान-ये ४. दमीश्वर (दमीसरे) नियम कहलाते हैं।" शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ दिए हैं जैन व्याख्या के अनुसार जिन व्रतों में जाति, देश, काल, (१) उद्धत व्यक्तियों का दमन करने वाला राजाओं का ईश्वर। समय आदि का अपवाद नहीं रहता, वे 'महाव्रत' कहलाते हैं। (२) उपशमशील व्यक्तियों का ईश्वर। जो व्रत अपवाद सहित होते हैं. वे 'व्रत' कहलाते हैं। ऐच्छिक १. सुखबोधा, पत्र २६०: काननानि-बृहवृक्षाश्रयाणि वनानि। २. वही, पत्र २६० : उद्यानानि-आरामाः क्रीडावनानि वा। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१ : बलश्रीः बलश्रीनामा मातापितृविहितनाम्ना लोके च मृगापुत्र इति। ४. कौटिल्य अर्थशास्त्र, १।१२।८, पृ०२१-२३। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१ : दमिना-उद्धतदमनशीलास्ते च राजानस्ते षामीश्वरः-प्रभुर्दमीश्वरः, यद्वा दमिनः—उपशमिनस्तेषां सहजोपशमभावत ईश्वरो दमीश्वरः, भाविकालापेक्षं चैतत्। ६. सुखबोधा, पत्र २६० ! 'दमीसरि' ति दमिनाम्-उपशमिनामीश्वरो दमीश्वरः, भाविकालापेक्षं चैतत्। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१ : दोगुन्दगाश्च त्रायस्त्रिशाः तथा च वृद्धाः “त्रायरिंवशा देवा नित्यं भोगपरायणा दोगुंदगा इति भण्णंति।" ८. वही, पत्र ४५१ : मण्यश्च-विशिष्टमाहात्म्याश्चन्द्रकांतादयो, रत्नानि च-गोमेयकादीनि मणिरत्नानि। वही, पत्र ४५१ : आलोक्यन्ते दिशोऽस्मिन् स्थितरित्यालोकनं प्रासादे प्रासादस्य वाऽऽलोकन प्रासादालोकन तस्मिन् सर्वोपरिवर्तिचतुरिका रूपे गवाक्षे। १०. पातंजलयोगदर्शन, २।२६ : यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणा ध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि। ११. वही, २३२ : शौचसंतोषतपस्स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः । Jain Education Intemational Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३१८ अध्ययन १६ : श्लोक ५-१७ टि० -१५ व्रतों को 'नियम' कहा जाता है। (१) दृश्य वस्तु या व्यक्ति का साक्षात्कार। शान्त्याचार्य ने 'अभिग्रहात्मक व्रत' को 'नियम' कहा है।' (२) अध्यवसान की शुद्धि। ९. शील से समृद्ध (सीलड्ड) (३) संमोहन। वृत्तिकार ने शील का अर्थ-अष्टादश सहन शीलाङ्ग देखें-६१ का टिप्पण। किया है। १२. (श्लोक ११) देखें इसी अध्ययन का १६वां टिप्पण। इस श्लोक में भोगों को विषफल से उपमित किया गया है। १० अध्यवसान (अज्झवसाणम्मि) जिस प्रकार विषफल प्रथम स्वाद में अत्यन्त मधुर होते हैं परन्तु बृहद्वृत्ति में अध्यवसान का अर्थ है-अन्तःकरण का परिणाम काल में अत्यन्त कटुक और दुःखदायी होते हैं, उसी परिणाम। निशीथ चूर्णि में मनःसंकल्प, अध्यवसान और चित्त प्रकार भोग भी सेवन-काल में मधुर लगते हैं, परन्तु उनका को एकार्थक माना है। विशेषावश्यकभाष्य में अतिहर्ष और विपाक कटुक होता है और वे अनवच्छिन्न दुःख देने वाले होते विषाद के कारण चिंतन की जो गहराई होती है उसे अध्यवसान है। कहा गया है। स्थानांग में अध्यवसान को अकालमृत्यु का एक १३. क्लेशों का (...केसाण) हेतु माना है। उसका अर्थ है-राग, स्नेह और भय आदि की क्लेश शब्द 'क्लिशूश् विबाधने', क्लिशच् उपतापे-इन तीव्रता। दोनों धातुओं से निष्पन्न है। इसका अर्थ है—बाधा, सन्ताप 'अज्झवसाय और अज्झवसाण' (अध्यवसाय और और पीड़ा। वृत्तिकार ने क्लेश का अर्थ दुःख (अप्रिय संवेदन) अध्यवसान) दोनों शब्द एकार्थक हैं। जहां कहीं जाति-स्मृति के हेतुभूत ज्वरादि रोग किया है। और अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग है वहां 'सुभेणं महर्षि पतञ्जलि ने पांच प्रकार के क्लेश माने हैंअज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणाहिं'- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। उनके अनुसार पाठ मिलता है। यह उपलब्धि परिणामों की विशुद्धि और क्लश का अथ विपर्यय है।" सूक्ष्मता से प्राप्त होती है। यह चेतना का सूक्ष्म स्तर है, इसलिए १४. व्याधि और रोगों का (वाहीरोगाण) उसका मन के साथ सम्बन्ध नहीं किया जा सकता। __ अत्यन्त बाधा उत्पन्न करने वाले कुष्ट जैसे रोगों को ११. (मोहंगयस्स) 'व्याधि' कहा जाता है और कदाचित् होने वाले ज्वर आदि को जैन धर्म में 'जातिस्मृति'-पूर्वजन्म के स्मरण की विशेष 'रोग' कहा जाता है।" पद्धति है। कोई व्यक्ति पूर्व परिचित व्यक्ति को देखता है, तत्काल १५. किपाकफल (किपागफलाण) चैतसिक संस्कारों में एक हलचल होती है। वह सोचता है कि जैन साहित्य में स्थान-स्थान पर किंपाकफल का उल्लेख इस प्रकार का आकार मैंने कहीं देखा है। ईहा, अपोह, मार्गणा है। वह देखने में अति सुन्दर और खाने में अति स्वादिष्ट होता और गवेषणा के द्वारा चिन्तन आगे बढ़ता है। मैंने यह कहां है। उसको खाने का परिणाम है-प्राणान्त। भोगों की विरसता देखा? यह कहां है ? इस प्रकार की चिंता का एक संघर्ष चलता को बताने के लिए प्रायः इसी की उपमा दी जाती है। है। उस समय व्यक्ति संमोहन की स्थिति में चला जाता है। उस वृत्तिकार ने किम्पाक का अर्थ वृक्ष विशेष किया है।२ स्थिति में उसे पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है। उसके फल अति स्वादिष्ट होते हैं। कोषकारों के अनुसार वह प्रस्तुत श्लोक में जाति-स्मरण की प्रक्रिया फलित होती है। एक लता-विशेष है। इसका दूसरा नाम महाकाल लता है।" उसके तीन अंग हैं शालिग्रामनिघण्टुभूषण में कारस्कर, किम्पाक, विषतिंदुक विषदुम, १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१-४५२ : नियमश्च-द्रव्याधभिग्रहात्मकः । ६. वही, पत्र ४५४ : दुःखम् असातं तद्धेतवः, क्लेशाः-ज्वरादयो रोगा २. वही, पत्र ४५२ : शीलं-अष्टादशशीलाङ्गसहस्वरूपम्। दुःखक्लेशाः शाकपार्थिवादिवत्समासः। ३. वही, पत्र ४५२ : अध्यवसाने-इत्यन्तःकरणपरिणामे। १०. पातंजलयोगदर्शनः ३३ पृ० १३४ : अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः ४. निशीथचूर्णि, भाग ३ पृष्ठ ७०: मणसंकप्पेत्ति या अज्झवसाणं त्ति वा पञ्चक्लेशाः । क्लेशा इति पञ्च विपर्यया इत्यर्थः । चित्त ति वा एगळं। ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५४ : व्याधयः-अतीव बाधाहेतवः कुष्ठादयो, रोगाः५. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा २०४१, वृत्ति पृ०७२० : अतिहर्ष-विषादाभ्याम- ज्वरादयः। धिकमवसानं चिन्तनमध्यवसानम् । १२. वही, पत्र ४५४ : किम्पाकः-वृक्षविशेषस्तस्य फलान्यतीव सुस्वादूनि। ६. ठाणं : ७७२ : सत्तविथे आउभेदे पण्णत्ते, तं जहा-अज्झवसाणणिमित्ते. १३. (क) शब्दकल्पद्रुम, भाग २, पृ० १२८ : किम्पाकः पु० महाकाल लता। इति रत्नमाला। माकाल इति भाषा। ७. भगवई : १११७१। (ख) नानार्थसंग्रह, पृ०७८ : किम्पाको महाकालफलाज्ञयोः (मेदिनी)। बृहवृत्ति, पत्र ४५२ : 'अध्यवसाने इत्यन्तःकरणपरिणामे 'शोभने' (ग) वाचस्पत्यम्, भाग ३, पृ० २०५० : किम्पाकः (माखाल) महाकाल । प्रथाने क्षायोपशमिकभाववर्तिनीति यावत् 'मोह' क्वेद मया दृष्ट (घ) वही, भाग ६, पृ०४०४० : महाकाल लताभेदे। क्वेदमित्यतिचिन्तातश्चित्तसंघट्टजमूत्मिक 'गतस्य' प्राप्तस्य' सतः। Jain Education Intemational Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगापुत्रीय ३१९ अध्ययन १६ : श्लोक २४ टि० १६ गरद्रुम, रम्यफल, कुपाक, कालकूटक-इन सबको पर्यायवाची यह एक गाथा है। दूसरी गाथा में 'खंति' के स्थान पर माना है। उसमें कारस्कर वृक्ष का जो वर्णन मिलता है, उसके 'मुत्ति' शब्द आएगा शेष ज्यों का त्यों रहेगा। तीसरे में अनुसार किम्पाक कुचले का वृक्ष है। कारस्कर वृक्ष मध्यम 'अज्जव' आएगा। इस प्रकार १० गाथाओं में दस धर्मों के आकार का होता है। वह प्रायः वनों में उगता है। उसके पत्ते नाम क्रमशः आएंगे। फिर ग्यारहवीं गाथा में 'पुढवि' के स्थान पान के समान चौड़े और फल नारंगी के समान होते हैं। उसके पर 'आउ' शब्द आएगा। पुढवि के साथ १० धर्मों का बीज कुचला कहलाते हैं। उसका पका फल विषद और पाक में परिवर्तन हुआ था उसी प्रकार 'आउ' शब्द के साथ भी होगा। मधुर होता है। फिर 'आउ' के स्थान पर क्रमशः 'तेउ', 'वाउ', 'वणस्सइ', वनस्पतिसृष्टि में किम्पाकफल का वर्णन इस प्रकार है- 'बेइंदिय', तेइंदिय, 'चतुरिन्दिय', 'पंचेंदिय' और अजीव-ये किंपाकफल अपक्व अवस्था में नीले रंग का और पकने पर दश शब्द आएंगे। प्रत्येक के साथ दस धर्मों का परिवर्तन होने नारंगी रंग का होता है। उसकी गिरी सहज और मधुर होती है। से (१०x१०) एक सौ गाथाएं हो जाएगी। इस प्रकार पांच उसे पक्षी और बन्दर बड़े चाव से खाते हैं। गिरी के अतिरिक्त इंद्रियों की (१००४५) पांच सौ गाथाएं होंगी। फिर ५०१ में उसके सब अंग कड़वे होते हैं। उसका सारा फल विषैला होता 'आहार सन्ना' के स्थान पर 'भयसन्ना' फिर 'मेहुणसन्ना' है। अंग्रेजी में इसके बीजों को स्ट्रिक्निन नक्सवोमिका (Strychnine और 'परिग्गहसन्ना' शब्द आएंगे। एक संज्ञा के ५०० होने में Nuxvomica) कहते हैं। वे बटन के आकार वाले, मखमल की ४ संज्ञा के (५००x४) २००० होंगे। फिर 'मणसा' शब्द का तरह मुलायम, अति कठोर और बीच में रकाबी जैसे गड्ढे वाले परिवर्तन होगा। 'मणसा' के स्थान पर 'वयसा' फिर 'कायसा' होते हैं। आएगा। एक-एक काय का २००० होने से तीन कायों के १६. हजारों गुण (गुणाणं तु सहस्साई) (२०००४ ३) ६००० होंगे। फिर 'करंति' शब्द में परिवर्तन वृत्तिकार ने यहां गुण का अर्थ-मुनि जीवन के उपकारी होगा। 'करंति' के स्थान पर 'कारयंति' और 'समणजाणति' शीलाङ्ग गुण किया है। उनकी संख्या अठारह हजार है- शब्द आएंगे। एक-एक के ६००० होने से तीनों के (६०००४३) जे गो कति मणसा, णिज्जिय आहारसन्ना सोइंदिये। १८,००० हो जाएंगे। पुढविकायारंभ खंतिजुत्ते ते मुणी वंदे। ये अठारह हजार शील के अंग हैं। इन्हें रथ से निम्न प्रकार उपमित किया जाता है जे णो करंति जे णो कारयंति जे णो समणुजाणंति ६.... मणसा कायसा वयसा २... णिज्जिय णिज्जिय णिज्जिय आहारसन्ना भयसन्ना | मेहुणसन्ना ५०० |५०० ५०० |णिज्जिय परिग्गहसन्ना ५०० स्पर्शनेन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय | ध्राणेन्द्रिय |रसनेन्द्रिय १०० |१०० १०० १०० १०० पृथिवी १० अपू तेजस् १० वायु १० वनस्पति १० द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय १० |१० 1१० १० १० क्षान्ति मुक्ति आर्जव मार्दव लाघव सत्य संयम तप ब्रह्मचर्य अकिंचनता 1१० १. शालिग्रामनिघण्टुभूषणम् (बृहन्निघण्टु रत्नाकरान्तर्गती, सप्तमाष्टम भाग) २. वनस्पतिसृष्टि (गुज०) स्कन्ध बीजो पृ०६१। पृ०६००। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५६ : गुणानां-श्रामण्योपकारकाणां शीलाइगरूपाणाम् । कारस्करस्तु किपाको विषतिन्दुर्विषद्रुमः । गरदुमो रम्यफलः कुपाकः कालकूटकः ।। Jain Education Intemational Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन १६:श्लोक २७,२८टि० १७, १५ १७. दतौन जितना वस्तु-खंड भी (दंतसोहणमाइस्स) करने पर भी उसने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। अन्त में वही वृत्तिकार ने 'माइस्स' पद में मकार को अलाक्षणिक हुआ जो होना था। चतुर्मास बिताने के लिए वह कोशा के यहां माना है तथा 'आइ' का संस्कृत रूप 'आदि' किया है। अर्थ की पहुंच गया। दृष्टि से 'मात्र' शब्द अधिक उपयुक्त है। 'मायस्स'-इसका कुछ दिन बीते। इन्द्रिय विषयों की सुलभता। मनोज्ञ उच्चारण 'माइस्स' भी हो सकता है। यकार का इकार में शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ रस आदि पांचों विषयों ने अपना परिवर्तन होना सहजगम्य है। इसका संस्कत रूपान्तरण होगा- प्रभाव डाला और उसकी कामवृत्ति जागृत हो गई। अब वह दन्तशोधनमात्रस्य। कोशा का सहवास पाने के लिए आतुर था। अवसर देखकर १८. (श्लोक २८) एक दिन उसने अपनी भावना को कोशा के सामने रख दिया। प्रस्तुत श्लोक में ब्रह्मचर्य व्रत को स्वीकार करना अति कोशा तो पहले से ही संभली हुई थी। वह नहीं चाहती थी कि दुष्कर बतलाया गया है। कामभोगों के रस को जानने वालों के कोई मुनि उसके कारण संयम-भ्रष्ट बने। मुनि को सन्मार्ग पर लिए अब्रह्मचर्य से विरत होना कितना दुष्कर है. इस प्रसंग में लाने के लिए उसने एक उपाय सोचा। उसने मनि से कहामुनि स्थूलभद्र जैसा कोई विरल ही उदाहरण मिलता है यदि आप मुझे पाना चाहते हैं तो आपको मेरी एक शर्त पूरी चतुर्मास प्रारम्भ होने को था। स्थूलिभद्र सहित चार मुनि करनी होगी। नेपाल से रत्नकम्बल को लाना होगा। काम-भावना आचार्य संभूतविजय के पास आए। सबने गुरु-चरणों में की अभीप्सा ने मुनि को नेपाल जाने के लिए विवश कर दिया। का अपना-अपना निवेदन प्रस्तुत किया। एक ने कहा-गुरुदेव ! मैं बरसात का मौसम। मार्गगत सैकड़ों कठिनाइयां और चतुर्मास सिंह की गुफा में अपना चतुर्मास बिताना चाहता हूं। दूसरे ने के बीच बिहार। जैसे-तैसे अनेक कष्टों को सहकर मुनि नेपाल सांप की बांबी पर साधना करने की इच्छा प्रगट की। तीसरे ने पहुंचा और रत्नकम्बल लेकर पुनः आ गया। भीतर ही भीतर पनघट की चाट पर और चौथे ने कोशा वेश्या की चित्रशाला में वह बड़ा प्रसन्न हो रहा था कि आज उसकी मनोभावना सफल रहने की अनुमति चाही। गुरु ने उन्हें स्वीकृति दे दी। होगी। मुनि ने रत्नकम्बल कोशा को दी किन्तु कोशा ने मुनि चार मास बीते। सभी निर्विघ्न साधना सम्पन्न कर का देखते-देखते कीचड़ से सने हुए पैरों को रत्नकम्बल आचार्य के पास आए। आचार्य ने पहले मुनि को 'दुष्कर कार्य से पोंछा और उसे नाली में फेंक दिया। इस घटना को मुनि करने वाले' के सम्बोधन से सम्बोधित किया। उसी प्रकार । विस्फारित नेत्रों से देखता रह गया। उसके मन पर एक गहरी दूसरे, तीसरे मुनि के लिए भी यही सम्बोधन प्रयुक्त किया। प्रातक्रिया हुई कि प्रतिक्रिया हुई कि कितने कष्टों को सहकर मैं इसे यहां लाया किन्तु स्थूलिभद्र को देखते ही आचार्य ने उन्हें दुष्कार-दुष्कर, और उसका यह दुरुपयोग ! बात कुछ समझ में नहीं आई। महादुष्कर कहकर संबोधित किया। तीनों मुनियों को गुरु का अन्त में उसने कोशा से पूछ ही लिया-भद्रे ! तुमने यह क्या यह कथन बहुत अखरा। वे अपनी बात कहें उससे पूर्व ही किया? इस बहुमूल्य कम्बल का क्या यही उपयोग था? कोशा आचार्य ने उनको समाहित करते हुए कहा-शिष्यो ! स्थूलिभद्र ने व्यंग्य की भाषा में कहा—संयम रत्न से बढ़ कर रत्नकम्बल कोशा वेश्या की चित्रशाला में रहा। सब प्रकार से सुविधाजनक कौन सी अमूल्य वस्तु है ? आपने तो तुच्छ काम-भोगों के लिए और चिरपरिचित स्थान, अनुकूल वातावरण, प्रतिदिन षड्रस संयम रत्न जैसे अनमोल वस्तु को भी छोड़ दिया। फिर भोजन का आसेवन और फिर कोशा के हाव-भाव। सब कुछ रत्नकम्बल है ही क्या ? कोशा के इन वाक्यों ने मुनि के होते हुए भी क्षण भर के लिए मन का विचलित न होना, काम अन्तःकरण को बांध दिया। पुनः वह संयम में स्थिर हो गया। भोगों के रस को जानते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत की कठोर साधना उसे आचार्य के महादुष्कर कथन की स्मृति हो आई जिसके करना कितना महादुष्कर कार्य है ? यह वही कोशा है, जिसके कारण उसने यह प्रपंच रचा था। अन्त में वह आचार्य के पास साथ ये बारह वर्ष तक रहे थे। वहां रहकर इन्होंने अपनी आया और कृतदोष की आलोचना कर सिद्ध-बुद्ध और मुक्त साधना ही नहीं की है, अपितु कोशा जैसी वेश्या को भी एक हो गया। अच्छी श्राविका बनाया है। अतः इनके लिए यह सम्बोधन इस प्रसंग में यह उदाहरण भी मननीय है। यथार्थ है। एक संन्यासी गांव से दूर आश्रम बनाकर अपनी साधना उनमें से एक मनि ने गरु वचनों पर विपरीत श्रदा कर रहे थे। प्रतिदिन भक्तजन उनके पास आते और प्रवचन करते हुए कहा--कोशा के यहां रहना कौन सा महादष्कर कार्य सुनकर चले जाते। एक दिन महात्मा अपनी शिष्यमंडली के बीच है? वहां तो हर कोई साधना कर सकता है। आप मुझे अनुज्ञा वाचन करते-करते एक वाक्य पर अटक गए। ग्रंथ में दें, मैं अगला चतुर्मास वहीं बिताऊंगा। आचार्य नहीं चाहते थे लिखा था-ब्रह्मचर्य का पालन करना महादुष्कर है। वाक्य को कि वह मुनि देखा-देखी ऐसा करे। बार-बार गुरु के निषेध पढ़त पढ़ते ही वे चौंके और फिर अपने भक्तों से बोले-दुष्करता १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५६ : दंतसोहणमादिस्स त्ति, मकारोऽलाक्षणिकः,.... दन्तशोधनादेरपि। Jain Education Intemational Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगापुत्रीय ३२१ अध्ययन १६ : श्लोक २६-३३ टि० १६-२२ जैसी इसमें क्या बात है ? इसमें कौन सा भूखा-प्यासा रहना पड़ता है। पता नहीं, किस अज्ञानी ने मनगढ़न्त ऐसा लिख दिया ? तत्काल उन्होंने उस पंक्ति को काट दिया। धन की असीम लालसा होती है। उसे संतोष के बिना सीमित नहीं किया जा सकता। “जहा लाहो तहा लोहो" का सूत्र सर्वथा सत्य है।' एक कवि ने लिखा है--- "गोधन गजधन वाजिधन और रतनधन खान । जब आवै संतोषधन सब धन धूलि समान ।। * २०. परिवहण (परिग्गह) कुछ दिन बीते । अन्धेरी रात और बरसात का मौसम था। एक नवयुवति अकेली अपने घर चली जा रही थी । संयोगवश वह अन्धेरे और वर्षा के कारण मार्ग के बीच में ही अटक गई। आस-पास में ठहरने के लिए कोई स्थान नहीं था । कुछ ही दूरी पर संन्यासी का आश्रम था। वह वहां पहुंची। दरवाजा खटखटाया। संन्यासी ने भीतर से दरवाजा खोला। युवति ने घबराते हुए संन्यासी से कहा— महात्मन् ! मैं एकाकी हूं और खराब मौसम के कारण अपने घर नहीं जा सकती । रात्री को यहीं विश्राम चाहती हूं। आप मुझे स्थान बताएं । संन्यासी ने उसे आश्रम के भीतर निर्मित मंदिर का स्थान बता दिया। युवती वहां गई और सुरक्षा की दृष्टि से उसने कपाटों को बन्द कर सांकल लगा ली। तब तक संन्यासी के मन में कोई भी विकार भावना नहीं थी। ज्यों-ज्यों रात बीतने लगी एकाएक उनको काम भावना सताने लगी। उन्होंने मन ही मन सोचा आज अलभ्य अवसर आया है और वह नवयुवति भी अकेली है । अब मेरी मनोकामना को पूरी होने में समय नहीं लगेगा। वे अपने आपको रोक नहीं सके। तत्काल वे उठे और उस युवती से कपाट खुलवाने का प्रयत्न करने लगे। युवती भी मन ही मन समझ गई कि अवश्य ही दाल में काला है । लगता है, अब संन्यासी के मन में वह पवित्र भावना नहीं रही। निश्चित ही वे मेरा शील भंग करना चाहते हैं । यह सोचकर उसने किवाड़ों को खोलने से इन्कार कर दिया। अपने प्रयत्न को असफल होते देख संन्यासी ने इसका दूसरा उपाय निकाला। वे मन्दिर के ऊपर चढ़े और उसके गुम्बज को तोड़कर भीतर घुसने लगे। संकड़ा छिद्र और स्थूल शरीर । उसका परिणाम यह हुआ कि वे अधर में ही लटक गए। न तो वे बाहर निकल सकते थे और न ही भीतर जा सकते थे । इस रस्साकशी में उनका सारा शरीर छिलकर लहूलुहान हो गया। संन्यासी को ब्रह्मचर्य की दुष्करता समझ में आ गई। १९. धन (घण) धन में चल और अचल ——दोनों प्रकार की सम्पत्ति का समावेश होता है। विनिमय रूप में मुद्रा के द्वारा जो लेन-देन किया जाता है वह चल सम्पत्ति कहलाती है। भूमि, मकान, खेत, पशु आदि को अचल सम्पत्ति कहा जाता है । मनुष्य में १. उत्तरज्झयणाणि ८।२७। २. ठाणं ३६५ ३. (क) दसवेआलियं ६।२० मुच्छा परिग्गहो वृत्तो । (ख) तत्त्वार्थसूत्रः ७।१२ मूर्च्छा-परिग्रहः । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५६ 'ताडना' करादिभिराहननम् । ५. वही, पत्र ४५६ : तर्जना अंगुलिभ्रमणभूत्क्षेपादिरूपा । यहां परिग्गह का अर्थ है परिग्रहण – अपने स्वामित्व में रखना । स्थानांग में परिग्रह के तीन प्रकार बतलाए गए हैंशरीर, कर्म-पुद्गल और भण्डोपकरण।' १. प्रस्तुत श्लोक में अपरिग्रह के तीन रूप प्राप्त हैंधन-धान्य आदि का असंग्रह २ आरम्भ का परित्याग ३. निर्ममत्व। परिग्रह की व्याख्या ममत्व - मूर्छा तथा ममत्व के हेतुभूत पदार्थ —- इन दोनों के आधार पर की गई है। दशवेकालिक और तत्त्वार्थसूत्र में वह केवल ममत्व के आधार पर भी की गई है । ' २१. ताड़ना तर्जना, वध, बन्धन (तालणा, तन्नणा, वह बंघ) . ताड़ना, तर्जना, वध और बन्धन- ये चारों परीषह हैंप्रहार और तिरस्कार से उत्पन्न कष्ट हैं (१) ताड़ना - हाथ आदि से मारना । * (२) तर्जना तर्जनी अंगुली दिखा कर या भौंहे चढ़ा कर तिरस्कार करना या डांटना । (३) वध - लकड़ी आदि से प्रहार करना । (४) बन्धन - मयूर - बन्ध आदि से बांधना । " २२. यह जो कापोतीवृत्ति (कावोया जा इमा वित्ती) वृत्तिकार ने कापोतीवृत्ति का अर्थ किया है कबूतर की तरह आजीविका का निर्वहण करने वाला। जिस प्रकार कापोत धान्यकण (टीकाकार ने यहां कीट का भी उल्लेख किया है, परन्तु कबूतर कीट नहीं चुगते) आदि को चुगते समय नित्य सशंक रहता है, उसी प्रकार भिक्षाचर्या में प्रवृत्त मुनि एषणा आदि दोषों के प्रति सशंक होता है। भिक्षु स्वयं भोजन नहीं पकाता। वह गृहस्थ के द्वारा स्वयं के लिए बनाए हुए भोजन में से उसका कुछ अंश लेकर अपनी आजीविका चलाता है। जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य में भिक्षुओं के भिक्षा का नामकरण पशु-पक्षियों के नामों के आधार पर किए गए हैं। जैसे—माधुकरीवृत्ति, कापोतीवृत्ति, अजगरीवृत्ति आदि । ६. ७. ८. वही, पत्र ४५६ वधश्च - लकुटादिप्रहारः । वही, पत्र ४५६ : बंधश्च — मयूरबन्धादिः । वही, पत्र ४५६, ४५७ कपोताः पक्षिविशेषास्तेषामियं कापोती येयं वृत्तिः -- निर्वहणोपायः, यथा हि ते नित्यशंकिताः कणकीटकादिग्रहणे प्रवर्तन्ते, एवं भिक्षुरप्येषणादोषशंक्येव भिक्षादी प्रवर्तते । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३२२ महाभारत में ब्राह्मण के लिए कापोतीवृत्ति का उल्लेख मिलता है 'कुम्भषान्येरुशिले, कापोती वास्थितास्तथा । यस्मिंश्चैते वसन्त्यहस्तद् राष्ट्रमभिवर्धते ।।' कुंडे भर अनाज का संग्रह करके अथवा उञ्छशिल के द्वारा अनाज का संग्रह करके 'कापोती' वृति का आश्रय लेने वाले पूजनीय ब्राह्मण जिस देश में निवास करते हैं उस राष्ट्र की वृद्धि होती है। हैं गृहस्थ के लिए भी चार वृत्तियों का उल्लेख है । उनमें कापोती चौथी वृत्ति है 1 १. कोठे भर अनाज का संगह करना पहली वृत्ति है। २. कुंडे भर अनाज का संग्रह करना दूसरी वृत्ति है। ३. उतने अन्न का संग्रह करना, जो अगले दिन के लिए शेष न रहे, तीसरी वृत्ति है। ४. कापोतीवृत्ति का आश्रय लेकर जीवन निर्वाह करना चौथी वृत्ति है। कापोतीवृत्ति को उच्छवृत्ति भी कहा गया है। २३. दारुण केश लोच (केसलोओ य दारुणो ) केशलोच— हाथ से नोच कर बालों को उखाड़ना सचमुच बहुत दारुण होता है। लोच क्यों किया जाए ? यह प्रश्न उपस्थित होता है। इसका तर्क संगत समाधान देना सम्भवतः कठिन है। यह एक परंपरा है। इसका प्रचलन क्यों हुआ ? इसका समाधान प्राचीन साहित्य में ढूंढना चाहिए । कल्पसूत्र में कहा गया है कि संवत्सरी के पूर्व लोच अवश्य करना चाहिए। उसकी व्याख्या में लोच करने के कुछ हेतु बतलाए गए हैं अध्ययन १६ : श्लोक ३३ टि० २३ (८) नाई अपने क्षुर या कैंची को सचित्त जल से धोता है। इसलिए पश्चात् कर्म दोष होता है। (६) जैन शासन की अवहेलना होती है। इन हेतुओं को ध्यान में रखते हुए मुनि केशों को हाथ से ही नोंच डाले, यही उसके लिए अच्छा है। इस लोच - विधि में आपवादिक विधि का भी उल्लेख है । दिगम्बर - साहित्य में इसके कुछ और हेतु भी बतलाए गए (१) राग आदि का निराकरण करने, (२) अपने पौरुष को प्रगट करने, (३) सर्वोत्कृष्ट तपश्चरण और (४) लिंग आदि के गुण का ज्ञापन करने के लिए। राग आदि के निराकरण से इसका सम्बन्ध है--यह अन्वेषण का विषय है। शासन की अवहेलना का प्रश्न सामयिक है। जीवों की उत्पत्ति न हो तथा उनकी विराधना न हो—इसकी सावधानी बरती जा सकती है। इन हेतुओं से लोच की अनिवार्यता सिद्ध करना कठिन कार्य है। इसमें कोई संदेह नहीं को जानने के बाद भी हमें यही मानना पड़ता है कि यह बहुत कि यह कष्ट सहिष्णुता की बहुत बड़ी कसौटी है। इन हेतुओं पुरानी परम्परा है। दशवेकालिक वृत्ति और मूलाराधना में भी लगभग पूर्वोक्त जैसा ही विवरण मिलता है। उकडू कायक्लेश संसार - विरक्ति का हेतु है । वीरासन, आसन, लोच आदि उसके मुख्य प्रकार हैं। (१) निर्लेपता, (२) पश्चात्कर्म - वर्जन, (३) पुरः कर्म वर्जन और (४) कष्ट (१) केश होने पर अप्काय के जीवों की हिंसा होती है। सहिष्णुता —ये लोच से प्राप्त होने वाले गुण हैं।" (२) भींगने से जूएं उत्पन्न होती हैं। (३) खुजलाता हुआ मुनि उनका हनन कर देता है। (४) खुजलाने से सिर में नख-क्षत हो जाते हैं । (५) यदि कोई मुनि क्षुर (उस्तरे ) या कैंची से बालों को काटता है तो उसे आज्ञा भंग का दोष होता है। (६) ऐसा करने से संयम और आत्मा (शरीर ) दोनों की विराधना होती है। (७) जूंएं मर जाती हैं। १. महाभारत: शांतिपर्व २४३ । २४ । २. महाभारत: शांतिपर्व २४३ ।२,३ । ३. सुबोधिका, पत्र १६० १६१ : केशेषु हि अप्कायविराधना, तत्संसर्गाच्च यूकाः समूर्च्छन्ति, ताश्च कण्डूयमानो हन्ति शिरसि नखक्षत वा स्यात्, यदि क्षुरेण मुण्डापयति कर्त्तर्या वा तदाऽऽज्ञाभंगाद्याः दोषाः संयमात्मविराधना, यूकाश्छिद्यन्ते नापितश्च पश्चात्कर्म करोति शासनापभाजना च, ततो लोच एव श्रेयान् । ४. मूलाचार टीका, पृ० ३७०: जीवसम्मूर्च्छनादिपरिहारार्थं, रागादिनिराकरणार्थं, स्ववीर्यप्रकटनार्थं, सर्वोत्कृष्टतपश्चरणार्थं, लिंगादिगुणज्ञापनार्थं चेति । केशों को संसाधित न करने से उनमें जूं, लीख आदि उत्पन्न होते हैं। वहां से उनको हटाना दुष्कर होता है । सोते समय अन्यान्य वस्तुओं से संघट्टन होने के कारण उन जूं-लीखों को पीड़ा हो सकती है। अन्य स्थल से कीटादिक जन्तु भी वहां उनको खाने आते हैं, वे भी दुष्प्रतिहार्य हैं । लोच से मुण्डत्व, मुण्डत्व से निर्विकारता और निर्विकारता से रत्नत्रयी में प्रबल पराक्रम फोड़ा जा सकता है। लोच से आत्म-दमन होता है; सुख में आसक्ति नहीं दशवेकालिक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र २८-२६ : वीरासण उक्कुडुगासणाइ लोआइओ य विष्णेओ । कायकिलेसो संसारवासनिव्वे अहेउन्ति । वीरासणासु गुणा कायनिरोहो दया अ जीवेसु । परलोअमई अ तहा बहुमाणो चेव अन्नेसिं । णिस्संगया य पच्छापुरकम्मविवज्जणं च लोअगुणा । दुक्खसहत्तं नरगादिभावणाए य निव्वेओ ।। तथाऽन्यैरप्युक्तम् पश्चात्कर्म पुरः कर्मेर्यापथपरिग्रहः । दोषा होते परित्यक्ताः, शिरोलोचं प्रकुर्वता ।। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगापुत्रीय ३२३ अध्ययन १६ :श्लोक ३३-४६ टि० २४-३१ होती; स्वाधीनता रहती है (लोच न करने वाला मस्तक को धोने, आगमों में मुनि के लिए 'अहीव एगंतदिट्ठी'—सांप की सुखाने, तेल लगाने में काल व्यतीत करता है, स्वाध्याय आदि में भांति एकांतदृष्टि-यह विशेषण प्रयुक्त हुआ है। इसका तात्पर्य स्वतंत्र नहीं रहता); निर्दोषता की वृद्धि होती है और शरीर से है कि जैसे सांप लक्ष्य पर ही दृष्टि रखता है, वैसे ही मुनि ममत्व हट जाता है। लोच से धर्म के प्रति श्रद्धा होती है, यह अपने लक्ष्य-मोक्ष को ही दृष्टि में रखे। जिस मुनि में यह उग्र तप है, कष्ट-सहन का उत्कृष्ट उदाहरण है।' निष्ठा होती है, वह एकांतदृष्टि कहलाता है। २४. (धारेठ अ महप्पणो) २८. प्रज्वलित अग्निशिखा को (अग्गिसिहा दित्ता) यहां अ और महप्पणों को पृथक् मानकर अनुवाद किया इस श्लोक के प्रथम चरण में 'अग्गिसिहा' और 'दित्ता' गया है। इन्हें संयुक्त मानकर भी अनुवाद किया जा सकता में द्वितीया के स्थान में प्रथमा विभक्ति है। दूसरे चरण में है—घोर ब्रह्मचर्य को धारण करना अमहात्माओं के लिए दुष्कर 'सुदुक्कर' में लिंग-व्यत्यय मान सुदुष्करा किया जाए और 'करोति' धातु सर्व-थात्वर्थवाची होता है, अतः उसे शक्ति के अर्थ २५. (सुमज्जिओ) में माना जाए तो अग्निशिखा को प्रथमा विभक्ति मान कर भी सुमज्जित का अर्थ है-अच्छी तरह से स्नान किया व्याख्या की जा सकती है। हुआ। वृत्तिकार ने इसे सौकुमार्य का हेतु बतलाया है। सुमज्जिअ २९. वस्त्र के थैले का (कोत्थलो) का दूसरा संस्कृत रूप सुमार्जित भी हो सकता है। 'मृजूक् शुद्धी' हिन्दी में इसे थैला और राजस्थानी में 'कोथला' कहते से सुमज्जित और 'मृजूषा शौचालंकारयोः' से सुमार्जित रूप हैं। निष्पन्न होता है। टीकाकार का संकेत है कि यहां वस्त्र, कम्बल आदि का २६. (आगासे गंगसोउव्व) 'थैला' ही ग्राह्य है, क्योंकि वही हवा से नहीं भरा जाता। चर्म आकाशगंगा का अर्थ नीहारिका है, ऐसी संभावना की जा आदि का थैला तो भरा जा सकता है।' सकती है। ३०. (तं वितऽम्मापियरो) २७. सांप जैसे एकाग्रदृष्टि से (अहीवे गंतदिट्ठीए) वित—यह ब्रूते के स्थान पर आर्ष प्रयोग है। बृहद्वृत्ति सर्प अपने लक्ष्य पर अत्यन्त निश्चल दृष्टि रखता है, में 'तं बिंतऽम्मापियरो'—इस पाठ के बिंत पद को अम्मापियरो यही कारण है कि उसके द्वारा देखे जाने वाले पदार्थ का उसमें का विशेषण माना गया है और कर्त्ता का अध्याहार किया गया है। स्थिर प्रतिबिम्ब पड़ता है। उसकी आंखों की रचना ऐसी है कि इसके दो पाठांतर उपलब्ध हैं-'सो बेअम्मापियरो' में कर्ता वह प्रतिबिम्ब को ग्रहण कर लम्बे समय तक उसको अवस्थित और क्रिया का एकवचन प्राप्त है। 'तो बेंतऽम्मापियरो'-इस रख सकती है। तथा आवश्यकता होने पर उसको पुनः प्रतिबिम्बित पाठ में वचनव्यत्यय के आधार पर बिंत का प्रयोग ब्रूते के अर्थ कर सकती है, प्रस्तुत कर सकती है। वह प्रतिबिम्ब लम्बे समय में बतलाया गया है। तक अमिट रहता है। यही कारण है कि सर्प को मारने वाले ३१. चार अन्त वाले (चाठरते) हत्यारे का सर्प की आंख में प्रतिबिम्ब अवस्थित हो जाता है। संसार-रूपी कांतार के चार अन्त होते हैं-(१) नरक, उसी के आधार पर उसका साथी सर्प या सर्पिणी उस हत्यारे का (२) तिर्यंच, (३) मनुष्य और (४) देव। इसलिए उसे 'चाउरंत' वर्षों तक पीछा कर उसे मार देती है। कहा जाता है। १. मूलाराधना, आश्वास २८८-६२ : ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५७ : 'अग्निशिखा' अग्निज्वाला दीप्तेत्युज्ज्वला केसा संसजति हु णिप्पडिकारस्स दुपरिहारा य। ज्वालाकराला वा, द्वितीयार्थे चात्र प्रथमा, ततो यथाऽग्निशिखां दीप्तां सयणादिमु ते जीवा दिट्टा आगंतुया य तहा।। पातुं सुदुष्कर, नृभिरिति गम्यते, यदि वा लिंगव्यत्ययात् सर्वधात्वर्थत्वाच्च जूगाहिं य लिंक्खाहिं य बाधिज्जंतस्स संकिलेसो य। करोतेः 'सुदुष्करा' सुदृःशका यथाऽग्निशिखा दीप्ता पातु भवतीति योगः, संघट्टिज्जति य ते कंडुयणे तेण सो लोचो।। एवमुत्तरत्रापि भावना। लोचकदे मुण्डत्ते मुण्डत्ते होइ णिब्वियारत्तं। ५. वही, पत्र ४५७ : कोत्थल इह वस्त्रकम्बलादिमयो गृह्यते, चर्ममयो हि तो णिब्बियारकरणो पग्गहिददरंपरक्कमदि।। सुखेनैव प्रियेतेति। अप्पा दमिदो लोएण होइ ण सुहे य संगमुवयादि। ६. वही, पत्र ४५६ : 'तद्' अनन्तरोक्तं 'बिति' 'ब्रवन्ती' अभिदधती सीधाणदा य णिद्दोसदा य देहे य णिम्ममदा।। अम्बापितरौ, प्रक्रमान्मृगापुत्र आह, यथा एवमित्यादि, पठ्यते च--'सो आणक्खिदा य लोचेण अप्पणो होदि थम्मसड्ढा च। बेअम्मापियरो!' ति स्पष्टमेव नवरमिह अम्बापितरावित्यामन्त्रणपद, पठन्ति उग्गो तवो य लोचो तहेव दुक्खस्स सहणं च।। च-'तो बेंतऽम्मापियरो' त्ति 'विति' त्ति वचनव्यत्ययात्ततो ब्रूते अम्बापितरी २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५७ : सुमज्जितः सुष्टु स्नपितः, सकलनेपथ्योपलक्षणं । मृगापुत्र इति प्रक्रमः। चैतत्, इह च सुमज्जितत्वं सुकुमारत्वे हेतुः। ७. वही, पत्र ४५६ : चत्वारो-देवादिभवा अन्ता--अवयवा यस्यासी ३. (क) अंतगडवसाओ ३७२ : अहीव एगंतदिट्ठीए। चतुरन्तः-संसारः। (ख) पण्हावागरणाई १०११ : जहा अही चेव एगदिट्टी। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन १६ : श्लोक ४७-५५ टि० ३२-३६ नाम ३२. (श्लोक ४७-७३) किए हैं-१. कुम्भ से बड़ा बर्तन, २. उष्ट्रिका ऊंट के आकार इन श्लोकों में नारकीय वेदनाओं का चित्र खींचा गया है। का बड़ा बर्तन। पहले तीन नरकों में परमाधार्मिक देवताओं द्वारा पीड़ा पहुंचाई ___३४. जलती हुई अग्नि में (हुयासणे) जाती है और अन्तिम चार में नारकीय जीव स्वयं परस्पर वेदना अग्निकायिक जीव दो प्रकार के होते हैं-सूक्ष्म और की उदीरणा करते हैं। परमाधार्मिक देव १५ प्रकार के हैं। उनके बादर। अग्नि के बादर जीव नरक में नहीं होते। यहां जो कार्य भी भिन्न-भिन्न हैं अग्नि का उल्लेख है, वह सजीव अग्नि के लिए नहीं किन्तु कार्य अग्नि जैसे तापवान् और प्रकाशवान् पुद्गलों के लिए है।" (१) अंब हनन करना, ऊपर से नीचे गिराना, ३५. वजबालुका जैसी कदम्ब नदी की बालू में (वइरवालुए, बींधना आदि-आदि। कलम्बवालुयाए) (२) अंबर्षि काटना आदि-आदि। नरक में वज़बालुका तथा कदम्बबालुका नाम की नदियां (३) श्याम फेंकना, पटकना, बींधना आदि-आदि। हैं। इन नदियों की 'चर' को भी 'वज्रबालुका' व 'कदम्बबालुका' (४) शबल आंते, फेफड़े, कलेजा आदि निकालना। कहा गया है। (५) रुद्र तलवार, भाला आदि से मारना, शूली ३६. (श्लोक ५०-५१) में पिरोना आदि-आदि। तुलना के लिए देखें-सूयगडो : ११५३४, ३५॥ (६) उपरुद्र अंग-उपांगों को काटना आदि-आदि। ३७. शाल्मलि वृक्ष पर (सिंबलिपायवे) (७) काल विविध पात्रों में पचाना। इसके लिए 'कूट शाल्मलि' शब्द का भी प्रयोग होता है। (८) महाकाल शरीर के विविध स्थानों से मांस देखिए-उत्तरज्झयणाणि, २०३६ । इसका अर्थ है-सेमल का निकालना। वृक्ष । इसकी त्वचा पर अगणित कांटे होते हैं। (E) असिपत्र हाथ, पैर आदि को काटना। (१०) धनु ३८. (कोलसुणएहिं, पाडिओ, फालिओ, छिन्नो) कर्ण, ओष्ठ, दांत को काटना। (११) कुम्भ विविध कुम्भियों में पचाना। कोलसुणएहिं कोलशुनक का अर्थ 'सूअर' किया गया (१२) बालुक भूनना आदि-आदि। है। कोल का अर्थ भी 'सूअर है।' इसलिए शुनक का अर्थ (१३) वैतरणि वशा, लोही आदि की नदी में डालना। 'कुत्ता' किया जा सकता है। (१४) खरस्वर करवत, परशु आदि से काटना। पाडिओ—पातित । इसका अर्थ है—ऊपर से नीचे गिराना। (१५) महाघोष भयभीत होकर दौड़ने वाले नैरयिकों फालिओ—फाटित । इसका अर्थ है-वस्त्र की तरह फाड़ना। का अवरोध करना। छिन्नो-छिन्न। इसका अर्थ है-वृक्ष की तरह दो डाल परमाधार्मिक देवों के ये कार्य इस अध्ययन में वर्णित हैं करना। किन्तु यहां परमाधार्मिकों के नाम उल्लिखित नहीं हैं। विशेष ३९. (असीहि, मल्लीहिं, पट्टिसेहि) वर्णन के लिए देखें समवायांग, समवाय १५, वृत्ति पत्र २८, असीहि तलवारें तीन प्रकार की होती हैं-असि, खङ्ग गच्छाचार, पत्र ६४-६५।। और ऋष्टि। असि लम्बी, खङ्ग छोटी और ऋष्टि दुधारी ३३. पकाने के पात्र में (कंदुकुंभीसु) तलवार को कहा जाता है। ___कंदुकुंभीसु'--कंदु का अर्थ है-भट्ठा (भाड़)। कुम्भी का भल्लीहिं भल्ली (बी)। एक प्रकार का भाला। अर्थ है-छोटा घड़ा। कंदु-कुम्भी ऐसे पाक-पात्र का नाम है, पट्टिसेहि पट्टिस के पर्यायवाची नाम तीन हैं-खुरोपम, जो नीचे से चौड़ा और ऊपर से संकरे मुंह वाला हो। लोहदण्ड और तीक्ष्णधार। इनसे उसकी आकृति की जानकारी बृहवृत्ति में इसका अर्थ लोह आदि धातु से बना हुआ मिलती है। उसकी नोके खुरपा की नोकों के समान तीक्ष्ण होती पाक-पात्र किया है। सूत्रकृतांग के चूर्णिकार ने कुम्भी के दो अर्थ हैं. यह लोहदण्ड होता है और इसकी धार तीखी होती है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५६ : कंदुकुम्भीषु-पाकभाजनविशेषरूपासु लोहादिमयीषु । 'कदम्बवालुकायां च' तथैव कदम्बवालुकानदीपुलिने च महादवाग्निसकाश २. सूत्रकृतांग ११५२४ चूर्णि पृ० १३३: कुंभी महंता कुम्भप्रमाणाधिकप्रमाणः इति योज्यत।। कुम्भी भवति, अथवा कुंभी उट्टिगा। ६. वही, पत्र ४६० : 'कोलसुणएहिं' ति सूकरस्वरूपधारिभिः । बृहवृत्ति, पत्र ४५६ : तत्र च बादराग्नेरभावात् पृथिव्या एव तथाविधः ७. वही, पत्र ४६० : 'पातितो' भुवि, 'फाटितो' जीर्णवस्त्रवत्, 'छिन्नो' स्पर्श इति गम्यते। वृक्षवदुभयदंष्ट्राभिरिति गम्यते। ४. वही, पत्र ४५६ : अग्नी देवमायाकते। शेषनाममाला, श्लोक १४८-१४: ५. वही, पत्र ४५६ : वज़वालुकानदीसम्बन्धिपुलिनमपि वज़वालुका तत्र यद्वा ...पट्टिसस्तु खुरोपमः। बजवद्वालुका यरिंमस्त (स्मिन् स त) था तरिमन्नरकप्रदेश इति गम्यते, लोहदण्डस्तीक्ष्णधार...।। Jain Education Intemational Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगापुत्रीय ३२५ अध्ययन १६ : श्लोक ५६-७६ टि० ४०-५३ ४०. चाबुक और रस्सी के द्वारा (तोत्तजुत्तेहिं) रहते थे। वृत्तिकार ने तोत्र का अर्थ चाबुक और योक्त्र का अर्थ ४८. लोहार के द्वारा (कम्मारेहिं) एक प्रकार का बन्धन किया है।' जीवाजीवाभिगम आगम में लोहकार के अर्थ में 'कम्मार' सूत्रकृतांग (१।५।३०) में 'आरुस्स विज्झंति तुदेण पुढे' शब्द का प्रयोग मिलता है। बृहद्वृत्ति में 'कुमारेहिं' पाठ मान पाठ है। इस संदर्भ में 'तुद' का अर्थ है-पशुओं को हांकने का कर उसका अर्थ लोहकार किया है।" 'कुमारेहिं' यह अपपाठ वह साधन, जिसमें नुकीली कील डाली हुई होती है और जो प्रतीत होता है। इसके स्थान पर 'कम्मारेहिं' पाठ होना चाहिए। समय-समय पर पशुओं के गुह्य-प्रदेश में चुभाई जाती है, ४९. (तिब्वचंडप्पगाढाओ घोराओ) जिससे कि वे पशु गति पकड़ सके। इसमें तीव्र, चण्ड, प्रगाढ़ और घोर-ये चार समालोच्य _ 'तुद' और 'तोत्र' दोनों एकार्थक होने चाहिए। शब्द हैं। नारकीय-वेदना को रस-विपाक की दृष्टि से तीव्र कहा ४१. रोज्ञ (रोज्झो ) गया है। चण्ड का अर्थ है-उत्कट । दीर्घकालीनता की दृष्टि से यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है-हरिण की एक जाति। उसे प्रगाढ कहा गया है। घोर का अर्थ है-रौद्रर संस्कत में इसका तत्सम अर्थ है-ऋष्यः। टीकाकार ने पशु ५०. (श्लोक ७४) विशेष कह कर छोड़ दिया है। प्रस्तुत श्लोक में मृगापुत्र का अर्थवादपरक वक्तव्य है। ४२. पाप-कर्मों से घिरा हुआ (पाविओ) अर्थवाद के प्रसंग में किसी विषय पर बल देने के लिए इसके संस्कृत रूप तीन बनते हैं-१. प्रावृतः-घिरा अतिशयोक्तिपूर्ण कथन भी किया जा सकता है। इस वक्तव्य में हुआ, २. पापिकः-पापी, ३. प्रापितः—प्राप्त कराया हुआ। दःख की इतनी प्रचुरता बतला दी कि उसमें सुख के लिए कहीं वृत्तिकार ने इसका अर्थ पापिक किया है। प्रस्तुत प्रसंग अवकाश भी नहीं है। में प्रावृतः-घिरा हुआ यह अर्थ संगत लगता है। ५१. रोगों की चिकित्सा नहीं की जाती (निप्पडिकम्मया) ४३. भांति (विव) निष्प्रतिकर्मता काय-क्लेश नामक तप का एक प्रकार है।" यह 'इव' अर्थ में अव्यय है। पिव, मिव, विव और वा- दशवकालिक (३४) में चिकित्सा को अनाचार कहा है। उत्तराध ये चारों अव्यय 'इव' अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।' ययन (२।३१, ३३) में कहा गया है-भिक्षु चिकित्सा का ४४. कौवा (ढंक) अभिनन्दन न करे तथा जो चिकित्सा का परित्याग करता है. वह ढंक का अर्थ है--कौवा। राजस्थानी में इसे 'ढीकड़ा' भिक्षु है (१५।८)। यहां निष्प्रतिकर्मता का जो संवाद है, वह उक्त (बड़ा काग) कहते हैं। नरकों में तिर्यञ्च गति के जीव नहीं तथ्यों का समर्थन करता है। निर्ग्रन्थ परम्परा में निष्प्रतिकर्मता होते। वहां पशु-पक्षियां का अवकाश नहीं होता। देवता पशु-पक्षियों (चिकित्सा न कराने) का विधान रहा है किन्तु, सम्भवतः यह का वैक्रिय रूप बनाकर नारकों को संताप देते हैं। विशिष्ट अभिग्रहधारी निर्ग्रन्थों के लिए रहा है। ४५. पक्षियों के (पक्खिहिं) देखें-दसवेआलियं ३।४ का टिप्पण। नरक में तिर्यंच नहीं होते। यहां जो पक्षियों का उल्लेख है, ५२. हरिण (मिय.........) वह देवताओं द्वारा किए गए वैक्रिय रूप का है।' मृग का अर्थ हरिण भी है और पशु भी। यहां दोनों अर्थ ४६. छुरे की धार से (खुरधाराहिं) घटित हो सकते हैं। इसका शाब्दिक अर्थ है-छुरे की धार की तरह तीक्ष्ण। विस्तार के लिए देखें-उत्तरज्झयणाणि ११५ का टिप्पण। प्रस्तुत प्रसंग में इसका तात्पर्यार्थ है कि वैतरणी नदी की जल- ५३. (श्लोक ७६-८३) तरंगें छुरे की तरह तेज धार वाली होती हैं। ७६वें श्लोक में 'मियपक्खिणं' पाठ आया है। आगे के ४७. मुसुण्डियों से (मुसंढीहिं) श्लोकों में केवल 'मृग' का ही बार-बार उल्लेख हुआ है। यह यह लकड़ी की बनती थी। इसमें गोल लोहे के कांटे जड़े क्यों ? इसके समाधान में टीकाकार ने बताया है कि मृग प्रायः वति पत्र १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६० : तोत्रयोक्त्रः--प्राजनकबन्धनविशेषैः। २. देशीनाममाला, ७।१२। ३. बृहबृत्ति, पत्र ४६० : 'रोज्नः' पशुविशेषः। ४. वही, पत्र ४६० : 'पावितो' त्ति पापमस्यास्तीति भूम्नि मत्वर्थोयष्टक् पापिकः। ५. वही, पत्र ४६०। ६. द्रष्टव्य सूयगडो : १११६१। का टिप्पण। ७. वृहवृत्ति, पत्र ४६०: ऐते च वैक्रिया एव, तत्र तिरश्चामभावात्। ८. वही, पत्र ४६० : 'खुरधाराहिन्ति क्षरधाराभिरतिच्छेदकतया वैतरणीजलोम्मिभिरिति शेषः। ६. शेषनाममाला, श्लोक १५१ : मुषुण्ढी स्याद् दासमयी, वृत्तायकीलसंचिता। १०. जीवाजीवाभिगम ३।११८-११६............कम्मारदारए सिता। वृत्ति पत्र १२१ : कम्मारदारकः लोहकारदारकः। ' ११. बृहवृत्ति, पत्र ४६१ : कुमारैः-अयस्कारैः। १२. वही, पत्र ४६१ : तीव्रा अनुभागतोऽत एव चण्डाः ---उत्कटाः प्रगाढाः-गुरुस्थितिकास्तत एव 'घोराः' रौद्राः। १३. ओवाइय, सूत्र ३६ : सव्वगायपरिकम्मविभूसविप्पमुक्के। Jain Education Intemational Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३२६ अध्ययन १६ :श्लोक ७८-६१टि० ५४-६१ उपशम-प्रधान होते हैं। इसलिए बार-बार उन्हीं के उदाहरण से है--मृगों की भांति इधर-उधर कूदते हुए भ्रमण करना। यह मृगों विषय को समझाया गया है।' के चलने का प्रकार है। वृत्तिकार ने विकल्प में इसका संस्कृत ५४. महावन में (महारण्णम्मि) रूप 'मितचारिता' देकर इसका अर्थ इस प्रकार किया है-मृग टीकाकार का कथन है कि यहां 'महा' शब्द विशेष स्वभावतः परिमितभोजी होते हैं। उनकी परिमित भक्षण की चर्या प्रयोजन से ही लिया गया है। साधारण अरण्य में लोगों का 'मितचारिता' कहलाती है। आवागमन रहता है। वहां कोई कृपालु व्यक्ति किसी पशु को २. गच्छई मिगचारियं-यहां मृगचारिका का अर्थ हैपीड़ित देख उसकी चिकित्सा कर देता है। जैसे किसी वैद्य ने मृगों की आश्रयभूमी जहां मृग स्वतंत्र रूप से ऊट-बैठ सकते अरण्य में एक व्याघ्र की आंखों की चिकित्सा की थी। महारण्य हैं। तात्पर्य में यह स्वतंत्र विहार की भूमि है। में आवागमन न होने से पशुओं की चिकित्सा का प्रसंग ही नहीं ५८. स्वतंत्र विहार (अणेगओ) आता। जैसे मृग एक वृक्ष से प्रतिबद्ध होकर नहीं रहता, किन्तु ५५. देता है (पणामए) अनेक स्थानों पर विचरता है, वैसे ही मुनि भी अनेकगामी होता अप॑ धातु को प्राकृत में प्रणाम आदेश होता है। इसका है। वह किसी एक स्थान से प्रतिबद्ध नहीं रहता, अनियत अर्थ है-देना। विहार करता रहता है। ५६. लता निकुब्जों (वल्लराणि) ५९. गोचर से ही जीवन-यापन करने वाला (धुवगोयरे) यह देश्य शब्द है। इसके सात अर्थ हैं-अरण्य, महिष, यहां ध्रुव का अर्थ है-सदा और गोचर का अर्थ है—वन क्षेत्र, युवा, समीर, निर्जल-देश और वन। । की वह भूमी जहां पशुओं को चरने के लिए घास और पीने के टीकाकार ने इसके चार अर्थों का निर्देश किया है- लिए पानी उपलब्ध हो जाता है। अरण्य पशु इसी गोचर से अरण्य, निर्जल-देश, वन और क्षेत्र। यहां वल्लर का अर्थ- अपना जीवन-यापन करते हैं। गहन (लता-निकुञ्ज) होना चाहिए। ६०. उपधि (उवहिं) ५७. मृगचर्या (मिगचारियं) उपथि का अर्थ है-उपकरण--आभरणादि। मृगापुत्र को प्रस्तुत अध्ययन में 'मिगचारियं या मियचारियं' शब्द पांच माता-पिता के द्वारा प्रव्रजित होने की अनुमति मिल गई। उस बार आया है--श्लोक ८१, ८२, ८४ और ८५ में। शान्त्याचार्य समय उसने उपधि को त्यागने का संकल्प किया। ने 'मिगचारिया' के संस्कृत रूप दो दिए हैं वृत्तिकार ने उपधि के दो प्रकार बतलाये हैं-द्रव्य और १. मृगचर्या-हिरणों की इधर-उधर उत्प्लवन की चर्या। भाव। द्रव्य उपधि का अर्थ है-उपकरण और भाव उपधि का २. मितचारिता-परिमित भक्षणरूप चर्या । हिरण अर्थ है-छद्म या कपट । प्रव्रजित होने के लिए इन दोनों का स्वभावतः मिताहारी होते हैं। त्याग आवश्यक है। 'चर्या' का प्राकृत रूप 'चरिया' बनता है, इसलिए 'चारिया' ६१. (श्लोक ९१) का संस्कृत रूप 'चारिका' या 'चारिता'-दोनों हो सकते हैं। प्रस्तुत श्लोक के कुछ शब्दों का विमर्श इस प्रकार हैअर्थ-संगति की दृष्टि से 'मितचारिता' की अपेक्षा 'मृगचारिका' १. गारव-गौरव का अर्थ है-अभिमान से उत्तप्त चित्त अधिक उपयुक्त है। की अवस्था। वह तीन प्रकार का हैप्रस्तुत श्लोक (८१) में 'मिगचारियं' शब्द दो बार प्रयुक्त .ऋद्धि गौरव-ऐश्वर्य का अभिमान। है। दोनों के अर्थ भिन्न हैं • रस गौरव-इष्ट वस्तु की प्राप्ति का अभिमान। १. मिगचारियं चरित्ताणं-यहां मृगचारिका का अर्थ •सात गौरव-सुख-सुविधाओं का अभिमान। पिता के द्वारा प्रवाशाने का संकल्प किया। द्रव्य और १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६३ : इह च मृगपक्षिणामुभयेषामुपक्षेपे यन्मृगस्यैव पुनः ६. वही, पत्र ४६२-४६३ : मृगाणां चर्या-इतश्चेतश्चोत्प्लवनात्मकं चरणं पुनदृष्टान्तत्वेन समर्थनं तत्तस्य प्रायः प्रशमप्रधानत्वादिति सम्प्रदायः। मृगचर्या तां, 'मितचारिता' वा परिमितभक्षणात्मिकां 'चरित्या' आसेव्य २. वही, पत्र ४६२ : 'महारण्य' इति महाग्रहणममहति शरण्ये ऽपि परिमिताहार एव हि स्वरूपेणैव मृगा भवन्ति।....मृगाणां चर्या-चेष्टा कश्चित्कदाचित्पश्येत् दृष्ट्वा च कृपातश्चिकित्सेदपि, श्रूयते हि केनचिद् स्वातन्त्र्योपवेशनादिका यस्यां सा मृगचर्यामृगा-श्रयभूस्ताम् । भिषजा व्याघ्रस्य चक्षुरुद्घाटितमटव्यामिति । वही, पत्र ४६३ : 'अणेगय' त्ति अनेकगो यथा ह्यसौ वृक्षमूले नेकस्मिन्नेवारते ३. (क) बृहवृत्ति, पत्र ४६२ : "प्रणामयेत्' अर्पयेत्, 'अः पणाम' इति किन्तु कदाचित्स्यचिदेवमेषोऽप्यनियतस्थानस्थतया। वचनात्। ८. वही, पत्र ४६३ : जहाति-त्यजति उपधिम् ---उपकरणभावरणादि (ख) तुलसीमंजरीः सूत्र ८८४ : अरल्लिय-चच्चुप्पपणामाः। द्रव्यतो भावतस्तु छमादि येनात्मा नरक उपधीयते, ततश्च प्रबजतीत्युक्तं ४. देशीनाममाला, ७८६ : वल्लरमरण्णमहिसक्खेत्तजुवसमीरणिज्जलवणेसु। भवति। ५. बृहवृत्ति, पत्र ४६२ : उक्तं च-“गहणमवाणियदेसं रणे छेत्तं च ६. ठाणं ३५०५। वल्लरं जाण।" Jain Education Intemational Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगापुत्रीय ३२७ अध्ययन १६ : श्लोक ६२-६३ टि० ६२-६५ २. दंड-दंड का अर्थ है-दुष्प्रणिधान। इसके तीन लिए तथा 'चन्दन' शब्द मनोज्ञ या प्रीतिकर वस्तुओं के लिए प्रकार हैं प्रयुक्त है। • मनोदंड-मन का दुष्प्रणिधान। डॉ० जेकोबी अवचूरीकार के अर्थ पर टिप्पणी करते हुए •वचोदंड-वचन की दुष्पयुक्तता। लिखते हैं-अवचूरीकार ने 'वास' का अर्थ रहने का स्थान •कायदंड-शारीरिक दुष्प्रवृत्ति। किया है। परन्तु मुझे लगता है कि चन्दन के साथ 'वासी' शब्द ३. शल्य-शल्य का अर्थ है-अन्तर में घुसा हुआ दोष। का प्रयोग होने से वह कोई दुर्गन्धयुक्त पदार्थ का द्योतक होना इसके तीन प्रकार हैं चाहिए। .मायाशल्य-मायापूर्ण आचरण। अवचूरीकार तथा जेकोबी का अर्थ यथार्थ नहीं लगता। •निदानशल्य-ऐहिक और पारलौकिक उपलब्धि के ६३. (अणसणे) लिए धर्म का विनिमय। _ 'नञ्' के दो अर्थ होते हैं-अभाव और कुत्सा। यहां •मिथ्यादर्शनशल्य-आत्मा का मिथ्यात्वमय दृष्टिकोण।। 'अणसणे' का अर्थ है 'भोजन न मिलने' अथवा 'खराब भोजन (दंड और शल्य के विशेष विवरण के लिए देखें-३१।४ का मिलने पर। टिप्पण) ४. भय—इसके सात प्रकार हैं ६४. अप्रशस्त द्वारों से आने वाले (अप्पसत्थेहिं दारेहि) १. इहलोक भय ५. वेदना भय आश्रव के द्वारा कर्म-पुद्गलों का ग्रहण किया जाता है, २. परलोक भय ६. मरण भय इसलिए वे द्वार कहलाते हैं। आगम-साहित्य में कहीं-कहीं ३. आदान भय ७. अश्लोक भय आश्रव और कहीं-कहीं आश्रवद्वार का प्रयोग मिलता है। हिंसा ४. अकस्मात् भय आदि अप्रशस्त द्वार हैं। ६२. वसूले से काटने और चंदन लगाने पर...(वासीचंदणकप्पो) ६५. अध्यात्म-ध्यानयोग के द्वारा प्रशस्त एवं उपशम प्रधान शान्त्याचार्य के अनुसार 'वासी' और 'चन्दन' शब्द के शासन में रहने वाला (अज्झप्पझाणजोगेहिं पसत्वदमसासणे) द्वारा उनका प्रयोग करने वाले व्यक्तियों का ग्रहण किया गया है। योग शब्द को अध्यात्म और ध्यान दोनों के साथ जोड़ा जा कोई व्यक्ति वसूले से छीलता है, दूसरा चन्दन का लेप करता सकता है-अध्यात्मयोग, ध्यानयोग। जैन शासन दम का शासन है---मनि दोनों पर समभाव रखे। यहां 'कल्प' शब्द का अर्थ है। उसमें दम के प्रशस्त साधन ही मान्य हैं। अप्रशस्त साधनों सदश है। जैन साहित्य में यह साम्ययोग बार-बार प्रतिध्वनित से दम करना जैन साधना पद्धति में वांछनीय नहीं है। होता है अध्यात्मयोग और ध्यानयोग-ये दम के प्रशस्त साधन हैं। जो चंदणेण बाहु आलिंपइ वासिणा वि तच्छेइ। अध्यात्मयोग के द्वारा व्यक्ति अपनी अन्तश्चेतना तक पहुंचता है संथुणइ जो अनिदइ महारिसाणो तत्थ समभावा॥' और शुद्ध चेतना की अनुभूति का अभ्यास करता है। वह ध्यान श्रीमद् जयाचार्य ने भगवान् ऋषभ की स्तुति में इस के द्वारा समाधि को सिद्ध कर समय-समय पर उटने वाली साम्ययोग की भावना का इन शब्दों में चित्रण किया है- तरंगों को शान्त और क्षीण करता है। यह बलप्रयोग से किया वासी चंदण समपण, थिर चित्त जिन ध्याया। जाने वाला दमन नहीं है, किन्तु साधना के द्वारा किया जाने इम तनसार तजी करी, प्रभु केवल पाया। वाला उपशमन है। इस प्रशस्त दम की अवस्था में ही जिनशासन डॉ० हरमन जेकोबी ने इस पद का अर्थ इस प्रकार या आत्मानुशासन उपलब्ध होता है। किया है.-'अनमोज्ञ और मनोज्ञ' वस्तुओं के प्रति। इनके वृत्तिकार ने अध्यात्म ध्यानयोग का अर्थ-शुभ ध्यान का अनुसार 'वासी' शब्द अमनोज्ञ और अप्रीतिकर वस्तुओं के व्यापार किया है। १. ठाणं ७।२७। बृहद्वृत्ति, पत्र ४६५ : वासीचन्दनशब्दाभ्यां च तद्व्यापारकपुरुषावुपलक्षिती, ततश्च यदि किलैको वास्या तक्ष्णोति, अन्यश्च गोशीर्षादिना चन्दनेनालिम्पति, तथाऽपि रागद्वेषाभावतो द्वयोरपि तुल्यः, कल्पशब्दस्येह सदृशपर्यायत्वात्। ३. उपदेशमाला, ६२। ४. चौवीसी ११५ सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, Vol. XLV, Page II. फुटनोट नं०१ Apparently he gives vasa the meaning dwelling but I think the juxtaposition of Candana calls for a word denoting a bad smelling substance. perhaps 'ordure'. ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६५ : नाऽभावे कुत्सायां वा, ततश्चाशनस्यभोजनस्याभावे कुत्सिताशनभावे वा। ७. (क) दसवेआलियं : ३११ पंचासवपरिन्नाया......... (ख) ठाणं, ५१०६; समवाओ, ५४ : पंच आसवदारा पण्णत्ता... | बृहवृत्ति, पत्र ४६५ : 'अप्रशस्तेभ्यः' प्रशंसाऽनास्पदेभ्यः 'द्वारेभ्यः' कर्मोपार्जनोपायेभ्यो हिंसादिभ्यः । वही, पत्र ४६५ : अध्यात्मेत्यात्मनि ध्यानयोगाः-शुभध्यानव्यापाराअध्यात्मध्यानयोगास्तः, अध्यात्म ग्रहणं तु परस्थानां तेषामकिञ्चित्करत्वाद, अन्यथाऽतिप्रसंगात, प्रशस्तः प्रशंसास्पदो दमश्च-उपशमः शासन च-- सर्वज्ञागमात्मकं यस्य स प्रशस्तदमशासन इति। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६६. भावनाओं के द्वारा (भावणाहि य सुद्धाहिं ) वृत्तिकार ने भावना शब्द का सम्बन्ध महाव्रत की पच्चीस भावनाओं तथा अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षाओं के साथ स्थापित किया है।' ध्यान शतक में चार भावनाओं का उल्लेख मिलता है। १. ज्ञान भावना २. दर्शन भावना ३२८ अध्ययन १६ : श्लोक ६४-६८ टि० ६६-६६ है— मृगा रानी का । किन्तु छन्द की दृष्टि से एकार को इकार किया गया है। ६८. सुनकर (निसम्म) श्रवण और निशमन - दोनों शब्द सुनने के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। दोनों के तात्पर्यार्थ में अन्तर है । कानों से शब्द मात्र को ग्रहण करना श्रवण है। गहराई से सुनना, अवधारण करना निशमन है। ३. चारित्र भावना ४. वैराग्य भावना सम्भावना की जा सकती है कि इस भावना शब्द का इस श्लोक में निर्दिष्ट ज्ञान, दर्शन और चारित्र के साथ सम्बन्ध है । ६७. मृगापुत्र (मियाइपुत्तस्स) ६९. निर्वाण के गुणों को प्राप्त कराने वाली (निव्वाणगुणावह) निर्वाण के चार गुण हैं—अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तशक्ति और अनन्त आनन्द-सुख । जो इन चारों की प्राप्ति मियाइ–—यहां मियाए पाठ होना चाहिए था। इसका अर्थ कराती है वह निर्वाणगुणावहा । २. ध्यानशतक, श्लोक ३० । १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६५ 'भावनाभिः' महाव्रतसम्बन्धिनीभिर्वक्ष्यमाणाभिरनित्यत्वादिविषयाभिर्वा । 'विशुद्धिभि' निदानादिदोषरहिताभिर्भाववयित्वा - ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६६ । तन्मयतां नीत्वा 'अप्पयं' ति आत्मानम् । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसइमं अज्झयणं महानियंठिज्जं बीसवां अध्ययन महानिर्ग्रन्थीय Jain Education Intemational Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख मगध देश का सम्राट् श्रेणिक एक बार विहार-यात्रा के मेरे सगे-सम्बन्धियों ने मेरी वेदना पर अपार आंसू बहाए। पर लिए मंडितकुक्षि नामक उद्यान में आया। घूम-फिर कर उसने मेरी वेदना को वे न बंटा सके। यह थी मेरी अनाथता। यदि उद्यान की शोभा निहारी। देखते-देखते उसकी आंखें एक इस पीड़ा से मैं मुक्त हो जाऊं तो मैं मुनि बन जाऊं'-इस ध्यानस्थ मुनि पर जा टिकीं। राजा पास में गया। वन्दना की। संकल्प को साथ ले मैं सो गया। जैसे-जैसे रात बीती वैसे-वैसे मुनि के रूप-लावण्य को देख वह अत्यन्त विस्मित हुआ। रोग शान्त होता गया। सूर्योदय होते-होते में स्वस्थ हो गया उसने पूछा-'मुने! भोग-काल में संन्यास-ग्रहण की बात और माता-पिता की आज्ञा लेकर प्रव्रजित होकर सभी प्राणियों समझ में नहीं आती। आप तरुण हैं, भोग भोगने में समर्थ हैं। का नाथ बन गया। उन सबको मुझ से त्राण मिल गया। यह इस अवस्था में आप मुनि क्यों बने ?' मुनि ने कहा—'राजन्! है मेरी सनाथता। मैंने आत्मा पर शासन किया-यह है मेरी में अनाथ हूं। मेरा कोई भी नाथ नहीं है, त्राण नहीं है। सनाथता। मैं श्रामण्य का विधिपूर्वक पालन करता हूं--यह है इसलिए मैं मुनि बना हूं।' राजा ने मुस्कराते हुए कहा- मेरी सनाथता।' 'शरीर-सम्पदा से आप ऐश्वर्यशाली लगते हैं फिर अनाथ राजा ने सनाथ और अनाथ का यह अर्थ पहली बार कैसे? कुछ भी हो मैं आपका नाथ बनता हूं। आप मेरे साथ सुना। उसके ज्ञान-चक्षु खुले। वह बोला-'महर्षे ! आप ही चलें। सुखपूर्वक भोग भोगें। मुने! मनुष्य-भव बार-बार नहीं वास्तव में सनाथ और सबान्धव हैं। मैं आपसे धर्म का मिलता।' मुनि ने कहा- 'तुम स्वयं अनाथ हो। मेरे नाथ कैसे अनुशासन चाहता हूं।' (श्लोक ५५) बन सकोगे?' राजा को यह वाक्य तीर की भांति चुभा। उसने मुनि ने उसे निर्ग्रन्थ धर्म की दीक्षा दी। वह धर्म में कहा--'मुने! आप झूठ क्यों बोलते हैं। मैं अपार सम्पत्ति का अनुरक्त हो गया। स्वामी हूं। मेरे राज्य में मेरी हर आज्ञा अखण्ड रूप से प्रवर्तित इस अध्ययन में अनेक विषय चर्चित हुए हैंहोती है। मेरे पास हजारों हाथी, घोड़े, रथ, सुभट और १. आत्मकर्तृत्व के लिए ३६, ३७ एवं ४८ श्लोक नौकर-चाकर हैं। सारी सुख-सामग्री उपनीत है। मेरे आश्रय मननीय हैं। में हजारों व्यक्ति पलते हैं। ऐसी अवस्था में मैं अनाथ कैसे ?' २. ४४वें श्लोक में विषयोपपन्न धर्म के परिणामों का मुनि ने कहा- 'तुम अनाथ का अर्थ नहीं जानते और नहीं दिग्दर्शन है। जैसे पीया हुआ कालकूट विष, अविधि जानते कि कौन व्यक्ति कैसे सनाथ होता है और कैसे अनाथ ?' से पकड़ा हुआ शस्त्र और अनियन्त्रित वेताल मुनि ने आगे कहा---'मैं कौशाम्बी नगरी में रहता था। विनाशकारी होता है, वैसे ही विषयों से युक्त धर्म मेरे पिता अपार धन-राशि के स्वामी थे। हमारा कुल सम्पन्न भी विनाशकारी होता है। था। मेरा विवाह उच्च कुल में हुआ था। एक बार मुझे असह्य ३. द्रव्य-लिंग से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती, इसके अक्षि-रोग उत्पन्न हुआ। उसको मिटाने के लिए नानाविध लिए ४१ से ५० श्लोक मननीय हैं। प्रयत्न किए गए। पिता ने अपार धन-राशि का व्यय किया। (मिलाइए-सुत्तनिपात—'महावग्ग'—पवज्जा सुत्त।) सभी परिवार वालों ने नानाविध प्रयत्न किए, पर सब व्यर्थ । इस अध्या Jain Education Intemational Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंसइमं अज्झयणं : बीसवां अध्ययन महानियंठिज्जं : महानिर्गन्थीय हिन्दी अनुवाद सिद्धों और संयत आत्माओं को भाव-भरा नमस्कार कर' मैं अर्थ (साध्य) और धर्म का ज्ञान कराने वाली तथ्यपूर्ण अनुशासना का निरूपण करता हूं। वह मुझसे सुनो। प्रचुर रत्नों से सम्पन्न, मगध का अधिपति राजा श्रेणिक मण्डिकुक्षि नामक उद्यान में विहार-यात्रा (क्रीड़ा-यात्रा) के लिए गया। वह उद्यान नाना प्रकार के द्रुमों और लताओं से आकीर्ण, नाना प्रकार के पक्षियों से आश्रित, नाना प्रकार के कुसुमों से पूर्णतः ढका हुआ नन्दनवन के समान था। वहां राजा ने संयत, मानसिक समाधि से सम्पन्न, वृक्ष के पास बैठे हुए सुकुमार और सुख भोगने योग्य साधु को देखा। मूल संस्कृत छाया १. सिद्धाणं नमो किच्चा सिद्धेभ्यो नमः कृत्वा संजयाणं च भावओ। संयतेभ्यश्च भावतः। अत्थधम्मगई तच्चं अर्थधर्मगति तथ्याम् अणुसटुिं सुणेह मे।। अनुशिष्टि शृणुत मे।। २. पभूयरयणो राया प्रभूतरत्नो राजा सेणिओ मगहाहिवो। श्रेणिको मगधाधिपः। विहारजत्तं निज्जाओ विहारयात्रां निर्यातः मंडिकुच्छिसि चेइए।। मण्डिकुक्षौ चैत्ये।। ३. नाणादुमलयाइण्णं नानादुमलताकीर्ण नाणापक्खिानिसेवियं । नानापक्षिनेषेवितम्। नाणाकुसुमसंछन्नं नानाकुसुमसंछन्नम् उज्जाणं नंदणोवमं ।। उद्यानं नन्दनोपमम् ।। ४. तत्थ सो पासई साहुं तत्र स पश्यति साधु संजयं सुसमाहियं। संयतं सुसमाहितम्। निसन्नं रुक्खमूलम्मि निषण्णं रूक्षमूले सुकुमालं सुहोइयं ।। सुकुमारं सुखोचितम् ।। ५. तस्स रूवं तु पासित्ता तस्य रूपं तु दृष्ट्वा राइणो तम्मि संजए। राज्ञः तस्मिन् संयते। अच्चंतपरमो आसी अत्यन्तपरम आसीत् अउलो रूवविम्हओ।। अतुलो रूपविस्मयः।। अहो! वण्णो अहो! रूवं अहो ! वर्णः अहो ! रूपम् अहो ! अज्जस्स सोमया। अहो! आर्यस्य सौम्यता। अहो! खंती अहो! मुत्ती अहो ! क्षान्तिरहो! मुत्तिः अहो! भोगे असंगया।। अहो ! भोगेऽसङ्गता।। ७. तस्स पाए उ वंदित्ता तस्य पादौ तु वन्दित्वा काऊण य पयाहिणं। कृत्वा च प्रदक्षिणाम्। नाइदूरमणासन्ने नातिदूरमनासन्नः पंजली पडिपुच्छई।। प्राञ्जलिः प्रतिपृच्छति।। तरुणो सि अज्जो! पव्वइओ तरुणोऽस्यार्य ! प्रव्रजितः भोगकालम्मि संजया!। भोगकाले संयत!। उवट्ठिओ सि सामण्णे उपस्थितोऽसि श्रामण्ये एयमठें सुणेमि ता ।।। एतमर्थं शृणोमि तावत् ।। उसके रूप को देखकर राजा उस संयत के प्रति आकृष्ट हुआ और उसे अत्यन्त उत्कृष्ट और अतुलनीय विस्मय हुआ। आश्चर्य ! कैसा वर्ण और कैसा रूप है।' आश्चर्य ! आर्य की कैसी सौम्यता है। आश्चर्य ! कैसी क्षमा और निर्लोभता है आश्चर्य! भोगों में कैसी अनासक्ति है। उसके चरणों में नमस्कार और प्रदक्षिणा' कर, न अतिदूर और न अतिनिकट रह राजा ने हाथ जोड़कर पूछा। "आर्य ! अभी तुम तरुण हो। संयत ! तुम भोग-काल में प्रव्रजित हुए हो, श्रामण्य के लिए उपस्थित हुए हो इसका क्या प्रयोजन है मैं सुनना चाहता हूं।" Jain Education Intemational Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३३२ अध्ययन २० : श्लोक ६-१७ ६. अणाहो मि महाराय ! नाहो मज्झ न विज्जई। अणुकंपगं सुहिं वावि कंचि नाभिसमेमहं ।। १०.तओ सो पहसिओ राया सेणिओ मगहाहिवो। एवं ते इड्डिमंतस्स कहं नाहो न विज्जई ?|| ११.होमि नाहो भयंताणं! भोगे मुंजाहि संजया!। मित्तनाईपरिवुडो माणुस्सं खु सुदुल्लहं।। १२.अप्पणा वि अणाहो सि सेणिया! मगहाहिवा!। अप्पणा अणाहो संतो कहं नाहो भविस्ससि?|| १३.एवं वुत्तो नरिंदो सो सुसंभंतो सुविम्हिओ। वयणं अस्सुयपुव्वं साहुणा विम्हयन्निओ।। १४.अस्सा हत्थी मणुस्सा मे पुरं अंतेउरं च मे। मुंजामि माणुसे भोगे आणाइस्सरियं च मे।। १५.एरिसे संपयग्गम्मि सव्वकामसमप्पिए। कहं अणाहो भवइ? मा हु भते! मुसं वए।। १६.न तुमं जाणे अणाहस्स अत्थं पोत्थं वा पत्थिवा।। जहा अणाहो भवई सणाहो वा नराहिवा?।। १७.सुणेह मे महाराय ! अव्वक्खित्तेण चेयसा। जहा अणाहो भवई जहा मे य पवत्तियं ।। अनाथोऽस्मि महाराज ! “महाराज ! मैं अनाथ हूं, मेरा कोई नाथ नहीं है। नाथो मम न विद्यते। मुझ पर अनुकम्पा करने वाला या मित्र कोई नहीं पा अनुकम्पकं सुहृदं वापि रहा हूं।" कंचिन्नाभिसमेम्यहम्।। ततः स प्रहसितो राजा यह सुनकर मगधाधिपति राजा श्रेणिक जोर से हंसा श्रेणिको मगधाधिपः। और उसने कहा-“तुम ऐसे सहज सौभाग्यशाली हो एवं ते ऋद्धिमतः फिर कोई तुम्हारा नाथ कैसे नहीं होगा ?" कथं नाथो न विद्यते?।। भवामि नाथो भदन्तानां “हे भदन्त ! मैं तुम्हारा नाथ होता हूं। संयत ! मित्र भोगान् भुङ्गश्व संयत!। और ज्ञातियों से परिवृत होकर विषयों का भोग करो। मित्रज्ञातिपरिवृतः यह मनुष्य-जन्म बहुत दुर्लभ है।" मानुष्यं खलु सुदुर्लभम् ।। आत्मनाप्यनाथोऽसि "हे मगध के अधिपति श्रेणिक ! तुम स्वयं अनाथ हो। श्रेणिक ! मगधाधिप! स्वयं अनाथ होते हुए भी तुम दूसरों के नाथ कैसे आत्मनाऽनाथः सन् होओगे?” कथं नाथो भविष्यसि?|| एवमुक्तो नरेन्द्रः सः श्रेणिक पहले ही विस्मयान्वित बना हुआ था और सुसम्भ्रान्त सुविस्मितः। साधु के द्वारा-तू अनाथ है-ऐसा अश्रुतपूर्व-वचन वचनमश्रुतपूर्व कहे जाने पर वह अत्यन्त व्याकुल और अत्यन्त साधुना विस्मयान्वितः।। आश्चर्यमग्न हो गया। अश्वा हस्तिनो मनुष्या मे "मेरे पास हाथी और घोड़े हैं, नगर और अन्तःपुर पुरमन्तःपुरं च मे। है, मैं मनुष्य सम्बन्धी भोगों को भोग रहा हूं, आज्ञा भुनज्मि मानुषान् भोगान् और ऐश्वर्य मेरे पास है।" आज्ञैश्वर्यं च मे।। ईदृशे सम्पदग्रे “जिसने मुझे सब काम-भोग समर्पित किए हैं वैसी समर्पितसर्वकामे। उत्कृष्ट सम्पदा होते हुए मैं अनाथ कैसे हूँ ? भदंत ! कथमनाथो भवामि? असत्य मत बोलो।" मा खलु भदन्त ! मृषा वादीत् ।। न त्वं जानीषेऽनाथस्य "हे पार्थिव ! तू अनाथ शब्द का अर्थ और उसकी अर्थं प्रोत्था वा पार्थिव!। उत्पत्ति-मैंने तुझे अनाथ क्यों कहा इसे नहीं यथाऽनाथो भवति जानता, इसलिए जैसे अनाथ या सनाथ होता है, वैसे सनाथो नराधिप! ?" नहीं जानता।” शृणु मे महाराज! "महाराज ! तू अव्याकुल चित्त से सुन-जैसे कोई अव्याक्षिप्तेन चेतसा। पुरुष अनाथ होता है और जिस रूप में मैंने उसका यथाऽनाथो भवति प्रयोग किया है।" यथा मया च प्रवर्तितम्।। Jain Education Intemational Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानिर्ग्रन्थीय ३३३ अध्ययन २० : श्लोक १८-२६ "प्राचीन नगरों में असाधारण सुन्दर" कौशाम्बी नाम की नगरी है। वहां मेरे पिता रहते हैं। उनके पास प्रचुर धन का संचय है।" कौशाम्बी नाम नगरी पुराणपुरभेदिनी। तत्रासीत् पिता मम प्रभूतधनसंचयः।। प्रथमे वयसि महाराज! अतुला मेऽक्षिवेदना। अभूद् विपुलो दाहः सर्वाङ्गेषु च पार्थिव!" शस्त्रं यथा परमतीक्ष्णं शरीरविवरान्तरे। प्रवेशयेदरिः क्रुद्धः एवं मेऽक्षिवेदना। "महाराज ! प्रथम-वय (यौवन) में मेरी आंखों में असाधारण वेदना उत्पन्न हुई। पार्थिव ! मेरा समूचा शरीर पीड़ा देने वाली जलन से जल उठा।" "जैसे कुपित बना हुआ शत्रु शरीर के छेदों में अत्यन्त तीखे शस्त्रों को घुसेड़ता है, उसी प्रकार मेरी आखों में वेदना हो रही थी।" "मेरे कटि, अन्तश्चेतना और मस्तक में परम दारुण वेदना हो रही थी, जैसे इन्द्र का वज लगने से घोर वेदना होती है।" १८.कोसंबी नाम नयरी पुराणपुरभेयणी। तत्थ आसी पिया मज्झ पभूयधणसंचओ।। १६.पढमे वए महाराय ! अउला मे अच्छिवेयणा। अहोत्था विउलो दाहो सव्वंगेसु य पत्थिवा!।। २०.सत्थं जहा परमतिक्खं सरीरविवरंतरे। पवेसेज्ज अरी कुद्धो एवं मे अच्छिवेयणा ।। २१.तियं मे अंतरिच्छं च उत्तमंगं च पीडई। इंदासणिसमा घोरा वेयणा परमदारुणा ।। २२.उवट्ठिया मे आयरिया विज्जामंततिगिच्छगा। अबीया सत्थकुसला मंतमूलविसारया।। २३.ते मे तिगिच्छं कुवंति चाउप्पायं जहाहियं । न य दुक्खा विमोयंति एसा मज्झ अणाहया ।। २४.पिया मे सव्वसारं पि दिज्जाहि मम कारणा। न य दुक्खा विमोएइ एसा मज्झ अणाहया।। २५.माया य मे महाराय ! पुत्तसोगदुहट्टिया। न य दुक्खा विमोएइ एसा मज्झ अणाहया ।। २६.भायरो मे महाराय ! सगा जेट्टकणिट्ठगा। न य दुक्खा विमोयंति एसा मज्झ अणाहया ।। त्रिकं मे अन्तरिक्षं च उत्तमांगं च पीडयति। इन्द्राशनिसमा घोरा वेदना परमदारुणा।। उपस्थिता मे आचार्याः विद्यामन्त्रचिकित्सकाः। अद्वितीयाः शास्त्रकुशलाः मंत्रमूलविशारदाः।। ते मे चिकित्सां कुर्वन्ति चतुष्पादां यथाऽऽहृताम् । न च दुःखाद् विमोचयन्ति एषा ममाऽनाथता।। “विद्या और मन्त्र के द्वारा चिकित्सा करने वाले मन्त्र और औषधियों के विशारद अद्वितीय शास्त्र-कुशल प्राणाचार्य मेरी चिकित्सा करने के लिए उपस्थित हुए।"१३ “उन्होंने गुरु-परंपरा से प्राप्त आयुर्विद्या के आधार पर मेरी चतुष्पाद-चिकित्सा की, किन्तु वे मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सके—यह मेरी अनाथता है।" पिता में सर्वसारमपि दद्यान् मम कारणात्। न च दुःखाद् विमोचयति एषा ममाऽनाथता।। "मेरे पिता ने मेरे लिए उन प्राणाचार्यों को बहुमूल्य वस्तुएं दीं, किन्तु वे (पिता) मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सके—यह मेरी अनाथता है।" "महाराज ! मेरी माता पुत्र-शोक के दुःख से पीड़ित होती हुई भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकी-यह मेरी अनाथता है।" माता च मे महाराज! पुत्रशोकदुःखार्ता। न च दुःखाद् विमोचयति एषा ममाऽनाथता।। भ्रातरो मे महाराज! स्वका ज्येष्ठकनिष्ठकाः। न च दुःखाद् विमोचयन्ति एषा ममाऽनाथता।। "महाराज ! मेरे बड़े-छोटे सगे भाई भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सके—यह मेरी अनाथता है।" Jain Education Intemational Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३३४ अध्ययन २० : श्लोक २७-३५ "महाराज ! मेरी बड़ी-छोटी सगी बहनें भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकीं-यह मेरी अनाथता भगिन्यो मे महाराज! स्वका ज्येष्टकनिष्ठकाः। न च दुःखाद् विमोचयन्ति एषा ममाऽनाथता।। भार्या में महाराज! अनुरक्ताऽनुव्रता। अश्रुपूर्णाभ्यां नयानाभ्यां उरो मे परिषिंचति।। "महाराज! मुझमें अनुरक्त और पतिव्रता१६ मेरी पत्नी आंसू भरे नयनों से मेरी छाती को भिगोती रही।" “वह बाला मेरे प्रत्यक्ष और परोक्ष में अन्न, पान, स्नान"", गन्ध, माल्य और विलेपन का भोग नहीं कर रही थी।" “महाराज ! वह क्षण भर के लिए भी मुझसे दूर नहीं हो रही थी, किन्तु वह मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकी-यह मेरी अनाथता है।" "तब मैंने इस प्रकार कहा-इस अनन्त संसार में बार-बार दुस्सह्य वेदना का अनुभव करना होता २७.भइणीओ मे महाराय ! सगा जेट्टकणिट्ठगा। न य दुक्खा विमोयंति एसा मज्झ अणाहया।। २८.भारिया मे महाराय ! अणुरत्ता अणुव्वया। अंसुपुण्णेहिं नयणेहि उरं मे परिसिंचई।। २६.अन्नं पाणं च ण्हाणं च गंधमल्लविलेवणं। मए नायमणायं वा सा बाला नोवभुंजई ।। ३०.खणं पि मे महाराय ! पासाओ वि न फिट्टई। न य दुक्खा विमोएइ एसा मज्झ अणाहया ।। ३१.तओ हं एवमाहंसु दुक्खमा हु पुणो पुणो। वेयणा अणुभविउं जे संसारम्मि अणंतए।। ३२.सई च जइ मुच्चेज्जा वेयणा विउला इओ। खंतो दंतो निरारंभो पव्वए अणगारियं ।। ३३.एवं च चिंतइत्ताणं पसुत्तो मि नराहिवा!। परियटेंतीए राईए वेयणा मे खयं गया ।। ३४.तओ कल्ले पभायम्मि आपुच्छित्ताण बंधवे। खंतो दंतो निरारंभो पव्वइओऽणगारियं ।। ३५.ततो हं नाहो जाओ अप्पणो य परस्स य। सव्वेसिं चेव भूयाणं तसाण थावराण य।। अन्नं पान च स्नानं च गन्धमाल्यश्लेिपनम् । मया ज्ञातमज्ञातं वा सा बाला नोपभुङ्क्ते।। क्षणमपि मे महाराज! पार्श्वतोपि न भ्रश्यति। न च दुःखाद् विमोचयति एषा ममाऽनाथता।। ततोऽहमेवमवोचम् दुःक्षमा खलु पुनः पुनः। वेदनाऽनुभवितुं 'जे' संसारेऽनन्तके।। सकृच्च यदि मुच्ये वेदनायाः विपुलाया इतः। क्षान्तो दान्तो निरारम्भः प्रव्रजेयमनगारिताम् ।। एवं च चिन्तयित्वा प्रसुप्तोऽस्मि नराधिप ! परिवर्तमानायां रात्री वेदना मे क्षयं गता।। "इस विपुल वेदना से यदि मैं एक बार ही मुक्त हो जाऊं तो क्षान्त, दान्त और निरारम्भ होकर अनगारवृत्ति को स्वीकार कर लूं।" "हे नराधिप ! ऐसा चिन्तन कर मैं सो गया। बीतती हुई रात्रि के साथ-साथ मेरी वेदना भी क्षीण हो गई।"२० “उसके पश्चात् प्रभातकाल से मैं स्वस्थ हो गया। मैं अपने बन्धु-जनों को पूछ, क्षान्त, दान्त और निरारम्भ होकर अनगारवृत्ति में आ गया।" ततः कल्यः प्रभाते आपृच्छ्रय बान्धवान्। क्षान्तो दान्तो निरारम्भः प्रव्रजितोऽनगारिताम्।। ततोऽहं नाथो जातः आत्मनश्च परस्य च। सर्वेषां चैव भूतानां त्रसानां स्थावराणां च।। "तब मैं अपना तथा दूसरों का तथा सभी त्रस और स्थावर जीवों का नाथ हो गया।" Jain Education Intemational Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानिर्ग्रन्थीय ३३५ अध्ययन २० : श्लोक ३६-४४ ३६.अप्पा नई वेयरणी आत्मा नदी वैतरणी "मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही कूट अप्पा मे कूडसामली। आत्मा मे कूटशाल्मली। शाल्मली२२ वृक्ष है, आत्मा ही कामदुधा धेनु है और अप्पा कामदुहा घेणू आत्मा कामदुधा धेनुः आत्मा ही नन्दन वन है।" अप्पा मे नंदणं वणं ।। आत्मा मे नन्दन वनम् ।। ३७.अप्पा कत्ता विकत्ता य आत्मा कर्ता विकर्ता च “आत्मा ही दुःख-सुख की करने वाली और उनका दुहाण य सुहाण य। दुःखानां च सुखानां च। क्षय करने वाली है। सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही अप्पा मित्तममित्तं च आत्मा मित्रममित्रं च मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही शत्रु दुप्पट्ठियसुपट्ठिओ।। दुष्प्रस्थितः सुप्रस्थितः।। ३८.इमा हु अन्ना वि अणाहया निवा! इयं खलु अन्याप्यनाथता नृप! “हे राजन् ! यह एक दूसरी अनाथता ही है। तमेगचित्तो निहुओ सुणेहि। तामेकचित्तो निभृतः शृणु। एकाग्र-चित्त, स्थिर-शान्त होकर तुम उसे मुझसे नियंठधम्म लहियाण वी जहा निर्ग्रन्थधर्म लब्ध्वाऽपि यथा सुनो ! जैसे कई एक व्यक्ति बहुत कायर होते हैं। वे सीयंति एगे बहुकायरा नरा।। सीदन्त्येके बहुकातरा नराः ।। निर्ग्रन्थ-धर्म को पाकर भी कष्टानुभव करते हैं निर्ग्रन्थाचार का पालन करने में शिथिल हो जाते हैं।"२३ ३६.जो पव्वइत्ताण महव्वयाई यः प्रव्रज्य महाव्रतानि "जो महाव्रतों को स्वीकार कर भलीभांति उनका सम्मं नो फासयई पमाया। सम्यक् नो स्पृशति प्रमादात्। पालन नहीं करता, अपनी आत्मा का निग्रह नहीं अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे अनिग्रहात्मा च रसेषु गृद्धः करता, रसों में मूर्च्छित होता है, वह बन्धन का न मूलओ छिंदइ बंधणं से।। न मूलतः छिनत्ति बन्धनं सः।। मूलोच्छेद नहीं कर पाता।" ४०.आउत्तया जस्स न अस्थि काइ आयुक्तता यस्य नास्ति कापि “ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उच्चार-प्रसवण, इरियाए भासाए तहेसणाए। ईर्यायां भाषायां तथैषणायाम् । की परिस्थापना में जो सावधानी नहीं बर्तता, वह आयाणनिक्खेवदुगुंछणाए आदाननिक्षेपजुगुप्सनायां उस मार्ग का अनुगमन नहीं कर सकता जिस पर न वीरजायं अणुजाइ मग्गं ।। न वीरयातमनुयाति मार्गम्।। वीर-पुरुष चले हैं।"२५ ४१.चिरं पि से मुंडरुई भवित्ता “जो व्रतों में स्थिर नहीं है, तप और नियमों से अथरव्वए तवनियमेहि भट्ठे। अस्थिरव्रतस्तपोनियमेभ्यो भ्रष्टः। प्रष्ट है, वह चिरकाल से मुण्डन में रुचि रखकर चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता चिरमव्यात्मानं क्लेशयित्वा भी चिरकाल तक आत्मा को कष्ट देकर भी संसार का न पारए होइ ह संपराए।। न पारगो भवति खलु संपराये।। पार नहीं पा सकता।" ४२.पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे 'पोल्ला' एव मुष्टिर्यथा सोऽसारः “जो पोली मुट्ठी की भांति असार है, खोटे सिक्के की अयंतिए कूडकहावणे वा। अयन्त्रितः कूटकार्षापण इव। भांति मुद्रा रहित है, काचमणि होते हुए भी वैर्य राढामणी वेरुलियप्पगासे राढामणिर्वैडूर्यप्रकाशः जैसे चमकता है, वह जानकार व्यक्तियों की दृष्टि में अमहग्घए होइ य जाणएसु।। अमहाघको भवति च ज्ञेषु।। मूल्य-हीन हो जाता है।" ४३.कुसीललिंगं इह धारइत्ता कुशीललिंगमिह धारयित्वा “जो कुशील-वेश३० और ऋषि-ध्वज (रजोहरण आदि इसिज्झयं जीविय वूहइत्ता। ऋषिध्वज जीविकां बृंहयित्वा। मुनि-चिन्हों) को धारण कर उनके द्वारा जीविका चलाता असंजए संजयलप्पमाणे असंयतः संयतं लपन् है, असंयत होते हुए भी अपने आपको संयत कहता विणिघायमागच्छइ से चिरं पि। विनिघातमागच्छति स चिरमपि।। है, वह चिरकाल तक विनाश को प्राप्त होता है।" ४४.विसं तु पीयं जह कालकूडं विषं तु पीतं यथा कालकूटं __पिया हुआ काल-कूट विष, अविथि से पकड़ा हुआ हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं। हन्ति शस्त्रं यथा कुगृहीतम्। शस्त्र और नियन्त्रण में नहीं लाया हुआ वेताल जैसे एसे व धम्मो विसओववन्नो एष एवं धर्मो विषयोपपन्नः विनाशकारी होता है", वैसे ही यह विषयों से युक्त हणाइ वेयाल इवाविवन्नो।। हन्ति वेताल इवाविपन्नः।। धर्म भी विनाशकारी होता है।" Jain Education Intermational Jain Education Intemational Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४५. जे लक्खणं सुविण पउंजमाणे निमित्तको ऊहलसंपगाढे । कुहेडविज्जासवदारजीवी न गच्छाई सरणं तम्मि काले । ४६. तमंतमेणेव उ से असीले सया दुही विप्परियासुवेइ । संथावई नरगतिरिक्खजोणि मोणं विराहेत्तु असाहुरूवे ।। ४७. उद्देसियं कीयगडं नियागं न मुंबई किंचि अणेसणिज्जं । अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता इओ चुओ गच्छइ कट्टु पावं । ४८. न तं अरी कंठछेत्ता करेइ जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते पच्छाणुतावेण दयाविणी ।। ४६. निरट्ठिया नग्गरुई उ तस्स जे उत्तम विवज्जासमेई । इमे वि से नत्थि परे वि लोए कुछओ वि से झिन्न तत्व लए। ५०. एमेवहाछंदकुसीलरूवे मग्गं विराहेत्तु जिणुत्तमाणं । कुररी विवा भोगरसाणुगिद्धा निरट्ठसोया परियावमेइ ।। ५१. सोच्चान मेहावि सुभासियं इमं अणुसासणं नाणगुणोववेयं । मग्गं कुसीलाण जहाय सव्वं महानियंठाण वए पहेणं ।। ५२.चरित्तमायारगुणन्निए तओ अणुतरं संजम पालियाणं । निरासवे संख्खवियाण कंम्म उवेइ ठाणं विउलुत्तमं धुवं ।। ३३६ यो लक्षणं स्वप्नं प्रयुञ्जानः निमित्तकुतूहलसंप्रगाढः । कुहेटविद्यावद्वारजीवी न गच्छति शरणं तस्मिन् काले ।। तमस्तमसैव तु सः अशीलः सदा दुःखी विपर्यासमुपैति । संधावति नरकतिर्यग्योनी: मौनं विराध्याऽसाधुरूपः ।। औद्देशिकं क्रीतकृतं निग्याग्रं न मुञ्चति किञ्चिदनेषणीयम् । अग्निरिव सर्वभक्षी भूत्वा इतश्च्युतो गच्छति कृत्वा पापम् ।। न तमरिः कण्ठच्छेत्ता करोति यं तस्य करोत्यात्मीया दुरात्मता । स ज्ञास्यति मृत्युमुखं तु प्राप्तः पश्चादनुतापेन दयाविहीनः ।। निरर्थिका नाग्न्यरुचिस्तु तस्य य उत्तमार्थे विपर्यासमेति । अयमपि तस्य नास्ति परोऽपि लोक: द्वयोपि स क्षीयते तत्र लोकः ।। एवमेव वचाच्छन्कुशीलरूपः मार्ग विराध्य जिनोत्तमानाम् । कुररी इव भोगरसानुगृद्धा निरर्थशोका परितापमेति ।। श्रुत्वा मेधावी सुभाषितमिदं अनुशासनं ज्ञानगुणोपेतम् । मार्गकुशीलानां हित्वा सर्वं महानिर्ग्रन्थानां व्रजेत् पथा ।। चरित्राचारगुणान्वितस्ततः अनुत्तरं संयमं पालयित्वा । निरास्रवः संक्षपय्य कर्म उपैति स्थानं विपुलोत्तमं ध्रुवम् ॥ अध्ययन २० : श्लोक ४५-५२ “जो लक्षण - शास्त्र, स्वप्न शास्त्र का प्रयोग करता है, निमित्त शास्त्र और कौतुक कार्य में अत्यन्त आसक्त है, मिथ्या आश्चर्य उत्पन्न करने वाले विद्यात्मक, आश्रव द्वार से जीविका चलाता है, वह कर्म का फल भुगतने के समय किसी की शरण को प्राप्त नहीं होता ।" "वह शील-रहित साधु अपने तीव्र अज्ञान से सतत दुःखी होकर विपर्यास को प्राप्त हो जाता है। * वह असाधु प्रकृति वाला मुनि धर्म की विराधना कर नरक और तिर्यग्योनि में आता जाता रहता है।” “जो औद्देशिक, क्रीतकृत, नित्याग्र* और कुछ भी अनेषणीय को नहीं छोड़ता, वह अग्नि की तरह सर्व-भक्षी होकर, पाप कर्म का अर्जन करता है और यहां से मरकर दुर्गति में जाता है।" “ अपनी दुष्प्रवृत्ति जो अनर्थ उत्पन्न करती है वह अनर्थ गला काटने वाला शत्रु भी नहीं करता। वह दुष्प्रवृत्ति करने वाला दया विहीन मनुष्य मृत्यु के मुख में पहुंचने के समय पश्चात्ताप के साथ इस तथ्य को जान जाएगा।" “जो अन्तिम समय की आराधना में भी विपरीत बुद्धि रखता है-दुष्प्रवृत्ति को सत् प्रवृत्ति मानता है उसकी संयम-रुचि भी निरर्थक है। इसके लिए यह लोक भी नहीं है, परलोक भी नहीं है। वह दोनों लोकों से भ्रष्ट होकर दोनों लोकों के प्रयोजन की पूर्ति न कर सकने के कारण चिन्ता से छीज जाता है ।" " इसी प्रकार यथाछन्द ( स्वच्छन्द भाव से विहार करने वाले) और कुशील साधु जिनोत्तम भगवान् के मार्ग की विराधना कर परिताप को प्राप्त होते हैं, जैसेभोग-रस में आसक्त होकर अर्थ-हीन चिन्ता करने वाली गीध पक्षिणी ।" “मेधावी पुरुष इस सुभाषित, ज्ञान-गुण से युक्त अनुशासन को सुनकर कुशील व्यक्तियों के सारे मार्ग को छोड़कर महा-निर्ग्रन्थ के मार्ग से चले ।” " फिर चरित्र के आचरण और ज्ञान आदि गुणों से सम्पन्न निर्ग्रन्थ अनुत्तर संयम का पालन कर, कर्मों का क्षय कर निराव होता है और वह विपुलोत्तम शाश्वत मोक्ष में चला जाता है।" Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानिर्ग्रन्थीय ५२. एवुग्गदंते वि महातबोधणे महामुनी महापइन्ने महायसे महानियंठिज्जमिणं महासुर्य से काहए महया वित्थरेणं ।। ५४. तुट्ठो य सेणिओ राया इणमुदाह कयंजली। अणाहतं जहाभूयं सुदु मे उवदसिवं ।। ५५. तुझं सुलद्धं खु मणुस्सजम्मं लाभा सुलखा य तुमे महेसी ।। तुम्मे सणाहा य सबंधवा य जं मे ठिया मग्गे जिणुत्तमाणं ।। ५६. तं सि नाही अणाहाणं सव्वभूयाण संजया ।। खामेमि ते महाभाग ! इच्छामि अणुसासिउं ।। ५७. पुच्छिऊण मए तुमं झाणविग्धो उ जो कओ निमंतिओ य भोगेहिं तं सव्वं मरिसेहि मे ।। ५८. एवं बुणित्ताण स रायसीहो अणगारसीहो परमाइ भत्तिए । सओरोहो व सपरियणो य धम्मारत्तो विमलेण चेयसा ।। ५६. ऊससियरोमकूवो काऊण य पयाहिणं । अभिवंदिऊण सिरसा अइयाओ नराहिवो ।। ६०. इयरो वि गुणसमिद्धो तिगुत्तिगुत्तो तिदंडविरओ य विहग इव विप्पमुक्को विहरइ वसु विगयमोहो ।। -ति बेमि ।। ३३७ एवमुग्रदान्तोपि महातपोधनः महामुनिर्महाप्रति महायशाः। महानिर्गन्धीयमिदं महाश्रुतं सोऽचीकथत् महता विस्तरेण ।। तुष्टश्च श्रेणिको राजा इदमुवाह कृताञ्जलिः । अनाथत्वं यथाभूतं सुष्ठु मे उपदर्शितम् ।। पृष्ट्वा मया तव ध्यानविघ्नस्तु यः कृतः । निमन्त्रितश्च भोगैः तत् सर्वं मषय मे ।। । “हे महर्षि ! तुम्हारा मनुष्य जन्म सुलब्ध है-सफल है । तुम्हें जो उपलब्धियां हुई हैं वे भी सफल हैं। तुम सनाथ हो, सबान्धव हो, क्योंकि तुम जिनोत्तम (तीर्थंकर) के मार्ग में अवस्थित हो ।” तव सुलब्धं खलु मनुष्यजन्म लाभाः सुलब्धाश्च त्वया महर्षे ! यूयं सनाथाश्च सबान्धवाश्च यद् भवन्तः स्थिता मार्गे जिनोत्तमानाम् ।। त्वमसि नाथोऽनाथानां सर्वभूतानां संयत ! | क्षमयामि त्वां महाभाग ! इच्छाम्यनुशासयितुम् ।। एवं स्तुत्वा स राजसिंह: अनगारसिंहं परमया भक्त्या । सावरोधश्च सपरिजनश्च धर्मानुरक्तो विमलेन चेतसा ।। उच्छ्रवसितरोमकूपः कृत्वा च प्रदक्षिणाम अभिवन्द्य शिरसा अतियातो नराधिपः ।। इतरोऽपि गुणसमृद्धः त्रिगुप्तिगुप्तस्त्रिदण्डविरतश्च । विहग इव विप्रमुक्तः विहरति वसुधां विगतमोहः ।। अध्ययन २० : श्लोक ५३-६० इस प्रकार उग्र- दान्त, महा तपोधन, महा-प्रतिज्ञ, महान् यशस्वी उस महामुनि ने इस महाश्रुत, महानिर्ग्रन्थीय अध्ययन को महान् विस्तार के साथ कहा । -इति ब्रवीमि । श्रेणिक राजा तुष्ट हुआ और दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला – “भगवन् ! तुमने अनाथ का यथार्थ स्वरूप मुझे समझाया है।" “तुम अनाथों के नाथ हो, तुम सब जीवों के नाथ हो । हे महाभाग ! मैं तुमसे क्षमा चाहता हूं और तुमसे मैं अनुशासित होना चाहता हूं।” " मैंने तुमसे प्रश्न कर जो ध्यान में विघ्न किया और भोगों के लिए निमन्त्रण दिया उन सबको तुम सहन करो - क्षमा करो ।” इस प्रकार राजसिंहश्रेणिक अनगार-सिंह की परम भक्ति से स्तुति कर अपने विमल वित्त से रनिवास, परिजन और बन्धु-जन सहित धर्म में अनुरक्त हो गया। राजा के रोम कूप उच्छ्वसित हो रहे थे। वह मुनि की प्रदक्षिणा कर, सिर झुक्न, वन्दना कर चला गया। वह गुण से समृद्ध, त्रिगुप्तियों से गुप्त, तीन दण्डों से विरत और निर्मोह मुनि भी विहग की भांति स्वतन्त्र भाव से भूतल पर विहार करने लगे । - ऐसा मैं कहता हूं । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन २० : महानिर्ग्रन्थीय १. सिद्धों और संयत आत्माओं को भावभरा नमस्कार कर (सिद्धाणं नमो......भावओ) इस अध्ययन का प्रारम्भ नमस्कार के साथ हुआ है। आगम- साहित्य में मंगल-विधि का प्रयोग विरल ही मिलता है। यहां सिद्धों और संयतों को नमस्कार किया गया है । वृत्तिकार ने 'संयत' शब्द से आचार्य, उपाध्याय और होता है। सर्वसाधु का ग्रहण किया है।" खारवेल का शिलालेख, जो ईस्वी पूर्व १५२ का है, उसमें 'नमो अरहंताणं', 'नमो सब्ब सिधाणं' इन दोनों पदों को नमस्कार किया गया है। इस प्रकार नमस्कार मंगल की परम्पराएं भिन्न-भिन्न I रही हैं २. अर्थ और धर्म का ज्ञान कराने वाली तथ्यपूर्ण (अत्यधम्मगई तच्च) यहां 'अत्थधम्मगई तच्चं' तथा अध्ययन २८ / १ में 'मोक्खमग्गगई तच्च' – इन दोनों में 'गइ' का अर्थ ज्ञान होना चाहिए। आप्टे ने 'गइ' का अर्थ ज्ञान किया है। डॉ० हर्मन जेकोबी ने 'गइ' का अर्थ मोक्ष किया है तथा अर्थ, धर्म और मोक्ष-— इन तीनों की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं- “मैं सोचता हूं कि 'अत्थधम्मगई' द्वारा अर्थ, धर्म और मोक्ष की चर्चा की गई है। यद्यपि वृत्तिकार गति का अर्थ ज्ञान करते हैं। 'कामार्थ - धर्ममोक्ष' – इस उक्तिविशेष में से काम को निकाल दिया गया है, क्योंकि साधुओं के लिए काम वर्जनीय है । "५ २८ वें अध्ययन से यह स्पष्ट है कि 'गइ' का अर्थ मोक्ष नहीं है। अर्थ शब्द के अनेक अर्थ हैं। यहां इसका प्रयोग पदार्थ, साध्य या लक्ष्य के लिए किया गया प्रतीत होता है। इस प्रकार मोक्ष और धर्म दो पुरुषार्थ की चर्चा प्रासंगिक है। 'अत्थधम्मगइ' का तात्पर्य होगा—पदार्थ, साध्यभूत मोक्ष और साधनभूत धर्म का ज्ञान । 'तच्च' शब्द यथार्थवाद का द्योतक है। दर्शन जगत् में १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४७२ : 'संयतेभ्यश्च' सकलसावद्यव्यापारोपरतेभ्यः आचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः इति यावत् । २. प्राचीन भारतीय अभिलेख, द्वितीय खंड, पृष्ठ २६ । ३. इसी प्रकार ३० तथा ३५ वें अध्ययन का नाम क्रमशः 'तवमग्गगई', 'अणगारमग्गगई' है। ४. आप्टे संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी । ५. S.B.E, Vol. XLVP. 100 footnote. Atthadhammagaim arthadharmagati. I think this equal to artha dharma moksha, though the Commentators , दो धाराएं हैं- एक प्रत्ययवाद की दूसरी यथार्थवाद की । प्रत्ययवाद चेतना के अस्तित्व को मूल मानकर पदार्थ को केवल उसी चेतना के प्रत्यय रूप बताता है, जबकि यथार्थवाद प्रत्येक पदार्थ का वस्तुनिष्ठ अस्तित्व निरूपित करता है। 'तच्च' तथ्य या यथार्थ के निरूपण का संकेत है। इससे यथार्थवाद फलित जैन दर्शन पदार्थ की सत्ता को यथार्थ मानता है । 'अत्यधम्मगई तच्च' का तात्पर्य होगा—यथार्थवाद, जहां अर्थ (पदार्थ) और धर्म का निरूपण है। २८ / १ में 'मोक्खमग्गगई तच्चं' का तात्पर्य होगायथार्थवाद, जहां मोक्ष मार्ग का निरूपण है। 'अर्थ तत्त्व का' तात्पर्य है-वस्तु का सही रूप या वास्तविक सत्य ।" ३. रत्नों से (... रयणो) यहां 'रयण' शब्द के दो अर्थ हैं- (१) हीरा, पन्ना आदि रत्न तथा (२) विशिष्ट हाथी, घोड़े । " राजाओं की ऋद्धि-सिद्धि में विशिष्ट लक्षणयुक्त हाथी-घोड़ों को भी 'रत्न' माना गया है। ४. आश्चर्य कैसा वर्ण और कैसा रूप है (अहो ! वण्णो अहो ! रूवं ) प्रस्तुत श्लोक में अनाथी मुनि की शरीर संपदा के लिए दो शब्दों का प्रयोग हुआ है-वर्ण और रूप । वर्ण का अर्थ है— लावण्य और रूप का अर्थ है-शरीर का आकार । ५. प्रदक्षिणा (पवाहिण) इस श्लोक में वन्दन के पश्चात् 'प्रदक्षिणा' का कथन आया है । वन्दन के साथ ही 'प्रदक्षिणा' की विधि रही है तो यहां वन्दन के बाद प्रदक्षिणा का कथन कैसे—यह प्रश्न हो सकता है। बृहद् वृत्तिकार ने इसका समाधान यों दिया है कि पूज्य व्यक्तियों के दीखते ही वन्दना करनी चाहिए। इसकी सूचना offer a different explanation by making 'gati' mean 'gnana'. The phrase is derived from the typical expression kamartha dharmamoksha by leaving out kama, which of course could not be admitted by ascetics. ६. आप्टे संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी अर्थ तत्त्व- The real truth, the fact of the matter. 2. The real nature or cause of anything. बृहद्वृत्ति, पत्र ४७२ रत्नानि मरकतादीनि प्रवरगजाश्वादिरूपाणि वा । वही, पत्र ४७३ 'वर्ण' सुस्निग्धो गौरतादिः, 'रूपम्' आकारः । ७. ८. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानिर्ग्रन्थीय ३३९ देने के लिए प्रदक्षिणा का उल्लेख बाद में किया गया है।' किन्तु यह समाधान हृदय का स्पर्श नहीं करता। क्या इस श्लोक से यह सूचना नहीं मिलती कि वन्दना के बाद प्रदक्षिणा दी जाती थी ? ६. नाथ (नाही) अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति को 'योग' और प्राप्य वस्तु के संरक्षण को 'क्षेम' कहा जाता है। जो योगक्षेम करने वाला होता है, वह 'नाथ' कहलाता है। अनाथी मुनि ने श्रेणिक से कहा -- “ गृहस्थ - जीवन में मेरा कोई नाथ नहीं था। मैं मुनि बा और नाथ हो गया—अपना, दूसरों का और सब जीवों का र बौद्ध साहित्य में १० नाथ-करण धर्मों का निरूपण इस प्रकार मिलता है कौन दस धर्म बहुत उपकारक हैं ? दस नाथ-करण धर्म (१) आसो भिक्षु शीलवान् प्रातिमोक्ष (भिक्षुनियम ) - संवर (कवच ) से संवृत (आच्छादित) होता है थोड़ी सी बुराइयों (वय) में भी भय-दर्शी, आचार-गोचर-युक्त हो विहरता है, ( शिक्षापदों को ) ग्रहण कर शिक्षापदों को सीखाता है। जो यह आसो ! भिक्षु शीलवान्०, यह भी धर्म नाथ-करण (न अनाथ करने वाला) है। 1 (२) भिक्षु बहुश्रुत श्रुतघर तसंच होता है जो वह धर्म आदि - कल्याण, मध्य-कल्याण, पर्यवसान कल्याण, सार्थक = सव्यंजन हैं, (जिसे) केवल, परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य कहते हैं, वैसे धर्म, (भिक्षु) के बहुत सुने, ग्रहण किए, वाणी से परिचित, मन से अनुपेक्षित, दृष्टि से सुप्रतिविद्ध ( = अन्तस्तल तक देखे) होते हैं; यह भी धर्म नाथ-करण होता है। (३) भिक्षु कल्याण-मित्र = कल्याण-सहाय = कल्याण-संप्रवर्तक होता है। जो यह भिक्षु कल्याण मित्र होता है, यह भी० । (४) भिक्षु सुवच, सौवचस्य (= मधुरभाषित) वाले धर्मों से युक्त होता है। अनुशासनी (= धर्म-उपदेश ) में प्रदक्षिणाग्राही = समर्थ ( = क्षम) (होता है), यह भी० । (५) भिक्षु सुब्रह्मचारियों के जो नाना प्रकार के कर्तव्य होते हैं, उनमें दक्ष - आलस्य रहित होता है, उनमें उपाय = विमर्श से युक्त, करने में समर्थ = विधान में समर्थ होता है, भी० । यह (६) भिक्षु अभिधर्म (सूत्र में), अनि-विनय (भिक्षु-नियमों में), धर्म-काम (= धर्मेच्छु), प्रिय-समुदाहार ( = दूसरे के उपदेश को सत्कार पूर्वक सुनने वाला, स्वयं उपदेश करने में उत्साही), बड़ा प्रमुदित होता है, यह भी० । (७) भिक्षु जैसे तैसे चीवर, पिंडपात, शयनासन, - १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४७३ : पादवन्दनान्तरं प्रदक्षिणाऽभिधानं पूज्यानामालोक एव प्रणामः क्रियत इति ख्यापनार्थम् । २. वही, पत्र ४७३ 'नाथ' योगक्षेमविधाता । ३. उत्तरज्झयणाणि २० । ३५ : ततो हं नाहो जाओ अप्पणो य परस्स य । अध्ययन २० : श्लोक ६-१४ टि० ६-६ ग्लान- प्रत्यय - भैषज्य परिष्कार से सन्तुष्ट होता है० । (८) भिक्षु अकुशल धर्मों के विनाश के लिए, कुशल थर्मो की प्राप्ति के लिए उद्योगी (= आरब्ध-वीर्य), स्थामवान् दृढ़पराक्रम होता है कुशल धर्मों में अनिक्षिप्त-पुर (भगोड़ा नहीं होता। (६) भिक्षु स्मृविमान अत्युत्तम स्मृति-परिपाक से युक्त होता है; बहुत पुराने किए, बहुत पुराने भाषण किए का भी स्मरण करने वाला, अनुस्मरण करने वाला होता है० । (१०) भिक्षु प्रज्ञावान् उदय-अस्त-गामीनी, आर्य निर्बंधिक ( = अन्तस्तल तक पहुंचने वाली), सम्यक् दुःखक्षय-गामिनी प्रज्ञा से युक्त होता है० ॥ * ७. (कहं नाहो न विज्जई) श्रेणिक ने मुनि अनाथी से कहा- -आपका वर्ण और आकार विस्मयकारी है। इस संपदा से युक्त होने पर भी आपके कोई नाथ नहीं है, यह कैसे ? क्योंकि यह लौकिक प्रवाद है 'यत्राकृतिस्तत्र गुणाः वसन्ति - जहां आकृति है वहां गुणों का निवास है। आप प्रशस्त आकृति के धारक हैं, इसलिए आप गुणों के आकर है और भी कहा है— 'गुणवति धनं ततः श्रीः श्रीमत्याज्ञा ततो राज्यमिति' - गुणवान् के प्रति धन आता है। उससे उसकी श्री शोभा बढ़ती है। उसमें आदेश देने की क्षमता बढ़ती है और अन्ततोगत्वा वह राजा होता है ।" ८. आज्ञा और ऐश्वर्य (आगाइस्सरियं) आज्ञा का अर्थ है-अस्खलित अनुशासन। वैसी आज्ञा जिसका कोई उल्लंघन करने का साहस न कर सके। ऐश्वर्य का अर्थ है-अपार संपदा, अमित समृद्धि । इसका दूसरा अर्थ है - प्रभुत्व । ९. (श्लोक १४) मनुष्य के पास तीन शक्तियां होती हैं—संपदा की शक्ति, ऐश्वर्य सत्ता की शक्ति और अध्यात्म की शक्ति | जिनके पास इन तीनों में से एक भी शक्ति होती है वह इष्टसिद्धि करने में सफल हो जाता है। इसलिए सम्राट् श्रेणिक ने अपने ऐश्वर्य की ओर मुनि का ध्यान आकर्षित किया । ऐश्वर्य के निदर्शन के रूप में एक कथा प्रचलित है एक बार राजा और मंत्री में विवाद हो गया कि बड़ा कौन ? अन्त में तय हुआ कि जो अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर सके वही बड़ा होगा। कुछ दिन बीते राज्य सभा जुड़ी हुई थी। सभी सभासद् अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए थे । अवसर देखकर मंत्री ने अपने एक परम मित्र सभासद् को राजा के चाटें लगाने का निर्देश दिया। यह सुनते ही वह व्यक्ति सकपकाया और घबराया। मंत्री के द्वारा आश्वत होने पर भी सव्वेसिं चेव भूयाणं तसाण थावराण य ।। ४. दीघनिकाय ३।११, पृ० ३१२-३१३ । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४७३ । ६. वही, पत्र ४७४ : आज्ञा अस्खलितशासनात्मिका, ऐश्वर्यं च द्रव्यादिसमृद्धिः, यद्वा आज्ञया ऐश्वर्य - प्रभुत्वं आज्ञैश्वर्यम् । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३४० अध्ययन २० : श्लोक १६-२३ टि० १०-१५ उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह राजा पर प्रहार कर दे। राजा अंतरिक्ष शब्द अधिक संगत लगता है। उसका अर्थ हैके सामने मंत्री की शक्ति व्यर्थ चली गई। अंतश्चेतना। अब राजा की बारी थी कि वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन १३. (श्लोक २२) करे। एक दिन उसने भी अपने किसी सामन्त को आज्ञापित प्राचीन काल में चिकित्सा की मुख्यतः दो पद्धतियां करने हए मंत्री को चांटे लगाने का निर्देश दिया। सामन्त ने थीं औषध विज्ञान और भेषज विज्ञान। प्राणाचार्य द्रव्यों के आव देखा न ताव वह तत्काल उठा और सबके देखते-देखते रासायनिक विज्ञान के द्वारा शरीर के रोगों का निवारण करते मंत्री के मुंह पर तमाचा जड़ दिया। थे। वे द्रव्यगुण परिज्ञान में निष्णात होते थे। यह औषध विज्ञान राजा के पास सत्ता की शक्ति थी, जिसके आधार पर की चिकित्सा पद्धति है। वह सब कुछ करा सकता था। मंत्री के पास वैसी शक्ति नहीं इस पद्धति के साथ-साथ मंत्र-तंत्र की चिकित्सा पद्धति थी। यह अन्तर केवल सत्ता और असत्ता का ही था। का भी विकास हुआ और चिकित्सा की दृष्टि से अनेक मांत्रिक १०. उत्पत्ति (पोत्थ) - तथा तांत्रिक ग्रन्थों की रचना हुई। इस चिकित्सा पद्धति का ___ 'पोत्थं' शब्द के दो संस्कृत रूप होते हैं—प्रोत्थां और नाम भेषज विज्ञान था। इन चिकित्सा पद्धतियों से रोग पुस्तम् । वृत्तिकार ने प्रोत्थां का अर्थ मूल उत्पत्ति किया है। निवारण करने वाले प्राणाचार्य कहलाते थे। प्रस्तुत संदर्भ में यही अर्थ संगत लगता है। प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'आयरिअ' शब्द प्राणाचार्य का ११. प्राचीन नगरों में असाधारण सुन्दर (पुराणपुरभेयणी) वाचक है। यहां तीन विशेषण प्रयुक्त हैं—विद्या-मंत्र-चिकित्सक, वृत्तिकार ने इसका शाब्दिक अर्थ-अपने गुणों से शस्त्रकुशल या शास्त्रकुशल चिकित्सक तथा मंत्रमूल विशारद । असाधारण होने के कारण अन्य नगरों से अपनी भिन्नता ये तीनों विशेषण भिन्न-भिन्न प्राणाचार्यों के द्योतक हैं। एक ही दिखाने वाला नगर किया है। उन्होंने एक पाठान्तर-'नगराण व्यक्ति इन तीनों में विशारद हो, ऐसा आवश्यक नहीं था। कोई पुडभेयण' का उल्लेख किया है। इसका अर्थ है-प्रधान नगरी। आयुर्वेद में, कोई मंत्र-विद्या में और कोई शल्य-चिकित्सा में डॉक्टर हर्मन जेकोबी ने मूल में इसका अर्थ इन्द्र किया निष्णात होता था। है तथा इसकी मीमांसा करते हुए लिखा है-उत्तराध्ययन के १४. गुरु परम्परा से प्राप्त (जहाहिय) वृत्तिकार इसका शाब्दिक अर्थ मात्र प्रस्तुत करते हैं। किन्तु यह वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूपों की व्याख्या की हैस्पष्ट प्रतीत होता है कि पुरभेदन का अर्थ पुरंदर-इन्द्र या १. यथाहितं-हित के अनुरूप २. यथाधीत-गुरु परम्परा से पुरभिद्-शिव होना चाहिए। पुरभिद् का एक अर्थ इन्द्र भी है। आगत वमन-विरेचन आदि रूप वाली चिकित्सा । इसके दो प्रस्तुत प्रसंग में डॉक्टर हर्मन जेकोबी का यह अर्थ संस्कृत रूप और हो सकते हैं-१.यथाऽहितं २. यथाहृतं । उपयुक्त नहीं लगता। 'पुराणपुरभेयणी' यह कोशांबी का विशेषण अधीत का संस्कृत रूप अहिय भी बनता है। अनुवाद यथाधीत है और यह उसकी प्रधानता का सूचक मात्र है। के आधार पर किया गया है। १२. अन्तश्चेतना (अंतरिच्छं) १५. चतुष्पाद (चाउप्पाय) 'अंतरिच्छं' शब्द के दो संस्कृत रूप बनते हैं-अन्तरेच्छं चिकित्सा के चार पाद होते हैं—वैद्य, औषध, रोगी और और अन्तरिक्षम्। वृत्तिकार ने अंतरेच्छं शब्द को मानकर रोगी की शुश्रूषा करने वाले परिचारक। जहां इन चारों का पूर्ण उसका अर्थ मध्यवर्ती इच्छा किया है। प्रस्तुत संदर्भ में योग होता है, उसे 'चतुष्पाद-चिकित्सा' कहते हैं।' स्थानांग में १. बृहवृत्ति, पत्र ४७५ : प्रोत्था वा प्रकृष्टोत्थानरूपाम् । ५. आप्टे-संस्कृत-इंग्लिश-डिक्शनरी : अन्तरिक्षं-'शरीरेष्वन्तः अक्षयं २. वही, पत्र ४७५ : पुराण पुरभेयणि त्ति पुराणपुराणि भिनत्ति- न पृथिव्यादिवत् क्षीयते'। स्वगुणैरसाधारणत्वाद् भेदेन व्यवस्थापयति पुराणपुरभेदिनी। ६. काश्यपसंहिता, इन्द्रियस्थान ३।४।५ : जैन सूत्राज, पार्ट २, डॉ० जेकोबी, पृष्ठ १०२ : औषधं भेषजं प्रोक्तं, द्विप्रकारं चिकित्सितम् । मूल तथा फुटनोट-There is a Town Kausambi by name, which is औषधं द्रव्यसंयोगं, ब्रुवते दीपनादिकम् ।। among towns what Indra is (among the Gods), हुतव्रततपोदानं, शान्तिकर्म च भेषजम् । Purana Purabhedani. As usual the commentators give a purely etymological explanation. But it is obvious that Purabhedana must have a similar meaning as Purandara-Indra, or Purabhid ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४७५ : 'आचार्याः' इति प्राणाचार्या वैद्य इति यावत् । Siva. The latter word occurs in later literature only, and besides, ८. वही, पत्र ४७५ : 'सत्थकुसल' त्ति शस्त्रेषु शास्वेषु वा कुशलाः Siva does not yet seem to have been generally acknowledged as शस्त्रकुशला शास्त्रकुशला वा। the supreme god, when and where the Jaina Sutras were composed. ६. वही, पत्र ४७५ : 'यथाहितं' हितानतिक्रमेण यथा, धीतं The Vedic word Purbhid, 'destroyer of castles', also presents itself as an analogy: though it is not yet the exclusive epithet of a god. वा-गुरुसम्प्रदायागतवमनविरेचनकादिरूपाम्। It is frequently applied to Indra. १०. वही, पत्र ४७५ : 'चाउप्पाय' त्ति चतुष्पदा भिषग्भेषजातुरप्रतिधार४. बृहबृत्ति, पत्र ४७५ : 'अन्तरा' मध्ये इच्छां वा अभिमतवस्त्वभिलाषम्। कात्मकचतुर्धा। Jain Education Intemational Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानिर्ग्रन्थीय इन चारों अंगों को 'चिकित्सा' कहा गया है।' १६. पतिव्रता (अणुब्बया) जिसका व्रत आचार कुल के अनुरूप होता है वह स्त्री अनुव्रता कहलाती है । वृत्तिकार ने इसका अर्थ पतिव्रता किया है अणुब्वया का वैकल्पिक अर्थ अनुवया तुल्यवयवाली हो सकता है। १७. स्नान (ण्हाणं) स्नान का सामान्य अर्थ है नहाना। यहां स्नान का अर्थ है - स्नान का साधन, सुगंधित पानी आदि। देखें- दसवे आलियं ६ ।६३ का टिप्पण । १८. (फिट्टई) अंश धातु को प्राकृत में फिट्ट आदेश होता है। इसका अर्थ है-दूर होना या नष्ट होना । * १९. दुस्सा (दुक्खमा हु) इसके संस्कृत में दो रूप हो सकते हैं दु:क्षमा खलु दुःखमाहुः । दुःक्षमा-- यह वेदना का विशेषण है इसका अर्थ हे दुस्सा दुक्खमाहु—इसको संयुक्त मानने पर अर्थ होगावेदना का अनुभव करना। यहां आहुः क्रियापद है। २०. (श्लोक ३२-३३) ३४१ पर वे इस भयंकर बीमारी से सर्वथा मुक्त हो गए। २१. स्वस्थ (कल्ले) प्रस्तुत प्रकरण श्रद्धा चिकित्सा (Faith healing) और संकल्प का स्पष्ट निदर्शन है। अनाथी मुनि आंखों की भयंकर वेदना से पीड़ित थे। सभी प्रकार की चिकित्साएं औषधोपचार करने पर भी उनका रोग उपशांत नहीं हुआ। जब सारे उपचार और सारे चिकित्सक उनके लिए अकिञ्चित्कर हो गए तब उन्होंने अपने लिए एक चिकित्सा की । वह उनके लिए अचूक सिद्ध हुई। वह थी श्रद्धा चिकित्सा । श्रद्धा, आत्म-विश्वास और दृढ़ संकल्प के द्वारा वे रोग मुक्त हो गये। मन ही मन अनाथी मुनि ने एक संकल्प लिया — यदि मैं इस विपुल वेदना से मुक्त हो जाऊं तो मैं अनगार वृत्ति को स्वीकार कर लूंगा। इस संकल्प के साथ वे कायोत्सर्ग की मुद्रा में सो गये। भावना का अतिरेक श्रद्धा, आस्था और आत्मविश्वास में परिणत हो गया। उस आस्था ने ही संकल्प को अध्यवसाय, सूक्ष्मतम शरीर तक पहुंचा दिया। ज्यों-ज्यों रात बीती उनका संकल्प फलवान् बनता गया। अब संकल्प संकल्प न रहकर साध्य बन गया । सूर्योदय होने १. ठाणं, ४५१६ चउव्विहा तिगिच्छा पन्नत्ता, तं जहा - विज्जो ओसधाई आउरे परिचारते । २. बृहद्वृत्ति पत्र ४७६ : 'अणुव्ययत्ति' अन्विति-कुलानुरूपं व्रतं -- आचारोऽस्या अनुव्रता पतिव्रतेति यावत्, वयो ऽनुरूपा वा । ३. वही, पत्र ४७६ : स्नात्यनेनेति स्नानं गन्धोदकादि । ४. तुलसीमंजरी, सूत्र ८१२ भ्रंशे फिड फिट्ट फुड-फुट्ट चुक्क भुल्लाः । ५. भावप्रकाशनिघण्टु, वटादिवर्ग, श्लोक ५४-५८ । अध्ययन २० : श्लोक २८-४० टि० १६-२५ यहां कल्ले शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं—नीरोग और आने वाला दिन । प्रस्तुत सन्दर्भ में इसका अर्थ स्वस्थ किया गया है । २२. कूटशाल्मली (कूडसामली) ये वृक्ष विशाल होते हैं और इनकी डालियों पर छोटे-छोटे नुकीले कांटे होते हैं। फलों में से सफेद रूई निकलती है । हिन्दी में इनका नाम सेमल या सेमर है । भावप्रकाशनिघण्टु में कूटशाल्मली और शाल्मली — इन दोनों का पृथक् उल्लेख मिलता है। इन दोनों वृक्षों में समानताएं अधिक हैं, भेद कम है। २३. (श्लोक ३८) डॉ० हरमन जेकोबी ने ३८ से ५३ तक की गाथाओं को प्रक्षिप्त माना है। उन्होंने इसके दो कारण बताए हैं १. इन गाथाओं का प्रतिपाद्य विषय संदर्भ के साथ मेल नहीं खाता। २. एक से सेंतीस गाथाओं का छन्द एक प्रकार का है और ३८ से ५३ तक की गाथाओं का छन्द भिन्न प्रकार का है। डॉक्टर हरमन जेकोबी का यह अनुमान उचित लगता है। अनाथता की चर्चा नौवें श्लोक से शुरू होती है और वह ३७वें श्लोक में संपन्न हो जाती है। उसके पश्चात् 'तुट्टो य सेणियो राया' इस ५४वें श्लोक में सम्राट् श्रेणिक मुनि के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता है। इस प्रकार यह कथावस्तु सहज प्रासंगिक बन जाती है। २४. सावधानी ( आउत्तया) युक्त शब्द के अनेक अर्थ होते हैं—संबद्ध, उद्युक्त, सहित, समन्वित और समाहित।" गीता के शांकरभाष्य में इसका अर्थ समाहित किया है।" उत्तराध्ययन के वृत्तिकार ने इसका अर्थ अवधानताएकाग्रता किया है। आप्टे में भी यही अर्थ प्राप्त है। २५. वीर पुरुष चले हैं (वीरजायं) यह शब्द मार्ग का विशेषण है। इसके दो अर्थ किये जा सकते हैं - वह मार्ग जिस पर वीर पुरुष चले हैं अथवा वह ६. जैन सूत्राज, उत्तराध्ययन, पार्ट २, पृ० १०४ : The verses 34-53 are apparently a later addition because (1) The subject treated in them is not connected with that of the fore going part, and (2) They are composed in a different metre. दसवेआलियं, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ११८ | गीता, ६ ८ शांकरभाष्य, पृ० १७७ युक्त इत्युच्यते योगी-युक्तः समाहितः । ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ४७८ : आयुक्तता - दत्तावधानता । (ख) आप्टे To fix or direct (The mind) Towards. ७. ८. Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३४२ अध्ययन २० :श्लोक ४१-४५ टि०२६-३३ मार्ग जिस पर भगवान महावीर ने परिव्रजन किया है। प्रस्तुत के सिक्कों का 'कार्षापण' और ताम्बे के कर्ष का नाम 'पण' संदर्भ में दोनों अर्थ संगत हो सकते हैं। रहा हो। २६. (.......नियमेहि) २९. मुद्रारहित है (अयंतिए) नियम का अर्थ है---व्यवस्था, मर्यादा। दिगम्बर साहित्य वृत्तिकार ने 'अयंतिए' को मुनि का विशेषण मानकर में नियम के चार अर्थ प्राप्त हैं उसका अर्थ नियंत्रण रहित किया है।३ अनन्त चतुष्टयात्मक चेतना का परिणाम।' हमने इस शब्द को कूटकार्षापण का विशेषण मानकर काल-मर्यादा से किया जाने वाला त्याग। इसका अर्थ मुद्रा रहित किया है। पूरे पद का अर्थ होगा-मुद्रा सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र। रहित खोटा सिक्का। ४. 'यही तथा ऐसे ही करना है'-इस संकल्प से ३०. कुशील-वेश (कुसीललिंग) अन्य पदार्थ की निवृत्ति करना। वृत्तिकार ने कुसीललिंग को एक शब्द मानकर उसका दशवकालिक की जिनदासचूर्णि में प्रतिमा आदि अभिग्रह अर्थ पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारी साधुओं का वेश किया है।" को नियम कहा है। किन्तु कुशील का कोई अपना स्वतन्त्र वेष यहां विवक्षित यम और नियम- ये दोनों एक ही धातु से निष्पन्न शब्द नहीं है। इसका प्रतिपाद्य यह है कि कुशील होते हुए भी जो हैं। निरन्तर सेवनीय व्रत को 'यम' और समय-समय पर मुनि का वेष धारण करता है। इसलिए कुशील को प्रथमा आचरणीय अनुष्ठान को 'नियम' कहा जाता है-'यमास्तु विभक्ति रहित पद मानकर इसका अर्थ किया जाए तो प्रतिपाद्य सततं सेव्याः, नियमास्तु कदाचन।' महर्षि पतंजलि ने शौच, समीचीन रूप से घटित होता है। संतोष आदि को नियम कहा है। ३१. (हणाइ वेयाल इवाविवन्नो) २७. मुंडन में रुचि (मुण्डरुई) अविपन्न का अर्थ है-अनियन्त्रित, अबाधित। वेताल __ जो केवल सिर मुंडाने में ही श्रेय समझता है और शेष मंत्रों से नियंत्रित या कीलित होकर ही हित साध सकता है, आचार-अनुष्ठानों से पराङ्मुख होता है, वह 'मुंडरुचि' अन्यथा नहीं। यदि वह अनियंत्रित होता है तो वह विनाश का कहलाता है। हेतु बनता है।" २८. सिक्के (कहावणे) ३२. विषयों से युक्त (विसओववन्नो) ___ भारतवर्ष का अत्यधिक प्रचलित सिक्का 'कार्षापण' था। शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श ये विषय हैं। इन मनुस्मृति में इसे ही 'धरण' और 'राजत-पुराण' (चांदी का विषयों के साथ जुड़ा हुआ धर्म तारक नहीं, मारक होता है। पुराण) भी कहा गया है। चांदी के कार्षापण या पुराण का भगवान महावीर की यह घोषणा धर्म के क्षेत्र में एक वजन ३२ रत्ती था। सोने और ताम्बे के 'कर्ष' का वजन ८० क्रांति का स्वर है। रत्ती था। ताम्बे के कार्षापण को 'पण' कहते थे। पाणिनीय मार्क्स ने धर्म के विषयोपपन्न स्वरूप अथवा सत्ता और सूत्र पर वार्तिक लिखते हुए कात्यायन ने 'कार्षापण' को 'प्रति' अर्थ से जुड़े हुए धर्म को लक्ष्य में रखकर ही उसे मादक कहा है और 'प्रति' से खरीदी जाने वाली वस्तु को 'प्रतिक' कहा था। कहा गया है। पाणिनि ने इन सिक्को को 'आहत' कहा है। ३३. (कोहल, कुहेडविज्जा) जातकों में 'कहापण' शब्द पाया जाता है। अष्टाध्यायी में कोहल'–सन्तान प्राप्ति के लिए विशेष द्रव्यों से मिश्रित 'कार्षापण' और 'पण' ये दोनों पाये जाते हैं।" सम्भव है चांदी जल से स्नान आदि करने को 'कौतुक' कहा जाता है।" १. नियमसार, १ तात्पर्यवृत्ति : यः....स्वभावानन्तचतुष्टयात्मकः ते षोडश स्याद्धरणं पुराणश्चैव राजतः। शुद्धज्ञानचेतनापरिणामः स नियमः। कार्यापणस्तु विज्ञेयस्ताम्रिकः कार्षिकः पणः ।। २. रत्नकरंड श्रावकाचार ८७ : नियमः परिमितकालः। ६. मनुस्मृति, ८१३६। ३. नियमसार, १ तात्पर्यवृत्ति : नियमशब्दस्तावत् सम्यगदर्शनशानचारित्रेषु १०. पाणिनि अष्टाध्यायी, ५।२।१२० । वर्तते। ११. (क) पाणिनि अष्टाध्यायी, ५।१।२६ । ४. राजवार्तिक १७।३। (ख) पाणिनि अष्टाध्यायी, ५१३४ । ५. जिनदासचूर्णि, पृ० ३७० : नियमा-पडिमादयो अभिग्गहबिसेसा। १२. पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० २५७। पातंजलयोगदर्शन, २१३२। १३. बृहबृत्ति, पत्र ४७८ : अयन्त्रितः अनियमितः कूटकार्षापणवत्। ७. बृहवृत्ति, पत्र ४७८ : मुण्ड एव-मुण्डन एव केशापनयनात्मनि १४. वही, पत्र ४७८ : कुशीललिंग-पास्थिादिवेषम्। शेषानुष्ठानपरांगमुखता रुचिर्यस्यासी मुण्डरुचिः। १५. वही, पत्र ४७६ : वेताल इवाविवण्ण 'त्ति अविपन्न: अप्राप्तविपत् ८. मनुस्मृति, ८।१३५, १३६ : मन्त्रादिभिरनियन्त्रित इत्यर्थः ।' पलं सुवर्णाश्चत्वारः पलानि धरणं दश। १६. वही, पत्र ४७६ : शब्दादिविषययुक्तो हन्ति । द्वे कृष्णले समधृते विज्ञेयो रूप्यमाषकः ।। १७. वही, पत्र ४७६ : कौतुकं च सपत्याद्यर्थं स्नपनादि। Jain Education Intemational Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानिर्ग्रन्थीय ३४३ अध्ययन २० :श्लोक ४६-४६ टि०३४-३७ 'कुहेडविज्जा'-मिथ्या आश्चर्य प्रस्तुत करने वाली ३६. दया (दया.......) मन्त्र-तन्त्रात्मक विद्या को 'कुहेटक' विद्या कहा जाता है। दूसरे वृत्ति में दया का मुख्य अर्थ संयम, सत्य आदि तथा शब्दों में इसे 'इन्द्रजाल' कहा जा सकता है। वैकल्पिक अर्थ अहिंसा किया है। ३४. विपर्यास को प्राप्त हो जाता है (विपरियासुवेइ) ३७. अन्तिम समय की आराधना (उत्तमट्ठ) ___ इसका अर्थ है--विपर्यास को प्राप्त हो जाता है--दुःख उत्तमार्थ का अर्थ है—मोक्ष। चार पुरुषार्थों में 'मोक्ष' निवृत्ति के लिए मुनि बनता है, प्रत्युत दुःखी होता है। आयारो उत्तम पुरुषार्थ है, इसलिए इसे उत्तमार्थ कहा गया है। प्रस्तुत (२११५१) में 'विष्परियासमुवेति' का यही अर्थ मिलता है। आगम में दो अन्य स्थानों में भी इस पद का प्रयोग हुआ है शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ विपरीत दृष्टि को प्राप्त होता 'उत्तमढगवेसए' (१९३२) और 'उत्तमट्ठगवेसओ' (२५१९)। दोनों है.....ऐसा किया है। किन्तु दुही पद के पश्चात् 'विपरियासुवेइ' स्थानों पर वत्तिकार ने 'उत्तमट्ट' का अर्थ मोक्ष किया है। पाट है, इसलिए यह तात्विक विपर्यास से सम्बद्ध प्रतीत नहीं प्रस्तुत प्रसंग में वृत्तिकार ने 'उत्तमट्ठ' का अर्थ अंतिम होता। समय की आराधना किया है।' ३५. (उद्देसियं कीयगडं नियाग) देखें-दसवेआलियं ३२ का टिणण। १. बृहद्वृत्ति, पत्र.७६ : कुहेटविद्या-अलीकाश्चयविधायिमन्त्रज्ञानात्मिकाः। २. आचारांगवृत्ति, पत्र १२८ : सुखार्थी.....सुखस्य च विपर्यासो दुःखं तदुपैति, उक्तं च'दुःखद्विट सुखलिप्सुमोहान्यत्वाददृष्टगुणदोषः। यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्ते।।' ३. बृहदूवृत्ति, पत्र ४७६ : 'विप्परियासुवेइ' ति विपर्यासं तत्त्वादिषु वैपरीत्यम्, उपैति–उपगच्छति।। ४. वही, पत्र ४७६ : दया--संयमः सत्याग्रुपलक्षणमहिंसा था। ५. वही, पत्र ४७६ : उत्तमर्थेऽपि पर्यन्तसमयाराधनारूपेति। Jain Education Intemational Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगविंसइमं अज्झयणं समुद्दपालीयं इक्कीसवां अध्ययन समुद्रपालीय Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन का प्रतिपादन 'समुद्दपाल'—'समुद्रपाल' के व्यापारी दूर-दूर तक व्यापार के लिए जाते थे। सामुद्रिक माध्यम से हुआ है, इलिए इसका नाम 'समुद्दपालीय'- व्यापार उन्नत अवस्था में था। व्यापारियों के निजी यान-पात्र 'समुद्रपालीय' रखा गया है। होते थे और वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर माल लेकर चम्पा नाम की नगरी थी। वहां पालित नाम का सार्थवाह आते-जाते थे। उस समय अनेक वस्तुओं का भारत से निर्यात रहता था। वह श्रमणोपासक था। निर्ग्रन्थ प्रवचन में उसे श्रद्धा होता था। उनमें सुपारी, स्वर्ण आदि-आदि मुख्य थे। यह थी। दूर-दूर तक उसका व्यापार फैला हुआ था। एक बार वह विशेष उल्लेखनीय है कि उस काल में भारत के पास प्रचुर सामुद्रिक यात्रा के लिए यानपात्र पर आरूढ़ हो घर से सोना था। वह उसका दूसरे देशों को निर्यात करता था। निकला। वह अपने साथ गणिम-सुपारी आदि तथा धरिम--- इस अध्ययन में 'ववहार' (श्लोक ३)—'व्यवहार' और स्वर्ण आदि ले चला। जाते-जाते समुद्र के तट पर पिहुण्ड नगर 'वज्झमंडलसोभाग' (श्लोक ८)—'वध्य-मंडन-शोभाक'—ये दो में रुका। अपना माल बेचने के लिए वह वहां कई दिनों तक शब्द ध्यान देने योग्य हैं। आगम-काल में 'व्यवहार' शब्द रहा। नगरवासियों से उसका परिचय बढ़ा और एक सेट ने क्रय-विक्रय का द्योतक था। आयात और निर्यात इसी के उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। अन्तर्गत थे।' कुछ समय वहां रह कर वह स्वदेश को चला। उसकी 'वध्य-मंडन-शोभाक'—यह शब्द उस समय के नवोढ़ा गर्भवती हुई। समुद्र-यात्रा के बीच उसने एक सुन्दर दण्ड-विधान की ओर संकेत करता है। उस समय चोरी करने और लक्षणोपेत पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम 'समुद्रपाल' वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था। जिसे वध की सजा दी रखा गया। वैभव से उसका लालन-पालन हुआ। वह ७२ जाती, उसे कनेर के लाल फलों की माला पहनाई जाती। कलाओं में प्रवीण हुआ। जब वह युवा बना तक ६४ कलाओं उसको लाल कपड़े पहनाए जाते। शरीर पर लाल चन्दन का में पारंगत 'रूपिणी' नामक कन्या के साथ उसका पाणिग्रहण लेप किया जाता। सारे नगर में उसके कुकृत्यों की जानकारी हुआ। वह उसके साथ देव तुल्य भोगों का उपभोग करता हुआ दी जाती और उसे नगर के राज-मार्ग से वध-भूमि की ओर आनन्द से रहने लगा। एक बार वह प्रासाद के गवाक्ष में बैठा ले जाया जाता था। हुआ नगर की शोभा देख रहा था। उसने देखा कि राजपुरुष इस अध्ययन में तात्कालिक राज्य-व्यवस्था का उल्लेख एक व्यक्ति को वध-भूमि की ओर ले जा रहे हैं। वह व्यक्ति भी हुआ है। ग्रन्थकार कहते हैं- "मुनि उचित काल में एक लाल-वस्त्र पहने हुए था। उसके गले में लाल कनेर की मालाएं स्थान से दूसरे स्थान में जाए।" यह कथन साभिप्राय हुआ है। थीं। उसे यह समझते देर न लगी कि इसका वध किया उस समय भारत अनेक इकाइयों में बंटा हुआ था। छोटे-छोटे जाएगा। यह सब देख कुमार का मन संवेग से भर गया। राष्ट्र होते थे। आपसी कलह सीमा पार कर चुका था। 'अच्छे कमों का फल अच्छा होता है और बुरे कर्मों का फल इसीलिए मुनि को गमनागमन में पूर्ण सावधान रहने के लिए बुरा'—इस चिन्तन से उसका मार्ग स्पष्ट हो गया। माता-पिता कहा है (श्लोक १४)। मौलिक दृष्टि से इस अध्ययन में 'चम्पा' की आज्ञा ले वह दीक्षत हुआ। उसने साधना की ओर कर्मों को (श्लोक १) और 'पिहुण्ड' (श्लोक ३) नगरों का उल्लेख हुआ नष्ट कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुआ। है। चौबीस श्लोकों का यह छोटा-सा अध्ययन बहुत ही आत्मानुशासन के उपायों के साथ-साथ इस अध्ययन में महत्वपूर्ण है। समुद्र-यात्रा का उल्लेख महत्पूर्ण है। उस काल में भारत के १. सूयगडो, १११।५। २. वही, १६, वृत्ति, पत्र १५०॥ Jain Education Intemational Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगविंसइमं अज्झयणं : इक्कीसवां अध्ययन समुद्दपालीयं : समुद्रपालीय मूल सस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद चम्पा नगरी में' पालित नामक एक वाणिक्-श्रावक' हुआ। वह महात्मा भगवान् महावीर का शिष्य था। वह श्रावक निर्ग्रन्थ-प्रवचन में कोविद था। वह पोत से व्यापार करता हुआ पिहुण्ड नगर में आया। पिहुण्ड नगर में व्यापार करते समय उसे किसी वणिक् ने पुत्री दी। कुछ समय ठहरने के पश्चात् वह गर्भवती को लेकर स्वदेश को विदा हुआ। पालित की स्त्री ने समुद्र में पुत्र का प्रसव किया। वह समुद्र में उत्पन्न हुआ, इसलिए उसका नाम समुद्रपाल रखा। १. चंपाए पालिए नाम सावए आसि वाणिए। महावीरस्स भगवओ सीसे सो उ महप्पणो।। २. निग्गंथे पावयणे सावए से विकोविए। पोएण ववहरते पिहुंडं नगरमागए।। ३. पिहुंडे ववहरंतस्स वाणिओ देइ धूयरं। तं. ससत्तं पइगिज्झ सदेसमह पत्थिओ।। ४. अह पालियस्स धरणी समुइंमि पसवई। अह दारए तहिं जाए समुद्दपालि त्ति नामए।। खेमेण आगए चंपं सावए वाणिए घरं। संवडई घरे तस्स दारए से सुहोइए।। बावत्तरि कलाओ य सिक्खए नीइकोविए। जोव्वणेण य संपन्ने सुरूवे पियदंसणे।। ७. तस्स रूववई भज्जं पिया आणेइ रूविणिं। पासाए कीलए रम्मे देवा दोगुंदओ जहा।। अह अन्नया कयाई पासायालोयणे ठिओ। वज्झमंडणसोभागं वज्झं पासइ वज्झगं ।। चम्पायां पालितो नाम श्रावक आसीद् वाणिजः । महावीरस्य भगवतः शिष्यः स तु महात्मनः ।। नैन्थे प्रवचने श्रावकः स विकोविदः। पोतेन व्यवहरन् पिहुण्डं नगरमागतः।। पिहुण्डे व्यवहरते वाणिजो ददाति दुहितरम्। तां ससत्वां प्रतिगृह्य स्वदेशमथ प्रस्थितः।। अथ पालितस्य गृहिणी समुद्रे प्रसूते। अथ दारकस्तस्मिन् जातः समुद्रपाल इति नामकः ।। क्षेमेणागतश्चम्पां श्रावको वाणिजो गृहम् । संवर्धते गृहे तस्य दारकः स सुखोचितः।। द्वासप्ततिं कलाश्च शिक्षते नीतिकोविदः। यौवनेन च सम्पन्नः सुरूपः प्रियदर्शनः।। तस्य रूपवती भार्या पिताऽऽनयति रूपिणीम्। प्रासादे क्रीडति रम्ये देवो दोगुन्दको यथा।। अथान्यदा कदाचित् प्रासादालोकने स्थितः। वध्यमण्डनशोभाकं वध्यं पश्यति बाह्यगम्।। ५. वह वणिक्-श्रावक सकुशल चम्पा नगरी में अपने घर आया। वह सुखोचित पुत्र अपने घर में बढ़ने लगा। उसने बहत्तर कलाएं सीखीं और वह नीति-कोविद बना। वह पूर्ण यौवन में सुरूप और प्रिय लगने लगा। उसका पिता उसके लिए रूपिणी नामक सुन्दर स्त्री लाया। वह दोगुन्दक देव की भांति उसके साथ सुरम्य प्रासाद में क्रीड़ा करने लगा। वह कभी एक बार प्रासाद के झरोखे में बैठा हुआ था। उसने वध्य-जनोचित मण्डनों से शोभित वध्य को नगर से बाहर ले जाते हुए देखा। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २१ : श्लोक ६-१७ उसे देख वैराग्य में भीगा हुआ समुद्रपाल यों बोला-“अहो! यह अशुभ कर्मों का दुःखद निर्याण--- अवसान है।" उत्तरज्झयणाणि ३४८ ६. तं पासिऊण संविग्गो तं दृष्ट्वा संविग्नः समुद्दपालो इणमब्बवी। समुद्रपाल इदमब्रवीत्। अहोसुभाण कम्माणं अहो अशुभानां कर्मणां निज्जाणं पावगं इमं ।। निर्याणं पापकमिदम् ।। १०.संबुद्धो सो तहिं भगवं संबुद्धः स तत्र भगवान् परं संवेगमागओ। परं संवेगमागतः। आपुच्छऽम्मापियरो आपृच्छ्याम्बापितरौ पव्वए अणगारियं ।। प्रावाजीदनगारिताम् ।। ११. जहित्तु संगं च महाकिलेसं हित्वा सङ्गञ्च महाक्लेशं महंतमोहं कसिणं भयावहं।। महामोहं कृष्णं भयावहम् । परियायधम्म चभिरोयएज्जा पर्यायधर्म चाभिरोचयेत् वयाणि सीलाणि परीसहे य।। व्रतानि शीलानि परीषहांश्च।। वह भगवान” परम वैराग्य को प्राप्त हुआ और संबुद्ध बन गया। उसने माता-पिता को पूछकर साधुत्व स्वीकार किया। रिया। मुनि महान् क्लेश और महान् मोह को उत्पन्न करने वाले कृष्ण व भयावह संग (आसक्ति) को छोड़कर पर्याय-धर्म (प्रव्रज्या), व्रत और शील तथा परीषहों में अभिरुचि ले। १२. अहिंस सच्चं च अतेणगं च अहिंसां सत्यं चास्तैन्यकं च तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च। ततश्चब्रह्मापरिग्रहं च। पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि प्रतिपद्य पंचमहाव्रतानि चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ।। चरेद् धर्म जिनदेशितं विद्वान् ।। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहइन पांच महाव्रतों को स्वीकार कर विद्वान् मुनि वीतराग-उपादिष्ट धर्म का आचरण करे। १३. सव्वेहिं भूएहिं दयाणुकंपी सर्वेषु भूतेषु दयानुकम्पी सुसमाहित-इन्द्रिय वाला भिक्षु सब जीवों के प्रति खंतिक्खमे संजयबंभयारी। क्षान्तिक्षमः संयतब्रह्मचारी। दयानुकम्पी" रहे । क्षान्तिक्षम", संयत और ब्रह्मचारी सावज्जजोगं परिवज्जयंतो सावद्ययोगं परिवर्जयन् हो। वह सावध योग का वर्जन करता हुआ विचरण चरिज्ज भिक्खू सुसमाहिइंदिए।। चरेद् भिक्षुः सुसमाहितेन्द्रियः।। करे। १४. कालेण कालं विहरेज्ज रठे कालेन कालं विहरेत् राष्ट्र मुनि अपने बलाबल को तौलकर कालोचित कार्य बलाबलं जाणिय अप्पणो य। बलाबलं ज्ञात्वाऽऽत्मनश्च। करता हुआ राष्ट्र में विहरण करे। वह सिंह की सीहो व सद्देण न संतसेज्जा सिंह इव शब्देन न संत्रस्येत् भांति भयावह शब्दों से संत्रस्त न हो। वह कुवचन वयजोग सुच्चा न असभमाहु।। वचोयोगं श्रुत्वा नासभ्यमाह।।। सुन असभ्य वचन न बोले। १५. अवेहमाणो उ परिव्वएज्जा उपेक्षमाणस्तु परिव्रजेत् संयमी मुनि कुवचनों की उपेक्षा करता हुआ परिव्रजन पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा। प्रियमप्रियं सर्व तितिक्षेत। करे। प्रिय और अप्रिय सब कुछ सहे। सर्वत्र सब न सव्व सव्वत्थभिरोयएज्जा। न सर्वं सर्वत्राभिरोचयेत् (जो कुछ देखे उसी) की अभिलाषा न करे तथा न यावि पूयं गरहं च संजए।। न चापि पूजां गहरे च सजेत्।। पूजा और गर्दा की भी अभिलाषा न करे। १६.अणेगछंदा इह माणवेहि अनेकच्छन्दः इह मानवेष संसार म मनुष्या में जा अनक आभप्राय होते है जे भावओ संपगरेइ भिक्खु। यान् भावतः संप्रेकरोति भिक्षुः। वस्तु-वृत्त्या वे भिक्षु में भी होते हैं। किन्तु भिक्षु उन भयभेरवा तत्थ उइंति भीमा भयभैरवास्तत्रोद्यन्ति भीमाः भयभैरवास्तत्रोद्यन्ति भीमाः पर अनुशासन करे और साधुपन में देव, मनुष्य दिव्या मणुस्सा अदुवा तिरिच्छा।। दिव्या मानुष्याः अथवा तैरश्चाः ।। अथा तिर्यञ्च सम्बन्धी भय पैदा करने वाले भीषण-भीषणतम उपसर्ग उत्पन्न हों, उन्हें सहन करे। १७.परीसहा दुव्विसहा अणेगे सीयंति जत्था बहुकायरा नरा। से तत्थ पत्ते न वहिज्ज भिक्खू संगामसीसे इव नागराया।। परीषहा दुर्विषहा अनेके सीदन्ति यत्र बहुकातरा नराः। स तत्र प्राप्तो न व्यथेत् भिक्षुः सङ्ग्रामशीर्ष इव, नागराजः।। जहां अनेक दुस्सह परीषह प्राप्त होते हैं, वहां बहुत सारे कायर लोग खिन्न हो जाते हैं। किन्तु भिक्षु उन्हें प्राप्त होकर व्यथित न बने-जैसे संग्रामशीर्ष (मोर्चे) पर नागराज व्यथित नहीं होता। Jain Education Intemational Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्रपालीय १८. सीओसिणा दंसमसा य फासा आयंका विविहा फुसति देहं । अकुक्कुओ तत्थहियासएज्जा रयाइं खेवेज्ज पुरेकडाई ।। १६. पहाय रागं च तहेव दोसं मोहं च भिक्खू सययं वियक्खणो । मेरु व्व वाएण अकंपमाणो परीसहे आयगुत्ते सहेज्जा ।। २०. अणुन्नए नावणए महेसी न यादि पूयं गरहं च संजए। स उज्जुभावं पडिबज्ज संजए निव्वाणमग्गं विरए उवेइ ।। २१. अरइरइसहे पहीणसंथवे विरए आयहिए पहाणवं । परमट्ठपएहिं चिट्ठई छिन्नसोए अममे अकिंचणे ।। २२. विवित्तलयणाइ भएज्ज ताई निरोवलेवाइ असंथडाई । इसीहि विण्णा महायसेहिं काएण फासेज्ज परीसहाई ।। २३. सण्णाणनाणोवगए महेसी अणुत्तरं धरि धम्मसंचयं । अणुत्तरे नाणधरे जसंसी ओभासई सूरिए वंतलिक्खे ।। २४. दुविहं खवेऊण य पुण्णपाव निरंगणे सव्वओ विप्यमुक्के तरित्ता समुद्र व महाभवोध समुद्दपाले अपुणागमं गए ।। -त्ति बेमि ।। ३४९ शीतोष्णं दंशमशकाश्च स्पर्शाः आता विवियाः स्पृशन्ति देहम्। अकुकूचस्तत्राधिसहेत रजासि क्षपयेत् पुराकृतानि ॥ प्रहाय रागं च तथैव दोषं विचक्षण भिक्षु राग, द्वेष और मोह का सतत त्याग मोहं च भिक्षुः सततं विचक्षणः । कर, वायु में मेरु की भांति अकम्पमान होकर तथा मेरुरिव वातेनाऽकम्पमानः आत्मगुप्त बनकर" परीषहों को सहन करे । परीषहान् आत्मगुप्तः सहेत ।। अनुन्नतो नावनती महर्षिः न चापि पूजां गच सजेत् । सानुभाव प्रतिपा संपत निर्वाणमार्गं विरत उपैति ।। अरतिरतिसहः प्रहीणसंस्तवः विरतः आत्महितः प्रधानवान् । परमार्थपदेषु तिष्ठति छिन्नशोको ऽममो ऽकिंचनः ।। विविक्तलयनानि भजेत त्रायी विरुपलेपान्यसंस्तृतानि । ऋषिभिश्चीर्णानि महायशोभिः कायेन स्पृशेत् परीषहान् ।। सज्ज्ञानज्ञानोपगतो महर्षिः अनुत्तरं चरित्वा धर्मसंचयम्। अनुत्तरः ज्ञानधरः यशस्वी अवभासते सूर्य इयान्तरिक्षे || अध्ययन २१ : श्लोक १८-२४ शीत, ऊष्ण, डांस, मच्छर, तृण-स्पर्श और विविध प्रकार के आतङ्क जब देह का स्पर्श करें तब मुनि शान्त भाव से उन्हें सहन करे, पूर्वकृत रजों (कर्मों) को क्षीण करे। द्विविधं क्षपयित्वा च पुण्यपापं निरङ्गणः सर्वतो विप्रमुक्तः । तरित्वा समुद्रमिव महाभवौघं समुद्रपाल पुनरागमां गतः ॥ --इति ब्रवीमि । पूजा में उन्नत और गर्हा में अवनत न होने वाला २२ महैषी मुनि उन ( पूजा और गर्हा) में लिप्त न हो। २३ अलिप्त रहने वाला वह विरत संयमी आर्जव को स्वीकार कर निर्वाण मार्ग को प्राप्त होता है। जो अरति और रति को सहने वाला, परिचय को क्षीण करने वाला, अकर्त्तव्य से विरत रहने वाला, आत्म-हित करने वाला तथा प्रधानवान् (संयमवान्) २५ होता है, वह छिन्न-शोक (अशोक) ममत्वमुक्त और अकिंचन होकर परमार्थ पदों में स्थित होता है। २६ त्रायी मुनि महायशस्वी ऋषियों द्वारा आचीर्ण, अलिप्त और असंस्तृत (वीज आदि से रहित) विविक्त लयनों ( एकान्त स्थानों) का सेवन करे तथा काया से परीषहों को सहन करे । T. सद्ज्ञान से ज्ञान प्राप्त करने वाला महैषी मुनि अनुत्तर धर्म-संचय का आचरण कर अनुत्तर ज्ञानधारी और यशस्वी होकर अन्तरिक्ष में सूर्य की भांति दीप्तिमान होता है। समुद्रपाल संयम में निश्चल" और सर्वतः मुक्त होकर पुण्य और पाप दोनों को क्षीण कर तथा विशाल संसार प्रवाह को समुद्र की भांति तरकर अपुनरागम-गति (मोक्ष) में गया है। - ऐसा मैं कहता हूं। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन २१ : समुद्रपालीय . १. चंपा नगरी में (चंपाए) द्वारा की जाने वाली समुद्र-यात्रा का वर्णन है। दीघ-निकाय यह अंग जनपद की राजधानी थी। वर्तमान में इसकी (१२२२) में वर्णन आता है कि दूर-दूर देशों तक समुद्र-यात्रा पहचान भागलपुर से २४ मील पूर्व में स्थित आधुनिक 'चंपापूर' करने वाले व्यापारी अपने साथ पक्षी रखते थे। जब जहाज और 'चम्पानगर' नामक दो गांवों से की जाती है। स्थल से बहुत दूर दूर पहुंच जाता और भूमि के कोई चिन्ह विशेष विवरण के लिए देखें-परिशिष्ट १, भौगोलिक दिखाई नहीं देते, तब उन पक्षियों को छोड़ दिया जाता था। परिचय। यदि भूमि निकट ही रहती तो वे पक्षी वापस नहीं आते अन्यथा थोड़ी देर तक इधर-उधर उड़कर वापस आ जाते थे। २. श्रावक (सावए) आवश्यक नियुक्ति के अनुसार जल-पोतों का निर्माण भगवान् महावीर का संघ चार भागों में विभक्त था भगवान् ऋषभ के काल में हुआ था। जैन-साहित्य में 'जलपत्तन' श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका। भगवान् ने दो प्रकार के अनेक उल्लेख मिलते हैं। वहां नौकाओं के द्वारा माल का धर्म बताया-अगार-चारित्र-धर्म और अनगार-चारित्र-धर्म। आता था। जो अगार-चारित्र-धर्म का पालन करता है, वह श्रावक या सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन आदि में दुस्तर-कार्य की श्रमणोंपासक कहलाता है। समुद्र-यात्रा से तुलना की गई है। नालन्दा के लेप नामक ३. कोविद (विकोविए) गाहावई के पास अनेक यान-पात्र थे। सिंहलद्वीप, जावा, बहुत से श्रावक भी निर्ग्रन्थ प्रवचन के विद्वान् होते थे। सुमात्रा आदि में अनेक व्यापारी जाते थे। ज्ञाता-धर्मकथा औपपातिक सूत्र में श्रावकों को लब्धार्थ, पृष्टार्थ, गृहीतार्थ (१६) में जिनपालित और जिनरक्षित के बारह बार लवण-समुद्र आदि कहा गया है। राजीमती के लिए भी 'बहुश्रुत' विशेषण की यात्रा करने का उल्लेख है। लवण-समद्र-यात्रा का प्रलम्ब प्रयुक्त है। वर्णन ज्ञाता-धर्मकथा (१।१७) में भी है। ४. पोत से व्यापार करता हुआ (पोएण ववहरते) ५. पिहुंड नगर में (पिहुंड) भारत में नौका व्यापार करने की परम्परा बहुत प्राचीन यह समद के किनारे पर स्थित एक नगर था। विशेष है। ऋग्वेद (१।२५७; १४८।३; १५६।२; १११६ ॥३; विवरण के लिए देखें-परिशिष्ट १, भौगोलिक परिचय। २।४८ ॥३, ७।८८।३-४) में समुद्र में चलने वाली नावों का ६. सुखोचित (सुहोइए) उल्लेख आता है तथा भुज्युनाविक के बहुत दूर चले जाने पर वृत्तिकार ने इसका अर्थ सुकुमार किया है। प्रस्तुत मार्ग भूल जाने व पूषा की स्तुति करने पर सुरक्षित लौट आने आगम में १६३४ में सुखोचित और सुकुमार-दोनों शब्द का का वर्णन है। एक साथ प्रयोग है। इसलिए सुखोचित का अर्थ-सुख भोगने पण्डार जातक (२११२८, ५७५) में ऐसे जहाजों का उल्लेख के योग्य होना चाहिए। है, जिनमें लगभग पांच सौ व्यापारी यात्रा कर रहे थे; जो कि ७. बहत्तर कलाएं (बावत्तरिं कलाओ) डूब गए। विनय-पिटक में पूर्ण नामी एक भारतीय व्यापारी के छ: बार समुद-यात्रा करने का वर्णन है। संयुक्त-निकाय (२।११५, बहत्तर कलाओं की जानकारी के लिए देखें-समवाओ, समवाय ७२। ५१५१) व अंगुत्तर-निकाय (२७) में छः छः महीने तक नाव १. ठाणं, ४/६०५ : चउव्यिहे संधे पं० तं-समणा समणीओ सावया सावियाओ। २. वही, २/१०६ : चरित्तधम्मे दुविहे पं० त०-अगारचरित्तधम्मे वेव अणगारचरित्तधम्मे चेव। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४२८ 'नम्रन्थे' निग्रन्थसम्बन्धिनि 'पावयणे' ति प्रवचने श्रावकः सः इति पालितो विशेषेण कोविदः-पंडितो विकोविदः। ४. ओवाइयं, सूत्र १२०। ५. उत्तरज्झयणाणि, २२३२ : सीलवंता बहुस्सुया। ६. आवश्यक नियुक्ति, २१४ : पोता तह सागरंमि वहणाई। ७. (क) बृहत्कल्प भाष्य, भाग २, पृ० ३४२। (ख) आचारांग चूर्णि, पृ० २८१। ८. (क) सूयगडो, १।११।५। (ख) उत्तरज्झयणाणि, ८।६। ६. सूयगडो, २७।६६। १०. बृहवृत्ति, पत्र ४८३ : सुखोचितः-सुकुमारः। Jain Education Intemational Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्रपाल ३५१ ८. वध्यजनोभित मंडनों से शोभित (वन्झमंडणसो भाग) इन शब्दों में एक प्राचीन परम्परा का संकेत मिलता है। प्राचीन काल में चोरी करने वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था। जिसे वध की सजा दी जाती थी, उसके गले में कणेर के लाल फूलों की माला पहनाई जाती, उसे लाल कपड़े पहनाए जाते, उसके शरीर पर लाल चन्दन का लेप किया जाता और उसे सारे नगर में घुमाते हुए उसके वध्य होने की जानकारी देते हुए उसे श्मशान की ओर ले जाया जाता था।' ९. बाहर से जाते हुए देखा (पासइ वज्झगं) वृहद्वृत्ति के अनुसार इसके संस्कृत रूप दो होते है बाह्यगं वध्यगं । बाह्यग का अर्थ है-नगर से बाहर ले जाया जाता हुआ तथा वध्यग का अर्थ है-वध्यभूमि में ले जाया जाता हुआ। १०. वैराग्य में भीगा हुआ (संविग्गो) 'संविग्गो' यह समुद्रपाल का विशेषण है। बृहद्वृत्ति में 'संवेग' पाठ है और वह चोर के लिए प्रयुक्त है। 'संवेग' का अर्थ है - संसार के प्रति उदासीनता और मोक्ष की अभिलाषा अर्थात् वैराग्य। यहां वैराग्य के हेतुभूत वध्य पुरुष को संवेग माना है। ११. भगवन् (भगवं) 'भग' शब्द के अनेक अर्थ हैं। वृत्तिकार ने यहां इसका अर्थ महात्म्य किया है। इसका तात्पयार्थ है-ऐश्वर्य सम्पन्न । १२. कृष्ण (कसिणं) इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं--कृत्स्न और कृष्ण। संग कृष्णलेश्या के परिणाम का हेतु बनता है, इसलिए उसे कृष्ण कहा गया है। यह चूर्णिकार का अभिमत है ।" वृत्ति में कत्स्न और कृष्ण—दोनों रूप उपलब्ध है। अर्थ की दृष्टि से कृष्ण रूप अधिक प्रासंगिक है। १३. पर्यायधर्म (प्रव्रज्या) (परियायधम्मं ) पर्याय शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। पर्याय का एक अर्थ १. (क) सूत्रकृतांग, १६ वृत्ति पत्र १५०, चूर्णि पृ० १८४ चोरो रक्तकणवीरकृतमुण्डमालो रक्तपरिधानो रक्तचन्दनोपलिप्तश्च प्रहतवर्ध्याडण्डिमो राजमार्गेण नीयमानः । (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ४८३ : वधमर्हति वध्यस्तस्य मण्डनानि - रक्तचन्दनकरवीरादीनि तैः शोभा तत्कालोचितपरभागलक्षणा यस्यासौ वध्र्यमण्डनशोभाकस्तम् । २. वृहद्वृत्ति पत्र ४८३ वाह्यं नगरवहिर्वर्त्तिप्रदेशं गच्छतीति बाह्यगरतं, को ऽर्थः ? - वहिर्निष्क्रामन्तं यद् वा वध्यगम् इह वध्यशब्देनोपचाराद् वध्यभूमिरुक्ता । ३. वही, पत्र ४८३ संवेग संसारवैमुख्यतो मुक्त्यभिलाषस्तद् हेतुत्वात् सोऽपि संवेगस्तम् । ४. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६१: कृष्ण-कृष्णलेश्यापरिणामि । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८५ कसिणं ति कृत्स्नं कृष्णं वा कृष्णलेश्यापरिणामहेतुत्वेन । अध्ययन २१ : श्लोक ८- १५ टि० ८-१८ है-दीक्षा । पर्याय धर्म का अर्थ है-मुनि धर्म । चूर्णिकार ने पर्याय का अर्थ संयम पर्याय और धर्म का अर्थ श्रुतधर्त किया है। वृत्ति में पर्याय का अर्थ है— प्रव्रज्या - पर्याय और धर्म का अर्थ है-पर्यायधर्म प्रव्रज्याधर्म । १४. दयानुकम्पी (दयाणुकंपी) वृहद्वृत्ति के अनुसार दया के दो अर्थ हैं— हितोपदेश देना, रक्षा करना । जो हितोपदेश और सब प्राणियों की रक्षा-अहिंसा रूप दया से कम्पन-शील होता है, वह 'दयानुकम्पी' कहलाता है। १५. क्षांतिक्षम (खंतिक्खमे) जो क्षान्ति से कुवचनों को सहन करता है, वह 'क्षान्ति-क्षम' कहलाता है, किन्तु अशक्ति से सहन करने वाला नहीं।" १६. कालोचित कार्य करता हुआ (कालेण काल ) यहां 'काल' शब्द समयोचित कार्य करने के अर्थ में प्रयुक्त है। जिस समय में जो कार्य करणीय होता है, उसी काल में उसे सम्पन्न करना, जैसे- स्वाध्याय काल में स्वाध्याय, प्रतिलेखन के समय प्रतिलेखन, वैयावृत्य के समय वैयावृत्य करना आदि। उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों प्रकार के नियमों का अपनी-अपनी मर्यादा में प्रयोग उत्सर्ग काल में उत्सर्ग के नियमों का और अपवाद काल में अपवाद के नियमों का पालन करना 'कालेण कालं' का तात्पर्यार्थ है । " १७. उपेक्षा करता हुआ ( उवेहमाणो ) उपेक्षा का एक अर्थ है— उप + ईक्षा निकटता से देखना । इसका दूसरा अर्थ है-उपेक्षा करना, उदासीन रहना । प्रस्तुत श्लोक में यह दूसरा अर्थ ही प्रासंगिक है। १८. (न सव्व सव्वत्थभिरोयएज्जा) ६. शान्त्याचार्य के अभिमत से इसके दो अर्थ हैं"१. जो कुछ देखे उसी को न चाहे । २. एक बार विशेष कारण से जिसका सेवन करे, उसका सर्वत्र सेवन न करे। उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६१ : संयमपर्याये स्थित्वा श्रुतधर्मे अभिरुचिं करोति । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८५ परियाय त्ति प्रक्रमात् प्रव्रज्यापर्यायस्तत्र धर्मः पर्यायधर्मः । ८. वही पत्र ४८५ दयया हितोपदेशादिनानात्मिकया रक्षणरूपया वाकम्पनशीलानु ६. वही, पत्र ४८५-१६६ क्षान्त्या न त्वशक्त्या क्षमतेप्रत्यनीकाद्युदीरित दुर्वचनादिकं सहत इति क्षान्तिक्षमः । १०. उत्तराध्ययन चूर्णि पृष्ठ २६२ : कालेण कारणभृतेन यद् यस्मिन् काले कर्त्तव्यं तत् तस्मिन्नेव समाचरति, स्वाध्यायकाले स्वाध्यायं करोति, एवं प्रतिलेखनकाले प्रतिलेखयति, वैयावृत्यकाले वैयावृत्यं, उपसर्गकाले उपसर्ग अपवादकाले अपवादं करोति । ११. वृहद्वृत्ति, पत्र ४८६ : न सव्वत्ति सर्वं वस्तु सर्वत्रस्थानेऽभ्यरोचयेत न यथादृष्टाभिलाषुकोऽभूदिति भावः, यदि वा यदकेत्र पुष्टालम्बनतः सेवितं न तत् सर्वम्-अभिमताहारादि सर्वत्राभिलपितवान् । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३५२ अध्ययन २१ : श्लोक १५-२२ टि० १६-२८ १९. (न यावि पूर्य गरहं च संजए) वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप ‘सजेत्' दिया है। इसका मुनि पूजा और गर्दा की अभिलाषा न करे। वृत्तिकार ने अर्थ है-लिप्त होना। गर्हा के विषय में एक विमर्श प्रस्तुत किया है। कुछ विचारकों २४. परिचय को... (...संथवे) का मत था कि गर्दा (आत्मगऱ्या या हीन भावना) से कर्म का संस्तव का अर्थ है-परिचय। चूर्णि में दो प्रकार का क्षय होता है। इस मत से असहमति प्रगट करने के लिए गर्दा संस्तव माना है. वचन संस्तव और संवाससंस्तव। वृत्ति में का ग्रहण किया गया है ऐसा वृत्तिकार का अभिमत है। गर्दा पूर्वसंस्तव, ख्यात्संस्तव, वचनसंस्तव तथा संवाससंस्तव-ये का वैकल्पिक अर्थ परापवाद किया गया है। उसकी अभिलाषा चार प्रकार के संस्तवों की चर्चा है। माता-पिता, भाई-बहिन न करना स्वाभाविक है। आदि का परिचय पूर्वसंस्तव है। शाश-श्वसुर, साला-साली का २०. शांतभाव से (अकुक्कुओ) परिचय पश्चात्संस्तव है। जिनके साथ बातचीत का अधिक उत्तराध्ययन १।३० में 'अप्पकुक्कुए' शब्द प्रयुक्त है। संबंध रहता है वह वचनसंस्तव है। जिनके साथ अधिक रहने इसकी वृत्ति में शान्त्याचार्य ने 'कुक्कुए' का अर्थ कौत्कच का संबंध बनता है वह संवाससंस्तत है।' अर्थात् चंचल किया है। प्रस्तुत आगम के ३६।२६३ में २५. प्रधानवान् (संयमवान्) (पहाणव) 'कोक्कुइय' का अर्थ 'कोक्रुच्य' किया है। प्रस्तुत श्लोक में वृत्ति में प्रधान का अर्थ संयम है। संयम मुक्ति का हेतु वृत्तिकार ने अकुक्कुओ का अर्थ उक्त दोनों अर्थों से भिन्न है, इसलिए उसे प्रधान कहा गया है। बुद्धि और समझ भी किया है। अकुक्कुओ (सं० अकुक्कुजः) अर्थात् आक्रन्दन इसके अर्थ मिलते हैं।" 'प्रधान' शब्द को संज्ञावाची मानने पर करने वाला। यहां भी 'कुक्कुय' शब्द 'कौत्कुच' के अर्थ में हो ही प्रधानवान् हो सकता है। यहां 'उपहाणवं' पाठ का अनुमान सकता है, फिर भी वृत्तिकार ने इसका अर्थ वह क्यों नहीं भी किया जा सकता है। उपधान का अर्थ है तपस्या। उपधानवान् किया, यह विमर्शनीय है। अर्थात् तपस्वी। २१. आत्मगुप्त बनकर (आयगुत्ते) २६. छिन्न-शोक (अशोक) (छिन्नसोए) यहां आत्मा शब्द शरीर के अर्थ में प्रयुक्त है। जो व्यक्ति इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं--छिन्नसोतस् और कूर्म की भांति अपने संपूर्ण अंग को संकुचित कर लेता है, छिन्नशोकः । चूर्णिकार ने प्रथम रूप को मानकर इसका अर्थ गुप्त कर लेता है, वह आत्मगुप्त कहलाता है।' इस प्रकार किया है जिस व्यक्ति के मिथ्यादर्शन आदि सारे २२. पूजा में उन्नत और गर्दा में अवनत न होने वाला सोत सूख जाते हैं, दूर हो जाते हैं, वह छिन्नसोत वाला होता (अणुन्नए नावणए) है।१२ वृत्तिकार ने इसको वैकल्पिक अर्थ मानकर इसका अर्थ चूर्णि में इसका अर्थ है-मुनि चलते समय ऊंचा मुंह छिन्नशोक-जिसके सारे शोक दूर हो गए हैं-किया है। कर या बहुत नीचा मुंह कर न चले. किन्तु यगान्तरभमी को २७. परमार्थ-पदों में (परमट्टपएहिं) देखते हुए चले। परमार्थ का अर्थ है-मोक्ष। जिन साधनों के द्वारा मोक्ष वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-पूजा के प्रति की प्राप्ति होती है, वे परमार्थपद कहलाते हैं। वे तीन हैंउन्नत और गर्दा के प्रति अवनत। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र।" २३. लिप्त न हो (न...संजए) २८. अलिप्त (निरोवलेवाइ) इस पाठ के विषय में दो कल्पनाएं की जा सकती हैं जो स्थान अकृत, अकारित और असंकल्पित हैं तथा (१) अनुस्वार को अलाक्षणिक माना जाए। जो संयम का उपघात करने वाले तत्त्वों से रहित हैं, वे (२) मूल पाठ 'सज्जए' हो। निरुपलेप होते हैं। यह चूर्णि का अभिमत है।५ वृत्तिकार ने १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८६ : इह च गाँतोऽपि कर्मक्षय इति ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६२। केचिदतस्तन्मतव्यवच्छेदार्थं गांग्रहणं, यद्वा गर्दा-परापवादरूपा। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८७। २. वही, पत्र ५८, ५६ : ...कौत्कुचं-करचरणभूभ्रमणाद्यसच्चेष्टा- १०. वही, पत्र ४८७ : प्रधानः स च संयमो मुक्तिहेतुत्वात्। त्मकमस्येति...कौत्कुचः। ११. आप्टे-संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी। ३. वही, पत्र ७०६ : कीक्रुच्यं द्विधा-कायकोक्रुच्यं वाक्कोक्रुच्यं च। १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट २६३ : मिथ्यादर्शनादीनि श्रोतांसि छिन्नानि४. वही, पत्र ४८६ : अकुक्कुय ति आर्षत्वात् कुत्सितं कूजति-पीडितः अपगतानि तस्य। सन्नाक्रन्दति कुकूजो न तथेत्यकुकूजः।। १३. बृहवृत्ति, पत्र ४८७। ५. वही, पत्र ४८६ : आत्मना गुप्तः-आत्मगुप्तः कूर्मवत् संकुचितसर्वांगः। १४. वही, पत्र ४८७ परमार्थो मोक्षः, स पद्यते-गम्यते यैस्तानि ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६२ : तथा नात्यर्थमुन्नतेन च चात्यर्थमवनतेन, परमार्थपदानि-सम्यग्दर्शनादीनि। किं? युगान्तरलोकिना गन्तव्यम्। १५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६३ : स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितानि लयनानि ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६७ : उन्नतो हि पूजां प्रति अवनतश्च गर्दा प्रति। सेवति, तान्येव विशेष्यन्ते, अकृतमकारितमसंकल्पितानि संयमोपघात विरहितानि। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्रपालीय ३५३ अध्ययन २१ :श्लोक २२,२४ टि० २६,३० आसक्ति के उपलेप से रहित स्थानों को निरुपलेप माना है।' ३०. निश्चल (निरंगणे) २९. विविक्त लयनों-एकान्त स्थानों का (विवित्तलयणाइ) 'निरंगण' शब्द के दो संस्कृत रूप किए जा सकते हैं वृत्तिकार ने इसका अर्थ-स्त्री आदि रहित उपाश्रय निरंगण और निरञ्जन। निरंगण का अर्थ है—लेप रहित। किया है। लयन का मुख्य अर्थ 'पहाड़ों में कुरेदा हुआ गृह' निरंजन का एक अर्थ है—गति रहित, निश्चल और दूसरा (गुफा) होता है। 'लेणी' शब्द इसी 'लयण' या 'लेण' का अर्थ है-देह अथवा अभिव्यक्ति रहित। प्राकृत में 'जकार' को अपभ्रंश है। 'गकारादेश' होता है। इसलिए 'निरंजन' का 'निरंगण' रूप बन सकता है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८७ : निरुपलेपानि-अभिष्वंगरूपोपलेपवर्जितानि। २. वही, पत्र ४८७ : विविक्तलयनानि स्यादिविरहितोपाश्रयरूपाणि विविक्तत्वादेव च। Jain Education Intemational Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाइसमं अज्झयणं रहनेमिज्जं बावीसवां अध्ययन रथनेमीय Jain Education Intemational Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन में अन्धक-कुल के नेता समुद्रविजय के पश्चिम-वय में दीक्षित हुए थे। उन्होंने भी मोक्ष प्राप्त कर पुत्र रथनेमि का वृत्तान्त है, इसलिए इसका नाम 'रहनेमिज्ज'- लिया। यह परमार्थ है।" अरिष्टनेमि ने नियति की प्रबलता 'रथनेमीय' है। जान केशव की बात स्वीकार कर ली। केशव ने समुद्रविजय सोरियपुर नाम का नगर था। वहां वृष्णि-कुल के वसुदेव को सारी बात कही। वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और योग्य कन्या राज्य करते थे। उनके दो रानियां थीं-रोहिणी और देवकी। की गवेषणा करने लगे। भोज-कुल के राजन्य उग्रसेन की पुत्री रोहिणी के एक पुत्र था। उसका नाम 'बलराम' था और देवकी राजीमती को अरिष्टनेमि के योग्य समझ विवाह की बातचीत के पुत्र का नाम 'केशव' था। की। उग्रसेन ने इसे अनुग्रह मान स्वीकार कर लिया। दोनों उसी नगर में अन्धक-कुल के नेता समुद्रविजय राज्य कुलों में वर्धापन हुआ। विवाह से पूर्व समस्त कार्य सम्पन्न करते थे। उनकी पटरानी का नाम शिवा था। उसके चार पुत्र हुए। विवाह का दिन आया राजीमती अलंकृत हुई। कुमार भी थे—अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि । अरिष्टनेमि अलंकृत हो मत्त हाथी पर आरूढ़ हुए। सभी दसार एकत्रित बाईसवें तीर्थकर हुए और रथनेमि तथा सत्यनेमि प्रत्येक-बृद्ध हुए। बाजे बजने लगे। मंगल दीप जलाए गए। वर-यात्रा हुए। प्रारम्भ हुई। हजारों लोगों ने उसे देखा। वह विवाह-मण्डप के उस समय सोरियपुर में द्वैध-राज्य था। अन्धक और पास आई। राजीमती ने दूर से अपने भावी पति को देखा। वह वृष्णि-ये दो राजनैतिक दल वहां का शासन चलाते थे। अत्यन्त प्रसन्न हुई। वसुदेव वृष्णियों के नेता थे और समुद्रविजय अन्धकों के। इस उसी समय अरिष्टनेमि के कानों में करुण शब्द पड़े। प्रकार की राज्य-प्रणाली को ‘विरुद्ध-राज्य' कहा जाता था। उन्होंने सारथी से पूछा-“यह शब्द क्या है ?” सारथी ने कार्तिक कृष्णा द्वादशी को अरिष्टनेमि का जीव शिवा कहा-“देव! यह करुण शब्द पशुओं का है। वे आपके विवाह रानी के गर्भ में आया। माता ने १४ स्वप्न देखे। श्रावण शुक्ला में सम्मिलित होने वाले व्यक्तियों के लिए भोज्य बनेंगे। मरण-भय ५ को रानी ने पुत्र-रत्न को जन्म दिया। स्वप्न में रिष्टरत्नमय से वे आक्रन्दन कर रहे हैं।” अरिष्टनेमि ने कहा-“यह कैसा नेमि देखे जाने के कारण पुत्र का नाम अरिष्टनेमि रखा। वे आनन्द ! जहां हजारों मूक और दीन पशुओं का वध किया आठ वर्ष के हुए। कृष्ण ने कंस का वध कर डाला। महाराज जाता है। ऐसे विवाह से क्या जो संसार के परिभ्रमण का हेतु जरासंध यादवों पर कुपित हो गया। मरने के भय से सभी बनता है !” हाथी को अपने निवास की ओर मोड़ दिया। यादव पश्चिमी समुद्र तट पर चले गए। वहां द्वारवती नगरी में अरिष्टनेमि को मुड़ते देख राजीमती मूञ्छित हो भूमि पर गिर सुख से रहने लगे। कुछ समय के बाद वलराम और कृष्ण ने पड़ी। स्वजनों ने ठण्डा जल छिड़का, पंखा झला। मूर्छा दूर जरासंध को मार डाला और वे राजा बन गए। अरिष्टनेमि हुई। चैतन्य प्राप्त कर वह विलाप करने लगे। अरिष्टनेमि ने युवा बने । वे इन्द्रिय-विषयों से पराङ्मुख रहने लगे। एक बार अपने माता-पिता के पास जा प्रव्रज्या के लिए आज्ञा मांगी। वे समद्रविजय ने केशव से कहा—“ऐसा कोई उपक्रम किया जाए तीन सौ वर्ष तक अगारवास में रह श्रावण शुक्ला ५ को जिससे कि अरिष्टनेमि विषयों में प्रवृत्त हो सके।" केशव ने सहस्त्रवन उद्यान के बेले की तपस्या में दीक्षित हो गए। रुक्मणी, सत्यभामा आदि को इस ओर प्रयत्न करने के लिए अब रथनेमि राजीमती के पास आने-जाने लगे। उन्होंने कहा। अनेक प्रयत्न किए गए। अनेक प्रलोभनों से उन्हें कहा-“देवी ! विषाद मत करो। अरिष्टनेमि वीतराग हैं। वे विचलित करने का प्रयास किया गया। पर वे अपने लक्ष्य पर विषयानुबन्ध नहीं करते। तुम मुझे स्वीकार करो। मैं जीवन स्थिर रहे। एक वार केशव ने कहा-“कुमार! ऋषभ आदि भर तुम्हारी आज्ञा मानूंगा।" भगवती राजीमती का मन काम-भोगों अनेक तीर्थकर भी गृहस्थाश्रम के भोगों को भोग कर, से निर्विण्ण हो चुका था। उसे रथनेमि की प्रार्थना अयुक्त लगी। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ४४३-४४५ : सोरियपुरंमि नयरे, आसी राया समुद्दविजओत्ति । तस्सासि अग्गमहिसी, सिवत्ति देवी अणुज्जंगी।। तेसिं पुत्ता चउरो, अरिट्ठनेमी तहेव रहनेभी। तइओ अ सच्चनेमी, चउत्थओ होई दढनेमि।। जो सो अरिट्ठनेमी, बावीसइमो अहेसि सो अरिहा। रहनेमि सच्चनेमी, एए पत्तेयबुद्धा उ।। Jain Education Intemational Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि एक बार उसने मधुघृत संयुक्त पेय पीया और जब रथनेमि आए तब मदन फल खा उल्टी की और रथनेमि से कहा--- " इस पेय को पीएं।" उसने कहा- " वमन किए गए को कैसे पीऊं ?” राजीमती ने कहा- “क्या तुम यह जानते हो ?” रथनेमि ने कहा- “ इस बात को बालक भी जानता है।” राजीमती ने कहा – “यदि यह बात है तो मैं भी अरिष्टनेमि द्वारा वान्त हूं। मुझे ग्रहण करना क्यों चाहते हो ? धिक्कार है तुम्हें जो वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करते हो ! इससे तो तुम्हारा मरना श्रेयस्कर है।" इसके बाद राजीमती ने धर्म कहा । रथनेमि जागृत हुए और आसक्ति से उपरत हुए। राजीमती दीक्षाभिमुख हो अनेक प्रकार के तप और उपधानों को करने लगी। ३५६ अध्ययन २२ : आमुख गया। अचानक ही राजीमती ने रथनेमि को देख लिया और शीघ्र ही अपनी बाहों से अपने आपको ढकती हुई वह वहीं बैठ गई । रथनेमि ने कहा- "मै तेरे में अत्यन्त अनुरक्त हूं। तेरे विना मैं शरीर धारण नहीं कर सकता। तू मुझे स्वीकार कर । अवस्था आने पर हम दोनों संयम मार्ग को स्वीकार कर लेंगे।” राजीमती ने विषयों के दारुण-विपाक, जीवन की अस्थिरता और व्रत भंग के फल का निरूपण किया। उसे धर्म कहा। वह संबुद्ध हुआ। राजीमती का अभिनन्द कर वह अपने माण्डलिक साधुओं में चला गया। राजीमती भी आर्यिका के पास चली गई। भगवान अरिष्टनेमि केवली हुए। देवों ने केवली - महोत्सव किया रथनेमि प्रव्रजित हुए। राजीमती भी अनेक राजकन्याओं के साथ प्रव्रजित हुई। एक बार भगवान् अरिष्टनेमि रैवतक पर्वत पर समवसृत थे। साध्वी राजीमती अनेक साध्वियों के साथ वन्दना करने गई। अचानक ही वर्षा प्रारम्भ हो गई। साथ वाली सभी साध्वियां इधर-उधर गुफाओं में चली गईं। राजीमती भी एक गुफा में गई' उसी गुफा में मुनि रथनेमि पहले से ही बैठे हुए थे। राजीमती को यह ज्ञात नहीं था। गुफा में अन्धकार व्याप्त था। उसने अपने कपड़े सूखने के लिए ये तीन शब्द प्राचीन कुलों के द्योतक हैं। फैलाए । नग्नावस्था में उसे देख रथनेमि का मन विचलित हो १. उस गुफा को आज भी राजीमती गुफा कहा जाता है। विविध तीर्थकल्प, पृ० ६ । नियुक्तिकार के अनुसार प्रत्येक बुद्ध रथनेमि चार सौ वर्षों तक गृहस्थवास में रहे, एक वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में और पांच सौ वर्ष तक केवली पर्याय में रहे। संयम को विशुद्ध पालते हुए दोनों— रथनेमि और राजीमती सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। राजीमती का जीवन-काल भी रथनेमि जितना ही रहा। इस अध्ययन के ४२, ४३, ४४, ४६ और ४६ - ये पांच श्लोक दशवैकालिक के दूसरे अध्ययन में ज्यों-के-त्यों आए हैं 1 इस अध्ययन में आए हुए भोज, अन्धक और वृष्णि पूरे कथानक के लिए देखें- सुखबोधा, पत्र २७७-२८२ । २. उत्तराध्ययन निर्युक्ति गाथा, ४४६ । ३. वही, गाथा ४४७ । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. सोरियपुरंमि नयरे आसि राया महिड्डिए । वसुदेवेत्ति नामेण रायलक्खणसंजुए। २. तस्स भज्जा दुवे आसी रोहिणी देवई तहा । तासि दोन्हं पि दो पुत्ता इट्ठा रामकेसवा ।। ३. सोरियपुरंमि नयरे आसि राया महिड्डिए । समुद्दविजए नाम रायलक्खणसंजुए || ४. तस्स भज्जा सिवा नाम तीसे पुत्तो महावसो । भगवं अरिनेमिति लोगनाडे दमीसरे ।। ५. सोरिट्ठनेमिनामो उ लक्खणस्सरसंजुओ। अट्ठसहस्स लक्खणधरो गोयमो कालगच्छवी ।। ६. वज्जरिसहसंघयणो समचउरंसो झसोयरो । तस्स राईमई कन्नं भज्जं जायइ केसवो || ७. अह सा रायवरकन्ना सुसीला चारुपेहिणी । सव्वलक्खणसंपन्ना विज्जुसोयामणिप्पभा ।। ८. अहाह जणओ तीसे वासुदेवं महिड्डियं । इहागच्छऊ कुमारो जा से कन्नं दलाम हं ।। बाइसमं अज्झयणं रहनेमिज्जं स्थनेमीय संस्कृत छाया सोरियपुरे नगरे आसीद्राजा महर्द्धिकः । वसुदेव इति नाम्ना राजलक्षणसंयुतः ।। तस्य भार्ये द्वे आस्तां रोहिणी देवकी तथा । तयोर्द्वयोरपि दी पुत्री इष्टौ रामकेशवौ ।। सोरियपुरे नगरे आसीद्राजा महर्द्धिकः । समुद्रविजयो नाम राजलक्षणसंयुतः ।। तस्य भार्या शिवा नाम तस्याः पुत्रो महायशाः । भगवानरिष्टनेमिरिति लोकनाथो दमीश्वरः ।। सोऽरिष्टनेमिनामा तु स्वरलक्षणसंयुतः । अष्टसहस्रलक्षणधरः : गौतमः कालकच्छविः ।। वज्रऋषभसंहननः समचतुरसो झघोदरः । तस्य राजीमतीं कन्यां भायां याचते केशवः ।। अथ सा रावरकन्या सुशीला वारुप्रेक्षिणी। सर्वलक्षणसम्पूर्णा विद्युत्सौदामिनीप्रभा ।। बावीसवां अध्ययन अथाह जनकस्तस्याः वासुदेवं महर्द्धिकम् । इहागच्छतु कुमारः येन तस्मै कन्यां ददाम्यहम् ।। हिन्दी अनुवाद सोरियपुर नगर में राज- लक्षणों से युक्त वसुदेव नामक महान् ऋद्धिमान् राजा था। उसके रोहिणी और देवकी नाम दो भार्याएं थीं। उन दोनों के राम और केशव - ये दो प्रिय पुत्र थे । सोरियपुर नगर में राज- लक्षणों से युक्त समुद्रविजय नामक महान् ऋद्धिमान् राजा था। उसके शिवा नामक भार्या थी। उसके भगवान् अरिष्टनेमि नामक पुत्र हुआ। वह लोकनाथ एवं जितेन्द्रियों में प्रधान था। वह अरिष्टनेमि स्वर लक्षणों से युक्त, एक हजार आठ शुभ लक्षणों का धारक', गौतम गोत्री और श्याम वर्ण वाला था । वह वज्रऋषभ संहनन' और समचतुरस्र संस्थान वाला था । उसका उदर मछली के उदर जैसा था। केशव ने उसके लिए राजीमती कन्या की मांग की। वह राजकन्या सुशील, चारु-प्रेक्षिणी (मनोहर-चितवन बाली), स्त्री- जनोचित सर्व लक्षणों से परिपूर्ण और चमकती हुई बिजली जैसी प्रभा वाली थी।" उसके पिता उग्रसेन ने महान् ऋद्धिमान् वासुदेव से कहा – “कुमार यहां आए तो मैं उसे अपनी कन्या दे सकता हूं।" Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३५८ अध्ययन २२ : श्लोक ६-१८ अरिष्टनेमि को सर्व औषधियों के जल से नहलाया गया, कौतुक और मंगल किए गए, दिव्य वस्त्र-युगल" पहनाया गया और आभरणों से विभूषित किया गया। वासुदेव के मदवाले ज्येष्ठ गन्धहस्ती पर आरूढ़ अरिष्टनेमि सिर पर चूड़ामणि की भांति बहुत सुशोभित हुआ। अरष्टिनेमि ऊंचे छत्र-चामरों से सुशोभित और दसार-चक्र से सर्वतः परिवृत था। यथाक्रम सजाई हुई चतुरंगिनी सेना और वाद्यों के गगन-स्पर्शी दिव्यनाद ऐसी उत्तम ऋद्धि और उत्तम द्युति के साथ वह वृष्णिपुङ्गव अपने भवन से चला। ६. सव्वोसहीहि एहविओ कयकोउयमंगलो। दिव्वजुयलपरिहिओ आभरणेहिं विभूसिओ।।। १०. मत्तं च गंधहत्थि वासुदेवस्स जेट्टगं। आरूढो सोहए अहियं सिरे चूडामणी जहा।। ११. अह ऊसिएण छत्तेण चामराहि य सोहिए। दसारचक्केण य सो सव्वओ परिवारिओ।। १२. चउरंगिणीए सेनाए रइयाए जहक्कमं। तुरियाण सन्निनाएण दिव्वेण गगणं फुसे।। १३. एयारिसीए इड्डीए जुईए उत्तिमाए य। नियगाओ भवणाओ निज्जाओ वण्हिपुंगवो।। १४. अह सो तत्थ निजंतो दिस्स पाणे भयदुए। वाडेहिं पंजरेहिं च सन्निरुद्धे सुदुक्खिए।। १५.जीवियंतं तु संपत्ते मंसट्ठा भक्खियब्वए। पासेत्ता से महापन्ने सारहिं इणमब्बवी।। १६. कस्स अट्ठा इमे पाणा एए सब्वे सुहेसिणो। वाडेहिं पंजरेहिं च सन्निरुद्धा य अच्छहिं ?।। १७.अह सारही तओ भणइ एए भद्दा उ पाणिणो। तुझं विवाहकजंमि भोयावेउं बहुं जणं ।। १८. सोऊण तस्स वयणं बहुपाणिविणासणं चिंतेइ से महापन्ने साणुक्कोसे जिएहि उ।। सर्वौषधिभिः स्नापितः कृतकौतुकमंगलः। परिहितदिव्ययुगलः आभरणैर्विभूषितः।। मत्तं च गन्धहस्तिनं वासुदेवस्य ज्येष्ठकम्। आरूढ़ः शोभतेऽधिकं शिरसि चूडामणिर्यथा। अथोच्छ्रितेन छत्रेण चामराभ्यां च शोभितः दशारचक्रेण च स सर्वतः परिवारितः।। चतुरङ्गिण्या सेनया रचितया यथाक्रमम्। तूर्याणां सन्निनादेन दिव्येन गगनस्पृशा।। एतादृश्या ऋद्ध्या द्युत्या उत्तमया च। निजकात् भवनात् निर्यातो वृष्णिपुङ्गवः।। अथ स तत्र निर्यन् दृष्ट्वा प्रणान् भयदुतान्। वाटैः पञ्जरैश्च सन्निरुद्धान् सुदुःखितान् ।। जीवितान्तं तु सम्प्राप्तान् मांसार्थं भक्षयितव्यान्। दृष्ट्वा स महाप्रज्ञः सारथिमिदमब्रवीत्।। कस्यार्थादिमे प्राणा एते सर्वे सुखैषिणः। वाटैः पञ्जरैश्च सन्निरुद्धाश्च आसते?।। अथ सारथिस्ततो भणति एते भद्रास्तु प्राणिनः। तव विवाहकायें भोजयितुं बहुं जनम्।। श्रुत्वा तस्य वचनं बहुप्राणिविनाशनम्। चिन्तयति स महाप्रज्ञः सानुक्रोशो जीवेषु तु।। वहां जाते हुए उसने भय से संत्रस्त, बाड़ों और पिंजरों में निरुद्ध, सुदुःखित प्राणियों को देखा।" वे मरणासन्न दशा को प्राप्त थे और मांसाहार के लिए खाए जाने वाले थे। उन्हें देख कर महाप्रज्ञ" अरिष्टनेमि ने सारथि से इस प्रकार कहा-- “सुख की चाह रखने वाले ये२० सब प्राणी किसालए इन बाड़ों और पिंजरों में रोके हुए हैं ?" सारथि ने कहा--"ये भद्र' प्राणी तुम्हारे विवाह-कार्य में बहुत जनों को खिलाने के लिए यहां रोके हुए हैं।" सारथि का बहुत जीवों के वध का प्रतिपादक वचन सुन कर जीवों के प्रति सकरुण उस महाप्रज्ञ अरिष्टनेमि ने सोचा Jain Education Intemational Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथनेमीय ३५९ अध्ययन २२ : श्लोक १६-२८ १६.जइ मज्झ कारणा एए यदि मम कारणादेते “यदि मेरे निमित्त से इन बहुत से जीवों का वध हम्मिहिंति बहू जिया। हनिष्यन्ते बहवो जीवाः। होने वाला है तो यह परलोक में मेरे लिए श्रेयस्कर न मे एयं तु निस्सेसं न मे एतत्तु निःश्रेयसं नहीं होगा।" परलोगे भविस्सई।। परलोके भविष्यति।। २०.सो कुंडलाण जुयलं स कुण्डलयोर्युगलं उस महायशस्वी अरिष्टनेमि ने दो कुंडल, करधनी सुत्तगं च महायसो। सूत्रकं च महायशाः। और सारे आभूषण उतार कर सारथि को दे दिए।२३ आभरणाणि य सव्वाणि आभरणानि च सर्वाणि सारहिस्स पणामए।। सारथये अर्पयति।। २१.मणपरिणामे य कए मनःपरिणामश्च कृतः अरिष्टनेमि के मन में जैसे ही निष्क्रमण (दीक्षा) की देवा य जहोइयं समोइण्णा। देवाश्य यथाचितं समवतीर्णाः।। भावना हुई, वैसे ही उसका निष्कमण-महोत्सव करने सव्वड्डीए सपरिसा सर्वा सपरिषदः के लिए औचित्य के अनुसार देवता आए। उनका निक्खमणं तस्स काउं जे।। निष्कमणं तस्य कर्तुं 'जे'।। समस्त वैभव और उनकी परिषदें उनके साथ थीं। २२.देवमणुस्सपरिवुडो देवमनुष्यपरिवृतः देव और मनुष्यों से परिवृत भगवान् अरिष्टनेमि सीयारयणं तओ समारूढो। शिविकारत्नं ततः समारूढः। शिविका-रत्न में आरूढ़ हुआ। द्वारका से चल निक्खमिय बारगाओ निष्क्रम्य द्वारकातः कर वह रैवतक (गिरनार) पर्वत पर स्थित हुआ। रेवययंमि ट्ठिओ भगवं ।। रैवतके स्थितो भगवान् ।। २३.उज्जाणं संपत्तो उद्यानं सम्प्रातः अरिष्टनेमि सहसाम्रवन उद्यान में पहुंच कर उत्तम ओइण्णो उत्तिमाओ सीयाओ। अवतीर्णः उत्तमायाः शिविकातः। शिविका से नीचे उतरा। उसने एक हजार मनुष्यों साहस्सीए परिवुडो साहनया परिवृतः के साथ चित्रा नक्षत्र में निष्क्रमण किया। अह निक्खमई उ चित्ताहिं ।। अथ निष्कामति तु चित्रायाम् ।। २४.अह से सुगंधगंधिए अथ स सुगन्धिगन्धिकान् समाहित अरष्टिनेमि ने सुगन्ध से सुवासित सुकुमार तुरियं मउयकंचिए। त्वरितं मृदुककुचितान्। और धुंघराले बालों का पंचमुष्टि से अपने आप सयमेव लंचई केसे स्वयमेव लुंचति केशान् तुरन्त लोच किया। पंचमुट्ठीहिं समाहिओ।। पंचमुष्टिभिः समाहितः।। २५.वासुदेवो च णं भणइ वासुदेवश्चेमं भणति वासुदेव ने लुंचितकेश और जितेन्द्रिय अरिष्टनेमि से लुत्तकेसं जिइंदियं। लुप्तकेशं जितेन्द्रियम्। कहा----दमीश्वर! तुम अपने इच्छित-मनोरथ को इच्छियमणोरहे तुरियं । ईप्सितमनोरथं त्वरितं शीघ्र प्राप्त करो। पावेसू तं दमीसरा !।। प्राप्नुहि त्वं दमीश्वर!" २६.नाणेणं दंसणेणं च ज्ञानेन दर्शनेन च तुम ज्ञान, दर्शन, चारित्र, शान्ति और मुक्ति से चरित्तेण तहेव य। चारित्रेण तथैव च। बढ़ो। खंतीए मुत्तीए 'क्षान्त्या मुक्त्या वड्डमाणो भवाहि य।। वर्धमानो भव च।। २७.एवं ते रामकेसवा एवं तौ रामकेशवौ इस प्रकार राम, केशव, दसार तथा दूसरे बहुत से दसारा य बहू जणा। दशाराश्च बहवो जनाः। लोग अरिष्टनेमि को वन्दना कर द्वारकापुरी में लौट अरिट्ठणेमिं वंदित्ता अरिष्टनेमि वन्दित्वा आए। अइगया बारगापुरि।। अतिगता द्वारकापुरीम्।। २८.सोऊण रायकन्ना श्रुत्वा राजकन्या अरिष्टनेमि ने प्रव्रज्या की बात को सुन कर राजकन्या पव्वज्जं सा जिणस्स उ। प्रव्रज्यां सा जिनस्य तु। राजीमती अपनी हंसी-खुशी और आनन्द को खो नीहासा य निराणंदा निर्हासा च निरानन्दा बैठी। वह शोक से स्तब्ध हो गई। सोगेण उ समुत्थया।। शोकेन तु समवस्तृता।। Jain Education Intemational Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३६० अध्ययन २२ : श्लोक २६-३८ राजीमती ने सोचा-मेरे जीवन को धिक्कार है। जो मैं अरिष्टनेमि के द्वारा परित्यक्त हूं। अब मेरे लिए प्रव्रजित होना ही श्रेय है। धीर एवं कृत-निश्चय राजीमती ने कूर्च२६ व कंघी से२७ संवारे हुए भौंरे जैसे काले केशों का अपने आप लुंचन किया। वासुदेव ने लुंचित केशवाली और जितेन्द्रिय राजीमती से कहा--हे कन्ये! तू घोर संसार-सागर का अतिशीघ्रता से पार प्राप्त कर। शीलवती एवं बहुश्रुत राजीमती ने प्रव्रजित हो कर द्वारका में बहुत स्वजन और परिजन को प्रव्रजित किया। २६.राईमई विचिंतेइ धिरत्थु मम जीवियं। जा हं तेण परिच्चत्ता सेयं पव्वइउं मम।। ३०.अह सा भमरसन्निभे कुच्चफणगपसाहिए। सयमेव लुचई केसे धिइमंता ववस्सिया।। ३१. वासुदेवो य णं भणइ लुत्तकेसं जिइंदियं। संसारसागरं घोरं तर कन्ने ! लहुं लहुं ।। ३२.सा पव्वइया संती पव्वावेसी तहिं बहुं । सयणं परियणं चेव सीलवंता बहुस्सुया ।। ३३.गिरि रेवययं जंती वासेणुल्ला उ अंतरा। वासंते अंधयारम्मि अंतो लयणस्स सा ठिया।। ३४.चीवराई विसारंती जहाजाय त्ति पासिया। रहनेमी भग्गचित्तो पच्छा दिट्ठो य तीइ वि।। ३५.भीया य सा तहिं दटुं एगते संजयं तयं। बाहाहिं काउं 'संगोफं' वेवमाणी निसीयई।। ३६.अह सो वि रायपुत्तो समुद्दविजयंगओ। भीयं पवेवियं दट्टु इमं वक्कं उदाहरे।। ३७.रहनेमी अहं भद्दे सुरूवे ! चारुभासिणि!। ममं भयाहि सुयणू ! न ते पीला भविस्सई ।। ३८.एहि ता भुंजिमो भोए माणुस्सं खु सुदुल्लहं। भुत्तभोगा तओ पच्छा जिणमग्गं चरिस्सिमो।। राजीमती विचिन्तयति धिगस्तु मम जीवितम्। याऽहं तेन परित्यक्ता श्रेयः प्रव्रजितुं मम।। अथ सा भ्रमरसन्निभान् कूर्चफणकप्रसाधितान्। स्वयमेव हुँचति केशान् धृतिमती व्यवसिता।। वासुदेवश्चेमा भणति लुप्तकेशां जितेन्द्रियाम्। संसारसागरं घोरं तर कन्ये! लघु लघु।। सा प्रव्रजिता सती प्राचीव्रजत् तत्र बहु। स्वजनं परिजनं चैव शीलवती बहुश्रुता।। गिरिं रैवतकं यान्ती वर्षेणार्दा त्वन्तरा। वर्षत्यन्धकारे अन्तर्लयनस्य सा स्थिता।। चीवराणि विसारयन्ती यथाजातेति दृष्टा। रथनेमिर्भग्नचित्तः पश्चाद् दृष्टश्च तयाऽपि।। भीता च सा तत्र दृष्ट्वा एकान्ते संयतं तकम्। बाहुभ्यां कृत्वा 'संगोफ' वेपमाना निषीदति।। अथ सोऽपि राजपुत्रः समुद्रविजयाऽङ्गजः । भीतां प्रवेपितां दृष्ट्वा इदं वाक्यमुदाहरत्।। रथनेमिरहं भद्रे! सुरूपे! चारुभाषिणि!। मां भजस्व सुतनु! न ते पीडा भविष्यति।। वह अरिष्टनेमि को वंदना करने रैवतक पर्वत पर जा रही थी। बीच में वर्षा से भींग गई। वर्षा हो रही थी, अन्धेरा छाया हुआ था, उस समय वह लयन (गुफा) में ठहर गई। चीवरों को सुखाने के लिए फैलाती हुई राजीमती को रथनेमि ने यथाजात (नग्न) रूप में देखा। वह भग्न-चित्त हो गया। बाद में राजीमती ने भी उसे देख लिया। एकान्त में उस संयति को देख वह डरी और दोनों भुजाओं के गुम्फन से वक्ष को ढांक कर कांपती हुई बैट गई। उस समय समुद्रविजय के अंगज राज-पुत्र रथनेमि ने राजीमती को भीत और प्रकम्पित देख कर यह वचन कहा भद्रे ! मैं रथनेमि हूं। सुरूपे ! चारुभाषिणि ! तू मुझे स्वीकार कर। सुतनु !३० तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी। एहि तावत् भुंजामहे भोगान् मानुष्यं खलु सुदुर्लभम्। भुक्तभोगास्ततः पश्चाद् जिनमार्ग चरिष्यामः ।। आ, हम भोग भोगें। निश्चित ही मनुष्य-जीवन बहुत दुर्लभ है। भुक्त-भोगी हो, फिर हम जिन-मार्ग पर चलेंगे। Jain Education Intermational Jain Education Intemational Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथनेमीय ३६१ अध्ययन २२ : श्लोक ३६-४६ रथनेमि को संयम में उत्साहहीन और भोगों से पराजित देख कर राजीमती संभ्रान्त नहीं हुई। उसने वहीं अपने शरीर को वस्त्रों से ढंक लिया। नियम और व्रत में सुस्थित राजवर-कन्या राजीमती ने जाति, कुल और शील की रक्षा करते हुए रथनेमि से कहा यदि तू रूप में वैश्रमण है, लालित्य से नलकूबर है और तो क्या, यदि तू साक्षात् इन्द्र है तो भी मैं तुझे नहीं चाहती। (अगंधन कुल में उत्पन्न सर्प ज्वलित, विकराल, धूमशिख-अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं परन्तु (जीने के लिए) वमन किए हुए विष को वापस पीने की इच्छा नहीं करते।) हे यशःमामिन् !२२ धिक्कार है तुझे। जो तू भोगी-जीवन के लिए वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है। इससे तो तेरा मरना श्रेय है। ३६. दठूण रहनेमिं तं भग्गुज्जोयपराइयं। राईमई असंभंता अप्पाणं संवरे तहिं।। ४०.अह सा रायवरकन्ना सुट्ठिया नियमव्वए। जाई कुलं च सीलं च रक्खमाणी तयं वए।। ४१. जइ सि रूवेण वेसमणो ललिएण नलकूबरो। तहा वि ते न इच्छामि जह सि सक्खं पुरंदरो।। (पक्खंदे जलियं जोई धूमकेउं दुरासयं। नेच्छंति वंतयं भोत्तुं कुले जाया अगंधणे।।) ४२.धिरत्थु ते जसोकामी ! जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेउं सेयं ते मरणं भवे।। ४३. अहं च भोयरायस्स तं च सि अंधगवण्हिणो। मा कुले गंधणा होमो संजमं निहुओ चर।। ४४.जइ तं काहिसि भावं जा जा दिच्छसि नारिओ। वायाविद्धो ब्व हढो अट्ठिअप्पा भविस्ससि ।। ४५.गोवालो भंडवालो वा जहा तद्दव्वऽणिस्सरो। एवं अणिस्सरो तं पि सामण्णस्स भविस्ससि ।। (कोहं माणं निगिण्हित्ता मायं लोभं च सव्वसो। इंदियाई वसे काउं अप्पाणं उवसंहरे।।) ४६.तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं। अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइओ।। दृष्ट्वा रथनेमिं तं भग्नोद्योगपराजितम्। राजीमत्यसम्भ्रान्ता आत्मानं समवारीत् तत्र।। अथ सा राजवरकन्या सुस्थिता नियमव्रते। जातिं कुलं च शीलं च रक्षन्ती तकमवदत् ।। यद्यसि रूपेण वैश्रमणः ललितेन नलकूबरः। तथापि त्वां नेच्छामि यद्यसि साक्षात् पुरन्दरः ।। (प्रस्कन्दन्ति ज्वलितं ज्योतिष धूमकेतुं दुरासदम्। नेच्छन्ति वान्तकं भोक्तुं कुले जाता अगन्धने।।) धिगस्तु त्वां यशस्कामिन् ! यस्त्वं जीवितकारणात्। वान्तमिच्छस्यापातुं श्रेयस्ते मरणं भवेत् ।। अहं च भोजराजस्य त्वं चाऽसि अन्धकवृष्णेः। मा कुले गन्धनौ भूव संयमं निभृतश्चर।। यदि त्वं करिष्यसि भावं या या द्रक्ष्यसि नारी:। वाताविद्धः इव हटः। अस्थितात्मा भविष्यसि ।। गोपालो भाण्डपालो वा यथा तद् द्रव्यानीश्वरः। एवमनीश्वरस्त्वमपि श्रामण्यस्य भविष्यति।। (क्रोधं मानं निगृह्य मायां लोभं च सर्वशः। इन्द्रियाणि वशीकृत्य आत्मानमुपसंहरेः ।।) तस्याः स वचनं श्रुत्वा संयतायाः सुभाषितम्। अंकुशेन यथा नागो धर्मे सम्प्रतिपादितः ।। मैं भोज-राज की पुत्री हूं और तू अन्धक-वृष्णि का पुत्र। हम कुल में गन्धन सर्प की तरह न हों। तू निभृत हो-स्थिर मन हो-संयम का पालन कर। यदि तू स्त्रियों को देख उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव करेगा तो वायु से आहत हट (जलीय वनस्पति—काई)२६ की तरह अस्थितात्मा हो जाएगा। जैसे गोपाल और भाण्डपाल गायों और किराने के स्वामी नहीं होते, इसी प्रकार तू भी श्रामण्य का स्वामी नहीं होगा। (तू क्रोध और मान का निग्रह कर। माया और लोभ पर सब प्रकार से विजय पा। इन्द्रियों को अपने अधीन बना। अपने शरीर का उपसंहार कर उसे अनाचार से निवृत्त कर)। संयमिनी के इन सुभाषित वचनों को सुनकर, रथनेमि धर्म में वैसे ही स्थिर हो गया, जैसे अंकुश से हाथी होता है। Jain Education Intemational ducation Intermational Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३६२ अध्ययन २२ : श्लोक ४७-४६ वह मन, वचन और काया से गुप्त, जितेन्द्रिय तथा दृढ़व्रती हो गया। उसने फिर आजीवन निश्चल भाव से श्रामण्य का पालन किया। ४७.मणगुत्तो वयगुत्तो कायगुत्तो जिइंदिओ। सामण्णं निच्चलं फासे जावज्जीवं दढव्वओ।। ४८.उग्गं तवं चरित्ताणं जाया दोण्णि वि केवली। सव्वं कम्म खवित्ताणं सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ।। ४६.एवं करेंति संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा। विणियटॅति भोगेसु जहा सो पुरिसोत्तमो।। मनोगुप्तो वचोगुप्तः कायगुप्तो जितेन्द्रियः। श्रामण्यं निश्चलमस्पाक्षीत् यावज्जीवं दृढव्रतः ।। उग्रं तपश्चरित्वा जातौ द्वावपि केवलिनौ। सर्वं कर्म क्षपयित्वा सिद्धिं प्राप्तावनुत्तराम् ।। एवं कुर्वन्ति सम्बुद्धाः पण्डिताः प्रविचक्षणाः। विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः यथा स पुरुषोत्तमः ।। उग्र-तप का आचरण कर तथा सब कर्मों को खपा. वे दोनों (राजीमती और रथनेमि) अनुत्तर सिद्ध को प्राप्त हुए। सम्बुद्ध, पण्डित और प्रविचक्षण पुरुष ऐसा ही करते हैं वे भोगों से वैसे ही दूर हो जाते हैं, जैसे कि पुरुषोत्तम रथनेमि हुआ। —त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. सोरियपुर (सोरियपुरंमि) यह कुशावर्त जनपद की राजधानी थी। विशेष विवरण के लिए देखें परिशिष्ट- १, भौगोलिक अध्ययन २२ : रथनेमीय परिचय । २. राज- लक्षणों से युक्त (रायलक्खणसं जुए ) सामुद्रिकशास्त्र के अनुसार राजा के लक्षण चक्र, स्वस्तिक, अंकुश आदि होते हैं और योग्यता की दृष्टि से त्याग, सत्य, शौर्य आदि गुण।' तीसरे श्लोक की वृत्ति में राजा के लक्षण छत्र, चामर, सिंहासन आदि राज-चिन्ह बताए गए हैं। ३. स्वर-लक्षणो... ( लक्खणस्सर...) शान्त्याचार्य में सौन्दर्य, गाम्भीर्य आदि को स्वर - लक्षण माना है। आर्ष प्राकृत के अनुसार यहां 'सर' और 'लक्खण' का व्यत्यय है । 'सरलक्खण' के स्थान पर 'लक्खणस्सर' ऐसा प्रयोग है।" ४. एक हजार आठ शुभ लक्षणों का धारक (अट्ठसहस्स– लक्खणधरो ) शरीर के साथ-साथ उत्पन्न होने वाले छत्र, चक्र, अंकुश आदि रेखा-जनित आकारों को 'लक्षण' कहा जाता है।" साधारण मनुष्यों के शरीर में ३२, बलदेव तथा वासुदेव के १०८, चक्रवर्ती और तीर्थंकर के १००८ लक्षण होते हैं। ५. वज्रसंहनन (वजरिसहसंघयणों) संहनन का अर्थ है- अस्थि बन्धन— हड्डियों के बन्धन । इसके छह प्रकार हैं (१) वज्रऋषभ - नाराच। (२) ऋषभ नाराच। (३) नाराच । (६) असंप्राप्तसृपाटिका । " जिसमें सन्धि की दोनों हड्डियां आप में आंटी लगाए हुए हों, उन पर तीसरी हड्डी का वेष्टन हो, चौथी हड्डी की कील उन तीनों को भेद कर रही हुई हो, ऐसे सुदृढ़तम अस्थि-बन्धन - (४) अर्ध नाराच। (५) कीलिका । १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८६ राजेव राजा तस्य लक्षणानि - चक्रस्वस्तिकाडूकुशादीनि त्यागसत्यशीर्यादीनि वा । २. वही, पत्र ४८६ राजलक्षणानि -छत्रचामरसिंहासनादीन्यपि गृह्यन्ते । ३. वही, पत्र ४८६ लक्षणानि सौन्दर्यगाम्भीर्यादीनि । ४. वही, पत्र ४८६ । ५. प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति, पत्र ४१० जं सरीरेण सह समुप्पन्नं तं लक्खणं । ६. वही, वृत्ति पत्र ४१०-४१११ का नाम 'वज्रऋषभ नाराच संहनन' है 1 ६. समचतुरस्र संस्थान वाला (समचउरंसो) संस्थान का अर्थ है- शरीर की आकृति । उसके छह प्रकार हैं (१) समचतुरस्र । (२) न्यग्रोधपरिमण्डल । (४) वामन । (५) कुब्ज । (६) हुण्ड (३) स्वाति (सादि)। पालथी मार कर बैठे हुए व्यक्ति के चारों कोण सम होते हैं, वह 'समचतुरस्र संस्थान' है। ७. चमकती हुई बिजली जैसी प्रभा वाली थी (विज्जुसोया मणिप्पभा) शायाचार्य ने 'विद्युत सौदामिनी' का अर्थ 'चमकती हुई बिजली' अथवा 'अग्नि व बिजली' किया है। मतान्तर के अनुसार सौदामिनी का अर्थ 'प्रधानमणि' होता है। ८. पिता उग्रसेन ( जणओ) राजीमती के पिता नाम उग्रसेन था ।" उत्तरपुराण के अनुसार उग्रसेन का वंश इस प्रकार है" अंधकवृष्टि (वृष्णि) शूरसेन | शूरवीर नरवृष्टि (वृष्णि) उग्रसेन, देवसेन, महासेन समुद्रविजय आदि दश पुत्र (देखिए श्लोक ११ का टिप्पण) और दो पुत्रियां कुन्ती माद्री । विष्णुपुराण के अनुसार उग्रसेन के पुत्र और ४ पुत्रियां थी।” पुत्रों का नाम कंश, न्यग्रोध, सुनाम, आनकाह, शंकु, सभूमि, राष्ट्रपाल, बुखतुष्टि और सुनुष्टिमान्। ७. पण्णवणा, २३ । ४६ । ८. वही, २३।४७ । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६० विज्जुसोयामणिप्पह त्ति विशेषेण द्योततेदीप्यत इति विद्युत् सा चासौ सौदामिनी च विद्युत्सौदामिनी, अथवा विद्युदग्निः सौदामिनी च तडित्, अन्ये तु सौदामिनी प्रधानमणिरित्याहुः । १०. वहीं, पत्र ४६० जनकस्तस्याः- राजीमत्या उग्रसेन इत्युक्तम् । ११. उत्तरपुराण, ७०।६३-१००। १२. विष्णुपुराण, ४।१४।२०-२१। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरझयणाणि ३६४ पुत्रियों का नाम — कंसा, कंसवती, सुतनु और राष्ट्रपालिका । 'सुतनु' राजीमती का दूसरा नाम है। देखिए - श्लोक सैंतीस का टिप्पण । ९. सर्व औषधियों के जल से (सब्बो सहीहि ) शान्त्याचार्य ने स्नान में होने वाली प्रयुक्त कुछ बतलाई हैं – जया, विजया, ऋद्धि, वृद्धि आदि ।' १०. कौतुक और मंगल किए गए (कयको उयमंगलो) विवाह के पूर्व वर के ललाट से मूशल का स्पर्श करवाना आदि कार्य 'कौतुक' कहलाते हैं और दही, अक्षत, दूब, चन्दन आदि द्रव्य 'मंगल' कहलाते हैं। इनका विवाह आदि मंगल कार्य में उपयोग होता है। अध्ययन २२ : श्लोक ६-१४ टि० ६-१५ उत्तरपुराण में 'धरण' के स्थान में 'धारण' और 'अभिचन्द्र' के स्थान में 'अभिनन्दन' नाम मिलता है । सम्भवतः इन्हीं के कारण 'दसार' शब्द चला किन्तु आगे चलकर वह यदुसमूह के अर्थ में रूढ़ हो गया। अन्तकृतदशा में 'दसण्डं दसाराणं' पाठ मिलता है। इसमें दसार के साथ दस शब्द और जुड़ा हुआ औषधियां इससे लगता है कि दूसरा शब्द प्रत्येक भाई या यदुवंशी के लिए प्रयुक्त होने लगा था। १४. वृष्णिपुंगव (गियो) बालमीकीय रामायण के अनुसार समारोहों पर घर का अलंकरण किया जाता था, जो 'कौतुक - मंगल' कहलाता था। ११. दिव्य वस्त्र युगल (दिव्वजुयल) प्राचीन काल में प्रायः दो ही वस्त्र पहने जाते थे – (१) अन्तरीय-नीचे पहनने के लिए धोती और (२) उत्तरीय ऊपर ओढ़ने के लिए चद्दर । १२. गन्धहस्ती पर (गंधहत्थि) गन्धहस्ती सब हस्तियों में प्रधान होता है, इसलिए इसे ज्येष्ठक (पट्ट - हस्ती) कहा गया है। इसकी गन्ध से दूसरे हाथ भाग जाते हैं या निर्वीय हो जाते हैं। १३. दसारचक्र से (दसारचक्केण ) समुद्रविजय आदि दस यादव और उनका समूह 'दसारचक्र' कहलाता था । शान्त्याचार्य तथा अभयदेव सूरि ने 'दसार' का संस्कृत रूप 'दशाह' किया है।' दशवैकालिक चूर्णि में 'सार' शब्द ही प्राप्त है। समुद्रविजय, अक्षोभ्य, स्तिमित, सागर, हिमवान्, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द्र वसुदेव- ये दस भाई थे। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६० सर्वाश्च ता औषधयश्च - जयाविजयार्द्धवृद्ध्यादयः सर्वोषधयस्ताभिः । २. वही, पत्र ४६० : कौतुकानि ललाटस्य मुशलस्पर्शनादीनि मंगलानि ध-वपक्षतचन्दनादीनि ३. रामायणकालीन संस्कृति, पृ० ३२ । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६० : दिव्ययुगलमिति प्रस्तावाद् दृष्ययुगलम् । ५. वही, पत्र ४६० ज्येष्ठमेव ज्येष्ठकम्— अतिशयप्रशस्यमतिवृद्धं वा गुणैः पट्टहस्तिनमित्यर्थः । ६. (क) वृहद्वृत्ति, पत्र ४६० 'दसारचक्केणं' ति दशार्हचक्रेण यदुसमूहेन । (ख) अन्कृद्दशांग 919, वृत्ति-दश च तेऽर्हाश्च पूज्या इति दर्शाहाः । ७. दशवैकालिक, जिनदास चूर्णि पृ० ४१ : जहा दसारा महुराओ जरासिंधुरायभयात् बारवई गया। ८. अंतगडदसाओ 919, वृत्ति दसहं दसाराणं ति तत्रैते दशसमुद्रविजयोऽक्षोभ्यः स्तिमितः सागरस्तथा । हिमवानचलश्चैव धरणः पूरणस्तथा ।। अभिचन्द्रश्च नवमो, वसुदेवश्च वीर्यवान् । देखें श्लोक ८ का टिप्पण । 1 अन्धक और वृष्णि ये दो भाई थे वृष्णि अरिष्टनेमि के दादा थे। उनसे वृष्णि कुल का प्रवर्त्तन हुआ । अरिष्टनेमि वृष्णिकुल में प्रधान पुरुष थे। अतः उन्हें यहां वृष्णिपुङ्गव कहा गया है ।" दशवैकालिक तथा इस अध्ययन के ४३ वें श्लोक में इनका कुल 'अन्धक - वृष्णि' कहा गया है।" अन्धक - वृष्णिकुल दोनों भाइयों के संयुक्त नाम से प्रचलित था । उत्तरपुराण में 'अन्धक-वृष्टि शब्द है और यह एक ही व्यक्ति का नाम है सुशार्थ (कुशा ?) देश के सीर्यपुर नगर के स्वामी शूरसेन के शूरवीर नाम का पुत्र था। उसके दो पुत्र हुए अन्धकदृष्टि और नरमृष्टि समुद्रविजय आदि अन्धकदृष्टि के पुत्र थे । २ १५. (श्लोक १४-२२) है उत्तराध्ययन के अनुसार अरिष्टनेमि ने बाड़ों में राके हुए जानवरों को देखा, उनके बारे में सारथि से पूछा । सारथि ने बताया—ये आपके विवाह के भोज के लिए हैं। अरिष्टनेमि ने इसे अपने लिए उचित न समझा। उन्होंने अपने सारे आभरण उतार कर सारथि को दे दिए और वे अभिनिष्क्रिमण के लिए तैयार हो गए। यावत् । ११. दशवैकालिक, २८ । १२. उत्तरपुराण ७०६२-६४ : 1 वे जानवर कहां रोके हुए थे और किसने रोके थे ? मूल आगम में इसकी कोई चर्चा नहीं है सुखयोधा के अनुसार वे कन्ये कुन्ती माही विश्रुते।। | ६. उत्तरपुराण, ७० ६५ ६७ धर्मावान्धकवृष्टेश्च सुभद्रायाश्च तुम्बराः । समुद्रविजयो ऽक्षोभ्यस्ततः स्तिमितसागरः ।। हिमवान् विजयो विद्वान्, अचलो धारणाहयः । पूरणः पूरितार्थीच्छो, नवमोऽप्यभिनन्दनः || वसुदेवोऽन्तिभश्चैवं दशाभूवन् शशिप्रभाः । कुन्ती माद्री च सोमे वा सुते प्रादुर्बभूवतुः ।। १० वृहद्वृत्ति, पत्र ४६० 'बृष्णिपुंगवः' यादवप्रधानो भगवानरिष्टनेमिरिति तदा कुशाथविषये तद्धंशाम्वरभास्वतः । अवार्यनिजशौर्येण निर्जिताशेषविद्विषाः । ख्यातशौर्यपुराधीश-सूरसेनमहीपतेः ।। सुतस्य शूरवीरस्य धारिण्याश्च तनृद्भवी । विख्यातो ऽन्धकवृष्टिश्च पतिर्वृष्टिर्नरादिवाक् ।। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथनेमीय ३६५ अध्ययन २२ : श्लोक १५-१६ टि० १६-२२ से पकड़वा इकट्ठा कर उसके चार उनसे उग्रसेन के द्वारा विवाह-मण्डप के आस-पास ही बाड़ों में रोके वाले या जीवन की अन्तिम दशा में होने वाले प्राणियों को हुए थे। ___ 'मृत्यु-सम्प्राप्त' कहा है। उत्तरपराण में इससे भिन्न कल्पना है। उसके अनुसार गाटा के लिा गटा) श्रीकृष्ण ने अरिष्टनेमि को विरक्त करने के लिए बाड़ों में (१) मांस के लिए या (२) मांस से मांस का उपचर होता हिरनों को एकत्रित करवाया था। श्रीकृष्ण ने सोचा-नेमिकुमार । है इसलिए अपना मांस बढ़ाने के लिए-ये दोनों ‘मंसट्ठा' के वैराग्य का कुछ कारण पाकर भोगों से विरक्त हो जाएंगे। ऐसा अर्थ हो सकते हैं। विचार कर वे वैराग्य का कारण जुटाने का प्रयत्न करने लगे। उनकी समझ में एक उपाया आया। उन्होंने बडे-बडे शिकारियों १८. महाप्रज्ञ (माहपन्ने) से पकड़वा कर अनेक मृगों का समूह बुलाया और उसे एक इसका प्रकरणगत अर्थ है—मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और स्थान पर इकट्ठा कर उसके चारों ओर बाड लगवा दी तथा अवधिज्ञान से सम्पन्न।' वहां जो रक्षक नियुक्त किए थे उनसे कह दिया कि यदि १९. सारथि से (सारहिं) भगवान नेमिनाथ दिशाओं का अवलोकन करने के लिए आएं . -अरिष्टनेमि राजभवन से गन्ध-हस्ती पर आरूढ़ और इन मृगों के विषय में पूछे तो उनसे साफ-साफ कह देना होकर चले थे परन्तु सम्भवतः विवाह-मण्डप के समीप पहुंचकर कि आपके विवाह में मारने के लिए चक्रवर्ती ने यह मृगों का वे रथ पर चढ गए. यह इस 'सारथि' शब्द से सूचित होता समूह बुलवाया है। है या 'महावत' के अर्थ में ही सारथि शब्द प्रयुक्त हुआ है। __एक दिन नेमिकुमार चित्रा नामकी पालकी पर आरूढ़ होकर दिशाओं का अवलोकन करने के लिए निकले। वहां २०. ये (इमे...एए) उन्होंने घोर करुण स्वर से चिल्ला-चिल्लाकर इधर-उधर इन शब्दों का ऊहापोह करते हुए वृत्तिकार ने दो दौड़ते, प्यासे, दीनदृष्टि से युक्त तथा भय से व्याकुल हुए मृगों विकल्प प्रस्त विकल्प प्रस्तुत किए हैंको देख दयावश वहां के रक्षकों से पूछा कि यह पशुओं का १. 'इमे' का अर्थ है—ये सब। इस स्थिति से 'एए' बहुत भारी समूह यहां एक जगह किसलिए रोका गया है? शब्द निरर्थक हो जाता है। किन्तु इसका पुनः कथन, अरिष्टनेमि उत्तर में रक्षकों ने कहा—“हे देव ! आपके विवाहोत्सव में व्यय के करुणाद्रहृदय में वे प्राणी बार-बार उभर रहे हैं यह करने के लिए महाराज श्रीकृष्ण ने इन्हें बुलाया है।" यह सुनते पर ही भगवान् नेमिनाथ विचार करने लगे कि ये पशु जंगल में आचार्य नेमिचन्द्र का कथन है कि इसका प्रयोग घबड़ाहट रहते हैं, तृण खाते हैं और कभी किसी का कुछ अपराध नहीं बताने के लिए अपराध नहीं बताने के लिए हुआ है। करते हैं फिर भी लोग इन्हें अपने भोग के लिए पीड़ा पहुंचाते २. 'इमे' का अर्थ है-प्रत्यक्ष में दीखने वाले और 'एए' हैं। ऐसा विचार कर वे विरक्त हुए और लौट कर अपने घर पर का ७ का अर्थ है—निकटवर्ती। कहा भी हैआ गए। रत्नत्रय प्रकट होने से उसी समय लोकांतिक देवों ने इदम: प्रत्यक्षगतं समीपतरवर्ति चैतदो रूपम्।। आकर उन्हें समझाया। अपने पूर्व-भवों का स्मरण कर वे भय २१. भद्र (भद्दा) से कांप उठे। उसी समय उन्होंने आकर दीक्षा-कल्याण का वे प्राणि 'श्रेष्ठ' या 'निरपराध' थे इसलिए उन्हें यहां उत्सव किया। 'भद्र' कहा गया है। कुत्ते, सियार आदि अभद्र माने जाते हैं।" किन्तु इसकी उपेक्षा उत्तराध्ययन का विवरण अधिक .. २२. परलोक में (परलोगे) हृदयस्पर्शी है। भगवान् अरिष्टनेमि चरम-शरीरी और विशिष्ट-ज्ञानी १६. मरणासन्न दशा को प्राप्त (जीवियंत तु संपत्ते) थे। फिर भी 'परलोक में मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं होगा' यह 'जीवियंतं तु संपत्ते'-यहां निकट भविष्य में मारे जाने १. सुखबोधा, पत्र २७६। यस्यासी महाप्रज्ञः। २. उत्तरपुराण, ७१।१५२-१६८। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६१ : 'सारथिं' प्रवर्त्तयितार प्रक्रमाद्गन्धहस्तिनो ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६० : जीवितस्यान्तो-जीवितान्तो मरणमित्यर्थस्त्र हस्तिपकमितियावत् यद्वाऽत एव तदा रथारोहणमनुमीयत इति संप्राप्तानिव संप्राप्तान, अतिप्रत्यासन्नत्वात्तस्य, यद्वा जीवितस्यान्तः- रथप्रवर्त्तयितारम्। पर्यन्तवर्ती भागस्तमुक्तहेतोः संप्राप्तान्। ७. वही, पत्र ४९१ : एते इति पुनरभिधानमतिसार्द्रहृदयतया पुनः पुनस्त ४. वही, पत्र ४६०-४६१ : 'मांसार्थ' मांसनिमित्तं च भक्षयितव्यान एव भगवतो हृदि विपरिवर्त्तन्त इति ख्यापनार्थम्। मांसस्यैवातिगृद्धिहेतुत्चेन तद्भक्षणनिमित्तत्वादेवमुक्त, यदि वा 'मांसेनैव ८. सुखबोधा, पत्र २६२ : एते इति पुनरभिधानं सम्भ्रमख्यापनार्थम् । मांसमुपचीयते' इति प्रवादतो मांसमुपचितं स्यादिति मांसार्थम्। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६१। ५. वही, पत्र ४६१ : महती प्रज्ञा-प्रक्रमान्मतिथूतावधिज्ञानत्रयात्मिका १०. वहीं, पत्र ४६१ : 'भद्दा उ' त्ति 'भद्रा एव' कल्याणा एव न तु श्वशृगालादयः एव कुत्सिताः, अनपराधतया वा भद्राः । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३६६ अध्ययन २२ : श्लोक २०-४३ टि० २३-३४ जो कहा-उसका तात्पर्य यह है कि यह पापकारी प्रवृत्ति है।' पर मर्कट बन्ध लगाना। किसी भी पापकारी प्रवृत्ति के लिए--'यह परलोक में श्रेयस्कर नेमिचन्द्राचार्य ने इसका अर्थ 'पंकूटीवन्ध' किया है। नहीं होगा'—इस सामान्य उक्ति का प्रयोग किया जाता है। उनके अनुसार इसका संस्कृत रूप 'संगोफ' है। परलोक का एक अर्थ पशु-जगत् भी है। इस सन्दर्भ में ३०. सुतनु ! (सुयण) प्रस्तुत चरणों का अर्थ----'यह मेरा कार्य पशु-जगत् के प्रति इस शब्द से राजीमती को आमन्त्रित किया गया है। कल्याणकारी नहीं होगा'-यह भी किया जा सकता है। चर्णि और टीकाओं में इसका कोई विशेष अर्थ नहीं है। २३. दे दिए (पणामए) विष्णुपुराण के अनुसार उग्रसेन की चार पुत्रियों में एक का 'अर्प' धातु को 'पणाम' आदेश होता है। इसका अर्थ नाम सुतनु था।" सम्भव है यह राजीमती का दूसरा नाम हो। है—देना । ३१. नियम और व्रत में (नियमव्वए) २४. शिविका रत्न में (सीयारयणं) नियम का अर्थ है—पांचों इन्द्रियों तथा मन का नियमन - इस शिविका का नाम ‘उत्तरकुरु' था और इसका और व्रत का अर्थ है-प्रव्रज्या, दीक्षा ।'२ नियम के विस्तृत अर्थ निर्माण देवों ने किया था। के लिए देखें-१६।५ का टिप्पण। २५. द्वारका से (बारगाओ) ३२. हे यशस्कामिन् (जसोकामी) देखें—परिशिष्ट १–भौगोलिक परिचय। बृत्तिकार ने मूल 'अयशःकामिन्' मानकर इसका अर्थ२६. कूर्च (कुच्च) अकीर्ति की इच्छा करने वाला—किया है। इसका वैकल्पिक उलझे हुए केशों को संवारने के काम आने वाला बांस अर्थ है—यशःकामिन् ! महान् कुल में उत्पन्न होने के कारण का बना उपकरण विशेष ।' प्राप्त यश की वाञ्छा करने वाला। २७. कंघी से (फणग) देखें-दसवेआलियं, २७ का टिप्पण । यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है-कंघी। सूत्रकतांग में ३३. वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है। इसी अर्थ में 'फणिह' शब्द प्रयुक्त हुआ है। (वंत इच्छसि आवेउ) २८. (श्लोक ३०) वृत्ति में एक सुन्दर श्लोक उद्धृत हैभगवान् अरिष्टनेमि दीक्षा लेकर जनपद में विचरण विज्ञाय वस्तु निन्द्य, त्यक्त्वा गृह्णन्ति कि क्वचित् पुरुषाः। करने लगे। उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। जब वे विचरण वान्तं पुनरपि भुक्ते, न च सर्वः सारमेयोऽपि। करते हुए पुनः द्वारका आए तब राजीमती ने उनकी देशना ३४. भोजराज की...और तू अन्धकवृष्णि का (भोयरायस्स सुनी। पहले ही वह विरक्त थी, फिर विशेष विरक्त हुई। अन्धगवण्हिणो) तत्पश्चात् उसने जो किया वह इस श्लोक में विर्णत है। . विष्णुपुराण में कंस को भोजराज कहा है।५ कीर्तिराज २९. भुजाआ क गुम्फन स वक्ष का ढाक कर (बाहाह (वि० १४६५ से पूर्ववर्ती) द्वारा रचित नेमिनाथ चरित में काउं संगोफ) उग्रसेन को भोजराज तथा राजीमती को भोज-पुत्री या संगोप का अर्थ है-भुजाओं का परस्पर गुम्फन स्तनों भोजराज-पुत्री कहा गया है।६ कुछ प्रतियों में ‘भोगरायस्स' वान्त १. वृहवृत्ति, पत्र ४६१-४६२ : नव निस्सेसं' त्ति निःश्रेयसं' कल्याणं मितियावत्। परलो के भविष्यति, पापहे तुत्वादस्येति भावः, भवान्तरेषु १०. सुखबोधा, पत्र २८३ : 'संगोफ' पंकुटीवन्धनरूपम् । परलोकभीरुत्वस्यात्यन्तसभ्यस्ततयैवमभिधानमन्यथा चरमशरीरत्वादतिश- ११. विष्णुपुराण ४।१४।२१ : कंसाकंसवतीसुतनुराष्ट्रपालिकाश्चोग्रसेनस्य यज्ञानित्वाच्च भगवतः कुत एवंविधचिन्तावसरः? तनूजा' कन्याः। २. आचारांग, २।११, चूर्णि पृ० ३७१।। १२. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६४ : नियमव्रते-इन्द्रियनोइन्द्रियनियमने प्रव्रज्यायां च । ३. हेमशब्दानुशासन ८।४३६ : अपेल्लिवचचुच्प्प पणामाः । १३. वही, पत्र ४६५। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६२ : "शिविकारत्न' देवनिर्मितमुत्तरकुरुनामकमिति १४. वही, पत्र ४६५। गम्यते। १५. विष्णुपुराण, ३।५।२६ । ५. वही, पत्र ४६३ : कू?--गृढमेशोन्मोचको वंशमयः । १६. नेमिनाथ चरितः | ६. वही, पत्र ४६३ : फणकः-कड्कतकः। इतश्चाऽम्भोज तुल्या ऽक्षो, भोजराजांगभूरभूत्। ७. सूयगडो, १४४२: संडासगं च फणिहं च, सीहलिपासगं च आणाहि। उग्रसेनो महीजानिरुग्रसेनासमन्वितः ।।६।४३। ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६३ : इत्थं चासौ तावदवस्थिता यावदन्यत्र प्रविहत्य स्निग्धां विदग्धां नृपभोजपुत्री, साम्राज्यलक्ष्मी स्वजनं च हित्वा । तत्रैव भगवानाजगाम, तत उत्पन्नकवलस्य भगवतो निशम्य देशनां पितृमनुज्ञाप्य च माननीयान्, बभूव दीक्षाऽभिमुखोऽथनेमिः ।।१०।४४ । विशेषत उत्पन्नवैराग्या किं कृतवतीत्याह-'अहे' त्यादि। अथभोजनरेन्द्रपुत्रिक, प्रविमुक्ता प्रभुणा तपस्विनी। ६. वही, पत्र ४६४ : 'संगोपं' परस्परबाहूगुम्फनं स्तनोपरिमर्कटबन्ध- व्यलपद् गलदश्रुलोचना, शिथिलांगा लुठिता महीतले ।।११।१। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथनेमीय पाठ मिलता है। 'ज' को 'ग' का वर्णादेश होता है। इसलिए 'भोगरायस्स' पाठ भी शुद्ध है । इसका संस्कृत रूप 'भोजराजस्य' ही होगा। ३६७ अध्ययन २२ : श्लोक ४३-४५ टि० ३५-३७ इसे हुए व्यक्ति के व्रण से मुंह लगाकर विप को वापस खींच लेते हैं। वे अग्नि से जलकर मरना नहीं चाहते। अगन्धन जाति के सर्प अग्नि में जलकर भस्म हो जाना पसन्द करते हैं, पर वान्त विष को पुनः चूसना नहीं चाहते ।' देखें- दसवे आलियं, २६ का टिप्पण । ३६. हट– जलीय वनस्पति काई (हो) भोज यादवों का एक विभाग था। कृष्ण जिस संघ राज्य के नेता थे, उसमें यादव, कुकुर, भोज और अन्धक - वृष्णि सम्मिलित थे। अन्धक और वृष्णि- ये दो अलग-अलग राजनीतिक दल थे। इनका उल्लेख पाणिनि ने भी किया है। ये दोनों दल एक ही भूभाग पर शासन करते थे। ऐसी शासनप्रणाली को विरुद्ध राज्य कहा जाता था। अन्धकों के नेता अक्रूर, कृष्णियों के नेता वासुदेव और भोज के नेता उग्रसेन थे। देखें- दसवे आलियं २ १८ का टिप्पण । ३५. गंधन सर्प (गंधणा) सर्प की दो जातियां हैं— गन्धन और अगन्धन। गंधन जाति के सर्प डसने के बाद मंत्रों से आकृष्ट किए जाने पर, वृत्तिकार ने इसका अर्थ वनस्पति- विशेष किया है। दशवैकालिक की हारिभद्रीया वृत्ति में इसका अर्थ है – एक प्रकार की अवद्धमूल वनस्पति। इसको सेवाल कहा जाता है । विशेष विवरण के लिए देखें-दसवेआलियं, २६ का टिप्पण | ३७. भांडपाल (मंडवालो) भाण्डपाल वह व्यक्ति होता है जो दूसरों की वस्तुओं की किराए (भाडे) पर सुरक्षा करता है। * १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६५ सप्पाणं किले दो जाईओ-गंधणा य अगंधणा य, तत्थ गंधणा णाम जे डसिए मंतेहिं आकड्डिया तं विसं वणमुहातो ४. आवियंति। अगंधणा उण अवि मरणमज्झवसंति ण य वंतमाइयंति। २. वही, पत्र ४६५ हठो-वनस्पतिविशेषः । ३. वृत्ति, पत्र ६७ हडो.....अवद्धमूलो वनस्पतिविशेषः । बृहद्वृत्ति, पत्र ४६५ : भाण्डपालो वा यः परकीयानि भाण्डानि भाटकादिना पालयति । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेविंसइमं अज्झयणं केसिगोयमिज्जं तेवीसवां अध्ययन केशि-गौतमीय Jain Education Intemational Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अध्ययन में पार्थ्यापत्यीय कुमार- श्रमण केशी और भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम का संवाद है। इसलिए इसका नाम 'केसिगोयमिज्जं' 'केशि गौतमीय' है।' भगवान् पार्श्वनाथ जैन परम्परा के तेईसवें तीर्थंकर थे और उनका शासन काल भगवान् महावीर से ढाई शताब्दी पूर्व का था। भगवान् महावीर के शासन काल में अनेक पार्श्वपत्यीय श्रमण तथा श्रावक विद्यमान थे। पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमणों तथा श्रावकों का भगवान् महावीर के शिष्यों से आलाप-संलाप और मिलन हुआ । उसका उल्लेख आगमों तथा व्याख्या -ग्रन्थों में मिलता है। भगवान् महावीर के माता-पिता पार्श्वनाथ की परम्परा को मानने वाले श्रमणोपासक थे। आमुख भगवती सूत्र में 'कालास्यवैशिक पुत्र' पार्थ्यापत्यीय श्रमण का उल्लेख है। वे अनेक निर्ग्रन्थ स्थविरों से मिलते हैं। उनसे तात्विक चर्चा कर समाधान पाते हैं और अपनी पूर्व परम्परा का विसर्जन कर भगवान् महावीर की परम्परा को स्वीकार कर लेते हैं। * एक बार भगवान् महावीर राजगृह में समवसृत थे। वहां भगवान् पार्श्व की परम्परा के कई स्थविर आए और भगवान् से तात्विक चर्चा की। उनका मूल प्रश्न यह था - " इस परिमित लोक में अनन्त रात-दिन या परिमित रात-दिन की बात कैसे संगत हो सकती है ?" भगवान् महावीर उन्हें समाधान देते हैं और वे सभी स्थवरि चातुर्याम धर्म से पंचयाम-धर्म में दीक्षित हो जाते हैं।" भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम में थे। पार्श्वपत्यीय श्रमण गांगेय भगवान् के पास आया। उसने जीवों की उत्पत्ति और च्युति के बारे में प्रश्न किए। उसे पूरा समाधान मिला। उसने भगवान् की सर्वज्ञता पर विश्वास किया और वह उनका शिष्य बन गया।" उदक पेढाल पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षित हुआ था। एक बार जब गणधर गौतम नालन्दा में स्थित थे तब वह उनके पास गया, चर्चा की और समाधान पा उनका शिष्य हो गया। 9. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ४५१ : गोअम-केसीओ आ, संवायसमुट्टियं तु जम्हेयं । तो केसिगोयमिज्ज, अज्झयण होइ नायव्वं ।। आवश्यक निर्युक्ति, मलयगिरिवत्ति पत्र २४१ : पासजिणाओ य होइ वीरजिणो । अड्डाइज्जसएहिं गएहिं चरिमो समुण्पन्नो ।। ३. आयारचूला १५।२५ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जा समणोवासगा यावि होत्था । २. भगवान् महावीर कालाय सन्निवेश से विहार कर पत्रालय ग्राम से होते हुए कुमार सन्निवेश में आए और चम्पक रमणीय उद्यान में ठहरे। उसी सन्निवेश में पार्श्वापत्यीय स्थविर मुनिचन्द्र अपने शिष्य परिवार के साथ कृपनक नामक कुंभकार की शाला में ठहरे हुए थे। वे जिनकल्प प्रतिमा की साधना कर रहे थे। वे अपने शिष्य को गण का भार दे स्वयं 'सत्त्व-भावना' में अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करते थे। गोशाला भगवान् के साथ था। उसने गांव में घूमते-घूमते पार्श्वपत्यीय स्थविर मुनिचन्द्र को देखा। उनके पास जा उसने पूछा- तुम कौन हो ? उन्होंने कहा- हम श्रमण निर्ग्रन्थ हैं। गोशाला ने कहा - अहो ! तुम कैसे श्रमण निर्ग्रन्थ ? निर्ग्रन्थ होते हुए भी तुम अपने पास इतने ग्रन्थ - परिग्रह क्यों रखते हो ? इतना कह उसने भगवान् की बात उनसे कही और पूछा- क्या तुम्हारे संघ में भी ऐसा कोई महात्मा है ? मुनिचन्द्र ने कहा— जैसे तुम हो वैसे ही तुम्हारे आचार्य होंगे। इस पर गोशाला कुपित हो गया। उसने क्रोधाग्नि से जलते हुए कहा -- यदि मेरे धर्माचार्य के तप का प्रभाव है तो तुम्हारा यह प्रतिश्रय - आश्रय जल कर भस्म हो जाए । मुनिचन्द्र ने कहा – तुम्हारे कहने मात्र से हम नहीं जलेंगे। गोशाला भगवान् के पास आया और बोला- भगवन् ! आज मैने सारम्भ, सपरिग्रही साधुओं को देखा है। भगवान् ने कहा- वे पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु हैं 1 रात का समय हुआ । कुंभकार कूपनक विकाल वेला के बाहर से अपने घर पहुंचा। उसने एक ओर एक व्यक्ति को ध्यानस्थ खड़े देखा और यह सोच कर कि 'यह चोर है', उसके गले को पकड़ा। स्थविर मुनिचन्द्र का गला घुटने लगा । असह्य वेदना हो रही थी पर वे अकम्प रहे। ध्यान की लीनता बढ़ी। वे केवली हुए और समस्त कर्मों को क्षीण कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गए। ४. भगवई, १४२३-४३३। ५. वही ५।२५४-२५७ । ६. वही, ६।१२०-१३४ । ७. सूयगडो, दूसरे श्रुतस्कंध का सातवां अध्ययन । ८. आवश्यक निर्युक्ति, वृत्ति पत्र, २७८ । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३७० अध्ययन २३ : आमुख एक बार भगवान् महावीर 'चोराग' सन्निवेश में गए। से भर गए। आपस में ऊहापोह करते हुए वे अपने-अपने गोशाला साथ था। वहां के अधिकारियों ने इन्हें गुप्तचर समझ आचार्य के पास आए। उनसे पारस्परिक भेदों की चर्चा की। पकड़ लिया। गोशाले को एक रस्सी से बांध कर कुएं से लटका कुमार-श्रमण केशी और गणधर गौतम विशिष्ट ज्ञानी दिया। वहां उत्पल की दो बहनें-शोभा और जयन्ति रहती थे। वे सब कुछ जानते थे। परन्तु अपने शिष्यों के समाधान थीं। वे दोनों दीक्षित होने में असमर्थ थीं, अतः पार्थापत्यीय के लिए वे कुछ व्यावहारिक प्रयत्न करना चाहते थे। कुमार-श्रमण परिव्राजिकाओं के रूप में रहती थीं। उन्होंने लोगों को महावीर केशी पार्श्व की परम्परा के आचार्य होने के कारण गौतम से के विषय में यथार्थ जानकारी दी। अधिकारियों ने महावीर तथा ज्येष्ट थे, इसलिए गौतम अपने शिष्यों को साथ ले 'तिन्दुक' गोशाला को बन्धन-मुक्त कर दिया।' उद्यान में गये। आचार्य केशी ने आसन आदि दे उनका सत्कार एक बार भगवान् 'तम्बाक' ग्राम में गए। वहां पार्खापत्यीय किया। कई अन्य मतावलम्बी संन्यासी तथा उनके उपासक भी स्थविर नन्दीसेण अपने बहुश्रुत मुनियों के बहुत बड़े परिवार आए। आचार्य केशी तथा गणधर गौतम में संवाद हुआ। के साथ आए हुए थे। आचार्य नन्दीसेण जिनकल्प-प्रतिमा में प्रश्नोत्तर चले। उनमें चातुर्याम और पंचयाम धर्म तथा सचेलकत्व स्थित थे। गोशाले ने उन्हें देखा और उनका तिरस्कार किया। और अचेलकत्व के प्रश्न मुख्य थे। गांव के अधिकारियों ने भी आचार्य को 'चर' समझकर पकड़ा आचार्य केशी ने गौतम से पूछा-भंते ! भगवान् पार्श्व और भालों से आहत किया। असह्य वेदना को समभाव से ने चातुर्याम धर्म की प्ररूपणा की और भगवान् महावीर ने सहते हुए उन्हें केवलज्ञान हुआ। वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गए। पंचयाम धर्म की। दोनों का लक्ष्य एक है। फिर यह भेद क्यों ? एक बार भगवान् 'कूविय' सन्निवेश में गए। गोशाला क्या यह पार्थक्य संदेह उत्पन्न नहीं करता?" (श्लोक २३, २४)। साथ था। वहां के अधिकारियों ने दोनों को 'गुप्तचर' समझ गौतम ने कहा—भंते ! प्रथम तीर्थकर के श्रमण ऋजु-जड़, कर पकड़ लिया। वहां पार्वा पत्यीय परम्परा की दो अन्तिम तीर्थकर के वक्र-जड़ और मध्यवर्ती बाईस तीर्थकरों परिव्राजिकाओं—विजया और प्रगल्भा ने आकर उन्हें छुड़ाया। के श्रमण ऋजु-प्राज्ञ होते हैं। प्रथम तीर्थङ्कर के श्रमणों के इस प्रकार पार्श्वनाथ की परम्परा के साधुओं की जानकारी लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण करना कठिन है, चरम देने वाले अनेक प्रसंग उपलब्ध होते हैं। मूल आगम-साहित्य में तीर्थडूकर के श्रमणों के लिए आचार का पालन करना कठिन अनेक स्थलों पर भगवान् महावीर के मुख से पार्श्व के लिए है और मध्यवर्ती तीर्थकरों के मुनि उसे यथावत् ग्रहण करते 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह आदर-सूचक शब्द हैं तथा सरलता से उसका पालन भी करते हैं। इन्हीं कारणों है। से धर्म के ये दो भेद हुए हैं।” (श्लोक २५, २६, २७) . कुमार-श्रमण केशी भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के आचार्य केशी ने पुनः पूछा-“भंते ! एक ही प्रयोजन के चौथे पट्टधर थे। प्रथम पट्टधर आचार्य शुभदत्त हुए। उनके लिए अभिनिष्कमण करने वाले इन दोनों परम्पराओं के मुनियों उत्तराधिकारी आचार्य हरिदत्तसूरि थे, जिन्होंने वेदान्त-दर्शन के के वेश में यह विविधता क्यों है? एक सवस्त्र हैं और दूसरे प्रसिद्ध आचार्य 'लोहिय' से शास्त्रार्थ कर उनको ५०० शिष्यों अवस्त्र।" (श्लोक २६, ३०)। सहित दीक्षित किया। इन नव दीक्षित मुनियों ने सौराष्ट्र, तैलंग गौतम ने कहा--"भंते ! मोक्ष के निश्चित साधन तो आदि प्रान्तों में विहार कर जैन-शासन की प्रभावना की। ज्ञान, दर्शन और चारित्र हैं। वेश तो बाह्य उपकरण है। लोगों तीसरे पट्टधर आचार्य समुद्रसूरि थे। इनके काल में विदेशी को यह प्रतीत हो कि ये साधु हैं, इसलिए नाना प्रकार के नामक एक प्रचारक आचार्य ने उज्जैन नगरी में महाराजा उपकरणों की परिकल्पना की है। संयम-जीवन-यात्रा को जयसेन, उनकी रानी अनंगसुन्दरी और उनके राजकुमार निभाना और 'मैं साधु हूं'--ऐसा ध्यान आते रहना--वेश 'केशी' को दीक्षित किया। आगे चल कर मुनि केशी ने धारण के प्रयोजन हैं।" (श्लोक ३२, ३३) नास्तिक राजा परदेशी को समझाया और उसे जैन-धर्म में इन दो विषयों से यह आकलन किया जा सकता है कि स्थापित किया। किस प्रकार भगवान् महावीर ने अपने संघ में परिष्कार, ___ एक बार कुमार श्रमण केशी ग्रामानुग्राम विहरण करते परिवर्द्धन और सम्वर्द्धन किया था। उन्होंने चार महाव्रतों की हुए 'श्रावस्ती' में आए और 'तिन्दुक' उद्यान में ठहरे। भगवान् परम्परा को बदल पांच महाव्रतों की स्थापना की, सचेल महावीर के शिष्य गणधर गौतम भी संयोगवश उसी नगर में परम्परा के स्थान पर अचेल परम्परा को मान्यता दी, सामायिक आए और 'कोष्टक' उद्यान में ठहरे। नगर में आते-जाते दोनों चारित्र के साथ-साथ छेदोपस्थापनीय चारित्र की प्ररूपणा की परम्पराओं के शिष्य एक दूसरे से मिले। दोनों के मन जिज्ञासा तथा समिति-गुप्ति का पृथक् निरूपण कर उनका महत्व १. आवश्यक नियुक्ति, वृत्ति पत्र, २७८, २७६। ५. नाभिनन्दोद्धार प्रबन्ध १३६ : २-३ वही, वृत्ति पत्र, २८२। केशिनामा तद्-विनेयः, य: प्रदेशीनरेश्वरम्। ४. समरसिंह ; पृष्ठ ७५, ७६। प्रबोध्य नास्तिकाद् धर्माद्, जैनधर्मेऽध्यरोपयत्।। Jain Education Intemational Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशि-गौतमीय ३७१ अध्ययन २३ : आमुख बढ़ाया। तदनन्तर वे अचेल बने और जीवन भर अचेल रहे। किन्तु भगवान् महावीर ने सचेल और अचेल दोनों परम्पराओं उन्होंने सचेल और अचेल किसी एक को एकांगी मान्यता नहीं के साधकों को मान्यता दी और उनकी साधना के लिए दी। दोनों के अस्तित्व को स्वीकार कर उन्होंने संघ को विस्तार निश्चित पथ निर्दिष्ट किया। दोनों परम्पराएं एक ही छत्र-छाया दिया। में पनपीं, फूली-फलीं और उनमें कभी संघट्टन नहीं हुआ। इस अध्ययन में आत्म-विजय और मनोनुशासन के भगवान् प्रारम्भ में सचेल थे। एक देवदूष्य धारण किए हुए थे। उपायों का सुन्दर निरूपण है। मूलाचार, ७।३६-३८ : बानीसं तित्थयरा, सामाइयसंजम उवदिसंति। छेदुवठावणिय पुण, भयवं उसहो य वीरो य।। आचक्खिदु विभजिद्, विष्णातुं चावि सुहदर होदि। एदेण कारणेण दु, महव्वदा पंच पण्णता।।। आदीए दुविसोधणे, णिपणे तह सुट्टु दुरणुपाले य। पुरिमा य पच्छिमा वि हु, कपाकप्पं ण जाणंति ।। Jain Education Intemational Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेविंसइमं अज्झयणं : तेवीसवां अध्ययन केसिगोयमिज्जं : केशि-गौतमीय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद पार्श्व' नाम के जिन हुए। वे अर्हन, लोक-पूजित, संबुद्धात्मा, सर्वज्ञ, धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक और वीतराग जिनः पार्श्व इति नाम्ना अर्हन् लोकपूजितः। संबुद्धात्मा च सर्वज्ञः धर्मतीर्थकरो जिनः।। थे। तस्य लोकप्रदीपस्य आसीच्छिष्यो महायशाः । केशी कुमार श्रमणः विद्याचरणपारगः।। लोक को प्रकाशित करने वाले उन अर्हत् पार्श्व के केशी नामक शिष्य हुए। वे महान् यशस्वी, विद्या और आचार के पारगामी कुमार-श्रमण थे। अवधिज्ञानश्रुताभ्यां बुद्धः शिष्यसंघसमाकुलः। ग्रामानुग्राम रीयमाण: श्रावस्ती नगरीमागतः।। वे अवधि-ज्ञान और श्रुत-सम्पदा के तत्त्वों को जानते थे। वे शिष्य-संघ से परिवृत हो कर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में आए। उस समय के पार्श्व में 'तिंदुक' उद्यान था। वहां जीव-जन्तु रहित शय्या (मकान) और संस्तार (आसन) लेकर वे ठहर गए। मूल १. जिणे पासे त्ति नामेण अरहा लोगपूइओ। संबुद्धप्पा य सव्वण्ण धम्मतित्थयरे जिणे।। २. तस्स लोगपईवस्स आसि सीसे महायसे। केसी कुमारसमणे विज्जाचरणपारगे।। ३. ओहिनाणसुए बुद्धे सीससंघसमाउले। गामाणुगामं रीयंते सावत्थि नगरिमागए।। ४. तिंदूयं नाम उज्जाणं तम्मी नगरमंडले। फासुए सिज्जसंथारे तत्थ वासमुवागए।। अह तेणेव कालेणं धम्मतित्थयरे जिणे। भगवं वद्धमाणो त्ति सव्वलोगम्मि विस्सुए।। तस्स लोगपईवस्स आसि सीसे महायसे। भगवं गोयमे नाम विज्जाचरणपारगे।। ७. बारसंगविऊ बुद्धे सीससंघसमाउले। गामाणुगामं रीयंते से वि सावत्थिमानए।। कोट्ठगं नाम उज्जाणं तम्मी नयरमंडले। फासुए सिज्जसंथारे तत्थ वासमुवागए।। उस समय भगवान् वर्धमान विहार कर रहे थे। वे धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक, जिन और समूचे लोक में विश्रुत थे। तिन्दुकं नामोद्यानं तस्मिन् नगरमण्डले। स्पशुके शय्यासंस्तारे तत्र वासमुपागतः ।। अथ तस्मिन्नेव काले धर्मतीर्थकरो जिनः। भगवान् वर्धमान इति सर्वलोके विश्रुतः।। तस्य लोकप्रदीपस्य आसीच्छिष्यो महायशाः। भगवान् गौतमो नाम विद्याचरणपारगः।। द्वादशांगविद् बुद्धः शिष्यसंघसमाकुलः। ग्रामानुग्रामं रीयमाण: सोऽपि श्रीवस्तीमागतः ।। कोष्ठकं नामोद्यानं तस्मिन् नगरमण्डले। स्पशुके शय्यासंस्तारे तत्र वासमुपागतः।। लोक को प्रकाशित करने वाले उन भगवान् वर्धमान के गौतम नाम के शिष्य थे। वे महान् यशस्वी, भगवान् तथा विद्या और आचार के पारगामी थे। वे बारह अंगों को जानने वाले और बुद्ध थे। शिष्य संध से परिवृत होकर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वे भी श्रावस्ती में आ गए। ८. को उस नगर के पार्श्व-भाग में 'कोष्ठक' उद्यान था। वहां जीव-जन्तु रहित शय्या और संस्तार लेकर वे ठहर गए। dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशि-गौतमीय ३७३ अध्ययन २३ : श्लोक ६-१७ ६. केसी कुमारसमणे गोयमे य महायसे। उभओ वि तत्थ विहरिंसु उल्लीणा सुसमाहिया।। केशी कुमारश्रमणः गौतमश्च महायशाः। उभावपि तत्र व्यहाष्टम् आलीनौ सुसमाहितौ।। कुमार-श्रमण केशी और महान यशस्वी गौतमदोनों वहां विहार कर रहे थे। वे आत्मलीन और मन की समाधि से सम्पन्न थे। उभयोः शिष्यसयानां संयतानां तपस्विनाम्। तत्र चिन्ता समुत्पन्ना गुणवतां त्रायिणाम् ।। उन दोनों का शिष्य-समूह, जो संयत, तपस्वी, गुणवान् और त्रायी था, के मन में एक तर्क उत्पन्न हुआ। १०. उभओ सीससंघाणं संजयाणं तवस्सिणं। तत्थ चिंता समुप्पन्ना गुणवंताण ताइणं ।। ११. केरिसो वा इमो धम्मो? इमो धम्मो व केरिसो? | आयारधम्मपणिही इमा वा सा व केरिसी?|| कीदृशो वायं धर्मः? अयं धर्मो वा कीदृशः?/ आचारधर्मप्रणिधिः अयं वा स वा कीदृशः?।। यह हमारा धर्म कैसा है? और यह धर्म कैसा है? आचार-धर्म की व्यवस्था यह हमारी कैसी है? और वह उनकी कैसी है? १२. चाउज्जामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ। देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महामुणी।। चातुर्यामश्च यो धर्मः योऽयं पंचशिक्षितः। देशितो वर्धमानेन पावेन च महामुनिना।। जो चातुर्याम-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है और यह जो पंच-शिक्षात्मक-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्धमान ने किया है।' १३. अचेलगो य जो धम्मो जो इमो संतरुत्तरो। एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं? ।। अचेलकश्च यो धर्मः योऽयं सान्तरोत्तरः। एककार्यप्रपन्नयोः विशेषे किन्नु कारणम् ?।। महामुनि वर्धमान ने जो आचार-धर्म की व्यवस्था की है वह अचेलक है और महामुनि पार्श्व ने जो यह आचार-धर्म की व्यवस्था की है, वह सान्तर (अन्तर् वस्त्र) तथा उत्तर (उत्तरीय वस्त्र) है।" जवकि हम एक ही उद्देश्य से चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? १४.अह ते तत्थ सीसाणं विण्णाय पवितक्कियं । समागमे कयमई उभओ केसिगोयमा। अथ तौ तत्र शिष्याणां विज्ञाय प्रवितर्कितम्। समागमे कृतमती उभौ केशिगौतमौ।। उन दोनों--केशी और गौतम ने अपने-अपने शिष्यों की वितर्कणा को जान कर परस्पर मिलने का विचार किया। १५. गोयमे पडिरूवण्णू सीससंघसमाउले। जेठं कुलमवेक्खंतो तिंदुयं वणमागओ।। गौतमः प्रतिरूपज्ञः शिष्यसङ्घसमाकुलः। ज्येष्ठ कुलमपेक्षमाणः तिन्दुक वनमागतः।। गौतम ने विनय की मर्यादा का औचित्य देखा।१२ केशी का कुल ज्येष्ठ था, इसलिए गौतम शिष्य-संघ को साथ लेकर तिंदुक वन में चले आए। १६.केसी कुमारसमणे गोयमं दिस्समागयं। पडिरूवं पडिवत्तिं सम्मं संपडिवज्जई।। केशी कुमार श्रमणः गौतमं दृष्ट्वागतम्। प्रतिरूपां प्रतिपत्तिम सम्यक् संप्रतिपद्यते।। कुमार-श्रमण केशी ने गौतम को आए देख कर सम्यक् प्रकार से उनका उपयुक्त आदर किया।" १७.पलालं फासयं तत्थ पंचमं कुसतणाणि य। गोयमस्स निसेज्जाए खिप्पं संपणामए।। पलालं स्पभुकं तत्र पंचमं कुशतृणानि च। गौतमस्य निषद्यायै क्षिप्रं समर्पयति।। उन्होंने तुरन्त ही गौतम को बैठने के लिए प्रासुक पलाल (चार प्रकार के अनाजों के डंठल) और पांचवी कुश नाम की घास" दी। Jain Education Intemational Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि १८. केसी कुमारसमणे गोयमे व महायसे । उभओ निसण्णा सोहति चंदसूरसमप्पभा ।। १६. समागया बहू तत्थ पासंडा कोउगामिगा । गिहत्थाणं अणेगाओ साहस्सीओ समागया ।। २०. देवादाणवगंधव्वा जक्खरक्खसकिन्नरा | अदिस्साणं च भूयाणं आसी तत्थ समागमो ।। २१. पुच्छामि ते महाभाग ! केसी गोयममब्बवी । तओ केसिं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी ।। २२. पुच्छ भन्ते ! जहिच्छं ते केसिं गोयममब्बवी । तओ केसी अणुन्नाए गोयमं इणमब्बवी ।। २३. चाउज्जामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ । देसिओ वज्रमाणेण पासेण व महामुनी ।। २४. एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं ? । धम्मे दुविहे मेहावि कहं विप्पच्चओ न ते ? ।। २५. तओ केसिं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी । पण्णा समिक्खए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छयं । । २६. पुरिमा उज्जुजडा व वंकजडा य पच्छिमा । मन्त्रिमा उज्जुपण्णा य तेण धम्मे दुहा कए ।। २७. पुरिमाणं दुब्बिसोझो उ चरिमाणं दुरणुपालओ कप्पे मज्झिमगाणं तु सुविसोज्यो सुपालओ ।। ३७४ केशी कुमारश्रमणः गौतमश्च महायशाः । उभौ निषण्णौ शोभेते चन्द्रसुरसमप्रभी ।। समागता बहवस्तत्र पाषण्डाः कौतुकामृगाः । गृहस्थानामनेकाः साहस्रयः समागताः ।। देवदानवगन्धर्वाः यक्षराक्षसकिन्नराः । अदृश्यनां च भूतानाम् आसीत् तत्र समागमः ।। पृच्छामि त्वां महाभाग ! केशी गौतममब्रवीत् । ततः केशिनं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत् ।। पृच्छ भदन्त ! यथेच्छं ते केशिनं गौतमो ऽब्रवीत् । ततः केश्यनुज्ञातः गौतममिदमत्रवीत् ।। चातुर्याश्च यो धर्मः योऽयं पंचशिक्षितः । देशितो वर्धमानेन पाश्चैन व महामुनिना ।। एककार्यप्रपन्नयोः विशेषे किन्तु कारणम् ? । धर्मे द्विविधे मेधाविन् ! कथं विप्रत्ययों न ते ? || ततः केशिनं वुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्। प्रज्ञा समीक्षते धर्म तत्त्वं तत्चविनिश्चयम् ।। पूर्व ऋजुजवास्तु वक्रजडाश्च पश्चिमाः । मध्यमा ऋजुप्राज्ञाश्च तेन धर्मो द्विधा कृतः ।। पूर्वेषां दुर्विशोध्यस्तु चरमाणां दुरनुपालकः । कल्पो मध्यमकानां तु सुविशोध्यः सुपालकः ॥ अध्ययन २३ : श्लोक १८-२७ चन्द्र और सूर्य के समान शोभा वाले कुमार- श्रमण केशी और महान् यशस्वी गौतम—दोनों बैठे हुए शोभित हो रहे थे। १५ वहां कुतूहल को ढूंढने वाले दूसरे दूसरे सम्प्रदायों के अनेक साधु आए और हजारों-हजारों गृहस्थ आए। देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर और अदृश्य भूतों का वहां मेला - सा हो गया है। हे महाभाग ! मैं तुम्हें पूछता हूं—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम ने इस प्रकार कहा भंते! जैसी इच्छा हो वैसा पूछो। केशी ने प्रश्न करने की अनुज्ञा पाकर गौतम से इस प्रकार कहा " - जो चातुर्याम धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्व ने किया है और यह जो पंचशिक्षात्मक-धर्म है, उसका प्रतिपादन महामुनि वर्धमान ने किया है। एक ही उद्देश्य के लिए हम चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? मेधाविन् ! धर्म के इन दो प्रकारों में तुम्हें सन्देह कैसे नहीं होता ? केशी के कहते-कहते ही गौतम ने इस प्रकार कहा— धर्म-तत्त्व और तत्त्व-विनिश्चय की समीक्षा प्रज्ञा से होती है । पहले तीर्थंकर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं। अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्र और जड़ होते हैं। बीच के तीर्थङ्करों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं, इसलिए धर्म के दो प्रकार किए हैं पूर्ववर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है। चरमवर्ती साधुओं के लिए मुनि के आचार का पालन कठिन है। मध्यवर्ती साधु उसे यथावत् ग्रहण कर लेते हैं और उसका पालन भी वे सरलता से करते हैं। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशि-गौतमीय अध्ययन २३ : श्लोक २८-३६ २८.साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा !।। ३७५ साधुः गौतम ! राज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम्। अन्योऽपि संशयो मे तं मां कथय गौतम!! गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा। तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। २६.अचेलगो य जो धम्मो जो इमो संतरुत्तरो। देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा।। अचेलकश्च यो धर्मः योऽयं सान्तरोत्तरः। देशितो वर्धमानेन पावेन च महायशसा। महामुनि वर्धमान ने जो आचार-धर्म की व्यवस्था की है वह अचेलक है और महान यशस्वी पार्श्व ने जो यह आचार-धर्म की व्यवस्था की है वह सान्तर (अन्तर् वस्त्र) तथा उत्तर (उत्तरीय वस्त्र) है। ३०.एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं?। लिंगे दुविहे मेहावि! कहं विप्पच्चओ न ते? || एककार्य-प्रपन्नयोः विशेषे किन्नु कारणम् ?। लिङ्गे द्विविधे मेधाविन् ! कथं विप्रत्ययो न ते?" एक ही उद्देश्य के लिए हम चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण है ? मेधाविन् ! वेष के इन प्रकारों में तुम्हें संदेह कैसे नहीं होता? ३१. केसिमेवं बुवाणं तु गोयमो इणमब्बवी। विण्णाणेण समागम्म धम्मसाहणमिच्छियं ।। केशिनमेवं बुवाणं तु गौतम इदमब्रवीत्। विज्ञानेन समागम्य धर्मसाधनमिप्सितम्।। केशी के कहते-कहते ही गौतम ने इस प्रकार कहा-विज्ञान से यथोचित जान कर ही धर्म के साधनों-उपकरणों की अनुमति दी गई है। ३२.पच्चयत्थं च लोगस्स नाणाविहविगप्पणं। जत्तत्थं गुहणत्थं च लोगे लिंगप्पोयणं ।। प्रत्ययार्थं च लोकस्य नानाविधविकल्पनम्। यात्रार्थ ग्रहणार्थं च लोके लिङ्गप्रयोजनम् ।। लोगों को यह प्रतीति हो कि ये साधु हैं, इसलिए नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई है। जीवन-यात्रा को निभाना और 'मैं साधु हूं', ऐसा ध्यान आते रहना२०–वेष-धारण के इस लोक में ये प्रयोजन हैं। ३३. अह भवे पइण्णा उ मोक्खसब्भूयसाहणे। नाणं च दंसणं चेव चरित्तं चेव निच्छए।। अथ भवेत् प्रतिज्ञा तु मोक्षसभूतसाधने। ज्ञानं च दर्शनं चैव चारित्रं चैव निश्चये।। यदि मोक्ष के वास्तविक साधन की प्रतिज्ञा हो तो निश्चय-दृष्ट्रि में उसके साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं।२१ ३४. साहु गोयम! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा !|| साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम्। अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!11 गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा। तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। ३५.अणेगाणं सहस्साणं मज्झे चिट्ठसि गोयमा ! ते य ते अहिगच्छंति कहं ते निज्जिया तुमे ?!! अनेकेषां सहसाणां मध्ये तिष्ठसि गौतम! ते य त्वामभिगच्छन्ति कथं ते निर्जितास्त्वया?|| गौतम! तुम हजारों-हजारों शत्रुओं (कषायजनित वृत्तियों) के बीच खड़े हो। वे तुम्हें जीतने को तुम्हारे सामने आ रहे हैं। तुमने उन्हें कैसे पराजित किया ? ३६.एगे जिए जिया पंच पंच जिए जिया दस। दसहा उ जिणित्ताणं सव्वसत्तू जिणामहं।। एकस्मिन् जिते जिताः पंच पंचसु जितेषु जिता दश। दशधा तु जित्वा सर्वशत्रून् जयाम्यहम् ।। एक (चित्त) को जीत लेने पर पांच जीते गए। पांच को जीत लेने पर दस जीते गए। दसों को जीत कर मैं सब शत्रुओं को जीत लेता हूं। Jain Education Intemational Jain Education Intemational Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झय गाणि ३७६ अध्ययन २३ : श्लोक ३७-४६ शुत्र कौन कहलाता है?—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले एक न जीती हुई आत्मा (चित्त) शत्रु है। कषाय और इन्द्रियां शत्रु हैं। मुनि ! मैं उन्हें यथाज्ञात उपाय से२२ जीतकर विहार कर रहा हूं। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। इस संसार में बहुत जीव पाश से बन्धे हुए दीख रहे हैं। मुने ! तुम पाश से मुक्त और पवन की तरह प्रतिबंध-रहित होकर कैसे विहार कर रहे हो ?२३ मुने! इस पाशों को सर्वथा काट कर, उपायों से" विनष्ट कर, मैं पाश-मुक्त और प्रतिबन्ध-रहित होकर विहार करता हूं। ३७.सत्तू य इइ के वुत्ते ? केसी गोयममब्बवी। तओ केसिं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ३८.एगप्पा अजिए सत्तू कसाया इंदियाणि य। ते जिणित्तु जहानायं विहरामि अहं मुणी !।। ३६.साहु गोयम! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! ।। ४०.दीसंति बहवे लोए पासबद्धा सरीरिणो। मुक्कपासो लहुन्भूओ कहं तं विहरसी? मुणी!।। ४१.ते पासे सव्वसो छित्ता निहंतूण उवायओ। मुक्कपासो लहुन्भूओ विहारामि अहं मुणी !।। ४२.पासा य इइ के वुत्ता? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ४३. रागद्दोसादओ तिव्वा नेहपासा भयंकरा। ते छिंदित्तु जहानायं विहरामि जहक्कम।। ४४.साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! ।। ४५.अंतोहिययसंभूया लया चिट्ठइ गोयमा ! फलेइ विसभक्खीणि सा उ उद्धरिया कहं ? || ४६.तं लयं सव्वसो छित्ता उद्धरित्ता समूलिय। विहरामि जहानायं मुक्को मि विसभक्खणं ।। शत्रवश्च इति के उक्ताः? केशी गौतममब्रवीत्। ततः केशिनं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्।। एक आत्माऽजितः शत्रुः कषाया इन्द्रियाणि च। तान् जित्वा यथाज्ञातं विहराम्यहं मुने!" साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो ते संशयोऽयम्। अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!11 दुश्यन्ते बहवो लोके पाशबद्धाः शरीरिणः। मुक्तपाशो लघुभूतः कथं त्वं विहरसि? मुने!।। तान् पाशान् सर्वशश्छित्त्वा निहत्योपायतः। मुक्तपाशो लघुभूतः विहराम्यहं मुने!।। पाशाश्चेति के उक्ताः? केशी गौतममब्रवीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत् ।। रागद्वेषादयस्तीवाः स्नेपाशा भयङ्कराः। तान् छित्त्वा यथाज्ञातं विहरामि यथाक्रमम् ।। साधुः गौतम! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!" अन्तर्हदयसंभूता लता तिष्ठति गौतम! फलति विषभक्ष्याणि सा तूद्धृता कथम् ?|| तां लतां सर्वशशिछत्त्वा उद्धृत्य समूलिकाम्। विहरामि यथाज्ञातं मुक्तोऽस्मि विषभक्षणात्।। पाश किसे कहा गया है ?—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले प्रगाढ़ राग-द्वेष और स्नेह भयंकर पाश हैं। मैं उन्हें यथाज्ञात उपाय के अनुसार छिन्न कर मुनि-आचार के साथ विहरण करता हूं। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। गौतम ! अन्तर् हृदय (मन) में उत्पन्न जो लता है जिसके विष-तुल्य५ फल लगते हैं, उसे तुमने कैसे उखाड़ा? उस लता को यथाज्ञात उपाय के अनुसार सर्वथा छिन्न कर, जड़ से उखाड़ कर विहरण करता हूं, इसलिए मैं विष-फल के खाने से मुक्त हूं। Jain Education Intemational Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशि-गौतमीय ३७७ अध्ययन २३ :श्लोक ४७-५६ लता किसे कहा गया है ?—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले भव-तृष्णा को लता कहा गया है। वह भयंकर है और उसमें भयंकर फलों का परिपाक होता है। महामुने ! मैं उसे यथाज्ञात उपाय के अनुसार उखाड़ कर विहरण करता हूं। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा। तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। गौतम ! घोर-अग्नियां प्रज्वलित होती रही हैं जो शरीर में रहती हुई मनुष्य को जला रही हैं। उन्हें तुमने कैसे बुझाया ? महामेघ से उत्पन्न निर्झर से सब जलों में उत्तम जल२६ लेकर मैं उन्हें सींचता रहता हूं। वे सींची हुई अग्नियां मुझे नहीं जलातीं। ४७.लया य इइ का वुत्ता ? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ४८.भवतण्हा लया वुत्ता भीमा भीमफलोदया। तमुद्धरित्तु जहानायं विहरामि महामुणी! ।। ४६.साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! ।। ५०.संपज्जलिया घोरा अग्गी चिट्ठइ गोयमा !। जे डहति सरीरत्था कहं विज्झाविया तुमे ? || ५१. महामेहप्पसूयाओ गिज्झ वारि जलुत्तमं । सिंचामि सययं देह सित्ता नो व डहति मे।। ५२.अग्गी य इइ के वुत्ता केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ५३. कसाया अग्गिणो वुत्ता सुयसीलतवो जलं। सुयधाराभिहया संता भिन्ना हु न डहति मे।। ५४.साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! ।।। ५५.अयं साहसिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधावई। जंसि गोयम! आरूढो कहं तेण न हीरसि? || ५६.पधावंतं निगिण्हामि सुयरस्सीसमाहियं। न मे गच्छइ उम्मग्गं मग्गं च पडिवज्जई।। लता च इति का उक्ता? केशी गौतममब्रवीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्।। भवतृष्णा लता उक्ता भीमा भीमफलोदया। तामुद्धृत्य यथाज्ञातं विहरामि महामुने!" साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!" संप्रज्वलिता घोराः अग्नयस्तिष्ठन्ति गौतम!। ये दहन्ति शरीरस्थाः कथं विध्यापितास्त्वया ?।। महामेघप्रसूतात् गृहीत्वा वारि जलोत्तमम् । सिंचामि सततं देह सिक्ता नो वा दहन्ति माम् ।। अग्नयश्चेति के उक्ताः? केशी गौतममब्रवीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत् ।। कषाया अग्नय उक्ताः श्रुतशीलतपो जलम्। श्रुतधाराभिहताः सन्तः भिन्ना 'हु' न दहन्ति माम् ।। साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम्। अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!। अयं साहसिको भीमः दुष्टाश्वः परिधावति। यस्मिन् गौतम! आरूढः कथं तेन नहियसे?11 प्रधावन्तं निगृहणामि श्रुतरश्मिसमाहितम्। न मे गच्छत्युन्मार्ग मार्ग च प्रतिपद्यते।। अग्नि किन्हें कहा गया है?—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले कषायों को अग्नि कहा गया है। श्रुत, शील और तप यह जल है। श्रुत की धारा से आहत किए जाने पर निस्तेज बनी हुई वे अग्नियां मुझे नहीं जलातीं। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। यह साहसिक२५, भयंकर, दुष्ट-अश्व दौड़ रहा है। गौतम! तुम उस पर चढ़े हुए हो। वह तुम्हें उन्मार्ग में कैसे नहीं ले जाता? मैंने इसे श्रुत की लगाम से बांध लिया है। यह जब उन्मार्ग की ओर दौड़ता है तब मैं इस पर रोक लगा देता है। इसलिए मेरा अश्व उन्मार्ग को नहीं जाता, मार्ग में ही चलता है। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३७८ अध्ययन २३ : श्लोक ५७-६६ अश्व किसे कहा गया है?—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले यह जो साहसिक, भयंकर, दुष्ट-अश्व दौड़ रहा है, वह मन है। उसे मैं भलीभांति अपने अधीन रखता हूँ। धर्म-शिक्षा के द्वारा वह उत्तम-जाति का अश्व हो गया है। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। लोक में कुमार्ग बहुत हैं। उन पर चलने वाले लोग भटक जाते हैं। गौतम! मार्ग में चलते हुए तुम कैसे नहीं भटकते? जो मार्ग से चलते हैं और जो उन्मार्ग से चलते हैं, वे सब मुझे ज्ञात हैं। मुने! इसीलिए मैं नहीं भटक रहा हूं। ५७.अस्से य इइ के वुत्ते? । केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ५८.मणो साहसिओ भीमो दुट्ठस्सो परिधावई। तं सम्मं निगिण्हामि धम्मसिक्खाए कंथगं ।। ५६.साहु गोयम! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मझं तं मे कहसु गोयमा !।। ६०.कुप्पहा बहवो लोए जेहिं नासंति जंतवो। अद्धाणे कह वट्टते तं न नस्ससि ? गोयमा !।। ६१.जे य मग्गेण गच्छंति जे य उम्मग्गपट्ठिया। ते सव्वे विइया मज्झं तो न नस्सामहं मुणी!।। ६२.मग्गे य इइ के वुत्ते? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ६३.कुप्पवयणपासंडी सब्वे उम्मग्गपट्ठिया। सम्मग्गं तु जिणक्खायं एस मग्गे हि उत्तमे ।। ६४.साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा !।। ६५.महाउदगवेगेणं वुज्झमाणाण पाणिणं। सरणं गई पइट्ठा य दीवं कं मन्नसी? मुणी !।। ६६.अत्थि एगो महादीवो वारिमज्झे महालओ। महाउदगवेगस्स गई तत्थ न विज्जई।। अश्वश्चेति क उक्त? केशी गौतममब्रवीत्। केशिनमेवं बुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्।। मनः साहसिको भीमः दुष्टाश्वः परिधावति। तत् सम्यक् निगृह्णामि धर्मशिक्षया कन्थकम् ।। साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम् । अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!" कुपथा बहवो लोके यैर्नश्यन्ति जन्तवः। अध्वनि कथं वर्तमानः त्वं न नश्यसि ? गौतम!। ये च मार्गेण गच्छन्ति ये योन्मार्गप्रस्थिताः। ते सर्वे विदिता मया ततो न नश्याम्यहं मुने!।। मार्गश्चेति क उक्तः? केशी गौतममब्रवीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्।। कुप्रवचनपाषण्डिनः सर्वे उन्मार्गप्रस्थिताः। सन्मार्गस्तु जिनाख्यातः एष मार्गो हि उत्तमः ।। साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो में संशयोऽयम्। अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!" महोदकवेगेन उह्यमानानां प्राणिनाम् । शरणं गतिं प्रतिष्ठां च द्वीपं कं मन्यसे? मुने!|| अस्त्येको महाद्वीपः वारिमध्ये महान्। महोदकवेगस्य गतिस्तत्र न विद्यते।। मार्ग किसे कहा गया है?—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले जो कुप्रवचन के दार्शनिक हैं", वे सब उन्मार्ग की ओर चले जा रहे हैं। जो राग-द्वेष को जीतने वाले जिन ने कहा है, वह सन्मार्ग है, क्योंकि यह सबसे उत्तम मार्ग है। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। मुने ! महान् जल के वेग से बहते हुए जीवों के लिए तुम शरण, गति, प्रतिष्ठा और द्वीप किसे मानते हैं। जल के मध्य में एक लम्बा-चौड़ा महाद्वीप है। वहां महान् जल के बेग की गति नहीं है। Jain Education Intemational Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशि-गौतमीय ३७९ अध्ययन २३ : श्लोक ६७-७६ द्वीप किसे कहा गया है ?—केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले जरा और मृत्यु के वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा। तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। महा-प्रवाह वाले समुद्र में नौका तीव्र गति से चली जा रही है। गौतम ! तुम उसमें आरूढ़ हो। उस पार कैसे पहुंच पाओगे? जो छेद वाली नौका होती है, वह उस पार नहीं जा पाती। किन्तु जो नौका छेद वाली नहीं होती, वह उस पार चली जाती है। ६७.दीवे य इइ के वुत्ते? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ६८.जरामरणवेगेणं बुज्झमाणाण पाणिणं। धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरणुत्तमं ।। ६६.साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं । तं मे कहसु गोयमा?। ७०.अण्णवंसि महोहंसि नावा विपरिधावई। जंसि गोयममारूढो महं पारं गमिस्ससि ?।। ७१.जा उ अस्साविणी नावा न सा पारस्स गामिणी। जा निरस्साविणी नावा सा उ पारस्स गामिणी।। ७२.नावा य इइ का वुत्ता ? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। ७३.सरीरमाहु नाव त्ति जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो जं तरंति महेसिणो।। ७४.साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा !।। ७५.अंधयारे तमे घोरे । चिट्ठति पाणिणो बहू।। को करिस्सइ उज्जोयं । सव्वलोगंमि पाणिणं ?।। ७६.उग्गओ विमलो भाणू सव्वलोगप्पभंकरो। सो करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोगंमि पाणिणं ।। द्वीपश्चेति क उक्तः? केशी गौतममब्रवीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्।। जरामरणवेगेने उह्यमानानां प्राणिनाम्। धर्मो द्वीपः प्रतिष्ठा च गतिः शरणमुत्तमम् ।। साधुः गौतमः ! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम्। अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!11 अर्णवे महौधे नौविपरिधावति। यस्यां गौतम ! आरूढः कथं पारं गमिष्यसि?।। या त्वाश्राविणी नौः न सा पारस्य गामिनी। या निराश्राविणी नौः सा तु पारस्य गामिनी।। नौश्चेति कोक्ता? केशी गौतममब्रवीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्।। शरीरमाहुनौरिति जीव उच्यते नाविकः। संसारोऽर्णव उक्तः यं तरन्ति महैषिणः।। साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम्। अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम!11 अन्धकारे तमसि घोरे तिष्ठन्ति प्राणिनो बहवः। कः करिष्यत्युद्योतं सर्वलोके प्राणिनाम् ?" उद्गतो विमलो भानुः सर्वलोकप्रभाकरः। सः करिष्यत्युद्योतं सर्वलोके प्राणिनाम् ।। नौका किसे कहा गया है ?--केशी ने गौतम से कहा। केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले शरीर को नौका, जीव को नाविक और संसार को समुद्र कहा गया है। महान्—मोक्ष की एषणा करने वाले इसे तैर जाते हैं। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ। लोगों को अन्ध बनाने वाले घेर तिमिर में बहुत लोग रह रहे हैं। इस समूचे लोक में उन प्राणियों के लिए प्रकाश कौन करेगा? समूचे लोक में प्रकाश करने वाला एक विमल भानु उगा है। वह समूचे लोक में प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा। Jain Education Intemational Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७७. भाणू इइ के वुत्ते ? केसी गोयममब्बवी । केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी ।। ७८. उग्गओ खीणसंसारो सव्वण्णू जिणभक्खरो । सो करिस्सइ उज्जोयं सव्वलोयमि पाणिणं ।। ७६. साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा ! || ८०. सारीरमाणसे दुक्खे उद्गतः क्षीणसंसार: सर्वज्ञो जिनभास्करः । स करिष्यत्युद्योत सर्वलोके प्राणिनाम् ।। साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो में संशयोऽयम् अन्योऽपि संशयो मम तं मां कथय गौतम ! || शारीरमानसेदुः बाध्यमानानां प्राणिनाम् । क्षेमं शिवमनाबाधं बज्झमाणाण पाणिणं । खेमं सिवमणाबाहं ठाणं किं मन्मसी ? मुणी ! ।। स्थानं किं मन्यसे ? मुने ! ।। ८१. अत्थि एगं धुवं ठाणं लोगग्गंमि दुरारुहं । जत्थ नत्थि जरा मच्चू वाहिणो वेयणा तहा ।। ८२. ठाणे व इइ के बुत्ते ? केसी गोयममब्बवी । केसिमेवं बुवंतं तु गोयमी इणमब्बवी ।। ८३. निव्वाणं ति अबाहं ति सिद्धी लोगग्गमेव य । खेमं सिवं अणाबाहं जं चरंति महेसिणो ।। ८४. तं ठाणं सासयं वासं लोगग्गंमि दुरारुहं । जं संपत्ता न सोयंति भवोहंतकरा मुणी ।। ८५. साहु गोयम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो । नमो ते संसयाईय ! सव्वसुत्तमहोयही ! | ८६. एवं तु संसए छिन्ने केसी घोरपरक्कमे । अभिवंदित्ता सिरसा गोयमं तु कहायसं । । ३८० भानुश्चेति क उक्तः ? केशी गीतममब्रवीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत् ।। अस्त्येकं ध्रुवं स्थानं कोकाग्रे दुरारोहं । यत्र नास्ति जरा मृत्युः व्याधयो वेदनास्तथा ।। स्थानं चेति किमुक्तं ? केसी गीतममग्रीत्। केशिनमेवं ब्रुवन्तं तु गौतम इदमब्रवीत्। निर्वाणमित्यबाधमिति सिद्धिर्लोकाग्रमेव च । क्षेमं शिवमनाबाधं यच्चरन्ति महैषिणः ।। तत् स्थानं शाश्वतं वासं लोक दुरारोहम् यत्सम्प्राप्ता न शोचन्ति भवौघान्तकराः मुनयः ।। साधुः गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयोऽयम् । नमस्तुभ्यं संशयातीत ! सर्वसूत्रमहोदधे ! ।। एवं तु संशये छिन्ने केशी घोरपराक्रमः । अभिवन्द्य शिरसा गौतमं मु महायशसम् अध्ययन २३ : श्लोक ७७-८६ भानु किसे कहा गया है ? - केशी ने गौतम से कहा । केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले जिसका संसार क्षीण हो चुका है, जो सर्वज्ञ है, वह अर्हत्-रूपी भास्कर समूचे लोक के प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। मुझे एक दूसरा संशय भी है। गौतम ! उसके विषय में भी तुम मुझे बतलाओ । मुने! तुम शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित होते हुए प्राणियों के लिए क्षेम, शिव और अनाबाध स्थान किसे मानते हो ? लोक के शिखर में एक वैसा शाश्वत स्थान है, जहां पहुंच पाना बहुत कठिन है और जहां नहीं हैजरा, मृत्यु, व्याधि और वेदना । स्थान किसे कहा गया है ? – केशी ने गौतम से कहा । केशी के कहते-कहते ही गौतम इस प्रकार बोले जो निर्वाण है, जो अवाम, सिद्धि, लोकान, क्षेम, शिव और अनाबाध है, जिसे महान् की एषणा करने वाले प्राप्त करते है--- भव-प्रवाह का अन्त करने वाले मुनि जिसे प्राप्त कर शोक से मुक्त हो जाते हैं, जो लोक के शिखर में शाश्वत रूप से अवस्थित है, जहां पहुंच पाना कठिन है, उसे मैं स्थान कहता हूं। गौतम ! उत्तम है तुम्हारी प्रज्ञा । तुमने मेरे इस संशय को दूर किया है। हे संशयातीत ! हे सर्वसूत्र महोदधि ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूं। इस प्रकार संशय दूर होने पर घोर पराक्रम वाले केशी महान् यशस्वी गौतम का शिर से अभिवन्दन कर Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशि गौतमीय ८७. पंचमहव्वयधम्मं पडिवज्जइ भावओ। पुरिमस्स पच्छिमंमी मग्गे तत्थ सुहावहे ।। ८. केसीगोयमओ निच्च ८८. तम्मि आसि समागमे । सुयसीलसमुक्करिसो महत्वत्थविणिच्छओ ।। ८६. तोसिया परिसा सव्वा सम्मग्गं समुवट्टिया संथुया ते पसीयंतु भयवं केसिगोयमे ।। —त्ति बेमि । ३८१ पंचमहाव्रतधर्मं प्रतिपद्यते भावतः । पूर्वस्य पश्चिमे मार्गे तत्र सुखावहे ।। केशिगौतमयोर्नित्यं तस्मिन्नासीत् समागमे । श्रुतशीलसमुत्कर्षः महार्थार्थविनिश्चयः ।। तोषिता परिषत् सर्वा सन्मार्ग समुपस्थिता। संस्तुती ती प्रसीदताम् भगवन्तौ केशिगौतमौ । - इति ब्रवीमि । अध्ययन २३ : श्लोक ८७-८८ केशी स्वामी ने गौतम के पास भावपूर्वक पंच महाव्रत धर्म को स्वीकार किया। वे पूर्वमार्ग - भगवान् पार्श्व की परम्परा से पश्चिममार्ग — भगवान् महावीर की सुखावह परम्परा में प्रविष्ट हो गए। ३० उस उद्यान में होने वाला केशी और गौतम का सतत मिलन श्रुत और शील का उत्कर्ष करने वाला और महान् प्रयोजन वाले अर्थों का विनिश्चय करने वाला था । जिनकी गतिविधि से परिषद् को सन्तोष हुआ और वह सन्मार्ग पर उपस्थित हुई, वे परिषद् द्वारा प्रशंसित भगवान् केशी और गौतम प्रसन्न हों। - ऐसा मैं कहता हूं । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन २३ : केशि गौतमीय १. पार्श्व (पासे) क्रिया-कलाप और प्रणिधि का अर्थ है-व्यवस्थापन। इसका आचार्य नेमिचंद्र ने सुखबोधावृत्ति में तीर्थंकर पार्श्व का समग्र अर्थ है-बाह्य क्रिया-कलापरूप धर्म का व्यवस्थापन ।' जीवनवृत्त प्रस्तुत किया है। बाह्य क्रिया कलापों को धर्म इसलिए कहा है कि वे भी देखें-सुखबोधावृत्ति, पत्र २८५-२६५ । आत्मिक-विकास के हेतु बनते हैं। २. कुमार-श्रमण (कुमारसमणे) ८. चातुर्याम धर्म....पंचशिक्षात्मक धर्म (चाउज्जामो... _ कुमार शब्द का सम्बन्ध 'कुमार श्रमण' और पंचसिक्खिओ) 'केशीकुमार'—इस प्रकार दोनों रूपों में किया जा सकता है। पहले और अंतिम तीर्थंकर के अतिरिक्त शेष बावीस शान्त्याचार्य ने प्रथम रूप मान्य किया है। कुमार श्रमण केशी का तीर्थंकरों के शासन में चातुर्याम धर्म की व्यवस्था होती है। एक विशेषण है। वे अविवाहित थे, इसलिए 'कुमार' कहलाते दूसरे शब्दों में चार महाव्रतात्मक धर्म हैंथे और वे तपस्या करते थे, इसलिए वे 'श्रमण' कहलाते थे। १. सर्व प्रणातिपात विरति। यह वृत्ति का अभिमत है।' २. सर्व मृषावाद विरति। ३. नगर के पार्श्व में (नगरमंडले) ३. सर्व अदत्तादान विरति। नगरमंडल का अर्थ है-नगर के परकोटे का परिसर।' ४. सर्व बाह्य-आदान विरति। ४. आत्मलीन (अल्लीणा) देखें-ठाणं ४१३६। चूर्णि और वृत्ति में आलीन का अर्थ---मन, वचन और 'पंचसिक्खिओ' यह पांच महाव्रतों का सूचक शब्द है। काया की गुप्ति से गुप्त किया है। दशवैकालिक में 'अल्लीण' पांच महाव्रतों के नाम इसी आगम के २१११२ में उपलब्ध है। (सं. आलीन) का अर्थ थोड़ा लीन किया है। तात्यपर्य की भाषा ९. (श्लोक १२) में जो गुरु के न अति-दूर और न अति-निकट बैठता है, उसे मिलाएं-ठाणे ४११३६-१३७। 'आलीन' कहा जाता है। १०. अचेलक है (अचेलगो) ५. मन की समाधि से सम्पन्न थे (सुसमाहिया) इसके दो अर्थ हैंसमाधि का अर्थ है-चित्त का स्वास्थ्य। उसके तीन (१) साधना का वह प्रकार जिसमें वस्त्र नहीं रखे जाते। प्रकार हैं-ज्ञान समाधि, दर्शन समाधि और चारित्र समाधि। (२) साधना का वह प्रकार जिसमें श्वेत और अल्प-मूल्य ये तीनों मानसिक समाधि के हेतु हैं।' वाले वस्त्र रखे जाते हैं। ६. तर्क (चिंता) यहां अचेलक शब्द के द्वारा इन दोनों अर्थों की सूचना चिन्ता शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यहां इसका प्रयोग दा गई है। तर्क के अर्थ में हुआ है। तत्त्वार्थ की वृत्ति में चिन्ता का अर्थ ११. (संतरुत्तरो) तर्क किया गया है। शान्त्याचार्य ने 'अंतर' का अर्थ विशेषित (विशेषता ७. आचार-धर्म की व्यवस्था (आयारधम्मपणिही) युक्त) और 'उत्तर' का अर्थ प्रधान किया है। दोनों की तुलना यहां 'आचार' का अर्थ है—वेष-धारण आदि बाह्य में इसका का खामियाना में इसका अर्थ यह होता है कि भगवान् महावीर ने अचेल या १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६८ : केशिनामा कुमारश्चासावपरिणीततया श्रमणश्च ४. दसवेआलियं, जिनदास चूर्णि, पृष्ठ २८८ । तपस्वितया कुमारश्रमणो.....।। ५. बृहवृत्ति, पत्र ४६६ : सुसमाहिती-सुष्टुज्ञानादिसमाधिमन्ती। २. वहीं, पत्र ४६८ : नगरमण्डले-पुरपरिक्षेपपरिसरे। ६. स्वार्थसिद्धि, पृ. ३५४। ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २६४ : द्वावपि अत्यर्थं लीनी, साना, ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६८ : आचरणमचारोवेषधारणादिको बाह्यःक्रियाकलाप मनोवाक्कायगुप्तावित्यर्थः। - इत्यर्थः स एव सुगतिधारणाद्धर्मः, प्राप्यते हि बाह्यक्रियामात्रादपि (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४६६ : अल्लीण त्ति आलीनौमनोवाक्कायगुप्तावाश्रिती नवमवेयकमितिकृत्वा, तस्य प्राणिधिः----व्यवस्थापनमाचारधर्मप्रणिधिः । वा। ८. वही, पत्र ५००। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशि-गौतमीय ३८३ अध्ययन २३ : श्लोक १५-१६ टि० १२-१५ अध्ययन २२ कुचेल (केवल श्वेत और अल्प-मूल्य वस्त्र वाले) धर्म का का निरूपण करने वाला धर्म। निरूपण किया और भगवान् पार्श्वनाथ ने प्रमाण और वर्ण की (२) आचारांग वृत्ति-वस्त्र को क्वचित् ओढ़ने वाला विशेषता से विशिष्ट तथा मूल्यवान् वस्त्र वाले धर्म का अर्थात् क्वचित् अपने पास में रखने वाला। सचेल धर्म का निरूपण किया।' कल्पसूत्र चूर्णि और टिप्पण-सूती वस्त्र को भीतर __ आचारांग (१1८1५१) तथा कल्पसूत्र (सू० २५६) में और ऊनी को ऊपर ओढ़कर भिक्षा के लिए जाने 'संतरुतर' शब्द मिलता है। शीलांकसूरि ने आचारांग के वाला। 'संतरुत्तर' शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है-उत्तर अर्थात् ये तीनों अर्थ भिन्न दिशाओं में विकसित हुए हैं। प्रावरणीय, सांतर अर्थात् भिन्न-भिन्न समयों में। मुनि अपनी १२. (पडिरूवण्ण) आत्मा को तोलने के लिए सांतरोत्तर भी होता है। वह वस्त्र को प्रतिरूपज्ञ का अर्थ है—विनय के औचित्य को जानने क्वचित् काम में लेता है, क्वचित् पास में रखता है और सर्दी वाला। की आशंका से उसका विसर्जन नहीं करता। १३. (पडिरूवं पडिवत्ति) कल्पसूत्र के चूर्णिकार और टिप्पणकार ने 'अन्तर' शब्द - इसका अर्थ है—यथायोग्य आदर अथवा विनय की के तीन अर्थ किए हैं—(१) सूती वस्त्र, (२) रजोहरण और प्रतिपत्ति। (३) पात्र । उन्होंने उत्तर शब्द के दो अर्थ किए हैं—(१) कम्बल १४. पांचवीं कुश नाम की घास (पंचमं कुसतणाणि) और (२) ऊपर ओढ़ने का वस्त्र उत्तरीय। वहां प्रकरण यहां पांच प्रकार के तृणों का उल्लेख किया गया हैप्राप्त अर्थ यह है कि भीतर सूती कपड़ा और ऊपर ऊनी (१) शाली-कमल शाली आदि का पलाल। कपड़ा ओढ़कर भिक्षा के लिए जाए। शान्त्याचार्य ने जो अर्थ (२) ब्रीहिक-साठी चावल आदि का पलाल। किया है वह कुचेल शब्द की तुलना में संगत हो सकता है (३) कोद्रव-कोद्रव धान्य, कोदो का पलाल।' किन्तु अचेल के साथ उसकी पूरी संगति नहीं बैठती। वर्षा के (४) रालक-कंगु का पलाल। समय भीतर सूती कपड़ा और उसके ऊपर ऊनी कपड़ा (५) अरण्य-तृण-श्यामाक आदि। ओढ़कर बाहर जाने की परम्परा रही है। शान्त्याचार्य ने भी ३०वें श्लोक में लिंग शब्द का अर्थ वर्षाकल्प आदि रूप वेष १५. कुतूहल को ढूढने वाले (कोउगामिगा) किया है। और ३२वें श्लोक के 'नानाविध-विकल्पन' एवं । वृत्तिकार के अनुसार मूलपाठ 'कोउगासिया' है। इसका 'यात्रार्थ' की व्याख्या में भी इसका उल्लेख किया है। यहां अर्थ है—कुतूहल को प्रतिपन्न। उन्होंने 'कोउगामिगा' को अचेल और सचेल का वर्णन है इसलिए अन्तर का अर्थ पाठांतर मानकर इसके दो अर्थ किए हैं-(१) कुतूहल के अंतरीय--अधोवस्त्र और उत्तर का अर्थ उत्तरीय—ऊपर का कारण मृग की भांति अज्ञानी (२) अमित कुतूहल वाले। वस्त्र भी किया जा सकता है। दूसरे अर्थ में कौतुक और अमित-इन दो शब्दों का इस प्रकार सांतरोता तीन आर्श पाल योग स्वीकृत है। हमने 'मृगंगण अन्वेषणे' धातु के आधार पर (१) उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति-श्वेत और अल्प मूल्य वस्त्र __'कोउगामिगा' का अर्थ-कौतुक को ढूंढने वाले किया है। इसकी बृहवृत्ति, पत्र ५०० : 'अचेलकश्च' उक्तन्यायेनाविद्यमानचेलकः निःसरतां कम्बलावृत्तदेहानां न तथाविधाकायविराधनेति। कुत्सितचेलको वा यो धर्मो वर्धमानेन देशित, इत्यपेक्ष्यते, तथा 'जो ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५०३ : लिंग-वर्षाकल्पादिरूपो वेषः । इमो' त्ति पूर्ववद् यश्चायं सांतराणि-बर्द्धमानस्वामिसत्कयतिवस्त्रापेक्षया ६. (क) वही, पत्र ५०३ : 'नानाविधविकल्पनं' प्रक्रमान्नानाप्रकारोकस्यचित्कदाचिन्मानवर्णविशेषतो विशेषितानि उत्तराणि च पकरणपरिकल्पनं, नानाविधं हि वर्षाकल्पाद्युपकरणं यथावद्यतिष्वेव महाधनमूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमाद्वस्त्राणि यस्मिन्नसी सांतरोत्तरो धर्मः संभवतीति। पार्श्वेन देशित इतीहापेक्ष्यते। (ख) वही, पत्र ५०३ : यात्रा-संयमनिर्वाहस्तदर्थ बिना हि वर्षाकल्पादिक आचारांग १८५१ वृत्ति, पत्र २५२ : अथवा क्षेत्रादिगुणाद् हिमकणिनि वृष्ट्यादी संयमबाधैव स्यात् । वाते वाति सति आत्मपरितुलनार्थं शीतपरीक्षार्थं च सांतरोत्तरो भवेत्- ७. वही, पत्र ५०० : पडिरूवन्नु त्ति प्रतिरूपविनयो-यथोचितप्रतिपत्तिसांतरमुत्तरं—प्रावरणीयं यस्य स तथा, क्वचित प्रावृणोति क्वचित् रूपस्तं जानातीति प्रतिरूपज्ञः। पार्श्ववर्ति विभर्ति, शीताशंकया नाद्यापि परित्यजति। ८. वही, पत्र ५००: प्रतिरूपां-उचिता, प्रतिपत्तिम-अभ्यागतकर्त्तव्यरूपाम् । ३. (क) कल्पसूत्र चूर्णि, सूत्र २५६।। . वही, पत्र ५००: (ख) कल्पसूत्र टिप्पनक, सूत्र २५६। गणपणगं पुण भणियं जिणेहिं कम्मट्ठगंठिमहणेहिं। ४. (क) ओधनियुक्ति, गाथा ७२६ वृत्ति। साली बीही कोद्दवरालगरण्णे तिणाई च।। (ख) धर्मसंग्रह वृत्ति, पत्र ६६ : कम्बलस्य च वर्षासु बहिनिर्गताना १०. वही, पत्र ५०१ : कौतुर्क-कुतूहलम्, आश्रिताः-प्रतिपन्नाः तात्कालिकवृष्टावष्कायरक्षणमुपयोगः, यतो बालवृद्धग्लाननिमित्त कौतुकाश्रिताः, पठ्यते च 'कोउगामिग' त्ति, तत्र कौतुकात् मृगा इव वर्षत्यपि जलधरे भिक्षायै असह्योच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनार्थं च भृगा अज्ञत्वात् प्राकृतत्वाद् अमितकौतुका था। Jain Education Intemational Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन २३ : श्लोक १६-३२ टि० १६-१६ 'कोउगासिया' के साथ अर्थ-संगति होती है। संख्याक्रम से प्रशास्तृ-स्थविर चौथा है। इसका अर्थ १६. दूसरे संप्रदायों के....साधु (पासंडा) है—धर्मोपदेशक । दस धर्मों में इसकी संख्याक्रम से पाषंड-धर्म से पासंड शब्द श्रमण का पर्यायवाची नाम है। जैन और तुलना होती है, इसलिए इसका अर्थ 'धर्म-सम्प्रदाय' ही होना चाहिए। बौद्ध साहित्य में 'पासंड' शब्द श्रमण सम्प्रदाय के अर्थ में शान्त्याचार्य ने यहां और तिरसठवें श्लोक की व्याख्या प्रयुक्त होता था। आवश्यक (४) में 'परपासंड पसंसा' और में पाषण्ड का अर्थ 'व्रती' किया है। 'परपासंड संथवो'ये प्रयोग मिलते हैं। उत्तराध्ययन १७।१७ मनुस्मृति में पाषण्ड का प्रयोग गर्हित अर्थ में हुआ है। में 'परपासंड' शब्द प्रयुक्त हुआ है। यहां पाषण्ड के साथ 'पर' उसका तात्पर्य श्रमण-परम्परा के अर्चित शब्द का अर्थापकर्ष शब्द है, उससे 'आत्म-पाषण्ड' और 'पर-पाषण्ड'–ये दो करना ही हो सकता है। प्रकार स्वयं फलित हो जाते हैं। १७. (श्लोक २२) ___ अशोक अपने बारहवें शिलालेख में कहता है—“देवों का गौतम ने केशी से प्रश्न पूछने के लिए कहा। पूछने पर प्रिय प्रियदर्शी राजा सब प्रकार के श्रमणों की (पाषंडियों की), अनुज्ञा पाकर केशी ने गौतम के समक्ष जो प्रश्न उपस्थित किए परिव्राजकों की और गृहस्थों की दान-धर्म से तथा अन्य अनेक उनका संग्रहण नियुक्तिकार ने तीन गाथाओं में किया है। वे प्रकारों से पूजा करता है। पर देवों का प्रिय दान और पूजा को प्रश्न बारह हैं और उनका विषय यह है। - उतना महत्त्व नहीं देता जितना सब पाषंडियों की सार-वृद्धि १. पार्श्व ने चातुर्याम की व्यवस्था की और महावीर ने को।” सार-वृद्धि के अनेक प्रकार हैं। उसका मूल है वाचा-गुप्ति। पांच महाव्रतों की। यह भेद क्यों? उदाहरणार्थ आत्म-पाषण्डि की भरमार न करे ओर पर-पाषण्डि २. दोनों परम्पराओं में लिंग-वेश की द्विविधता क्यों ? की निन्दा न होने दे। यदि कोई झगड़े का कारण उपस्थित हो ३. आत्मा, कषाय और इन्द्रियां-इन शत्रुओं का पराजय भी जाए तो उसे महत्व न दे। 'पर-पाषंड' का मान रखना कैसे? अनेक प्रकार से उचित है। ऐसा करने से वह 'आत्म-पाषंड' ४. पाश क्या है? उनका उच्छेद कैसे? की निश्चय से अभिवृद्धि करता है और 'पर-पाषंड' पर भी ५. भवतृष्णा का उन्मूलन कैसे? उपकार करता है। ६. अग्नियां कौनसी हैं ? उनका निर्वापण कैसे? स्थानांग १०।१३५ में दस धर्मों में चौथा धर्म ‘पाषंड-धर्म' ७. मनरूपी दुष्ट अश्व का निग्रह कैसे? है। अभयदेव सूरी ने इसका अर्थ-'पाखंडियों का आचार' ८. मार्ग कौन-सा है? किया है। स्थानांग १०।१३६ में दस प्रकार के स्थविर बतलाए ६. इस जल-प्रवाह में द्वीप किसे कहा गया है? गए हैं। उनसे तुलना करने पर पाषंड का अर्थ 'धर्म सम्प्रदाय' १०. संसाररूपी महासमुद्र का पारगमन कैसे? होना चाहिए। ११. अंधकार है अज्ञान। उनका विनाश कैसे? ग्रामधर्म ग्रामस्थविर। १२. अनाबाध स्थान कौन-सा है ? नगरधर्म नगरस्थविर। १८. धर्मतत्त्व (धम्म तत्तं) राष्ट्रस्थविर। इसका अर्थ है-धर्म का परमार्थ । वृत्ति में 'धम्म' शब्द के पाषंडधर्म प्रशास्तृस्थविर अनुस्वार को अलाक्षणिक मानकर 'धम्मतत्तं' को एक शब्द माना है।' कुलधर्म कुलस्थविर। १९. (उज्जुजडा, वंकजडा, उज्जुपन्ना) गणधर्म गणस्थविर। उज्जुजडा-ऋजु और जड़। प्रथम तीर्थंकर के साथु संघधर्म संघस्थविर। 'ऋजु-जड़' होते हैं। वे स्वभावतः ऋजु हैं, किन्तु मति से जड़ होते श्रुतधर्म जातिस्थविर। हैं। अतः उन्हें तत्त्व का बोध कराना अत्यन्त दुष्कर होता है। चारित्रधर्म श्रुतस्थविर। वंकजडा वक्र और जड़। अन्तिम तीर्थंकर के मुनि अस्तिकायधर्म पर्यायस्थविर। 'वक्र-जड़' होते हैं। वे स्वभावतः बक्र होते हैं, उनके लिए तत्त्व १. दशवैकालिक नियुक्ति गाथा १६४, १६५। अगणिणिव्वावणे चेव, तहा दुगुस्स निग्गहे। २. ठाणं, १०।१३५, वृत्ति, पत्र ४८६ : पाखण्डधर्मः पाखण्डिनामाचारः : तहा पहपरिन्नाय, महासोअनिवारणे।। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५०१ : पाषण्डं व्रतं तद्योगात् 'पाषण्डाः ' शेषव्रतिनः। संसारपारगमणे, तमस्स य विघायणे। ४. वही, पत्र ५०८ : कुप्रवचनेषु-कपिलादिप्ररूपितकुत्सितदर्शनेषु ठाणोवसंपया चेव, एवं बारससू कमो।। पाषण्डिनो व्रतिनः। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ५०२ : 'धम्म तत्त' ति, बिन्दुरलाक्षणिकस्ततः धर्मतत्त्वं५. मनुस्मृति, ४।३० : पाषण्डिनो विकर्मस्थान्वैडालव्रतिकान् शठान्। धर्मपरमार्थम्। हैतुकान् बकवृत्तींश्च वाइमात्रेणापि नार्चयेत्।। ८. निशीतसूत्र चूर्णी तीसरा भाग पृ० १७ श्लोक २६८०। ६. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ४५२-४५४ : ६. बृहवृत्ति, पत्र ५०२ : 'उज्जुजड्डे' त्ति, ऋजवश्च प्राञ्जलतया सिक्खावए अ लिंगे अ, सत्तूणं च पराजए। जडाश्च तत एव दुष्प्रतिपाद्यतया ऋजुजडाः । पासावगत्तणे चेव, तंतूद्धरणबंधणे।। राष्ट्रधर्म Jain Education Intemational Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशि गौतमीय ३८५ को समझना और उसका पालन करना अत्यन्त दुष्कर होता है हूं, मैने मुनिवेश धारण किया है। क्योंकि वे अपने ही तर्कजाल में उलझे रहते हैं।' २१. (श्लोक ३३) उज्जुपन्ना ऋजु और प्राज्ञ । मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के मुनि 'ऋजु -प्राज्ञ' होते हैं। वे स्वभावतः सरल, सुबोध्य और आचार-प्रवण होते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में ऋजु, वक्र और जड़ का प्रयोग सापेक्ष है। इसमें युगीन मनोदशा का चित्रण है। जड़ के संदर्भ दो है- (१) अव्युत्पन्न व्यक्ति को समझाने में कठिनाई होती है, इसलिए उसे जड़ कहा जा सकता है। (२) अतिव्युत्पन्न व्यक्ति अपने तर्कजाल में उलझा रहता है, इसलिए उसे समझाना भी कठिन होता है। प्राज्ञ ज्ञानी भी होता है और तर्क से परे सत्य है-इसे स्वीकार करने वाला भी होता है। इसलिए वह सुबोध्य होता है । ऋषभ का काल, मध्यवर्ती तीर्थंकरों का काल और महावीर का काल- - इन तीनों काल संधियों में मनुष्य की जो चिन्तनधारा रही उसका निदर्शन इस सूत्र में उपलब्ध है। स्थानाङ्ग में इस स्थिति का चित्रण दुर्गम और सुगम शब्द के द्वारा किया गया है। वहां कहा है कि प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकर के शासन में पांच स्थान दुर्गम होते हैं(१) धर्म-तत्त्व का आख्यान करना । (२) तत्त्व का अपेक्षा की दृष्टि से विभाग करना । (३) तत्त्व का युक्तिपूर्वक निदर्शन करना । (४) उत्पन्न परीषहों को सहन करना । (१) धर्म-तत्त्व का आख्यान करना । (२) तत्त्व का अपेक्षा दृष्टि से विभाग करना । (३) तत्त्व का युक्तिपूर्वक निदर्शन करना । (४) उत्पन्न परीषहों को सहन करना । (५) धर्म का आचरण करना। २०. 'मैं साधु हूं' ऐसा ध्यान आते रहना (गहणत्यं) यह शब्द विशेष विमर्शणीय है । ग्रहण का अर्थ है--- ज्ञान । गहणत्थं — अर्थात् ज्ञान के लिए संयम यात्रा में चलते-चलते कभी परिस्थितिवश मुनि के मन में उच्चावचभाव आ जाए, चित्त की विप्लुति हो जाए तो उसको यह भान हो कि मैं मुनि १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५०२ 'वक्कजड्डा य' त्ति, वक्राश्च वक्रबोधतया जडाश्च तत एव स्वकानेककुविकल्पतो विवक्षितार्थप्रतिपत्त्यक्षमतया वक्रजडाः । २. वही, पत्र ५०२ : 'ऋजुप्रज्ञा:' ऋजवश्च ते प्रकर्षेण जानन्तीति प्रज्ञाश्च सुखेनैव विवक्षितमर्थं ग्राहयितुं शक्यन्त इति ऋजुप्रज्ञाः । ३. ठाणं ५।३२ । ४. ठाणं, ५।३३। अध्ययन २३ : श्लोक ३३-४५ टि० २०-२४ प्रस्तुत श्लोक में वेश की गौणता का प्रतिपादन किया गया है । व्यवहार नय के अनुसार वेश की उपयोगिता पूर्व श्लोक में प्रदर्शित है। निश्चय नय के अनुसार मुक्ति का साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र है, वेश नहीं है । वृत्तिकार ने लिखा है-भरत आदि वेश के बिना ही केवली बन गए। २२. यथाज्ञात उपाय से (जहानायं ) (५) धर्म का आचरण करना। मध्यवर्ती तीर्थङ्करों के शासन में पांच स्थान सुगम होते कुमार-श्रमण केशी ने जानना चाहा कि आप 'लघुभूतविहार' वायु की भांति अप्रतिबद्ध विहार कैसे करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में गौतम ने कहा— राग-द्वेष और स्नेह—ये पाश हैं। अप्रतिबद्ध विहारी इन पाशों से सहज ही बच जाता है। इस संदर्भ में दशवेकालिक चूलिया का यह श्लोक मननीय है वृत्तिकार ने इसका संस्कृतरूप 'यथान्यायं' देकर इसका अर्थ-यथोक्तनीति का अतिक्रमण किया है। इसका संस्कृतरूप 'यथाज्ञातं ' भी हो सकता है। तात्पर्य की दृष्टि से यह अधिक प्रासंगिक है। 1 छत्तीसवें श्लोक में दस को जीतने की बात कही गई है। प्रस्तुत श्लोक के अनुसार वे दस ये हैं- एक आत्मा, चार कषाय और पांच इंद्रियां । ये अजित अवस्था में शत्रु होते हैं। इनको जीतने वाला सब शत्रुओं को जीत लेता है। वृत्तिकार ने आत्मा के दो अर्थ किए हैं—जीव और चित्त। यहां चित्त अर्थ प्रासंगिक है। इसका तात्पर्यार्थ है-निषेधात्मक भाव वाली आत्मा शत्रु होती है । २३. ( श्लोक ४० ) प्रस्तुत श्लोक के प्रश्न की पृष्ठभूमि यह है कि गृहस्थ गृहवास के पाश से बद्ध रहते हैं और अनेक तपस्वी, परिव्राजक भी आश्रम में निवास करके ही साधना करते हैं। न पडिन्नवेज्जा, सयणासणाई, सेज्जं निसेज्जं तह भत्तपाणं । गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिं चि कुज्जा ।। ( चूलिका २।८) २४. उपायों से (उवायओ) वृत्ति में उपाय का अर्थ- सद्भूत भावना का अभ्यास किया है। पाश को छिन्न करने के लिए पृथक्-पृथक् भावनाओं का दीर्घकालीन अभ्यास करना होता है। उदाहरणस्वरूप- राग ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५०३ : ग्रहणं ज्ञानं तदर्थं च कथंचिद् चित्तविप्लवोत्पत्तावपि गृह्णातु —यथाऽहं व्रतीत्येतदर्थ । ६. वही, पत्र ५०४ ज्ञानाद्येव मुक्तिसाधनं न तु लिंगमिति श्रूयते हि भरतादीनां लिंग विनाऽपि केवलज्ञानोत्पत्तिः, निश्चये इति निश्चयनये विचायें, व्यवहारनये तु लिंगस्यापि कथंचिन् मुक्तिसद्भूतहेतुतेष्यत एव। ७. वही, पत्र ५०५ यथान्यायं यथोक्तनीत्यनतिक्रमेण । ८. वही, पत्र ५०४ : आत्मेति-जीवश्चित्तं वा । ६. वही, पत्र ५०५ उपायतः सद्भूतभावनाऽभ्यासात् । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि के पाश को छिन्न करने के लिए अन्यत्व भावना का अभ्यास और द्वेष के पास को छिन्न करने के लिए मैत्री की भावना का अभ्यास आवश्यक है 1 २५. विष तुल्य (विसभक्खीणि) 1 'बिसभक्खीणि' —यह विशेषण है वृत्तिकार ने विशेष्य को गम्य माना है। इसका अर्थ है वह लता विषतुल्य फलों को उत्पन्न करती है।' ३८६ २६. जलों में उत्तम जल ( वारि जलुत्तमं ) प्रस्तुत चरण में 'वारि' और 'जल' दोनों शब्दों का प्रयोग है । 'जलुत्तमं' यह वारि का विशेषण है। इसका अर्थ है— जल में उत्तम जल ।२ २७. साहसिक (साहसिओ) सूत्रकार के समय में इसका अर्थ 'बिना विचारे काम करने वाला' रहा है । तदन्तर इसके अर्थ का उत्कर्ष हुआ और आज इसका अर्थ 'साहस वाला', 'साहसिक' किया जाता है। २८. जो कुप्रवचन के दार्शनिक हैं (कुप्पवयणपाखंडी) प्रवचन शब्द के अनेक अर्थ हैं—शास्त्र, शासन, दर्शन आदि । जो दर्शन एकान्तवादी होता है, उसे कुप्रवचन कहा जाता है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५०६ आर्षत्वात् फलति विषवद् भक्ष्यन्त इति विषभक्ष्याणि - पर्यन्तदारुणतया विषोपमानि फलानीति गम्यते । २. वही, पत्र ५०६ : वारि... पानीयं जलोत्तमं शेषजलापेक्षया प्रधानं । ३. वही, पत्र ५०७ सहसा असमीक्ष्य प्रवर्त्तत इति साहसिकः । अध्ययन २३ : श्लोक ५१-८७ टि० २५-३० वृत्तिकार ने 'पासण्डी' का अर्थ व्रती किया है। प्राचीन साहित्य में पाषण्ड का अर्थ-भ्रमण संप्रदाय है। प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ किसी एक संप्रदाय या विचारधारा को मानने वाला दार्शनिक किया जा सकता है । २९. (श्लोक ८०-८३) प्रस्तुत श्लोकों के स्थान के तीन विशेषण प्रयुक्त हैंक्षेम, शिव और अनाबाध। क्षेम और शिव—दोनों शब्द कल्याण के पर्यायवाची हैं। यहां आरोग्य अवस्था के लिए क्षेम और उपद्रव मुक्त अवस्था के लिए शिव का प्रयोग किया गया है। अनाबाध का अर्थ है -वेदनामुक्त । वृत्तिकार ने व्याधि के अभाव के साथ क्षेमत्व की, जरा और मरण के अभाव के साथ शिवत्व की और वेदना के अभाव के साथ अनाबाधकत्व की संबंध योजना की है। * ३०. पूर्वमार्ग..... पश्चिममार्ग (पुरिमस्स पच्छिमंमी) अर्हत् पार्श्व पूर्ववर्ती हैं और भगवान् महावीर उत्तरवर्ती। इसीलिए पार्श्व के मार्ग के लिए 'पुरिम' शब्द और महावीर के मार्ग के लिए 'पच्छिम' शब्द का प्रयोग किया गया है। वृत्तिकार ने 'पुरिमस्स' का अर्थ आद्य तीर्थंकर ऋषभ और 'पच्छिमंमी' का अर्थ चरम तीर्थंकर महावीर किया है। वही, पत्र ५०८ पाषण्डिनो व्रतिनः । वही, पत्र ५१० : व्याध्यभावेन क्षमत्वं, जरामरणाभावेन शिवत्वं, वेदनाऽभावेनानाबाधकत्वमुक्तमिति । ६. वही, पत्र ५११, ५१२। ४. ५. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउविंसइमं अज्झयणं पवयण-माया चौवीसवां अध्ययन प्रवचन-माता Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख जार्ल सरपेन्टियर के अनुसार सभी आदर्शों में इस ३. एषणा समिति-जीवन-निर्वाह के आवश्यक अध्ययन का नाम 'समिईयो' है।' समवायांग में भी इसका यही उपकरणों-आहार, वस्त्र आदि के ग्रहण और नाम है। नियुक्तिकार ने इसका नाम 'प्रवचन-मात' या उपयोग सम्बन्धी अहिंसा का विवेक। 'प्रवचन-माता' माना है। ४. आदान समिति–दैनिक व्यवहार में आने वाले ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग...--इन पदार्थों के व्यवहरण सम्बन्धी अहिंसा का विवेक। पांच समितियों तथा मनो-गुप्ति, वाग्-गुप्ति और काय-गुप्ति ५. उत्सर्ग समिति-उत्सर्ग सम्बन्धी अहिंसा का विवेक। इन तीनों गुप्तियों का संयुक्त नाम 'प्रवचन-माता' या 'प्रवचन-मात' इन पांच समितियों का पालन करने वाला मुनि जीवाकुल है। (श्लो० १) संसार में रहता हुआ भी पापों से लिप्त नहीं होता।' रत्नत्रयी (सम्यग्-ज्ञान, सम्यग्-दर्शन और सम्यग्-चारित्र) जिस प्रकार दृढ़ कवचधारी योद्धा बाणों की वर्षा होने को भी प्रवचन कहा जाता है। उसकी रक्षा के लिए पांच पर भी नहीं बींधा जा सकता, उसी प्रकार समितियों का सम्यग् समितियां और तीन गुप्तियां माता-स्थानीय हैं। अथवा प्रवचन पालन करने वाला मुनि साधु-जीवन के विविध कार्यों में (मुनि) के समस्त चारित्र के उत्पादन, रक्षण और विशोधन के प्रवर्तमान होता हुआ भी पापों से लिप्त नहीं होता। ये आठों अनन्य साधन हैं अतः इन्हें 'प्रवचन-माता' कहा गया है।" गुप्ति का अर्थ है निवर्तन। वे तीन प्रकार की है इनमें प्रवचन (गणिपिटक द्वादशाङ्ग) समा जाता है। १. मनोगुप्ति-असत् चिन्तन से निवर्तन। इसलिए इन्हें 'प्रवचन-मात' भी कहा जाता है। (श्लो० ३)। २. वचनगुप्ति-असत् वाणी से निवर्तन। मन, वाणी और शरीर के गोपन, उत्सर्ग या विसर्जन को ३. कायगुप्ति-असत् प्रवृत्ति से निवर्तन। गुप्ति और सम्यग् गति, भाषा, आहार की एषणा, उपकरणों जिस प्रकार क्षेत्र की रक्षा के लिए बाड़, नगर की रक्षा का ग्रहण-निक्षेप और मल-मूत्र आदि के उत्सर्ग को समिति के लिए खाई या प्राकार होता है, उसी प्रकार श्रामण्य की कहा जाता है। गुप्ति निवर्तन है और समिति सम्यक् प्रवर्तन। सुरक्षा के लिए, पाप के निरोध के लिए गुप्ति है। प्रथम श्लोक में इनका पृथक-विभाग है किन्तु तीसरे श्लोक में महाव्रतों की सुरक्षा के तीन साधन हैंइन आठों को समिति भी कहा गया है। १. रात्रि-भोजन की निवृत्ति। समिति का अर्थ है सम्यक्-प्रवर्तन। सम्यक् और असम्यक् २. आठ प्रवचन-माताओं में जागरूकता। का मापदण्ड अहिंसा है। जो प्रवृत्ति अहिंसा से संवलित है वह ३. भावना (संस्कारपादान-एक ही प्रवृत्ति का पुनः पुनः समिति है। समितियां पांच हैं अभ्यास)। समिति-गमनागमन सम्बन्धी अहिंसा का इस प्रकार महाव्रतों की परिपालना समिति-गुप्ति-सापेक्ष विवेक। है। इनके होने पर महाव्रत सुरक्षित रहते हैं और न होने पर २. भाषा समिति-भाषा सम्बन्धी अहिंसा का विवेक। असुरक्षित। १. दी उत्तराध्ययन सूत्र, पृष्ठ ३६५। ५. मूलराधना, ६।१२०० : २. समवायांग, समवाय ३६। एदांहि सदा जुत्तो, समिदीहिं जगम्मि विहरमाणे हु। ३. (क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ४५८ : हिंसादिहिं न लिप्पइ, जीवणिकायाउले साहू।। जाणगसरीरभविए तव्वइरित्ते अ भायणे दव्वं । ६. वही, ६।१२०२: भावंमि अ समिईओ मायं खलु पवयणं जत्थ ।। सरवासे वि पंडते, जह दढकवचो ण विज्झदि सरेहि। (ख) वही, गाथा ४५६ : तह समिदीहिं ण लिप्पई, साधू काएसु इरियंतो।। अट्ठसवि समिईसु अ दुवालसंगं समोअरइ जम्हा। ७. वही, ६१११८६: तम्हा पवयणमाया अज्झयणं होइ नायव्व।। छेत्तस्स वदी णयरस्स, खाइया अहव होइ पायारो। मूलाराधना, आश्वास ६, श्लोक ११८५; मूलाराधना दर्पण, पृष्ठ तह पावस्स णिरोहो, ताओ गुत्तीओ साहुस्स ।। ११७२ : प्रवचनस्य रत्नत्रयस्य मातर इव पुत्राणां मातर इव वही, ६।११८५ : सम्यग्दर्शनादीनां अपायनिवारणपरायणास्तिस्मो गुप्तयः, पंचसमितयश्च। तेसिं चेव वदाणं, रक्ख8 रादिभोयणणियत्ती। अथवा प्रवचनस्य मुनेश्चारित्रमात्रस्योत्पादनरक्षणविशोधनविधानात् तास्तथा अट्ठप्पवयणमादाओ भावणाओ य सव्वाओ।। व्यपदिश्यन्ते। विजयोदया वृत्ति, पृष्ठ ११७२, : सत्यां रात्रिभोजननिवृत्ती प्रवचनमातृकासु भावनासु वा सतीषु हिंसादिव्यावृत्तत्वं भवति। न तास्वसतीषु इति । Jain Education Intemational Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८९ अध्ययन २४ : आमुख यह अध्ययन साधु आचार का प्रथम और अनिवार्य अंग है। कहा गया है कि चदह पूर्व पढ़ लेने पर भी जो मुनि प्रवचन - माता में निपुण नहीं है, उसका ज्ञान अज्ञान है। जो व्यक्ति कुछ नहीं जानता और प्रवचन माताओं में निपुण है, सचेत है, वह व्यक्ति स्व-पर के लिए त्राण है। होनी चाहिए। ज्यों-त्यों, जहां कहीं वह उत्सर्ग नहीं कर सकता। जहां लोगों का आवागमन न हो, जहां चूहों आदि के बिल न हों, जो त्रस या स्थावर प्राणियों से युक्त न हो ऐसे स्थान पर मुनि को उत्सर्ग करना चाहिए। यह विधि अहिंसा की पोषक तो हैं ही किन्तु सभ्यजन सम्मत भी है । (श्लोक १५, १६, १७, (१८) मुनि क्या खाए ?, कैसे बाले ?, कैसे चले ?, वस्तुओं का व्यवहरण कैसे करे ? उत्सर्ग कैसे करे ?- इसका स्पष्ट विवेचन इस अध्ययन में दिया गया है। मुनि जब चले तब गमन की क्रिया में उपयुक्त हो जाए, एकतान हो जाए। प्रत्येक चरण पर उसे यह भान रहे कि “मैं चल रहा हूं।” वह चलने की स्मृति को क्षण मात्र के लिए भी न भूले। युग-मात्र भूमि को देख कर चले । चलते समय अन्यान्य विषयों का वर्जन करे। (श्लो० ६, ७, ८) प्रवचन -माता मुनि झूठ न बाले । झूठ के आठ कारण हैं—क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मौखर्य और विकथा । मुनि इनका वर्जन करे। यह भाषा समिति का विवेक है। मानसिक तथा वाचिक संक्लेशों से पूर्णतः निवृत्त होना मनोगुप्ति तथा वचनगुप्ति है। मनोयोग चार प्रकार का है १. सत्य मनोयाग । २. असत्य मनोयोग । वचनयोग चार प्रकार का है-१. सत्य वचनयोग । २. असत्य वचनयोग । ४. व्यवहार वचनयोग | काययोग — स्थान, निषीदन, शयन, उल्लंघन, गमन और इन्द्रियों के व्यापार में असत् अंश का वर्जन करना काययोग है, ३. मिश्र वचनयोग । मुनि शुद्ध एषणा करे । गवेषणा, ग्रहणैषणा और भोगेषणा कायगुप्ति है । के दोषों का वर्जन करे। (श्लो० ११, १२) मुनि को प्रत्येक वस्तु याचित मिलती है। उसका पूर्ण उपयोग करना उसका कर्त्तव्य है । प्रत्येक पदार्थ का व्यवहरण उपयोग - सहित होना चाहिए। वस्तु को लेने या रखने में अहिंसा की दृष्टि होनी चाहिए। (श्लोक० १३, १४ ) मुनि के उत्सर्ग करने की विधि भी बहुत विवेकपूर्ण ३. मिश्र मनोयोग । ४. व्यवहार मनोयोग । सम्पूर्ण दृष्टि से देखा जाए तो यह अध्ययन समूचे साधु जीवन का उपष्टम्भ है। इसके माध्यम से ही श्रामण्य का शुद्ध परिपालन संभव है । जिस मुनि की प्रवचन-माताओं के पालन में विशुद्धता है उसका समूचा आचार विशुद्ध है। जो इसमें स्खलित होता है वह समूचे आचार में स्खलित होता है। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. अद्र पवयणमायाओ समिई गुत्ती तहेव य । पंचैव य समिईओ तओ गुत्तीओ आहिया २. इरियाभासेसणादाणे उच्चारे समिई इ मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती य अट्ठमा ।। ३. एयाओ अट्ठ समिईओ समासेण वियाहिया । दुवालसंग जिणक्खाय मायं जत्थ उ पवयणं ।। ४. आलंबणेण कालेण मग्गेण जयणाइ य । चउकारणपरिसुद्धं संजए इरियं रिए । । ५. तत्थ आलंबणं नाणं दंसणं चरणं तहा। काले य दिवसे दुत्ते मग्गे उप्पहवज्जिए । । ६. दव्वओ खेत्तओ चेव ८. ७. दव्यओ चक्खुसा पेहे जुगमित्तं च खेत्तओ कालओ जाव रीएज्जा उवउत्ते य भावओ ।। चउविंसइमं अज्झयणं चौवीसवां अध्ययन : पवयण - माया प्रवचन - माता कालओ भावओ तहा। जयणा चउव्विहा वृत्ता तं मे कित्तयओ सुण ।। इंदियत्थे विवज्जित्ता संज्झायं चेव पंचहा । तमुत्ती तत्पुरक्कारे उवउत्ते इरियं रिए । । संस्कृत छाया अष्टौ प्रवचनमातरः समिती गुप्तयस्तचैव च पंचैव य समितयः तिम्रो गुप्तय आख्याताः । ' ईर्याभाषैषणादाने उच्चारे समितिरिति । मनोगुप्तिर्वयोगुप्तिः कायगुप्तिश्वाष्टमी || एता अष्टी समितयः समासेन व्याख्याताः । द्वादशाङ्गं जिनाख्यातं मातं यत्र तु प्रवचनम् ।। आलम्बनेन कालेन मार्गेण यतनया च । चतुष्कारणपरिशुद्ध संयत ईय रीयेत । तत्रालम्बनं ज्ञानं दर्शनं चरणं तथा । कालश्च दिवस उक्तः मार्ग उत्पथवर्जितः ।। दव्यतः क्षेत्रतश्चैव कालतो भावतस्तथा यतना चतुर्विधा उक्ता तां मे कीर्तयतः शृणु ।। दव्यतश्चक्षुषा प्रेक्षेत युगमा व क्षेत्रतः। कालतो यावद्रीयेत उपयुक्तश्च भावतः ।। इन्द्रियार्थान विवर्ज्य स्वाध्यायं चैव पंचधा । तन्मूर्त्तिः तत्पुरस्कारः उपयुक्त ईय रीयेत ।। हिन्दी अनुवाद आठ प्रवचन-माताएं' हैं समिति और गुप्ति । समितियां पांच और गुप्तियां तीन आख्यात हैं। ईय समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान-समिति, उच्चार समिति, मनो-गुप्ति, वचन- गुप्ति और आठवीं काय गुप्ति है । ये आठ समितियां संक्षेप में कही गई हैं। इनमें जिन भाषित द्वादशाङ्ग-रूप प्रवचवन समाया हुआ है। संयमी मुनि आलम्बन, काल, मार्ग और यतनाइन चार कारणों से परिशुद्ध ईर्या (गति) से चले । उनमें ईर्ष्या का आलम्बन ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। उनका काल दिवस है और उत्पथ का वर्जन करना उसका मार्ग है। | द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से यतना चार प्रकार की कही गई है। वह मैं कह रहा हूं, सुनो। . द्रव्य से आंखों से देखे। क्षेत्र से युग मात्र (गाड़ी के जुए जितनी) * भूमि को देखे। काल से जब तक चले तब तक देखे । भाव से उपयुक्त (गमन में दत्तचित्त रहे। इन्द्रियों के विषयों और पांच प्रकार के स्वाध्याय का वर्जन कर, ईर्या में तन्मय हो, उसे प्रमुख बना उपयोग पूर्वक चले।" Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-माता ६. कोहे माणे च मायाए लोभे य उवउत्तया । हासे भए मोहरिए विगहासु तहेव च ॥ १०. एयाइं अट्ठ ठाणाई परिवज्जित्तु संजए । असावज्जं मियं काले भासं भासेज्ज पन्नवं । ११. गवेसणाए गहने य परिभोगेसणा व जा । आहारोवहिसेज्जाए एए तिन्नि विसोहए ।। १२. उग्गमुष्यायणं पठमे बीए सोहेज्ज एसणं । परिभोयंमि चउक्कं विसोहेज्ज जयं जई ।। १३. ओहोवहोवग्गहियं भंडगं दुविहं मुणी गिण्हंतो निक्खिवंतो य पउंजेज्ज इमं विहिं ।। १४. चक्खुसा पडिलेहित्ता पमज्जेज्ज जयं जई। आइए निक्खिवेज्जा वा दुहओ वि समिए सया ।। १५. उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाणजल्लियं । आहारं उवहिं देहं अन्नं वावि तहाविहं ।। १६. अणावायमसंलोए अणावाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए आवाए चेय संलोए ।। ३९१ क्रोधे माने च मायायां लोभेोपयुक्तता हासे भये मौखर्ये विकथासु तथैव च ।। एतान्यष्टौ स्थानानि परिवर्ज्य संयतः । असावद्यां मितां काले भाषां भाषेत प्रज्ञावान् ।। गवेषणायां ग्रहणे च परिभोगैषणा च या । आहारोपधिशय्यायां एतास्तिस्मै विशोधयेत् ।। उद्गमोत्पादनं प्रथमाया द्वितीयायां शोधयेदेषणामु परिभोगे चतुष्कं विशोधयेद्यतं यतिः ।। ओघोपध्यौपग्रहिकं भाण्डकं द्विविधं मुनिः । गृणन्निक्षिपश्च प्रयुजीतेमं विधिम् ।। चक्षुषा प्रतिलिख्य प्रमार्जयेद् यतं यतिः । आददीत निक्षिपेद् वा द्वावपि समितः सदा ।। उच्चारं प्रस्रवणं क्ष्वेलं सिङ्घाणं जल्लकम् । आहारमुपधि देत अन्यद्वापि तथाविधम् ।। अनापातमसंलोकम् आनापातं चैव भवति संलोकम् । आपातमसंतोक आपातं चैव संलोकम् ।। अध्ययन २४ : श्लोक ६-१६ क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता और विकथा के प्रति सावधान रहे—इनका प्रयोग न करे । प्रज्ञावान् मुनि इन आठ स्थानों का वर्जन कर यथा समय निरवद्य और परिमित वचन बोले । आहार, उपधि और शय्या के विषय में गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगेषणा- इन तीनों का विशोधन करे । यतनाशील यति प्रथम एषणा ( गवेषणा - एषणा) में उद्गम और उत्पादन दोनों का शोधन करे। दूसरी एषणा ( ग्रहण - एषणा ) में एषणा ( ग्रहण) सम्बन्धी दोषों का शोधन करे और परिभोगेषणा में दोष-चतुष्क ( संयोजना, अप्रमाण, अंगार-धूम और कारण ) का शोधन करे। मुनि ओघ उपधि ( सामान्य उपकरण) और औपग्रहिक - उपधि (विशेष उपकरण) दोनों प्रकार के उपकरणों को लेने और रखने में इस विधि का प्रयोग करे सदा सम्यक् प्रवृत्त यति दोनों प्रकार के उपकरणों का चक्षु से प्रतिलेखन कर तथा रजोहरण आदि से प्रमार्जन कर संयमपूर्वक उन्हें ले और रखे। उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, नाक का मैल, मैल, आहार, उपधि, शरीर या उसी प्रकार की दूसरी कोई उत्सर्ग करने योग्य वस्तु का उपयुक्त स्थण्डिल में उत्सर्ग करे । स्थण्डिल चार प्रकार के होते हैं १. अनापात असंलोक जहां लोगों का आवागमन न हो, वे दूर से भी न दीखते हों। २. अनापात -संलोक जहां लोगों का आवागमन न हो, किन्तु वे दूर से भी न दीखते हों। ३. आपात असंलोक जहां लोगों का आवागमन हो, किन्तु वे दूर से न दीखते हों । ४. आपात -संलोक-जहां लोगों का आवागमन भी हो, और वे दूर से दीखते भी हों । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन २४ :श्लोक १७-२५ १७.अणावायमसंलोए परस्सणुवघाइए। समे अज्झुसिरे यावि अचिरकालकयंमि य।। ३९२ अनापातेऽसंलोके परस्याऽनुपघातिके। समेऽशुषिरे चापि अचिरकालकृते च।। जो स्थण्डिल अनापात-असंलोक, पर के लिए अनुपघातकारी, सम, अशुषिर (पोल या दरार रहित) कुछ समय पहले ही निर्जीव बना हुआ १८. वित्थिण्णे दूरमोगाढे नासन्ने बिलवज्जिए। तसपाणबीयरहिए उच्चाराईणि वोसिरे।। विस्तीर्णे दूरमवगाढे नासन्ने बिलवर्जिते। त्रसप्राणबीजरहिते उच्चारादीनि व्युत्सृजेत् ।। कम से कम एक हाथ विस्तृत तथा नीचे से चार अंगुल की निर्जीव परत वाला, गांव आदि से दूर, बिल रहित और त्रस प्राणी तथा बीजों से रहित हो-उसमें उच्चार आदि का उत्सर्ग करे।" ये पांच समितियां संक्षेप में कही गई हैं। यहां से क्रमशः तीन गुप्तियां कहूंगा। १६. एयाओ पंच समिईओ समासेण वियाहिया। एत्तो य तओ गुत्तीओ वोच्छामि अणुपुव्वसो।। एताः पंचसमितयः समासेन व्याख्याताः। इतश्च तिस्मे गुप्ती: वक्ष्याम्यनुपूर्वशः।। २०.सच्चा तहेव मोसा य सच्चामोसा तहेव य। चउत्थी असच्चमोसा मणगुत्ती चउव्विहा ।। सत्या तथैव मृषा च सत्यामृषा तथैव च। चतुर्थ्यसत्यामृषा मनोगुप्तिश्चतुर्विधा ।। सत्या, मृषा, सत्यामृषा और चौथी असत्यामृषाइस प्रकार मनो-गुप्ति के चार प्रकार हैं। २१.संरंभसमारंभे आरंभे य तहेव य। मणं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई ।। संरम्भसमारम्भे आरम्भे च तथैव च। मनः प्रवर्तमानं तु निवर्तयेद् यतं यतिः।। यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान मन का संयमपूर्वक निवर्तन करे। सत्या, मृषा, सत्यामृषा और चौथी असत्यामृषाइस प्रकार वचन-गुप्ति के चार प्रकार हैं। २२.सच्चा तहेव मोसा य सच्चामोसा तहेव य। चउत्थी असच्चमोसा वइगुत्ती चउव्विहा।। सत्या तथैव मृषा च सत्यामृषा तथैव च। चतुर्थ्यसत्यामृषा वचोगुप्तिश्चतुर्विधा।। २३.संरंभसमारंभे आरंभे य तहेव य। वयं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई।। संरम्भसमारम्भे आरम्भे च तथैव च। वचः प्रवर्तमानं तु निवर्तयेद् यतं यतिः।। यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान वचन का संयमपूर्वक निवर्तन करे। खड़ा होने, बैठने, लेटने, उल्लंघन-प्रलंघन करने और इन्द्रियों के व्यापार में २४.ठाणे निसीयणे चेव तहेव य तुयट्टणे। उल्लंघणपल्लंघणे इंदियाण य झुंजणे।। स्थाने निषदने चैव तथैव च त्चगवर्तने। उल्लङ्घनप्रलयने इन्द्रियाणां च योजने।। संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान काया या यति संयमपूर्वक निवर्तन करे।२ २५.संरंभसामरंभे आरंभम्मि तहेव य। कायं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई।। संरम्भसमारम्भे आरम्भे तथैव च। कायं प्रवर्तमानं तु निवर्तयेद् यतं यतिः।। Jain Education Intemational Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-माता ३९३ अध्ययन २४ : श्लोक २६,२७ एताः पंच समितयः चरणस्य च प्रवर्तने। गुप्तयो निवर्तने उक्ताः अशुभार्थेभ्यः सर्वशः ।। ये पांच समितियां चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं और तीन गुप्तियां सब अशुभ विषयों से निवृत्ति करने के लिए हैं।३ २६.एयाओ पंच समिईओ चरणस्स य पवत्तणे। गुत्ती नियत्तणे वुत्ता असुभत्थेसु सव्वसो।। २७.एया पवयणमाया जे सम्म आयरे मुणी। से खिप्पं सव्वसंसारा विप्पमुच्चई पंडिए।। एताः प्रवचनमातः यः सम्यगाचरेन्मुनिः। स क्षिप्रं सर्वसंसारात् विप्रमुच्यते पण्डितः।। जो पण्डित मुनि इस प्रवचन-माताओं का सम्यक् आचरण करता है, वह शीघ्र ही भव-परंपरा से मुक्त हो जाता है। –त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। —ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. आठ प्रवचन माताएं (अट्ठ पवयणमायाओ) 'मायाओ' शब्द के 'माता' और 'मातरः 'ये दो संस्कृत रूप किए जा सकते हैं। पांच समितियों और तीन गुप्तियोंइन आठों में सारा प्रवचन समा जाता है, इसलिए इन्हें 'प्रवचन-माता' कहा जाता है। इन आठों से प्रवचन का प्रसव होता है, इसलिए इन्हें 'प्रवचन-माता' कहा जाता है। पहले में 'समाने' का अर्थ है दूसरे में 'मां' का। इसी अध्ययन के तीसरे श्लोक में 'समाने' के अर्थ में प्रयोग है। 'मां' का अर्थ वृत्ति में ही मिलता है। भगवती आराधना के अनुसार समिति और गुप्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वैसी ही रक्षा करती है जैसे माता अपने पुत्र की । इसलिए समिति गुप्ति को माता कहा गया है। २. आठ समितियां (अट्ठ समिईओ) अध्ययन २४ : प्रवचन-माता प्रस्तुत श्लोक में 'समितियां' आठ बतलाई गई हैं। प्रश्न होता है कि समितियां पांच ही हैं तो यहां आठ का कथन क्यों ? टीकाकार ने इसका समाधान करते हुए कहा है कि 'गुप्तियां' केवल निवृत्त्यात्मक ही नहीं होती, किन्तु प्रवृत्त्यात्मक भी होती हैं। इसी अपेक्षा से उन्हें समिति कहा गया है। जो समित होता है वह नियमतः गुप्त होता है और जो गुप्त होता है वह समित होता भी है और नहीं भी । ३. (दुवालसंगं... मायं जत्थ उपवयणं) आठ प्रवचन माताओं में जिनभाषित द्वादशांगी समाई हुई है । वृत्तिकार ने इसकी संगति इस प्रकार की है 9. ४. ★ ईर्या समिति में प्राणातिपातविरमण व्रत का अवतरण होता है। शेष सारे व्रत उसकी रक्षा के लिए हैं। बृहद्वृत्ति, पत्र ५१३-५१४ ईर्यासमित्यादयो माता अभिधीयन्ते 'मातम्' - अन्तरवस्थितं 'खलु' निश्चितं 'प्रवचनं' द्वादशाङ्गं 'यत्र' इति यासु । तदेवं निर्युक्तिकृता मातशब्दो निक्षिप्तः, यदा तु 'माय' त्ति पदस्य मातर इति-संस्कारस्तदा द्रव्यमातरो जनन्यो भावमातरस्तु समितयः, एताभ्यः प्रवचनप्रसवात्, उक्तं हि 'एया पवयणमाया दुवालसंगं पसूयातो' त्ति । २. उत्तरज्झयणाणि २४३: दुसावसंगं जिणक्खायं, मायं जत्थ उ पवयणं । ३. भगवती आराधना, गाथा १२०५ : एदाओ अट्ठपवयणमादाओ णाणदंसणचरित्तं । रक्खति सदा मुणिओ माया पुत्तं व पयदाओ ।। बृहद्वृत्ति, पत्र ५१४ : गुप्तीनामपि 'प्रवचनविधिना मार्गव्यवस्थापनमुन्मार्गगमननिवारणं गुप्ति' रिति वचनात्कथंचित्सच्चेष्टात्मकत्वात्समितिशब्दवाच्यत्वमस्तीत्येवमुपन्यासः, यत्तु भेदेनोपादानं तत्समितीनां इसलिए उनका भी इसमें अन्तर्भाव हो जाता है। ★ भाषा समिति में सावद्यवचन का परिहार होता है। वह निरवद्यवचन रूप होती है। इसमें सारा वचनात्मकश्रुत गृहीत हो जाता है। द्वादशांग प्रवचन उससे बहिर्भूत नहीं है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप से यह भी माना है कि पांच समितियां और तीन गुप्तियां चारित्र रूप हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र का अविनाभावी संबंध है। इन तीनों के अतिरिक्त द्वादशांगी कुछ है नहीं। इसलिए इन आठों में सारा प्रवचन समाया हुआ है । " ४. युग मात्र (गाड़ी के जुए जितनी ) ( जुगमित्तं) 'युग' का अर्थ है शरीर या गाड़ी का जुआ । चलते समय साधु की दृष्टि युग मात्र होनी चाहिए अर्थात् शरीर या गाड़ी के जुए जितनी लम्बी होनी चाहिए। जुआ जैसे प्रारंभ में संकड़ा और आगे से विस्तृत होता है वैसे ही साधु की दृष्टि होनी चाहिए। युग मात्र का दूसरा अर्थ है 'चार हाथ प्रमाण' । इसका तात्पर्य है कि मुनि चार हाथ प्रमाण भूमि को देखता हुआ चले विशुद्धिमार्ग में भी भिक्षु को युगमात्रदर्शी कहा है – “इसलिए लोलुप स्वभाव को त्याग, आंखें नीची किए, युगमात्रदर्शी — चार हाथ तक देखनेवाला हो । धीर (भिक्षु ) संसार में इच्छानुरूप विचरने का इच्छुक सपदानचारी बने। आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी युगमात्र भूमि को देखकर चलने का विधान है। मिलाइए - दसवे आलियं, ५1१1३ का टिप्पण । कहीं-कहीं 'युग' के स्थान पर 'कुक्कुट के उड़ान की दूरी जितनी भूमि पर दृष्टि डालकर चलने' की बात मिलती ५. ६. ७. प्रवीचाररूपत्वेन गुप्तीनां प्रवीचाराप्रवीचारात्मकत्वेनान्योऽन्यं कथंचिदभेदात्, तथा चागमः "समिओ णियमा गुत्तो गुत्तो समियत्तणंमि भइयव्वो । कुसलवइमुदीरंतो जं बइगुत्तोऽवि समिओऽवि ।।" बृहद्वृत्ति, पत्र ५१५ । दशवैकालिक, ५1१1३, जिनदास चूर्णि पृ० १६८ । बृहद्वृत्ति, पत्र ५१५ प्रेक्षेत । ८. विशुद्धिमार्ग १, २, पृ० ६८ : लोलुप्पचारंच पहाय तस्मा ओक्खित्तचक्खू युगमत्तदस्सी । आकङ्खमानो भुवि सेरिचारं चरेय्य धीरो सपदानचारं ।। ६. अष्टांगहृदय, सूत्रस्थान २।३२ विचरेद् युगमात्रदृक् । 'युगमात्रं च' चतुर्हस्तप्रमाणं प्रस्तावात्क्षेत्रं Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-माता ३९५ अध्ययन २४ : श्लोक ८-१३ दि० ५-८ है। इस प्रकार चलने वाले भिक्षु 'कौक्केटिक' कहलाते हैं।' ५. हास्य- हास्य के वशीभूत होकर व्यक्ति मजाक-मजाक ५. (श्लोक ८) में कुलीन व्यक्ति को भी अकुलीन बता देता प्रस्तुत श्लोक में गमनयोग का निर्देश है। चलते समय भी ध्यान किया जा सकता है। ध्यान का लक्षण है उपयुक्त ६. भय- भय से वशीभूत होकर व्यक्ति अपने द्वारा होना लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित्त, दत्तचित्त अथवा समर्पित आचरित अनाचार के विषय में पूछे जाने होना। उपयुक्त अवस्था में व्यक्ति अपने लक्ष्य के साथ तन्मूर्ति पर कहता है-मैं उस समय वहां था ही तन्मय हो जाता है। गमनयोग के समय गमन करने वाला और नहीं। गति दो नहीं रहते। गमन करने वाला स्वयं गति बन जाता है। ७. मौखर्य- वाचालता के वशीभूत होकर व्यक्ति दूसरों उपयुक्त अवस्था में केवल लक्ष्य ही सामने रहता है, शेष विषय की निन्दा में मशगूल हो जाता है। गौण हो जाते हैं। इन दोनों अर्थों का बोध कराने के लिए ८. विकथा- विकथा में लीन व्यक्ति स्त्रियों के सौन्दर्य, तम्मुत्ति और तप्पुरक्कार-इन दो विशेषणों का प्रयोग किया लावण्य, कटाक्ष आदि की प्रशंसा करने लग गया है। जाता है। वृत्तिकार ने मूर्ति का अर्थ शरीर किया है। उनके स्थानांग १०/६० में झूठ बोलने के दस कारणों का अनुसार शरीर और मन-दोनों गमन के प्रति तत्पर हो जाते निर्देश है। उनमें प्रेयस्-निश्रित, द्वेष-निश्रित और हैं और उस समय वचन का व्यापार भी नहीं होता। उपघात-निश्रित-ये तीन अधिक हैं। मौखर्य का वहां उल्लेख बौद्धों की भाषा में इसे 'स्मति-प्रस्थान' कहा जा सकता है। नहीं है। ६. (श्लोक ९-१०) ७. परिभोगैषणा में दोष-चतुष्क (परिभोयंमि चउक्क) प्रस्तुत दो श्लोकों में वाणी का विवेक बतलाया गया है। इस चरण में यह बताया गया है कि मुनि परिभोग-एषणा चर्णिकार ने कहा है पहले देखों, समीक्षा करो, फिर वाणी का में चार वस्तुओं—(१) पिंड, (२) शय्या-वसति, (३) वस्त्र प्रयोग करो। समीक्षापूर्वक बोलना ही वाणी का विवेक है- और (४) पात्र- का विशोधन करे। 'पुव्यं बुद्धीए पासेत्ता, पच्छा वक्कमुदाहरे। क्रोध आदि आठ दशवैकालिक (६।४७) में अकल्पनीय पिंड आदि चारों कारणों से वाणी का विवेक विनष्ट हो जाता है। वे आठ कारण को लेने का निषेध किया गया है। प्रकारान्तर से चतुष्क के ये हैं द्वारा संयोजना आदि दोषों का ग्रहण किया गया है। यद्यपि १. क्रोध- क्रोध के आवेश में व्यक्ति झूठ बोल देता भोजन के संयोजन, अप्रमाण, अंगार, धूम, कारण आदि पांच है—पिता अपने पुत्र से कह देता है—तु दोष हैं, फिर भी शान्त्याचार्य ने अंगार और धूम दोनों को मेरा पुत्र नहीं है। एक-कोटिक मान यहां इनकी संख्या चार मानी है। २. मान- मान के आवेश में व्यक्ति झूठ बोल देता ८. (ओहोवहोवग्गहियं) है—वह कहता है—जाति, ऐश्वर्य आदि में उपधि दो प्रकार के होते हैं-ओघ उपधि और औपग्रहिक मेरी बराबरी करने वाला कोई नहीं है। उपधि। ३. माया– माया के आवेश में व्यक्ति अपरिचित स्थान जो स्थायी रूप से अपने पास रखा जाता है उसे में दूसरों को संशय में डालने के लिए झूठ 'ओघ-उपधि' और जो विशेष कारणवश रखा जाता है उसे बोल देता है-वह कह देता है-न यह 'औपग्रहिक-उपधि' कहा जाता है। जिनकल्पिक मुनियों के मेरा पुत्र है और न मैं इसका पिता हूं। बारह, स्थविरकल्पिक मुनियों के चौदह और साध्वियों के ४. लोभ-लोभ के आवेश में व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं पच्चीस ओघ-उपधि होते हैं। इससे अधिक उपधि रखे जाते को अपनी बताने लगता है। हैं, वे सब औपग्रहिक होते हैं।" १. पाणिनि अष्टाध्यायी ४।४।४६। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५१६ : ततश्च तस्यामेवेर्यायां मूर्तिः-शरीरमाद्व्यप्रियमाणा यस्यासी तन्मूर्तिः ।....अनेन कायमनसोस्तत्परातोक्ता, वचसो हि तत्र व्यापार एव न समस्ति। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६७। बृहवृत्ति, पत्र ५१६ । वही, पत्र ५१७ : ‘परिभोग' इति परिभोगैषणायां चतुष्क पिण्डशय्यावस्त्रपात्रात्मकम्, उक्तं हि-'पिंड सेज्जं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य' त्ति, विशोधयेत्, इह चतुष्कशब्देन, तद्विषय उपभोग उपलक्षितः, ततस्तं विशोधयेदिति, कोऽर्थः?-उद्गमादिदोषत्यागतः शुद्धमेव चतुष्कं परिभुजीत्, यदि वोद्गमादीनां दोषोपलक्षणत्वात् 'उग्गम' त्ति उद्गमदोषानू 'उप्पायणं' ति उत्पादनादोषान् ‘एसण' त्ति एषणादोषान विशोधयेत्, 'चतुष्क च' संयोजनाप्रमाणागारधूकारणात्मकम्, अड़्गारधूमयोर्मोहनीयान्तर्गतत्वेनैकतया विवक्षितत्वात्। ६. ओघनियुक्ति, गाथा ६६७ : ओहे उवग्गहँमि य दुविहा उवही य होइ नायव्योः ७. वही, गाथा ६७१-६७७। Jain Education Intemational Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३९६ अध्ययन २४ : श्लोक १३-२६ टि० ६-१३ ९. उपकरणों को (भंडग) योगों के सन्दर्भ में संरम्भ, सभारम्भ और आरम्भ की चर्चा है। इसका अर्थ है-उपकरण। ओघनिर्यक्ति के अनसार तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार कषाययुक्त प्रवृत्ति संरम्भ, परितापनायक्त उपधि, उपग्रह, संग्रह, प्रग्रह अवग्रह, भंडक उपकरण और प्रवृत्ति समारम्भ और प्राणव्यपरोपणयुक्त प्रवृत्ति आरम्भ है। करण--ये सब पर्यायवाची हैं। बृहद्वत्तिकार के मानसिक, वाचिक और कायिक हिंसा १०. प्रतिलेखन कर (पडिलेहित्ता) के सन्दर्भ में संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ को इस प्रकार समझाया हैयह सामयिक शब्द है। इसका अर्थ है-सूक्ष्मता से निरीक्षण करना। सामान्यतः यह वस्त्र, पात्र, भूमी आदि के १. मानसिक हिंसानिरीक्षण के लिए प्रयुक्त होता है। संरंभ-किसी की मृत्यु का मानसिक संकल्प। समारंभ--पर-पीड़ाकारक उच्चाटन आदि का हेतुभूत ११. (श्लोक १६-१८) चिन्तन। ____ इन श्लोकों में परिष्ठापन विधि का समुचित निर्देश हुआ आरम्भ----अत्यन्त क्लेश के कारण दूसरे के प्राणों का है। मुनि कहां और कैसे परिष्टापन करे, इसकी विधि बतलाते अपहरण करने में समर्थ अशुभ ध्यान । हुए कहा है कि गांव और उद्यानों से दूरवर्ती स्थानों में तथा २. वाचिक हिंसाकुछ समय पूर्व दग्ध स्थानों में मल आदि का विसर्जन करे। संरंभ-दूसरों को मारने में क्षम क्षुद्रविद्याओं का जाप पकाल पूर्वक दग्ध-स्थान हा सवथा आचत्त करने वाली संकल्प सूचक ध्वनि। (जीव-रहित) होते हैं। जो चिरकाल दग्ध होते हैं, वहां पृथ्वीकाय सभारम्भ-पर पीड़ाकारक मंत्रों का परावर्तन। आदि के जीव पुनः उत्पन्न हो जाते हैं। आरंभ--दूसरों के प्राणव्यपरोपण करने में समर्थ मन्त्र पन्द्रह कर्मादानों में 'दव-दाह' एक प्रकार है। यह दो आदि का जा प्रकार का होता है ३. कायिक हिंसा(१) व्यसन से--अर्थात् फल की उपेक्षा किये बिना ही संरंभ-प्रहार करने की दृष्टि से लाठी, मुष्टि आदि उठाना। वनों को अग्नि से जला डालना। सभारंभ-दूसरों के लिए पीड़ादायक मुष्टि आदि का (२) पुण्य-बुद्धि से-अर्थात् कोई व्यक्ति करते समय अभियान यह कहकर मरे की मेरे मरने के बाद इतने धर्म-दीपोत्सव आरम्भ-प्राणि-वध में शरीर की प्रवृत्ति। अवश्य करना। ऐसी स्थिति में भी वन आदि जलाये जाते हैं। चूर्णिकार ने एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है - अथवा धान्य आदि की समृद्धि के लिए खेतों में उगे हुए तृण संकल्प: संरम्भः, परितापकरो भवेत् समारम्भः। आदि जलाये जाते थे। आरम्भ: व्यापत्तिकरः, शुद्धनयानां तु सर्वेषाम् ।। उपर्युक्त प्रवृत्तियां उस समय प्रचलित थीं, अतः मुनियों १३. (श्लोक २६) को दग्ध-स्थान सहज मिल जाते थे। १२. (श्लोक २०-२५) प्रस्तुत श्लोक में प्रसंग में वृत्तिकार ने गुप्ति के विषय में प्रस्तुत प्रकरण में मानसिक, वाचिक और कायिक अहिंसा आचार्य गन्धहस्ती का मत प्रस्तुत करते हुए लिखा है राग-द्वेष रहित मन की प्रवृत्ति, काया की प्रवृत्ति और वाणी की का सुन्दर चित्रण किया गया है। मनोगुप्ति मानसिक अहिंसा का, वचनगुप्ति वाचिक अहिंसा का और कायगुप्ति कायिक प्रवृत्ति गुप्ति है। उसका दूसरा अर्थ-मन, वाणी और काया अहिंसा का प्रायोगिक रूप है। संरंभ, सभारंभ और आरम्भ--- की निर्व्यापार या प्रवृत्तिशून्य अवस्था—किया है।" ये मानसिक, वाचिक और कायिक हिंसा के तीन-तीन रूप हैं। जीवन यात्रा के लिए प्रवृत्ति अपेक्षित होती है और असंरंभ, असभारंभ और अनारम्भ-ये मानसिक, वाचिक अशुभ से बचने के लिए निवृत्ति अपेक्षित होती है। मुनि के और कायिक अहिंसा के तीन-तीन रूप हैं। जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति का सन्तुलन होता है। सूत्रकार __ तत्त्वार्थ ६/६ में मन, वचन और काया-इन तीन ने प्रस्तुत श्लोक में इस सन्तुलन का प्रतिपादन किया है। १. ओघनियुक्ति, गाथा ६६६। समारम्भः-परपरितापकरमंत्रादिपरावर्त्तनम्, आरम्भः तथाविधसंक्लेशतः उवही उवग्गहे संगहे य तह पग्गहुग्गहे चेव। प्राणिनां प्राणव्यपरोपणक्षममन्त्रादिजपनमिति। भंडगं उवगरणे य करणे वि य हुंति एगट्ठा।। बृहद्वृत्ति, पत्र ५१६ : ततः स्थानादिसु वर्तमानः संरम्भः-अभिघातो २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५१८ : 'अचिरकालकृते च' दाहदिना स्वल्पकालनिर्वर्तिते, यष्टिमुष्टयादिसंस्थानमेवसंकल्पसूचकमुपचारात् संकल्पशब्दबाच्यं सत् चिरकालकृते हि पुनः संमूर्छन्त्येव पृथ्वीकायादयः। समारम्भः-परितापकरो मुष्ट्याद्यभिघातः, ....आरंभे-प्राणिवधात्मनि कार्य ३. प्रवचन सारोद्धार, गाथा २६६ वृत्ति, पत्र ६२। प्रवर्त्तमानम्। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५१८ : संरम्भः संकल्पः स च मानसः, तथाऽहं ध्यास्यामि ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ट २६७। यथाऽसौ मरिष्यतीत्येवंविधः, समारम्भः-परपीडाकरोच्चाटनादिनिबन्धनं ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ५१६, ५२० : उक्तं हि गन्धहस्तिना-सम्यगागमानुसारेणा ध्यानम्....आरम्भः-अत्यन्तक्लेशतः परप्राणापहारक्षममशुभध्यानमेव । रक्तद्विष्टपरिणतिसहचरितमनोव्यापारः कायव्यापारो वाग्व्यापारश्च ५. वही, पत्र ५१६ : तथा वाचिकः संरम्भः-परव्यापादनक्षमक्षुद्रविद्यादि- निर्व्यापारता वा वाक्काययोर्गुप्तिरिति, तदनेन व्यापाराव्यापारात्मिका परावर्तनासंकल्पसूचको ध्वनिरेवोपचारात् संकल्पशब्दवाच्यः सन्, गुप्तिरुक्ते ति। Jain Education Intemational Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविंसइमं अज्झयणं जन्नइज्जं पचीसवां अध्ययन यज्ञीय Jain Education Intemational Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख और और मुनि को भौदि-आदि कार के लिा इस अध्ययन का नाम 'जन्नइज्जं'–'यज्ञीय' है। इसका हो, भोजन पाने के लिए नहीं किन्तु याजकों को सही ज्ञान मुख्य विवक्षित विषय 'यज्ञ' है।' यज्ञ शब्द का अर्थ देव-पूजा कराने के लिए कई तथ्य प्रकट किए। ब्राह्मणों के लक्षण बताए। है। जीव-वथ आदि बाह्य अनुष्ठान के द्वारा किए जाने वाले मुनि के वचन सुन विजयघोष ब्राह्मण सम्बुद्ध हुआ और उनके यज्ञ को जैन परम्परा में द्रव्य (अवास्तविक) यज्ञ कहा है। पास दीक्षित हो गया। सम्यक् आराधना कर दोनों सिद्ध, बुद्ध वास्तविक यज्ञ भाव-यज्ञ होता है। उसका अर्थ है-तप और और मुक्त हो गए। संयम में यतना-अनुष्ठान करना। मुनि को भोजन के लिए, पान के लिए, वस्त्र के लिए, प्रसंगवश इस अध्ययन में (१६वें श्लोक से ३२वें श्लोक वसती के लिए आदि-आदि कारणों से धर्मोपदेश नहीं देना तक) ब्राह्मण के मुख्य गुणों का उल्लेख हुआ है। चाहिए, किन्तु केवल आत्मोद्धार के लिए ही उपदेश देना वाराणसी नगरी में जयघोष और विजयघोष के दो चाहिए। इसी तथ्य को स्पष्टता से व्यक्त करते हुए जयघोष ब्राह्मण रहते थे। वे काश्यप-गोत्रीय थे। वे पूजन-याजन, मुनि ब्राह्मण विजयघोष से कहते हैंअध्ययन-अध्यापन, दान और प्रतिग्रह-इन छह कर्मों में रत “मुनि न अन्न के लिए, न जल के लिए और न किसी और चार वेदों के अध्येता थे। वे दोनों युगल रूप में जन्मे हुए अन्य जीवन-निर्वाह के साधन के लिए, लेकिन मुक्ति के लिए थे। एक बार जयघोष स्नान करने नदी पर गया हुआ था। धर्मोपदेश देते हैं। मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं। तुम उसने देखा कि एक सर्प मेंढक को निगल रहा है। इतने में एक निष्क्रमण कर मुनि-जीवन को स्वीकार करो।" (श्लो० १०, ३८) कुरर पक्षी वहां आया और सर्प को पकड़ कर खाने लगा। “भोग आसक्ति है और अभोग अनासक्ति। आसक्ति मरणकाल आसन्न होने पर भी सर्प मण्डूक को खाने में रत संसार है और अनासक्ति मोक्ष। मिट्टी के दो गोले हैं-एक था और इधर कम्पायमान सर्प को खाने में कुरर आसक्त था। गीला और दूसरा सूखा। जो गीला होता है वह भित्ति से चिपक इस दृश्य को देख जयघोष उद्विग्न हो उठा। एक दूसरे के जाता है और जो सूखा होता है वह नहीं चिपकता। इसी प्रकार उपघात को देख कर उसका मन वैराग्य से भर गया। वह जो व्यक्ति आसक्ति से भरा है, कर्म-पुद्गल उसके चिपकते हैं प्रतिबुद्ध हो गया। गंगा को पार कर श्रमणों के पास पहुंचा। और जो अनासक्त है, कर्म असके नहीं चिपकते।” (श्लो० ३८ अपने उद्वेग का समाधान पा श्रमण हो गया। से ४१) एक बार मुनि जयघोष 'एक-रात्रिकी' प्रतिमा को स्वीकार “बाह्य-चिन्ह, वेष आदि आंतरिक पवित्रता के द्योतक कर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वाराणसी आए। बहिर्भाग में नहीं हैं। बाह्य-लिंग संप्रदायानुगत अस्तित्व के द्योतक मात्र हैं। एक उद्यान में ठहरे। आज उनके एक महीने की तपस्या का मुंडित होने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता। आंकार का जाप पारणा था। वे भिक्षा लेने नगर में गए। उसी दिन ब्राह्मण करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने मात्र से विजयघोष ने यज्ञ प्रारम्भ किया था। दूर-दूर से ब्राह्मण बुलाए कोई मुनि नहीं होता, दर्भ-वल्कल आदि धारण करने मात्र से गए थे। उनके लिए विविध भोजन-सामग्री तैयार की गई थी। कोई तापस नहीं होता।" (श्लो० २६) मुनि जयघोष भिक्षा लेने यज्ञ-वाट में पहुंचे। भिक्षा की याचना “समभाव से समण होता है, ब्रह्मचर्य का पालन करने से की। प्रमुख याजक विजयघोष से कहा-'मुने ! मैं तुम्हें भिक्षा ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या से तापस होता है" (श्लो०३१) नहीं दूंगा। तुम कहीं अन्यत्र चले जाओ। जो ब्राह्मण वेदों को “जातिवाद अतात्त्विक है। अपने-अपने कार्य से व्यक्ति जानते हैं, जो यज्ञ आदि करते हैं जो शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ब्राह्मण आदि होता है। जाति कार्य के आधार पर विभाजित है, निरुक्त, छंद और ज्योतिष-वेद के इन छह अंगों के पारगामी जन्म के आधार पर नहीं। मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म हैं तथा जो अपनी और दूसरों की आत्मा का उद्धार करने में से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से शूद्र।” (श्लो० ३१) समर्थ हैं—उन्हीं को यह प्रणीत अन्न दिया जाएगा, तुम जैसे वेद, यज्ञ, धर्म और नक्षत्र का मुख क्या है? अपनी व्यक्तियों को नहीं। (श्लो० ६, ७, ८) तथा दूसरों की आत्मा में सुधार करने में कौन समर्थ है ?मुनि जयघोष ने यह बात सुनी। प्रतिषिद्ध किए जाने पर इन प्रश्नों का समाधान मुनि जयघोष ने विस्तार से दिया है। रुष्ट नहीं हुए। समभाव का आचरण करते हुए स्थिर-चित्त (श्लो० १६ से ३३) उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा, ४६२ : २. वही, गाथा ४६१ : तवसंजमेसु जयणा भावे जन्नो मुणेयव्यो ।। जयघोसा अणगारा विजयघोसस्स जन्नकिच्चंमि। तत्तो समुट्ठियमिणं अज्झयणं जन्नइज्जन्ति।। १. Jain Education Intemational Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. माहणकुलसंभूओ आसि विप्पो महायसो । जायाई जमजण्णमि जयघोसे त्ति नामओ ।। २. इंदियग्गामनिग्गाही मग्गगामी महामुनी । गामाणुगामं रीयंते पत्ते वाणारसिं पुरिं ।। ३. वाणारसीए बहिया उज्जाणंमि मणोरमे । फासु सेज्जसंथारे तत्थ वासमुवागए ।। ४. अह तेणेव कालेणं पुरीए तत्थ माहणे । विजयघोसे त्ति नामेण जणं जयइ वेयवी ।। ५. अह से तत्थ अणगारे मासक्खमणपारणे । विजयघोसस्स जण्णमि भिक्खमट्ठा उवट्टिए । । पंचविंसइमं अज्झयणं : पचीसवां अध्ययन जन्नइज्जं : यज्ञीय ६. समुवद्वियं तहिं संतं जायगो पडिसेहए । न हु दाहामि ते भिक्खं भिक्खू ! जायाहि अन्नओ ।। ७. ८. जे य वेयविऊ विप्पा जण्णट्ठा य जे दिया। जोइसंगविऊ जे य जे य धम्माण पारगा ।। जे समत्था समुद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य । तेसिं अन्नविणं देयं भो भिक्खु ! सव्वकामियं ।। संस्कृत छाया माहनकुलसंभूतः आसीद् विप्रो महायशाः । यायायी यमयज्ञे जयघोष इति नामतः ।। इन्द्रियग्रामनिग्राही मार्गगामी महामुनिः। ग्रामानुग्रामं रीयमाणः प्राप्तो वाराणसीं पुरीम् ।। वाराणस्या बहि: उद्याने मनोरमे । प्रायुके शब्यासंस्तारे तत्र वासमुपागतः ।। अथ तस्मिन्नेव काले पुर्यां तत्र माहनः । विजयघोष इति नाम्ना यज्ञं यजति वेदवित् ।। अथ स तत्रानगारः मासक्षपणपारणे । विजयघोषस्य यज्ञे भिक्षार्थमुपस्थितः ।। समुपस्थितं तत्र सन्तं याजकः प्रतिषेधयति । न खलु दास्यामि तुभ्यं भिक्षां भिक्षो ! याचस्वान्यतः ॥ ये च वेदविदो विप्राः यज्ञार्थाश्च ये द्विजाः । ज्योतिषांगविदो ये च ये च धर्माणां पारगाः ।। ये समर्थाः समुद्धर्तुं परमात्मानमेव च । तेभ्यो ऽन्नमिदं देयं भो भिक्षो ! सर्वकामितम् ।। हिन्दी अनुवाद ब्राह्मण कुल में उत्पन्न एक महान् यशस्वी विप्र' था । वह यजनशील था, यमयज्ञ' (जीव-संहारक यज्ञ) में लगा रहता था । उसका नाम था जयघोष । वह (अहिंसा धर्म में प्रतिबुद्ध होकर) इन्द्रिय-समूह का निग्रह करने वाला मार्गगामी महामुनि हो गया । एक गांव से दूसरे गांव जाता हुआ वह वाराणसी पुरी पहुंचा। वाराणसी के बाहर मनोरम उद्यान में प्रासुक शय्या और बिछौना लेकर वहां रहा। उसी समय उस पुरी में वेदों को जानने वाला विजयघोष नाम का ब्राह्मण यज्ञ करता था। वह जयघोष मुनि एक मास की तपस्या का पारणा करने के लिए विजयघोष के यज्ञ में भिक्षा लेने को उपस्थित हुआ । यज्ञकर्त्ता ने वहां उपस्थित हुए मुनि को निषेध की भाषा में कहा- “भिक्षो ! तुम्हें भिक्षा नहीं दूंगा, और कहीं याचना करो।" "हे भिक्षो! यह सबके द्वारा अभिलाषित भोजन उन्हीं को देना है जो वेदों को जानने वाले विप्र हैं, यज्ञ के लिए जो द्विज हैं, जो ज्योतिष आदि वेद के छहों अंगों को जानने वाले हैं, जो धर्म-शास्त्रों के पारगामी हैं, जो अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हैं।" Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरझयणाणि ६. सो एवं तत्थ पडिसिद्धो जायगेण महामुणी । न वि रुट्ठो न वि तुट्ठो उत्तमद्गवेसओ ।। १०. नन्नट्ठे पाणहेउ वा न वि निव्वाहणाय वा । तेसि विमोक्खणद्वाए इमं वयणमब्बवी ।। ११. नवि जाणसि वेयमु नवि जण्णाण जं मुहं । नक्खत्ताण मुहं जँच जं च धम्माण वा मुहं ।। १२. जे समत्था समुद्धत्तुं परं अप्पाणमेव ब न ते तुमं वियाणासि अह जाणासि तो भण ।। १३. तस्सक्खेवपमोक्खं च अचयंती तहिं दिओ । सपरिसो पंजली होउं पुच्छई तं महामुनिं ।। १४. वेयाणं च मुहं बूहि बूहि जण्णाण जं मुहं । नक्खत्ताण मुहं बूहि बूहि धम्माण वा मुहं ।। १५. जे समत्था समुद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य । एयं मे संसयं सव्वं साहू कहय पुच्छिओ ।। १६. अग्निहोत्तमुहा वेया जण्णट्टी वेयसां मुहं । नक्खत्ताण मुहं चंदो धम्माणं कासवो मुहं || १७. जहा चंदं गहाईया चिट्ठेति पंचलीउडा । वंदमाणा नमसंता उत्तमं मणहारिणो ।। १८. अजाणगा जन्नवाई विज्जामाहणसंपया। गूढा सज्झायतवसा भासच्छन्ना इवग्गिणो ।। ४०० स एवं तत्र प्रतिषिद्धः याजकेन महामुनिः । नापि रुष्टो नापि तुष्टः उत्तमार्थगवेषकः ।। नानार्थं पानहेतुं वा नापि निर्वाहणाय वा । तेषां विमोक्षणार्थम् इदं वचनमब्रवीत् ।। नापि जानासि वेदमुख नापि यज्ञानां यन्मुखम् । नक्षत्राणां मुखं यच्च यच्च धर्माणां वा मुखम् ।। ये समर्थाः समुद्धर्तुं परमात्मानमेव च । न तानू त्वं विजानासि अथ जानासि तदा भण ।। तस्याक्षेपप्रमोक्षं च अशक्नुवन् तत्र द्विजः । सपरिषत् प्रांजलिर्भूत्वा पृच्छति मं महामुनिम् ।। वेदानां मुखं ब्रूहि ब्रूहि यज्ञानां यन्मुखम् । नक्षत्राणां मुखं ब्रूहि ब्रूहि धर्माणां वा मुखम् ।। ये समर्थाः समुद्धर्तु परमात्मानमेव च । एतं मे संशयं सर्वं साधो ! कथय पृष्टः ।। अग्निहोत्रमुखा वेदाः यज्ञार्थी वेदसां मुखम् । नक्षत्राणां मुखं चन्द्रः धर्माणां काश्यपो मुखम् ।। यथा चन्द्र ग्रहादिकाः तिष्ठन्ति प्रांजलिपुटाः । वन्दमाना नमस्यन्तः उत्तमं मनोहारिणः ।। अज्ञकाः यज्ञवादिनः विद्यामाहनसम्पदाम् । गूढ़ा: स्वाध्यायतपसा भस्मच्छन्ना इवाग्नयः ।। अध्ययन २५ श्लोक ६-१८ वह महामुनि यज्ञकर्ता के द्वारा प्रतिषेध किये जाने पर न रुष्ट ही हुआ और न तुष्ट ही हुआ, क्योंकि वह उत्तम - अर्थ - मोक्ष की गवेषणा में लगा हुआ था। न अन्न के लिए, न पानक के लिए और न किसी जीवन निर्वाह के लिए, किन्तु उनकी विमुक्ति के लिए मुनि ने इस प्रकार कहा " तू वेद के मुख को नहीं जानता। यज्ञ का जो मुख है, उसे भी नहीं जानता । नक्षत्र का जो मुख है और धर्म का जो मुख है, उसे भी नहीं जानता ।"" "जो अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ है, उन्हें तू नहीं जानता। यदि जानता है तो बता ।" मुनि के प्रश्न का उत्तर देने में अपने को असमर्थ पाते हुए द्विज ने परिषद् सहित हाथ जोड़ कर उस महामुनि से पूछा “तुम कहो वेदों का मुख क्या है ? यज्ञ का जो मुख है वह तुम्ही बतलाओ। तुम कहो नक्षत्रों का मुख क्या है ? धर्मों का मुख क्या है, तुम्ही बतलाओ ।" "जो अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हैं। (उनके विषय में तुम्ही को) हे साधु यह मुझे सारा संशय है, तुम मेरे प्रश्नों का समाधान दो ।" "वेदों का मुख अग्निहोत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा है और धर्मों का मुख काश्यप ऋषभदेव है।"१३ "जिस प्रकार चन्द्रमा के सन्मुख ग्रह आदि हाथ जोड़े हुए, वन्दना - नमस्कार करते हुए और विनीत भाव से मन का हरण करते हुए रहते हैं उसी प्रकार भगवान् ऋषभ के सम्मुख सब लोग रहते थे ।” यज्ञवादी ब्राह्मण की सम्पदा-विद्या से अनभिज्ञ हैं। वे बाहर में स्वाध्याय और तपस्या से गूढ़-उपशांत बने हुए हैं और भीतर में राख से ढकी अग्नि की भांति प्रज्वलित हैं। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यज्ञीय १६. जो जोए बंभणो वुत्तो अग्गी वा महिओ जहा । सया कुसलसंदिट्ठ तं वयं बूम माहणं ।। २०. जो न सज्जइ आगंतुं पव्वयंतो न सोयई । रमए अज्जवयणमि तं वयं बूम माहणं ।। २१. जायरूवं जहामट्ठ निर्द्धतमलपावगं । रागहोसभयाईय तं वयं बूम माहणं ।। (तवस्सियं किसं दंतं अवचियमंससोणियं । सुव्वयं पत्तनिव्वाणं तं वयं बूम माहणं । । ) २२. तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे । जो न हिंसइ तिविहेणं तं वयं बूम माहणं ।। २३. कोहा वा जइ वा हासा लोहा वा जइ वा भया । मुसं न वयई जो उ त वयं बूम माहणं ।। २४. चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं । न गेव्हड अदन्तं जो तं वयं बूम माहणं ।। २५. दिव्यमाणुसरिच्छ जो न सेवइ मेहणं । मणसा कायवक्केणं तं वयं बूम माहणं ।। २६. जहा पोमं जले जायं नोवलिप्पड़ वारिणा । एवं अलित्तो कामेहिं तं वयं बूम माहणं ।। ४०१ यो लोके ब्राह्मण उक्तः अग्निर्वा महितो यथा । सदा कुशलसंदिष्टं तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। यो न स्वजत्यागत्य प्रव्रजन्न शोचति । रमते आर्यवचने तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। जातरूपं यथामृष्टं पायनिमल रागदोषभयातीतं तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। ( तपस्विनं कृशं दान्तं अपचितमांसशोणितम् । सुव्रतं प्राप्तनिर्वाणं तं वयं ब्रूमो माहनम् । ।) त्रसप्राणिनो विज्ञाय संग्रहेण च स्थावरान् । यो न हिनस्ति त्रिविधेन तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। क्रोधाद्वा यदि वा हासात् लोभाड़ वा यदि वा भयात् मृषां न वदति यस्तु तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। चित्तवदचित्तं वा अल्पं वा यदि वा बहुम् । न हणात्यदत्तं यः तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। दिव्यमानुषतैरश्वं यो न सेवते मैथुनम् । मनसा कायवाक्येन तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। यथा पद्मं जले जातं नोपलिप्यते वारिणा । एवमलिप्तः कामैः तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। अध्ययन २५ : श्लोक १६-२६ जो ब्राह्मण है वह अग्नि की भांति सदा लोक में पूजित है । उसे हम कुशल पुरुष द्वारा संदिष्ट (कहा हुआ) ब्राह्मण कहते हैं । "जो आने पर" आसक्त नहीं होता, जाने के समय शोक नहीं करता, जो आर्य-वचन में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।" “ अग्नि में तपा कर शुद्ध किए हुए" और घिसे हुए ७ " सोने की तरह जो विशुद्ध है तथा राग-द्वेष और भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" (जो तपस्वी है, कुश है, दांत है, जिसके मांस और शोणित का अपचय हो चुका है, जो सुव्रत है, जो शांति को प्राप्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।) " जो त्रस और पिण्डीभूत स्थावर जीवों को भलीभांति जान कर मन, वाणी और शरीर से उनकी हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" “जो क्रोध, हास्य, लोभ या भय के कारण असत्य नहीं बोला, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" "जो सचित्त या अचित्त कोई भी पदार्थ, थोड़ा या अधिक कितना ही क्यों न हो, उसके अधिकारी के दिए बिना नहीं लेता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" "जो देव, मनुष्य और तिर्यञ्च संबंधी मैथुन का मन, वचन और काया से सेवन नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" "जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार काम के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरझयणाणि २७. अलोलुयं मुहाजीवी अणगारं अकिंचणं । असंसत्तं गिहत्थेसु तं वयं बूम माहणं ।। ( जहित्ता पुव्वसंजोगं नाइसंगे य बंधवे । जो न सज्जइ एएहिं तं वयं बूम माहणं । । ) २८. पसुबंधा सव्ववेया जट्टं च पावकम्मुणा । न तं तायंति दुस्सीलं कम्माणि बलवंति ह ।। २६. न वि मुंडिएण समणो न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो ।। ३०. समयाए समणो होइ बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ तवेणं होड़ तावसो ।। ३१. कम्मुणा बंभणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ । वइस्सो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा ।। ३२. एए पाउकरे बुद्धे जेहिं होड सिणायओ सव्वकम्मविनिम्मुक्कं तं वयं बूम माहणं ।। ३३. एवं गुणसमाउत्ता जे भवंति दिउत्तमा । ते समत्था उ उद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य ३४. एवं तु संसए छिन्ने विवधोसे य माहणे । समुदाय तयं तं तु जयघोसं महामुनिं ।। ४०२ अलोलुपं मुधाजीविनं अनगारमकिंचनम् । असंसक्तं गृहस्थेषु तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। ( हित्वा पूर्वसंयोगं ज्ञातिसंगांश्च बान्धवान् । यो न स्वजति एतेषु तं वयं ब्रूमो माहनम् । 11) पशुबन्धाः सर्ववेदाः इष्टं च पाप-कर्मणा । न तं त्रायन्ते दुःशीलं कर्माणि बलवन्ति इह ।। नाऽपि मुण्डितेन श्रमणः न ओंकारेण ब्राह्मणः । न मुनिररण्यवासेन कुशचीवरेण न तापसः ।। समतया श्रमणो भवति ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः । ज्ञानेन च मुनिर्भवति तपसा भवति तापसः ।। कर्मणा ब्राह्मणो भवति कर्मणा भवति क्षत्रियः । वैश्यो कर्मणा भवति शूद्रो भवति कर्मणा ।। एतान् प्रादुरकाषद् बुद्धः यैर्भवति स्नातकः । सर्वकर्मविनिर्मुक्तः तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। एवं गुणसमायुक्ताः ये भवन्ति द्विजोत्तमाः । ते समर्था परमात्मानमेव च ॥ एवं तु संशये छिन्ने विजयषोषश्च माहनः । समुदाय तां तंतु जयोघोषं महामुनिम् ॥ अध्ययन २५ : श्लोक २७-३४ १६ “जो लोलुप नहीं है, जो निष्कामजीवी है, जो गृह-त्यागी है, जो अकिंचन है, जो गृहस्थों में अनासक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" (जो पूर्व संयोगों, ज्ञाति-जनों की आसक्ति और बान्धवों को छोड़कर उनमें आसक्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।) "जिनके शिक्षा - पद पशुओं को बलि के लिए यज्ञस्तूपों में बांधे जाने के हेतु बनते हैं, वे सब वेद और पशु बलि आदि पापकर्म के द्वारा किए जाने वाले यज्ञ दुःशील सम्पन्न उस यज्ञकर्त्ता को त्राण नहीं देते, क्योंकि कर्म बलवान् होते हैं।" "केवल सिर मूंड लेने से कोई श्रमण नहीं होता, 'ओम्' का जप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, केवल अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश का चीवर पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता ।" “ समभाव की साधना करने से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है, ज्ञान की -मनन करने से मुनि होता है, तप का आचरण करने से तापस होता है।"२० आराधना -- “ मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है । २१ २२ “इन तत्त्वों को अर्हत् ने प्रकट किया है। इनके द्वारा जो मनुष्य स्नातक होता है, जो सब कर्मों से मुक्त होता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।” “इस प्रकार जो गुण सम्पन्न द्विजोत्तम होते हैं, वे ही अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हैं।" “इस प्रकार संशय दूर होने पर विजय घोष ब्राह्मण ने जयघोष की वाणी को भलीभांति समझा और संतुष्ट हो, हायजोड़ कर महामुनि जयघोष से इस प्रकार कहा Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २५ : श्लोक ३५-४३ "तुमने मुझे यथार्थ ब्राह्मणत्व का बहुत ही अच्छा अर्थ समझाया है।" “तुम यज्ञों के यज्ञकर्ता हो, तुम वेदों को जानने वाले विद्वान् हो, तुम वेद के ज्योतिष आदि छहों अंगों को जानते हो, तुम धर्मों के पारगामी हो।" “तुम अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हो, इसलिए हे भिक्षु-श्रेष्ठ ! तुम हम पर भिक्षा लेने का अनुग्रह करो।" यज्ञीय ४०३ ३५. तुठे च विजयघोसे तुष्टश्च विजयघोषः इणमुदाहु कयंजली। इदमुदाह कृतांजलिः। माहणत्तं जहाभूयं माहनत्वं यथाभूतं सुटु मे उवदंसियं ।। सुष्टु मे उपदर्शितम्।। ३६.तुब्भे जइया जण्णाणं यूयं यष्टारो यज्ञानां तुब्भे वेयविऊ विऊ यूयं वेदविदो विदः। जोइसंगविऊ तुब्भे ज्योतिषांगविदो यूयं तुब्भे धम्माण पारगा।। यूयं धर्माणां पारगाः।। ३७.तुब्भे समत्था उद्धत्तुं यूयं समर्थाः उद्धर्तुम् परं अप्पाणमेव य। परमात्मानमेव च। तमणुग्गहं करेहम्हं तदनुग्रहं कुरुतास्माकं भिक्खेण भिक्खुउत्तमा ।। भैक्ष्येण भिक्षुत्तमाः!।। ३८.न कज्जं मज्झ भिक्खेण न कार्यं मम भैक्ष्येण खिप्पं निक्खमसू दिया !। क्षिप्रं निष्काम द्विज!। मा भमिहिसि भयाव? मा भ्रमी: भयावर्ते घोरे संसारसागरे।। घोरे संसारसागरे।। ३६.उवलेवो होइ भोगेसु उपलेपो भवति भोगेषु अभोगी नोवलिप्पई। अभोगी नोपलिप्यते। भोगी भमइ संसारे भोगी भ्रमति संसारे अभोगी विप्पमुच्चई।। अभोगी विप्रमुच्यते।। ४०.उल्लो सुक्को य दो छूढा आईः शुष्कश्च द्वौ क्षिप्तौ गोलया मट्टियामया। गोलको मृत्तिकामयौ। दो वि आवडिया कुड्डे द्वावप्यापतितौ कुड्ये जो उल्लो सो तत्थ लग्गई।। य आर्द्रः स तत्र लगति।। ४१. एवं लग्गति दुम्मेहा एवं लगन्ति दुर्मेधसः जे नरा कामलालसा। ये नराः कामलालसाः। विरत्ता उ न लग्गति विरक्तास्तु न लगन्ति जहा सुक्को उ गोलओ।। यथा शुष्कस्तु गोलकः।। ४२.एवं से विजयघोसे एवं स विजयघोषः जयघोसस्स अंतिए। जयघोषस्यान्तिके। अणगारस्स निक्खंतो अनगारस्य निष्क्रान्तः धम्म सोच्चा अणुत्तरं ।। धर्मं श्रुत्वाऽनुत्तरम्।। ४३.खवित्ता पुव्वकम्माई क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि संजमेण तवेण य। संयमेन तपसा च। जयघोसविजयघोसा जयघोषविजयघोषौ सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ।। सिद्धिं प्राप्तावनुत्तराम् ।। "मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं है। हे द्विज ! तू तुरन्त ही निष्क्रमण कर मुनि-जीवन को स्वीकार कर। जिससे भय के आवर्तों से आकीर्ण इस घोर संसार-सागर में तुझे चक्कर लगाना न पड़े।" “भोगों में उपलेप होता है। अभोगी लिप्त नहीं होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है। अभोगी उससे मुक्त हो जाता है।" "मिट्टी के दो गोले—एक गीला और एक सूखाफेंके गए। दोनों भींत पर गिरे। जो गीला था वह वहां चिपक गया।" "इसी प्रकार जो मनुष्य दुर्बुद्धि और कामभोगों में आसक्त होते हैं, वे विषयों से चिपट जाते हैं। जो विरक्त होते हैं, वे उनसे नहीं चिपटते, जैसे सूखा गोला।” इस प्रकार वह विजयघोष जयघोष अनगार के समीप अनुत्तर धर्म सुनकर प्रव्रजित हो गया। जयघोष और विजयघोष ने संयम और तप के द्वारा पूर्व संचित कर्मों को क्षीण कर अनुत्तर सिद्धि प्राप्त की। --ति बेमि। --इति ब्रवीमि। —ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन २५ : यज्ञीय १. (माहण.....विप्पो) कर्म-काण्डी मीमांसकों का अभिमत है कि जो यज्ञ को 'माहण' का अर्थ है-ब्राह्मण। यह कुल के आधार पर छोड़ देता है, वह श्रौत-धर्म से वंचित हो जाता है। भगवान् किया गया नामकरण है। विप्र वह होता है जो ब्राह्मण कुल में महावीर के समय यज्ञों का प्रचलन अधिक था। केवल उत्तराध्ययन उत्पन्न होकर अध्ययन-अध्यापन तथा आचार-व्यवहार में में ही यज्ञों का विरोध दो स्थलों में पाया जाता है। श्रीत-यज्ञों निरत रहता है। के बन्द होने में जैन मुनियों के प्रयत्न बहुत महत्त्वपूर्ण रहे हैं। एक प्रशिद्ध श्लोक है लोकमान्य तिलक के अनुसार-“उपनिषदों में प्रतिपादित जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः, संस्कारैर्द्विज उच्यते। ज्ञान के कारण मोक्ष-दृष्टि से इन कर्मों की गौणता आ चुकी विद्यया याति विप्रत्वं, त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते। थी (गीता २।४१-४६)। यही गौणता अहिंसा-धर्म का प्रचार विप्र की व्याख्या के लिए देखें-श्लोक ७ का टिप्पण। होने पर आगे अधिकाधिक बढ़ती गई। भागवत-धर्म में स्पष्टतया २. यजनशील (जायाई) प्रतिपादित किया गया है कि यज्ञ-याग वेद-विहित हैं, तो भी इसका संस्कृत रूप है—यायाजी। जो यजनशील होता उनके लिए पशु-वध नहीं करना चाहिए। धान्य से ही यज्ञ है, यज्ञ करने में अवश्य प्रवृत्त होता है, वह यायाजी कहलाता है। करना चाहिए। (देखिए-महाभारत शांतिपर्व ३३६ ।१० और ३. यमयज्ञ (जमजन्नंमि) ३३७)। इस कारण (तथा कुछ अंशों में आगे जैनियों के भी चूर्णिकार ने इसका अर्थ यमयज्ञ-यमतुल्य यज्ञ किया ऐसे ही प्रयत्न करने के कारण) श्रौत-यज्ञ मार्ग की आज-कल है, क्योंकि इसमें जीववध होता है। वृत्तिकार ने इसको यह दशा हो गई है कि काशी सरीखे बड़े-बड़े धर्म-क्षेत्रों में भी वैकल्पिक अर्थ मानकर इसका मूल अर्थ यमयज्ञ-व्रतयज्ञ श्रौताग्निहोत्र पालन करने वाले अग्नि-होत्री बहुत ही थोड़े किया है। गृहस्थावस्था की अपेक्षा से यमयज्ञ का चूर्णि सम्मत दीख पड़ते हैं और ज्योतिष्टोम आदि पशु-यज्ञों का होना तो अर्थ किया जा सकता है और मुनि अवस्था की अपेक्षा से दस-बीस वर्षों में कभी-कभी सुन पड़ता है।" वृत्तिकार का मूल अर्थ किया जा सकता है। धर्मानन्द कौशाम्बी के अनुसार यज्ञ के उन्मूलन की वैदिक परम्परा में पांच यज्ञ माने गए हैं-भूतयज्ञ, दिशा में पहला प्रयत्न भगवान् पार्श्व ने किया : “इस प्रकार के मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ । यमयज्ञ की तुलना लम्बे-चौड़े यज्ञ लोगों को कितने अप्रिय होते जा रहे थे, इसके भूतयज्ञ से की जा सकती है। और भी बहुत-से उदाहरण बौद्ध-साहित्य में मिलते हैं। इन ४. मार्गगामी (मग्गगामी) यज्ञों से ऊब कर जो तापस जंगलों में चले जाते थे वे यदि इसके दो अर्थ प्राप्त हैं कभी ग्रामों में आते भी थे तो लोगों को उपदेश देने के फेर में (१) सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र--- नहीं पड़ते थे। पहले पहल ऐसा प्रयत्न संभवतः पार्श्वनाथ ने इस त्रिपदी मार्ग का अनुगामी।' किया। उन्होंने जनता को दिखा दिया कि यज्ञ-याग धर्म नहीं, (२) मुक्तिपथ की अनुगामी । चार याम ही सच्चा धर्म-मार्ग है। यज्ञ-याग से ऊबी हुई ५. यज्ञ (जन्न) सामान्य जनता ने तुरन्त इस धर्म को अपनाया।" यज्ञ वैदिक परम्परा का आधार है। शतपथ ब्राह्मण में ६. सब के द्वारा अभिलषित (सव्वकामियं) यज्ञ को सबसे श्रेष्ठ-कर्म कहा है।' वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं--सर्वकाम्य १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२२।। २. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६८ : जायाई-जयनशीलः । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ५२२ : जायाइ त्ति अवश्यं यायजीति यायाजी। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६८ : जयजन्नति (यम) तुल्यो यमयज्ञः मारणात्मकः। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२२ : यमा:-प्राणातिपातविरत्यादिरूपाः पञ्च त एव यज्ञो-भावपूजात्मकत्वात् विवक्षितपूजां प्रति यमयज्ञस्तस्मिन्... गार्हस्थ्यापेक्षया वैतद् व्याख्यायते...तथा यम इव प्राण्युपसंहारकारितया यमः स चासी यज्ञश्च यमयज्ञः अर्थाद् द्रव्ययज्ञस्तस्मिन्। ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २६८ : सम्यग्दर्शनादिमार्गगामी। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२२ : मार्गगामी–मुक्तिपथयायी। ७. शतपथ ब्राह्मण १७।४५ : यज्ञो वै श्रेष्ठतम कर्म। ५. गीता रहस्य, पृ० ३०५। ६. भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ०६१। Jain Education Intemational Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यज्ञीय ४०५ अध्ययन २५ : श्लोक ७-१६ टि० ७-१३ और सर्वकामिक। सर्वकाम्य—ऐसा भोजन जिसमें सारी १०. (श्लोक १०) अभिलषणीय वस्तुएं हों। सर्वकामिक-षड्रसों से युक्त भोजन।' यह श्लोक सूत्रकृतांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध के निम्न अंश ७. विप्र...द्विज (विप्पा...दिया) से तुलनीय है: सामान्यतः 'विप्र' और 'द्विज'—ये दोनों शब्द 'ब्राह्मण' से भिम्खू धम्म किट्टमाणे-नन्नत्थ कम्मनिज्जरवाए के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। किन्तु इनके निरुक्त भिन्न-भिन्न हैं। धम्ममाइक्खेज्जा' (२१) जो व्यक्ति ब्राह्मण-जाति में उत्पन्न होते हैं उन्हें 'विप्र' कहा ११. (श्लोक ११) जाता है। यह 'जाति-वाचक' संज्ञा है। जो व्यक्ति ब्राह्मण जाति इस श्लोक के चारों चरणों में 'मुह' शब्द का प्रयोग में उत्पन्न होते हैं और योग्य वय को प्राप्त हो यज्ञोपवीत हुआ है। पहले और तीसरे चरण में प्रयुक्त 'मुह' का अर्थ धारण करते हैं-संस्कारित होते हैं, उन्हें 'द्विज' कहा जाता 'प्रधान' और दूसरे तथा चौथे चरण में उसका अर्थ 'उपाय' है। यह एक विशिष्ट संस्कार है जो कि दूसरा जन्म ग्रहण करने के सदृश माना जाता है। १२. प्रश्न का उत्तर (तस्सऽक्खेवपमोक्खं) यह भी सम्भव है कि जो वेदों के ज्ञाता होते थे, उन्हें यहां आपेक्ष का अर्थ है-प्रश्न और प्रमोक्ष का अर्थ 'विप्र' और जो यज्ञ आदि करने-कराने में निपुण होते थे, उन्हें है--उत्तर, प्रतिवचन। ना 'द्विज' कहा जाता था। वह भाव स्वयं प्रस्तुत श्लोक के प्रथम देखें-भगवती २७ का टिप्पण। ताली और द्वितीय चरण में स्पष्ट है-जे य वेयविऊ विप्पा, जन्नट्ठा य जे दिया। इस श्लोक में चौदहवें श्लोक में पूछे गए पांच प्रश्नों के ८. ज्योतिष आदि वेद के छहों अंगों को जानने वाले उत्तर दिए गए हैं। पहला प्रश्न है-वेदों में प्रधान तत्त्व क्या (जोइसंगविऊ) हैं ? इसके उत्तर में कहा गया है-वेदों में प्रधान तत्त्व अग्निहोत्र शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष-ये है। अग्निहोत्र का अर्थ विजयघोष जानता था किन्तु जयघोष छ: वेदांग कहलाते हैं। इनमें शिक्षा वेद की नासिका है, कल्प उसे अग्निहोत्र का वह अर्थ समझाना चाहते थे जिसका हाथ, व्याकरण मुख, निरुक्त श्रोत्र, छन्द पैर और ज्योतिष नेत्र प्रतिपादन आरण्यक-काल में होने लगा था। आत्म-यज्ञ के हैं। इसीलिए वेद-शरीर के ये अंग कहलाते हैं। इनके द्वारा संदर्भ में जयघोष ने कहा है-"दही का सार जैसे नवनीत वेदार्थ को समझने में मूल्यवान् सहायता प्राप्त होती है। वेद के होता है वैसे ही वेदों के सार आरण्यक हैं। उनमें सत्य, तप, प्रधान प्रतिपाद्य यज्ञों से ज्योतिष का विशिष्ट सम्बन्ध है। संतोष, संयम चारित्र, आर्जव, क्षमा, धृति, श्रद्धा और अहिंसाआचार्य ज्योतिष (श्लोक ३६) में कहा गया है-“यज्ञ के यह दस प्रकार का धर्म बतलाया गया है। वही सही अर्थ में लिए वेदों का अवतरण है और काल के उपयुक्त सन्निवेश से अग्निहोत्र है।" इससे यह फलित होता है कि जैन-मुनियों की यज्ञों का सम्बन्ध है, इसलिए ज्योतिष को 'काल-विधायक-शास्त्र' दृष्टि में वेदों की अपेक्षा आरण्यकों का अधिक महत्त्व था। वेदों कहा जाता है। फलतः ज्योतिष जानने वाला ही यज्ञ का ज्ञाता को वे पशबन्ध-छाग आदि पशुओं के वध के हेतूभूत मानते है।" इसीलिए यहां ज्योतिषांग का प्रयोग किया गया है। थे। आरण्यक-काल में वैदिक-ऋषियों का झुकाव आत्म-यज्ञ ९. (श्लोक ९) की ओर हुआ, इसलिए जयघोष ने वेदों की अपेक्षा आरण्यकों यह श्लोक दशवैकालिक, अ० ५२ के २७ और २८ की विशेषता का प्रतिपादन किया। शान्त्याचार्य ने आरण्यक श्लोक के उपदेश की याद दिलाता है : तथा ब्रह्माण्डपुराणात्मक विद्या को ब्राह्मण-सम्पदा माना है।" बहु परघरे अत्थि विविहं खाइमसाइम। दूसरा प्रश्न है यज्ञ का उपाय (प्रवृत्ति-हेतु) क्या है ? न तत्थ पंडिओ कुप्पे इच्छा देज्ज परो न वा।। इसके उत्तर में कहा गया है—यज्ञ का उपाय 'यज्ञार्थी' है। इस सयणासण वत्थं वा भत्तपाणं व संजए। बात को विजयघोष भली-भांति जानता था किन्तु जयघोष ने अदेंतस्स न कुपेज्जा पच्चक्खे वि य दीसओ।। उसे यह बताया कि आत्म-यज्ञ के संदर्भ में इंद्रिय और मन बृहवृत्ति, पत्र ५२३ : सर्वाणि कामानि-अभिलषणीयवस्तृनि यस्मिन् तत् सर्वकाम्यं, यद् वा सर्वकामैनिर्वृत्तं तत् प्रयोजनं वा सर्वकामिक। २. वही, पत्र ५२३ : विप्रा जातितः, ये 'द्विजाः' संस्कारापेक्षया द्वितीयजन्मानः। ३. वैदिक साहित्य, पृ० २३३ । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२३ :अत्र य ज्योतिषस्योपादान प्राधान्यख्यापकम् । ५. वही, पत्र ५२४ । ६. बृहवृत्ति, पत्र ५२५। ७. वही, पत्र ५२८ : पशूना-छागानां बन्धो-विनाशाय नियमनं यैर्हेतुभिस्तेऽमी पशुबन्धाः, 'श्वेतं छागमालभेत वायव्यां दिशि भूतिकाम' इत्यादिवाक्योपलक्षिताः। ८. वही, पत्र ५२६ : विद्यते-ज्ञायत आभिस्तत्त्वमिति--विद्या आरण्यकब्रह्माण्डपुराणात्मिकास्ता एव ब्राह्मणसपदो, विद्या ब्राह्मणसंपदः, तात्विक ब्राह्मणानां हि निकिष्चनत्वेन विद्या एव संपद। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि का संयम करने वाले याजक की प्रधानता है। 1 तीसरा प्रश्न है— नक्षत्रों में प्रधान क्या है ? इसके उत्तर में कहा गया-नक्षत्रों में प्रधान चन्द्रमा है। इनकी तुलना गीता के नक्षत्राणामहं शशी (१०।२१ ) से होती है । (१) स्वजन आदि का स्थान प्राप्त करने के लिए चौथा प्रश्न है- धर्मों का उपाय (आदि कारण ) कौन है ? इसके उत्तर में कहा गया- धर्मों का उपाय काश्यप है। यहां काश्यप शब्द के द्वारा भगवान् ऋषभ का ग्रहण किया गया है । वृत्तिकार ने इसके समर्थन में एक आरण्यक वाक्य उद्धृत किया है- “तथा चारण्यकम् — ऋषभ एव भगवान् ब्रह्मा, तेन भगवता ब्रह्मणा स्वयमेव चीर्णानि ब्रह्माणि यदा च तपसा प्राप्तः पदं यद् ब्रह्मकेवलं तदा च ब्रह्मर्षिणा प्रणीतानि कानि पुनस्तानि ब्रह्माणि ?"" इत्यादि । (२) प्रव्रज्या पर्याय से गृहवास के पर्याय में आने के लिए। आर्यवचन (अज्जवयण) १५. किन्तु यह वाक्य किस आरण्यक का है यह हमें ज्ञात नहीं हो सका । वृत्ति रचनाकाल में हो सकता है, यह किसी आरण्यक में हो और वर्तमान संस्करणों में प्राप्त न हो । या यह भी हो सकता है कि जिन प्रतियों में यह वाक्य प्राप्त था वे आज उपलब्ध न हों । वृत्तिकार ने अपने प्रतिपाद्य का समर्थन ब्रह्माण्डपुराण के द्वारा भी किया है। स्थानाङ्ग में सात मूल गोत्र बतलाए गए हैं। उनमें पहला काश्यप है । भगवान् ऋषभ ने वार्षिक तप के पारणा में 'काश्य' अर्थात् रस पिया था, इसलिए वे 'काश्यप' कहलाए । मुनि सुव्रत और नेमिनाथ इन दो तीर्थकरों के अतिरिक्त सभी तीर्थंकर काश्यप गोत्री थे।* धनंजय नाममाला में भगवान् महावीर का नाम 'अन्त्यकाश्यप' है ।' भगवान् ऋषभ ' आदिकाश्यप हुए। उनसे धर्म का प्रवाह चला, इसलिए उन्हें धर्मों का आदि कारण कहा गया है। ४०६ सूत्रकृतांग के एक श्लोक से इस तथ्य की पुष्टि होती है ! वहां कहा गया है कि अतीत में जो तीर्थंकर हुए तथा भविष्य में जो होंगे वे सब 'काश्यप' के द्वारा प्ररूपित धर्म का अनुसरण करेंगे।" १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२५ । २. वही, पत्र ५२५ भवतां ब्रह्माण्डपुराणमेव सर्गादिपुराणलक्षणोपेतत्वात् सकलपुराणज्येष्ठम् .... तद्वचस्त्विदम्- “इह हि इक्ष्वाकुकुलवंशोद्भवेन नाभिसुतेन मरुदेव्या नन्दनेन महादेवेन ऋषभेण दशप्रकारो धर्मः स्वयमेव चीर्णः, केवलज्ञानलम्भाच्च महर्षिणो ये परमेष्ठिनो वीतरागाः स्नातका निर्ग्रन्था नैष्ठिकास्तेषां प्रवर्तित आख्यातः प्रणीतस्त्रेतायामादावित्यादि ।” ३. ठाणं ७।३० : सत्त मूलगोत्ता पं० तं०—– कासवा गौतमा वच्छा कोच्छा कोसिआ मंडवा वासिट्ठा । ४. वही, ७।३० वृत्ति: काशे भवः काश्य:- रसस्तं पीतवानिति काश्यपस्तदपत्यानि काश्यपाः, मुनिसुव्रतनेमिवर्जा जिनाः । ५. धनंजय नाममाला, श्लोक ११५ : सन्मतिर्महतिवीरो महावीरो ऽन्त्यकाश्यपः । नाथान्वयो वर्धमानो, यत्तीर्थमिह साम्प्रतम् ।। अध्ययन २५ : श्लोक २०-२२ टि० १४-१८ पांचवां प्रश्न है-अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ कौन है ? इसका उत्तर श्लोक १८ से ३३ तक विस्तार से दिया गया है । १४. आने पर ( आगंतु) वृत्तिकार ने ‘आगंतुं' पद में तुम् प्रत्यय को आधार मान कर इसके दो अर्थ किए हैं विभिन्न संदर्भों में आर्य शब्द के अनेक अर्थ किए गए हैं। यहां इसका अर्थ अहिंसा धर्म का प्रतिपादन करने वाला है। तीर्थंकर अहिंसा धर्म का प्रतिपादन करते हैं, इसलिए वृत्तिकार ने 'आर्य' का अर्थ तीर्थंकर किया है। आर्यवचनतीर्थंकर की वाणी -आगम।" १६. अग्नि में तपाकर शुद्ध किए हुए (निद्धंतमलपावगं ) बृहद्वृत्ति में 'पावक' के दो अर्थ प्राप्त हैं—पापक अनिष्ट और पावक— अग्नि।" सुखबोधा में इसका एक ही अर्थ प्राप्त है पावक अग्नि।" १७. पिसे हुए (जहामट्ठ) स्वर्ण की तेजस्विता को बढ़ाने के लिए मनःशिला आदि से उसे घिसा जाता है। इससे स्वर्ण में चमक-दमक आ जाती है। यह आमृष्ट का अर्थ है। १८. पिंडीभूत स्थावर जीवों को (संगहेण य थावरे ) वृत्तिकार ने संग्रह शब्द का मुख्य अर्थ संक्षेप और वैकल्पिक अर्थ वर्षाकल्प ——वर्षाऋतु में उपयोग में आने वाला मुनि का एक उपकरण किया है।” उन्होंने 'च' शब्द के द्वारा विस्तार का अर्थ ग्रहण किया है। इसका अर्थ होगा संक्षेप और विस्तार — दोनों दृष्टियों से जानकर । हमने संग्रह का अर्थ पिण्ड अथवा संहति किया है। स्थावर जीव पिण्डरूप में ही हमारे ज्ञान के विषय बनते हैं 1 एक-एक शरीर को पृथक् पृथक् रूप में नहीं जाना जा ६. बृहद्वृत्ति पत्र ५२५ धर्माणां 'काश्यपः भगवानृषभदेवः मुखं उपायः कारणात्मकः तस्यैवादितत्प्ररूपकत्वात् । ७. सूयगडो १२ 1७४ : ८. ६. अभविंसु पुरावि भिक्खवो आएसा वि भविसु सुब्वया । एयाई गुणाई आहु ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो ।। बृहद्वृत्ति, पत्र ५२६, ५२७ । वही पत्र ५२६ आर्याणां तीर्थकृतां वचनमार्यवचनम् आगमः । १०. वही, पत्र ५२७ । ११. सुखबोधा, पत्र ३०७ । १२ वृहद्वृत्ति, पत्र ५२७ । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यज्ञीय ४०७ अध्ययन २५ : श्लोक २७-३२ टि० १६-२२ सकता। गुप्ति-युक्त मैथुन-विरति ३. गुरुकुलवास। १९. निष्कामजीवी है (मुहाजीवी) सूत्रकृतांग २।५।१ में 'बंभचेर' की व्याख्या में चूर्णिकार __ जो प्रतिफल की भावना से शून्य होकर जीवन-यापन ने आचार, आचरण, संयम, संवर और ब्रह्मचर्य को एकार्थ करता है, वह मुधाजीवी कहलाता है। बहवत्ति में इसका अर्थ माना है।' तउंछमात्रवृत्ति । जो मनि जाति, कल आदि के सहारे आचारांग ३।४ में ब्रह्म का अर्थ-योगियों का परम नहीं जीता, अज्ञात रहकर उछ भोजन से अपना जीवन चलाता पवित्र सुख किया है। है, वह मुधाजीवी होता है। ३. मुणी विस्तृत अर्थ के लिए देखें-दसवेआलियं ५।१।६६,१०० सामान्यतया मुनि का अर्थ मौन रहने वाला किया जाता का टिण्ण। है। यहां यह अर्थ अभिप्रेत नहीं है। मुनि कहलाने का आधार २०. (श्लोक ३०) है ज्ञान। यह ज्ञानार्थक मुण् धातु से निष्पन्न है। १. समन २१. (श्लोक ३१) इसके संस्कृत रूप तीन होते हैं— श्रमण, शमन और प्रस्तुत श्लोक में जन्मनाजाति का अस्वीकार और समनस्। जो श्रमशील है वह श्रमण, जो कषायों का शमन कर्मणाजाति का सिद्धांत प्रतिपादित है। जातियां सामयिक करता है और समता में रहता है वह शमन और जो अच्छे आवश्यकता के अनुसार बनती हैं। वे शाश्वत नहीं होती मन वाला होता है वह समनस् होता है। वृत्ति में 'श्रमण' का महावीर ने जन्मना जातिवाद के विरुद्ध क्रांति की और निरुक्त इस प्रकार किया है---'समं मनोऽस्येति निरुक्तविधिना कर्मणाजाति का प्रतिपादन किया। व्यक्ति अपने कर्म-कार्य से श्रमण:-निर्ग्रन्थः। अमुक-अमुक होता है। किसी कुल या जाति में जन्म लेने मात्र २. बंभणो से वैसा नहीं हो जाता। जो ब्रह्म-आत्मा की चर्या में लीन रहता है, वह ब्राह्मण २२. सब कर्मों से मुक्त (सब्बकम्मविनिमुक्क) है। जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है, वह ब्राह्मण है। ब्रह्म के प्रस्तुत चरणों में कर्म शब्द कार्य या प्रवृत्ति का वाचक दो प्रकार हैं-शब्दब्रह्म और परब्रह्म। जो शब्दब्रह्म में निष्पात है। स्नातक पुरुष जीववध वाले यज्ञ की व्यर्थता और जातिवाद होता है, वह परब्रह्म को पा लेता है। परब्रह्म है अहिंसा, सत्य की अतात्विकता समझ लेता है। वह यजन-याजन तथा घृणापूर्ण आदि। ब्रह्म शब्द से यहां ये ही गृहीत है।' ___ भर्तृहरि ने शब्द को ब्रह्म माना है। शंकराचार्य अथवा केवली की मुक्ति सन्निकट होने के कारण उसे अद्वैत का ब्रह्म परमब्रह्म है। सर्वकर्मविनिर्मुक्त कहा गया है। यह वृत्तिकार की व्याख्या है।' सूत्रकृतांग १४१ में 'सुवंभचेरं' शब्द का प्रयोग है। वहां किन्तु यहां ब्राह्मण के प्रकरण में केवली का उल्लेख प्रासंगिक चूर्णिकार ने उसके तीन अर्थ किए हैं—१. सुचारित्र २. नौ नहीं लगता। ता है। ब्रह्म के है। स्नातकता समझ लेतमायों से मुक्त लेता है। परब्रह्म है अहिंसा, सत्य प्रवृत्ति और आसक्तिपूर्ण काम होने के कारण उसे १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२८ : ब्रह्मणश्चरणं ब्रह्मचर्य, ब्रह्म च द्विधा, यत उक्तम्--'द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये, शब्दब्रह्मपरं च यत्। शब्दब्रह्मणि निष्णातः, परं ब्रह्माधिगच्छति। एतानि च पराणि ब्रह्माणि वरिष्ठानि यानि प्रागहिंसादीन्युक्तानि, एतद् रूपमेवेह ब्रह्मोच्यते, तेन ब्राह्मणो भवति। २. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ० २२८ । ३. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ० ४०३। ४. आचारांग वृत्ति, पत्र १३६ : ब्रह्म-अशेषमलकलंकविकलयोगिशर्म। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२६ : स्नातकः केवली सर्वकर्मभिर्विनिर्मुक्तः, इह च प्रत्यासन्नमुक्तितया सर्वकर्मविनिर्मुक्तः। Jain Education Intemational Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छबीसइमं अज्झयणं सामायारी छब्बीसवां अध्ययन सामाचारी Jain Education Intemational Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन में 'इच्छा' आदि का समाचरण वर्णित है इसलिए इस अध्ययन का नाम 'सामायारी' – 'सामाचारी' है । 'णाणस्स सारं आयारो'- ज्ञान का सार है आचार । आचार जीवन-मुक्ति का साधन है। जैन मनीषियों ने जिस प्रकार तत्त्वों की सूक्ष्मतम छानबीन की है उसी प्रकार आचार का सूक्ष्मतम निरूपण भी किया है। आचार दो प्रकार का होता है— व्रतात्मक- आचार और व्यवहारात्मक- आचार व्रतात्मकआचार अहिंसा है। वह शाश्वत धर्म है। व्यवहारात्मक- आचार है परस्परानुग्रह । वह अनेकविध होता है । वह अशाश्वत है। जो मुनि संघीय - जीवन यापन करते हैं उनके लिए व्यवहारात्मक- आचार भी उतना ही उपयोगी है जितना कि व्रतात्मक- आचार। जिस संघ या समूह में व्यवहारात्मक- आचार की उन्नत विधि है और उसकी सम्यक् परिपालना होती है, वह संघ दीर्घायु होता है। उसकी एकता अखण्ड होती है। जैन आचार - शास्त्र में दोनों आचारों का विशद निरूपण प्राप्त है। प्रस्तुत अध्ययन में व्यवहारात्मक- आचार के दस प्रकारों का स्फुट निदर्शन है। ये दस प्रकार सम्यक्-आचार के आधार हैं इसलिए इन्हें समाचार, सामाचार और सामाचारी कहा है। सामाचारी के दो प्रकार हैं- ओघ सामाचारी और पद- विभाग सामाचारी । प्रस्तुत अध्ययन में ओघ सामाचारी का निरूपण है 1 टीकाकार ने अध्ययन के अन्त में यह जानकारी प्रस्तुत की है। कि ओघ सामाचारी का अन्तर्भाव धर्मकथानुपयोग में होता है और पद - विभाग सामाचारी का चरणकरणानुयोग में। उत्तराध्ययन धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत है।' ओध सामाचारी के दस प्रकार हैं। (श्लो० ३, ४ ) १. आवश्यकी २. नैषेधिकी ६. इच्छाकार ७. मिच्छाकार ३. आपृच्छा ४. प्रतिपृष्ठा ५. छन्दना स्थानांग (१०।१०२ ) तथा भगवती ( २५ ।५५५) में दस सामाचारी का उल्लेख है। इनमें क्रम-भेद के अतिरिक्त एक ८. तथाकार ६. अभ्युत्थान १०. उपसंपदा । १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४७ अनन्तरोक्ता सामाचारी दशविधा ओघरूपा च पदविभागात्मिका चेह नोक्ता धर्मकथा ऽनुयोगत्वादस्य छेदसूत्रान्तर्गतत्वाच्च तस्या: । २. मृलाचार, गाथा १२३ : समदा समाचारों, सम्माचारी समो व आचारो। सव्वेसिं सम्माणं, समाचारो हु आचारो ।। 14 नाम-भेद भी है—'अभ्युत्थान' के बदले 'निमंत्रणा' है। नियुक्ति ( गाधा ४८२) में भी 'निमंत्रणा' ही दिया है मूलाचार (गाथा १२५) में स्थानांग में प्रतिपादित क्रम से ओघ सामाचारी का प्रतिपादन हुआ है । दिगम्बर - साहित्य में सामाचारी के स्थान पर समाचार, सामाचार शब्द का प्रयोग हुआ है और इसके चार अर्थ किए हैं १. समता का आचार । २. सम्यग् आचार । ३. सम ( तुल्य) आचार । ४. समान ( परिमाण सहित) आचार । क्वचित् चक्रवाल- समाचारी का भी उल्लेख मिलता है। वर्द्धमान देशना ( पत्र १०२ ) में शिक्षा के दो प्रकार बताये हैंआसेवना शिक्षा और ग्रहण शिक्षा । आसेवना शिक्षा के अन्तर्गत दस विध चक्रवाल सामाचारी का उल्लेख हुआ है १. प्रतिलेखना २. प्रमार्जना ३. भिक्षा ४. चर्या ५. आलोचना १०. आवश्यकी । उपर्युक्त दस सामाचारियों में आवश्यकी विभाग में सारी औधिक सामाचारियों का ग्रहण हुआ है। सामाचारी का अर्थ है-मुनि का आचार-व्यवहार या इतिकर्तव्यता । इस व्यापक परिभाषा से मुनि जीवन की दिन-रात की समस्त प्रवृत्तियां 'सामाचारी' शब्द से व्यवहृत हो सकती हैं। दस विध औधिक सामाचारी के साथ-साथ प्रस्तुत अध्ययन में अन्यान्य कर्त्तव्यों का निर्देश भी हुआ है । ३. ६. भोजन ७. पात्रक धावन ८. विचारण (वहिर्भूमि- गमन ) ६. स्थण्डिल शिष्य के लिए आवश्यक है कि वह जो भी कार्य करे गुरु से आज्ञा प्राप्त कर करे। (श्लोक ८-१०) दिनचर्या की व्यवस्था के लिए दिन के चार भागों और उनमें करणीय कार्यों का उल्लेख श्लोक ११ और १२ में है। श्लोक १२ से १६ तक दैवसिक काल - ज्ञान - दिन के चार प्रहरों को जानने की विधि है। श्लोक १७ और १८ में रात्रि चर्या के चार भागों और प्रवचन सारोद्धार, गाथा ७६०, ७६१ में 'इच्छा, मिच्छा' आदि को चक्रवाल- सामाचारी के अन्तर्गत माना है और गाथा ७६८ में प्रतिलेखना, प्रमार्जना आदि को प्रकारान्तर से दस विध सामाचारी माना है। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४१० अध्ययन २६ : आमुख उनमें करणीय कार्यों का उल्लेख है। श्लोक १६ और २० में अपवाद भी हैं। रात्रिक काल-ज्ञान-रात के चार प्रहरों को जानने की विधि दैनिक-कृत्यों का विस्तार से वर्णन २१वें से ३८वें श्लोक और प्रथम और चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय करने का निर्देश है। तक हुआ है और रात्रिक कृत्यों का ३६वें से ५१वें श्लोक श्लोक २१ में उपधि-प्रतिलेखना और स्वाध्याय का विधान है। तक। वें श्लोक में भी यह विषय-प्रतिपादित है। यहां थोड़े परिवर्तन यह सारा वर्णन सामाचारी के अन्तर्गत आता है। के साथ पुनरुक्त है। श्लोक २२ में पात्र-प्रतिलेखना तथा २३ सामाचारी संघीय जीवन जीने की कला है। इससे पारस्परिक में उसका क्रम है। श्लोक २४ से २८ तक वस्त्र-प्रतिलेखना की एकता की भावना पनपती है और इससे संघ दृढ़ बनता है। विधि है। श्लोक २६ और ३० में प्रतिलेखना-प्रमाद के दोष का दस-विध सामाचारी की सम्यक् परिपालना से व्यक्ति में निम्न निरूपण है। श्लोक ३१ से ३५ तक में दिन के तीसरे प्रहर के विशेष गुण उत्पन्न होते हैंकर्तव्य भिक्षाचारी, आहार तथा दूसरे गांव में भिक्षार्थ जाने १. आवश्यिकी और नैषेधिकी से निष्प्रयोजन गमनागमन आदि का विधान है। श्लोक ३६ एवं ३७ तथा ३८ के प्रथम पर नियन्त्रण रखने की आदत पनपती है। दो चरणों तक चतुर्थ प्रहर के कर्त्तव्य-वस्त्र-पात्र-प्रतिलेखन, २. मिच्छाकार से पापों के प्रति सजगता के भाव स्वाध्याय, शय्या और उच्चार-भूमि की प्रतिलेखना का विधान पनपते हैं। है। श्लोक ३८ के अन्तिम दो चरणों से ४२ के तीन चरणों ३. आपृच्छा और प्रतिपृच्छा से श्रमशील तथा दूसरों तक दैवसिक प्रतिक्रमण का विधान है। चतुर्थ चरण में रात्रिक के लिए उपयोगी बनने के भाव बनते हैं। काल-प्रतिलेखना का विधान है। श्लोक ४३वां १८वें का पुनरुक्त ४. छन्दना से अतिथि-सत्कार की प्रवृत्ति बढ़ती है। है तथा ४४वां २०वें का पुनरुक्त है। श्लोक ४५ से ५१ तक ५. इच्छाकार से दूसरों के अनुग्रह को सहर्ष स्वीकार रात्रिक प्रतिक्रमण का विधान है। ५२वें श्लोक में उपसंहार है। करने तथा अपने अनुग्रह में परिवर्तन करने की २०वें श्लोक तक एक प्रकार से ओघ समाचारी (दिन और कला आती है। परस्परानुग्रह संघीय-जीवन का रात की चर्या) का प्रतिपादन हो चुका है। श्लोक २१ से ५१ अनिवार्य तत्त्व है। परन्तु व्यक्ति जब उस अनुग्रह तक प्रतिपादित विषय का ही विस्तार से प्रतिपादन किया है। को अधिकार मान बैठता है, वहां स्थिति जटिल इसलिए यत्र क्वचित् पूनरुक्तियां भी हैं। बन जाती है। दूसरों के अनुग्रह की हार्दिक स्वीकृति __मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे में स्वयं में विनय पैदा करती है। ध्यान, तीसरे में भिक्षाचर्या और चौथे में पुनः स्वाध्याय। उपसंपदा से परस्पर-ग्रहण की अभिलाषा पनपती (श्लोक १२) मुनि रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे में अभ्युत्थान (गुरु-पूजा) से गुरुता की ओर अभिमुखता ध्यान, तीसरे में निद्रा-मोक्ष (शयन) और चौथे में पुनः स्वाध्याय। होती है। (श्लोक १८) तथाकार से आग्रह की आदत छूट जाती है, विचार यह मुनि के औत्सर्गिक कर्तव्यों का निर्देश है। इसमें कई करने के लिए प्रवृत्ति सदा उन्मुक्त रहती है। Jain Education Intemational Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छबीसइमं अज्झयणं : छब्बीसवां अध्ययन सामायारी : सामाचारी संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद मैं सब दुःखों से मुक्त करने वाली उस समाचारी (व्यवहारात्मक आचार) का निरूपण करूंगा, जिसका आचरण कर निर्ग्रन्थ संसार-सागर को तिर गए। मूल १. सामायारिं पवक्खामि सव्वदुक्खविमोक्खणिं। जं चरित्ताण निग्गंथा तिण्णा संसारसागरं ।। २. पढमा आवस्सिया नाम बिइया य निसीहिया। आपुच्छणा य तइया चउत्थी पडिपुच्छणा।। पंचमा छंदणा नाम इच्छाकारो य छट्ठओ। सत्तमो मिच्छकारो य तहक्कारो य अट्ठमो।। पहली आवश्यकी, दूसरी नैषेधिकी, तीसरी आप्रच्छना, चौथी प्रतिप्रच्छना समाचारी प्रवक्ष्यामि सर्वदुःखविमोक्षणीम्। यां चरिचा निर्ग्रन्थाः तीर्णाः संसारसागरम् ।। प्रथमा आवश्यकी नाम्नी द्वितीया च निषीधिका। आप्रच्छना च तृतीया चतुर्थी प्रतिप्रच्छना।। पंचमी छन्दना नाम्नी इच्छाकारश्च षष्टः। सप्तमः मिथ्याकारश्च तथाकरश्च अष्टमः ।। पांचवी छन्दना, छठी इच्छाकार, सातवीं मिथ्याकार, आठवीं तथाकार ४. अब्भूट्टाणं नवमं दसमा उवसंपदा। एसा दसंगा साहूणं सामायारी पवेइया।। नौवीं अभ्युत्थान, दसवीं उपसंपदा। भगवान् ने साधुओं की इस दश अंग वाली समाचारी का निरूपण किया अभ्युत्थानं नवमं दशमी उपसम्पद् । एषा दशांगा साधनां सामाचारी प्रवेदिता।। गमणे आवस्सियं कुज्जा ठाणे कुज्जा निसीहियं । आपुच्छणा सयंकरणे परकरणे पडिपुच्छणा।। गमने आवश्यकी कुर्यात् स्थाने कुन्निषीधिकाम् । आप्रच्छना स्वयंकरणे परकरणे प्रतिप्रच्छना।। ६. छंदणा दव्वजाएणं इच्छाकारो य सारणे। मिच्छाकारो य निंदाए तहक्कारो य पडिस्सुए।। छन्दना द्रव्यजातेन इच्छाकारश्च सारणे। मिथ्याकारश्च निन्दायां तथाकारश्च प्रतिश्रुते।। (१) स्थान से बाहर जाते समय आवश्यकी करेआवश्यकी का उच्चारण करे। (२) स्थान में प्रवेश करते समय नैषेधिकी करेनैषेधिकी का उच्चारण करे। (३) अपना कार्य करने से पूर्व आपृच्छना करे—गुरु से अनुमति ले। (४) एक कार्य से दूसरा कार्य करते समय प्रतिपृच्छा करे-गुरु से पुनः अनुमति ले। (५) पूर्व-गृहीत द्रव्यों से छंदना करे----गुरु आदि को निमन्त्रित करे। (६) सारणा (औचित्य से कार्य करने और कराने) में इच्छाकार का प्रयोग करे-अपनी इच्छा हो तो मै। आपका अमुक कार्य करूं। आपकी इच्छा हो तो कृपया मेरा अमुक कार्य करें। (७) अनाचारित की निन्दा के लिए मिथ्याकार का प्रयोग करे। (८) प्रतिश्रवण (गुरु द्वारा प्राप्त उपदेश की स्वीकृति) के लिए तथाकार (यह ऐसे ही है) का प्रयोग करे। Jain Education Intemational Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४१२ अध्ययन २६ : श्लोक ७-१५ ७. अब्भुट्ठाणं गुरुपूया अच्छणे उवसंपदा। एवं दुपंचसंजुत्ता सामायारी पवेइया ।। अभ्युत्थानं गुरुपूजायां आसने उपसम्पद् । एवं द्विपंचसंयुक्ता सामाचारी प्रवेदिता।। (६) गुरु-पूजा (आचार्य, ग्लान, बाल आदि साधुओं) के लिए अभ्युत्थान करे-आहार आदि लाए। (१०) दूसरे गण के आचार्य आदि के पास रहने के लिए उपसंपदा ले मर्यादित काल तक उनका शिष्यत्व स्वीकार करे—इस प्रकार दस-विध समाचारी का निरूपण किया गया है।' पूर्वस्मिन् चतुर्भागे आदित्ये समुत्थिते। भाण्डकं प्रतिलिख्य वन्दित्वा च ततो गुरुम्।। सूर्य के उदय होने पर दिन के प्रथम प्रहर के प्रथम चतुर्थ भाग में भाण्डु-उपकरणों की प्रतिलेखना करे। तदनन्तर गुरु की वन्दना कर ८. पुव्विल्लंमि चउब्भाए आइच्चमि समुट्ठिए। भंडयं पडिलेहित्ता वंदित्ता य तओ गुरूं।। ६. पुच्छेज्जा पंजलिउडो किं कायव्वं मए इहं ? | इच्छं निओइउं भंते ! वेयावच्चे य सज्झाए।। पृच्छेत् प्रांजलिपुटः किं कर्त्तव्यं मया इह ?। इच्छामि नियोजयितुं भदन्त ! वैयावृत्त्ये वा स्वाध्याये।। हाथ जोड़ कर पूछे-अब मुझे क्या करना चाहिए? भन्ते ! मैं चाहता हूं कि आप मुझे वैयावृत्त्य या स्वाध्याय में से किसी एक कार्य में नियुक्त करें। १०.वेयावच्चे निउत्तेण कायव्वं अगिलायओ। सज्झाए वा निउत्तेणं सव्वदुक्खविमोक्खणे।। वैयावृत्त्ये नियुक्तेन कर्त्तव्यमग्लान्या स्वाध्याये वा नियुक्तेन सर्वदुःखविमोक्षणे।। वैयावृत्त्य में नियुक्त किए जाने पर अग्लान भाव से वैयावृत्त्य करे अथवा सर्व दुःखों से मुक्त करने वाले स्वाध्याय में नियुक्त किए जाने पर अग्लान भाव से स्वाध्याय करे। विचक्षण भिक्षु दिन के चार भाग करे। उन चारों भागों में उत्तर-गुणों (स्वाध्याय आदि) की आराधना ११. दिवसस्स चउरो भागे दिवसस्य चतुरो भागान् कुजजा भिक्खू वियक्खणो।। कुर्याद् भिक्षुर्विचक्षणः। तओ उत्तरगुणे कुज्जा तत उत्तरगुणान् कुर्यात् दिणभागेसु चउसु वि।। दिनभागेषु चतुर्ध्वपि।। करे। १२. पढमं पोरिंसि सज्झायं बीयं झाणं झियायई। तइयाए भिक्खायरियं पुणो चउत्थीए सज्झायं ।। प्रथमां पौरुषी स्वाध्यायं द्वितीयां ध्यानं ध्यायति। तृतीयायां भिक्षाचाँ पुनश्चतुर्थ्यां स्वाध्यायम्।। प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और दूसरे में ध्यान करे। तीसरे में भिक्षाचरी और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे। १३. आसाढे मासे दुपया पोसे मासे चउप्पया। चित्तासोएसु मासेसु तिपया हवइ पोरिसी।। आषाढ़े मासे द्विपदा पौषे मासे चतुष्पदा। चैत्राश्विनयोर्मासयोः त्रिपदा भवति पौरुषी।। आषाढ़ मास में दो पाद प्रमाण, पौष मास में चार पाद प्रमाण, चैत्र तथा आश्विन मास में तीन पाद प्रमाण पौरुषी होती है। १४. अंगुलं सत्तरत्तेणं पक्खेण य दुअंगुलं। वड्डए हायए वावि मासेणं चउरंगुलं ।। अंगुलं सप्तरात्रेण पक्षेण च द्वयंगुलम्। वर्धते हीयते वापि मासेन चतुरंगुलम् ।। सात दिन रात में एक अंगुल, पक्ष में दो अंगुल और एक मास में चार अंगुल वृद्धि और हानि (पौरुषी के कालमान में) होती है। श्रावण मास से पौष मास तक वृद्धि और माघ से आषाढ़ तक हानि होती है। १५. आसाढबहुलपक्खे भद्दवए कत्तिए य पोसे य। फग्गुणवइसाहेसु य नायव्वा ओमरत्ताओ।। आषाढबहुलपक्षे भाद्रपदे कार्तिके च पौषे च।। फाल्गुनवैशाखयोश्च ज्ञातव्या अवम-रात्रयः ।। आषाढ़, भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन और वैशाख—इनके कृष्ण-पक्ष में एक-एक अहोरात्र (तिथि) का क्षय होता है। Jain Education Intemational Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी ४१३ अध्ययन २६ : श्लोक १६-२४ १६.जेट्ठामूले आसाढसावणे छहिं अंगुलेहिं पडिलेहा। अट्ठहिं बीयतियमी तइए दस अट्ठहिं चउत्थे।।। ज्येष्ठामूले आषाढश्रावणे षड्भिरंगुलैः प्रतिलेखा। अष्टाभिर्द्धितीयत्रिके तृतीये दशभिरष्टभिश्चतुर्थे ।। ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण इस प्रथम-त्रिक में छह, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक इस द्वितीय-त्रिक में आठ, मृगशिर, पौष माघ इस तृतीय-त्रिक में दश और फाल्गुन, चैत्र, वैशाख इस चतुर्थ-त्रिक में आठ आंगुल की वृद्धि करने से प्रतिलेखना का समय होता है।१०.११ विचक्षण भिक्षु रात्रि के भी चार भाग करे। उन चारों भागों में उत्तर-गुणों की आराधना करे। १७. रत्तिं पि चउरो भागे रात्रिमपि चतुरो भागान् भिक्खू कुज्जा वियक्खणो। भिक्षुः कुर्याद् विचक्षणः। तओ उत्तरगुणे कुज्जा तत उत्तरगुणान् कुर्यात राइभाएसु चउसु वि।। रात्रिभागेषु चतुर्ध्वपि।। १८. पढमं पोरिसिं सज्झायं प्रथमां पौरुषीं स्वाध्यायं बीयं झाणं झियायई। द्वितीयां ध्यानं ध्यायति। तइयाए निद्दमोक्खं तु तृतीयायां निद्रामोक्षं तु चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं ।। चतुर्थ्यां भूयोपि स्वाध्यायम् ।। प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे। १६.जं नेइ जया रत्तिं नक्खत्तं तंमि नहचउब्भाए। संपत्ते विरमेज्जा सज्झायं पओसकालम्मि।। यन्नयति यदा रात्रि नक्षत्रं तस्मिन् नभश्चतुर्भागे। सम्प्राप्ते विरमते स्वाध्यायात् प्रदोषकाले।। जो नक्षत्र जिस रात्रि की पूर्ति करता हो, वह (नक्षत्र) जब आकाश के चतुर्थ भाग में आए (प्रथम प्रहर समाप्त हो) तब प्रदोष-काल (रात्रि के आरम्भ) में प्रारब्ध स्वाध्याय से विरत हो जाए। २०.तम्मेव य नक्खत्ते गयणचउब्भागसावसेसंमि। वेरत्तियं पि कालं पडिलेहित्ता मुणी कुज्जा।। तस्मिन्नेव च नक्षत्रे गगनचतुर्भागसावशेषे। वैरात्रिकमपि कालं प्रतिलिख्य मुनिः कुर्यात् ।। वही नक्षत्र जब आकाश के चतुर्थ भाग में शेष रहे तब वैरात्रिक काल (रात का चतुर्थ प्रहर) आया हुआ जान फिर स्वाध्याय में प्रवृत्त हो जाए।१२ पूर्वस्मिन् चतुर्भागे प्रतिलिख्य भाण्डकम्। गुरु वन्दित्वा स्वाध्यायं कुर्याद् दुःखविमोक्षणम् ।। दिन के प्रथम प्रहर के प्रथम चतुर्थ भाग में भाण्ड-उपकरणों का प्रतिलेखन कर, गुरु को वन्दना कर, दुःख से मुक्त करने वाला स्वाध्याय करे। २१. पुव्विल्लंमि चउब्भाए पडिलेहित्ताण भंडयं। गुरुं वंदित्तु सज्झायं कुज्जा दुक्खविमोक्खणं ।। २२.पोरिसोए चउब्भाए वंदित्ताण तओ गुरूं। अपडिक्कमित्ता कालस्स भायणं पडिलेहए।। पौरुष्याश्चतुर्भागे वन्दित्वा ततो गुरुम्। अप्रतिक्रम्य कालस्य भाजनं प्रतिलिखेत्।। पीन पौरुषी बीत जाने पर गुरु को वन्दना कर, काल का प्रतिक्रमण-कायोत्सर्ग किए बिना ही भाजन की प्रतिलेखना करे। २३.मुहपोत्तियं पडिलेहित्ता पडिले हिज्ज गोच्छगं। गोच्छगलइयंगुलिओ वत्थाइं पडिलेहए।। मुखपोतिको प्रतिलिख्य प्रतिलिखेत् गोच्छकम्। गोच्छकलतिकांगुलिकः . वस्त्राणि प्रतिलिखेत्।। मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर गोच्छग की प्रतिलेखना करे। गोच्छग को अंगुलियों से पकड़ कर भाजन को ढांकने के पटलों की प्रतिलेखना करे। २४.उड्ढं थिरं अतुरियं ऊर्ध्वं स्थिरमत्वरितं पुव्वं ता वत्थमेव पडिलेहे। पूर्व तावद् वस्त्रमेव प्रतिलिखेत् । तो बिइयं पप्फोडे ततो द्वितीयं प्रस्फोटयेत् तइयं च पुणो पमज्जेज्जा।।। तृतीयं च पुनः प्रमृज्यात् ।। सबसे पहले ऊकडू-आसन पर बैठ, वस्त्र को ऊंचा रखे,६ स्थिर रखे और शीघ्रता किए बिना उसकी प्रतिलेखना करे-चक्षु से देखे। दूसरे के वस्त्र को झटकारे और तीसरे में वस्त्र की प्रमार्जना करे। Jain Education Intemational ducation Intermational Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४१४ अध्ययन २६ : श्लोक २५-२७ २५.अणच्चावियं अवलियं अणाणुबंधिं अमोसलिं चेव। छप्पुरिमा नव खोडा पाणोपाणविसोहणं ।। अनर्तितमवलितं अननुबन्ध्यऽमौशली चैव। षट्पूर्वा नव-खोडा पाणिप्राणविशोधनम्।। २६.आरभडा सम्मद्दा वज्जेयव्वा य मोसली तइया। पष्फोडणा चउत्थी। विक्खित्ता वेइया छट्ठा।। आरभटा सम्मा वर्जयितव्या च मौशली तृतीया। प्रस्फोटना चतुर्थी विक्षिप्ता वेदिका षष्ठी।। प्रतिलेखना करते समय (१) वस्त्र या शरीर को न नचाए, (२) न मोड़े, (३) वस्त्र के दृष्टि से अलक्षित विभाग न करे, (2) वस्त्र का भींत आदि से स्पर्श न करे, (५) वस्त्र के छह पूर्व और नौ खोटक करे और (६) जो कोई प्राणी हो उसका हाथ पर नी बार विशोधन (प्रमार्जन) करे। मुनि प्रतिलेखना में छह दोषों का वर्जन करे(१) आरभटा-विधि से विपरीत प्रतिलेखन करना अथवा एक वस्त्र का पूरा प्रतिलेखन किए बिना आकुलता से दूसरे वस्त्र को ग्रहण करना। (२) सम्मर्दा–प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को इस प्रकार पकड़ना कि उसके बीच में सलवटें पड़ जाय अथवा प्रतिलेखनीय उपधि पर बैठ कर प्रतिलेखना करना। (३) मोसली-प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को ऊपर, नीचे, तिरछे किसी वस्त्र या पदार्थ से संघट्टित करना। (४) प्रस्फोटना-प्रतिलेखन करते समय रज-लिप्तवस्त्र को गृहस्थ की तरह वेग से झटकना। (५) विक्षिप्ता—प्रतिलेखित वस्त्रों को अप्रतिलेखित वस्त्रों पर रखना अथवा वस्त्र के अञ्चल को इतना: ऊंचा उठाना कि उसकी प्रतिलेखना न हो सके। (६) वेदिका–प्रतिलेखना करते समय घुटनों के ऊपर, नीचे या पार्श्व में हाथ रखना अथवा घुटनों की भुजाओं के बीच रखना। प्रतिलेखना के ये सात दोष और हैं(१) प्रशिथिल वस्त्र को ढीला पकड़ना। (२) प्रलम्ब-वस्त्र को विषमता से पकड़ने के कारण कोनों को लटकना। (३) लोल-प्रतिलेख्यमान वस्त्र का हाथ या भूमि से संघर्षण करना। (४) एकामर्शा-वस्त्र को बीच में से पकड़ कर उसके दोनों पाश्वों का एक बार में ही स्पर्श करना-एक दृष्टि में ही समूचे वस्त्र को देख लेना। (५) अनेक रूप धूनना-प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को अनेक बार (तीन बार से अधिक) झटकना अथवा अनेक वस्त्रों को एक साथ झटकना। (६) प्रमाण-प्रमाद-प्रस्फोटन और प्रमार्जन का जो प्रमाण (नौ-नौ बार करना) बतलाया है, उसमें प्रमाद करना। (७) गणनोपगणना—प्रस्फोटन और प्रमार्जन के निर्दिष्ट प्रमाण में शडूका होने पर उसकी गिनती करना। २७.पसिढिलपलंबलोला एगामोसा अणेगरूवधुणा। कुणइ पमाणिक पमायं संकिए गणणोवगं कुज्जा।।। प्रशिथिलप्रलम्बलोलाः एकामर्शानेकरूपधूनना। करोति प्रमाणे प्रमादं शंकिते गणनोपगं कुर्यात् ।। Jain Education Intemational Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी २८. अणूणाइरित्तपडिले हा अविवच्चासा तहेव य । पढमं पयं पसत्थं सेसाणि उ अप्पसत्थाई ।। २६. पहिलेहणं कुणंतो मिहोकहं कुणइ जणवयकहं वा । देइ व पच्चक्खाणं वाएइ सयं पडिच्छइ वा ।। ३०. पुढवी आउक्काए तेऊवाऊवणस्सङ्गतसाणं । पडिलेहणापमत्ती छण्हं पि विराहओ होइ ।। (पुढवी आउक्काए तेऊवाऊवणस्सइतसाणं । पडिलेहणआउसो छण्डं आराहओ होइ ।) ३१. तइयाए पोरिसीए भत्तं पाणं गवेसए । छण्हं अन्नयरागम्मि कारणंमि समुट्ठिए । ३२. वेयणवेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छ पूण धम्मचिंताए । २३. निग्गंयो धिमंती निग्गंथी वि न करेज्ज छहिं चेव । ठाणेहिं उ इमेहिं अणइक्कमणा य से होइ ।। ३४. आयंके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु । पाणिदया तवहेउं सरीरवोच्छेवणट्टाए । ३५. अवसेसं भंडगं गिज्झा चक्सा पडिलेहए। परमद्धजोयणाओ विहारं विहरए मुणी ।। ४१५ अनूना ऽतिरिक्ता प्रतिलेखा अविव्यत्यासा तथैव च । प्रथमं पदं प्रशस्तं शेषाणि त्वप्रशस्तानि ।। प्रतिलेखनां कुर्वन् मिथःकथां करोति जनपदकथां वा । ददाति वा प्रत्याख्यानं वाचयति स्वयं प्रतीच्छति वा ।। पृथिव्यपकाययोः तेजो-: - वायु-वनस्पति-त्रसाणाम् । प्रतिलेखनाप्रमत्तः षष्णामपि विराधको भवति ।। (पृथिव्यप्रकापयोः तेजोवायुवनस्पत्तित्राणाम्। प्रतिलेखनाऽऽयुक्तः षण्णामाराको भवति । i) तृतीयायां पौरुष्यां भक्तं पानं गवेषयेत् । षण्णामन्यतरस्मिन् कारणे समुत्थिते ।। वेदनाचावृत्याय दर्यार्थाय च संयमार्थाय तथा प्राणप्रत्ययाय षष्टं पुनः धर्मचिन्तायै ।। निर्ग्रन्थो धृतिमान् निर्ग्रन्थ्यपि न कुर्यात् षभिश्चैव । स्थानैस्त्वेभि: अनतिक्रमणं च तस्य भवति ।। आतङ्क उपसर्ग: तितिक्षया ब्रह्मचर्यगुप्तिषु । प्राणिदया तपोहेतोः शरीरव्यवच्छेदार्थाय ।। अवशेषं भाण्डकं गृहीत्वा चक्षुषा प्रतितिखेत । परमर्धयोजनात् विहारं विहरेन्मुनिः ।। अध्ययन २६ : श्लोक २८-३५ वस्त्र के प्रस्फोटन और प्रमार्जन के प्रमाण से अन्यून अनतिरिक्त (न कम और न अधिक) और अविपरीत प्रतिलेखना करनी चाहिए। इन तीन विशेषणों के आधार पर प्रतिलेखना के आठ विकल्प बनते हैं। इनमें प्रथम विकल्प (अन्यून अनतिरिक्त और अविपरीत) प्रशस्त है और शेष अप्रशस्त । जो प्रतिलेखना करते समय काम कथा करता है अथवा जनपद की कथा करता है अथवा प्रत्याख्यान कराता है, दूसरों को पढ़ाता है अथवा स्वयं पढ़ता वह प्रतिलेखना में प्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकायइन छहों कार्यों का विराधक होता है।* ( प्रतिलेखना में अप्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन छहों कायों का आराधक होता है ।) छह कारणों में से किसी एक के उपस्थित होने पर तीसरे प्रहर में भक्त और पान की गवेषणा करे। वेदना ( क्षुधा ) शान्ति के लिए, वैयावृत्त्य के लिए, ईर्या समिति के शोधन के लिए, संयम के लिए तथा प्राण-प्रत्यय ( जीवित रहने) के लिए और धर्म - चिन्तन के लिए भक्त पान की गवेषणा करे। धृतिमान् साधु और साध्वी इन छह कारणों से भक्त-पान की गवेषणा न करे, जिससे उनके संयम का अतिक्रमण न हो । रोग होने पर, उपसर्ग आने पर ब्रह्मचर्य गुप्ति की तितिक्षा (सुरक्षा) के लिए, प्राणियों की दया के लिए, तप के लिए और शरीर-विच्छेद के लिए मुनि भक्त पान की गवेषणा न करे ।" सब ( भिक्षोपयोगी ) भाण्डोपकरणों को ग्रहण कर चक्षु से उनकी प्रतिलेखना करे और दूसरे गांव में भिक्षा के लिए जाना आवश्यक हो तो अधिक से अधिक अर्ध-योजन प्रदेश तक जाए। १३ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३६. चउत्थीए पोरिसीए निक्खिवित्ताण भायणं । सज्झायं तओ कुज्जा सव्वभावविभावणं ।। ३७. पोरिसीए चउब्भाए वंदित्ताण तओ गुरुं । पडिक्कमित्ता कालरस सेज्जं तु पडिलेहए। । ३८. पासवणुच्चारभूमिं च पडिलेहिज्ज जयं जई। काउस्सग्गं तओ कुम्जा सव्वदुक्खविमोक्खणं ।। ३६. देसियं च अईयारं चिंतिज्ज अणुपुव्वसो । नाणे दंसणे चेव चरित्तम्मि तहेव य ।। ४०. पारियकाउस्सग्गो वंदिताण तओ गुरुं । देसियं तु अईयारं आलोएज्ज जहक्कमं ।। ४१. पडिक्कमित्तु निस्सल्लो वंदिताण तओ गुरु काउस्सगं तओ कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्षणं ।। ४२. पारियकाउस्सग्गो वंदित्ताण तओ गुरुं । थुइमंगलं च काऊण कालं संपडिलेहए || ४३. पढमं पोरिसिं सज्झायं बीयं आणं शिवायई । तइयाए निद्दमोक्खं तु सज्झायं तु चउत्थिए ।। ४४. पोरिसीए चउत्थीए कालं तु पडिलेहिया । सज्झायं तओ कुज्जा अबोहेंतो असंजए ।। ४१६ चतुय पौरुष्यां निक्षिप्य भाजनम् । स्वाध्यायं ततः कुर्यात् सर्वभावविभावनम् ।। पीरुष्याश्चतुि वन्दित्वा ततो गुरुम् । प्रतिक्रम्य कालस्य शय्यां तु प्रतिलिखेत् ।। पक्षयणोच्चारभूमि प प्रतिलिखेद्यतं यतिः । कायोत्सर्गं ततः कुर्यात् सर्वदुःखविमोक्षणम्।। दैवसिकं चातिचारं चिन्तयेदनुपूर्वशः। ज्ञाने दर्शने चैव चरित्रे तथैव च ॥ पारितकायोत्सर्गः वन्दित्वा ततो गुरुम् । दैवसिकं त्वतिचारं आलोचये यथाक्रमम् ।। प्रतिक्रम्य निःशल्यः वन्दित्वा ततो गुरुम् । कायोत्सर्गं ततः कुर्यात् सर्वदुःखविमोक्षणम् ।। पारितकायोत्सर्गः वन्दित्वा ततो गुरुम् । स्तुतिमंगलं च कृत्या काल संप्रतिलिखेत् । प्रथमां पौरुषीं स्वाध्यायं द्वितीयां ध्यानं ध्यायति । तृतीयायां निद्रामोक्षं तु स्वाध्यायं तु चतुर्थ्या पौरुष्यां चतुथ्यों कालं तु प्रतिलिख्य । स्वाध्यायं ततः कुर्यात् अयोधयन्नसंयतान् । अध्ययन २६ : श्लोक ३६-४४ चौथे प्रहर में भाजनों को प्रतिलेखन पूर्वक बांध कर रख दे, फिर सर्व भावों को प्रकाशित करने वाला ** स्वाध्याय करे। चौथे प्रहर के चतुर्थ भाग में पौन पौरुषी बीत जाने पर स्वाध्याय के पश्चात् गुरु को वन्दना कर, काल का प्रतिक्रमण कर, ( स्वाध्याय- काल से निवृत्त होकर ) शय्या की प्रतिलेखना करे। यतनाशील यति पर प्रस्रवण और उच्चार भूमि की प्रतिलेखना करे । तदनन्तर सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे। ज्ञान, दर्शन और चारित्र सम्बन्धी दैवसिक अतिचार का अनुक्रम से चिन्तन करे । कायोत्सर्ग को समाप्त कर गुरु को वन्दना करे। फिर अनुक्रम से दैवसिक अतिचार की आलोचना करे । प्रतिक्रमण से निःशल्य होकर गुरु को वन्दना करे । फिर सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग को समाप्त कर गुरु को वन्दना करे। फिर स्तुति-मंगल करके काल की प्रतिलेखना करे । प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे । चौथे प्रहर के काल की प्रतिलेखना कर असंयत व्यक्तियों को न जगाता हुआ स्वाध्याय करे। ! Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी ४१७ अध्ययन २६ : श्लोक ४५-५२ ४५.पोरिसीए चउब्भाए वंदिऊण तओ गुरूं। पडिक्कमित्तु कालस्स कालं तु पडिलेहए।। पौरुष्याश्चतुर्भागे वन्दित्वा तो गुरुम्। प्रतिक्रम्य कालस्य कालं तु प्रतिलिखेत् ।। चौथे प्रहर के चतुर्थ भाग में गुरु को वन्दना कर, काल का प्रतिक्रमण कर (स्वाध्याय-काल से निवृत्त होकर) काल की प्रतिलेखना करे। ४६.आगए कायवोस्सग्गे सव्वदुक्खविमोक्खणे। काउस्सग्गं तओ कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्खणं ।। आगते कायव्युत्सर्गे सर्वदुःखविमोक्षणे। कायोत्सर्ग ततः कुर्यात् सर्वदुःखविमोक्षणम्।। सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला काय-व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) का समय आने पर सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे। ४७.राइयं च अईयारं चिंतिज्ज अणुपुव्वसो। नाणंमि दंसणंमी चरित्तंमि तवम्मि य।। रात्रिकं चातिचारं चिन्तयेदनुपर्वशः। ज्ञाने दर्शन चरित्रे तपसि च॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप सम्बन्धी रात्रिक अतिचार का अनुक्रम से चिन्तन करे। कायोत्सर्ग को समाप्त कर, गुरु को वंदना करे। फिर अनुक्रम से रात्रिक अतिचार की आलोचना करे। ४८.पारियकाउस्सग्गो वंदित्ताण तओ गुरूं। राइयं तु अईयारं आलोएज्ज जहक्कम ।। पारितकायोत्सर्गः वन्दित्वा ततो गुरुम्। रात्रिकं त्चतिचार आलोचयेद् यथाक्रमम्।। प्रतिक्रमण से निःशल्य होकर गुरु को वंदना करे, फिर सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे। ४६.पडिक्कमित्तु निस्सल्लो वंदित्ताण तओ गुरूं। काउस्सग्गं तओ कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्खणं ।। प्रतिक्रम्य निःशल्यः वन्दित्वा ततो गुरुम्। कायोत्सर्ग ततः कुर्यात् सर्वदुःखविमोक्षणम् ।। ५०.किं तवं पडिवज्जामि एवं तत्थ विचिंतए। काउस्सग्गं तु पारित्ता वंदई य तओ गुरूं।। कि तपः प्रतिपद्ये एवं तत्र चिचिन्तयेत्। कायोत्सर्ग तु पारयित्वा वन्दते च ततो गुरुम्।। मैं कौन-सा तप ग्रहण करूं२०--कायोत्सर्ग में ऐसा चिन्तन करे। कायोत्सर्ग को समाप्त कर, गुरु को वन्दना करे। ५१. पारियकाउस्सग्गो वंदित्ताण तओ गुरूं। तवं संपडिवज्जेत्ता करेज्ज सिद्धाण संथवं ।। पारितकायोत्सर्गः वन्दित्वा ततो गुरुम्। तपः संप्रतिपद्य कुर्यात् सिद्धानां संस्तवम्।। कायोत्सर्ग पारित होने पर मुनि गुरु को वंदना करे। फिर तप को स्वीकार कर सिद्धों का संस्तव (स्तुति) करे। यह समाचारी मैंने संक्षेप में कही है। इसका आचरण कर बहुत से जीव संसार-सागर को तर गए। ५२.एसा सामायारी समासेण वियाहिया। जं चरित्ता बहू जीवा तिण्णा संसारसागरं ।। एषा समाचारी समासेन व्याख्याता। यां चरित्वा बहवो जीवाः तीर्णाः संसारसागरम्।। –ति बेमि। -इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन २६ : सामाचारी १. (श्लोक १-७) तो नैषेधिकी का उच्चारण करे। “मैं आवश्यक कार्य से निवृत्त दस समाचारी का वर्णन भगवती (२५५५५), स्थानाङग हो चुका हूं, अब मैं प्रवृत्ति के समय कोई अकरणीय कार्य हुआ (१०।१०२) और आवश्यक नियुक्ति में भी है। उत्तराध्ययन में हो इसका निषेध करता हूं, उससे अपने आपको दूर करता सामाचारी का क्रम उनसे भिन्न है। उनकी प्रथम तीन समाचारियों हूं'-इस भावना के साथ वह स्थान में प्रवेश करता है। यह को यहां छठा, सातवां और आठवां स्थान प्राप्त है। नौवें साधुओं के गमनागमन की सामाचारी है। गमन और आगमन सामाचारी का नाम भी भिन्न है। भगवती आदि में उसका नाम काल में उसका लक्ष्य अबाधित रहे, इसका इन दो सामाचारियों 'निमंत्रण' है। यहां उसका नाम 'अभ्युत्थान' है। में सम्यक चिन्तन है। ___ आवश्यक नियुक्ति में सामाचारी तीन प्रकार की बतलाई आपृच्छा, प्रतिपूच्छा गई है-(१) ओघ सामाचारी, (२) दस-विध सामाचारी और सामान्य विधि यह है कि उच्छवास और निःश्वास के (३) पद-विभाग सामाचारी।' सिवाय शेष सब कार्यों के लिए गुरु की आज्ञा लेनी चाहिए।" _ 'ओघ सामाचारी' का प्रतिपादन ओघनियुक्ति में है। यहां आज्ञा के दो स्थान बतलाए गए हैं—स्वयंकरण, परकरण। उसके सात द्वार हैं—(१) प्रतिलेखन (२) पिण्ड, (३) उपधिप्रमाण, प्रथम प्रवृत्ति को 'स्वयंकरण' तथा अपर प्रवृत्ति को (४) अनायतन (अस्थान) बर्जन, (५) प्रतिसेवान—दोषाचरण, 'परकरण' कहा जाता है। स्वयंकरण के लिए आपृच्छा (प्रथम (६) आलोचना और (७) विशोधि। बार पूछने) तथा परकरण के लिए प्रतिपृच्छा (पुनः पूछने) का ___ 'पद-विभाग समाचारी' छेद सूत्रों में कथित विषय है। विधान है। 'दस-विध सामाचारी' का वर्णन इस अध्ययन में है। वह इस आवश्यक नियुक्ति के अनुसार प्रथम वार या द्वितीय प्रकार है वार किसी भी प्रवृत्ति के लिए गुरु से आज्ञा प्राप्त करने को आवश्यकी, नैषेधिकी 'आपृच्छा' कहा जाता है। प्रयोजनवश पूर्व-निषद्ध कार्य करने सामान्य विधि यह है कि मनि जहां ठहरा हो उस की आवश्यकता होने पर गुरु से उसकी आज्ञा प्राप्त करने को उपाश्रय से बाहर न जाए। विशेष विधि के अनुसार आवश्यक 'प्रतिपृच्छा' कहा जाता है। गुरु के द्वारा किसी कार्य पर कार्य होने पर वह उपाश्रय से बाहर जा सकता है। किन्त नियुक्त किए जाने पर उसे प्रारम्भ करते समय पुनः गुरु की बाहर जाते समय समाचारी का ध्यान रखते हुए वह आवश्यकी आज्ञा लेनी चाहिए-यह भी प्रतिपृच्छा का आशय है। करे—आवश्यकी का उच्चारण करे। 'आवश्यक कार्य के लिए छन्दना, अभ्युत्थान बाहर जा रहा हूं'-इसे निरन्तर ध्यान में रखे, अनावश्यक मुनि को भिक्षा में जो प्राप्त हो उसके लिए अन्य साधुओं कार्य में प्रवृत्ति न करे। आवश्यकी का प्रतिपक्ष शब्द है को निमंत्रित करना चाहिए तथा जो आहार प्राप्त न हो उसे नैषेधिकी। कार्य से निवृत्त होकर जब वह स्थान में प्रवेश करे लाने जाए तब दूसरे साधुओं से पूछना चाहिए.--'क्या मैं १. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६६५। २. ओघनियुक्ति, गाथा २: पडिलेहणं च पिंडं, उवहिपमाणं अणाययणवज्ज। पडिसेवण मालोअण, जह य विसोही सुविहियाणं ।। बृहद्वृत्ति, पत्र ५३४ : ‘गमने' तथाविधालम्बनतो बहिनिःसरणे आवश्यकेषु अशेषावश्यकर्त्तव्यव्यापारेषु सत्सु भवाअवश्यकी, उक्त हि.“आवास्सिया उ आवस्सएहिं सुब्बेहिं जुत्तजोगस्से" त्यादि तां 'कुर्याद्' विदध्यात्। ४. वही, पत्र ५३४ : स्थीयतेऽस्मिन्नित्ति स्थानम्-उपाश्रयस्तस्मिन् प्रविशन्निति शेषः, कुर्यात, कां ? 'नषेधिकी' निषेधन निषेधः-पापानुष्ठानेभ्य आत्मनो व्यावर्त्तनं, तस्मिन् भवा नैषेधिकी, निषिद्धात्मन एतत्सम्भवात्, उक्तं हि—'जो होइ निसिद्धप्पा निसीहिया तस्स भावओ होइ।' ५. वही, पत्र ५३५ : उच्छ्वासनिःश्वासी विहाय सर्वकार्यञ्चपि स्वपरसम्बन्धिषु गुरवः प्रष्टव्याः। ६. वही, पत्र ५३४ : आडिति-सकलकूत्याभिव्याप्या प्रच्छना आप्रच्छना इदमहं कुर्या न वेत्येवंरूपा तां स्वयमित्यात्मनः करणं- कस्यचिद्विवक्षितकार्यस्य निर्वत्तनं स्वयंकरण तस्मिन्, तथा 'परकरणे' अन्यप्रयोजनविधाने प्रतिप्रच्छना। ७. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६६७ : आपुच्छणा उ कज्जे, पुवनिसिद्धेण होइ पडिपुच्छा। ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ५३४ : गुरुनियुक्तोऽपि हि पुनः प्रवृत्तिकाले प्रतिपृच्छत्येव गुरु, स हि कार्यान्तरमप्यादिशेत् सिद्धं वा तदन्यतः स्यादिति। Jain Education Intemational Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी ४१९ अध्ययन २६ : श्लोक ८ टि० २ आपके लिए भोजन लाऊं?' इन दोनों सामाचारियों को 'छन्दना' व्यवस्था की दृष्टि से एक गण का साधु दूसरे गण में नहीं जा और 'अभ्युत्थान' कहा जाता है।' अभ्युत्थान के अर्थ में सकता था। इसके कुछ अपवाद भी थे आपवादिक-विधि के निमंत्रण का भी प्रयोग किया जाता है। अनुसार तीन कारणों से दूसरे गण में जाना विहित था। दूसरे इच्छाकार गण में जाने को उपसंपदा कहा जाता था। ज्ञान की वर्त्तना __ संघीय व्यवस्था में परस्पर सहयोग लिया-दिया जाता है, (पुनरावृत्ति या गुणन), संधान (त्रुटित ज्ञान को पूर्ण करने) किन्तु वह बल-प्रेरित न होकर इच्छा-प्रेरित होना चाहिए। और ग्रहण (नया ज्ञान प्राप्त करने) के लिए जो उपसंपदा औत्सर्गिक-विधि के अनुसार बल प्रयोग सर्वथा वर्जित है। बड़ा स्वीकार की जाती उसे 'ज्ञानार्थ उपसंपदा' कहा जाता था। इसी साधु छोटे साधु से और छोटा साधु बड़े साधु से कोई काम प्रकार दर्शन की वर्त्तना (स्थिरीकरण), संधान और दर्शन कराना चाहे तो उसे 'इच्छाकार' का प्रयोग करना चाहिए— विषयक शास्त्रों के ग्रहण के लिए जो उपसंपदा स्वीकार की 'यदि आपकी इच्छा हो तो मेरा काम आप करें', ऐसा कहना जाती, उसे 'दर्शनार्थ उपसंपदा' कहा जाता था। वैयावृत्त्य और चाहिए। आपवादिक मार्ग में आज्ञा और बलाभियोग का तपस्या की विशिष्ट आराधना के लिए जो उपसंपदा स्वीकार व्यवहार भी किया जा सकता है।' की जाती, उसे 'चारित्रार्थ उपसंपदा कहा जाता था। मिथ्याकार २. (पुव्विल्लंमि चउब्भाए आइच्चमि समुट्ठिए) साधक के द्वारा भूल होना संभव है किन्तु अपनी भूल 'पुब्बिलंमि चउब्भाए' यह आठवें तथा इक्कीसवें-दोनों का भान होते ही उसे 'मिथ्याकार' का प्रयोग करना चाहिए। श्लोकों का प्रथम चरण है। शान्त्याचार्य ने आठवें श्लोक की जो दुष्कृत को मिथ्या मानकर उससे निवृत्त होता है, उसी का व्याख्या में इसका अर्थ 'पौन-पौरुषी १० तथा इक्कीसवें की दुष्कृत मिथ्या होता है। व्याख्या में इसका अर्थ 'प्रथम प्रहर" किया है। किन्तु बाईसवें तथाकार श्लोक में पात्र-प्रतिलेखना का निर्देश है, वहां पौन-पौरुषी के जो मुनि कल्प और अकल्प को जानता है, महाव्रत में लिए 'पोरिसीए चउब्भाए' पाठ है और इक्कीसवें श्लोक में स्थित होता है, उसे 'तथाकार' का प्रयोग करना चाहिए। गुरु जब जहां वस्त्र-प्रतिलेखना का निर्देश है, वहां 'पुव्विल्लंमि चउब्भाए' सूत्र पढाएं, सामाचारी आदि का उपदेश दें, सूत्र का अर्थ बताएं पाठ है। अतः आठवें श्लोक में वस्त्र-प्रतिलेखना का ही निर्देश अथवा कोई बात कहें तब तथाकार का प्रयोग करना चाहिए.-- होना चाहिए। स्वाध्याय या वैयावृत्त्य का निर्देश वस्त्र-प्रतिलेखना 'आप जो कहते हैं वह अवितथ है—सच है' यों कहना चाहिए। के पश्चात् आचार्य से लिया जाता है। उपसंपदा शान्त्याचार्य ने 'पुव्विल्लंमि चउभाए' का वैकल्पिक अर्थ प्राचीन काल में साधुओं के अनेक गण थे। किन्तु 'प्रथम-प्रहर' तथा 'भंडयं पडिलेहित्ता' का अर्थ 'वस्त्र-प्रतिलेखना' बृहद्वृत्ति, पत्र ५३४, ५३५ : ७. आवश्यक नियुक्ति गाथा ६८६ : (क) छन्दना प्रागगृहीतद्रव्यजातेन शेषयतिनिमन्त्रणात्मिका। वायणपडिसुणणाए, उवऐसे सुत्तअत्थकहणाए। (ख) अभीत्याभिमुख्येनोत्थानम्-उद्यमनमभ्युत्थानं तच्च....आचार्यग्लान- अवितहमेअंति तहा, पडिसुणणाए अ तहकारो।। बालादीनां यथोचिताहारभेषजादिसम्पादनम्, इह च सामान्याभिधाने- ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ५३५ : 'अच्छणे' त्ति आसने प्रक्रमादाचार्यान्तरादिसन्निधी ऽप्यभ्युत्थानं निमन्त्रणारूपमेव परिगृह्यते। अवस्थाने उप-सामीप्येन सम्पादनं--गमनं सम्पदादित्वात्विवपि २. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६६७ : उपसंपद्-- इयन्तं कालं भवदन्तिके मयासितव्यमित्येवंरूपा। पुव्वगहिएण छंदण, निमंतणा होइ अगहिएणं। ६. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६६८, ६६E : ३. (क) आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६७३ : उपसंपया य तिविहा, नाणे तह दंसणे चरित्ते अ। अहयं तुभं एअं, कजं तु करेमि इच्छकारेणं। दसणनाणे तिविहा, दुविहा य चरित्तअट्ठाए।। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ५३५ : इच्छा--स्वकीयोऽभिप्रायस्तया करणं -- वत्तणा संधणा चेव, गहणं सुत्तत्थतदुभए।। तत्कार्यनिर्वर्तनभिच्छाकारः, 'सारणे' इत्यौचित्यत आत्मनः परस्य वेयावच्चे खमणे, काले आवक्कहाइ अ।। वा कृत्यं प्रति प्रवर्तने, तत्रात्मसारणे यथेच्छाकारेण युष्मच्चिकीर्षितं १०. बृहवृत्ति, पत्र ५३६ : 'पुचिल्लमि' त्ति पूर्वस्मिश्चतुर्भागे आदित्ये कार्यमिदमहं करोमीति। 'समुत्थिते' समुद्गते, इह च यथा दशाविकलोऽपि पटः पट एवोच्यते, ४. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ६७७ : एवं किञ्चिदूनोऽपि चतुर्भागश्चतुर्भाग उक्तः, ततोऽयमर्थः-बुद्ध्या आणा बलाभिओगो, निग्गंथाणं न कप्पए काउं। नभश्चतुर्धा विभज्यते, तत्र पूर्वदिक्संबद्धे किश्चिदूननभश्चतुर्भागे यदादित्यः इच्छा पउजिअब्बा, सेहे रायणिए य तहा।। समुदेति तदा, पादोनपौरुष्यामित्युक्तं भवति । ५. वही, गाथा ६७७ वृत्ति, पत्र ३४४ : अपवादतस्थाज्ञाबला- भियोगावपि ११. वही, पत्र ५४० : 'पूर्वस्मिश्चतुर्भाग' प्रथमपीरुषीलक्षणे प्रक्रमाद् दिनस्य। दुर्विनीते प्रयोक्तव्यौ, तेन च सहोत्सर्गतः संवास एव न कल्पते, १२. ओघनियुक्ति वृत्ति, पत्र ११५ : उक्ता वस्त्रप्रत्युपेक्षणा, तत्समाप्ती च बहुस्वजनादिकारणप्रतिबद्धतया त्वपरित्याज्ये अयं विधिः, प्रथममिच्छाकरेण किं कर्तव्यमित्यत आह.--'समत्तपडिलेहणाए सज्झाओ' समाप्तायां योज्यते, अकुर्वन्नाज्ञया पुनर्बलाभियोगेनेति। प्रत्युपेक्षणयां स्वाध्यायः कर्त्तव्यः सूत्रपौरुषीत्यर्थः, पादोनप्रहरं यावत् । वही, गाथा ६८२ : इदानीं पात्रप्रत्युपेक्षणामाह। संजमजोगे अब्भुट्ठिअस्स, जं किंचि वितहमायरिअं। मिच्छा एअंति विआणिऊण मिच्छत्ति कायव्वं ।। Jain Education Intemational Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४२० अध्ययन २६ : श्लोक ८ टि० ३,४ किया है।' इक्कीवें श्लोक के संदर्भ में यह वैकल्पिक अर्थ ही ३. भाण्ड-उपकरणों की (भंडय) संगत लगता है। पौन-पौरुषी की प्रतिलोना के प्रकरण में 'भण्डक' का जयाचार्य के अनुसार दिन के प्रथम चतुर्थ भाग का अर्थ अर्थ 'पात्र आदि उपकरण' तथा प्रभातकालीन प्रतिलेखना के 'प्रथम-प्रहर का प्रथम चतुर्थ भाग' है। साधारणतया यह प्रकरण में उसका अर्थ 'पछेवडी आदि उपकरण' होता है। कालमान सूर्योदय के २ घड़ी (१८ मिनट) तक का है। ३ घण्टा ४. प्रतिलेखना करे (पडिलेहिता) १२ मिनट का प्रहर होने से ४७ मिनट का कालमान पूरा प्रतिलेखना और प्रमार्जना ये दोनों परस्पर संबंधित हैं। चौथा भाग होता है। जब दिन का प्रहर ३ घंटा ३० मिनट का ट का जहां प्रतिलेखना का निर्देश होता है, वहां प्रमार्जना स्वयं आ होता है, उस समय चौथा भाग ५२ मिनट का होता है। उस जाती है और जहां प्रमार्जना का निर्देश होता है, वहां प्रतिलेखना समय ४८ मिनट चौथे भाग से कुछ कम होता है। स्वयं प्राप्त होती है। प्रतिलेखना का अर्थ है 'दृष्टि से देखना' जयाचार्य का अभिप्राय उत्तरवर्ती साहित्य और परम्परा और प्रमार्जन का अर्थ है 'झाडकर साफ करना।' पहले पर आधारित है। प्राचीन परम्परा के अनुसार वस्त्र-प्रतिलेखना प्रतिलेखना और तत्पश्चात प्रमार्जना की जाती है। सूर्योदय के साथ समाप्त हो जाती थी। इसीलिए शान्त्याचार्य ने प्रतिलेखनीय लिखा है कि बहुत प्रकाश होने से सूर्य के अनुत्थान या अनुदय शरीर (खड़े होते, वैठते और सोते समय), उपाश्रय, को ही उत्थान या उदय कहा गया है। उपकरण, स्थण्डिल (मल-मूत्र के परिष्ठापना की भूमि), अवष्टम्भ ओघनियुक्ति में प्रभातकालीन प्रतिलेखना-काल के चार और मार्ग—ये प्रतिलेखनीय हैं-इनकी प्रतिलेखना की जाती है। और मार्ग ये अभिमतों का उल्लेख मिलता है उपकरण-प्रतिलेखना दो प्रकार की होती है—(१) वस्त्र-प्रतिलेखना (१) सूर्योदय का समय-प्रभास्फाटन का समय। और (२) पात्र-प्रतिलेखना। पात्र प्रतिलेखना का क्रम और (२) सूर्योदय के पश्चात् प्रभास्फाटन होने के पश्चात्। विधि तेईसवें श्लोक में प्रतिपादित है। वस्त्र-प्रतिलेखना की (३) परस्पर जब मुख दिखाई दे। विधि चौबीस से अठाईसवें श्लोक तक प्रतिपादित है। ओघनियुक्ति (४) जिस समय हाथ की रेखा दिखाई दे। में गाथा २८८ से २६५ (पत्र ११७-११६) तक पात्र-प्रतिलेखना ये अनादेश माने गए हैं। निर्णायक पक्ष यह है कि का विवरण है और गाथा २६४ से २६६ (पत्र १०८-१११) प्रतिक्रमण के पश्चात् तक वस्त्र-प्रतिलेखना का विवरण है। (१) मुख-वस्त्रिका, (२) रजोहरण, (३-४) दो निषधाए- प्रतिलेखना-काल एक सूत्र की आभ्यन्तर निषद्या और दूसरी बाहरी पाद-प्रोञ्छन, वस्त्र-प्रतिलेखना के दो काल हैं--पूर्वाह्न (प्रथम-प्रहर) (५) चोलपट्टक, (६-८) तीन उत्तरीय, (६) संस्तारक पट्ट और और अपराहून (चतुर्थ-प्रहर) । पात्र-प्रतिलेखना का काल भी (१०) उत्तर-पट्र की प्रतिलेखना के अनन्तर ही सूयादय हा यही है। काल-भेद से प्रतिलेखना के तीन काल हो जाते हैंजाए, वह उस (प्रतिलेखना) का काल है।" बहुमान्य अभिमत (१) प्रभात, (२) अपराह्न तीसरे प्रहर के पश्चात् यही रहा है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५३६ : यद्वा पूर्वस्मिन्नभश्चतुर्भागे आदित्ये समुत्थिते इव समुत्थिते, बहुतरप्रकाशीभवनात्तस्य, भाण्डमेव भाण्डकं ततस्तदिव धर्मद्रविणोपार्जनाहेतुत्वेन मुखवस्त्रिकावर्षाकल्पादीह भाण्डकमुच्यते, तत्प्रतिलेख्य। उत्तराध्ययन जोड़ पत्र ३७ : दिवस तणा पहिला पोहर रै मांहि । धुरला चौथा भाग में ताहि ।। एतले दो घड़ी ने विषह। सूर्य उग्या थी ए लेह ।।३२।। वस्त्रादिक उपगरण सुमंड। पडिलेही रुडी रीत सुभंड।। पडिलेहणा किया पछे तिवार। गुरु प्रतिवंदि करी नमस्कार ।। ३३ ।। बृहद्वृत्ति, पत्र ५३६। ४. ओधनियुक्ति, वृत्ति गा० २६६, २७० : (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५६०वृत्ति, पत्र १६६ : प्रतिक्रमणकरणानन्तरं अनुद्गते सूरे-सूर्योद्गमादर्वाग् । (ग) धर्मसंग्रह, पृ० २२ : प्रतिलेखना सूर्येनुद्गते एव कर्त्तव्या। ६. ओघनियुक्ति, गाथा २६३ : ठाणे उवगरणे य धंडिलउवथंभमग्गपडिलेहा। किमाई पडिलेहा, पुबण्हे चेव अवरण्हे ।। ७. ओघनियुक्ति भाष्य, गाथा १५८ : उवगरण वत्थपाए, वत्थे पडिलेहणं तु वोच्छामि। पुवण्हे अवरण्हे, मुहणंतगमाइ पडिलेहा ।। ८. (क) ओपनियुक्ति भाष्य, गाथा १५८ वृत्ति : पूर्वाहूणे वस्त्रप्रत्युपेक्षणा भवत्यपराहणे च। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ५३७ : तृतीयायां भिक्षाचर्यां पुनश्चतुर्थ्या स्वाध्यायम्, उपलक्षणत्वात्तृतीयायां भोजनबहिर्गमनादीनि, इतरत्र तु प्रतिलेखनास्थण्डिलप्रत्युपेक्षणादीनि गृह्यन्ते। ९. (क) ओघनियुक्ति भाष्य, गाथा १७३ वृत्ति : पात्रप्रत्युपेक्षणामाह 'चरिमाए' चरमाया पादोनपौरुष्यां प्रत्युपेक्षेत 'ताहे' ति 'तदा' तस्मिन् काले स्वाध्यायानन्तरं पात्रकद्वितयं प्रत्युपेक्षेत। (ख) उत्तरज्झयणाणि २६।२२, ३६। अरुणावासग पुव्वं परोप्परं पाणिपडिलेहा ।। एते उ अणाएसा अंधारे उग्गएविहु न दीसे। ४. (क) ओघनियुक्ति, गा० २७० : मुहरयनिसिज्जचोले, कप्पतिगदुपट्टथुई सूरो। Jain Education Intemational Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी और (३) उद्घाट - पौरुषी— पौन - पौरुषी ।' मुख-पोतिका आदि दस उपकरणों का प्रतिलेखना-काल प्रभात समय ( प्रतिक्रमण के पश्चात् — सूर्योदय से पूर्व ) है । तीसरा प्रहर बीतने पर चौदह उपकरणों की प्रतिलेखना का समय आता है। चौदह प्रतिलेखनीय उपकरणों का विवरण निम्न प्रकार पाया जाता है : ओमनियुक्ति (१) पात्र (२) पात्रबंध (३) पात्र - स्थापन (४) पात्र - केसरिका (५) पटल (६) रजस्त्राण (७) गुच्छग ( ८-१० ) तीन पछेवड़ी (११) रजोहरण (१२) मुख वस्विका (१३) मात्रक (१४) चोलपट्टकर पौन - पौरुषी के समय ७ 'जाती थी। वे उपकरण ये हैं ओघनिर्युक्ति (१) पात्र (२) पात्र बन्ध १. (३) पात्र - स्थापन (४) पात्र - केसरिका (५) पटल (६) रजस्त्राण (३) पटल (४) पात्र - केसरिका (५) पात्र बन्ध (६) रजस्त्राण (७) पात्र - स्थापन (७) गुडग ५. उत्तर गुणों ( स्वाध्याय आदि) की उत्तरगुणे प्रवचनसारोद्वार (१) मुख-पोतिका (२) चोलपट्टक (३) गोच्छग (४) पात्र - प्रतिलेखनिका (५) पात्र - बंध (६) पटल (७) रजस्त्राण (८) पात्र स्थापन (६) मात्रक (१०) पात्र (११) रजोहरण ( १२-१४ ) तीन पछेवड़ी * उपकरणों की प्रतिलेखना की २. ओघनिर्युक्ति, गाथा ६६८-६७० : प्रवचनसारोद्धार (१) मुखपोतिका (२) गोच्छग पांच महाव्रत मूलगुण हैं। स्वाध्याय, ध्यान आदि उनकी अपेक्षा उत्तरगुण कहलाते हैं। उत्तरगुण का सामान्य काल विभाग प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५६०-५६२ : पडिलेहणाण गोसावराहउग्धाडपोरिसीसु तिगं । तत्थ पढमा अणुग्गयसूरे पडिक्कमणकरणाओ ।। मुहपोत्ति चोलपट्टो कप्पतिगं दो निसिज्ज रयहरणं । संथारुत्तरपट्टी दस पेहाऽणुग्गए सूरे।। उवगरणचउद्दसगं पडिलेहिज्जइ दिणस्स पहरतिगे। पत्तं पत्ताबंधो, पायवणं च पायकेसरिया । पडलाई रयत्ताणं च गुच्छओ पायनिज्जोगो ।। तिन्नेव च पच्छागा, रयहरणं चैव होइ मुहपत्ती । एसो दुवालसविहो, उवही जिणकप्पियाणं तु || एए चैव दुवालस, मत्तग अइरेग चोलपट्टो य । एसो चउद्दसविहो, उवही पुण थेरकप्पम्मि ।। ४२१ || इस प्रकार बतलाया गया है: प्रथम प्रहर में स्वाध्याय । द्वितीय प्रहर में — ध्यान -पढ़े हुए विषय का अर्थ - चिन्तन अथवा मानसिक एकाग्रता का अभ्यास । तीसरे प्रहर में— भिक्षाचारी, उत्सर्ग आदि । चतुर्थ प्रहर में — फिर स्वाध्याय । यह दिनचर्या की स्थूल रूपरेखा है। इसमें मुख्य कार्यों का निर्देश किया गया है। प्रतिलेखना, वैयावृत्त्य आदि आवश्यक विधियों का इसमें उल्लेख नहीं है । प्रतिलेखना का उल्लेख २१-२२ वें श्लोक में स्वतंत्र रूप से किया गया है। अध्ययन २६ : श्लोक ८ टि० ५ यह विभाग उस समय का है जब आगम- सूत्र लिखित नहीं थे। उन्हें कंठस्थ रखने के लिए अधिक समय लगाना होता था । संभवतः इसीलिए प्रथम और चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय की व्यवस्था की गई। इन्हें 'सूत्र - पौरुषी' भी कहा जाता था। दूसरे प्रहर में अर्थ समझा जाता था। इसीलिए उसे 'अर्थ - पौरुषी ' कहा जाता था। जब भिक्षुओं के लिए एक वक्त भोजन —- एक बार खाने की व्यवस्था थी तब भिक्षा के लिए तीसरा प्रहर ही सर्वाधिक उपयुक्त था और उस समय जनता के भोजन का समय भी संभवतः यही था। कुछ आचार्यों के अभिमत में यह अभिग्रहधारी भिक्षुओं की विधि है। अठारहवें श्लोक में कथित नींद लेने की विधि से तुलना करने पर उक्त अभिमत संगत लगता है। छेद- सूत्रों द्वारा प्रथम एवं चरम प्रहर की भिक्षा का भी समर्थन होता है।" ओघनिर्युक्ति में आपवादिक विधि के अनुसार दो-तीन बार की भिक्षा का भी विधान मिलता है। यह भी हो सकता है कि ये आपवादिक-विधियां छेद-सूत्रों की रचना - काल में मान्य हुई हों। ओषनियुक्ति के अनुसार नींद लेने की विधि विभिन्न व्यक्तियों की अपेक्षा से इस प्रकार है- प्रथम और चतुर्थ प्रहर में सब साधु स्वाध्याय करते हैं, बिचले दो प्रहरों में नींद लेते हैं। वृषभ - साधु दूसरे प्रहर में भी जागते हैं, वे केवल तीसरे प्रहर ही सोते हैं। आचार्य तीसरे प्रहर में स्वाध्याय करते हैं। ३. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५६२ वृत्ति, पत्र १६६ । ४. ओघनियुक्ति, गाथा ६६८ । ५. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ५६२ वृत्ति, पत्र १६६ । ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५४३ । ७. ८. (ख) उत्तराध्ययन जोड़, ढाल २६।३८-४६ । बृहदूकल्प, ५।६ । ओघनिर्युक्ति भाष्य, गाथा १४६ : एवंपि अपरिचत्ता, काले खवणे अ असहुपुरिसे य । कालो गिम्हो उ भवे, खमगो वा पढमबिइएहिं ।। ६. वही, गाथा ६६० : सव्वेवि पढमजामे, दोन्नि उ वसभा उ आइमा जामा । तइओ होइ गुरूणं, चउत्थओ होइ सव्वेसिं । । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४२२ अध्ययन २६ : श्लोक १२,१३ टि०६,७ शयन-विधि के इन विभिन्न प्रकारों को देखते हुए इसी निष्कर्ष दूसरे चन्द्र-वर्ष में श्रावण बदी १३ से वृद्धि प्रारम्भ और पर पहुंचते हैं कि तीसरे प्रहर में सोने की विधि या तो किसी माघ सुदी ४ से हानि प्रारम्भ। विशिष्ट साधु-वर्ग के लिए है या ओघनियुक्ति का विधान तीसरे वर्ष में श्रावण सुदी १० से वृद्धि प्रारम्भ और माघ पूर्वकालीन नहीं है। बदी १ से हानि प्रारम्भ। मुनि के लिए सोने की नियुक्ति-कालीन-विधि इस प्रकार चौथे वर्ष में श्रावण बदी ७ से वृद्धि प्रारम्भ और माघ बदी १३ से हानि प्रारम्भ पहला प्रहर पूरा बीतने पर गुरु के पास जाए। “इच्छामि पांचवे वर्ष में श्रावण सुदी से वृद्धि प्रारम्भ और माघ खमासमणो बंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए मत्थएण वंदामि, सुदी १० से हानि प्रारम्भ खमासमणा ! बहु पडिपुण्णा पोरिसी अणुजाणह राइसंसारयं"-- पौरुषी का कालमान यह पाठ बोल कर सोने की आज्ञा मांगे। फिर प्रस्रवण करे। पौरुषी का कालमान एक नहीं है। वह एक दिन सापेक्ष जहां सोने का स्थान हो वहां जाए। उपकरणों पर जो डोर बांधी होता है। जब दिन का कालमान बढ़ता है तब पौरुषी का हुई हो उसे खोले। संस्तार-पट्ट और उत्तर-पट्ट का प्रतिलेखन कालमान भी बढ़ता है। दिन का कालमान घटने से वह भी घट कर उन्हें उरु (साथल) पर रख दे। फिर सोने की भूमि का जाता है। दिन का भाग पौरुषी (प्रहर) होता है। दिन का प्रतिलेखन और प्रमार्जन करे। वहां संस्तार-पट्ट बिछाए, उस कालमान जघन्य १२ मुहूर्त का होता है और उत्कृष्ट में १८ पर उत्तर-पट्ट बिछाए। मुख-वस्त्रिका से उपरले शरीर का और मुहूर्त का। इसलिए प्रहर का कालमान जघन्य १२ ४ = ३ रजोहरण से निचले शरीर का प्रमार्जन करे। उत्तरीय वस्त्र को ___ मुहूर्त का उत्कृष्ट में १४ + ४ = ४. मुहूर्त का होता है। बाएं पार्श्व में रख दे। बिछौने पर बैठता हुआ पास में बैठे हुए ज्येष्ठ साधुओं की आज्ञा ले, फिर तीन बार सामायिक पाठ का प्रतिदिन १ मुहूर्त पौरुषी बढ़ती व घटती है। और उच्चारण कर सोए। बांह का सिरहाना करे। बाएं पार्श्व से एक अयन में १८३ अहोरात्र होते हैं। इसलिए एक अयन में सोए। पैर पसारे तब मुर्गी की भांति पहले आकाश में पसारे, १८३.२१३ मुहूर्त कालमान बढ़ता है। जघन्य तीन वैसे न रह सके तब भूमि का प्रमार्जन कर पैर नीचे रख दे। +१३ - ४३ मुहूर्त। पैरों को समेटे तब उरु-संधि का प्रमार्जन करे।' ६. प्रहर (पोरिसि) पौरुषी का उत्कृष्ट कालमान एक अयन में ४' ही पौरुषी में प्रकरण में 'पुरुष' शब्द के दो अर्थ हैं-(१) होगा। दिन पौरुषी बढ़ने से रात्रि की पौरुषी घटती है। जब पुरुष-शरीर और (२) शंकु । पुरुष के द्वारा उसका माप होता दिन का पौरुषी ४' मुहूर्त की होती है तब रात्रि की पौरुषी है, इसलिए उसे 'पौरुषी' कहा जाता है। शंकु २४ अंगुल का कालमान तीन मुहूर्त का होता है। रात्रि की पौरुषी बढ़ने प्रमाण का होता है और पैर से जानु तक का प्रमाण भी २४ से दिन की पौरुषी घटती है। जब रात्रि की पौरुषी ४: मुहूर्त अंगूल होता है। जिस दिन वस्तु की छाया उसके प्रमाणोपेत की होती है तब दिन की पौरुषी का कालमान तीन मुहूर्त का होती है, वह दिन दक्षिणायन का प्रथम दिन होता है। युग के होता है। प्रथम वर्ष (सूर्य-वर्ष) के श्रावण बदी १ को शंकु की छाया शंकु ७. (श्लोक १३) के प्रमाण २४ अंगुल पड़ती है। १२ अंगुल प्रमाण का एक पाद एक वर्ष में दो अयन होते हैं--(१) दक्षिणायन और होने से शंकु की छाया दो पाद होती है। (२) उत्तरायण। दक्षिणायन श्रावण मास में प्रारम्भ होता है युग के प्रथम सूर्य-वर्ष में श्रावण बदी १ को दो पग और उत्तरायण माघ मास में। प्रमाण छाया होती है और माघ बदी ७ को चार पग प्रमाण। एक मास में छाया ४ अंगुल प्रमाण बढ़ती है। उत्तरायण १. बृहवृत्ति, पत्र ५३८, ५३६। २. काललोकप्रकाश, २८६६२ : शंकुः पुरुषशब्देन, स्याद् देहः पुरुषस्य वा। निष्पन्ना पुरुषात् तस्मात्, पौरुषीत्यपि सिद्धचति ।। ३. वही, २८।१०।११ : चतुर्विंशत्यंगुलस्य, शंकोश्छाया यथोदिता। चतुविंशत्यंगुलस्य, जानोरपि तथा भवेत्।। वही, २८९६३ : स्वप्रमाणं भवेच्छाया, यदा सर्वस्य वस्तुनः । तदा स्यात् पौरुषी, याम्या-यानस्य प्रथमे दिने।। ५. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा २०७० : पीरिसीमाणमनिययं, दिवस निसा बुढि हाणि भावओ। हीणं तिन्नि मुहुत्तद्धपंचममाणमुक्कोसं ।। ६. वही, गाथा २०७१ : वुड्ढी यावीसुत्तर-सय भागोपइदिणं मुहुत्तस्स। एवं हाणी विमया, अयण दिन भागओ नेया।। ७. (क) ओघनियुक्ति, गाथा २८३। (ख) समवायांग, समवाय ३०। (ग) चन्द्रप्रज्ञप्ति, प्राभृत १०, ११। Jain Education Intemational Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी ४२३ के प्रथम दिन वह ४ पाद प्रमाण हो जाती है। उत्तरायण के बाद वह उसी क्रम में घटती हुई दक्षिणायन के प्रथम दिन तक वापस दो पाद प्रमाण हो जाती है। इस गणित से चैत्र और आश्विन में तीन पाद प्रमाण छाया होती है। १२ मास की पौरुषी छाया का प्रमाण समय आषाढ़ पूर्णिमा सावण पूर्णिमा भाद्रपद पूर्णिमा आश्विन पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा मृगसर पूर्णिमा पौष पूर्णिमा माघ पूर्णिमा फाल्गुन पूर्णिमा चैत्र पूर्णिमा वैशाख पूर्णिमा ज्येष्ठ पूर्णिमा ८. (श्लोक १४) पाद- अंगुल २-० २-४ २-८ ३-० ३-४ ३-८ ४-० सात दिनों में एक अंगुल, पक्ष में दो अंगुल और मास में चार अंगुल प्रमाण छाया को बढ़ना माना है, वह व्यवहार या स्थूल दृष्टि से है। वहां पूर्ण दिन ग्रहण किया है। शेष दिन की विवक्षा नहीं की है। जयाचार्य ने इसी भाव को स्पष्ट करते हुए उत्तराध्ययन की जोड़ में लिखा है “सात दिनों में दो पग से एक अंगुल अधिक छाया तब बढ़ती है जब कि पक्ष १४ दिनों का हो। यदि पक्ष १५ दिनों का हो तो ७३ दिन रात में एक अंगुल छाया बढ़ती जाती है।"" ३-८ ३-४ ३-० २-८ २-४ सूर्य वर्ष के एक अयन में १८३ अहोरात्र होते हैं। एक अयन में दो पाद अर्थात् २४ अंगुल छाया बढ़ने से एक अहोरात्र में २४ अंगुल बढ़ती है। एक अंगुल छाया बढ़ने में उसे १८ अर्थात् ७ दिन लगते हैं । औघनियुक्ति में भी एक दिन में अंगुल के सातवें भाग से कम वृद्धि मानी है। १८३ १. ४. वही, २८ ॥७६५, ७६६ : उत्तराध्ययन जोड़, २६ ५१, ५२ : तेह थकी दिन सातरे बे पग आंगुल अधिक। पोहर दिवस तब थात रे, दिन चवदै नो पख तदा ।। जो पनरै दिन नों पक्ष रे, तो साढा सात अहोनिशे। हुवै पौरिसी लक्ष रे, वे पग इक आंगुल अधिक।। २. ओघनियुक्तित, गाथा २८४ : दिवसे दिवसे अंगुलस्य सत्तमो भागो किंचिप्पूणो वड्ढइ । वृत्ति ३. काललोकप्रकाश, २६।१०२६ : यत्तु ज्योतिष्करण्डादौ, वृद्धिहान्योर्निरूपिताः । चत्वारोऽत्रांगुलस्यांशा, एकत्रिंशत् समुद्भवा ।। यद्वदेको ऽप्यहोरात्रः, सूर्यजातो द्विधा कृतः । दिनरात्रिविभेदेन, संज्ञाभेदप्ररूपणात् ।। अध्ययन २६ : श्लोक १४, १५ टि०८, ६ ज्योतिष्करण्डक में एक तिथि में अंगुल प्रमाण छाया बढ़ती हुई मानी गई है। लोक-प्रकाश में और ज्योतिष्करण्डक के फलित में कोई अन्तर नहीं है केवल विवक्षा का भेद है। पहले में अहोरात्र की अपेक्षा से है और दूसरे में तिथि के अपेक्षा से । अहोरात्र की उत्पत्ति सूर्य से होती है और तिथि की उत्पत्ति चन्द्रमा से ।" ६१ अहारोत्र से ६२ तिथियां होती है। ६२ तिथियों में ६१ अहोरात्र होने से एक तिथि में ६३ अहोरात्र होते हैं । प्रत्येक अहोरात्र में अगली तिथि का ३ भाग प्रवेश करता है। अतः ६१ वें अहोरात्र में ६२ वीं तिथि समा जाती है। 1 १ अहोरात्र में ६, अंगुल प्रमाण छाया बढ़ती है। इसलिए ६१ अहोरात्र में ६,४६१-८ अंगुल । १ तिथि में अंगुल प्रमाण छाया बढ़ती है इसलिए ६२ तिथियों में x ६२=८ अंगुल । इस प्रकार अंगुल छाया बढ़ने में ६१ अहोरात्र या ६२ तिथियों का कालमान लगता है । ६१ अहोरात्र ६२ तिथियों के समान होने से दोनों के फलित होने में कोई अन्तर नहीं है। ९. (श्लोक १५) साधारणतया एक मास में ३० अहरोत्र होते हैं और एक पक्ष में १५ अहरोत्र । किन्तु आषाढ़, भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन और वैशाख मास के कृष्ण पक्ष में १ अहोरात्र कम होता है। अतः इनका पक्ष १४ अहोरात्र का ही होता है। एक वर्ष में ६ रात्रियां अवम होती हैं। लोकप्रकाश में भी ऐसा माना है। इसका कारण यह है कि एक अहोरात्र के कालमान से २ भाग कम तिथि का कालमान है, अर्थात् ६ अहोरात्र में एक तिथि पूरी होती है। इस प्रकार ६१ अहोरात्र में ६२ तिथियां होती हैं। प्रत्येक अहोरात्र में अगली तिथि का ६२ भाग प्रवेश करता है । अतः ६१ वें अहोरात्र में ६२ वीं तिथि समा जाती है। इस गणित से ३६६ अहोरात्रों में ६ तिथियां क्षय हो जाती है। लौकिक व्यवहार के अनुसार वर्षा ऋतु का प्रारम्भ आषाढ़ मास में होता है। इसे प्रधानता देकर ६१ वें अहोरात्र अर्थात् भाद्रव कृष्ण पक्ष में तिथि का क्षय माना है। इस प्रकार तथैव तिथिरेकापि, शशिजाता द्विधा कृता । दिनरात्रिविभेदेन, संज्ञाभेदप्ररूपणात् ।। ५. काललोकप्रकाश, २८ १७८३ वृत्ति द्वाषष्ट्या हि तिथिभिः परिपूर्णा एकषष्टिरहोरात्रा भवन्ति । ६. वही, २८ ७८४७८५ युगेऽथावमरात्राणां स्वरूपं किंचिदुच्यते । भवंति ते च षड् वर्षे, तथा त्रिंशद्युगेऽखिले ।। एकेकस्मिन्नहोरात्र, एको द्वाषष्टिकल्पितः । लभ्यते ऽवमरात्रांश एकवृद्ध्या यथोत्तरम् ।। ७. वही, २८ १८०० : एवं च द्वाषष्टितमी प्रविष्टा निखिला तिथिः । एक षष्टिभागरूपा त्रैकषष्टितमे दिने ।। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६१-६१ अहोरात्र में होने वाला तिथि-क्षय भाद्रव, कार्तिक, पौष, फाल्गुन और वैशाख मास में होता है। ज्योतिष्करण्डक में भी वर्षा ऋतु का प्रारम्भ आषाढ़ मास से मानकर तिथि-क्षय का वर्णन है। वर्ष मास पक्ष अवम तिथि पात तिथि वर्ष मास पक्ष श्रवण तिथि पात तिथि ३ ३ ३ ४ ३ ३ ३ २ प्रथम चन्द्र वर्ष आसो मार्ग माघ चैत्र ज्येष्ठ श्रा. आ. मार्ग. २ अर्ध अभिवर्धित चैत ज्येष्ठ श्रा. कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण ३ ५ ७६ 99 १३ ० १ ४ ६ द १० १२ १४ पौरुषी छाया - प्रमाण पाद अंगुल २ ४ कृ. कृ. कृ. १ ३ ५ ६ द ० १ ८ ४ १. ओघनियुक्ति, गाथा २८६ । १०. ( श्लोक १६) पौरुषी के बाद अर्थात् भाग कम को पादोन- पौरुषी कहते हैं । पौरुषी की छाया में यंत्र निर्दिष्ट अंगुल जोड़ने से पादोन-पौरुषी की छाया का मान होता है। सरलता के लिए १२ महीनों के तीन-तीन मास के चार त्रिक किए गए हैंपहला त्रिक ज्येष्ट, आषाढ़ और श्रावण । दूसरा त्रिक-भाद्रव, आसोज और कार्तिक । + + + + + + + + + कृ. कृ. ७ ६ Τ युग पूर्वार्ध ४२४ १० १ अध्ययन २६ श्लोक १६ टि० १० लोकप्रकाश में युग के प्रथम वर्ष के प्रथम मास श्रावण को प्रधान माना है। उसके अनुसार आसोज, मृगसर, माघ, चैत्र, ज्येष्ठ और श्रावण मास में तिथि क्षय होता है। युग के पांचों वर्षों का यंत्र इस प्रकार है युग पश्विमार्थ चन्द्र वर्ष आ. मार्ग. माघ चैत्र ज्येष्ठ श्रा. ८ て यह श्लोक ओघनिर्युक्ति का ज्यों का त्यों प्राप्त है । ' ८ ८ ८ १० १० १० Τ ८ अंगुल ६ ६ द्वि. चन्द्र वर्ष माघ चैत्र ज्येष्ठ श्रा. शु. शु. शु. शु. २ ४ ६ ३ कृ. कृ. कृ. शु. ११ १३ ० २ १२ १४ १ ३ ५ |||||||||||||||||||||| ७ ८ ६ तीसरा त्रिकगृगसर, पौष और माघ । चतुर्थ त्रिक— फाल्गन, चैत्र और वैशाख 1 प्रथम त्रिक के मासों के पौरुषी प्रमाण में ६ अंगुल जोड़ने से उन मासों के पादोन- पौरुषी का छाया-प्रमाण होता है । इसी प्रकार दूसरे त्रिक के मासों में ८ अंगुल, तीसरे त्रिक के मासों में १० अंगुल और चौथे त्रिक के मासों में ८ अंगुल बढ़ाने से उन उन मासों का पादोन- पौरूषी छाया-प्रमाण आता है। यंत्र इस प्रकार है पाद २ २ २ अभिवर्धित वर्ष आ. मार्ग माघ चैत्र ज्येष्ठ आषाढ़ दूसरा शु. शु. शु. शु. शु. शुक्ल ४ ६ द १० १२ १४ ५ ७ ६ ११ १३ १५ ३ ३ ४ पादोन- पौरुषी छाया-प्रमाण अंगुल १० ४ अर्ध अभिवर्धित आ. मार्ग. पोष दूसरा शु. शु. १२ १४ ४ शु. १० ३ 99 ३ १३ १५ ws ge w o w o w o w x ६ १० 3 १० Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी ४२५ अध्ययन २६ : श्लोक १६,१८ टि० ११,१२ ११. ज्येष्ठ (जेट्ठामूले) -पुष्य १४ दिन-रात। प्रस्तुत श्लोक के 'जेट्ठामूले' शब्द में दो नक्षत्रों का योग अश्लेषा १५ दिन-रात। है-ज्येष्ठा और मूल। जो नक्षत्र चन्द्रमा को निशी के अन्त मघा १ दिन-रात। तक पहंचाता है, वह जब आकाश के चतुर्थ भाग में आता है. फाल्गुन मास को ६ नक्षत्रउस समय प्रथम पौरुषी का कालमान होता है। इसी प्रकार वह मघा १४ दिन-रात। नक्षत्र जब सम्पूर्ण क्षेत्र का अवगाहन कर लेता है, तब चारों पूर्वाफाल्गुनी १५ दिन-रात। प्रहर बीत जाते हैं। उत्तराफाल्गुनी १ दिन-रात। जो नक्षत्र पूर्णिमा को उदित होता है और चन्द्रमा को चैत्र मास को ३ नक्षत्ररात्रि के अन्त तक पहुंचाता है, उसी नक्षत्र के नाम पर महीनों उत्तराफाल्गुनी १४ दिन-रात। के नाम रखे गए हैं। श्रावण और ज्येष्ठ मास इसके अपवाद हस्त १५ दिन-रात। हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में इसका स्पष्ट व विस्तृत वर्णन है। चित्रा १ दिन-रात। श्रावण मास को ४ नक्षत्र पार लगाते हैं वैशाख मास को ३ नक्षत्रउत्तराषाढा नक्षत्र १४ दिन रात। चित्रा १४ दिन-रात। अभिजित् नक्षत्र ७ दिन-रात। स्वाति १५ दिन-रात। श्रवणा नक्षत्र ८ दिन-रात। विशाखा १ दिन-रात। धनिष्ठा नक्षत्र १ दिन-रात। ज्येष्ठ मास को ४ नक्षत्रभाद्रव मास को ४ नक्षत्र विशाखा १४ दिन-रात। धनिष्ठा १५ दिन-रात। अनुराधा ८ दिन-रात। शतभिषग् ७ दिन-रात। ज्येष्ठा ७ दिन-रात। पूर्वाभाद्रपद ८ दिन-रात। मूल १ दिन-रात। उत्तराभद्रपद १ दिन-रात। आषाढ़ मास को ३ नक्षत्रआसोज मास को ३ नक्षत्र मूल १७ दिन-रात। उत्तराभाद्रपद १४ दिन-रात। पूर्वाषाढ़ा १५ दिन-रात। रेवति १५ दिन-रात। उत्तराषाढा १ दिन-रात।' अश्विनी १ दिन-रात। १२. नींद (निद्दमोक्ख) कार्तिक मास को ३ नक्षत्र - इसका अर्थ है जो नींद अमुक समय तक निरुद्ध थी, अश्विनी १४ दिन-रात। उसे मुक्त करना--नींद लेना, सोना। भरणी १५ दिन-रात। प्राचीन विधि के अनुसार रात्री के पहले प्रहर में सभी कृत्तिका १ दिन-रात। मुनि स्वाध्याय में बैठ जाते थे। जब दूसरा प्रहर प्रारम्भ होता मृगसिर मास को ३ नक्षत्र तब अन्यान्य मुनि सो जाते, केवल गीतार्थ और वृषभ साधु कृत्तिका १४ दिन-रात। स्वाध्याय करते रहते। वे पहले और दूसरे दोनों प्रहरों में रोहिणी १५ दिन-रात । स्वाध्यायरत रहते थे। दूसरा प्रहर अतिक्रान्त होने तथा तीसरे मृगसिर १ दिन-रात। प्रहर के प्रारम्भ में वे ही काल की प्रतिलेखना कर उपाध्याय पौष मास को ४ नक्षत्र को ज्ञापित कर आचार्य को जगाते। आचार्य स्वाध्याय में लग मृगसिर १४ दिन-रात। जाते और वे गीतार्थ तथा वृषभ मुनि सो जाते। तीसरे प्रहर के आर्द्रा ८ दिन-रात। अतिक्रान्त होने पर तथा चौथे प्रहर के प्रारम्भ होने पर पुनर्वसु ७ दिन-रात। आचार्य सो जाते और शेष सोए हुए सभी साधुओं को जागृत पुष्य १ दिन-रात। कर दिया जाता और वे सभी वैरात्रिक स्वाध्याय में रत हो माघ मास को ३ नक्षत्र जाते। १. जंबुद्दीवपण्णत्ती, वक्ष ७ सूत्र १५६-१६७। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ४३८ : निद्राया मोक्षः-पूर्वनिरुद्धायामुत्कलना निद्रामोक्षः स्वाप इत्यर्थः। ३. ओघनियुक्ति, गाथा ६६१ : सव्येवि पढमजामे दोन्नि उ वसभाण आइमा जामा। तइओ होइ गुरूणं, चउत्थओ होइ सव्वेसिं ।। -दोणीयावृत्ति, पत्र ४६४, ४६५। Jain Education Intemational Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि लिए देखें- पृष्ठ १०८ वृद्ध, ग्लान, शैक्ष आदि इसके अपवाद थे। विस्तार के की समाप्ति पर ही किया जाता है। " १५. (श्लोक २३) १३. ( श्लोक १९, २० ) इन दो श्लोकों में नक्षत्र के आधार पर काल गहण की विधि बतलाई गई है। प्रत्येक रात्री का अपना एक नक्षत्र होता है। वह रात्री के प्रारम्भ से अन्त तक आकाश का अवगाहन करता है। मुनि आकाश के चार भाग करे। जब वह नक्षत्र आकाश के इन चार भागों में से एक भाग का अवगाहन कर लेता है, तब समझ लेना चाहिए कि रात्री का एक प्रहर बीत गया है । इसी प्रकार दूसरे-तीसरे और चौथे भाग की संपूर्ति पर दूसरा, तीसरा और चौथा प्रहर बीत जाता है। मुनि की दिनचर्या का यह प्रमुख सूत्र है कि वह सब कार्य ठीक समय पर करे- 'काले कालं समायरे' (दशवैकालिक ५।२।४) । जिस प्रकार वैदिक परम्परा में काल-विज्ञान का मूल यज्ञ है वैसे ही जैन - परम्परा में उसका मूल साधुओं की दिनचर्या है। रात के चार भाग हैं- १. प्रादोषिक २. अर्धरात्रिक ३. वैरात्रिक ४. प्राभातिक ।" प्रादोषिक और प्रभातिक इन दो प्रहरों में स्वाध्याय किया जाता है। अर्द्धरात्रि में ध्यान और वैरात्रिक में शयन किया जाता है। १४. ( श्लोक २१, २२) 'पुव्विलॉम उन्माए यहां 'आइच्या समुझिए इतना शेष है ।' तथा 'पोरिसीए चउब्भाए' यहां 'अवशिष्यमाण' इतना शेष है।' 'अपडिक्कमित्ता कालस्स' यहां कायोत्सर्ग किए बिना ही पात्र प्रतिलेखना का विधान है। उसका तात्पर्य यह है कि चतुर्थ पौरुषी में फिर स्वाध्याय करना है । कायोत्सर्ग एक कार्य १. (क) ओघनियुक्ति, गाथा ६५८ वृत्ति, पत्र २०५ : कालानां चतुष्कं कालचतुष्कं तत्रैकः प्रादोषिकः द्वितीयो ऽर्द्धरात्रिकः तृतीयो वैरात्रिक चतुर्थः प्राभातिकः काल इति एतस्मिन् कालचतुष्के नानात्वं प्रदर्श्यते, तत्र प्रादोषिककाले सर्व एव समकं स्वाध्यायं प्रस्थापयन्ति, शेषेषु तु त्रिषु कालेषु समकं एककालं स्वाध्यायं प्रस्थापयन्ति विषमं वा न युगपद्वा स्वाध्यायं प्रस्थापयन्तीति । (ख) वही, गाथा ६६२, ६६३ : . ४२६ अध्ययन २६ : श्लोक १६-२३ टि० १३,१५ पाओसिय अड्ढरते, उत्तरदिसि पुव्व पेहए काल । वेरत्तियंमि भयणा, पुव्वदिसा पच्छिमे काले ।। सज्झायं काऊणं, पढमबितियासु दोसु जागरणं । अन्नं वावि गुणति, सुगंति झायन्ति वाऽसुद्धे ।। २. बृहद्वृत्ति पत्र ५४० पूर्वस्मिंश्चतुर्भागे प्रथमपौरुषीलक्षणे प्रक्रमाद् दिनस्य प्रत्युपेक्ष्य 'भाण्डकं' प्राग्वद्वर्षाकल्पादि उपधिमादित्योदय-समय इति शेषः । ३. वही, पत्र ५४० : द्वितीयसूत्रे च पौरुष्याश्चतुर्थभागेऽवशिष्यमाण इति गम्यते, ततोऽयमर्थः पादोनपौरुष्यां भाजनं प्रतिलेखयेदिति सम्बन्धः । ४. वही, पत्र ५४० स्वाध्यायादुपरतश्चेत्कालस्य प्रतिक्रम्यैव कृत्यान्तरमारब्धव्यमित्याशंक्येतात आह-अप्रतिक्रम्य कालस्य, तत्प्रतिक्रमार्थं कायोत्सर्गमविधाय, चतुर्थपौरुष्यामपि स्वाध्यायस्य विधास्यमानत्वात् । इस श्लोक में पात्र सम्बन्धी तीन उपकरणों ( १ ) मुख- वस्त्रिका, (२) गोच्छग और (३) वस्त्र (पटल) का उल्लेख है। ओघनिर्युक्ति में पात्र सम्बन्धी सात उपकरणों का उल्लेख मिलता है - ( १ ) पात्र ( २ ) पात्र बन्ध, (३) पात्र - स्थापन, (४) पात्र - केशरिका, (५) पटल, (६) रजस्त्राण और (७) गोच्छग । इन्हें पात्र - निर्योग (पात्र परिकर ) कहा जाता है। पात्र को बांधने के लिए पात्र बन्ध, उसे रज आदि से बचाने के लिए पात्र स्थापन रखा जाता है। पात्र - केशरिका का अर्थ 'पात्र की मुख - वस्त्रिका' है। इससे पात्र की प्रतिलेखना की जाती है। भिक्षाटन काल में स्कन्ध और आत्र को ढांकने के लिए तथा पुष्प फल, रज- रेणु आदि से बचाव करने के लिए पटल रखा जाता है। चूहों तथा अन्य जीव-जन्तुओं, बरसात के पानी आदि से बचाव के लिए रजस्त्राण रखा जाता है।" पटलों का प्रमार्जन करने के लिए गोच्छग होता है।" इनमें पात्र - स्थापन और गोच्छग ऊन के तथा मुख वस्त्रिका कपास की होती है । ओघनियुक्ति में मुखवस्त्रिका के अनेक प्रयोजन निर्दिष्ट हैं- ( १ ) पात्र की प्रतिलेखना करने का वस्त्र, (२) बोलते समय संपातिम जीव मुंह में प्रवेश न कर जाएं, इस दृष्टि से मुंह पर रखने का वस्त्र, (३) सचित्त पृथ्वी तथा रेणुकण के प्रमार्जन के काम आने वाला वस्त्र, (४) वसति का प्रमार्जन करते समय नाक और मुंह में रजकण प्रवेश न करे, इसलिए नाक और मुंह पर बांधने का वस्त्र । ३ ५. ओघनियुक्ति गाथा ६७४ ६. ७. ८. ६. पत्तं पत्ताबंधो, पायट्टवणं च पायकेसरिया । पडलाई रत्ताणं च गोच्छओ पायनिज्जोगो ।। वही, गाथा ६६५ रयमादिरक्खणट्ठा पत्तट्ठवणं जिणेहिं पन्नत्तं । वही, गाथा ६६६ वृत्ति केसरिका ऽपि पात्रक - मुखवस्त्रिका ऽपि । वही, गाथा ६६६ पाय पमज्जणहेउं केसरिया...। 7 (क) वही, गाथा ७०१ वृत्ति-स्कन्धः पात्रकं चाच्छाद्यते यावता तत्प्रमाणं पटलानामिति । (ख) वही, गाथा ७०२ 'पुप्फ-फलोदय-रयरेणु-सउण परिहार- पाय रक्खट्ठा। लिंगस्स य संवरणे, वेदोदयरक्खणे पडला।।' १०. वही, गाथा ७०४ : मूसयरजउक्केरे, वासे सिन्हा रए य रक्खट्ठा। होति गुणा रयतांणे पादे पादे य एक्केकं ।। ११. वही, गाथा ६६५ होइ पमज्जणहेउं तु गोच्छओ भाण-वत्थाणं । १२. वही, गाथा ६६४, वृत्ति — अत्र च पात्रस्थापनकं गोच्छकश्च एते द्वे अपि ऊणमिये वेदितव्ये, मुखवस्त्रिका खोमिया । १३. ओघनियुक्ति, गाथा ७१३: संपातिमरयरेणुपमज्जणट्ठा वयंति मुहपोर्त्ति । नासं मुहं च बंधइ तीए वसहिं पमज्जंतो ।। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी इन प्रयोजनों के आधार पर कहा जा सकता है कि मुखवस्त्रिका एक यस्त्र खंड है, जो मुनिचर्या का एक उपकरण है । ४२७ अध्ययन २६ : श्लोक २३-३० टि० १६-१६ में तीन-तीन बार किए जाते हैं। इस प्रकार एक भाग में नौ खोटक होते हैं, दोनों में अठारह । २६ वें श्लोक में आरभटा आदि छह प्रकार बतलाए हैं 1 वे स्थानांग (६।४५ ) के अनुसार प्रमाद प्रतिलेखना के प्रकार हैं। इनमें वेदिका के पांच प्रकार हैं दशवैकालिक ५।१।८३ में 'हत्थग' (हस्तक) शब्द आया है। वह भी शरीर का प्रमार्जन करने के लिए काम में आने वाला वस्त्र खंड है। हस्तक, मुखवस्त्रिका और मुखान्तक -ये एकार्थक हैं। १६. ऊकडू-आसन में बैठ, वस्त्र को ऊंचा रखे (उड्डू ... वत्थं) वृत्तिकार ने इसका संबंध शरीर और वस्त्र - दोनों से माना है। शरीर से ऊर्ध्व अर्थात् ऊकडू आसन में स्थित तथा वस्त्र से ऊर्ध्व अर्थात् वस्त्र को तिरछा फैला कर ।" पुतों को ऊंचा रखकर पैरों के बल पर बैठना ऊकडू आसन है। यहां 'वस्त्र' शब्द उत्तरीय आदि वस्त्र के अर्थ में प्रयुक्त है । इसके पहले २३वें श्लोक में जो वस्त्र शब्द है वह पात्र के उपकरण—पटल के अर्थ में प्रयुक्त है। इन सबकी प्रतिलेखना का प्रकार एक जैसा ही है। १७. वस्त्र के दृष्टि से अलक्षित विभाग न करे (अणाणुबंधि) अनुबंध का अर्थ है— निरन्तरता । जो निरंतरता से युक्त होता है वह अनुबंधि कहलाता है। जिस वस्त्र का प्रतिलेखन किया जा रहा है, उस पर निरंतरदृष्टि होनी चाहिए। अनानुबंधी का तात्पर्य है-वस्त्र का कोई भी भाग दृष्टि से अलक्षित न रहे। * १८. (श्लोक २४-२८) २४ वें श्लोक में प्रतिलेखना के तीन अंग बतलाए हैं(१) प्रतिलेखना वस्त्रों को आंखों से देखना । (२) प्रस्फोटना - झटकाना । (३) प्रमार्जना - प्रमार्जना करना, वस्त्र पर जीव-जन्तु हों, उन्हें हाथ में लेकर यतना-पूर्वक एकान्त में रख देना । २५ वें श्लोक में अनर्तित आदि छह प्रकार बतलाए गए हैं । वे स्थानांग ( ६ |४६ ) के अनुसार अप्रमाद - प्रतिलेखना के प्रकार हैं। इनमें 'अमोसली' शब्द मुशल से उत्पन्न है। अनाज कूटते समय मुशल जैसे ऊपर, नीचे और तिरछे में जाता है। वैसे वस्त्र को नहीं ले जाना चाहिए। 'पुरिम' (पूर्व) शब्द का रूढ़ अर्थ है 'वस्त्र के दोनों ओर तीन-तीन विभाग कर उसे १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४० ऊर्ध्व कायतो वस्त्रतश्च तत्र कायत उत्कुटुकत्वेन स्थितत्वात्, वस्त्रतश्च तिर्यक्प्रसारितवस्त्रत्वात् उक्तं हि उक्कुडुतो तिरियं पेहे जह विलित्तो। २. वही, पत्र ५४० वस्त्रं पटलकरूपं जातावेकवचनं पटलकप्रक्रमेऽपि सामान्यवाचकवस्त्रशब्दाभिधानं वर्षाकल्पादिप्रत्युपेक्षणायामप्ययमेव विधिरिति ख्यापनार्थम् । (१) उर्ध्ववेदिका - दोनों जानुओं पर हाथ रखकर प्रतिलेखना करना । (२) अघोवेदिका - दोनों जानुओं के नीचे हाथ रखकर प्रतिलेखना करना । (३) तिर्यग्वेदिका — दोनों जानुओं के बीच में हाथ रखकर प्रतिलेखना करना । (४) उभयवेदिका - दोनों जानुओं को दोनों हाथों के बीच रखकर प्रतिलेखना करना । (५) एक वेदिका - एक जानु को दोनों हाथों के बीच रखकर प्रतिलेखना करना । दृष्टि डालना, छह पूर्व करना-छह बार झटकना और अठारह खोटक करना अठारह बार प्रमार्जन करना इस प्रकार प्रतिलेखना के ( १+६+१८) २५ प्रकार होते हैं। * १९. (श्लोक ३०) प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य है कि जो मुनि प्रतिलेखना में प्रमत्त होता है, वह छह जीव- निकायों का विराधक होता है। वृत्तिकार ने इसकी संगति इस प्रकार बिठाई है— कोई मुनि कुंभकार शाला में ठहरा हुआ है। वह धर्मकथा में संलग्न है । वह स्वयं अध्ययनरत या दूसरों को पढ़ा रहा है और साथ ही साथ प्रतिलेखन भी कर रहा है। उसको अन्यमनस्कता के कारण कुंभकारशाला में पड़ा पानी से भरा घड़ा लुढक जाता है । उस पानी के प्रवाह में मिट्टी, अग्नि आदि के जीवों का तथा बीज, कुन्थु आदि का प्लावन हो सकता है। उससे उन जीवों की विराधना होती है। जहां अग्नि का समारम्भ होता है, वहां वायु अवश्यंभावी है। इस प्रकार छह जीवनिकायों की विराधना होती है। वह प्रमादयुक्त होने के कारण भावनात्मक रूप से भी वह विराधक ही है। प्रतिलेखना का उद्देश्य है-अहिंसा की आराधना। उस समय परस्पर संलाप आदि करना प्रतिलेखना के प्रति प्रमादयुक्त आचरण है। झटकाना ।' ‘खोटक’ का अर्थ है—स्फोटन 'प्रमार्जन' । वे प्रत्येक पूर्व होते हैं। उनमें पहला प्रशस्त है, शेष सभी अप्रशस्त'आट्ठईसवें श्लोक के अनुसार प्रतिलेखना के आठ विकल्प ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४१: अनुबन्धेन नैरन्तर्यलक्षणेन युक्तमनुबन्धि न तथा कोऽर्थः ? अलक्ष्यमाणविभागं यथा न भवति । ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५४० - ५४२ । (ख) स्थानांग, ६।४५ वृत्ति । बृहद्वृत्ति, पत्र ५४२ । ५. ६. वही, पत्र ५४२ । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४२८ अध्ययन २६ : श्लोक ३२,३४ टि० २०,२१ (१) न्यून नहीं अतिरिक्त नहीं विपर्यास नहीं प्रशस्त (२) न्यून नहीं अतिरिक्त नहीं विपर्यास है अप्रशस्त (३) न्यून नहीं अतिरिक्त है विपर्यास नहीं अप्रशस्त (४) न्यून नहीं अतिरिक्त है विपर्यास है अप्रशस्त (५) न्यून है अतिरिक्त नहीं विपर्यास नहीं अप्रशस्त (६) न्यून है अतिरिक्त नहीं विपर्यास है अप्रशस्त (७) न्यून है अतिरिक्त है विपर्यास नहीं अप्रशस्त (८) न्यून है अतिरिक्त है विपर्यास है अप्रशस्त २०. (श्लोक ३२) करने से मेरी यात्रा (संयम-यात्रा या शारीरिक यात्रा) और इस श्लोक में छह कारणों से मुनि को आहार करना प्राशु विहार-चर्या भी चलती रहेगी। चाहिए, ऐसा कहा गया है-- मुनि के आहार करने का यह (ईर्यापथ-शोधन) तीसरा १. क्षुधा की वेदना उत्पन्न होने पर। उपष्टम्भ है। यदि मनि आहार नहीं करता है तो अन्यान्य २. वैयावृत्य के लिए। इन्द्रियों के साथ आंखें भी कमजोर हो जाती हैं। इस स्थिति में ३. ईर्या-पथ के शोधन के लिए। गमन-आगमन करते समय ईर्यापथ का सम्यक् शोधन नहीं ४. संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए। कर पाता। ५. अहिंसा के लिए। वेदना (क्षुधा) शांति के लिए (वेयण) ६. धर्म-चिन्तन के लिए। भूख के समान कोई कष्ट नहीं है। भूखा आदमी मिलाइए—ठाणं ६।४१॥ वैयावृत्य (सेवा) नहीं कर सकता; ईर्या का शोधन नहीं कर मूलाचार के तीसरे कारण 'इरियट्ठाए' के स्थान पर सकता; प्रेक्षा आदि संयम-विधियों का पालन नहीं कर सकता; 'किरियट्ठाए' पाठ मिलता है। उसका अर्थ 'क्रिया के लिए- उसका बल क्षीण हो जाता है; गुणन और अनुप्रेक्षा करने में षडावश्यक आदि क्रिया का प्रतिलापन करने के लिए' किया वह अशक्त हो जाता है इसलिए भगवान् ने कहा है कि वेदना गया है। की शांति के लिए मुनि आहार करे।' यह अन्तर यदि लिपि-दोष के कारण न हुआ हो तो धर्म-चिन्तन के लिए (धम्मचिंताए) यही मानना होगा कि उत्तराध्ययन में प्रतिपादित तीसरे कारण वृत्ति में धर्म के दो अर्थ हैं-धर्मध्यान और श्रुतधर्म।' से आचार्य वट्टकेर सहमत नहीं हैं। बौद्ध-ग्रन्थों में आहार लेने चार ध्यानों में धर्मध्यान प्रशस्तध्यान है। इसके आधार पर या करने की मर्यादा का उल्लेख करते हुए कहा गया है- व्यक्ति शुक्लध्यान में प्रवेश कर सकता है। श्रुतधर्म का अर्थ भिक्खू क्रीड़ा के लिए, मद के लिए, मण्डन करने के लिए, है- ज्ञान का आराधना, आगमों की अविच्छित्ति का प्रयत्न। विभूषा के लिए आहार न करे। परन्तु शरीर को कायम 'धम्मचिंता' शारीरिक बल और मनोबल के बिना नही होती। रखने के लिए, रोग के उपशमन के लिए, ब्रह्मचर्य का पालन अनाहार अवस्था में मन और शरीर क्लांत हो जाते हैं। अतः करने के लिए (शासन-ब्रह्मचर्य और मार्ग-ब्रह्मचर्य के लिए) मुनि धर्मचिंता के लिए आहार की गवेषणा करे। इस प्रकार आहार करता हुआ मैं भूख से उत्पन्न वेदना को २१. (श्लोक ३४) क्षीण करूंगा और नई वेदना को उत्पन्न नहीं करूंगा, ऐसा इस श्लोक में छह कारणों से आहार नहीं करना चाहिए १. मूलाचार, ६६०: वेणयवेज्जावच्चे किरियाठाणे य संजमट्ठाए। तध पाणधम्मचिंता कुज्जा एदेहिं आहारं।। २. वही, ६६० वृत्ति : क्रियार्थं षडावश्यकक्रिया मम भोजनमन्तरेण न प्रवर्तन्ते इति ताः प्रतिपालयामीति भुक्ते। ३. विशुद्धिमार्ग ११३१, पाद टिप्पण ८ : पटिसंखा योनिसो पिण्डपात पटिसेवति, नेव दवाय, न मदाय, न मण्डनाय, न विभूसनाय, यावदेव इमस्स कायस्स ठितिया यापनाय विहिंसूपरतिया ब्रह्मचर्यानुग्गहाय, इति पुराणं च वेदनं पटिहखामि, नवं च वेदनं न उप्पादेस्सामि, यात्रा च मे भविस्सति फासुविहारो याति। ४. ओघनियुक्तिभाष्य, गाथा २६०, २६१ : नत्थि छुहाए सरिसया, वेयण भुजेज्ज तप्पसमणट्ठा। छाओ वेयावच्चं, न तरइ काउं अओ भुंजे।। इरियं नवि सोहेइ, पेहाईयं च संजमं काउं। थामो वा परिहायइ, गुणणुप्पेहासु य असत्तो।। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४३। Jain Education Intemational Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी ४२९ अध्ययन २६ : श्लोक ३५-५१ टि० २२-२८ ऐसा कहा गया है। २३. प्रदेश तक (विहारं) (१) आतंक-ज्वर आदि आकस्मिक रोग हो जाने पर। शान्त्याचार्य ने विहार का अर्थ “प्रदेश' किया है। (२) राजा आदि का उपसर्ग हो जाने पर। व्यवहार-भाष्य की वृत्ति में विहार-भूमि का अर्थ 'भिक्षा-भूमि' (३) ब्रह्मचर्य की तितिक्षा–सुरक्षा के लिए। मिलता है। 'विहारं विहारए'—इसका अर्थ है-'भिक्षा के (४) प्राणि-दया के लिए। निमित्त पर्यटन करे।' (५) तपस्या के लिए। २४. सर्व भावों को प्रकाशित करने वाला (सव्वभावविभावणं) (६) शरीर का व्युत्सर्ग करने के लिए। स्वाध्याय से इन्द्रियगम्य और अतीन्द्रिगम्य-दोनों विषयों मुनि शरीर के व्युच्छेद की आकांक्षा या मृत्यु की कामना का बोध मिलता है। इसलिए उसे 'सर्वभावविभावन'-जीव उसी स्थिति में करता है जब वह यह जान लेता कि उसका आदि सभी तत्त्वों को प्रकाशित करने वाला--किया है। आत्मा, शरीर और इन्द्रियां क्षीण हो रही हैं और वह अब ज्ञान, दर्शन धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य अमूर्त हैं। इन्द्रियज्ञानी उन्हें नहीं जान तथा चारित्र की पर्यायों के विकास में समर्थ नहीं है। वह सबसे सकता। आगमों का स्वाध्याय करने वाला उन अतीन्द्रिय द्रव्यों पहले संलेखना करता है--विविध तपस्याओं से अपने शरीर को भी जान लेता है। नंदी सूत्र में श्रुतज्ञान का विषय सर्व द्रव्य और कषायों को क्षीण करता है और अन्त में अनशन करता कहा गया है। है। समाधि मरण के लिए मृत्यु की आकांक्षा काम्य है। २५. देवसिक (दसिय) २२. सब भाण्डोपकरणों को ग्रहण कर (अवसेसं भंडगं यहां 'वकार' का लोप किया गया है। इसका संस्कृत रूप गिज्झा) है—दैवसिक और अर्थ है—दिन से संबंधित । मुनि जब भिक्षा के लिए जाए तब अपने सब उपकरणों २५. स्तुति मगल (युलमगल) को साथ ले जाए-यह 'औत्सर्गिक विधि' है। यदि सब स्तुतिमंगल का अर्थ है-सिद्धों का स्तवन। उपकरणों को साथ ले जाने में असमर्थ हो तो आचार-भण्डक देखें-श्लोक ५१ का टिप्पण। लेकर जाए-यह 'आपवादिक विधि' है। २७. कौन सा तप ग्रहण करूं (किं तब पडिवज्जामि) निम्नलिखित छह आचार-भण्डक कहलाते हैं कायोत्सर्ग में स्थिति मुनि सोचे कि मैं कौनसा तप ग्रहण (१) पात्र करूं ? भगवान् वर्द्धमान ने छह मास की तपस्या की। क्या मै। (२) पटल भी इतनी दीर्घ तपस्या करने में समर्थ हूं अथवा नहीं ? यह (३) रजोहरण सोचते-सोचते एक-एक दिन करते-करते अन्त में उस स्थिति (४) दण्डक तक पहुंच जाए कि मैं कम से कम एक प्रहर या एक (५) दो कल्प–एक ऊनी और एक सूती पछेवड़ी नवकारसी का तप तो अवश्य ही करूं। (६) मात्रका . २८. सिद्धों का संस्तव (सिद्धाण संथव) इस श्लोक का नियुक्ति व भाष्य-काल में जो अर्थ था प्रतिक्रमण की परिसमाप्ति पर तीन बार णमोत्थुणं' वह टीका-काल में बदल गया। कहने की विधि है। वृत्तिकार ने 'स्तुतित्रय' का उल्लेख किया शान्त्याचार्य ने अवशेष का अर्थ केवल 'पात्रोपकरण' है। प्रचलित विधि में पहली स्तुति सिद्ध की, दूसरी अर्हत् की किया है। वैकल्पिक रूप में अवशेष का अर्थ 'समस्त उपकरण' और तीसरी आचार्य की की जाती है। श्रीमज्जयाचार्य ने भी भी किया है किन्तु उन्हें भिक्षा में साथ ले जाना चाहिए, इसकी आचार्य की स्तुति को मान्य किया है। मुख्य रूप से चर्चा नहीं की है। १. मिलाइए-ठाणं ६४२, ओघनियुक्तिभाष्य, गाथा २६३, २६४। २. ओघनियुक्तिभाष्य, गाथा २२७ और वृत्ति : सव्योवगरणमाया, असहू आयारभडगेण सह। तत्रोत्सर्गतः सर्वमुपकरणमादाय भिक्षागवेषणां करोति, अथासी सर्वेण गृहीतेन भिक्षामटितुमसमर्थस्तत आचारभण्डकेन समं, आचारभण्डक- पात्रकं पटलानि रजोहरणं दण्डकः कल्पद्वयं-और्णिकः क्षीमिकश्च मात्रकं च, एतद्गृहीत्वा याति। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४४ : 'अवशेष' भिक्षाप्रक्रमात्पात्रनियोंगोद्धरित, च । शब्दस्य गम्यमानत्वादवशेषं च पात्रनिर्योगमेव, यद्वाऽपगतं शेषमपेशषं, कोऽर्थः?-समस्तं, भाण्डकम् उपकरणं 'गिज्झ' ति गृहीत्वा चक्षुषा प्रत्युपेक्षेत, उपलक्षणत्वात्प्रतिलेखयेच्च, इह च विशेषत इति गम्यते, सामान्यतो प्रत्युपेक्षितस्य ग्रहणमपि न युज्यत एव यतीनाम्, उपलक्षणत्वाच्चास्य तदादाय। ४... बृहवृत्ति, पत्र ५४४ : विहरन्त्यस्मिन् प्रदेश इति विहारस्तम् । ५.. व्यवहारभाष्य, ४।४० और वृत्ति : महती वियारभूमी, विहारभूमी य सुलभवित्ती य। सुलभा वसही य जहिं, जहण्णय वासखेत्तं तु।। -यत्र च महती विहारभूमिर्भिक्षानिमित्तं परिभ्रमणभूमिः....। ६. नंदी, सूत्र १२७ : दवओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाई जाणइ पासइ। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तावीसइमं अज्झयणं खलुंकिज्जं सत्तावीसवां अध्ययन खलुंकीय Jain Education Intemational Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अध्ययन में खलुंक (दुष्ट बैल) की उद्दण्डता के माध्यम से अविनीत की उद्दण्डता का चित्रण किया गया है, इसलिए इसका नाम 'खलुकिज्जं' – 'खलुंकीय' है । इस आगम-ग्रन्थ के प्रथम अध्ययन में विनीत और अविनीत के स्वरूप की व्याख्या की गई है। विनीत को पग-पग पर सम्पत्ति मिलती है और अविनीत को विपत्ति । अनुशासन विनय का एक अंग है। भगवान् महावीर के शासन में अनुशासन की शिक्षा-दीक्षा का बहुत महत्त्व रहा है। आत्मानुशासन अध्यात्म का पहला सोपान है । जो आत्म- शासित है, वही मोक्ष मार्ग के योग्य है। जो शिष्य अनुशासन की अवहेलना करता है, उसका न इहलोक सधता है और न परलोक । आंतरिक अनुशासन में प्रवीण व्यक्ति ही बाह्य अनुशासन को क्रियान्वित कर सकता है। जिसकी आंतरिक वृत्तियां अनुशासित हैं उसके लिए बाह्य अनुशासन, चाहे फिर वह कितना ही कठोर क्यों न हो, सरल हो जाता है। यह अध्ययन प्रथम अध्ययन का ही पूरक अंश है। इसमें अविनीत शिष्य के अविनय का यथार्थ चित्रण किया गया है और उसकी 'खलुक' (दुष्ट बैल) से तुलना की गई है— “दुष्ट बैल शकट और स्वामी का नाश कर देता है, यत्किंचित् देख कर संत्रस्त हो जाता है, जुए और चाबुक को तोड़ डालता है और विपथगामी हो जाता है।"" “अविनीत शिष्य खलुंक जैसा होता है। वह दंश-मशक १. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ४८६ : अवदाली उत्तसओ जोत्तजुगभंज तुत्तभंजो अ उप्पहविप्पहगामी एए खलुंका भवे गोणा ।। आमुख २. वही, गाथा ४६२ : दंसमसगस्समाणा जलुयकविच्छुयसमा य जे हुति । ते किर होति खलुंका तिक्खम्मिउचंडमद्दविआ ।। की तरह कष्ट देने वाला, जलोक की तरह गुरु के दोष ग्रहण करने वाला, वृश्चिक की तरह वचन - कण्टकों से बींधने वाला, असहिष्णु, आलसी और गुरु के कथन को न मानने वाला होता है। “वह गुरु का प्रत्यनीक, चारित्र में दोष लगाने वाला, असमाधि उत्पन्न करने वाला और कलह करने वाला होता है । "३ " वह पिशुन, दूसरों को तपाने वाला, रहस्य का उद्घाटन करने वाला, दूसरों का तिरस्कार करने वाला, श्रमण-धर्म से खिन्न होने वाला और मायावी होता है ।"* स्थविर गणधर गार्ग्य मृदु, समाधि-सम्पन्न और आचारवान् गणी थे। जब उन्होंने देखा कि उनके सारे शिष्य अविनीत, उद्दण्ड और उच्छृंखल हो गए, तब आत्म-भाव से प्रेरित हो, शिष्य-समुदाय को छोड़, वे अकेले हो गए। आत्म-निष्ठ मुनि के लिए यही कर्त्तव्य है। जो शिष्य-सम्पदा समाधि में सहायक होती है वही गुरु के लिए आदेय है, अनुशासनीय है और जो समाधि में बाधक बनती है वह त्याज्य है, अवांछनीय है। सामुदायिक साधना की समृद्धि के लिए है। वह लक्ष्य की पूर्ति के लिए सहायक हो तो उसे अंगीकार किया जाता है और यदि वह बाधक बनने लगे तो साधक स्वयं अपने को उससे मुक्त कर लेता है। यह तथ्य सदा से मान्य रहा है। यह अध्ययन उसी परम्परा की ओर संकेत करता है। ३. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ४६३ : जे किर गुरूपडिणीआ सबला असमाहिकारगा पावा । अहिगरणकारगऽप्पा जिणवयणे ते किर खलुंका ।। ४. वही, गाथा ४६४ : पिसुणा परोवतावी भिन्नरहस्सा परं परिभवंति । निव्विअणिज्ज्जा य सढा जिणवयणे ते किर खलुंका ।। Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तावीसइमं अज्झयणं : सत्तावीसवां अध्ययन खलुंकिज्जं : खलुंकीय संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद स्थविरो गणधरो गार्ग्य:, मुनिरासीद् विशारदः। आकीर्णो गणिभावे समाधि प्रतिसंधत्ते।। एक गर्गगोत्रीय' मुनि हुआ। वह स्थविर, गणधर' और शास्त्र-विशारद था। वह गुणों से आकीर्ण, गणी पद पर स्थित होकर समाधि का प्रतिसंधान करता था। वाहन को वहन करते हुए बैल के अरण्य स्वयं उल्लंधित हो जाता है। वैसे ही योग के वहन करते हुए मुनि के संसार स्वयं उल्लंधित हो जाता है। वहने वहमानस्य कांतारमतिवर्तते। योगे वहमानस्य संसारोऽतिवर्तते।। खलुकान् यस्तु योजयति विध्नन् क्लिश्यति। असमाधिं च वेदयति तोत्रकं च तस्य भज्यते।। जो अयोग्य बैलों को जोतता है, वह उनको आहत करता हुआ क्लेश पाता है। उसे असमाधि का संवेदन होता है और उसका चाबुक टूट जाता है। मूल १. थेरे गणहरे गग्गे मणी आसि विसारए। आइण्णे गणिभावम्मि समाहिं पडिसंधए।। २. वहणे वहमाणस्स कंतारं अइवत्तई। जोए वहमाणस्स संसारो अइवत्तई।। ३. खलुंके जो उ जोएइ विहम्माणो किलिस्सई।। असमाहिं च वेएइ तोत्तओ य से भज्जई।। ४. एगं डसइ पुच्छंमि एगं विंधइऽभिक्खणं। एगो भंजइ समिलं एगो उप्पहपट्ठिओ।। ५. एगो पडइ पासेणं निवेसइ निवज्जई। उक्कुद्दइ उप्फिडई सढे बालगवी वए।। माई मुद्धेण पडइ कुद्धे गच्छइ पडिप्पहं मयलक्खेण चिट्ठई वेगेण य पहावई।। ७. छिन्नाले छिंदइ सेल्लि दुरंतो भंजए जुगं। से वि य सुस्सुयाइत्ता उज्जाहित्ता पलायए।। खलुंका जारिसा जोज्जा दुस्सीसा वि हु तारिसा। जोइया धम्मजाणम्मि भज्जति धिइदुब्बला ।। एक दशति पुच्छे एक विध्यत्यभीक्ष्णम्। एको भनक्ति 'समिलं' एक उत्पथप्रस्थितः।। एक: पतति पाश्वेन निविशति निपद्यते। उत्कूदते उत्प्लवते शठ: बालगवीं व्रजेत्।। वह क्रुद्ध हुआ वाहक किसी एक की पूंछ को काट देता है और किसी एक को बार-बार बींधता है।१० तब कोई अयोग्य बैल जुए की कील को तोड़ देता है और कोई उत्पथ में प्रस्थान कर जाता है। कोई एक पार्श्व से गिर पड़ता है, कोई बैठ जाता है तो कोई लेट जाता है। कोई कूदता है, कोई उछलता है" तो कोई शठ तरुण गाय की ओर भाग जाता मायी मूर्ना पतति क्रूद्धो गच्छति प्रतिपथम्। मृतलक्षेण तिष्ठति वेगेन च प्रधावति।। 'छिन्नाले' छिनत्ति 'सेल्लि' दुर्दान्तो भनक्ति युगम्। सोऽपि च सूत्कृत्य उद्धाय (उद्+हाय) पलायते।। खलुका यादृशा योज्याः दुःशिष्या अपि खलु तादृशाः। योजिता धर्मयाने भञ्जन्ति धृतिदुर्बलाः।। कोई धूर्त बैल शिर को निढाल बना कर लुट जाता है तो कोई क्रूद्ध होकर पीछे की ओर चलता है। कोई मृतक-सा बन कर गिर जाता है तो कोई वेग से दौड़ता है। छिनाल" वृषभ रास को छिन्न-भिन्न कर देता है, दुर्दान्त होकर जुए को तोड़ देता है और सों-सों कर वाहन को छोड़ कर भाग जाता है। जुते हुए अयोग्य बैल जैसे वाहन को भग्न कर देते हैं, वैसे ही दुर्बल धृति वाले शिष्यों को धर्म-यान में जोत दिया जाता है तो वे उसे भग्न कर डालते हैं। Jain Education Intemational Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खलुंकीय ६. इहीगारविए एगे एगेऽत्थ रसगारवे । सायागारविए एगे एगे सुचिरकोहणे ।। १०. भिक्खालसिए एगे एगे ओमाणभीरुए थद्धे । एगं च अणुसासम्मी हेऊहिं कारणेहि य ।। ११. सो वि अंतरभासिल्लो दोसमेव पकुब्वई । आयरियाणं तं वयणं पडिकूलेइ अभिक्खणं ॥ १२. न सा ममं वियाणाइ न विसा मज्झ दाहिई । निग्गया होहिई मन्ने साहू अन्नोऽथ वच्चउ ।। १३. पेसिया पलिउंचंति ते परियंति समंतओ । रायवेट्ठि व मन्नंता करेंति भिउहिं मुहे । १४. वाइया संगहिया चेव भत्तपाणे य पोसिया । जायपक्खा जहा हंसा पक्कमंति दिसोदिसिं ।। १५. अह सारही विचिंतेइ खलुकेहिं समागओ । किं मज्झ दुसीसेहिं अप्पा मे अवसीयई । । १६. जारिसा मम सीसाउ तारिसा गलिगद्दहा । गलिगद्दहे चड़साणं दढं परिगिण्हइ तवं । । १७. मिउ महवसंपन्ने गंभीरे सुसमाहिए। विहरड़ महिं महण्या सीलभूएण अप्पणा । । -त्ति बेमि । ४३३ ऋद्धिगौरविक एकः एकोत्र रसगौरवः । सातगौरविक एकः एक सुचिरक्रोधनः ।। भिक्षालस्यिक एकः एकोऽवमानभीरुकः स्तब्धः । एकं च अनुशास्ति हेतुभिः कारणैश्च ।। सोप्यन्तरभाषावान् दोषमेव प्रकरोति । आचार्यणां तद् वचनं प्रतिकृतयत्यभीक्ष्णम्।। न सा मां विजानाति नापि सा मह्यं दास्यति । निर्गता भविष्यति मन्ये साधुरन्योऽत्र व्रजतु || प्रेषिताः परिकुन्ति ते परियन्ति समन्ततः । राजवेष्टिमिव मन्यमानाः कुर्वन्ति भृकुटिं मुखे । यायिताः संगृहीताश्चैव भक्तपानेन च पोषिताः । जातपक्षा यथा हंसा: प्रक्रामन्ति दिशो दिशम् ।। अथ सारथिर्विचिन्तयति खलुकैः श्रमागतः । किं मम दृष्टशिष्यैः आत्मा मे ऽवसीदति ।। यादृशा मम शिष्यास्तु तादृशा गलिगर्दभाः । गलिगर्दभान् त्यक्त्वा दृढं परिगृह्णाति तपः ।। मृदुमाईवसम्पन्नो गम्भीरः सुसमाहितः। विहरति महीं महात्मा शीलभूतेनात्मना ।। - इति ब्रवीमि । अध्ययन २७ : श्लोक ६-१७ कोई शिष्य ऋद्धि का गौरव करता है तो कोई रस का गौरव करता है, कोई साता-सुखों का गौरव करता है तो कोई चिर काल तक क्रोध रखने वाला है ।" कोई" भिक्षाचारी में आलस्य करता है तो कोई अपमान - भीरू और अहंकारी है। किसी को गुरु हेतुओं व कारणों द्वारा अनुशासित करते है तब वह बीच में बोल उठता है, मन में द्वेष ही " प्रकट करता है तथा बार-बार आचार्य के वचनों के प्रतिकूल आचरण करता है। ( गुरु प्रयोजनवश किसी श्राविका से कोई वस्तु लाने को कहे, तब वह कहता है) वह मुझे नहीं जानती, वह मुझे नहीं देगी, मैं जानता हूं, वह घर से बाहर गई होगी। इस कार्य के लिए मैं ही क्यों, कोई दूसरा साधु चला जाए। किसी कार्य के लिए उन्हें भेजा जाता है और वह कार्य किए बिना ही लौट आते हैं। पूछने पर कहते हैं-उस कार्य के लिए आपने हमसे कब कहा था ?२० वे चारों ओर घमते हैं किन्तु गुरु के पास नहीं बैठते । कभी गुरु का कहा कोई काम करते हैं। तो उसे राजा की बेगार" की भांति मानते हुए मुंह पर भृकुटि तान लेते हैं—मुंह को मचोट लेते हैं। (आचार्य सोचते हैं) मैंने उन्हें पढ़ाया, संगृहीत (दीक्षित) किया, भक्त-पान से पोषित किया, किन्तु कुछ योग्य बनने पर ये वैसे ही बन गए हैं, जैसे पंख आने पर हंस विभिन्न दिशाओं में प्रक्रमण कर जाते हैं दूर-दूर उड़ जाते हैं। कुशिष्यों द्वारा खिन्न होकर सारथि (आचार्य) २३ सोचते हैं-इन दुष्ट शिष्यों से मुझे क्या ? इनके संसर्ग से मेरी आत्मा अवसन्न-व्याकुल होती है। जैसे मेरे शिष्य हैं वैसे ही गली-गर्दभ होते हैं। इन गली - गर्दभों को छोड़ कर गर्गाचार्य ने दृढ़ता के साथ तपः मार्ग को अंगीकार किया। वह मृदु और मार्दव से सम्पन्न गम्भीर और सुसमाहित महात्मा शील-सम्पन्न होकर पृथ्वी पर विचरने लगा। - ऐसा मैं कहता हूं। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन २७ : खलुंकीय १. गर्गगोत्रीय (गग्गे) ३. गणधर (गणहरे) इसके दो संस्कृत रूप हैं...गर्ग और गार्ग्य । गर्ग व्यक्तिवाची इसके प्रमुख अर्थ दो हैं-तीर्थंकर के प्रमुख शिष्य और शब्द है और गार्ग्य गोत्र सम्बन्धी। शान्त्याचार्य ने इसका अनुपम ज्ञान आदि के धारक आचार्य । संस्कृत रूप गार्ग्य देकर इसका अर्थ 'गर्गसगोत्रः' किया है। ४. विशारद (विसारए) नेमिचन्द्र ने इसे 'गर्ग' शब्द मानकर 'गर्गनामा' ऐसा अर्थ चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है—उपकरणों का किया है।' स्थानांग सूत्र में गौतम-गोत्र के अन्तर्गत गर्ग-गोत्र संग्रह और परस्पर उपग्रह करने में कुशल व्यक्ति।' का उल्लेख हुआ है। इसलिए शान्त्याचार्य वाला अर्थ ही संगत बृहवृत्ति में इसका मूल अर्थ -है--सभी शास्त्रों में लगता है। सरपेन्टियर ने लिखा है-यह गर्ग शब्द अति कुशल, बहुश्रुत तथा वैकल्पिक अर्थ चूर्णि के समान है। प्राचीन है और वैदिक-साहित्य में इसका प्रयोग हुआ है। इसके ५. वह गुणों से आकीर्ण, गणीपद पर स्थित (आइण्णे निकट के शब्द गार्गी और गार्ग्य भी ब्राह्मण युग में सुविदित गणिभावम्मि) रहे। संभव है उस समय में गर्ग नाम वाला कोई ब्राह्मण मुनि चूर्णिकार ने 'आइण्णे गणिभावम्मि' का समन्वित अर्थ रहा हो और जैनों ने उस नाम का अनुकरण कर अपने साहित्य में उसका प्रयोग किया हो। उत्तराध्ययन में आए हुए किया है---गणिभाव के प्रति आकीर्ण । तात्पर्यार्थ में आचार्य के गुणों से युक्त। 'कपिल' आदि शब्द के विषय में भी ऐसा ही हुआ है। किन्तु वृत्तिकार ने दोनों को स्वतंत्र मानकर आकीर्ण का ब्राह्मण लोग जैन-शासन में प्रव्रजित होते थे इसलिए ब्राह्मण अर्थ--आचारसंपदा, श्रुतसंपदा आदि आचार्य गुणों से परिपूर्ण मुनि के नाम का अनुकरण कर यह अध्ययन लिखा गया। इस किया है तथा गणिभाव का अर्थ-आचार्य के रूप में अवस्थित अनुमान के लिए कोई पुष्ट आधार प्राप्त नहीं है। किया है। २. स्थविर (थेरे) शान्त्याचार्य ने 'थिरकरणा पूण थेरो' के आधार पर ६. प्रतिसंधान करता था (पडिसंधए) शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ 'कर्मोदयसे नष्ट हुई अविनीत इसका अर्थ 'धर्म में अस्थिर व्यक्तियों को स्थिर करने वाला' शिष्यों की समाधि का पुनः संधान करना-जोड़ना" और किया है। दशवैकालिक (६1819) की चूर्णि में स्थविर का अर्थ नेमिचंद्र ने शिष्यों द्वारा तोड़ी गई समाधि का पुनः अपने आप 'गणधर' किया गया है। परन्तु यहां वह अर्थ नहीं है क्योंकि में संधान करना किया है।२' इस अध्ययन की दृष्टि से दोनों इसका अगला शब्द 'गणहरे' है। साधारणतः जो मुनि प्रव्रज्या अर्थ उचित हैं। और वय में वृद्ध होते हैं उन्हें 'स्थविर' कहा जाता है। मुनि ७. अयोग्य बैलों को (खलुके) के लिए स्थविर कल्प' नामक आचार विशेष का भी उल्लेख आया है जिसका अर्थ है 'गच्छ में रहने वाले मुनियों का 'खलुंक' और 'खुलुंक'--ये दोनों रूप प्रचलित हैं। आचार। नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ 'दुष्ट वैल' किया है। स्थानांग वृत्ति १. (क) बृहवृत्ति, पत्र ५५० : 'गार्ग्यः' गर्गसगोत्रः। (ख) सुखबोधा, पत्र ३१६ : गर्गः गर्गनामा। २. ठाणं ७।३२ : जे गोयमा ते सत्तविधा पं.तं. ते गोयमा, ते गग्गा, ते भारद्दा, ते अंगिरसा, ते सक्कराभा, ते भक्खराभा, ते उदत्ताभा। 3. The Uttaradhyayana Sutra, p. 372 ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५०।। ५. अगस्त्यचूर्णि : थेरो पुण गणहरो। बृहवृत्ति, पत्र ५५० : गण-गुणसमूह धारयति-आत्मन्यवस्थापयतीति गणधरः। ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २७० : विशारदहेतोः, संग्रहोपग्रहकुशलः इत्यर्थः। ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५०: विशारदः-कुशलः सर्वशास्त्रेषु संग्रहोपग्रहयोर्वा । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २७० : गणिभावं प्रति आकीर्णः। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५०: आकीर्ण:-आचार्यगुणैराचार श्रुतसम्पदादिभिर्व्याप्तः परिपूर्ण इति यावत, गणिभावे-आचार्यत्वे स्थित इति गम्यते। ११. वही, पत्र ५५० : प्रतिसंधत्ते कर्मोदयात् त्रुटितमपि संघट्टयति, तथाविधशिष्याणामिति गम्यते। १२. सुखबोधा, पत्र ३१६ : प्रतिसंधत्ते कुशिष्यैस्त्रोटितमपि संघट्टयति आत्मन इति गम्यते। १३. वही, पत्र ३१६ : खलुंकान् गलिवृषभान्। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खलुंकीय ४३५ अध्ययन २७ : श्लोक ३-७ टि० ८-१४ में भी खलुक का अर्थ 'अविनीत' किया गया है।' खलुक का उसका संस्कृत रूप 'विघ्नन्' किया जा सकता है। जेकोबी ने अर्थ 'घोड़ा' भी होता है। भी यही अर्थ दिया है। सरपेन्टियर ने लिखा है--संभव है यह शब्द 'खल' से ९. (एग डसइ पुच्छंमि) संबंधित रहा हो और प्रारम्भ में 'खल' शब्द के भी ये ही---- शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने इसका सम्बन्ध क्रुद्ध वक्र, दुष्ट आदि अर्थ रहे हों। परन्तु इसकी प्रामाणिक व्युत्पत्ति गाड़ी-बाहक-सारथि से किया है। परन्तु प्रकरण की दृष्टि से अज्ञात ही है। अनुमानतः यह शब्द 'खलोक्ष' का निकटवर्ती यह संगत नहीं लगता। डॉ. हरमन जेकोबी ने इसका सम्बन्ध रहा है। जैसे-खल-विहग का दुष्ट पक्षी के अर्थ में प्रयोग होता दुष्ट बैल के साथ जोड़ा है। क्योंकि अगला सारा प्रकरण है, वैसे ही खल-उक्ष का दुष्ट बैल के अर्थ में प्रयोग हुआ हो। बैलों से सम्बन्धित है। अतः यह ठीक है। 'खलूक' शब्द के अनेक अर्थ नियुक्ति की गाथाओं १०.बींधता है (विंधइ) (४८६-४६४) में मिलते हैं-- इसका संस्कृत रूप है 'विध्यति'। सरपेन्टियर ने इस (१) जो बैल अपने जुए को तोड़कर उत्पथगामी हो जाते , शब्द के स्थान पर 'छिंदइ, भिंदइ' मानने का मत प्रगट किया हैं, उन्हें खलुक कहा जाता है---यह गाथा ४८६ का भावार्थ है। है।" यह अनावश्यक लगता है। 'विंधइ' शब्द ही यहां ठीक है। (२) ४६० वीं गाथा में खलुंक का अर्थ वक्र, कुटिल, जो क्योंकि जब बैल आपस में लड़ते हैं, तब वे एक दूसरे के सींगों नमाया नहीं जा सकता आदि किया गया है। से बींधते हैं। (३) ४६१ वी गाथा में हाथी के अंकुश, करमंदी, गुल्म ११. उछलता है (उफिडई) की लकड़ी और तालवृन्त के पंखे आदि को खलुंक कहा गया है। हेमचन्द्राचार्य के अनुसार 'भ्रंश' धातु को 'फिड' आदेश (४) ४६२ वीं गाथा में दंस, मशक, जोंक आदि को । होता है। शान्त्याचार्य ने इसका अर्थ 'मण्डूकवत् प्लवते' मंडूक खलुक कहा गया है। (५) ४६३ और ४६५ वी गाथाओं में गुरु के प्रत्यनीक, की तरह फुदकना किया है।३ स्खलित होना और फुदकना ये दोनों अर्थ भिन्न अपेक्षाओं से यहां संगत हो सकते हैं। शवल, असमाधिकर, पिशुन, दूसरों को संतप्त करने वाले अविश्वस्त शिष्यों को खलुक कहा गया है। १२. तरुण गाय की ओर (बालगवी) उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि दुष्ट, वक्र . शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ किए हैं-(१) युवा गाय आदि के अर्थ में 'खलंक' शब्द का प्रयोग होता है। जव यर और (२) दुष्ट बैल।" प्रथम अर्थ संगत लगता है। मनुष्य या पशु के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है तव १३. छिनाल (छिन्नाल) इसका अर्थ होता है—दृष्ट मनुष्य या पश, अविनीत मनुष्य या 'छिन्नाले' का अर्थ है 'जार'। भारतवर्ष में घोडा-गाडीपशू और जब यह लता, गल्म, वृक्ष आदि के विशेषण के रूप वाहक इसका बहुधा प्रयोग करते हैं यह गाली वाचक शब्द है। में प्रयुक्त होता है, तब इसका अर्थ वक्र लता या वक्ष, ठंठ, इसका स्त्रीलिंग में भी प्रयोग होता है, यथा-छिनाली. छिनाल गांठों वाली लकड़ी या वृक्ष होता है। स्त्री, छिन्ना आदि।" पुंश्चली को छिनाल कहते हैं। ८. आहत करता हुआ (विहम्माणो) ___ छिनालिया-पुत्र की संस्कृत छाया 'पुंश्चलिपुत्रक' दी हैशान्त्याचार्य ने इसका संस्कृत रूप 'विघ्नन्", नेमिचन्द । ऐसा सरपेन्टियर ने लिखा है।६ टीकाकार इसका अर्थ ने ‘विध्यमान' और सरपेन्टियर ने 'विधूयमान किया है। 'तथाविधदुष्टजातिः' करते हैं। उन्होंने टिप्पण करते हुए इस शब्द के स्थान पर 'विहम्ममाण' १४. रास को (सेल्लिं) शब्द को स्वीकार करने का मत प्रगट किया है। 'हन्' धातु का यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है "रज्जु' ।" सम्भव है 'हम्मइ' रूप बनता है। 'विहम्माण' को आर्षप्रयोग मानकर इस शब्द का संबन्ध अपभ्रंश शब्द 'सेल्ल' से हो. जिसका १. ठाणं, ४४६८ वृत्ति, पत्र २३८ : खलुंको-गलिरविनीतः २. अभिधानप्पदीपिका, ३७० : घोटको, (तु) खलुंको (थ)। 3. The Uttaradhyayana Sutra,p 372 ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४८-५५०। ५. वही, पत्र ५५० : विहमाणो त्ति सूत्रत्वाद् विशेषेण 'घ्नन' ताडयन। ६. सुधबोधा, पत्र ३१६ : विहम्माणो त्ति सूत्रत्वाद् 'विध्यमानः' ताडयन्। ७. दी उत्तराध्ययन सूत्र, पृ० ३७३। ८. दी सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, vol. XLV. उत्तराध्ययन, पृ० १५०। ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५५१। (ख) सुखबोधा, पत्र ३१७। 90. The Sacred Books of the East, YLV, Uttaradhyayana p. 150, Footnote 2. ११. दी उत्तराध्ययन सूत्र, पृष्ट ३७३। १२. हेमशब्दानुशासन, ८।४।१७७ : अंशेः फिड-फिट्ट, फुड-फुट चुक्क-चुल्ला। १३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५१ : उफ्फिउइ ति मण्डूकवत् प्लवते। १४. वही, पत्र ५५१: (क) 'बालगवी वए' त्ति 'बालगवीम्' अवृद्धा गाम्। (ख) यदिवा डार्षत्वाद्वालगवीति व्यागवो-दुष्टवलीवर्दः । १५. देशीनाममाला, ३।२७। १६. The Uttaradhyayana Sutra,p.373. १७. बृहवृत्ति, पत्र ५५१ : "छिन्नालः' तथाविधदुष्टजातिः । १८. वही, पत्र ५५१ : 'सिल्लिं' ति रश्मि संयमनरज्जुमिति यावत्। Jain Education Intemational Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४३६ अध्ययन २७ : श्लोक-१५ टि० १५-२२ उल्लेख हेमचन्द्राचार्य ने प्राकृत-व्याकरण (४।३८७) में किया इस पाठ का समर्थन किया है। डॉ० पिशेल ने जेकोबी के मत है। पिशल ने 'सेल्लु' का अर्थ हल किया है। सरपेन्टियर ने को भामक कहा है। नेमिचन्द्र इसका संस्कृत रूप 'अनुशास्मि' देते इस अर्थ के आधार पर यह अनुमान किया है कि यह हल का हैं। शान्त्याचार्य ने इसके संस्कृत रूप दो माने हैं—अनुशास्ति कोई भाग होना चाहिए।' देशीनाममाला में 'सेल्लु' के दो अर्थ और अनुशास्मि । 'अनुशास्ति' रूप प्रकरण संगत लगता है। किए हैं-(१) मृगशिशु और (२) बाण। १९. द्वेष ही (दोसमेव) १५. (श्लोक ९) 'दोस' शब्द के दो अर्थ होते हैं-द्वेष और दोष । चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक में तीन गौरवों का उल्लेख है। गौरव का 'दोस' का अर्थ 'दोष तथा वृत्तिकार ने 'अपराध' किया है।२ अर्थ है-अभिमान से उत्तप्त चित्त की अवस्था। वृत्तिकार ने २०. (पलिउंचंति) इनका विस्तृत वर्णन किया है। ऐश्वर्य या ऋद्धि का अहं करने इसका तात्पर्यार्थ समझाते हुए शान्त्याचार्य ने लिखा है वाला शिष्य सोचता है-अनेक धनाढ्य व्यक्ति मेरे श्रावक हैं। कि आदेश के अनुसार कार्य न होने पर गुरु अपने शिष्य को वे मुझे यथेष्ट उपकरण आदि लाकर देते हैं। मेरे समान इसका कारण पूछते हैं तब शिष्य कहता है—“आपने हमें इस सौभाग्शाली दूसरा कौन है ? यह सोचकर वह गुरु की सेवा-शुश्रूषा कार्य के लिए कब कहा था ?" अथवा वह यों कह देता हैमें प्रवर्तित नहीं होता। रस गौरव का अर्थ है-जीभ का “हम वहां गए थे परन्त वह वहां नहीं मिली।" यह अपलाप लोलप। ररा-लोलुप शिष्य बाल, ग्लान आदि को उपयुक्त करना है। डॉ० हरमन जेकोबी ने इस अर्थ को मान्य नहीं आहार आदि नहीं देता। वह स्वयं तपस्या भी नहीं करता। किया है। उनके अनुसार इसका अर्थ है 'आदेशानुसार कार्य सात-गौरव व्यक्ति निरंतर सुख-सुविधाओं में प्रतिवद्ध रहता नहीं किया। मूल धातु को देखते हुए परिकुंच का अर्थ है। वह अप्रतिबद्ध विहारी नहीं हो सकता। उसे सुख-सुविधा मायापूर्ण प्रयोग या अपलाप ही होना चाहिए। से वंचित हो जाने का भय बना रहता है। २१. राजा की बेगार (रायवेट्ठि) १६. (श्लोक १०) रायवेट्ठि' का अर्थ है 'राजा की बेगार'। राजस्थान में डॉ० हरमन जेकोबी ने इस श्लोक के विषय में यह इसे 'बेट' कहते हैं। (विट्टि बेट्टि बेठ) यह देशी शब्द है। अनुमान किया है कि मूलतः यह श्लोक 'आर्या' छन्द में था देशीनाममाला में इसका अर्थ 'प्रेषण' किया है। उपदेशरत्नाकर परन्तु कालान्तर में इसे 'अनुष्टुप् छन्द' में बदलने का प्रयत्न (६।११) में इसका अर्थ 'बेगार' किया है। प्राचीन समय में यह किया गया। टीकाओं में इस विषयक कोई उल्लेख नहीं है। परम्परा थी कि राजा या जमींदार गांव के प्रत्येक व्यक्ति से १७. अपमान-भीरू (ओमाणभीरुए) बिना पारिश्रमिक दिए ही काम कराते थे। बारी-बारी से इसका तात्पर्य है कि जिस किसी के घर में वह भिक्षा के सबको कार्य करना पड़ता था। इसी की ओर यह शब्द संकेत लिए नहीं जाता क्योंकि उसे प्रतिपल अपमानित होने का भय करता है। डॉ० हरमन जेकोबी "विट्टि' का अर्थ 'भाडा'रहता है। शान्त्याचार्य ने 'ओमाणभीरुए' का वैकल्पिक अर्थ 'किराया' करते हैं। किन्तु यहां यह उपयुक्त नहीं है। 'प्रवेश-भीरु' किया है। ओमाण एक अर्थ अलाभ भी किया २२. खिन्न होकर (समागओ) जा सकता है। 'समागओ' के अर्थ में नेमिचन्द्र का मत शान्त्याचार्य से १८. अनुशासित करते हैं (अणुसासम्मी) भिन्न है। शान्त्याचार्य ने समागत का अर्थ 'श्रभागत' (श्रम-प्राप्त) कई प्रतियों में 'अणुससम्मि' पाठ मिलता है। जेकोबी ने किया है। और नेमिचन्द्र ने इसका अर्थ 'संयुक्त' किया है। 9. The Uttaradhyayana Sutra. 373. २. देशीनाममाला, ८५७ : मिगसिसुसरेसु सेल्लो। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५२। ४. The sacred Book of the East, Vol. XLV Utaradhyayana, p. ISI Foot note I ५. सुखबोधा, पत्र ३१७ : अपमानभीरुः भिक्षां भ्रमन्नपि न यस्य तस्यैव गृहे प्रवेष्टुमिच्छति। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५२ : 'ओमाणं' ति प्रवेशः स च स्वपक्षपरपक्षयोस्तद् भीरुहिप्रतिवन्धेन मा मां प्रविशन्तमवलोक्यान्ये साधवः सीगतादयो वाऽत्रप्रवेक्ष्यन्तीति। ७. दी सेकेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, भाग ४५, उत्तराध्ययन पृ० १५१, फुटनोट नं०१६ ८. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, अनुवाद डा० हेमचन्द्र जोशी, पृ०७३२। ९. सुखबोधा, पत्र ३१७ : अणुसासम्मि त्ति अनुशास्मि। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५२ : अणुसासंमि त्ति आषत्वादनुशास्ति गुरुरिति गम्यते, यदा त्वाचार्य आत्मनः समाधि प्रतिसंधत्ते इति व्याख्या तदाऽनुशास्मीति व्याख्येयम् । ११. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृष्ठ २७१। १२. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५३ । १३. वही, पत्र ५५३ : 'पलिउंचंति' त्ति तत्प्रयोजनानिष्पादने पृष्टाः सन्तोऽपहनुवते-क्व वयमुक्ताः ? गता वा तत्र वयं, न त्वसी दष्टेति। १४. The Sacred Books of the Fast, Vol. XI.V, Uttaradhyayana, p. 151 १५. बृहवृत्ति, पत्र ५५३ : 'राजवेष्टिमिव' नृपतिहठप्रवर्तितकृत्यमिव । १६. देशीनाममाला, २४३, पृ० ६६ 90. The Sacred Books of the East, Vol. XLV. Uttaradhyavana, p. 151, Foot Note No. 3. १८. बृहबृत्ति, पत्र ५५३ : श्रम-खेदमागतः प्राप्तः श्रमागतः। १६. सुखबोधा, पत्र ३१७ : समागताः--संयुक्ताः । Jain Education Intemational Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खलुंकीय ४३७ अध्ययन २७ : श्लोक १५-१७ टि० २३-२५ २३. सारथि (आचार्य) (सारही) गधा स्वभावतः आलसी होता है। उसको निरंतर प्रेरित करने इसका शाब्दिक अर्थ है-सारथि, रथ को चलाने वाला। पर ही वह कार्य में प्रवृत्त होता है। उसको प्रेरित करने में ही प्रस्तुत प्रसंग में इसका लाक्षणिक प्रयोग हुआ है। यहां इसका सारा समय बीत जाता है। अर्थ है-आचार्य । जैसे—सारथि उत्पथगामी या मार्गच्युत वैल इसलिए गर्गाचार्य ने सोचा, मेरे सारे शिष्य गलिगर्दभ की या घोड़े को सही मार्ग पर ला देता है, वैसे ही आचार्य भी भांति अविनीत और आलसी हैं। अब मुझे उनको छोड़कर अपने शिष्यों को मार्ग पर ला देते हैं।' अपना हित-साधन करना चाहिए। २४. गली गर्दभ (गलिगद्दहा) २५. मृदु और मार्दव (मिउमद्दव) गलि' देशी शब्द है। इसका अर्थ है- अविनीत, दुप्ट। वृत्ति में मृदु का अर्थ है-बाह्य विनय और मार्दव का यहां गर्दभ की उपमा अत्यंत कृत्सा ज्ञापित करने के लिए है। अर्थ है-आन्तरिक विनय। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५३। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५४ : मृदुः-बहिर्वृत्त्या विनयवान्, मार्दव... अन्तःकरणतोपि तादगेव। Jain Education Intemational Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठावीसइमं अज्झयणं मोक्खमग्गगई अट्ठाईसवां अध्ययन मोक्ष-मार्ग-गति Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन का नाम 'मोक्खमग्गगई'--'मोक्ष-मार्ग-गति' प्रज्ञापना (प्रथम पद) में भी मिलता है। वह विभाग यह हैहै। मोक्ष प्राप्य है और मार्ग है उसकी प्राप्ति का उपाय। गति १. निसर्गरुचि ६. अभिगमरुचि व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ है। प्राप्य हो और प्राप्ति का उपाय २. उपदेशरुचि ७. विस्ताररुचि न मिले तो वह प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार प्राप्य भी हो और ३. आज्ञारुचि ८. क्रियारुचि प्राप्ति का उपाय भी हो किन्तु उसकी ओर गति नहीं होती तो ४. सूत्ररुचि ६. संक्षेपरुचि वह प्राप्त नहीं होता। मार्ग और गति-ये दोनों प्राप्त हों तभी ५. बीजरुचि १०. धर्मरुचि। प्राप्य प्राप्त हो सकता है। . मोक्ष-प्राप्ति का तीसरा साधन चारित्र--आचार है। वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप–इन चारों द्वारा मोक्ष की पांच हैं: प्राप्ति होती है, इसलिए इनके समवाय को मोक्ष का मार्ग कहा १. सामायिक चारित्र गया है। जैन दर्शन ज्ञान-योग, भक्ति-योग (श्रद्धा) और २. छेदोपस्थापनीय चारित्र कर्म-योग (चारित्र और तप)-इन तीनों को संयुक्त रूप में ३. परिहार-विशुद्धि चारित्र मोक्ष का मार्ग मानता है, किसी एक को नहीं (श्लो०२)। इस ४. सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र चतुरंग मार्ग को प्राप्त करने वाले जीव ही मोक्ष को प्राप्त करते ५. यथाख्यात चारित्र मोक्ष-प्राप्ति का चौथा साधन तप है। वह दो प्रकार का चौथे से चौदहवें श्लोक तक ज्ञान-योग का निरूपण है—बाह्य और आभ्यन्तर। प्रत्येक के छह-छह विभाग हैं। है-ज्ञान और ज्ञेय का प्रतिपादन है। दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के बिना पन्द्रहवें से इकतीसवें श्लोक तक श्रद्धा-योग का निरूपण है। चारित्र नहीं आता। चारित्र के बिना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष बत्तीसवें से चौंतीसवें श्लोक तक कर्म-योग का निरूपण है। के बिना निर्वाण नहीं होता। (श्लो०३०) पैंतीसवें श्लोक में इन योगों के परिणाम बतलाए गए हैं। ज्ञान से तत्त्व जाने जाते हैं। मोक्ष-प्राप्ति का पहला साधन ज्ञान है। ज्ञान पांच हैं- दर्शन से उन पर श्रद्धा होती है। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल । ज्ञान के विषय हैं चारित्र से आनव का निरोध होता है। द्रव्य, गुण और पर्याय। धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल तप से शोधन होता है। (श्लोक ३५) और जीव-ये छह द्रव्य हैं। गुण और पर्याय अनन्त हैं। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में इन चार मार्गों का मोक्ष-प्राप्ति का दूसरा साधन दर्शन है। उसका विषय है निरूपण है। जब आत्म-शोध पूर्ण होता है तब जीव सिद्ध-गति तथ्य की उपलब्धि। वे नौ हैं-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, को प्राप्त हो जाता है। आसव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष । दर्शन को दस रुचियों सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के ग्यारहवें अध्ययन का . में विभक्त किया गया है। यह विभाग स्थानांग (१०।१०४) और नाम 'मार्गाध्ययन' है। उसमें भी मोक्ष के मागों का निरूपण है। Jain Education Intemational Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठावीसइमं अज्झयणं : अट्ठाईसवां अध्ययन मोक्खमग्गगई : मोक्ष-मार्ग-गति मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद चार कारणों से संयुक्त', ज्ञान-दर्शन लक्षण वाली जिन-भाषित तथ्यात्मक मोक्ष-मार्ग की गति को सुनो। मोक्षमार्गगतिं तथ्यां शृणुत जिनभाषिताम्। चतुष्कारणसंयुक्ता ज्ञानदर्शनलक्षणाम् ।। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप--यह मोक्ष-मार्ग है, ऐसा वरदर्शी अर्हतों ने प्ररूपित किया। ज्ञानं च दर्शनं चैव चरित्रं च तपस्तथा। एष मार्ग इति प्रज्ञप्तः जिनैर्वरदर्शिभिः।। ३. ना ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप–इस मार्ग को प्राप्त करने वाले जीव सुगति में जाते हैं। उनमें ज्ञान पांच प्रकार का है-श्रुतज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान, अवधिज्ञान, मनःज्ञान और केवलज्ञान। १. मोक्खमग्गगई तच्चं सुणेह जिणभासियं। चउकारणसंजुत्तं नाणदंसणलक्खणं ।। २. नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गो त्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं।। नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। एयं मग्गमणुप्पत्ता जीवा गच्छंति सोग्गइं।। ४. तत्थ पंचविहं नाणं सुयं आभिणिबोहियं । ओहीनाणं तइयं मणनाणं च केवलं ।। ५. एयं पंचविहं नाणं दव्वाण य गुणाण य। पज्जवाणं च सव्वेसिं नाणं नाणीहि देसियं ।। गुणाणमासओ दव्वं एगदव्वस्सिया गुणा। लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे ।। ७. धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गलजंतवो। एस लोगो त्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं।।। धम्मो अहम्मो आगासं दव्वं इक्किक्कमाहियं। अणंताणि य दव्वाणि कालो पुग्गलजंतवो।। यह पांच प्रकार का ज्ञान सर्व द्रव्य, गुण और पर्यायों का अवबोधक है---ऐसा ज्ञानियों ने बतलाया है। ज्ञानं च दर्शनं चैव चरित्रं च तपस्तथा। एनं मार्गमनुप्राप्ता जीवा गच्छन्ति सुगतिम् ।। तत्र पंचविधं ज्ञानं श्रुतमाभिनिबोधिकम्। अवधिज्ञानं तृतीयं मनोज्ञानं च केवलम्।। एतत् पंचविधं ज्ञानं द्रव्यानां च गुणानां च। पर्यवाणां च सर्वेषां ज्ञानं ज्ञानिभिर्देशितम् ।। गुणानामाश्रयो द्रव्यं एकद्रव्याश्रिता गुणाः। लक्षणं पर्यवाणां तु उभयोराश्रिता भवेयुः ।। धर्मोऽधर्म आकाशं कालः पुद्गलजन्तवः। एष लोक इति प्रज्ञप्तः जिनैर्वरदर्शिभिः ।। जो गुणों का आश्रय होता है, वह द्रव्य है। जो एक (केवल) द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण होते हैं।' द्रव्य और गुण-दोनों के आश्रित रहना पर्याय का लक्षण है। धर्म, अधर्म", आकाश, काल, पुद्गल और जीवये छह द्रव्य हैं। यह पद्रव्यात्मक जो है वही लोक है-ऐसा वरदशी अर्हतों ने प्ररूपित किया है। धर्म, अधर्म, आकाश---ये तीन द्रव्य एक-एक हैं। काल, पुद्गल और जीव-ये तीन द्रव्य अनन्त-अनन्त धर्मोऽधर्म आकाशं दव्यमेकैकमाख्यातम्। अनन्तानि च द्रव्याणि काल: पुद्गलजन्तवः ।। हैं। Jain Education Intemational Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-मार्ग-गति ६. गइलक्खणो उ धम्मो अहम्मो ठाणलक्खणो। भायणं सव्वदव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं ।। १०. वत्तणालक्खणो कालो जीवो उवओगलक्खणो। नाणेणं दंसणेणं च सुहेण य दुहेण य।। ११. नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य एयं जीवस्स लक्खणं ।। १२. सबंधयारउज्जोओ पहा छायातवे इ वा। वण्णरसगंधफासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ।। १३. एगत्तं च पुहत्तं च संखा संठाणमेव य। संजोगा य विभागा य पज्जवाणं तु लक्खणं ।। १४.जीवाजीवा य बंधो य पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो संतेए तहिया नव।। १५. तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं। भावेणं सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ।।। १६.निसग्गुवएसरुई आणारुइ सुत्तबीयरुइमेव। अभिगमवित्थाररुई किरियासंखेवधम्मरुई।। १७.भूयत्थेणाहिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च। सहसम्मुइयासवसंवरो य रोएइ उ निसग्गो।। १८. जो जिणदिठे भावे चउबिहे सद्दहाइ सयमेव । एमेव नन्नह त्ति य निसग्गरुइ त्ति नायव्वो।। ४४१ अध्ययन २८ : श्लोक १-१८ गतिलक्षणस्तु धर्मः धर्म का लक्षण है गति, अधर्म का लक्षण है स्थिति। अधर्मः स्थानलक्षणः। आकाश सर्व द्रव्यों का भाजन है। उसका लक्षण है भाजनं सर्वद्रव्याणां अवकाश। नभोऽवगाहलक्षणम्।। वर्तनालक्षणः कालः वर्तना काल का लक्षण है। जीव का लक्षण है जीव उपयोगलक्षणः। उपयोग"। वह ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख से ज्ञानेन दर्शनेन च जाना जाता है। सुखेन च दुःखेन च।। ज्ञानं च दर्शनं चैव ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग–ये चरित्रं च तपस्तथा। जीव के लक्षण हैं। वीर्यमुपयोगश्च एतज्जीवस्य लक्षणम्।। शब्दान्धकार उद्योतः शब्द२, अन्धार", उद्योत, प्रभा, छाया", आतप, प्रभाच्छायाऽऽतप इति वा। वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श---ये पुद्गल के लक्षण हैं। वर्णरसगन्धर्पशाः पुद्गलानां तु लक्षणम्।। एकत्वं च पृथक्चं च एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग और विभागसंख्या संस्थानमेव च। ये पर्यायों के लक्षण हैं।" संयोगाश्च विभागाश्च पर्यवाणां तु लक्षणम् ।। जीवाऽजीवाश्च बन्धश्च जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, पुण्यं पापाश्रवौ तथा। निर्जरा और मोक्ष--ये नौ तथ्य (तत्त्व) हैं।६ सम्वरो निर्जरा मोक्षः सन्येते तथ्या नव।। तथ्यानां तु भवानां इन तथ्य भावों के सद्भाव (वास्तविक अस्तित्व) के सद्भावे उपदेशनम्। निरूपण में जो अन्तःकरण से श्रद्धा करता है, उसे भावेन श्रद्दधत: सम्यक्त्व कहा गया है। सम्यक्त्वं तद् व्याहृतम् ।। निसर्गोपदेशरुचिः वह दस प्रकार का है—निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचिः सूत्रबीजरुचिरेव। आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, अभिगमविस्ताररुचिः विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपरुचि और धर्मरुचि।" क्रियासंक्षेपधर्मरुचिः।। भूतार्थेनाधिगताः जो परोपदेश के विना केवल पूर्वजन्म की स्मृति जीवाऽजीवाश्च पुण्यं पापं च। आदि" से उपजे हुए भूतार्थ (यथार्थ ज्ञान) से स्वस्मृत्याऽऽश्रवसंवरौ च जीव, अजीव, पुण्य, पाप को जानता है और जो आश्रव रोचते तु निसर्गः।। । और संवर पर श्रद्धा करता है, वह निसर्ग-रुचि है। यो जिनदृष्टान् भावान् जो जिनेन्द्र द्वारा दृष्ट२० तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और चतुर्विधान् श्रद्दधाति स्वयमेव।। भाव से विशेषित पदार्थों पर स्वयं ही-“यह ऐसा एवमेव नान्यथेति च ही है अन्यथा नहीं है"-ऐसी श्रद्धा रखता है, उसे निसर्गरुचिरिति ज्ञातव्यः।। निसर्ग रुचि वाला जानना चाहिए। Jain Education Intemational Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४४२ अध्ययन २८ : श्लोक १६-२७ १६. एए चेव उ भावे उवइठे जो परेण सद्दहई। छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुइ ति नायव्वो।। एतान् चैव तु भावान् जो दूसरों.---छद्मस्थ या जिनके द्वारा उपदेश उपदिष्टान् यः परेण श्रद्दधाति। प्राप्त कर, इन भावों पर श्रद्धा करता है, उसे दद्मस्थेन जिनेन वा उपदेश-रुचि वाला जानना चाहिए। उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः।। २०.रागो दोसो मोहो । अण्णाणं जस्स अवगयं होइ। आणाए रोयंतो सो खलु आणारुई नाम।। रागो दोषो मोहः अज्ञानं यस्यापगतं भवति। आज्ञायां रोचमानः स खल्वाज्ञारुचिर्नाम।। जो व्यक्ति राग, द्वेष, मोह और अज्ञान" के दूर हो जाने पर वीतराग की आज्ञा२५ में रुचि रखता है, वह आज्ञा-रुचि है। २१. जो सुत्तमहिज्जंतो सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं। अंगेण बाहिरेण व सो सुत्तरुइ त्ति नायव्यो।। यः सूत्रमधीयानः श्रुतेनावगाहते तु सम्यक्त्वम्। अङ्गेन बाह्येन वा स सूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः ।। जो अंग-प्रविष्ट या अंग-बाह्य सूत्रों को पढ़ता हुआ उनके द्वारा सम्यक्त्व पाता है, वह सूत्र-रुचि है। २२.एगेण अणेगाई पयाई जो पसरई उ सम्मत्तं। उदए ब्व तेल्लबिंदू सो बीयरुइ त्ति नायव्वो।। एकेनानेकानि पानी में डाले हुए तेल की बूंद की तरह जो सम्यक्त्व पदानि यत् प्रसरति तु सम्यक्चम्। (रुचि) एक पद (तत्त्व) से अनेक पदों में फैलता है, उदके इव तैलबिन्दुः उसे बीज-रुचि जानना चाहिए। स बीजरुचिरिति ज्ञातव्यः ।। जिसे ग्यारह अंग, प्रकीर्णक और दृष्टिवाद आदि श्रुतज्ञान अर्थ सहित प्राप्त है, वह अभिगम-रुचि है। २३.सो होइ अभिगमरुई स भवति अभिगमरुचिः सुयनाणं जेण अत्थओ दिटूठं। श्रुतज्ञानं येन अर्थतो दृष्टम्। एक्कारस अंगाई। एकादशाङ्गानि पइण्णगं दिट्ठिवाओ य।। प्रकीर्णकानि दृष्टिवादश्च।। जिसे द्रव्यों के सव भाव, सभी प्रमाणों और सभी नय-विधियों से उपलब्ध है, वह विस्तार-रुचि है। २४.दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा। सव्वाहि नयविहीहि य वित्थाररुइ त्ति नायव्यो।। द्रव्याणां सर्वभावाः सर्वप्रमाणैर्यस्योपलब्धाः। सर्वैर्नयविधिभिश्च विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्यः।। २५.दंसणनाणचरित्ते तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु। जो किरियाभावरुई जो खलु किरियारुई नाम।। दर्शनज्ञानचरित्रे दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति, तपोविनये सत्यसमितिगुप्तिषु।। गुप्ति आदि क्रियाओं में जिसकी वास्तविक रुचि है, यः क्रियाभावरुचिः वह क्रिया-रुचि है। स खलु क्रियारुचिर्नाम।। २६.अणभिग्गहियकुदिट्ठी संखेवरुइ त्ति होइ नायव्वो। अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसु।। अनभिगृहीतकुदृष्टिः जिसमें कुदृष्टि (एकान्तवाद) की पकड़ नहीं है, उसे संक्षेपरुचिरिति भवति ज्ञातव्यः। संक्षेप-रुचि जानना चाहिए। वह जिन-प्रवचन में अविशारदः प्रवचने विशारद नहीं होता और अन्य दर्शनों का भी जानकार अनभिगृहीतश्च शेषेषु।। नहीं होता। २७.सो अत्थिकायधम्म योऽस्तिकायधर्म सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च। श्रुतधर्मं खलु चरित्रधर्मं च।। सद्दहइ जिणाभिहियं श्रद्दधाति जिनाभिहितं जो धम्मरुइ त्ति नायव्वो।।। स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्यः ।। जो जिन-प्ररूपित अस्तिकाय-धर्म, श्रुत-धर्म और चारित्र-धर्म में श्रद्धा रखता है, उसे धर्म-रुचि जानना चाहिए।२३ Jain Education Intemational Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष मार्ग गति - २८. परमत्थसंथवो वा सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वा वि । वावन्नकुदंसणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ।। २६. नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं दंसणे उ भइयव्वं । सम्मत्तवरिताई जुगवं पुचं व सम्मतं ॥ ३०. नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।। ३१. निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिमिच्छा अमूढदिट्ठी व उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ट ।। ३२. सामाइयत्थ पढमं छेओवट्ठावणं भवे बीयं । परिहारविसुद्धीय सुहुमं तह संपरायं च ।। ३३. अकसायं अहक्खायं छउमत्थस्स जिणस्स वा एयं चयरित्तकरं चारित्तं होइ आहियं ।। ३४. तवो य दुविहो वुत्तो बाहिरब्भंतरो तहा । बाहिरो छव्विही वुत्तो एवमन्यंतरी तवी ।। ३५. नाणेण जाणई भावे दंसणेण य सद्दहे । चरित्रेण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झई ।। ३६. खवेत्ता पुब्बकम्माई संजमेण तवेण य । सव्वदुक्खप्प होणट्ठा पक्कमंति महेसिणो ।। -त्ति बेमि । ४४३ परमार्थसंस्तवो वा सुदृष्टपरमार्थसेवन वापि व्यापन्नदर्शनवर्जन च सम्यक्त्व श्रद्धानम् ।। नास्ति चरित्रं सम्यक्त्वविहीनं दर्शने तु भक्तव्यम् । सम्यक्त्वचरित्रे युगपत् पूर्वं वा सम्यक्त्वम् ।। तपश्यद्विविधमुक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा । बाह्यं षड्विधमुक्तं एवमाभ्यन्तरं तपः ।। ना प्रदर्शनिनो ज्ञानं अदर्शनी (असम्यक्ची) के ज्ञान (सम्यग् न नहीं ज्ञानेन विना न भवन्ति चरणगुणाः । होता, ज्ञान के बिना चारित्र गुण नहीं होते। अगुणी अगुणिनो नास्ति मोक्षः व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती। अमुक्त का निर्वाण नहीं नास्ति अमोक्षस्य निर्वाणम् ।। होता । निःशकतं निष्काङ्क्षितं निर्विचिकित्सा अमूडदृष्टिश्य उपवृंहा स्थिरीकरणं वात्सल्यं प्रभावनमष्ट ।। सामायिकमत्र प्रथमं छेदोपस्थापन भवेद्र द्वितीयम्। परिहारविशुद्धिकं सूक्ष्मं तथा सम्पराय च ।। अकषायं यथाख्यातं छद्मस्थस्य जिनस्य वा । एतत् चयरिक्तकरं चारित्रं भवत्याख्यातम् ।। ज्ञानेन जानाति भावान् र्शनेन च श्रद्धत्ते । परिषेण निगृह्णाति तपसा परिशुध्यति ।। क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि संयमेन तपसा च । सर्वपुः खमाणा: प्रक्रामन्ति महर्षयः ।। अध्ययन २८ : श्लोक २८-३६ परमार्थ का परिचय, जिन्होंने परमार्थ को देखा है। उसकी सेवा, व्यापन्नदर्शनी ( सम्यक्त्व से भ्रष्ट) और कुदर्शनी व्यक्तियों का वर्जन, यह सम्यक्त्व का श्रद्धान है । - इति ब्रवीमि । सम्यक्त्व - विहीन चारित्र नहीं होता। दर्शन ( सम्यक्त्व) में चारित्र की भजना (विकल्प) है। इस प्रकार सम्यक्त्व और चारित्र के दो विकल्प बनते हैं। प्रथम विकल्प- सम्यक्त्व और चारित्र युगपत्-एक साथ होते हैं, उनका सहभाव होता है। दूसरा विकल्पवे युगपत् नहीं होते, वहां पहले सम्यक्त्व होता है २४ निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढ़-दृष्टि, उपबृंहण (सम्यक् दर्शन की पुष्टि), स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना — ये सम्यक्त्व के आठ अंग हैं। चारित्र पांच प्रकार के होते हैं- पहला- सामायिक, दूसरा-छोदोपस्थापनीय, तीसरा परिहार- विशुद्धि, चौथा - सूक्ष्म - सम्पराय और - पांचवां-यथाख्यात चारित्र। यह कषाय रहित होता है। वह छद्मस्थ और केवली दोनों के होता है। ये सभी चारित्र कर्म-संचय को रिक्त करते हैं, इसीलिए इन्हें चारित्र कहा जाता है। २६ तप दो प्रकार का कहा है-बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप छह प्रकार का कहा है। इसी प्रकार आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है। जीव ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा करता है, चारित्र से निग्रह करता है और तप से शुद्ध होता है। सर्व दुःखों से मुक्ति पाने का लक्ष्य रखने वाले महर्षि संयम और तप के द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय कर सिद्धि को प्राप्त होते हैं। -ऐसा मैं कहता हूं। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन २८ : मोक्ष-मार्ग-गति १. चार कारणों से संयुक्त (चउकारणसंजुत्तं...) इसी ग्रन्थ (३३।४) में ज्ञानावरण के भेदों में इन पांच ज्ञानों का मोक्षगति के चार कारण हैं। वे अगले श्लोक में प्रतिपादित उल्लेख हुआ है। वहां भी यही क्रम है। साधारणतः ज्ञान के हैं। मोक्षमार्ग की गति उन चार कारणों से संयुक्त होती है। उल्लेख का क्रम है-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और ज्ञान और दर्शन उनके लक्षण बतलाए गए हैं। ज्ञान और दर्शन केवल। परन्तु इस श्लोक में श्रूत के बाद आभिनिबोधिक का कारण के रूप में प्रतिपादन है फिर लक्षण के रूप में (मति) का उल्लेख हुआ है। टीकाकारों ने इसका कारण उनका प्रतिपादन क्यों ? इसका समाधान यह है कि साधना-काल बतलाते हुए कहा है कि शेष सभी ज्ञानों (मति, अवधि, में ज्ञान और दर्शन मोक्ष के साधन हैं। सिद्धि-अवस्था में वे मनःपर्यव और केवल) का स्वरूप-ज्ञान इस श्रुतज्ञान से ही आत्मा के स्वरूप हैं। चार कारणों में उनका साधन के रूप में होता है। अतः इसकी प्रधानता दिखाने के लिए ऐसा किया उल्लेख है। लक्षण में उनका आत्म-स्वरूप विषयक उल्लेख है। गया है। इसकी पुष्टि अनुयोगद्वार सूत्र से भी होती है। यह भी सम्भव है कि छन्द की दृष्टि से ऐसा किया गया हो। २. (श्लोक २) इन्द्रियां योग्य देश में अवस्थित वस्तु को ही जान सकती इस श्लोक में मोक्ष के चार मार्ग—(१) ज्ञान, (२) दर्शन, हैं, इसका बोध 'अभि' के द्वारा होता है। वे अपने-अपने (३) चारित्र और (४) तप-का नाम-निर्देश है। 'तप' चारित्र निश्चित विषय को ही जान सकती हैं, इसका बोध 'नि' के का ही एक प्रकार है किन्तु इसमें कर्म-क्षय करने को विशिष्ट द्वारा होता है। जिस ज्ञान के द्वारा योग्य देश में अवस्थित वस्तु शक्ति होने के कारण इसे यहां स्वतंत्र स्थान दिया गया है।' का ज्ञान और निश्चित विषय का बोध होता है, वह आभिनिबोधिक उमास्वाति ने “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः"२-इस सूत्र । २सन ज्ञान है। में तपस्या को स्वतंत्र स्थान नहीं दिया है। इस प्रकार मोक्ष-मार्ग 'आभिनिबोधिकज्ञान' मतिज्ञान का ही पर्यायवाची है। की संख्या के सम्बन्ध में दो परस्पराएं प्राप्त है। इनमें केवल नन्दी सत्र में दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है। अनयोगद्वार में अपेक्षा-भेद है। तप को चारित्र के अन्तर्गत मान लेने पर मोक्ष केवल 'आभिनिबोधिक' का ही प्रयोग है। नंदी में ईहा, उपोह, के मार्ग तीन बन जाते हैं और इसे स्वतंत्र मान लेने पर चार विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा को बौद्ध-साहित्य में अष्टांगिक मार्ग को मुक्ति का कारण आभिनिबोधिक ज्ञान माना है। तत्त्वार्थ (१।१३) में मति, माना गया है। (१) सम्यक् दृष्टि, (२) सम्यक् संकल्प, (३) स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और आभिनिबोध को एकार्थक माना सम्यक् वचन, (४) सम्यक् कर्मान्त, (५) सम्यक् आजीव, (६) गया है। सम्यक् व्यायाम, (७) सम्यक् स्मृति और (८) सम्यक् समाधि मति और श्रुत अन्योन्याश्रित हैं—'जत्थाभिणिबोहियनाण -ये अष्टांगिक-मार्ग कहलाते हैं। तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थाभिणिबोहियनाणं'-जहां मति ३. (श्लोक ४) है, वहां श्रुत है और जहां श्रुत है, वहां मति है। इस श्लोक में जैनदर्शनाभिमत पांच ज्ञानों—(१) श्रुतज्ञान, श्रुतज्ञान मति-पूर्वक ही होता है, परन्तु मतिज्ञान श्रुत-पूर्वक (२) आभिनिबोधिकज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःज्ञान नहीं होता। सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में भी इसी मत का (मनःपर्यवज्ञान) और (५) केवलज्ञान का उल्लेख हुआ है। समर्थन है।" श्रुतज्ञान मति-पूर्वक ही होता है, जबकि मतिज्ञान १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५६ : इह च चारित्रभेदत्वेऽपि तपसः पृथगुपादानमस्यैव क्षपणं प्रत्यसाधारणहेतुत्वमुपदर्शयितुं, तथा च वक्ष्यति-'तवसा (उ) विसुज्झइ'। २. तत्त्वार्थ सूत्र, ११। ३. संयुत्तनिकाय (३४।३।५।१), भाग २, पृ० ५०५। । ४. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५५७ । (ख) सुखबोधा, पत्र ३१६। अणुओगदाराई, सूत्र २: तत्थ चत्तारि नाणाई ठप्पाई ठवणिज्जाई- नो उद्दिसंति, नो समुद्दिसंति, नो अणुण्णविज्जति, सुयनाणस्स उद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ। ६. बृहवृत्ति, पत्र ५५६ : तथाभिमुखो योग्यदेशावस्थितवस्त्वपेक्षया नियतः स्वस्वविषयपरिच्छेदकतयाऽवबोधः-अवगमो ऽभिनिबोधः, स एवाभिनि बोधिकम्। ७. नन्दी, सूत्र ३५, ३६॥ ८. वही, सूत्र ५४, गाथा ६ : ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवसणा। सण्णा सई मई पण्णा, सच आभिणिबोहियं ।। ६. वही, सूत्र ३५। १०. वही, सूत्र ३५। ११. सर्वार्थसिद्धि, १९३० : तत्त्वार्थ राजवार्तिक, १६। Jain Education Intemational Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-मार्ग-गति ४४५ अध्ययन २८ : श्लोक ४ टि० ३ के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह श्रुत-पूर्वक ही हो।' कहा गया है।' जिनभद्र कहते हैं कि जो ज्ञान श्रुतानुसारी है, वह भाव-श्रुत है, अश्रुत-निश्रित के चार भेद हैं--(१) औत्पत्तिकी, (२) शेप मति है। वैनयिकी, (३) कर्मजा और (8) पारिणामिकी। ___मतिज्ञान दो प्रकार का है...--(१) श्रुत-निश्रित और (२) पांच इन्द्रिय और मन के साथ अवग्रह आदि का गुणन अश्रुत-निश्रित । करने से मतिज्ञान २८ प्रकार का होता है। चक्षु और मन का श्रुत-निश्रित के चार भेद हैं--(१) अवग्रह, (२) ईहा, व्यंजनावग्रह नहीं होता। तालिका इस प्रकार होती है। (३) अवाय और (४) धारणा। इन्हें सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष भी आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान श्रुत निश्रित _अश्रुत-निश्रित .. अश्रुत-निश्रित अवग्रह ईहा' अवाय' धारणा' औत्पत्तिकी वैनयिकी कर्मजा पारिणामिकी अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह Tरस श्रोत्र घ्राण स्पर्श सिद्धसेन दिवाकर श्रुतज्ञान को मतिज्ञान से भिन्न नहीं अनुमान और आगम।" मानते। उनके अनुसार इसको भिन्न मानने से वैयर्थ्य और इनमें प्रथम चार मतिज्ञान के प्रकार हैं और आगम अतिप्रसंग दोष आते हैं। श्रुतज्ञान है। वस्तुतः ज्ञान एक ही है---केवलज्ञान। शेष सभी सिद्धसेन दिवाकर की यह मान्यता निराधार नहीं है। ज्ञान की अविकसित अवस्था के द्योतक हैं। सभी का अन्तर्भाव क्योंकि मतिविज्ञान और श्रुतज्ञान-दोनों की कारण-सामग्री केवलज्ञान में सहज ही हो जाता है। एक है। इन्द्रिय और मन दोनों के साधन हैं तथा श्रुतज्ञान मति एक अपेक्षा से ज्ञान दो प्रकार का है-इन्द्रिय-ज्ञान और के ही आगे की एक अवस्था है। श्रुत मति-पूर्वक ही होता अतीन्द्रिय-ज्ञान । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन्द्रिय-ज्ञान हैं। अवधि, है-इन सभी अपेक्षाओं से श्रुत को अलग मानने की कोई मनःपर्यव और केवल-अतीन्द्रिय-ज्ञान हैं। आवश्यकता नहीं रहती। श्रुत 'शाब्द-ज्ञान' है। इसकी अपनी अथवा ज्ञान तीन हैं-(१) मति-श्रुत, (२) अवधि-मनापर्यव, विशेषता है। कारण-सामग्री एक होने पर भी मतिज्ञान केवल (३) केवलज्ञान। वर्तमान को ही ग्रहण करता है। परन्तु श्रुतज्ञान का विषय मति-श्रुत की एकात्मकता के बारे में पहले लिखा जा 'त्रैकालिक' है। इसका विशेष सम्बन्ध 'मन' से रहता है। सारा चुका है। अवधि और मनःपर्यव भी विषय की दृष्टि से एक हैं, आगम-ज्ञान श्रुतज्ञान है। इस अपेक्षा से इसका भिन्न निरूपण इसीलिए इस अपेक्षा से उन्हें एक विभाग में मान लेना अयुक्त भी युक्ति-संगत है। नहीं है। केवलज्ञान की अपनी स्वतंत्र सत्ता है ही। प्रमाण के दो भेद हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष। मतिज्ञान तज्ञान और श्रुतज्ञान-इन दोनों का परोक्ष में समावेश किया गया है आप्त पुरुष द्वारा प्रणीत आगम या अन्य शास्त्रों से जो और शेष तीनों-अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान ज्ञान होता है, उसे श्रृतज्ञान कहते हैं अथवा शब्द, संकेत आदि का प्रत्यक्ष में। से होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है अथवा वाच्य और वाचक के परोक्ष प्रमाण के पांच भेद हैं---स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, सम्बन्ध से होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान साक्षर होने १. तत्त्वार्थ सूत्र १३१ भाष्य : श्रुतज्ञानस्य मतिज्ञानेन नियतः सहभावः ५. जैन तर्कभाषा, पृ० २। तत्पूर्वकत्वात् । यस्य श्रुतज्ञानं तस्य नियतं मतिज्ञानं, यस्य तु मतिज्ञानं ६. नन्दी, सूत्र ३८। तस्य श्रुतज्ञानं स्याद् वा न वेति। ७. वही, सूत्र ४०-४२। २. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १०० : ८. प्रत्येक के श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रस, स्पर्श और नोइन्द्रियइंदिय मणो निमित्तं, जं विण्णाणं सुयाणुसारेण । (मन) ये छह भेद हैं। निययत्थुतिसमत्थं, तं भावसुयं मई इयरा।। ६. वैयर्थ्यातिप्रसंगाभ्यां, न मत्यभ्यधिकं श्रुतम्। ३. नन्दी, सूत्र ३७। १०. नन्दी, सूत्र ३, ६, ३३। ४. वही, सूत्र ३६। ११. प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३१२। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि के साथ-साथ वचनात्मक होता है। मतिज्ञान साक्षर हो सकता है, वचनात्मक नहीं । श्रुतज्ञान त्रैकालिक होता है, उसका विषय प्रत्यक्ष नहीं होता। शब्द के द्वारा उसके वाच्यार्थ को जानना और शब्द के द्वारा ज्ञात अर्थ को फिर से प्रतिपादित करनायही इसकी समर्थता है। मति और श्रुत में कार्य कारणभाव सम्बन्ध है । मति कारण है और श्रुत कार्य। श्रुतज्ञान का वास्तविक कारण श्रुत - ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम है। मतिज्ञान उसका बहिरंग कारण है। श्रुतज्ञान के दो प्रकार हैं- अंग-वाह्य और अंग-प्रविष्ट । तीर्थङ्कर द्वारा उपदिष्ट और गणधरों द्वारा प्रणीत शास्त्र अंग-प्रविष्ट कहलाते हैं। स्थविर या आचार्यों द्वारा प्रगीत शास्त्र अंग बाह्य कहलाते हैं। अंग-प्रविष्ट के बारह भेद हैं।' अंग बाह्य के कालिक, उत्कालिक आदि अनेक भेद हैं। आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है कि जितने अक्षर हैं। और उनके जितने विविध संयोग हैं, उतने ही श्रुतज्ञान के भेद हैं। इसके मुख्य भेद १४ हैं (१) अक्षर श्रुत (२) अनक्षर श्रुत (३) संज्ञी श्रुत (४) असंज्ञी श्रुत (५) सम्यक् श्रुत (६) मिथ्या श्रुत (८) अनादि श्रुत (८) सपर्यवसित श्रुत (१०) अपर्यवसित श्रुत (११) गमिक श्रुत (१२) अगमिक श्रुत (१३) अंग-प्रविष्ट श्रुत (७) सादी श्रुत (१४) अनंग-प्रविष्ट श्रुत।" विशेष विवरण के लिए देखें—नंदी, सूत्र ५५-१२७ । पांच ज्ञानों में चार ज्ञान स्थाप्य हैं- केवल स्वार्थ हैं। परार्थज्ञान केवल एक है। वह है- श्रुतज्ञान।' उसी के माध्यम से सारा विचार-विनिमय और प्रतिपादन होता है। अवधिज्ञान यह नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष - ज्ञान का एक प्रकार है। यह मूर्त द्रव्यों को साक्षात् जानता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अवधियों से यह बंधा रहता है, अतः इसे अवधिज्ञान कहते हैं । इसके दो प्रकार हैं-भव - प्रत्ययिक और क्षायोपशमिक । देव और नारक को होने वाला अवधिज्ञान 'भव प्रत्ययिक' कहलाता है। यह जन्म-जात होता है अर्थात् देवगति और नरकगति से उत्पन्न होते ही यह ज्ञान हो जाता है। तिर्यंच और मनुष्य को उत्पन्न होने वाला अवधिज्ञान 'क्षायोपशमिक' कहलाता है। दोनों में आवरण का क्षयोपशम तो होता ही है। 9. नन्दी, सूत्र ७३, ८० २. वही, सूत्र ७३-७८६ । ३. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १७ : पत्तेयमक्खराई, अक्खरसजोगा जत्तिया लोए । एवइया सुयनाणे, पयडीओ होति नायव्या ।। ४४६ ४. नन्दी, सूत्र ५५ । ५. अणुओगदाराई, सूत्र २ । अध्ययन २८ : श्लोक ४ टि० ३ अन्तर केवल प्राप्ति के प्रकार में होता है । भव प्रत्ययिक में जन्म ही प्रधान निमित्त होता है और क्षायोपशमिक में वर्तमान साधना ही प्रधान निमित्त होती है। अवधिज्ञान के छह प्रकार हैं- (१) अनुगामी जो सर्वत्र अवधिज्ञानी का अनुगमन करे । (२) अननुगामी उत्पत्ति क्षेत्र के अतिरिक्त क्षेत्र में जो न रहे । (३) (४) (५) (६) वर्द्धमान- उत्पत्ति काल से जो क्रमशः बढ़ता रहे। हीयमान - जो क्रमशः घटता रहे। प्रतिपाती उत्पन्न होकर जो वापस चला जाए। अप्रतिपाती — जो आजीवन रहे अथवा केवलज्ञान उत्पन्न होने तक रहे। विस्तृत वर्णन के लिए देखिए... नंदी, सूत्र ७ - २२ । मनः पर्यवज्ञान यह मन के पर्यायों को साक्षात् करने वाला ज्ञान है। इसके दो भेद है काजुमति और विपुलमति । यह द्रव्य की अपेक्षा से मन रूप में परिणत पुद्गल को क्षेत्र की अपेक्षा से मनुष्य क्षेत्र तक काल की अपेक्षा से असंख्य काल तक के अतीत और भविष्य को और भाव की अपेक्षा से मनोवर्गणा की अनन्त अवस्थाओं को जानता है। मनः पर्यव के विषय में दो परम्पराएं हैं। एक परम्परा यह मानती है कि मनः पर्यवज्ञानी चिंतित अर्थ का प्रत्यक्ष कर लेता है ।" दूसरी परम्परा यह मानती है कि मनः पर्यवज्ञानी मन की विविध अवस्थाओं को तो प्रत्यक्ष करता है, किन्तु उनके अर्थ को अनुमान से जानता है।" आधुनिक भाषा में इसे मनोविज्ञान का विकसित रूप कहा जा सकता है। अवधि और मनः पर्यव दोनों ज्ञान रूपी द्रव्य तक सीमित हैं, अपूर्ण हैं। इन्हें विकल- प्रत्यक्ष कहा जाता है। चार दृष्टियों से दोनों में भिन्नता है (१) विषय की दृष्टि से मनः पर्यवज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा सूक्ष्मता से और विशदता से जानता है। अवधिज्ञान का विषय सभी रूपी द्रव्य हैं, मनःपर्यवज्ञान का विषय केवल मन है। (२) क्षेत्र की दृष्टि से अवधिज्ञान का विषय अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सारा लोक है, मनः पर्यव का विषय ६. नन्दी, सूत्र ६ । ७. वही, सूत्र ७, ८ ८. वही सूत्र | ६. वही, सूत्र २४, २५ । १०. सर्वार्थसिद्धि, १६ । ११. विशेषावश्यकभाष्य गाथा ८१७, वृत्ति पत्र २६४ । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-मार्ग-गति ४४७ अध्ययन २८ : श्लोक ६ टि० ४-५ मनुष्य लोक पर्यन्त है। __हैं और उनको तीन श्रेणियों में विभक्त किया है(३) स्वामी की दृष्टि से-अवधिज्ञान का स्वामी देव, (१) प्राकृत-पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ।। नारक, मनुष्य और तिर्यंच---कोई भी हो सकता है, मनःपर्यवज्ञान (२) अप्राकृत-अचेतन-काल और देश । का अधिकारी केवल मुनि ही हो सकता है। (३) चेतन-आत्मा और मन।' उक्त विवेचन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि दोनों एक पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो ने पांच परम जातियां मानी ही ज्ञान की दो अवस्थाएं हैं। मति-श्रुत की तरह इन्हें भी हैं--(१) द्रव्य, (२) अन्यत्व, (३) विभिन्नता, (४) गति और कथंचित् एक मान लेना अयुक्त नहीं है। (५) अगति। इनकी संगति जैन परिभाषिक शब्दों में इस केवलज्ञान प्रकार है-अन्यत्व अस्तित्व का सूचक है। विभिन्नता नास्तित्व यह पूर्ण ज्ञान है। इसे सकल-प्रत्यक्ष कहा जाता है। का सूचक है। गति उत्पाद और व्यय की तथा अगति ध्रौव्य की इसका विषय है-सर्व द्रव्य और सर्व पर्याय। केवलज्ञान प्राप्त सूचक है। होने पर ज्ञान एक ही रह जाता है। अरस्तू ने दस परम जातियां मानी हैं-(१) द्रव्य,(२) गुण, ४. जो गणों का आश्रय होता है. वह द्रव्य है (गणाणमासओ (३) मात्रा, (४) सम्बन्ध, (५) क्रिया, (६) आक्रान्ता, (७) देश, दव्यं) (८) काल, (६) स्वामित्व और (१०) स्थिति। स्पिनोजा ने कहा-सारी सत्ता एक द्रव्य ही है। उसमें जो गुणों का आश्रय–अनन्त गुणों का पिण्ड है, वह द्रव्य है। यह उत्तराध्ययन-कालीन परिभाषा है। अनन्त गुण हैं, परन्तु हम अपनी सीमाओं के कारण केवल दो उत्तरवर्ती साहित्य में द्रव्य की जो परिभाषा हुई, उसमें गुणों-चिन्तन और विस्तार से परिचित हैं। चिन्तन क्रिया है कुछ अधिक जुड़ा है। वह दो प्रकार से प्राप्त होती है और विस्तार गुण। इस तरह यह वैशेषिक दर्शन के निकट आ जाता है। द्रव्य के लिए स्पिनोजा ने 'सब्सटेन्स' (Substance) (१) जो गुण-पर्यायवान् है, वह द्रव्य है।' (२) जो सत् है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है वह द्रव्य शब्द का प्रयोग किया है।” इसका अर्थ है-नीचे खड़ा होने वाला, सहारा देने वाला। आशय यह है कि सब्सटेन्स गुणों का वाचक उमास्वाति ने 'पर्याय' शब्द और अधिक जोड़ा सहारा या आलम्बन है। उसके अनुसार द्रव्य या सत् के लिए है। उसकी तुलना महर्षि कणाद के 'क्रिया' शब्द से होती है।' बहुवचन का प्रयोग अनुचित है। सत् या द्रव्य एक ही है और दूसरी परिभाषा जैन-परम्परा की अपनी मौलिक है। जो कुछ भी है इसके अन्तर्गत आ जाता है। जैन-साहित्य में 'द्रव्य' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ कुमारिल के अनुसार 'जिसमें क्रिया और गुण हो', वह द्रव्य है। उनके अनुसार द्रव्य के ११ भेद हैं-(१) पृथ्वी, द्रव्य–जिसमें पूर्व रूप का प्रलय और उत्तर रूप का । (२) जल, (३) तेज, (४) वायु, (५) आकाश, (६) दिग्, निर्माण होता रहता है। (७) काल, (८) आत्मा, (६) मन और (१०) अन्धकार तथा (११) शब्द। द्रव्य-सत्ता का अवयव। डेकार्ट ने दो द्रव्य माने हैं-आत्मा और प्रकृति । २ इन्हीं द्रव्य-सत्ता का विकार। को उन्होंने सत् की दो परम जातियां कहा है। आत्मा-चेतन द्रव्य-गुण-समूह। है और विस्तार रहित है। प्रकृति-अचेतन है और विस्तार द्रव्य-भावी पर्याय के योग्य। इसका तत्त्व है। द्रव्य-भूत पर्याय के योग्य । वैशेषिक दर्शन के अनुसार जिसमें ‘क्रिया और गुण हों ५ ५. जो एक (केवल) द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण और जो समवायी कारण हो', उसे द्रव्य कहते हैं। उनके द्वारा होते हैं (एगदव्वस्सिया गुणा). सम्मत छह पदार्थों में 'द्रव्य' एक पदार्थ है। 'द्रव्य' आश्रय है; 'जो एक मात्र दव्य आश्रित होते हैं, वे गुण कहलाते गुण और कर्म उस पर आश्रित हैं। वैशेषिकों ने द्रव्य नौ माने हैं'-यह गुण की उत्तराध्ययन-कालीन परिभाषा है। तत्त्वार्थ १. तत्त्वार्थ सूत्र, ५।३७ : गुणपर्यायवद् द्रव्यम्। २. (क) तत्त्वार्थ सूत्र, ५२६ : उत्पाद्व्ययधीव्ययुक्तं सत्। (ख) पंचास्तिकाय, १०: दव्वं सल्लक्खगिय, उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्त। ___ गुणपज्जयासयं वा, तं जं भण्णंति सव्वण्णू।। ३. वैशेषिक दर्शन, १।११५ । ४. विशेषावश्यकभाष्य, गा०२८। ५. वैशेषिक दर्शन, १९१५ : क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्। ६. वैशेषिक दर्शन, १।१।१५। ७. दर्शन संग्रह, पृ० १६३। ८. वही, पृ० १६०। ६. वही, पृ० १६१। १०. वही, पृ० १६१। ११. तत्त्वज्ञान, पृ० ४७। १२. वही, पृ० ४७। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४४८ सूत्रकार ने 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः " जो द्रव्य में रहते हों तथा स्वयं निर्गुण हों, वे गुण हैं ऐसी परिभाषा की है। इसमें 'निर्गुण' शब्द अधिक आया है। इसकी तुलना महर्षि कणाद के 'अगुणवान्' शब्द से की जा सकती है। द्रव्य के आश्रय में रहने वाला वही 'गुण' गुण है जिसमें दूसरे गुणों का सद्भाव न हो अथवा जो निर्गुण हो । अन्यथा घट में रहा हुआ पानी भी घट द्रव्य का गुण बन जाता है। यह माना जाता है कि प्राचीन युग में 'द्रव्य' और 'पर्याय' – ये दो शब्द ही प्रचलित थे। तार्किक युग में 'गुण' शब्द पर्याय के भिन्न अर्थ में प्रयुक्त हुआ ऐसा जान पड़ता है। कई आगम-ग्रन्थों में गुण और पर्याय शब्द भी मिलते हैं। परन्तु गुण 'पर्याय' का ही एक भेद है। अतः दोनों का अभेद मानना भी अयुक्त नहीं है। सिद्धसेन दिवाकर, आचार्य हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजयजी आदि मनीषी विद्वानों ने गुण और पर्याय के अभेद का समर्थन किया है। उनका तर्क है कि आगमों में गुण - पद का यदि पर्याय- पद से भिन्न अर्थ अभिप्रेत होता तो जैसे भगवान् ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो प्रकार से देशना की है, वैसे ही तीसरी गुणार्थिक देशना भी करते किन्तु ऐसा नहीं किया गया, इसलिए प्राचीनतम परम्परा में 'गुण' पर्याय का अर्थ-वाची रहा है। उत्तराध्ययन में पर्याय का लक्षण गुण से पृथक् किया गया है। इसे उत्तरकालीन विकास माना जा सकता है। द्रव्य के दो प्रकार के धर्म होते हैं (१) सहभावी और (२) क्रमभावी । सहभावी धर्म 'गुण' कहलाता है और क्रमभावी धर्म 'पर्याय' । 'गुण' द्रव्य का व्यवच्छेदक धर्म होता है, अन्य द्रव्यों से पृथक् सत्ता स्थापित करता है। वह दो प्रकार का होता है(१) सामान्य और - ( २) विशेष । सामान्य गुण छह हैं – (१) अस्तित्व, (२) वस्तुत्व, (३) द्रव्यत्व, (४) प्रमेयत्व, (५) प्रदेशत्व और (६) अगुरुलघुत्व । विशेष गुण सोलह है (१) गति हेतुत्य, (२) स्थिति-हेतुत्व, (३) अवगाह हेतुत्व, (४) वर्तना-हेतुत्व, (५) स्पर्श, (६) रस, (७) गन्ध, (८) वर्ण, (६) ज्ञान, (१०) दर्शन, (११) सुख, (१२) बीर्य, (१३) चेतनत्व, (१४) अचेतनत्य, (१५) मूर्त्तत्व और (१६) अमूर्तत्व द्रव्य छह हैं— (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय (४) काल, (५) पुद्गलास्तिकाय और (६) जीवास्तिकाय । इन छहों में द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, नित्यत्व आदि सामान्य धर्म पाए जाते हैं। ये इनके सामान्य गुण हैं। ये द्रव्य के लक्षण नहीं बनते। छहों द्रव्यों में एक-एक व्यवच्छेदक-धर्म १. तत्त्वार्थ सूत्र, ५४० २. वैशेषिक दर्शन, १1१1१६ द्रव्याश्रय्य ऽगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम् । ३. गंगानाथ झा, पूर्व मिमांसा, पृ० ६५ । ४. प्रमाणनयतत्त्वालोक, ५७-८। अध्ययन २८ : श्लोक ६ टि०६ विशेष-धर्म भी है जैसे धर्मास्तिकाय कागति हेतुत्व गुण, अधर्मास्तिकाय का स्थिति-हेतुत्व गुण, आकाशास्तिकाय काअवगाहना - हेतुत्व गुण आदि-आदि । वैशेषिक मत में संसार की सब वस्तुएं सात विभागों में वांटी गई हैं। उनमें 'गुण' का एक विभाग है। उनका मत है। कि कार्य का असमवायि कारण 'गुण' है अर्थात् अनपेक्ष होने पर भी जो कारण नहीं बनता, वह 'गुण' है। ये गुण चौबीस हैं- (१) रूप, (२) रस, (३) गन्ध, (४) स्पर्श, (५) संख्या, (६) परिणाम, (७) प्रत्य, (८) संयोग, (६) विभाग, (१०) परराय, (११) अपरत्व, (१२) गुरुत्व, (१३) द्रव्यत्व, (१४) स्नेह, (१५) शब्द, (१६) ज्ञान, (१७) सुख, (१८) दुःख, (१६) इच्छा, (२०) द्वेष, (२१) प्रयत्न, (२२) धर्म, (२३) अधर्म और (२४) संस्कार | गुण द्रव्य ही में रहते हैं । वे दो प्रकार के हैं- (१) विशेष और (२) साधारण रूप, रस, गन्ध, शब्द, ज्ञान, विशेष गुण हैं। T सुख आदि प्रभाकर २१ गुण मानते हैं। वैशेषिक मत के २४ गुणों में से संख्या, विभाग, पृथक्त्व तथा द्वेष के स्थान पर 'वेग' का समावेश किया गया है। भट्ट मत में १३ गुण माने गए हैं- (१) रूप, (२) रस, (३) गन्ध, (४) स्पर्श, (५) परिणाम, (६) पृथक्त्व, (७) संयोग, (८) विभाग, (६) परत्व, (१०) गुरुत्व, (११) अपरत्व, (१२) द्रवत्व और (१३) स्नेह | सांख्य मत में सत्त्व, रज और तमस् ये तीन गुण माने गए हैं । उनका मत है कि इन्हीं तीन गुणों के संस्थान -भेद से वस्तुओं में भेद होता है। सत्त्व का स्वरूप है— प्रकाश तथा हलकापन, तमस् का धर्म है—अवरोध, गौरव, आवरण आदि और 'रजस्' का धर्म है— सतत क्रियाशील रहना । ६. पर्याय का (पज्जवाणं) : जो द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित होता है, उसे 'पर्याय' कहा जाता है। विशेष के दो भेद हैं-गुण और पर्याय । द्रव्य का जो 'सहभावी धर्म' है, वह 'गुण' है और जो 'क्रमभावी धर्म' है, वह 'पर्याय' है। इसे 'पर्यव' भी कहा जाता है । न्यायालोक की तत्त्वप्रभा विवृत्ति में पर्याय की परिभाषा करते हुए लिखा है- “जो उत्पन्न होता है, विपत्ति (विनाश ) को प्राप्त होता है अथवा जो समग्र द्रव्य को व्याप्त करता है उसे 'पर्याय' (पर्यव) कहते हैं।” नयप्रदीप में भी यही व्याख्या दी गई है। वादिवेताल शान्तिसूरि के अनुसार समस्त द्रव्यों और समस्त गुणों में जो व्याप्त होते हैं, उन्हें 'पर्यव' कहा जाता है । ७ ५. न्यायालोक, तत्त्वत्प्रभा विवृत्ति, पत्र २०३ पर्येत्युत्पत्तिं विपत्तिं चाप्नोति, पर्यवति वा व्याप्नोति समस्तमपि द्रव्यमिति पर्यायः पर्यवो वा । ६. ७. नयप्रदीप, पत्र ६६ पर्येति उत्पादमुत्पत्तिं विपत्तिं च प्राप्नोतीति पर्यायः । बृहद्वृत्ति, पत्र ५५७ : परि- सर्वतः - द्रव्येषु गुणेषु सर्वेष्ववन्तिगच्छन्तीति पर्यवाः । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-मार्ग-गति ४४९ अध्ययन २८ : श्लोक ७ टि०७ न्यायालोक की परिभाषा का प्रथम अंश 'क्रमभावी-धर्म' क्या होता है?" की अपेक्षा से है और द्वितीय अंश 'सहभावी-धर्म' की अपेक्षा भगवान् ने कहा-“गीतम! जीवों के गमन, आगमन, से है। परिवर्तन जीव में भी होता है और अजीब में भी। इसके भाषा, उन्मेष, मन-बचन और काया के योगों की प्रवृत्ति तथा आधार पर परिवर्तन के दो रूप बनते हैं--(१) जीव-पर्याय इसी प्रकार के दूसरे चल-भाव धर्मास्तिकाय से ही होते हैं।" और (२) अजीव-पर्याय। जीवों की स्थिति, निषीदन, शयन, मन का एकत्व-भाव परिवर्तन स्थूल भी होता है और सूक्ष्म भी। इसके तथा इसी प्रकार के अन्य स्थिर-भाव अधर्मास्तिकाय से होते आधार पर परिवर्तन के दो रूप बनते हैं—(१) व्य जन-पर्याय हैं।" और (२) अर्थ-पर्याय। स्थल और कालान्तरस्थायी पर्याय को सिद्धसेन दिवाकर इन्हें स्वतंत्र द्रव्य मानने की आवश्यकता 'व्यञ्जन-पर्याय' कहते हैं तथा सूक्ष्म और वर्तमानकालवी नहीं समझते। वे लिखते हैंपर्याय को 'अर्थ-पर्याय' कहते हैं। प्रयोगविससाकर्म, तदभावस्थितिस्थता। परिवर्तन स्वभाव से भी होता है और पर-निमित्त से लोकानुभाववृत्तान्त:, किं धर्माधर्मयोः फलम्।। भी। इसके आधार पर परिवर्तन के दो रूप बनते हैं इसका तात्पर्यार्थ है---गति दो प्रकार की होती है(१) स्वभाव-पर्याय और (२) विभाव-पर्याय । अगुरुलघुत्व आदि (१) प्रायोगिक और (२) स्वाभाविक । जीव और पुद्गल में दोनों पर्याय स्वाभाविक हैं और मनुष्य, देव, नारक आदि वैभाविक प्रकार की गति होती है। अतः गति के लिए धर्मास्तिकाय की पर्याय हैं। इन प्रत्येक का अनन्त, असंख्यात और संख्यात कोई उपयोगिता नहीं रहती। उसी प्रकार गति का अभाव ही भाग गुण-वृद्धि से तीन, तथा अनन्त, असंख्यात और अनन्त स्थिति है। उसमें भी अधर्मास्तिकाय का कोई उपयोग नहीं है। भाग गुण-हानि से तीन-यों छह-छह प्रकार करने से पयोय यहां यह भी प्रश्न होता है कि यदि गति-स्थिति स्वतन्त्र है तो के वारह भेद हो जाते हैं। फिर जीव या पुद्गल अलोक में क्यों नहीं जा सकते? इसका प्रथम कोटि के दो रूप परिवर्तन की सीमा का सूचन समाधान भी उक्त श्लोक में आ गया है। करते हैं। परिवर्तन जीव और अजीव दोनों में होता। यह विश्व कहा है कि लोक का सामर्थ्य ही ऐसा है कि उसके अन्त जीव-अजीवमय है। इसलिए कहना होगा कि समूचा विश्व तक पहुंचते ही जीव-पदगल की गति स्खलित हो जाती है। परिवर्तन का क्षेत्र है। अतः धर्म और अधर्म का फल ही क्या है? द्वितीय कोटि के दो रूप परिवर्तन के स्वरूप का बोध आचार्य सिद्धसेन की उक्ति में तार्किकता है पर कराने वाले हैं। परिवर्तन व्यक्त और अव्यक्त-दोनों प्रकार का लोक-अलोक की विभाजन-रेखा का निर्देश नहीं है। उन्होंने होता है। इस प्रश्न का समाधान प्रस्तुत नहीं किया कि धर्म और अधर्म ततीय कोटि के दो रूपों में परिवर्तन के दो कारणों का को माने बिना लोक और अलोक का विभाजन कैसे होगा? निर्देश है। वस्तुतः ये दो ही द्रव्य लोक-अलोक की सीमा-रेखाएं हैं। एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग, विभाग आदि ये द्रव्य की दृष्टि से एक द्रव्य हैं; क्षेत्र की दृष्टि से समूचे पर्याय पर्याय के लक्षण हैं।' लोक में व्याप्त हैं; काल की दृष्टि से अनादि-अनन्त हैं;भाव की ७. धर्म, अधर्म (धम्मो अहम्मो) दृष्टि से अमूर्त हैं; गुण की दृष्टि से धर्म-गति-सहायक है जैन साहित्य में जहां धर्म-अधर्म शब्द का प्रयोग शुभ-अशुभ और अधर्म-स्थिति-सहायक। के अर्थ में होता है, वहां दो स्वतंत्र द्रव्यों के अर्थ में भी होता वैज्ञानिकों में सबसे पहले न्यूटन ने गति-तत्त्व (medium है। यहां उनका प्रयोग द्रव्य के अर्थ में है। धर्म अर्थात् of motion) को स्वीकार किया। प्रसिद्ध गणितज्ञ अलबर्ट आइंस्टीन गति-तत्त्व, अधर्म अर्थात् स्थिति-तत्त्व। नौवें श्लोक में इनकी ने भी गति-तत्त्व स्थापित किया है। उन्होंने कहा—“लोक परिभाषा करते हुए कहा है-धर्म का लक्षण है गति और अ परिमित है, लोक के परे अलोक अपरिमित है। लोक के गर्म का लक्षण है स्थिति। भगवती में भी यह संक्षिप्त परिभाषा परिमित होने का कारण यह है कि द्रव्य अथवा शक्ति लोक के मिलती है। वहां इनके कार्य पर प्रकाश डालने वाला एक बाहर नहीं जा सकती। लोक के बाहर उस शक्ति-द्रव्य का संवाद भी है अभाव है जो गति में सहायक होता है। वैज्ञानिक गति-तत्त्व गौतम ने भगवान् से पूछा-"भगवन् ! धर्मास्तिकाय से को 'ether' (ईथर) कहते हैं। इस ईथर के स्वरूप और उसकी १. उत्तरज्झयणाणि, २८।१३। २. वही, २८६ : गइलक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्खणो। ३. भगवई, १३।५६, ५७ : गइलक्खणेणं धम्मत्थिकाए। ठाणलक्खणेणं अधम्मत्थिकाए।। ४. वही, १३५६। ५. वही, १३१५७। ६. निश्चयद्वात्रिंशिका, श्लो० २४। ७. Cosmology od and New. pp. 43-44 Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४५० अध्ययन २८ : श्लोक ७-१० टि० ८-१० उपयोगिता के विषय में सभी वैज्ञानिक एक मत नहीं हैं। वर्तनापरिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य (तत्त्वार्थ ५१२) ८. (श्लोक ७) दिया है। इसकी आंशिक तुलना वैशेषिक दर्शन के 'अपरस्मिन्नपरं, इस श्लोक में 'लोक' क्या है, इसका समाधान दिया गया युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिंगानि' (२।२।२६)-इस सूत्र से है। जैन-दृष्टि से जो धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पद्गल और की जा सकती है। जीवमय है, वह लोक है। इसी आगम में अन्य स्थलों में तथा श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार व्यावहारिक-काल मनुष्यदुसरों आगमों में भी 'लोक' की भिन्न-भिन्न परिभापाएं आई क्षेत्र प्रमाण है और औपचारिक द्रव्य है। नैश्चयिक-काल हैं। कहीं धर्मास्तिकाय को लोक कहा गया है, तथा कहीं जीव लोक-अलोक प्रमाण है। और अजीव को लोक कहा गया है। कहीं कहा है-लोक दिगम्बर परम्परा के अनुसार 'काल' लोकव्यापी और पंचास्तिकायमय है। इन परिभाषाओं का निरूपण अपेक्षा-भेद अणुरूप है।" काल को स्वतन्त्र न मानने की परम्परा प्राचीन से किया गया है, अतः इन सबमें कोई विरोध नहीं है। मालूम पड़ती है। क्योंकि लोक क्या है? इस प्रश्न का उत्तर ९. (श्लोक ८) श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थों में एक-सा ही है कि 'लोक पंचास्तिकायमय है। जैनेतर दर्शनों में काल के सम्बन्ध में संख्या की दृष्टि से द्रव्यों के दो वर्गीकरण हैं-(१) एक नैश्चयिक और व्यावहारिक दोनों पक्ष मिलते हैं। नैयानिक और संख्या वाला और (२) अनेक संख्या वाला। धर्म, अधर्म और वैशेषिक काल को सर्वव्यापी और स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। आकाश संख्या से एक हैं और पुद्गल और जीव संख्या से सांख्य, योग तथा वेदांत आदि दर्शन काल को स्वतंत्र द्रव्य न अनेक । यह विभाग निष्कारण नहीं है। जो व्यापक होता है वह मान कर उसे प्रकृति-पुरुष का ही रूप मानते हैं। पहला पक्ष एक ही होता है, उसमें विभाग नहीं होते। 'एकं ब्रह्म' मानने व्यवहार मूलक है और दूसरा निश्चय-दृष्टि मूलक। वाले ब्रह्म को व्यापक मानते हैं। उसी प्रकार धर्म-अधर्म सम्पूर्ण श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से औपचारिक और दिगम्बर लोक में व्याप्त हैं तथा आकाश लोक और अलोक दोनों में। परम्परा की दृष्टि से वास्तविक काल के उपकार या लिंग पांच अतः व्यक्तिशः ये एक द्रव्य हैं। हैं .---(१) वर्तना, (२) परिणाम, (३) क्रिया, (४) परत्व और १०. काल का (कालो) (५) अपरत्व। काल छह द्रव्यों में एक द्रव्य भी है और जीव-अजीव की नैयायिकों के अनुसार परत्व, अपरत्व आदि काल के पर्याय भी है। ये दोनों कथन सापेक्ष हैं, विरोधी नहीं। लिंग हैं" और वे वैशेषिकों द्वारा प्रस्तुत काल सम्बन्धी वर्णन निश्चय-दृष्टि में काल जीव-अजीव की पर्याय है और को मान्य करते हैं। वैशेषिक दर्शन के पूर्व, अपर, युगपत्, व्यवहार-दृष्टि में वह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने के कारण चिर और क्षिप्र--ये काल के लिंग माने हैं। काल सम्बन्धी उसकी उपयोगिता है। वह परिणाम का हेतु है, यही उसका यह पहला सत्र है। इसके द्वारा वे काल-तत्त्व को स्वतंत्र उपकार है। इसी कारण वह द्रव्य माना जाता है। काल के स्थापित करते हैं और आगे के तीन सत्रों से इसको द्रव्य, समय (अविभाज्य-विभाग) अनन्त हैं। नित्य, एक और समस्त कार्यों के निमित्त रूप से वर्णित करते काल को जीव-अजीव की पर्याय या स्वतन्त्र द्रव्य मानना-- हैं। ये दोनों मत आगम-ग्रन्थों में तथा उत्तरवर्ती-साहित्य में पाए नैयायिकों ने काल को नित्य माना है परन्तु मध्वाचार्य ने जाते हैं। प्रस्तुत श्लोक के अनुसार काल का लक्षण वर्तना काल का प्रकृति से उत्पन्न होना और उसी में लय होना माना है-'वत्तणालक्खणो कालो।' उमास्वाति ने काल का लक्षण- है।" प्रलय-काल में भी काल की उत्पत्ति मानी जाती है और १. विशेष जानकारी के लिए देखिए ( The Shorn Tlistory of Science (by८. (क) भगवई, १३५५। Dempiyon) (2) The Nature of the Physicoa World (by Sir Willington) and (3) (ख) पंचास्तिकाय, गाथा ३। Mysterious Universe (by Sir Jones Jcons). (ग) तत्त्वार्थ, भाष्य ३।६। २. भगवई, २१४१। ६. (क) न्यायकारिका, ४५ : ३. (क) उत्तरज्झयणाणि, ३६।२। जन्यानां जनकः कालो, जगतामाश्रयो मतः । (ख) ठाणं, २१४१७। (ख) वैशेषिक दर्शन, २।२।६-१०। ४. (क) भगवई, १३१५५। १०. तत्त्वार्थ सूत्र, ५२२। . (ख) लोकप्रकाश, २।३। ११. न्यायकारिका, ४६ : ठाणं, २३८७ : समयाति वा, आबलियाति वा, जीवाति वा, अजीवाति परापरत्वधीहेतुः क्षणादिः स्यादुपाधितः । वा पवुच्चति। १२. पंचाध्यायी, पृ० २५४ : दिग्देशकालाकाशेष्वथैवं प्रसंग। ६. तत्त्वार्थ सूत्र, ५।४० : सोऽनन्तसमयः । १३. वैशेषिक, सूत्र २।२।६। ७. द्रव्यसंग्रह, २२ : १४. वही, सूत्र २:२७,८,६। लोगागासपदेसे, एक्केक्के जे ठिया हु एक्केक्का। १५. पदार्थसंग्रह, पृ० ६३। रयणाणं रासी इव, ते कालाणू असंखदव्याणि ।। Jain Education Intemational Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-मार्ग-गति ४५१ अध्ययन २८ : श्लोक १०,१२ टि० ११, १२ इसीलिए काल का आठवां हिस्सा 'प्रलय-काल' कहलाता है।' (8) अध्वाकाल-सूर्य, चन्द्र आदि की गति से सम्बन्धित काल में भी काल होता है-जैसे, 'इदानीं प्रातः कालः'। यहां काल। इदानीं काल-बाचक है। काल सवका आधार है। अनित्य होने काल के अन्य विभागों की जानकारी के लिए देखिएपर भी काल का प्रवाह नित्य है। यह सव कार्यों की उत्पत्ति का अनुयोगद्वार, सूत्र ४१३-४३३ । कारण भी है। ११. जीव का लक्षण है उपयोग (जीवो उवओगलक्षणो) पूर्व मीमांसा के समर्थ व्याख्याकार पार्थसार्थमिश्र संक्षेप में जीव का लक्षण 'उपयोग है'। उपयोग का अर्थ शास्त्रदीपिका की युक्तिस्नेहप्रपूरणी सिद्धांतचन्द्रिका में काल है--चेतना की प्रवृत्ति। चेतना के दो भेद हैं--(१) ज्ञान और तत्त्व विषयक मान्यता को स्पष्ट करते हुए वैशेषिक दर्शन की (२) दर्शन। इनके आधार पर उपयोग के दो रूप होते हैंमान्यता को स्वीकार करते हैं। केवल एक बात में भेद है- साकार और आनाकार। बैशेषिक काल को परोक्ष मानते हैं, मीमांसक प्रत्यक्ष मानते हैं। विश्व में दो प्रकार के पदार्थ हैं-(१) जड़ और (२) सांख्य दर्शन में 'काल' नामक कोई स्वतन्त्र तत्त्व नहा चेतन। इन दोनों में भेद करने वाला गण 'उपयोग है। जिसमें है। उनके अनुसार काल प्राकृतिक परिणमन मात्र है। जड़ उपयोग है... ज्ञान, दर्शन की प्रवृत्ति है, वह जीव है और योग जगत् प्रकृति का विकार है। इस विकार और परिणाम के जिसमें यह नहीं है, वह अजीव है। आधार पर ही सांख्यों ने विश्वगत समस्त काल-साध्य व्यवहारों इसके अगले श्लोक में जीव के लक्षण का विस्तार से की उत्पत्ति मानी है। निरूपण हुआ है। उसमें कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, डॉ० आईंसटीन के अनुसार आकाश और काल कोई तप, वीर्य और उपयोग-ये जीव के लक्षण हैं। इन सबको हम स्वतन्त्र तथ्य नहीं हैं। ये द्रव्य या पदार्थ के धर्म मात्र हैं। दो भागों में बांट सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि जीव उन्होंने वस्तु का अस्तित्व चार दिशाओं में-लम्बाई, चौड़ाई, के लक्षण दो हैं--(१) वीर्य और (२) उपयोग। ज्ञान और दर्शन गहराई और ऊंचाई–माना है। वस्तु का रेखागणित (ऊंचाई, का उपयोग में समावेश हो जाता है तथा चारित्र और तप का लम्बाई, चौड़ाई) में प्रसार आकाश है और उनका क्रमानुगत प्रसार काल है। काल और आकाश दो भिन्न तथ्य नहीं हैं। वीर्य में। इस प्रकार अपेक्षा-भेद से दोनों श्लोकों में जीव के ज्यों-ज्यों काल बीतता है, त्यों-त्यों वह लम्बा होता जा रहा है। लक्षण का निरूपण किया गया है। काल आकाश-सापेक्ष है। काल की लम्बाई के साथ-साथ गति करना, घटना, बढ़ना, फैलना आदि चेतन के लक्षण आकाश का भी प्रसार हो रहा है। इस प्रकार काल और नहीं बन सकते। वे सभी क्रियाएं चेतन और अचेतन दोनों में आकाश दोनों वस्त-धर्म हैं। काल अस्तिकाय नहीं है क्योंकि होती हैं। ज्ञान-दर्शन की प्रवृत्ति ही उनकी भेद-रेखा हो सकती है। उसका स्कन्ध या तिर्यक् प्रचय नहीं होता। काल के अतीत १२. शब्द (सद्द) समय नष्ट हो जाते हैं, अनागत समय अनुत्पन्न होते हैं बारहवें श्लोक में पुद्गल के १० लक्षण गिनाए गए हैं। इसलिए उनका स्कन्ध नहीं होता। वर्तमान समय एक होता है, उनमें चार-वर्ण, रस, गंध और स्पर्श-पुद्गल के गुण हैं इसलिए उसका तिर्यक्-प्रचय नहीं होता। और शेष छह-शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया और दिगम्बर-परम्परा के अनुसार कालाणुओं की संख्या आतप-पुद्गल के परिणाम या कार्य हैं। लक्षण दोनों ही बनते लोकाकाश के तुल्य है। हैं। गुण सदा साथ ही रहते हैं, कार्य निमित्त मिलने पर काल के विभाग अभिव्यक्त होते हैं। ये चारों गुण परमाणु और स्कंध-दोनों में काल चार प्रकार का होता है विद्यमान रहते हैं परन्तु शब्द आदि कार्य स्कंधों के ही होते हैं।" (१) प्रमाणकाल-पदार्थ मापने का काल। जैन-दर्शन के अनुसार शब्द पौद्गलिक, मूर्त और अनित्य (२) यथायुर्निवृत्तिकाल- जीवन के अवस्थान को है। यह पुद्गल का लक्षण या परिणाम माना जाता है। शब्द (३) मरणकाल-- (यथायुर्निवृत्तिकाल और का अर्थ है-पुद्गलों के संघात और विघात से होने वाले उसके 'अन्त' को मरणकाल ध्वनि-परिणाम। कहते हैं। काय-योग के द्वारा शब्द-प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण १. मध्यसिद्धान्तसार, पृ० ६३। ८. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, पृ० २३४ : स्पर्शादयः परमाणूनां स्कन्धानां च २. वही, पृ०६५। भवन्ति, शब्दादयस्तु स्कंधानामेव व्यक्तिरूपेण भवन्ति। ३. पदार्थसंग्रह, पृ०६५। ६. भगवई, १३ १२४ : रुवी भंते ! भासा? अरुवी भासा? गोयमा ! ४. सांख्यप्रवचन, २१२ : दिक्कालाकाशादिभ्यः। रूवी भासा नो अरुवी भासा। १०. नवतत्त्व-साहित्य संग्रह, भाग २, पृ०२२ : शब्दान्धकारोधोतप्रभाच्छा५. मानव की कहानी, पृ० १२४५। याऽऽतपवर्णगन्धरसस्पर्शा एते पुद्गलपरिणामाः पुद्गललक्षणं वेति भावः । ६. द्रव्यसंग्रह, २२॥ ११. ठाणं, २२२०। ७. ठाणं, ४।१३४। Jain Education Intemational Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४५२ होता है और वे शब्द रूप में परिणत होते हैं। परन्तु जब वे वाक् प्रयत्न द्वारा मुख से बोले जाते हैं तभी उन्हें 'शब्द' संज्ञा से व्यवहृत किया जाता है। जब तक उनका वचन योग के द्वारा विसर्जन नहीं हो जाता तब तक उन्हें शब्द नहीं कहा जाता। शब्द के तीन प्रकार हैं- (१) जीव शब्द, (२) अजीव शब्द और (३) मिश्र शब्द । जीव शब्द आत्म-प्रयत्न का परिणाम है और वह भाषा या संकेतमय होता है। अजीव शब्द केवल अव्यक्त ध्वन्यात्मक होता है। मिश्र शब्द दोनों के संयोग से होता है। तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार शब्द के छह प्रकार हैं - ( १ ) तत, (२) वितत, (३) धन, (४) शुपिर, (५) संघर्ष और (६) भाषा ।' शब्द के दस प्रकार हैं – (१) निर्हारी, (२) पिंडिम, (३) रूक्ष, (४) भिन्न, (५) जर्जरित, (६) दीर्घ, (७) ह्रस्व, (८) पृथक्त्व (६) काकिणी और (१०) किंकिणीस्वर । शब्द जीव के द्वारा भी होता है और अजीव के द्वारा भी होता है। अजीव का शब्द अनक्षरात्मक ही होता है। जीव का शब्द साक्षर और निरक्षर दोनों प्रकार का होता है। इनके वर्गीकरण के लिए निम्न यंत्र देखिए अक्षर सम्बद्ध भाषात्मक नो- अक्षर-सम्बद्ध घन शुषिर शब्द की उत्पत्ति पुद्गलों के संघात विघात और जीव के प्रयत्न- इन दोनों हेतुओं से होती है। इसलिए प्रकारांतर से इसके दो वर्ग बनते हैं – (१) वैनसिक और (२) प्रायोगिक । (१) वैनसिक — पुद्गलों के संघात विघात से होने वाला । (२) प्रायोगिक जीव के प्रयत्न से होने वाला । शब्द प्रसरणशील है। उससे दो व्यक्ति सम्बन्धित होते - वक्ता और श्रोता । इसलिए इन दोनों की मीमांसा आवश्यक होती है कि वक्ता कैसे बोलता है और श्रोता उसे कैसे सुनता है ? पुद्गलों की अनेक वर्गणाएं हैं। उसमें एक भाषा वर्गणा है । कोई भी प्राणी जय बोलने का प्रयत्न करता है, तब वह सबसे पहले भाषा वर्गणा के परमाणु- स्कंधों को ग्रहण करता है, उन्हें 9. तत्त्वार्थ सूत्र ५।२४, भाष्य पृ० ३५६ । २. ठाणं १०।२। ३. भगवई, १३।१२४ भासिज्जमाणी भासा । तत अध्ययन २८ : श्लोक १२ टि० १३ भाषा के रूप में परिणत करता है और उसके पश्चात् उनका विसर्जन करता है। इस विसर्जन को 'भाषा' कहा जाता है। शब्द गतिशील है, इसलिए वह वक्ता के मुंह से निकलते ही लोक में फैलने लगता है। वक्ता का प्रयत्न तीव्र होता है तो शब्द के परमाणु-स्कन्ध भिन्न होकर फैलते हैं और यदि उसका प्रयत्न मन्द होता है तो शब्द के परमाणु-स्कन्ध अभिन्न होकर फैलते हैं। जो भिन्न होकर फैलते हैं, वे सूक्ष्म हो जाते हैं और दूसरे - दूसरे अनन्त परमाणु-स्कन्धों को प्रभावित कर लोकांत तक फैल जाते हैं। जो अभिन्न होकर फैलते हैं, वे असंख्य योजन तक पहुंच कर नष्ट हो जाते हैं---भाषा रूप से च्युत हो जाते हैं। १३. अन्धकार ( अंधयार) जैन- दृष्टि के अनुसार अन्धकार पुद्गल द्रव्य है, क्योंकि इसमें गुण है। जो-जो गुणवान् होता है वह वह द्रव्य होता है, जैसे आलोक आदि। वह प्रकाश की तरह भावात्मक द्रव्य है, अभावात्मक नहीं। जिस प्रकार प्रकाश का भास्वर रूप और ऊष्ण स्पर्श प्रसिद्ध है, उसी प्रकार अंधकार का कृष्ण रूप शब्द आतोद्य शब्द वितत घन ४. ५. ६. नो भाषात्मक भूषण - शब्द शुषिर और शीत स्पर्श प्रसिद्ध है। | गणधर गौतम ने भगवान से पूछा – “भगवन् ! क्या दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होता है ?" - भगवान् ने कहा – “हां गौतम ! दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होता है ।" “ऐसा क्यों होता है भगवन् ?” गौतम ने पूछा । भगवान् ने कहा - " गौतम ! दिन में शुभ-पुद्गल शुभ- पुद्गल परिणाम में परिणत होते हैं और रात्रि में अशुभ- पुद्गल अशुभ पुद्गल परिणाम में परिणत होते हैं। इसलिए दिन में उद्योत और रात्रि में अन्धकार होता है ।६ अन्धकार पुद्गल का लक्षण है—कार्य है, इसलिए वह पन्नवणा, पद ११। न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ६६६। भगवई, ५२३७, २३८ । नो आतोद्य शब्द नो-भूषण- शब्द ताल - शब्द कंसिका - शब्द Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-मार्ग-गति ४५३ अध्ययन २८ : श्लोक १३ टि० १४, १५ पदिगलिक है।' वह पुद्गल का एक पर्याय है। वैद्यक शास्त्र में १४. छाया (छाया) ii अन्धकार को स्वतन्त्र मान कर उसके गुण का उल्लेख प्रत्येक स्थूल पौद्गलिक पदार्थ चय-उपचयधर्मक और किया है। अन्धकार समस्त रोगों को करने वाला होता है। रश्मिवान होता है। इसका तात्पर्य है कि पौद्गलिक वस्तु का अन्धकार भयावह, तिक्त और दृष्टि के तेज का आवारक होता प्रति समय चय-उपचय होता रहता है और उसमें से तदाकार है। वैयाकरणों में अंधकार को अणुरूप माना है। कई अन्य रश्मियां निकलती रहती हैं। यथायोग्य निमित्त मिलने पर ये दार्शनिक भी अंधकार को द्रव्य मानते हैं। रश्मियां प्रतिबिम्बित होती हैं। इस प्रतिविम्ब को 'छाया' कहते मध्वाचार्य ने अंधकार को स्वतंत्र द्रव्य माना है। वे कहते हैं। हैं यह तेज का अभाव नहीं है। यह प्रकाश का नाशक है। छाया के दो प्रकार हैं-(१) तवर्णादिविकार और नील रूप तथा चलन रूप क्रिया के आश्रय होने के कारण (२) प्रतिबिम्ब। दर्पण आदि स्वच्छ पदार्थों में जो ज्यों का त्यों 'अन्धकार' मूर्त द्रव्य है।' आकार देखा जाता है, उसे तद्वर्णादिविकार छाया कहते हैं अंधकार जड़ प्रकति रूप उपादान से उत्पन्न होता है और अन्य द्रव्यों पर अस्पष्ट प्रतिविम्ब मात्र पडना प्रतिबिम्ब और वह इतना घनीभूत हो जाता है कि दूसरे कठोर द्रव्य के रूप छाया है। समान वह भी हथियार से काटा जाता है। महाभारत के युद्ध मीमांसाकार यह मानते हैं-दर्पण में छाया नहीं पड़ती, में जब सर्य चमक रहा था, उसी समय श्रीकृष्ण ने अंधकार किन्त नेत्र की किरणें दर्पण से टकरा कर वापिस आती हैं को उत्पन्न किया। भाव रूप द्रव्य होने के कारण ही ब्रह्मा ने और अपने मुख को देखती हैं। इसका पान किया था। स्वतन्त्र रूप से इसकी उपलब्धि लोगों राजवल्लभकोष (५।२२) में छाया दाहश्रमस्वेदहरा को होती है और वह अन्य वस्तुओं को ढांक देता है, इसलिए मधरशीतला' कहा गया है। यही बात राजनिघण्टुकोष में भी इसका भाव रूप होना निश्चित है। कही गई है। कुमारिल भट्ट ने अंधकार को 'अभावात्मक' माना है।" न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका (पृ० ३४५) में छाया को प में नैयायिक, वैशेषिक और प्रभाकर दर्शन-प्रणाली 'अभावरूप' माना गया है। विशेष विवरण के लिए देखिएमें अंधकार को अभावात्मक माना गया है। जैन, भर्तृहरि, भाट्ट न्याय-कुमुदचन्द्र, पृ०६६७-६७२। और सांख्य-दर्शन उसे भावात्मक मानते हैं। आयुर्वेद-शास्त्र कुमारिल भट्ट प्रतिबिम्ब को अभावरूप मानते हैं।" सांख्य से प्रभावित है, इसलिए उसके प्रणेताओं ने अंधकार को १५. (श्लोक १३) भावात्मक माना है। विज्ञान में मानी जाने वाली इन्ट्रा अल्ट्रा प्रस्तुत श्लोक में पर्याय के छह लक्षण बतलाए गए हैं। रेज (Intra ultra rays) और अंधकार में कुछ साम्य संभव है। उनकी व्याख्या इस प्रकार है १. (क) स्याद्वादमंजरी (कारिका ५) : न च तमसः पीदर्गालकत्वमसिन्द्रम, (घ) प्रशस्तपाद भाष्य की व्योमवती टीका, पृ०४०। चाक्षुषत्वाऽन्यथानुपपत्तेः प्रदीपालोकवत्...रूपवत्त्वाच्च स्पर्शवत्त्वमपि (ड) स्याद्वादरत्नाकर, पृ०८५१-८५५। प्रतीयते शीतस्पर्शप्रत्ययजनकत्वात्। ७. मध्य सिद्धांतसार पृ०६०। (ख) रत्नाकरावतारिका, पृ०६६: तमः स्पर्शवत्, रुपवत्वात, पृथिवीवत् ८. वही, पृ०६१। न च रूपवत्वमसिद्ध अंधकारः कृष्णोयमिति कृष्णाकारप्रतिभासात्। ६. पदार्थसंग्रह, पृ० ६२।। २. द्रव्यसंग्रह, गाथा १६ । १०. वही, पृ० ६११ ३. राजनिघण्टुकोष, सत्वादिरेकविंशवर्गः, ३८ : ११. मीमांसा श्लोकवार्तिक न्यायरत्नाकराख्या टीका, पृ० ७४० : आतपः कटुकोरुक्षः, छाया मधुरशीतला। किमिदं तमो नाम? द्रव्यगुर्णानष्यत्तिवैधाद् अभावस्तमः इति। त्रिदोषशमनी ज्योत्स्ना, सर्वव्याधिकरं तमः ।। १२. (क) वैशेषिक, सूत्र ५१२।१६ : द्रव्यगणकर्गनियत्तिवेधादभावस्तमः। राजवल्लभकोष ५२२ : (ख) वैशेषिक सूत्रोपरकार, ५।२।२० : उभृतरूपवद्यावतेजःतमो भयावह तिक्तं, दृष्टितेजोवरोधनम्। संसगांभावस्तमः। वाक्यपदीय, १११११: १३. मीमांशा श्लोकवार्तिक, १८०-१८१ : अणवः सर्वशक्तित्वाद् भेदसंसर्गवृत्तयः । अत्र ब्रूमा यदा तावज्जले सौर्येण तेजसा। छायातपतमःशब्दभावेन परिणामिनः।। स्फुरता चाक्षुषं तेजः प्रतिस्रोतःप्रवर्तितम्।। (क) विधिविवेकन्यायकर्णिका, टीका, पृ० ६९-७६। स्वदेशमेव गृह्णाति सवितारमनेकधा। (ख) मानमेयोदय, पृ० १५२ : भिन्नमूर्तिर्यथापात्रं तदास्यानेकता कुतः।। गुणकर्मादिसद्भावादस्तीति प्रतिभासतः। १४. तत्त्वसंग्रहपजिका, पृ० ४१८, ६६७ : ...अतो नास्त्येव किञ्चिद् प्रतियोग्यस्मृतश्चैव भावरूपं ध्रुवं तमः ।। वस्तु भूत प्रतिविम्बकं नाम। (ग) तत्त्वप्रदीपिका चित्सुखी, ५५२८ : तमाल श्यामल ज्ञाने निर्वाध जागृति स्फुटे। द्रव्यान्तरं तमः कस्मादकस्मादपलप्यते।। Jain Education Intemational Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४५४ १. एकत्व — प्रत्येक स्कन्ध के परमाणु भिन्न-भिन्न होते हैं, फिर भी उनके संघात में एकत्व की अनुभूति होती है, यह एकत्व लक्षण है। जैसे— प्रत्येक घट के परमाणु पृथक्-पृथक् होते हैं, परन्तु 'यह घट है' यह एकत्व का वाचक बनता है। १. पृथक्त्व -- 'यह इससे पृथक् है' इस अनुभूति का हेतु पर्याय का पृथक्त्व लक्षण है। 1 ३. संख्या – एक, दो, तीन आदि की प्रतीति का हेतुभूत २. २. ५. संयोग — दो वस्तुओं का संयोग — इस प्रकार के व्यपदेश का हेतुभूत पर्याय ६. विभाग - 'यह इससे विभक्त है' इस बुद्धि का हेतुभूत पर्याय । पृथक्त्व और विभाग—एक नहीं है। विभाग संयोग की उत्तरकालीन पर्याय है और पृथक्त्व दो वस्तुओं में भेद करने वाला पर्याय है, जैसे—घट और पट दो अंगुलियों को मिलाया । यह संयोग है। उन्हें अलग किया। यह विभाग है। घट और पट में मूलतः भिन्नता है, इसलिए उनमें पृथक्त्व पर्याय है, विभाग पर्याय नहीं ।" वैशेषिक दर्शन में गुण के चौवीस प्रकार माने हैं। उनमें संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग - ये पांच गुण हैं। इनकी परिभाषा इस प्रकार है। - 1 १. संख्या---' एकत्वादिव्यवहारहेतुः संख्या' – जिस गुण के कारण एक-दो आदि शब्दों का व्यवहार किया जाता है, उसे संख्या कहते हैं। २. परिमाण -- ' मानव्यवहारकारणं परिमाणम्' जिस गुण के आधार पर मान किया जाता है, उसे परिमाण नौ तत्त्व तथा उनके भेद-प्रभेद एकेन्द्रिय पर्याय | ४. संस्थान —-आकार - विशेष में संस्थित होना। यह वर्तुल १६. ( श्लोक १४ ) है— इस बुद्धि का हेतुभूत पर्याय । संसारी प्रत्येक द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय वृहद्वृत्ति पत्र ५६२ । भारतीय दर्शन परिचय, खंड २, पृ० ६६-७०। पंचेन्द्रिय अध्ययन २८ : श्लोक १४ टि० ५६ कहते हैं। ३. पृथक्त्व — 'पृथग्व्यवहारकारणं पृथक्त्वम्' - 'यह उससे अलग है'-ऐसा ज्ञान जिस आधार पर होता है, उसे पृथक्त्व कहते हैं। ४. संयोग संयुक्तव्यवहारहेतुः संयोगः ''यह पदार्थ उसके साथ संयुक्त है'--ऐसा प्रयोग जिस आधार पर होता है, वह संयोग है । ५. विभाग - 'संयोगनाशको गुणो विभागः ' - जिसके द्वारा संयोग का नाश होता है, उसे विभाग कहते हैं। स्थानांग में तथ्य के स्थान पर 'सद्भावपदार्थ' शब्द का प्रयोग हुआ है। तथ्य पदार्थ और तत्त्व-ये सव पर्यायवाची हैं। वृत्तिकार ने तथ्य का अर्थ अवितथ किया है। अवितथ वे होते हैं जिनका अस्तित्व वास्तविक होता है। ये नौ तथ्य काल्पनिक नहीं हैं, किंतु वास्तविक हैं।" इस श्लोक में नौ तत्त्वों का उल्लेख हुआ है । वस्तुवृत्या तत्त्व दो ही हैं --- ( १ ) जीव और (२) अजीव । 1 नौ तत्त्व इन दो विभागों में समाविष्ट हो जाते हैं। यथा जीव, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष जीव में। अजीव, पुण्य, पाप और बन्ध-अजीव में। आस्रव आदि आत्मा के ही विशेष परिणाम हैं और पुण्य, पाप आदि पौद्गलिक कर्म अजीव के ही विशेष परिणाम हैं। जिस प्रकार लोक की व्यवस्था के लिए छह द्रव्य आवश्यक हैं, उसी प्रकार आत्मा के आरोह और अवरोह को जानने के लिए नौ तत्त्व उपयोगी हैं। इनके बिना आत्मा के विकास या हास की प्रक्रिया बुद्धिगम्य नहीं हो सकती । दिगम्बर-ग्रंथों में नौ तत्त्वों के स्थान पर सात तत्त्व माने गए हैं। पुण्य-पाप को बंध के अंतर्गत माना गया है। दोनों मान्यताएं आपेक्षिक हैं, उनमें स्वरूप भेद कुछ भी नहीं है । जीव साधारण ww एकेन्द्रिय (वनस्पति) ३. ठाणं, ६ १६ ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६२ तथ्याः अवितथाः निरुपचरितवृत्तयः । मुक्त Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-मार्ग-गति ४५५ अध्ययन २८ :श्लोक १४ टि० १६ अजीव पुण्य पाप बन्ध धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय काल पुद्गलास्तिकाय पुण्य (शुभ कर्म) पाप (अशुभ कर्म) प्राणातिपात मृपावाद अदत्तादान मैथुन परिग्रह क्रोध मान माया लोभ राग द्वेष कलह | अभ्याख्यान पैशुन्य पर-परिवाद रति-अरति माया-मृषा मिथ्या-दर्शन-शल्य आसव आसव-शुभ-अशुभ कर्म को ग्रहण करने वाला जीव करने वाला रस। ये आसव चार हैं-(१) काम-आसव, (२) का अध्यवसाय, परिणाम एवं प्रवृत्ति को 'आसव' कहा जाता भव-आसव, (३) दृष्टि-आसव और (४) अविद्या-आसव। (१) काम-आसव-शब्दादि विषयों को प्राप्त करने की सांख्य-योग में वर्णित 'क्लेश' आनव के अति निकट इच्छा-वासना या राग। है। महर्षि पतञ्जलि ने कहा है-'कर्म वासना का मूल क्लेश (२) भव-आसव-जीवन की अभिलाषा। है।" बौद्ध-दर्शन में अविद्या को अनादि दोष माना है। इस दृष्टि-आसव–बौद्ध-दृष्टि से विपरीत दृष्टि का सेवन। अविद्या के जो निमित्त आत्म-परिणामों के प्रेरक बनते हैं, उन्हें अविद्या-आसव-अनित्य पदार्थों में नित्यता की 'आसव' कहा जाता है। आसव का अर्थ है-मद उत्पन्न बुद्धि । (४) मा आसव (१) मिथ्यात्व अव्रत प्रमाद कषाय योग मनोयोग वचनयोग काययोग शुभ अशुभ शुभ अशुभ शुभ अशुभ १. पातंजल योगदर्शन, २।१२ : क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः । Jain Education Intemational Education Intermational Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४५६ अध्ययन २८ : श्लोक १४ टि. १६ आस्रव (२) सांपरायिक ऐयापथिक इन्द्रिय (५) कषाय (४) अव्रत (५) क्रिया (२५) संवर (आसव-निरोध) (१) सम्यक्त्व व्रत अप्रमाद अकपाय अयोग संवर (२) सर्वसंवर देशसंवर निर्जरा (तप) निर्जरा-तपस्या के द्वारा कर्मों का विच्छेद होने पर जो के साधन को भी निर्जरा कहा जाता है। उसके आधार पर आत्मा की निर्मलता होती है, उसे 'निर्जरा' कहते हैं। निर्जरा इसके बारह भेद होते हैं.--- निर्जरा वाह्य आभ्यन्तर अनशन ऊनोदरिका भिक्षाचरिका रसपरित्याग कायक्लेश प्रतिसंलीनता । T प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्त्य स्वाध्याय ध्यान व्युत्सर्ग मोक्ष--जैन-दृष्टि के अनुसार 'समस्त कर्मों का क्षय करने पर विशाख को इस प्रकार उत्तर दियाकर अपने आत्म-स्वभाव में रमण करना' मोक्ष है। आत्मा का विशाख--आये। विद्या का क्या प्रतिभाग है? स्वभाव है-ज्ञान, दर्शन और पवित्रता। इन तीनों की पूर्णता धम्मदिन्ना---विमुक्ति। ही मोक्ष है। जैन-दृष्टि के अनुसार मुक्त-जीवों के वास-स्थान विशाख-विमुक्ति का क्या प्रतिभाग है ? को भी मोक्ष कहा गया है। सिद्धालय, मुक्ति, ईषत् प्राग्भारा धम्मदिन्ना-निर्वाण। पृथ्वी आदि उसके अपर नाम हैं। यह स्थान मनुष्य-क्षेत्र के विशाख-और निर्वाण का क्या प्रतिभाग है ? बराबर लम्बा-चौड़ा है। इसके मध्य भाग की मोटाई आठ धम्मदिन्ना-विशाख! ब्रह्मचर्य निर्वाण पर्यन्त है, योजन की है और अन्तिम भाग मक्खी के पंख से भी अधिक निर्वाण-परायण है, निर्वाण-पर्यवसान है।' पतला है और वह लोक के अग्रभाग में स्थित है। इसका भाट्टमत के अनुसार भोगायतन-शरीर, भोग-साधनआकार सीधे छत्ते जैसा है और यह श्वेत स्वर्णमयी है। इन्द्रियां और भोग्य-विषय-इन तीनों के आत्यन्तिक नाश को बौद्ध-दर्शन में तृष्णा के आत्यन्तिक क्षय को 'मोक्ष' कहा मोक्ष कहा गया है। अथवा 'प्रपञ्च सम्बन्ध के विलय' को है। धम्मदिन्ना नामक भिक्षुणी ने निर्वाण के सम्बन्ध में प्रश्न मोक्ष कहा गया है। मोक्षावस्था में जीव में न सुख है, न १. मज्झिमनिकाय, चूलवेदल्ल सुत्न (१९५४), पृ० १८.३। २. शास्त्रदीपिका, पृ० १२५ : विविधस्यापि बन्धस्यायन्तिको विलयो मोक्षः । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-मार्ग-गति आनन्द है और न ज्ञान है- 'तस्मात् निःसम्बन्धो निरानन्दश्च मोक्षः' ।' मुक्तावस्था में आत्मा में 'ज्ञानशक्तिमात्र' ज्ञान रहता है। साथ ही साथ उसकी सत्ता तथा द्रष्टव्य आदि धर्म तो उसमें रहते ही हैं। यही आत्मा का निजी स्वरूप है, जिससे वह मोक्ष में स्थित रहता है—' यदस्य स्वं नैजं रूपं ज्ञानशक्तिसत्ताद्रव्यत्वादि तस्मिन्नवतिष्ठेत । प्रभाकर धर्म तथा अधर्म का सम्पूर्ण नाश होने से देह के आत्यन्तिक उच्छेद को 'मोक्ष' कहते हैं। इनका मत है कि आत्म-ज्ञान के द्वारा धर्माधर्म का नाश होता है और वही मुक्ति है । मुक्तावस्था में जीव की सत्ता मात्र रहती है।" भास्कर वेदान्त के अनुसार उपाधियों से मुक्त होकर अपने स्वाभाविक स्वरूप को धारण करना मोक्ष है। इसके दो भेद हैं- (१) सद्योमुक्ति और (२) क्रममुक्ति । जो साक्षात् कारण- स्वरूप - ब्रह्म की उपासना करने पर मुक्ति पाते हैं, वह 'सद्योमुक्ति' है और जो कार्य स्वरूप ब्रह्म के द्वारा मुक्ति पाते हैं, उनकी मुक्ति 'क्रममुक्ति' है अर्थात् देवयान मार्ग से अनेक लोकों में घूमते हुए मुक्त होते हैं। मुक्त जीव मन के द्वारा मुक्ति में आनन्द का अनुभव करता है। मुक्त दशा में 'सम्बोध' या 'ज्ञान' आत्मा में रहता ही है। ध्यान, धारणा और समाधि मुक्ति के साधन हैं । वे रामानुजाचार्य ने तीन प्रकार की जीवात्माएं मानी हैं— (१) बद्ध, (२) मुक्त और (३) नित्य । उनके अभिमतानुसार सत्प्रवृत्तियों के द्वारा जीव ईश्वर के पास जाता है, तब उसमें सब तरह के, सभी अवस्था के उपयुक्त भगवान् के प्रति सेवक भाव तथा स्नेह आविर्भूत हो जाता है और इन सबका अनुभव जीव को होने लगता है। ऐसे 'जीव' मुक्त कहलाते हैं। ये 'मुक्त जीव' ब्रह्म के समान भोग करते हैं। ये भी अनेक हैं तथा सब लोकों में अपनी इच्छा से विचरण करते हैं।" मुक्तावस्था में मुक्त-पुरुषों का ज्ञान कभी-कभी व्यापक रहता है ।" - निम्बार्काचार्य ने दो प्रकार के मुक्त जीव माने हैंनित्य-मुक्त और दूसरे वे जो सत्कर्म करते हुए पूर्व जन्म के कर्मों का भोग सम्पन्न कर संसार के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। मुक्त होने पर ये सब अर्चिरादि मार्ग से 'परः ज्योतिः ' १. शास्त्रदीपिका, पृ० १२५-१३०। २. वही, पृ० १३० । ३. प्रकरणपंचिका, पृ० १५६ आत्यन्तिकस्तु देहोच्छेदो मोक्षः । ४. वही, पृ० १५६-१५७ । ५. भास्कर भाष्य | ६. यतिपतिमतदीपिका, पृ० ३२-३६ । ४५७ अध्ययन २८ : श्लोक १४ टि० १६ स्वरूप को पा कर अपने यथार्थ स्वरूप में प्रकट हो जाते हैं और पुनः संसार में नहीं जाते। इनमें से कई केवल आत्म-साक्षात्कार करके ही तृप्त हो जाते हैं और कई ईश्वर-तुल्य बन जाते हैं। इनके अनुसार मुक्त जीव भी भोग भोगते हैं।" मध्वाचार्य के अनुसार मुक्त जीव अपनी इच्छा से शुभ सत्त्वमय देह धारण कर यथेष्ट भोग का अनुभव करते हैं और पुनः स्वेच्छा से उसे त्याग देते हैं। किसी-किसी के मत में मुक्त-जीव पांच भौतिक शरीर के द्वारा भी भोग कर सकता है। यह शरीर उसका 'स्वेच्छा- स्वीकृत शरीर' कहलाता है। इसके अनुसार संसार तथा मोक्ष—दोनों ही अवस्था में जीवों में भी परस्पर भेद है । परमात्मा इन सबसे भिन्न है ।" ज्ञान की तरतमता के कारण परम आनन्द की अनुभूति में भी तारतम्य रहता है। ७. तत्त्वत्रयभाष्य, पृ० ३५-३६ । ८. वेदान्तपारिजातसौरभ, ४।४।१३,१५ । ६. मध्वसिद्धान्तसार, पृ० ३६-३७। १०. पदार्थसंग्रह, पृ० ३२ । सांख्य के अनुसार प्रकृति का वियोग हो जाना ही मोक्ष है अथवा विवेक ख्याति या विवेक-बुद्धि को प्राप्त करना मुक्ति है। मोक्षावस्था में भी प्रकृति का सात्त्विक अंश रहता है। मुक्ति में मुक्त जीवों की संख्या अनन्त है ।" वैष्णव तंत्र मोक्ष प्राप्ति के लिए जीव को भगवन्-भक्ति द्वारा शरणागति प्राप्त करनी चाहिए।" मुक्त दशा में जीव ब्रह्म से एकाकार हो जाता है और उसका पुनरावर्तन नहीं होता । ३ 'ब्रह्मभावापत्ति' मुक्ति का अपर नाम है । शैव तंत्र 'क्रिया' मुक्ति का साधन है, 'ज्ञान' नहीं। अनुग्रह शक्ति द्वारा जीव संसार के बंधन से छूट सकता है । ४ शाक्त तंत्र 'भोगात्मक-साधन' से मुक्ति प्राप्त होती है।" भोग और मोक्ष में कोई अन्तर नहीं है। इस मत में माता भगिनी और पुत्री का भोग करने वालों को भी मुक्ति प्राप्त हो सकती है, ऐसा विधान है । १६ वैशेषिक द्रव्य, गुण आदि षट्पदार्थों में ज्ञान से होती है।७ 'धर्म' मोक्ष का साधन है, इससे ११. सांख्यकारिका, ७० की माठर वृत्ति । १२. अहिर्बुध्न्यसंहिता, ३७।२७-३१। १३. वही, ६।२७-२८ । १४. सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० १७४- १८६ । १५. श्री गुह्यसमाजतंत्र, पृ० २७ : दुष्करैर्नियमैस्तीवैः सेव्यमानो न सिद्ध्यति । सर्वकामोपभोगैस्तु, सेवयंश्चाशु सिद्ध्यति ।। १६. श्री गुह्यसमाजतंत्र अध्याय ५ । १७. वैशेषिक सूत्र, १1१1४ । मोक्ष की प्राप्ति तत्त्व - ज्ञान और Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४५८ अध्ययन २८: श्लोक १६-१८ टि० १७-२० मोक्ष की प्राप्ति होती है। (६) अभिगमरुचि संक्षेपरुचि दर्शन-आर्यन्याय-दर्शन जीव आदि पदार्थों के संक्षिप्त निरूपण से प्रमाण-प्रमेय आदि सोलह पदार्थों के ज्ञान से मिथ्या-ज्ञान बोध प्राप्त कर जिन्हें सम्यग-दर्शन प्राप्त नष्ट हो जाता है। तदनन्तर राग-द्वेष और मोह का नाश होता हुआ हो। है। इससे धर्म-अधर्म रूप प्रवृत्ति का नाश होता है। इससे जन्म (७) विस्ताररुचि विस्ताररुचि दर्शन-आर्य-~का क्षय होता है और इससे दुःख क्षय होता है। दुःख का जीव आदि पदार्थों के विस्तृत निरूपण से अत्यन्त क्षय ही मुक्ति है-अपवर्ग है। मुक्तावस्था में बुद्धि, बोध प्राप्त कर जिन्हें सम्यग्-दर्शन प्राप्त सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म तथा संस्कार का हुआ हो। मूलोच्छेद हो जाता है। (८) क्रियारुचि अर्थरुचि दर्शन-आर्य----- इस प्रकार भारतीय तत्त्व-चिन्तन में मोक्ष विषयक अनेक वचन विस्तार के बिना केवल अर्थ-ग्रहण मान्यताएं प्राप्त होती हैं। से जिन्हें सम्यग-दर्शन प्राप्त हुआ हो। १७. (श्लोक १६) (E) संक्षेपरुचि अवगाढ़रुचि दर्शन-आर्यइस श्लोक में दस रुचियों का उल्लेख हुआ है। रुचि का आचारांग आदि वारह अंगों (द्वादशांगी) अर्थ है-सत्य की श्रद्धा, अभिलाषा। इन दस रुचियों में में जिनका श्रद्धान अति दृढ़ हो। विभिन्न अपेक्षाओं से होने वाले सम्यक्त्व के विभिन्न रूपों का (१०) धमताच परम-अवगाढ़ दर्शन-आर्य--- वर्गीकरण किया गया है। स्थानांग में इन्हें 'सराग सम्यग्-दर्शन' परमअवधि, केवलज्ञान, केवलदर्शन से कहा है। तत्त्वार्थ राजवार्तिक में दस प्रकार के दर्शन-आर्य प्रकाशित जीव आदि पदार्थों के ज्ञान से बतलाए गए हैं। ये दस दर्शन-आर्य दस रुचियों से कुछ जिनकी आत्मा निर्मल हो। समान और कुछ भिन्न हैं १८. पूर्वजन्म की स्मृति आदि (सहसम्मुइ.....) उत्तराध्यान तत्त्वार्थ राजवार्तिक 'सहसम्मुइ' का अर्थ है-----स्वस्मृति, जातिस्मृति, पूर्वजन्म (१) निसर्गरुचि आज्ञारुचि दर्शन-आर्य की स्मृति। 'सह' का अर्थ है-स्व और 'सम्मुइ' का अर्थ वीतराग की आज्ञा में विश्वास होने के है स्मृति। वृत्तिकार ने इसका अर्थ-सहसम्मति--आत्मा के कारण जिन्हें सम्यग-दर्शन प्राप्त हुआ साथ होने वाली सम्मति--किया है। तात्पर्य में दोनों अर्थ एक हो। हो जाते हैं। (२) उपदेशरुचि मार्गरुचि दर्शन-आर्य-- १९. भूतार्थ (यथार्थ ज्ञान) (भूयत्थ.....) मोक्ष-मार्ग सुनने से जिन्हें सम्यगू-दर्शन वृत्तिकार ने 'भूत' का अर्थ अवितथ किया है। उनके प्राप्त हुआ हो। अनुसार भूतार्थ का अर्थ है-यथार्थ विषय बाला।' यह अर्थ (३) आज्ञारुचि उपदेशरुचि दर्शन-आर्य----- स्पष्ट नहीं है। समयसार ग्रन्थ में मूलस्पर्शी अर्थ प्राप्त है। वहां तीर्थंकर आदि के पवित्र आचरण के व्यवहार नय के लिए अभूतार्थ और निश्चय नय के लिए उपदेश को सुन कर जिन्हें सम्यग-दर्शन भूतार्थ शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्राप्त हुआ हो। प्रस्तुत श्लोक १७ से समयसार की निम्न गाथा की (४) सूत्ररुचि सूत्ररुचि दर्शन-आर्य----- तुलना की जा सकती हैआचारांग आदि सूत्रों को सुनने से जिन्हें भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च। सम्यग-दर्शन प्राप्त हुआ हो। आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।।१।१३।। (५) वीजरुचि बीजरुचि दर्शन-आर्य २०. जिनेन्द्र द्वारा दृष्ट (जिणदिङे) बीज पदों के निमित्त से जिन्हें सम्यग-दर्शन इसके संस्कृतरूप दो बन सकते हैं-'जिनदृष्टान्' आर प्राप्त हुआ हो। 'जिनादिष्टान्'। पहले का अर्थ होगा-अर्हत् के द्वारा देखा १. वैशेषिक सूत्र, ११।२। २. न्यायसूत्र, १११।२२। ३. जयन्त न्यायमंजरी पृ० ५०६। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६३ । ५. ठाणं, १०१०४। ६. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ३३६, पृ० २०११ ७. बृहदृवृत्ति, पत्र ५६४ : सहसंमुइअ त्ति सोपस्कारत्वात सूत्रत्वाच्य सहात्मना या संगता मतिः सं (सहसं) मतिः, कोर्थः परोपदेशनिरपेक्षतया जातिस्मरणप्रतिभादिरूपया। ८. वही, पत्र ५६४। ६. समयसार ११११ : भदत्थो--शुद्ध नय। Jain Education Intemational Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-मार्ग-गति ४५९ अध्ययन २८ : श्लोक २०-३१ टि० २१-२५ हुआ, साक्षात् किया हुआ और दूसरे का अर्थ होगा-अर्हत् मानकर व्याख्या की है। उसके आधार पर उत्तरवर्ती दो चरणों द्वारा उपदिष्ट। का अनुवाद इस प्रकार होगा-सम्यक्त्व और चारित्र युगपत् २१. (रागो.....) (एक साथ) उत्पन्न होते हैं और जहां वे युगपत् उत्पन्न नहीं राग, द्वेष, मोह और अज्ञान-यह चतुष्क आज्ञारुचि होते, वहां पहले सम्यक्त्व होता है। का बाधक है। यहां मोह का अर्थ मूर्छा या मूढ़ता है। राग, सम्यक्त्व और चारित्र युगपत् एक साथ कैसे होते द्वेष और मोह–इन तीनों का सम्बन्ध मोहनीय कर्म से है। हैं-इस प्रश्न पर जयाचार्य ने विमर्श किया है। उसका सार इस चतुष्क का उल्लेख ३२२ में भी हुआ है। यह है कोई मुनि छठे गुणस्थान में विद्यमान है। वह किसी २२. वीतराग की आज्ञा (आणाए) तत्त्व के विषय में संशयशील हो गया। उस संशयशीलता के इसके संस्कृत रूप तीन हो सकते हैं—आज्ञाय, आज्ञायां कारण उसका सम्यक्त्व और चारित्र—दोनों नष्ट हो गए। वह और आज्ञया । वृत्तिकार ने 'आज्ञया' रूप मानकर इसका अर्थ प्रथम गुणस्थान में चला गया। अंतर्मुहूर्त में उसके संशय का आचार्य आदि की आज्ञा से किया है।' निवारण हो गया। वह फिर सम्यक्त्व और चारित्र-युक्त हो - स्थानांग में सरागसम्यग्दर्शन के दस प्रकारों से इन्हीं दस गया। व्याख्या का यह एक नय है। इस नय की अपेक्षा रुचियों का उल्लेख है। वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने आज्ञारुचि सम्यक्त्व और चारित्र के युगपत् उत्पाद अथवा सहभाव को को 'आज्ञाया रुचिः' ऐसा मानकर आज्ञा का अर्थ सर्वज्ञ का समझा जा सकता है। वचन किया है तथा तात्पर्यार्थ में आचार्य आदि की आज्ञा को २५. (श्लोक ३१) आज्ञा का वाचक माना है। सम्यग्-दर्शन का अर्थ है-सत्य की आस्था, सत्य की हमने इसका संस्कृतरूप 'आज्ञायां' मानकर इसका अर्थ रुचि। वह दो प्रकार का होता है—(१) नैश्चयिक और (२) वीतराग की आज्ञा में किया है। यहां आज्ञा का अर्थ आदेश-निर्देश व्यावहारिक। नैश्चयिक-सम्यग्-दर्शन का सम्बन्ध केवल आत्मा नहीं है। उसका अर्थ आगम अतीन्द्रिय ज्ञान के द्वारा दृष्ट की आंतरिक शुद्धि या सत्य की आस्था से होता है। अतीन्द्रिय विषयों का प्रतिपादन है। आज्ञा विचय में आज्ञा का व्यावहारिक-सम्यग-दर्शन का संबन्ध संघ, गण और संप्रदाय जो अर्थ है, वही यहां प्रासंगिक है। से भी होता है। २३. (श्लोक २७) ___ सम्यग्-दर्शन के आठ अंगों का निरूपण इन दोनों प्रस्तत श्लोक में तीन पदों के साथ धर्म शब्द का प्रयोग दृष्टियों को सामने रख कर किया गया है। सम्यग-दर्शन के आठ किया गया है। अस्तिकाय पांच हैं-धर्मास्किाय, अधर्मास्तिकाय, अग य है-(१) निःशकित, (२) निष्काक्षित, (३) निविचिकित्सा आकाशास्किाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय। अस्तिकाय (४) अमूढदृष्टि, (५) उपबृंहण, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य के साथ धर्म शब्द का प्रयोग स्वभाव अर्थ में किया गया है। जार (८) अभावमा श्रुत और चारित्र-ये दोनों धर्म साधना के लिए निरूपित हैं। सम्यग-दशन के पाच तिचार ह—(१) शका, (२) कांक्षा २४. (श्लोक २९) (३) विचिकित्सा, (४) पर-पाषण्ड-प्रशंसा और (५) पर-पाषण्डसम्यक्त्वविहीन चारित्र नहीं होता, यह नियम है। सम्यक्त्व संस्तव। के साथ चारित्र हो ही, यह नियम नहीं है। इन दो नियमों के ___आचार का उल्लंघन अतिचार होता है और 'अतिचार' आधार पर दो विकल्प बनते हैं। पहले दो चरणों के नियम का का वर्जन आचार। आचार के आठ अंग हैं और अतिचार के निर्देश है। उत्तरवर्ती दो चरणों में दो विकल्पों का निर्देश है। पांच। इस संख्या-भेद पर सहज ही प्रश्न होता है। पहला विकल्प-सम्यक्त्व और चारित्र का सहभाव होता है। श्रुतसागरसूरि ने इसका समाधान किया है। उनके अनुसार दूसरा विकल्प' –जहां दोनों का सहभाव न हो वहां पहले व्रत और शीलों के पांच-पांच अतिचार बतलाए हैं। अतः सम्यक्त्व होता है। वृत्तिकार ने 'उत्पद्यते' इस क्रिया को शेष अतिचारों के वर्णन में सम्यग्-दर्शन के पांच ही अतिचार बतलाए गए हैं। शेष तीन अतिचारों का मिथ्यादृष्टि-प्रशंसा १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६४ : आज्ञयैव आचार्यादिसम्बन्धिन्या...। २. ठाणं १०।१०४, वृत्ति पत्र ४७७ : आज्ञा-सर्वज्ञवचनात्मिका तया रुचिर्यस्य स तथा, यो हि प्रतनुरागद्वेषमिथ्याज्ञानतयाऽऽचार्यादीनामाज्ञयैव । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६६ : सम्यक्त्वचारित्रे 'युगपत्' एककालमुत्पद्यते इति शेषः। ...पूर्व चारित्रोत्पादात् सम्यक्त्वमुत्पद्यते ततो यदा युगपदुत्पादस्तदा तयोः सहभावः। ४. उत्तराध्ययन की जोड़, २६२६ का वार्तिक इहां कह्यो, पहिला सम्यक्त्व आवै अने पछै चारित्र पावै एतो प्रत्यक्ष दीसेज छै। पिण सम्यक्त्व चारित्र साथै आवै करो ते किम । तेहनों उत्तर। एक मुनि छठे गुणठाणे हुँतो। तिणनै किणही बोलनी शंका पडी। तिवारे समकित चारित्र दोनूं ही गया। पहिले गुणठाणे आयो। पछै अन्तर्मुहर्त में शंका मिट्यां पाछो छठे गुणाठाणे आयां सम्यक्त्व चारित्र सहित थयो। इम सम्यक्त्व चारित्र साथै आवै। एहवू न्याय संभवै। Jain Education Intemational Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४६० __ अध्ययन २८ : श्लोक ३१ टि० २५ और मिथ्यादृष्टि-संस्तव में अन्तर्भाव हो जाता है। जो विजयोदया के अनुसार भोग और सुख-संपदा की जो मिथ्या-दृष्टियों की प्रशंसा और स्तुति करता है, वह मूढ़-दृष्टि इच्छा है, वह सम्यग-दर्शन का अतिचार नहीं है किंतु दर्शन, तो है ही। वह उपबृंहण नहीं करता, स्थिरीकरण नहीं करता। व्रत आदि के द्वारा भोग-प्राप्ति की इच्छा करना अतिचार है।' उससे वात्सल्य और प्रभावना भी संभव नहीं है।' इस भावना निष्कांक्षित सम्यग-दर्शन का आचार है। के अनुसार सम्यग्-दर्शन के आठ आचारात्मक और आठ (३) निर्विचिकित्सा और विचिकित्सा अतिचारात्मक अंग होते हैं विचिकित्सा के भी दो अर्थ मिलते हैं—(१) धर्म के फल (१) नि:शंकित और शंका में संदेह' और (२) जुगुप्सा—घृणा।। शंका का अर्थ सन्देह भी होता है और भय भी। इन आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार भूख-प्यास, शीत-उष्ण दोनों अर्थों के आधार पर इसकी व्याख्या हुई है। शान्त्याचार्य, आदि नाना प्रकार के भावों तथा मल आदि पदार्थों में घृणा हरिभद्रसूरि, अभयदेवसूरि, हेमचन्द्राचार्य, नेमिचंद्राचार्य, स्वामी नहीं करनी चाहिए। समंतभद्र और शिवकोट्याचार्य ने शंका का अर्थ 'सन्देह' किया स्वामी समंतभद्र के शब्दों में स्वभावतः अपवित्र किन्तु है। आचार्य कुन्दकुन्द ने शंका का अर्थ 'भय' किया है। रत्नत्रयी से पवित्र शरीर में ग्लानि न करना, गुणों में प्रीति श्रुतसागरसूरि ने दोनों अर्थ किये हैं। संक्षेप में करने का नाम निर्विचिकित्सा है।" (१) जिन भाषित-तत्त्व के प्रति जो सन्देह होता है, वह अमितगति श्रावकाचार में तीसरा अतिचार निन्दा है। शंका है। हेमचन्द्राचार्य ने भी विचिकित्सा का वैकल्पिक अर्थ 'निन्दा' (२) जिसका मन सात प्रकार के भयों से व्यथित होता किया है।३ है, वह शंका है। यह सम्यग्-दर्शन का अतिचार है। निश्शंकित (४) अमूढ़-दृष्टि और पर-पाषण्ड-प्रशंसा, पर-पाषण्डसम्यग-दर्शन का आचार है। सम्यग-दृष्टि को असंदिग्ध और संस्तवअभय होना चाहिए। मूढ़ता का अर्थ है—मोहमयी दृष्टि। स्वामी समन्तभद्र ने (२) निष्कांक्षित और कांक्षा उसे तीन भागों में विभक्त किया हैकांक्षा के दो अर्थ मिलते हैं—(१) एकांत-दृष्टि वाले (१) लोक-मूढ़ता-नदी-स्नान आदि में धार्मिक विश्वास। दर्शनों को स्वीकार करने की इच्छा' और (२) धर्माचरण के (२) देव-मूढ़ता--राग-द्वेष-वशीभूत देवों की उपासना । द्वारा सुख-समृद्धि पाने की इच्छा ।। (३) पाषण्ड-मूढ़ता–हिंसा में प्रवृत्त साधुओं का पुरस्कार।" १. तत्त्वार्थ, ७।२३, श्रुतसागरीय वृत्ति, पृ० २४८ । स्त्रीपुत्रादिक, शत्रुमर्दन, स्त्रीत्वं, पुंस्त्वं वा सातिशयं स्यादिति कांक्षा इह २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५६७ : शड्कनं शड़िकतं-देशसर्वशकात्मक गृहीता, एषा अतिचारो दर्शनस्य। तस्याभावो निःशकितम्। ८. प्रवचनसारोद्धार, २६८, पत्र ६४ : बिचिकित्सा-मतिविभ्रमः (ख) श्रावकधर्मप्रकरण, वृत्ति पत्र २० : भगवदर्हत्प्रणीतेषु धर्माधर्मा- युक्त्यागमोपपन्ने ऽप्यथें फलं प्रति सम्मोहः । काशादिष्वत्यन्तगहनेषु मतिमान्द्यादिभ्योऽनवधार्यमाणेषु संशय इत्यर्थः बही, २६८, पत्र ६४ : यद्वा विद्वज्जुगुप्सा-मलमलिना एते किमेवं स्यात् ? नैवम् इति। इत्यादिसाधुजुगुप्सा। (ग) ठाणं, ३।५२३ वृत्ति पत्र १६६ : शकितो--देशतः सर्वतो वा १०. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, २५ : संशयवान् क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु। (घ) योगशास्त्र, २।१७। द्रव्येषु पुरीषादिषु, विचिकित्सा नैव करणीया।। (ङ) प्रवचनसारोद्धार, पत्र ६६ ११. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, १।१३ : (च) रत्नकरंडक श्रावकाचार, १११ स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते। (छ) मूलाराधना, ११४४ विजयोदया : शंका--संशयप्रत्ययः किंस्विदित्य- द्रव्येषु पुरीषादिषु, विचिकित्सा नैव करणीया।। नवधारणात्मकः। १२. अमितगति श्रावकाचार, ७।१६ : ३. समयसार, गाथा २२८ : शंका कांक्षा निंदा, परशंसासंस्तवा मला पंच। सम्मदिट्टी जीवा, णिस्संका होति णिटभया तेण। परिहर्तव्याः सदभिः, सम्यक्त्वविशोधिभिः सततम् ।। सत्तभयविष्णमुक्का, जम्हा तम्हा हु णिस्संका।। १३. योगशास्त्र २१७ वृत्ति पत्र ६७: यद्वा विचिकित्सा निंदा सा च ४. तत्त्वार्थ, ७।२३, वृत्ति : तत्र शंका-यथा निर्ग्रन्थानां मुक्तिरुक्ता तथा सदाचारमुनिविषया यथा अस्नानेन प्रस्वेदजलक्लिन्नमलत्वाद् दुर्गन्धिवपुष सग्रन्थानामपि गृहस्थादीनां किं मुक्तिर्भवति इति शंका । अथवा, भयप्रकृतिः एत इति। शंका १४. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ११२२,२३,२४ : पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, २४ : आपगासामरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् । इह जन्मनि विभवादीन्थमुत्र चक्रित्वकेशवत्वादीन् । गिरिपातोऽग्निपातश्च, लोकमूढं निगद्यते।। एकांतवाददृषितपरसमयानपि च नाकांक्षेत्।। वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसा। ६. तत्त्वार्थ, ७२३, वृत्ति : इहपरलोकभोगाकांक्षणं कांक्षा। देवता यदुपासीत, देवतामूढमुच्यते।।। मूलाराधना, ११४४ विजयोदया : न कांक्षामात्रमतीचारः किंतु दर्शनाद् सग्रन्थारम्भहिंसानां, संसारावर्तवर्तिनाम्। व्रताद्दानाद्देवपूजायास्तपसश्च जातेन पुण्येन ममेद कुलं, रूप, वित्तं, पाषाण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषण्डिमोहनम्।' ७. Jain Education Intemational Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-मार्ग-गति ४६१ . अध्ययन २८ : श्लोक ३१ टि० २५ की आचार्य हरिभद्र के अनुसार एकांतवादी तीर्थकों की आदि) की वृद्धि करना तथा पराए दोषों का निगूहन करनाविभूति देखकर जो मोह उत्पन्न होता है, उसे 'मूढ़ता' कहा ये दोनों उपबृंहण के अंग हैं। जाता है।' मिथ्या-दृष्टि की प्रशंसा और उसका संस्तव—ये (६) स्थिरीकरण दोनों मूढ़ता के ही परिणाम है। धर्म-मार्ग या न्याय-मार्ग से विचलित हो रहे व्यक्तियों को स्वामी समंतभद्र ने मूढ़ता का अर्थ कुपथगामियों का पूनः उसी मार्ग में स्थिर करना यह 'स्थिरीकरण' है। सम्पर्क और उनकी स्तुति किया है। (७) वात्सल्य मूलाराधना में 'पर-पाषण्ड-संस्तव' के स्थान पर मोक्ष के कारणभूत धर्म, अहिंसा और साधर्मिकों में 'अनायतन-सेवा' का प्रयोग किया गया है। अनायतन के छह वत्सल-भाव रखना, उनकी यथोयोग्य प्रतिपत्ति रखना, साधर्मिक प्रकार हैं-(१) मिथ्यात्व, (२) मिथ्या-दृष्टि, (३) मिथ्या-ज्ञान, साधुओं को आहार, वस्त्र आदि देना, गुरु, ग्लान, तपस्वी, (४) मिथ्या-ज्ञानी, (५) मिथ्या-चारित्र और (६) मिथ्या-चारित्र। शैक्ष, पाहुने साधुओं की विशेष सेवा करना-यह वात्सल्य इनकी सेवा को 'अनायतन-सेवा' कहा जाता है। प्रवचन सारोद्धार में इसे 'परतीर्थिकोपसेवन' कहा है।" (८) प्रभावना आचार्य हेमचन्द्र ने संस्तव का अर्थ परिचय किया है।' तीर्थ की उन्नति हो वैसी चेष्टा करना, रत्नत्रयीपरिचय और सेवा ये लगभग समान हैं। सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र से अपनी आत्मा को प्रभावित __ श्रुतसागरसूरि में संस्तव का अर्थ स्तुति किया है। उनके करना, जिन-शासन की महिमा बढ़ाना—यह 'प्रभावना है।" अनुसार मानसिक श्लाघा-प्रशंसा और वाचिक श्लाघा---- आठ प्रकार के व्यक्ति प्रभावक माने जाते हैंसंस्तव है। (१) प्रवचनी-द्वादशांगीधर, युगप्रधान आगम-पुरुष । (५) उपबृंहण (२) धर्मकथी-धर्म-कथा-कुशल। सम्यग-दर्शन की पुष्टि करने को 'उपबृंहण' कहा जाता (३) वादी वाद-विद्या में निपुण। है। वसुनन्दि ने 'उपबृंहण' के स्थान पर 'उपगृहन' माना है। (४) नैमित्तिक-निमित्तविद् । उसका अर्थ है-प्रमादवश हुए दोषों का प्रचार न करना व (५) तपस्वी तपस्या करने वाला। अपने गुणों का गोपन करना। (६) विद्याधर-प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं का पारगामी। आचार्य अमृतचन्द्र ने उपगूहन को उपबृंहण का ही एक (७) सिद्ध-सिद्धिप्राप्त। प्रकार माना है। उनके अनुसार अपने आत्म-गुणों (मृदुता (८) कवि-कवित्व-शक्ति-सम्पन्न १२ श्रावकधर्मविधि प्रकरण, ५८-६० : ६. तत्त्वार्थ वृत्ति (श्रुतसागरी), ७.२३ : मिथ्यादृष्टीनां मनसा ज्ञानचारित्रइडूढीओ णेगविहा, विज्जाजणिया तवोमयाओ य। गुणोद्भावनं प्रशंसा, विद्यमानानामविद्यमानानां मिथ्यादृष्टिगुणानां वचनेन वेउव्वियलद्धिकया नहगमणाई य दटूटूणं।। प्रकटनं संस्तव उच्यते। पूर्व च असणपाणाइवत्थपत्ताइएहिं विविहेहिं। वसुनन्दि श्रावकाचार, ४८ : परपासंडत्थाणं सक्कोलूयाइणं दट्टणं ।। णिस्संका णिक्कखा, णिविदिगिच्छा अमृढदिट्ठी य। धिज्जाईयगिहीणं, पासत्थाईण वापि दट्टणं । अवगृहण ठिदियरणं, बच्छल्ल पहावणा चेव ।' यस्सन मुज्झइ दिट्टी, अमृढदिट्टि तयं विति।। ८. पुरुषार्थसिन्ड्युपाय, २७ : रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ११४ : धर्मो ऽभिवर्द्धनीयः, सदात्मनो मार्दवादिभावनया। कापथे पथि दुःखाना, कापथस्थेऽप्यसम्मतिः। परदोषनिगृहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ।। असंपृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढादृष्टिरुच्यते।। ६. (क) प्रवचनसारोद्धार, २६८ वृत्ति, पत्र ६४ : स्थिरीकरण तु धर्माद्विषीदता ३. मूलाराधना, १४४ : तत्रैव चाटुवचनचातुर्यादवस्थापनम् । सम्मत्तादीचारा, संका कंखा तहेव विदिगिंछा। (ख) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, २८ । परदिट्ठीण पर्ससा, अणायदणसेवणा चेव।। कामक्रोधमदादिषु, चलयितुमुदितेषु थर्मनो न्याय्यात्। विजयोदया श्रुतमात्मनः परस्य च, युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ।। अणायदणसेवणा चेव-अनायतनं षविधं-मिथ्यात्वं, मिथ्यादृष्टयः, (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र ५६७ : वत्सलभावो वात्सल्यं-साधर्मिकजनस्य मिथ्याज्ञानं, तद्वन्तः, मिथ्याचारित्रं मिथ्याचारित्रवन्त इति। . भक्तपानादिनोचितप्रतिपत्तिकरणम्। प्रवचनसारोद्धार, २७३ वृत्ति, पत्र ७० : १०. बृहवृत्ति, पत्र ५६७: वत्सलभावो वात्सल्यं-साधर्मिकजनस्य भक्तपानासंका कंखा व तहा, वितिगिच्छा अन्नतित्थियपसंसा। दिनोचित्तप्रतिपत्तिकरणम्। परितिथिओवसेवणमइयारा पंचे सम्मत्ते।। ११. वही, पत्र ५६७ : प्रभावना च-तथा तथा स्वतीर्थोन्नतिहेतुचेष्टासु 'परतीर्थिकोपसेवन'-परतीथिकैः सह एकत्र संवासात् परस्परा- प्रवर्तनात्मिका। लापादिजनितः परिचयः। १२. योगशास्त्र, २१६ वृत्ति, पत्र ६५। ५. योगशास्त्र, २१७ वृत्ति ६७ : तैर्मिथ्यादृष्टिभिरेकत्र संवासात्परस्परा लापादिजनितः परिचयः संस्तवः। Jain Education Intemational Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४६२ अध्ययन २८ : श्लोक ३२, ३३ टि० २६ आचार्य हरिभद्र ने सिद्ध के स्थान में अतिशय- सर्व सावद्य प्रवृत्ति का त्याग किया जाता है, वह सामायिक ऋद्धि-सम्पन्न और कवि के स्थान में राजाओं द्वारा सम्मत चारित्र है। छेदोपस्थापनीय आदि चारित्र इसी के विशेष रूप व्यक्ति को प्रभावक माना है।' हैं। बाईस तीर्थंकरों ने सामायिक चारित्र का उपदेश दिया था। सम्यक्त्व के पांच भूषण माने जाते हैं---(१) स्थैर्य, छेदोपस्थापनीय का उपदेश भगवान् ऋषभ और भगवान् महावीर (२) प्रभावना, (३) भक्ति, (४) जिन-शासन में कौशल और ने दिया था। (५) तीर्थ-सेवा। सामायिक-चारित्र दो प्रकार का होता है---- स्थैर्य, प्रभावना और भक्ति क्रमशः स्थिरीकरण, प्रभावना (क) इत्वर-भगवान् ऋषभ और भगवान् महावीर के और वात्सल्य हैं। जिन-शासन में कौशल और तीर्थ-सेवा भी शिष्यों के यह इत्वर---अल्पकाल के लिए होता है। इसकी वात्सल्य के विविध रूपों का स्पर्श करते हैं। स्थिति सात दिन, चार मास या छह मास है। तत्पश्चात् इसके सम्यग्-दर्शन के आठों अंग सत्य की आस्था के परम स्थान पर छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकार किया जाता है। अंग हैं। कोई भी व्यक्ति शंका (भय या संदेह), कांक्षा (आसक्ति (२) यावत्कथिक शेष वाईस तीर्थंकरों के शिष्यों के या वैचारिक अस्थिरता), विचिकित्सा (घृणा या निन्दा), मूढ़-दृष्टि सामायिक-चारित्र यावज्जीवन के लिए होता है। (अपनी नीति के विरोधी विचारों के प्रति सहमति) से मुक्त हुए श्रुतसागरसूरि ने तत्त्वार्थ वृत्ति में सामायिक के दो बिना सत्य की आराधना कर नहीं सकता और उसके प्रति भेद-परिमित-काल और अपरिमित-काल--किए हैं। स्वाध्याय आस्थावान रह नहीं सकता। स्व-सम्मत धर्म या साधर्मिकों का आदि के समय जो सामायिक किया जाता है, वह उपबृंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना किए बिना कोई परिमित-काल-सामायिक होता है। ईर्यापथ आदि में व्यक्ति सत्य की आराधना करने में दूसरों का सहायक नहीं अपरिमित-काल-सामायिक होता है। बन सकता। इस दृष्टि से ये आठों अंग बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। पूर्व पर्याय (सामायिक-चारित्र) का छेद कर महाव्रतों में २६. (श्लोक ३२-३३) उपस्थित करने को 'छेदोपस्थापनीय' कहा जाता है। जिससे कर्म का चय रिक्त होता है, वह चारित्र है। यह सामायिक-चारित्र स्वीकार करते समय सर्व सावध योग का 'चारित्र' शब्द का निरुक्त है। ३५ वें श्लोक में बताया गया त्याग किया जाता है, सावध योग का विभागशः त्याग नहीं है-चारित्र से निग्रह होता है। रिक्त करना और निग्रह करना किया जाता। छेदोपस्थापनीय में विभागशः त्याग किया जाता वस्तुतः एक नहीं है। प्रश्न होता है यह भेद क्यों ? है। पांच महाव्रतों का पृथक्-पृथक् त्याग किया जाता है, शान्त्याचार्य ने इसके समाधान में लिखा है—तपस्या भी इसलिए आचार्य वीरनन्दि ने छेद का अर्थ भेद या विभाग किया चारित्र के अन्तर्गत है, इसलिए चारित्र के दो कार्य होते हैं- है। पूज्यपाद के अनुसार तीन गुप्ति (मनो-वाक्-काय), पांच (१) कर्म का निग्रह और (२) कर्म-चय का रिक्तीकरण । समिति (ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग) तथा (१) सामायिक और (२) छेदोपस्थापनीय पांच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह)चारित्र के पांच प्रकार बतलाए गए हैं.–सामायिक, इन तेरह भेद वाले चारित्र का निरूपण भगवान् महावीर ने छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात। किया था। उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों ने ऐसे विभागात्मक चारित्र वस्तुतः वह एक ही है। ये भेद विशेष दृष्टियों से किए गए हैं। का निरूपण नहीं किया था। १. श्रावकधर्मविधि प्रकरण, श्लोक ६७ : भरतैरावतयोः प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थयोरुपस्थापनायां छेदोपस्थापनीयअइसेसइहि धम्मकहिवाइआयरियखवगनेमित्ती। चारित्रभावेन तत्र तद्वयपदेशाभावात, यावत्कथिकं च तयोरेव विज्जारायागणसम्मया य तित्थं पभावेति ।। मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु महाविदेहेषु चोपस्थापनाया अभावेन तद्वयपदेशस्य योगशास्त्र, २१६ : यावज्जीवमपि सम्भवात् । स्थैर्य प्रभावना भक्तिः कौशलं जिनशासने। ७. तत्त्वार्थ, १८ वृति : तत्र सामायिकं द्विप्रकारम् परिमितकालमपरिमिततीर्थसेवा च पंचास्य, भूषणानि प्रचक्षते ।। कालञ्चेति । स्वाध्यायादौ सामयिकग्रहणं परिमितकालम् । ईर्यापथादाववृहद्वृत्ति, पत्र ५६६ : 'एतद्' अनन्तरोक्तं सामायिकादि चयस्य--- परिमितकालं वेदितव्यम्। राशेः प्रस्तावात्कर्मणां रिक्त--विरेको ऽभाव इति यावत् तत्करोतीत्येवंशीलं .. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६८। चयरिक्तकर चारित्रमिति नैरुक्तो विधिः आह-वक्ष्यति-"चरिनेण ६. आचारसार,५६-७: णिगिण्हाति तवेण य वि (परि) सुज्झति त्ति" कथं न तेनास्य विरोधः ?, व्रत-समिति-गुप्तिर्गः, पंच पंच त्रिभिर्मतैः । उच्यते, तपसोऽपि तत्त्वतश्चारित्रान्तर्गतत्वात्। छेदैर्भदैरुपेत्यार्थं, स्थापनं स्वस्थितिक्रिया।। ४. तत्त्वार्थ राजवार्तिक ६१८: सर्वसावधनिवृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया छेदोपस्थापनं प्रोक्तं, सर्वसावद्यवर्जने। एक व्रतं, भेदपरतंत्रच्छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधं व्रतम्। व्रतं हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मसंगेष्वसंगमः ।। ५. (क) मूलाचार, ७३६ : १०. चारित्रभक्ति, श्लोक ७: बावीसं तित्थयरा, सामाइयं संजमं उबदिसंति। तिम्रः सत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदयाः। छेदोवट्ठावणियं पुण, भयवं उसहो य वीरो य।। पंवेर्यादिसमाश्रयाः समितयः पंचव्रतानीत्यपि ।। (ख) आवश्यकनियुक्ति, १२४६ । चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्वं न दिष्टं परै६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६८ : एतच्च द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च, तोवर राचार परमेष्टिनो जिनपतेर्वीरान् नमामो वयम्।। Jain Education Intemational Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष मार्ग गति ४६३ श्रुतसागरसूरि ने संकल्प-विकल्प के त्याग को भी छेदोपस्थापनीय माना है।' छेदोपस्थापनीय के दो प्रकार होते हैं सातिचार और निरतिचार दोष सेवन करने वाले मुनि को पुनः महाव्रतों का आरोपण कराया जाता है, वह सातिचार-छेदोपस्थापनीय होता है । - शैक्ष ( नव दीक्षित) मुनि सामायिक चारित्र के पश्चात् अथवा एक तीर्थंकर के तीर्थ से दूसरे तीर्थंकर के तीर्थ में दीक्षित होने वाले मुनि, जो छेदोपस्थापनीय चारित्र स्वीकार करते हैं, वह निरतिचार होता है। (३) परिहार विशुद्धि ये दो प्रकार का होता है--निर्विशमानक और निर्विष्टकायिक । इसकी आराधना नौ साधु मिलकर करते हैं। इसका काल-मान अठारह मास का है। प्रथम छह माही में चार साधु तपस्या करते हैं, चार साधु सेवा करते हैं और एक वाचनाचार्य ( गुरुस्थानीय) रहता है। दूसरी छह माही में तपस्या करने वाले सेवा और सेवा करने वाले तपस्या में संलग्न हो जाते हैं। तीसरी छह माही में वाचनाचार्य तप करते हैं, एक साधु वाचनाचार्य हो जाता है, शेष सेवा में संलग्न होते हैं। तपस्या में संलग्न होते हैं वे 'निर्विशमानक' और जो कर चुकते हैं वे 'निर्विष्टकायिक' कहलाते हैं। उनकी तपस्या का क्रम इस प्रकार है- जघन्य (१) ग्रीष्म-उपवास (२) शिशिर - वेला (३) वर्षा - तेला मध्यम वेला तेला चौला उत्कृष्ट तेला मौला पंचीला १. तत्त्वार्थ, ६ १८ वृत्ति संकल्पविकल्पनिषेधो वा छेदोपस्थापना भवति । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६८ छेदः सातिचारस्य यतेर्निरतिचारस्रू वा शैक्षकस्य तीर्थान्तरसम्बन्धिनो वा तीर्थान्तरं प्रतिपद्यमानस्य पूर्वपर्यायव्यवच्छेदरूपस्तद्युक्तोपस्थापना महाव्रतारोपणरूपा यस्मिंस्तच्छेदोपस्थापनम् । ३. (क) स्थानांग ५।१३६, वृत्ति, पत्र ३०८ (ख) प्रवचनसारोद्धार, ६०२-६१०। ४. तत्त्वार्थ, ६ १८ वृत्ति परिहरणं परिहार: प्राणिवधनिवृत्तिरित्यर्थः । परिहारेण विशिष्टा शुद्धिः कर्ममलकलङ्कप्रक्षालनं यस्मिन् चारित्रे अध्ययन २८ : श्लोक ३२-३३ टि० २६ पारणा में आचामाम्ल (आम्ल रस के साथ एक अन्न व जल लेकर) तप किया जाता है। जो तप में संलग्न नहीं होते, वे सदा आचामाम्ल करते हैं। उनकी चारित्रिक विशुद्धि विशिष्ट होती है। परिहार का अर्थ 'तप' है। तप से विशेष शुद्धि प्राप्त की जाती है। श्रुतसागरसूरि ने परिवार का अर्थ 'प्राण वध की निवृत्ति' किया है। जिसमें अहिंसा की विशिष्ट साधना हो, वह परिहार- विशुद्धि चारित्र है। उनके अनुसार जिस मुनि की आयु बत्तीस वर्ष की हो, जो बहुत काल तक तीर्थंकरों के चरणों में रह चुका हो, प्रत्याख्यान नामक नवम पूर्व में कहे गए सम्यक् आचार को जानने वाला हो, प्रमाद रहित हो और तीनों संध्याओं को छोड़कर केवल दो गव्यूति (चार मील) गमन करने वाला हो, उस मुनि के परिहार- विशुद्धि चारित्र होता है। तीर्थंकर के पाद-मूल में रहने का काल वर्ष-पृथक्त्व (तीन वर्ष से अधिक और नौ वर्ष से कम) है। ४,५ सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात सामायिक या छेदोपस्थापनीय चारित्र की आराधना करते-करते क्रोध, मान और माया के अणु उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, लोभाणुओं का सूक्ष्म रूप में वेदन होता है, उस समय की चारित्र स्थिति को 'सूक्ष्म संपराय चारित्र' कहा जाता है।' चौदह गुण-स्थानों में सूक्ष्म संपराय नामक दसवां गुणस्थान यही है। जब क्रोध, मान, माया और लोभ सर्वथा उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, उस समय की चारित्र - स्थिति को 'यथाख्यात चारित्र' कहा जाता है। यह वीतराग चारित्र है । गुणस्थानों में यह चारित्र दो भागों में विभक्त हैं। 'उपशमात्मक यथाख्यात चारित्र' उपशान्त- मोह नामक ग्यारहवें और 'क्षयात्मक यथाख्यात चारित्र' क्षीण मोह नामक बारहवें आदि गुणस्थान में समाते हैं। तत्परिहार- विशुद्धि चारित्रमिति वा विग्रहः । तल्लक्षणं यथाद्वात्रिंशद्वर्षजातस्य बहुकालतीर्थकरपादसेविनः प्रत्याख्याननामधेयनवमपूर्वप्रोक्तसम्यगाचारवेदिनः प्रमादरहितस्य अतिपुष्कचर्यानुष्ठायिनस्तिनः सन्ध्या वर्जयित्वा द्विगव्यूतिगामिनो मुनेः परिहारविशुद्धिचारित्रं भवति । ... त्रिवर्षादुपरि नववर्षाभ्यन्तरे वर्ष पृथक्त्वमुच्यते । ५. बृहद्वृत्ति पत्र ५६८ : सूक्ष्मः किट्टीकरणतः संपर्येति पर्यटति अनेन संसारमिति संपरायो - लोभाख्यः कषायो यस्मिंस्तत्सूक्ष्मसम्परायम् । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणतीसइमं अज्झयणं सम्मत्तपरक्कमे उनतीसवां अध्ययन सम्यक्त्व-पराक्रम Jain Education Intemational Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अध्ययन का नाम 'सम्मत्तपरक्कमे''सम्यक्त्वपराक्रम' है। इससे सम्यक्त्व में पराक्रम करने की दिशा मिलती है, इसलिए यह 'सम्यक्त्व - पराक्रम' गुण- निष्पन्न नाम है। निर्युक्तिकार के अनुसार 'सम्यक्त्व- पराक्रम' आदि-पद में है, इसलिए इसका नाम 'सम्यक्त्व - पराक्रम' हुआ है।' उनके अभिमत में इसका गुण - निष्पन्न नाम 'अप्रमाद श्रुत' है। कुछ आचार्य इसे 'वीतराग - श्रुत' भी कहते हैं। ' प्रस्तुत अध्ययन में ७१ प्रश्न और उत्तर हैं। उनमें साधना-पद्धति का बहुत सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। साधना के सूत्रों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है १. संवेग ( २ ) * २. निर्वेद (३) ३. 9. धर्म - श्रद्धा ( ४ ) ४. शुश्रूषा सेवा (५), वैयावृत्त्य (४४) ५. आलोचना ( ६ ) ६. निन्दा ( ७ ) ७. गर्हा ( ८ ) ८. आवश्यक कर्म सामायिक (६), चतुर्विंशतिस्तव (१०), बन्दना (११) प्रतिक्रमण (१२), कायोत्सर्ग (१३), प्रत्याख्यान (१४), स्तव स्तुति (१५) ६. प्रायश्चित्त ( १७ ) १०. क्षमा-याचना (१८) ११. स्वाध्याय (१६) - याचना ( २० ), प्रतिप्रश्न (२१) परिवर्तना (२२), अनुप्रेक्षा (२३), धर्म - कथा (२४), श्रुताराधना (२५), काल प्रतिलेखना (१६) आमुख १२. मानसिक अनुशासन एकाग्र - मन- सन्निवेश (२६), मनो-गुप्ति (५४), मन- समाधारणता (५७), भाव- सत्यता (५१) १३. वाचिक अनुशासन- वचो - गुप्ति (५५), वचन - समाधारणता (५८) १४. कायिक अनुशासन करण- सत्यता (५२), काय गुप्ति (५६), चाय - - उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ५०३ : आयाणपएणेयं सम्मतपरक्कमंति अज्झयणं । २. वही, गाथा ५०६ : सम्मत्तमप्पमाओ, इहमज्झयणमि वण्णिओ जेणं । तम्हेयं अज्झयणं, णायव्यं अप्पमायसुअं ।। समाधारणता (५६) १५. योग - सत्य (५३) १६. कषाय-विजय- क्रोध - विजय (६८), मान - विजय (६६), माया - विजय (७०), लोभ-विजय (७१), धान्ति (७७), मुक्ति (४६) आर्जव (४९), मार्दव (५०) वीतरागता (४६), राग, द्वेष और मिथ्यादर्शन-विजय ( ७२ ) ४. ५. १७. सम्पन्नता सर्वगुण सम्पन्नता (४५), ज्ञान-सम्पन्नता (६०), दर्शन - सम्पन्न्ता (६१), चारित्र - सम्पन्नता (६२) १८. इन्द्रिय - निग्रह श्रोत्रेन्द्रिय - निग्रह (६३), चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह (६४), प्राणेन्द्रियनिग्रह (६५), रसनेन्द्रिय निग्रह (६६), स्पर्शनेन्द्रिय - निग्रह (६७) । १६. प्रत्याख्यान सम्भोज-प्रत्याख्यान (३४), उपधि- प्रत्याख्यान (३५), आहार - प्रत्याख्यान (३६), कषाय- प्रत्याख्यान (३७), योग - प्रत्याख्यान (३८), शरीर - प्रत्याख्यान (३६), सहाय- प्रत्याख्यान (४०), भक्त- प्रत्याख्यान ( ४१ ), सद्भाव - प्रत्याख्यान (४२) २०. संयम (२७) २१. तप (२१) २२. विशुद्धि (२६) २३. सुखासक्ति का त्याग (३०) २४. अप्रतिबद्धता (३१) २५. विविक्तशयनाशन (३२) २६. विनिवर्तना (३३) २७. प्रतिरूपता (४३) जिस प्रकार पातञ्जल योग दर्शन में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, ईश्वर-प्रणिधान, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और संयम के परिणाम बतलाए गए हैं, उसी प्रकार यहां संवेग आदि के परिणाम बतलाए गए हैं। संवेग के परिणाम : (१) अनुत्तर धर्म - श्रद्धा की प्राप्ति । ३. वही, गाथा ५०३ : - ..... एगे पुण वीयरागसुयं । कोष्ठकों के अन्दर के अंक सूत्र संख्या के सूचक हैं। पातञ्जल योग दर्शन २।३५-४३, ४५, ४७-४६, ५३, ५५ ३५, १६-५५। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि (२) अनुत्तर धर्म - श्रद्धा से तीव्र संवेग की प्राप्ति । (३) तीव्रतम (अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय । (४) मिथ्यात्व - कर्म का अपुनर्बन्ध । (५) मिथ्यात्व - विशुद्धि । (६) उसी जन्म में या तीसरे जन्म में मुक्ति । (सू० २) निर्वेद के परिणाम : (१) काम भोगों के प्रति अनासक्त-भाव । (२) इन्द्रियों के विषयों में विरक्ति । (३) आरम्भ - परित्याग । (४) संसार मार्ग का विच्छेद और मोक्ष मार्ग का स्वीकरण (सू० ३) धर्म- श्रद्धा के परिणाम : ४६६ (१) सुख-सुविधा के प्रति विरक्ति । (२) अनगार - धर्म का स्वीकरण । (३) छेदन - भेदन आदि शारीरिक और संयोग-वियोग आदि मानसिक दुःखों का उच्छेद । (४) निर्बाध सुख की प्राप्ति (सू० ४) गुरु और साधर्मिकों की सेवा के परिणाम : (१) विनय - प्रतिपत्ति-आवश्यक कर्त्तव्यों का पालन । (२) अनाशातनशीलता — गुरुजनों की अवज्ञा आदि से दूर रहने की मनोवृत्ति । (३) दुर्गति का निरोध । (४) गुण-ग्राहिता, गुण-प्रकाशन, भक्ति और बहुमान की मनोवृत्ति का विकास। (५) सुगति की ओर प्रयाण । (६) विनय - हेतुक ज्ञान आदि की प्राप्ति । (७) दूसरों को सेवा-धर्म में प्रवृत्त करना। (सू० ५) आलोचना के परिणाम : (१) आन्तरिक शल्यों की चिकित्सा । (२) सरल मनोभाव की विशेष उपलब्धि । (३) तीव्रतर विकारों से दूर रहने की क्षमता और पूर्व-संचित विकार के संस्कारों का विलय । (सू० ६) आत्म-निन्दा के परिणाम : (१) पश्चात्ताप - पूर्ण मनोभाव । (२) अभूतपूर्व विशुद्धि की परिणाम-धारा का प्रादुर्भाव (३) मोह का विलय (सू० ७) आत्म-गर्हा के परिणाम : (१) अपने लिए अवज्ञा पूर्ण वातावरण का निर्माण । (२) अप्रशस्त आचरण से निवृत्ति । (३) ज्ञान आदि के आवरण का विलय । (सू०८) सामायिक का परिणाम : अध्ययन २६ : आमुख (१) विषमता - पूर्ण मनोभाव (सावद्य प्रवृत्ति) की विरति । ( सू० ६) चतुर्विंशतिस्तव का परिणाम : (१) दर्शन की विशुद्धि । (सू० १०) वन्दना के परिणाम : (१) नीच गोत्र - कर्म का क्षय और उच्च गोत्र-कर्म का अर्जन । (२) सौभाग्य लोक-प्रियता । (३) अनुल्लंघनीय आज्ञा की प्राप्ति । (४) अनुकूल परिस्थिति (सू० ११) प्रतिक्रमण के परिणाम : (१) व्रत में होने वाले छेदों का निरोध । (२) चारित्र के धब्बों का परिमार्जन । (३) आठ प्रवचन - माताओं के प्रति जागरूकता । (४) अपृथक्त्व - संयमलीनता । (५) मानसिक निर्मलता । ( सू० १२ ) कायोत्सर्ग के परिणाम : (१) अतिचार का विशोधन । ( २ ) हृदय की स्वस्थता और भार हीनता । (३) प्रशस्त - ध्यान की उपलब्धि । (सू० १३) प्रत्याख्यान का परिणाम : (१) आश्रव निरोध ( सू० १४ ) स्तव स्तुति-मंगल के परिणाम : (१) बोधि-लाभ । (२) अन्त-क्रिया— मुक्ति । (३) स्वर्ग - गमन । ( सू० १५) काल-प्रतिलेखना का परिणाम : (१) ज्ञानावरण कर्म का विलय । (सू० १६ ) प्रायश्चित्तकरण के परिणाम : (१) पाप कर्म का विशोधन । (२) दोष - विशुद्धि । (३) मार्ग और मार्ग फल-ज्ञान की प्राप्ति । (४) आचार और आचार-फल- आत्म-स्वतंत्रता की आराधना । (सू० १६ ) क्षमा-याचना के परिणाम : (१) आह्लाद - पूर्ण मनोभाव । (२) सबके प्रति मैत्रीभाव । (३) मन की निर्मलता । (४) अभय। (सू० १८) स्वाध्याय का परिणाम : (१) ज्ञानावरण कर्म का विलय । ( सू० १६ ) वाचना-अध्यापन के परिणाम : (१) निर्जरा - संस्कार-क्षय । (२) श्रुत की अनाशातना - ज्ञान का विनय । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-पराक्रम (३) तीर्थ धर्म का अवलम्बन-धर्म-परम्परा की अविच्छिन्नता । (४) चरम साध्य की उपलब्धि । (सू० २०) प्रतिप्रश्न के परिणाम : (१) सूत्र, अर्थ और तदुभय की विशुद्धि - संशय, विपर्यय आदि का निराकरण । (२) काङ्क्षा मोहनीय कर्म का विच्छेद (सू० २१) परावर्त्तन के परिणाम : (१) स्मृत की पुष्टि और विस्मृत की याद । (२) व्यंजन - लब्धि — पदानुसारिणी बुद्धि का विकास । (सू० २२) अनुप्रेक्षा के परिणाम : (१) दृढ़ कर्म का शिथिलीकरण, दीर्घकालीन कर्म-स्थिति का संक्षेपीकरण और तीव्र अनुभाव का मन्दीकरण । (२) असातवेदनीय कर्म का अनुपचय । (३) संसार से शीघ्र मुक्ति (सू० २३) धर्म-कथा के परिणाम : (१) निर्जरा । (२) प्रवचन- धर्म - शासन की प्रभावना । (३) कुशल कर्मों का अर्जन (सू० २४) श्रुताराधना के परिणाम : (१) अज्ञान का क्षय । (२) क्लेश - हानि । ( सू० २४ ) मन को एकाग्र करने का परिणाम : (१) चित्त निरोध (सू० २६) संयम का परिणाम : ४६७ (१) अनाश्रव-आश्रव-निरोध। (सू० २७) तप का परिणाम : (१) व्यवदान - कर्म-निर्जरा (०२०) व्यवदान के परिणाम : (१) अक्रिया — प्रवृत्ति निरोध । (२) सर्व दुःख मुक्ति (सू० २६) सुख-स्पृहा त्यागने के परिणाम : (१) अनुत्सुक मनोभाव । (२) अनुकम्पा पूर्ण मनोभाव । (३) प्रशांतता । 1 ( ४ ) शोक - रहित मनोभाव (५) चारित्र को विकृत करने वाले मोह का विलय । (सू० ३०) अप्रतिबद्धता मानसिक अनासक्ति के परिणाम : (१) निःसंगता - निर्लेपता । (२) चित्त की एकाग्रता । (३) प्रतिपल अनासक्ति (सू० ३१ ) अध्ययन २६ : आमुख विविक्त शयनासन के परिणाम : (१) चारित्र की सुरक्षा । (२) विविक्त- आहार-विकृति-रहित भोजन । (३) निस्पृहता। (४) एकांत रमण । (५) कर्म - ग्रन्थि का मोक्ष । (सू० ३२ ) विनिवर्त्तना --- विषयों से मन को संहृत करने के परिणाम : (१) पापाचरण के प्रति अनुत्साह । (२) अशुभ संस्कारों के विलय का प्रयत्न । (३) संसार की पार - प्राप्ति । (सू० ३३) संभोज (मंडली - भोजन) प्रत्याख्यान के परिणाम : (१) परावलम्बन से मुक्ति । (२) प्रवृत्तियों का मोक्ष की ओर केन्द्रीकरण । (३) अपने लाभ में सन्तुष्टि और परलाभ की ओर निस्पृहता । (४) दूसरी सुख - शय्या की प्राप्ति । (सू० ३४ ) उपधि- प्रत्याख्यान के परिणाम : (१) प्रतिलेखना आदि के द्वारा होने वाली स्वाध्याय की क्षति से बचाव । ( २ ) वस्त्र की अभिलाषा से मुक्ति । (३) उपधि के बिना होने वाले संक्लेश का अभाव । (सू० ३५) आहार- प्रत्याख्यान के परिणाम : (१) जीने के मोह से मुक्ति । (२) आहार के बिना होने वाले संक्लेश का अभाव (सू० ३६) कषाय- प्रत्याख्यान के परिणाम : (१) वीतरागता । ( २ ) सुख - दुःख में सम रहने की स्थिति की उपलब्धि । (सू० ३७) योग-प्रत्याख्यान के परिणाम : (१) स्थिरता । (२) नवीन कर्म का अग्रहण और पूर्वार्जित कर्म का विलय । (सू० ३८) शरीर- प्रत्याख्यान के परिणाम : (१) आत्मा का पूर्णोदय । (२) लोकाग्र स्थिति । (३) परम सुख की प्राप्ति । (सू० ३६ ) सहाय- प्रत्याख्यान के परिणाम : (१) अकेलेपन की प्राप्ति । (२) कलह आदि से मुक्ति । (३) संयम, संवर और समाधि की विशिष्ट उपलब्धि । ( सू० ४० ) भक्त-प्रत्याख्यान, अनशन का परिणाम : Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४६८ अध्ययन २६ : आमुख (१) जन्म-परम्परा का अल्पीकरण। (सू० ४१) सद्भावना-प्रत्याख्यान--पूर्ण संवर के परिणाम : (१) अनिवृत्ति-मन-वचन और काया की प्रवृत्ति का सर्वथा और सर्वदा अभाव। (२) अघाति-कर्म का विलय। (३) सर्व दुःख-मुक्ति। (सू० ४२) प्रतिरूपता--अचेलकता के परिणाम : (१) लाघव। (२) अप्रमाद। (३) प्रकट लिंग होना। (४) प्रशस्त लिंग होना। (५) विशुद्ध सम्यक्त्व। (६) सत्त्व और समिति को प्राप्त करना। (७) सर्वत्र विश्वसनीय होना। (८) अप्रतिलेखना। (६) जितेन्द्रियता। (१०) विपुल तप सहित होना–परीषह-सहिष्णु होना। (सू० ४३) वैयावृत्त्य का परिणाम : (१) धर्म-शासन के सर्वोच्च पद तीर्थंकरत्व की प्राप्ति। (सू० ४४) सर्व-गुण सम्पन्नता के परिणाम : (१) अपुनरावृत्ति-मोक्ष की प्राप्ति। (२) शारीरिक और मानसिक दुःखों से पूर्ण मुक्ति। (सू० ४५) वीतरागता के परिणाम : (१) स्नेह और तृष्णा के बन्धन का विच्छेद। (२) प्रिय शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों में विरक्ति। (सू० ४६) क्षांति-सहिष्णुता का परिणाम : (१) परीषह-विजय। (सू० ४७) मुक्ति के परिणाम : (१) आकिंचन्य। (२) अर्थ-लुब्ध व्यक्तियों के द्वारा अस्पृहणीयता। (सू०४८) ऋजुता के परिणाम : (१) काया की सरलता। (२) भावों की सरलता। (३) भाषा की सरलता। (४) अविसंवादन–अवंचना-वृत्ति। (सू० ४६) मृदुता के परिणाम : (१) अनुद्धत मनोभाव। (२) आठ मद-स्थानों पर विजय। (सू० ५०) भाव-सत्य के परिणाम : (१) भाव-विशुद्धि। (२) अर्हद्-धर्म की आराधना। (३) परलोक धर्म की आराधना। (सू०५१) करण-सत्य के परिणाम : (१) कार्यजा-शक्ति की प्राप्ति। (२) कथनी और करनी का सामंजस्य। (सू० ५२) योग-सत्य का परिणाम : (१) मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति की _ विशुद्धि। (सू० ५३) मनो-गुप्ति के परिणाम : (१) एकाग्रता। (२) संयम की आराधना। (सू० ५४) वचन-गुप्ति के परिणाम : (१) विकार-शून्यता या विचार-शून्यता। (२) अध्यात्म-योग और ध्यान की प्राप्ति। (सू०५५) काय-गुप्ति के परिणाम : (१) संवर (२) पापाश्रव का निरोध । (सू० ५६) मन-समाधारणा के परिणाम : (१) एकाग्रता। (२) ज्ञान की विशिष्ट क्षमता। (३) सम्यक्त्व की विशुद्धि और मिथ्यात्व का क्षय। (सू०५७) वचन-समाधारणा के परिणाम : (१) वाचिक सम्यग-दर्शन की विशुद्धि। (२) सुलभ-बोधिता की प्राप्ति और दुर्लभ-बोधिता का क्षय। (सू० ५८) काय-समाधारणा के परिणाम : (१) चारित्र-विशुद्धि। (२) वीतराग-चारित्र की प्राप्ति। (३) भवोपग्राही कर्मों का क्षय। (४) सर्व-दुःखों से मुक्ति। (सू० ५६) ज्ञान-सम्पन्नता के परिणाम : (१) पदार्थ-बोध। (२) पारगामिता। (३) विशिष्ट विनय आदि की प्राप्ति। (४) प्रामाणिकता। (सू० ६०) दर्शन-सम्पन्नता के परिणाम : (१) भव-मिथ्यात्व का छेदन। (२) सतत प्रकाश। (३) ज्ञान और दर्शन की उत्तरोत्तर विशुद्धि। (सू०६१) चारित्र-सम्पन्नता के परिणाम : (१) अप्रकम्प-दशा की प्राप्ति। (२) भवोपग्राही कर्मों का विलय। Jain Education Intemational Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ४६९ (३) मुक्ति (सू० ६२) श्रोत्रेन्द्रिय निग्रह के परिणाम : (१) प्रिय और अप्रिय शब्दों में राग और द्वेष का निग्रह ! (२) शब्द हेतुक नए कर्म का अग्रहण और पूर्व संचित कर्म का क्षय । (सू० ६३) चक्षुरिन्द्रिय - निग्रह के परिणाम : (१) प्रिय और अप्रिय रूपों में राग और द्वेष का निग्रह | (२) रूप- हेतुक नए कर्म का अग्रहण और पूर्व संचित कर्म का क्षय । (सू० ६४ ) घ्राणेन्द्रिय निग्रह के परिणाम : (१) प्रिय और अप्रिय गंधों में राग और द्वेष का निग्रह | (२) गंध हेतुक नए कर्म का अग्रहण और पूर्व संचित कर्म का क्षय । (सू० ६५) रसनेन्द्रिय - निग्रह के परिणाम : (१) प्रिय और अप्रिय रसों में राग और द्वेष का निग्रह | (२) रस हेतुक नए कर्म का अग्रहण और पूर्व संचित कर्म का क्षय । ( सू० ६६) स्पर्शनेन्द्रिय - निग्रह के परिणाम : (१) प्रिय और अप्रिय स्पर्शो में राग और द्वेष का अध्ययन २६ : आमुख निग्रह | (२) स्पर्श - हेतुक नए कर्म का अग्रहण और पूर्व संचित कर्म का क्षय । (सू० ६७) क्रोध - विजय के परिणाम : (१) क्षमा । (२) क्रोध - वेदनीय कर्म का अग्रहण और पूर्व संचित क्रोध - वेदनीय कर्म का विलय । (सू०६८) मान- विजय के परिणाम : (१) मार्दव। (२) मान - वेदनीय कर्म का अग्रहण और पूर्व संचित मान- वेदनीय कर्म का विलय । (सू० ६६) माया- विजय के परिणाम : (१) आर्जव । (२) माया - वेदनीय कर्म का अग्रहण और पूर्व संचित माया-वेदनीय कर्म का विलय । (सू०७०) लोभ- विजय के परिणाम : (१) सन्तोष (२) लोभ - वेदनीय कर्म का अग्रहण और पूर्व संचित लोभ-वेदनीय कर्म का विलय । (सू० ७१) प्रेम, द्वेष और मिथ्या दर्शन विजय के परिणाम : (१) ज्ञान, दर्शन और चारित्र - आराधना की तत्परता । (२) मुक्ति (सू० ७२) Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल १. सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नाम अज्झयणे समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए, जं सम्मं सद्दहित्ता पत्तियाइत्ता रोयइत्ता फासइत्ता पालइत्ता तीरइत्ता किड्डत्ता सोहइत्ता आराहइत्ता आणाए अणुपालइत्ता बहवे जीवा सिद्धांत बुज्नति मुच्यति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । तस्स णं अयमट्ठे एवमाहिज्जइ तं जहा संवेगे १ निव्वेए २ एगूणतीसइमं अज्झयणं उनतीसवां अध्ययन सम्मत्तपरक्कमे : सम्यक्त्व-पराक्रम धम्मसद्धा ३ गुरुसाहम्मियसुस्सूसणया ४ आलोयणया ५ निंदणया ६ गरहणया ७ सामाइए ८ चउव्वीसत्थ वंदणए १० पडिक्कमणे ११ काउस्सग्गे १२ पच्चक्खाणे १३ थवथुइमंगले १४ कालपडिलेहणया १५ पायच्छित्तकरणे १६ खमावणया १७ सज्झाए १८ वायणया १६ पडिपुच्छणया २० परिचणया २१ अणुप्पेहा २२ संस्कृत छाया श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवतैवमाख्यातम् इह खलु सम्यक्वपराक्रमं नामाध्ययनं श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदितम्, यत् सम्यक् श्रद्धाय, प्रतीत्य, रोचयित्वा स्पृष्ट्वा, पालयित्वा, तीरयित्वा, कीर्तयित्वा, शोधयित्वा, आराध्य आज्ञया अनुपाल्य बहवो जीवा सिध्यन्ति, 'मुज्झति' मुख्यन्ते, परिनियन्ति, सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति । तस्य अयमर्थः एवमाख्यायते, तद् यथा संवेग: 9 निर्वेदः २ धर्मश्रद्धा ३ गुरुसाधर्मिकशुश्रूषणम् आलोचनम् ५ निन्दनम् ६ गर्हणम् ७ सामायिकम्प चतुर्विंशतिस्तवः ६ वन्दनम् १० प्रतिक्रमणम् ११ कायोत्सर्गः १२ प्रत्याख्यानम् १३ स्तवस्तुतिमङ्गलम् १४ कालप्रतिलेखनम् १५ प्रायश्चित्तकरणम् १६ क्षमापनम् १७ स्वाध्यायः १८ वाचनम् १६ प्रतिप्रच्छनम् २० परिवर्तनम् २१ अनुप्रेक्षा २२ हिन्दी अनुवाद आयुष्मन् ! मैंने सुना है भगवान् ने इस प्रकार कहा है— इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में कश्यप गोत्री श्रमण भगवान् महावीर ने सम्यक्त्व - पराक्रम नाम का अध्ययन कहा है, जिस पर भलीभांति श्रद्धा कर, प्रतीति कर, रुचि रख कर, जिसके विषय का स्पर्श करे, स्मृति में रख कर, समग्ररूप में हस्तगत कर गुरु को पठित पाठ का निवेदन कर, गुरु के समीप उच्चारण की शुद्धि कर, सही अर्थ का बोध प्राप्त कर और अर्हत की आज्ञा के अनुसार अनुपालन कर बहुत जीव सिद्ध होते हैं, प्रशांत होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वृत होते हैं और सब दुःखों का अन्त करते हैं। सम्यक्त्व - पराक्रम का अर्थ इस प्रकार कहा गया है। जैसे— संवेग १ निर्वेद २ धर्मश्रद्धा ३ गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा ४ आलोचना ५ निन्दा ६ गर्दा ७ सामायिक प चतुर्विंशतिस्तव ६ वन्दन १० प्रतिक्रमण ११ कायोत्सर्ग १२ प्रत्याख्यान १३ स्तवस्तुतिमंगल १४ कालप्रतिलेखन १५ प्रायश्चित्तकरण १६ क्षामणा १७ स्वाध्याय १८ वाचना १६ प्रतिप्रच्छना २० परावर्त्तना २१ अनुप्रेक्षा २२ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ४७१ अध्ययन २६: सूत्र १ धम्मकहा २३ सुयरस आराहणया २४। एगग्गमणसन्निवेसणया २५ संजमे २६ तवे २७ वोदाणे २८ सुहसाए २६ अप्पडिबद्धया ३० विवित्तसयणासणसेवणया ३१ विणियट्टणया ३२ संभोगपच्चक्खाणे ३३ उवहिपच्चक्खाणे ३४ आहारपच्चक्खाणे ३५ कसायपच्चक्खाणे ३६ जोगपच्चक्खाणे ३७ सरीरपच्चक्खाणे ३८ सहायपच्चक्खाणे ३६ भत्तपच्चक्खाणे ४० सब्भावपच्चक्खाणे ४१ पडिरूवया ४२ वेयावच्चे ४३ सव्वगुणसंपण्णया ४४ वीयरागया ४५ खंती ४६ मुत्ती ४७ अज्जवे ४८ मद्दवे ४६ भावसच्चे ५० करणसच्चे ५१ जोगसच्चे ५२ मणगुत्तया ५३ वइगुत्तया ५४ कायगुत्तया ५५ मणसमाधारणया ५६ वयसमाधारणया ५७ कायसमाधारणया ५८ नाणसंपन्नया ५६ दंसणसंपन्नया ६० चरित्तसंपन्नया ६१ सोइंदियनिग्गहे ६२ चक्खिदियनिग्गहे ६३ घाणिंदियनिग्गहे ६४ जिभिदियनिग्गहे ६५ धर्मकथा २३ श्रुतस्य आराधना २४ एकाग्रमनःसन्निवेशनम् २५ संयम: २६ तपः २७ व्यवदानम् २८ सुख-शातम् २६ अप्रतिवद्धता ३० विविक्तशयनासनसेवनम् ३१ विनिवर्तनम् ३२ सम्भोजप्रत्याख्यानम् ३३ उपधिप्रत्याख्यानम् ३४ आहारप्रत्याख्यानम् ३५ कषायप्रत्याख्यानम् ३६ योगप्रत्याख्यानम् ३७ शरीरप्रत्याख्यानम् ३८ सहायप्रत्याख्यानम् ३६ भक्तप्रत्याख्यानम् ४० सदभावप्रत्याख्यानम् ४१ प्रतिरूपता ४२ वैयावृत्त्यम् ४३ सर्वगुणसम्पन्नता ४४ वीतरागता ४५ क्षान्तिः ४६ मुक्ति: ४७ आर्जवम् ४८ मार्दवम ४६ भावसत्यम् ५० करणसत्यम् ५१ योगसत्यम् ५२ मनोगुप्तता ५३ वचोगुप्तता ५४ कायगुप्तता ५५ मनःसमाधारणम् ५६ वाक्समाधारणम् ५७ कायसमाधारणम् ५८ ज्ञानसम्पन्नता ५६ दर्शनसम्पन्नता ६० चरित्रसम्पन्नता ६१ श्रोत्रेन्द्रियनिग्रहः ६२ चक्षुरिन्द्रियनिग्रहः ६३ घाणेन्द्रियनिग्रहः ६४ जिहेन्द्रियनिग्रहः ६५ धर्मकथा २३ श्रुताराधना २४ एकाग्रमन की स्थापना २५ संयम २६ तप २७ व्यवदान २८ सुख की स्पृहा का त्याग २६ अप्रतिवद्धता ३० विविक्तशयनासनसेवन ३१ विनिवर्त्तना ३२ सम्भोजप्रत्याख्यान ३३ उपधिप्रत्याख्यान ३४ आहारप्रत्याख्यान ३५ कपायप्रत्याख्यान ३६ योगप्रत्याख्यान ३७ शरीरप्रत्याख्यान ३८ सहायप्रत्याख्यान ३६ भक्तप्रत्याख्यान ४० सद्भावप्रत्याख्यान ४१ प्रतिरूपता ४२ वैयावृत्त्य ४३ सर्वगुणसम्पन्नता ४४ वीतरागता ४५ क्षांति ४६ मुक्ति ४७ आर्जव ४८ मार्दव ४६ भावसत्य ५० करणसत्य ५१ योगसत्य ५२ मनोगुप्तता ५३ वाक्गुप्तता ५४ कायगुप्तता ५५ मनःसमाधारणा ५६ वाक्समाधारणा ५७ कायसमाधारणा ५८ ज्ञानसम्पन्नता ५६ दर्शनसम्पन्नता ६० चारित्रसम्पन्नता ६१ श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह ६२ चक्षुरिन्द्रियनिग्रह ६३ घ्राणेन्द्रियनिग्रह ६४ जिहेन्द्रियनिग्रह ६५ Jain Education Intemational Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४७२ अध्ययन २६ : सूत्र २-४ फासिंदियनिग्गहे ६६ कोहविजए ६७ माणविजए ६८ मायाविजए ६६ लोहविजए ७० पेज्जदोसमिच्छादसणविजए ७१ सेलेसी ७२ अकम्मया ७३ स्पर्शेन्द्रियनिग्रहः ६६ क्रोधविजयः ६७ मानविजयः ६८ मायाविजयः ६६ लोभविजयः ७० प्रेयोदोषमिथ्यादर्शनविजयः ७१ शैलेशी ७२ अकर्मता ७३ स्पर्शनेन्द्रियनिग्रह ६६ क्रोधविजय ६७ मानविजय ६८ मायाविजय ६६ लोभविजय ७० प्रेयोद्वेषमिथ्यादर्शनविजय ७१ शैलेशी ७२ अकर्मता ७३ २. संवेगेणं भंते ! जीवे किं संवेगेन भदन्त ! जीवः किं भंते ! संवेग (मोक्ष की अभिलाषा) से जीव क्या जणयइ? जनयति? प्राप्त करता है? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं संवेगेनानुत्तरां धर्मश्रद्धा संवेग से वह अनुत्तर धर्म-श्रद्धा को प्राप्त जनयति। अनुत्तरया धर्मश्रद्धया होता है। अनुत्तर धर्म-श्रद्धा से तीव्र संवेग को प्राप्त संवेगं हव्वमागच्छइ, अणंताणु- संवेगं शीघमागच्छति, अनन्तानु- करता है, अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया और बंधिकोहमाणमायालोभे खवेइ, बन्धि क्रोधमानमायालोभान् क्षपयति, लोभ का क्षय करता है, नये कर्मों का संग्रह नहीं कम्मं न बंधइ, तप्पच्चइयं च कर्म न बध्नाति, तत् प्रत्ययिकां च करता, कषाय के क्षीण होने से प्रकट होने वाली णं मिच्छत्तविसोहिं काऊण मिथ्यात्वविशोधिं कृत्वा दर्शनाराधको मिथ्यात्वविशुद्धि कर दर्शन (सम्यक् श्रद्धान) की दंसणाराहए भवइ । दंसणविसो- भवति। दर्शनविशोध्या च विशु- आराधना करता है। दर्शन-विशोधि के विशुद्ध होने हीए य णं विसद्धाए अत्थेगइए द्धोऽस्त्येककः तेनैव भवग्रहणेन पर कई एक जीव उसी जन्म से सिद्ध हो जाते हैं तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ। सिध्यति। विशोध्या च विशुद्धः और कुछ उसके विशुद्ध होने पर तीसरे जन्म का सोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं तृतीय पुनर्भवग्रहणं नातिकामति।। अतिक्रमण नहीं करते-उसमें अवश्य ही सिद्ध हो पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ।। जाते हैं। ३. निव्वेएणं भंते ! जीवे कि निवेदेन भदन्त ! जीवः किं भंते ! निर्वेद (भव-वैराग्य) से जीव क्या प्राप्त करता जणयइ? जनयति? निव्वेएणं दिव्वमाणुसतेरिच्छिएसु निवेदेन दिव्यमानुषतैरश्च- निर्वेद से बह देव, मनुष्य और तिर्यंच संबंधी कामभोगेसु निव्वेयं हव्वमागच्छइ, केषु कामभोगेपु निवेदं शीघमा- काम-भोगों में तीव्र ग्लानि को प्राप्त होता है, सब सव्वविसएसु विरज्जइ। सव्व- गच्छति, सर्वविषयेषु विरज्यति। विषयों में विरक्त हो जाता है। सव विषयों से विरक्त विसएस विरज्जमाणे आरंभ- सर्वविषयेषु विरज्यमानः आरम्भ- होता हुआ वह आरम्भ का परित्याग करता है। परिच्चायं करेड। आरंभ- परित्यागं करोति। आरम्भ परित्यागं आरम्भ का परित्याग करता हुआ संसारमार्ग का परिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं कुर्वाण: संसारमार्ग व्युच्छिनत्ति, विच्छेद करता है और सिद्धि-मार्ग को प्राप्त होता है।" वोच्छिदइ, सिद्धिमग्गे पडिवन्ने सिद्धिमार्ग प्रतिपन्नश्च भवति।। य भवइ।। ४. धम्मसद्धाए णं भंते ! जीवे किं धर्मश्रद्धया भदन्त ! जीवः भंते! धर्मश्रद्धा से जीव क्या प्राप्त करता है? जणवइ? किं जनयति? धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु धर्मश्रद्धया सातसौख्येषु धर्मश्रद्धा से वह वैषयिक सुखों की आसक्ति रज्जमाणे विरज्जइ, अगारधम्म रज्यमानः विरज्यति, अगारधर्म को छोड़ विरक्त हो जाता है, अगार-धर्म-गृहस्थी' च णं चयइ। अणगारे णं जीवे च त्यजति। अनगारो जीवः को त्याग देता है। वह अनगार होकर छेदन-भेदन सारीरमाणसाणं दुक्खाणं शरीरमानसानां दुःखानां छेदनभेदन आदि शारीरिक दु:खों तथा संयोग-वियोग आदि छेयणभेयणसंजोगाईणं वोच्छेयं संयोगादीनां व्युच्छेदं करोति मानसिक दुःखों का विच्छेद करता है और निर्बाध (बाधा-रहित) सुख को प्राप्त करता है। करेइ अव्वाबाहं च सुहं निव्वत्तेइ।। अव्यावाधं च सुखं निवर्तयति।। Jain Education Intemational Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व- पराक्रम ५. गुरुसाहम्मियसुस्सूसणवाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए गं विणयपडिवत्तिं जणयइ। विणयपडिवन्ने य णं जीवे अणच्चासायणसीले नेरइयतिरिक्खजो नियमणुस्सदेवदोग्गईओ निरुभइ, वण्णसं जलणभत्तिबहुमाणयाए मणुस्सदेवसोग्गाईओ निबंध, सिद्धिं सोग्गदं च विसोहेद पसत्थाई च णं विणयमूलाई सव्वकज्जाई साहेइ । अन्ने य बहवे जीवे विणइत्ता भवइ ।। ६. आलोयणाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? आलोयणाए णं मायानियाणमिच्छादंसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणं अनंतसंसारवद्भणाणं उद्धरणं करेइ, उज्जुभावं च जय । उज्जुभावपडिवन्ने य णं जीवे अमाई इत्थीवेयनपुंसगवेयं च न बंधइ पुव्वबद्धं च णं निज्जरेइ || ७. निंदणवाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? निंदणयाए णं पच्छातावं जणयइ । पच्छातावेणं विरज्जमाणे करणगुणसेकि पडिवञ्जइ । करणगुणसेढिं पडिवन्ने य णं अणगारे मोहणि कम्म उग्घाएइ ।। ८. गरहणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? गरहणयाए णं अपुरक्कारं जणयइ । अपुरक्कारगए णं जीवे अप्पसत्येहिंतो जोगेहिंतो नियत्तेइ । पसत्थजोगपडिवन्ने य णं अणगारे अनंतघाइपज्जवे खवेइ || ४७३ गुरुसाधार्मिकशुश्रूषणया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? गुरुसाधर्मिकशुश्रूषणया विनयप्रतिपत्तिं जनयति । विनयप्रतिपन्नश्च जीवः अनत्याशातनशीलो नैरकितिर्यग्योनिकमनुष्यदेवदुर्गती निरुणद्धि, वर्णसंञ्चल नभक्तिबहुनिरुपछि वर्णसंचलनभक्तिव मानेन मनुष्यदेवसुमती निबरनाति, सिद्धिं सुगतिं च विशोधयति । प्रशस्तानि च विनयमूलानि सर्वकार्याणि साधयति । अन्यांश्च बहून् जीवान् विनेता भवति ।। आलोचनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? आलोचनया मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यानां मोक्षमार्गविध्नानामनन्तसंसारवर्द्धनानामुद्धरणं करोति, ऋजुभावं च जनयति । प्रतिपन्नर्जुभावश्च जीवोऽमायी स्त्रीवेदं नपुंसक वेदं च न बध्नाति पूर्वबद्धं च निर्जरयति ।। निन्दनेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? निन्दनेन पश्चादनुतापं जनयति । पश्चादनुतापेन विरज्यमानः करणगुणश्रेणिं प्रतिपद्यते । करणगुणश्रेणिं प्रतिपन्नश्चानगारो मोहनीय कर्मोदयातयति. अध्ययन २६ : सूत्र ५-८ भंते! गुरु और साधर्मिक (समान आचार और समान सामाचारी वाला मुनि) की शुश्रूषा (पर्युपासना) से जीव क्या प्राप्त करता है ? गर्हणेनापुरस्कार जनयति । अपुरस्कारगतो जीवोऽप्रशस्तेभ्यो योगेभ्यो निवर्तते । प्रतिपन्नप्रशस्तयोगश्च अनगारो ऽनन्तघातिपर्यवान् क्षपयति ।। गुरु और साधर्मिक की शुश्रूपा से वह विनय को प्राप्त होता है। विनय को प्राप्त करने वाला व्यक्ति गुरु का अविनय या परिवाद करने वाला नहीं होता, इसलिए वह नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति का निरोध करता है। गुरु की श्लाघा, गुण- प्रकाशन, भक्ति और बहुमान के द्वारा मनुष्य और देव - सम्बन्धी सुगति से सम्बन्ध जोड़ता है तथा सिद्धि सुगति का मार्ग प्रशस्त करता है । वह विनय-मूलक सब प्रशस्त कार्यों को सिद्ध करता है और दूसरे बहुत व्यक्तियों को विनय के पथ पर ले आता है 1 भंते! आलोचना ( गुरु के सम्मुख अपनी भूलों का निवेदन करने) से जीव क्या प्राप्त करता है ? आलोचना से वह अनन्त संसार को बढ़ाने वाले, मोक्ष मार्ग में विघ्न उत्पन्न करने वाले, माया, निदान तथा मिथ्या दर्शन- शल्य को निकाल फेंकता है और ऋजु भाव को प्राप्त होता है। ऋजु-भाव को प्राप्त हुआ व्यक्ति अमायी होता है, इसलिए वह स्त्री वेद और नपुंसक वेद कर्म का बन्ध नहीं करता और यदि वे पहले वन्धे हुए हों तो उनका क्षय कर देता है। भंते ! निन्दा (अपनी भूलों के प्रति अनादर का भाव प्रकट करने) से जीव क्या प्राप्त करता है ? 1 निन्दा से वह पश्चात्ताप को प्राप्त होता है उसके द्वारा विरक्त होता हुआ मोह को क्षीण करने में समर्थ परिणाम धारा-करण गुणश्रेणी (क्षपक श्रेणी) को " प्राप्त करता है। वैसी परिणाम-धारा को प्राप्त हुआ अनगार मोहनीय कर्म को क्षीण कर देता है। गर्हणेन भदन्त ! जीवः किं भंते! गर्हा ( दूसरों के समक्ष अपनी भूलों को प्रकट जनयति ? करने से ) से जीव क्या प्राप्त करता है ? ग से वह अनादर को प्राप्त होता है। अनादर को प्राप्त हुआ वह अप्रशस्त प्रवृत्तियों से निवृत्त होता है और प्रशस्त प्रवृत्तियों को अंगीकार करता है। वैसा अनगार आत्मा के अनन्त - विकास का घात करने वाले ज्ञानावरण आदि कर्मों की परिणतियों को क्षीण करता है। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६. सामाइएणं भंते! जीवे किं जणयइ ? सामाइएणं सावज्जजोगविरइं जणयइ ।। १०. चउव्वीसत्थएवं भंते जीये कि जणयइ ? चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहिं जणयइ || ११. वंदणएणं भंते! जीवे किं जणयइ ? वंदनएणं नीयागोय कम्म खवेद, उच्चगोयं निबंधइ । सोहग्गं च णं अपsिहयं आणाफलं निव्वतेइ, दाहिणभावं च णं जणयइ ।। १२. पडिक्कमणेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? पडिक्कमणेणं वयछिद्दाइ पिहेइ । पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरिते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ | १३. काउस्सग्गेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? काउस्सग्गेण ती पडुप्पन्न पायच्छितं विसोहेड़ विसुद्धपायच्छिते य जीवे निव्बुबहियए ओहरियभारी व भारवहे पसत्थज्झाणीवगए सुहंसुहेण विहरइ || १४. पच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? पच्चक्खाणेणं आसवदाराई निरुभइ ।। ४७४ सामायिकेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? सामायिकेन सावद्ययोगविरतिं जनयति ।। चतुर्विंशतिस्तयेन दर्शनधिशोधिं जनयति ।। चतुर्विंशतिस्तवेन भवन्त ! भंते! चतुर्विंशतिस्तव (चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? जीवः किं जनयति ? वन्दनकेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? वन्दनकेन नीचगोत्रं कर्म क्षपयति, उच्चगोत्रं निबध्नाति । सौभाग्यं चाऽप्रतिहतं आज्ञाफलं निर्वर्तयति, दक्षिणभांवं च जनयति ।। प्रतिक्रमणेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? प्रतिक्रमणेन व्रतच्छिद्राणि पिदधाति । पिहितव्र तच्छिद्र : पुनर्जीवो निरुखा वो बलचरित्रः अष्टसु प्रवचनमातृषु उपयुक्तो ऽपृथक्त्वः सुप्रणिहितो विहरति ।। कायोत्सर्गेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ? कायोत्सर्गेण अतीतप्रत्युत्पन्नं प्रायश्चित्तं विशोधयति । विशुद्धप्रायश्चित्तश्च जीवो निर्वृत हृदयो ऽपहृतभार इव भारवहः प्रशस्तव्यानोपगतः सुखं सुखेन विहरति ।। प्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? प्रत्याख्यानेनाश्रवद्वाराणि अध्ययन २६ : सूत्र ६-१४ भंते ! सामायिक (समभाव की साधना) से जीव क्या प्राप्त करता है ? निरुणद्धि ।। सामायिक से वह असत् प्रवृत्ति की विरति" को प्राप्त होता है । चतुविशति स्तव से यह दर्शन ( दर्शनाचार) की विशुद्धि को प्राप्त होता है। भंते! वन्दना से जीव क्या प्राप्त करता है ? वन्दना से वह नीच कुल में उत्पन्न करने वाले कर्मों को क्षीण करता है, ऊंचे-कुल में उत्पन्न होने वाले कर्म का अर्जन करता है। जिसकी आज्ञा को लोग शिरोधार्य करें वैसा अवाधित सौभाग्य और जनता की अनुकूल भावना को प्राप्त होता है। भंते! प्रतिक्रमण से जीव क्या प्राप्त करता है ? प्रतिक्रमण से " वह व्रत के छेदों को ढंक देता है। जिसने व्रत के छेदों को भर दिया वैसा जीव आश्रवों को रोक देता है, चारित्र के धब्बों को मिटा देता है, आठ प्रवचन माताओं में सावधान हो जाता है, संयम में एकरस हो जाता है और भलीभांति समाधिस्थ होकर विहार करता है। भंते! कायोत्सर्ग से जीव क्या प्राप्त करता है ? कायोत्सर्ग से वह अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित्तोचित कार्यों का विशोधन करता है। ऐसा करने वाला व्यक्ति भार को नीचे रख देने वाले भार वाहक की भांति स्वस्थ हृदय वाला-हल्का हो जाता है और प्रशस्त ध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विहार करता है। भंते! प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? प्रत्याख्यान से वह आश्रव द्वारों (कर्म-वन्धन के हेतुओं) का निरोध करता है। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ४७५ अध्ययन २६ : सूत्र १५-२० १५. थवथुइमंगलेणं भंते ! जीवे किं स्तवस्तुतिमङ्गलेन भदन्त ! भंते! स्तव व स्तुति रूप मंगल से जीव क्या प्राप्त जणयइ। जीवः किं जनयति? करता है? थवथुइमंगलेणं नाणदंसणचरि- स्तवस्तुतिमङ्गलेन ज्ञान- स्तव और स्तुति रूप मंगल से वह ज्ञान, त्तबोहिलाभं जणयइ। नाणदंस- दर्शनचरित्रबोधिलाभं जनयति। दर्शन और चारित्र की बोधि का लाभ करता है। णचरित्तबोहिलाभसंपन्ने य णं ज्ञानदर्शनचरित्रबोधिलाभसम्पन्न- ज्ञान, दर्शन और चारित्र के बोधि-लाभ से सम्पन्न जीवे अंतकिरियं कप्पविमाणो- श्चजीवोऽन्तक्रियां कल्पविमानोप- व्यक्ति मोक्ष-प्राप्ति' या वैमानिक देवों में उत्पन्न ववत्तिगं आराहणं आराहेइ।। पत्तिकामाराधनामाराधयति। होने योग्य आराधना करता है। १६.कालपडिलेहणयाए णं भंते! कालप्रतिलेखनेन भदन्त ! भंते ! काल-प्रतिलेखना (स्वाध्याय आदि के उपयुक्त जीवे किं जणयइ ? जीवः किं जनयति? समय का ज्ञान करने) से जीव क्या प्राप्त करता है ? कालपडिलेहणयाए णं नाणा- कालप्रतिलेखनेन ज्ञानावर- काल-प्रतिलेखना से वह ज्ञानावरणीय कर्म वरणिज्जं कम्मं खवेइ।। णीयं कर्म क्षपयति।। को क्षीण करता है। १७. पायच्छित्तकरणेणं भंते ! जीवे प्रायश्चित्तकरणेन भदन्त ! भंते। प्रायश्चित्त करने से जीव क्या प्राप्त करता किं जणयइ? जीवः किं जनयति? पायच्छित्तकरणेणं पावकम्म- प्रायश्चित्तकरणेन पापकर्म- प्रायश्चित्त करने से वह पाप-कर्म की विशुद्धि विसोहिं जणयइ, निरइयारे विशोधिं जनयति, निरतिचार- करता है और निरतिचार हो जाता है। सम्यक्-प्रकार यावि भवइ। सम्मं च णं श्चापि भवति। सम्यक् च से प्रायश्चित्त करने वाला मार्ग (सम्यक्त्व)२५ और पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे मग्गं प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानो मार्ग च मार्ग-फल (ज्ञान) को निर्मल करता है और आचार च मग्गफलं च विसोहेइ, आयारं मार्गफलं च विशोधयति, आचार- (चारित्र) और आचार-फल (मुक्ति) की आराधना च आयारफलं च आराहेइ।। चाचारफलञ्चाराधयति।। करता है। १८.खमावणयाए णं भंते ! जीवे क्षमणया भदन्त ! जीवः किं भंते ! क्षमा करने से जीव क्या प्राप्त करता है? कि जणयइ? जनयति? खमावणयाए णं पल्हायणभावं क्षमणया प्रहलादनभावं क्षमा करने से वह मानसिक प्रसन्नता को जणयइ। पल्हायणभावमुवगए य जनयति। प्रहलादनभावमुपगतश्च प्राप्त होता है। मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त हुआ सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु मित्ती- सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वेषु मित्रीभाव- व्यक्ति सब प्राण, भूत, जीव और सत्वों के साथ भावमुष्पाएइ। मित्तीभावमुवगए मुत्पादयति। मित्रीभावमुपगतश्चापि मैत्री-भाव उत्पन्न करता है। मंत्री भाव को प्राप्त यावि जीवे भावविसोहिं काऊण जीवः भावविशोधिं कृत्वा निर्भयो हुआ जीव भावना को विशुद्ध बनाकर निर्भय हो निब्भए भवइ।। भवति।। १६. सज्झाएणं भंते! जीवे किं स्वाध्यायेन भदन्त ! जीवः भंते ! स्वाध्याय से जीव क्या प्राप्त करता है? जणयइ? किं जनयति? सज्झाएण नाणावरणिज्ज कम्म स्वाध्यायेन ज्ञानावरणीयं स्वाध्याय से वह ज्ञानावरणीय कर्म को क्षीण खवेइ। कर्म क्षपयति।। करता है। २०.वायणाए णं भंते! जीवे किं वाचनया भदन्त ! जीवः भते! वाचना (अध्यापन) से जीव क्या प्राप्त करता जणयइ ? किं जनयति? वायणाए णं निज्जरं जणयइ, वाचनया निर्जरां जनयति, वाचना से वह कों को क्षीण करता है। श्रुत सुयस्स य अणासायणाए वहए। श्रुतस्य घानाशातनायां वर्तते। की उपेक्षा के दोष से बच जाता है। इस उपेक्षा के सुयस्स अणासायणाए वट्टमाणे श्रुतस्य अनाशातनायां वर्तमानः दोष से बचने वाला तीर्थ-धर्म का अवलम्बन करता तित्थधम्म अवलंबइ। तित्थधम्म तीर्थधर्ममवलम्बते। तीर्थधर्म- है"---श्रुत देने में प्रवृत्त होता है। तीर्थ-धर्म का अवलंबमाणे महानिज्जरे महा मवलम्बमानो महानिर्जरो महापर्य- अवलम्बन करने वाला कर्मों और संसार का अन्त पज्जवसाणे भवइ।। वसानो भवति।। करने वाला होता है। Jain Education Intemational Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४७६ अध्ययन २६ : सूत्र २१-२५ २१. पडिपुच्छणयाए णं भंते ! जीवे प्रतिप्रच्छनेन भदन्त ! जीवः भंते! प्रतिप्रश्न करने से जीव क्या प्राप्त करता किं जणयइ? किं जनयति? पडिपुच्छणयाए णं सुत्तत्थ- प्रतिप्रच्छनेन सूत्रार्थत- प्रतिप्रश्न करने से वह सूत्र, अर्थ और उन तदुभयाइं विसोहेइ। कंखा- दुभयानि विशोधयति। काङ्क्षा- दोनों से सम्बन्धित सन्देहों का निवर्तन करता है मोहणिज्जं कम्मं वोच्छिदइ। मोहनीयं कर्म व्युच्छिनत्ति। और कांक्षा-मोहनीय कर्म का विनाश करता है। २२.परियट्टणाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? परियट्टणाए णं वंजणाइंजणयइ वंजणलद्धिं च उप्पाएइ।। परिवर्तनया भदन्त ! जीवः भंते ! परावर्त्तना (पठित-पाठ के पुनरावर्तन) से किं जनयति? जीव क्या प्राप्त करता है? परिवर्तनया व्यंजनानि परावर्त्तना से वह अक्षरों को उत्पन्न करता जनयति व्यंजनलब्धिं चोत्पादयति।। है—स्मृत को परिपक्व और विस्मृत को याद करता है तथा व्यंजन-लब्धि (वर्ण विद्या) को प्राप्त होता है। २३. अणुप्पेहाए णं भंते ! जीवे किं अनुप्रेक्षया भदन्त ! जीवः भंते ! अनुप्रेक्षा (अर्थ-चिन्तन) से जीव क्या प्राप्त जणयइ ? किं जनयति? करता है? अणुप्पेहाए णं आउयवज्जाओ अनुप्रेक्षया आयुष्कवर्जाः अनुप्रेक्षा से३२ वह आयुष्-कर्म को छोड़ कर सत्तकम्मप्पगडीओ धणियबंधण- सप्तकर्मप्रकृती: दृढबन्धनवद्धाः शेष सात कर्मों की गाढ-बन्धन से बन्धी हुई प्रकृतियों बद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ शिथिलबन्धनबद्धाः प्रकरोति, को शिथिल-बन्धन वाली कर देता है, उनकी पकरेइ, दीहकालट्टिइयाओ दीर्घकालस्थितिका हस्वकालस्थितिकाः दीर्घ-कालीन स्थिति को अल्पकालीन कर देता है, हस्सकालट्ठिइयाओ पकरेइ, प्रकरोति, तीवानुभावाः मन्दानुभावाः उनके तीव्र अनुभव को मन्द कर देता है। उनके तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ प्रकरोति । बहुप्रदेशागा अल्पप्रदेशाग्राः बहु-प्रदेशाग्र में बदल देता है। आयुष्-कर्म का बन्ध पकरेइ, बहुपएसग्गाओ अप्प- प्रकरोति। आयुष्कञ्च कर्म स्याद् कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं भी करता। पएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च बध्नाति स्यान्नो बध्नाति। असा- असात-वेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता णं कम्मं सिय बंधइ सिय नो तवेदनीयञ्च कर्म नो भूयोभूय और अनादि-अनन्त लम्बे-मार्ग वाली तथा बंधइ। असायावेयणिज्जं च णं उपचिनोति। अनादिकं च अनवदयं चतुर्गति-रूप चार अन्तों वाली" संसार अटवी को कम्मं नो भुज्जो भुज्जो उवचि- दीर्घाध्वं चतुरन्तं संसारकान्तारं तुरन्त ही पार कर जाता है। णाइ। अणाइयं च णं अणवदग्गं क्षिप्रमेव व्यतिव्रजति।। दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं खिप्पामेव वीइवयइ।। २४. धम्मकहाए णं भंते ! जीवे किं धर्मकथया भदन्त ! जीवः भंते ! धर्म-कथा से जीव क्या प्राप्त करता है? जणयइ? किं जनयति? धम्मकहाए णं निज्जरं जणयइ। धर्मकथया निर्जरां जनयति! धर्म-कथा से वह कर्मों को क्षीण करता है धर्मकथया प्रवचनं प्रभावयति। और प्रवचन' की प्रभावना करता है। प्रवचन की पवयणपभावे णं जीवे आगमि- प्रवचनप्रभावका जावः आगमिष्यतः प्रभावना करने व प्रवचनप्रभावको जीवः आगमिष्यतः प्रभावना करने वाला जीव भविष्य में कल्याणकारी सस्स भद्दत्ताए कम्मं निबंधइ। भद्रतया कर्म निबध्नाति।। फल देने वाले कमों का अर्जन करता है? २५.सुयस्स आराहणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? सुयस्स आराहणयाएणं अण्णाणं खवेइ न य संकिलिस्सइ।। श्रुतस्य आराधनया भदन्त ! भंते ! श्रुत की आराधना से जीव क्या प्राप्त करता जीवः किं जनयति? श्रुतस्य आराधनया अज्ञानं श्रुत की आराधना से अज्ञान का क्षय करता क्षपयति, न च संक्लिश्यते।। है और राग-द्वेष आदि से उत्पन्न होने वाले मानसिक संक्लेशों से बच जाता है।६ Jain Education Intemational ducation Intermational Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ४७७ अध्ययन २६ : सूत्र २६-३२ एकाग्रमनःसंनिवेशनेन भदन्त ! जीवः किं जनयति? भंते ! एक अग्र (आलम्बन) पर मन को स्थापित करने से जीव क्या प्राप्त करता है? २६.एगग्गमणसंनिवेसणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? एगग्गमणसंनिवेसणयाए णं चित्तनिरोहं करेइ।। एकाग्रमनःसंनिवेशनेन चित्तनिरोधं करोति।। एकाग्रमन की स्थापना से वह चित्त का निरोध करता है। भंते ! संयम से जीव क्या प्राप्त करता है? २७.संजमेणं भंते ! जीवे किं संयमेन भदन्त ! जीवः किं जणयइ? जनयति संजमेणं अणण्हयत्तं जणयइ।। संयमेन अनास्नवत्वं जनयति।। संयम से वह आश्रव का निरोध करता है। २८.तवेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? तपसा भदन्त ! जीवः किं जनयति? भंते ! तप से जीव क्या प्राप्त करता है? तवेणं वोदाणं जणयइ।। तपसा व्यवदानं जनयति।। तप से वह व्यवदान–पूर्वसंचित कमों को क्षीण कर विशुद्धि को प्राप्त होता है। २६.वोदाणेणं भंते ! जीवे किं व्यवदानेन भदन्त ! जीवः किं भंते ! व्यवदान से जीव क्या प्राप्त करता है ? जणयइ? जनयति? वोदाणेणं अकिरियं जणयइ। व्यवदानेन अक्रियां जनयति। व्यवदान से वह अक्रिया (मन, वचन और अकिरियाए भवित्ता तओ पच्छा अक्रियाको भूत्वा ततः पश्चात् शरीर की प्रवृत्ति के पूर्ण निरोध) को प्राप्त होता है, सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परि- सिध्यति, 'बुज्झइ' मुच्यते, वह अक्रियावान् होकर सिद्ध होता है, प्रशान्त होता निव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं परिनिर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं है, मुक्त होता है, परिनिर्वृत होता है और दुःखों का करेइ।। करोति।। अन्त करता है। ३०.सुहसाएणं भंते ! जीवे किं सुखशातेन भदन्त ! जीवः भंते ! सुख की स्पृहा का निवारण करने से जीव जणयइ? किं जनयति? क्या प्राप्त करता है? सुहसाएणं अणुस्सुयत्तं जणयइ। सुखशातेन अनुत्सुकत्वं सुख की स्पृहा का निवारण करने से वह अणुस्सुयाए णं जीवे अणुकंपए जनयति। अनुत्सुको जीवोऽनु- विषयों के प्रति अनुत्सुक-भाव को प्राप्त करता है। अणुब्भडे विगयसोगे चरित्त- कम्पको ऽनुद्भटो विगतशोक- विषयों के प्रति अनुत्सुक जीव अनुकम्पा करने मोहणिज्जं कम्मं खवेइ।। श्चरित्रमोहनीयं कर्म क्षपयति।। वाला, प्रशांत और शोक-मुक्त होकर चरित्र को विकृत करने वाले मोह-कर्म का क्षय करता है।" ३१. अप्पडिबद्धयाए णं भंते! जीवे अप्रतिबद्धतया भदन्त ! भंते ! अप्रतिवद्धता (मन की अनासक्ति) से जीव किं जणयइ? जीवः किं जनयति? क्या प्राप्त करता है? अप्पडिबद्धयाए णं निस्संगत्तं अप्रतिबद्धतया निस्सगचं अप्रतिबद्धता से वह असंग हो जाता हैजणयइ। निस्संगत्तेणं जीवे एगे जनयति। निस्सङ्गत्वेन जीवः वाह्य संसर्गों से मुक्त हो जाता है। असंगता से जीव एगग्गचित्ते दिया य राओ य एक: एकाग्रचित्तो दिवा च रात्रौ अकेला (राग-द्वेष रहित), एकाग्रचित्त वाला, दिन असज्जमाणे अपडिबन्दे यावि चाऽसजन्नतिकद्रश्चापि विहरति।। और रात बाह्य-संसगों को छोडता हआ प्रतिबन्ध विहरइ।। रहित होकर विहार करता है। ३२.विवित्तसयणासणयाए णं भंते ! विविक्तशयनासनेन भदन्त ! भंते ! विविक्त-शयनासन के सेवन से जीव क्या जीवे किं जणयइ? जीवः किं जनयति? प्राप्त करता है? विवित्तसयणासणयाए णं विविक्तशयनासनेन चरित्र- विविक्त-शयनासन के सेवन से वह चारित्र चरित्तगत्तिं जणयइ। चरित्तगत्ते गप्ति जनयति चरित्रगुप्तश्च जीवः की रक्षा को प्राप्त होता है। चारित्र की सुरक्षा करने य णं जीवे विवित्ताहारे विविक्ताहारः दृढचरित्रः एकांतरतः वाला जीव पीप्टिक आहार का वर्जन करने वाला,५२ Jain Education Intemational Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि दढचरित्ते एगंतरए मोक्खभावपडिवन्ने अविहकम्मठि निज्जरेइ || ३३. विणियट्टणयाए णं भंते जीवे किं जणयइ ? विणियगुणयाए णं पावकम्माण अकरणयाए अब्भुट्ठेइ, पुव्वबद्धाण य निज्जरणयाए तं नियत्तेइ, तओ पच्छा चाउरंतं संसारकंतारं वीड्यइ ।। २४. संभोगपच्चक्खाणं भंते जीवे किं जणयइ ? संभोगपच्चक्खाणेणं आलंबणाई खवेइ । निरालंबणस्स य आययट्ठियाजोगा भवंति । सएणं लाभेणं संतुस्सह, परलाभ नो आसाएइ नो तक्केइ नो पीहेड़ नो पत्वे नो अभिलसह परलाभ अणासायमाणे अतक्के माणे अपीहेमाणे अपत्येमाणे अणभिलसमाणे दुच्चं सुहसेज्जं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ।। ३५. उवहिपच्यक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? उवहिपच्चक्खाणेणं अपलिमंथ जणयइ । निरुवहिए णं जीवे निक्कंखे उवहिमंतरेण य न संकिलिक्सड ।। ३६. आहारपच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? आहारपच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदइ । जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदित्ता जीवे आहारमंतरेण न संकिलिस्सइ ।। ४७८ मोक्षभावप्रतिपन्नः अष्टविध कर्मग्रन्थि निर्जरयति ।। विनिवर्तनेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? विनिवर्तनेन पापकर्मणां अकरणेन अभ्युत्तिष्ट, पूर्ववखाना च निर्जरणेन तत् निवर्तयति, ततः पश्चात् चतुरन्तं संसारकांतारं व्यतिव्रजति ।। संभोजप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? संभोजप्रत्याख्यानेन आलंबनानि क्षपयति । निरालम्बनस्य च आयतार्थिकायोगाः भवन्ति । स्वकेन लाभेन सन्तुष्यति । परलाभं नो आस्वादयति, नो तर्कयति, नो स्पृहयति, नो प्रार्थयति, मो अभिलषति। परलाभमनास्वादयन् अतर्कयन, अस्पृहयन्, अप्रार्थयन्, अनभिलयन्, द्वितीया सुखशय्यामुपसम्पद्य विहरति ।। उपधिप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? उपधिप्रत्याख्यानेन अपरिमन्थं जनयति । निरुपधिको जीवो निष्काङ्क्षः उपधिमन्तरेण च न संक्लिश्यति ।। आहारप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? आहारप्रत्याख्यानेन जीविताशंसाप्रयोगं व्युच्छिनत्ति । जीविताशंसाप्रयोगं व्यवच्छिद्य जीवः आहारमन्तरेण न संक्लिश्यति ।। अध्ययन २६ : सूत्र ३३-३६ ४३ दृढ़ चारित्र वाला, एकांत में रत, अन्तःकरण से मोक्ष - साधना में लगा हुआ आठ प्रकार के कर्मों की गांठ को तोड़ देता है । भंते! विनिवर्तना (इन्द्रिय और मन को विषयों से दूर रखने) से जीव क्या प्राप्त करता है ? विनिवर्तना से वह नए सिरे से पाप कर्मों को नहीं करने के लिए तत्पर रहता है और पूर्व बद्ध कर्म की निर्जरा के द्वारा उसका निवर्तन कर देता है। इस प्रकार वह पाप कर्म का विनाश कर देता है। उसके पश्चात् चार गति रूप चार अन्तों वाली संसार अटवी को पार कर जाता है।* भंते ! सम्भोज-प्रत्याख्यान (मंडली - भोजन) का त्याग करने वाला जीव क्या प्राप्त करता है ? सम्भोज-प्रत्याख्यान से वह परावलम्बन को छोड़ता है। उस परावलम्बन को छोड़ने वाले मुनि के सारे प्रयत्न मोक्ष की सिद्धि के लिए६ होते हैं। वह भिक्षा में स्वयं को जो कुछ मिलता है उसी में संतुष्ट हो जाता है। दूसरे मुनियों को मिली हुई भिक्षा में आस्वाद नहीं लेता, उसकी ताक नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता और अभिलाषा नहीं करता। दूसरे को मिली हुई भिक्षा में आस्वाद न लेता हुआ, उसकी ताक न रखता हुआ, स्पृहा न करता हुआ, प्रार्थना न करता हुआ और अभिलाषा न करता हुआ वह दूसरी सुख शय्या को प्राप्त कर विहार करता है। भंते! उपाधि (वस्त्र आदि उपकरणों) के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? उपधि के प्रत्याख्यान से ४७ वह स्वाध्याय - ध्यान में होने वाले क्षति से बच जाता है । उपधि रहित मुनि अभिलाषा से मुक्त होकर उपधि के अभाव में मानसिक संक्लेश को प्राप्त नहीं होता । भंते! आहार प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? आहार- प्रत्याख्यान से वह जीवित रहने की अभिलाषा के प्रयोग का विच्छेद कर देता है। जीवित रहने की अभिलाषा का विच्छेद कर देने वाला व्यक्ति आहार के बिना ( तपस्या आदि में) संक्लेश को प्राप्त नहीं होता। Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ३७. कसायपच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? कसायपच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणयइ । वीयरागभावपडिवन्ने वि य णं जीवे समसुहदुक्खे भवइ ।। ३८. जोगपच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? जोगपच्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणयइ । अजोगी णं जीवे नवं कम्मं न श ब निज्जरेइ ॥ ३६. सरीरपच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? सरीरपव्यवखाणेणं सिखाइसयगुणतणं निव्वत्तेह। सिद्धाइसयगुणसंपन्ने य णं जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही भवइ ।। ४०. सहायपच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? सहायपच्चक्खाणेणं एगीभावं जणयइ एनी भावभूए विय णं जीवे एगग्गं भावेमाणे अप्पसद्दे अप्पझंझे अप्पकलहे अप्पकसाए अप्पतुमतुमे संजमबहुले संवरबहुले समाहिए यावि भवइ ।। ४१. भत्तपच्चक्खाणेण भंते! जीवे किं जणयइ ? भत्तपञ्चक्खाणेण अनेगाई भवसयाई निरुभइ ।। ४२. सब्भावपच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? सदभावपच्चक्खाणेणं अनियि जणयइ । अनियट्टिपडिवन्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ तं जहा देवणिज्जं ४७९ कषायप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? कपायप्रत्याख्यानेन वीतरागभावं जनयति वीतरागभावप्रतिपन्नोपि च जीवः समसुखदुःखो भवति ।। योगप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? योगप्रत्याख्यानेन अयोगत्वं जनयति । अयोगी जीवो नवं कर्म नयनाति पूर्वयन्द्ध निरवति।। शरीरप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? शरीरप्रत्याख्यानेन सिद्धातिशयगुणत्वं निर्वर्तयति । सिद्धातिशयगुणसम्पन्नश्च जीवो लोकाग्रमु पगतः परमसुखी भवति ।। सन्याख्यानेन एकीभावं जनयति । एकीभावभूतोप च जीवः एकाग्र्यं भावयन् अल्पशब्दः अल्पझञ्झः अल्पकलह: अल्पकपायः अल्प-त्वत्वः संयमबहुलः संवरबहुलः, समाहितश्चापि भवति ।। भक्तप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? भक्तप्रत्याख्यानेन अनेकानि भवशतानि निरुणद्धि ।। सद्भावाचाख्यानेन सदन्त ! जीवः किं जनयति ? अध्ययन २६ : सूत्र ३७-४२ भंते! कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? कषाय- प्रत्याख्यान से वह वीतराग भाव को प्राप्त करता है। वीतराग-भाव को प्राप्त हुआ जीव सुख-दुःख में सम हो जाता है। सद्भावप्रत्याख्यानेन अनिवृत्तिं जनयति । अनिवृत्तिप्रतिपन्नश्चानगारः चतुरः केवलिकर्माशानू क्षपयति, तद् यथा-वेदनीयं. सहाय प्रत्याख्यानेन भदन्त ! भंते! सहाय प्रत्याख्यान (दूसरों का सहयोग न लेने) जीवः किं जनयति ? से जीव क्या प्राप्त करता है ? भंते! योग (शरीर, वचन और मन की प्रवृत्ति) के प्रत्याख्यान से जीव क्या प्राप्त करता है ? योग- प्रत्याख्यान से वह अयोगत्व (सर्वथा अप्रकम्प भाव ) को प्राप्त होता है। अयोगी जीव नये कर्मों का अर्जन नहीं करता और पूर्वार्जित कर्मों को क्षीण कर देता है। भंते! शरीर के प्रत्याख्यान ( देह मुक्ति) से जीव क्या प्राप्त करता है ? शरीर के प्रत्याख्यान से वह मुक्त आत्माओं के अतिशय गुणों को प्राप्त करता है। मुक्त आत्माओं के अतिशय गुणों को प्राप्त करने वाला जीव लोक के शिखर में पहुंचकर परम सुखी हो जाता है। सहाय प्रत्याख्यान से" वह अकेलेपन को प्राप्त होता है। अकेलेपन को प्राप्त हुआ जीव एकत्व के आलंबन का अभ्यास करता हुआ कोलाहल पूर्ण शब्दों से मुक्त, वाचिक कलह से मुक्त, झगड़े से मुक्त, कषाय से मुक्त, तू-तू से मुक्त, संयम-बहुल, संवर- बहुल और समाधिस्थ हो जाता है। भंते! भक्त-प्रत्याख्यान ( अनशन) से जीव क्या प्राप्त करता है ? भक्त - प्रत्याख्यान से वह अनेक सैकड़ों जन्म-मरणों का निरोध करता है 1 भंते! सद्भाव-प्रत्याख्यान (पूर्ण संवर रूप शैलेशी) से जीव क्या प्राप्त करता है ? सद्भाव-प्रत्याख्यान से वह अनिवृत्तिशुक्लध्यान को प्राप्त करता है। अनिवृत्ति को प्राप्त हुआ अनगार केवलि -सत्क (केवली के विद्यमान) चार कमों, जैसे- वेदनीय, आयुपू, नाम और गोत्र Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४८० अध्ययन २६ : सूत्र ४३-४८ आउयं नामं गोयं । तओ पच्छा आयुः नाम गोत्रम् । ततः पश्चात् को क्षीण कर देता है। उसके पश्चात् वह सिद्ध सिज्झई बुज्झइ मुच्चइ परि- सिध्यति, 'बुज्झइ' मुच्यते, परि- होता है, प्रशान्त होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वृत निव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं निर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोति।। होता है और सब दुःखों का अंत करता है। करेइ।। ४३. पडिरूवयाए णं भंते ! जीवे किं प्रतिरूपतया भदन्त ! जीवः भंते! प्रतिरूपता (जिनकल्पिक जैसे आचार का जणयइ? किं जनयति? पालन करने) से जीव क्या प्राप्त करता है? पडिरूवयाए णं लाघवियं प्रतिरूपतया लाघविता प्रतिरूपता से बह हल्केपन को प्राप्त होता है। जणयइ। लहुभूए णं जीवे जनयति। लघुभूतो जीवः अप्रमत्तः उपकरणों के अल्पीकरण से हल्का बना हुआ जीव अप्पमत्ते पागडलिंगे पसथलिंगे प्रकटलिंग: प्रशस्तलिंग: विशुद्ध- अप्रमत्त, प्रकटलिंग वाला, प्रशस्तलिंग वाला, विशुद्ध विसुद्धसम्मत्ते सत्तसमिइसमत्ते । सम्यक्त्वः समाप्तसत्त्वसमिति: सम्यक्त्व वाला, पराक्रम और समिति से परिपूर्ण, सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु वीसस- सर्वप्राणभूतजीवसत्चेषु विश्वस- सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय णिज्जरूवे अप्पडिलेहे जिइंदिए नीयरूपो प्रतिलेखो जितेन्द्रियो रूप वाला, अप्रतिलेखन वाला, जितेन्द्रिय तथा विपुल विउलतवसमिइसमन्नागए यावि । विपुलतपःसमितिसमन्वागतश्चापि तप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला भवइ।। भवति।। होता है। ४४. वेयावच्चेणं भंते! जीवे किं वैयावृत्त्येन भदन्त ! जीवः भत! वयावृत्य (साधु-सब का सवा करना सजाव जणयइ? किं जनयति? क्या प्राप्त करता है? वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं वैयावृत्त्येन तीर्थकर वैयावृत्य से वह तीर्थङ्कर-नाम-गोत्र कर्म का कम्मं निबंधइ।। नामगोत्रं कर्म निबध्नाति।। अर्जन करता है।" ४५. सव्वगुणसंपन्नयाए णं भंते! सर्वगुणसम्पन्नतया भदन्त ! भंते ! सर्व-गुण-सम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता जीवे किं जणयइ? जीवः किं जनयति? सव्वगुणसंपन्नयाए णं अपुण- सर्वगुणसम्पन्नतया अपुनरावृति सर्व-गुण सम्पन्नता से६ वह अपुनरावृत्ति रावत्ति जणयइ। अपूणरावति जनयति। अपनरावत्तिं प्राप्तश्च (मुक्ति) को प्राप्त होता है। अपुनरावृत्ति को प्राप्त पत्तए य णं जीवे सारीरमाणसाणं जीवः शारीरमानसानां दःखानां करने वाला जीव शारीरिक और मानसिक दु:खों का दुक्खाणं नो भागी भवइ।। नो भागी भवति।। भागी नहीं होता। ४६.वीयरागयाए णं भंते ! जीवे किं वीतरागतया भदन्त ! जीव: भंते ! वीतरागता से जीव क्या प्राप्त करता है? जणयइ? किं जनयति? वीयरागयाए णं नेहाणुबंधणाणि वीतरागतया स्नेहानुबंधनानि वीतरागता से वह स्नेह के अनुबन्धनों और तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिदइ तष्णानबंधनानि च व्यच्छिनत्ति। तृष्णा के अनुबन्धनों का विच्छेद करता है। तथा मणुन्नेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसू मनोज्ञेप शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेष मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध से विरक्त चेव विरज्जइ।। चैव विरज्यते।। हो जाता है। ४७.खंतीए णं भंते! जीवे किं जणयइ? क्षान्त्या भदन्त ! जीवः किं जनयति? भंते ! क्षांति (सहिष्णुता) से जीव क्या प्राप्त करता है? खंतीए णं परीसहे जिणइ।। क्षान्त्या परीपहान् जयति।। क्षांति से वह परीषहों पर विजय प्राप्त कर लेता है। ४८.मुत्तीए णं भंते ! जीवे किं मुक्त्या भदन्त! जीव: किं भंते ! मुक्ति (निर्लोभलता) से जीव क्या प्राप्त करता जणयइ? जनयति? मुत्तीए णं अकिंचणं जणयइ। मुक्त्या आकिंचन्यं जनयति। मुक्ति से वह अकिंचनता को प्राप्त होता है। अकिंचणे य जीवे अत्थलोलाणं अकिंचनश्च जीवो अर्थलोलाना अकिंचन जीव अर्थ-लोलुप पुरुषों के द्वारा अप्रार्थनीय अपत्थणिज्जो भवइ।। अप्रार्थनीयो भवति।। होता है उसके पास कोई याचना नहीं करता। अकिचनश्च जीवी अर्थलालाना अकिंचन जीव अर्थ-लोलुप पुरुषों के द्वारा प्रार्थनीय dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व- पराक्रम ४६. अज्जवयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? अज्जवयाए णं काउज्जुययं भावुज्जुययं भासुज्जुययं अविसंवायणं जणयइ । अविसंवायणसंपन्नयाए णं जीवे धम्मस्स आराहए भवइ ।। ५०. मद्दवयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? मद्दवयाए णं अणुस्सियत्तं जणयह अणुस्सियतेणं जीवे मिउमद्दवसंपन्ने अङ्ग भवद्वाणाई निद्रवेह || ५१. भावसच्चेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? भावसच्येणं भावविसीहिं जणयइ । भावविसोहीए वट्टमाणे जीवे अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स आराहणयाए अब्भुट्ठेइ, अब्भुट्ठित्ता परलोगधम्मस्स आराहए हवइ || ५२. करणसच्चेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? करणसच्चेणं करणसत्तिं जणयइ । करणसच्चे वट्टमाणे जीवे जहवाई सहाकारी यावि भवइ ।। ५३. जोगसच्चेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? जोगसच्चेण जोगं विसोइ ।। ५४. मणगुत्तयाए णं भंते जीवे किं जणयइ ? मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयइ । एगग्गचित्ते णं जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ ।। ४८१ आर्जवेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? आजीवन कायक्तां भायर्जुकतां भाषर्जुकतां अविसंवादनं जनयति । अविसंवादनसम्पन्नतया जीवो धर्मस्याराधको भवति ।। मायेन अनुत्सितत् जनयति। अनुत्सिक्तत्वेन जीवो मृदुमार्दवसम्पन्नः अष्ट मदस्थानानि निष्ठापयति ।। मार्दवेन भदन्त ! जीवः किं भंते! मृदुता से जीव क्या प्राप्त करता है ? जनयति ? भावसत्येन भावविशोथिं जनयति । भावविशोधो वर्तमानी जीवोतुज्ञप्तस्य धर्मस्याराधनायै अभ्युत्तिष्ठते, अभ्युत्थाय परलोकधर्मस्याराधको भवति ।। करणसत्येन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? भावसत्येन भदन्त ! जीवः भंते! भाव-सत्य ( अन्तर्-आत्मा की सचाई) से जीव किं जनयति ? क्या प्राप्त करता है ? करणसत्येन करणशक्तिं जनयति । करणसत्येन वर्तमानो जीवो यथावादी तथाकारी चापि भवति ।। अध्ययन २६ : सूत्र ४६-५४ भंते! ऋजुता से जीव क्या प्राप्त करता है ? योगसत्येन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? योगसत्येन योगान् विशोधयति ।। ऋजुता से वह काया की सरलता, भाव की सरलता, भाषा की सरलता और कथनी करनी की समानता को प्राप्त होता है । कथनी करनी की समानता से सम्पन्न जीव धर्म का आराधक होता 150 मनोगुप्ततया ऐकाग्र्यं जनयति । एकाग्रचित्तो जीवो मनोगुप्तः संयमाराधको भवति ।। मृदुता से वह अनुद्धत मनोभाव को प्राप्त करता है। अनुद्धत मनोभाव वाला जीव मृदु-मार्दव से सम्पन्न होकर मद के आठ स्थानों का विनाश कर देता है। १२ भाव - सत्य से वह भाव की विशुद्धि को प्राप्त होता है भाव विशुद्धि में वर्तमान जीव अहं प्राप्त धर्म की आराधना के लिए तत्पर होता है, आराधना में तत्पर होकर वह परलोक-धर्म का आराधक होता है । भंते! करण- सत्य (कार्य की सचाई) से जीव क्या प्राप्त करता है ? करण- सत्य से वह करण शक्ति (अपूर्व कार्य करने के सामर्थ्य) को प्राप्त होता है। करण-सत्य में वर्तमान जीव जैसा कहता है वैसा करता है। भंते! योग सत्य (मन, वाणी और काया की सचाई ) से जीव क्या प्राप्त करता है ? योग- सत्य से वह मन, वाणी और काया की प्रवृत्ति को विशुद्ध करता है। १३ मनोगुप्ततया भदन्त ! जीवः भंते! मनोगुप्तता से जीव क्या प्राप्त करता है ? किं जनयति ? मनो- गुप्तता से वह एकाग्रता को प्राप्त होता है। एकाग्र चित्त वाला जीव अशुभ संकल्पों से मन की रक्षा करने वाला और संयम की आराधना करने वाला होता है। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४८२ अध्ययन २६ : सूत्र ५५-५६ ५५. वइगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं वारगुप्ततया भदन्त ! जीवः भंते ! वाग्-गुप्तता से जीव क्या प्राप्त करता है? जणयइ? किं जनयति? वइगुत्तयाए णं निध्वियारं वारगुप्ततया निर्विचारं वाग-गुप्तता से वह निर्विचार भाव को प्राप्त जणयइ। निव्वियारेणं जीवे जनयति। निर्विचारो जीवो होता है। निर्विचार जीव सर्वथा वाग्-गुप्त और वइगुत्ते अज्झप्पजोगज्झाणगुत्ते । वाग्गुप्तोऽध्यात्मयोगध्यानगुप्तश्चापि अध्यात्म-योग के साधन—चित्त की एकाग्रता आदि यावि भवइ।। भवति।। से युक्त हो जाता है। कायगुप्ततया भदन्त ! भंते ! काय-गुप्तता से जीव क्या प्राप्त करता है? जीवः किं जनयति? ५६.कायगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ? कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ। संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ।। कायगुप्ततया संवरं जन- काय-गुप्तता से वह संवर (अशुभ प्रवृत्ति के यति। संवरेण कायगुप्तः पुनः निरोध) को प्राप्त होता है। संवर के द्वारा कायिक पापाश्रवनिरोधं करोति।। स्थिरता को प्राप्त करने वाला जीव फिर पाप-कर्म के उपादान-हेतुओं (आश्रवों) का निरोध कर देता ५७.मणसमाहारणयाए णं भंते ! मनःसमाधारणेन भदन्त! भंते ! मन-समाधारणा-मन को आगम-कथित भावों जीवे किं जणयइ? जीवः किं जनयति? में भली-भांति लगाने से जीव क्या प्राप्त करता है ? मणसमाहारणयाए णं एगग्गं मनःसमाधारणेन ऐकायं मन-समाधारणा से वह एकाग्रता को प्राप्त जणयइ, जणइत्ता नाणपज्जवे जनयति, जनयित्वा ज्ञानपर्यवान् होता है। एकाग्रता को प्राप्त होकर ज्ञान-पर्यवोंजणयइ, जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ जनयति, जनयित्वा सम्यक्त्वं विशोध- ज्ञान के विविध आयामों को प्राप्त होता है। ज्ञान-पर्यवों मिच्छत्तं च निज्जरेइ।। यति मिथ्यात्वञ्च निर्जरयति।। को प्राप्त कर सम्यक्-दर्शन को विशुद्ध और मिथ्यात्व को क्षीण करता है। ५८.वइसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे वाक्समाधारणेन भदन्त! भते! वाक्-समाधारणा-वाणी को स्वाध्याय में किं जणयइ? जीवः किं जनयति? भलीभांति लगाने से जीव क्या प्राप्त करता है? वइसमाहारणयाए णं वइसाहार- वाक्समाधारणेन वाक्साधारण- वाक्-समाधारणा से वह वाणी के विषय-भूत णदंसणपज्जवे विसोहेइ, विसो- दर्शनपर्यवान् विशोधयति, विशोध्य दर्शन-पर्यवों-सम्यक्-दर्शन के विविध आयामों को हेत्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्तेइ सुलभबोधिकत्वं निवर्तयति, दुर्लभ- विशुद्ध करता है। वाणी के विषयभूत दर्शन-पर्यवों दुल्लहबोहियत्तं निज्जरेइ।। बोधिकत्वं निर्जरयति।। को विशुद्ध कर बोधि की सुलभता को प्राप्त होता है और बोधि की दुर्लभता को क्षीण करता है। ५६.कायसमाहारणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? कायसमाहारणयाए णं चरित्तपज्जवे विसोहेइ, विसोहेत्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेइ, विसोहेत्ता चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ। तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ।। कायसमाधारणेन भदन्त! भंते! काय-समाधारणा-संयम-योगों में काय को भलीभांति लगाने से जीव क्या प्राप्त करता है? कायसमाधारणेन चरित्र- काय-समाधारणा से वह चरित्र-पर्यवों--चरित्र पर्यवान् विशोधयति, विशोध्य के विविध आयामों को विशुद्ध करता है। चरित्र-पर्यवों यथाख्यातचरित्रं विशोधयति, को विशुद्ध कर यथाख्यात चरित्र (वीतरागभाव) को विशोध्य चतुरः केवलिकर्माशान् प्राप्त करने योग्य विशुद्धि करता है। यथाख्यात क्षपयति। ततः पश्चात् सिध्यति, चरित्र को विशुद्ध कर केवलि-सत्क (केवली के 'बुज्झइ' मुच्यते, परिनिर्वाति, विद्यमान) चार कर्मों--वेदनीय, आयुष्य, नाम और सर्वदुःखानामन्तं करोति।। गोत्र को क्षीण करता है। उसके पश्चात् सिद्ध होता है, प्रशांत होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वृत्त होता है और सब दुःखों का अन्त करता है।६६ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ६०. नाणसंपन्नयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? नाणसंपन्नयाए णं जीवे सव्वभावाहिगमं जणयइ । नाणसंपन्ने णं जीवे चाउरंते संसारकंतारे न विणस्सइ । जहा सूई ससुत्ता पडिया वि न विणस्सइ । तहा जीवे ससुत्ते संसारे न विणस्सइ ।। नाणविणयतवचरित्तजोगे संपा उणइ, ससमयपरसमयसंघायणिज्जे भवइ || ६१. दंसणसंपन्नयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? दंसणसंपन्नयाए णं भवमिच्छतछेयणं करेइ, परं न विज्झायइ । अणुत्तरेणं नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्म भावेमाणे विहरई । ६२. चरित्तसंपन्नयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? चरित्तसंपन्नयाए णं सेलेसीभावं जयइ । सेलेसिं पडिवन्ने य अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ । तओ पच्छा सिज्झइ बुझइ मुब्बइ परिनिव्वाएड सव्वदुक्खाणमंत करेइ ।। ६३. सोइंदियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? सोइंद्रियनिग्गहेणं मणुष्णामणुष्णेसु ससुरागदोसनिग्ग जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंध, पुव्यब च निज्जरेइ ।। ४८३ ज्ञानसम्पन्नतया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? ज्ञानसम्पन्नतया जीव: सर्वभावाभिगमं जनयति । ज्ञानसम्पन्नो जीवश्चतुरन्ते संसार कांतारे न विनश्यति । तथा जीवः ससूत्रः संसारे न विनश्यति ।। यथा सूची ससूत्रा जिस प्रकार ससूत्र (धागे में पिरोई हुई ) सुई पतिताऽपि न विनश्यति । गिरने पर भी गुम नहीं होती, उसी प्रकार ससूल ( श्रुत सहित ) जीव संसार में रहने पर भी विनष्ट नहीं होता। ज्ञानविनयतपश्चरित्रयोगान् सम्प्राप्नोति, स्वसमयपरसमयसंघातनीयो भवति ।। दर्शनसम्पन्नतया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? दर्शनसम्पन्नतया भवमिथ्यात्वछेदनं करोति । परं न विध्यायति । अनुत्तरेण ज्ञानदर्शनेनात्मानं संयोजयन् सम्यग् भावयन् विहरति ।। चरित्रसम्पन्नतया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? चरित्रसम्पन्नतया शैलेशीभावं जनयति । शैलेशीं प्रतिपन्नश्च अनगारः चतुरः केवलिकर्मांशान् क्षपयति । ततः पश्चात् सिध्यति, 'बुज्झइ' मुच्यते, परिनिर्वाति सर्वदुःखानामन्तं करोति ।। श्रोत्रेन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ? अध्ययन २६ : सूत्र ६०-६३ भंते! ज्ञान सम्पन्नता ( श्रुत ज्ञान की सम्पन्नता) से जीव क्या प्राप्त करता है ? श्रोत्रेन्द्रियनिग्रहेण मनोआमनोज्ञेषु शब्देषु रागदोपनियतं जनयति, तत्प्रत्ययिकं कर्म न वनाति पूर्व व निर्जरयति ।। ज्ञान - सम्पन्नता से वह सब पदार्थों को जान लेता है। ज्ञान सम्पन्न जीव चार गतिरूप चार अन्तों वाली संसार अटवी में विनष्ट नहीं होता। (ज्ञान - सम्पन्न ) अवधि आदि विशिष्ट ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के योगों को प्राप्त करता है तथा स्वसमय और परसमय की व्याख्या या तुलना के लिए प्रामाणिक पुरुष माना जाता है। भंते! दर्शन- सम्पन्नता ( सम्यक् दर्शन की सम्प्राप्ति) से जीव क्या प्राप्त करता है ? दर्शन सम्पन्नता से वह संसार पर्यटन के हेतु भूत मिथ्यात्व का उच्छेद करता है- - क्षायिक सम्यक् दर्शन को प्राप्त होता है। उससे आगे उसकी प्रकाश - शिखा बुझती नहीं। वह अनुत्तर ज्ञान और दर्शन से अपने आपको संयोजित करता हुआ, उन्हें सम्यक् प्रकार से आत्मसात् करता हुआ विहरण करता है 1 भंते ! चारित्र सम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता है ? चारित्र सम्पन्नता से वह शैलेशी-भाव को प्राप्त होता है। शैलेशी दशा को प्राप्त करने वाला अनगार चार केवलि सत्क कर्मों को क्षीण करता है। उसके पश्चात् वह सिद्ध होता है, प्रशांत होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वृत होता है और सब दुःखों का अंत करता है।७ भंते! श्रोत्रेन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? श्रोत्रेन्द्रिय के निग्रह से वह मनोज्ञ और अमनोज्ञ निग्रह शब्दों में होने वाले राग और द्वेष का नियम करता है । वह शब्द सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्म - बन्धन नहीं करता और पूर्व - बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है।" Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि ६४. चक्खिदियनिग्गणं भंते! जीवे किं जणयइ ? यविवदियनिग्गणं मनुष्णामगुण्णेसु रुवेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ।। ६५. घाणिंदियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? घाणिदियनिग्गहेणं मणुष्णामगुण्णेसु गंधेसु रागदोसनिग्गरं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ।। ६६. जिब्भिदियनिग्गणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? जिम्मिदियनिग्गणं मणुष्णामणुण्णेसु रसेसु रागदोसनिग्ग जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंध, पुचबद्धं च निज्जरेइ ।। ६७. फासिंदियनिग्गहेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? फासिंदियनिग्महेणं मणुष्णामणुष्णेसु फासेसु रागवोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्यब च निज्जरेइ ।। ६८. कोहविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ ? कोहविजएणं खंतिं जणयइ, कोहवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरे || ६६. माणविजएणं भंते! जीवे किं जणयइ ? माणविजएणं मद्दवं जणयद, माणवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुव्यबद्ध च निज्ञ्जरेइ || ४८४ चक्षुरिन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ? चक्षुरिन्द्रियनिग्रहेण मनोलामनोज्ञेषु रूपेषु रामदोषानिय जनयति, तत्प्रत्ययिकं कर्म न बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति ।। घ्राणेन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ? घ्राणेन्द्रियनिग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेषु गन्धेषु रागदोषनिग्रहं जनयति, तत्प्रत्ययिकं कर्म न बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति ।। जिहेन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ? जिवेन्द्रियनिग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेषु रसेषु रागदोषनिग्रह जनयति, तत्प्रत्ययिकं कर्म न नाति पूर्वयद्ध व निर्जरयति ।। स्पर्शेन्द्रियनिग्रहेण भदन्त ! जीवः किं जनयति ? स्पर्शेन्द्रियनिग्रहेण मनोज्ञामनोज्ञेषु स्पर्शेषु रागदोषनिग्रहं जनयति, तत्प्रत्ययिकं कर्म न बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति ।। क्रोधविजयेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? क्रोधविजयेन क्षांतिं जनयति, क्रोधवेदनीयं कर्म न बध्नाति, पूर्व व निर्जरयति ।। मानविजयेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? मानविजयेन मार्दवं जनयति, मानवेदनीयं कर्म न बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति ।। अध्ययन २६ : सूत्र ६४-६६ भंते! चक्षु इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? चक्षु इन्द्रिय के निग्रह से वह मनोज्ञ और अमनो रूपों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है। वह रूप सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्म - बन्धन नहीं करता और पूर्व - बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है 1 भंते! घ्राण इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? घ्राण- इन्द्रिय के निग्रह से वह मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्धों में होने वाले राग और द्वेष क निग्रह करता है। वह गन्ध सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्म-बन्धन नहीं करता और पूर्व- बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। भंते! जिहा इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? जिहा इन्द्रिय के निग्रह से वह मनोज्ञ और अमनोज्ञ रसों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है। वह रस सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्म - बन्धन नहीं करता और पूर्व - बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। भंते! स्पर्श इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? स्पर्श इन्द्रिय के निग्रह से वह मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शो में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । वह स्पर्श सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्म बन्धन नहीं करता और पूर्व- बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। भंते! क्रोध-विजय से जीव क्या प्राप्त करता है ? क्रोध - विजय से वह क्षमा को उत्पन्न करता है। वह क्रोध- वेदनीय कर्म-बन्धन नहीं करता और पूर्व- बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। भंते! मान- विजय से जीव क्या प्राप्त करता है ? मान - विजय से वह मृदुता को उत्पन्न करता है । वह मान वेदनीय कर्म-बन्धन नहीं करता और पूर्व- बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ४८५ अध्ययन २६ : सूत्र ७०-७३ ७०.मायाविजएणं भंते ! जीवे किं मायाविजयेन भदन्त ! भंते ! माया-विजय से जीव क्या प्राप्त करता है? जणयइ ? जीवः किं जनयति? मायाविजएणं उज्जुभावं जणयइ, मायाविजयेन ऋजुभावं माया-विजय से वह ऋजुता को उत्पन्न करता मायावेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, जनयति, मायावेदनीयं कर्म न है। वह माया-वेदनीय कर्म-बन्धन नहीं करता और पुव्वबद्धं च निज्जरेइ।। बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति।। पूर्व-बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। ७१. लोभविजएणं भंते ! जीवे किं लोभविजयेन भदन्त ! जीवः भंते ! लोभ-विजय से जीव क्या प्राप्त करता है ? जणयइ? किं जनयति? लोभविजएणं संतोसीभावं लोभविजयेन सन्तोषीभावं लोभ-विजय से वह संतोष को उत्पन्न करता जणयइ, लोभवेयणिज्जं कम्मं जनयति, लोभवेदनीयं कर्म न है। वह लोभ-वेदनीय कर्म-बन्धन नहीं करता और न बंधइ, पुवबद्धं च निज्जरेइ ।। बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति।। पूर्व-बद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है। ७२.पेज्जदोसमिच्छादसणविजएणं प्रेयोदोषमिथ्यादर्शनविजयनेन भंते ! प्रेम, द्वेष और मिथ्या-दर्शन के विजय से जीव भंते ! जीवे किं जणयइ ? भदन्त ! जीवः किं जनयति? क्या प्राप्त करता है? पेज्जदोसमिच्छादसणविजएणं प्रेयोदोषमिथ्यादर्शनविज- प्रेम, द्वेष और मिथ्या-दर्शन के विजय से वह नाणदंसणचरित्ताराहणयाए येन ज्ञानदर्शनचरित्राराधनायां ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए अब्भुटूठेइ। अट्ठविहस्स कम्मस्स अभ्युत्तिष्ठते। अष्टविधस्य कर्मणः उद्यत होता है। आठ कर्मों में जो कर्म ग्रंथि है, उसे कम्मगंठिविमोयणयाए तप्पढ- कर्मग्रन्थिविमोचनाय तत्प्रथमतया खोलने के लिए वह उद्यत होता है। वह जिसे पहले मयाए जहाणुपुट्विं अट्ठवीसइ- यथानुपूर्वि अष्टाविंशतिविधं कभी भी पूर्णतः क्षीण नहीं कर पाया उस अट्ठाईस विहं मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ, मोहनीयं कर्मोद्घातयति। पंचविधं प्रकार वाले मोहनीय कर्म को क्रमशः सर्वथा क्षीण पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं । ज्ञानावरणीयं नवविधं दर्शनावर- करता है, फिर वह पांच प्रकार वाले ज्ञानावरणीय, दंसणावरणिज्जं पंचविहं अंत- णीयं पंचविधमन्तरायं एतान् नौ प्रकार वाले दर्शनावरणीय और पांच प्रकार वाले रायं एए तिन्नि वि कम्मंसे त्रीनपि कर्माशान युगपत् क्षपयति। अंतराय-इन तीनों विद्यमान कर्मों को एक साथ जुगवं खवेइ। तओ पच्छा ततः पश्चादनुत्तरं अनन्तं कृत्स्नं क्षीण करता है। उसके पश्चात् वह अनुत्तर, अनंत, अणूत्तरं अणंतं कसिणं पडि- प्रतिपूर्ण निरावरणं वितिमिरं कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, निरावरण, तिमिर रहित, विशुद्ध, पूण्णं निरावरणं वितिमिरं विशुद्ध लोकालोकप्रभावकं लोक और अलोक को प्रकाशित करने वाले केवल विसुद्धं लोगालोगप्पभावगं केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पादयति। ज्ञान और केवल दर्शन को उत्पन्न करता है। जब केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेइ। यावत् सयोगी भवति तावद् च तक वह सयोगी होता है तब तक उसके जाव सजोगी भवइ ताव य ऐयापथिकं कर्म बध्नाति सुखस्पर्श ईर्या-पथिक-कर्म का बंध होता है। वह बंध सुख-स्पर्श इरियावहियं कम्मं बंधइ सह- द्विसमयस्थितिकम्। तत् प्रथम- (पुण्यमय) होता है। उसकी स्थिति दो समय की फरिसं दसमयठियं । तं समये बद्धं द्वितीयसमये वेदितं होती है। वह प्रथम समय में बंधता है. दसरे समय पढमसमए बद्धं बिइयसमए तृतीयसमये निजीणं तद् बद्धं में उसका वेदन होता है और तीसरे समय में वह वेदयं तदयसमा निजि तं स्पृष्टमुदीरितं वेदितं निर्जीर्ण निर्जीर्ण हो जाता है। वह कर्म बद्ध होता है. स्पष्ट बद्धं पटठं उदीरियं वेइयं एष्यत्काले चाकर्म चापि भवति।। होता है, उदय में आता है, भोगा जाता है, नष्ट हो निज्जिण्णं सेयाले य अकम्म जाता है और अंत में अकर्म भी हो जाता है। चावि भवइ।। ७३.आहाउयं पालइत्ता अंतोमुहुत्त- यथायुःपालयित्वाऽन्तर्मुहू- केवली होने के पश्चात् वह शेष आयुष्य" का द्धावसेसाउए जोगनिरोहं करे- ध्वावशेषायुष्कः योगनिरोधं निर्वाह करता है। जब अंतर्-मुहूर्त परिमाण आयु माणे सुहुमकिरियं अप्पडिवाइ कुर्वाण: सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति शेष रहती है, तब वह योग-निरोध करने में प्रवृत्त सुक्कज्झाणं झायमाणे तप्प- शुक्लध्यानं ध्यायन् तत्प्रथमतया होता है। उस समय सूक्ष्म-क्रिया अप्रतिपाति नामक ढमयाए मणजोगं निरुंभइ, मनोयागं निरुणद्धि, निरुध्य शुक्ल ध्यान में लीन बना हुआ वह सबसे पहले निलंभित्ता वइजोगं निरंभइ, वाग्योगं निरुणद्धि, निरुध्य मनोयोग का निरोध करता है, फिर वचन-योग का Jain Education Intemational Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४८६ अध्ययन २६ : सूत्र ७४ निलंभित्ता आणापाणुनिरोहं आनापान-निरोधं करोति, कृत्वा निरोध करता है, उसके पश्चात् आनापान (उच्छ्वासकरेइ, करेत्ता ईसि पंचरहस्स- ईषत् पंच ह्रस्वाक्षरोच्चाराध्वनि निश्वास) का निरोध करता है। उसके पश्चात् क्खरुच्चारधाए य णं अणगारे च अनगारः समच्छिन्नक्रियं स्वल्पकाल तक च अनगारः समुच्छिन्नक्रियं स्वल्पकाल तक—पांच हस्वाक्षरों अ इ उ ऋ लु का समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टि- अनिवृत्तिशुक्लध्यानं ध्यायन् उच्चारण किया जाए उतने काल तक समुच्छिन्नक्रिया सुक्कज्झाणं झियायमाणे वेय- वेदनीयमायुष्कं नाम गोत्रञ्चैतान् अनिवृत्ति नामक शुक्ल ध्यान में लीन बना हुआ णिज्ज आउयं नामं गोत्तं च चतुरः कर्माशान् युगपत् क्षपयति।। अनगार वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र-इन एए चत्तारि वि कम्मसे जुगवं चारों विद्यमान कर्मों को एक साथ क्षीण करता है। खवेइ।। ७४.तओ ओरालियकम्माइं च ततः औदारिककार्मणे च उसके अनन्तर ही औदारिक और कार्मण शरीर को सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्प- सर्वाभिः विप्रहाणिभिः विप्रहाय पूर्ण अनस्तित्व के रूप में छोड़ कर वह मोक्ष स्थान जहित्ता उज्जुसेढिपत्ते अफुस- ऋजुश्रेणिप्राप्तोऽस्पृशद्गतिरूवं में पहुंच साकारोपयुक्त (ज्ञान-प्रवृत्तिकाल) में सिद्ध माणगई उड्ढं एगसमएणं एक समयेन अविग्रहेण तत्र गत्वा होता है, प्रशांत होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वृत अविग्गहेणं तत्थ गंता सागारो- साकारोपयुक्तः सिध्यति 'बुज्झइ' होता है और सब दुःखों का अंत करता है। सिद्ध वउत्ते सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ मुच्यते परिनिति सर्वदुःखानामन्तं होने से पूर्व वह ऋजुश्रेणी (आकाश-प्रदेशों की परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करोति।। सीधी पंक्ति) से गति करता है। उसकी गति अस्पृशद् करेइ।। (मध्यवर्ती आकाश का स्पर्श किए बिना) तथा ऊपर को होती है। वह एक समय की होती है—ऋजु होती है। एस खलु सम्मत्तपरक्कमस्स एष खलु सम्यक्त्वपराक्रम- सम्यक्त्व-पराक्रम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ अज्झयणस्स अठे समणेणं स्याध्ययनस्यार्थः श्रमणेन भगवता श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा आख्यात, प्रज्ञापित, भगवया महावीरेणं आघविए महावीरेणाख्यातः प्रज्ञापितः प्ररूपित, दर्शित और उपदर्शित है। पण्णविए परूविए दंसिए उव- प्ररूपितः दर्शितः उपदर्शितः।। दंसिए।। –त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। —ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन २६ : सम्यक्त्व-पराक्रम १. (संवेगेणं...........निव्वेएण) अशुभ-योग की प्रवृत्ति छठे गुणस्थान तक हो सकती है और सम्यग्-दर्शन के पांच लक्षणों में संवेग दूसरा और निर्वेद कषाय जनित अशुभ-कर्म का बन्ध दसवें गुणस्थान तक होता तीसरा है। संवेग का अर्थ है 'मोक्ष की अभिलाषा" और निर्वेद है। इसलिए इसे इस रूप में समझना चाहिए कि जिसका दर्शन का अर्थ है 'संसार-त्याग की भावना या काम-भोगों के प्रति । विशुद्ध हो जाता है, अनन्तानुबन्धी चतुष्क सर्वथा क्षीण हो जाता उदासीन-भाव । है, उसके नये सिरे से मिथ्या-दर्शन के कर्म-परमाणुओं का श्रुतसागरसूरि ने निर्वेद के तीन अर्थ किए हैं- बन्ध नहीं होता क्योंकि मिथ्यात्व की विशोधि हो जाती है, उसका (१) संसार-वैराग्य, (२) शरीर-वैराग्य और (३) मोक्ष-वैराग्य। क्षय हो जाता है। तात्पर्यार्थ में वह व्यक्ति क्षायक सम्यक्त्व प्राप्त प्रस्तुत दो सत्रों में कहा गया है कि संवेग से धर्म-श्रन्दा कर लेता है। क्षायक सम्यक्त्वी दर्शन का आराधक होता है। उत्पन्न होती है और निर्वेद से विषय-विरक्ति। इन परिणामों के वह उसी जन्म में या तीसरे जन्म में अवश्य ही मुक्त हो जाता अनुसार संवेग और निर्वेद की उक्त परिभाषाएं समीचीन हैं। है। इसका सम्बन्ध दर्शन की उत्कृष्ट आराधना से है। जघन्य कई आचार्य संवेग का अर्थ 'भव-वैराग्य' और निर्वेद का अर्थ और मध्यम आराधना वाले अधिक जन्मों तक संसार में रह 'मोक्षाभिलाषा' भी करते हैं। किन्तु इस प्रकरण से वे फलित सकते हैं। किन्तु उत्कृष्ट आराधना वाले तीसरे जन्म का नहीं होते। अतिक्रमण नहीं करते। यह तथ्य भगवती (८४५६) से भी पातंजल योगदर्शन के व्याख्याकारों ने 'संवेग' शब्द की समर्थित है। गौतम ने पूछा-“भगवन् ! उत्कृष्ट दर्शनी कितने व्याख्या अनेक प्रकार से की है। मिश्रजी के अनुसार संवेग का जन्म में सिद्ध होता है ?" भगवान ने कहा-“गीतम! वह अर्थ वैराग्य है। विज्ञानभिक्ष 'उपाय के अनुष्ठान में शीघ्रता' उसी जन्म में सिद्ध हो जाता है और यदि उस जन्म में न हो को संवेग कहते हैं। भोजदेव के अनुसार क्रिया का हेतभत तो तीसरे जन्म में अवश्य हो जाता है।" संस्कार ही संवेग है। जैन साधना-पद्धति का पहला सूत्र है--मिथ्यात्व-विसर्जन विशुद्धिमग्ग दीपिका के अनुसार जो मनोभाव उत्तम-वीर्य या दर्शन-विशुद्धि। दर्शन की विशुद्धि का हेतु संवेग है, जो वाली आत्मा को वेग के साथ कुशलाभिमुख करता है, वह नैसर्गिक भी होता है और अधिगमिक भी। साधना का दूसरा 'संवेग' कहलाता है। इसका अभिप्राय भी मोक्षाभिलाषा से सूत्र है-प्रवृत्ति-विसर्जन या आरम्भ-परित्याग। उसका हेतु भिन्न नहीं है। निर्वेद है। जब तक निर्वेद नहीं होता, तब तक विषय-विरक्ति संवेग और धर्म-श्रदा का कार्य-कारण-भाव है। मोक्ष नहीं होती और उसके बिना आरम्भ का परित्याग नहीं होता। की अभिलाषा होती है तब धर्म में रुचि उत्पन्न होती है और दशवैकालिक नियुक्ति में भिक्षु में सतरह लिड्ग बताए गए हैं, जब धर्म में रुचि उत्पन्न हो जाती है तब मोक्ष की अभिलाषा वहां संवेग और निर्वेद को प्रथम स्थान दिया गया है। विशिष्टतर हो जाती है। जव संवेग तीव्र होता है तब अनन्तानुबन्धी 'यथा यथा समायाति, संवित्तो तत्त्वमुत्तमम्। क्रोध, मान, माया और लोभ क्षीण हो जाते हैं, दर्शन विशुद्ध तथा तथा न रोचन्ते, विषया: सुलभा अपि।। हो जाता है। यथा यथा न रोचन्ते, विषया: सुलभा आदि। जिसका दर्शन विशुद्ध हो जाता है, उसके कर्म का बन्ध तथा तथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्।।' नहीं होता। वह उसी जन्म में या तीसरे जन्म में अवश्य ही २. धर्मश्रद्धा से (धम्मसद्धाए) मुक्त हो जाता है। 'कम्मं न वंधई' इस पर शान्त्याचार्य ने निर्वेद का फल है-कामभोग अथवा इन्द्रिय-विषयों के लिखा है कि अशुभ-कर्म का वन्ध नहीं होता। सम्यग-दृष्टि के प्रति वैराग्य। धर्मश्रद्धा का फल है-पौलिक सूख के प्रति अशुभ-कर्म का बंध नहीं होता, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वैराग्य। इन दोनों परिभाषाओं से वैराग्य के दो अर्थ फलित १. बृहबृत्ति, पत्र ५७७ : संवेगो---मुक्त्यभिलाषः। २. वही, पत्र ५७८ : 'निर्वेदन' सामान्यतः -संसारविषयेण कदाऽसी त्यक्ष्यामीत्येवंरूषण। षट् प्राभृत, पृ० ३६३, मोक्ष प्राभृत ८२ टीका : निर्वेदः संसार-शरीर- भोग-विरागता। ४. पातंजलयोगदर्शन, १।२१, पृ०६०। ५. विशुन्द्रिमग्ग दीपिका ८, पृ०६८ : 'संवेगो' ति उत्तमविरियं यं पुग्गलं बेगेन कुशलाभिमुखं करोति। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५७७ : 'कर्म' प्रस्तावादशुभप्रकृतिरूपं न बध्नाति। Jain Education Intemational Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४८८ अध्ययन २६ : सूत्र ४-७ टि०३-१० होते हैं-(१) शब्द, रूप आदि के प्रति होने वाला विकर्षण, व्यक्ति मनुष्य की सुगति का जीवन जीता है। पदार्थ के प्रति अनासक्तभाव, (२) सुखात्मक संवेदन के प्रति देवता की दुर्गति का अर्थ है-देवताओं में किल्विषिक विकर्षण। पहला वस्तुगत (ऑब्जेक्टिव) वैराग्य है और दूसरा आदि होना और देवता की सुगति का अर्थ है—देवलोक में अनुभूतिगत (सब्जेक्टिव) वैराग्य है। इन्द्र आदि बनना। ३. वैषयिक सुखों की (सायासोक्खेसु) ८. सिद्धि सुगति का मार्ग (सिद्धिं सोग्गइं) सुख और साता—ये दो शब्द हैं। सुख शब्द व्यापक है। सुगति सिद्धि का विशेषण है। वृत्तिकार ने 'सिद्धिसोग्गइ' यह पौद्गलिक और आत्मिक-दोनों प्रकार का होता है। साता को एक पद माना है। पौद्गलिक होती है। स्थानांग में चार सुगतियों का उल्लेख है----सिद्ध सुगति, वृत्ति में साता का अर्थ है—सातवेदनीय कर्म। उससे देव सुगति, मनुष्य सुगति और सुकुल में जन्म। उत्पन्न या प्राप्त सुखों को सातासौख्य कहा गया है। तात्पर्य में ९. माया, निदान और मिथ्या-दर्शन-शल्य को यह समस्त वैषयिक सुखों का वाचक है।' (मायानियाणमिच्छादसणसल्लाण) ४. अगारधर्म-गृहस्थी (अगारधम्म) जो मानसिक वृत्तियां और अध्यवसाय शल्य (अन्तव्रण) इसके दो अर्थ हैं की तरह क्लेशकर होते हैं, उन्हें 'शल्य' कहा जाता है। वे तीन (१) गृहस्थ का बारह व्रत रूप धर्म--दुवालसविहे अगारधम्मे पण्णत्ते। (१) माया। (२) गृहस्थ का आचार या कर्त्तव्य। (२) निदान-तप के फल की आकांक्षा करना, भोग की प्रस्तुत प्रसंग में दूसरा अर्थ ही संगत है। प्रार्थना करना। ५. गुरु का अविनय या परिवाद करने वाला नहीं होता (३) मिथ्या-दर्शन-मिथ्या दृष्टिकोण। (अणच्चासायणसीले) ये तीनों मोक्ष-मार्ग के विध्न और अनन्त संसार के हेतु आशातना का अर्थ है-अवज्ञा या अवमानना। हैं। स्थानांग (१०७१) में कहा है--आलोचना (अपना अनत्याशातन का अर्थ है---गुरु की अवज्ञा न करने वाला, गुरु दोष-प्रकाशन) वही व्यक्ति कर सकता है, जो मायावी नहीं का परिवाद न करने वाला। होता। ६. (वण्णसंजलणभत्तिबहुमाणयाए) १०. मोह को क्षीण करने में समर्थ परिणाम-धारा को वर्ण, संज्वलन, भक्ति और बहुमान-ये चारों (करणगुणसेटिं) विनय-प्रतिपत्ति के अंग हैं। वर्ण का अर्थ है 'श्लाघा । कीर्ति, संक्षेप में 'करण-सेढि' का अर्थ है 'क्षपक-श्रेणि'। वर्ण, शब्द और श्लोक-ये चारों पर्याय-शब्द हैं। इनमें कुछ मोह-विलय की दो प्रक्रियाएं हैं जिसमें मोह का उपशम अर्थ-भेद भी हैं। होते-होते वह सर्वथा उपशान्त हो जाता है, उसे 'उपशम-श्रेणि' संज्वलन का अर्थ है 'गुण-प्रकाशन'।" कहा जाता है। जिसमें मोह क्षीण होते-होते पूर्ण क्षीण हो जाता भक्ति का अर्थ है 'हाथ जोड़ना, गुरु के आने पर खड़ा है, उसे 'क्षपक-श्रेणि' कहा जाता है। उपशम-श्रेणि से मोह का होना, आसन देना आदि-आदि।" सर्वथा उद्घात नहीं होता, इसलिए यहां क्षपक-श्रेणि ही प्राप्त बहुमान का अर्थ है 'आन्तरिक अनुराग।" है।" करण का अर्थ 'परिणाम' है। क्षपक-श्रेणि का प्रारम्भ दशवकालिक चूर्णि में भक्ति और बहुमान में जो अन्तर आठवें गुणस्थान से होता है। वहां परिणाम-धारा वैसी शुद्ध है, उसे एक उदाहरण द्वारा समझाया है। होती है, जैसे पहले कभी नहीं होती। इसीलिए आठवें गुणस्थान ७. (मणुस्सदेवदोग्गईओ...मणुस्सदेवसोग्गईओ) को 'अपूर्व-करण' कहा जाता है। अपूर्व-करण से जो गुण-श्रेणि अपराधपूर्ण आचरण करने वाला व्यक्ति मनुष्य की प्राप्त होती है, उसे 'करण गुण-श्रेणि' कहा जाता है। यह दुर्गति का जीवन जीता है और सदाचार का पालन करने वाला जब प्राप्त होती है तब मोहनीय कर्म के परमाणुओं की स्थिति १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५७८ : सात-सातवेदनीय तज्जनितानि सौख्यानि सातसौख्यानि प्राग्वन् मध्यपदलोपी समासस्तेषु वैषयिकसुखेष्विति यावत्। २. वही, पत्र ५७६ : वर्णः-श्लाघा। ३. दसवेआलियं, ६,७। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ५७६ : सज्वलनं-गुणोद्भासनम् । ५. वही, पत्र ५७६ : भक्तिः-अञ्जलिप्रग्रहादिका। ६. वही, पत्र ५७६ : बहुमानम्--आन्तरप्रीतिविशेषः । ७. दशवकालिक, जिनदास चूर्णि, पृ० ६६। .. वृहद्वृत्ति, पत्र ५७६ : सिद्धिसोग्गई ति सिद्धि सुगति। ६. ठाणं, ४३६। १०. बृह्रवृत्ति, पत्र ५७६ : निदान--समातस्तपःप्रभृत्यादेरिदं स्यात् इति प्रार्थनात्मकम्। ११. वही, पत्र ५८० : प्रक्रमाक्षपक श्रेणिरेव गृह्यते। १२. वहीं, पत्र ५७६ : करणेन-अपूर्वकरणेन गुणहेतुका श्रेणिः करणगुणश्रेणिः । Jain Education Intemational Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ४८९ अध्ययन २६ : सूत्र ८-१३ टि० ११-१८ अल्प हो जाती है और उनका विपाक मन्द हो जाता है। इस की विशुद्धि का तात्पर्य दर्शन के आचार का अनुपालन होना प्रकार मोहनीय कर्म निर्वीर्य बन जाता है। चाहिए। यह भक्तियोग का सूत्र है। दर्शन के आठ आचार ११. अनादर को (अपुरक्कार) २८।३१ में निर्दिष्ट हैं। उनका संबंध दर्शन-विशुद्धि से है। यहां 'अपूरक्कार'-अपुरस्कार का अर्थ 'अनादर' या स्तुति से तीर्थकर के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। उससे 'अवज्ञा' है। यह व्यक्ति गुणवान् है, कभी भूल नहीं करता- दर्शनाचार के प्रति आस्था सुदृढ़ बनती है। इस स्थिति का नाम पुरस्कार है। अपने प्रमादाचरण को दूसरों वृत्तिकार ने विशुद्धि का अर्थ निर्मल होना किया है। के सामने प्रस्तुत करने वाला इससे विपरीत स्थिति को प्राप्त स्तुति के द्वारा दर्शन के उपघाती कर्म दूर होते हैं। फलतः होता है, वही अपुरस्कार है। सम्यक्त्व निर्मल हो जाता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के लिए १२. अनन्त विकास का घात करने वाले ज्ञानावरण आदि। यह अर्थ घटित किया जा सकता है, किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व के कर्मों की परिणतियों को (अणंतघाइपज्जवे) लिए यह अर्थ घटित नहीं होता, क्योंकि सम्यक्त्व के उपघाती ___ आत्मा के चार गुण अनन्त हैं--(१) ज्ञान, (२) दर्शन, कर्म पहले ही नष्ट हो जाते हैं। (३) वीतरागता और (४) वीर्य । इनके आवारक परमाणुओं को १६. (वंदणएणं...निबंधइ) ज्ञानावरण और दर्शनावरण, सम्मोहक परमाणुओं को मोह ___वंदना एक प्रवृत्ति है। उससे दो कार्य निष्पन्न होते हैंतथा विघातक परमाणुओं को अन्तराय कर्म कहा जाता है। नीच गोत्र का क्षय-यह निर्जरा है तथा उच्च गोत्र का बंधवीतरागता का बाधक है मोह और वीर्य का बाधक है अन्तराय यह पुण्य का बंध है। वंदना का मुख्य फल है-निर्जरा और कर्म। उनकी अनन्त-परिणतियों से आत्मा के अनन्त गुण प्रासंगिक फल है--पुण्य कर्म का बंध । इनसे यह सिद्धान्त फलित आवृत, सम्मोहित और प्रतिहत होते हैं। होता है-जहां-जहां शुभ प्रवृत्ति है वहां-वहां निर्जरा है। एक १३. (सूत्र ८) भी शुभ प्रवृत्ति ऐसी नहीं है जिससे केवल पुण्य का बंध हो आलोचना, निन्दा और गर्हा-ये तीनों प्रायश्चित्त सूत्र और निर्जरा न हो। पुण्य का बंध निर्जरा का सहचारी कार्य है। हैं। इनके द्वारा प्रमादजनित आचरण का विशोधन किया जाता १७. प्रतिक्रमण से (पडिक्कमणेणं) है। आलोचना का मूल आधार है-ऋजुता। माया, निदान अकलंक ने प्रतिक्रमण का अर्थ-अतीत के दोषों से (पौदगलिक सख का संकल्प और मिथ्यादर्शनशल्य ये तीनों निवृत्त होना किया है।' हरिभद्रसूरी के अनुसार अशभ प्रवृत्ति साधना के विधन हैं। ये साधक को मोहासक्ति की ओर ले जाते से फिर शुभ प्रवृत्ति में वापस आना प्रतिक्रमण है। अशुभ योग हैं। आलोचना साधक को आत्मा की ओर ले जाती है, इसलिए से व्रत में छिद्र उत्पन्न हो जाते हैं। प्रतिक्रमण से व्रत के छिद्र उससे मायात्रिक के कांटे निकल जाते निन्दा भक्त पनि पुनः निरुद्ध हो जाते हैं। सूत्रकार ने व्रत-छिद्र के निरोध के पश्चात्ताप की भावना है। उससे अकरणीय के प्रति विरक्ति पैदा पाच काम बतला होती है। गर्हा से व्यक्ति के अहंकार का विलय होता है। अहंकार (१) आम्नव का निरोध हो जाता है। से ग्रस्त व्यक्ति उद्धतभाव से अनाचरण का आसेवन कर लेता (२) अशुभ प्रवृत्ति से होने वाले चरित्र के धब्बे समाप्त है। अहंकार का विलय होने पर आचरण संयत हो जाता है। हो जाते हैं। १४. सामायिक से असत्प्रवृत्ति की विरति (सामाइएणं (३) आठ प्रवचन माताओं (पांच समितियों और तीन सावज्जजोगविरइ) गप्तियों) में जागरूकता बढ़ जाती है। सामायिक और सावद्ययोगविरति में कार्य-कारण संबंध (४) संयम के प्रति एकरसता या समापत्ति सध जाती है। हैं। सावद्ययोगविरति कारण है, सामायिक कार्य है। कार्य और (५) समाधि की उपलब्धि होती है। कारण एक साथ कैसे हो सकते हैं, इसके समाधान में १८. कायोत्सर्ग से (काउस्सग्गेण) वृत्तिकार ने बतलाया है कि वृक्ष कारण है और छाया कार्य है, सामाचारी-अध्ययन में कायोत्सर्ग को 'सर्व-दुःख विमोचक' फिर भी दोनों एक साथ उपलब्ध होते हैं।' कहा है। शान्त्याचार्य ने कायोत्सर्ग का अर्थ-'आगमोक्त नीति १५. दर्शन (दर्शनाचार) की विशुद्धि (दंसणविसोहिं) के अनुसार शरीर को त्याग देना' किया है। क्रिया -विसर्जन दर्शन का अर्थ है–सम्यक्त्व। प्रस्तुत प्रकरण में दर्शन और ममत्व-विसर्जन—ये दोनों आगमोक्त नीति के अंग हैं। १. बृहवृत्ति, पत्र ५९०: विरतिसहितस्यैव सम्भवात्, न चैव ३. राजवार्तिक, ६।२४। तुल्यकालत्वेनानयोः कार्यकारणभावासम्भव इति वाच्यं, केषुधित् ४. आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति। तुल्यकालेष्वपि वृक्षच्छायादिवत् कार्यकारणभावदर्शनाद् । ५. उत्तरज्झयणाणि, २६।३८,४१,४६,४६। २. वही, पत्र ५८० : दर्शनं सम्यक्त्वं, तस्य विशुद्धिः-तदुपघातिकर्मापगमतो ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८१ : कायः-शरीर तस्योत्सर्गः-आगमोक्तनीत्या निर्मलीभवनं दर्शनविशुद्धिः। परित्यागः कायोत्सर्गः। Jain Education Intemational Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४९० अध्ययन २६ : सूत्र १३-१७ टि० १६-२४ आवश्यक नियुक्ति में कायोत्सर्ग के पांच काम निर्दिष्ट हैं- २. कुछ मनुष्य महाकर्म के साथ मनुष्य भव में आते हैं (१) देह की जड़ता का विशोधन और अल्पकालीन मुनि-पर्याय का पालन कर मुक्त (२) मति की जड़ता का विशोधन हो जाते हैं, जैसे—गजसुकुमाल अनगार। यह दूसरे (३) सुख-दुःख की तितिक्षा प्रकार की अन्तक्रिया है। (४) अनुप्रेक्षा ३. कुछ पुरुष महाकर्म के साथ मनुष्य भव में आते हैं (५) ध्यान। और दीर्घकालीन मुनि-पर्याय का पालन कर मुक्त १९. (तीयपडुप्पन्न) हो जाते हैं, जैसे-चक्रवर्ती सनत्कुमार। यह तीसरे यहां अतीत और प्रत्युत्पन्न-ये दो पद हैं। प्रत्युत्पन्न प्रकार की अन्तक्रिया है। का अभिप्राय वर्तमान क्षण से नहीं है। अतीत का तात्पर्यार्थ है कुछ पुरुष अल्पकर्म के साथ मनुष्य भव में आते हैं दूर का अतीत और प्रत्युत्पन्न का अर्थ है निकटवर्ती अतीत। और अल्पकालीन मुनि-पर्याय का पालन कर मुक्त वर्तमान क्षण में प्रायश्चित्तार्ह प्रवृत्ति की विशोधि की जा रही है, हो जाते हैं, जैसे-भगवती मरुदेवा। यह चौथे इसलिए प्रत्युत्पन्न का अर्थ निकटवर्ती अतीत करना उचित प्रकार की अन्तक्रिया है। इन कथाओं के लिए देखें-ठाणं ४।१ का टिप्पण। यहां प्रायश्चित्त के द्वारा प्रायश्चित्तार्ह प्रवृत्ति विवक्षित २२. वैमानिक देवों में (कप्पविमाणो...) वृत्तिकार ने कल्प का अर्थ-बारह देवलोक और विमान २०. स्तव और स्तुति (थवथुइ) का अर्थ-ग्रैवेयक और अनुत्तरविमान किया है। सामान्यतः 'स्तुति' और 'स्तव' इन दोनों का अर्थ २३. काल-प्रतिलेखना...से (कालपडिलेहणयाए) 'भक्ति और बहुमानपूर्ण श्रद्धाञ्जलि अर्पित करना' है। किन्तु श्रमण की दिन-चर्या में काल-मर्यादा का बहुत बड़ा साहित्य-शास्त्र की विशेष परम्परा के अनुसार एक, दो या स्थान रहा है। दशवैकालिक में कहा है-“वह सब काम ठीक तीन श्लोक वाली श्रद्धाञ्जलि को 'स्तुति' और तीन से अधिक समय पर करे। यही बात सूत्रकृतांग में कही गई है। श्लोक वाली श्रद्धाञ्जलि को 'स्तव' कहा जाता है। कुछ लोग व्यवहार में बताया गया है-अस्वाध्याय में स्वाध्याय न किया सात श्लोक तक की श्रद्धाञ्जलि को भी स्तुति मानते हैं। जाए। काल-ज्ञान के प्राचीन साधनों में 'दिक्-प्रतिलेखन' और २१. मोक्ष-प्राप्ति (अंतकिरिय) 'नक्षत्र-अवलोकन' प्रमुख थे। मुनि स्वाध्याय से पूर्व काल की अन्त का तात्पर्य है-भव या कर्मों का विनाश । उसको प्रतिलेखना करते थे। जिन्हें नक्षत्र-विद्या का कुशल ज्ञान होता, फलित करने वाली क्रिया अन्तक्रिया कहलाती है। तात्पर्यार्थ में वे इस कार्य के लिए नियुक्त होते थे। यांत्रिक घड़ियों के अभाव इसका अर्थ है.-मोक्ष। अन्तक्रिया फलित होती है सूक्ष्म शरीर में इस कार्य को बहुत महत्त्व दिया जाता था। विशेष विवरण के छूट जाने पर। के लिए देखिए-ओघनियुक्ति, गा०६४१-६५४। स्थानांग में चार प्रकार की अन्तक्रिया का निर्देश प्राप्त २४. मार्ग (सम्यक्त्व) (मग्ग) है।' उनका संक्षित विवरण इस प्रकार है शान्त्याचार्य ने मार्ग के तीन अर्थ किए हैं—(१) सम्यक्त्व'', १. कुछ मनुष्य अल्पकर्मों के साथ मनुष्य जीवन में (२) सम्यक्त्व एवं ज्ञान" और (३) मुक्ति-मार्ग।२ आते हैं, पर दीर्घकालीन मुनि-पर्याय का पालन कर मार्ग-फल का अर्थ 'ज्ञान' किया गया है। उत्तराध्ययन मुक्त हो जाते हैं, जैसे–चातुरंत चक्रवर्ती सम्राट् (२८।२) में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप–इन चारों को भरत। यह प्रथम प्रकार की अन्तक्रिया है। 'मार्ग' कहा है। प्रायश्चित्त के प्रकरण में मार्ग का अर्थ आवश्यक नियुक्ति, गाथा १४६२ : देहमइजडसुद्धी सुहदुक्खतितिक्खा य अणुप्पेहा। झायइ य सुहं झाणं, एयग्गो काउसग्गम्मि ।। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८१ : अतीतं चेह चिरकालभावित्वेन प्रत्युत्पन्नमिव प्रत्युत्पन्नं चासन्नकालभावितयाऽतीतप्रत्युत्पन्नम्। ३. वही, पत्र ५८१ : प्रायश्चित्तं उपचारातू प्रायश्चित्ताहमतिचार। ४. वही, पत्र ५८१ : एगदुगतिसिलोगा (थूइओ) अन्नेसिं जाव हुंति सत्तेव। देविंदत्थवमाई तेण परं थुत्तया होति ।। ५. ठाणं, ४।। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८२ : कल्पा-देवलोका विमानानि-वेयकानुत्तर विमानरूपाणि। ७. दसवेआलियं, ५२।४ : काले कालं समायरे। ८. सूयगडो, २१११५ : अन्नं अन्नकाले, पाणं पाणकाले, वत्थं वत्थकाले, लेणं लेणकाले, सयणं सयणकाले। ६. व्यवहार सूत्र, ७११०६ : नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असज्झाए सज्झाय करित्तए। १०. बृहवृत्ति, पत्र ५८३: मार्गः-इह ज्ञानप्राप्तिहेतुः सम्यक्त्वम्। ११. वही, पत्र ५७३ : यद्वा मार्ग-चारित्रप्राप्तिनिबन्धनतया दर्शनज्ञानाख्यम्। १२. वही, पत्र ५८३ : अथवा 'मार्ग च' मुक्तिमार्ग क्षायोपशमिकदर्शनादि। १३. वही, पत्र ५८३ : तत्फलं च ज्ञानम्। Jain Education Intemational Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ४९१ अध्ययन २६ : सूत्र १८-२० टि० २५-२८ सम्यक्त्व अधिक उपयुक्त है। प्रायश्चित्त तपस्यामय होता है, बार-बार दोहराना। इसलिए तप उसका परिणाम नहीं हो सकता।' चारित्र (४) अनुप्रेक्षा-परिचित और स्थिर विषय पर चिन्तन (आचार-शुद्धि) इसी सूत्र में आगे प्रतिपादित है। शेष ज्ञान करना। और दर्शन (सम्यक्त्व) दो रहते हैं। उनमें दर्शन 'मार्ग' है और (५) धर्मकथा-स्थिरीकृत और चिन्तित विषय का उपदेश उसकी विशुद्धि से ज्ञान विशुद्ध होता है, इसलिए वह 'मार्ग-फल' करना। २०वें से २४वें सूत्र तक स्वाध्याय के इन्हीं पांच प्रकारों आचार्य वट्टकेर ने श्रद्धान (दर्शन) को प्रायश्चित्त का के परिणाम बतलाए गए हैं। एक प्रकार माना है। वृत्तिकार वसुनन्दि ने उसके दो अर्थ २७. तीर्थ-धर्म का अवलम्बन करता है (तित्थधम्म अवलंबई) किए हैं—(१) तत्त्वरुचि का परिणाम और (२) क्रोध आदि का शान्त्याचार्य ने तीर्थ के दो अर्थ किए हैं-गणधर और परित्याग। प्रवचन। भगवती में चतुर्विध संघ को 'तीर्थ' कहा गया है। सूत्रकार का आशय यह है कि प्रायश्चित्त से दर्शन की गौतम ने कहा---"भंते! तीर्थ को तीर्थ कहा जाता है या विशिष्ट विशुद्धि होती है। इसलिए ज्ञान और दर्शन को तीर्थंकर को तीर्थ कहा जाता है ?" प्रायश्चित्त भी माना जा सकता है और परिणाम भी। भगवान् ने कहा-“गौतम! अर्हत् तीर्थ नहीं होते, वे २५. (सूत्र १८) तीर्थंकर होते हैं। चतुर्वर्ण श्रमण संघ-साधु, साध्वी, श्रावक सत्य की प्राप्ति उसी व्यक्ति की होती है, जो अभय होता और श्राविकाओं का संघ तीर्थ कहलाता है।" है। भय के हेतु है-राग और द्वेष । उनसे वैर-विरोध बढ़ता आवश्यक नियुक्ति में प्रवचन का एक नाम तीर्थ है। है। वैर-विरोध होने पर आत्मा की सहज प्रसन्नता नष्ट हो इस प्रकार तीर्थ के तीन अर्थ हुए। इनके आधार पर तीर्थ धर्म जाती है। सब जीवों के साथ मैत्री-भाव नहीं रहता। मन भय के तीन अर्थ होते हैंसे भर जाता है। इस प्रकार व्यक्ति सत्य से दूर हो जाता है। (१) गणधर का धर्म-शास्त्र-परम्परा को अविच्छिन्न जो सत्य को पाना चाहता है, उसके मन में राग-द्वेष की रखना।" गांठ तीव्र नहीं होती। वह सबके साथ मैत्री-भाव रखता है। (२) प्रवचन का धर्म-स्वाध्याय करना ।१२ उसकी आत्मा सहज प्रसन्नता से परिपूर्ण होती है। उससे (३) श्रमण-संघ का धर्म । प्रमादवश कोई अनुचित व्यवहार हो जाता है तो वह तुरंत यहां अध्यापन के प्रकरण में प्रथम अर्थ ही उपयुक्त उसके लिए अनुताप प्रकट कर देता है—क्षमा मांग लेता है। लगता है। जिस व्यक्ति में अपनी भूल के लिए अनुताप व्यक्त करने की तीर्थ शब्द की विशेष जानकारी के लिए देखिएक्षमता होती है, उसी में सहज प्रसन्नता, मैत्री और अभय- विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १०३२-१०५१। ये सभी विकसित होते हैं। २८. कर्मों और संसार का अन्त करने वाला (महानिज्जरे २६. (सूत्र १९) महापज्जवसाने) स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं-- यह वाक्यांश आत्मा की प्रकृष्ट विशुद्धि का द्योतक है। (१) वाचना–अध्यापन करना। कर्मों का विपुल मात्रा में क्षीण होना महानिर्जरा है। महापर्यवसान (२) प्रतिपृच्छा-अज्ञात विषय की जानकारी या ज्ञात के दो अर्थ हैं-समाधिमरण और अपुनर्मरण। जिस व्यक्ति के विषय की विशेष जानकारी के लिए प्रश्न करना। महानिर्जरा होती है, वह समाधिमरण को प्राप्त होता है। यदि (३) परिवर्तना-परिचित विषय को स्थिर रखने के लिए संपूर्ण कर्मों की निर्जरा हो जाती है तो वह अपुनर्मरण को यहा अध्या १. मूलाचार, पंचाचाराधिकार, गाथा १६४ : ६. भगवई, २०७४ : तित्थं भंते ! तित्थं ? तित्थगरे तिथं ? गोयमा ! पायच्छित्तं ति तवो, जेण विसुज्झदि हु पुवकयपावं। अरहा ताव नियमं तित्थकरे, तित्थं पुण चाउवण्णे समणसंघे, तं २. वही, गाथा १६५। जहा-समणा समणीओ सावया सावियाओ। ३. वही, गाथा १६५ वृत्ति : श्रद्धानं तत्त्वरुचौ परिणामः क्रोधादिपरित्यागो १०. आवश्यक नियुक्ति, गाथा १२४ : वा। सुय धम्म तित्थ मग्गो, पावयणं पवयणं च एगट्ठा। ४. तुलना--योग-दर्शन, समाधि-पाद ३३ : मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःख- सुत्तं तंतं गंधो, पाढो सत्थं च एगट्ठा।। पुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्। ११. बृहबृत्ति, पत्र ५८४ : तीर्थमिह गणधरस्तस्य धर्म:-आचारः ५. उत्तरज्झयणाणि, ३०३४। श्रुतधर्मप्रदानलक्षणस्तीर्थधर्मः।। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८४ : वाचना-पाठनम्। १२. वही, पत्र ५८४ : यदि वा तीर्थ-प्रवचन श्रुतमित्यर्थस्तद्धर्म:७. वही, पत्र ५८४ : परावर्त्तना-गुणनम्। स्वाध्यायः । ८. वही, पत्र ५८४ : अनुप्रेक्षा–चिन्तनिका। Jain Education Intemational Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४९२ अध्ययन २६ : सूत्र २१-२५ टि० २६-३६ प्राप्त होता है, जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। वृत्तिकार ने अनुप्रेक्षा का अर्थ इस प्रकार किया है। - __ स्थानांग सूत्र के अनेक प्रसंगों पर इसका प्रयोग प्राप्त अर्थ का विस्मरण न हो इसलिए अर्थ का बार-बार चिन्तन होता है करना। १. मनोरथत्रयी करने वाला श्रमण तथा श्रमणोपासक अनुप्रेक्षा के छह लाभ निर्दिष्ट हैं-- . महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। १. कर्म के गाढ बंधन का शिथिलीकरण । (ठाणं ३।४६६,४६७)। २. दीर्घकालीन स्थिति का अल्पीकरण। २. अग्लानवृत्ति से सेवा करने वाला श्रमण महानिर्जरा ३. तीव्र विपाक का मंदीकरण। और महापर्यवसान वाला होता है। ४. प्रदेश-परिमाण का अल्पीकरण। (ठाणं ५।४४,४५) ५. आगत वेदनीय कर्म का उपचय न होना। २९. सूत्र, अर्थ और उन दोनों से संबंधित (सुत्तत्थ ६. संसार का अल्पीकरण। तदुभयाई) असातवेदनीय कर्म के बंध का कारण है-दूसरों को आगम तीन प्रकार के होते हैं.-सत्रागम. अर्थागम और दुःख दना, सताना अथवा दूसरों के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार गगम और अर्थागम का करना। तत्त्व, पदार्थ के स्वभाव और अनित्यत्व आदि की संयुक्त उच्चारण ही है। जिस आगम की रचना में सूत्र और अनुप्रेक्षा करने से करुणा की चेतना जागती है, आत्मीपम्य वृत्ति-दोनों का समावेश होता है, उस आगम को तदुभयागम दृष्टि का निर्माण होता है, किसी भी प्राणी को दुःख देने की कहा गया है। वृत्ति समाप्त हो जाती है। इसलिए अनुप्रेक्षा करने वाले व्यक्ति ३०. कांक्षा मोहनीय कर्म (कंखामोहणिज्ज कम्म) के असातवेदनीय कर्म का बंध पुनः-पुनः नहीं होता।' शान्त्याचार्य ने कांक्षा मोहनीय का अर्थ 'अनाभिग्रहिक ३३. लंबे मार्ग वाली (दीहमद्ध) मिथ्यात्व' किया है।' अभयदेव सूरि के अनुसार इसका अर्थ यहां 'मकार' अलाक्षणिक है। मूल शब्द है-दीहद्धं-दीर्घाद्धं । है-मिथ्यात्व मोहनीय। इसके दो अर्थ हैं--दीर्घकाल तथा लंबा मार्ग। आगमों में सत्य की व्याख्या करने वाले अनेक मतवाद हैं। उनके 'अद्धा' शब्द के दोनों अर्थ प्राप्त हैं--काल और मार्ग। जाल में फंसकर मनुष्य मिथ्या दृष्टिकोणों की ओर झुक जाता ३४. चार अन्तों वाली (चाउरतं) है। इस झुकाव का मुख्य कारण कांक्षा मोहनीय कर्म होता है। वृत्तिकार ने अन्त का अर्थ---अवयव किया है। संसार-रूपी विशद जानकारी के लिए देखिए-भगवती, १३ । अटवी के चार अवयव हैं-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । ३१. व्यंजनलब्धि को (वंजणलद्धि) ३५. प्रवचन (पवयण) बृहद्वृत्ति में व्यंजनलब्धि की कोई व्याख्या नहीं है। प्रवचन का अर्थ है-आगम। संघ अथवा तीर्थ आगम 'वंजण-लद्धि च'-इस 'च' कार को वहां ‘पदानुसारिता-लब्धि' के आलम्बन से चलता है, इसलिए उपचार से आगम को भी का सूचक बतलाया गया है। एक पद के अनुसार शेष पदों की प्रवचन कहा गया है। प्राप्ति हो जाए, उस शक्ति का नाम 'पदानुसारिता-लब्धि' है। विशेष विवरण के लिए देखें-२८।३१ का टिप्पण। इसी प्रकार एक व्यंजन के आधार पर शेष व्यंजनों को प्राप्त ३६. (सूत्र २५) करने वाली क्षमता का नाम 'व्यंजनलब्धि' होना चाहिए। श्रुत की आराधना के दो फल बतलाए गए हैं.-अज्ञान ३२. अनुप्रेक्षा (अर्थ-चिन्तन) से (अणुप्पेहाए) का क्षय और संक्लेश का अभाव। व्यक्ति जब श्रुत की अनुप्रेक्षा के अनेक अर्थ हैं--(१) तत्त्व का चिन्तन आराधना करता है तब उसके सारे संशय मिट जाते हैं. करना, (२) ज्ञात अर्थ का अभ्यास करना, (३) अर्थ का अज्ञान नष्ट हो जाता है। क्योंकि निरन्तर स्वाध्याय करते रहने चिंतन करना, (3) वस्तु के स्वभाव का बार-बार चिंतन । से तथा शब्दों की मीमांसा और विमर्श करते रहने से विशिष्ट करना। तत्त्वों की उपलब्धि होती है, जानकारियां बढ़ती हैं। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८४ : काक्षामोहनीयं कर्म अनभिग्रहिकमिध्यात्वरूपम्। २. भगवती, १३ वृत्ति : मोहयतीति मोहनीय कर्म, तच्च चारित्रमोहनीयमपि भवतीति विशेष्यते--काङ्क्षा-अन्यान्यदर्शनग्रहः उपलक्षणत्वाच्चास्य शंकादिपरिग्रहः, ततः काक्षाया मोहनीय काङ्क्षामोहनीयम्- मिथ्यात्वमोहनीयमित्यर्थः। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८४ : चशव्दाद् व्यञ्जनसमुदायात्मकत्वाद्वा पदस्य तल्लब्धि च पदानुसारितालक्षणामुत्पादयति। ४. वही, पत्र ५८४ : सूत्रवदर्थऽपि संभवति विस्मरणमतः सोऽपि परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षा। ५. भगवई, ८।४२३ । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८५ : दीहमद्ध ति मकारोऽलाक्षणिकः दीर्घाद्धं दीर्घकालं, दीर्घोवाऽध्या-तत्परिभ्रमणहेतुः कर्मरूपो मार्गों यस्मिन्। ७. वही, पत्र ५८५ : चत्वार:-चतुर्गतिलक्षणा अन्ताः-अवयवा यस्मिस्तच्चतुरन्तं संसारकांतारम् । Jain Education Intemational Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ४९३ अध्ययन २६ : सूत्र २६-३२ टि० ३७-४१ अज्ञान के कारण आग्रह और राग-द्वेष बढ़ता है। इससे ३९. (सूत्र ३०) चित्त संक्लिष्ट रहता है। जब व्यक्ति को तत्त्व की प्राप्ति हो उत्सुकता, निर्दयता, उद्धत मनोभाव, शोक और जाती है तब सारा संक्लेश मिट जाता है। वृत्तिकार ने एक चारित्र-विकार-इन सबका मूल सुख की आकांक्षा है। उसे प्राचीन गाथा उद्धृत की है छोड़ कर कोई भी व्यक्ति अनुत्सुक, दयालु, उपशांत, अशोक जह जह सुयमो (मव) गाहइ अइसयरसपसरसंजुयमपुव्वं। और पवित्र आचरण वाला हो सकता है। उत्सुकता आदि सुख तह तह गल्हाइ मुणी णवणवसंवेगसद्धाए।। की आकांक्षा के परिणाम हैं। वे कारण के रहते परित्यक्त नहीं साधक जैसे-जैसे श्रुत का अवगाहन करता है, ज्ञान की होते। आवश्यक यह है कि कारण के त्याग का प्रयत्न किया गहराइयों में जाता है वैसे-वैसे उसे अतिशय रस आता है और जाए, परिणाम अपने आप त्यक्त हो जाएंगे। उसे अपूर्व आनन्द का अनुभव होता है। उसमें संवेग के . ४०. (सूत्र ३१) नए-नए आयाम खुलते हैं और उसकी मानसिक प्रसन्नता संग और असंग–ये दो शब्द समाज और व्यक्ति के अत्यधिक बढ़ जाती है।' सूचक हैं। अध्यात्म की भाषा में समुदाय-जीवी वह होता है, ३७. (सूत्र २६) जिसका मन संगसक्त (अनेकता में लिप्त) होता है और इस सूत्र में एकाग्र मन की स्थापना (मन को एक व्यक्ति-जीवी या अकेला वह होता है, जिसका मन असंग होता अग्र—आलम्बन पर स्थित करने) का परिणाम 'चित्त-निरोध' है—किसी भी वस्तु या व्यक्ति में लिप्त नहीं होता। इसी तथ्य वतलाया गया है। तिरपनवे सूत्र में बतलाया गया है कि के आधार पर यह कहा जा सकता है कि असंग मन वाला मन-गुप्ति से एकाग्रता प्राप्त होती है। इससे मन की तीन समुदाय में रहकर भी अकेला रहता है और संग-लिप्त मन अवस्थाएं फलित होती हैं-(१) गुप्ति, (२) एकाग्रता और वाला वाला अकेले में रह कर भी समुदाय में रहता है। (३) निरोध। __ कहा जाता है चित्त चंचल है, अनेकाग्र है। वह किसी मन को चंचल बनाने वाले हेतुओं से उसे बचाना एक अग्र (लक्ष्य) पर नहीं टिकता। किन्तु इस मान्यता में थोड़ा सुरक्षित रखना 'गुप्ति' कहलाती है। ध्येय-विषयक ज्ञान की परिवर्तन करने की आवश्यकता है। चित्त अपने आप में चंचल एकतानता 'एकाग्रता' कहलाती है। मन की विकल्प-शून्यता को या अनेकाग्र नहीं है। उसे हम अनेक विषयों में बांध देते हैं, 'निरोध' कहा जाता है। तब वह संग-लिप्त बन जाता है और यह संग-लिप्तता ही महर्षि पतंजलि ने चित्त के चार परिणाम बतलाए हैं उसकी अनेकाग्रता का मूल है। अनासक्त मन कभी चंचल नहीं (१) व्युत्थान, (२) समाधि-प्रारम्भ, (३) एकाग्रता और होता और आसक्ति के रहते हुए कभी उसे एकाग्र नहीं किया (४) निरोध। यहां एकाग्रता और निरोध तुलनीय हैं। जा सकता। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि जितनी आसक्ति उतनी अनेकाग्रता, जितनी अनासक्ति उतनी एकाग्रता, ३८. (सूत्र २७-२९) पूर्ण अनासक्ति मन का अस्तित्व समाप्त। स्थानांग में उपासना के दस फल बताए गए हैं। उनमें जैन आगमों में मुनि का एक विशेषण है-अप्रतिबद्ध से संयम और अनास्रव (अनाश्रव), तप और व्यवदान तथा विहारी। मुनि की सारी जीवनचर्या अप्रतिबद्ध होती है, अक्रिया और सिद्धि का कार्य-कारण-माला के रूप में उल्लेख व्यक्ति-विशेष या स्थान-विशेष से प्रतिबद्ध नहीं होती। प्रस्तुत है। बौद्ध-दर्शन में वाईस इन्द्रियां मानी गयी हैं। उनमें श्रद्धा, सूत्र की यही प्रतिध्वनि है। प्रतिबद्धता आसक्ति है। वह व्यक्ति वीर्य, स्मृति, समाथि और प्रज्ञा इन पांच इन्द्रियों तथा को बांधती है, मन को व्यग्र बनाती है। दशवकालिक सूत्र में अहातमाज्ञास्यामीन्द्रिय. आजेन्द्रिय और अज्ञातावीन्द्रिय---इन कहा है-"गामे कले वा नगरे व देसे। ममत्तभावं न कहिं चि तीन अन्तिम इन्द्रियों से विशुद्धि का लाभ होता है, इसलिए कुज्जा।" (चूलिका २८.)। इन्हें व्यवदान का हेतु माना गया है। श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, ४१. विविक्त-शयनासन (विवित्तसयणासण) समाधि और प्रज्ञा के बल से क्लेश का विष्कम्भन और बाह्य-तप का छठा प्रकार विविक्त-शयनासन है। तीसवें आर्य-मार्ग का आवहन होता है। अन्तिम तीन इन्द्रिय-अनास्रव अध्ययन में बताया गया है-एकांत, आवागमन-रहित और हैं। निर्वाणादि के उत्तरोत्तर प्रतिलम्भ में इनका आधिपत्य है।" स्त्री-पशु-वर्जित स्थान में शयनासन करने का नाम विविक्तव्यवदान का अर्थ 'कर्म-क्षय' या 'विशुद्धि' है। यहां निर्जरा के शयनासन है।" बौद्ध-साहित्य में विविक्त-स्थान के नौ प्रकार स्थान में इसका प्रयोग हुआ है। बतलाए गए हैं—(१) अरण्य, (२) वृक्षमूल, (३) पर्वत, या विशुन इनका आधिपत्यनायव भी बाह्य-तप १. वृहवृत्ति, पत्र ५०६ । २. पातजलयोगदर्शन, ३६ ३।१२। 3. टागं, ३1४11 ४. बौद्ध धर्म-दर्शन, पृ० ३२८-३२६। ५. उत्तरज्झयणाणि, ३०१२८ । Jain Education Intemational ation Intermational For Private & Personal use only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४९४ अध्ययन २६ : सूत्र ३२-३६ टि० ४२-४८ (४) कन्दरा, (५) गिरि-गुहा, (६) श्मशान, (७) वन-प्रस्थ, की रही है। किन्तु साधना का अग्रिम लक्ष्य है-आत्म-निर्भरता। (८) अभ्यवकाश और (६) पलाल-पुज्ज। । मुनि प्रारम्भिक दशा में सामुदायिक-जीवन में रहे और दूसरों एकांत शयनासन करने वाले का मन आत्म-लीन हो का आलम्बन भी प्राप्त करे। फिर भी उसे इस बात की जाता है, इसलिए इसे 'संलीनता' भी कहा जाता है। बौद्ध-पिटकों विस्मृति नहीं होनी चाहिए कि उसका अग्रिम लक्ष्य स्वावलम्बन में एकांतवास के लिए 'प्रति-संलयन' शब्द भी प्रयुक्त होता है। है। स्थानांग में इस जीविका-सम्बन्धी स्वावलम्बन को 'सुख-शय्या' औपपातिक में विविक्त शयनासन के लिए 'प्रतिसंलीनता' का कहा है। उसका संकेत इस सूत्र में प्राप्त है। चार सुख-शय्याओं प्रयोग हुआ है। इस प्रकार प्राचीन-साहित्य में एकांत स्थान या में यह दूसरी सुख-शय्या है। उसका स्वरूप इस प्रकार हैकामोत्तेजक इन्द्रिय-विषयों से वर्जित स्थान के लिए कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होकर विविक्त-शयनासन-संलीनता, प्रतिसंलयन और प्रति-संलीनता- अपने लाभ से सन्तुष्ट होता है, दूसरे के लाभ का आस्वाद ये शब्द प्रयुक्त होते रहते हैं। नहीं करता, स्पृहा नही करता, प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा ४२. पौष्टिक आहार का वर्जन करने वाला (विवित्ताहारे) नहीं करता; वह दूसरे के लाभ का आस्वाद नहीं करता हुआ, घी, दूध, मक्खन आदि विकृतियां हैं। इनसे रहित स्पृहा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुआ, अभिलाषा आहार विविक्त आहार है। तात्पर्यार्थ में यह पौष्टिक आहार नहीं करता हुआ, मन में समता को धारण करता हुआ धर्म का निषेध है। में स्थिर हो जाता है। ४३. एकांत में रत (एगंतरए) 'जकार' को 'गकार' वर्णादेश होने पर सम्भोज का - इसका अर्थ है-एकांत स्थान में रत रहने वाला। प्राकृत मसभाग शब्द निष्पन्न हाता है। प्राचीन परम्परा के अनुसार एकांत स्थान तीन माने जाते हैं. ४६. मोक्ष की सिद्धि के लिए (आययद्रिया) श्मशान, वृक्षमूल और निसीहिया-निषद्या। ये स्थान इसके संस्कृत रूप दो बनते हैं—आयतार्थिका और ध्यान-स्वाध्याय के लिए बाधारहित होते थे। खारवेल के आत्मार्थिका। वृत्तिकार ने 'आयत' शब्द का अर्थ मोक्ष अथवा शिलालेख में भी 'निसीहिया' शब्द का प्रयोग है। उसने श्रमणों संयम किया है। आयतार्थिक का अर्थ है-मोक्षार्थी अथवा के लिए अनेक चैत्य और निसीहियाओं का निर्माण करवाया था। संयमार्थी । आत्मार्थी का अर्थ है--स्वावलम्बी अथवा स्वतन्त्र। वृत्तिकार ने 'एगंतरए' का अर्थ निश्चय से रत किया है। ४७. उपधि (वस्त्र आदि उपकरणों) के प्रत्याख्यान से तात्पर्यार्थ में इसे संयम का वाचक माना है। यह अर्थ (उवहिपच्चक्खाणेणं) प्रासंगिक नहीं लगता। मुनि के लिए वस्त्र आदि उपधि रखने का विधान किया ४४. (सूत्र ३३) गया है। किन्तु विकास-क्रम की दृष्टि से उपधि-परित्याग को प्रवृत्ति और निवृत्ति-ये दो सापेक्ष शब्द हैं। प्रवर्तन का अधिक महत्त्व दिया गया है। उपधि रखने में दो बाधाओं की अर्थ है 'करना' और निवर्तन का अर्थ है 'करने से दूर होना। संभावना है—(१) परिमंथ और (२) संक्लेश। उपधि-प्रत्याख्यान से जो नहीं करता-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति नहीं ये दोनों सम्भावनाएं समाप्त हो जाती हैं। परिमंथ-उपधि की करता, वही व्यक्ति पाप-कर्म नहीं करने के लिए तत्पर होता प्रतिलेखना से जो स्वाध्याय-ध्यान की हानि होती है, वह उपधि है। जहां पाप-कर्म का कारण नहीं होता, वहां पूर्व-अर्जित कर्म के परित्याग से समाप्त हो जाती है। संक्लेश-जो उपधि का स्वयं क्षीण हो जाते हैं। बन्धन आश्रव के साथ ही टिकता है। प्रत्याख्यान करता है उसके मन में 'मेरा वस्त्र पुराना हो गया है, संवर होते ही वह टूट जाता है। इसीलिए पूर्ण संवर और पूर्ण फट गया है, सूई मांग कर लाऊं, उसे सांधू'-ऐसा कोई संक्लेश निर्जरा ये दोनों सहवर्ती होते हैं। नहीं होता। असंक्लेश का यह रूप आचारांग में प्रतिपादित ४५. सम्भोज-प्रत्याख्यान (मण्डली-भोजन) का त्याग है।' मूलाराधना में इसे 'परिकर्म-वर्जन' कहा गया है।" (संभोगपच्चक्खाणेणं) ४८. आहार-प्रत्याख्यान से (आहारपच्चक्खाणेणं) श्रमण-संघ में सामान्य प्रथा मण्डली-भोजन (सह-भोजन) आहार-प्रत्याख्यान के दो अर्थ हो सकते हैं१. विशुद्धिमग्ग दीपिका, पृ० १५५ : 'विवित्तमासनं' ति अरझं रुक्खमूलं ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८७ : आयतो-मोक्षः संयमो वा, स एवार्थ:ति आदि नवविध सेनासनं। प्रयोजनं विद्यते येषामित्यायतार्थिकाः। २. उत्तरज्झयणाणि, ३०1८। ६. वही, पत्र ५८८ : परिमन्थः-स्वाध्यायादिक्षतिस्तदभावोऽपरिमन्थः । ३. बुद्धचर्या, पृ० ४६६। १०. आयारो ६६०:जे अचेले परिसिए, तस्स णं भिक्खुस्स णो एवं भवइ४. औपपातिक, सूत्र १६ परिजुण्णे मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि, सुत्तं जाइस्सामि, सूई जाइस्सामि, संधिस्सामि, ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८७ : विविक्तो-विकृत्यादिरहित आहारः। सीविस्सामि, उक्कसिस्सामि, बोक्कसिस्सामि, परिहिस्सामि, पाउणिस्सामि। ६. वही, पत्र ५८७ : एकान्तेन-निश्चयेन रतः-अभिरतिमानेकान्तरतः ११. मूलाराधना, २८३ विजयोदया : याचनसीवनशोषणप्रक्षालनादिरनेको संयम इति गम्यते। हि व्यापार: स्वाध्यायध्यानविनकारी अचेलकस्य तन्न तथेति ७. ठाणं, ४।४५११ परिकर्मविवर्जनम्। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९५ अध्ययन २६ : सूत्र ३६-४१ टि० ४६-५२ (१) जीवन पर्यन्त अनशन और (२) निश्चित अवधि- पर्यन्त अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श हो जाती है-अरूपी सत्ता अनशन । में अवस्थित हो जाती है। अगुरु-लघु, स्थिर - अवगाहना और अव्याबाध सुख ( सहज सुख) — ये गुण प्रकट हो जाते हैं । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त शुद्धि और अनन्त वीर्यये पहले ही प्राप्त हो चुके होते हैं। प्रवृत्ति और शरीर के बन्धन से बन्धी हुई आत्मा इतस्ततः भ्रमण करती है। किंतु उन बन्धनों से मुक्त होने पर वह ऊर्ध्व-लोक के अन्तिम छोर पर पहुंच कर अवस्थित हो जाती है, फिर उसके पास गति का माध्यम नहीं होता । सम्यक्त्व-पराक्रम शांत्याचार्य ने आहार- प्रत्याख्यान का अर्थ 'अनेषणीय ( अयोग्य) भक्त - पान का परित्याग' किया है।' किन्तु इसके परिणामों को देखते हुए इसका अर्थ और अधिक व्यापक हो सकता है। आहार- प्रत्याख्यान के दो परिणाम हैं- (१) जीवन की आकाङ्क्षा का विच्छेद और (२) आहार के बिना संक्लेश प्राप्त न होना - बाधा का अनुभव न करना। ये परिणाम आहार-त्याग की साधना से ही प्राप्य हैं। एषणीय आहार नहीं मिलने पर उसका जो प्रत्याख्यान किया जाता है, उसमें भी आत्मा का स्वतंत्र भाव है। किन्तु वह योग्य आहार की अप्राप्ति से होने वाला तप है। ममत्व-हानि तथा शरीर और आत्मा के भेद -ज्ञान को विकसित करने के लिए जो आहार प्रत्याख्यान किया जाता है, वह योग्य आहार की प्राप्ति की स्थिति में किया जाने वाला तप है। उससे जीवन के प्रति निर्ममत्व और आहार के अभाव में संक्लेश रहित मनोभाव — ये दोनों सहज ही सध जाते हैं। इसलिए आहार - प्रत्याख्यान का मुख्य अर्थ 'साधना के विशेष दृष्टिकोण से तप करना' होना चाहिए। ४९. कषाय-प्रत्याख्यान से (कसायपच्चक्खाणेणं) - आत्मा विजातीय रंग में रंगी हुई होती है। उसी का नाम 'कषाय' है । कषाय के प्रत्याख्यान का अर्थ है 'आत्मा से विजातीय रंग का धुल जाना।' आत्मा की कषाय-मुक्त स्थिति का नाम है 'वीतरागता'। कषाय और विषमता — इन्हें पर्यायवाची कहा जा सकता है । कषाय से विषमता उत्पन्न होती है, इसकी अपेक्षा यह कहना अधिक उचित है कि कषाय और विषमता दोनों साथ-साथ उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार वीतरागता और समता भी एक साथ उत्पन्न होती हैं। सुख-दुःख आदि बाहरी स्थितियों में आत्मा की जो विषम अनुभूति होती है, उसका हेतु कषाय है। उसके दूर होते ही आत्मा में बाह्य-स्थिति विषमता उत्पन्न नहीं करती। इस स्थिति को 'वीतरागता' या 'आत्मा की बाह्य वातावरण से मुक्ति' कहा जा सकता है। ५०. (सूत्र ३८-३९ ) 1 इन दोनों सूत्रों में 'अयोगि दशा' और 'मुक्त-दशा' का निरूपण है। पहले प्रवृत्ति-मुक्ति (योग प्रत्याख्यान) होती है फिर शरीर मुक्ति ( शरीर प्रत्याख्यान) यहां 'योग' शब्द समावि का वाचक नहीं किन्तु मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का वाचक है। मुक्त होने के क्रम में पहले अयोगि दशा प्राप्त होती है। उससे नये कर्मों का बन्ध समाप्त हो जाता है-पूर्ण संवर हो जाता है और पूर्व संचित कर्म क्षीण हो जाते हैं। कर्म के अभाव में आत्मा शरीर-मुक्त हो जाती है और शरीर-मुक्त आत्मा में अतिशय गुणों का विकास हो जाता है। वह सर्वथा १. बृहद्वृत्ति पत्र ५८८ । प्रस्तुत सूत्र (२९) में सिखाइसयगुणत्तणं' पाठ है। समवायांग (३१1१ ) में 'सिखाइगुण' ऐसा पाठ है और उत्तराध्ययन ( ३१२०) में 'सिद्धाइगुणजोगेसु' – ऐसा उल्लेख है। आदिगुण का अर्थ मूल गुण और अतिशयगुण का अर्थ विशिष्ट गुण है। तात्पर्यार्थ में दोनों निकट आ जाते हैं। ५१. सहाय प्रत्याख्यान से (सहायपच्चक्खाणेण) जो साधु 'गण' या 'संघ' में दीक्षित होते हैं, उनके लिए दूसरे साधुओं से सहयोग लेना वर्जित नहीं है। सहाय प्रत्याख्यान का जो विधान है, वह एक विशेष साधना है । उसे स्वीकार करने के पीछे दो प्रकार का मानस हो सकता है। एक वह जो अपने पराक्रम से ही अपनी जीवन चर्या का निर्वाह करना चाहता है, दूसरे सहायक का सहारा लेना नहीं चाहतापरावलम्बी होना नहीं चाहता। दूसरा वह जो सामुदायिक जीवन के झंझावातों में अपनी समाधि को सुरक्षित नहीं पाता । सामुदायिक जीवन में कलह, क्रोध आदि कषाय और तुमंतुमथोड़ा-सा अपराध होने पर ' तूने पहले भी ऐसा किया था, तू सदा ऐसा ही करता है', इस प्रकार बार-बार टोकना - ये हो जाते हैं। साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए, फिर भी प्रमादवश वह ऐसा कर लेता है। इस स्थिति में मानसिक असमाधि उत्पन्न हो जाती है। जो मुनि संघ में रहते हुए भी स्वावलम्बी हो जाता है, किसी भी कार्य के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं होता, वह समुदाय में रहते हुए भी अकेले का जीवन जीता है। उसे कलह, क्रोध आदि कषाय और तुमंतुम आदि से सहज ही मुक्ति मिल जाती है। इससे संयम और संवर बढ़ता जाता है। मानसिक समाधि अभंग हो जाती है। सामुदायिक जीवन में रहते हुए भी अकेला रहने की साधना बहुत बड़ी साधना है। ५२. भक्त प्रत्याख्यान से (भत्तपच्चक्खाणेणं) 1 1 भक्त प्रत्याख्यान आमरण अनशन का एक प्रकार है। इसका परिणाम जन्म-परम्परा और अल्पीकरण है । इसका हेतु आहार - त्याग का दृढ़ अध्यवसाय है। देह का आधार आहार और आहार विषयक आसक्ति है। आहार की आसक्ति और आहार—दोनों के त्याग से केवल स्थूल देह का ही नहीं, अपितु सूक्ष्म देह का भी बन्धन शिथिल हो जाता है । फलतः २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८६ तथाविधदृढाध्यवसायतया संसारात्पत्वापादनात् । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४९६ अध्ययन २६ : सूत्र ४२,४३ टि० ५३,५४ सहज ही जन्म-मरण की परम्परा अल्प हो जाती है। प्रकट-लिङ्ग स्थविर-कल्पिक मुनि के रूप में समझा ५३. सद्भाव-प्रत्याख्यान से (सब्भावपच्चक्खाणेणं) जाने वाला। सद्भाव-प्रत्याख्यान का अर्थ 'परमार्थ रूप में होने वाला प्रशस्त-लिङ्ग-जीव-रक्षा के हेतुभूत रजोहरण आदि प्रत्याख्यान' है।' इस अवस्था को पूर्ण संवर या शैलेशी, जो को धारण करने वाला। चौदहवें गुणस्थान में अयोगी केवली के होती है, कहा जाता है। विशुद्ध-सम्यक्त्व-सम्यक्त्व की विशुद्धि करने वाला। इससे पूर्ववर्ती सब प्रत्याख्यान इसलिए अपूर्ण होते हैं कि उनमें समाप्त-सत्त्व-समिति--सत्त्व (पराक्रम) और समिति और प्रत्याख्यान करने की आवश्यकता शेष रहती है। इस (सम्यक् प्रवृत्ति) को प्राप्त करने वाला। भूमिका में परिपूर्ण प्रत्याख्यान होता है। उसमें फिर किसी सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वों में विश्सनीय रूप-किसी को प्रत्याख्यान की अपेक्षा नहीं रहती। इसीलिए इसे भी पीड़ा नहीं देने के कारण सबका विश्वास प्राप्त करने वाला। 'पारमार्थिक-प्रत्याख्यान' कहा गया है। इस भूमिका को प्राप्त अप्रतिलेख-उपकरणों की अल्पता के कारण अल्प आत्मा का फिर से आसव, प्रवृत्ति या बन्धन की भूमिका में भार प्रवेश नहीं होता, इसलिए इसके परिणाम को 'अनिवृत्ति' कहा जितेन्द्रिय-इन्द्रियों को वश में रखने वाला। गया है। ‘अनिवृत्ति' अर्थात् जिस स्थिति से निवर्तन नहीं विपुलतपःसमिति-समन्वागत-विपुलतप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला। होता-लौटना नहीं पड़ता। यह शुक्ल-ध्यान का चतुर्थ चरण प्रतिरूपता के परिणामों को देखते हुए 'प्रतिरूप' का है। इस अनिवृत्ति ध्यान की दशा में केवली के जो चार अर्थ 'स्थविर कल्पिक के सदृश वेश वाला' और 'प्रतिरूपता' अघात्यकर्म विद्यमान रहते हैं, वे क्षीण हो जाते हैं यह का अर्थ 'अधिक उपकरणों का त्याग' सही नहीं लगता। 'चत्तारि केवलिकम्मसे खवेइ' का भावार्थ है। 'केवलिकम्मंसे' मूलाराधना में अचेलत्व को 'जिन-प्रतिरूप' कहा है। 'जिन' शब्द का प्रयोग इस सूत्र के अतिरिक्त अट्ठावनवें और इकसठवें अर्थात् तीर्थकर अचेल होते हैं। सूत्र में भी हुआ है। 'कम्मंसे' शब्द इकहत्तरखें और बहत्तरवें 'जिन' के समान रूप (लिङ्ग) धारण करने वाले को सूत्र में प्रयुक्त हुआ है। 'कम्मंस' में जो 'अंस' शब्द है, उसका 'जिन-प्रतिरूप' कहा जाता है। प्रवचनसारोद्धार के अनुसार अर्थ कर्म-ग्रन्थ की परिभाषा के अनुसार 'सत्'-विद्यमान है। गच्छ में रहते हुए भी जिन-कल्पिक जैसे आचार का पालन ५४. (सूत्र ४३) करने वाला 'जिन-कल्पिक-प्रतिरूप' कहलाता है। यहां भी शांत्याचार्य के अनुसार 'प्रतिरूप' वह होता है, जिसका प्रतिरूप का अर्थ यही-'जिन के समान वेष वाला' यानि वेश स्थविर-कल्पिक मुनि के सरीखा हो और 'प्रतिरूपता' का जिन-कल्पिक होना चाहिए। अप्रमत्त आदि सारे विशेषणों पर अर्थ है 'अधिक उपकरणों का त्याग।" इस सूत्र में अप्रमत्त, विचार किया जाए तो यही अर्थ संगत लगता है। मूलाराधना प्रकट-लिङ्ग, प्रशस्त-लिङ्ग, विशुद्ध-सम्यक्त्व, समाप्त-सत्व- में अचेलकता के जो गण बतलाए हैं वे इस सूत्र के अप्रमत्त समिति, सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्वों में विश्वसनीय रूप अप्रतिलेख, आदि विशेषणों के बहुत निकट हैंजितेन्द्रिय और विपुलतपःसमिति-समन्वागत-ये महत्त्वपूर्ण पद उत्तराध्ययन मूलाराधना हैं। बताया गया है कि प्रतिरूपता का परिणाम लाघव है। जो (१) प्रतिरूपता का फल अचेलकता का एक गुण लघुभूत होता है, वह अप्रमत्त आदि हो जाता है। शांत्याचार्य के -लाघव -लाघव' अनुसार प्रत्येक शब्द का अर्थ इस प्रकार है (२) अप्रमत्त विषय और देह सुखों में अप्रमत्त-प्रमाद के हेतुओं का परिहार करने वाला। अनादर' बृहद्वृति, पत्र ५८६ : तत्र सद्भावन-सर्वथा पुनःकरणासंभवात्परमार्थेन आपत्स्ववैकल्यकरमध्यवसानकर च, 'समितयश्च'---उक्तरूपाः, प्रत्याख्यानं सद्भावप्रत्याख्यानं सर्वसंवररूपा शैलेशीति यावत् । 'समाप्ताः' -परिपूर्णा यस्य स समाप्तसत्चसमितिः, सूत्र निष्टान्तस्य २. वही, पत्र ५८१ : न विद्यते निवृत्तिः–मुक्तिमप्राप्य निवर्त्तनं यस्मिंस्तद् प्राकृतत्वात्परनिपातः, तत एव सर्वप्राणभृतजीवसन्चेषु विश्वसनीयरूप अनिवृत्ति शुक्लध्यानं चतुर्थभेदरूपं जनयति। तत्पीडापरिहारिचातू, 'अपडिलेह' ति अल्पार्थ ना ततो सत्यूपेक्षिन ३. वही, पत्र ५८६ : 'कम्मंस' त्ति कार्मग्रन्थिकपरिभाषयाऽशशब्दस्य इत्यल्पोकरणत्वादल्पप्रत्युपक्षः, पठ्यते च–'अवडिलोहि ति जितानि सत्पर्यायत्वात् सत्कर्माणि केवलिसत्कर्माणि-भवोपनाहिणि क्षपयति। वशीकृतानि यतिराहमितिप्रत्ययात्कचित्परिणामान्यचात्य जीन्द्रियाणि येन वही, पत्र ५८६: प्रतिः-सादृश्ये, ततः प्रतीति--स्थविरकल्पिकादिसदृशं स तथा, विपुलेन-अनेकभेद नया विस्तीर्णेन तपसा समितिभिश्च रूप-वेषो यस्य स तथा तद्भावस्तत्ता तया--अधिको पकरण- सर्वविषयानुगतत्वेन विपुलाभिम समन्वागतो---युक्ता विपुलतपः ।। परिहाररूपया। समन्वागतश्चापि भवति। वही, पत्र ५८६-५६० : 'अप्रमत्तः' प्रमादहेतूनां परिहारत इतरेषां ६. मूलाराधना. २८५ : निण पडिरूवं नाग्यायारो। चांगीकरणतः, तथा 'प्रकटलिङ्ग' स्थविरादिकल्परूपेण वतीति ७. प्रवचनसागेद्धार, गाथा :१०, नि पत्र १२७ : जिनकल्पिकप्रतियो गच्छ। विज्ञायमानत्वात्, 'प्रशस्तलिङ्ग' जीवरक्षणहेतुः रजोहरणादिधारकत्वाद, ..मृलागधना, २१६३ । 'विशुद्धसम्यक्वः' तथाप्रतिपत्त्या सम्यक्त्वविशोधनात्, तथा 'सत्वं च'-- . वहीं, २।४। Jain Education Intemational Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व - पराक्रम (३) प्रकट-लिङ्ग (४) प्रशस्त - लिङ्ग (५) विशुद्ध- सम्यक्त्व (६) समाप्त - सत्त्व समिति (७) सर्वप्राण- भूत-उ -जीव सत्त्वों में विश्वसनीय रूप (८) अप्रतिलेख (e) जितेन्द्रिय 9. मूलाराधना, २८६ । २. वही, २७७ । ३. वही, २१८५ । ४. वही, २१८५ ५. वही, २ । ८४ । ६. वही, २।८३ । ७. वही, २।८६ । ८. वही, २८५ । ४९७ नग्न्ता प्राप्त' प्रशस्त लिग' (अचेलकता उसी के लिए विहित है जिसका लिंग प्रशस्त है ) रागादि दोष परिहरण । वीर्याचार* विश्वासकारी रूप अप्रतिलेखन (१०) विपुलतपः समिति - समन्वागत उक्त तुलना से प्रतिरूपता का अर्थ 'अचेलता' ही प्रमाणित होता है। अचेल को सचेल की अपेक्षा बहुत अप्रमत्त रहना होता है। उसके पास विकार को छिपाने का कोई साधन नहीं होता। जो अचेल होता है, उसका लिङ्ग सहज ही प्रकट होता है। अचेल उसी को होना चाहिए, जिसका लिङ्ग प्रशस्त हो— विकृत आदि न हो । अचेल व्यक्ति का सम्यक्त्व - देह और आत्मा का भेद ज्ञान – विशुद्ध होता है। समाप्त- सत्त्व-समितिअचेल सत्त्व प्राप्त होता है अर्थात् अभय होता है। इसकी तुलना मूलाराधना (२८३) में 'गत भयत्व' शब्द से भी हो सकती है। समिति का अर्थ 'विविध प्रकार के आसन करने वाला' हो सकता है । अचेल की निर्विकारता प्रशस्त होती है, इसलिए वह सबका विश्वासपात्र होता है। अप्रतिलेखन अचेलता का सहज परिणाम है। अचेलता से जितेन्द्रिय होने की प्रवल प्रेरणा मिलती है। अचेल होना एक प्रकार का तप है। नग्नता, शीत, उष्ण, दंश-मशक ये परीषह सचेल की अपेक्षा अचेल को अधिक सहने होते हैं; इसलिए उसके विपुल तप होता है। इस प्रकार सारे पदों में एक श्रृंखला है। उससे अचेलकता के साथ उनकी कड़ी जुड़ जाती है। यहां मूलाराधना (२।७७ से ८६ तक) की गाथाएं और उनकी विजयोदया वृत्ति मननीय है । 1 स्थानांग के पांच कारणों से अचेलक को प्रशस्त कहा है - (१) अल्प प्रतिलेखन, (२) प्रशस्त लाघव, (३) वैश्वासिक रूप, (४) अनुज्ञात तप और (५) महान् इन्द्रिय - निग्रह । ये पांचों कारण प्रतिरूपता के परिणामों में आए हुए अतः प्रतिरूपता का अर्थ 'अचेलकता' करने में बहुत बड़ा आधार प्राप्त होता है | सर्व-समित-करण (इन्द्रिय) परीषह - सहन हैं 1 अध्ययन २६ : सूत्र ४४-४७ टि० ५५-५८ ५५. ( सूत्र ४४ ) तीर्थंकर- -पद-प्राप्ति के बीस हेतु बतलाए गए हैं। उनमें एक वैयावृत्त्य - सेवा भी है। साधु-सन्तों की सेवा करना महान् निर्जरा का हेतु है। उसके साथ पुण्य का भी प्रकृष्ट बन्ध होता है। इसीलिए उसका फल तीर्थंकर नामगोत्र का बन्ध बतलाया है । ५६. सर्वगुण सम्पन्नता से (सव्वगुणसंपन्नायाए) आत्म-मुक्ति के लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र - ये तीन गुण प्रयोजनीय होते हैं। जब तक निरावरण ज्ञान, पूर्ण दर्शन ( क्षायिक सम्यक्त्व) और पूर्ण चारित्र ( सर्व संवर) की प्राप्ति नहीं होती, तब तक सर्वगुण सम्पन्नता उपलब्ध नहीं होती । इसका अभिप्राय यह है कि कोरे ज्ञान, दर्शन या चारित्र की पूर्णता से मुक्ति नहीं होती। किन्तु जब तीनों परिपूर्ण होते हैं, तभी वह होती है। पुनरावर्तन, शारीरिक और मानसिक दुःख – ये सब गुण - विकलता के परिणाम हैं। सर्वगुण सम्पन्नता होने पर ये नहीं होते । ५७. (सूत्र ४६ ) 'वीतराग' स्नेह और तृष्णा की बन्धन - परम्परा का विच्छेद कर देता है । पुत्र आदि में जो प्रीति होती है, उसे स्नेह और धन आदि के प्रति जो लालसा होती है, उसे 'तृष्णा' कहा जाता है । स्नेह और तृष्णा की परम्परा उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है, इसलिए इसके बन्धन को अनुबन्ध कहा गया है। वीतरागता के तीन फल निर्दिष्ट हैं- (१) स्नेहानुबन्ध का विच्छेद, (२) तृष्णानुबन्ध का विच्छेद और (३) मनोज्ञ शब्द आदि विषयों के प्रति विराग । वृत्तिकार ने प्रश्न उपस्थित किया है— कषाय- प्रत्याख्यान से वीतरागभाव उत्पन्न होता है- -यह पहले बताया जा चुका है । फिर प्रस्तुत सूत्र की पृथक् रचना क्यों ? उनका अभिमत है कि तृष्णा और स्नेह का मूल है राग और वही समस्त अनर्थों का मूल है। उसकी ओर विशेष ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रस्तुत सूत्र की रचना की गई है।" ५८. क्षांति से (खंतीए) शांत्याचार्य ने क्षांति का अर्थ 'क्रोध-विजय' किया है। इस अर्थ के अनुसार यहां उन्हीं परीषहों पर विजय पाने की स्थिति प्राप्त है जो क्रोध विजय से सम्बन्धित है। क्रोधी मनुष्य गाली, वध आदि को नहीं सह सकता। क्रोध पर विजय ६. ठाणं, ५२०१ : पंचहि ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवति, तं जहाअप्पा पडिलेहा, लाघविए पसत्थे, रूवे वेसासिए तवे अणुण्णाते, विउले इंदियनिग्गहे। १०. नायाधम्मकहाओ ८ । ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६० । १२. वही, पत्र ५६० : क्षान्तिः क्रोधजयः । १३. वही, पत्र ५६० 'परीषहान्' अर्थात् वधादीन् जयति । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४९८ अध्ययन २६ : सूत्र ४८-५६ टि० ५६-६४ पाने वाला उन्हें सह लेता है। क्षांति का अर्थ यदि 'सहिष्णुता' किया गया है। किया जाए तो परीषह-विजय का अर्थ व्यापक हो जाता है। ६२. (सूत्र ५०) सहिष्णूता से सभी परीषहों पर विजय पाई जा सकती है। क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव और मार्दव-ये चारों क्रमशः केवल गाली और वथ पर ही नहीं। क्रोध, लोभ, माया और मान की विजय के परिणाम हैं। ५९. अकिंचनता (अकिंचण) देखिए-सूत्र ६८-७१।। जो भावना या संकल्पपूर्वक पदार्थ समूह को त्याग देता जिसमें मार्दव का विकास होता है, वह जाति, कुल, बल, है वह अकिंचन है। अकिंचन का एक अर्थ दरिद्र होता है, वह रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य-इन आठ मद-हेतुओं पर यहां विवक्षित नहीं है। जो त्यागपूर्वक अकिंचन बनता है, वह विजय पा लेता है। तीन लोक का अधिपति बनता है ६३. (सूत्र ५१-५३) अकिञ्चनोऽहमित्यास्व, त्रैलोक्याधिपतिर्भवे। भाव-सत्य का अर्थ अन्तरात्मा की सचाई है। सत्य और योगिगम्यमिदं प्रोक्तं, रहस्यं परमात्मनः।। शुद्धि में कार्य-कारण-भाव है। भाव की सचाई से भाव की ६०. (सूत्र ४९) विशुद्धि होती है। तिरेपनवें सूत्र में योग-सत्य का उल्लेख है। माया और असत्य तथा ऋजुता और सत्य का परस्पर उसका एक प्रकार मनः-सत्य है। सहज ही भाव और मन का गहरा सम्बन्ध है। इस सूत्र में ऋजुता के चार परिणाम बतलाए भेद समझने की जिज्ञासा होती है। इन्द्रिय से सूक्ष्म मन और गए हैं--(१) काया की ऋजुता, (२) भाव की ऋजुता, (३) भाषा मन से सूक्ष्म भाव (आत्मा का आन्तरिक अध्यवसाय) होता है। की ऋजुता और (8) अविसंवादन। मन के परिणाम को भी भाव कहा जाता है, किन्तु प्रकरण के ऋजुता का परिणाम ऋजुता कैसे हो सकता है, सहज अनुसार यहां इसका अर्थ अन्तर्-आत्मा ही संगत है। ही यह प्रश्न होता है। उसका समाधान स्थानांग के एक सूत्र करण-सत्य का सम्बन्ध भी योग-सत्य से है। करने का में मिलता है। वहां कहा गया है-सत्य के चार प्रकार हैं- अर्थ है मन, वचन और काया की प्रवृत्ति। फिर भी करने की (१) काया की ऋजुता, (२) भाषा की ऋजुता, (३) भाव की विशेष स्थिति को लक्ष्य कर उसे योग-सत्य से पृथक् बतलाया ऋजुता और (४) अविसंवादन योग।' गया है। करण-सत्य का अर्थ है विहित कार्य को सम्यक प्रकार काया की ऋजुता-यथार्थ अर्थ की प्रतीति कराने वाली से और तन्मय होकर करना। योग-सत्य का अर्थ है-मन, काया की प्रवृत्ति । वेष-परिवर्तन, अंग-विकार आदि का अकरण। वचन और काया को अवितथ स्थिति में रखना। भाषा की ऋजुता-यथार्थ अर्थ की प्रतीति कराने वाली इन तीन सूत्रों में विशेष चर्चनीय पद 'परलोगधम्मस्स वाणी की प्रवृत्ति। उपहास आदि के निमित्त वाणी में विकार न आराहए' और 'करणसत्तिं' हैं। परलोक-धर्म की आराधना का लाना। अर्थ यह है कि भाव-सत्य से आगामी जन्म में भी धर्म की भाव की ऋजुता-जैसा आन्तरिक भाव हो वैसा ही प्राप्ति सुलभ होती है। प्रकाशित करना। भाव का शाब्दिक अर्थ है-होना, परिणमन करण-शक्ति का अर्थ है-वैसा कार्य करने का सामर्थ्य होना। यहां भाव शब्द का अर्थ-चेतना का परिणाम, कर्मावृत जिसका पहले कभी अध्यवसाय या प्रयत्न भी न किया गया चैतन्य की एक प्रकाश-रश्मि। जिसमें भाव-ऋजुता होती है हो। करण-सत्यता और करण-शक्ति के अभाव में ही कथनी उसकी वाणी और काया की प्रवृत्ति अन्तश्चेतना के अनुरूप और करनी में अन्तर होता है। उन दोनों के विकसित होने पर होती है। व्यक्ति 'यथावादी तथाकारी' बन जाता है। अविसंवादन योग-किसी कार्य का संकल्प कर उसे ६४. (सत्र ५४-५६) करना। दूसरों को न ठगना। इन तीन सूत्रों में गुप्ति के परिणामों का निरूपण है। इस सूत्र के आधार पर कहा जा सकता है कि ऋजुता गुप्तियां तीन हैं—(9) मन-गुप्ति, (२) वचन-गुप्ति और (३) कायका परिणाम सत्य है। गुप्ति । ६१. मृदु-मार्दव से (मिउमद्दव) जो समित (सम्यक्-प्रवृत्त) होता है, वह नियमतः गुप्त मृदु का अर्थ है—विनम्र। मार्दव का अर्थ है-विनम्र होता है और जो गुप्त होता है वह समित हो भी सकता है स्वभाव अथवा विनम्रतापूर्ण आचरण । जिस व्यक्ति का आचरण और नहीं भी। अकुशल मन का निरोध करने वाला मनोगुप्त मृदुतापूर्ण होता है वही मृदु कहलाता है। अतिशय मृदुता को ही होता है और कुशल मन की प्रवृत्ति करने वाला मनोगुप्त द्योतित करने के लिए 'मृदु-मार्दव' दोनों का संयुक्त प्रयोग भी होता है और समित भी। इसी प्रकार अकुशल वचन और १. ठाणं, ४।१०२ : चउविहे सच्चे पण्णते, तं जहा–काउज्जुयया, भासुज्जुयया भावुज्जुयया, अविसंवायणाजोगे। Jain Education Intemational Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ४९९ अध्ययन २६ : सूत्र ५७-६२ टि० ६५-६७ काया का निरोध करने वाला वचो-गुप्त और काय-गुप्त होता २. सम्यक्त्व का विशोधन एवं मिथ्यात्व का निर्जरण। है तथा कुशल वचन और काया की प्रवृत्ति करने वाला ६६. (सूत्र ५७-५९) वचन-गुप्त और काय-गुप्त भी होता है और समित भी। इन तीन सूत्रों में समाधारणा का निरूपण है। समाधारणा अकुशल मन का निरोध और कुशल मन की प्रवृत्ति का का अर्थ है-सम्यग-व्यवस्थापन या सम्यग्-नियोजन। उसके परिणाम एकाग्रता है। एकाग्रता में चित्त का निरोध नहीं होता तीन प्रकार हैं-(१) मनःसमाधारणा-मन का श्रुत में व्यवस्थापन किन्तु उसकी प्रवृत्ति अनेक आलम्बनों से हटकर एक आलम्बन या नियोजन, (२) वचःसमाधारणा-वचन का स्वाध्याय में पर टिक जाती है। जब एकाग्रता का अभ्यास पूर्ण परिपक्व हो व्यवस्थापन या नियोजन और (३) काय-समाधारणा–काया जाता है तब चित्त का निरोध होता है। देखिए-सूत्र २६ । का चारित्र की आराधना में व्यवस्थापन या नियोजन। अकुशल वचन का निरोध और कुशल वचन की प्रवृत्ति मन को ज्ञान (तत्त्वोपासना) में लीन करने से एकाग्रता का परिणाम निर्विकार-विकथा से मुक्त होना है। 'निम्वियार' उत्पन्न होती है। उससे ज्ञान-पर्यव (ज्ञान के सूक्ष्म-सूक्ष्मतर का अर्थ यदि निर्विचार किया जाए तो वचन-गुप्ति का अर्थ रूप) उदित होते हैं। उन ज्ञान-पर्यवों के उदय से सम्यग् मौन करना चाहिए। बोलने की इच्छा से विचार उत्तेजित होते दृष्टिकोण प्राप्त होता है और मिथ्या दृष्टिकोण समाप्त होता हैं और मौन से विचार-शून्यता प्राप्त होती है और आत्म-लीनता है। वचन को स्वाध्याय (शब्दोपासना) में लगाने से प्रज्ञापनीय बढ़ती है। दर्शन-पर्यव विशुद्ध बनते हैं—अन्यथा निरूपण नहीं हो पाता। काय-गुप्ति का परिणाम संवर बतलाया गया है। यहां दर्शन की विशुद्धि ज्ञान-पर्यवों के उदय से हो जाती है। प्रकरण के अनुसार संवर का अर्थ 'अकुशल कायिक प्रवृत्ति से इसीलिए यहां वाक साधारण अर्थात् वचन के द्वारा समत्पन्न आस्रव का निरोध' होना चाहिए। जब अकुशल प्रतिपादनीय-दर्शन-पर्यवों की विशद्धि ही अभिप्रेत है। आस्तव का संवर होता है तब हिंसा आदि पापानव निरुद्ध होने वाक-साधारण दर्शन-पर्यवों की विशुद्धि से सुलभ-बोधिता लग जाते हैं। प्रवृत्ति का मुख्य केन्द्र काया है। इसलिए आम्नव प्राप्त होती है और दर्लभ-बोधिता क्षीण होती है। और संवर का भी उनके साथ गहरा सम्बन्ध है। काया को संयम की विविध प्रवृत्तियों (चारित्रोपासना) में जिनभद्रगणि के अनुसार मुख्य योग एक ही है। वह है लगाने से चारित्र के पर्यव विशुद्ध होते हैं। उनकी विशुद्धि काय-योग।' वचन-योग और मनोयोग के योग्य-पुद्गलों (भाषा होते-होते वीतराग-चारित्र प्राप्त होता है और अन्त में मुक्ति। वर्गणा और मनोवर्गणा) का ग्रहण काय-योग से ही होता है। EG (सन ED_ER) उसके स्थिर होने पर सहज ही संवर हो जाता है। काया की पूर्ववर्ती तीन सूत्रों में ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पर्यवों चंचलता या आस्रवाभिमुखता के बिना वचन-व्यापार और मन की शुद्धि को समाधारणा का परिणाम बतलाया गया है और की चंचलता स्वयं समाप्त हो जाती है। इन तीन सूत्रों में ज्ञान, दर्शन और चारित्र सम्पन्न होने का ६५. (सूत्र ५७) परिणाम बतलाया गया है। प्रस्तुत अध्ययन में मन से संबंधित तीन सूत्र हैं- ज्ञान-सम्पन्नता----यहां ज्ञान का अर्थ 'श्रुत (शास्त्रीय) एकाग्रमनसन्निवेशन का संबंध ध्यान के साथ है। एक आलंबन ज्ञान' है। श्रृत-ज्ञान से सब भावों का अधिगम (ज्ञान) होता है। पर मन के सन्निवेश का परिणाम है--चित्तनिरोध। मन-गुप्ति इसका समर्थन नंदी से भी होता है। का संबंध मन के निग्रह से है। उसका साक्षात् परिणाम है- अहिगम के संस्कृत रूप दो हो सकते हैं-अभिगम और एकाग्रता और व्यवहित परिणाम है--संयम की आराधना। अधिगम। मन-समाधारणा का सम्बन्ध श्रुत के स्वाध्याय में मन के 'संघायणिज्जे'-जो श्रुतज्ञान-सम्पन्न होता है, उसके पास नियोजन से है। उसका साक्षात परिणाम है—एकाग्रता और स्व-समय और पर-समय के विद्वान् व्यक्ति आते हैं और उससे व्यवहित परिणाम दो हैं प्रश्न पूछकर अपने संशय उच्छिन्न करते हैं। इसी दृष्टि से १. ज्ञान के पर्यवों-विविध आयामों का विकास। श्रुतज्ञानी को 'संघातनीय'—जन-मिलन का केन्द्र कहा गया है। १. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ३५६ : ५. नंदी, सूत्र १२७ : तत्थ दव्वओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदचाई जाणइ कि पुण तणुसरंभेण जेण मुंचइ स वाइओ जोगो। पासइ, खेत्तओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वं खेत्तं जाणइ पासइ, कालओ मण्णइ च स माणसिओ, तणुजोगो चेव य विभत्तो।। णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वं कालं जाणइ पासइ, भावओ णं सुयनाणी २. वृहद्वृत्ति, पत्र ५६२ : मनसः समिति-सम्यग् आति -मर्यादयाऽऽ- उवउत्ते सव्वे भावे जाणइ पासइ। गमाभिहितभावाभिव्याप्याऽवधारणा-व्यवस्थापन मनःसमाधारणा तया। ६. बृहवृत्ति, पत्र ५६३ : स्वसमयपरसमययोः संघातनीयः-प्रमाणपुरुषतया ३. वही, पत्र ५६२ : 'वाक्समाधारणया' स्वाध्याय एव वाग्निवेशनात्मिकया। मीलनीयः स्वसमयपरसमयसंघातनीयो भवति, इह च स्वसमयपरसमय४. वही, पत्र ५८२ : 'कायसमाधारणया' संयमयोगेषु शरीरस्य शब्दाभ्यां तद्वेदिनः पुरुषा उच्यन्ते, तेष्वेव संशयादिव्यवच्छेदाय सभ्यग्व्यवस्थापनरूपया। मीलनसंभवात्। Jain Education Intemational Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५०० अध्ययन २६ : सूत्र ६३-७२ टि०६८-७० शैलेशी-शैलेशी शब्द शिला और शील इन दो रूपों से दर्शन और चारित्र की आराधना स्वयं प्राप्त हो जाती है। जो व्युत्पन्न होता है: व्यक्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करता है, वह (१) 'शिला' से शैल और 'शैल+ईश' से शैलेश होता है। आठ कर्मों में जो कर्म ग्रन्थि-धाति कर्म का समुदय है, उसे शैलेश अर्थात् मेरु-पर्वत। शैलेश की भांति अत्यन्त स्थिर तोड़ डालता है। वह सर्वप्रथम मोहनीयकर्म की अठाईस प्रकृतियों अवस्था को शैलेशी कहा जाता है। 'सेलेसी' का एक संस्कृत को क्षीण करता है। क्षीण करने का क्रम इस प्रकार है-वह रूप शैलर्षि भी किया गया है। जो ऋषि शैल की तरह सुस्थिर सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ के बहुत होता है, वह शैलर्षि कहलाता है। भाग को अन्तर्मुहूर्त में एक साथ क्षीण करता है और उसके (२) शील का अर्थ समाधान है। जिस व्यक्ति को पूर्ण अनन्तवें भाग को मिथ्यात्व के पुद्गलों में प्रक्षिप्त कर देता है। समाधान मिल जाता है—पूर्ण संवर की उपलब्धि हो जाती है, फिर उन प्रक्षिप्त पुद्गलों के साथ मिथ्यात्व के बहुल भाग को वह 'शील का ईश' होता है। शील+ईश शीलेश। शीलेश की क्षीण करता है और उसके अंश को सम्यग्-मिथ्यात्व में प्रक्षिप्त अवस्था को शैलेशी कहा जाता है।' कर देता है। फिर उन प्रक्षिप्त पुद्गलों के साथ सम्यक्-मिथ्यात्व ६८. (सूत्र ६३-७१) को क्षीण करता है। इसी प्रकार सम्यक-मिथ्यात्व के अंश इन्द्रिय-निग्रह के आलापक के दो पद विशेष मननीय सहित सम्यक्त्व-मोह के पुद्गलों को क्षीण करता है। तत्पश्चात् हैं-'तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ' तथा 'पुव्वबद्धं च निज्जरेइ'। सम्यक्त्व-मोह के अवशिष्ट पुद्गलों सहित अप्रत्याख्यान और ये पद स्वभाव-परिवर्तन के सूत्र हैं। इन्द्रियां राग-द्वेष की प्रत्याख्यान-चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) को क्षीण करना उत्पत्ति के हेतु हैं। राग और द्वेष मोहकर्म की प्रतियां हैं। शुरू कर देता है। उसके क्षय-काल में वह दो गति (नरक गति श्रोत्रेन्द्रिय का असंयम मनोज्ञ शब्द के प्रति राग उत्पन्न करता और तिर्यंच गति), दो आनुपूर्वी (नरकानुपूर्वी और तिर्यंचानुपूर्वी), है और अमनोज्ञ शब्द के प्रति द्वेष उत्पन्न करता है। इस जाति-चतुष्क (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय कर्म-बंध का हेत बन जाती है। यह परम्परा आतप, उद्योत, स्थावर नाम, सूक्ष्म नाम, साधारण, अपर्याप्त, निरंतर चालू रहती है। श्रोत्रेन्द्रिय का निग्रह करने पर निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानद्धि को क्षीण करता है। 'तप्पच्चइयं'-श्रोत्रेन्द्रिय के निमित्त से होने वाला कर्म बंध फिर इनके अवशेष को नपुंसक-वेद में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण रुक जाता है और अतीत श्रोत्रेन्द्रिय के निमित्त से जो कर्मबन्ध करता है। उसके अवशेष को स्त्री-वेद में प्रक्षिप्त कर उसे क्षीण हुआ है उसकी निर्जरा हो जाती है। करता है। उसके अवशिष्ट अंश को हास्यादि-षट्क (हास्य, प्रस्तुत आलापक में 'तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ' इतना रति, अरति, भय, शोक और जुगुत्सा) में प्रक्षिप्त कर उसे पाठ है। कषाय विजय के आलापक में संबद्ध कषाय का क्षीण करता है। मोहनीय कर्म को क्षीण करने वाला यदि वह नामोल्लेख मिलता है-'कोहवेयणिज्जं कम्मं न वंधइ', पुरुष होता है तो पुरुष-वेद के दो खण्डों को और स्त्री या 'माणवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ,' 'मायावेयणिज्जं कम्मं न बंधइ', नपुंसक होता है तो वह अपने-अपने वेद के दो-दो खण्डों को 'लोभवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ'। हास्यादि षट्क के अवशिष्ट अंश सहित क्षीण करता है। फिर क्रोध-विजय से क्षान्ति उत्पन्न होती है तथा क्रोध वेदनीय । वेद के तृतीय खण्ड सहित संज्वलन क्रोध को क्षीण करता है। कर्म का बन्ध नहीं होता और पूर्वबद्ध क्रोधवेदनीय कर्म की इसी प्रकार पूर्वांश सहित संज्वलन, मान, माया और लोभ को निर्जरा होती है। क्षीण करता है। ६९. (सूत्र ६७) यंत्र देखिएइन्द्रिय चेतना मन से सर्वथा प्रतिबद्ध नहीं होती। उसकी क्षय अवशिष्ट अंश का प्रक्षेप स्वतंत्रता भी है। इसीलिए किसी व्यक्ति में संगीत सुनने की (१) अनन्तानुबन्धी चतुष्क अधिक रुचि होती है, किसी में रसास्वादन की और किसी में (क्रोध, मान, माया, लोभ) मिथ्यात्व के पुद्गलों में दृश्यों को देखने की। यह रुचि की विचित्रता इन्द्रिय चेतना की दिखन का। यह हाच का वाचत्रता इन्द्रय चतना का (२) पूर्वांश सहित मिथ्यात्व सम्यग्-मिथ्यात्व के स्वतंत्रता का प्रमाण है। यदि इन्द्रिय चेतना मन से सर्वथा पुद्गलों में प्रतिबद्ध होती तो वह समान रूप से कार्य करती। (३) पूर्वाश सहित ७०. (सूत्र ७२) सम्यग्-मिथ्यात्व सम्यक्त्व के पुद्गलों में ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विराधना राग, द्वेष और (४) पूर्वांश सहित सम्यक्च अप्रत्याख्यान-चतुष्क और मिथ्या-दर्शन से होती है। इन पर विजय प्राप्त करने से ज्ञान, प्रत्याख्यान-चतुष्क में १. (क) विशेषावश्यक भाष्य, ३६८३-३६८५। २. बृहवृत्ति, पत्र ५६४-५६६। (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ५६३ । Jain Education Intemational Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम्यक्त्व-पराक्रम (५) पूर्वांश सहित अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान चतुष्क (६) पूर्वांश सहित नपुंसक वेद (७) पूर्वाश सहित स्वीयेष (८) पूर्वांश सहित हास्यादि षट्क (६) पूर्वांश सहित पुरुष-वेद के दो खण्ड (१०) पूर्वांश सहित संज्वलन क्रोध (११) पूर्वांश सहित संज्वलन मान (१२) पूर्वांश सहित संज्वलन माया (१३) पूर्वांश सहित संज्वलन लोभ नपुंसक वेद में स्त्री वेद में हास्यादि षट्क (हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा) में पुरुष - वेद के दो खण्डों में तृतीय खण्ड के संज्वलन क्रोध में ५०१ अध्ययन २६ : सूत्र ७३,७४ टि० ७१-७२ गाढ़ नहीं होता---निधत्त और निकाचित अवस्थाएं नहीं होतीं । इसीलिए उसे 'बद्ध और स्पृष्ट' कहा है। जिस प्रकार घड़ा आकाश से स्पृष्ट होता है, उसी प्रकार ईर्यापथिक-कर्म केवली की आत्मा से बद्ध-स्पृष्ट होता है। जिस प्रकार चिकनी भित्ति पर फेंकी हुई धूलि उससे स्पृष्ट मात्र होती है, उसी प्रकार ईर्यापथिक-कर्म केवली की आत्मा से स्पृष्ट मात्र होता है । प्रथम समय में वह बद्ध-स्पृष्ट होता है और दूसरे समय में वह उदीरित' - उदय - प्राप्त और बेदित-अनुभव प्राप्त होता है। तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो जाता है और चौथे समय में वह अकर्म बन जाता है-फिर वह उस जीव के कर्म-रूप में परिणत नहीं होता । 1 संज्वलन मान में संज्वलन माया में संज्वलन लोभ में ० संज्वलन लोभ के फिर संख्येय खण्ड किए जाते हैं। उनमें से प्रत्येक खण्ड को एक-एक अन्तर्मुहूर्त में क्षीण किया जाता है। उनका क्षय होते-होते उनमें से जो चरम खण्ड बचता है उसके फिर असंख्य सूक्ष्म खण्ड होते हैं। उनमें से प्रत्येक खण्ड को एक-एक समय में क्षीण किया जाता है। उनका चरम खण्ड भी फिर असंख्य सूक्ष्म खण्डों की रचना करता है। उनमें से प्रत्येक खण्ड को एक-एक समय में क्षीण किया जाता है। इस प्रकार मोहनीय कर्म सर्वथा क्षीण हो जाता है। उसके क्षीण होने पर यथाख्यात या वीतराग चारित्र की प्राप्ति होती है। वह अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। उसके अन्तिम दो समय जब शेष होते हैं, तब पहले समय में निद्रा, प्रचला, देव-गति, आनुपूर्वी, वैक्रिय - शरीर, वज्र ऋषभ को छोड़कर शेष सब संहनन, संस्थान, तीर्थङ्कर नाम कर्म और आहारक- नाम कर्म क्षीण होते हैं। चरम समय में जो क्षीण होता है वह सूत्र में प्रतिपादित है, जैसे- पंचविध ज्ञानावरणीय, नव-विध दर्शनावरणीय और पंच- विथ अन्तराय- ये सारे एक ही साथ क्षीण होते हैं। इस प्रकार चारों घातिकर्मों के क्षीण होते ही निरावरण ज्ञान-केवलज्ञान और केवलदर्शन का उदय हो जाता है। केवली होने के पश्चात् भवोपग्राही (जीवन धारण के हेतुभूत) कर्म शेष रहते हैं, तब तक वह इस संसार में रहता है। इसकी कालमर्यादा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः देश - ऊन (नौ वर्ष कम ) करोड़ पूर्व की है। इस अवधि में केवली जब तक सयोगी ( मन, वचन और काया की प्रवृत्ति युक्त) रहता है, तब तक उसके ईर्यापथिक-कर्म का बन्धन होता है। उसकी स्थिति दो समय की होती है। उसका बन्ध ३. ओवाइयं, सूत्र १८२ । ४. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ३८३६ : १. विशेष जानकारी के लिए देखिए -सूयगडो, २।२, तेरहवां क्रियास्थान । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६६ : उदीरित का अर्थ उदय प्राप्त है। किन्तु उदीरणा के द्वारा उदय प्राप्त नहीं है। क्योंकि वहां उदीरणा होती ही नहीं— 'उदीरणायास्तत्रासंभवात्' । सेयाले- -यह देशी शब्द है । इसका अर्थ है--अन्त में अर्थात् भविष्य काल में, अन्तिम समय- चौथे समय में । ७१. शेष आयुष्य का ( अहाउयं ) यथायुः का अर्थ पूर्ण आयुष्य काल है। स्थानांग २ । २६६, ३।१२२, ४।१३४ में इस शब्द का प्रयोग हुआ है । जिसके आयुष्य का अपवर्तन नहीं होता, उसे यथायुः कहा जाता है प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ केवली होने के पश्चात् बचे आयुष्य से है। ७२. (सत्र ७३-७४) केवली का जीवन-काल जब अन्तर्मुहूर्त्त मात्र शेष रहत है, तब वह योग निरोध ( मन, वचन और काया की प्रवृत्ति क पूर्ण निरोध) करता है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है— शुक्ल ध्यान के तृतीय चरण (सूक्ष्म क्रिय अप्रतिपाति) में वर्तत हुआ वह सर्व प्रथम मनोयोग का निरोध करता है। प्रति समय मन के पुद्गल और व्यापार का निरोध करते-करते असंख् समयों में उसका पूर्ण निरोध कर पाता है। फिर वचनयोग का निरोध करता है। प्रति समय वचन के पुद्गल और व्यापार का निरोध करते-करते असंख्य समयों में उसका पूर्ण निरोध कर पाता है। फिर उच्छ्वास- निश्वास का निरोध करता है । प्रति समय काय - योग के पुद्गल और व्यापार का निरोध करते-करते असंख्य समयों में उसका पूर्ण (उच्छ्वास - निश्वास सहित ) निरोध कर पाता है । औपपातिक में उच्छ्वास- निश्वास-निरोध के स्थान पर काय-योग के निरोध का उल्लेख है । -- मुक्त होने वाला जीव शरीर की अवगाहना का तीसरा भाग जो पोला होता है, उसे पूरित कर देता है और आत्मा की शेष दो भाग जितनी अवगाहना रह जाती है। यह क्रिया काय-योग-निरोध के अन्तराल में ही निष्पन्न होती है ।' देहतिभागो सुसिरं, तप्पूरणओ तिभागहीणोत्ति । से जोगनिरोहेच्चिय, जाओ सिद्धोवि तदवत्थो ।। ५. (क) उत्तरज्झयणाणि ३६ १६४ । (ख) ओवाइयं, सूत्र १६५ । ६. (क) विशेषावश्यक भाष्य गाथा ३६८१ : 'देह तिभागं च मुंचंतो' । (ख) वही, गाथा ३६८२ सम्मई स कायजोग' । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'उत्तरज्झयणाणि ५०२ योग निरोध होते ही अयोगी या शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है। उसे 'अयोगी गुणस्थान' भी कहा जाता है। न विलम्ब से और न शीघ्रता से, किन्तु मध्यम-भाव से पांच ह्रस्व-अक्षरों (अ, इ, उ, ऋ, लृ) का उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने समय तक अयोगी अवस्था रहती है। उस अवस्था में शुक्ल- ध्यान का चतुर्थ चरण - 'समुच्छिन्न-क्रियअनिवृत्ति' नामक ध्यान होता है। वहां चार अघाति या भवोपग्राही कर्म एक साथ क्षीण हो जाते हैं। उसी समय औदरिक, तेजस और कार्मण शरीर को सर्वथा छोड़कर वह ऊर्ध्व - लोकान्त तक चला जाता है। 1 यहां मूलपाठ में 'ओरालिय-कम्माइं' इतना ही है । तैजस का उल्लेख नहीं है। बृहद्वृत्तिकार ने उपलक्षण से उसका स्वीकार किया है।' औपपातिक में तैजस शरीर का प्रत्यक्ष ग्रहण है। गति दो प्रकार की होती है- (१) ऋजु और ( २ ) वक्र । मुक्त5- जीव का ऊर्ध्व-गमन ऋजु श्रेणी (ऋजु आकाश प्रदेश की पंक्ति) से होता है, इसलिए उसकी गति ऋजु होती है। वह एक क्षण में ही सम्पन्न हो जाती है। गति के पांच भेद बतलाए गए हैं- ( १ ) प्रयोग गति, (२) तत गति, (३) बन्धन- छेदन गति, (४) उपपात गति और (५) विहायो गति । विहायो गति १७ प्रकार की होती है। उसके प्रथम दो प्रकार हैं- ( १ ) स्पृशद् गति और ( २ ) अस्पृशद् गति । * एक परमाणु पुद्गल दूसरे परमाणु पुद्गलों व स्कंधों का स्पर्श करते हुए गति करता है, उस गति को 'स्पृशद् गति' कहा जाता है। एक परमाणु दूसरे परमाणु पुद्गलों व स्कंधों का स्पर्श न करते हुए गति करता है, उस गति को 'अस्पृशद् गति' कहा जाता है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६७ २. ओवाइयं, सूत्र १८२ : औदारिककार्मणे शरीरे उपलक्षणत्वात्तैजसं च । .. खवेत्ता ओरालियतेयकम्माई. 1 अध्ययन २६ : सूत्र ७३-७४ टि० ७२ मुक्त-जीव अस्पृशद् गति से ऊपर जाता है। शांत्याचार्य के अनुसार अस्पृशद् गति का अर्थ यह नहीं है कि वह आकाश-प्रदेशों का स्पर्श नहीं करता, किन्तु उसका अर्थ यह है कि वह मुक्त जीव जितने आकाश-प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, उतने ही आकाश-प्रदेशों का स्पर्श करता है। उनसे अतिरिक्त प्रदेशों का नहीं, इसलिए उसे 'अस्पृशद् गति' कहा गया है। अभयदेव सूरि के अनुसार मुक्त-जीव अन्तरालवर्ती आकाश-प्रदेशों का स्पर्श किए बिना ही ऊपर चला जाता है। यदि अन्तरालवर्ती आकाश-प्रदेशों का स्पर्श करता हुआ वह ऊपर जाए तो एक समय में वह वहां पहुंच ही नहीं सकता। इसके आधार पर अस्पृशद् गति का अर्थ होगा- 'अन्तरालवर्ती आकाश-प्रदेशों का स्पर्श किए बिना मोक्ष तक पहुंचने वाला।' आवश्यक चूर्णि के अनुसार अस्पृशद् गति का अर्थ यह होगा कि मुक्त जीव दूसरे समय का स्पर्श नहीं करता, एक समय में ही मोक्ष स्थान तक पहुंच जाता है। किन्तु 'एग समएणं अविग्गहेणं' पाठ की उपस्थिति में यह अर्थ यहां अभिप्रेत नहीं है। शांत्याचार्य और अभयदेव सूरि द्वारा कृत अर्थ इस प्रकार है– (१) मुक्त - जीव स्वावगाढ़ आकाश-प्रदेशों से अतिरिक्त प्रदेशों का स्पर्श नहीं करता हुआ गति करता है और (२) अन्तरालवर्ती आकाश-प्रदेशों का स्पर्श किए बिना ही गति करता है। ये दोनों ही अर्थ घटित हो सकते हैं। उपयोग दो प्रकार का होता है– (१) साकार और (२) अनाकार जीव साकार उपयोग अर्थात् ज्ञान की धारा में ही मुक्त होता है। ६. औपपातिक सूत्र १८२, वृत्ति पृ० २१६ : अस्पृशन्तीसिद्ध्यन्तरालप्रदेशान् गतिर्यस्स सोऽस्पृशद्गतिः, अन्तरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धिः इष्यते च तत्रैक एवं समयः य एव चायुष्कादिकर्मणां क्षयसमयः स एव निर्वाणसमयः, अतोऽन्तराले समयान्तरस्यामावादन्तरालप्रदेशानामसंस्पर्शनमिति । ३. पण्णवणा, पद १६ १७, ३७ । ४. वही, पद १६ ३६, ४०। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६७ अस्युशद्गतिरिति, नायमर्थो यथा नायमाकाशप्रदेशान्न स्पृशति अपि तु यावत्सु जीवो ऽवगाढ़स्तावत एवं स्पृशति न तु ततो ऽतिरिक्तमेकमपि प्रदेशम् । ७. आवश्यकचूर्णि अफुसमाणगती वितियं समयं ण फुसति (अभियान राजेन्द्र भाग १, पृ० ६७५) । 3 Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसइमं अज्झयणं तवमग्गगई तीसवां अध्ययन तपो-मार्ग-गति Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख का 'वासह तपस्या मोक्ष का मार्ग है। उससे तपस्वी की मोक्ष की उसकी नितांत उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। देहासक्ति ओर गति होती है—यह इस अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है। विलासिता और प्रमाद को जन्म देती है। परन्तु धर्म-साधना के इसलिए इस अध्ययन का नाम 'तवमग्गगई'-'तपो-मार्ग-गति' लिए देह की सुरक्षा करना भी नितांत अपेक्षित है। जैन मुनि का 'वोसट्ठचत्तदेहे'—यह विशेषण देहासक्ति के त्याग का परिचायक प्रत्येक संसारी जीव प्रतिक्षण कुछ-न-कुछ प्रवृत्ति अवश्य है। करता है। जब वह अक्रिय होता है तब वह मुक्त हो जाता है। १-२ अनशन और अवमोदरिका से भूख और प्यास पर जहां प्रवृत्ति है वहां कर्म-पुद्गलों का आकर्षण और निर्जरण विजय पाने की ओर गति होती है। होता है। प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है-शुभ और अशुभ। ३-४ भिक्षाचर्या और रस-परित्याग से आहार की लालसा शुभ प्रवृत्ति से अशुभ कमों का निर्जरण और शुभ-कर्म (पुण्य) सीमित होती है, जिला की लोलुपता मिटती है और का बन्ध होता है। अशुभ प्रवृत्ति से अशुभ-कर्म (पाप) का निद्रा, प्रमाद, उन्माद आदि को प्रोत्साहन नहीं बन्ध होता है। मिलता। तपस्या कर्म-निर्जरण का मुख्य साधन है। इससे आत्मा ५. कायक्लेश से सहिष्णुता का विकास होता है, देह में पवित्र होती है। उत्पन्न दुःखों को समभाव से सहने की वृत्ति बनती भारतीय साधना-पद्धति में तपस्या का प्रमुख स्थान रहा है। है। जैन और वैदिक मनीषियों ने उसे साधना का अपरिहार्य ६. प्रतिसंलीनता से आत्मा की सन्निधि में रहने का अंग माना है। बौद्ध तत्त्व-द्रष्टा उससे उदासीन रहे हैं। अभ्यास बढ़ता है। महात्मा बुद्ध अपनी साधना के प्रथम चरण में उग्र आभ्यंतर तप के छह भेद हैंतपस्वी थे। उन्होंने कई वर्षों तक कठोर तपस्या की थी, परन्तु १. प्रायश्चित्त ४. स्वाध्याय जब उन्हें सफलता नहीं मिली तब उन्होंने उसे अपनी साधना २. विनय ५. ध्यान में स्थान नहीं दिया। ३. वैयावृत्त्य ६. व्युत्सर्ग। जैन-साधना के अनुसार तपस्या का अर्थ काय-क्लेश १. प्रायश्चित्त से अतिचार-भीरुता और साधना के या उपवास ही नहीं है। स्वाध्याय, ध्यान, विनय आदि सब प्रति जागरुकता विकसित होती है। तपस्या के विभाग हैं। २. विनय से अभिमान-मुक्ति और परस्परोग्रह का काय-क्लेश और उपवास अकरणीय नहीं हैं और उनकी विकास होता है। सबके लिए कोई समान मर्यादा भी नहीं है। अपनी रुचि और ३. वैयावृत्त्य से सेवाभाव पनपता है। शक्ति के अनुसार जो जितना कर सके उसके लिए उतना ही ४. स्वाध्याय से विकथा त्यक्त हो जाती है। विहित है। ध्यान से एकाग्रता, एकाग्रता से मानसिक विकास जैन-दृष्टि से तपस्या दो प्रकार की है--वाह्य और एवं मन तथा इन्द्रियों पर नियंत्रण पाने की क्षमता आभ्यंतर। बढ़ती है और अंत में उनका पूर्ण निरोध हो जाता बाह्य तप के छह प्रकार हैं१. अनशन ४. रस-परित्याग ६. व्युत्सर्ग से शरीर, उपकरण आदि पर होने वाले २. अवमोदरिका ५. कायक्लेश ममत्व का विसर्जन होता है। ३. भिक्षाचर्या ६. प्रतिसंलीनता। अथवा तप दो प्रकार का है-सकाम और अकाम। इनके आचरण से देहाध्यास छूट जाता है। देहासक्ति एकमात्र मोक्ष-साधना की दृष्टि से किया जाने वाला तप सकाम साधना का विध्न है। इसीलिए मनीषियों ने देह के ममत्व-त्याग होता है और इसके अतिरिक्त अन्यान्य उपलब्धियों के लिए का उपदेश दिया है। शरीर धर्म-साधना का साधन है इसलिए किया जाने वाला अकाम। जैन साधना-पद्धति में सकाम तप उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५१३ : दुविहतवोमग्गगई, वन्निज्जइ जम्ह अज्झयणे। तम्हा एअज्झयणं, तवमग्गगइत्ति नायव्वं ।। Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो-मार्ग-गति की उपादेयता है और उसे ही पूर्ण पवित्र माना गया है। तप के तीन प्रकार भी किए गए हैं —— कायिक, वाचिक और मानसिक । शौच, आर्जव, ब्रह्मचर्य आदि का पालन करना कायिक तप है। प्रिय, हितकर, सत्य और अनुद्विग्न वचन बोलना, स्वाध्याय में रत रहना वाचिक तप हैं। आत्म-निग्रह, मौन-भाव, सौम्यता आदि मानसिक तप हैं 1 शिष्य ने पूछा - "भंते! तप से जीव क्या प्राप्त करता है ?" भगवान् ने कहा- - " तप से वह पूर्व - संचित कर्मों का क्षय कर विशुद्धि को प्राप्त होता है। इस विशुद्धि से वह मन, वचन १. उत्तरज्झयणाणि २६० २८, २६ ५०५ अध्ययन ३० : आमुख और शरीर की प्रवृत्ति के पूर्ण निरोध को प्राप्त होता है। अक्रियावान् होकर वह सिद्ध होता है, प्रशान्त होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और दुःखों का अंत करता है।"" भगवान् ने कहा- " इहलोक के निमित्त तप मत करो। परलोक के लिए तप मत करो। श्लाघा प्रशंसा के लिए तप मत करो। केवल निर्जरा के लिए— आत्म-विशुद्धि के लिए तप करो। २ तपस्या के अवांतर भेदों का निरूपण आगमों तथा व्याख्या ग्रंथों में प्रचुरता से हुआ है। २. दशवैकालिक, ६४ । सू० ६ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसइमं अज्झयणं : तीसवां अध्ययन तवमग्गगई : तपो-मार्ग-गति मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद राग-द्वेष से अर्जित पाप-कर्म को भिक्षु तपस्या से जिस प्रकार क्षीण करता है, उसे एकाग्र-मन होकर सुन। प्राणवध, मृषावाद, अदत्त-ग्रहण, मैथुन, परिग्रह और रात्रि-भोजन से विरत जीव अनाश्रव होता है। यथा तु पापक कर्म रागदोषसमर्जितम्। क्षपयति तपसा भिक्षुः तमेकाग्रमनाः शृणु।। प्राणवधमृषावादअदत्तमैथुनपरिग्रहेभ्यो विरतः। रात्रिभोजनविरतो जीवो भवति अनाश्रवः।। पंचसमितस्त्रिगुप्तः अकषायो जितेन्द्रियः। अगौरवश्च निःशल्यः जीवो भवत्यनाश्रवः।। पांच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, अकषाय, जितेन्द्रिय, अगौरव (गर्व रहित) और निःशल्य जीव अनाश्रव होता है। इनसे विपरीत आचरण में राग-द्वेष से जो कर्म उपार्जित होता है, उसे भिक्षु जिस प्रकार क्षीण करता है, उसे एकाग्र-मन होकर सुन। १. जहा उ पावगं कम्म रागदोससमज्जियं। खवेइ तवसा भिक्खू तमेगग्गमणो सुण।। २. पाणवहमुसावाया अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरओ। राईभोयणविरओ जीवो भवइ अणासवो।। पंचसमिओ तिगुत्तो अकसाओ जिइंदिओ। अगारवो य निस्सल्लो जीवो होइ अणासवो।। ४. एएसिं तु विवच्चासे रागद्दोससमज्जियं। जहा खवयइ भिक्खू तं मे एगमणो सुण।। ५. जहा महातलायस्स सन्निरुद्ध जलागमे। उस्सिवणाए तवणाए कमेणं सोसणा भवे ।। ६. एवं तु संजयस्सावि पावकम्मनिरासवे। भवकोडीसंचियं कम्म तवसा निज्जरिज्जइ।। ७. सो तवो दुविहो वुत्तो बाहिरब्भतरो तहा। बाहिरो छविहो वुत्तो एवमन्भतरो तवो।। अणसणमूणोयरिया या भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ।। एतेषां तु विव्यत्यासे रागदोषसमर्जितम्। यथा क्षपयति भिक्षुः तन्मे एकमनाः शृणु।। यथा महातडागस्य सन्निरुद्ध जलागमे। उत्सेचनेन तपनेन क्रमेण शोषणं भवेत् ।। एवं तु संयतस्यापि पापकर्मनिराश्रये। भवकोटिसंचितं कर्म तपसा निर्जीर्यते।। जिस प्रकार कोई बड़ा तालाव जल आने के मार्ग का निरोध करने से, जल को उलीचने से, सूर्य के ताप से क्रमशः सूख जाता है उसी प्रकार संयमी पुरुष के पाप-कर्म आने के मार्ग का निरोध होने से करोड़ों भवों के संचित कर्म तपस्या के द्वारा निर्जीर्ण हो जाते हैं। वह तप दो प्रकार का कहा है—बाह्य और आभ्यंतर।' वाह्य तप छह प्रकार का है, उसी प्रकार आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है। तत्तपो द्विविधमुक्तं बाह्यमाभ्यंतरं तथा। बाह्यं षड्विधमुक्तं एवमाभ्यन्तरं तपः।। अनशनमूनोदरिका भिक्षाचर्या च रसपरित्यागः। कायक्लेश: संलीनता च बाह्यं तपा भवति।। (१) अनशन, (२) ऊनोदरिका, (३) भिक्षाचर्या, (४) रस- परित्याग, (५) काय-क्लेश और (६) संलीनता- यह बाह्य तप है। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो-मार्ग-गति ५०७ अध्ययन ३० : श्लोक ६-१७ ६. इत्तिरिया मरणकाले दुविहा अणसणा भवे। इत्तिरिया सावकंखा निरवकंखा बिइज्जिया।। इत्वरिक मरणकालं द्विविध अनशनं भवेत्। इत्वरिक सावकांक्ष निरवकांक्षं द्वितीयम्।। अनशन दो प्रकार का होता है-इत्वरिक मरण-काल। इत्वरिक सावकांक्ष (अनशन के पश्चात् भोजन की इच्छा से युक्त) और दूसरा निरवकांक्ष (भोजन की इच्छा से मुक्त) होता है। १०.जो सो इत्तरियतवो यत् तद् इत्वरिकं तपः सो समासेण छविहो। तत्समासेन षड्विधम् । सेढितवो पयरतवो श्रेणितपः प्रतरतपः घणो य तह होई वग्गो य।। घनश्च तथा भवति वर्गश्च ।। जो इत्वरिक तप है, वह संक्षेप में छह प्रकार का है—(१) श्रेणि-तप, (२) प्रतर-तप, (३) धन-तप, (४) वर्ग-तप, (५) वर्ग-वर्ग-तप और (६) प्रकीर्ण-तप। इत्वरिक तप नाना प्रकार के मनोवांछित फल देने वाला होता है। ११. तत्तो य वग्गवग्गो उ पंचमो छट्ठओ पइण्णतवो। मणइच्छियचित्तत्थो नायव्वो होइ इत्तरिओ।। ततश्च वर्गवर्गस्तु पंचमं षष्ठकं प्रकीर्णतपः। मनईप्सितचित्रार्थ ज्ञातव्यं भवति इत्वरिकम् ।। मरण-काल अनशन के काय-चेष्टा के आधार पर सविचार और अविचार-ये दो भेद होते हैं। १२. जा सा अणसणा मरणे दुविहा सा वियाहिया। सवियारअवियारा कायचिट्ठ पई भवे ।। यत्तदनशनं मरणे द्विविधं तद् व्याख्यातम्। सविचारमविचारं कायचेष्टां प्रति भवेत्।। १३. अहवा सपरिकम्मा अपरिकम्मा य आहिया। नीहारिमणीहारी आहारच्छेओ य दोसु वि।। अथवा सपरिकर्म अपरिकर्म चाख्यातम्। निहारि अनिर्धारि आहारच्छेदश्च द्वयोरपि।। अथवा इसके दो भेद होते हैं—सपरिकर्म और अपरिकर्म । अविचार अनशन के निर्हारी और अनिर्हारी—ये दो भेद होते हैं। आहार का त्याग दोनों (सविचार और अविचार तथा सपरिकर्म और अपरिकर्म) में होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यायों की दृष्टि से अवमौदर्य (ऊनोदरिका) संक्षेप में पांच प्रकार हैं। . १४. ओमोयरियं पंचहा समासेण वियाहियं। दव्वओ खेत्तकालेणं भावेणं पज्जवेहि य।। १५. जो जस्स उ आहारो तत्तो ओमं तु जो करे। जहन्नेणेगसित्थाई एवं दव्वेण ऊ भवे।। १६. गामे नगरे तह रायहाणि निगमे य आगरे पल्ली। खेडे कब्बडदोणमुहपट्टणमडंबसंबाहे।। जिसका जितना आहार है उससे जो जघन्यतः एक सिक्थ (धान्य कण) और उत्कृष्टतः एक कवल कम खाता है, वह द्रव्य से अवमौदर्य तप होता है। अवमौदर्य पंचधा समासेन व्याख्यातम्। दव्यतः क्षेत्रकालेन भावेन पर्यवैश्च यो यस्य त्वाहारः ततोऽवमं तु यः कुर्यात् । जघन्येन एकसिक्थादि एवं द्रव्येण तु भवेत्।। ग्रामे नगरे तथा राजधान्यां निगमे च आकरे पल्ल्याम् । खेटे कर्वटद्रोणमुखपत्तनमडंबसम्बाधे।। आश्रमपदे विहारे सन्निवेशे समाजघोषे च। स्थलीसेनास्कन्धावारे सार्थे संवर्तकोट्टे य।। ग्राम, नगर, राजधानी, निगम, आकर, पल्ली, खेड़ा, कर्वट, द्रोणमुख, पत्तन, मंडप, संबाध, आश्रम-पद, विहार, सन्निवेश, समाज, घोष, स्थली, सेना का शिविर, सार्थ, संवर्त, कोट, १७.आसमपए विहारे सन्निवेसे समायघोसे य। थलिसेणाखंधारे सत्थे संवट्टकोट्टे य।। Jain Education Intemational Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ३० : श्लोक १८-२६ १८. वाडेसु व रच्छासु व घरेसु वा एवमित्तियं खेत्तं । कप्पइ उ एवमाई एवं खेत्तेण ऊ भवे ।। ५०८ वाटेषु वा रथ्यासु वा गृहेषु वैवमेतावत् क्षेत्रम्। कल्पते त्वेवमादि एवं क्षेत्रेण तु भवेत्।। पाड़ा, गलियां, घर-इनमें अथवा इस प्रकार के अन्य क्षेत्रों में से पूर्व निश्चय के अनुसार निर्धारित क्षेत्र में भिक्षा के लिए जा सकता है। इस प्रकार यह क्षेत्र से अवमौदर्य तप होता है। १६. पेडा य अद्धपेडा गोमुत्तिपयंगवीहिया चेव।। संबुक्कावट्टाययगंतुंपच्चागया छट्ठा।। पेटा चार्धपेटा गोमूत्रिका पतंगवीथिका चैव। शम्बूकावर्ताआयतंगत्वाप्रत्यागता षष्ठी।। (प्रकारांतर से) पेटा, अर्द्ध-पेटा, गोमूत्रिका, पतंगवीथिका, सम्बूकावर्ता और आयतं-गत्वा-प्रत्यागतायह छह प्रकार का क्षेत्र से अवमौदर्य तप होता है। २०.दिवसस्स पोरुसीणं चउण्हं पिउ जत्तिओ भवे कालो। एवं चरमाणो खलु कालोमाणं मुणेयव्वो।। दिवसस्य पौरुषीणां दिवस के चार प्रहरों में जितना अभिग्रह-काल हो चतसृणामपि तु यावान् भवेत् कालः। उसमें भिक्षा के लिए जाऊंगा, अन्यथा नहीं इस एवं चरतः खलु प्रकार चर्या करने वाले मुनि के काल से अवमौदर्य कालावमानं ज्ञातव्यम्।। तप होता है। २१. अहवा तइयाए पोरिसीए ऊणाइ घासमेसंतो। चउभागूणाए वा एवं कालेण ऊ भवे ।। अथवा तृतीयायां पौरुष्यां ऊनायां ग्रासमेषयन्। चतुर्भागोनायां वा एवं कालेन तु भवेत्।। अथवा कुछ न्यून तीसरे प्रहर (चतुर्थ भाग आदि न्यून प्रहर) में जो भिक्षा की एषणा करता है, उसे (इस प्रकार) काल से अवमौदर्य तप होता है। स्त्री अथवा पुरुष, अलंकृत अथवा अनलंकृत अमुक वय वाले, अमुक वस्त्र वाले, २२.इत्थी वा पुरिसो वा स्त्री वा पुरुषो वा अलंकिओ वाणलंकिओ वा वि। अलंकृतो वाऽनलंकृतो वापि अन्नयरवयत्थो वा अन्यतरवयस्थो वा अन्नयरेणं व वत्थेणं ।। अन्यतरेण वा वस्त्रेण।। २३.अन्नेण विसेसेणं वण्णेणं भावमणुमुयंते उ। एवं चरमाणो खलु भावोमाणं मुणेयव्वो।। अन्येन विशेषेण वर्णेन भावमनुन्मुंचन् तु। एवं चरतः खलु भावावमानं ज्ञातव्यम् ।। अमुक विशेष प्रकार की दशा, वर्ण या भाव से युक्त दाता से भिक्षा ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं इस प्रकार चर्या करने वाले मुनि के भाव से अवमौदर्य तप होता है। २४. दवे खेत्ते काले दव्ये क्षेत्रे काले भावम्मि य आहिया उ जे भावा। भावे चाख्यातास्तु ये भावाः।। एएहिं ओमचरओ एतैरवमचरकः पज्जवचरओ भवे भिक्खू ।। पर्यवचरको भवेद् भिक्षुः।। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो भाव (पर्याय) कहे गए हैं, उन सबके द्वारा अवमौदर्य करने वाला भिक्षु पर्यवचरक होता है। आठ प्रकार के अग्र-गोचर (गोचराग्र) तथा सात प्रकार की एषणाएं और जो अन्य अभिग्रह हैं, उन्हें भिक्षाचर्या कहा जाता है। २५.अट्ठविहगोयरग्गं तु तहा सत्तेव एसणा। अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया।। २६.खीरदहिसप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं। परिवज्जणं रसाणं तु भणियं रसविवज्जणं ।। अष्टविधाग्रगोचरस्तु तथा सप्तैवैषणाः। अभिग्रहाश्च ये अन्ये भिक्षाचर्या आख्याता।। क्षीरदधिसर्पिरादि प्रणीतं पानभोजनं। परिवर्जनं रसानां तु भणितं रसविवर्जनम्।। दूध, दही, घृत आदि तथा प्रणीत पान-भोजन और रसों के वर्जन को रस-विवर्जन तप' कहा जाता है। Jain Education Intemational Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो-मार्ग-गति अध्ययन ३० : श्लोक २७-३५ २७.ठाणा वीरासणाईया जीवस्स उ सुहावहा। उग्गा जहा धरिज्जति कायकिलेसं तमाहियं ।। ५०९ स्थानानि बीरासनादिकानि जीवस्य तु सुखावहानि। उग्राणि यथा धार्यन्ते कायक्लेशः स आख्यातः।। आत्मा के लिए सुखकर वीरासन आदि उत्कट आसनों का जो अभ्यास किया जाता है, उसे कायक्लेश कहा जाता है। २८.एगंतमणावाए इत्थीपसुविवज्जिए। सयणासणसेवणया विवित्तसयणासणं।। एकांते अनापाते स्त्रीपशुविवर्जिते। शयनासनसेवन विविक्तशयनासनम्।। एकांत, अनापात (जहां कोई आता-जाता न हो) और स्त्री-पशु आदि से रहित शयन और आसन का सेवन करना विविक्त-शयनासन (संलीनता) तप यह वाह्य तप संक्षेप में कहा गया है। अब मैं अनुक्रम से आभ्यंतर तप को कहूंगा। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग—यह आभ्यंतर तप है। २६.एसो बाहिरगतवो समासेण वियाहिओ। अमितरं तवं एत्तो वुच्छामि अणुपुव्वसो।। ३०. पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विउस्सग्गो एसो अब्भितरो तवो।। ३१. आलोयणारिहाईयं पायच्छित्तं तु दसविहं। जे भिक्खू वहई सम्म पायच्छित्तं तमाहियं ।। ३२. अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं। गुरुभत्तिभावसुस्सूसा विणओ एस वियाहिओ।। एतद् बाह्यकं तपः समासेन व्याख्यातम् । आभ्यंतरं तप इतो वक्ष्याम्यनुपूर्वशः।। प्रायश्चित्तं विनयः वैयावृत्त्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्यानं च व्युत्सर्गः एतदाभ्यंतरं तपः।। आलोचनार्हादिकं प्रायश्चित्तं तु दशविधम् । यद् भिक्षुर्वहति सम्यक् प्रायश्चित्तं तदाख्यातम्।। अभ्युत्थानमञ्जलिकरणं तथैव आसनदानम्। गुरुभक्तिः भावशुश्रूषा विनय एष व्याख्यातः।। आलोचनाह आदि जो दस प्रकार का प्रायश्चित्त है, जिसका भिक्षु सम्यक् प्रकार से पालन करता है, उसे प्रायश्चित्त कहा जाता है।" अभ्युत्थान (खड़े होना), हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति करना और भावपूर्वक शुश्रूषा करना विनय कहलाता है। आचार्य आदि सम्बन्धी दस प्रकार के वैयावृत्त्य का यथाशक्ति आसेवन करने को वैयावृत्त्य कहा जाता आचार्यादिके च वैयावृत्त्ये दशविधे। आसेवनं यथास्थाम वैयावृत्त्यं तदाख्यातम्।। ३३. आयरियमाइयम्मि य वेयावच्चम्मि दसविहे। आसेवणं जहाथामं वेयावच्चं तमाहियं ।। ३४. वायणा पुच्छणा चेव तहेव परियट्टणा। अणुप्पेहा धम्मकहा सज्झाओ पंचहा भये ।। वाचना प्रच्छना चैव तथैव परिवर्तना। अनुप्रेक्षा धर्मकथा स्वाध्यायः पञ्चधा भवेत्।। स्वाध्याय पांच प्रकार का होता है१. वाचना (अध्यापन) २. पृच्छना ३. परिवर्तना (पुनरावृत्ति) ४. अनुप्रेक्षा (अर्थ-चिंतन) ५. धर्मकथा। ३५. अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता झाएज्झा सुसमाहिए। धम्मसुक्काई झाणाइं झाणं तं तु बुहा वए।। आर्तरौद्रे वर्जयित्वा ध्यायेत् सुसमाहितः। धर्मशुक्ले ध्याने ध्यानं तत्तु बुधा वदन्ति ।। सुसमाहित मुनि आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म और शुक्ल ध्यान का अभ्यास करे। बुध-जन उसे ध्यान कहते हैं।" Jain Education Intemational Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५१० अध्ययन ३० : श्लोक ३६, ३७ ३६.सयणासणठाणे वा जे उ भिक्खू न वावरे। कायस्स विउस्सग्गो छट्ठो सो परिकित्तिओ।। शयनासनस्थाने वा यस्तु भिक्षुर्न व्याप्रियते। कायस्य व्युत्सर्गः षष्ठः स परिकीर्तितः ।। सोने, बैठने या खड़े रहने के समय जो भिक्षु व्यापृत नहीं होता (काया को नहीं हिलाता-डुलाता) उसके काया की चेष्टा का जो परित्याग होता है, उसे व्युत्सर्ग कहा जाता है। वह आभ्यन्तर तप का छठा प्रकार है। ३७.एयं तवं तु दुविहं जे सम्म आयरे मुणी। से खिप्पं सव्वसंसारा विप्पमुच्चइ पंडिए।। एवं तपस्तु द्विविधं यत्सम्यगाचरेन्मुनिः। स क्षिप्रं सर्वसंसारात् विप्रमुच्यते पण्डितः।। इस प्रकार जो पण्डित मुनि दोनों प्रकार के तपों का सम्यक् रूप से आचरण करता है, वह शीघ्र ही समस्त संसार से मुक्त हो जाता है। —त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन ३० : तपो-मार्ग-गति १. बाह्य और आभ्यन्तर (बाहिरब्भतरो) (३) वृत्ति-संक्षेप, (४) रस-परित्याग, (५) काय-क्लेश और स्वरूप और सामग्री के आधार पर तप को दो भागों में (६) विविक्त शय्या। विभक्त किया गया है-(१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर। बाह्य-तप के परिणाम बाह्य-तप-अनशन आदि निम्न कारणों से बाह्य-तप कहलाते बाह्य-तप के निम्न परिणाम होते हैं १. सुख की भावना स्वयं परित्यक्त हो जाती है। (१) इनमें बाहरी द्रव्यों की अपेक्षा होती है; अशन, २. शरीर कृश हो जाता है। पान आदि द्रव्यों का त्याग होता है, ३. आत्मा संवेग में स्थापित होती है। (२) ये सर्वसाधारण के द्वारा तपस्या के रूप में स्वीकृत ४. इन्द्रिय-दमन होता है। होते हैं, ५. समाधि-योग का उपयोग होता है। (३) इनका प्रत्यक्ष प्रभाव शरीर पर अधिक होता है और ६. वीर्य-शक्ति का उपयोग होता है। (४) ये मुक्ति के वहिरंग कारण होते हैं।' ७. जीवन की तृष्णा विच्छिन्न होती है। मूलाराधना के अनुसार जिसके आचरण से मन दुष्कृत ८. संक्लेश-रहित दुःख-भावना (कष्ट-सहिष्णुता) का के प्रति प्रवृत्त न हो, आंतरिक-तप के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो अभ्यास होता है। और पूर्व-गृहीत योगों-स्वाध्याय आदि योगों या व्रत विशेषों ६. देह, रस और सुख का प्रतिबन्ध नहीं रहता। की हानि न हो, वह 'बाह्य-तप' होता है। १०. कषाय का निग्रह होता है। आभ्यन्तर-तप---प्रायश्चित्त आदि निम्न कारणों से ११. विषय-भोगों के प्रति अनादर (उदासीन भाव) उत्पन्न आभ्यंतर तप कहलाते हैं : होता है। १. इनमें बाहरी द्रव्यों की अपेक्षा नहीं होती, १२. समाधि-मरण का स्थिर अभ्यास होता है। २. ये विशिष्ट व्यक्तियों के द्वारा ही तप-रूप में १३. आत्म-दमन होता है। आहार आदि का अनुराग स्वीकृत होते हैं, क्षीण होता है। ३. इनका प्रत्यक्ष प्रभाव अन्तःकरण में होता है और १४. आहार-निराशता--आहार की अभिलाषा के त्याग ४. ये मुक्ति के अन्तरंग कारण होते हैं।' का अभ्यास होता है। महर्षि पतञ्जलि ने भी योग के अंगों को अन्तरंग और १५. अगृद्धि बढ़ती है। बहिरंग-इन दो भागों में विभक्त किया है। धारणा, ध्यान और १६. लाभ और अलाभ में सम रहने का अभ्यास सधता समाधि-ये पूर्ववर्ती यम आदि पांच साधनों की अपेक्षा अन्तरंग हैं। निर्बीज-योग की अपेक्षा ये बहिरंग भी हैं। इसका फलितार्थ १७. ब्रह्मचर्य सिद्ध होता है। यह है कि यम आदि पांच अंग बहिरंग हैं और धारणा आदि १८. निद्रा-विजय होती है। तीन अंग अन्तरंग और बहिरंग-दोनों हैं। निर्वीज-योग केवल १६. ध्यान की दृढ़ता प्राप्त होती है। अन्तरंग हैं। २०. विमुक्ति (विशिष्ट त्याग) का विकास होता है। बाह्य-तप के प्रकार २१. दर्प का नाश होता है। बाह्य-तप के छह प्रकार हैं--(१) अनशन, (२) अवमौदर्य, २२. स्वाध्याय-योग की निर्विघ्नता प्राप्त होती है। १. बृहवृत्ति, पत्र ६००। २. मूलाराधना, ३।२३६ : सो णाम बाहिरतवो, जेण मणो दुक्कडं ण उठेदि। जेण य सट्टा जायदि, जेण य जोगा ण हायंति।। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०० : 'बाह्यं' बाह्यद्रव्यापेक्षत्वात् प्रायो मुक्त्यवाप्तिबहिर- गत्वाच्च 'अभ्यन्तरं' तद्विपरीतं, यदिवा 'लोकप्रतीतत्वात्कुतीर्थिकैश्च' स्वाभिप्रायेणासेव्यमानत्वाद्बाह्यं तदितरत्त्वाभ्यन्तरम्, उक्तञ्च"लोके परसमयेषु च यत्प्रथितं तत्तपो भवति बाह्यम्। आभ्यन्तरमप्रथितं कुशलजनेनैव तु ग्राह्यम्।।" अन्ये त्वाहुः-"प्रायेणान्तःकरणव्यापाररूपमेवाभ्यन्तरं, बाह्यं रचन्यथे" ति। ४. पातञ्जलयोगदर्शन, ३७, ८ : त्रयमन्तरङ्गः पूर्वेभ्यः । तदपि बहिरङ्गः निीजस्य।। Jain Education Intemational Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५१२ अध्ययन ३० : श्लोक ६ टि० २ २३. सुख-दुःख में सम रहने की स्थिति बनती है। आदि वैयावृत्त्य के परिणाम हैं।' २४. आत्मा, कुल, गण, शासन-सबकी प्रभावना होती प्रज्ञा का अतिशय, अध्यवसाय की प्रशस्तता, उत्कृष्ट संवेग का उदय, प्रवचन की अविच्छिन्नता, अतिचार-विशुद्धि, २५. आलस्य त्यक्त होता है। सन्देह नाश, मिथ्यावादियों के भय का अभाव आदि स्वाध्याय २६. कर्म-मल का विशोधन होता है। के परिणाम हैं। २७. दूसरों को संवेग उत्पन्न होता है। कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक २८. मिथ्या-दृष्टियों में भी सौम्यभाव उत्पन्न होता है। दुःखों से बाधित न होना तथा सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास आदि २६. मुक्ति-मार्ग का प्रकाशन होता है। शरीर को प्रभावित करने वाले कष्टों से बाधित न होना ध्यान ३०. तीर्थकर की आज्ञा की आराधना होती है। के परिणाम हैं। ३१. देह-लाघव प्राप्त होता है। निर्ममत्व, निर्भयता, जीवन के प्रति अनासक्ति, दोषों का ३२. शरीर-स्नेह का शोषण होता है। उच्छेद, मोक्ष-मार्ग में तत्परता आदि व्युत्सर्ग के परिणाम हैं। ३३. राग आदि का उपशम होता है। २. इत्वरिक (इत्तिरिया) ३४. आहार की परिमितता होने से नीरोगता बढ़ती है। औपपातिक (सूत्र १६) में इत्चरिक के चौदह प्रकार ३५. संतोष बढ़ता है। बतलाए गए हैंबाह्य-तप का प्रयोजन १. चतुर्थ भक्त-उपवास। १. अनशन के प्रयोजन : १. संयम-प्राप्ति २. राग-नाश २. षष्ट-भक्त-२ दिन का उपवास। ३. कर्म-मल-विशोधन ४. सद्ध्यान की प्राप्ति और ५. शास्त्राभ्यास। ३. अष्टम-भक्त-३ दिन का उपवास। २. अवमौदर्य के प्रयोजन : १. संयम में सावधानता २. ४. दशम-भक्त-४ दिन का उपवास। बात, पित्त, श्लेष्म आदि दोषों का उपशमन और ३. ज्ञान, ५. द्वादश-भक्त-५ दिन का उपवास । ध्यान आदि की सिद्धि। ६. चतुर्दश-भक्त-६ दिन का उपवास। ३. वृत्ति-संक्षेप के प्रयोजन : १. भोजन-सम्बन्धी आशा ७. षोडश-भक्त-७ दिन का उपवास। पर अंकुश और २. भोजन-सम्बन्धी संकल्प-विकल्प तथा ८. अर्धमासिक-भक्त-१५ दिन का उपवास। चिंता का नियंत्रण। ६. मासिक-भक्त-१ मास का उपवास। ४. रस-परित्याग के प्रयोजन : १. इन्द्रिय-निग्रह २. १०. द्वैमासिक-भक्त-२ मास का उपवास। निद्रा-विजय और ३. स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि। ११. त्रैमासिक-भक्त-३ मास का उपवास। ५. विविक्त-शय्या के प्रयोजन : १. बाधाओं से मुक्ति १२. चतुर्मासिक-भक्त-४ मास का उपवास। २. ब्रह्मचर्य-सिद्धि और ३. स्वाध्याय, ध्यान की सिद्धि। १३. पंचमासिक-भक्त-५ मास का उपवास। ६. काय-क्लेश के प्रयोजन : १. शारीरिक कष्ट-सहिष्णुता १४. छहमासिक-भक्त–६ मास का उपवास। का स्थिर अभ्यास २. शारीरिक सुख की वाञ्छा से मुक्ति और इत्वरिक-तप कम से कम एक दिन और अधिक से ३. जैन धर्म की प्रभावना। अधिक ६ मास तक का होता है। आभ्यन्तर-तप के प्रकार प्रस्तुत प्रकरण में इत्वरिक-तप छह प्रकार का बतलाया आभ्यन्तर-तप के छह प्रकार हैं-(१) प्रायश्चित्त, गया है—(१) श्रेणि तप, (२) प्रतर तप, (३) घन तप, (४) वर्ग (२) विनय, (३) वैयावृत्त्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और तप, (५) वर्ग-वर्ग तप और (६) प्रकीर्ण तप। (६) व्युत्सर्ग। (१) श्रेणि तप-उपवास से लेकर छह मास तक क्रमपूर्वक आभ्यन्तर-तप के परिणाम जो तप किया जाता है, उसे श्रेणि तप कहा जाता है। इसकी भाव-शुद्धि, चंचलता का अभाव, शल्य-मुक्ति, धार्मिक- अनेक अवान्तर श्रेणियां होती हैं। जैसे-उपवास, बेला—यह दृढ़ता आदि प्रायश्चित्त के परिणाम हैं। दो पदों का श्रेणि तप है। उपवास, बेला, तेला, चोला---यह ज्ञान-लाभ, आचार-विशुद्धि, सम्यक् आराधना आदि विनय चार पदों का श्रेणि तप है। के परिणाम हैं। (२) प्रतर तप-यह श्रेणि तप को जितने क्रम-प्रकारों चित्त-समाधि का लाभ, ग्लानि का अभाव, प्रवचन-वात्सल्य से किया जा सकता है, उन सब क्रमों-प्रकारों को मिलाने से १. मूलाराधना, ३१२३७-२४४। ५. वही, ६२४, श्रुतसागरीयवृत्ति। २. तत्त्वार्थ, ६२०, श्रुतसागरीयवृत्ति। ६. वही, ६२५, श्रुतसागरीयवृत्ति। ३. वही, ६२२, श्रुतसागरीयवृत्ति । ७. ध्यानशतक, १०५-१०६ । ४. वही, ६२३, श्रुतसागरीयवृत्ति। ८. तत्त्वार्थ, ६२६, श्रुतसागरीयवृत्ति। Jain Education Intemational Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो मार्ग गति ५१३ प्रतर तप होता है। उदाहरण स्वरूप उपवास, बेला, तेला और चोला-इन चार पदों की श्रेणि लें। इसके निम्नलिखित चार -प्रकार बनते हैं क्रम २ उपवास बेला बेला तेला उपवास तेला चोला उपवास बेला चोला उपवास बेला तेला यह प्रतर तप है। इसके कुल पदों की संख्या १६ हैं । इस तरह यह तप श्रेणि को श्रेणि-पदों से गुणा करने से बनता है । (३) घन तप - जितने पदों की श्रेणि है, प्रतर को उतने पदों से गुणा करने से घन तप बनता है। यहां चार पदों की श्रेणि है । अतः उपर्युक्त प्रतर तप को चार से गुणा करने से अर्थात् उसे चार बार करने से घन तप होता है। धन तप के ६४ पद बनते हैं । क्रम- -प्रकार 9 ३ ४ १ ३ तेला चोला = ४ (४) वर्ग तप-घन को घन से गुणा करने पर वर्ग तप बनता है अर्थात् घन तप को ६४ बार करने से वर्ग तप बनता है। इसके ६४X६४ ४०६६ पद बनते हैं। 1 (५) वर्ग-वर्ग तप-वर्ग को वर्ग से गुणा करने पर वर्ग वर्ग तप बनता है अर्थात् वर्ग तप को ४०६६ बार करने से वर्ग वर्ग तप बनता है। इसके ४०६६ X ४०६६ = १६७७७२१६ पद बनते हैं। चोला (६) प्रकीर्ण तप - यह पद श्रेणि आदि निश्चित पदों की रचना बिना ही अपनी शक्ति के अनुसार किया जाता है। यह अनेक प्रकार का है I शान्त्याचार्य ने नमस्कार - संहिता आदि तथा यवमध्य, वज्रमध्य, चन्द्र- प्रतिमा आदि तपों को प्रकीर्ण तप के अन्तर्गत माना है। ३. नाना प्रकार के मनोवांछित फल देने वाला (मणइच्छियचित्तत्थो) टीकाकार ने इसका अर्थ 'मनो वाञ्छित विचित्र प्रकार का फल देने वाला' किया है। फल प्राप्ति के लिए तप नहीं करना चाहिए, टीकाकार का अर्थ इस मान्यता का विरोधी नहीं है । 'मणइच्छियचित्तत्थो' यह वाक्य तप के गौण फल का सूचक है । आगम- साहित्य में इस प्रकार के अनेक उल्लेख मिलते हैं । १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०१ : तच्च नमस्कारसहितादि पूर्वपुरुषाचरितं यवमध्यवज्रमध्यचन्द्रप्रतिमादि च । २. वही, पत्र ६०१ : मनसः चित्तस्य ईप्सिति इष्टश्चित्र:अनेकप्रकारो ऽर्थः स्वर्गापवर्गादिस्तेजोलेश्यादिर्वा यस्मात्तन्मनईप्सितचित्रार्थं ज्ञातव्यं भवति । अध्ययन ३० : श्लोक ११-१३ टि० ३,४ इसका अर्थ 'मन इच्छित विचित्र प्रकार से किया जाने वाला तप' भी हो सकता है। ४. (श्लोक १२-१३) इन दो श्लोकों में मरण-काल-भावी अनशन का निरूपण है । औपपातिक में उसके दो प्रकार निर्दिष्ट हैं—पादपोपगमन और भक्त प्रत्याख्यान । पादपोपगमन नियमतः अप्रतिकर्म है और उसके दो प्रकार हैं—व्याघात और निर्व्याघात । भक्त-प्रत्याख्यान नियमतः सप्रतिकर्म है और उसके भी दो प्रकार हैं—व्याघात और निर्व्याघात । समवायांग में इस अनशन के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैंभक्त-प्रत्याख्यान, इंगिनी और पादपोपगमन । प्रस्तुत अध्ययन में मरण-काल भावी अनशन के प्रकारों (भक्त - प्रत्याख्यान आदि) का उल्लेख नहीं है। केवल उनका सात विधाओं से विचार किया गया है। (१) सविचार – हलन चलन सहित । (२) सपरिकर्म - शुश्रूषा या संलेखना - सहित । (३) निर्धारि — उपाश्रय से बाहर गिरी-कंदरा आदि एकान्त स्थानों से किया जाने वाला। (४) अविचार - स्थिरता युक्त । (५) अपरिकर्म - शुश्रूषा या संलेखना - रहित । (६) अनिहरि - उपाश्रय में किया जाने वाला । (७) आहारच्छेद । भक्त- प्रत्याख्यान में जल वर्जित त्रिविध आहार का भी प्रत्याख्यान किया जाता है और चतुर्विध आहार का भी। इंगिनी और पादपोपगमन – इन दोनों में चतुर्विध आहार का परित्याग किया जाता है। भक्त- प्रत्याख्यान अनशन करने वाला अपनी इच्छा के अनुसार आ-जा सकता है। इंगिनी अनशन करने वाला नियत प्रदेश में इधर-उधर आ-जा सकता है, किन्तु उससे बाहर नहीं जा सकता है। पादपोपगमन अनशन करने वाला वृक्ष के समान निश्चेष्ट होकर लेटा रहता है या जिस आसन में अनशन प्रारम्भ करता है, उसी आसन में स्थिर रहता है—हलन चलन नहीं करता। भक्त-प्रत्याख्यान अनशन करने वाला स्वयं भी अपनी शुश्रूषा करता है और दूसरों से भी करवाता है। इंगिनी अनशन करने वाला दूसरों से शुश्रूषा नहीं करवाता, किन्तु स्वयं अपनी शुश्रूषा कर सकता है। पादपोपगमन अनशन ३. ओवाइयं, सूत्र ३२ : ...आवकहिए (अणसणे) दुविहे पण्णत्ते, तं जहा पाओवगमणे य भत्तपच्चक्खाणे य ४. ५. समवाओ, समवाय १७ । बृहद्वृत्ति, पत्र ६०२-६०३ : सह परिकर्मणा — स्थाननिषदनत्वग्वर्त्तनादि विश्रामणादिना च वर्त्तते यत्तत्सपरिकर्म, अपरिकर्म च तद्विपरीतम्यद्वा परिकर्म संलेखना सा यत्रास्ति तत्सपरिकर्म, तद्विपरीतं त्वपरिकर्म । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५१४ अध्ययन ३० : श्लोक १२-१३ टि०४ करने वाला अपने शरीर की शुश्रूषा न स्वयं करता है और न में ही निरुद्ध रहता है, उसके भक्त-प्रत्याख्यान को 'अनिर्हारि' किसी दूसरे से करवाता है। भी कहा जाता है। इसमें अनियत विहार आदि की विधि नहीं शान्त्याचार्य ने निर्हारि और अनिर्हारि-ये दोनों होती, इसलिए उसे 'अविचार' कहा जाता है।१० पादपोपगमन के प्रकार बतलाए हैं।' किन्तु स्थानांग में ये दो निरुद्ध दो प्रकार का होता है-(१) जन-ज्ञात और प्रकार भक्त-प्रत्याख्यान के भी किए गए हैं।' (२) जन-अज्ञात।" दिगम्बर आचार्य शिवकोटि और अनशन २. निरुद्धतर : मृत्यु का तात्कालिक कारण (सर्प-दंश, १. भक्त प्रत्याख्यान : अग्नि आदि) उपस्थित होने पर तत्काल भक्त-प्रत्याख्यान किया उनके अनुसार भक्त-प्रत्याख्यान अनशन के दो प्रकार जाता है, उसका नाम निरुद्धतर है। बल-वीर्य की तत्काल हानि हैं—(१) सविचार और (२) अविचार। होने पर वह पर-गण में जाने में अत्यन्त असमर्थ होता है, जो उत्साह-बलयुक्त है, जिसकी मृत्यु तत्काल होने इसलिए उसका अनशन 'निरुद्धतर' कहलाता है। यह अनिर्हारि वाली नहीं है, उस मुनि के भक्त-प्रत्याख्यान को 'सविचार होता है।" भक्त-प्रत्याख्यान' कहा जाता है। इसका अर्ह, लिंग आदि ४० ३. परमनिरुद्ध : सर्प-दंश आदि कारणों से जब वाणी प्रकरणों द्वारा विचार किया गया है। रुक जाती है, उस स्थिति में भक्त-प्रत्याख्यान को 'परमनिरुद्ध' मृत्यु की आकस्मिक संभावना होने पर भक्त-प्रत्याख्यान कहा जाता है।" किया जाता है, उसे 'अविचार भक्त-प्रत्याख्यान' कहा जाता २. इंगिनी : है। उसके तीन प्रकार हैं: इस अनशन की अधिकांश विधि भक्त-प्रत्याख्यान के १. निरुद्ध : जो रोग और आतंक से पीड़ित हो, जिसका समान होती है। केवल इतना विशेष होता है कि इंगिनी जंघाबल क्षीण हो और जो दूसरे गण में जाने में असमर्थ हो, अनशन करने वाला दूसरे मुनियों से सेवा नहीं लेता, अपना उस मुनि के भक्त-प्रत्याख्यान को 'निरुद्ध अविचार काम स्वयं करता है। उपसर्ग होने पर भी निष्प्रतिकर्म होता भक्त-प्रत्याख्यान' कहा जाता है। है--प्रतिकार-रहित उन्हें सहता है। जब तक उसमें बल-वीर्य होता है, तब तक अपना काम ३. प्रायोपगमन : स्वयं करता है और जब वह असमर्थ हो जाता है, तब दूसरे इसमें तृणसंस्तर (घास का बिछौना) नहीं किया जाता, मुनि उसकी परिचर्या करते हैं।' जंघाबल क्षीण होने पर अन्य स्वयं परिचर्या करना भी वर्जित होता है, यह सर्वथा अपरिकर्म गण में जाने में असमर्थ होने के कारण जो मुनि अपने गण होता है।" १. बृहवृत्ति, पत्र ६०३ : एतच्च प्रकारद्वयमपि पादपोपगमनविषय, तत्प्रस्ताव एवागमेऽस्याभिधानात्। ठाणं, २।४१५, ४१६ : पाओवगमणे दुविहे पं० त०-णीहारिमे चेव अणीहारिमते चेव णियमं अपडिक्कमे। भत्तपच्चक्खाणे दुविहे पं० तं०-णीहारिमे चेव अणीहारिभे चेव णियमं सपडिक्कमे। ३. मूलाराधना, २६५ : दुविहं तु भत्तपच्चक्खाणं सविचारमध अविचारं। ४. वही, २०६५ : सविचारमणागाढे, मरणे सपरक्कमस्स हवे। ५. वही, २६६ : सविचारभत्तपच्चक्खाणस्सिणमो उवक्कमो होई। तत्थ य सुत्तपदाई, चत्तालं होति णेयाई।। वही, ७।२०११ : तत्थ अविचारभत्त-पइण्णा मरणम्मि होइ अगाढो। अपरक्कम्मस्स मुणिणो, कालम्मि असंपुहुत्तम्मि ।। ७. वही, ७।२०१३ : तस्स णिरुद्धं भणिद, रोगादंकेहिं जो समभिभूदो। जंघाबलपरिहीणो, परगणगमणम्मि ण समत्थो।। वही, ७।२०१४ : जावय बलविरियं से, सो विहरदि ताव णिप्पडीयारो। पच्छा विहरति पडिजग्गिज्जतो तेण समणेण ।। ६. वही, ७।२०१५ : इय सण्णिरुद्धमरण, भणियं अणिहारिम अवीचार। सो चेव जधाजोग्गं, पुवुत्तविधी हवदि तस्स ।। १०. मूलाराधना, ७।२०१५ । ११. वही, ७१२०१६, १७ : दुविधं तं पि अणीहारिम, पगासं च अप्पगासं च। जण्णादं च पगासं, इदरं च जणेण अण्णाद।। खवयस्स चित्तसारं, खित्तं कालं पडुच्च सजणं वा। अण्णम्मि य तारिसयम्मि, कारणे अप्पगासं तु।। १२. वही, ७।२०२१ : एवं णिरुद्धदरयं, विदिम अणिहारियं अवीचारं। सो चेव जधाजोन्गो, पुवुत्तविधी हवदि तस्स।। १३. वही, ७१२०२२ : बालादिएहिं जइया, अक्खित्ता होज्ज भिक्खुणो वाया। तइया परमणिरुद्धं मणिदं मरणं अविचारं ।। १४. वही, ८२०४२ : सयमेव अप्पणो सो, करेदि आउंटणादि किरियाओ। उच्चारादीणि तधा, सयमेव विकिंचिदे विधिणा।। १५. वही, ८२०४३ : जाधे पुण उवसग्गे, देवा माणुस्सिया व तेरिच्छा। ताधे णिप्पडियम्मो, ते अधियासेदि विगदभओ।। १६. वही, ८॥२०६४ : णवरि तणसंथारो, पाओवगदस्स होदि पडिसिद्धो। आदपरपओगेण, य पडिसिद्धं सम्परियम्म।। Jain Education Intemational Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो मार्ग-गति ५१५ भक्त - प्रत्याख्यान में शारीरिक परिचर्या स्वयं की जाती है, दूसरों से कराई भी जाती है। इंगिनी में वह स्वयं की जाती है, दूसरों से नहीं कराई जाती। प्रायोपगमन में वह न स्वयं की जाती है और न दूसरों से कराई जाती है।" प्रायोपगमन अनशन करने वाला शरीर को इतना कृश कर लेता है कि उसके मल-मूत्र होते ही नहीं। वह अनशन करते समय जहां अपना शरीर टिका देता है, वहीं स्थिर-भाव से टिकाए रहता है। इस प्रकार वह निष्प्रतिकर्म होता है। वह अचल होता है, इसलिए अनिर्हार होता है। दूसरा कोई व्यक्ति उसे उठा कर किसी दूसरे स्थान में डाल देता है तो पर-कृत चालन की अपेक्षा वह निर्हार भी हो जाता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर- परम्परा में अनशन के तीनों प्रकार और अनेक नाम समान हैं। 'पाओअगमण' का संस्कृत रूप श्वेताम्बर आचार्यों ने 'पादपोपगमन" किया है, वहां दिगम्बर आचार्यों ने 'प्रायोपगमन' ।' अर्थ की दृष्टि से 'पादपोपगमन' अधिक उपयुक्त है किन्तु संस्कृत छाया की दृष्टि से 'प्रायोपगमन' होना चाहिए। महाभारत में अनशनकर्त्ता के अर्थ में 'प्रायोपविष्ट' शब्द का प्रयोग मिलता है। काश्मीर में अनशन के प्रबन्ध के लिए एक पदाधिकारी नियुक्त था, जो 'प्रायोपवेश' कहलाता था। 9. मूलाराधना, २०६४ विजयोदया— स्वपरसंपाद्यप्रतीकारापेक्षः भक्तप्रत्याख्यानविधिः, परनिरपेक्षमात्मसंपाद्यप्रतीकारमिंगिणीमरणं, सर्वप्रतीकाररहितं प्रायोपगमनमित्यमीषाभेदः । २. वही, ८ २०६५ सो सल्लेहिददेहो, जम्हा पाओवगमणमुवजादि । उच्चारादिविकिंचण, मवि णत्थि पवोगदो तम्हा ।। ३. वही, ८ २०६८-६६-७० : वोसट्टचत्तदेहो, दु णिक्खिवेज्जो जहिं जधा अंगं । जावज्जीवं तु सयं तहिं तमंगं ण चालेज्ज || एवं णिप्पडियम्मं, भणति पाओवगमणमरहंता । णियमा अणिहारं तं सिया य णीहारमुवसग्गे ।। उवसग्गेण य साहारेदो, सो अण्णत्थ कुषदि जं कालं । तम्हा वृत्तं णीहार, मदो अण्ण अणीहारं ।। ४. औपपातिक वृनि, पृ० ७१ पादपस्येवोपगमनम् - अस्पन्दतया ऽवस्थानं पादपोपगमनम्। ५. मूलाराधना, ८ २०६३ पाओवगमणमरणस्स । विजयोदयाप्रायोपगमनमरणम् । ६. महाभारत शान्तिपर्व, २७।२४ प्रायोपविष्टं जानीध्वमथ मां गुरुधातिनम् । ७. प्राचीन भारतीय अभिलेखों का अध्ययन, प० १०४। ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०२ : 'कायचेष्टाम्' उद्वर्त्तनपरिवर्त्तनादिककायप्रवीचार 'प्रती' ति आश्रित्य 'भवेत्' स्यात्, तत्र सविचारं भक्तप्रत्याख्यानमिङ्गिनीमारणं च । अध्ययन ३० : श्लोक १२-१३ टि० ४ श्वेताम्बर दिगम्बर १. सविचार गमनागमन सहित अर्ह लिंग आदि विकल्प सहित । अर्ह लिंग आदि विकल्प-रहित ।" २. अविचार गमनागमन सहित' १० ३. निर्धारि - उपाश्रय के एक देश में, जिससे मृत्यु के पश्चात् शरीर का निर्हरण किया जाए बाहर ले जाया जाए। २ ४. अनिहारि गिरि-गुफा आदि में, स्व-गण का त्याग जिससे मृत्यु के पश्चात् निर्हरण कर पर गण में न करना आवश्यक न हो।" जा सके, वह । ३ प्रायोपगमन के वर्णन में आचार्य शिवकोटि ने अनिर्हार और निर्हार का अर्थ 'अचल' और 'चल' भी किया है।" मूलाराधना के भक्त-प्रत्याख्यान के निरुद्धतर और परमनिरुद्ध की तुलना औपपातिक के पादपोपगमन और भक्त - प्रत्याख्यान के एक प्रकार - व्याघात- सहित से होती है । औपपातिक के अनुसार पादपोपगमन और भक्त प्रत्याख्यान दोनों अनशनों के दो-दो प्रकार होते हैं—व्याघात- सहित और व्याघात रहित । व्याघात सहित का अर्थ है— सिंह, दावानल आदि का व्याघात उत्पन्न होने पर किया जाने वाला अनशन । स्व-गण का त्याग कर पर गण में जा सके, वह । इनसे यह फलित होता है कि अनशन व्याघात उत्पन्न होने पर भी किया जाता है और व्याघात न होने पर भी किया ६. मूलाराधना, २६५, विजयोदया वृत्ति विचरणं नानागमनं विचारः । विचारेण वर्तते इति सविचारं एतदुक्तं भवति । वक्ष्यमाणार्हलिंगादिविकल्पेन सहितं भक्तप्रत्याख्यानं इति । १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०२ अविचारं तु पादपोपगमनं तत्र हि सव्याघाताव्याघातभेदतो द्विभेदेऽपि पादपवन्निश्चेष्टतयैव स्थीयते । ११. (क) मूलाराधना, २।६५ विजयोदया वृत्ति अविचारं वक्ष्यमाणादिनानाप्रकाररहितम् । (ख) मूलाराधना दर्पण, ७।२०१५ : अवीचारं अनियतविहारादिविचारणाविरहात् । १२. स्थानांग २।४१५ वृत्ति: यद्वसतेरेकदेशे विधीयते तत्ततः शरीरस्य निर्हरणात् --- निस्सारणान्निहरिमम् । १३. मूलाराधना दर्पण, ७।२०१५ अणिहारिमं सविचारभक्तप्रत्याख्यानोक्तस्वगणपरित्यागाभावात् । अर्थसविचार भक्त के प्रत्याख्यान में स्व- गण का परित्याग कर पर गण में जाने की विधि बतलाई है, वह इसमें नहीं है इसलिए इसको 'अणिहारिम' कहते हैं। १४. मूलाराधना दर्पण, २।४१५, वृत्ति यत्पुनर्गिरिकन्दरादौ तदर्निहरणादनिर्धारिमम् । १५. मूलाराधना ८ २०६६ एवं णिप्पडियम्मं भणति पाओवगमणमरहंता । णियमा अणिहारं तं सिया य णीहारमुवसग्गे ।। विजयोदयातत्प्रायोपगमनमनतिहारमचलं स्याच्चलमपि उपसर्गे परकृतचलमनपेक्ष्य । १६. औपपातिक, सूत्र ३२ वृत्ति, पृ० ७१ व्याघातवत्-सिंहदावानलाद्यभिभूतो यत् प्रतिपद्यते । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५१६ अध्ययन ३० : श्लोक १२-१३ टि० ४ जाता है। सूत्रकृतांग के अनुसार शारीरिक बाधा उत्पन्न होने आदमी को मरना ही हो अथवा मालूम हो जाए कि मरना है, या न होने पर भी अनशन किया जाता है।' तो खाए हुए से उपवास करके मरना कहीं बढ़कर है अथवा अनशन का हेतु शरीर के प्रति निर्ममत्व है। जब तक इन दोनों का मुकाबला ही उचित नहीं है। मैं नहीं जानता कि शरीर-ममत्व होता है, तब तक मनुष्य मृत्यु से भयभीत रहता खाए हुए मरने से वृत्ति कैसी रहती होगी पर जान पड़ता है है और जब वह शरीर-ममत्व से मुक्त होता है, तब मृत्यु के कि अच्छी तो नहीं रहती होगी और उपवास में वृत्ति का क्या भय से भी मुक्त हो जाता है। अनशन को देह-निर्ममत्व या पूछना है? जान पड़ता है ब्रह्मानन्द में लीन है।" अभय की साधना का विशिष्ट प्रकार कहा जा सकता है। मृत्यु तात्कालिक व्याघात या बाधा उत्पन्न न होने पर किया अनशन का उद्देश्य नहीं, किंतु उसका गौण परिणाम है। उसका जाने वाला अनशन संलेखना-पूर्वक होता है। मुख्य परिणाम है-आत्म-लीनता। इसी प्रकार महात्मा गांधी आगम-सूत्रों में मरण एवं अनशन के भेद इस प्रकार का एक अनुभव है-“मुझे मालूम होता है कि किसी कारण से हैं(१) उत्तरज्झयणाणि, ३०९-१३ : अनशन इत्वरिक मरणकालांत श्रेणितप प्रतरतप घनतप वर्गतप वर्ग-वर्गतप प्रकीर्णतप सविचार अविचार सपरिकर्म अपरिकर्म निर्हारि अनियरि (२) ओवाइयं, सूत्र ३२ अनशन ___ इत्वरिक इत्वरिक यावत्कथिक चतुर्थ भक्त षष्ठ भक्त अष्टम भक्त दशम भक्त द्वादश भक्त चतुर्दश भक्त षोडश भक्त | पादपोपगमन भक्त-प्रत्याख्यान T अर्धमासिक भक्त मासिक भक्त द्वैमासिक भक्त त्रैमासिक भक्त चतुरमासिक भक्त पञ्चमासिक भक्त छहमासिक भक्त व्याघात सहित निर्व्याघात (नियमतः अप्रतिकर्म) व्याघात सहित निर्व्याघात (नियमतः सप्रतिकर्म) १. (क) सूयगडो, २।२६७ : ते णं एतेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई सामण्णपरियार्ग पाउणंति, पाउणित्ता, आबाहसि उप्पण्णसि वा अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खंति, पच्चक्खित्ता बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेति। (ख) वही, २।२७३ : ते णं एयारवेणं विहरमाणा बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता आबाहसि उप्पण्णंसि वा अणुप्पण्णंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खंति, पच्चक्खित्ता बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदेति। २. उपवास से लाभ, पृ० ११७। Jain Education Intemational Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो मार्ग-गति (३) ठाणं, २।४११ - ४१६ – बाल-मरण (४) भगवई, २।१ वलय मरण वशार्त मरण निदान मरण तद्भव मरण गिरि-पतन तरु पतन पादपोपगमन जल-प्रवेश अग्नि प्रवेश विष-भक्षण शस्त्रावपाटन वैहायस गृद्ध स्पृष्ट बाल-मरण ५१७ मरण (५) भगवई, २५1५५९-५६३ इत्वरिक I चौदह भेद ( औपपातिक की भांति ) (६) समवाओ, १७ जल-प्रवेश अग्नि प्रवेश विष-भक्षण शस्त्रावपाटन वैहायस गृद्ध स्पृष्ट मरण वलय-मरण वशार्त-मरण अंत शल्य मरण तद्भव-मरण गिरि पतन तरु पतन पदपोपगमन अनशन पादपोपगमन अध्ययन ३० : श्लोक १२-१३ टि० ४ मरण निर्धारिम अनिर्धारिम (नियमतः अप्रतिकर्म) पण्डित-मरण यावत्कथिक निर्धारिम अनिर्धारिम (नियमतः अप्रतिकर्म) भक्त-प्रत्याख्यान निहरिम अनिहरिम (नियमतः प्रतिकर्म) पण्डित-मरण भक्त-प्रत्याख्यान निर्हारिम अनिर्हारिम ( नियमतः सप्रतिकर्म) आवीचि मरण अवधि मरण आत्यन्तिक-मरण वलय-मरण वशार्त-मरण अन्तःशल्य-मरण तद्भव मरण बाल-मरण पंडित-मरण बालपंडित मरण अद्मस्थ-मरण केवली मरण वैहायस - मरण गृद्धस्पृष्ट-मरण भक्त-प्रत्याख्यान इंगिनी मरण पादपोपगमन उपर्युक्त नाम स्थानांग और भगवती से कुछ भिन्न हैं । २. इंगिनी और ३. पादपोपगमन 1 इनमें अनशन के तीन प्रकार हैं- १. भक्त-प्रत्याख्यान, मूलाराधना में अनशन के अधिकारी का वर्णन है। इसके भक्त प्रत्याख्यान (स्थानांग की भांति ) Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५१८ अध्ययन ३० : श्लोक १२-१३ टि० ४ अधिकारी वे होते हैं आदि विकृतियों का त्याग अथवा आचाम्ल किया जाता है। सूत्र १. जो दुश्चिकित्स्य व्याधि (संयम को छोड़े बिना के प्रथम चार वर्षों में विचित्र तप करने का उल्लेख नहीं है। जिसका प्रतिकार करना संभव न हो) से किन्तु शान्त्याचार्य ने निशीथ चूर्णि के आधार पर इसका अर्थ पीड़ित हो। यह किया है कि संलेखना करने वाला विचित्र तप के पारण में २. जो श्रामण्य-योग की हानि करने वाली जरा से विकृतियों का परित्याग करे। प्रवचनसारोद्धार में भी यही क्रम अभिभूत हो। है। प्रथम चार वर्षों में विचित्र तप किया जाता है और उसके ३. जो देव, मनुष्य या तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों से पारण में यथेष्ट भोजन किया जाता है। दूसरे चार वर्षों में उपद्रुत हो। विचित्र तप किया जाता है, किन्तु पारण में विकृति का जिसके चारित्र-विनाश के लिए अनुकूल उपसर्ग परित्याग किया जाता है। आगे का क्रम समान है। किए जा रहे हों। उत्तराध्ययन (३६२५१-२५५) के अनुसार इस संलेखना ५. दुष्काल में जिसे शुद्ध भिक्षा न मिले। का पूर्ण क्रम इस प्रकार है६. जो गहन अटवी में दिग्मूढ़ हो जाए और मार्ग हाथ प्रथम चार वर्ष-विकृति का परित्याग अथवा आचाम्ल। न लगे। द्वितीय चार वर्ष-विचित्र तप-उपवास, बेला, तेला ७. जिसके चक्षु और श्रोत्र दुर्बल तथा जंघाबल क्षीण आदि और पारण में यथेष्ट भोजन। हो जाए और जो विहार करने में समर्थ न हो। नौवें और दसवें वर्ष-एकान्तर उपवास और पारण में उक्त व इन जैसे अन्य कारण उपस्थित होने पर व्यक्ति आचाम्ल अनशन का अधिकारी होता है।' ग्यारहवें वर्ष की प्रथम छमाही-उपवास या बेला। जिस मुनि का चारित्र निरतिचार पल रहा हो, संलेखना ग्यारहवें वर्ष की द्वितीय छमाही-विकृष्ट तप-तेला, कराने वाले आचार्य (निर्णायक आचार्य) भविष्य में सुलभ हों, चोला आदि तप। दुर्भिक्ष का भय न हो, वैसी स्थिति में वह अनशन का समूचे ग्यारहवें वर्ष में पारण के दिन-आचाम्ल । प्रथम अनधिकारी है। विशिष्ट स्थिति उत्पन्न हुए बिना जो अनशन छमाही में आचाम्ल के दिन ऊनोदरी की जाती है और दूसरी करे तो समझना चाहिए कि वह चारित्र से खिन्न है। छमाही में उस दिन पेट भर भोजन किया जाता है। संलेखना बारहवें वर्ष में—कोटि-संहित आचाम्ल अर्थात् निरन्तर आचारांग में बताया गया है कि जब मुनि को यह आचाम्ल अथवा प्रथम दिन आचाम्ल, दूसरे दिन कोई दूसरा अनुभव हो कि इस शरीर को धारण करने में मैं ग्लान हो रहा तप और तीसरे दिन फिर आचाम्ल।० हूं, तब वह क्रम से आहार का संकोच करे, संलेखना करे- बारह वर्ष के अन्त में अर्द्ध-मासिक या मासिक अनशन, आहार संकोच के द्वारा शरीर को कृश करे।' भक्त-परिज्ञा आदि।" निशीथ चूर्णि के अनुसार बारहवें वर्ष में संलेखना के काल क्रमशः आहार की इस प्रकार कमी की जाती है जिससे आहार संलेखना के तीन काल हैं—(9) जघन्य-छह मास का और आयु एक साथ ही समाप्त हो । उस वर्ष के अन्तिम चार काल (२) मध्यम—एक वर्ष का काल और (३) उत्कृष्ट-१२ महीनों में मुंह में तैल भरकर रखा जाता है। मुखयंत्र विसंवादी वर्ष का काल। न हो-नमस्कार मंत्र आदि का उच्चारण करने में असमर्थ न उत्कृष्ट संलेखना के काल में प्रथम चार वर्षों में दूध, घी हो, यह उसका प्रयोजन है।२ १. मूलाराधना, २७१-७४। २. वही, २७५-७६ । ३. आयारो, ८१०५, १०६ । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ७०६ । ५. प्रवचनसादोद्धार, गाथा ८७५-८७७। बृहद्वृत्ति, पत्र ७०६ : द्वितीये वर्षचतुष्के "विचित्रं तु' इति विचित्रमेव चतुर्थषष्टाष्टमादिरूपं तपश्चरेत्, अत्र च पारणके सम्प्रदाय:"उग्गमविसुद्धं सव्वं कप्पणिज्जं पारेति।" प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति पत्र २५४ : विकृष्ट-अष्टमदशमद्वादशादिकं तपःकर्म भवति। ८. वही, वृत्ति पत्र २५४ : पारणके तु परिमितं-किंचिदूनो दरतासम्पन्नमाचाम्लं करोति। ६. वही, वृत्ति पत्र २५४ : पारणके तु मा शीघ्रमेव मरणं यासिषमितिकृत्वा परिपूर्णधाण्या आचाम्लं करोति, न पुनरूनोदरतयेति। १०, बृहद्वृत्ति, पत्र ७०६ : कोट्यौ-अग्रे प्रत्याख्यानाधन्तकोणरूपे सहिते मिलिते यस्मिस्तत्कोटीसहितं, किमुक्तं भवति?-विवक्षितदिने प्रातराचाम्ल प्रत्याख्याय तच्चाहोरात्रं प्रतिपाल्यं, पुनर्द्वितीयेऽहूनि आचाम्लमेव प्रत्याचष्टे, ततो द्वितीयस्यारम्भकोटिराद्यस्य तु पर्यन्तकोटिरुभे अपि मिलिते भवत इति तत्कोटीसहितमुच्यते, अन्ये त्वाः-आचाम्लमेकस्मिन् दिने कृत्वा द्वितीयदिने च तपोऽन्तरमनुष्ठाय पुनस्तृतीयदिने आचाम्लमेव कुर्वतः कोटीसहितमुच्यते। ११. वही, पत्र ७०६-७०७ : 'संवत्सरे' वर्षे प्रक्रमाद् द्वादशे 'मुनिः' साधुः 'मास' त्ति सूत्रत्वान्मासं भूतो मासिकस्तेनैवमार्द्धमासिकेन 'आहारेणन्ति' उपलक्षणत्वादाहारत्यागेन, पाठान्तरतश्च क्षपणेन 'तपः' इति प्रस्तावाद्भक्तपरिज्ञानादिकमनशनं 'चरेत्।' १२. सभाष्य निशीथचूर्णि, भाग ३, पृ० २६४। कापना Jain Education Intemational Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो-मार्ग-गति ५१९ अध्ययन ३० :श्लोक १४,१६ टि० ५,६ संलेखना का अर्थ है छीलना—कृश करना। शरीर को रत्नकरण्डक श्रावकाचार में उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा कृश करना-यह द्रव्य (बाह्य) संलेखना है। कषाय को कृश और असाध्य रोग उत्पन्न होने पर धर्म की आराधना के लिए करना-यह भाव (आन्तरिक) संलेखना है।' शरीर त्यागने को 'संलेखना' कहा गया है। आचार्य शिवकोटि ने छह प्रकार के बाह्य-तप को ५. अवमौदर्य (ऊनोदरिका) (ओमोयरियं) बाह्य-संलेखना का साधन माना है। संलेखना का दूसरा क्रम यह बाह्य-तप का दूसरा प्रकार है। इसका अर्थ है 'जिस एक दिन उपवास और दूसरे दिन वृत्ति-परिसंख्यान तप है। व्यक्ति की जितनी आहार-मात्रा है, उससे कम खाना।' यहां बारह भिक्ष-प्रतिमाओं को भी संलेखना का साधन माना है। इसके पांच प्रकार किए गए हैं—(१) द्रव्य की दृष्टि से शरीर-संलेखना के इन अनेक विकल्पों में आचाम्ल तप उत्कृष्ट अवमौदर्य. (२) क्षेत्र की दष्टि से अवमौदर्य, (३) काल की साधन है। संलेखना करने वाला, तेला, चोला, पंचोला आदि दृष्टि से अवमौदर्य, (४) भाव की दृष्टि से अवमौदर्य और तप करके पारण में मित और हल्का आहार (बहुधा आचाम्ल (५) पर्यव की दृष्टि से अवमौदर्य। अर्थात कॉजी का आहार-'आयंबिलं-कांजिकाहारं' मूलाराध औपपातिक में इसका विभाजन भिन्न प्रकार से हैना ३।२५१, मूलाराधना दर्पण) करता है। (१) द्रव्यतः अवमौदर्य और (२) भावतः अवमीदर्य। द्रव्यतः भक्त-परिज्ञा का उत्कृष्ट काल १२ वर्ष का है। उसका अवमीदर्य के दो प्रकार हैं-(१) उपकरण अवमौदर्य और क्रम इस प्रकार है (२) भक्त-पान अवमौदर्य। भक्त-पान अवमौदर्य के अनेक प्रकार (१) प्रथम चार वर्षों में विचित्र अर्थात् अनियत काय-क्लेशों हैं-(१) आठ ग्रास खाने वाला अल्पाहारी होता है, (२) बारह के द्वारा शरीर कृश किया जाता है। ग्रास खाने वाला अपार्द्ध अवमौदर्य होता है, (३) सोलह ग्रास (२) दूसरे चार वर्षों में विकृतियों का परित्याग कर खाने वाला अर्द्ध अवमौदर्य होता है, (४) चौबीस ग्रास खाने शरीर को सुखाया जाता है। वाला पौन अवमौदर्य होता है और (५) इकतीस ग्रास खाने (३) नौवें और दसवें वर्ष में आचाम्ल और विकृति-वर्जन वाला किंचित् अवमौदर्य होता है।" किया जाता है। यह कल्पना भोजन की पूर्ण मात्रा के आधार पर की गई (४) ग्यारहवे वर्ष में केवल आचाम्ल किया जाता है। है। पुरुष के आहार की पूर्ण मात्रा बत्तीस ग्रास और स्त्री के (५) बारहवें वर्ष की प्रथम छमाही में अविकृष्ट तप- पूर्ण आहार की मात्रा अट्ठाईस ग्रास है।१२ ग्रास का परिमाण उपवास, बेला आदि किया जाता है। मुर्गी के अण्डे अथवा हजार चावल जितना" बतलाया गया (६) बारहवें वर्ष की दूसरी छमाही में विकृष्ट तप- है। इसका तात्पर्य यह है कि जितनी भूख हो, उससे एक कवल तेला, चोला आदि किया जाता है। कम खाना भी अवमौदर्य है। क्रोध, मान, माया, लोभ, कलह दोनों परम्पराओं में संलेखना के विषय में थोड़ा क्रम-भेद आदि को कम करना भावतः अवमीदर्य है।* निद्रा-विजय, है, किन्तु यह विचारणीय नहीं है। आचार्य शिवकोटि के शब्दों समाधि, स्वाध्याय, परम-संयम और इन्द्रिय-विजय-ये अवमौदर्य में संलेखना के लिए वही तप या उसका वही क्रम अंगीकार के फल हैं। करना चाहिए जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और शरीर-धातु के ६. (ग्रामे.....पल्ली ) अनुकूल हो। संलेखना का जो क्रम बतलाया गया है, वही क्रम हा क्रम ग्राम--जो गुणों को ग्रसित करे अथवा जहां १८ प्रकार है ऐसा नियम नहीं है। जिस प्रकार शरीर का क्रमशः संलेखन लखन के कर लगते हों के कर लगते हों, वह 'ग्राम' कहलाता है। ग्राम का अर्थ वह । (तनूकरण) हो, वही प्रकार अंगीकरणीय है। 'समूह' है। जहां-जहां जन-समूह रहता है, उसका नाम ग्राम १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ७०६ : संलेखन-द्रव्यतः शरीरस्य भावतः कषायाणां कृशताऽऽपादनं संलेखा, संलेखनेति। (ख) मूलाराधना, ३१२०६। २. (क) मूलाराधना, ३२०८ | (ख) मूलाराधना दर्पण, ३१२०८, पृ० ४३५ । (ग) मूलाराधना, ३१२४६। ३. वही, ३१२४७। ४. वही, ३।२४। ५. वही, ३२५०-२५१। ६. वही, ३२५३। ७. (क) मूलाराधना, ३२५३। (ख) मूलाराधना दर्पण, ३१२५४, पृ०४७५ : निर्विकृतिः रसव्यंजनादिव- र्जितमव्यतिकीर्णमोदनादि भोजनम् । ८. मूलाराधना, ३२५४ । ६. वही, ३२५५। १०. रत्नकरण्डक श्रावकाचारः १२२ : उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। ___ धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।। ११. ओवाइयं, सूत्र ३३। १२. मूलाराधना, ३।२११।। १३. ओवाइयं, सूत्र ३३। १४. मूलाराधना दर्पण, पृ० ४२७। १५. ओवाइयं, सूत्र ३३। १६. मूलाराधना, ३।२११, अमितगति, पृ. ४२८ । १७. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ : ग्रसति गुणान् गम्यो वाऽष्टादशानां कराणाभिति ग्रामः। Jain Education Intemational Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि हो गया। नगर - जहां किसी प्रकार का कर न लगता हो, उसे 'नगर' कहा जाता है।' अर्थ-शास्त्र में राजधानी के लिए 'नगर' या 'दुर्ग' और साधारण कस्बों के लिए 'ग्राम' शब्द प्रयुक्त हुआ है। किन्तु प्रस्तुत श्लोक में राजधानी का प्रयोग भी हुआ है, इससे जान पड़ता है कि नगर बड़ी बस्तियों का नाम है, भले फिर वे राजधानी हों या न हों। निगम व्यापारियों का गांव; वह बस्ती जहां बहुत व्यापारी रहते हैं। आकर-खान का समीपवर्ती गांव पल्ली-बीहड़ स्थान में होने वाली वस्ती, चोरों का गांव ७. भिक्षाचर्या (भिक्खायरियं) यह बाह्य तप का तीसरा प्रकार है। इसका दूसरा नाम "वृत्ति - संक्षेप" या "वृत्ति परिसंख्यान' है ।' अष्ट प्रकार के गोचराग्रों, सात एषणाओं तथा अन्य विविध प्रकार के अभिग्रहों के द्वारा भिक्षावृत्ति को संक्षिप्त किया जाता है। गोचराग्र के आठ प्रकार हैं (१) पेटा पेटा की भांति चतुष्कोण घूमते हुए (बीच के घरों को छोड़ चारों दिशाओं में समश्रेणि स्थित घरों में जाते हुए), 'मुझे भिक्षा मिले तो लूं अन्यथा नहीं' – इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम पेटा है।" (२) अर्द्ध-पेटा – अर्द्ध-पेटा की भांति द्विकोण घूमते हुए ( दो दिशाओं में स्थित गृह-श्रेणि में जाते हुए), 'मुझे भिक्षा मिले तो लूं अन्यथा नहीं' – इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम अर्द्ध-पेटा है। (३) गो मूत्रिका (बाएं पार्श्व के घर से ५२० अध्ययन ३० : श्लोक २५ टि० ७ बाएं पार्श्व के घर में जाते हुए), 'मुझे भिक्षा मिले तो लूं अन्यथा नहीं' – इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम गो- मूत्रिका है। गो मूत्रिका की तरह बलखाते हुए दाएं पार्श्व के घर और दाएं पार्श्व से १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ नात्र करोऽस्तीति नकरम् । २. वही, पत्र ६०५ : निगमयन्ति तस्मिन्ननेकविधभाण्डानीति निगमःप्रभूततरवणिजां निवासः । ३. वही, पत्र ६०५ : आकुर्वन्ति तस्मिन्नित्याकरो— हिरण्याद्युत्पत्तिस्थानम् । ४. वही, पत्र ६०५ : 'पल्लि' त्ति सुव्यत्ययात् पाल्यन्ते ऽनया दुष्कृतविधायिनो जना इति पल्ली, नैरुक्तो विधिः, वृक्षगहनाद्याश्रितः प्रान्तजननिवासः । ५. समवाओ, समवाय ६ । ६. मूलाराधना, ३।२१७ । ७. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ 'पेडा' पेडिका इव चउकोणा । (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४८ : चउदिसि सेणीभमणे, मज्झे मुक्कंमि भन्नए पेडा । ८. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ 'अपेडा' इमीए चेव अद्धसंठिया घरपरिवाडी। (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४८ : दिसिदुगसंबद्धस्सेणिभिक्खणे अद्धपेडति । ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ : 'गोमुत्तिया' वंकावलिया । (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४७ : वामाओ दाहिणगिहे भिक्खिज्जइ दाहिणाओ वामंमि । (४) पतंग वीथिका — पतिंगा जैसे अनियत क्रम से उड़ता है, वैसे अनियत क्रम से (एक घर से भिक्षा ले फिर कई घर छोड़ फिर किसी घर में) मुझे भिक्षा मिले तो लूं नहीं तो नहींइस प्रकार संकल्प से भिक्षा करने का नाम पतंग-वीथिका है।" (५) शंबूकावर्त्ता — शंख के आवतों की तरह भिक्षाटन करने को शंबूकावर्त्ता कहा जाता है। इसके दो प्रकार हैं(१) आभ्यन्तर शंबूकावर्त्ता और ( २ ) बाह्य शंबूकावर्त्ता । (क) शंख के नाभि क्षेत्र से प्रारम्भ हो बाहर आने वाले आवर्त्त की भांति गांव के भीतरी भाग से भिक्षाटन करते हुए बाहरी भाग से आने को 'आभ्यन्तर शंबूकावर्त्ता' कहा जाता है। (ख) बाहर से भीतर जाने वाले शंख के आवर्त की भांति गांव के बाहरी भाग से भिक्षाटन करते हुए भीतरी भाग में आने को 'बाह्य शंबूकावर्त्ता' कहा जाता है।" स्थानांग वृति के अनुसार (क) बाह्य शंबूकावर्त्ता की व्याख्या है और (ख) आभ्यन्तर शंबूकावर्त्ता की व्याख्या है । ३ किन्तु इन दोनों व्याख्याओं की अपेक्षा पंचाशकवृत्ति की व्याख्या अधिक हृदय स्पर्शी है। उसके अनुसार दक्षिणावर्त शंख की भांति दांई ओर आवर्त्त करते हुए 'भिक्षा मिले तो लूं नहीं तो नहीं' इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम आभ्यन्तर शंबूकावर्त्ता है। इसी प्रकार वामावर्त शंख की भांति बांई ओर आवर्त करते हुए 'भिक्षा मिले तो लूं नहीं तो नहीं' - इस संकल्प से भिक्षा करने का नाम बाह्य शंबूकावर्त्ता है। ३ - (६) आयतं गत्वा प्रत्यागता-सीधी सरल गली के अन्तिम घर तक जाकर वापिस आते हुए भिक्षा लेने का नाम आयतं गत्वा - प्रत्यागता है । ४ जोए सा गोमुत्ती.. 11 १०. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ 'पयंगविही' अणियया पयंगुड्डाणसरिसा । (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४७ अड्डवियड्डा पयंगविही। ११ (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ 'संबुक्कावट्ट' ति शम्बूकः शङ्खस्तस्यावर्त्तः शम्बूकावर्त्तस्तद्वदावर्त्तो यस्यां सा शम्बूकावर्त्ता, सा च द्विविधा—यतः सम्प्रदायः - 'अभिंतरसंबुक्का बाहिरसंबुक्का य, तत्थ अब्भंतरसंबुक्काए संखनाभिखेत्तोवमाए आगिइए अंतो आढवति बाहिरओ संणियट्टइ, इयरीए विवज्जओ।' (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४६ । स्थानांग, ६६६ वृत्ति, पत्र ३४७ यस्यां क्षेत्रबहिर्भागाच्छङ्खवृत्तत्वगत्याSटन् क्षेत्रमध्यभागमायाति साऽाभ्यन्तरसंबुक्का, यस्यां तु मध्यभागाद् बहिर्याति सा बहिः संबुक्केति । १३. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४६ वृत्ति, पत्र २१७ पञ्चाशकवृत्ती तु शम्बूकावृत्ता --- “ शङ्खवद्वृत्ततागमनं सा च द्विविधा — प्रदक्षिणतो ऽप्रदक्षिणतश्चे” त्युक्तम् । १४. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५ अत्रायतं दीर्घं प्राञ्जलमित्यर्थः तथा च सम्प्रदायः- “ तत्थ उज्जुयं गंतूण नियट्टइ” । १२. Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो मार्ग-गति ५२१ उन्नीसवीं गाथा में ये छह प्रकार निर्दिष्ट हैं और प्रस्तुत श्लोक में गोचराग के आठ प्रकारों का उल्लेख है। वे आयतं गत्वाप्रत्यागता से पृथक् मानने पर तथा शंबूकावर्त्ता के उक्त दोनों प्रकारों को पृथक्-पृथक् मानने पर बनते हैं।' मूलाराधना में गोचराग्र के छह प्रकार हैं- (१) गत्वा प्रत्यागता, (२) ऋजु-वीथि, (३) गो मूत्रिका, (४) पेलविया, (५) शंकावत और (६) पतंगवीथि जिस मार्ग से भिक्षा लेने जाए उसी मार्ग से लौटते समय भिक्षा मिले तो वह ले सकता है अन्यथा नहीं - यह गत्वा (गत) प्रत्यागत का अर्थ है। प्रवचनसारोद्धार के अनुसार गली की एक पंक्ति में भिक्षा करता हुआ जाता है और लौटते समय दूसरी पंक्ति से भिक्षा करता है। सरल मार्ग से जाते समय यदि भिक्षा मिले तो वह ले सकता है अन्यथा नहीं यह ऋजु-वीथि का अर्थ है । " प्रवचनसारोद्धार के अनुसार ऋजु मार्ग से भिक्षाटन करते हुए जाता है, वापस आते समय भिक्षा नहीं करता।" इन गोचराग की प्रतिमाओं से ऊनोदरी होती है, इसलिए इन्हें 'क्षेत्रतः अवमौदर्य' भी कहा गया है।" सात एषणाएं (१) संसृष्टा - खाद्य वस्तु से लिप्त हाथ या पात्र से देने पर भिक्षा लेना । (२) असंसृष्टा - भोजन-जात से अलिप्त हाथ या पात्र . से देने पर भिक्षा लेना । (६) लेपकृत-हाथ के चिपकने वाला आहार । (७) अलेपकृत — हाथ के न चिपकने वाला आहार । (८) पानक—द्राक्षा आदि से शोधिक पानक चाहे वह सिक्थ सहित हो या सिक्थ रहित । अमुक द्रव्य, अमुक क्षेत्र में, अमुक काल में व अमुक अवस्था में मिले तो लूं अन्यथा नहीं— इस प्रकार अनेक अभिग्रहों के द्वारा वृत्ति का संक्षेप किया जाता है। औपपातिक में वृत्ति-संक्षेप के तीस प्रकार बतलाए हैं"(१) द्रव्याभिग्रहचरक (११) उपनीतचरक (१२) अपनीतचरक (२) क्षेत्राभिग्रहचरक (३) उद्धृता - अपने प्रयोजन के लिए रांधने के पात्र से (३) कालभिग्रहचरक दूसरे पात्र से निकला हुआ आहार लेना । (४) अल्पलेपा— अल्पलेप वाली अर्थात् चना चिउड़ा (४) भावाभिग्रहचरक (५) उक्षिप्तचरक (६) निक्षिप्तचरक आदि रूखी वस्तु लेना । (१३) उपनीत- अपनीतचरक (१४) अपनीत - उपनीतचरक (१५) संसृष्टचरक (१६) असंसृष्टचरक (१७) तज्जातसंसृष्टचरक (१८) अज्ञातचरक (५) अवगृहीता खाने के लिए थाली में परोसा हुआ (७) उत्क्षिप्त - निक्षिप्तचरक आहार लेना । (८) निक्षिप्त- उत्क्षिप्तचरक (६) प्रगृहीता - परोसने के लिए कड़छी या चम्मच से (६) परिवेष्यमाणचरक निकला हुआ आहार लेना । (१०) संहियमाणचरक (१६) मौनचरक (२०) दृष्टलाभिक १. २. मूलाराधना, ३।२१६ । ३. वही, ३।२१८, विजयोदया गत्तापच्चागदं यया वीध्यागतः पूर्व तयैव प्रत्यागमनं कुर्वन् यदि लभते भिक्षां गृह्णाति नान्यथा । ४. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४६ । ५. मूलाराधना, ३।२१८ विजयोदया उज्जुवीहिं ऋज्च्या वीथ्या गतो यदि लभते गृह्णाति नेतरथा। ६. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४६ । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०५-६०६ : नन्यत्र गोचररूपत्वाद्भिक्षाचर्यात्वमेवासां तत्कथमिह क्षेत्रावमौदार्यरूपतोक्ता ? उच्यते, अवमौदार्य ममास्त्वित्यभिसम्बन्धिना विधीयमानत्वादवमौदायव्यपदेशो ऽप्यदुष्ट एव दृश्यते हि निमित्तभेदादेकत्रापि देवदत्तादौ पितृपुत्राद्यनेकव्यपदेशः, एवं पूर्वत्र ग्रामादिविषयस्योत्तरत्र कालादिविषयस्य च नैयतस्याभिग्रहत्वेन भिक्षाचर्यात्वप्रसंगेन प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७४५ । अध्ययन ३० : श्लोक २५ टि० ७ (७) उज्झितधर्मा जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य हो, उसे लेना। मूलाराधना में वृत्ति-संक्षेप के प्रकार भिन्न रूप से प्राप्त होते हैं (१) संसृष्ट–शाक, कुल्माष आदि धान्यों से संसृष्ट आहार । (२) फलिहा - मध्य में ओदन और उसके चारों ओर शाक रखा हो, ऐसा आहार । (३) परिखा— मध्य में अन्न और उसके चारों ओर व्यंजन रखा हो, वैसा आहार । (४) पुष्पोपहित व्यंजनों के मध्य में पुष्पों के समान अन्न की रचना किया हुआ आहार । (५) शुद्धगोपति-निष्पाव आदि धान्य से अमिश्रित शाक, व्यंजन आदि । इदमेवोत्तरं वाच्यम् । ८. (क) प्रवचनसारोद्धार, गाथा ७३६ ७४३। (ख) स्थानांग, ७८, वृत्ति पत्र ३८६ । ६. मूलाराधना, ३।२२०, विजयोदया ससिट्ठ—शाककुल्माषादिसंसृष्टमेव । फलिहा -- समंतादवस्थितशाकं मध्यावस्थितौदनं । परिखा—व्यंजनमध्यावस्थितान्नं । पुप्फोवहिदं च व्यंजनमध्ये पुष्पबलिरिव अवस्थितसिक्थं । सुद्धगोवहिद-शुद्धेन निष्पावादिभिमिश्रेणान्नेव उवहिदं संसृष्ट शाकव्यंजनादिकं । लेवडं हस्तलेपकारि। अलेवडं यच्च हस्ते न सज्जति । पाणगं पानं च कीदृक् ? णिसित्थगमसित्थं सिक्थरहितं पानं तत्सहितं च। १०. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०७ । (ख) मूलाराधना, ३।२२१ । ११. ओवाइयं, सूत्र ३४ । Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५२२ अध्ययन ३० : श्लोक २६,२७ टि० ८,६ (२१) अदृष्टलाभिक (२६) अन्नग्लायक (२) इक्षु-रस विकृति-गुड़, चीनी आदि। (२२) पृष्टलाभिक (२७) औपनिधिक (३) फल-रस विकृति-अंगूर, आम आदि फलों का (२३) अपृष्टलाभिक. (२८) परिमितपिण्डपातक रस। (२४) भिक्षालाभिक (२६) शुद्धएषणिक (४) धान्य-रस विकृति--तैल, मांड आदि। (२५) अभिक्षालाभिक (३०) संख्यादत्तिक। स्वादिष्ट भोजन को भी विकृति कहा जाता है। इसलिए मूलाराधना में पाटक, निवसन, भिक्षा-परिमाण और रस-परित्याग करने वाला शाक, व्यंजन, नमक आदि का भी दातृ-परिमाण भी वृत्ति-संक्षेप के प्रकार बतलाए गए हैं। वर्जन करता है। मूलाराधना के अनुसार दूध, दही, घृत, तैल ८. रस-विवर्जन तप (रसविवज्जणं) और गुड़-इनमें से किसी एक का अथवा इन सबका परित्याग रस-विवर्जन या रस-परित्याग बाह्य-तप का चतर्थ प्रकार करना 'रस-परित्याग' है तथा 'अवगाहिम विकति' (मिठाई) है। मूलाराधना में वृत्ति-परिसंख्या चतुर्थ और रस-परित्याग पूड़े पत्र-शाक, दाल, नमक आदि का त्याग भी रस-परित्याग तृतीय प्रकार है। उत्तराध्ययन में रस-विवर्जन का अर्थ है- है। दूध, दही, घी आदि का त्याग और प्रणीत (स्निग्ध) पान-भोजन रस-परित्याग करने वाले मुनि के लिए निम्न प्रकार के का त्याग। भोजन का विधान हैऔपपातिक में इसका विस्तार मिलता है। वहां इसके (१) अरस आहार-स्वाद-रहित भोजन । निम्नलिखित प्रकार उपलब्ध हैं---- (२) अन्यवेलाकृत-ठंडा भोजन। (१) निर्विकृति-विकृति का त्याग। (३) शुद्धौदन-शाक आदि से रहित कोरा भात। (२) प्रणीत रस-परित्याग स्निग्ध व गरिष्ठ आहार का (४) रूखा भोजन-घृत-रहित भोजन। त्याग। (५) आचामाम्ल-अम्ल-रस-सहित भोजन। (३) आचामाम्ल-अम्ल-रस मिश्रित अन्न का आहार। (६) आयामौदन-जिसमें थोड़ा जल और अधिक अन्न(४) आयाम-सिक्थ-भोजन-ओसामण से मिश्रित अन्न भाग हो, ऐसा आहार अथवा ओसमाण-सहित भात। का आहार। (७) विकटौदन-बहुत पका हुआ भात अथवा गर्म-जल (५) अरस आहार-हींग आदि से असंस्कृत आहार। मिला हुआ भात। (६) विरस आहार-पुराने धान्य का आहार। जो रस-परित्याग करता है, उसके तीन बातें फलित (७) अन्त्य आहार-वल्ल आदि तुच्छ धान्य का आहार। होती हैं-(१) संतोष की भावना, (२) ब्रह्मचर्य की आराधना (८) प्रान्त्य आहार-ठण्डा आहार। और (३) वैराग्य । (६) रूक्ष आहार-रूखा आहार। ९. श्लोक (२७) इस तप का प्रयोजन है 'स्वाद-विजय'। इसीलिए 'काय-क्लेश' बाह्य-तप का पांचवां प्रकार है। प्रस्तुत रस-परित्याग करने वाला विकृति, सरस व स्वादु भोजन नहीं अध्ययन में काय-क्लेश का अर्थ 'वीरासन आदि कठोर खाता। आसन' किया गया है। स्थानांग में काय-क्लेश के ७ प्रकार विकृतियां नौ हैं—(१) दूध, (२) दही, (३) नवनीत (४) घृत, निर्दिष्ट हैं-(१) स्थान-कायोत्सर्ग, (२) ऊकडू आसन, (५) तैल, (६) गुड़, (७) मधु, (८) मद्य और (E) मांस। इनमें (३) प्रतिमा आसन, (४) वीरासन, (५) निषद्या, (६) दण्डायत मधु, मद्य, मांस और नवनीत ये चार महाविकृतियां हैं। आसन और (७) लगण्ड-शयनासन।" इनकी सूचना जिन वस्तुओं से जीभ और मन विकृत होते हैं- 'वीरासणाईया' इस वाक्यांश में है। स्वाद-लोलुप या विषय-लोलुप बनते हैं, उन्हें 'विकृति' कहा औपपातिक में काय-क्लेश के दस प्रकार बतलाए गएजाता है। पंडित आशाधरजी ने इसके चार प्रकार बतलाए (१) स्थान कायोत्सर्ग, (२) ऊकडू आसन, (३) प्रतिमा आसन, (४) वीरासन, (५) निषद्या, (६) आतापना, (७) वस्त्र-त्याग, (१) गोरस विकृति–दूध, दही, घृत, मक्खन आदि। (८) उकण्डूयन-खाज न करना, (६) अनिष्ठीवन-थूकने का हाविकृतियां - वीरासणाईपातिक में काय १. मूलाराधना, ३२१६। २. वही, ३।२०६। ३. ओवाइयं, सूत्र ३५ । ४. ठाणं, ६२३॥ ५. (क) ठाणं, ४१८५। (ख) मूलाराधना, ३।२१३। ६. सागारधर्मामृत, ५॥३५, टीका। ७. सागारधर्मामृत, ५३५, टीका। ८. मूलाराधना, ३१२१५ । ६. वही, ३।२१६। १०. वही, ३।२१७, अमितगति : संतोषो भावितः सम्यग, ब्रह्मचर्य प्रपालितम् । दर्शितं स्वस्य वैराग्य, कुर्वाणेन रसोज्झनम् ।। ११. ठाणं, ७४६ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो-मार्ग-गति ५२३ अध्ययन ३० : श्लोक २७ टिंठ ६ त्याग और (१०) सर्व गात्र परिकर्म विभूषा का वर्जन—देह औपपातिक में भी तप के प्रकरण में 'ठाणाइय' है। परिकर्म की उपेक्षा ।' उसका भी स्पष्ट अर्थ लब्ध नहीं है। मूलाराधना को देखने से आचार्य वसुनन्दि के अनुसार आचाम्ल, निर्विकृति, सहज ही यह प्राप्त होता है कि आदि शब्द स्थान के प्रकारों एकस्थान, उपवास, बेला आदि के द्वारा शरीर को कृश करना का संग्राहक है। उसके अनुसार स्थान या ऊर्ध्वस्थान के सात 'काय-क्लेश' है। प्रकार हैंयह व्याख्या उक्त व्याख्याओं से भिन्न है। वैसे तो (क) साधारण-स्तम्भ या भित्ति का सहारा लेकर खड़े उपवास आदि करने में काया को क्लेश होता है, किन्तु भोजन होना। से संबंधित-अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति-संक्षेप और रस- (ख) सविचार–पूर्वावस्थित स्थान से दूसरे स्थान में परित्याग-चारों बाह्य-तपों से काय-क्लेश का लक्षण भिन्न जाकर प्रहर, दिवस आदि तक खड़े रहना। होना चाहिए। इस दृष्टि से काय-क्लेश की व्याख्या उपवास-प्रधान (ग) सनिरुद्ध-स्व-स्थान में खड़े रहना। न होकर अनासक्ति-प्रधान होनी चाहिए। शरीर के प्रति निर्ममत्व- (घ) व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग करना। भाव रखना तथा उसे प्राप्त करने के लिए आसन आदि (ङ) समपाद-पैरों को सटा कर खड़े रहना। साधना, उसको संवारने से उदासीन रहना—यह काय-क्लेश (च) एकपाद-एक पैर से खड़े रहना। का मूल-स्पर्शी अर्थ होना चाहिए। (छ) गृद्धोड्डीन-आकाश में उड़ते समय गीध जैसे द्वितीय अध्ययन में जो परीषह बतलाए गए हैं, उनसे अपने पंख फैलाता है, वैसे अपनी बाहों को फैला यह भिन्न है। काय-क्लेश स्वयं इच्छानुसार किया जाता है कर खड़े रहना। और परीषह समागत कष्ट होता है। (३) आसन योग श्रुतसागर गणि के अनुसार ग्रीष्म ऋतु में धूप में, शीत (क) पर्यंक—दोनों जंघाओ के अधोभाग को दोनों पैरों ऋतु में खुले स्थान में और वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे सोना, पर टिका कर बैठना। नाना प्रकार की प्रतिमाएं और आसन करना 'काय-क्लेश' है।" (ख) निषद्या-विशेष प्रकार से बैठना। मूलाराधना में काय-क्लेश के पांच विभाग किए गए (ग) समपद-जंघा और कटि भाग को समान कर बैठना। (१) गमन योग (घ) गोदोहिका-गाय को दुहते समय जिस आसन में (क) अनुसूर्य गमन—कड़ी धूप में पूर्व से पश्चिम की बैठते हैं, उस आसन में बैठना।। ओर जाना। (ङ) उत्कुटिका-ऊकडू बैठना-एड़ी और पुत्तों को (ख) प्रतिसूर्य गमन-पश्चिम से पूर्व की ओर जाना। ऊंचा रख कर बैठना। (ग) ऊर्ध्वसूर्य गमन—मध्याहून सूर्य में गमन करना। (च) मकरमुख–मगर के मुंह के समान पावों की आकृति (घ) तिर्यक्सूर्य गमन-सूर्य तिरछा हो तब गमन करना। बना कर बैठना। (ङ) उभ्रमक गमन–अवस्थित ग्राम से भिक्षा के लिए (छ) हस्तिशुडि-हाथी की सूंड की भांति एक पैर को दूसरे गांव में जाना। फैला कर बैठना। (च) प्रत्यागमन—दूसरे गांव जाकर पुनः अवस्थित गांव (ज) गो-निषद्या-दोनों जंघाओं को सिकोड़ कर गाय में लौट आना।' की तरह बैठना। (२) स्थान योग (झ) अर्धपर्यंक-एक जंघा के अधोभाग को एक पैर पर श्वेताम्बर-साहित्य में 'ठाणाइय' पाठ मिलता है और टिका कर बैठना। कहीं-कहीं 'ठाणायत' की अपेक्षा 'ठाणाइय' अधिक अर्थ-सूचक (ञ) वीरासन-दोनों जंघाओं को अन्तर से फैला कर है। बृहत्कल्प भाष्य की वृत्ति में स्थान के साथ लगे आदि शब्द बैठना। को निषीदन व शयन का ग्राहक बताया गया है। (ट) दण्डायत-दण्ड की तरह पैरों को फैला कर बैठना। १. ओवाइयं, सूत्र ३६। २. वसुनन्दि श्रावकाचार, श्लोक ३५१ : आयंबिल णिब्बियडी, एगट्ठाणं छट्ठमाइखवणेहि। जं कीरइ तणुताव, कायकिलेसो मुणेयव्यो।। ३. तत्त्वार्थ, ८१६, श्रुतसागरीय वृत्ति : यदृच्छया समागतः परीषहः, स्वयमेव कृतः काय-क्लेशः इति परीषहकायक्लेशयोर्विशेषः। ४. वही, ६१६, श्रुतसागरीय वृत्ति। ५. मूलाराधना, ३२२२ । ६. वही, ३२२३। ७. बृहत्कल्प भाष्य, गाथा ५६५३, वृत्ति : स्थानायत नाम ऊर्ध्वस्थानरूपमायत स्थानं तद् यस्यामस्ति सा स्थानायतिका। केचित्तु 'ठाणाइयाए' इति पठन्ति, तत्रायमर्थः सर्वेषां निषीदनादीनां स्थानानां आदिभूतमूर्ध्वस्थानम्, अतः स्थानानामादी गच्छतीति व्युत्पत्त्या स्थानादिगं तद् उच्यते। ८. मूलाराधना, ३।२२४-२५। Jain Education Intemational Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५२४ अध्ययन ३० : श्लोक २७ टि०६ (४) शयन योग बृहत्कल्प, (५१९-३०) (क) ऊर्ध्व शयन-ऊंचा होकर सोना। समपादिका, कायोत्सर्ग, प्रतिमासन, निषद्या, उत्कटुकासन, (ख) लगंड शयन-वक्र काष्ठ की भांति एड़ियों और वीरासन, दण्डासन, लगण्डशयन, अधोमुखासन, उत्तानशयन, शिर को भूमि से सटा कर शेष शरीर को ऊपर आम्रकुब्जिका और एकपार्श्वशयन। उठा कर सोना अथवा पीठ को भूमि से सटा कर दशाश्रुतस्कन्ध, (७) शेष शरीर को ऊपर उठा कर सोना। उत्तानशयन, पार्श्वशयन, निषद्या, दण्डायतासन, लगण्डशयन, (ग) उत्तान शयन-सीधा लेटना। उत्कटुकासन, कायोत्सर्ग, गो-दोहिकासन, वीरासन और आमकुब्जासन। (घ) अवमस्तक शयन-औंधा लेटना। मूलाराधना (ङ) एकपार्श्वशयन-दाईं या बाईं करवट लेटना। व्युत्सर्ग, समपाद, एकपाद, गृद्धोड्डीन, पर्यक, निषद्या, (च) मृतक शयन-शवासन। समपद, गो-दोहिका, उत्कुटिका, मकरमुख, हस्तिशुंडि, गो-निषधा, (५) अपरिकर्म योग अर्धपर्यडूक, वीरासन, दण्डायतशयन, ऊर्ध्वशयन, लगण्डशयन, (क) अभ्रावकाश शयन-खुले आकाश में सोना। उत्तानशयन, अवमस्तकशयन, एकपार्श्वशयन और मृतकशयन(ख) अनिष्ठीवन-नहीं थूकना। शवासन। (ग) अकण्डूयन--नहीं खुजलाना । ज्ञानार्णव, (२८।१०) (घ) तृण-फलक-शिला-भूमि-शय्या-घास, काठ के पर्यङ्कासन, अर्द्धपर्यङ्कासन, वज्रासन, वीरासन, फलक, शिला और भूमि पर सोना। सुखासन, पद्मासन और कायोत्सर्ग। (ङ) केश लोच-बालों को हाथ से नोंचना। योगशास्त्र (४।१२४) (च) अभ्युत्थान-रात को जागना। पर्यकासन, वीरासन, वज्रासन, पद्मासन, भद्रसन, (छ) अस्नान-स्नान नहीं करना। दण्डासन, उत्कटुकासन, गोदोहिकासन और कायोत्सर्ग। (ज) अदन्तधावन-दतौन नहीं करना। प्रवचनसारोद्वार, (५८३-५८५) (झ) शीत-उष्ण, आतापना, गर्मी और धूप सहन करना।' उत्तानशयन, पार्श्वशयन, निषद्या, कायोत्सर्ग, उत्कटुक, स्थान (आसन) तालिका लगण्डशयन, दण्डायतासन, गोदोहिकासन, वीरासन और उत्तराध्ययन, स्थानांग और औपपातिक के स्थान-शब्द आम्रकुब्ज। का विवरण मूलाराधना के स्थान-योग में मिलता है। स्थानांग अमितगति श्रावकाचार ॥ में ७, औपपातिक में ८, बृहत्कल्प में १२ और दशाश्रुतस्कन्ध पद्मासन, पर्यड्कासन, वीरासन, उत्कटुकासन और गवासन। में १० आसनों का उल्लेख मिलता है। मूलाराधना में इक्कीस, निषद्या के भेद निम्न प्रकार उपलब्ध हैं : ज्ञानर्णव में सात, योगशास्त्र में नौ, प्रवचनसारोद्धार में दस स्थानङ्ग (५ १५०) बृहत्कल्प भाष्य (गाथा ५६५३) तथा अमितगति श्रावकाचार में पांच आसनों का उल्लेख है उत्कटुका समपादपुता स्थानांग, (७४९) गो-दोहिका गो-निषधिका कायोत्सर्ग, उत्कटुकासन, प्रतिमासन, वीरासन, निषद्या, समपादपुता हस्तिशुण्डिका दण्डायतासन और लगण्डशयनासन। पर्यङ्का पर्यङ्का औपपातिक, (३६) अर्धपर्यङ्का अर्धपर्यङ्का कायोत्सर्ग, उत्कटुकासन, प्रतिमासन, वीरासन, निषद्या, औपपातिक (सूत्र ३६, वृत्ति पृ० ७५, ७६) में दण्डायत, लगण्डशयन और आतापनासन। आतापनासन के भेदोपभेद इस प्रकार मिलते हैं : आतापनासन निषन्न आतापना अनिष्पन्न अतापना ऊर्ध्वस्थित आतापना अधोमुखशयन पार्श्वशयन उत्तानशयन गो-दोहिकासन उत्कटुकासन पर्यकासन हस्तिशौण्डिका एकपादिका समपादिका १. मूलाराधना, ३२२६२२७। Jain Education Intemational Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो मार्ग गति १०. (श्लोक २८) I इस श्लोक में छठे बाह्य तप की परिभाषा की गई है आठवे श्लोक में बाह्य तप का छट्टा प्रकार 'संलीनता' बतलाया गया है और इस श्लोक में उसका नाम 'विविक्त शयनासन' है । भगवती ( २५ ।५५८) में छट्टा प्रकार 'प्रतिसंलीनता' है । तत्त्वार्थ सूत्र ( ६-१६) में विविक्त - शयनासन बाह्य तप का पांचवां प्रकार है। मूलाराधना ( ३।२०८ ) में विविक्त-शय्या बाह्य-तप का छट्ठा प्रकार है । इस प्रकार कुछ ग्रन्थों में संलीनता या प्रतिसंलीनता और कुछ ग्रन्थों में विविक्त शय्यासन या विविक्त-शय्या का प्रयोग मिलता है। किन्तु औपपातिक के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मूल शब्द 'प्रतिसंलीनता' है। विविक्त-शयनासन उसी का एक अवांतर भेद है। प्रतिसंलीनता चार प्रकार की होती है - (१) इन्द्रियप्रतिसंलीनता, (२) कवाय प्रतिसंलीनता, (३) योग-प्रतिसंलीनता और (४) विविक्त- शयनासन सेवन ।' प्रस्तुत अध्ययन में संलीनता की परिभाषा केवल विविक्त-शयनासन के रूप में की गई, यह आश्चर्य का विषय है। हो सकता है सूत्रकार इसी को महत्त्व देना चाहते हों । - ५२५ 1 तत्त्वार्थ सूत्र आदि उत्तरवर्ती ग्रन्थों में इसी का अनुसरण है। विविक्त-शयनासन का अर्थ मूलपाठ में स्पष्ट है मूलाराधना के अनुसार शब्द, रस, गन्ध और स्पर्श के द्वारा चित्त-विक्षेप नहीं होता, स्वाध्याय और ध्यान में व्याघात नहीं होता, वह ' विविक्त शय्या' है। जहां स्त्री-पुरुष और नपुंसक न हों, वह विविक्त शय्या है। भले फिर उसके द्वार खुले हों या बन्द, उसका प्रांगण सम हो या विषम, वह गांव के बाह्य भाग में हो या मध्य भाग में शीत हो या ऊष्ण । विविक्त- शय्या के कुछ प्रकार ये हैं- - शून्य-गृह, गिरिरे-गुफा, वृक्ष-मूल, आगन्तुक-आगार (विश्राम गृह), देव-कुल, अकृत्रिम शिला-गृह और कूट- गृह । विविक्त शय्या में रहने से इतने दोषों से सहज ही बचाव हो जाता है -- (१) कलह, (२) बोल ( शब्द बहुलता ), (३) झंझा ( संक्लेश), (४) व्यामोह, (५) सांकर्य (असंयिमों के साथ मिश्रण), (६) ममत्व और (७) ध्यान और स्वाध्याय का व्याघात ।" ११. (श्लोक ३१). प्रायश्चित्त आभ्यन्तर तप का पहला प्रकार है। उसके दस भेद हैं १. ओवाइयं, सूत्र ३७ से किं तं पडिसंलीणया ? पडिसंलीणया चउब्बिहा पण्णत्ता, तंजहा - इंदियपडिसंलीणया कसायपडिसंलीणया जोगपडिसंलीणया विवित्तसयणासणसेवणया। २. तत्त्वार्थ सूत्र ६ । १६ अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः । अध्ययन ३० : श्लोक २८-३२ टि० १०-१२ (१) आलोचना - योग्य — गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना। (२) प्रतिक्रमण - योग्य किए हुए पापों से निवृत्त होने के लिए 'मिथ्या में दुष्कृतम्' 'मेरे सब पाप निष्फल हों' ऐसा कहना, कायोत्सर्ग आदि करना तथा भविष्य में पाप-कार्यों से दूर रहने के लिए सावधान रहना । (३) तदुभय-योग्य पाप से निवृत्त होने के लिए आलोचना और प्रतिक्रमण—दोनों करना । (४) विवेक - योग्य — आए हुए अशुद्ध आहार आदि का उत्सर्ग करना । (५) व्युत्सर्ग- योग्य चौवीस तीर्थकरों की स्तुति के साथ कायोत्सर्ग करना। ३. ४. (६) तप-योग्य — उपवास, बेला आदि करना । (७) छेद-योग्य — पाप निवृत्ति के लिए संयम - काल को छेद कर कम कर देना । (८) मूल योग्य – पुनः व्रतों में आरोपित करना - नई दीक्षा देना । (६) अनवस्थापना - योग्य — तपस्या पूर्वक नई दीक्षा देना । (१०) पाराचिक योग्य भर्त्सना एवं अवहेलना पूर्वक नई दीक्षा देना । * १२. (श्लोक ३२) विनय आभ्यन्तर तप का दूसरा प्रकार है। प्रस्तुत श्लोक में उसके प्रकारों का निर्देश नहीं है । स्थानांग (७/१३०), भगवती (२५५६२) और औपपातिक (सूत्र ४०) में विनय के सात भेद बतलाए गए हैं (१) ज्ञान- विनय ज्ञान के प्रति भक्ति, बहुमान आदि करना । (२) दर्शन - विनय — गुरु की शुश्रूषा करना, आशातना न करना । (३) चरित्र - विनय चारित्र का यथार्थ प्ररूपण और अनुष्ठान करना । (४) मनो- विनय — अकुशल मन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति। (५) वचन - विनय- अकुशल-वचन का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति । (६) काय-विनय अकुशल- काय का निरोध और कुशल की प्रवृत्ति । मूलाराधना, ३।२२८-२६, ३१, ३२ । (क) ठाणं, १०७३। (ख) भगवई, २५। ५५६ । (ग) ओवाइयं, ३६ । Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५२६ अध्ययन ३० : श्लोक ३३,३४ टि० १३,१४ दोवताएका वैद्यावृत्य, (७) और ११०) साधर्मिक का (७) लोकोपचार-विनय-लोक-व्यवहार के अनुसार विनय हैं। गण और कुल की भांति संघ का अर्थ भी साधु-परक ही करना। होना चाहिए। ये दसों प्रकार केवल साधु-समूह के विविध पदों तत्त्वार्थ सूत्र (६२३) में विनय के प्रकार चार ही या रूपों से सम्बद्ध हैं। बतलाए गए हैं—(१) ज्ञान-विनय, (२) दर्शन-विनय, (३) चारित्र- १४. (श्लोक ३४) विनय और (४) उपचार-विनय। स्वाध्याय आभ्यन्तर-तप का चौथा प्रकार है। उसके पांच १३. (श्लोक ३३) भेद हैं—(१) वाचना, (२) प्रच्छना, (३) परिवर्तना, (४) अनुप्रेक्षा वैयावृत्त्य आभ्यन्तर-तप का तीसरा प्रकार है। स्थानांग और (५) धर्मकथा। देखें-२६।१८ का टिप्पण। (१०।१७) के आधार पर उसके दस प्रकार हैं--(१) आचार्य का तत्त्वार्थ सूत्र (६२५) में इनका क्रम और एक नाम भी वैयावृत्त्य, (२) उपाध्याय का वैयावृत्त्य, (३) स्थविर का वैयावृत्त्य, भिन्न है—(१) वाचना, (२) प्रच्छना, (३) अनुप्रेक्षा, (४) आम्नाय (४) तपस्वी का वैयावृत्त्य, (५) ग्लान का वैयावृत्त्य, (६) शैक्ष (नव- और (५) धर्मोपदेश। दीक्षित) का वैयावृत्त्य, (७) कुल का वैयावृत्त्य, (८) गण का वैयावृत्त्य, इनमें परिवर्तना के स्थान में 'आम्नाय' है। आम्नाय का (६) संघ का वैयावृत्त्य और (१०) साधर्मिक का वैयावृत्त्या अर्थ है 'शुद्ध उच्चारण पूर्वक बार-बार पाठ करना'।६ भगवती (२५ १५९८) और औपपातिक (सूत्र ४१) के परिवर्तना या आम्नाय को अनुप्रेक्षा से पहले रखना वर्गीकरण का क्रम उपर्युक्त क्रम से कुछ भिन्न है। वह इस अधिक उचित लगता है। स्वाध्याय के प्रकारों में एक क्रम हैप्रकार है : (१) आचार्य का वैयावृत्त्य, (२) उपाध्याय का आचार्य शिष्यों को पढ़ाते हैं, यह वाचना है। पढ़ते समय या वैयावृत्त्य, (३) शैक्ष का वैयावृत्त्य, (४) ग्लान का वैयावृत्त्य, पढ़ने के बाद शिष्य के मन में जो जिज्ञासाएं उत्पन्न होती हैं, (५) तपस्वी का वैयावृत्त्य, (६) स्थविर का वैयावृत्त्य, (७) साधर्मिक उन्हें वह आचार्य के सामने प्रस्तुत करता है, यह प्रच्छना है। का वैयावृत्त्य, (८) कुल का वैयावृत्त्य, (E) गण का वैयावृत्त्य, आचार्य से प्राप्त श्रुत को याद रखने के लिए वह बार-बार (१०) संघ का वैयावृत्त्य। उसका पाठ करता है, यह परिवर्तना है। परिचित श्रुत का मर्म तत्त्वार्थ सूत्र (६२४) में ये कुछ परिवर्तन के साथ समझने के लिए वह उसका पर्यालोचन करता है, यह अनुप्रेक्षा मिलते हैं—(१) आचार्य का वैयावृत्त्य, (२) उपाध्याय का है। पठित, परिचित और पर्यालोचित श्रुत का उपदेश करता है, वैयावृत्त्य, (३) तपस्वी का वैयावृत्त्य, (४) शैक्ष का वैयावृत्त्य, यह धर्मकथा है। इस क्रम में परिवर्तना का स्थान अनुप्रेक्षा से (५) ग्लान का वैयावृत्त्य, (६) गण का वैयावृत्त्य (गण- पहले प्राप्त होता है। श्रुत-स्थविरों की परम्परा का संस्थान)२, (७) कुल का वैयावृत्त्य सिद्धसेन गणि के अनुसार अनुप्रेक्षा का अर्थ है 'ग्रन्थ (एक आचार्य का साधु-समुदाय 'गच्छ' कहलाता है। एक और अर्थ का मानसिक अभ्यास करना।' इसमें वर्णों का जातीय अनेक गच्छों को 'कुल' कहा जाता है।)२, (८) संघ का उच्चारण नहीं होता और आम्नाय में वर्गों का उच्चारण होता वैयावृत्त्य (संघ अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका), है, यही इन दोनों में अन्तर है। अनुप्रेक्षा के उक्त अर्थ के (६) साधु का वैयावृत्त्य और (१०) समनोज्ञ का वैयावृत्त्य। अनुसार उसे आम्नाय से पूर्व रखना भी अनुचित नहीं है। (समान सामाचारी वाले तथा एक मण्डली में भोजन करने वाले आम्नाय, घोषविशुद्ध, परिवर्तन, गुणन और रूपादानसाधु 'समनोज्ञ' कहलाते हैं)। ये आम्नाय या परिवर्तना के पर्यायवाची शब्द हैं। ___इस वर्गीकरण में स्थविर और साधर्मिक ये दो प्रकार अर्थोपदेश, व्याख्यान, अनुयोग-वर्णन, धर्मोपदेश ये नहीं हैं। उनके स्थान पर साधु और समनोज्ञ-ये दो प्रकार धर्मोपदेश या धर्मकथा के पर्यायवाची शब्द हैं। औपपातिक, सूत्र ४१ की वृत्ति में निम्न परिभाषाएं हैं: कुल-गच्छों का समुदाय (कुलं गच्छसमुदायः)। गण—कुलों का समुदाय (गणं कुलानां समुदायः)। संघ-गणों का समुदाय (संघो गणसमुदायः)। साधर्मिक-समान धर्मा—समान धर्म वाले साधु-साध्वी (साधर्मिकः साधुः साध्वी वा)। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र, ६२४, भाष्यानुसारीटीका : गणः-स्थविरसन्ततिसंस्थितिः। स्थविरग्रहणेन श्रुतस्थविरपरिग्रहः, न बयसा पर्यायण वा, तेषां सन्ततिः-परंपरा तस्याः संस्थानं वर्तनं अद्यापि भवनं संस्थितिः। वही, ६।२४ : कुलमाचार्यसन्ततिसंस्थितिः एकाचार्यप्रणेय- साधुसमूहो गच्छः । बहूनां गच्छानां एकजातीयानां समूहः कुलम्। ४. वही, ६।२४ : सङ्घःश्चतुर्विधः-साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाः ५. वही, ६।२४ : द्वादशविधसम्भोगभाजः समनोज्ञानदर्शन- चारित्राणि मनोज्ञानि सह मनोहः समनोज्ञाः। ६. वही, २५, श्रुतसागरीय दृत्ति : अष्टस्थानोच्चारविशेषेण यच्छुद्धं घोषणं पुनः पुनः परिवर्तनं स आम्नायः कथ्यते। ७. वही, ६२५, भाष्यानुसारी टीका : सन्देहे सति ग्रन्थार्थयोर्मनसाऽभ्या सोऽनुप्रेक्षा । न तु बहिर्वर्णोच्चारणमनुश्रावणीयम् । आम्नायोऽपि परिवर्तन उदात्तादिपरिशुद्धमनुश्रावणीयमभ्यासविशेषः । ८. तत्त्वार्थ सूत्र, ६२५, भाष्य : आम्नायो घोषविशुद्ध परिवर्तनं गुणनं, रूपादानमित्यर्थः। ६. वही, ६२५ : अर्थोपदेशो व्याख्यानं अनुयोगवर्णनं धर्मोपदेश इत्यनर्धान्तरम्। Jain Education Intemational Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो-मार्ग-गति १५. (श्लोक ३५) ध्यान आभ्यन्तर तप का पांचवां प्रकार है । तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार व्युत्सर्ग पांचवा और ध्यान छठा प्रकार है।' ध्यान से पूर्व व्युत्सर्ग किया जाता है, इस दृष्टि से यह क्रम उचित है और व्युत्सर्ग ध्यान के बिना भी किया जाता है। उसका स्वतंत्र महत्त्व भी है, इसलिए उसे ध्यान के बाद भी रखा जाता है । ध्यान की परिभाषा चेतना की दो अवस्थाएं होती हैं—चल और स्थिर । चल चेतना को 'चित्त' कहा जाता है। उसके तीन प्रकार हैं(१) भावना —भाव्य विषय पर चित्त को बार-बार लगाना। (२) अनुप्रेक्षा-ध्यान से विरत होने पर भी उससे प्रभावित मानसिक चेष्टा । ५२७ (३) चिन्ता - सामान्य मानसिक चिन्ता | स्थिर चेतना को 'ध्यान' कहा जाता है। जैसे अपरिस्पंदमान अग्नि- ज्वाला 'शिखा' कहलाती है, वैसे ही अपरिस्पन्दमान ज्ञान 'ध्यान' कहलाता है। एकाग्र चिन्तन को भी ध्यान कहा जाता है। चित्त अनेक वस्तुओं या विषयों में प्रवृत्त होता रहता है, उसे अन्य वस्तुओं या विषयों से निवृत्त कर एक वस्तु या विषय में प्रवृत्त करना भी ध्यान है। मन, वचन और काया की स्थिरता को भी ध्यान कहा जाता है। इसी व्युत्पत्ति के आधार पर ध्यान के तीन प्रकार होते हैं (१) मानसिक - ध्यान मन की निश्चलता मनो-गुप्ति । (२) वाचिक - ध्यान —— मौन-वचन- गुप्ति (३) कायिक- ध्यान — काया की स्थिरता — काय - गुप्ति ।' छद्मस्थ व्यक्ति के एकाग्र चिन्तनात्मक ध्यान होता है और प्रवृत्ति निरोधात्मक ध्यान केवली के होता है। छद्मस्थ के प्रवृत्ति निरोधात्मक ध्यान केवली जितना विशिष्ट भले ही न हो, किन्तु अंशतः होती ही है। ध्यान के प्रकार एकाग्र चिन्तन को 'ध्यान' कहा जाता है। इस व्युत्पत्ति के आधार पर उसके चार प्रकार हैं- (१) आर्त्त, (२) रौद्र, (३) धर्म्य और (४) शुक्ल १. तत्त्वार्थ सूत्र, ६ २०१ २. वही, सूत्र, ६।२२। ३. ध्यानशतक, श्लोक २ : जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । तं हुज्ज भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता ।। ४. तत्त्वार्थ सूत्र, ६।२७ श्रुतसागरीयवृत्ति : अपरिस्पन्दमानं ज्ञानमेव ध्यानमुच्यते। किं तत् ? अपरिस्पन्दमानाग्निज्वालावत् । यथा अपरिस्पन्दमानाग्निज्वाला शिखा इत्युच्यते तथा अपरिस्पन्देनावभासमानं ज्ञानमेव ध्यानमिति तात्पर्यार्थः । (१) आर्त्तध्यान अध्ययन ३० : श्लोक ३५ टि० १५ (क) कोई पुरुष अमनोज्ञ संयोग से संयुक्त होने पर उस ( अमनोज्ञ विषय) के वियोग का चिन्तन करता है—यह पहला प्रकार है। (ख) कोई पुरुष मनोज्ञ संयोग से संयुक्त है, वह उस ( मनोज्ञ विषय) के वियोग न होने का चिन्तन करता है—यह दूसरा प्रकार है। (ग) कोई पुरुष आतंक (सद्योघाती रोग) के संयोग से संयुक्त होने पर उस (आतंक) के वियोग का चिन्तन करता है यह तीसरा प्रकार है। (घ) कोई पुरुष प्रीतिकर काम भोग के संयोग से संयुक्त है, वह उस ( काम - भोग) के वियोग न होने का चिन्तन करता है—यह चौथा प्रकार है। आर्त्तध्यान के चार लक्षण हैं- -आक्रन्द करना, शोक करना, आंसू बहाना, विलाप करना । (२) रौद्रध्यान चेतना की क्रूरतामय एकाग्र परिणति को 'रौद्रध्यान' कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं (क) हिंसानुबन्धी— जिसमें हिंसा का अनुबन्ध - हिंसा में सतत प्रवर्तन हो । (ख) मृषानुबन्धी जिसमें मृषा का अनुबन्ध मृषा में सतत प्रवर्तन हो । - (ग) स्तेतानुबन्धी— जिसमें चोरी का अनुबन्ध — चोरी में सतत प्रवर्तन हो । (घ) संरक्षणानुबन्धी—– जिसमें विषय के साधनों के संरक्षण का अनुबन्ध - विषय के साधनों के संरक्षण में सतत प्रवर्तन हो । रौद्रध्यान के चार लक्षण हैं (क) अनुपरत दोष-प्रायः हिंसा आदि से उपरत न होना 1 (ख) बहु दोष - हिंसा आदि की विविध प्रवृत्तियों में संलग्न रहना । (ग) अज्ञान दोष-अज्ञानवश हिंसा आदि में प्रवृत्त होना । (घ) आमरणान्त दोष — मरणान्त तक हिंसा आदि करने ५. ध्यानशतक, श्लोक ३ : अंतोमुहुत्तमित्तं, चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि । छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु || लोकप्रकाश, ३०।४२१-४२२ : यथा मानसिक ध्यानमेकाग्रं निश्चलं मनः । यथा च कायिकं ध्यानं, स्थिरः कायो निरेजनः ।। तथा यतनया भाषां भाषमाणस्य शोभनाम् । दृष्टां वर्जयतो ध्यानं वाचिकं कथितं जिनैः ।। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि का अनुताप न होना । ये दोनों ध्यान पापाश्रव के हेतु हैं, इसलिए इन्हें 'अप्रशस्त - ध्यान' कहा जाता है। इन दोनों को एकाग्रता की दृष्टि से ध्यान की कोटि में रखा गया है, किन्तु साधना की दृष्टि से आर्त्त और रौद्र परिणतिमय एकाग्रता विघ्न ही है । मोक्ष के हेतुभूत ध्यान दो ही हैं – (१) धर्म्य और (२) शुक्ल । इनसे आश्रव का निरोध होता है, इसलिए इन्हें 'प्रशस्त ध्यान' कहा जाता है। (३) धर्म्यध्यान वस्तु-धर्म या सत्य की गवेषणा में परिणत चेतना की एकाग्रता को 'धर्म्य-ध्यान' कहा जाता है। इसके चार प्रकार हैं ५२८ में संलग्न चित्त । धर्म्यध्यान के चार लक्षण हैं (क) आज्ञा-रुचि - प्रवचन में श्रद्धा होना । (ख) निसर्ग - रुचि — सहज ही सत्य में श्रद्धा होना । (ग) सूत्र - रुचि - सूत्र - पठन के द्वारा श्रद्धा उत्पन्न होना । (घ) अवगाढ़ - रुचि विस्तार से सत्य की उपलब्धि होना । धर्म्यध्यान के चार आलम्बन हैं (क) आज्ञा-विचय- - प्रवचन के निर्णय में संलग्न चित्त । (ख) अपाय-विचय-दोषों के निर्णय में संलग्न चित्त । (ग) विपाक-विचय-कर्म-फलों के निर्णय में संलग्न चित्त । (घ) संस्थान - विचय- विविध पदार्थों के आकृति निर्णय है और काया के योग का पूर्ण निरोध नहीं होता-श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया शेष रहती है, उस अवस्था को 'सूक्ष्म क्रिय' कहा जाता है। इसका निवर्तन ( स ) नहीं होता, इसलिए यह अनिवृत्ति है। (क) वाचना-पढ़ाना । (ख) प्रतिप्रच्छना - शंका निवारण के लिए प्रश्न करना । (ग) परिवर्तना पुनरावर्तन करना। (घ) अनुप्रेक्षा अर्थ का चिन्तन करना । धर्म्यध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं (क) एकत्व - अनुप्रेक्षा- अकेलेपन का चिन्तन करना । (ख) अनित्य-अनुप्रेक्षा-पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन करना । (ग) अशरण - अनुप्रेक्षा- अशरण- दशा का चिन्तन करना । (घ) संसार- अनुप्रेक्षा -- संसार परिभ्रमण का चिन्तन करना । (४) शुक्लध्यान चेतना की सहज ( उपाधि-रहित) परिणति को 'शुक्लध्यान' कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं- (क) पृथक्त्व-वितर्क सविचारी, (ख) एकत्व - वितर्क-अविचारी, (ग) सूक्ष्म क्रिम अनिवृत्ति, (घ) समुच्छिन्न-क्रिय-अप्रतिपाति । १. तत्त्वार्थ सूत्र ६२६ अध्ययन ३० : श्लोक ३६ टि० १६ ध्यान के विषय द्रव्य और उसके पर्याय हैं। ध्यान दो प्रकार का होता है- - सालम्बन और निरालम्बन । ध्यान में सामग्री का परिवर्तन भी होता है और नहीं भी होता हैभेद-दृष्टि से और अभेद - दृष्टि से । जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक दृष्टियोंनयों से चिन्तन किया जाता है और पूर्व श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन और काया में से एक दूसरे में संक्रमण किया जाता है, शुक्लध्यान की उस स्थिति को 'पृथक्त्व -वितर्क-सविचारी' कहा जाता है। जब एक द्रव्य या किसी एक पर्याय का अभेद-दृष्टि से चिन्तन किया जाता है और पूर्व श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा जहां शब्द अर्थ एवं मन, वचन और काया में से एक दूसरे से संक्रमण किया जाता है, शुक्लध्यान की उस स्थिति को 'एकत्व - वितर्क-अविचारी' कहा जाता है। जब मन और वाणी के योग का पूर्ण निरोध हो जाता जब सूक्ष्म क्रिया का भी निरोध हो जाता है, उस अवस्था को 'समुच्छिन्न-क्रिय' कहा जाता है। इसका पतन नहीं होता, इसलिए यह अप्रतिपात है। शुक्लध्यान के चार लक्षण (क) अव्यथ - क्षोभ का अभाव । (ख) असम्मोह - सूक्ष्म-प -पदार्थ-विषयक मूढ़ता का अभाव । (ग) विवेक- शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान । (घ) व्युत्सर्ग—शरीर और उपधि में अनासक्त-भाव । शुक्लध्यान के चार आलंबन (१) शान्ति क्षमा, (२) मुक्ति निलभता, (३) मायमृदुता और (४) आर्जव सरलता । शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं (क) अनन्तवृत्तिता - अनुप्रेक्षा-संसार परम्परा का चिन्तन करना । (ख) विपरिणाम-अनुप्रेक्षावस्तुओं के विविध परिणामों का चिन्तन करना । (ग) अशुभ- अनुप्रेक्षा-पदार्थों की अशुभता का चिन्तन करना । (घ) अपाय- अनुप्रेक्षा— दोषों का चिन्तन करना । १६. विनुस्सग्गो (श्लोक ३६) व्युत्सर्ग आभ्यन्तर तप का छठा प्रकार है। भगवती ( २५ । ६१३ ) और औपपातिक (सू० ४४) के अनुसार व्युत्सर्ग Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो-मार्ग-गति दो प्रकार का होता है— द्रव्य- व्युत्सर्ग और भाव- व्युत्सर्ग। द्रव्य - व्युत्सर्ग के चार प्रकार (क) शरीर - व्युत्सर्ग— शारीरिक चंचलता का विसर्जन । (ख) गण - व्युत्सर्ग— विशिष्ट साधना के लिए गण का विसर्जन । (ग) उपधि - व्युत्सर्ग— वस्त्र आदि उपकरणों का विसर्जन । (घ) भक्त - पान - व्युत्सर्ग-भोजन और जल का विसर्जन । भाव व्युत्सर्ग के तीन प्रकार (क) कषाय- व्युत्सर्ग— क्रोध आदि का विसर्जन । (ख) संसार व्युत्सर्ग-परिभ्रमण का विसर्जन । (ग) कर्म-व्युत्सर्ग- कर्म-पुद्गलों का विसर्जन । प्रस्तुत श्लोक में केवल काय - व्युत्सर्ग की परिभाषा दी गई है। इसका दूसरा नाम 'कायोत्सर्ग' है। कायोत्सर्ग का अर्थ है 'काया का उत्सर्ग— त्याग' । ५२९ अध्ययन ३० : श्लोक ३६ टि० १६ उपसर्गों को सहन करे। जीव-जन्तु रहित एकांत स्थान में खड़ा रहे और कायोत्सर्ग मुक्ति के लिए करे।" कायोत्सर्ग का मुख्य उद्देश्य है आत्मा का काया से वियोजन । काया के साथ आत्मा का जो संयोग है, उसका मूल है प्रवृत्ति। जो इनका विसंयोग चाहता है अर्थात् आत्मा के सान्निध्य में रहना चाहता है, वह स्थान, मौन और ध्यान के द्वारा “स्व” का व्युत्सर्ग करता है। प्रश्न होता है कि आयु पूर्ण होने से पहले काया का उत्सर्ग कैसे हो सकता है ? यह सही है, जब तक आयु शेष रहती है, तब तक काया का उत्सर्ग त्याग नहीं किया जा सकता । किन्तु यह काया अशुचि है, अनित्य है, दोषपूर्ण है, असार है, दुःख-हेतु है, इसमें ममत्व रखना दुःख का मूल है— इस बोध से भेद-ज्ञान प्राप्त होता है। जिसे भेद ज्ञान प्राप्त होता है, वह सोचता है कि यह शरीर मेरा नहीं है, मैं इसका नहीं हूं। मैं भिन्न हूं, शरीर भिन्न है। इस प्रकार का संकल्प करने से शरीर के प्रति आदर घट जाता है। इस स्थिति का नाम है 'कायोत्सर्ग' एक घर में रहने पर भी पति द्वारा अनादृत पत्नी ‘परित्यक्ता' कहलाती है । जिस वस्तु के प्रति जिस व्यक्ति के हृदय में अनादर-भाव होता है, वह उसके लिए परित्यक्त होती है। जब काया में ममत्व नहीं रहता, आदर भाव नहीं रहता तब काया परित्यक्त हो जाती है। कायोत्सर्ग - विधि जो कायोत्सर्ग करना चाहे, वह काया से निस्पृह होकर खम्भे की भांति सीधा खड़ा हो जाए। दोनों बाहों को घुटनों की ओर फैला दे, प्रशस्त ध्यान में निमग्न हो जाए। काया को न अकड़ा कर खड़ा हो और न झुका कर भी । परीषह और १. मूलाराधना, २।११६, विजयोदया, पृ० २७८ कायः शरीरं तस्य उत्सर्ग त्यागः... । तत्र शरीरनिःस्पृहः, स्थाणुरिवोवकायः प्रलंबितभुजः, प्रशस्तध्यानपरिणतोऽनुन्नमितानतकायः, परीषहानुपसर्गाश्व सहमानः तिष्ठन्निर्जन्तुके कर्मापायाभिलाषी विविक्ते देशे। २. योगशास्त्र, प्रकाश ३, पत्र २५० : कायस्स शरीरस्य स्थानमौनध्यानक्रियाव्यतिरेकेण अन्यत्र उच्छ्वसितादिभ्यः क्रियांतराध्यासमधिकृत्य य उत्सर्ग त्यागो 'नमो अरहंताणं' इति वचनात् प्राक् स कायोत्सर्गः । ३. (क) अमितगति श्रावकाचार ८१५७-६१ : त्यागो देहममत्वस्य तनूत्सृतिरुदाहृता । उपविष्टोपविष्टादि विभेदेन चतुर्विधा ।। आर्त्तरौद्रद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिंत्यते । उपविष्टोपविष्टाख्या, कथ्यते सा तनूत्सृतिः ॥ स्थान- काया की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण — काय गुप्ति । मौन-वाणी की प्रवृत्ति का स्थिरीकरण - वाक्- गुप्ति । ध्यान - मन की प्रवृत्ति का एकाग्रीकरण - मनो-गुप्ति । कायोत्सर्ग में श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्म प्रवृत्ति होती है, शेष प्रवृत्ति का निरोध किया जाता है। कायोत्सर्ग के प्रकार कायोत्सर्ग चार प्रकार का होता है (१) उत्थित - उत्थित - जो खड़ा खड़ा कायोत्सर्ग करता है और धर्म्य या शुक्ल ध्यान में लीन होता है, वह काया से भी उन्नत होता है और ध्यान से भी उन्नत होता है, इसलिए उसके कायोत्सर्ग को 'उत्थित - उत्थित' कहा जाता है । (२) उत्थित - उपविष्ट - जो खड़ा खड़ा कायोत्सर्ग करता है, किन्तु आर्त्त और रौद्र ध्यान से अवनत होता है, वह काया से खड़ा हुआ होता है और ध्यान से बैठा हुआ होता है, इसलिए उसके ध्यान को 'उत्थित - उपविष्ट' कहा जाता है। (३) उपविष्ट - उत्थित — जो बैठकर कायोत्सर्ग करता है और धर्म्य या शुक्ल ध्यान में लीन होता है, वह काया से बैठा हुआ होता है और ध्यान से खड़ा होता है, इसलिए उसके कायोत्सर्ग को 'उपविष्ट-उत्थित' कहा जाता है। (४) उपविष्ट-उपविष्ट – जो बैठकर कायोत्सर्ग करता है। और आर्त्त या रौद्र ध्यान में लीन होता है, वह काया और ध्यान - दोनों से बैठा हुआ होता है, इसलिए उसके कायोत्सर्ग को 'उपविष्ट - उपविष्ट' कहा जाता है। इसमें प्रथम और तृतीय अंगीकरणीय हैं और शेष दो त्याज्य हैं। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार कायोत्सर्ग खड़े, बैठे और धर्मशुक्लद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिंत्यते । उपविष्टोत्थितां संतस्तां वदंति तनुत्सृतिम् ।। आर्त्तरौद्रद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते । तामुत्थितोपविष्टाहां निगदंति महाधियः ।। धर्मशुक्लद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते । उत्थितोत्थितनामानं तं भाषते विपश्चितः ॥ (ख) आवश्यक नियुक्ति, गाथा १४५६-१४६० उसिउस्सिओ अ तह, उस्सिओ अ उस्सियनिसन्नओ चेव । निसनुस्सिओ निसन्नो, निस्सन्नगनिसन्नओ चेव । निवणुस्सिओ निवन्नो, निवन्ननिवन्नगो अनायव्वो ।। (ग) मूलाराधना, २1११६, विजयोदया, प० २७८ । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५३० अध्ययन ३० : श्लोक ३६ टि० १६ सोते- इन तीनों अवस्थाओं में किया जा सकता है।' इस सम्पन्न होता है। प्रवचनसारोद्धार और विजयोदया के अनुसार भाषा में 'कायोत्सर्ग' और 'स्थान' दोनों एक बन जाते हैं। इनके ध्येय-परिमाण और काल-मान इस प्रकार हैंप्रयोजन की दृष्टि से कायोत्सर्ग के दो प्रकार हैं प्रवचनसारोद्धार (१) चेष्टा-कायोत्सर्ग--अतिचार शुद्धि के लिए जो किया चतुर्विंशस्तव श्लोक चरण उच्छ्वास जाता है। (१) दैवसिक ४ २५ १०० १०० (२) अभिभव-कायोत्सर्ग-विशेष विशुद्धि या प्राप्त कष्ट (२) रात्रिक ५० को सहने के लिए जो किया जाता है। (३) पाक्षिक १२ ७५ ३०० ३०० चेष्टा-कायोत्सर्ग का काल उच्छ्वास पर आधृत है। (४) चातर्मासिक २० १२५ ५०० ५०० विभिन्न प्रयोजनों से वह आठ, पच्चीस, सत्ताईस, तीन सौ, (५) साम्वत्सरिक ४० २५२ १००८ १००८ पांच सौ और एक हजार आठ उच्छ्वास तक किया जाता है। विजयोदया अभिभव-कायोत्सर्ग का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और चतुर्विंशस्तव , श्लोक चरण उच्छ्वास उत्कृष्टतः एक वर्ष का है। बाहुबलि ने एक वर्ष का कायोत्सर्ग (१) देवसिक ४ २५ १०० १०० किया था। (२) रात्रिक ५० ५० अतिचार-शुद्धि के लिए किए जाने वाले कायोत्सर्ग के (३) पाक्षिक १२ ७५ ३०० ३०० अनेक विकल्प होते हैं (४) चातुर्मासिक १६ १०० ४०० ४०० (१) देवसिक-कायोत्सर्ग। (५) साम्वत्सरिक २० १२५ ५०० ५०० (२) रात्रिक-कायोत्सर्ग। अमितगति-श्रावकाचार के अनुसार देवसिक-कायोत्सर्ग (३) पाक्षिक-कायोत्सर्ग। में १०८ तथा रात्रिक-कायोत्सर्ग में ५४ उच्छ्वास तक ध्यान (४) चातुर्मासिक-कायोत्सर्ग। किया जाता है और अन्य कायोत्सर्ग में २७ उच्छ्वास तक। (५) साम्वत्सरिक-कायोत्सर्ग। २७ उच्छ्वासों में नमस्कार-मंत्र की नौ आवृत्तियां की जाती हैं कायोत्सर्ग आवश्यक का पांचवां अंग है। ये उक्त कायोत्सर्ग अर्थात् तीन उच्छ्वासों में एक नमस्कार-मंत्र पर ध्यान किया प्रतिक्रमण के साथ किए जाते हैं। इन (कायोत्सर्ग) से जाता है-संभव है प्रथम दो-दो वाक्य एक-एक उच्छ्वास में चतुविशि-स्तव का ध्यान किया जाता है। उसके सात श्लोक और पांचवां वाक्य एक उच्छ्वास में। अथवा 'ऐसो पंच और अट्ठाईस चरण हैं। एक उच्छ्वास में एक चरण का ध्यान णमोक्कारो' सहित नौ पदों की तीन आवृत्तियां भी हो सकती किया जाता है। कायोत्सर्ग-काल में सातवें श्लोक के प्रथम हैं--प्रत्येक पद की एक-एक उच्छ्वास में आवृत्ति होने से चरण 'चन्देसु निम्मलयरा' तक ध्यान किया जाता है। इस सत्ताईस उच्छ्वास होते हैं। अमितगति ने एक दिन-रात के प्रकार एक 'चतुर्विंशस्व' का ध्यान पच्चीस उच्छ्वासों में " कायोत्सर्गों की सारी संख्या अट्ठाईस मानी है।' वह इस प्रकार १. योगशास्त्र, प्रकाश ३ पत्र २५०: स च कायोत्सर्ग उच्छ्रितनिषण्णशयितभेदेन चन्देसु निम्मलयरा इत्यन्तेन चिन्तितेन पूर्यन्ते, पायसमा ऊसासा इति वचनात् त्रेधा। ४. प्रवचनसारोद्धार, गाथा १८३-१८५ २. (क) आवश्यक नियुक्ति, गाथा १४५२ : चत्तारि दो द्वालस वीस चत्ता य हंति उज्जोया। सो उस्सग्गो दुविहो चिट्ठाए अभिभवे य नायव्यो। देसिय राइय पक्खिय चउम्मासे य वरिसे य।। भिक्खायरियाइ पढमो उवसम्गभिजुंजणे विइओ।। पणवीस अद्धतेरस सलोग पन्नत्तरी य बोद्धव्या। (ख) बृहत्कल्प भाष्य, गाथा ५६५८ : सयभेगं पणवीसं बे बावण्णा य वरिसंमि।। इह द्विधा कायोत्सर्गः-चेष्टायामभिभवे च। साय सयं गोसद्धं तिन्नेव सया हवंति पक्खम्मि। (ग) योगशास्त्र, प्रकाश ३, पत्र २५० : पंच य चउम्मासे वरिसे अट्ठोत्तरसहस्सा।। तत्र चेष्टा कायोत्सर्गोष्ट-पंचविंशति-सप्तविंशति-त्रिशती-पंचशती ५. मूलाराधना, २११६, विजयोदया, पृ० २७६। अष्टोत्तरसहस्त्रोच्छ्वासान् यावद् भवति। अभिभवकायोत्सर्गस्तु ६. अमितगति श्रावकाचार, ८६८-६६ : मुहूर्तादारभ्य संवत्सरं यावद् बाहुबलेरिव भवति। अष्टोत्तरशतोच्छ्वासः कायोत्सर्गः प्रतिक्रमे। मूलाराधना, २११६, विजयोदया, पृ० २७८ : अन्तर्मुहूर्तः सान्ध्ये प्राभातिके वार्द्धभन्यस्तत् सप्तविंशतिः ।। कायोत्सर्गस्य जघनयः कालः, वर्षमुत्कृष्टः। अतिचारनिवृत्तये सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः, संसारोन्मूलनक्षमे। कायोत्सर्गा बहुप्रकारा भवन्ति। रात्रिदिन-पक्ष-मासचतुष्टय- संति पंचनमस्कारे, नवधा चिन्तिते सति ।। संवत्सरादिकाल-गोचरातिचारभेदापेक्षया। सायाह्नउच्छ्वासशतकं, ७. वही, ८६६-६७ : प्रत्यूषसि पंचाशत्, पक्षे त्रिशतानि, चतुर्षु मासेषु चतुःशतानि, पंच अष्टविंशतिसंख्यानाः, कायोत्सर्गा मता जिनैः । शतानि संवत्सरे उच्छ्वासानां । प्रत्यूषसिप्राणिवधादिषु पंचस्वतिचारेषु अहोरात्रगताः सर्वे, षडावश्यककारिणाम् ।। अष्टशतोच्छ्वासमात्रः कालः कायोत्सर्गः। स्वाध्याये द्वादश प्राज्ञैर्वन्दनायां षडीरिताः। ३. योगशास्त्र, प्रकाश ३, पत्र २१५ : पंचविंशत्युच्छ्वासाश्च चतुर्विशतिस्तवेन अष्टौ प्रतिक्रमे योगभक्तौ तौ द्वावुदाहती।। Jain Education Intemational Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपो-मार्ग-गति ५३१ अध्ययन ३० : श्लोक ३६ टि० १६ कायोत्सर्ग करना चाहिए।' (१) स्वाध्याय-काल में- १२ कायोत्सर्ग करते समय यदि उच्छ्वासों की संख्या विस्मृत (२) वन्दना-काल में- ६ हो जाए अथवा मन विचलित हो जाए तो आठ उच्छ्वास का (३) प्रतिक्रमण-काल में अतिरिक्त कायोत्सर्ग करना चाहिए। (४) योग-भक्ति-काल में- २ कायोत्सर्ग के दोष प्रवचनसारोद्धार में १६, योगशास्त्र २८ में२१ और विजयोदया में १६५ बतलाए गए हैं। पांच महाव्रतों में अतिक्रमणों के लिए १०८ उच्छ्वास का मूलाराधना, २।११६, विजयोदया, पृ० २७८। ३. प्रवचनसारोद्धार, गाथा २४७-२६२। २. वही, २११६, विजयोदया, पृ० २७८ : कायोत्सर्गे कृते यदि ४. योगशास्त्र, प्रकाश ३, पत्र २५०-२५१। शक्यत उच्छ्वासस्य स्खलनं वा परिणामस्य उच्छ्वासाष्टकमधिकं ५. मूलाराधना, २११६, विजयोदया, पृ० २७६ । स्थातव्यम्। Jain Education Intemational Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगतीसइमं अज्झयणं चरणविही इकतीसवां अध्ययन चरण-विधि Jain Education Intemational Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इस अध्ययन में मुनि की चरण-विधि का निरूपण हुआ है, इसलिए इसका नाम 'चरणविही' – 'चरणविधि' है । चरण का प्रारम्भ यतना से होता है और उसका अन्त पूर्ण निवृत्ति ( अक्रिया) में होता है । निवृत्ति के इस उत्कर्ष को प्राप्त करने के लिए जो मध्यवर्ती साधना की जाती है, वह चरण है। मोक्ष प्राप्ति की चार साधनाओं में यह तीसरी साधना है ।" प्रवृत्ति और निवृत्ति — ये दोनों साधना के अंग हैं। मन, वचन और काया की गुप्ति का अर्थ है निवृत्ति। मन, वचन और काया के सम्यक् प्रयोग का अर्थ है प्रवृत्ति। चौबीसवें अध्ययन (श्लोक २६ ) में बतलाया गया है कि समितियों से चरण का प्रवर्तन होता है और गुप्तियों से अशुभ अर्थों का निवर्तन होता है एयाओ पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे । गुली नियतणे, बुता, असुभत्वे सव्यो । प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों सापेक्ष शब्द हैं। निवृत्ति का अर्थ पूर्ण निषेध नहीं है और प्रवृत्ति का अर्थ पूर्ण विधि नहीं है। प्रत्येक निवृत्ति में प्रवृत्ति और प्रत्येक प्रवृत्ति में निवृत्ति रहती है। इसके अनुसार निवृत्ति का अर्थ होता है—एक कार्य का निषेध और दूसरे कार्य की विधि तथा प्रवृत्ति का अर्थ होता है— एक कार्य की विधि और दूसरे कार्य का निषेध । इसी तथ्य को प्रस्तुत अध्ययन के दूसरे श्लोक में प्रतिपादित किया गया है एगओ विरइं कुज्जा, एगओ य पवत्तणं । असं जमे नियति च, संजमे य पवत्तणं ॥ इससे एक यह तथ्य निष्पन्न होता है कि प्रत्येक प्रवृत्ति सम्यकू नहीं होती । किन्तु निवृत्ति में से जो प्रवृत्ति फलित होती है, वही सम्यक् होती है। उसी का नाम चरण - विधि है। इसे साधना पद्धति भी कहा जा सकता है। भगवान् महावीर की चरण-विधि का प्रारम्भ संयम से होता है। उसका आचरण करते हुए जिन विषयों को स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए, उन्हीं का इस अध्ययन में सांकेतिक उल्लेख है किन्तु कुछ विषय ऐसे भी हैं, जिनका संयम - पालन से सम्बन्ध नहीं किन्तु वे ज्ञेयमात्र हैं। जैसे 1 १. उत्तरज्झयणाणि, २८ ।२ । परमाधार्मिकों के पन्द्रह प्रकार (श्लोक १२) तथा देवताओं के चौबीस प्रकार (श्लोक १६ ) | ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं का भी मुनि के चरण से प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है । सम्भव है संख्या- पूर्ति की दृष्टि से इन्हें सम्मिलित किया गया हो । छेद- सूत्रों के सत्रहवें और अठारहवें श्लोक में नामोल्लेख हुआ है। उनकी रचना श्रुत-केवली भद्रबाहु ने की। इससे दो सम्भावनाओं की ओर ध्यान जाता है १. उत्तराध्यन की रचना छेद सूत्रों की रचना के पश्चात् हुई है । २. उत्तराध्ययन की रचना एक साथ नहीं हुई है। दूसरा विकल्प ही अधिक सम्भव है। इस अध्ययन के आदि के दो श्लोकों तथा अन्त के एक श्लोक को छोड़कर शेष १८ श्लोकों में "जे भिक्खू... निच्वं, से न अच्छइ मंडले” – ये दो चरण समान हैं। इनके अध्ययन से भिक्षु के स्वरूप का सहज ज्ञान हो जाता है । साथ-साथ संसार- मुक्ति के साधनों का भी ज्ञान होता है । इस अध्ययन में एक से तेईस तक की संख्या में अनेक विषयों का ग्रहण हुआ है । उनमें से कुछ शब्दों का विस्तार अन्य अध्ययनों से प्राप्त होता है। जैसे— कषाय का २६।६७-७० में, ध्यान का ३० । ३५ में, व्रत का २१1१२ में, इन्द्रिय-अर्थ का ३२।२३, ३६, ४६,६२,७५ में, समिति का २४।२ में लेश्या का ३४ ।३ में, छह जीवनिकाय का ३६ ।६६, १०७ में, आहार के छह कारण का ३६ ॥३२-३४ में और ब्रह्मचर्य गुप्ति का १६ वें अध्ययन में। इसे पन्द्रहवें अध्ययन 'सभिक्खु' का परिशेष भी माना जा सकता है। समवायांग (३३) तथा आवश्यक ( ४ ) में भी इस अध्ययन में वर्णित विषयों का उल्लेख हुआ है। सातवें श्लोक से २१वें श्लोक तक 'जयई' - 'यतते' का प्रयोग हुआ है। इसका सामान्य अर्थ 'यत्न करता है' होता है । प्रसंगानुसार यत्न का अर्थ है–पालनीय का पालन, परिहरणीय का परिहार, ज्ञेय का ज्ञान और उपदेष्टव्य का उपदेश । Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगतीसइमं अज्झयणं : इकतीसवां अध्ययन चरणविही : चरण-विधि संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद अब मैं जीव को सुख देने वाली उस चरण-विधि का कथन करूंगा जिसका आचरण कर बहुत से जीव संसार-सागर को तर गए। चरणविधिं प्रवक्ष्यामि जीवस्य तु सुखावहम्। यं चरित्वा बहवो जीवाः तीर्णाः संसारसागरम् ।। एकतो विरतिं कुर्यात् एकतश्च प्रवर्तनम्। असंयमान्निवृत्तिं च संयमे च प्रवर्तनम् ।। रागदोषौ च द्वौ पापौ पापकर्मप्रवर्तकौ। यो भिक्षुः रुणाद्धि नित्यं स न आस्ते मण्डले।। भिक्षु एक स्थान से निवृत्ति करे और एक स्थान में प्रवृत्ति करे। असंयम से निवृत्ति करे और संयम से प्रवृत्ति करे। राग और द्वेष—ये दो पाप-कर्म के प्रवर्तक हैं। जो भिक्षु सदा इनका निरोध करता है, वह संसार में नहीं रहता। जो भिक्षु तीन-तीन दण्डों', गौरवों और शल्यों का सदा त्याग करता है, वह संसर में नहीं रहता। - मूल १. चरणविहिं पवक्खामि जीवस्स उ सुहावहं। जं चरित्ता बहू जीवा तिण्णा संसारसागरं।। २. एगओ विरई कुज्जा एगओ य पवत्तणं। असंजमे नियत्तिं च संजमे य पवत्तण।। ३. रागदोस य दो पावे पावकम्मपवत्तणे। जे भिक्खू रुंभई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। ४. दंडाणं गारवाणं च सल्लाणं च तियं तियं। जे भिक्खू चयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। ५. दिव्वे य जे उवसग्गे तहा तेरिच्छमाणुसे। जे भिक्खू सहई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। ६. विगहाकसायसन्नाणं झाणाणं च दुयं तहा। जे भिक्खू वज्जई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। ७. वएसु इंदियत्थेसु समिईसु किरियासु य। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। ८. लेसासु छसु काएसु छक्के आहारकारणे। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। दण्डानां गौरवाणां च शल्यानां च त्रिकं त्रिकम् । यो भिक्षुस्त्यजति नित्यं स न आस्ते मण्डले।। जो भिक्षु देव, तिर्यञ्च और मनुष्य सम्बन्धी उपसर्गों को सदा सहता है, वह संसार में नहीं रहता।' जो भिक्षु विकथाओं, कषायों, संज्ञाओं तथा आर्त्त और रौद्र-इन दो ध्यानों का सदा वर्जन करता है, वह संसार में नहीं रहता। दिव्यांश्च यानुपसर्गान् तथा तैरश्चमानुषान्। यो भिक्षुः सहते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। विकथाकषायसंज्ञानां ध्यानयोश्च द्विकं तथा। यो भिक्षुर्वर्जयति नित्यं स. न आस्ते मण्डले।। व्रतेष्विन्द्रियार्थेषु समितिषु क्रियासु च। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। लेश्यासु षट्सु कायेषु षट्के आहारकारणे। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। जो भिक्षु व्रतों और समितियों के पालन में, इन्द्रिय-विषयों और क्रियाओं के परिहार में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता। जो भिक्षु छह लेश्याओं", छह कायों और आहार के (विधि-निषेध के) छह कारणों में" सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता। Jain Education Intemational Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-विधि अध्ययन ३१ : श्लोक ६-१७ ६. पिंडोग्गहपडिमासु भयट्ठाणेसु सत्तसु। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। ५३५ पिण्डावग्रहप्रतिमासु भयस्थानेषु सप्तषु। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। जो भिक्षु, आहार-ग्रहण की सात प्रतिमाओं में२ और सात भय-स्थानों में३ सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता। १०. मयेसु बंभगुत्तीसु भिक्खुधम्ममि दसविहे। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। मदेषु ब्रह्मगुप्तिषु भिक्षुधर्मे दशविधे। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। जो भिक्षु आट मद-स्थानों में", ब्रह्मचर्य की नी गुप्तियों में और दस प्रकार के भिक्षु-धर्म में" सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता। ११. उवासगाणं पडिमासु भिक्खूणं पडिमासु य। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। उपासकानां प्रतिमासु भिक्षूणां प्रतिमासु च। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। जो भिक्षु उपासकों की ग्यारह प्रतिमाओं तथा भिक्षुओं की बारह प्रतिमाओं में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता। १२. किरियासु भूयगामेसु परमाहम्मिएसु य। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। क्रियासु भूतग्रामेषु परमाधार्मिकेषु च। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। जो भिक्षु तेरह क्रियाओं', चौदह जीव-समुदाओं और पन्द्रह परमाधार्मिक देवों में सदा यत्न करत है, वह संसार में नहीं रहता। १३. गाहासोलसएहिं तहा अस्संजमम्मि य। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। गाथाषोडशकेषु तथा असंयमे च। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। जो भिक्षु गाथा-षोडशक (सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्य के सोलह अध्ययनों)२२ और सतरह प्रकार के असंयम में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता १४. बंभम्मि नायज्झयणेसु ठाणेसु यऽसमाहिए। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। ब्रह्मणि ज्ञाताध्ययनेषु स्थानेषु च असमाधेः। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। जो भिक्षु अठारह प्रकार के ब्रह्मचर्य, उन्नीस ज्ञात-अध्ययनों और बीस असमाधि-स्थानों में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता। १५. एगवीसाए सबलेसु बावीसाए परीसहे। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। एकविंशतौ शबलेषु द्वाविंशतौ परीषहेषु। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। जो भिक्षु इक्कीस प्रकार के शबल-दोषों२७ और बाईस परीषहों में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता। १६.तेवीसइ सूयगडे रूवाहिएसु सुरेसु अ। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। त्रयोविंशती सूत्रकृतेषु रूपाधिकेषु सुरेषु च। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। जो भिक्षु सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों और चौबीस प्रकार के देवों में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता। १७.पणवीसभावणाहिं उद्देसेसु दसाइणं। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले।। पंचविंशतिभावनासु उद्देशेषु दशादीनाम्। यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले।। जो भिक्षु पचीस भावनाओं और दशाश्रुत-स्कंध, व्यवहार और बृहत्कल्प के छब्बीस उद्देशों में२ सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता। Jain Education Intemational Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि १८. अणगारगुणेहिं च पकप्पम्मि तहेव य । जे भिक्खू जयई निच्वं से न अच्छइ मंडले ।। १६. पावसुयपसंगेसु मोहद्वाणेसु चैव य । जे भिक्खू जयई निव्वं से न अच्छइ मंडले ।। २०.सिद्धाइगुणजोगेसु तेत्तीसासायणासु य। जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ।। २१. इइ एएस ठाणेसु जे भिक्खू जयई सया खिप्पं से सव्वसंसारा विष्यमुच्चइ पंडिओ।। —त्ति बेमि । ५३६ अनगारगुणेषु च प्रकल्पे तथैव च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले ।। पाप ताप्रसंगेषु मोहस्थानेषु चैव च। यो भित स न आस्ते मण्डले ।। सिद्धादिगुणयोगेषु यरिशदाशातनासु च । यो भिक्षुर्यतते नित्यं स न आस्ते मण्डले । । इत्येतेषु स्थानेषु यो भिक्षु सदा क्षिप्रं स सर्वसंसारा विप्रमुच्यते पण्डितः ।। - इति ब्रवीमि । अध्ययन ३१ : श्लोक १८ - २१ जो भिक्षु साधु के सत्ताईस गुणों और अठाईस आचार-प्रकल्पों में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता। जो भिक्षु उनतीस पाप श्रुत प्रसंगों और तीस मोह के स्थानों में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता। जो भिक्षु सिद्धों के इकतीस आदि गुणों, बत्तीस योग-संग्रहों तथा तेतीस आशातनाओं में सदा यत्न करता है, वह संसार में नहीं रहता । ८. जो पण्डित भिक्षु इस प्रकार इन स्थानों में सदा यत्न करता है, वह शीघ्र ही समस्त संसार से मुक्त हो जाता है | —ऐसा मैं कहता हूं । Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन ३१: चरण-विधि १. दण्डों का (दंडाण) दण्ड दो प्रकार के होते हैं - (१) द्रव्य-दण्ड और (२) भाव- दण्ड । कोई अपराध करने पर राजा या अन्य निर्धारित व्यक्तियों के द्वारा वध, बन्धन, ताड़ना आदि के द्वारा दण्डित करने को 'द्रव्य दण्ड' कहा जाता है। जिन अध्यवसायों या प्रवृत्तियों से आत्मा दण्डित होती है, उसे 'भाव- दण्ड' कहा जाता है। वे तीन हैं (१) मनोदण्ड – मन का दुष्प्रणिधान । (२) वचो - दण्ड - वचन की दुष्प्रयुक्तता । (३) काय दण्ड - शारीरिक दुष्प्रवृत्ति । भगवान् महावीर मन, वाणी और काया - इन तीनों को ही दण्ड मानते थे, केवल काया को नहीं। फिर भी इस विषय को लेकर मज्झिमनिकाय में एक लम्बा प्रकरण लिखा गया है। बौद्ध साहित्य की शैली के अनुसार उसमें बुद्ध का उत्कर्ष और महावीर का अपकर्ष दिखाने का प्रयत्न किया गया है। उसका कुछ अंश इस प्रकार है -- ऐसा मैंने सुना एक समय भगवान् नालन्दा में प्रावारिक में आम्र-वन में विहार करते थे। उस समय निगंठ नात पुत्त निगंठों (जैन साधुओं) की बड़ी परिषद् (= जमात) के साथ नालन्दा में विहार करते थे। तब दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ (= जैन साधु) नालन्दा भिक्षाचार कर, पिंडपात खतम कर, भोजन के पश्चात्, जहां प्रावारिक आम्र वन में भगवान् थे, वहां गया। जाकर भगवान् के साथ संमोदन ( कुशल प्रश्न पूछ) कर, एक ओर खड़ा हो गया। एक ओर खड़े दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ को भगवान् ने कहा “ तपस्वी! आसन मौजूद है, यदि इच्छा हो तो बैठ जाओ ।” ऐसा कहने पर दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ एक नीचा आसन ले एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ से भगवान् बोले “तपस्वी ! गौतम ! पाप कर्म के हटाने के लिए ० निगंठ नात पुत्त तीन दण्डों का विधान करते हैं-काय दण्ड, वचन-दण्ड, मन दण्ड ।” “ तपस्वी! तो क्या काय दण्ड दूसरा है, वचन - दण्ड दूसरा ही है, मन-दण्ड दूसरा है ?" “आवुस! गौतम! (हां ) ? काय दण्ड दूसरा ही है, वचन- दण्ड दूसरा ही है, मन-दण्ड दूसरा ही है।" “ तपस्वी! इस प्रकार भेद किए, इस प्रकार विभक्त, इन तीनों दण्डों में निगंठ नात पुत्त, पाप कर्म करने के लिए, पाप कर्म की प्रवृत्ति के लिए, किस दण्ड को महादोष- -युक्त विधान करते हैं। काय दण्ड को, या वचन दण्ड को, या मन दण्ड को ?" “ आवुस! गौतम ! इस प्रकार भेद किए, इस प्रकार विभक्त, इन तीनों दण्डों में निगंठ नात-पुत्त, पाप-कर्म के लिए काय - दंड को महादोष -युक्त विधान करते हैं, वैसा वचन-दंड को नहीं, वैसा मन दंड को नहीं ।" - “ तपस्वी ! काय दंड कहते हो ?" “ आवुस! गौतम ! काय - दंड कहता हूं।" “तपस्वी ! काय दंड कहते हो ?" “ आवुस! गौतम ! काय - दंड कहता हूं।" “तपस्वी ! काय - दंड कहते हो ?" “आवुस! गौतम ! काय - दंड कहता हूं।” इस प्रकार भगवान् ने दीर्घ तपस्वी निगंठ को इस कथा वस्तु ( = बात) में तीन बार प्रतिष्ठापित किया। ऐसा कहने पर दीर्घ तपस्वी निगंठ ने कहा “तुम आदुस गौतम पाप कर्म के करने के लिए० कितने दंड विधान करते हो ?" " तपस्वी ! 'दंड' 'दंड' कहना तथागत का कायदा नहीं है, 'कर्म' 'कर्म' कहना तथागत का कायदा है।" “आवुस! गौतम! तुम कितने कर्म विधान करते at?" “ तपस्वी ! मैं० तीन कर्म बतलाता हूं—जैसे काय - कर्म, वचन- कर्म, मन - कर्म ।" वचन-कर्म “ तपस्वी ! पाप कर्म के लिए, पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र कितने कर्मों का विधान करते हैं ?" “ आवुस! गौतम ! 'कर्म' 'कर्म' विधान करना निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र का कायदा (= आचिण्ण) नहीं है। आवुस! गौतम ! ‘दण्ड' ‘दण्ड' विधान करना निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र का कायदा है।” है, मन-कर्म दूसरा ही है।” “ आवुस! गौतम ! काय कर्म दूसरा ही है, दूसरा ही है, मन कर्म दूसरा ही है।” “तपस्वी ! काय-कर्म दूसरा ही है, वचन-कर्म दूसरा ही Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५३८ अध्ययन ३१ :श्लोक ४-६ टि०२-७ “आवुस ! गौतम! ० इस प्रकार विभक्त० इन तीन कर्मों सकता है।" में, पाप-कर्म करने के लिए० किसको महादोषी ठहराते हो- ४. (श्लोक ५) काय-कर्म को या वचन-कर्म को या मन-कर्म को ?" इस श्लोक में तीन प्रकार के उपसर्गों (कष्टों) का कथन है : “तपस्वी ! ० इस प्रकार विभक्त० इन तीनों कर्मों में (१) दिव्य-देवताओं द्वारा दिए जाने वाले कष्ट । देवता मन-कर्म को मैं० महादोषी बतलाता हूं।" हास्यवश, प्रद्वेषवश या परीक्षा के निमित्त दूसरों “आवुस ! गौतम ! मन-कर्म बतलाते हो?" को कष्ट देते हैं। “तपस्वी ! मन-कर्म बतलाता हूं।" (२) तैरश्च-पशुओं द्वारा दिए जाने वाले कष्ट । पशु “आवुस ! गौतम ! मन-कर्म बतलाते हो?" भय, प्रद्वेष या आहार के लिए तथा अपनी सन्तान “तपस्वी! मन-कर्म बतलाता हूं।" या स्थान के संरक्षण के लिए दूसरों को कष्ट देते हैं। "आवुस ! गौतम ! मन-कर्म बतलाते हो?" (३) मानुष-मनुष्यों द्वारा दिए जाने वाले कष्ट। मनुष्य "तपस्वी ! मन-कर्म बतलाता हूं।" हास्य, प्रद्वेष, विमर्श या कुशील का सेवन करने के “आवुस! गौतम ! मन-कर्म बतलाते हो?" लिए दूसरों को कष्ट देते हैं। “तपस्वी! मन-कर्म बतलाता हूं।" ५. विकथाओं (विगहा) इस प्रकार दीर्घ-तपस्वी निगंठ भगवान् को इस कथा-वस्तु यहां कथा का अर्थ 'चर्चा' या 'आलोचना' है। वर्जनीय (=विवाद विषय) में तीन बार प्रतिष्ठापित कर, आसन से उठ कथा को 'विकथा' कहा जाता है। वह चार प्रकार की हैजहां निगंठ नात-पुत्त थे, वहां चला गया।' (१) स्त्री-कथा-स्त्री सम्बन्धी कथा करना। २. गौरवों का (गारवाण) (२) भक्त-कथा-भोजन सम्बन्धी कथा करना। गौरव का अर्थ है—'अभिमान से उत्तप्त चित्त की (३) देश-कथा-देश सम्बन्धी कथा करना। अवस्था।' वह तीन प्रकार का है (४) राज-कथा-राज्य सम्बन्धी कथा करना। (१) ऋद्धि-गौरव-ऐश्वर्य का अभिमान। मूलाराधना में कथा के कुछ और अधिक प्रकार बतलाए (२) रस-गौरव-रसों का अभिमान। गए हैं-(१)भक्त-कथा, (२) स्त्री-कथा, (३) राज-कथा, (३) सात-गौरव--सुखों का अभिमान। (४) जनपद-कथा, (५) काम-कथा, (६) अर्थ-कथा, (७) नाट्य३. शल्यों का (सल्लाणं) कथा और (८) नृत्य-कथा। जैसे कांटा चुभने पर मनुष्य सर्वाङ्ग वेदना का अनुभव ६. संज्ञाओं (सन्नाणं) करता है और उसके निकल जाने पर वह सुख की सांस लेता है, वैसे ही दोष रूपी कांटा चुभ जाता है, तब साधक की संज्ञा का अर्थ है 'आसक्ति' या 'मूर्च्छना'। वह चार आत्मा दुःखित हो जाती है और उसके निकलने पर उसे प्रकार की है(१) आहार-संज्ञा (३) मैथुन-संज्ञा आनन्द का अनुभव होता है। शल्य का अर्थ है 'अन्तर में घुसा हुआ दोष' अथवा 'जिससे विकास बाधित होता है, उसे (२) भय-संज्ञा (४) परिग्रह-संज्ञा शल्य कहते हैं। ३ वे तीन हैं विशेष विवरण के लिए देखिए-स्थानांग, ४।५७८ । (१) माया-शल्य-माया-पूर्ण आचरण। ७. आर्त और रौद्र-इन दो ध्यानों का (झााणाणं च दुयं) (२) निदान-शल्य-ऐहिक या पारलौकिक उपलब्धि के ध्यान चार हैं-(१) आर्त, (२) रौद्र, (३) धर्म्य और लिए धर्म का विनिमय। (४) शुक्ल। (३) मिथ्यादर्शन-शल्य-आत्मा का मिथ्यात्वमय चार की संख्या का प्रकरण है, इसलिए यहां इनका दृष्टिकोण। उल्लेख है। किन्तु इनमें वर्जनीय ध्यान दो ही हैं, इसलिए जो निःशल्य होता है, वही व्यक्ति व्रती या महाव्रती बन 'झाणाणं च दुयं' कहा गया है। १. मज्झिमनिकाय, २।१६, पृ० २२२। २. मूलाराधना, ४।५३६-५३७ : जह कंटएण विद्धो, सव्वंगे वेदणुद्धवो होदि। तम्हि दु समुट्ठिदेसो, णिस्सल्लो णिज्बुदो होदि ।। एवमणुझुददोसो, माइल्लो तेण दुक्खिदो होइ। सो चेव वंददोसो, सुविसुद्धो णिव्युदो होइ।। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१२ : शल्यते अनेकार्थत्वाद्वाध्यते जन्तुरेभिरिति शल्यानि। ४. (क) तत्त्वार्थ, सूत्र ७।१३ : निःशल्यो व्रती। (ख) मूलाराधना, ६।१२१०: णिस्सल्लस्सेव पुणो, महब्बदाई हवंति सव्वाई। वदमुवहम्मदि तीहिं दुणिदाणमिच्छत्तमायाहिं ।। ५. मूलाराधना, ४।६५१ : भत्तित्थिराजजणवद-कंदप्पत्थउणट्टियकहाओ। वज्जित्ता बिकहाओ, अज्झप्पविराधणकरीओ।। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१३ : 'झाणाणं च' ति प्राकृतत्वाद् ध्यानयोश्च द्विकमातरौद्ररूपं तथा यो भिक्षुः 'वर्जयति' परिहरति, चतुर्विधत्वाच्च ध्यानस्यात्र प्रस्तावेऽभिधानम्। Jain Education Intemational Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-विधि ५३९ अध्ययन ३१ : श्लोक ७-११ टि० ८-१७ विशेष विवरण के लिए देखिए-३०।३५ का टिप्पण। रात बिताऊंगा। यह जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी मिलाइए-३४।३१। साधुओं के होती है। ८. व्रतों के (वएसु) (७) जिसका मैं स्थान ग्रहण करूंगा, उसी के यहां ही यहां व्रत का प्रयोग 'महाव्रत' के अर्थ में हुआ है। वे सहज बिछे हुए सिलापट्ट या काष्ठपट्ट प्राप्त हो तो पांच हैं--(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) ब्रह्मचर्य, लूंगा अन्यथा ऊकडू या नैषधिक-आसन में बैठे-बैठे और (५) अपरिग्रह। देखिए-२१।१२। रात बिताऊंगा। यह जिनकल्पिक या अभिग्रहधारी ९. क्रियाओं के (किरियासु) साधुओं के होती है। स्थानांग (२।२-३७) में अनेक प्रकार की क्रियाओं का १३. (भयट्ठाणेसु सत्तसु) उल्लेख है। यहां उनमें से पांच क्रियाओं का ग्रहण किया गया भय के स्थान सात हैंहै। वे इस प्रकार हैं--(१) कायिकी, (२) अधिकरणिकी, (१) इहलोक-भय-सजातीय से भय-जैसे मनुष्य को (३) प्राद्वेषिकी, (४) पारितापनिकी और (५) प्राणातिपातिकी।' मनुष्य से भय, देव को देव से भय।। १०. छह लेश्याओं...में (लेसासु) (२) परलोक-भय-विजातीय से भय-जैसे मनुष्य को देखिए-अध्ययन ३४ । देव, तिर्यंच आदि का भय। ११. आहार के (विधि-निषेध के) छह कारणों में (छक्के (३) आदान-भय-धन आदि पदार्थों के अपहरण करने वाले से होने वाला भय। आहारकारणे) (४) अकस्मात्-भय-किसी बाह्य निमित्त के बिना ही साधु को छह कारणों से आहार करना चाहिए और छह उत्पन्न होने वाला भय, अपने ही विकल्पों से होने कारणों से नहीं करना चाहिए। देखिए–२६ ।३२,३४ । वाला भय। १२. (पिंडोग्गहपडिमासु) (५) वेदना-भय-पीड़ा आदि से उत्पन्न भय। विशेष प्रतिमाधर मुनि आहार और अवग्रह (स्थान) (६) मरण-भय-मृत्यु का भय। सम्बन्धी सात प्रकार के अभिग्रह धारण करते थे। जैसे (७) अश्लोक-भय-अकीर्ति का भय। आहार-ग्रहण सम्बन्धी अभिग्रह-सात एषणाएं। देखिए देखिए-ठाणं, ७।२७। ३०।२५ का टिप्पण। १४. आठ मद-स्थानों में (मयेसु) अवग्रह (स्थान) सम्बन्धी अभिग्रह। अवग्रह-प्रतिमा का आठ मद-स्थान इस प्रकार हैंअर्थ है 'स्थान के लिए प्रतिज्ञा या संकल्प'। वे सात हैं (१) जाति-मद, (५) तपो-मद, (१) मैं अमुक प्रकार के स्थान में रहूंगा, दूसरे में नहीं। (२) कुल-मद, (६) श्रुत-मद, (२) मैं दूसरे साधुओं के लिए स्थान की याचना करूंगा। (३) बल-मद, (७) लाभ-मद, दूसरों के द्वारा याचित-स्थान में मैं रहूंगा। यह (४) रूप-मद, (८) ऐश्वर्य-मद। गच्छान्तरगत साधुओं के होती है। देखिए--ठाणं, ८।२१, । समवाओ, समवाय ८। (३) मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना करूंगा, किन्तु १५. ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों में (बंभगुत्तीसु) दूसरों के द्वारा याचित-स्थान में नहीं रहूंगा। यह यथालन्दिक साधुओं के होती है। - ब्रह्मचर्य की रक्षा के साधन को 'गुप्ति' कहते हैं। देखिए.-सोलहवां अध्ययन; स्थानांग, ६६६३; समवायांग, मैं दूसरों के लिए स्थान की याचना नहीं करूंगा, समवाय ६। परन्तु दूसरों के द्वारा याचित-स्थान में रहूंगा। यह जिनकल्पदशा का अभ्यास करने वाले साधुओं के र १६. दस प्रकार के भिक्षु-धर्म में (भिक्खुधम्ममि दसविहे) होती है। देखिए-२।२६ का टिप्पण। (५) मैं अपने लिए स्थान की याचना करूंगा, दूसरों के १७. उपासको की ग्यारह प्रतिमाओं (उवासगाणं पडिमास) लिए नहीं। यह जिनकल्पिक साधुओं के होती है। उपासक-श्रावक की प्रतिमाएं ग्यारह हैं(६) जिसका मैं स्थान ग्रहण करूंगा, उसी के यहां (१) दर्शन-श्रावक, पलाल आदि का संस्तारक प्राप्त हो तो लूंगा (२) कृत-व्रत श्रावक, अन्यथा ऊकडू या नैषधिक-आसन में बैठे-बैठे (३) कृत-सामायिक, १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१३ : क्रियासु–कायिक्याधिकरणिकीप्राद्वेषिकीपारिताप- ३. समवायांग (समवाय ७) में वेदना-भय के स्थान पर आजीव-भय का निकीप्राणातिपातरूपासु। उल्लेख है। २. स्थानांग, ७।१०, वृत्ति, पत्र ३८६-३८७। Jain Education Intemational Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५४० अध्ययन ३१ : श्लोक ११-१३ टि० १८-२३ (४) पोषधोपवास निरत, अदत्तादान से होने वाली हिंसा। (५) दिन में ब्रह्मचारी और रात्रि में परिमाण करने (८) आध्यात्मिक बाह्य निमित्त के बिना, मन में स्वतः वाला उत्पन्न होने वाली हिंसा। दिन और रात में ब्रह्मचारी, स्नान न करने वाला, (E) मान-प्रत्यय--जाति आदि के भेद से होने वाली दिन में भोजन करने वाला और कच्छ न बांधने वाला। हिंसा। (७) सचित्त-परित्यागी, (१०) मित्र-द्वेष-प्रत्यय---माता-पिता या दास-दासी के (८) आरम्भ-परित्यागी, अल्प अपराध में भी बड़ा दण्ड देना। (E) प्रेष्य-परित्यागी, (११) माया-प्रत्यय-माया से होने वाली हिंसा। (१०) उद्दिष्ट-भक्त परित्यागी, (१२) लोभ-प्रत्यय-लोभ से होने वाली हिंसा। (११) श्रमण-भूत। (१३) ऐर्यापथिक-केवल योग (मन, वचन और काया देखिए—समवाओ, समवाय ११। ___की प्रवृत्ति) से होने वाला कर्म-बन्धन। १८. भिक्षुओं की बारह प्रतिमाओं में (भिक्खूणं पडिमासु) विशेष विवरण के लिए देखिए-सूयगडो, २२; समवाओ, भिक्षु की प्रतिमाएं बारह हैं समवाय १३। (१) एक मासिकी भिक्षु-प्रतिमा, २०. चौदह जीव समुदायों....में (भूयगामेसु) (२) दो मासिकी भिक्षु-प्रतिमा, प्राणियों के समूह १४ हैं। जैसे(३) तीन मासिकी भिक्षु-प्रतिमा, १,२ सूक्ष्म एकेन्द्रिय -अपर्याप्त -पर्याप्त (४) चार मासिकी भिक्षु-प्रतिमा, ३,४ बादर एकेन्द्रिय -अपर्याप्त --पर्याप्त (५) पांच मासिकी भिक्षु-प्रतिमा, ५,६ द्वीन्द्रिय -अपर्याप्त -पर्याप्त (६) छह मासिकी भिक्षु-प्रतिमा, ७,८ त्रीन्द्रिय -अपर्याप्त -पर्याप्त (७) सात मासिकी भिक्षु-प्रतिमा, ६,१० चतुरिन्द्रिय --अपर्याप्त -पर्याप्त (८) तत्पश्चात् प्रथम सात दिन-रात की भिक्षु-प्रतिमा, ११,१२ असंज्ञीपंचेन्द्रिय -अपर्याप्त -पर्याप्त (E) दूसरी सात दिन-रात की भिक्षु-प्रतिमा, १३,१४ संज्ञीपंचेन्द्रिय --अपर्याप्त -पर्याप्त (१०) तीसरी सात दिन-रात की भिक्षु-प्रतिमा, देखिए-समवाओ, समवाय १४ । (११) एक अहोरात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा, २१. पन्द्रह परमाधार्मिक देवों....में (परमाहम्मिएस) (१२) एकरात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा। सम्पूर्ण रूप में जो अधार्मिक हैं, उन्हें 'परमाधार्मिक' देखिए-समवाओ, समवाय १२। कहा जाता है। इसी कारण देवों की एक जाति की संज्ञा भी १९. तेरह क्रियाओं....में (किरियासु) यही हो गई है। परमाधार्मिक देव १५ हैं। कर्म-बन्ध की हेतुभूत चेष्टा को 'क्रिया' कहा जाता है। देखिए-१९४७ का टिप्पण। वे तेरह हैं २२. गाथा-षोडशक (सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के (१) अर्थ-दण्ड-शरीर, स्वजन, धर्म आदि प्रयोजन से सोलह अध्ययनों)....में (गाहासोलसएहि) की जाने वाली हिंसा। सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कंध हैं। पहले श्रुतस्कन्ध में १६ (२) अनर्थ-दण्ड बिना प्रयोजन मौज-शौक के लिए अध्ययन हैं। सोलहवें अध्ययन का नाम 'गाथा' है। जिसका की जाने वाली हिंसा। सोलहवां अध्ययन गाथा है उसे 'गाथा-षोडशक' कहा जाता (३) हिंसा-दण्ड-इसने मुझे मारा था, मारता है, रता है। यह प्रथम श्रुतस्कन्ध का वाचक है। मारेगा-इस प्रणिधान से हिंसा करना। देखिए-३१।१६ का टिप्पण; समवाओ, समवाय १६ । (४) अकस्मात्-दण्ड-एक के वध की प्रवृत्ति करते हुए हुए २३. सतरह प्रकार के असंयम में (अस्संजमम्मि) , अकस्मात् दूसरे की हिंसा कर डालना। असंयम के १७ प्रकार ये हैंदृष्टि-विपर्यास-दण्ड-मति-भ्रम से होने वाली हिंसा (१) पृथ्वीकाय-असंयम अथवा मित्र आदि को अमित्र बुद्धि से मारना। (२) अप्काय-असंयम (६) मृषाबाद-प्रत्यय-स्व, पर या उभय के लिए मृषावाद (३) तेजस्काय-असंयम से होने वाली हिंसा। (७) अदत्तादान-प्रत्यय-स्व, पर या उभय के लिए (४) वायुकाय-असंयम (५) वनस्पतिकाय-असंयम १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१४ : गाथाध्ययनं षोडशं येषु तानि गाथाषोडशकानि । Jain Education Intemational Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-विधि ५४१ अध्ययन ३१ : श्लोक १४,१५ टि० २४-२७ (६) द्वीन्द्रिय-असंयम (७) रोहिणी, (१४) तेत्तली, (७) त्रीन्द्रिय-असंयम (८) मल्ली , (१५) नन्दी-फल, (८) चतुरिन्द्रिय-असंयम (६) माकन्दी, (१६) अवरकंका, (६) पंचेन्द्रिय-असंयम (१०) चन्द्रिका, (१७) आकीर्ण, (१०) अजीवकाय-असंयम (११) दावद्रव, (१८) सुंसमा, (११) प्रेक्षा-असंयम-अप्रतिलेखन या अविधि प्रतिलेखन (१२) उदत-ज्ञात, (१६) पुण्डरीक-ज्ञात। से होने वाला असंयम। (१३) मंडूक, (१२) उपेक्षा-असंयम-संयम की उपेक्षा और असंयम देखिए-समवाओ, समवाय १६। में व्यापार। २६. बीस असमाधि-स्थानों में (ठाणेसु य समाहिए) (१३) अपहृत्य-असंयम-उच्चार आदि का अविधि से बीस असमाधि-स्थान ये हैंपरिष्ठान करने से होने वाला असंयम। (१) धम-थम करते चलना। (१४) अप्रमार्जन-असंयम-पात्र आदि का अप्रमार्जन या (२) प्रमार्जन किए बिना चलना। अविधि से प्रमार्जन करने से होने वाला असंयम। (३) अविधि से प्रमार्जन कर चलना। (१५) मन-असंयम-अकुशल मन की उदीरणा। (१६) वचन-असंयम-अकुशन वचन की उदीरणा। (४) प्रमाण से अधिक शय्या, आसन आदि रखना। (१७) काय-असंयम-अकुशल काया की उदीरणा। (५) रात्निक साधुओं का पराभव-तिरस्कार करना, देखिए—समवाओ, समवाय १७। उनके सामने मर्यादा-रहित बोलना। २४. अठारह प्रकार के ब्रह्मचर्य....में (बंभम्मि) (६) स्थविरों का उपघात करना। ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकार ये हैं--- (७) प्राणियों का उपघात करना। औदारिक (मनुष्य, तिर्यञ्च सम्बन्धी) काम-भोगों का : (८) प्रतिक्षण क्रोध करना। (१) मन से सेवन न करे, (२) मन से सेवन न कराए और (६) अत्यन्त क्रोध करना। (३) सेवन करने वाले का मन से अनुमोदन भी न करे। (१०) परोक्ष में अवर्णवाद बोलना। औदारिक काम-भोगों का : (४) वचन से सेवन न करे, (५) वचन से सेवन न कराए और (६) सेवन करने वाले का (११) बार-बार निश्चयकारी भाषा बोलना। वचन से अनुमोदन भी न करे। (१२) अनुत्पन्न नए-नए कलहों को उत्पन्न करना। औदरिक काम-भोगों का : (७) काया से सेवन न करे, (१३) अपशमित और क्षमित पुराने कलहों की उदीरणा (८) काया से सेवन न कराए और (E) सेवन करने वाला का करना। काया से अनुमोदन भी न करे। (१४) सरजस्क हाथ-पैरों का व्यापार करना। दिव्य (देव-सम्बन्धी) काम-भोगों का : (१०) मन से (१५) अकाल में स्वाध्याय करना। सेवन न करे, (११) मन से सेवन न कराए और (१२) सेवन (१६) कलह करना। करने वाले का मन से अनुमोदन भी न करे। दिव्य काम-भोगों का : (१३) वचन से सेवन न करे, (१७) रात्रि में जोर से बोलना। (१४) वचन से सेवन न कराए और (१५) सेवन करने वाले (१८) झंझा (खटपट) करना। का वचन से अनुमोदन भी न करे। (१६) सूर्योदय से सूर्यास्त तक बार-बार भोजन करना। दिव्य काम-भोगों का : (१६) काया से सेवन न करे, (२०) एषणा-समिति रहित होना। (१७) काया से सेवन न कराए और (१८) सेवन करने वाले देखिए-समवाओ, समवाय २०; दशाश्रुतस्कन्ध, दशा ११ का काया से अनुमोदन भी न करे। २७. इक्कीस प्रकार के शबल दोषों...में (एगवीसाए सबले) देखिए-समवाओ, समवाय १८ । शबल (चारित्र को धब्बों से युक्त करने वाले) दोष २५. उन्नीस ज्ञाता अध्ययनों....में (नायज्झयणेसु) इक्कीस हैंज्ञाता के १६ अध्ययन ये हैं (१) हस्त-कर्म करना। (१) उत्क्षिप्त-ज्ञाता, (४) कूर्म, (२) मैथुन का प्रतिसेवन करना। (२) संघाट, (५) सेलक, (३) रात्रि-भोजन करना। (३) अण्ड, (६) तुम्ब, (४) आधा-कर्म आहार करना। Jain Education Intemational Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५४२ (५) सागारिक ( शय्यातर) पिंड खाना । (६) औद्देशिक, क्रीत या सामने लाकर दिया जाने वाला भोजन करना । (७) बार-बार प्रत्याख्यान कर खाना । (८) एक महीने के अन्दर एक गच्छ से दूसरे गच्छ में जाना । (६) एक महीने के अन्दर तीन उदक- लेप लगाना । (१०) एक महीने में तीन बार माया का सेवन करना । (११) राज - पिण्ड का भोजन करना । ( १२ ) जान-बूझ कर प्राणातिपात करना । (१३) जान-बूझ कर मृषावाद बोलना । (१४) जान-बूझ कर अदत्तादान लेना । (१५) जान-बूझ कर अन्तर- रहित ( सचित्त) पृथ्वी पर स्थान या निषद्या करना । (१६) जान-बूझ कर सचित्त पृथ्वी पर तथा सचित्त शिला पर, घुण वाले काष्ठ पर, शय्या अथवा निषद्या (१६) एक वर्ष में दस उदक- लेप लगाना । (२०) एक वर्ष में दस बार माया स्थान का सेवन करना । (२१) सचित्त जल से लिप्त हाथों से बार-बार अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को लेना तथा उन्हें खाना । देखिए - समवाओ, समवाय २१; दशाश्रुतस्कन्ध, दशा २ । २८. बाई परीषहों (बावीसाए परीसहे) देखिए -अध्ययन २ । २९. सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों... में (तेवीस सूयगढे) सूत्रकृतांग के दो विभाग हैं - (१) प्रथम श्रुतस्कन्ध में १६ अध्ययन हैं और (२) दूसरे श्रुतस्कन्ध में ७ अध्ययन हैं। तेईस अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं 9. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१६ : तथा रूपम् — एकस्तेनाधिकाः प्रक्रमात् सूत्रकृताध्ययनेभ्यो रूपाधिकात्वतुर्विंशतिरित्पर्यस्तेषु । अध्ययन ३१ : श्लोक १५-१७ टि० २८-३१ (१) समय, (१३) यथातथ्य, (२) वैतालिक, (१४) ग्रन्थ, (३) उपसर्ग-परिक्षा, (१५) यमक, (१६) गाथा, (१७) पुंडरीक, (१८) क्रिया - स्थान, (१६) आहार-परिज्ञा, (२०) अप्रत्याख्यान- परिज्ञा, (४) स्त्री-परिज्ञा, (५) नरक-विभक्ति, (६) महावीर स्तुति, (७) कुशील- परिभाषित, (८) वीर्य, (e) धर्म, २३ । ३०. चौबीस प्रकार के देवों में (रूबाहिएसु सुरेसु) यहां रूप का अर्थ 'एक' है। रूपाधिक अर्थात् पूर्वोक्त संख्या से एक अधिक । पूर्व कथन में सूत्रकृतांग सूत्र के २३ अध्ययन ग्रहण किए गए हैं। अतः यहां २४ की संख्या प्राप्त है ।" वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या दो प्रकार से की है। प्रथम व्याख्या के अनुसार २४ प्रकार के देव ये हैं- करना । १० प्रकार के भवनपति देव । ८ प्रकार के व्यन्तर देव । ५ प्रकार के ज्योतिष देव । (१७) जीव सहित, प्राण सहित, बीज सहित, हरित सहित, उत्तिंग सहित लीलन-फूलन, कीचड़ तथा मकड़ी के जाल वाली तथा इसी प्रकार की अन्य पृथ्वी पर बैठना, सोना और स्वाध्याय करना । १ वैमानिक देव । (समस्त वैमानिक देवों को एक ही त्वक् का भोजन, प्रवाल का भोजन, पुष्प का प्रकार में गिना है, भिन्नता की विवक्षा नहीं की है) भोजन, फूल का भोजन करना । दूसरी व्याख्या के अनुसार यहां (१८) जान-बूझ कर मूल का भोजन, कन्द का भोजन, तीर्थङ्करों का ग्रहण किया गया है। हरित का भोजन करना । व्याख्या मान्य रही है(१) ऋषभ, (२) अजित, (३) शम्भव, (४) अभिनन्दन, (५) सुमति, (६) पद्मप्रभु, (७) सुपार्श्व, (८) चन्द्रप्रभ, (१६) शान्ति, देखिए समवाओ, समवाय २४ । ३१. पच्चीस भावनाओं.... में (पणवीसभावणाहिं ) (११) श्रेयांस, (१२) वासुपूज्य, (१३) विमल, (१४) अनन्त, (१५) धर्म, भावना का अर्थ है— 'वह क्रिया जिससे आत्मा को संस्कारित, वासित या भावित किया जाता है'। वे २५ हैं, (१०) समाधि, (११) मार्ग, (१२) समवसरण, देखिए समवाओ, समवाय - २. वही, पत्र ६१६ (२१) अनगार श्रुत, (२२) आर्द्रकुमारीय, (२३) नालंदीय । (६) सुविधि, (१०) शीतल, ३. वही, पत्र ६१६ : ऋषभादितीर्थकरेषु । - ऋषभदेव आदि २४ समवायांग में द्वितीय भवणवण जोइवेमाणिया य दस अट्ट पंच एगविहा । इति चउवीसं देवा केई पुण बेंति अरहंता ।। (५७) कुन्यु (१५) अर (१६) मल्लि (२०) मुनिसुव्रत, (२१) नमि (२२) नेमि, (२३) पा (२४) वर्द्धमान । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-विधि ५४३ अध्ययन ३१ : श्लोक १७ टि० ३१ आचारांग, समवायांग तथा प्रश्न व्याकरण में उनका वर्णन है। उनके क्रम तथा नामों में भेद हैं। जैसे आचारचूला (२।१५) के अनुसार समवायांग (समवाय २५) के अनुसार प्रश्नव्याकरण (संवरद्वार) के अनुसार (1) अहिंसा महाव्रत की भावनाएं (१) ईर्या-समिति ईर्या-समिति ईर्या-समिति (२) मन-परिज्ञा मनो-गुप्ति अपाप-मन (मन-समिति) (३) वचन-परिज्ञा वचन-गुप्ति अपाप-वचन (वचन-समिति) (४) आदान-निक्षेप समिति आलोक-भाजन-भोजन एषणा-समिति (५) आलोकित-पान भोजन आदान-भांडामत्र-निक्षेपणा-समिति आदान-निक्षेप-समिति (2) सत्य महाव्रत की भावनाएं (६) अनुवीचि-भाषण अनुवीचि-भाषणता--विचार पूर्वक बोलना। (७) क्रोध-प्रत्याख्यान क्रोध-विवेक-क्रोध का प्रत्याख्यान क्रोध-प्रत्याख्यान (८) लोभ-प्रत्याख्यान लोभ-विवेक-लोभ का त्याग लोभ-प्रत्याख्यान (६) अभय (भय-प्रत्याख्यान) भय-विवेक--भय का त्याग अभय-(भय-प्रत्याख्यान) (१०) हास्य-प्रत्याख्यान हास्य-विवेक हास्य का त्याग हास्य-प्रत्याख्यान (3) अचौर्य महाव्रत की भावनाएं (११) अनुवीचि-मितावग्रह-याचन अवग्रहानुज्ञापना विविक्त-वास-वसति (१२) अनुज्ञापित-पान-भोजन अवग्रहसीमा परिज्ञान अभीक्ष्ण-अवग्रह-याचन (१३) अवग्रह का अवधारण स्वयं ही अवग्रह की अनुग्रहणता शय्या-समिति (१४) अभीक्ष्ण-अवग्रह-याचन साधर्मिकों के अवग्रह की याचना साधारण-पिण्ड-पात्र लाभ तथा परिभोग (१५) साधर्मिक के पास से साधारण भोजन का आचार्य विनय-प्रयोग अवग्रह-याचन आदि को बता कर परिभोग करना ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावनाएं (१६) स्त्रियों में कथा का वर्जन स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शयन असंसक्त-वास-वसति और आसन का वर्जन करना (१७) स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों के स्त्री-कथा का विवर्जन करना स्त्री-जन में कथा वर्जन अवलोकन का वर्जन (१८) पूर्व-भुक्त-भोग की स्मृति स्त्रियों के इन्द्रियों के अवलोकन स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग और चेष्टाओं का वर्जन का वर्जन करना के अवलोकन का वर्जन (१६) अतिमात्र और प्रणीत पान-भोजन पूर्व-भुक्त तथा पूर्व-क्रीडित काम-भोग पूर्व-भुक्त भोग की का वर्जन का स्मरण नहीं करना स्मृति का वर्जन (२०) स्त्री आदि से संसक्त शयनासन प्रणीत-आहार का विवर्जन करना प्रणीत-रस-भोजन का वर्जन का वर्जन (5) अपरिग्रह महाव्रत की भावनाएं (२१) मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव श्रोत्रेन्द्रिय रागोपरति मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव (२२) मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप में समभाव चक्षुइन्द्रिय रागोपरति मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप में समभाव (२३) मनोज्ञ और अमनोज्ञ गंध में समभाव घाणेन्द्रिय रागोपरति मनोज्ञ और अमनोज्ञ गंध में समभाव (२४) मनोज्ञ और अमनोज रस में समभाव रसनेन्द्रिय रागोपरति मनोज्ञ और अमनोज्ञ रस में समभाव (२५) मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव स्पर्शनेन्द्रिय रागोपरति मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव Jain Education Intemational Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ३२. (उद्देसेसु दसाइ) यहां दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प और व्यवहार इन तीनों सूत्रों के २६ उद्देशों का उल्लेख किया गया है। यहां 'उद्देश' शब्द उद्देशन- काल का सूचक है।' एक दिन में जितने श्रुत की वाचना (अध्यापन) दी जाती है, उसे एक उद्देशन - काल' कहा जाता है। इन तीन सूत्रों के २६ उद्देशन - काल हैं दशाश्रुतस्कन्ध के १० उद्देशन - काल । कल्प (बृहत्कल्प) के ६ उद्देशन - काल । व्यवहार - सूत्र के १० उद्देशन काल । ३३. साधु के सत्ताईस गुणों... में (अणगारगुणेहिं ) साधु के २७ गुण हैं। जैसे— (१) प्राणितिपात से विरमण, (१५) भाव - सत्य, (२) मृषावाद से विरमण, (१६) करण- सत्य, (३) अदत्तादान से विरमण, (१७) योग- सत्य, (४) मैथुन से विरमण, (१८) क्षमा, (५) परिग्रह से विरमण, (१६) विरागता, (६) श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह, (७) चक्षु इन्द्रिय-निग्रह, (८) घाणेन्द्रियनिग्रह, (६) रसनेन्द्रियनिग्रह, (१०) स्पर्शनेन्द्रिय - निग्रह (११) क्रोध - विवेक, (१२) मान विवेक, (१३) माया - विवेक, (१४) लोभ- विवेक, देखिए समवाओ, समवाय २७ । वृत्तिकार ने २७ गुण भिन्न प्रकार से माने हैं (१) अहिंसा, (११) स्पर्शनेन्द्रिय - निग्रह, (२) सत्य, (३) अचौर्य. (४) ब्रह्मचर्य (५) अपरिग्रह, (६) रात्रि भोजन-विरति (७) श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह, (८) चक्षु इन्द्रियनिग्रह, (६) प्राणेन्द्रियनिग्रह, (१०) रसनेन्द्रिय - निग्रह, 7 (२०) मन - समाधारणता, (२१) वचन - समाधारणता, (२२) काय समाधारणता, (२३) ज्ञान-सम्पन्नता, (२४) दर्शन - सम्पन्नता, (२५) चारित्र - सम्पन्नता, (२६) वेदना - अधिसहन, (२७) मारणान्तिक- अधिसहन । (१२) भाव-सत्य, (१३) करण- सत्य, (१४) क्षमा, (१५) विरागता, (१६) मनो निरोध, (१७) वचन निरोध, (१८) काय निरोध, (१६) पृथ्वीकाय - संयम, (२०) अप्काय-संयम, ५४४ १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१६ : 'उद्देशेष्वि' व्युपलक्षणत्वादुद्देशन- कालेषु दशादीनां-दशाश्रुतस्कन्धकल्पव्यवहाराणां षड्विंशतिसङ्ख्येष्विति शेषः, उक्तं हि-"दस उद्देसणकाला दसाण कप्पस्स होंति छच्चेव । दस चैव य बवहारस्स हुति सव्वेऽवि छव्वीसं । ।" २. वही, पत्र ६१६ "वयछक्कमिंदयाणं च निग्गहो भाव करणसच्चं च । खमया विरागयाविय, मणमाईणं णिरोहो य ।। अध्ययन ३१ : श्लोक १७, १८ टि० ३२-३४ (२१) तेजस्काय--संयम, (२५) योगयुक्तता, (२२) वायुकाय संयम, (२६) वेदना अधिसहन, (२३) वनस्पतिकाय-संयम, (२७) मारणान्तिक अधिसहन । (२४) त्रसकाय - संयम, ३४. अठाईस आचार-प्रकल्पों... में (पकण्णम्मि) प्रकल्प का अर्थ है 'वह शास्त्र जिसमें मुनि के कल्प-व्यवहार का निरूपण हो ।' आचारांग का दूसरा नाम 'प्रकल्प' है। ' निशीथ सूत्र सहित आचारांग को 'आचार-प्रकल्प' कहा जाता है। मूल आचारांग के शस्त्र-परिज्ञा आदि नौ अध्ययन हैं और दूसरा श्रुतस्कन्ध उसकी चूड़ा (शिखा ) है । उसके १६ अध्ययन हैं। निशीथ के तीन अध्ययन हैं और वह भी आचारांग की ही चूड़ा है । आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययन (१) शस्त्र-परिक्षा, (२) लोक-विचय, (३) शीतोष्णीय (४) सम्यक्त्व, (५) आयंती, (७) विमोह, (८) उपधान-श्रुत, (६) महापरिज्ञा । आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन(१) षणा (६) पात्रैषणा, (७) अवग्रह-प्रतिमा, (१४) सप्तसप्तिका, (२) शय्या, (२) ईर्ष्या (१५) भावना, (१६) विमुक्ति । (3) भाषा, (५) वस्त्रेषणा, निशीथ के तीन अध्ययन (१) उद्घात (२) अनुद्घात और (३) आरोपण । समवायांग में आचार प्रकल्प के अठाईस प्रकार इस प्रकार है ( १ ) एक महीने की आरोपणा (२) एक महीने और पांच दिन की आरोपणा (३) एक महीने और दस दिन की आरोपणा (४) एक महीने और पन्द्रह दिन की आरोपणा (५) एक महीने और बीस दिन की आरोपणा (६) एक महीने और पच्चीस दिन की आरोपणा (७) दो महीने की आरोपणा (८) दो महीने और पांच दिन की आरोपणा (६) दो महीने और दस दिन की आरोपणा कायाणछक्कजोगम्मि, जुत्तया वेयणाहियासणया । तह मारणंतिय हियासणया एएऽणगारगुणा।।" ३. वही, पत्र ६१६ प्रकृष्टः कल्पो– यतिव्यवहारो यस्मिन्नसौ प्रकल्पः स चेहाचाराङ्गमेव शस्त्रपरिज्ञाद्यष्टाविंशत्यध्ययनात्मकम् । Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-विधि ५४५ अध्ययन ३१ : श्लोक १६ टि० ३५,३६ (२५) विकथानुयोग–अर्थ और काम के उपायों के प्रतिपादक ग्रन्थ । जैसे—कामन्दक, वात्स्यायन, भारत आदि। (२६)विद्यानुयोग-रोहणी आदि विद्या की सिद्धि बताने वाला शास्त्र। (२७) मन्त्रानुयोग-मंत्र-शास्त्र। (२८) योगानुयोग-वशीकरण-शास्त्र, हर-मेखलादि शास्त्र। (२६)अन्यतीर्थिक प्रवृत्तानुयोग-अन्यतीर्थिकों द्वारा प्रवर्तित शास्त्र। देखिए-समवाओ, समवाय २६ । बृहवृत्ति (पत्र ६१७) में ये कुछ भिन्न प्रकार से मिलते (१०) दो महीने और पन्द्रह दिन की आरोपणा (११) दो महीने और बीस दिन की आरोपणा (१२) दो महीने और पच्चीस दिन की आरोपणा (१३) तीन महीने की आरोपणा (१४) तीन महीने और पांच दिन की आरोपणा (१५) तीन महीने और दस दिन की आरोपणा (१६) तीन महीने और पन्द्रह दिन की आरोपणा (१७) तीन महीने और बीस दिन की आरोपणा (१८) तीन महीने और पच्चीस दिन की आरोपणा (१६) चार महीने की आरोपणा (२०) चार महीने और पांच दिन की आरोपणा (२१) चार महीने और दस दिन की आरोपणा (२२) चार महीने और पन्द्रह दिन की आरोपणा (२३) चार महीने और बीस दिन की आरोपणा (२४) चार महीने और पच्चीस दिन की आरोपणा (२५) उपघातिकी आरोपणा। (२६)अनुपघातिकी आरोपणा। (२७) कृत्स्ना आरोपणा। (२८) अकृत्स्ना आरोपणा।' ३५. उनतीस पाप-श्रुत प्रसंगों...में (पावसुयपसंगेसु) पाप के उपादानकारणभूत जो शास्त्र हैं, उन्हें 'पापश्रुत' कहते हैं। उन शास्त्रों का प्रसंग अर्थात् अभ्यास-पापश्रुत प्रसंग है। वे २६ हैं(१) भौम-भूकम्प आदि के फल को बताने वाला निमित्त-शास्त्र। उत्पात-स्वाभाविक उत्पातों का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र। स्वप्न-स्वप्न के शुभाशुभ फल को बताने वाला निमित्त-शास्त्र। (४) अंतरिक्ष-आकाश में उत्पन्न होने वाले नक्षत्रों के युद्ध का फला फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र। अंग-अंग-स्फुरण का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र। स्वर-स्वर के शुभाशुभ फल का निरूपण करने वाला निमित्त-शास्त्र। व्यञ्जन-तिल, मसा आदि के फल को बताने वाला निमित्त-शास्त्र। (८) लक्षण–अनेक प्रकार के लक्षणों का फल बताने वाला निमित्त-शास्त्र। इन आठों के तीन-तीन प्रकार होते हैं—(१) सूत्र, (२) वृत्ति और (३) वार्त्तिका। इस तरह २४ पापश्रुत प्रसंग हुए। अवशेष निम्न प्रकार हैं (६) (३) ३६. तीस मोह के स्थानों में (मोहट्ठाणेसु) मोहकर्म के परमाणु व्यक्ति को मूढ़ बनाते हैं। उनका संग्रह व्यक्ति अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों से करता है। यहां महामोह उत्पन्न करने वाली तीस प्रवृत्तियों का उल्लेख है। वह इस प्रकार है: (१) त्रस-प्राणी को पानी में डुबो कर मारना। (२) सिर पर चर्म आदि बांध कर मारना। (३) हाथ से मुख बन्द कर सिसकते हुए प्राणी को मारना। मण्डप आदि में मनुष्यों को घेर, वहां अग्नि जला, धुंए की घुटन से उन्हें मारना। संक्लिष्ट चित्त से सिर पर प्रहार करना, उसे फोड़ डालना। विश्वासघात कर मारना। अनाचार को छिपाना, माया को माया से पराजित करना, की हुई प्रतिज्ञाओं को अस्वीकार करना। अपने द्वारा कृत हत्या आदि महादोष का दूसरे पर आरोप लगाना। (E) यथार्थ को जानते हुए भी सभा के समक्ष मिश्र-भाषा बोलना-सत्यांश की ओट में बड़े झूठ को छिपाने का यत्न करना और कलह करते ही रहना। (१०) अपने अधिकारी की स्त्रियों या अर्थ-व्यवस्था को अपने अधीन बना उसे अधिकार और भोग-सामग्री से वंचित कर डालना, रूखे शब्दों में उसकी भर्त्सना करना। (११) बाल-ब्रह्मचारी न होने पर भी अपने आपको बाल-ब्रह्मचारी कहना। (१२) अब्रह्मचारी होते हुए भी अपने आपको ब्रह्मचारी कहना। (१३) जिसके सहारे जीविका चलाए, उसी के धन को हड़पना। (६) १. समवाओ, समवाय २८। Jain Education Intemational Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५४६ अध्ययन ३१ : श्लोक २० टि० ३७ (१४) जिस ऐश्वर्यशाली व्यक्ति या जन-समूह के द्वारा समवाय दशाश्रुतस्कन्ध ऐश्वर्य प्राप्त किया, उसी के भोगों का विच्छेद करना। (१५) सर्पिणी का अपने अण्डे को निगलना; पोषण देने वाले व्यक्ति, सेनापति और प्रशास्ता को मार डालना। (१६) राष्ट्र-नायक, निगम-नेता (व्यापारी-प्रमुख), सुप्रसिद्ध ३७. सिद्धों के इकतीस आदि-(अतिशायी) गुणों...में सेठ को मार डालना। (सिद्धाइगुण) (१७) जो जनता के लिए द्वीप और त्राण हो, वैसे सिद्धों के ३१ आदि-गुण इस प्रकार हैंजन-नेता को मार डालना। (१) आभिनिबोधिक ज्ञानावरण का क्षय, (१८) संयम के लिए तत्पर मुमुक्षु और संयमी साधु को (२) श्रुत ज्ञानावरण का क्षय, संयम से विमुख करना।। (३) अवधि ज्ञानावरण का क्षय, (१६) अनन्त ज्ञानी का अवर्णवाद बोलना-सर्वज्ञता के (8) मनःपर्यव ज्ञानावरण का क्षय, प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करना। (५) केवल ज्ञानावरण का क्षय, (२०) मोक्ष-मार्ग की निन्दा कर जनता को उससे विमुख (६) चक्षु ज्ञानावरण का क्षय, करना। (७) अचक्षु दर्शनावरण का क्षय, (२१) जिन आचार्य और उपाध्याय से शिक्षा प्राप्त की हो (८) अवधि दर्शनावरण का क्षय, उन्हीं की निन्दा करना। (E) केवल दर्शनावरण का क्षय, (१०) निद्रा का क्षय, (२२) आचार्य और उपाध्याय की सेवा और पूजा न करना। (११) निद्रा-निद्रा का क्षय, (२३) अबहुश्रुत होते हुए भी अपने आपको बहुश्रुत (१२) प्रचला का क्षय, कहना। (१३) प्रचला-प्रचला का क्षय, (२४) अतपस्वी होते हुए भी अपने आपको तपस्वी (१४) सत्यानद्धि का क्षय (१५) सातावेदनीय का क्षय, कहना। (२५) ग्लान साधर्मिक की 'उसने मेरी सेवा नहीं की थी' (१६) असातावेदनीय का क्षय, इस कलुषित भावना से सेवा न करना। (१७) दर्शन-मोहनीय का क्षय, (२६) ज्ञान, दर्शन और चारित्र का विनाश करने वाली (१८) चारित्र-मोहनीय का क्षय, कथाओं का बार-बार प्रयोग करना। (१६) नैरयिक आयुष्य का क्षय, (२७)अपने मित्र आदि के लिए बार-बार निमित्त, (२०) तिर्यञ्च आयुष्य का क्षय, वशीकरण आदि का प्रयोग करना। (२१) मनुष्य आयुष्य का क्षय, (२२) देव आयुष्य का क्षय, (२८) मानवीय या पारलौकिक भोगों की लोगों के सामने निंदा करा और छिपे-छिपे उनका सेवन करते (२३) उच्च गोत्र का क्षय, जाना। (२४) नीच गोत्र का क्षय, (२६) देवताओं की ऋद्धि, द्युति, यश, बल और वीर्य का (२५) शुभ नाम का क्षय, मखौल करना। (२६)अशुभ नाम का क्षय, (३०) देव-दर्शन न होने पर भी मुझे देव-दर्शन हो रहा (२७) दानान्तराय का क्षय, है—ऐसा कहना। (२८)लाभान्तराय का क्षय, उक्त विवरण समवायांग (समवाय ३०) के आधार पर (२६) भोगान्तराय का क्षय, है। दशाश्रुतस्कन्ध (दशा ६) में प्रथम पांच स्थान कुछ परिवर्तन (३०) उपभोगान्तराय का क्षय, के साथ मिलते हैं (३१) वीर्यान्तराय का क्षय। Jain Education Intemational Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-विधि ५४७ अध्ययन ३१ : श्लोक २० टि०३८,३६ देखिए-समवाओ, समवाय ३१ (१५) विनयोपगत-मान-रहित होना। आचारांग के सिद्धों के गुण इस प्रकार बतलाए गए हैं।' (१६) धृतिमति-अदीनता। पांच संस्थान से रहित । संस्थान ये हैं -(१) दीर्घ-हस्व, (१७) संवेग-मोक्ष की अभिलाषा। (२) वृत्त, (३) त्र्यस्त्र, (४) चतुरस्त्र और (५) परिमण्डल। (१८) प्रणिधि-मायाशल्य से रहित होना। पांच वर्ण से रहित। वर्ण ये हैं—(६) कृष्ण, (७) नील, (१६) सुविधि-सद्-अनुष्ठान। (८) लोहित, (६) हारिद्र और (१०) शुक्ल । (२०) संवर--आश्रव-निरोध । दो गंध से रहित। गंध ये हैं—(११) सुरभि गंध और (१२) दुरभि गंध (२१) आत्मदोषोपसंहार--अपने दोषों का निरोध । पांच रस से रहित। रस ये हैं---(१३) तिक्त, (१४) कटुक, (२२) सर्वकाम-विरक्तता–समस्त विषयों से विमुखता। (१५) कषाय, (१६) आम्ल और (१७) मधुर। (२३) प्रत्याख्यान-मूल गुण विषयक। आठ स्पर्श से रहित। स्पर्श ये हैं—(१८) कर्कश, (१६) मृदु, (२४) प्रत्याख्यान---उत्तर गुण विषयक। (२०) लघु, (२१) गुरु, (२२) शीत, (२३) ऊष्ण, (२४) स्निग्ध, (२५) व्युत्सर्ग कायोत्सर्ग। (२५) सूक्ष। (२६)अप्रमाद। (२६) अकाय, (२७) अरुह और (२८) असङ्ग । (२७) लवालव-क्षण-क्षण सामाचारी का पालन करना। तीन वेद से रहित। वेद ये हैं--(२६) स्त्री वेद, (३०) पुरुष (२८) ध्यान-संवर-योग। वेद और (३१) नपुंसक वेद। (२६) मारणान्तिक उदय-मरण के समय अक्षुब्ध रहना। शान्याचार्य ने दोनों प्रकार मान्य किए हैं। (३०) संग का त्याग-ज्ञ-प्रतिज्ञा और प्रत्याख्यान-प्रतिज्ञा ३८. बत्तीस योग-संग्रहों...में (जो मेसु) से त्याग करना। मन, वचन और काया के व्यापार को 'योग' कहते हैं। (३१) प्रायश्चित्त करना। यहां प्रशस्त योगों का ही ग्रहण किया गया है। योग-संग्रह का (३२) मारणान्तिक आराधना-शरीर और कषाय को अर्थ है 'प्रशस्त योगों का एकत्रीकरण'। ये बत्तीस हैं..... क्षीण करने के लिए तपस्या करना। (१) आलोचना-शिष्य द्वारा गुरु के पास अपने दोषों देखिए-समवाओ, समवाय ३२। को निवेदन करना। ३९. तेतीस आशातनाओं में (तेत्तीसासायणासु) (२) शिष्य द्वारा आलोचित दोषों को प्रकट न करना। आशातना का अर्थ है--अविनय, अशिष्टता या अभद्र (३) आपत्ति में दृढ़-धर्मिता। व्यवहार। दैनिक व्यवहारों के आधार पर उसके तेतीस विभाग (४) अनिश्रितोपधान-दूसरों की सहायता के बिना ही। किए गए हैंतपःकर्म करना। (१) छोटे साधु का बड़े साधु के आगे चलना। (५) शिक्षा शास्त्रों का पठन-पाठन। (२) छोटे साधु का बड़े साधु के समश्रेणी में (बराबर) (६) निष्प्रतिकर्मता-शरीर की सार संभाल नहीं करना। चलना। . (७) अज्ञातता--अपनी तपस्या आदि को गुप्त रखना। (३) छोटे साधु का बड़े साधु से सट कर चलना। (८) अलोभता। (४) छोटे साधु का बड़े साधु के आगे खड़ा रहना। (६) तितिक्षा-परीसह आदि पर विजय। (५) छोटे साधु का बड़े साधु के समश्रेणि में खड़ा (१०) आर्जव-ऋजुभाव। रहना। (११) शुचि-सत्य और संयम। (६) छोटे साधु का बड़े साधु से सट कर खड़ा रहना। (१२) सम्यग्-दृष्टि-सम्यग्-दर्शन की शुद्धि । (७) छोटे साधु का बड़े साधु के आगे बैठना। (१३) समाधि-चित्त-स्वास्थ्य। (८) छोटे साधु का बड़े साधु के समश्रेणि में बैठना। (१४) आचारोपगत-माया-रहित होना। (६) छोटे साधु का बड़े साधु से सट कर बैठना। आ आयारो, ५११२७-१३५ : से ण दीहे, ण हस्से, ण बट्टे, ण तसे, ण चउरसे, ण परिमंडले। ण किण्हे, ण णीले, ण लोहिए, ण हालिद्दे, ण सुक्किल्ले। ण सुभिगंधे, ण दूरभिगंधे। ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाए, ण अंविले, ण महुरे। ण कक्खडे, ण मउए, ण गरुए। ण लहुए, ण सीए, ण उण्हे, ण णिद्धे, ण लुक्खे। ण काऊ। ण रुहे। ण संगे। ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अन्नहा। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१७। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५४८ (१०) छोटे साधु का बड़े साधु से पहले (एक जल - पात्र हो, उस स्थिति में) आचमन करना -- शुचि लेना । (११) छोटे साधु द्वारा स्थान में आकर बड़े साधु से पहले गमनागमन की आलोचना करना । (१२) जिस व्यक्ति के साथ बड़े साधु को वार्तालाप करना है, उसके साथ छोटे साधु का पहले ही वार्तालाप करना । (१३) बड़े साधु द्वारा यह पूछने पर कि कौन जागता है, कौन सो रहा है, छोटे साधु का जागते हुए भी उत्तर नहीं देना । (१४) गृहस्थ के घर से भिक्षा ला पहले छोटे साधु के पास आलोचना करना कहां से क्या, कैसे प्राप्त हुआ यह बतलाना । (१५) गृहस्थ के घर से भिक्षा ला पहले छोटे दिखान फिर बड़े साधु को । साधु को (१७) गृहस्थ के घर से भिक्षा ला बड़े साधु को पूछे बिना अपने प्रिय-प्रिय साधुओं को प्रचुर प्रचुर दे देना । (१८) गृहस्थ के घर से भिक्षा ला बड़े साधु के साथ भोजन करते हुए सरस आहार खाने की उतावल करना । (१६) बड़े साधु द्वारा आमंत्रित होने पर सुना अनसुना करना । (२०) बड़े साधु द्वारा आमंत्रित होने पर अपने स्थान पर बैठे हुए उत्तर देना । (२१) बड़े साधु को अनादर भाव में 'क्या कह रहे हो' – इस प्रकार कहना । (२२) बड़े साधु को तू कहना । (२३) बड़े साधु को या उसके समक्ष अन्य किसी को रूखे शब्द से आमन्त्रित करना या जोर-जोर से बोलना । (२४) बड़े साधु की— उसी का कोई शब्द पकड़ -अवज्ञा आशातनाओं का यह विवरण दशाश्रुतस्कन्ध ( दशा ३) के आधार पर दिया गया है। समवायांग (समवाय ३३) में ये (१६) गृहस्थ के घर से भिक्षा ला पहले छोटे साधु को कुछ क्रमभेद से प्राप्त हैं। आवश्यक (चतुर्थ आवश्यक) में ३३ निमंत्रित करना फिर बड़े साधु को 1 आशातनाएं भिन्न प्रकार से प्राप्त हैं— (१) अर्हन्तों की आशातना । (२) सिद्धों की आशातना । (३) आचार्यों की आशातना । (४) उपाध्यायों की आशातना । (५) साधुओं की आशातना । (६) साध्वियों की आशातना । (७) श्रावकों की आशातना । (८) श्राविकाओं की आशातना । (E) देवों की आशातना । (१०) देवियों की आशातना । (११) इहलोक की आशातना । ( १२ ) परलोक की आशातना । (१३) केवलीप्रज्ञप्त धर्म की आशातना । (१४) देव, मनुष्य और असुर सहित लोक की आशातना । (१५) सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की आशातना । (१६) काल की आशातना । (१७) श्रुत की आशातना । (१८) श्रुत देवता की आशातना । (१६) वाचनाचार्य की आशातना । (२०) व्याविद्ध—व्यत्यासित वर्ण विन्यास करना कहीं के अक्षरों को कहीं बोलना।" (२१) व्यत्यात्रेडित – उच्चार्यमाण पाठ में दूसरे पाठों का मिश्रण करना । (२२) हीनाक्षर-अक्षरों को न्यून कर उच्चारण करना । अध्ययन ३१ : श्लोक २० टि० ३६ में ही परिषद् को भंग करना । (२६) बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, उस समय में बीच में ही कथा का विच्छेद करना-विध्न उपस्थित करना । (३०) बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, उस समय उसी विषय में अपनी व्याख्या देने का बार-बार प्रयत्न करना । (३१) बड़े साधु के उपकरणों के पैर लग जाने पर विनम्रता पूर्वक क्षमा-याचना न करना । (३२) बड़े साधु के बिछौने पर खड़े रहना, बैठना या सोना। (३३) बड़े साधु से ऊंचे या बराबर के आसन पर खड़े रहना, बैठना या सोना । करना। (२५) बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, उस समय 'यह ऐसे नहीं किन्तु ऐसे है' इस प्रकार कहना । (२६) बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, उस समय 'आप भूल रहे हैं' – इस प्रकार कहना । (२७) बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, उस समय अन्यमनस्क होना । ( २८ ) बड़ा साधु व्याख्यान कर रहा हो, उस समय बीच १. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ८५६ : वाइद्धक्खरमेयं, वच्चासियवण्णचिण्णासं । २. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ८५६ : विविहसत्थपल्लवविमिस्सं । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण-विधि ५४९ (२३) अत्यक्षर-अक्षरों को अधिक कर उच्चारण करना । (२४) पदहीन पदों को कम कर उच्चारण करना । (२५) विनयहीन — विराम-रहित उच्चारण करना । (२६) घोषहीन - उदात्त आदि घोष-रहित उच्चारण करना । (२७) योगहीन - - सम्बन्ध-रहित उच्चारण करना । (२८) सुष्ठुदत्त - योग्यता से अधिक ज्ञान देना । अध्ययन ३१ : श्लोक २० टि० ३६ (२६) दुष्टु-प्रतीच्छित --- ज्ञान को सम्यग्भाव से ग्रहण न करना । (३०) अकाल में स्वाध्याय करना । (३१) काल में स्वाध्याय न करना । (३२) अस्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय करना । ( ३३ ) स्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय न करना । Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसइमं अज्झयणं पमायट्ठाणं बत्तीसवां अध्ययन प्रमादस्थान Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अध्ययन में प्रमाद के कारण तथा उनके निवारण के उपायों का प्रतिपादन किया गया है। इसलिए इसका नाम 'पमायट्ठाणं' - 'प्रमादस्थान' है। प्रमाद साधना का विघ्न है। उसका निवारण कर साथक जितेन्द्रिय बनता है। प्रमाद के प्रकारों का विभिन्न क्रमों में संकलन हुआ है : १. प्रमाद के पांच प्रकार : मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा । २. प्रमाद के छह प्रकार -- मद्य, निद्रा, विषय, कपाय, द्यूत और प्रतिलेखना । ३. प्रमाद के आठ प्रकार- आमुख अज्ञान, संशय, मिथ्या ज्ञान, राग, द्वेष, स्मृति भ्रंश, धर्म में अनादर, मन, वचन और काया का दुष्प्रणिधान । मानसिक, वाचिक और कायिक इन सभी दुःखों का मूल है विषयों की सतत आकांक्षा । विषय आपात - भद्र ( सेवन काल में सुखद) होते हैं किन्तु उनका परिणाम विरस होता है। शास्त्रकारों ने उन्हें 'किंपाक फल' की उपमा से उपमित किया है। (श्लोक १६, २०) आकांक्षा के मूल हैं-राग और द्वेष । वे संसार भ्रमण के हेतु हैं। उनकी विद्यमानता में वीतरागता नहीं आती। वीतराग-भाव के बिना जितेन्द्रियता सम्मपन्न नहीं होती। जितेन्द्रियता का पहला साधन है-आहार-विवेक साधक को प्रणीत आहार नहीं करना चाहिए। अतिमात्रा में भोजन नहीं करना चाहिए। वार-बार नहीं खाना चाहिए। प्रणीत या अति मात्रा में किया हुआ आहार उद्दीपन करता है, उससे वासनाएं उभरती हैं और मन चंचल हो जाता है। ३. इसी प्रकार एकांतवास, अल्पभजन, विषय में अननुरक्ति, दृष्टि- संयम, मन, वाणी और काया का संयम, चिन्तन की पवित्रता – ये भी जितेन्द्रिय बनने के साधन हैं। | प्रथम २१ श्लोकों में इन उपायों का विशद निरूपण 9. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ५२० २. ठाणं ६४४ छब्बिहे पमाए पण्णतेतं जहा मज्जपमाए, णिद्दपमाए, विसमाए, कसाथमाए, जूतपमाए, पडिलेहणाप्रमाए । प्रवचन सारोद्धार, द्वार २०७, गाथा ११२२, ११२३ माओ य मुणिदेहिं भणिओ अट्टभेयओ। अन्नाणं संसओ चेव, मिच्छानाणं तहेव य ।। रागो दोषी मइब्भंसो, धम्मम्मि य अणायरो ।। जोगाणं दुप्पणीहाणं, अद्रुहा वज्जियव्वओ ।। ४ (क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५२३,५२४ : वाससहस्सं उग्गं तवमाइगरस्स आयरंतस्स । जो किर पमायकालो अहोरनं तु संकलिअं ।। क्या हुआ है। पांच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होने से क्यादोष उत्पन्न होते हैं? उनके उत्पादन, संरक्षण और व्यापरण से क्या-क्या दुःख उत्पन्न होते हैं ? इन प्रश्नों का स्पष्ट समाधान मिलता है। जब तक व्यक्ति इन सब उपायों को जानकर अपने आचरण में नहीं उतार लेता तब तक वह दुःखों के दारुण परिणामों से नहीं छूट सकता। विषय अपने आप में अच्छा था बुरा कुछ भी नहीं है। वह व्यक्ति के राग-द्वेष से सम्मिश्रित होकर अच्छा या बुरा वनता है । इन्द्रिय तथा मन के विषय वीतराग के लिए दुःख के हेतु नहीं हैं, राग-ग्रस्त व्यक्ति के लिए वे परम दारुण परिणाम वाले हैं। इसलिए बन्धन और मुक्ति अपनी ही प्रवृत्ति पर अवलम्बित है। जो साधक इन्द्रियों के विषयों के प्रति विरक्त है, उसे उनकी मनोज्ञता या अमनोज्ञता नहीं सताती। उसमें समता का विकास होता है। साम्य के विकास से काम-गुणों की तृष्णा का नाश हो जाता है और साधक उत्तरोत्तर गुणस्थानों में आरोह करता हुआ लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। (श्लोक १०६, १०७, १०८) साधना की दृष्टि से इस अध्ययन का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। अप्रमाद ही साधना है। साधक को प्रतिपल अप्रमत्त या जागरूक रहना चाहिए। निर्युक्तिकार ने बताया है कि भगवान् ऋषभ साधना में प्रायः अप्रमत्त रहे। उनका साधना-काल हजार वर्ष का था। उसमें प्रमाद काल एक दिन-रात का था। भगवान् महावीर ने बारह वर्ष और तेरह पक्ष तक साधना की । उसमें प्रमाद काल एक अन्तमुहूर्त का था। दोनों तीर्थंकरों के प्रमाद - काल को नियुक्तिकार ने 'संकलित - काल' कहा है । इसका तात्पर्य यह है कि एक दिन-रात और एक अन्तर्मुहूर्त का प्रमाद एक साथ नहीं हुआ था। किन्तु उनके साधना-काल में जो प्रमाद हुआ, उसे संकलित किया जाए तो वह एक दिन-रात और एक अन्तर्मुहूर्त का होता है।" बारसवासे अहिए, तवं चरंतस्स वज्रमाणस्स । जो फिर पमायकालो, अंतमुहुत्तं तु संकलिअं ।। (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ६२० : किमयमेकावस्थाभाविनः प्रमादस्य काल उतान्यथेत्याशंकयाह - संकलितः, किमुक्तं भवति ? - अप्रमादगुणस्थानस्यान्तमौहूर्निकत्वेनानेकशोऽपि प्रमादप्राप्तौ तदवस्थितिविषयभृतस्यान्तर्मुहूर्त्तस्याखयेयभेदत्वात्तेषामतिसूक्ष्मतया सर्वकालसङ्कलनायामप्यहोरात्रमेवाभृत् । तथा द्वादश वर्षाण्यधिकानि तपश्चरतो वर्द्धमानस्य यः किल प्रमादकालः प्राग्वत्सो ऽन्तर्मुहूर्त्तमेव सङ्कलितः, इताभ्यन्तर्मुहर्त्तानामसदेयभेदत्वात्प्रमादस्थितिविषपान्त सूक्ष्मत्वं, संकलनान्तर्मुहूर्त्तस्य च बृहत्तरत्वमिति भावनीयम् । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५५२ अध्ययन ३२ : आमुख शान्त्याचार्य ने बताया है कि कुछ आचार्य अनुपपत्ति के भय से भगवान् ऋषभ और महावीर के प्रमाद को केवल निद्रा प्रमाद मानते है किन्तु नियुक्तिकार और शान्त्याचार्य का यह अभिमत नहीं है और वह संगत भी है । नियुक्तिकार के निरूपण का उद्देश्य यह है कि जिस प्रकार भगवान ऋषभ और महावीर अधिक से अधिक अप्रमत्त रहे हैं, उसी प्रकार सब श्रमण भी अधिक से अधिक अप्रमत्त रहें । 9. बृहद्वृत्ति पत्र ६२० विवक्षित इति व्याचक्षते । · अन्ये त्वेतदनुपपत्तिभीत्या निद्राप्रमाद एवायं Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसइमं अज्झयणं : बत्तीसवां अध्ययन पमायट्ठाणं : प्रमादस्थान मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद अच्चंतकालस्स समूलगस्स अत्यन्तकालस्य समूलकस्य अनादिकालीन सब दुःखों और उनके कारणों (कषाय सच्चस्स दुक्खस्स उ जो पमोघखो। सर्वस्य दुःखस्य तु यः प्रमोक्षः। आदि) के' मोक्ष का जो उपाय है वह मैं कह रहा तं भासओ मे पडिपुण्णचित्ता तं भाषमाणस्य मे प्रतिचूर्णचित्ताः हूं। वह एकाग्र्यहित (ध्यान के लिए हितकर) है, सुणेह एगग्गहियं हियत्थं ।। शृणुतैकाग्रयहितं हितार्थम् ।। अतः तुम प्रतिपूर्ण चित्त होकर हित (मोक्ष) के लिए सुनो। नाणस्स सव्वस्स पगासणाए ज्ञानस्य सर्वस्य प्रकाशनया सम्पूर्ण ज्ञान का प्रकाश, अज्ञान और मोह का नाश अण्णाणमोहस्स विवज्जणाए। अज्ञानमोहस्य विवर्जनया। तथा राग और द्वेष का क्षय होने से आत्मा एकान्त रागस्स दोसस्स य संखएणं रागस्य दोषस्य च संक्षयेण सुखमय मोक्ष को प्राप्त होता है। एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ।। एकांतसौख्यं समुपैति मोक्षम् ।। २. ३. तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा तस्यैष मार्गों गुरुवृद्धसेवा विवज्जणा बालजणस्स दूरा। विवर्जना बालजनस्य दूरात्। सज्झायएगंतनिसेवणा य स्वाध्यायैकान्तनिषेवणा च सुत्तत्थसंचिंतणया धिई य।। सूत्रार्थसंचिन्तना धृतिश्च ।। गुरु और वृद्धों (स्थविर मुनियों) की सेवा करना, अज्ञानी-जनों का दूर से ही वर्जन करना, स्वाध्याय करना, एकान्तवास करना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना तथा धैर्य रखना, यह मोक्ष का मार्ग ४. आहारमिच्छे मियमेसणिज्ज आहारमिच्छन्मितमेषणीयं सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धिं। सहायमिच्छेन्निपुणार्थबुद्धिम् । निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्गं निकेतमिच्छेद् विवेकयोग्य समाहिकामे समणे तवस्सी।। समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी।। समाधि चाहने वाला तपस्वी श्रमण परिमित और एषणीय आहार की इच्छा करे। जीव आदि पदार्थ के प्रति निपुण बुद्धि वाले गीतार्थ को सहायक बनाये और विविक्त—एकांत घर में रहे। ५. न वा लभेज्जा निउणं सहायं न वा लभेत निपुणं सहायं गणाहियं वा गणओ समं वा। गुणाधिकं वा गुणत: समं वा। एक्को वि पावाइ विवज्जयंतो एकोऽपि पापानि विवर्जयन् विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो।। विहरेत् कामेष्वसजन् ।। यदि' अपने से अधिक गुणवान् या अपने समान निपण सहायक न मिले तो वह पापों का वर्जन करता हुआ, विषयों में अनासक्त रह कर अकेला ही विहार करे। जहा य अंडप्पभवा बलागा यथा च अण्डप्रभवा बलाका अंडं बलागप्पभवं जहा य। अण्डं बलाकाप्रभवं यथा च। एमेव मोहाययणं खु तण्हं एवमेव मोहायतनं खलु तृष्णा मोहं च तण्हाययतं वयंति।। मोहं च तृष्णायतनं वदन्ति।। जैसे बलाका अंडे से उत्पन्न होती है और अंडा बलाका से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तृष्णा मोह" से उत्पन्न होती है और मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है। गगो य दोसो विय कम्मबीयं रागश्च दोषोऽपि च कर्मबीजं कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कर्म च मोहप्रभवं वदन्ति। कम्मं च जाईमरणस्स मुलं कर्म च जातिमरणस्य मूलं दुक्खं च जाईमरणं वयंति।। दुःखं च जातिमरणं वदन्ति।। राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्म-मरण का मूल है। जन्म-मरण को दुःख कहा गया है। Jain Education Intemational Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५५४ अध्ययन ३२ : श्लोक ८-१६ दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो दुःखं हतं यस्य न भवति मोहो जिसके मोह नहीं है, उसने दुःख का नाश कर मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा। मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा। दिया। जिसके तृष्णा नहीं है, उसने मोह का नाश तण्हा हया जस्स न होइ लोहो तृष्णा हता यस्य न भवति लोभः कर दिया। जिसके लोभ नहीं है, उसने तृष्णा का लोहो हओ जस्स न किंचणाइं।। लोभो हतो यस्य न किंचनानि।। नाश कर दिया। जिसके पास कुछ नहीं है, उसने लोभ का नाश कर दिया। ६. रागं च दोसं च तहेव मोहं रागं च दोषं च तथैव मोह राग, द्वेष और मोह का मूल सहित उन्मूलन चाहने उद्धत्तुकामेण समूलजालं। उद्धर्तुकामेन समूलजालम्। वाले मनुष्य को जिन-जिन उपायों का आलम्बन जे जे उवाया पडिवज्जियव्वा ये ये उपायाः प्रतिपत्तव्याः लेना चाहिए उन्हें मैं क्रमशः कहूंगा। ते कित्तइस्सामि अहाणुपुब्दि।। तान् कीर्तयिष्यामि यथानुपूर्वि।। १०. रसा पगामं न निसेवियव्वा रसाः प्रकामं न निषेवितव्याः रसों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए। पायं रसा दित्तिकरा नराणं। प्रायो रसा दृप्तिकरा नराणाम्। वे प्रायः मनुष्य की धातुओं को उद्दीप्त करते हैं। दित्तं च कामा समभिद्दवंति दृप्तं च कामाः समभिद्रवन्ति जिसकी धातुएं उद्दीप्त होती हैं उसे काम-भोग सताते दुमं जहा साउफलं व पक्खी।। दुर्म यथा स्वादुफलमिव पक्षिणः।। हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष को पक्षी। ११. जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे यथा दवाग्निः प्रचुरेन्धने वने जैसे पवन के झोंकों के साथ प्रचुर इन्धन वाले वन समारुओ नोवसमं उवेइ। समारुतो नोपशममुपैति। में लगा हुआ दावानल उपशान्त नहीं होता, उसी एविंदियग्गी वि पगामभोइणो एवमिन्द्रियाग्निरपि प्रकामभोजिनो प्रकार अतिमात्र खाने वाले की इन्द्रियाग्नि-कामाग्नि न बंभयारिस्स हियाय कस्सई।। न ब्रह्मचारिणो हिताय कस्यचित्।। शान्त नहीं होती। इसलिए अतिमात्र भोजन किसी भी ब्रह्मचारी के लिए हितकर नहीं होता। १२. विवित्तसेज्जासणजंतियाणं विविक्तशय्यासनयन्त्रितानां जो एकान्त बस्ती और एकान्त आसन से नियंत्रित ओमासणाणं दमिइंदियाणं।। अवमाशनानां दमितेन्द्रियाणाम्।। होते हैं, जो कम खाते हैं और जितेन्द्रिय होते हैं, न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं न रागशत्रुर्धर्षयति चित्तं उनके चित्त को राग-शत्रु वैसे ही आक्रान्त नहीं कर पराइओ वाहिरिवोसहेहिं। पराजितो व्याधिरिवौषधैः।। सकता जैसे औषध से पराजित रोग देह को। १३. जहा बिरालावसहस्स मूले यथा बिडालावसथस्य मूले न मूसगाणं वसही पसत्था। न मूषकाणां वसतिः प्रशस्ता। एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे एवमेव स्त्रीनिलयस्य मध्ये न बंभयारिस्स खमो निवासो।। न ब्रह्मचारिणः क्षमो निवासः ।। जैसे विल्ली की बस्ती के पास चूहों का रहना अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार स्त्रियों की बस्ती के पास ब्रह्मचारी का रहना अच्छा नहीं होता। १४. न रूवलावण्णविलासहासं न रूपलावण्यविलासहासं न जंपियं इंगियपेहियं वा।। न जल्पितमिगितं प्रेक्षितं वा। इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता स्त्रीणां चित्ते निवेश्य दटुं ववस्से समणे तवस्सी।। दष्टुं व्यवस्येत् श्रमणस्तपस्वी।। तपस्वी श्रमण स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मधुर आलाप, इङ्गित और चितवन को चित्त में रमा कर उन्हें देखने का संकल्प न करे। १५. अदंसणं चेव अपत्थणं च अदर्शनं चैवाप्रार्थनं च जो सदा ब्रह्मचर्य में रत हैं, उनके लिए स्त्रियों को अचिंतणं चेव अकित्तणं च। अचिन्तनं चैवाकीर्तनं च। न देखना, न चाहना, न चिन्तन करना और न इत्थीजणस्सारियझाणजोग्गं स्त्रीजनस्य आर्यध्यानयोग्यं वर्णन करना हितकर है तथा आर्य-ध्यान-धर्म-ध्यान हियं सया बंभवए रयाणं ।। हितं सदा ब्रह्मव्रते रतानाम्।। के लिए उपयुक्त है। १६. कामं तु देवीहि विभूसियाहिं कामं तु देवीभिर्विभूषिताभिः यह ठीक है कि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनियों को न चाडया खोभइ तिगत्ता। न शक्ताः क्षोभयितुं त्रिगुप्ताः। विभूषित देवियां भी विचलित नहीं कर सकती. फिर तहा वि एगंतहियं ति नच्चा तथाप्येकान्तहितमिति ज्ञात्वा भी भगवान ने एकान्त हित की दृष्टि से उनके विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो।।। विविक्तवासो मुनीनां प्रशस्तः।। विविक्त-वास को प्रशस्त कहा है। Jain Education Intemational Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३२ : श्लोक १७-२५ प्रमादस्थान ५५५ १७. मोक्खाभिकंखिस्स वि माणवस्स मोक्षाभिकाक्षिणोपि मानवस्य संसारभीरुस्स ठियरस धम्मे। संसारभीरो स्थितस्य धमें। नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए नैतादृशं दुस्तरमस्ति लोके जहित्थिओ बालमणोहराओ।। यथा स्त्रियो बालमनोहराः।। मोक्ष चाहने वाले संसार-भीरु एवं धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में और कोई वस्तु ऐसी दुस्तर नहीं है, जैसे दुस्तर अज्ञानियों के मन को हरने वाली स्त्रियां हैं। १८. एए य संगे समइक्कमित्ता एतांश्च सङ्गान् समतिक्रम्य जो मनुष्य इन स्त्री-विषयक आसक्तियों का पार पा सुहुत्तरा चेव भवंति सेसा। सुखोत्तराश्चैव भवन्ति शेषाः। जाता है, उसके लिए शेष सारी आसक्तियां वैसे ही जहा महासागरमुत्तरित्ता यथा महासागरमुत्तीर्य सुतर (सुख से पार पाने योग्य) हो जाती है जैसे नई भवे अवि गंगासमाणा।। नदी भवेदपि गंगासमाना।। महासागर का पार पाने वाले के लिए गंगा जैसे बड़ी नदी। १६. कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं कामानुगृद्धिप्रभवं खलु दुःखं सब जीवों के, और क्या देवताओं के भी जो कुछ सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य। कायिक और मानसिक दुःख है, वह काम-भोगों की जं काइयं माणसियं च किंचि यत्कायिकं मानसिकं च किंचित् सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। वीतराग उस तस्संतगं गच्छइ वीयरागो।। तस्यान्तकं गच्छति वीतरागः ।। दुःख का अंत पा जाता है। २०. जहा य किंपागफला मणोरमा यथा च किम्पाकफलानि मनोरमाणि जैसे किंपाक फल खाने के समय रस और वर्ण से रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा। रसेन वर्णेन च भुज्यमानानि। मनोरम होते हैं और परिपाक के समय जीवन का ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा तानि 'खुहुए' जीविते पच्यमानानि अन्त कर देते हैं," कामगुण भी विपाक काल में ऐसे एओवमा कामगुणा विवागे।। एतदुपमाः कामगुणाः विपाके।। ही होते हैं। २१. जे इंदियाणं विसया मणुण्णा ये इन्द्रियाणां विषया मनोज्ञाः न तेसु भावं निसिरे कयाइ। न तेषु भावं निसृजेत् कदापि। न यामणुण्णेसु मणं पि कुज्जा न चामनोज्ञेषु मनोऽपि कुर्यात् समाहिकामे समणे तवस्सी।। समाधिकामः श्रमणस्तपस्वी।। समाधि चाहने वाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के जो मनोज्ञ विषय हैं उनकी ओर भी मन न करे-राग न करे और जो अमनोज्ञ विषय है उनकी ओर भी मन न करे--द्वेष न करे। २२. चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति चक्षुषो रूपं ग्रहणं वदन्ति रूप चक्षु का ग्राह्य-विषय है। जो रूप राग का हेतु तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तद् रागहेतु तु मनोज्ञमाहुः। होता है उसे मनोज्ञ कहा जाता है, जो द्वेष का हेतु तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु तद् दोषहेतु अमनोज्ञमाहुः होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो मनोज्ञ समो य जो तेस स वीयरागो।। समश्च यस्तयोः स वीतरागः।। और अमनोज्ञ रूपों में समान रहता है, वह वीतराग होता है। २३. रुवस्स चक्खं गहणं वयंति रूपस्य चक्षुर्ग्रहणं वदन्ति चक्षु रूप का ग्रहण करता है। रूप चक्षु का ग्राह्य है। चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति। चक्षुषो रूपं ग्रहणं वदन्ति। जो रूप राग का हेतु होता है उसे मनोज्ञ१२ कहा रागस्स हेउं समणण्णमाह रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहुः जाता है और जो द्वेष का हेतु होता है, उसे दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु।। दोषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ।। अमनोज्ञ कहा जाता है। २४. रुवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं रूपेषु या गृद्धिमुपैति तीव्रां जो मनोज्ञ रूपों में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकालियं पावड से विणासं। अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे रागाउरे से जह वा पयंगे रागातुरः स यथा वा पतङ्गः प्रकाश-लोलुप पतंगा रूप में आसक्त होकर मृत्यु को आलोयलोले समुवेइ मच्चूं।। आलोकलोलः समुपैति मृत्युम्।। प्राप्त होता है। २५. जे यावि दोसं समवेइ तिव्वं यश्चापि दोषं समुपैति तीव्र जो अमनोज्ञ रूपों में तीव्र द्वेष करता है, वह अपने तंसिक्खणे से उ उवेइ दुक्खं। तस्मिन्क्षणे स तूपैति दुःखम्। दुर्दम दोष से उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। रूप दुइंतदोसेण सएण जंतू दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तु: उसका कोई अपराध नहीं करता। न किंचि रूवं अवरज्झई से।। न किंचिदूपमपराध्यति तस्य।। Jain Education Intemational Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५५६ अध्ययन ३२ : श्लोक २६-३४ २६. एगंतरत्ते रुइरंसि रूवे एकान्तरक्तो रुचिरे रूपे जो मनोहर रूप में एकान्त अनुरक्त होता है और अतालिसे से कुणई पओसं। अतादृशे स करोति प्रदोषम्। अमनोहर रूप में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखात्मक दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले दुःखस्य सम्पीडामुपैति बालः पीड़ा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त मुनि उनमें न लिप्पई तेण मुणी विरागो।। न लिप्यते तेन मुनिर्विरागः।।। लिप्त नहीं होता। २७. रूवाणुगासाणुगए य जीवे रूपानुगाशानुगतश्च जीवान् मनोज्ञ रूप की अभिलाषा के पीछे चलने वाला पुरुष चराचरे हिंसइणेगरूवे। चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान। अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा करता चित्तेहि ते परितावेइ बाले चित्रैस्तान्परितापयति बालः है। अपने प्रयोजन को प्रधान मानने वाला वह पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिडे ।। पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः ।। क्लेश-युक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार से उन चराचर जीवों को परितप्त और पीड़ित करता है। २८. रूवाणुवाएण परिग्गहेण रूपानुपातेन परिग्रहेण रूप में अनुराग और ममत्व का भाव होने के कारण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। उत्पादने रक्षणसन्नियोगे। मनुष्य उसका उत्पादन, रक्षण और व्यापार करता वए विओगे य कहिं सुहं से? व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य? है। उसका व्यय और वियोग होता है। इन सब में संभोगकाले य अतित्तिलाभे।। सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभः।। उसे सुख कहां है? और क्या, उसके उपभोग-काल में भी उसे अतृप्ति ही होती है। २६. रूवे अतित्ते य परिग्गहे य रूपे अतृप्तश्च परिग्रहे च जो रूप में अतृप्त होता है और उसके परिग्रहण में मनोतमत्तो न वेड तटिं। सक्कोपसक्तो नोपैति तष्टिम। आसक्त-उपसक्त होता है, उसे सन्तुष्टि नहीं मिलती। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य वह असन्तुष्टि के दोष से दुःखी और लोभग्रस्त लोभाविले आययई अदत्तं ।। लोभाविल आदत्ते अदत्तम् ।। होकर दूसरों की वस्तुएं चुरा लेता है। ३०. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो तृष्णाभिभूतस्य अदत्तहारिण: वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य। रूपे अतृप्तस्य परिग्रहे च। रूप तथा परिग्रह में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष मायामुसं वड्डइ लोभदोसा मायामृषा वर्द्धते लोभदोषात् के कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है। तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।। तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः।। माया-मृषा का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। ३१. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य मृषा पश्चाच्च पुरस्ताच्च असत्य बोलने के पश्चात्, पहले और बोलते समय पओगकाले य दुही दुरंते। प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः। वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय एवं अदत्ताणि समाययंतो एवमदत्तानि समाददानः होता है। इस प्रकार वह रूप में अतृप्त होकर चोरी रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो।। रूपे अतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः ।। करता हुआ दुःखी और आश्रय-हीन हो जाता है। ३२. रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं रूपानुरक्तस्य नरस्यैवं रूप में अनुरक्त पुरुष को उक्त कथनानुसार कदाचित् कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?। कुतः सुखं भवेत्कदापि किंचित् ? किंचित् सुख भी कहां से होगा? जिस उपभोग के तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं लिए वह दुःख प्राप्त करता है—कष्ट झेलता हैनिव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ।। निवर्तयति यस्य कृते दुःखम्।। वह उपभोग में भी क्लेश-दुःख (अतृप्ति का दुःख) बना रहता है। ३३. एमेव रूवम्मि गओ पओसं एवमेव रूपे गतः प्रदोषं इसी प्रकार जो रूप में द्वेष रखता है, वह उत्तरोत्तर उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। उपैति दुःखौघपरम्पराः। अनेक दुःखों को प्राप्त होता है। प्रद्वेष-युक्त चिंत्त पदचित्तो य चिणाड कम्मं प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म वाला व्यक्ति कर्म का बन्ध करता है। वही परिणाम-काल जं से पुणो होइ दुहं विवागे।। यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके।। में उसके लिए दुःख का हेतु बनता है। ३४. रूवे विरत्तो मणुओ विसोगो रूपे विरक्तो मनुजो विशोकः रूप से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे एएण दुक्खोहपरंपरेण। एतेन दुःखौघपरम्परेण। कमलिनी का पत्र जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही न लिप्पए भवमज्झे वि संतो न लिप्यते भवमध्येऽपि सन् वह संसार में रह कर अनेक दुःखों की परम्परा से जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।। जलेनेव पुष्पकरिणीपलाशम् ।। लिप्त नहीं होता। Jain Education Intemational Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमादस्थान ५५७ अध्ययन ३२ : श्लोक ३५-४३ ३५. सोयस्स सदं गहणं वयंति श्रोत्रस्य शब्द ग्रहणं वदन्ति शब्द श्रोत्र का ग्राह्य-विषय है। जो शब्द राग का तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः । हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो द्वेष का तं दोसहेउं अमणण्णमाहुतं दोषहेतुममनोज्ञमाहुः हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो समो य जो तेसु स वीयरागो।। समश्च यस्तेषु स वीतरागः।।। मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों में समान रहता है, वह वीतराग होता है। ३६. सद्दस्स सोयं गहणं वयंति शब्दस्य श्रोत्रं ग्रहणं वदन्ति श्रोत्र शब्द का ग्रहण करता है। शब्द श्रोत्र का ग्राह्य सोयस्स सई गहणं वयंति। श्रोत्रस्य शब्दं ग्रहणं वदन्ति। है। जो शब्द राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा रागस्स हेउं समणुण्णमाहु रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहुः जाता है। जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु।। दोषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ।। कहा जाता है। ३७. सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं शब्देषु यो गृद्धिमुपैति तीव्रां जो मनोज्ञ शब्दों में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकालियं पावइ से विणासं। अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे शब्द रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे रागातुरः हरिणमृग इव मुग्धः में अतृप्त बना हुआ रागातुर मुग्ध हरिण नामक सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चु ।। शब्दे अतृप्तः समुपैति मृत्युम्।। पशु" मृत्यु को प्राप्त होता है। ३८. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं यश्चापि दोषं समुपैति तीव्र जो मनोज्ञ शब्द में तीव्र द्वेष करता है, वह अपने तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। तस्मिन् क्षणे स तूपैति दुःखम्। दुर्दम दोष से उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है, दुइंतदोसेण सएण जंतू दुन्तिदोषेण स्वकेन जन्तुः शब्द उसका कोई अपराध नहीं करता। न किंचि सई अवरज्झई से।। न किंचिच्छब्दोऽपराध्यति तस्य।। ३६. एगंतरत्ते रुइरंसि सद्दे एकान्तरक्तो रुचिरे शब्दे जो मनोहर शब्द में एकान्त अनुरक्त होता है और अतालिसे से कुणई पओसं। अतादृशे स कुरुते प्रदोषम् । अमनोहर शब्द में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले दुःखस्य सम्पीडामुपैति बाल: दुःखात्मक पीड़ा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त न लिप्पई तेण मुणी विरागो।। न लिप्यते तेन मुनिर्विरागः।।। मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। ४०. सद्दाणुगासाणुगए य जीवे शब्दानुगाशानुगतश्च जीवः मनोहर शब्द की अभिलाषा के पीछे चलने वाला चराचरे हिंसइणेगरूवे। चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान्।। पुरुष अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा चित्तेहि ते परियावेइ बाले चित्रैस्तान् परितापयति बालः करता है। अपने प्रयोजन को प्रधान मानने वाला पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे।। पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः।। वह क्लेश-युक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार से उन चराचर जीवों को परितप्त और पीड़ित करता है। ४१. सद्दाणुवाएण परिग्गहेण शब्दानुपातेन परिग्रहेण शब्द में अनुराग और ममत्व का भाव होने के उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। उत्पादने रक्षणसन्नियोगे। कारण मनुष्य उसका उत्पादन, रक्षण और व्यापार वए विओगे य कहिं सुहं से? व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य? करता है। उसका व्यय और वियोग होता है, इन संभोगकाले य अतित्तिलाभे।। सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभः ।।। सबमें उसे सुख कहां है? और क्या, उसके उपभोग-काल में उसे अतृप्ति ही होती है। ४२. सद्दे अतित्ते य परिग्गहे य: शब्दे अतृप्तश्च परिग्रहे च जो शब्द में अतृप्त होता है, उसके परिग्रहण में सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेिं। सक्तोपसक्तो नापति तुष्टिम् । आसक्त-उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य । वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी और लोभग्रस्त लोभाविले आययई अदत्तं ।। लोभाविल आदत्ते अदत्तम् ।। होकर दूसरे की शब्दवान् वस्तुएं चुरा लेता है। ४३. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो । तृष्णाभिभूतस्य अदत्तहारिणः वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और सट्टे अतित्तस्स परिग्गहे य। शब्देऽतृप्तस्य परिग्रहे च। शब्द परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के मायामुसं वड्डइ लोभदोसा मायामृषा वद्धते लोभदोषात् कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है। माया-मृषा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।। तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः ।। का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। Jain Education Intemational Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४४. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले यदुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समायवती स अतितो दुहिओ अणिस्सो।। ४५. सद्दाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? । सत्थोवभोगे वि किलेसयुक् निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ।। ४६. एमेव सद्दम्मि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म जं से पुणो होइ दुहं विवागे ।। ४७. सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पए भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ।। ४८. घाणस्स गंधं गहणं वयंति तं रागहेतुं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहे अमणुष्णमाहु समोय जो तेसु स वीयरागो ।। ४६. गंधस्स घाणं गहणं वयंति घाणस्स गंधं गहणं वयंति । रागस्स हे समणुण्णमाहु दोसस्स हे अमणुष्णमाहु।। ५०. गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे ओसहिगंधगि सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ।। ५१. जे यावि दोस समुवे तिव्वं सिक्खणे से उ उ दुक्खं दुईतदोसेण सएण जंतू न किंचि गंध अवरजाई से ।। ५२. एगंतर रुईरसि गंधे अतालिसे से कुणई पओस दुक्खस्स संपीलमुवे बाले न लिप्यई तेण मुणी विरागो ।। ५५८ मृषा पश्चाच्च पुरस्ताच्च प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः। एवमदत्तानि समाददानः शब्दे अतृतो दुखितो निश्रः ।। शब्दानुरक्तस्य नरस्यैवं शब्द में अनुरक्त पुरुष को उक्त कथनानुसार कदाचित् कुतः सुखं भवेत् कदापि किंचित् ? । किंचित् सुख भी कहां से होगा ? जिस उपभोग के तत्रोपोगेऽपि क्लेशदुःखं लिए वह दुःख प्राप्त करता है, उस उपभोग में भी निर्वर्त्तयति यस्य कृते दुःखम् ।। क्लेश-दुःख ( अतृप्ति का दुःख) बना रहता है। एवमेव शब्द गतः प्रदोष उपेति दुःखीधपरम्पराः । प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म यत्तस्य पुनर्भवति दुखं विपाके ।। शब्दे विरक्तो मनुजो विशोकः एतेन दुःखीपपरम्परेण । न लिप्यते भवमध्ये ऽपि सन् जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् । घ्राणस्य गन्धं ग्रहणं वदन्ति तं रागहेतु तु मनोज्ञमाः। तं दोषहेतुममनोज्ञमाहुः समश्च यस्तेषु स वीतरागः।। गन्धस्य प्राणं ग्रहणं वदन्ति घ्राणस्य गन्धं ग्रहणं वदन्ति । रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहुः दोषस्य हेतुममनोशमाहुः ।। गन्धेषु यो गृखिमुपैति तीव्रां अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। रागातुर औषधिगन्धगृद्धः सर्पो बिलादिव निष्क्रामन् ।। यश्चापि दोष समुपैति तीव्र तस्मिन् क्षणेस तूपति दुःखम्। दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तुः न किंचिद् ग्रन्धो ऽपराध्यति तस्य ।। अध्ययन ३२ : श्लोक ४४-५२ असत्य बोलने के पश्चात्, पहले और बोलते समय वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय होता है। इस प्रकार वह शब्द में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। एकान्तरक्तो रुचिरे गन्धे अतादृशे स करोति प्रदोषम् । दुःखस्य सम्पीडामुपैति बालः न लिप्यते तेन मुनिविरागः ॥ इसी प्रकार जो शब्द में द्वेष रखता है, वह उत्तरोत्तर अनेक दुःखों को प्राप्त होता है। प्रद्वेषयुक्त चित्तवाला व्यक्ति कर्म का बन्ध करता है, वही परिणाम काल में उसके लिए दुःख का हेतु बनता है । शब्द से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रह कर अनेक दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता। गन्ध घ्राण का ग्राह्य विषय है । जो गन्ध राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्धों में समान रहता है, वह वीतराग होता है । प्राण गन्ध का ग्रहण करता है। गन्ध घ्राण का ग्राह्य है। जो गन्ध राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो मनोज्ञ गन्ध में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे नाग-दमनी आदि औषधियों" के गन्ध में गृद्ध बिल से निकलता हुआ रागातुर सर्प । जो अमनोज्ञ गन्ध में तीव्र द्वेष करता है, वह अपने दुर्दम दोष से उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। गन्ध उसका कोई अपराध नहीं करता । जो मनोहर गन्ध में एकान्त अनुरक्त होता है और अमनोहर गन्ध में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखात्मक पीड़ा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमादस्थान ५५९ अध्ययन ३२ : श्लोक ५३-६१ ५३. गंधाणुगासाणुगए च जीवे गन्धानुगाशानुगतश्च जीवः मनोज्ञ गन्ध की अभिलाषा के पीछे चलने वाला चराचरे हिंसइणेगरूवे। चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान्।। पुरुष अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा चित्तेहि ते परितावेइ बाले चित्रैस्तान् परितापयति बालः करता है। अपने प्रयोजन को प्रधान मानने वाला पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे।। पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः।। वह क्लेश-युक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार के उन चराचर जीवों को परितप्त और पीड़ित करता है। ५४. गंधाणुवाएण परिग्गहेण गन्धानुपातेन परिग्रहेण गन्ध में अनुराग और ममत्व का भाव होने के उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। उत्पादने रक्षणसन्नियोगे। कारण मनुष्य, उसका उत्पादन, रक्षण और व्यापार वए विओगे य कहिं सुहं से? व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य ? करता है। उसका व्यय और वियोग होता है। इन संभोगकाले य अतित्तिलाभे।। सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभः।। सबमें उसे सुख कहां है? और क्या, उसके उपभोग-काल में भी उसे अतृप्ति ही होती है। ५५. गंधे अतित्ते य परिग्गहे य गन्धे अतृप्तश्च परिग्रहे च जो गन्ध में अतृप्त होता है, उसके परिग्रहण में सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढिं। सक्तोपसक्तो नोपैति तुष्टिम्। आसक्त-उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी और लोभ-ग्रस्त लोभाविले आययई अदत्तं ।। लोभाविल आदत्ते अदत्तम् ।। होकर दूसरे की गन्धवान् वस्तुएं चुरा लेता है। ५६. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो तृष्णाभिभूतस्य अदत्तहारिणः वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और गंधे अतित्तस्स परिग्गहे य। गन्धे अतृप्तस्य परिग्रहे च। गन्ध-परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के मायामुसं वड्डइ लोभदोसा माया-मृषा वर्धते लोभदोषात् कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है। माया-मृषा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।। तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः।। का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। ५७. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य मृषा पश्चाच्च पुरस्ताच्च असत्य बोलने के पश्चात्, पहले और बोलते समय पओगकाले य दुही दुरंते। प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः।। वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय एवं अदत्ताणि समाययंतो एवमदत्तानि समाददानः होता है। इस प्रकार वह गन्ध से अतृप्त होकर चोरी गंधे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो।। गन्धे अतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः।। करता हुआ दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। ५८. गंधाणूरत्तस्स नरस्स एवं गन्धानरक्तस्य नरस्यैवं गन्ध में अनुरक्त पुरुष को उक्त कथनानुसार कदाचित् कत्तो सुह होज्ज कयाइ किंचि?। कतः सखं भवेत कदापि किंचिता? किचित् सुख भी कहां से होगा? जिस उपभोग के तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं लिए वह दुःख प्राप्त करता है, उस उपभोग में भी निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ।। निर्वर्त्तयति यस्य कृते दुःखम् ।।। क्लेश-दुःख (अतृप्ति का दुःख) बना रहता है। ५६. एमेव गंधम्मि गओ पओसं एवमेव गन्ध गतः प्रदोषं इसी प्रकार जो गन्ध में द्वेष रखता है, वह उत्तरोत्तर उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। उपैति दुःखौधपरम्पराः। अनेक दुःखों को प्राप्त होता है। प्रद्वेषयुक्त चित्त पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म वाला व्यक्ति कर्म का बन्ध करता है। वही परिणाम जं से पुणो होइ दुहं विवागे।। यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके।। काल में उसके लिए दुःख का हेतु बनता है। ६०. गंधे विरत्तो मणुओ विसोगो गन्धे विरक्तो मनुजो विशोकः गन्ध से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे एएण दुक्खोहपरंपरेण। एतेन दुःखौघपरम्परेण । कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही न लिप्पई भवमज्झे वि संतो न लिप्यते भवमध्येऽपि सन् वह संसार में रहकर अनेक दुःखों की परम्परा से जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ।। जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ।। लिप्त नहीं होता। ६१. जिहाए रसं गहणं वयंति जिहायाः रसं ग्रहणं वदन्ति रस रसना का ग्राह्य-विषय है। जो रस राग का तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः । हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो द्वेष का तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु तं दोषहेतुममनोज्ञमाहुः हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो समो य जो तेसु स वीयरागो।। समश्च यस्तेषु स वीतरागः।। मनोज्ञ और अमनोज्ञ रसों में समान रहता है, वह वीतराग होता है। Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५६० अध्ययन ३२ : श्लोक ६२-७० ६२. रसस्स जिब्भं गहणं वयंति रसस्य जिहां ग्रहणं वदन्ति रसना रस का ग्रहण करती है। रस रसना का ग्राह्य जिब्भाए रसं गहणं वयंति। जिहाया रसं ग्रहणं वदन्ति। है। जो रस राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा रागस्स हेउं समणुण्णमाहु रागस्य हेतु समनोज्ञमाहुः जाता है। जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु।। दोषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ।। कहा जाता है। ६३. रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं रसेषु यो गृद्धिमुपैति तीवां जो मनोज्ञ रसों में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकालियं पावइ से विणासं। अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे मांस रागाउरे बडिसविभिन्नकाए रागातुरो बडिशविभिन्नकायः खाने में गृद्ध बना हुआ रागातुर मत्स्य कांटे से मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे।। मत्स्यो यथा आमिषभोगगृद्धः।। बींधा जाता है। ६४. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं यश्चापि दोषं समुपैति तीव्र जो मनोज्ञ रस से तीव्र द्वेष करता है, वह अपने तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। तस्मिन् क्षणे स तूपैति दुःखम्। दुर्दम दोष से उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। रस दुइंतदोसेण सएण जंतू दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तुः उसका कोई अपराध नहीं करता। रसं न किंचि अवरज्झई से।। रसो न किंचिद् अपराध्यति तस्य।। ६५. एगंतरत्ते रुइरे रसम्मि एकान्तरक्तो रुचिरे रसे जो मनोहर रसों में एकान्त अनुरक्त रहता है और अतालिसे से कुणई पओसं। अतादृशे स करोति प्रदोषम्।। अमनोहर रस में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःखात्मक दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले दुःखस्य सम्पीडामुपैति बाल: पीड़ा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त मुनि उनमें न लिप्पई तेण मुणी विरागो।। न लिप्यते तेन मुनिर्विरागः।। लिप्त नहीं होता। ६६. रसाणुगासाणुगए य जीवे रसानुगाशानुगतश्च जीवः मनोहर रस की अभिलाषा के पीछे चलने वाला चराचरे हिंसइणेगरूवे। चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान्। पुरुष अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा चित्तेहि ते परितावेइ बाले चित्रैस्तान् परितापयति बालः करता है। अपने प्रयोजन को प्रधान मानने वाला पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिटूठे।। पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः।। वह क्लेशयुक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार के चराचर जीवों को परितप्त और पड़ित करता है। ६७. रसाणुवाएण परिग्गहेण रसानुपातेन परिग्रहेण रस में अनुराग और ममत्व का भाव होने के कारण उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। उत्पादने रक्षणसन्नियोगे। मनुष्य उसका उत्पादन, रक्षण और व्यापार करता वए विओगे य कहिं सहं से? व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य? है। उसका व्यय और वियोग होता है। इन सबमें संभोगकाले य अतित्तिलाभ।। सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभः।। उसे सुख कहा है? और क्या, उसके उपभोग-काल में भी उसे अतृप्ति ही होती है। ६८. रसे अतित्ते य परिग्गहे य रसे अतृप्तश्च परिग्रहे च जो रस में अतृप्त होता है और उसके परिग्रहण में सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेिं।। सक्तोपसक्तो नोपैति तुष्टिम्। आसक्त-उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी और लोभ-ग्रस्त लोभाविले आययई अदत्तं ।। लोभाविल आदत्ते अदत्तम्।। होकर दूसरे की रसवान् वस्तुएं चुरा लेता है। ६६. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो तृष्णाभिभूतस्य अदत्तहारिण: वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और रसे अतित्तस्स परिग्गहे य। रसे अतृप्तस्य परिग्रहे च। रस-परिग्रह में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के मायामुसं वड्डइ लोभदोसा मायामृषा वर्द्धते लोभदोषात् कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है। माया-मृषा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।। तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः ।। का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। ७०. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य मृषा पश्चाच्च परस्ताच्च पओगकाले य दुही दुरते। प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः।। एवं अदत्ताणि समाययंतो एवमदत्तानि समाददानः रसे अतित्तो दहिओ अणिस्सो।। रसे अतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः।। असत्य बोलने के पश्चात्, पहले और बोलते समय वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय होता है। इस प्रकार वह रस में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ दुःखी और आश्रय-हीन हो जाता है। Jain Education Intemational Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमादस्थान ५६१ अध्ययन ३२ : श्लोक ७१-७६ ७१. रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं रसानुरक्तस्य नरस्यैवं रस में अनुरक्त पुरुष को उक्त कथनानुसार कदाचित् कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?। कुतः सुखं भवेत् कदापि किंचित् ?/ किंचित् सुख भी कहां से होगा? जिस उपभोग के तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं लिए वह दुःख प्राप्त करता है, उस उपभोग में भी निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ?।। निर्वर्त्तयति यस्य कृते दुःखम्।। क्लेश-दुःख (अतृप्ति का दुःख) बना रहता है ७२. एमेव रसम्मि गओ पओसं एवमेव रसे गतः प्रदोषम् इसी प्रकार जो रस में द्वेष रखता है, वह उत्तरोत्तर उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। उपैति दुःखौघपरम्पराः। अनेक दुःखों को प्राप्त होता है। प्रद्वेष-युक्त चित्त पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म वाला व्यक्ति कम का बन्ध करता है। वही जं से पुणो होइ दुहं विवागे।। यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके।। परिणाम-काल में उसके लिए दुःख का हेतु बनता ७३. रसे विरत्तो मणुओ विसोगो रसे विरक्तो मनुजो विशोकः रस से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे एएण दुक्खोहपरंपरेण। एतेन दुःखौघपरम्परेण । कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही न लिप्पई भवमज्झे वि संतो न लिप्यते भवमध्येऽपि सन् वह संसार में रह कर अनेक दुःखों की परम्परा से जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।। जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ।। लिप्त नहीं होता। ७४. कायस्स फासं गहणं वयंति कायस्य स्पर्श ग्रहणं वदन्ति स्पर्श काय का ग्राह्य विषय है। जो स्पर्श राग का तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः । हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो द्वेष का तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु तं दोषहेतुममनोज्ञमाहुः हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो समो य जो तेसु स वीयरागो।। समश्च यस्तेषु स वीतरागः।।। मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शों में समान रहता है, वह वीतराग होता है। ७५. फासस्स कायं गहणं वयंति स्पर्शस्य कार्य ग्रहणं वदन्ति काय स्पर्श का ग्रहण करता है। स्पर्श काय का ग्राह्य कायस्स फासं गहणं वयंति। कायस्य स्पर्श ग्रहणं वदन्ति। है। जो स्पर्श राग का हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा रागस्स हेउं समणुण्णमाहु रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहुः जाता है। जो द्वेष का हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु।। दोषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ।। कहा जाता है। ७६. फासेस जो गिद्धिमवेड तिव्वं स्पशेषु यो गृद्धिमुपैति तीवा जो मनोज्ञ स्पर्शों में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकालियं पावइ से विणासं। अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे रागाउरे सीयजलावसन्ने रागातुरः शीतजलावसन्नः घड़ियाल के द्वारा पकड़ा हुआ, अरण्य-जलाशय के गाहग्गहीए महिसे वरण्णे।। ग्राहगृहीतो महिष इवारण्ये।। शीतल जल में स्पर्श में मग्न बना, रागातुर भैंसा। ७७.जे यावि दोसं समवेइ तिव्वं यश्चापि दोषं समुपैति तीव्र जो अमनोज्ञ स्पर्श में तीव्र द्वेष करता है, वह अपने तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। तस्मिन् क्षणे स तूपैति दुःखम् । दुर्दम दोष से. उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। दुइंतदोसेण सएण जंतु दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तु: । स्पर्श उसका कोई अपराध नहीं करता। न किंचि फासं अवरज्झई से।। न किंचित् स्पोऽपराध्यति तस्य।। ७८. एगंतरत्ते रुइरंसि फासे एकान्तरक्तो रुचिरे स्पर्श जो मनोहर स्पर्श में एकान्त अनुरक्त होता है और अतालिसे से कुणई पओसं। अतादृशे स करोति प्रदोषम्। अमनोहर स्पर्श से द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले दुःखस्य सम्पीडामुपैति बालः । दुःखात्मक पीड़ा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त न लिप्पई तेण मुणी विरागो।। न लिप्यते तेन मुनिर्विरागः।। मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। ७६. फासाणुगासाणुगए य जीवे स्पर्शानुगाशानुगतश्च जीवः चराचरे हिंसइणेगरूवे। चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान्। चित्तेहि ते परितावेइ बाले चित्रैस्तान् परितापयति बालः पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिटूठे।। पाडयत्यात्माथगुरुः क्लिष्टः।। मनोहर स्पर्श की अभिलाषा के पीछे चलने वाला पुरुष अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को प्रधान मानने वाला वह क्लेश-युक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार के उन चराचर जीवों को परितप्त और पीड़ित करता है। Jain Education Intemational Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५६२ अध्ययन ३२ : श्लोक ८०-८८ ८०. फासाणुवाएण परिग्गहेण स्पर्शानुपातेन परिग्रहेण स्पर्श में अनुराग और ममत्व का भाव होने के उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। उत्पादने रक्षणसन्नियोगे। कारण मनुष्य उसका उत्पादन, रक्षण और व्यापार वए विओगे य कहिं सुहं से? व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य? करता है। उसका व्यय और वियोग होता है। इन संभोगकाले य अतित्तिलाभे।। सम्भोगकाले चातृप्तिलाभः ।। सबमें उसे सुख कहां है? और क्या, उसके उपभोग-काल में भी उसे तृप्ति नहीं मिलती। ८१. फासे अतित्ते य परिग्गहे य स्पर्श अतृप्तश्च परिग्रहे च जो स्पर्श में अतृप्त होता है और उसके परिग्रहण में सत्तोवसत्तो न उवेई तुहिँ। सक्तोपसक्तो नोपैति तुष्टिम्। आसक्त-उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। अतुट्टिदोसेण दुही परस्स अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य वह असन्तुष्टि के दोष से दुःखी और लोभ-ग्रस्त लोभाविले आययई अदत्तं ।। लोभाविल आदत्ते अदत्तम् ।। होकर दूसरे की स्पर्शवान् वस्तुएं चुरा लेता है। ८२. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो तृष्णाभिभूतस्य अदत्तहारिणः वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और फासे अतित्तस्स परिग्गहे य। स्पर्शेऽतृप्तस्य परिग्रहे च। स्पर्श-परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के मायामुसं वड्डइ लोभदोसा मायामृषा वर्धते लोभदोषात् कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है। माया-मृषा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।। तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः।। का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। ८३. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य मृषा पश्चाच्च पुरस्ताच्च असत्य बोलने के पश्चात्, पहले और बोलते समय पओगकाले य दुही दुरंते। प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः। वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय एवं अदत्ताणि समाययंतो एवमदत्तानि समाददानः होता है। इस प्रकार वह स्पर्श में अतृप्त होकर फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो।। स्पर्श अतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः।। चोरी करता हुआ दुःखी और आश्रयहीन हो जाता ८४. फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं स्पर्शानुरक्तस्य नरस्यैवं स्पर्श में अनुरक्त पुरुष को उक्त कथनानुसार कदाचित् कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?। कुतः सुखं भवेत् कदापि किंचित् ? किंचित् सुख भी कहां से होगा? जिस उपभोग के तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुखं लिए वह दुःख प्राप्त करता है, उस उपभोग में भी निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ।। निर्वर्त्तयति यस्य कृते दुःखम् ।। क्लेश-दुःख (अतृप्ति का दुःख) बना रहता है। ८५. एमेव फासम्मि गओ पओसं एवमेव स्पर्श गतः प्रदोषम् इसी प्रकार जो स्पर्श में द्वेष रखता है, वह उत्तरोत्तर उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। उपैति दुःखौघपरम्पराः। अनेक दुःखों को प्राप्त होता है। प्रद्वेषयुक्त चित्त वाला पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म व्यक्ति कर्म का बन्ध करता है। वही परिणाम-काल जं से पुणो होइ दुहं विवागे।। यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके।। में उसके लिए दुःख का हेतु बनता है। ८६. फासे विरत्तो माओ विसोगो स्पर्श विरक्तो मनुजो विशोक: स्पर्श से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। एएण दुक्खोहपरंपरेण। एतेन दुःखौघपरम्परेण। जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे न लिप्पई भवमज्झे वि संतो न लिप्यते भवमध्येऽपि सन् ही वह संसार में रह कर अनेक दुःखों की परम्परा जलेण वा पोक्खरिणीपलासं।। जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ।। से लिप्त नहीं होता। ८७. मणस्स भावं गहणं वयंति मनसो भावं ग्रहणं वदन्ति भाव मन का ग्राह्य-विषय है। जो भाव राग का तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः। हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो द्वेष का तं दोसहेउं त अमणण्णमाह तं दोषहेतुममनोज्ञमाहुः हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो समो य जो तेसु स वीयरागो।। समश्च यस्तेषु स वीतरागः ।।। मनोज्ञ और अमनोज्ञ भावों में समान रहता है, वह वीतराग होता है। ५८. भावस्स मणं गहणं वयंति भावस्य मनो ग्रहणं वदन्ति मन भाव का ग्रहण करता है। भाव मन का ग्राह्य मणस्स भावं गहणं वयंति। मनसः भावं ग्रहणं वदन्ति। है। जो भाव राग का हेतु होता है उसे मनोज्ञ कहा रागस्स हेउं समणुण्णमाहु रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहु: जाता है। जो द्वेष का हेतु होता है उसे अमनोज्ञ दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु।। दोषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ।। कहा जाता है। Jain Education Intemational Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमादस्थान ५६३ अध्ययन ३२ : श्लोक ८६-६७ ८६. भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं भावेषु यो गृद्धिमुपैति तीवां जो मनोज्ञ भावों में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकालियं पावइ से विणासं। अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम्। अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, जैसे हथिनी रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे रागातुरः कामगुणेषु गृद्धः के पथ में आकृष्ट काम-गुणों में गृद्ध बना हुआ करेणुमग्गावहिए व नागे।। करेणुमार्गापहत इव नागः।। रागातुर हाथी। ६०. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं यश्चापि दोषं समुपैति तीव्र जो मनोज्ञ भाव में तीव्र द्वेष करता है, वह अपने तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। तस्मिन् क्षणे स तूपैति दुःखम्। दुर्दम दोष से उसी क्षण दुःख को प्राप्त होता है। दुइंतदोसेण सएण जंतू दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तुः भाव उसका कोई अपराध नहीं करता। न किंचि भावं अवरज्झई से।। न किंचिद् भावोऽपराध्यति तस्य ।। ६१. एगतरत्ते रुइरंसि भावे एकान्तरक्तो रुचिरे भावे जो मनोहर भाव में एकान्त अनुरक्त होता है और अतालिसे से कुणइ पओसं। अतादृशे स कुरुते प्रदोषम्।। अमनोहर भाव में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले दुःखस्य सम्पीडामुपैति वालः दुःखात्मक पीड़ा को प्राप्त होता है। इसलिए विरक्त न लिप्पई तेण मुणी विरागो।। न लिप्यते तेन मुनिर्विरागः।। मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। ६२. भावाणुगासाणुगए य जीवे भावानुगाशानुगतश्च जीवः मनोहर भाव की अभिलाषा के पीछे चलने वाला चराचरे हिंसइणेगरूवे। चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान्। पुरुष अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों को हिंसा चित्तेहि ते परितावेइ बाले चित्रैस्तान् परितापयति बालः करता है। अपने प्रयोजन को प्रधान मानने वाला पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिठे।। पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः।। वह क्लेश-युक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार के उन चराचर जीवों को परितप्त और पीड़ित करता है। ६३. भावाणुवाएण परिग्गहेण भावानुपातेन परिग्रहेण भाव में अनुरक्त और ममत्व का भाव होने के उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। उत्पादने रक्षणसन्नियोगे। कारण मनुष्य उसका उत्पादन, रक्षण और व्यापार वए विओगे य कहिं सुहं से? व्यय वियोगे च क्व सुखं तस्य ? करता है। उसका व्यय और वियोग होता है। इन संभोगकाले य अतित्तिलाभे।। सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभः।। सबमें उसे सुख कहां है? और क्या, उसके उपभोग-काल में भी उसे तृप्ति नहीं मिलती। ६४. भावे अतित्ते य परिग्गहे य भावे अतृप्तश्च परिग्रहे च जो भाव में अतृप्त होता है और उसके परिग्रहण में सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढिं। सक्तोपसक्तो नोपैति तुष्टिम् । आसक्त-उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स अतुष्टिदोषेण दु:खी परस्य । वह असन्तुष्टि के दोष से दुःखी और लोभ-ग्रस्त लोभाविले आययई अदत्तं ।। लोभाविल आदत्ते अदत्तम् ।। होकर दूसरे की वस्तुएं चुरा लेता है। ६५. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो तृष्णाभिभूतस्य अदत्तहारिणः वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और भावे अतित्तस्स परिग्गहे य। भावे अतृप्तश्च परिग्रहे च। भाव-परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के मायामुसं वडइ लोभदोसा मायामृषा वर्धते लोभदोषात् कारण उसके माया मृषा की वद्धि होती है। माया-मृषा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।। तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः।। का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। ६६. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य असत्य बोलेने के पश्चात्, पहले और बोलते समय पओगकाले य दुही दुरंते। प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः।। वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय एवं अदत्ताणि समाययंतो। एवमदत्तानि समाददानः होता है। इस प्रकार वह भाव में अतृप्त होकर चोरी भावे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो।। भावे अतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः।। करता हुआ दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। १७. भावाणरत्तस्स नरस्स एवं भावानुरक्तस्य नरस्यैवं भाव में अनुरक्त पुरुष को उक्त कथनानसार कदाचित कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि?। कुतः सुखं भवेत् कदापि किंचित् ? किंचित् सुख भी कहां से होगा ? जिस उपभोग के तत्थोवभोगे वि किलेसदक्खं तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं लिए वह दुःख प्राप्त करता है, उस उपभोग में भी निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ।। निवर्तयति यस्य कृते दुःखम् ।। क्लेश-दुःख (अतृप्ति का दुःख) बना रहता है। पात Jain Education Intemational Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५६४ अध्ययन ३२ : श्लोक ६८-१०६ ६८. एमेव भावम्मि गओ पओसं एवमेव भावे गतः प्रदोषम् इसी प्रकार जो भाव में द्वेष रखता है, वह उत्तरोत्तर उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। उपैति दुःखौघपरम्पराः । अनेक दुःखों को प्राप्त होता है। प्रद्वेष-युक्त चित्त पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म वाला व्यक्ति कर्म का बन्ध करता है, वही जं से पुणो होइ दुहं विवागे।। यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके।। परिणाम-काल में उसके लिए दुःख का हेतु बनता ६६. भावे विरत्तो मणुओ विसोगे भावे विरक्तो मनुजो विशोकः भाव में विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे एएण दुक्खोहपरंपरेण। एतेन दुःखौघपरम्परेण । कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही न लिप्पई भवमज्झे वि संतो न लिप्यते भवमध्ये ऽपि सन् वह संसार में रह कर अनेक दुःखों की परम्परा से जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ।। जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ।। लिप्त नहीं होता। १००. एविदियत्था य मणस्स अत्था एवमिन्द्रियार्थाश्च मनसोऽर्थाः इस प्रकार इन्द्रिय और मन के विषय रागी मनुष्य दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो। दुःखस्य हेतवो मनुजस्य रागिणः। के लिए दुःख के हेतु होते हैं। वे वीतराग के लिए ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं ते चैव स्तोकमपि कदापि दुःखं कभी किंचित् भी दुःखदायी नहीं होते। न वीयरागस्स करेंति किंचि।। न वीतरागस्य कुर्वन्ति किंचित् ।। १०१.न कामभोगा समयं उति न कामभोगाः समतामुपयन्ति काम-भोग समता के हेतु भी नहीं होते और विकार न यावि भोगा विगई उति। न चापि भोगा विकृतिमुपयन्ति। के हेतु भी नहीं होते। जो पुरुष उनके प्रति द्वेष या जे तप्पओसी य परिग्गही य यस्तत्प्रदोषी च परिग्रही च राग करता है, वह तद्विषयक मोह के कारण सो तेसु मोहा विगई उवेइ।। स तेषु मोहाद् विकृतिमुपैति।। विकार को प्राप्त होता है। १०२. कोहं च माणं च तहेव मायं क्रोधं च मानं च तथैव मायां जो काम-गुणों में आसक्त होता है, वह क्रोध, मान, लोहं दुगुंछ अरई रइं च।। लोभ जुगुप्सामरति रतिं च। माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, हासं भयं सोगपुमित्थिवेयं हासं भयं शोकपुंस्त्रीवेदं शोक, पुरुष-वेद, स्त्री-वेद, नपुंसक-वेद तथा हर्ष, नपुंसवेयं विविहे य भावे ।। नपुंसकवेदं विविधांश्च भावान् ।। विषाद आदि विविध भावों को१०३. आवज्जई एवमणेगरूवे आपद्यते एवमनेकरूपान् इसी प्रकार अनेक प्रकार के विकारों को और उनसे एवंविहे कामगुणेसु सत्तो। एवं विधान् कामगुणेषु सक्तः ।। उत्पन्न अन्य परिणामों को प्राप्त होता है और वह अन्ने य एयप्पभवे विसेसे अन्यांश्चैतत् प्रभवान् विशेषान् करुणास्पद, दीन, लज्जित और अप्रिय बन जाता कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से।। कारुण्यदीनो हीमान् द्वेष्यः।।। १०४. कप्पं न इच्छिज्ज सहायलिच्छू कल्पं नेच्छेत् सहायलिप्सुः 'यह मेरी शारीरिक सेवा करेगा'—इस लिप्सा से पच्छाणुतावे य तवप्पभावं ।। पश्चात्तापश्च तपःप्रभावम् । कल्प (योग्य शिष्य) की भी इच्छा न करे। तपस्या के एवं वियारे अमियप्पयारे एवं विकारानमितप्रकारान् प्रभाव (लब्धि आदि) की इच्छा न करे और तप का आवज्जई इंदियचोरवस्से ।। आपद्यते इन्द्रियचोरवश्यः।। प्रभाव न होने पर पश्चात्ताप न करे। जो ऐसी इच्छा करता है वह इन्द्रियरूपी चोरों का वशवर्ती बना हुआ अपरिमित प्रकार के विकारों को प्राप्त होता है। १०५. तओ से जायंति पओयणाई ततस्तस्य जायन्ते प्रयोजनानि निमज्जिउं मोहमहण्णवम्मि। निमज्जितुं मोहमहार्णवे। सुहेसिणो दुक्खविणोयणट्ठा सुखैषिणो दुःखविनोदनार्थ तपच्चयं उज्जमए य रागी।। तत्प्रत्ययमुद्यच्छति च रागी।। विकारों की प्राप्ति के पश्चात् उसके समक्ष उसे मोह-महार्णव में डुबोने वाले विषय-सेवन के प्रयोजन उपस्थित होते हैं। फिर वह सुख की प्राप्ति और दुःख के विनाश के लिए अनुरक्त बनकर उन प्रयोजनों की पूर्ति के लिए उद्यम करता है। जितने प्रकार के शब्द आदि इन्द्रिय-विषय हैं, वे सब विरक्त मनुष्य के मन में मनोज्ञता या अमनोज्ञता उत्पन्न नहीं करते। १०६ . विरज्जमाणस्स य इंदियत्था विरज्यमानस्य चेन्द्रियार्थाः सद्दाइया तावइयप्पगारा। शब्दाद्यास्तावत्प्रकाराः। न तस्स सब्बे वि मणुण्णयं वा न तस्य सर्वेऽपि मनोज्ञतां वा निव्वत्तयंती अमणुण्णयं वा।। निर्वतयन्ति अमनोज्ञतां वा।। Jain Education Intemational Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमादस्थान ५६५ अध्ययन ३२ : श्लोक १०७-१११ १०७. एवं ससंकप्पविकप्पणासो एवं स्व-संकल्प-विकल्पनाशः.. इस प्रकार जो समता को प्राप्त हो जाता है, उसके संजायई समयमुवट्ठियस्स। संजायते समतामुपस्थितस्य। संकल्प और विकल्प नष्ट हो जाते हैं। जो अर्थोंअत्थे असंकप्पयतो तओ से अर्थान् असंकल्पयतस्ततस्तस्य । इन्द्रिय-विषयों का संकल्प नहीं करता, उसके कामगुणों पहीयए कामगुणेसु तण्हा।। प्रहीयते कामगुणेषु तृष्णा।। में होने वाली तृष्णा प्रक्षीण हो जाती है। १०८.स वीयरागो कयसव्वकिच्चो स वीतरागः कृतसर्वकृत्यः खवेइ नाणावरणं खणेणं। क्षपयति ज्ञानावरणं क्षणेन। तहेव जं दंसणमावरेइ तथैव यत् दर्शनमावृणोति जं चंतरायं पकरेइ कम्म।। यदन्तरायं प्रकरोति कर्म।। फिर वह वीतराग सब दिशाओं में कृतकृत्य होकर क्षण भर में ज्ञानावरण को क्षीण कर देता है। उसी प्रकार जो कर्म दर्शन का आवरण करता है और जो कर्म अन्तराय (विध्न) करता है, उस दर्शनावरण और अंतराय कर्म को क्षीण कर देता है। १०६. सव्वं तओ जाणइ पासए य सर्वं ततो जानाति पश्यति च अमोहणे होइ निरंतराए। अमोहनो भवति निरन्तरायः। अणासवे झाणसमाहिजुत्ते अनाश्रवा ध्यानसमाधयुक्तः आउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्धे ।। आयुःक्षये मोक्षमुपैति शुद्धः ।।। तत्पश्चात् वह सब कुछ जानता और देखता है तथा मोह और अन्तराय रहित हो जाता है। अन्त में वह आश्रव रहित और ध्यान के द्वारा समाधि में लीन और शुद्ध होकर आयुष्य का क्षय होते ही मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। ११०.सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को स तस्मात् सर्वस्मात् दुःखाद् मुक्तः जो इस जीव को निरन्तर पीड़ित करता है, उस जं बाहई सययं जंतुमेयं। यद् बाधते सततं जन्तुमेनम्। अशेष दुःख और दीर्घकालीन कर्म-रोग से वह मुक्त दीहामयविप्पमुक्को पसत्थो दीर्घामयविप्रमुक्तः प्रशस्तः हो जाता है। इसलिए वह प्रशंसनीय, अत्यन्त सुखी तो होइ अच्चंतसुही कयत्थो।। ततो भवत्यत्यन्तसुखी कृतार्थः।। और कृतार्थ हो जाता है। १११.अणाइकालप्पभवस्स एसो मैंने अनादिकालीन सब दुःखों से मुक्त होने का मार्ग सव्वस्स दुक्खस्स पमोक्खमग्गो। सर्वस्य दुःखस्य प्रमोक्षमार्गः। बताया है, उसे स्वीकार कर जीव क्रमशः अत्यंत वियाहिओ जं समुविच्च सत्ता व्याख्यातः यं समुपेत्य सत्त्वाः सुखी हो जाते हैं। कमेण अच्चंतसुही भवंति।। क्रमेण अत्यन्तसुखिनो भवन्ति ।। –त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। ----ऐसा मैं कहता हूं। Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन ३२ : प्रमादस्थान १. (अच्चंतकालस्स समूलगस्स) ६. अकेला ही विहार करे (एक्को वि....विहरेज्ज) अन्त का अर्थ है 'छोर'। वस्तु के दो छोर होते हैं- सामान्य स्थिति में मुनि के लिए एकलविहार विहित नहीं आरम्भ और समाप्ति। यहां आरम्भ क्षण का ग्रहण किया गया है। स्थानांग में एकलविहार करने वाले की योग्यता का निर्देश है। इसका शब्दार्थ है-जिनका आरम्भ न हो वैसा काल है।' निर्दिष्ट योग्यता वाला मुनि ही आचार्य की अनुमति प्राप्त अर्थात् अनादि-काल। कर एकलविहार प्रतिमा को स्वीकार कर सकता है। प्रस्तुत 'समूलगस्स' का अर्थ है-मूल-सहित। दुःख का मूल श्लोक में एकलविहार प्रतिमा का प्रतिपादन नहीं है। इसमें कषाय और अविरति है। इसलिए उसे 'समूलक' अर्थात् आपवादिक स्थिति का उल्लेख है। यदि ऐसी स्थिति आ जाए कषाय-अविरति मूलक कहा गया है। कि अपने से अधिक गुणवाला और समान गुणवाला कोई मुनि २. अज्ञान और मोह का (अण्णाण मोहस्स) न मिले, उस अवस्था में मुनि अकेला रहता हुआ अपनी अज्ञान और मोह में एक आन्तरिक संबंध है। ज्ञान मोह साधना करे। के कारण ही अज्ञान बनता है। ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम वृत्तिकार का कथन है कि यह विधान गीतार्थ मुनि के ज्ञान और अज्ञान-दोनों में होता है। जिस ज्ञान के साथ लिए है। दर्शनमोह के परमाणुओं का प्रवाह मिल जाता है वह ज्ञान ७. मोह.... (मोह....) अज्ञान बन जाता है। उससे तत्त्वश्रद्धा विपरीत हो जाती है। मोह का शाब्दिक अर्थ है----मूर्छा, मूढता, चैतन्य की ज्ञान को अज्ञान बनाने वाला दर्शनमोह है। उसका विलय मोक्ष विकृति। प्रवचनसार में मोह के तीन चिन्ह बतलाए गए हैंका पहला सोपान है। (१) तत्त्व का अयथार्थ ग्रहण, (२) तिर्यञ्च और मनुष्य में होने ३. गुरु और वृद्धों की (गुरुविद्ध) वाली करुणा, (३) विषय का प्रसंग। क्रोध, मान आदि मोह के गुरु का अर्थ है 'शास्त्र को यथावत् बताने वाला'। वृद्ध प्रकार हैं। उन सबके समूह का नाम मोह है। तीन प्रकार के होते हैं (१) श्रुत-वृद्ध, (२) पर्याय-वृद्ध और ८. (श्लोक ७) (३) वयो-वृद्ध । प्रस्तुत श्लोक में जन्म और मरण को दुःख कहा गया ४. धैर्य (धिई) है। इसका सामान्य अर्थ है कि जन्म और मरण एक चक्र है। धति का अर्थ है....मन का नियमन करने वाली शक्ति। वह निरंतर चलता रहता है। उसमें अनेक दुःख भोगे जाते हैं, आयुर्वेद में यही अर्थ प्राप्त है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ चित्त इस अपेक्षा से जन्म-मरण दुःख है। की स्वस्थता, चित्त की अनुद्विघ्नता किया है। प्रस्तुत सूत्र में वृत्तिकार ने दुःख की व्याख्या को एक नया आयाम दिया निगमन है कि चित्त की स्वस्थता के बिना ज्ञान का लाभ नहीं है। उनके अनुसार जन्म और मृत्यु के क्षण दुःखद होते हैं। उन हो सकता। कहा है-'स्वस्थे चित्ते बुद्धयः प्रस्फुरन्ति' । क्षणों में प्राणी संतप्त होता है, तनाव से भर जाता है। उस तनाव ५. (श्लोक ५) के कारण अपने जन्म की स्मृति को विसार देता है। उस तनाव मिलाइए—दशवैकालिक चूलिका, २।१०। की अपेक्षा से ही जन्म और मरण को दुःख कहा गया है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२१: अन्तमतिक्रान्तोऽत्यन्तो,....अनादिः कालो ६. बृहत्ति , पत्र ६२३ : ....तथाविधगीतार्थ यतिविषयं चैतद्, यस्य सोऽयमत्यन्तकालस्तस्य। अन्यथैकाकिविहारस्यागमे निषिद्रत्वात्। २. वही, पत्र ६२१ : सह मूलेन—कषायाविरतिरूपेण वर्त्तत इति समूलकः ७. प्रवचनसार ८५ : (कः) प्राग्वत्तस्य, उक्तं हि-“मूलं संसारस्स उ हुंति कसाया अविरती अढे अजदागहणं करुणाभावो य तिरियमणुएसु। य।" विसएसु च पसंगो, मोहस्सेदाणि लिंगाणि ।। ३. बही, पत्र ६२२ : गुरबो-यथावच्छास्त्रभिधायका वृद्धाश्च- ८. धवला १२।४।२।८ : क्रोध मानमायालोभहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीश्रुतपर्यायादिवृद्धाः। पुनपुंसकवेदमिथ्यात्वानां समूहो मोहः । ४. वही, पत्र ६२२ : धृतिश्च चित्तस्वास्थ्यमनुद्विग्नत्यमित्यर्थः । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२४ : जातिमरणस्यैवातिशयदुःखोत्पादकत्वात्, उक्तं हि५. ठाणं, ८11 मरमाणस्स जं दुक्खं, जायमाणस्स जंतुणो। तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरति जातिमप्पणो।। Jain Education Intemational Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमादस्थान ५६७ अध्ययन ३२ : श्लोक ८-१०४ टि० ६-१८ ९. (श्लोक ८) चक्षु और रूप-इन दोनों में ग्राह्य-ग्राहक भाव है। रूप है मोह चेतना की मूर्छा है। वह तृष्णा—प्यास, अविरति ग्राह्य और चक्षु है ग्राहक। इससे यह स्पष्ट होता है कि उत्पन्न करता है। तृष्णा लोभ-पदार्थ संग्रह की वृत्ति को राग-द्वेष की उत्पत्ति में दोनों का सहकारी भाव है। जैसे रूप उत्पन्न करती है। उससे प्रेरित व्यक्ति पदार्थ का संग्रह करता राग-द्वेष का कारण है वैसे ही चक्षु भी राग-द्वेष का कारण है। है। यह एक चक्रक है। इसको वही तोड़ सकता है जो सबसे प्रस्तुत श्लोक में मनोज्ञ के स्थान पर 'समनोज्ञ' का पहले मोह पर प्रहार करता है। मोह के टूटते ही तृष्णा टूट प्रयोग किया गया है-समणुन्नमाहु। वृत्तिकार ने इसकी जाती है। तृष्णा के टूटते ही लोभ टूट जाता है। और लोभ के अर्थ-संगति करने का प्रयास किया है। टूटते ही व्यक्ति पदार्थ-संग्रह से विरत हो जाता है, अकिंचन हो ईर्ष्या, रोष, द्वेष—ये सारे द्वेष के पर्याय हैं। जिस अमनोज्ञ जाता है। रूप के प्रति ईर्ष्या, रोष होता है वह सारा द्वेष ही है। १०. (श्लोक १०) १३. आसक्ति (गिद्धि....) इस श्लोक में बताया गया है कि ब्रह्मचारी को घी, दूध, वृत्तिकार ने गृद्धि का अर्थ राग किया है तथा 'वाचक' दही आदि रसों का अतिमात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए। प्रवर का एक श्लोक उद्धृत कर राग के पर्यायवाची शब्दों का यहां रस-सेवन का आत्यन्तिक निषेध नहीं है, किन्तु अतिमात्रा उल्लेख किया है। राग के पर्यायवाची ये हैं---इच्छा, मूर्छा, में उनके सेवन का निषेध है। काम, स्नेह, गार्थ्य, ममत्व, अभिनन्द, अभिलाष आदि। जैन आगम भोजन के सम्बन्ध में ब्रह्मचारी को जो १४. (मिगे) निर्देश देते हैं, उनमें दो ये हैं ‘मृग' शब्द के अनेक अर्थ हैं—पशु, मृगशीर्ष नक्षत्र, (१) वह रसों को अतिमात्रा में न खाए और हाथी की एक जाति, कुरंग आदि। यहां मृग का अर्थ 'पशु' (२) वह रसों को बार-बार या प्रतिदिन न खाए। इसका फलित यह है कि वह वायु आदि के क्षोभ का १५. औषधियों (ओसहि) निवारण करने के लिए रसों का सेवन कर सकता है। वृत्तिकार ने औषधि को 'नागदमनी' आदि औषधियों का अकारण उनका सेवन नहीं कर सकता। सूचक माना है। ___ एक मनि ने अपने प्रश्नकर्ता को यही बताया था-"में १६. भाव मन का (मणस्स भाव) अति आहार नहीं करता हूं, अतिस्निग्ध आहार से विषय कर्म के उदय अथवा क्षयोपशम से निष्पन्न चित्त की उद्दीप्त होते हैं, इसलिए उनका भी सेवन नहीं करता हूं। अवस्था का नाम है भाव। मनोवर्गणा के आलंबन से किया संयमी-जीवन की यात्रा चलाने के लिए खाता हूं, वह भी जाने वाला चित्त का व्यापार है-मन। जाने अतिमात्रा में नहीं खाता।"" १७. इन्द्रिय रूपी चोरों का (इंदिय चोर.....) दूध आदि का सर्वथा सेवन न करने से शरीर शुष्क हो जाता है, बल घटता है और ज्ञान, ध्यान या स्वाध्याय की इन्द्रियां ज्ञान के स्रोत हैं। ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण यथेष्ट प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उनका प्रतिदिन व अतिमात्रा में के क्षायोपशमिक भाव हैं। उन्हें चोर सापेक्षदृष्टि से कहा गया सेवन करने से विषय की वृद्धि होती है, इसलिए आचार्य को है। जब वे राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति में लिप्त हो जाती हैं तब मनुष्य का धर्मरूपी सर्वस्व छिन जाता है। इस अपेक्षा से उन्हें चाहिए कि वह अपने शिष्य को कभी स्निग्ध और कभी रूखा चोर कहा गया है। आहार दे। १८. विकारों को.....(वियारे....) ११. (खड्डुए) यह देशी थातु है। इसका अर्थ है-अन्त करना। ___ 'वियार' के संस्कृत रूप दो बन सकते हैं—विकार और विचार। इन्द्रियवशवर्ती मनुष्य नाना प्रकार के विकारों अथवा १२. (श्लोक २३) नाना प्रकार के विचारों को प्राप्त होता है। चक्षु रूप का ग्रहण करता है। चक्षु का विषय है रूप। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२५ : 'रसाः' क्षीरादिविकृतयः 'प्रकामम्' अत्यर्थ 'न ४. वही, पत्र ६३० : गुद्धि-गाय रागमित्यर्थः। उक्तं हि वाचकैः निषेवितव्याः' नोपभोक्तव्याः, प्रकामग्रहणं तु वातादिक्षोभनिवारणाय इच्छा मूर्छा कामः स्नेहो गाय ममत्वमभिनन्दः । रसा अपि निषेवितव्या एव, निष्कारणनिषेवणस्य तु निषेध इति ख्यापनार्थम् अभिलाष इत्यनेकानि रागपर्यायवचनानि।। उक्तं च ५. वही, पत्र ६३४ : मृगः सर्वोऽपि पशुरुच्यते, युक्तम्-"मृगशीर्षे "अच्चाहारो न सहे, अतिनिद्रेण विसया उदिज्जति। हस्तिजाती, मृगः पशुकुरगयोः।" जायामायाहारो, तंपि पगाम ण भुंजामि।।" ६. वही, पत्र ६३४ : तथौषधयो-नागदमन्यादिकाः। २. वही, पत्र ६२८ : खुदति-आर्षत्वात् क्षोदयन्ति–विनाशयन्ति। ७. वही, पत्र ६३६ : इंद्रियाणि चीरा इव धर्मसर्वस्वापहरणाद् इन्द्रियचौराः। ३. वही, पत्र ६३०। Jain Education Intemational Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५६८ अध्ययन ३२ : श्लोक १०७ टि० १६ १९. (श्लोक १०७) संकल्प-विकल्प का नाश होता चला जाता है। इन्द्रियों के महावीर की साधना का महत्त्वपूर्ण सूत्र है-समता, अर्थों-विषयों का संकल्प-विकल्प नहीं होता, उस अवस्था में इन्द्रियों के मनोज्ञ और अमनोज्ञ विषयों के प्रति राग-द्वेष न कामगुण विषयक तृष्णा अपने आप क्षीण हो जाती है। संकल्प करने का अभ्यास। समता की साधना के बिना ध्यान भी और विकल्प तृष्णा का पोषण देते हैं। जैसे ही उनका पोषण सफल नहीं होता। ध्यानकाल में वीतराग की स्थिति का-सा बन्द होता है, तृष्णा अपने-आप प्रतनु बन जाती है। अनुभव होता है। ध्यान संपन्न करने पर इन्द्रियों के विषय वृत्तिकार ने 'समय' शब्द के दो संस्कृत रूप ओर दिए सामने आते हैं। तब राग-द्वेष के संकल्प और विकल्प उभरते हैं-'समकं'–एक साथ और 'समय'-सिद्धान्त। किन्तु ये हैं। समता की साधना जैसे-जैसे आगे बढ़ती है वैसे-वैसे यहां प्रासंगिक नहीं है। Jain Education Intemational Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसइमं अज्झयणं कम्मपयडी तेतीसवां अध्ययन कर्मप्रकृति Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख इसलिए इस शब्द भारत सभी दर्शना अस्वीकार इस अध्ययन में कर्म की प्रकृतियों का निरूपण है, ३. वेदनीय दो प्रकार का है-(१) सात वेदनीय और । इसलिए इसका नाम 'कम्मपयडी'-'कर्मप्रकृति' है। (२) असात वेदनीय। _ 'कर्म' शब्द भारतीय दर्शन का बहुत परिचित शब्द है। ४. मोहनीय दो प्रकार का हैजैन, बौद्ध और वैदिक-सभी दर्शनों ने इसे मान्यता दी है। (१) दर्शन मोहनीय। इसके तीन भेद हैं सम्यक्त्व यह क्रिया की प्रतिक्रिया है, अतः इसे अस्वीकार भी नहीं किया मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय और सम्यक् मिथ्यात्व मोहनीय। जा सकता। वैदिक आदि दर्शन कर्म को संस्कार रूप में (२) चारित्र मोहनीय। यह दो प्रकार का है-कषाय स्वीकार करते हैं। जैन-दर्शन की व्याख्या उनसे विलक्षण है। मोहनीय और नो-कषाय मोहनीय। उसके अनुसार कर्म पौद्गलिक है। जब-जब जीव शुभ या कषाय मोहनीय १६ प्रकार का हैअशुभ प्रवृत्ति में प्रवृत्त होता है तब-तब वह अपनी प्रवृत्ति से अनन्तानुबन्धी चतुष्क- क्रोध, मान, माया, लोभ । पुद्गलों का आकर्षण करता है। वे आकृष्ट पुद्गल आत्मा के अप्रत्याख्यान चतुष्क- क्रोध, मान, माया, लोभ । परिपार्श्व में अपने विशिष्ट रूप और शक्ति का निर्माण करते प्रत्याख्यान चतुष्क- क्रोध, मान, माया, लोभ । हैं। उन्हें कर्म कहा जाता है। संज्चलन चतुष्क- क्रोध, मान, माया, लोभ । कर्म की मूल प्रवृत्तियां आठ हैं नो-कषाय मोहनीय नौ प्रकार का है१. ज्ञानावरण-जो पुद्गल ज्ञान को आवृत करते हैं। हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, पुंवेद, स्त्री वेद, २. दर्शनावरण-जो पुद्गल दर्शन को आवृत करते नपुंसक वेद। ५. आयुष्य चार प्रकार का है-नैरयिक आयु, तिर्यग् ३. वेदनीय-जो पुद्गल सुख-दुःख के हेतु बनते हैं। आयु, मनुष्य आयु और देव आयु। ४. मोहनीय-जो पुद्गल दृष्टिकोण ओर चारित्र में ६. नाम दो प्रकार का है--शुभ और अशुभ। विकार उत्पन्न करते हैं।। इन दोनों के अनेक अवान्तर भेद हैं। आयुष्य-जो पुद्गल जीवन-काल को निष्पन्न करते ७. गोत्र दो प्रकार का है—उच्च गोत्र और नीच गोत्र। उच्च गोत्र-कर्म के आठ भेद हैं६. नाम-जो पुद्गल शरीर आदि विविध रूपों की (१) प्रशस्त जाति, (५) प्रशस्त तपस्या, प्राप्ति के हेतु होते हैं। (२) प्रशस्त कुल, (६) प्रशस्त श्रुत (ज्ञान), ७. गोत्र-जो पुद्गल उच्चता या नीचता की अनुभूति (३) प्रशस्त बल, (७) प्रशस्त लाभ, में हेतु होते हैं। (४) प्रशस्त रूप, (८) प्रशस्त ऐश्वर्य । ८. अन्तराय—जो पुद्गल शक्ति-विकास में बाधक होते नीच गोत्र-कर्म के आठ भेद हैं (१) अप्रशस्त जाति, (५) अप्रशस्त तपस्या, १. ज्ञानावरण पांच प्रकार का है--- (२) अप्रशस्त कुल, (६) अप्रशस्त श्रुत (ज्ञान), (१) आभिनिवोधिक (मति) ज्ञानावरण, (३) अप्रशस्त बल, (७) अप्रशस्त लाभ, (२) श्रुतज्ञानावरण, (४) अप्रशस्त रूप, (८) अप्रशस्त ऐश्वर्य। (३) आवधि ज्ञानावरण, ८. अन्तराय-कर्म पांच प्रकार का है-दानान्तराय, (४) मनःपर्यव ज्ञानावरण लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय। (५) केवल ज्ञानावरण। १. कर्मों की प्रकृति २. दर्शनावरण नौ प्रकार का है ___ कर्म की मूल प्रकृतियां उपर्युक्त आठ ही हैं। शेष सब (१) निद्रा, (६) चक्षुदर्शनावरण, उनकी उत्तर प्रकृतियां हैं। इनका विस्तृत वर्णन प्रज्ञापना (पद (२) प्रचला, (७) अचक्षुदर्शनावरण, २३) में है। (३) निद्रा-निद्रा, (८) अवधिदर्शनावरण, २. कर्मों की स्थिति(४) प्रचला-प्रचला, (६) केवलदर्शनावरण। प्रत्येक कर्म की स्थिति होती है। स्थिति-काल के पूर्ण (५) स्त्यानद्धि, होने पर वह कर्म नष्ट हो जाता है। कई निमित्तों में स्थिति Jain Education Intemational Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृति ५७१ अध्ययन ३३ : आमुख न्यून या अधिक भी होती है। ३. कर्मों का अनुभाव (१) ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्म के विपाक को अनुभाग, अनुभाव, फल या रस कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस क्रोडाक्रोड सागर और जघन्य कहा जाता है। विपाक दो प्रकार का है तीव्र और मन्द । तीव्र स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। परिणामों से बन्धे हुए कर्म का विपाक तीव्र तथा मन्द परिणामों (२) मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० क्रोडाक्रोड से बन्धे हुए कर्म का विपाक मन्द होता है। विशेष प्रयत्न के सागर तथा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। द्वारा तीव्र मन्द और मन्द तीव्र हो जाता है। (३) आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागर तथा ४. कर्मों का प्रदेशाग्र जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। कर्म प्रायोग्य पुद्गल जीव की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति के (४) नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति २० द्वारा आकृष्ट होकर आत्मा के प्रदेशों के साथ चिपक जाते हैं। क्रोडाक्रोड सागर तथा जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त की है। कर्म अनन्त-प्रदेशी पुद्गल-स्कन्ध होते हैं और आत्मा के असंख्य प्रदेशों के साथ एकीभाव हो जाते हैं। Jain Education Intemational Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. नाणस्सावरणिज्जं ३. ४. मूल अट्ठ कम्माइं वोच्छामि आणुपुवि जहक्कमं। जेहिं बद्धो अयं जीवो संसारे परिवत्तए । । दंसणावरणं तहा। वेयणिज्जं तहा मोहं आउकम्मं तहेव य ।। ८. नामकम्मं च गोयं च अंतरायं तहेव य । एवमेवाइ कम्माई अट्ठेव उ समासओ ।। नाणावरणं पंचविहं सुयं आभिणिबोहियं । ओहिनाणं तइयं मणनाणं च केवलं ।। ५. निद्दा तहेव पयला तेतीसइमं अज्झयणं तेतीसवां अध्ययन कम्मपयडी : कर्मप्रकृति निद्दानिद्दा य पयलपयला य । तत्तो य थीणगिद्धी उ पंचमा होइ नायव्वा ।। ६. चक्खुमचक्खु ओहिस्स दंसणे केवले य आवरणे । एवं तु नवविगणं नायव्वं दंसणावरणं ।। ७. वेयणीयं पिय दुविहं सायमसायं च आहियं । सायरस उ बहू भेया एमेव असायस्स वि ।। मोहणिज्जं पि दुविहं दंसणे चरणे तहा। दंसणे तिविहं वृत्तं चरणे दुविहं भवे ।। संस्कृत छाया अष्ट कर्माणि वक्ष्यामि आनुपूर्व्या यथाक्रमम्। यैर्बद्धोऽयं जीवः संसारे परिवर्तते ।। ज्ञानस्यावरणीयं दर्शनावरणं तथा । वेदनीयं तथा मोह: आयुः कर्म तथैव च ।। नामकर्म च गोत्रं च अन्तरायस्तथैव च । एवमेतानि कर्माणि अष्टैव तु समासतः ।। ज्ञानावरणं पंचविधं श्रुतमाभिनिषाधिक अवधिज्ञान तृतीय मनोज्ञानं च केवलम् ।। निद्रा तथैव प्रचला निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला च । ततश्च स्त्यानगृद्धिस्तु पंचमी भवति ज्ञातव्या ।। चक्षुरचक्षुरखये: दर्शने केवले चावरणे । एवं तु नवविकल्पं ज्ञातव्यं दर्शनावरणम् ।। वेदनीयमपि च द्विविधं सातमसातं चाख्यातम् । सातस्य तु बहवो भेदाः एवमेव असातस्यापि ।। मोहनीयमपि द्विविधं दर्शने चरणे तथा । दर्शने विधिमुक्त चरणे द्विविधं भवेत् ।। हिन्दी अनुवाद मैं अनुपूर्वी से क्रमानुसार (पूर्वानुपूर्वी से) आठ कर्मों का निरूपण करूंगा, जिने बन्धा हुआ यह जीव संसार में परिवर्तन करता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोह, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय इस प्रकार संक्षेप में ये आठ कर्म हैं 1 ज्ञानावरण पांच प्रकार का है– (१) श्रुत ज्ञानावरण, (२) आभिनिवोधिक ज्ञानवरण, (३) अवधि-ज्ञानावरण, (४) मनोज्ञानावरण और (५) केवल-ज्ञानावरण। (१) निद्रा (२) प्रचला, (३) निद्रा निद्रा, (४) प्रचलाप्रचला, (५) स्त्यानगृद्धि, (६) चक्षु दर्शनावरण, (७) अचक्षु दर्शनावरण, (८) अवधि - दर्शनावरण और (६) केवल दर्शनावरण - इस प्रकार दर्शनावरण नौ प्रकार का है। वेदनीय दो प्रकार का है– (१) सात वेदनीय और (२) असात वेदनीय। इन दोनों वेदनीयों के अनेक प्रकार हैं।" मोहनीय भी दो प्रकार का है - (१) दर्शन - मोहनीय और ( २ ) चारित्र - मोहनीय । दर्शन - मोहनीय तीन प्रकार का और चारित्र मोहनीय दो प्रकार का होता है । Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मप्रकृति ५७३ अध्ययन ३३ : श्लोक ६-१७ ६. सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तमेव य। एयाओ तिन्नि पयडीओ मोहणिज्जस्स दंसणे।। सम्यक्त्वं चैव मिथ्यात्वं सम्यमिथ्यात्वमेव च। एतास्तिनः प्रकृतयः मोहनीयस्य दर्शने।। (१) सम्यक्त्व, (२) मिथ्यात्व और (३) सम्यग्-मिथ्यात्व -दर्शन-मोहनीय की ये तीन प्रकृतियां हैं। चारित्र-मोहनीय दो प्रकार है-(१) कषाय-मोहनीय और (२) नोकषाय-मोहनीय। १०. चरित्तमोहणं कम्म दुविहं तु वियाहियं। कसायमोहणिज्जं तु नोकसायं तहेव य।। चरित्रमोहनं कर्म द्विविधं तु व्याख्यातम्। कषायमोहनीयं च नोकषायं तथैव च।। कषाय-मोहनीय कर्म के सोलह भेद होते हैं और नोकषाय-मोहनीय कर्म के सात या नौ भेद होते ११. सोलसविहभेएणं । कम्मं तु कासयजं। सत्तविहं नवविहं वा कम्मं नोकसायजं ।। षोडशविधभेदेन कर्म तु कषायजम्। सप्तविधं नवविधं वा कर्म च नोकषायजम्।। १२. नेरइयतिरिक्खाउ मणुस्साउ तहेव य। देवाउयं चउत्थं तु आउकम्मं चउविहं।। नैरयिकतिर्यगायुः मनुष्यायुस्तथैव च। देवायुश्चतुर्थं तु आयुःकर्म चतुर्विधम् ।। आयु-कर्म चार प्रकार का है—(१) नैरयिक-आयु, (२) तिर्यग्-आयु, (३) मनुष्य-आयु और (४) देव-आयु। नाम-कर्म दो प्रकार का है—(१) शुभ-नाम और (२) अशुभनाम। इन दोनों के अनेक प्रकार हैं। गोत्र-कर्म के दो प्रकार हैं-(१) उच्च गोत्र और (२) नीच गोत्र । इन दोनों के आठ-आठ प्रकार हैं।" १३. नाम कम्मं तु दुविहं सुहमसुहं च आहियं। सुहस्स उ बहू भेया एमेव असुहस्स वि।। १४. गोयं कम्मं दुविहं उच्चं नीयं च आहियं । उच्चं अट्ठविहं होइ एवं नीयं पि आहियं ।। १५. दाणे लाभे य भोगे य उवभोगे वीरिए तहा। पंचविहमंतरायं समासेण वियाहियं ।। १६. एयाओ मूलपयडीओ उत्तराओ य आहिया। पएसग्गं खेत्तकाले य भावं चादुत्तरं सुण।। नाम कर्म द्विविधं शुभमशुभं चाख्यातम्। शुभस्य बहवो भेदाः एवमेव अशुभस्यापि। गोत्रं कर्म द्विविधं उच्च नीचं चाख्यातम्। उच्चमष्टविधं भवति एवं नीचमप्याख्यातम् ।। दाने लाभे च भोगे च उपभोगे वीर्ये तथा। पंचविधोन्तरायः समासेन व्याख्यातः ।। अन्तराय-कर्म संक्षेप में पांच प्रकार का है(१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय।' एता मूलप्रकृतयः उत्तराश्चाख्याताः। प्रदेशाग्रं क्षेत्रकालौ च भावं चोत्तरं शृणु। कर्मों की ये ज्ञानावरण आदि आठ मूल प्रकृतियां और श्रुत-ज्ञानावरण आदि सत्तावन उत्तर प्रकृतियां कही गई हैं। इसके आगे तू उनके प्रदेशाग्र (परमाणुओं के परिमाण) क्षेत्र काल और भाव (अनुभाग-पर्याय) को सुन। १७. सव्वेसिं चेव कम्माणं पएसग्गमणंतर्ग। गंठियसत्ताईयं अंतो सिद्धाण आहियं ।। सर्वेषां चैव कर्मणां प्रदेशाग्रमनन्तकम्। ग्रन्थिकसत्त्वातीतम् अन्तः सिद्धानामाख्यातम्।। एक समय में ग्राह्य सब कर्मों का प्रदेशाग्र अनन्त है। वह अभव्य जीवों से अनन्त गुना अधिक और सिद्ध आत्मओं के अनन्तवें भाग जितना होता है। Jain Education Intemational Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि ५७४ अध्ययन ३३ : श्लोक १८-२५ १. सबजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं। सव्वेसु वि पएसेसु सब् सव्वेण बद्धगं ।। सर्वजीवानां कर्म तु संग्रहे षड्दिशागतम्। सर्वेष्वपि प्रदेशेषु सर्वसर्वेण बद्धकम् ।। सब जीवों के संग्रह-योग्य पुद्गल छहों दिशाओं -- आत्मा से संलग्न सभी आकाश प्रदेशों में स्थित हैं। वे सब कर्म-परमाणु बन्ध-काल में एक आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ सम्बद्ध होते हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तरायकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटि-कोटि सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। १६. उदहीसरिनामाणं तीसई कोडिकोडिओ। उक्कोसिया ठिई होइ अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। २०. आवरणिज्जाण दुण्हं पि वेयणिज्जे तहेव य। अंतराए य कम्मम्मि ठिई एसा विहाहिया।। उदधिसदृग्नाम्नां त्रिंशत् कोटिकोट्यः। उत्कृष्टा स्थितिर्भवति अन्तर्मुहूर्त जघन्यिका।। आवरणयोर्द्वयोरपि वेदनीये तथैव च। अन्तराये च कर्मणि स्थितिरेषा व्याख्याता।। मोहनीय-कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटि-कोटि सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। २५. उदहीसरिनामाणं सत्तर कोडिकोडिओ। मोहणिज्जस्स उक्कोसा अंतोमुहूत्तं जहन्निया।। उदधिसदृग्नाम्नां सप्ततिः कोटिकोट्यः। मोहनीयस्योत्कृष्टा अन्तर्मुहूर्त जघन्यिका।। आयु-कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। २२. तेत्तीस सागरोवमा उक्कोसेण वियाहिया। ठिई उ आउकम्मस्स अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमा उत्कर्षेण व्याख्याता। स्थितिस्त्वायुःकर्मणः अन्तर्मुहूर्त जघन्यिका।। २३. उदहीसरिनामाणं वीसई कोडिकोडिओ। नामगोत्ताणं उक्कोसा अट्ठ मुहुत्ता जहन्निया।। उदधिसदृग्नाम्नां विंशतिः कोटिकोट्यः। नामगोत्रयोरुत्कृष्टा अष्ट मुहूर्ता जघन्यिका ।। नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटि-कोटि सागर और जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त की होती है। २४. सिद्धाणणंतभागो य अणुभागा हवंति उ। सव्वेसु वि पएसग्गं सव्वजीवेसुइच्छियं ।। सिद्धानामनन्तभागश्च अनुभागा भवन्ति तु। सर्वेष्वपि प्रदेशाग्रं सर्वजीवेभ्योऽतिक्रान्तम् ।। कर्मों के अनुभाग सिद्ध आत्माओं के अनन्तवें भाग जितने होते हैं। सव अनुभागों का प्रदेश-परिमाणरसविभाग का परिमाण सब जीवों से अधिक होता इन कर्मों के अनुभागों को जानकर बुद्धिमान् इनका निरोध और क्षय करने का यत्न करे। २५. तम्हा एएसि कम्माणं अणुभागे वियाणिया। एएसिं संवरे चेव खवणे य जए बुहे।। तस्मादेतेषां कर्मणाम् अनुभागान् विज्ञाय। एतेषां सम्वरे चैव क्षपणे च यतेत बुधः।। त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण १. ( श्लोक ७) सातवेदनीय और असातवेदनीय के अनेक प्रकार हैं। प्रज्ञापना के अनुसार प्रत्येक के आठ-आठ प्रकार हैं। जिनके आधार पर सात और असात का वेदन होता है, उनके आधार पर ये भेद किए हैं। सातवेदनीय के आठ प्रकार- मनोज्ञ शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ रस, मनोज्ञ गंध ओर मनोज्ञ स्पर्श तथा कायसुखता वाणीसुखता और मनःसुखता इनसे विपरीत असातावेदनीय के भेद हैं।" २. ( श्लोक ११ ) चारित्र - मोहनीय कर्म के दो रूप हैं— (१) कषाय- मोहनीय और (२) नो-कषाय- मोहनीय । कषाय- मोहनीय कर्म के १६ प्रकार हैं अनन्तानुबन्धी- (१) क्रोध, (२) मान, (३) माया और (४) लोभ । अध्ययन ३३ : कर्मप्रकृति अप्रत्याख्यानी — (१) क्रोध, (२) मान, (३) माया और (४) लोभ । प्रत्याख्यानी – (१) क्रोध, (२) मान, (३) माया और (४) लोभ । संज्वलन – (१) क्रोध, (२) मान, (३) माया और (४) लोभ । जो साधन मूलभूत कषायों को उत्तेजित करते हैं, वे 'नो - कषाय' कहलाते हैं। उनकी गणना दो प्रकार से हुई है। एक गणना के अनुसार वे नौ हैं- ( १ ) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) भय, (५) शोक, (६) जुगुप्सा, (७) पुरुष-वेद, (८) स्त्री-वेद और (६) नपुंसक वेद । दूसरी गणना के अनुसार वे सात हैं- ( १ ) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) भय, (५) शोक, (६) जुगुप्सा और (७) वेद, । २ ३. (श्लोक १३) शुभ नामकर्म और अशुभ नामकर्म के अनेक प्रकार हैं। प्रज्ञापना में नामकर्म के बयालीस प्रकार निर्दिष्ट हैं और प्रत्येक भेद के अनेक अवान्तर भेद प्रतिपादित हैं। इसमें शुभ-अशुभ का भेद निर्दिष्ट नहीं है। उत्तराध्ययन के वृत्तिकार ने शुभ पण्णवणा, २३।३०,३१ । १. २. वही, २३1३४-३६ । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६४३ । ४. पण्णवणा, २३।३८-५६ । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ६४४ । नामकर्म के ३७ भेद तथा अशुभ नामकर्म के ३३ भेद उल्लिखित किए हैं। ४. (श्लोक १४) गोत्र का अर्थ है 'कुलक्रमागत आचरण।' उच्च आचरण को 'उच्च गोत्रकर्म' और नीच आचरण को 'नीच गोत्रकर्म' कहा जाता है। वे आठ प्रकार के हैं। ये प्रकार उनके बंधनों के आधार पर माने गए हैं। उच्च गोत्रकर्म बंध के आठ कारण हैं (१) जाति का अमद, (२) कुल का अमद, (३) बल का अमद, ( ४ ) तपस्या का अमद, नीच गोत्रकर्म बंध के (१) जाति का मद, (२) कुल का मद, (३) बल का मद, ( ४ ) तपस्या का मद, ५. (श्लोक १५) २. ३. प्रस्तुत श्लोक में अन्तराय कर्म के पांच प्रकार निर्दिष्ट हैं। बृहद्वृत्ति में उनकी व्याख्या इस प्रकार है 9. ६. गोम्मटसार, कर्मकांड, १३ : आठ (५) ऐश्वर्य का अमद, ७. ८. ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६४५ । पण्णवणा, २३।५८ । वही, २३।५८ । (६) श्रुत का अमद, (७) लाभ का अमद और दानान्तराय - दान लेने वाला भी विशिष्ट है, देय वस्तु भी विशिष्ट है और दाता दान के फल से अभिज्ञ है, किन्तु वह दान दे नहीं पाता। लाभान्तराय-दाता भी विशिष्ट है और याचक भी निपुण है किन्तु याचक की उपलब्धि में वह उपघात पैदा करता है। भोगान्तराय—सम्पदा होने पर भी व्यक्ति के भोग में बाधा आती है। जो पदार्थ एक बार काम में आते हैं वे भाग कहलाते हैं, जैसे--पुष्प, आहार आदि । ४. उपभोगान्तराय — वस्त्र, अलंकरण की प्राप्ति होने (८) रूप का अमद । कारण हैं (५) ऐश्वर्य का मद, (६) श्रुत का मद, (७) लाभ का मद और (८) रूप का मद । सन्ताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा । उच्च णीचं चरणं उच्च नीचं हवे गोदं ।। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५७६ पर भी व्यक्ति उनका उपभोग नहीं कर पाता। जो बार-बार काम में आते हैं वे उपभोग कहलाते हैं। जैसे- भवन, स्त्री आदि । वीर्यान्तराय—व्यक्ति बलवान् है, स्वस्थ है, तरुण है फिर भी वह एक तिनके को भी तोड़ नहीं सकता। तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी टीका में इनकी व्याख्या इस ५. प्रकार है' १. दानान्तराय- - जब समस्त दानान्तराय कर्म का क्षय हो जाता है तब दाता याचक को यथेप्सित वस्तु देने में समर्थ हो सकता है। 1 लाभान्तराय—– जब इस कर्म का सर्वथा क्षय होता है तब व्यक्ति धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष इस चतुर्वर्ग की समस्त सामग्री प्राप्त कर सकता है और उसे अचिन्त्य माहात्म्य की शक्ति भी प्राप्त हो जाती है, जिससे वह जो चाहे वह लाभ प्राप्त कर सकता है। २. ३. भोगान्तराय- इसके क्षीण होने पर वस्तु का भोग निर्वाध हो जाता है। ४. उपभोगान्तराय- इसके क्षीण होने पर उपभोग की सामग्री की उपलब्धि में कोई बाधा नहीं रहती। वीर्यान्तराय- इसके क्षय से अप्रतिहत शक्ति प्रगट होती है। ६. (श्लोक १७) ५. इस श्लोक में एक समय में बंधने वाले कर्म स्कंधों का प्रदेशाग्र (परमाणु- परिमाण) बतलाया गया है। आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्त-अनन्त कर्म-वर्गणाएं चिपकी रहती हैं । किन्तु जो कर्म-वर्गणाएं एक क्षण में आत्म-प्रदेशों से आश्लिष्ट होती हैं, उनका परिमाण यहां विवक्षित है। ग्रंथिक-सत्त्व का अर्थ है 'अभव्य जीव'। इनकी राग-द्वेषात्मक ग्रंथि अभेद्य होती है, इसलिए इन्हें 'ग्रन्थिक' कहा जाता है। सिद्ध अर्थात् मुक्त जीव जघन्य - युक्तानन्त (अनन्त का चौथा प्रकार ) होते हैं और सिद्ध अनन्तानन्त होते हैं। एक समय में बंधने वाले कर्म-प - परमाणु ग्रन्थिक जीवों से अनन्त गुण अधिक और सिद्धों के अनन्तवें भाग जितने होते हैं। गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड) में इसकी संवादी गाथा जो है, वह इस प्रकार हैसिद्धणंतियभागं, अभव्यसिद्धादणंतगुणमेव । समयपबद्ध बंधदि, जोगवआदो दु विसरित्थं ॥ ४ ॥ 9. तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी टीका, पृ० १४३ । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६४७ द्वादशमुहूर्त्तमानामेवैतामिच्छन्ति, तदभिप्रायं न विद्मः । ३. कर्मप्रकृति, बंधनकरण ३० : सव्वष्पगुणा ते पढम वग्गणा सेसिया विसेसृणा । अविभागुत्तरियाओ सिद्धाणमणंतभागसमा ।। अध्ययन ३३ : श्लोक १५-२४ टि० ५-८ ७. (श्लोक १८) आत्मा का अवगाहन पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व तथा अधस् - इन छहों दिशाओं में होता है। इन दिशाओं में जो आत्मा से अन्तरावगाढ़ कर्म-प्रायोग्य पुद्गल हैं, उनका आत्मा ग्रहण करती है। यहां जो छह दिशाओं का विधान किया गया है वह द्वीन्द्रिय आदि जीवों की अपेक्षा से है। एकेन्द्रिय जीव तीन, चार, पांच या छह दिशाओं से भी कर्म- पुद्गल ग्रहण करते हैं । द्वीन्द्रिय आदि जीव नियमतः छह दिशाओं से ही कर्म- पुद्गल ग्रहण करते हैं। इन छह दिशाओं में स्थित कर्म-प्रायोग्य पुद्गल आत्मा के सभी प्रदेशों से सम्बद्ध होते हैं। ऐसा नहीं होता कि आत्मा के कुछेक प्रदेश ही कर्मों से संबद्ध होते हों। 1 कर्मबन्ध का एक नियम है आत्मा सब कर्म प्रकृतियों के प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण सामान्य रूप से करती है और अध्यवसाय की भिन्नता के आधार पर उन्हें ज्ञानावरण आदि विभिन्न रूपों में परिणत करती है। कर्मबन्ध का दूसरा नियम है-कर्म-पुद्गल आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ सम्बद्ध होते हैं, कुछेक प्रदेशों से नहीं । ८. (श्लोक १९-२० ) सूत्रकार ने वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की बतलाई है। तत्त्वार्थ ८ १६ में उसकी जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त्त की निरूपित है। शान्त्याचार्य ने लिखा है कि इस मतान्तर का आधार ज्ञात नहीं है। यह अन्वेषणीय है। ९. (श्लोक २४) सबसे पहले अल्परस वाले कर्म-परमाणुओं की प्रथम वर्गणा होती है। उसमें कर्म परमाणु सबसे अधिक होते हैं। उसकी अपेक्षा द्वितीय वर्गणा के कर्म- परमाणु विशेषहीन हो जाते हैं और तृतीय वर्गना में उससे भी हीन हो जाते हैं। सर्वोत्कृष्ट वर्गणा सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण होती है। इन वर्गणाओं में रस - विभाग की क्रमशः वृद्धि होती है और कर्म वर्गणाओं की क्रमशः हानि होती है। कर्म-ग्रहण के समय जीव कर्म-परमाणुओं के अनुभागविपाकशक्ति अथवा रसविभाग उत्पन्न करता है। कर्म-परमाणुओं में होने वाले अनुभाग का अविभाज्य अंश रसविभाग कहलाता है। एक-एक कर्म-परमाणु में सब जीवों से अनन्तगुण अधिक रस-विभाग होते हैं।" ४. वही, बंधनकरण २६ : गहणसमयम्मि जीवो, उप्पाएई गुणं सपच्चयओ । सव्वजियानंतगुणे, कम्मपएसेसु सव्वेसुं । । Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउतीसइमं अज्झयणं लेसज्झयणं चौतीसवां अध्ययन लेश्या-अध्ययन Jain Education Intemational Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख चा) इस अध्ययन का नाम 'लेसज्झयणं'-'लेश्या-अध्ययन' लेश्या की अनेक परिभाषाएं मिलती हैं। जैसेहै। इसका अधिकृत विषय कर्म-लेश्या है। इसमें कर्म-लेश्या १. योग-परिणाम। के नाम, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, २. कषायोदयरंजित योग-प्रवृत्ति। स्थिति, गति और आयुष्य का निरूपण किया गया है। इसका ३. कर्म-निस्यन्द। विशद वर्णन प्रज्ञापना (पद १७) में मिलता है। ४. कार्मण शरीर की भांति कर्म-वर्गणा निष्पन्न कर्म-द्रव्य । लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है। इसकी इन शास्त्रीय परिभाषाओं के अनुसार लेश्या से जीव खोज जीव और पुद्गल के स्कंधों का अध्ययन करते समय हुई ओर कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध होता है, कर्म की स्थिति निष्पन्न है। जीव से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं। जीव होती है और कर्म का उदय होता है। इन सारे अभिमतों से को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक वर्ग हैं। उनमें एक इतनी निष्पत्ति तो निश्चित है कि आत्मा की शुद्धि और वर्ग का नाम लेश्या है। लेश्या शब्द का अर्थ आणविक-आभा, अशुद्धि के साथ लेश्या जुड़ी हुई है। कांति, प्रभा या छाया है। छाया पुद्गलों से प्रभावित होने वाले प्रभाववाद की दृष्टि से दोनों परम्पराएं प्राप्त होती हैंजीव-परिणामों को भी लेश्या कहा गया है। प्राचीन साहित्य में १. पौलिक लेश्या का मानसिक विचारों पर प्रभाव । शरीर के वर्ण, आणविक-आभा और उससे प्रभावित होने वाले २. मानसिक विचारों का लेश्या पर प्रभाव। विचार-इन तीनों अर्थों में लेश्या की मार्गणा की गई है। कृष्णादिदव्यासाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः। शरीर के वर्ण और आणविक-आभा को द्रव्य-लेश्या' स्फटिकस्येव तवायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते।। (पीद्गलिक-लेश्या) और विचार को भाव-लेश्या" (मानसिक-लेश्या) इस प्रसिद्ध श्लोक की ध्वनी यही है--कृष्ण आदि कहा गया है। लेश्या-पुद्गल जैसे होते हैं, वैसे ही मानसिक परिणति होती है। प्रस्तुत अध्ययन में कृष्ण, नील और कापोत—इस प्रथम दूसरी धारा यह है—कपाय की मंदता से अध्यवसाय की शुद्धि त्रिक को 'अधर्म-लेश्या' और तेजस्, पद्म और शुक्ल-इस होती है और अध्यवसाय की शुद्धि से लेश्या की शुद्धि होती द्वितीय त्रिक को 'धर्म-लेश्या' कहा गया है। (श्लो० ५६,५७) है।" प्रस्तुत अध्ययन से भी यही ध्वनित होता है। अध्ययन के आरम्भ में छहों लेश्याओं को 'कर्म-लेश्या' पांच आश्रवों में प्रवृत्त मनुष्य कृष्ण-लेश्या में परिणत कहा गया है। (श्लो०१) होता है अर्थात् उसकी आणविक-आभा (पर्यावरण) कृष्ण आणविक-आभा कर्म-लेश्या का ही नामान्तर है। आठ होती है। लेश्या के लक्षण गोम्मटसार (जीवकांड ५०८-५१६) कों में छठा कर्म नाम है। उसका सम्बन्ध शरीर-रचना तथा तत्त्वार्थ-वार्तिक (४२२) में मिलते हैं। सम्बन्धी पुद्गलों से है। उसकी एक प्रकृति शरीर-नामकर्म है। मनुस्मृति (१२।२६-३८) में सत्त्व, रजस् और तमस् के शरीर-नामकर्म के पुद्गलों का ही एक वर्ग 'कर्म-लेश्या' जो लक्षण और कार्य बतलाए गए हैं, वे लेश्या के लक्षणों से कहलाता है। तुलनीय हैं। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५४१ : अहिगारो कम्मलेसाए। शरीरनामकर्मद्रव्याण्येव कर्मद्रव्यलेश्या। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५० : लेश्याति–श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति ७. वही, पत्र ६५० : यदुक्तं प्रज्ञापनावृत्तिकृता—योगपरिणामो लेश्या...। लेश्या-अतीव चक्षुराक्षपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया। ८. गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा ४६०: ३. मूलाराधना, ७।१९०७ : जोगपउत्ती लेस्सा कसायउदयाणुरंजिया होइ। जह वाहिरलेस्साओ, किण्हादीओ हवंति पुरिसस्स। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५० : गुरवस्तु व्याचक्षते-कर्मनिस्यन्दो लेश्या। अब्भन्तरलेस्साओ, तह किण्हादीय पुरिसस्स ।। १०. वही, पत्र ६५१; अन्ये त्वाहु:-कार्मणशरीरवत् पृथगेव कर्माष्टकात् (क) गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा, ४६४ : कर्मवर्गणानिध्यन्नानि कर्मलेश्याद्रव्याणांति, तत्त्वं तु पुनः केवलिनो विदन्ति । वण्णोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दु दचओ लेस्सा। ११. (क) मूलाराधना, ७।१९११ : सा सोढा किण्हादी अणेयभेया सभेयेण ।। लेस्सासोधी अज्झवसाणाविसोधीए होइ जनस्स। (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५३६। अज्झवसाणविसोधी, मंदलेसायस्स णादव्वा।। उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५४० : (ख) मूलाराधना (अमितगति), ७११६६७ : दुविहा उ भावलेसा विसुद्धलेसा तहेव अविसुद्धा। अन्तर्विशुद्धितो जन्तोः, शुद्धिः सम्पद्यते बहिः। दुविहा विसुद्धलेसा, उवसमखइआ कसायाणं ।। ब्राह्मो हि शुध्यते दोषः सर्वमन्तरदोषतः।। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५० : इह च कर्मद्रव्यलेश्येति सामान्याभिधानेपि Jain Education Intemational Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउतीसइमं अज्झयणं : चौतीसवां अध्ययन लेसज्झयणं : लेश्या-अध्ययन १. नेर हिन्दी अनुवाद मैं अनुपूर्वी के क्रमानुसार (पूर्वानुपूर्वी से) लेश्याअध्ययन का निरूपण करूंगा। छहों कर्म-लेश्याओं के अनुभावों को तुम मुझ से सुनो।' २ . लेश्याओं के नाम, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयुष्य को तुम मुझ से सुनो। संस्कृत छाया लेश्याध्ययनं प्रवक्ष्यामि आनुपूर्व्या यथाक्रमम्। षण्णामपि कर्मलेश्यानां अनुभावान् शृणुत मे।। नामानि वर्णरसगन्धस्पर्शपरिणामलक्षणानि। स्थानं स्थितिं गतिं चायुः लेश्यानां तु शूणुत मे।। कृष्णा नीला च कापोती च तैजसी पद्मा तथैव च। शुक्ललेश्या च षष्ठी तु नामानि तु यथाक्रमम् ।। स्निग्धजीमतसंकाशा गवलारिष्टकसन्निभा। खंजनाञ्जननयननिभा कृष्णलेश्या तु वर्णतः।। 3. यथाक्रम से लेश्याओं के ये नाम हैं—(१) कृष्ण, (२) नील, (३) कापोत, (४) तेजस्, (५) पद्म और (६) शुक्ल। ४. कृष्ण लेश्या का वर्ण स्निग्ध मेघ, महिष द्रोण-काक,* खजन, अंजन व नयन-तारा के समान होता है। लेसज्झयणं पवक्खमि आणपुब्बिं जहक्कम। छण्हं पि कम्मलेसाणं अणुभावे सुणेह मे।। नामाइं वण्णरगंधफासपरिणामलक्खणं। ठाणं ठिई गई चाउं लेसाणं तु सुणेह मे।। किण्हा नीला य काऊ य तेऊ पम्हा तहेव य। सुक्कलेसा य छट्ठा उ नामाइं तु जहक्कम ।। जीमूयनिद्धसंकासा गवलरिट्ठगसन्निभा। खंजणंजणनयणनिभा किण्हलेसा उ वण्णओ।। नीलासोगसंकासा चासपिच्छसमप्पभा। वेरुलियनिद्धसंकासा नीललेसा उ वण्णओ।। अयसीपुष्फसंकासा कोइलच्छदसन्निभा। पारेवयगीवनिभा काउलेसा उ वण्णओ।। हिंगुलुयधाउसंकासा तरुणाइच्चसन्निभा। सुयतुंडपईवनिभा तेउलेसा उ वण्णओ।। हरियालभेयसंकासा हलिदायेभसंनिभा। सणासणकुसुमनिभा पम्हलेसा उ वण्णओ।। नील लेश्या का वर्णन नीलअशोक, चाष पक्षी के परों व स्निग्ध वैडूर्य मणि के समान होता है। कापोत लेश्या का वर्ण अलसी के पुष्प, तैल-कण्टक' व कबूतर की ग्रीवा के समान होता है। नीलाऽशोकसंकाशा चायपिच्छसमप्रभा। स्निग्धवैडूर्यसंकाशा नीललेश्या तु वर्णतः।। अतसी पुष्पसंकाशा कोकिलच्छदसन्निभा। पारापतग्रीवानिभा कापोतलेश्या तु वर्णतः।। हिंगुलुकधातुसंकाशा तरुणादित्यसन्निभा। शुकतुण्डप्रदीपनिभा तेजोलेश्या तु वर्णतः।। हरितालभेदसंकाशा हरिद्राभेदसन्निभा। सणासनकुसुमनिभा पद्मलेश्या तु वर्णतः।। तेजो लेश्या का वर्ण हिंगुल, धातु-गेरु, नवोदित सूर्य, तोते की चोंच, प्रदीप की लौ के समान होता पद्म लेश्या का वर्ण भिन्न-हरिताल, भिन्न-हल्दी, सण और असन के पुष्प के समान होता है। Jain Education Intemational Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५८० अध्ययन ३४ : श्लोक ८-१८ संखंककुंदसंकासा शङ्खाककुन्दसंकाशा शुक्ल लेश्या का वर्ण शंख, अंकमणि, कुंद-पुष्प, खीरपूरसमप्पभा। क्षीरपूरसमप्रभा। दुग्ध-प्रवाह, चांदी व मुक्ताहार के समान होता है। रययहारसंकासा रजतहारसंकाशा सुक्कलेसा उ वण्णओ।।। शुक्ललेश्या. तु वर्णतः।। १०. जह कडुयतुंबगरसो यथा कटुकतुम्बकरसः कडुवे तूम्वे, नीम व कटुक रोहिणी का रस जैसा निंबरसो कडुयरोहिणिरसो वा। निम्बरसः कटुकरोहिणीरसो वा। कडुवा होता है, उससे भी अनन्त गुना कडुवा रस एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनन्तगुणः कृष्ण लेश्या का होता है। रसो उ किण्हाए नायव्वो।। रसस्तु कृष्णाया ज्ञातव्यः ।। ११. जह तिगडुयस्स य रसो यथा त्रिकटुकस्य च रसः त्रिकटु --सूंठ, पिपल और कालीमिर्च तथा गजपीपल तिक्खो जह हस्थिपिप्पलीए वा। तीक्ष्णः यथा हस्तिपिप्पल्या वा। का रस जैसा तीखा होता है, उससे भी अनन्त गुना एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनन्तगुणः तीखा रस नील लेश्या का होता है। रसो उ नीलाए नायव्वो।। रसस्तु नीलाय ज्ञातव्यः।। १२. जह तरुणअंबगरसो यथा तरुणाम्रकरसः कच्चे आम और कच्चे कपित्थ का रस जैसा तुवरकविट्ठस्स वावि जारिसओ। तुवरकपित्थरय वापि यादृशः।। कसैला होता है, उससे भी अनंत गुना कसैला रस एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनन्तगुण: कापोत लेश्या का होता है। रसो उ काऊए नायव्वो।। रसस्तु कापोताया ज्ञातव्यः ।। १३. जहपरिणयंबगरसो यथा परिणतााम्रकरसः पके हुए आम और पके हुए कपित्थ का रस जैसा पक्ककविट्ठस्स वावि जारिसओ। पक्वकपित्थस्प वापि यादृशः।। खट-मीठा होता है, उससे भी अनंत गुना खट-मीठा एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनन्तगुणः रस तेजो लेश्या का होता है। रसो उ तेऊए नायव्वो।। रसस्तु तेजोलेश्याया ज्ञातव्यः ।। १४. वरवारुणीए व रसो वरवारुण्या इव रसः प्रधान सुरा, विविध आसवों, मधु और मैरेयक विविहाण व आसवाण जारिसओ विविधानामिव आसवानां यादृशः। मदिरा का रस जैसा अम्ल-कसैला होता है, उससे महुमेरगस्स व रसो मधुमैरेयकस्येवरसः भी अनन्त गुना' मीठा, मधुर और अम्ल-कसैला एत्तो पम्हाए परएणं ।। इतः पद्मायाः परकेण।। रस पद्म लेश्या का होता है। १५. खजूरमुद्दियरसो खर्जूरमृद्धीकारसः खजूर, दाख, क्षीर, खांड और शक्कर का रस जैसा खीररसो खंडसक्कररसो वा। क्षीररसः खण्डशर्करारसो वा। मीठा होता है, उससे भी अनंत गुना मीठा रस एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनन्तगुणः शुक्ल लेश्या का होता है। रसो उ सुक्काए नायव्वो।। रसस्तु शुक्लाया ज्ञातव्यः।। १६. जह गोमडस्स गंधो। यथा गोमृतकस्य गंधः गाय, श्वान और सर्प के मृत कलेवर की जैसी गन्ध सुगमडगस्स व जहा अहिमडस्स। शुनकमृतकस्य वा यथाऽहिमृतकस्य होती है, उससे भी अनन्त गुना गन्ध तीनों अप्रशस्त एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनंतगुणो लेश्याओं की होती है। लेसाणं अप्पसत्थाणं ।। लेश्यानामप्रशस्तानाम् ।। १७. जह सुरहिकुसुमगंधो यथा सुरभिकुसुमगंधः सुगन्धित पुष्पों और पीसे जा रहे सुगन्धित पदार्थों गंधवासाण पिस्समाणाणं। गन्धवासानां पिष्यमाणानाम् । की जैसी गंध होती है, उससे भी अनन्त गुना गंध एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनंतगुणः तीनों प्रशस्त लेश्याओं की होती है। पसत्थलेसाण तिण्हं पि।। प्रशस्तलेश्यानां तिसृणामपि।। १८. जह करगयस्स फासो यथा क्रकचस्य स्पर्शः करवत, गाय की जीभ और शाक वृक्ष के पत्रों का गोजिब्माए व सागपत्ताणं। गोजिहायाश्च शाकपत्राणाम् । स्पर्श जैसा कर्कश होता है, उससे भी अनंत गुना एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनंतगुणो कर्कश स्पर्श तीनों अप्रशस्त लेश्याओं का होता है। लेसाणं अप्पसत्थाणं ।। लेश्यानामप्रशस्तानाम्।। Jain Education Intemational Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या-अध्ययन ५८१ अध्ययन ३४ :श्लोक १६-२८ १६. जह बूरस्स व फासो यथा धूरस्य वा स्पर्शः बूर, नवनीत और सिरीष के पुष्पों का स्पर्श जैसा नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं। नवनीतस्य वा शिरीषकुसुमानाम्। मृदु होता है, उससे भी अनन्त गुना मृदु स्पर्श तीनों एत्तो वि अणंतगुणो इतोऽप्यनंतगुणः प्रशस्त लेश्याओं का होता है। पसत्थलेसाण तिण्हं पि।।। प्रशस्तलेश्यानां तिसृणामपि।। २०. तिविहो व नवविहो वा त्रिविधो वा नवविधो वा लेश्याओं के तीन, नौ, सत्ताईस, इक्यासी या दो सौ सत्तावीसइविहेक्कसीओ वा। सप्तविंशतिविधि एकाशीतिविधो वा तेंतालीस प्रकार के परिणाम होते हैं। दुसओ तेयालो वा त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशतविधो वा लेसाणं होइ परिणामो।। लेश्यानां भवति परिणामः।। २१. पंचासवप्पवत्तो पंचाश्रवप्रवृत्तः जो मनुष्य पांचों आश्रवों में प्रवृत्त है, तीन गुप्तियों तीहिं अगुत्तो छसु अविरओ य। तिसृभिरगुप्तः षट्स्वविरतश्च।। से अगुप्त है, षट्काय में अविरत है, तीव्र आरम्भ तिव्वारंभपरिणाओ तीव्रारम्भपरिणतः (सावद्य-व्यापार) में संलग्न है, क्षुद्र है, बिना विचारे खुद्दो साहसिओ नरो।। क्षुद्रः साहसिको नरः।। कार्य करने वाला है, २२. निद्धंधसपरिणामो निश्शङ्कपरिणामः लौकिक और पारलौकिक दोषों की शंका से रहित निस्संसो अजिइंदिओ। नृशंसोऽजितेन्द्रियः। मन वाला है, नुशंस है," अजितेन्द्रिय है—जो इन एयजोगसमाउत्तो एतद्योगसमायुक्तः सभी से युक्त है, वह कृष्ण लेश्या में परिणत होता किण्हलेसं तु परिणमे ।। कृष्णलेश्यां तु परिणमेत् ।। २३. इस्साअमरिसअतवो ईर्ष्याऽमर्षातपः जो मनुष्य ईर्ष्यालु है, कदाग्रही है, अतपस्वी है, अविज्जमाया अहीरिया। अविद्या मायाऽडीकता च। अज्ञानी है, मायावी है, निर्लज्ज है, गृद्ध है, प्रद्वेष गेद्धी पओसे य सढे पमत्ते गृद्धिः प्रदोषश्च शठः प्रमत्तो करने वाला है, शठ है, प्रमत्त है, रस-लोलुप है, रसलोलुए सायगवेसए य।। रसलोलुपः सातगवेषकश्च ।। सुख का गवेषक है, २४. आरंभाओ अविरओ आरम्भादविरतः आरम्भ से अविरत है, क्षुद्र है, बिना विचारे कार्य खुद्दो साहस्सिओ नरो। क्षुद्रः साहसिको नरः। करने वाला है—जो इन सभी से युक्त है, वह नील एयजोगसमाउत्तो एतद्योगसमायुक्तो लेश्या में परिणत होता है। नीललेसं तु परिणमे ।। नीललेश्यां तु परिणमेत् ।। २५. वंके वंकसमायारे वक्रो वक्रसमाचारः जो मनुष्य वचन से वक्र है, जिनका आचरण वक्र नियडिल्ले अणुज्जुए। निकृतिमान् अनृजुकः। है, माया करता है, सरलता से रहित है, अपने दोषों पलिउंचग ओवहिए परिकुंचक औपधिकः को छुपाता है, छद्म का आचरण करता है, मिच्छदिट्ठी अणारिए।। मिथ्यादृष्टिरनार्यः।। मिथ्या-दृष्टि है, अनार्य है, २६. उप्फालगदुट्ठवाई य उत्प्रासकदुष्टवादी च हंसोड़ है, दुष्ट वचन बोलने वाला है, चोर है, तेणे यावि य मच्छरी। स्तेनश्चापि च मत्सरी। मत्सरी है—जो इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह एयजोगसमाउत्तो एतद्योगसमायुक्तः कापोत लेश्या में परिणत होता है। काउलेसं सु परिणमे।। कापोतलेश्यां तु परिणमेत् ।। २७. नीयावित्ती अचवले नीर्वृत्तिरचपलः जो मनुष्य नम्रता से वर्ताव करता है, अचपल है, अमाई अकुऊहले। अमायी अकुतूहलः। माया से रहित है, अकुतूहली है, विनय करने में विणीयविणए दंते। विनीतविनयः दान्तः निपुण है, दान्त है, समाधि-युक्त है, उपधान (श्रुत जोगवं उवहाणवं ।। योगवानुपधानवान्।। अध्ययन करते समय तप) करने वाला है, २८. पियधम्मे दढधम्मे प्रियधर्मा दृढधर्मा धर्म में प्रेम रखता है, धर्म में दृढ़ है,१२ पाप-भीरु वज्जभीरू हिएसए। वयंभीरुर्हितैषकः। है, हित चाहने वाला है जो इन सभी प्रवृत्तियों एयजोगसमाउत्तो एतद्योगसमायुक्तः से युक्त है, वह तेजोलेश्या में परिणत होता है। तेउलेसं तु परिणमे ।। तेजोलेश्यां तु परिणमेत् ।। Jain Education Intemational Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५८२ अध्ययन ३४ : श्लोक २६-३८ २६. पयणुक्कोहमाणे य प्रतनुक्रोधमानश्च जिस मनुष्य के क्रोध, मान, माया और लाभ अत्यन्त मायालोभे य पयणुए। मायालोभश्च प्रतनुकः। अल्प हैं, जो प्रशान्त-चित्त है, अपनी आत्मा का पसंतचित्ते दंतप्पा प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा दमन करता है, समाधि-युक्त है, उपधान करने जोगवं उवहाणवं ।। योगवानुपधानवान्।। वाला है, ३०. तहा पयणुवाई य तथा प्रतनुवादी च अत्यल्प भाषी है, उपशान्त है, जितेन्द्रिय है----जो उवसंते जिइंदिए। उपशान्तो जितेन्द्रियः। इन सभी प्रवृत्तियों से युक्त है, वह पद्म लेश्या में एयजोगसमाउत्तो एतद्योगसमायुक्तः परिणत होता है। पम्हलेसं तु परिणमे।। पद्मलेश्यां तु परिणमेत् ।। ३१. अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता आर्त्तरौद्रे वर्जयित्वा जो मनुष्य आर्त और रौद्र-इन दोनों ध्यानों को धम्मसुक्काणि झायए। धर्म्यशुक्ले ध्यायेत्। छोड़कर धर्म्य और शुक्ल-इन दो ध्यानों में लीन पसंतचित्ते दंतप्पा प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा रहता है, प्रशान्त-चित्त है, अपनी आत्मा का दमन समिए गुत्ते य गुत्तिहिं ।। समितो गुप्तश्च गुप्तिभिः ।। करता है, समितियों से समित है, गुप्तियों से गुप्त है, ३२. सरागे वीयरागे वा सरागो वीतरागो वा उपशान्त है, जितेन्द्रिय है—जो इन सभी प्रवृत्तियों उवसंते जिइंदिए। उपशान्तो जितेन्द्रियः। से युक्त है, वह सराग हो या वीतराग, शुक्ल लेश्या एयजोगसमाउत्तो एतद्योगसमायुक्तः में परिणत होता है। सुक्कलेसं तु परिणमे ।। शुक्ललेश्यां तु परिणमेत् ।। ३३. असंखिज्जाणोसप्पिणीण असंख्येयानामवसर्पिणीनां असंख्येय अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के जितने उस्सप्पिणीण जे समया। उत्सर्पिणीनां ये समयाः। समय होते हैं, असंख्यात लोकों के जितने संखाईया लोगा संख्यातीता लोका आकाश-प्रदेश होते हैं, उतने ही लेश्याओं के स्थान लेसाण हुंति ठाणाई।। लेश्यानां भवन्ति स्थानानि।। (अध्यवसाय-परिमाण) होते हैं। ३४. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना मुहूर्तार्धं तु जघन्या कृष्ण लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और तेत्तीसं सागरा मुहुत्तहिया। त्रयस्त्रिंशत्सागरा मुहूर्ताधिकाः।। उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर उक्कोसा होइ ठिई उत्कृष्टा भवति स्थितिः की होती है। नायव्वा किण्हलेसाए।। ज्ञातव्या कृष्णलेश्यायाः।। ३५. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना मुहूर्तार्धं तु जघन्या नील लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और दस उदही पलियमसंखभागमब्भहिया। दशोदधिपल्यासंख्यभागाधिका। उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक उक्कोसा होइ ठिई उत्कृष्टा भवति स्थितिः दश सागर की होती है। नायव्वा नीललेसाए।। ज्ञातव्या नीललेश्यायाः।। ३६. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना मुहूर्तार्धं तु जघन्या कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और तिण्णुदही पलियमसंखभागमब्महिया। युदधिपल्यासंख्यभागाधिका। उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक उक्कोसा होइ ठिई उत्कृष्टा भवति स्थितिः तीन सागर की होती है। नायव्वा काउलेसाए।। ज्ञातव्या कापोतलेश्यायाः।। ३७. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना मुहूर्तार्धं तु जघन्या तेजो लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और दोउदही पलियमसंखभागमब्महिया। ड्युदधिपल्यासङ्ख्यभागधिका।। उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक उक्कोसा होइ ठिई उत्कृष्टा भवति स्थतिः दो सागर की होती है। नायव्वा तेउलेसाए।। ज्ञातव्या तेजोलेश्यायाः।। ३८. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना मुहूर्तार्थं तु जघन्या पद्म लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दस होंति सागरा मुहुत्तहिया। दश भवन्ति सागरा मुहूर्त्ताधिकाः। स्थिति मुहूर्त अधिक दश सागर की होती है। उक्कोसा होइ ठिई उत्कृष्टा भवति स्थितिः नायव्वा पम्हलेसाए।। ज्ञातव्या पद्मलेश्यायाः।। Jain Education Intemational Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या-अध्ययन ५८३ अध्ययन ३४ : श्लोक ३६-४८ अतः ३६. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना मुहूर्ताधं तु जधन्या शुक्ल लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और तेत्तीस सागरा मुहुत्तहिया त्रयस्त्रिंशत्सागरा मुहूर्ताधिकाः।। उत्कृष्ट स्थिति मुहूर्त अधिक तेतीस सागर की होती उक्कोसा होइ ठिई उत्कृष्टा भवति स्थितिः नायव्वा सुक्कलेसाए।। ज्ञातव्या शुक्ललेश्यायाः।। ४०. एसा खलु लेसाणं एषा खलु लेश्यानां लेश्याओं की यह स्थिति ओघरूप (अपृथग्-भाव) से ओहेण ठिई उ वण्णिया होइ। ओधेन स्थितिस्तु वर्णिता भवति। कही गई है। अब आगे पृथग्-भाव से चारों गतियों चउसु वि गईसु एत्तो चतसृष्वपि गतिषु अतः में लेश्याओं की स्थिति का वर्णन करूंगा। लेसाण ठिइं तु वोच्छामि।। लेश्यानां स्थितिं तु वक्ष्यामि।। ४१. दस वाससहस्साई दशवर्षसहस्त्राणि नारकीय जीवों के कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति काऊए ठिई जहन्निया होइ। कापोतायाः स्थितिर्जधन्यका भवति। पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागर तिण्णुदही पलिओवम युदधिपल्योपम की होती है। असंखभागं च उक्कोसा असङ्ख्यभागं चोत्कृष्टा।। ४२. तिण्णुदही पलिय युदधिपल्य नील लेश्या की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें मसंखभागा जहन्नेण नीलठिई। असङ्ख्यभागा जघन्येन नीलस्थितिः। भाग अधिक तीन सागर और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम दस उदही पलिओवम दशोदधिपल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दश सागर की होती है। असंखभागं च उक्कोसा।।। असङ्ख्यभागं चोत्कृष्टा ।। ४३. दस उदही पलिय दशोदधिपल्य कृष्ण लेश्या की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें मसंखभागं जहन्निया होइ। असङ्ख्यभागं जघन्यका भवति। भाग अधिक दश सागर और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस तेत्तीससागराई त्रयस्त्रिंशत्सागराः सागर की होती है। उक्कोसा होइ किण्हाए।। उत्कृष्टा भवति कृष्णायाः।। ४४. एसा नेरइयाणं एषा नैरयिकाणां यह नैरयिक जीवों की लेश्याओं की स्थिति का वर्णन लेसाण ठिई उ वण्णिया होइ। लेश्यानां स्थितिस्तु वर्णिता भवति। किया गया है। इससे आगे तिर्यंच, मनुष्य और देवों तेण परं वोच्छामि ततः परं वक्ष्यामि की लेश्याओं की स्थिति का वर्णन करूंगा। तिरियमणुस्साण देवाणं ।।। तिर्यमनुष्याणां देवानाम् ।। ४५. अंतोमुत्तमद्धं अन्तर्मुहूर्त्ताध्वानं तिर्यञ्च और मनुष्य में जितनी लेश्याएं होती हैं, लेसाण ठिई जहिं जहिं जाउ। लेश्यानां स्थितिः यस्मिन् यस्मिन् या तु। उनमें से शुक्ल लेश्या को छोड़कर शेष सब लेश्याओं तिरियाण नराणं वा तिरश्चां नराणां वा की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की वज्जित्ता केवलं लेसं।। वर्जयित्वा केवला लेश्याम् ।। होती है। ४६. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना मुहूर्ता) तु जघन्या शुक्ल लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उक्कोसा होइ पुव्वकोडी उ। उत्कृष्टा भवति पूर्वकोटी तु। उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष न्यून एक करोड़ पूर्व की नवहि वरिसेही ऊणा नवभिर्वर्षेरूना होती है। नायव्वा सुक्कलेसाए।। ज्ञातव्या शुक्ललेश्यायाः ।। ४७. एसा तिरियनराणं एषा तिर्यङ्नराणां यह तिर्यञ्च और मनुष्य के लेश्याओं की स्थिति का लेसाण ठिई उ वण्णिया होइ। लेश्यानां स्थितिस्तु वर्णिता भवति। वर्णन किया गया है। इससे आगे देवों की लेश्याओं तेण परं वोच्छामि ततः परं वक्ष्यामि की स्थिति का वर्णन करूंगा। लेसाण ठिई उ देवाणं ।। लेश्यानां स्थितिस्तु देवानाम् ।। ४८. दस वाससहस्साई दशवर्षसहस्राणि भवनपति और वाणव्यन्तर देवों के कृष्ण लेश्या की किण्हाए ठिई जहन्निया होइ। कृष्णायाः स्थितिर्जघन्यका भवति। जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति पलियमसंखिज्जइमो पल्यासंख्येयतमः पल्योपम के असंख्यातवें भाग की होती है। उक्कोसा होइ किण्हाए ।।। उत्कृष्टा भवति कृष्णायाः।। Jain Education Intemational Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ४६. जा किण्हाए टिई बलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया जहन्नेणं नीलाए पलियमसंखं तु उचकोसा।। ५०. जा नीलाए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । जहन्नेणं काऊए पलियमसंखं च उक्कोसा ।। ५१. तेण परं वोच्छामि तेउलेसा जहा सुरगणाणं । भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणियाणं च ५२. पलिओवमं जहन्ना उक्कोसा सागरा उ दुम्हहिया । पलियमसंखेज्जेण होई भागेण तेऊए ।। ५३. दस वाससहस्साइं तेऊए ठिई जहन्निया होइ। दुष्णुदही पलिओवम असंखभागं च उक्कोसा ।। ५४. जा तेऊए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्भहिया । जहन्नेणं पम्हाए दस उ मुहुत्तहियाइं च उक्कोसा ।। ५५. जा पम्हाए ठिई खलु उक्कोसा सा उ समयमब्महिया । जहन्नेणं सुक्काए तेत्तीसमुहुत्तममहिया ।। ५६. किण्हा नीला काऊ तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो दुग्गइं उववज्जई बहुसो ।। ५७. तेऊ पम्हा सुक्का तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ। एयाहि तिहि वि जीवो सुग्गई उववज्जई बहुसो ।। ५८. लेसाहिं सव्वाहिं पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु । न वि कस्सवि उदवाओ परे भवे अत्थि जीवस्स ।। ५८४ या कृष्णायाः स्थितिः खलु उत्कृष्टा सा तु समयाभ्यधिका । जघन्येन नीलायाः पल्यासङ्ख्यं तूत्कृष्टा ।। या नीलायाः स्थितिः खलु उत्कृष्टा सा तु समयाभ्यधिका । जघन्येन कापोतायाः पल्यासङ्ख्यं चोत्कृष्टा ।। ततः परं वक्ष्यामि तेजोलेश्यां यथा सुरगणानाम् । भवनपतिवाणव्यन्तर ज्योतिर्वैमानिकानां च ।। पल्योपमं जघन्या उत्कृष्टा सागरौ तु पल्यासख्येयेन भवति भागेन तैजस्याः ।। वशवर्षसहस्राणि द्वयधिकौ । कृष्णा नीला कापोता: तिनो ऽप्येता अधर्मलेश्याः । एताभिस्तिसृभिरपि जीवो दुर्गतिमुपपद्यते बहुशः । तैजसी पद्मा शुक्ला तिम्रो ऽप्येता धर्मलेश्याः । एताभिस्तिभिरपि जीवः सुगतिमुपपद्यते बहुशः ।। अध्ययन ३४ : श्लोक ४६-५८ कृष्ण लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें एक समय मिलाने पर वह नील लेश्या की जघन्य स्थिति होती है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी है । २१ लेश्याभिः सर्वाभिः प्रथमे समये परिणताभिस्तु । नापि कस्याप्युपपादः परे भवेऽस्ति जीवस्य ।। नील लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें एक समय मिलाने पर वह कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति होती है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी है। इससे आगे भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की तेजोलेश्या की स्थिति का निरूपण करूंगा। तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष और तैजस्याः स्थितिः जघन्यका भवति । उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक वधुवचिपत्योपम दो सागर की होती है । असङ्ख्यभागं चोत्कृष्टा ।। या तैजस्याः स्थितिः खलु उत्कृष्टा सा तु समयाभ्यधिका । जघन्येन पद्मायाः दश तु मुहूर्ताधिकानि चोत्कृष्टा । या पद्मायाः स्थितिः खलु उत्कृष्टा सा तु समयाभ्यधिका । जघन्येन शुक्लायाः अभ्यधिका ।। तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति एक पल्योपम और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर की होती है। जो तेजोलेश्या की स्थिति है, उसमें एक समय मिलाने पर वह पद्म लेश्या की जघन्य स्थिति होती है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक दश सागर की होती है। जो पद्म लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें एक समय मिलाने पर वह शुक्ल लेश्या की जघन्य स्थिति होती है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर की होती है। कृष्ण, नील और कापोत-ये तीनों अधर्म-लेश्याएं हैं। इन तीनों से जीव प्रायः दुर्गति को प्राप्त होता है । तेजस, पद्म और शुक्ल ये तीनों धर्म- लेश्याएं हैं। इन तीनों से जीव प्रायः सुगति को प्राप्त होता है। पहले समय में परिणत सभी लेश्याओं में कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता । Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या-अध्ययन ५८५ अध्ययन ३४ : श्लोक ५६-६१ अन्तिम समय में परिणत सभी लेश्याओं में कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता। ५६. लेसाहिं सव्वाहिं लेश्याभिः सर्वाभिः चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु। चरमे समये परिणताभिस्तु। न वि कस्सवि उववाओ नापि कस्याप्युपपादः परे भवे अत्थि जीवस्स।।। परे भवेऽस्ति जीवस्य।। ६०. अंतमुहुत्तम्मि गए अन्तर्मुहूर्ते गते अंतमुहुत्तम्मि सेसए चेव। अन्तर्मुहूर्ते शेषके चैव। लेसाहिं परिणयाहिं लेश्याभिः परिणताभिः जीवा गच्छंति परलोयं ।। जीवा गच्छन्ति परलोकम् ।। ६१. तम्हा एयाण लेसाणं तस्मादेतासां लेश्यानां अणुभागे वियाणिया। अनुभागान् विज्ञाय। अप्पसत्थाओ वज्जित्ता अप्रशस्ता वर्जयित्वा पसत्थाओ अहिडेज्जासि ।। प्रशस्ता अधितिष्ठेत् ।। लेश्याओं की परिणति होने पर अन्तमुहूर्त्त बीत जाता है, अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, उस समय जीव परलोक में जाते हैं।२३ इसलिए इन लेश्याओं के अनुभागों को जान कर मुनि अप्रशस्त लेश्याओं का वर्जन करे और प्रशस्त लेश्याओं को स्वीकार करे। —त्ति बेमि। ---इति ब्रवीमि। —ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन ३४ : लेश्या-अध्ययन १. (लेसज्झयणं...कम्मलेसाणं) कषैला तथा अपक्व। नाममाला-में 'कषायस्तुवरो रसः'देखें- -इसी अध्ययन का आमुख। तुवर का अर्थ कषाय है। हमने इसका अर्थ-अपक्व किया है। २. पद्म (पम्हा) ८. अनन्तगुना (परकेणं) 'पद्म' शब्द के प्राकृतरूप दो होते हैं-'पउम' और वृत्तिकार ने 'परएणं' का अर्थ इस प्रकार किया है'पम्म'। दिगम्बर साहित्य में पद्मलेश्या के लिए 'पउम', 'पम्म' पद्मलेश्या का रस आसवों से अनन्तानन्तगण मधर तथा और 'पम्ह'.....ये तीनों शब्द प्रयुक्त हुए हैं। 'पम्ह' का संस्कृत अम्ल-कषाय होता है। इसका तात्पर्य है--उन आसवों से रूप 'पक्ष्म' होता है, पद्म नहीं। यह संभव है कि उच्चारणभेद अत्यधिक मधुर रस वाला। के कारण 'पम्म' का 'पम्ह' रूप बन गया। आज वैज्ञानिक प्रत्येक पदार्थ का औसतन मिठास ज्ञात ३. महिष (गवल) कर लेते हैं। सूत्रकार का कथन है कि इसमें अनन्तगुना वृत्तिकार ने इसका महिषशृंग किया है।' शब्दकोश में मिठास होता है। यह कैसे? इसका समाधान है कि अनन्तज्ञानी इसका अर्थ जंगली भैंसा प्राप्त होता है। अपने ज्ञान के द्वारा उसके मिठास को जान लेते हैं। वह यंत्रों ४. द्रोण-काक (रिट्ठग) के द्वारा नापा नहीं जा सकता। प्रज्ञापना में अनन्तगुन का अर्थ-अत्यधिक किया है। वृत्तिकार ने रिष्ठ का मुख्य अर्थ-द्रोणकाक और वैकल्पिक ९. (श्लोक २०) अर्थ—फल विशेष किया है। यह 'रीठा' फल है। ५. तैल-कंटक (कोइलच्छद) प्रस्तुत श्लोक में लेश्याओं के परिणामों की चर्चा है। वृत्तिकार ने तारतम्य की अपेक्षा से उनको इस प्रकार उल्लिखित वृत्तिकार ने इसका अर्थ-तैलकंटक किया है और उन्होंने । किया हैइसकी पुष्टि में वृद्धसंप्रदाय का अभिमत उद्धृत किया है।" ० तीन परिणाम-जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट इसका एक अर्थ 'कोयल की पांख' भी हो सकता है। ० नी परिणाम–तीनों के तीन-तीन प्रकार (३ x ३=E) ६. त्रिकटु का (तिगडुयस्स) ० सत्तावीस परिणाम–नौ के तीन-तीन प्रकार त्रिकटु में तीन वस्तुओं का मिश्रण होता है-सूंठ, (EX ३=२७) पिप्पल और कालीमिर्च । इस के दो पर्यायवाची नाम हैं-व्योष, ० इक्यासी परिणाम–सत्ताईस के तीन-तीन प्रकार त्र्यूषण। (२७४३-८१) ७. कच्चे (तुवर....) ० दो सौ तयालीस परिणाम-इक्यासीके तीन-तीन प्रस्तुत श्लोक में 'तरुण' शब्द आम्र के साथ प्रयुक्त है। प्रकार (८१४३=२४३) इसका अर्थ है-अपक्व, कच्चा। 'तुवर' शब्द का प्रयोग प्रज्ञापना में ही छहों लेश्यों के परिणामों की यही संख्या 'कपित्थ' के साथ हुआ है। इसके दो अर्थ हैं-सकषाय- उल्लिखित है।” १. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५२ : गवलं-महिषशृंगं। २. अभिधान चिन्तामणि ४३४६ : अरण्यजेस्मिन् गवलः।। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५२ : रिष्ठो-द्रोणकाकः ‘स एव रिष्ठकः, यद् वा रिष्टको नाम फलविशेषः । ४. वही, पत्र ६५३ : कोकिलच्छदः-तैलकण्टकः, तथा च वृद्धसंप्रदायः 'वण्णाहिगारे जो एत्थ कोइलच्छदो सो तेलकटतो भण्णइ' ति। कैयदेवनिघण्टु, औषधिवर्ग, श्लोक ११७० पिप्पलीशुण्ठिमरिचैव्योषं त्रिकटुक कटु। कटुत्रयं त्र्यूषणञ्च............ || ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५३ : तुवरं-सकषायं.....उभयत्र धादिपक्वम् । ७. अभिधान चिन्तामणि, ६२५ । ८. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५४ : परकेणं ति अनन्तानन्तगुणत्वात् तद अतिक्रमेण वर्तते इति गम्यते। ६. प्रज्ञापना पद १७।१३४,१३५। १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५५ : इह च त्रिविधः-जघन्य मध्यमउत्कृष्टभेदेन, नवविधः-यदैषामपि जघन्यादीनां स्वस्थानतारतम्यचिन्तायां प्रत्येक जघन्यादित्रयेण गुणना एवं पुनस्त्रिकगुणनया सप्तविंशतिविधत्वमेकाशीतिविधत्वं त्रिचत्वारिंशद् द्विशतविधत्वं च भावनीयम्। आह–एवं तारतम्यचिन्तायां कः संख्यानियमः? उच्यते, एवमेतत, उपलक्षणं चैतत्। ११. पन्नवणा २०११३६ : कण्हलेस्सा णं भंते ! कतिविधं परिणामं परिणमति ? गोयमा । तिविहं वा नवविहं वा सत्तावीसतिविहं वा एकासीतिविहं वा बेतेयालसतविहं वा बहुं वा बहुविहं वा परिणाम परिणमति। एवं जाव सुक्कलेस्सा। Jain Education Intemational Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या-अध्ययन ५८७ अध्ययन ३४ : श्लोक २२-४८ टि० १०-२० १०. शंका से रहित (निद्धंधस) शब्द 'समुदाय' के अर्थ में व्यवहृत होता है, उसका प्रयोग यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है-अकृत्यसेवी।' वृत्ति एक-एक अवयव के लिए भी किया जा सकता है। में इसका अर्थ है-लौकिक और पारलौकिक अपायों की शंका १७. स्थिति (काल) (अद्धा) से अत्यंत विकल । इसका वैकल्पिक अर्थ है हिंसा के अध्यवसायों 'अध्या' शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं-काल और क्षेत्र। से अत्यंत अनपेक्ष। यहां इसका काल अर्थ विवक्षित है। ११. नृशंस है (निस्संसो) १८. (श्लोक ४५-४६) इसके संस्कृतरूप दो होते हैं-नृशंसः तथा निःशंसः। ४५वें श्लोक में शुक्ललेश्या का वर्जन और ४६ वें श्लोक नृशंस का अर्थ है-जीव हिंसा करने में निःशंक तथा निःशंस में शुक्ललेश्या का प्रतिपादन-दोनों केवली की अपेक्षा से हैं। का अर्थ है--दूसरों की प्रशंसा से रहित। १९. (श्लोक ४६) १२. धर्म से दृढ़ है (दढधम्मे) प्रस्तुत श्लोक में शुक्ल लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष स्थानांग सूत्र में चार प्रकार के पुरुष उल्लिखित हैं न्यून एक करोड़ पूर्व की बतलाई गई है। वृत्तिकार का मत है (१) कुछ पुरुष प्रियधर्मा होते हैं, दृढ़थर्मा नहीं। कि एक करोड़ पूर्व की आयुष्य वाला कोई पुरुष आठ वर्ष की (२) कुछ पुरुष दृढ़धर्मा होते हैं, प्रियधर्मा नहीं। अवस्था में ही मुनि बन जाता है। उस वय में शुक्ल लेश्या (३) कुछ पुरुष प्रियधर्मा भी होते हैं और दृढ़धर्मा भी। संभव नहीं होती। एक वर्ष के मुनि-पर्याय के पश्चात् ही (४) कुछ पुरुष न प्रियधर्मा होते हैं और न दृढ़धर्मा। उसका उदय होता है। इसलिए यहां नौ वर्ष न्यून की बात कही बृहद्वृत्ति में दृढ़धर्मा का अर्थ- 'स्वीकृत व्रतों का निर्वहन गई है। करने वाला'—किया है।' प्रव्रज्या नौवें वर्ष में प्राप्त होती है इसका समर्थन १३. पापभीरु है (वज्जभीरू) भगवती से होता है। वहां दीक्षा-पर्याय का कालमान देशून नौ वज्ज और अवज्ज—ये दो शब्द हैं। वज्ज का संस्कृत वर्ष न्यून करोड पूर्व बतलाया गया है।" इससे फलित होता है रूप 'वा' और अवज्ज का 'अवद्य' है। दोनों का अर्थ कि दीक्षा कुछ कम नौ वर्ष की अवस्था में प्राप्त होती है, एक-सा है। वृत्तिकार ने वज्ज को अवज्ज मानकर उसके आठवें वर्ष में नहीं। बृहत्कल्प भाष्य में दीक्षा की न्यूनतम आयु अकार का लोप माना है। किन्तु यह आवश्यक नहीं है। वज्ज साधिक आठ वर्ष की है। इसका तात्पर्य है कि जब मुमुक्षु सवा (वर्य) ही अपने अर्थ की अभिव्यक्ति में सक्षम है। आठ वर्ष का हो जाता है तब गर्भ के नौ मास मिलाने पर नौंवें १४. अत्यल्पभाषी है (पयणुवाई) वर्ष में उसे दीक्षा प्राप्त हो सकती है। इसके दो अर्थ होते हैं—मितभाषी तथा धीमे बोलने २०. (श्लोक ४८) वाला। वृत्ति में इसका अर्थ मितभाषी किया है। भवनपति और व्यन्तर देवों के कृष्ण लेश्या की जघन्य १५. अन्तर्मुहूर्त (मुहुत्तद्ध) स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के यहां 'अद' आधे का अर्थ..एक का समप्रविभाग असंख्यातवें भाग की कही गई है। इसका तात्पर्य यह है कि आधा नहीं है। इसका अर्थ नुहूर्त का एक भाग, दो भाग या तीन इन देवों की जघन्य आयु दस हजार वर्ष की होती है, इसलिए भाग भी हो सकता है। तात्पर्य है-अपूर्ण, मुहूर्त, अन्तर, मुहूर्त। कृष्णलेश्या की जघन्य स्थिति भी इतनी ही होगी। उत्कृष्ट १६. अन्तर्मुहूर्त अधिक (मुहुत्तहिया) स्थिति का जो उल्लेख है वह मध्यम आयुष्य वाले इन देवों की मुहूर्त अधिक का तात्पर्यार्थ है अन्तमुहूर्त अधिक। जो अपर १. देशीशब्दकोश-णिद्धंधसो-देशीवचनमेतत् अकृत्यं प्रतिसेवमानः मित्युक्तं भवति। (व्यभा १ टी प १२) ६. वही, पत्र ६५८ : मुहुत्तहियं त्ति इहोत्तरत्र च मुहूर्तशब्देन मुहूर्तेकदेश २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५६ : णिद्धंधस त्ति अत्यन्तमैहिकामुष्मिकापायशंका- एवोक्ताः, समुदायेषु हि प्रवृत्ता शब्दा अवयवेष्यपि वर्त्तन्ते यथा ग्रामो विकलोऽत्यन्तं जन्तुबाधानपेक्षो वा। दग्धः पटो दग्ध इति। ३. वही, पत्र ६५६ : णिस्संसो त्ति नृशंसः निस्तूंशो जीवान् विहिंसन् १०. वही, पत्र ६६० : इह च यद्यपि कश्चित् पूर्वकोट्यायुरष्टवार्षिक एव मनागपि न शंकते, निःशंसो वा-परप्रशंसारहितः। व्रतपरिणाममाप्नोति तथापि नैतावद् वयःस्थस्य वर्षपर्यायाद् अर्वाक् ४. ठाणं ४।४२१॥ शुक्ललेश्यायाः सम्भव इति नवभिर्वर्षयूंना पूर्वकोटिरुच्यते। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ६५६ : दृढधर्मा-अंगीकृतव्रतादिनिर्वाहकः । ११. भगवई २५१५३३ : सामाइयसंजए णं भंते ! कालओ केवच्चिर होई? ६. वही, पत्र ६५६-६५७ : वज्जत्ति वयं प्राकृतत्वाद् अकारलोपे अवध, गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणएहिं नवहिं वासेहिं चोभयत्र पापं....। ऊणिया पुचकोडी। एवं छेदोवट्ठावणिए वि। ७. वही, पत्र ६५७ : प्रतनुवादी-स्वल्पभाषकः । १२. बृहद्वृत्ति, पत्र ६६०: एवंविधविमध्यमायुषामेव भवनपतिव्यन्तराणामिय ८. वही, पत्र ६५८ : इह च समप्रविभागस्य अविवक्षितत्वाद् अन्तर्मुहूर्त- द्रष्टव्या। Jain Education Intemational Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५८८ अध्ययन ३४ :श्लोक ४६-६०टि० २१-२३ प्रज्ञापना में भवनपति देवों की जघन्य स्थिति दस हजार लेस्सा-पदवर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति सातिरेक एक सागर की बताई है। १४७. कति णं भंते! लेस्साओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! वानव्यंतर देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और छल्लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा—कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा ।। उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम की बताई है। अतः प्रस्तुत श्लोक परिणमणभाव-पदं में जो उत्कृष्ट स्थिति है वह मध्यम आयु वाले भवनपति और १४८. से णूणं भंते ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए वानव्यंतर देवों की अपेक्षा से है। तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भूज्जो-भुज्जो २१. (श्लोक ४९) परिणमति? इतो आढतं जहा चउत्थुद्देसए तहा भाणियव्यं जाव नीललेश्या का कथन भी सापेक्ष है। यहां जो असंख्यातवां वेरुलियमणिदिट्टतो त्ति ।। भाग कहा गया है वह बृहत्तर असंख्येय भाग गृहीत है। कृष्ण १४६. से णूणं भंते ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो लेश्या के प्रसंग में असंख्येय भाग छोटा है और यहां वह बड़ा तारूवत्ताए णो तावण्णत्ताए णो तागंधत्ताए णो तारसत्ताए णो ताफासताए भुज्जो-भुज्जो परिणमति? हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा २२. (श्लोक ५२) णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए णो तावण्णत्ताए णो तागंधत्ताए यहां मूलपाट में श्लोक-व्यत्यय है। ५२ वें श्लोक के णो तारसत्ताए णो ताफासत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमति।। स्थान पर ५३ वां और ५३ वें के स्थान पर ५२ वा श्लोक होना १५०. से केणठेणं भंते! एवं वुच्चति—कण्हलेस्सा चाहिए। क्योंकि ५१वें श्लोक में आगमकार भवनपति, वाणव्यन्तर, नीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो परिणमति ? ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की तेजोलेश्या के कथन की गोयमा ! आगारभावमाताए वा से सिया पलिभागभावमाताए प्रतिज्ञा करते हैं, किन्तु ५२ वें श्लोक में निरूपित तेजोलेश्या वा से सिया कण्हलेस्सा णं सा, णो खलु सा णीललेसा, केवल वैमानिक देवों की अपेक्षा से है, जब कि ५३ वें श्लोक तत्थ गता उस्सक्कति। से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चतिमें प्रतिपादित लेश्या का कथन चारों प्रकार के देवों की अपेक्षा कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो से है। परिणमति।। २३. (श्लोक ६०) १५१. से णूणं भंते ! णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो परिणमति? हंता गोयमा ! प्राणी जिस लेश्या में मरता है, उसी लेश्या में उत्पन्न णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो होता है। इसका तात्पर्य है कि वर्तमान भव का आयुष्य जब परिणमति।। अन्तर्मुहूर्त परिमाण शेष रहता है, उस समय परभव की लेश्या १५२. से केपट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ–णीललेस्सा का परिणाम आरब्ध हो जाता है। वह परिणाम अन्तर्मुहूर्त तक काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो परिणमति? वर्तमान जीव में रहता है और अन्तर्मुहूर्त तक परभव में गोयमा ! आगारभावमाताए वा से सिया पलिभागभावमाताए वा उत्पन्न होने के पश्चात् रहता है। दो अन्तर्मुहूर्तों तक लेश्या सिया णीललेस्सा णं सा, णो खलु सा काउलेस्सा, तत्थ गता की अवस्थिति एक सामान्य नियम है। उस्सक्कति 'वा ओसक्कति वा' से तेणठेणं गोयमा। एवं नारक और देवों के लिए कुछ विशेष नियम हैं। दो वुच्चइ–णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव अन्तर्मुहूर्तों का नियम उन पर भी लागू होता है, किन्तु वे जिस भुज्जो-भुज्जो परिणमति।। लेश्या में उत्पन्न होते हैं उस लेश्या के परिणाम उनके आयुष्य १५३. एवं काउलेस्सा तेउलेस्सं पप्प, तेउलेस्सा पम्हलेस्सं पर्यन्त रहते हैं। पप्प, पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सं पप्प ।। लेश्या की विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य-प्रज्ञापना, १५४. से गूणं भंते ! सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प णो पद १७। तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो परिणमति? हंता गोयमा ! श्री भिक्षु आगम विषय कोश पृ० ५५५-५६४। सुक्कलेस्सा पम्हलेसं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो-भुज्जो विशेष जानकारी के लिए प्रज्ञापना के मूलपाठ के कुछ परिणमति।। अंश तथा उनकी वृत्ति यहां उद्धृत की जा रही है १. पन्नवणा, ४३१ तथा १६५। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६६० : ....बृहत्तरोऽयमसंख्येयभागो गृह्यते। ३. वही, पत्र ६६२ : उक्तं हि प्रज्ञापनायाम्-'जल्लेसाई दव्वाइं आयतित्ता कालं करेति तल्लेसेसु उववज्जइ।' वृत्तिकार ने इसको प्रज्ञापना का पाठ मानकर उद्धृत किया है। प्रज्ञापना में यह पाठ प्राप्त नहीं है। ४. वही, पत्र ६६२ : अन्तर्मुहत्तें गत एव अतिक्रांत एव, तथा अन्तर्मुहूतें शेषके चैव-अवतिष्ठमान एव लेश्याभिः परिणताभिरुपलक्षिता जीवा गच्छन्ति परलोक-भवांतरम् इत्थं चैतन्मृतिकाले भाविभवलेश्याया उत्पत्तिकाले वा अतीतभवलेश्याया अन्तर्मुहूर्त्तमवश्यम्भावात् । ५. वही, पत्र ६६२ : देवनारकाणां स्वस्वलेश्यायाः प्रागुत्तरभवांतर्मुहूर्त द्वयसहितनिजायुःकालं यावद् अवस्थितत्वात् । Jain Education Intemational Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्या-अध्ययन ५८९ अध्ययन ३४ : श्लोक ६० टि० २३ १५५. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति—सुक्कलेस्सा विशिष्टः प्रतिबिम्ब्यवस्तुगत आकारः प्रतिभाग एव प्रतिभागमात्रा जाव णो परिणमति? गोयमा ! आगारभावमाताए वा जाव तया, अत्रापि मात्रा शब्दः प्रतिबिम्बातिरिक्तपरिणामन्तरव्युदासार्थः सुक्कलेस्सा णं सा, णो खलु सा पम्हलेस्सा, तत्थ गता ओसक्कति, स्यात् । कृष्णलेश्या नीललेश्यारूपतया, परमार्थतः पुनः कृष्णलेश्यैव से तेणटूठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जाव णो परिणमति ।। नो खलु नीललेश्या सा स्वस्वरूपापरित्यागात्, न खल्वादर्शादयो पण्णवणा वृत्ति, पत्र ३७१, ३७२ जपाकुसुमादिसन्निधानतस्ततप्रतिबिम्बमात्रामादधाना नादर्शादय इति देवनै रयिका हि पूर्वगतचरमान्तर्मुहूर्तादारभ्य यावत् परिभावनीयमेतत्, केवलं सा कृष्णलेश्या तत्र-स्वस्वरूपे गतापरभवगतमाद्यमन्तर्मुहूर्तं तावदवस्थितलेश्याकाः ततोऽमीषां अवस्थिता सती उत्ष्वष्कते तदाकारभावमात्रधारणतस्तत्प्रतिबिम्बकृष्णादिलेश्याद्रव्याणां परस्परसम्पर्केऽपि न परिणम्यपरिणामकभावो मात्रधारणतो वोत्सर्पतीत्यर्थः, कृष्णलेश्यातो हि नीललेश्या विशुद्धा घटते ततः सम्यगधिगमाय प्रश्नयति ततस्तदाकारभावं तत्प्रतिबिम्बमात्रं वा दधाना सती मनाक् विशुद्धा से नूणं भंते ! इत्यादि, सेशब्दोऽथशब्दार्थः, स च प्रश्ने, भवतीत्युत्सर्पतीति व्यपदिश्यते, अथ नूनं-निश्चितं भदन्त ! कृष्णलेश्या-कृष्णलेश्याद्रव्याणि उपसंहारवाक्यमाह से एएणतुण' मित्यादि, सुगमं । एवं नीललेश्या-नीललेश्याद्रव्याणि प्राप्य, प्राप्तिरिह प्रत्यासन्नत्वमात्रं नीललेश्यायाः कापोतलेश्यामधिकृत्य कापोतलेश्यायास्तेजोलेगृह्यते नतु परिणम्यपरिणामकभावेनान्योऽन्यसंश्लेषः, तद्रूपतया- श्यामधिकृत्य तेजोलेश्यायाः पद्मलेश्यामधिकृत्य पद्मलेश्यायाः तदेव-नीललेश्याद्रव्यगतं रूपं स्वभावो यस्य कृष्णलेश्यास्वरूपस्य शुक्ललेश्यामधिकृत्य सूत्राणि भावनीयानि तत्तद्रूपं तभ्दावस्तद्रूपता तया, एतदेवव्याचष्टेन तद्वर्णतया न सम्प्रति पद्मलेश्यामधिकृत्य शुक्ललेश्याविषयं सूत्रमाहतद्गन्धतया न तद्रसतया न तत्स्पर्शतया भूयो भूयः परिणमते। से नूणं भंते ! सुक्कलेसा पम्हलेसं पप्प' इत्यादि, एतच्च भगवानाह—हन्तेत्यादि, हन्त गौतम! कृष्णलेश्येत्यादि, प्राग्वद् भावनीयं, नवरं शुक्ललेश्यापेक्षया पद्मलेश्या हीनपरिणामा तदेव ननु यदि न परिणमते तर्हि कथं सप्तमनरकपृथिव्यामपि ततः शुक्ललेश्या पद्मलेश्याया आकारभावं तत्प्रतिबिम्बमात्रं वा सम्यक्त्वलाभः स हि तेजोलेश्यादि परिणामे भवति सप्तमनर- भजन्ती मनागविशुद्ध भवति ततोऽवष्वष्कते इत व्यपदिश्यते, कपृथिव्यां च कृष्णलेश्येति, कथं चैतत् वाक्यं घटते? भावपरावत्तीए एवं तेजः कापोतनीलकृष्णलेश्याविषयाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि, पुण सुरनेरइयाणंपि छल्लेसा इति (भावपरावृत्तेः पुनः सुरनैर- ततः पद्मलेश्यामधिकृत्य तेजः कापोतनीलकृष्णलेश्याविषयाणि यिकाणामपि षड् लेश्याः) लेश्यान्तरद्रव्यसम्पर्कतस्तद्रूपतया तेजोलेश्यामधिकृत्य कापोतनीलकृष्णविषयाणि कापोतलेश्यामधिकृत्य परिणामासंभवेन भावपरावृत्तेरेवायोगात्, नीलकृष्णलेश्याविषये नीललेश्यामधिकृत्य कृष्णलेश्याविषयमिति, अत एव तद्विषये प्रश्ननिर्वचनसूत्रे आह अमूनि च सूत्राणि साक्षात् पुस्तकेषु न दृश्यन्ते केवलमर्थतः से केणटेणं भंते ! इत्यादि, तत्र प्रतिपत्तव्यानि, तथा मूलटीकाकारेण व्याख्यानात्, तदेवं यद्यपि प्रश्नसूत्रं सुगमं निर्वचनसूत्रं-आकार:—तच्छायामात्रं देवनैरयिकाणामवस्थितानि लेश्याद्रव्याणि तथापि तत्तदुपादीयमानआकारस्य भावः-सत्ता आकारभावः स एव मात्रा आकार- लेश्यान्तरद्रव्यसम्पर्कतः तान्यपि तदाकारभावमात्रां भजन्त इति भावमात्रा तयाऽऽकारभावमात्रया मात्राशब्द आकारभावाति- भावपरावृत्तियोगतः षडपि लेश्या घटन्त, ततः सप्तनरकपृथिव्यामपि रिक्तपरिणामान्तरप्रतिपत्तिव्युदासार्थः, 'से' इति सा कृष्णलेश्या सम्यक्त्वलाभ इति न कश्चिद्दोषः ।। नीललेश्यारूपतया स्यात् यदि वा प्रतिभागः-प्रतिबिम्बमादर्शादाविव Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणतीसइमं अज्झयणं अणगारमग्गगई पैंतीसवां अध्ययन अनगार-मार्ग-गति Jain Education Intemational Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख अठाईसवें अध्ययन में मोक्ष-मार्ग की गति (अवबोध) दी तहेव हिंसं अलियं, चोज्ज अबंभसेवणं। गई है और इस अध्ययन में अनगार-मार्ग की। इसीलिए इच्छाकामं च लोभ च, संजओ परिवज्जए।। (३५/३) उसका नाम-'मोक्खामग्गगई' और इसका नाम चौंतीसवें अध्ययन (श्लोक ३१) में बतलाया गया है'अणगारमग्गगई'-'अनगार-मार्ग-गति' है। 'धम्मसुक्काणि झायए'-मुनि धर्म्य और शुक्ल ध्यान का अभ्यास अनगार मुमुक्षु होता है, अतः उसका मार्ग मोक्ष-मार्ग से करे। भिन्न कैसे होगा? यदि नहीं होगा तो इसके प्रतिपादन का फिर इस अध्ययन (श्लोक १६) में केवल शुक्लध्यान के क्या अर्थ है? अभ्यास की विधि बतलाई गई है—'सुक्कझाणं झियाएज्जा'। इस प्रश्न को हम इस भाषा में सोचें-मोक्ष-मार्ग व्यापक इसमें मृत्यु-धर्म की ओर भी इंगित किया गया है। मुनि शब्द है। उसके चार अंग हैं-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपः जब तक जीए तब तक असंग जीवन जीए और जब काल-धर्म नाणं च दसणं चेव, चरितं च तवो तहा। उपस्थित हो, तब वह आहार का परित्याग कर दे (श्लोक एस मग्गो त्ति पन्नत्तो जिणेहि वरदसिहि।। (२८१२) २०)। आगमकार को अनशनपूर्वक मृत्यु अधिक अभीप्सित है। अनगार-मार्ग मोक्ष-मार्ग की तुलना में सीमित है। ज्ञान, जीवन-काल में देह-व्युत्सर्ग के अभ्यास का निर्देश दिया दर्शन और तप की आराधना गृहवास में भी हो सकती है। गया है (श्लोक १६)। देह-व्युत्सर्ग का अर्थ देह-मुक्ति नहीं, उसके जीवन में केवल अनगार-चारित्र की आराधना नहीं किंतु देह के प्रतिबन्ध से मक्ति है। मनुष्य के लिए देह तब तक होती। प्रस्तुत अध्ययन में उसी का प्रतिपादन है। इस तथ्य को बन्धन रहता है, जब तक वह देह से प्रतिबद्ध रहता है। देह इस भाषा में भी रखा जा सकता है कि प्रस्तुत अध्ययन में के प्रतिबन्ध से मुक्त होने पर वह मात्र साधन रहता है, बन्धन मोक्ष-मार्ग के तीसरे अंग (चारित्र) के द्वितीय अंश- नहीं। अनगार-चारित्र-का कर्त्तव्य-निर्देश है। देह-व्युत्सर्ग असंग का मुख्य हेतु है। यही अनगार का इस अध्यन का मुख्य प्रतिपाद्य संग-विज्ञान है। संग का मार्ग है। इससे दुःखों का अंत होता है (श्लोक १)। अनगार का अर्थ लेप या आसक्ति है। उसके १३ अंग बतलाए गए हैं- मार्ग दुःख-प्राप्ति के लिए नहीं, किन्तु दुःख-मुक्ति के लिए है। १. हिंसा, ८. गृह-निर्माण, अनगार दुःख को स्वीकार नहीं करता, किन्तु उसके मूल को २. असत्य, ६. अन्न-पाक, विनष्ट करने का मार्ग चुनता है और उसमें चलता है। उस पर ३. चौर्य, १०. धनार्जन की वृत्ति, चलने में जो दुःख प्राप्त होते हैं, उन्हें वह झेलता है। ४. अब्रह्म-सेवन, ११. प्रविद्ध-भिक्षा, मनोहर गृह का त्याग और श्मशान, शून्यगार व वृक्ष-मूल ५. इच्छा-काम, १२. स्वाद-वृत्ति, में निवास कष्ट है पर यह कष्ट झेलने के लक्ष्य से निष्पन्न ६. लोभ, १३. पूजा की अभिलाषा। कष्ट नहीं है, किन्तु इंद्रिय-विजय (श्लोक ४,५) के मार्ग में ७. संसक्त-स्थान, प्राप्त कष्ट है। इसी प्रकार अन्न-पाक न करना और भिक्षा इक्कीसवें अध्ययन में पांचवा महाव्रत अपरिग्रह है। इस लेना कष्ट है पर यह भी अहिंसा-धर्म के अनुपालन में प्राप्त अध्ययन में उसके स्थान पर इच्छा-काम व लोभ-वर्जन है: कष्ट है। (श्लोक १०,११,१२,१६) अहिंस सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बंभ अपरिग्गहं च। इस प्रकार इस लघु-काय अध्ययन में अनेक महत्त्वपूर्ण पडिवज्जिया पंच महन्वयाणि, चरिज्ज धम्म जिणदेसियं विऊ। चर्या-अंगों की प्ररूपणा हुई है। (२१।१२) Jain Education Intemational Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणतीसइमं अज्झयणं : पैंतीसवां अध्ययन अणगारमग्गगई : अनगार-मार्ग-गति मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद तुम एकाग्र मन होकर बुद्धों (तीर्थंकरों) के द्वारा उपदिष्ट उस मार्ग को मुझ से सुनो, जिसका आचरण करता हुआ भिक्षु दुःखों का अन्त कर देता है। २. जो मुनि गृह-वास को छोड़ कर प्रव्रज्या को अंगीकार कर चुका, वह उन संगों (लेपों) को जाने, जिनसे मनुष्य सक्त (लिप्त) होता है। 3. संयमी मुनि हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य-सेवन, इच्छा-काम (अप्राप्त वस्तु की आकांक्षा) और लोभ इन-सबका परिवर्जन करे। जो स्थान मनोहर चित्रों से आकीर्ण, माल्य और धूप से सुवासित, किवाड़ सहित', श्वेत चन्दवा से युक्त हो वैसे स्थान की मन से भी अभिलाषा न करे। सुणेह मेगग्गमणा मग्गं बुद्धेहि देसियं जमायरंतो भिक्खू दुक्खाणंतकरो भवे ।। गिहवासं परिच्चज्ज पवज्जं अस्सिओ मुणी। इमे संगे वियाणिज्जा जेहिं सज्जति माणवा।। तहेव हिंसं अलियं चोज्जं अबंभसेवणं। इच्छाकामं च लोभं च संजओ परिवज्जए।। मणोहरं चित्तहरं मल्लधूवेण वासियं। सकवाडं पंडुरुल्लोयं मणसा वि न पत्थए।। इंदियाणि उ भिक्खुस्स तारिसम्मि उवस्सए। दुक्कराई निवारेउं कामरागविवड्डणे।। सुसाणे सुन्नगारे वा रुक्खमूले व एक्कओ। पइरिक्के परकडे वा वासं तत्थभिरोयए।। फासुयम्मि अणाबाहे इत्थीहिं अणभिदुए। तत्थ संकप्पए वासं भिक्खू परमसंजए।। न सयं गिहाई कुज्जा णेव अन्नेहिं कारए। गिहकम्मसमारंभे भूयाणं दीसई वहो।। शृणुत मे एकाग्रमनसः मार्ग बुद्धैर्देशितम्। यमाचरन् भिक्षुः दुःखानामन्तकरो भवेत्।। गृहवासं परित्यज्य प्रव्रज्यामाश्रितो मुनिः। इमान् संगान् विजानीयात् येषु सज्यन्ते मानवाः।। तथैव हिंसामलीकं चौर्यमब्रह्मसेवनम्। इच्छाकामं च लोभं च संयतः परिवर्जयेत्।। मनोहरं चित्रगृहं माल्यधूपेन वासितम्। सकपाटं पाण्डुरोल्लोचं मनसाऽपि न प्रार्थयेत्।। इन्द्रियाणि तु भिक्षोः तादृशे उपाश्रये। दुष्कराणि निवारयितुं कामरागविवर्धने।। श्मशाने शून्यागारे वा वृक्षमूले वा एककः। प्रतिरिक्ते परकृते वा वासं तत्राभिरोचयेत्।। प्रासुके अनाबाधे स्त्रीभिरनभिद्रुते। तत्र संकल्पयेद् वासं भिक्षुः परमसंयतः।। न स्वयं गृहाणि कुर्वीत नैव अन्यैः कारयेत्। गृहकर्मसमारम्भे भूतानां दृश्यते वधः।। ५. काम-राग को बढ़ाने वाले वैसे उपाश्रय में इन्द्रियों का निवारण करना उन पर नियन्त्रण पाना भिक्षु के लिए दुष्कर होता है। ६. इसलिए एकाकी भिक्षु श्मशान में, शून्यगृह में, वृक्ष के मूल में अथवा परकृत एकान्त स्थान में रहने की इच्छा करे। परम संयत भिक्षु प्रासुक, अनाबाध और स्त्रियों के उपद्रव से रहित स्थान में रहने का संकल्प करे। ८. भिक्षु न स्वयं घर बनाए और न दूसरों से बनवाए। गृह-निर्माण के समारम्भ (प्रवृत्ति) में जीवों-त्रस और स्थावर, सूक्ष्म और वादर--का वध देखा जाता है। इसलिए संयत भिक्षु गृह-समारम्भ का Jain Education Intemational Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३५ : श्लोक-१८ परित्याग करे। भक्त-पान के पकाने और पकवाने में हिंसा होती है, अतः प्राणों और भूतों की दया के लिए भिक्षु न पकाए और न पकवाए। भक्त और पान के पकाने में जल और धान्य के आश्रित तथा पृथ्वी और काष्ट के आश्रित जीवों का हनन होता है, इसलिए भिक्षु न पकवाए। अग्नि फैलने वाली, सब ओर से धार वाली और बहुत जीवों का विनाश करने वाली होती है, उसके समान दूसरा कोई शस्त्र नहीं होता, इसलिए भिक्षु उसे न जलाए। क्रय और विक्रय से विरत, मिट्टी के ढेले और सोने को समान समझने वाला भिक्षु सोने और चांदी की मन से भी इच्छा न करे। अनगार-मार्ग-गति ५९३ ६. तसाणं थावराणं च त्रसानां स्थावराणां च सुहमाणं बायराण य। सूक्ष्माणां बादराणां च तम्हा गिहसमारंभ तस्माद् गृहसमारम्भ संजओ परिवज्जए।। संयतः परिवर्जयेत् ।। १०. तहेव भत्तपाणेसु तथैव भक्तपानेषु पयण पयावणेसु य। पचनापाचनेषु च। पाणभूयदयट्ठाए प्राणभूतदयार्थ न पये न पयावए।। न पचेत् न पाचयेत्।। ११. जलधन्ननिस्सिया जीवा जल-धान्य-निश्रिता जीवाः पुढवीकट्ठनिस्सिया। पृथिवीकाष्ठनिश्रिताः। हम्मति भत्तपाणेसु हन्यन्ते भक्तपानेषु तम्हा भिक्खू न पायए।। तस्माद् भिक्षुर्न पाचयेत् ।। १२. विसप्पे सव्वओधारे विसर्पत् सर्वतोधारं बहुपाणविणासणे। बहुप्राणिविनाशनम्। नत्थि जोइसमे सत्थे नास्ति ज्योतिःसमं शस्त्रं तम्हा जोइं न दीवए।। तस्माज्ज्योतिर्न दीपयेत्।। १३. हिरण्णं जायरूवं च हिरण्यं जातरूपं च मणसा वि न पत्थए। मानसाऽपि न प्रार्थयेत्। समलेठुकंचणे भिक्खू समलेष्टुकांचनो भिक्षुः विरए कयविक्कए।। विरतः क्रयविक्रयात्।। १४. किणंतो कइओ होइ क्रीणन् क्रयिको भवति विक्किणंतो य वाणिओ। विक्रीणन् च वाणिजः। कयविक्कयम्मि वट्टतो क्रयविक्रये वर्तमानः भिक्खू न भवइ तारिसो।। भिक्षुर्न भवति तादृशः ।। १५. भिक्खियव्वं न केयव्वं भिक्षितव्यं न क्रेतव्यं भिक्खुणा भिक्खवत्तिणा। भिक्षुणा भैक्षवृत्तिना। कयविक्कओ महादोसो क्रयविक्रयो महान् दोषो भिक्खावत्ती सुहावहा ।। भिक्षावृत्तिः सुखावहा ।। १६. समुयाणं उछमेसिज्जा समुदानमुञ्छमेषयेत् जहासुत्तमणिंदियं। यथासूत्रमनिन्दितम्। लाभालाभम्मि संतुझे लाभालाभे सन्तुष्टः पिंडवायं चरे मुणी।। पिण्डपातं चरेत् मुनिः।। १७. अलोले न रसे गिद्धे अलोलो न रसे गृद्धो जिब्भादंते अमुच्छिए। दान्तजिहोऽमूर्छितः। न रसट्ठाए भुंजिज्जा न रसा) भुंजीत जवणट्ठाए महामुणी।। यापनार्थ महामुनिः।। १८. अच्चणं रयणं चेव अचर्ना रचनां चैव वंदणं पूयणं तहा। वन्दनं पूजनं तथा। इड्डीसक्कारसम्माणं ऋद्धिसत्कारसम्मानं मणसा वि न पत्थए।। मनसाऽपि न प्रार्थयेत्।। वस्तु को खरीदने वाला क्रयिक होता है और बेचने वाला वणिक् । क्रय और विक्रय में वर्तन करने वाला भिक्षु वैसा नहीं होता-उत्तम भिक्षु नहीं होता। भिक्षा-वृत्ति वाले भिक्षु को भिक्षा ही करनी चाहिए, क्रय-विक्रय नहीं। क्रय-विक्रय महान् दोष है। भिक्षा-वृत्ति सुख को देने वाली है। मुनि सूत्र के अनुसार, अनिन्दित और सामुदायिक उञ्छ की एषणा करे। वह लाभ और अलाभ से सन्तुष्ट रहकर पिण्ड-पात (भिक्षा) की चर्या करे। अलोलुप, रस में अगृद्ध, जीभ का दमन करने वाला और अमूच्छित महामुनि रस (स्वाद) के लिए न खाए, किन्तु जीवन-निर्वाह के लिए' खाए। मुनि अर्चना, रचना (अक्षत, मोती आदि का स्वस्तिक बनाना), वन्दना, पूजा, ऋद्धि, सत्कार और सम्मान की मन से भी प्रार्थना (अभिलाषा) न करे। Jain Education Intemational Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५९४ अध्ययन ३५ : श्लोक १६-२० मुनि शुक्ल ध्यान ध्याए। अनिदान और अकिंचन रहे। वह जीवन भर व्युत्सृष्टकाय (देहाध्यास से मुक्त) होकर विहार करे। १६. सुक्कझाणं झियाएज्जा अणियाणे अकिंचणे। वोसट्ठकाए विहरेज्जा जाव कालस्स पज्जओ।। २०. निज्जूहिऊण आहारं कालधम उवट्ठिए। जहिऊण माणुसं बोंदिं पहू दुक्खे विमुच्चई।। २१. निम्ममो निरहंकारो वीयरागो अणासवो। संपत्तो केवलं नाणं सासयं परिणिब्बुए।। –त्ति बेमि। शुक्लध्यानं ध्यायेत् अनिदानोऽकिंचनः। व्युत्सृष्टकायो विहरेत् यावत्कालस्य पर्ययः ।। निर्दूह्य आहारं कालधर्मे उपस्थिते। त्यक्त्वा मानुषं शरीरं प्रभुर्दुःखैर्विमुच्यते।। निर्ममो निरहंकारो वीतरागोऽनाश्रवः सम्प्राप्तः केवलं ज्ञानं शाश्वतं परिनिर्वृतः।। समर्थ मुनि काल-धर्म में उपस्थित होने पर आहार का परित्याग करके, मनुष्य शरीर को छोड़ कर दुःखों से विमुक्त हो जाता है। ममकार से शून्य और निरहंकार, वीतराग और आश्रवों से रहित मुनि शाश्वत केवलज्ञान को प्राप्त कर परिनिर्वृत हो जाता है—सर्वथा आत्मस्थ हो जाता है। -ऐसा मैं कहता हूं। -इति ब्रवीमि। Jain Education Intemational Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन ३५ : अनगार-मार्ग-गति १. किवाड सहित (सकवाड) होना। "ये थोड़े किन्तु सुलभ और निर्दोष हैं।" भगवान् द्वारा महात्मा बुद्ध ने किवाड़ वाले कोठों में न रहने को प्रशंसित होने का प्रत्यय, हर समय पेड़ की पत्तियों के विकारों अपनी पूजा का कारण मानने से इनकार किया है। उन्होंने को देखने से अनित्य का ख्याल पैदा होना, शयनासन की कहा है-“उदायी! '० जैसे तैसे शयनासन से सन्तुष्ट, कंजूसी और (नाना) काम जुटे रहने का अभाव, देवताओं के सन्तुष्टता-प्रशंसक ०' इससे यदि मुझे श्रावक ० पूजते ०; तो साथ रहना, अल्पेच्छता आदि के अनुसार वृत्ति। उदायी! मेरे श्रावक वृक्ष-मूलिक (=वृक्ष के नीचे सदा रहने वण्णितो बुद्धसेठेन निस्सयोति च भासितो। वाले), अब्भोकाशिक (अध्यवकाशिक-सदा चौड़े में रहने निवासो पविवित्तस्स रुक्खमूल समो कुतो।। वाला) भी हैं, वह आठ मास (वर्षा के चार मास छोड़) छत के (श्रेष्ठ भगवान बुद्ध द्वारा प्रशंसित और निश्रय कहे गए नीचे नहीं आते। मैं तो उदायी ! कभी-कभी लिपे-पोते एकांत निवास के लिए वृक्षमूल के समान दूसरा क्या है ?) वायु-रहित, किवाड़ खिड़की-बन्द कोठों (=कूटागारों) में भी आवासमच्छेर हरे देवता परिपालिते। विहरता हूं।" पविविते वसन्तो हि रुक्खमूलम्हि सुब्बतो।। २. (श्लोक ६) अभिरत्तानि नीलानि पण्डूदि पतितानि च। बौद्ध-भिक्षुओं के लिए तेरह धुतागों का विधान है। पस्सन्तो तरूपण्णानि निच्चसज पनूदति। उनमें नौवां धुताग वृक्ष-मूलिकांग और ग्यारहवां धुताङ्ग (मठ ‘सम्बन्धी') कंजूसी दूर हो जाती है। देवताओं द्वारा श्मशानिकांग है। विशुद्धि मार्ग में कहा है प्रतिपालित एकांत में वृक्ष के नीचे रहता हुआ, शीलवान् ___ वृक्ष-मूलिकांग भी—“छाये हुए को त्यागता हूं, वृक्ष के (राभक्षु) लाल, नीले और गिरे हुए, पेड़ के पत्तों को देखते, नीचे रहने को ग्रहण करता हूं" इनमें से किसी एक वाक्य से नित्य (होने) के ख्याल को छोड़ देता है। ग्रहण किया होता है। उस वृक्षमूलिक को (संघ--) सीमा के तस्मा हि बुद्धदायज भावनाभिरतालय। वृक्ष, (देवी-देवताओं के) चैत्य पर के वृक्ष, गोंद के पेड़, फले विवित्तं नातिमजेय्य रुक्खमूलं विचक्षणो। हुए पेड़, चमगीदड़ों वाला पेड़, धोंधड़ वाला पेड़, विहार के (इसलिए बुद्ध-दायाद, भावना में लगे रहने के आलय बीच खड़े पेड़-इन पेड़ों को छोड़कर विहार से दूर वाले पेड़ और एकांत वृक्षमूल की बुद्धिमान (भिक्षु) अवहेलना न करे)।' को ग्रहण करना चाहिए। यह इसका विधान है। निदान कथा (जातकट्ठकथा, पृष्ठ १३,१४) में वृक्ष-मूल प्रभेद से यह भी तीन प्रकार का होता है। उनमें उत्कृष्ट । में रहने के दस गुण बतलाए हैं। रुचि के अनुसार पेड़ ग्रहण करके साफ-सुथरा नहीं करा श्मशानिकांग भी-“श्मशान को नहीं त्यागूंगा, श्मशानिकांग सकता। गिरे हुए पत्तों को पैरों से हटा कर उसे रहना चाहिए। को ग्रहण करता हूं", इनमें से किसी एक वाक्य से ग्रहण किया मध्यम उस स्थान को आए हुए आदमियों से साफ-सुथरा करा होता है। उस श्मशानिक को, जो कि आदमी गांव बसाते हुए सकता है। मृदु को मठ के श्रामणेरों को बुला कर साफ करवा, “यह श्मशान है" मानते हैं, वहां नहीं रहना चाहिए। क्योंकि बराबर करके बालू छिंटवा, चहारदिवारी से घरा बनवा कर, बिना मुर्दा जलाया हुआ (स्थान) श्मशान नहीं होता। जलाने के दरवाजा लगवा रहना चाहिए। पूजा के दिन वृक्षमूलिक को वहां समय से लेकर यदि बारह वर्ष भी छोड़ा गया रहता है, तो न बैठ कर, दूसरी जगह आड़ में बैठना चाहिए। इन तीनों की (वह) श्मशान ही है। (वह) धुतांग छाये हुए (स्थान) में वास करने के क्षण टूट जाता है। उसमें रहने वाले को चंक्रमण, मंडप आदि बनवा, “जान कर छाये हुए (स्थान) में अरुणोदय उगाने पर" । चारपाई-चौकी बिछा कर, पीने के लिए पानी रख धर्म वांचते अंगुत्तर-भाणक कहते हैं। यह भेद (=विनाश) है। हुए नहीं रहना चाहिए। यह धुतांग बहुत कठिन है। इसलिए ___यह गुण है-“वृक्ष मूल वाले शयनासन के सहारे उत्पन्न उपद्रव को मिटाने के लिए संघ-स्थविर (=संघ के बूढ़े प्रव्रज्या है।" इस वाक्य से निश्चय के अनुसार प्रतिपत्ति का भिक्षु) या राज-कर्मचारी को जना कर अप्रमाद के साथ रहना १. मज्झिमनिकाय, २।३।७, पृ० ३०७। २. विशुद्धिमार्ग, भाग १, पृ०७३-७४ । Jain Education Intemational ste & Personal Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५९६ अध्ययन ३५ : श्लोक १६-२० टि० ३-६ चाहिए। चंक्रमण करते समय, आधी आंख से मुर्दा-घाटी सोसानिकङ्गमिति नेकगुणावहत्ता। ( मुर्दा जलाने के स्थान) को देखते हुए चंक्रमण करना निब्बाननिन्न हृदयेन निसेवितब्ब।। चाहिए। श्मशान में जाते हुए भी महामार्ग से उतरकर, बे-राह (बहुत संवेग उत्पन्न होता है। घमंड नहीं आता। वह जाना चाहिए। दिन में ही आलम्बन को भलीभांति देखकर शांति (=निर्वाण) को खोजते हुए भलीभांति उद्योग करता है, (मन में) बैठा लेना चाहिए। इस प्रकार (करने से) उसके लिए इसलिए अनेक गुणों को लाने वाले श्मशानिकांग का निर्वाण वह रात्रि भयानक न होगी। अमनुष्यों के शोर करके घूमते हुए की ओर झुके हुए हृदय से सेवा करना चाहिए।' भी किसी चीज से मारना नहीं चाहिए। श्मशान नित्य जाना ३. सूत्र के अनुसार (जहासुत्तं) चाहिए। (रात्री के) बिचले प्रहर को श्मशान में बिता कर 'यथासत्र' का अर्थ है-..-आगम-निर्दिष्ट एषणा के दोषों पिछले पहर में लौटना चाहिए। ऐसा अंगुत्ततर भाणक कहते से रहित भिक्षा।' इसकी संपूर्ण विधि के लिए देखें-दसवेआलियं हैं। अमनुष्यों के प्रिय तिल की पिट्ठी (=तिल का कसार), उर्द का पांचवां अध्ययन। से मिलाकर बनाया भात (=खिचड़ी), मछली, मांस, दूध, तेल, ४. रस (स्वाद) के लिए (रसट्टाए) गड़ आदि खाद्य भाज्य को नहीं खाना चाहिए। (लागा क) घरा रस का एक अर्थ है स्वाद । वत्तिकार ने इसका वैकल्पिक में नहीं जाना चाहिए। यह इसका विधान है। अर्थ-धातुविशेष किया है। शरीर की प्रधान धातुएं सात हैंप्रभेद से यह भी तीन प्रकार का होता है। उत्कृष्ट का रस. रक्त मांस, मेदा, अस्थि मज्जा और शक्र। 'इन धातुओं जहां हमेशा मुर्दे जलाए जाते हैं, हमेशा मुर्दे पड़े रहते हैं, रहत र, के उपचय के लिए'-रस का यह अर्थ भी हो सकता है। पचय हमेशा रोना-पीटना (लगा) रहता है, वहीं बसना चाहिए। ५. जीवन निर्वाह के लिए (जवणट्ठाए) मध्यम के लिए तीनों में से एक के भी होने पर ठीक है। मृदु - इसका अर्थ है—संयम जीवन के निर्वाह के लिए। इसके के लिए उक्त प्रकार से श्मशान को पाने मात्र पर। इन तीनों संस्कृत रूप दो हो सकत हैं--यापनार्थ, यमनार्थं । 'यापनार्थ'का भी धुतांग अ-श्मशान (=जो श्मशान न हो) में वास करने का अर्थ है संयम जीवन के निर्वाह के लिए। 'यमनार्थं' का से टूट जाता है। 'श्मशान को नहीं जाने के दिन' (ऐसा) अर्थ है---इन्द्रियों पर नियंत्रण के लिए अथवा इन्द्रिय-विजय अंगुत्तर-भाणक कहते हैं। यह भेद (=वनाश) है। की साधना करने के लिए। ये दोनों अर्थ प्रासंगिक हैं। यह गुण है..-मरने के ख्यान बने रहना. अप्रमाद के साथ विहरना, अशुभ निमित्त का लाभ, कामराग का दूरीकरण, ६. (श्लोक २०) हमेशा शरीर के स्वभाव को देखना, संवेग की अधिकता, मुनि जब यह देखे कि आयुक्षय निकट है—मृत्यु सन्निकट आरोग्यता, आदि घमण्डों का त्याग, भय और भयानकता की है. तब वह आहार का परित्याग कर अनशन करे। वृत्तिकार सहनशीलता, अमनुष्यों का गौरवनीय होना, अल्पेच्छ आदि के ने यहां एक सुन्दर शिक्षापद प्रस्तुत किया है। अनशन करने अनुसार वृत्ति का होना। वाला तत्काल अनशन न करे। वह अनशन से पूर्व 'संलेखना' सोसानिकं हि मरणानुसतिप्पभावा। के क्रम को स्वीकार करे। तत्काल अनशन करने से अनेक निदागतम्पिन फुसन्ति पमाददोसा।। बाधाएं उपस्थिति हो सकती हैंसम्पस्सतो च कुणपानि बहूनि तस्स। 'देहम्मि असंलिहिए सहसा धाऊहि खिज्जमाणाहिं। कामानुराग वसगम्पि न होति वित्त।। जायइ अट्टज्झाणं सरीरिणो चरमकालमि।।' (श्मशानिक को मरणानुस्मृति के प्रभाव से सोते हुए भी जो साधक संलेखना के क्रम से गुजरने से पूर्व ही प्रमाद से प्राप्त होने वाले दोष नहीं छपाते और बहुत से मर्दो अनशन कर लेता है, उसके मृत्यु के समय आर्त्तध्यान हो को देखते हुए, उसका चित्त कामराग के भी वशीभत नहीं सकता है, क्योंकि भोजन न करने की अवस्था में शरीर की होता।) धातुओं का क्षय होता है और तब शरीर में अनेक उपद्रव खड़े संवेगमेति विपुलं न मदं उपेति। हो जाते हैं। यह आर्त्त-ध्यान का एक कारण बनता है।" सम्मा अथो घटति निब्बुतिमेसमानो। १. विशुद्धिमार्ग, भाग १, पृ०७५-७६। . २. बृहद्वृत्ति, पत्र ६६७ : सूत्रम्-आगमस्तदनतिक्रमेण यथासूत्रम् आगमाभिहित उद्गमैषणाद्यवाधित इत्युक्तं भवति। ३. वही, पत्र ६६७ : रसट्टाए त्ति रसाथ सरसमिदमहमास्वादयामीति धातुविशेषो वा रसः स चाशेषधातूपलक्षणं ततस्तद् उपचयः स्यादित्येतदर्थ .........। ४. बही, पत्र ६६८। Jain Education Intemational Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसइमं अज्झयणं जीवाजीवविभत्ती छत्तीसवां अध्ययन जीवाजीवविभक्ति Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अध्ययन में जीव और अजीव के विभागों का निरूपण किया गया है। इसलिए इसका नाम 'जीवाजीवविभत्ती''जीवाजीवविभक्ति' है । जैन तत्त्वविद्या के अनुसार मूल तत्त्व दो हैं— जीव और अजीव । शेष सब तत्त्व इनके अवान्तर विभाग हैं। प्रस्तुत अध्ययन में लोक की परिभाषा इसी आधार पर की गई है : “जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए" । (श्लो० २ ) प्रज्ञापना के प्रथम पद में जीव और अजीव की प्रज्ञापना की गई है। उसकी जीव प्रज्ञापना का क्रम प्रस्तुत अध्ययन की जीव-विभक्ति से कुछ भिन्न है। यहां संसारी जीवों के दो प्रकार किए गए हैंस और स्थावर स्थावर के तीन प्रकार हैंपृथ्वी, जल और वनस्पति (श्लो० ६८-६६ ) स के भी तीन प्रकार हैं-अग्नि, वायु और उदार (श्लो० १०७ ) । उदार के चार प्रकार हैं- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ( श्लो० १२६ ) । प्रज्ञापना में संसारी जीवों के पांच प्रकार किए गए हैंएकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचनेन्द्रिय ।' | 1 प्रस्तुत अध्ययन के जीव-विभाग में एकेन्द्रिय का उल्लेख नहीं है और प्रज्ञापना में त्रस - स्थावर का विभाग नहीं है। आचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध) सबसे प्राचीन आगम माना जाता है । उसमें जीव-विभाग छह जीव-निकाय के रूप में प्राप्त है छह जीव - निकाय का क्रम इस प्रकार है-पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति, त्रस और वायु । आचारांग के नौवें अध्ययन में छह जीव - निकाय का क्रम भिन्न प्रकार से मिलता है—पृथ्वी, जल, तेजस्, वायु, वनस्पति और त्रस। वहां त्रस और स्थावर ये दो विभाग भी मिलते हैं।* आमुख आचारांग के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि जीवों का प्राचीनतम विभाग छह जीवनिकाय के रूप में रहा है। त्रस और स्थावर का विभाग भी प्राचीन है, किन्तु स्थावर के तीन प्रकार और त्रस के तीन प्रकार यह विभाग आचारांग में नही मिलता। स्थानांग में यह प्राप्त है। सम्भव है स्थानांग से उत्तराध्ययन में यह गृहीत हुआ है। प्रज्ञापना का यह विभाग और भी उत्तरवर्त्ती जान पड़ता है । जीव और अजीव का विशद वर्णन जीवाजीवाभीगम सूत्र १. पण्णवणा, प्रथम पद, सूत्र १४ । २. देखें- आयारो, प्रथम अध्ययन। ३. आयारो, ६ 19 19२ । ४. वही, ६ 1१1१४ । में मिलता है। यह उत्तरवर्ती आगम है, इसलिए इसमें जीव-विभाग सम्बन्धी अनेक मतों का संग्रहण किया गया है : (१) दो प्रकार के जीव- त्रस और स्थावर । (२) तीन प्रकार के जीव—स्त्री, पुरुष और नपुंसक । (३) चार प्रकार के जीव नैरयिक, तिर्यंच-योनिक, मनुष्य और देव । (४) पांच प्रकार के जीव— एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । (५) प्रकार के जीव- पृथ्वीकायिक, अप्रकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और वसकायिक । (६) सात प्रकार के जीवनैरयिक, तियंच, तिची, मनुष्य, स्त्री, देव और देवी । (७) आठ प्रकार के जीव प्रथम समय के नैरयिक, अप्रथम समय के नैरयिक। तिर्यय, तिर्यंच | " 77 27 " 21 カ 27 (८) नौ प्रकार के जीव पृथ्वीकायिक, अप्रकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय (६) दस प्रकार के जीव प्रथम समय के एकेनिद्रय, अप्रथम समय के एकेन्द्रिय । 37 द्वीन्द्रिय । दीन्द्रिय त्रीन्द्रिय त्रीन्द्रिय । चतुरिन्द्रिय पंचेन्द्रिय, " मनुष्य, देव, "" " 37 " " 12 " " " 17 मनुष्य । देव । 27 " चतुरिन्द्रिय। पंचेन्द्रिय । इस प्रकार आगम-ग्रन्थों में अनेक विवक्षाओं से जीवों के अनेक विभाग प्राप्त होते हैं । प्रस्तुत अध्ययन में अजीव के दो भेद किए हैं-रूपी और अरूपी (श्लो० ४) । अरूपी अजीव के दस भेद हैं (श्लो० ४,५,६ ) : (१) धर्मास्तिकाय (२) धर्मास्किाय का देश, (३) धर्मास्तिकाय का प्रदेश, (४) अधर्मास्किाय, ५. ठाणं, ३।३२६,३२७ तिविहा तसा पं० तं० तेउकाइया वाउकाइया उराला तसा पाणा, तिविहा थावरा, तं०—पुढविकाइया आउकाइया वणस्सइकाइया । ६. जीवाजीवाभिगम, प्रतिपत्ति १६ । Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति (५) अधर्मास्तिकाय का देश, (६) अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, (७) आकाशास्तिकाय, (८) आकाशास्तिकाय का देश, (६) आकाशास्तिकाय का प्रदेश और (१०) अद्धा समय। ५९९ अध्ययन ३६ : आमुख रूपी अजीव के चार भेद हैं (श्लो० १०) : (१) स्कन्ध, (२) स्कन्ध - देश, (३) स्कन्ध- प्रदेश और (४) परमाणु । प्रज्ञापना और जीवाजीवाभिगम सूत्र में भी अजीव का यही विभाग मान्य है । Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसइमं अज्झयणं : छत्तीसवां अध्ययन जीवाजीवविभत्ती : जीवाजीवविभक्ति हिन्दी अनुवाद तुम एकाग्र-मन होकर मेरे पास जीव और अजीव का वह विभाग' सुनो, जिसे जानकर श्रमण संयम में सम्यक् प्रयत्न करता है। यह लोक जीव और अजीवमय है। जहां अजीव का देश आकाश ही है, उसे अलोक कहा गया है। संस्कृत छाया जीवाजीवविभक्तिं शृणुत मम एकमनसः इतः। यां ज्ञात्वा श्रमणः सम्यग् यतत संयमे।। जीवाश्चैवाजीवाश्च एष लोको व्याख्यातः। अजीवदेश आकाशः अलोकः स व्याख्यातः।। द्रव्यतः क्षेत्रतश्चैव कालतो भावतस्तथा। प्ररूपणा तेषां भवेत् जीवनामजीवानां च। रूपिणश्चैवाऽरूपिणश्च अजीवा द्विविधा भवेयुः। अरूपिणो दशधोक्ताः रूपिणोऽपि चतुर्विधाः।। जीव और अजीव की प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चार दृष्टियों से होती है।" मूल १. जीवाजीवविभत्ति सुणेह मे एगमणा इओ।। जं जाणिऊण समणे सम्मं जयइ संजमे ।। २. जीवा चेव अजीवा य एस लोए वियाहिए। अजीवदेसमागासे अलोए से वियाहिए।। दव्वओ खेत्तओ चेव कालओ भावओ तहा। परूवणा तेसि भवे जीवाणमजीवाण य।। रूविणो चेवरूवी य अजीवा दुविहा भवे। अरूवी दसहा वुत्ता रूविणो वि चउबिहा।। धममत्थिकाए तद्देसे तप्पएसे य आहिए। अहम्मे तस्स देसे य तप्पएसे य आहिए।। आगासे तस्स देसे य तप्पएसे य आहिए। अद्धासमए चेव अरूवी दसहा भवे ।। धम्माधम्मे य दोवेए लोगमित्ता वियाहिया। लोगालोगे य आगासे समए समयखेत्तिए ।। धम्माधम्मागासा तिन्नि वि एए अणाइया। अपज्जवसिया चेव सव्वद्धं तु वियाहिया।। अजीव दो प्रकार का है-रूपी और अरूपी। अरूपी के दस और रूपी के चार प्रकार हैं।" धर्मास्तिकायरतद्देशः तत्प्रदेशश्चाख्यातः। अधर्मस्तस्य देशश्च तत्प्रदेशश्चाख्यातः ।। धर्मास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश, अधर्मास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश, आकाशास्तिकाय और उसका देश तथा प्रदेश तथा एक अध्वासमय (काल)—ये दस भेद अरूपी अजीव के होते हैं। आकाशस्तस्य देशश्च तत्प्रदेशश्चाख्यातः। अध्वासमयश्चैव अरूपिणो दशधा भवेयुः।। धर्माधर्मों व द्वावप्येतौ लोकमात्रौ व्याख्यातौ। लोकालोके चाकाशः समयः समय-क्षेत्रिकः।। धर्माऽधर्माकाशानि त्रीण्यप्येतान्यनादीनि। अपर्यवसितानि चैव सर्वावं तु व्याख्यातानि।। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय--ये दोनों लोकप्रमाण हैं। आकाश लोक और अलोक दोनों में व्यापत हैं। समय समय-क्षेत्र (मनुष्य लोक) में ही होता है। धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य अनादि-अनन्त और सर्वकालिक होते हैं। Jain Education Intemational Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति अध्ययन ३६ : श्लोक ६-१७ ६. ६०१ समयोऽपि संततिं प्राप्य एवमेव व्याख्यातः। आदेशं प्राप्य सादिकः सपर्यवसितोऽपि च।। समए वि संतइ पप्प एवमेव वियाहिए। आएस पप्प साईए सपज्जवसिए वि य।। प्रवाह की अपेक्षा समय अनादि-अनन्त है। एक-एक क्षण की अपेक्षा से वह सादि-सान्त है। १०. रूपी पुद्गल के चार भेद होते हैं-१. स्कन्ध, २. स्कन्ध-देश, ३. स्कन्ध-प्रदेश और ४. परमाणु। खंधा य खंधदेसा य तप्पएसा तहेव य। परमाणुणो य बोद्धव्वा रूविणो य चउविहा।। स्कन्धाश्च स्कन्धदेशाश्च तत्प्रदेशास्तथैव च। परमाणवश्च बोद्धव्याः रूपिणश्च चतुर्विधा ।। ११. एगत्तेण पुहत्तेण खंधा य परमाणुणो। लोएगदेसे लोए य भइयव्वा ते उ खेत्तओ।।। एकत्वेन पृथक्चेन स्कन्धाश्च परमाणवः। लोकैकदेशे लोके च भक्तव्यास्ते तु क्षेत्रतः।। अनेक परमाणुओं में एकत्व से स्कन्ध बनता है और उसका पृथक्त्व होने से परमाणु बनते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से वे (स्कन्ध) लोक के एक देश और समूचे लोक में भाज्य है—असंख्य विकल्प युक्त है। १२. संतई पप्प तेणाई अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्य ते अनादयः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। वे (स्कन्ध और परमाणु) प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं तथा स्थिति (एक क्षेत्र में रहने) की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। रूपी अजीवों (पुद्गलों) की स्थिति जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः असंख्यात काल की होती है। १३. असंखकालमुक्कोसं एगं समयं जहन्निया। अजीवाण य रूवीणं ठिई एसा वियाहिया।। असङ्ख्यकालमुत्कर्ष एक समयं जघन्यका। अजीवानां च रूपिणां स्थितिरेषा व्याख्याता।। १४. अणंतकालमुक्कोसं एगं समयं जहन्नयं। अजीवाण य रूवीण अंतरेयं वियाहियं ।। अनन्तकालमुत्कर्ष एक समयं जघन्यकम्। अजीवानां च रूपिणां अन्तरमिदं व्याख्यातम् ।। उनका अन्तर (स्वस्थान में स्खलित होकर वापिस नहीं आने तक का काल) जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अनन्त काल का होता है। १५. वण्णओ गंधओ चेव रसओ फासओ तहा। संठाणओ य विन्नेओ परिणामो तेसि पंचहा।। वर्णतो गन्धतश्चैव रसतः स्पर्शतस्तथा। संस्थानतश्च विजेयः परिणामस्तेषां पंचधा।। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनका परिणमन पांच प्रकार का होता है।" वर्णतः परिणता येतु पंचधा ते प्रकीर्तिताः। कृष्णा नीलाश्च लोहिताः हारिद्राः शुक्लास्तथा।। वर्ण की अपेक्षा से उनकी परिणति पांच प्रकार की होती है—१. कृष्ण, २. नील, ३. रक्त, ४. पीत और ५. शुक्ल। १६. वण्णओ परिणया जे उ पंचहा ते पकित्तिया। किण्हा नीला च लोहिया हालिद्दा सुक्किला तहा।। १७. गंधओ परिणया जे उ . दुविहा ते वियाहिया। सुब्भिगंधपरिणामा दुब्मिगंधा तहेव य।। गन्धतः परिणता ये तु द्विविधास्ते व्याख्याताः। सुरभिगन्धपरिणामाः दुर्गन्धास्तथैव च।। गन्ध की अपेक्षा से उनकी परिणति दो प्रकार की होती है—१. सुगन्ध और २. दुर्गन्ध । Jain Education Intemational Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६०२ अध्ययन ३६ : श्लोक १८-२६ । १८. रसओ परिणया जे उ पंचहा ते पकित्तिया। तित्तकड्यकसाया अंबिला महुरा तहा।। रसतः परिणता ये तु पंचधा ते प्रकीर्तिताः। तिक्तकटुककषायाः अम्ला मधुरास्तथा।। 'रस की अपेक्षा से उनकी परिणति पांच प्रकार की होती है---१. तिक्त, २. कटु, ३. कसैला, ४.खट्टा और ५. मधुर। स्पर्श की अपेक्षा से उनकी परिणति आठ प्रकार की होती है-१. कर्कश, २. मृदु, ३. गुरु, ४. लघु, ५. शीत, ६. उष्ण, ७. स्निग्ध और ८. रूक्ष । १६. फासओ परिणया जे उ अट्ठहा ते पकित्तिया। कक्खडा मउया चेव गरुया लहुया तहा।। २०. सीया उण्हा य निद्धा य तहा लुक्खा य आहिया। इइ फासपरिणया एए पुग्गला समुदाहिया।। स्पर्शतः परिणता ये तु अष्टधा ते प्रकीर्तिताः। कक्खटा मृदुकाश्चैव गुरुका लघुकास्तथा।। शीता उष्णाश्च स्निग्धाश्च तथा रूक्षाश्च व्याख्याताः। इति स्पर्शपरिणता एते पुद्गलाः समुदाहृताः।। २१. संठाणपरिणया जे उ पंचहा ते पकित्तिया। परिमंडला य वट्टा तंसा चउरंसमायया।। स्थानपरिणता ये तु पंचधा ते प्रकीर्तिताः। परिमण्डलाश्च वृत्ताः त्र्यनाश्चतुरस्रा आयताः।। संस्थान की अपेक्षा से उनकी परिणति पांच प्रकार की होती है-१. परिमण्डल, २. वृत्त, ३. त्रिकोण, ४. चतुष्क और ५. आयत। २२. जो पुद्गल वर्ण से कृष्ण है वह गन्थ, रस, स्पर्श और संस्थान से भाज्य (अनेक विकल्प युक्त) होता वण्णओ जे भवे किण्हे भइए से उ गंधओ। रसओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य।। वर्णतो यो भवेत् कृष्णः भाज्य: स तु गन्थतः। रसतः स्पर्शतश्चैव भाज्य: संस्थानतोऽपि च।। है। २३. जो पुद्गल वर्ण से नील है, वह गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान से भाज्य होता है। वण्णओ जे भवे नीले भइए से उ गंधओ। रसओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य।। वर्णतो यो भवेन् नीलः भाज्यः स तु गन्धतः। रसतः स्पर्शतश्चैव भाज्यः संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल वर्ण से रक्त है, वह गन्थ, रस, स्पर्श और संस्थान से भाज्य होता है। २४. वण्णओ लोहिए जे उ भइए से उ गंधओ। रसओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य।। वर्णतो लोहितो यस्तु भाज्यः स तु गन्धतः। रसतः स्पर्शतश्चैव भाज्य: संस्थानतोऽपि च।। २५. जो पुद्गल वर्ण से पीत है, वह गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान से भाज्य होता है। वण्णओ पीयए जे उ भइए से उ गंधओ। रसओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य।। वर्णतः पीतको यस्तु भाज्यः स तु गन्धतः। रसतः स्पर्शतश्चैव भाज्यः संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल वर्ण से श्वेत है, वह गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान से भाज्य होता है। २६. वण्णओ सुक्किले जे उ वर्णतः शुक्लो यस्तु भइए से उ गंधओ। भाज्यः स तु गन्धतः। रसओ फासओ चेव रसतः स्पर्शतश्चैव भइए संठाणओ वि य।।। भाज्यः संस्थानतोऽपि च।। Jain Education Intemational Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति अध्ययन ३६ : श्लोक २७-३५ २७. गंधओ जे भवे सुब्भी भइए से उ वण्णओ। रसओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य।। ६०३ गन्धतो यो भवेत् सुरभिः भाज्यः स तु वर्णतः। रसतः स्पर्शतश्चैव भाज्य: संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल गन्ध से सुगन्ध वाला है, वह वर्ण, रस, स्पर्श और संस्थान से भाज्य होता है। २८. गंधओ जे भवे दुब्भी भइए से उ वण्ण ओ। रसओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य।। जो पुद्गल गन्ध से दुर्गन्ध वाला है, वह वर्ण, रस, स्पर्श और संस्थान से भाज्य होता है। गन्धतो यो भवेत् दुर्गन्धः भाज्यः स तु वर्णतः। रसतः स्पर्शतश्चैव भाज्यः संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल रस से तिक्त है, वह वर्ण, गन्ध, स्पर्श और संस्थान से भाज्य होता है। २६. रसओ तित्तए जे उ भइए से उ वण्णओ। गंधओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य।। रसतस्तिक्तो यस्तु भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतः स्पर्शतश्चैव भाज्य: संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल रस से कडुवा है, वह वर्ण, गन्थ, स्पर्श और संस्थान से भाज्य होता है। ३०. रसओ कडुए जे उ भइए से उ वण्णओ। गंधओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य।। रसतः कटुको यस्तु भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतः स्पर्शतश्चैव भाज्य: संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल रस से कसैला है, वह वर्ण, गन्ध, स्पर्श और संस्थान से भाज्य होता है। . ३१. रसओ कसाए जे उ भइए से उ वण्णओ। गंधओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य।। रसतः कषायों यस्तु भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतः स्पर्शतश्चैव भाज्य: संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल रस से खट्टा है, वह वर्ण, गन्ध, स्पर्श और संस्थान से भाज्य होता है। ३२. रसओ अंबिले जे उ भइए से उ वण्णओ। गंधओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य।। रसतः अम्लो यस्तु भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतः स्पर्शतश्चैव भाज्य: संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल रस से मधुर है, वह वर्ण, गन्ध, स्पर्श और संस्थान से भाज्य होता है। ३३. रसओ महुरए जे उ भइए से उवण्णओ। गंधओ फासओ चेव भइए संठाणओ वि य।। रसतो मधुरको यस्तु भाज्य: स तु वर्णतः। गन्धतः स्पर्शतश्चैव भाज्यः संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल स्पर्श से कर्कश है, वह वर्ण, गन्ध, रस और संस्थान से भाज्य होता है। ३४. फासओ कक्खडे जे उ भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव भइए संठाणओ वि य।। ३५. फासओ मउए जे उ भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव भइए संठाणओ वि य।। स्पर्शतः कक्खटो यस्तु भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतो रसतश्चैव भाज्य: संस्थानतोऽपि च।। स्पर्शतो मृदुको यस्तु भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतो रसतश्चैव भाज्यः संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल स्पर्श से मृदु है, वह वर्ण, गन्ध, रस और संस्थान से भाज्य होता है। Jain Education Intemational Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६०४ अध्ययन ३६ : श्लोक ३६-४४ जो पुद्गल स्पर्श से गुरु है, वह वर्ण, गन्ध, रस और संस्थान से भाज्य होता है। ३६. फासओ गुरुए जे उ भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव भइए संठाणओ वि य।। स्पर्शतो गुरुको यस्तु भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतो रसतश्चैव भाज्यः संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल स्पर्श से लघु है, वह वर्ण, गन्ध, रस और संस्थान से भाज्य होता है। ३७. फासओ लहुए जे उ भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव भइए संठाणओ वि य।। स्पर्शतो लघुको यस्तु भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतो रसतश्चैव भाज्यः संस्थानतोऽपि च।। ३८. जो पुद्गल स्पर्श से शीत है, वह वर्ण, गन्ध, रस और संस्थान से भाज्य होता है। फासओ सीयए जे उ भइए से उ वण्ण ओ। गंधओ रसओ चेव भइए संठाणओ वि य।। स्पर्शतः शीतको यस्तु भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतो रसतश्चैव भाज्य: संस्थानतोऽपि च।। ३६. जो पुद्गल स्पर्श से उष्ण है, वह वर्ण, गन्ध, रस और संस्थान से भाज्य होता है। फासओ उण्हए जे उ भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव भइए संठाणओ वि य।। स्पर्शत: उष्णको यस्तु भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतो रसतश्चैव भाज्यः संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल स्पर्श से स्निग्ध है, वह वर्ण, गन्ध, रस और संस्थान से भाज्य होता है। ४०. फासओ निद्धए जे उ भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव भइए संठाणओ वि य।। स्पर्शतः स्निग्धको यस्तु भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतो रसतश्चैव भाज्यः संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल स्पर्श से रूक्ष है, वह वर्ण, गन्ध, रस और संस्थान से भाज्य होता है। ४१. फासओ लुक्खए जे उ . भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव भइए संठाणओ वि य।। स्पर्शतो रूक्षको यस्तु भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतो रसतश्चैव भाज्यः संस्थानतोऽपि च।। जो पुद्गल संस्थान से परिमण्डल है, वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से भाज्य होता है। ४२. परिमंडलसंठाणे भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव भइए फासओ वि य।। परिमण्डल-संस्थान: भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतो रसतश्चैव भाज्य: स्पर्शतोऽपि च।। ४३. जो पुद्गल संस्थान से वृत्त है, वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से भाज्य होता है। संठाणओ भवे वट्टे भइए से उ वण्णओ। गंधओ रसओ चेव भइए फासओ वि य।। संस्थानतो भवेद् वृत्तः भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतो रसतश्चैव भाज्यः स्पर्शतोऽपि च।। संठाणओ भवे तसे भइए से उ वण्ण ओ। गंधओ रसओ चेव भइए फासओ वि य।। संस्थानतो भवेत् त्र्यम्नः भाज्यः स तु वर्णतः। गन्धतो रसतश्चैव भाज्यः स्पर्शतोऽपि च।। जो पुद्गल संस्थान से त्रिकोण है, वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से भाज्य होता है। Jain Education Intemational Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति ४५. संठाणओ भवे चउरंसे भइए से उ वण्णओ । गंधओ रसओ चेव भइए फासओ वि य ।। ४६. जे आययसंठाणे भइए से उ वण्णओ । गंधओ रसओ चेव भइए फासओ वि य ।। ४७. एसा अजीवविभत्ती समासेण वियाहिया । इत्तो जीवविभत्तिं वुच्छामि अणुपुव्वसो ।। ४८. संसारत्था य सिद्धा य दुविहा जीवा वियाहिया । सिद्धा णेगविहा वृत्ता तं मे कित्तयओ सुण ।। ४६. इत्थी पुरिससिद्धा य तहेब य नपुंसगा। सालिंगे अन्नलिंगे य गिहिलिंगे तहेव य ।। ५०. उक्कोसोगाहणाए य जहन्नमज्झिमाइ य । उड्ढ अहे य तिरियं य समुद्दम्मि जलम्मि य ।। ५१. दस चेव नपुंसेसुं वीसं इत्थियासु य । पुरिसेसु य अट्ठसयं समएणेगेण सिज्झई || ५२. चत्तारि य गिहिलिंगे अन्नलिंगे दसेव य । सलिंगेण य अट्ठसयं समएणेगेण सिज्झई || ५३. उक्कोसोगाहणाए य सिहांते जुगवं दुवे । चत्तारि जहन्नाए जवमज्झट्टुत्तरं सयं ।। ६०५ संस्थानतो यश्चतुरस्रः भाज्यः स तु वर्णतः 1 गन्धतो रसतश्चैव भाज्यः स्पर्शतोऽपि च ।। य आयतसंस्थानः भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतो रसतश्चैव भाज्यः स्पर्शतोऽपि च ।। एषा अजीवविभक्तिः समासेन व्याख्याताः इतो जीवविभक्ति वक्ष्याम्यनुपूर्वशः ।। संसारस्थाश्च सिद्धाश्च द्विविधाः जीवा व्याख्याताः । सिद्धा अनेकविधा उक्ताः तान् मे कीर्तयतः शृणु ।। स्त्री-पुरुष सिद्धाश्च तथैव च नपुंसकाः । स्वलिंगा अन्यलिंगाश्च गृहलिंगास्तथैव च ।। उत्कर्षावगाहनायां च जघन्यमध्यमयोश्च । ऊर्ध्वमधश्न तिर्यक् च समुद्रे जले च ।। दश चैव नपुंसकेषु विंशतिः स्त्रीषु च । पुरुषेषु चाष्टशतं समयेनैकेन सिध्यति ।। चत्वारश्य गृहलिंगे अन्यलिंगे दशैव च । स्वलिंगेन चाष्टशतं समयेनैकेन सिध्यति ।। द्वौ । उत्कर्षावगाहनायां च सिध्यतो युगपद् चत्वारो जघन्यायाम् यवमध्यायामष्टोत्तरं शतम् ।। अध्ययन ३६ : श्लोक ४५-५३ जो पुद्गल संस्थान से चतुष्कोण है, वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से भाज्य होता है 1 जो पुद्गल संस्थान से आयत है, वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से भाज्य होता है। यह अजीव विभाग संक्षेप में कहा गया है। अब अनुक्रम से जीव-विभाग का निरूपण करूंगा। जीव दो प्रकार के होते हैं - (१) संसारी और (२) सिद्ध सिद्ध अनेक प्रकार के होते हैं। मैं उनका निरूपण करता हूं, तुम मुझ से सुनो। स्त्रीलिंग, सिद्ध, पुरुषलिंग सिद्ध, नपुंसकलिंग सिख, स्वलिंग सिद्ध, अन्यलिंग सिद्ध, गृहलिंग सिद्ध आदि अनेक प्रकार के सिद्ध होते हैं। उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम अवगाहना में और ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में तथा समुद्र व अन्य जलाशयों में भी जीव सिद्ध होते हैं । दश नपुंसक, बीस स्त्रियां ओर एक सौ आठ पुरुष एक ही क्षण में सिद्ध हो सकते हैं । गृहस्थ वेश में चार, अन्यतीर्थिक वेश में दस और निर्ग्रन्थ वेश में एक सौ आठ जीव एक साथ सिद्ध हो सकते हैं। उत्कृष्ट अवगाहना में दो, जघन्य अवगाहना में चार और मध्यम अवगाहना में एक सौ आठ जीव एक ही क्षण में सिद्ध हो सकते हैं। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ५४. चउरुड्डलोए य दुवे समुद्दे तओ जले वीसमहे तहेव । सर्व व अदुत्तर तिरियलोए समएणेगेण उ सिज्झई उ ।। ५५. कहिं पडिहया सिद्धा ? कहिं सिद्धा पइट्ठिया ? | कहिं बोंदि चत्ताणं ? कत्थ गंतूण सिज्झई ? ।। ५६. अलोए पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पइट्ठिया । इहं बोंदि चइत्ताणं तत्थ गंतॄण सिज्झई || ५७. बारसहिं जोयणेहिं सव्वस्सुवरिं भवे। ईसीपल्मारनामा उ पुढवी छत्तसंठिया ।। ५८. पणयालसयसहस्सा जोयणाणं तु आयया । तावइयं चैव वित्विण्णा तिगुणो तस्सेव परिरओ ।। ५६. अङ्गजीयणबाहल्ला सा मज्झम्मि वियाहिया । परिहायंती चरिमंते मच्छियपत्ता तणुयरी ।। ६०. अज्जुणसुवण्णगमई सा पुढची निम्मला सहावेगं । उत्ताणगछत्तगसंठिया य भणिया जिणवरेहिं । । ६१. संखंककुंदसंकासा पंडुरा निम्मला सुहा। सीयाए जोयणे तत्तो लोयंतो उ वियाहिओ ।। ६२. जोयणस्स उ जो तस्स कोसो उवरिमो भवे । तस्स कोसस्स छब्भाए सिद्धाणोगाहणा भवे ।। ६०६ चत्वार ऊर्ध्वलोके च द्वौ समुद्रे यो जले विंशतिरथस्तथैव । शतं चाष्टोत्तरं तिर्यग्लोके समयेनैकेन तु सिध्यति ।। क्व प्रतिहताः सिद्धाः ? क्व सिद्धाः प्रतिष्ठिता: ? । क्व शरीरं त्यक्त्वा ? कुत्र गत्वा सिध्यन्ति ? ।। अलोके प्रतिहताः सिद्धाः लोकाग्रे च प्रतिष्ठिताः । इह शरीरं त्यक्त्वा तत्र गत्वा सिध्यन्ति । । द्वादशभिर्योजनैः सर्वार्थस्योपरि भवेत् । ईषत्प्राग्भारनाम्नी तु पृथ्वी छत्रसंस्थिता ।। पंचचत्वारिंशत् शतसहस्राणि योजनानां त्वायता । तावन्ति चैव विस्तीर्णा त्रिगुणस्तस्मादेव परिरयः ।। अष्टयोजनबाहल्या सा मध्ये व्याख्याता । परिहीयमाणा चरमान्ते मक्षिकापात्तनुतरा ॥ अर्जुन सुवर्णकमी सा पृथिवी निर्मला स्वभावेन । उत्तानकच्छत्रकसंस्थिता च भणिता जिनवरैः ।। शङ्खाङ्ककुन्दसंकाशा पाण्डुरा निर्मला शुभा । सीताया योजने ततः लोकान्तस्तु व्याख्यातः ।। योजनस्य तु यस्तस्य क्रोश उपरिवर्ती भवेत तस्य क्रोशस्य षड्भागे सिद्धानामवगाहना भवेत् ।। अध्ययन ३६ : श्लोक ५४-६२ ऊंचे लोक में चार, समुद्र में दो, अन्य जलाशयों में तीन, नीचे लोग में बीस, तिरछे लोक में एक सौ आठ जीव एक ही क्षण में सिद्ध हो सकते हैं। सिद्ध कहां रुकते हैं ? कहां स्थित होते हैं ? कहां शरीर को छोड़ते हैं? और कहां जाकर सिद्ध होते हैं ? सिद्ध आलोक से प्रतिहत होते हैं। लोक के अग्रभाग में स्थित होते हैं। मनुष्य लोक में शरीर को छोड़ते हैं और लोक के अग्रभाग में जाकर सिद्ध होते हैं। सर्वार्थसिद्ध विमान से बारह योजन ऊपर ईषत् - प्राग्भारा" नामक पृथ्वी है। वह छत्राकार में अवस्थित है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई पैंतालीस लाख योजन की है। उसकी परिधि उस ( लम्बाई-चौड़ाई) से तिगुनी है। मध्य भाग में उसकी मोटाई आठ योजन की है। वह क्रमशः पतली होती होती अंतिम भाग में मक्खी की पांख से भी अधिक पतली हो जाती है। वह श्वेत- स्वर्णमयी, स्वभाव से निर्मल और उत्तान (सीधे ) छत्राकार वाली है ऐसा जिनवर ने कहा है । वह शंख, अंक- रत्न और कुन्द पुष्प के समान श्वेत, निर्मल और शुद्ध है। उस सीता नाम की ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी से एक योजन ऊपर लोक का अन्त (अग्रभाग) है। उस योजन के उपरिवर्ती कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना ( अवस्थिति) होती है । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति ६०७ अध्ययन ३६ : श्लोक ६३-७१ ६३. तत्थ सिद्धा महाभागा लोयग्गम्मि पइट्ठिया। भवप्पवंच उम्मुक्का सिद्धिं वरगई गया।। तत्र सिद्धा महाभागाः लोकाग्रे प्रतिष्ठिताः। भवप्रपञ्चोन्मुक्ताः सिद्धिं वरगतिं गताः ।। । भव-प्रपंच से उन्मुक्त और सर्वश्रेष्ठ गति (सिद्धि) को प्राप्त होने वाले अनन्त शक्तिशाली सिद्ध वहां लोक के अग्रभाग में स्थित होते हैं। ६४. उस्सेहो जस्स जो होइ भवम्मि चरिमम्मि उ। तिभागहीणा तत्तो य सिद्धाणोगाहणा भवे।। उत्सेधो यस्य यो भवति भवे चरमे तु। त्रिभागहीना ततश्च सिद्धानामवगाहना भवेत्।। अन्तिम भव में जिसकी जितनी ऊंचाई होती है, उससे त्रिभागहीन (एक तिहाई कम) अवगाहना सिद्ध होने वाले की होती है। ६५. एगत्तेण साईया अपज्जवसिया वि य। पुहुत्तेण अणाईया अपज्जवसिया वि य।। एकत्वेन सादिकाः अपर्यवसिता अपि च। पृथुत्वेनानादिकाः अपर्यवसिता अपि च।। एक-एक की अपेक्षा से सिद्ध सादि-अनन्त और पृथुता (बहुत्व) की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है। ६६. अरूविणो जीवघणा नाणदंसणसण्णिया। अउलं सुहं संपत्ता उवमा जस्स नत्थि उ।। अरूपिणो जीवधनाः ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः। अतुलं सुखं सम्प्राप्ता उपमा यस्य नास्ति तु।। वे सिद्ध-जीव अरूप, सघन (एक-दूसरे से सटे हुए) और ज्ञान-दर्शन में सतत उपयुक्त होते हैं। उन्हें वैसा सुख प्राप्त होता है, जिसके लिए संसार में कोई उपमा नहीं है। ६७. लोएगदेसे ते सव्वे नाणदंसणसण्णिया। संसारपारनिच्छिन्ना सिद्धिं वरगइं गया।। लोकैकदेशे ते सर्वे ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः। संसारपारनिस्तीर्णाः सिद्धिं वरगतिं गताः ।। ज्ञान और दर्शन में सतत उपयुक्त, संसार-समुद्र से निस्तीर्ण और सर्वश्रेष्ठ गति (सिद्धि) को प्राप्त होने वाले सब सिद्ध लोक के एक देश में अवस्थित हैं। संसारी जीव दो प्रकार के हैं-त्रस और स्थावर। स्थावर तीन प्रकार के हैं ६८. संसारत्था उ जे जीवा दुविहा ते वियाहिया। तसा य थावरा चेव थावरा तिविहा तहिं।। संसारस्थास्तु ये जीवाः द्विविधास्ते व्याख्याताः। त्रसाश्च स्थावराश्चैव स्थावरास्त्रिविधास्तत्र।। पृथ्वी, जल और वनस्पति। ये स्थावर के तीन मूल भेद हैं। इनके उत्तर भेद मुझसे सुनो। ६६. पुढवी आउजीवा य तहेव य वणस्सई। इच्चेए थावरा तिविहा तेसिं भेए सुणेह मे।। पृथिवी अब्जीवाश्च तथैव च वनस्पतिः। इत्येते स्थावरास्त्रिविधाः तेषां भेदान् शृणुत मे। पृथ्वीकाय के जीव दो प्रकार के हैं—सूक्ष्म और बादर। इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो भेद होते हैं। ७०. दुविहा पुढवीजीवा उ सुहमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो।। ७१. बायरा जे उ पज्जत्ता दुविहा ते वियाहिया। सण्हा खरा य बोद्धव्वा सण्हा सत्तविहा तहिं।। द्विविधा पृथिवीजीवास्तु सूक्ष्मा बादरास्तथा। पर्याप्ता अपर्याप्ताः एवमेते द्विधा पुनः।। बादरा ये तु पर्याप्ताः द्विविधास्ते व्याख्याताः। श्लक्ष्णाः ख्राश्च बोद्धव्याः श्लक्ष्णाः सप्तविधास्तत्र।। बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीवों के दो भेद हैं-मृदु और कठोर। मृदु के सात भेद हैं : Jain Education Intemational Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६०८ अध्ययन ३६ : श्लोक ७२-८० ७२. किण्हा नीला य रुहिरा य हालिद्दा सुक्किला तहा। पंडुपणगमट्टिया खरा छत्तीसईविहा।। कृष्णा नीलाश्च रुधिराश्च हारिद्राः शुक्लास्तथा। पाण्डु-पनक-मृत्तिका खराः षत्रिंशद्विधाः ।। (१) कृष्ण, (२) नील, (३) रक्त, (४) पीत, (५) श्वेत, (६) पांडु (भूरीमिट्टी) और (७) पनक (अति सूक्ष्म रज)। कठोर पृथ्वी के छत्तीस प्रकार हैं : ७३. पुढवी य सक्करा वालुया य पृथिवी च शर्करा बालुका च उवले सिला य लोणूसे। उपल: शिला च लवणोषौ। अयतंबतउयसीसग अयस्ताम्रत्रपुकसीसकरुप्पसुवण्णे य वइरे य।।। रूप्यसुवर्णं च वज्रं च।। (१) शुद्धपृथ्वी, (२) शर्करा, (३) बालू, (४) उपल, (५) शिला, (६) लवण, (७) नौनी मिट्टी, (८) लोहा, (६) ताम्बा, (१०) रांगा, (११) शीशा, (१२) चांदी, (१३) सोना, (१४) वज्र, ७४. हरियाले हिंगुलुए मणोसिला सासगंजणपवाले। अब्भपडलब्भवालुय बायरकाए मणिविहाणा।। हरितालं हिंगुलक: (१५) हरिताल, (१६) हिंगुल, (१७) मैनसिल, मनःशिला सस्यकांजनप्रवालानि। (१८) सस्यक, (१६) अंजन, (२०) प्रवाल, अभ्रपटलमभ्रबालुका (२१) अभ्रपटल, (२२) अभ्रबालुका । मणियों के भेद, बादरकाये मणिविधानानि।। जैसे ७५. गोमेज्जए य रुयगे अंके फलिहे य लोहियक्खे य। मरगयमसारगल्ले भुयमोयगइंदनीले य। गोमेदकश्च रुचकः (२३) गोमेदक, (२४) रुचक, (२५) अंक, अंकः स्फटिकश्च लोहिताक्षश्च। (२६) स्फटिक और लोहिताक्ष, (२७) मरकत एवं मरकतमसारगल्लः मसारगल्ल, (२८) भुजमोचक, (२६) इन्द्रनील, भुजमोचक इन्द्रनीलश्च।। ७६. चंदणगेरुयहंसगब्भ पुलए सोगंधिए य बोद्धव्वे। चंदप्पहवेरुलिए जलकंते सूरकंते य।। चन्दनगैरिकहंसगर्भः (३०) चन्दन, गेरुक एवं हंसगर्भ, (३१) पुलक, पुलकः सौगन्धिकश्च बोद्धव्यः। (३२) सैगन्धिक, (३३) चन्द्रप्रभ, (३४) वैडूर्य, चन्दप्रभो वैडूर्यः (३५) जलकान्त और (३६) सूर्यकान्त। जलकान्तः सूर्यकान्तश्च ।। ७७. एए खरपुढवीए भेया छत्तीसमाहिया। एगविहमणाणत्ता सुहमा तत्थ वियाहिया।। एते खरपृथिव्याः भेदाः षट्त्रिंशदाख्याताः। एकविधा अनानात्वाः सूक्ष्मास्तत्र व्याख्याताः।। कठोर पृथ्वी के ये छत्तीस प्रकार होते हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव एक ही प्रकार के होते हैं। उनमें नानात्व नहीं होता। ७८. सुहुमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा। इत्तो कालविभागं तु तेसिं वुच्छं चउब्विहं ।। सूक्ष्माः सर्वलोके लोकदेशे च बादराः। इत: कालविभागं तु तेषां वक्ष्ये चतुर्विधम्।। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव समूचे लोक में और बादर पृथ्वीकायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। इनके चतुर्विध काल-विभाग का निरूपण करूंगा। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। ७६. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। ८०. बावीससहस्साई वासाणुक्कोसिया भवे। आउठिई पुढवीणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। संततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। द्वाविंशतिसहस्राणि वर्षाणामुत्कर्षिता भवेत् । आयुःस्थितिः पृथिवीनां अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका।। उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः बाईस हजार वर्ष की है। Jain Education Intemational cation International Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति ६०९ अध्ययन ३६ : श्लोक ८१-८६ ८१. असंखकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। कायठिई पुढवीणं तं कायं तु अमुंचओ।। असंख्यकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त्त जघन्यकम्। कायस्थितिः पृथिवीनां तं कायं त्वमुंचताम्।। उनकी काय-स्थिति-निरन्तर उसी काय में जन्म लेते रहने की काल-मर्यादा-जधन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्यातकाल की है। ८२. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए पुढवीजीवाण अंतरं।। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। वित्यक्ते स्वके काये पृथिवीजीवानामन्तरम्।। उनका अन्तर—पृथ्वीकाय को छोड़ कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने का काल-जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त-काल का है। ८३. वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। ८४. दुविहा आउजीवा उ सुहमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो।। द्विविधा अब्जीवास्तु सूक्ष्मा बादरास्तथा। पर्याप्ता अपर्याप्ताः एवमेते द्विधा पुनः।। अप्कायिक जीव दो प्रकार के हैं—सूक्ष्म और बादर। इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो भेद होते हैं। ८५. बायरा जे उ पज्जत्ता पंचहा ते पकित्तिया। सुद्धोदए य उस्से हरतणू महिया हिमे।। बादरा ये तु पर्याप्ताः पंचधा ते प्रकीर्तिताः। शुद्धोदकं चावश्यायः हरतनुमहिका हिमम्।। बादर पर्याप्त अप्कायिक जीवों के पांच भेद होते हैं—(१) शुद्धोदक, (२) ओस, (३) हरतनु, (४) कुहासा और (५) हिम। ८६. एगविहमणाणत्ता सुहुमा तत्थ वियाहिया। सुहमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा।। एकविधा अनानात्वाः सूक्ष्मास्तत्र व्याख्याताः। सूक्ष्माः सर्वलोके लोकदेशे च बादराः।। सूक्ष्म अप्कायिक जीव एक ही प्रकार के होते हैं, उनमें नानात्व नहीं होता। वे समूचे लोक में तथा बादर अप्कायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। ८७. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। उनकी आयुस्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः सात हजार वर्ष की है। सप्तैव सहस्मणि वर्षाणामुत्कर्षिता भवेत्। आयुः स्थितिरपां अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ।। सत्तेव सहस्साई वासाणुक्कोसिया भवे। आउट्ठिई आऊणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। असंखकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्निया। कायट्ठिई आऊणं तं कायं तु अमुंचओ।। ८६. असंख्यकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यका। कायस्थितिरपां तं कायं त्वमुंचताम्।। उनकी काय-स्थिति-निरन्तर उसी काय में जन्म लेते रहने की काल-मर्यादा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्यातकाल की है। Jain Education Intemational Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६१० अध्ययन ३६ : श्लोक ६०-६८ ६०. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए आऊजीवाण अंतरं।। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। वित्यक्ते स्वके काये अब्जीवानामन्तरम् ।। उनका अन्तर—-अप्काय को छोड़ कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल का है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो।। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। ६२. दुविहा वणस्सईजीवा सुहुमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो।। द्विविधा वनस्पतिजीवाः सूक्ष्मा बादरास्तथा। पर्याप्ता अपर्याप्ताः एवमेते द्विविधा पुनः।। वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और बादर। इन दोनों में पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो भेद होते हैं। ६३. बायरा जे उ पज्जत्ता दुविहा ते वियाहिया। साहारणसरीरा य पत्तेगा य तहेव य।। बादरा ये तु पर्याप्ताः द्विविधास्ते व्याख्याताः। साधारणशरीराश्च प्रत्येकाश्च तथैव च।। बादर पर्याप्त वनस्पतिकायिक जीवों के दो भेद हैं(१) साधारण-शरीर और (२) प्रत्येक-शरीर। ६४. पत्तेगसरीरा उ णेगहा ते पकित्तिया। रुक्खा गुच्छा य गुम्मा य लया वल्ली तणा तहा।। प्रत्येकशरीरास्तु अनेकधा ते प्रकीर्तिताः। रुक्षा गुच्छाश्च गुल्माश्च लता वल्ली तृणानि तथा।। प्रत्येक-शरीर वनस्पतिकायिक जीवों के अनेक प्रकार हैं—वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली और तृण । ६५. लयावलय पव्वगा कुहुणा जलरुहा ओसहीतिणा। हरियकाया य बोद्धव्वा पत्तेया इति आहिया।। लतावलयानि पर्वजाः लता-वलय (नारियल आदि), पर्वज (ईख आदि), कुहणा जलरुहा औषधितृणानि। कुहण ( भूफोड़ आदि), जलरुह (कमल आदि), हरितकायाश्च बोद्धव्याः औषधि-तृण ( अनाज) और हरित-काय-ये सब प्रत्येका इति आख्याताः।। प्रत्येक शरीर हैं। साधारण-शरीर वनस्पतिकायिक जीवों के अनेक प्रकार हैं-आलू, मूली, अदरक, ६६. साहारणसरीरा उ णेगहा ते पकित्तिया। आलुए मूलए चेव सिंगबेरे तहेव य।। साधारणशरीरास्तु अनेकविधा ते प्रकीर्तिता। आलुको मूलकश्चैव शृङ्गबेरं तथैव च।। हिरलीकन्द, सिरिलीकन्द, सिस्सिरिलीकन्द, जावईकन्द, केद-कंदलीकन्द, प्याज, लहसुन, कन्दली, कुस्तुम्बक, ६७. हिरिली सिरिली सिस्ििरली हिरली सिरिली सिस्सिरिली जावई केदकंदली। जावई केदकन्दली। पलंदूलसणकंदे य पलाण्डुलशुनकन्दश्च कंदली य कुडुंबए।। कन्दली च कुस्तुम्बकः ।। ६८. लोहि णीहू य थिहू य लोही स्निहुश्च स्तिभुश्च कुहगा य तहेव य। कुहकाश्च तथैव च। कण्हे य वज्जकंदे य कृष्णश्च वज्रकन्दश्च कंदे सूरणए तहा।। कन्दः सूरणकस्तथा।। लोही, स्निहु, स्तिभु, कुहक, कृष्ण, वज्रकन्द, सुरणकन्द, Jain Education Intemational Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति अध्ययन ३६ : श्लोक ६६-१०७ ६६. अस्सकण्णी य बोद्धव्वा सोहकण्णी तहेव य। मुसुंढी य हलिद्दा य णेगहा एवमायओ।। ६११ अश्वकर्णी च बोद्धव्या सिंहकर्णी तथैव च। मुषुण्डी च हरिद्रा च अनेकधा एवमादयः।। अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, मुसुंढी और हरिद्रा आदि। ये सब साधारण शरीर हैं। १००. एगविहमणाणत्ता सुहुमा तत्थ वियाहिया। सुहमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा।। एकविधा अनानात्वाः सूक्ष्मास्तत्र व्याख्याताः। सूक्ष्माः सर्वलोके लोकदेशे चे बादराः।। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव एक ही प्रकार के होते हैं, उनमें नानात्व नहीं होता। वे समूचे लोक में तथा बादर वनस्पतिकायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। १०१. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि या ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्यानादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः दस हजार वर्ष की है। १०२. दस चेव सहस्साइं वासाणुक्कोसिया भवे। वणप्फईण आउं तु अंतोमुहुत्तं जहन्नगं ।। दश चैव सहस्राणि वर्षाणामुत्कर्षिता भवेत्। वनस्पतीनामायुस्तु अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्।। उनकी काय-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल की है। १०३. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। कायठिई पणगाणं तं कायं तु अमुंचओ।। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। कायस्थितिः पनकानां तं कायं तु अमुंचताम् ।। १०४. असंखकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए पणगजीवाण अंतरं ।। असङ्ख्यकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम् वित्यक्ते स्वके काये। पनकजीवानामन्तरम्।। उनका अन्तर-वनस्पतिकाय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्यात काल का है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। १०५. एएसि वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थनादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। इत्येते स्थावरास्त्रिविधाः समासेन व्याख्याताः। इतस्तु त्रसान् त्रिविधान वक्ष्याम्यनुपूर्वशः।। यह तीन प्रकार के स्थावर जीवों का संक्षिप्त वर्णन है। अब तीन प्रकार के त्रस जीवों का क्रमशः निरूपण करूंगा। १०६. इच्चेए थावरा तिविहा समासेण वियाहिया। इत्तो उ तसे तिविहे वुच्छामि अणुपुव्वसो।। १०७. तेऊ वाऊ य बोद्धव्वा उराला य तसा तहा। इच्चेए तसा तिविहा तेसिं भेए सुणेह मे।। तेजो वायुश्च बोद्धव्याः उदाराश्च त्रसास्तथा। इत्येते त्रसास्त्रिविधाः तेषां भेदान् शृणुत मे।। तेजस्काय, वायुकाय और उदार त्रसकाय-ये तीन भेद त्रसकाय के हैं। अब इनके भेदों को मुझसे सुनो। Jain Education Intemational Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६१२ अध्ययन ३६ :श्लोक १०८-११६ १०८. दुविहा तेउजीवा उ सुहमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो।। द्विविधास्तेजोजीवास्तु सूक्ष्मा बादरास्तथा। पर्याप्ता अपर्याप्ताः एवमेते द्विधा पुनः ।। तेजस्कायिक जीवों के दो प्रकार हैं—सूक्ष्म और वादर। उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त—ये दो-दो भेद होते हैं। १०६. बायरा जे उ पज्जत्ता णेगहा ते वियाहिया। इंगाले मुम्मुरे अगणी अच्चि जाला तहेव य।। बादरा ये तु पर्याप्ताः अनेकधा ते व्याख्याताः। अंगारो मुमुरोऽग्निः अर्चिाला तथैव च।। बादर पर्याप्त तेजस्कायिक जीवों के अनेक भेद हैंअंगार, मुर्मुर, अग्नि, अर्चि, ज्वाला, उल्का, विद्युत् आदि। सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव एक ही प्रकार के होते हैं, उनमें नानात्व नहीं होता। ११०. उक्का विज्जू य बोद्धव्वा णेगहा एवमायओ। एगविहमणाणत्ता सुहमा ते वियाहिया।। उल्का विद्युच्च बोद्धव्याः अनेकधा एवमादयः। एकविधा अनानात्वाः सूक्ष्मास्ते व्याख्याताः।। १११. सुहुमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा। इत्तो कालविभागं तु तेसिं वुच्छं चउविहं ।। सूक्ष्माः सर्वलोके लोकदेशे च बादराः। इतः कालविभागं तु तेषां वक्ष्यामि चतुर्विधम्।। वे (सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव) समूचे लोक में और बादर तेजस्कायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त है। अब मैं उनके चतुर्विध काल-विभाग का निरूपण करूंगा। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। ११२. संतइं पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्यः अनादिका: अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः तीन दिन-रात की है। ११३. तिण्णेव अहोरत्ता उक्कोसेण वियाहिया। आउट्टिई तेऊणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। त्रीण्येवाहोरात्राणि उत्कर्षेण व्याख्याता। आयुःस्थितिस्तेजसाम् अन्तर्मुहूर्त जघन्यका।। उनकी काय-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल की है। ११४. असंखकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। कायट्ठिई तेऊणं तं कायं तु अमुंचओ।। असंख्यकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। कायस्थितिस्तेजसाम् तं कायं तु अमुंचताम् ।। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। वित्यक्ते स्वके काये तेजोजीवानामन्तरम्।। उनका अन्तर-तेजस्काय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल जघन्यतः अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है। ११५. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए तेउजीवाण अंतरं।। ११६. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो।। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद हैं। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। Jain Education Intemational Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति ६१३ अध्ययन ३६ : श्लोक ११७-१२५ ११७. दुविहा वाउजीवा उ सुहुमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जत्ता एवमेए दुहा पुणो।। द्विविधा वायुजीवास्तु सूक्ष्मा बादरास्तथा। पर्याप्ता अपर्याप्ता एवमेते द्विधा पुनः।। वायुकायिक जीवों के दो प्रकार हैं-सूक्ष्म ओर बादर। उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त—ये दो-दो भेद होते हैं। ११८. बायरा जे उ पज्जत्ता पंचहा ते पकित्तिया उक्कलियामंडलिया घणगुंजा सुद्धवाया य।। बादरा ये तु पर्याप्ताः पंचधा ते प्रकीर्तिताः। उत्कलिका मण्डलिका धनगुंजाः शुद्धवाताश्च ।। बादर पर्याप्त वायुकायिक जीवों के पांच भेद होते हैं-(१) उत्कालिका, (२) मण्डलिका, (३) घनवात, (४) गुंजावात और (५) शुद्धवात। ११६. संवट्टगवाते य णेगविहा एवमायओ। एगविहमणाणत्ता सुहुमा ते वियाहिया।। संवतकवाताश्च अनेकधा एवमादयः। एकविधा अनानात्वाः सूक्ष्मास्ते व्याख्याताः।। उनके संवर्तक-वात आदि और भी अनेक प्रकार हैं। सूक्ष्म वायुकायिक जीव एक ही प्रकार के होते हैं, उनमें नानात्व नहीं होता।२० १२०. सुहुमा सव्वलोगम्मि लोगदेसे य बायरा। इत्तो कालविभागं तु तेसिं वुच्छं चउव्विहं ।। सूक्ष्माः सर्वलोके लोकदेशे च बादराः। इत: कालविभागं तु तेषां वक्ष्यामि चतुर्विधम् ।। वे (सूक्ष्म-वायुकायिक जीव) समूचे लोक में और बादर वायुकायिक जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। अब मैं उनके चतुर्विध काल-विभाग का निरूपण करूंगा। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। १२१. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्य अनादिका: अपर्यवसिता अपि च। स्थिति प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः तीन हजार वर्षों की है। १२२. तिण्णेव सहस्साई वासाणुक्कोसिया भवे। आउट्टिई वाऊणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। त्रीण्येव सहस्राणि वर्षाणामुत्कर्षिता भवेत्। आयुःस्थितिर्वायूनाम् अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्।। उनकी काय-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्यात काल की है। १२३. असंखकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। कायट्ठिई वाऊणं तं कायं तु अमुंचओ।। असंख्यकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। कायस्थितिर्वायूना तं कायं तु अमुंचताम्।। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। वित्यक्ते स्वके काये वायुजीवानामन्तरम्।। उनका अन्तर--वायुकाय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है। १२४. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए वाउजीवाण अंतरं।। १२५. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वाऽपि विधानानि सहस्रशः।। Jain Education Intemational Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ३६ : श्लोक १२६-१३४ १२६. ओराला तसा जे उ चउहा ते पकित्तिया। बेइंदियतेइंदिय चउरोपंचिंदिया चेव।। ६१४ 'ओराला' वसा ये तु चतुर्धा ते प्रकीर्तिताः। द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाः चतुष्पंचेन्द्रियाश्चैव।। स्थूल त्रस-कायिक जीव चार प्रकार के हैं(१) द्वीन्द्रिय, (२) त्रीन्द्रिय, (३) चतुरिन्द्रिय और (४) पंचेन्द्रिय। १२७. बेइंदिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया। पज्जत्तमपज्जत्ता तेसिं भेए सुणेह मे।। द्वीन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त। उनके भेद तुम मुझसे सुनो। द्वीन्द्रियास्तु ये जीवाः द्विविधास्ते प्रकीर्तिताः। पर्याप्ता अपर्याप्ताः तेषां भेदान् शृणुत मे।। कृमि, सौमंगल, अलस, मातृवाहक, वासीमुख, सीप, शंख, शंखनक, १२८. किमिणो सोमंगला चेव अलसा माइवाहया। वासीमुहा य सिप्पीया संखा संखणगा तहा।। कृमयः सौमङ्गलाश्चैव अलसा मातृवाहकाः। वासीमुखाश्च शुक्तयः शङ्खा शङ्खनकास्तथा।। पल्लोय, अणुल्लक, कोडी, जौंक, जालक, चन्दनिया, १२६. पल्लोयाणुल्लया चेव तहेव य वराडगा। जलूगा जालगा चेव चंदणा य तहेव य।। 'पल्लोया' 'अणुल्लया' चैव तथैव च वराटकाः। जलौका जालकाश्चैव चन्दनाश्च तथैव च।। आदि अनेक प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव हैं। वे लोक के एक भाग में ही प्राप्य होते हैं, समूचे लोक में नहीं। १३०. इइ बेइंदिया एए णेगहा एवमायओ। लोगगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया ।। इति द्वीन्द्रिया एते अनेकधा एवमादयः। लोकैकदेशे ते सर्वे न सर्वत्र व्याख्याताः।। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त है। १३१. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्यानादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः बारह वर्ष की है। १३२. वासाइं बारसे व उ उक्कोसेण वियाहिया। बेइंदियआउट्ठिई अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। वर्षाणि द्वादशैव तु उत्कर्षेण व्याख्याता। द्वीन्द्रियायःस्थितिः अन्तर्मुहूर्त जघन्यका।। उनकी काय-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः संख्यात काल की है। संख्येयकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। द्वीन्द्रियकायस्थितिः तं कायं तु अमुंचताम् ।। १३३. संखिज्जकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं पहन्नयं। बेइंदियकायट्ठिई तं कायं तु अमुंचओ।। १३४. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। बेइंदियजीवाणं अंतरेयं वियाहियं ।। उनका अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त-काल का है। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। द्वीन्द्रिय-जीवानां अन्तरं च व्याख्यातम् ।। Jain Education Intemational Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति १३५. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो ।। १३६. तेइंदिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता सिं भेए सुणेह मे ॥ १३७. कुंथुपिवीलिउड्डंसा उक्कलुद्देहिया तहा। तणहारकट्ठहारा मालुगा पत्तहारगा ।। १३८. कप्पासट्रिमिजा य तिंदुगा तउसमिजगा । सदावरी य गुम्मी य बोद्धव्या इंदकाइया ।। १३९. इंदगोवगमाईया गहा एवमायओ । लोएगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया ।। १४०. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य । ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य ।। १४१. एगूणपण्णहोरत्ता उक्कोसेण वियाहिया । तेइंदिय आउठिई अंतोमुहुत्त तहन्निया ।। १४२. संखिज्जकालमुक्कोसं अंतमुत्तं जहन्नयं । तेइंदियकायठिई तं कार्य तु अमुचओ ।। १४३. अनंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । तेईदियजीवाणं अंतरेयं वियाहियं । । ६१५ एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः । संस्थानदेशतो वापि विधनानि सहस्रशः ।। त्रीन्द्रियास्तु ये जीवाः द्विविधास्ते प्रकीर्तिताः । पर्याप्ता अपर्याप्ताः तेषां भेदान् शृणु मे ॥ कुन्दुपिपीलिकोदशाः उक्कलोपदेहिकास्तथा । तृणहारकाष्ठहाराः 'मालुगा' पत्रहारकाः ।। कर्पासास्थिमिंजाश्च तिन्दुकाः प्रपुषमिजकाः। शतावरी च गुल्मी च श्रीव्या इन्द्रकायिकाः ।। इन्द्रगोपकादिकाः अनेकथा एवमादयः । लोकैकदेशे ते सर्वे न सर्वत्र व्याख्याताः ।। सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च । स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च ।। एकोनपंचाशदहोरात्राणि उत्कर्षेण व्याख्याता । स्थितिः अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ।। संख्येयकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यक त्रीन्द्रियकायस्थितिः तं कायं तु अमुचताम् ।। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुह जघन्यकम् । त्रीन्द्रिय जीवानां अन्तरमेतद् व्याख्यातम् ।। अध्ययन ३६ : श्लोक १३५-१४३ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। त्रीन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त । उनके भेद तुम मुझसे सुनो। कुंथु, चींटी, खटमल मकड़ी, दीमक, तृणाहारक, काष्ठाहारक (घुन), मालुक, पत्राहारक, कर्पासास्थि-मंजक तिन्दुक, त्रपुष-मिंजक, शतावरी कानखजूरी, इन्द्रकायिक, 1 इन्द्रगोपक आदि अनेक प्रकार के त्रीन्द्रिय जीव हैं। वे लोक के एक भाग में ही प्राप्त होते हैं, समूचे लोक में नहीं। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थति की अपेक्षा से सादि- सान्त हैं । उनकी आयु स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः उनचास दिनों की है। उनकी काय स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः संख्यात काल की है। 1 उनका अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्तकाल का है । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ३६ : श्लोक १४४-१५२ ६१६ एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। १४४. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो।। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। १४५. चउरिंदिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया। पज्जत्तमपज्जत्ता तेसिं भेए सुणेह मे।। चतुरिन्द्रियास्तु ये जीवाः द्विविधास्ते प्रकीर्तिताः। पर्याप्ता अपर्याप्ताः तेषां भेदान् शृणुत मे।। चतुरिन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त। उनके भेद तुम मुझसे सुनो। १४६. अंधिया पोत्तिया चेव मच्छिया मसगा तहा। भमरे कीडपयंगे य ढिंकुणे कुंकुणे तहा।। अन्धिकाः पोत्तिकाश्चैव मक्षिका मशकास्तथा। भ्रमराः कीटपतंगाश्च ढिकुणा कुंकणास्तथा।। अन्धिका, पोत्तिका, मक्षिका, मच्छर, भ्रमर, कीट, पतंग, ढिंकुण, कुंकुण, कुक्कुड़, शृंगिरीटी, नन्दावर्त, बिच्छु, डोल, भुंगरीटक, विरली, अक्षिवेधक, १४७. कुक्कुडे सिंगिरीडी य नंदावत्ते य विंछिए। डोले भिंगारी य विरली अच्छिवेहए।। कुक्कुटाः शृङ्गरीट्यश्च नन्दावर्त्ताश्च वृश्चिकाः। 'डोल' भृङ्गारिणश्च विरल्योऽक्षिवेधकाः ।। १४८. अच्छिले माहए अच्छिरोडए अक्षिला मागधा अक्षिरोडका विचित्ते चित्तपत्तए। विचित्राश्चित्रपत्रकाः। ओहिंजलिया जलकारी य ओहिंजलिया जलकार्यश्च नीया तंतवगाविय।। नीचास्तन्तवका अपि च।। अक्षिल, मागध, अक्षिरोडक, विचित्र-पत्रक, चित्र-पत्रक, ओहिंजलिया, जलकारी, नीचक, तन्तवक १४६. इइ चउरिंदिया एए णेगहा एवमायओ। लोगस्स एग देसम्मि ते सव्वे परिकित्तिया।। इति चतुरिन्द्रिया एते अनेकधा एवमादयः। लोकस्यैकदेशे ते सर्वे परिकीर्तिताः।। आदि अनेक प्रकार के चतुरिन्द्रिय जीव हैं।" वे लोक के एक भाग में ही प्राप्त होते हैं, समूचे लोक में नहीं। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। १५०. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपजजवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः छह मास की है। षट् चैव च मासास्तु उत्कर्षेण व्याख्याता। चतुरिन्द्रियायुः स्थितिः अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका।। १५१. छच्चेव य मासा उ उक्कोसेण वियाहिया। चउरिंदियआउठिई अंतोमुहुत्तं जहन्निया ।। १५२. संखिज्जकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं चउरिंदियकायठिई तं कायं तु अमुंचओ।। संख्येयकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। चतुरिन्द्रियकायस्थितिः तं कायं तु अमुंचताम् ।। उनकी काय-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः संख्यात काल की है। Jain Education Intemational Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति ६१७ अध्ययन ३६ : श्लोक १५३-१६१ १५३. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए अंतरेयं वियाहियं ।। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। वित्यक्ते स्वके काये अन्तरमेतद् व्याख्यातम् ।। उनका अन्तर—चतुरिन्द्रिय के काय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानप की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। १५४. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। पंचेन्द्रिय जीव चार प्रकार के हैं-(१) नैरयिक, (२) तिर्यञ्च, (३) मनुष्य और (४) देव। १५५. पंचिंदिया उ जे जीवा पंचेन्द्रियास्तु ये जीवाः चउव्विहा ते वियाहिया। चतुर्विधास्ते व्याख्याताः। नेरइयतिरिक्खा य नैरयिकास्तिर्यञ्चश्च मणुया देवा य आहिया।।। मनुजा देवाश्च आख्याताः।। १५६. नेरइया सत्तविहा पुढवीसु सत्तसू भवे। रयणाभसक्कराभा वालुयाभा य आहिया।। नैरयिकाः सप्तविधाः पृथिवीषु सप्तसु भवेयुः। रत्नाभा शर्कराभा वालुकाभा च आख्याता।। नैरयिक जीव सात प्रकार के हैं वे सात पृथ्वियों में उत्पन्न होते हैं। वे सात पृथ्वियां ये हैं-(१) रत्नाभा, (२) शर्कराभा, (३) वालुकाभा, १५७. पंकाभा धूमाभा तमा तमतमा तहा। इइ नेरइया एए सत्तहा परिकित्तिया ।। पंकाभा धूमाभा तमा तमस्तमा तथा। इति नैरयिका एते सप्तधा परिकीर्तिताः।। (४) पंकाभा, (५) धूमाभा, (६) तमा और (७) तमस्तमा। इन सात पृथ्वियों में उत्पन्न होने के कारण ही नैरयिक सात प्रकार के हैं। वे लोक के एक भाग में हैं। अब मैं उनके चतुर्विध काल विभाग का निरूपण करूंगा। १५८. लोगस्स एगदेसम्मि ते सव्वे उ वियाहिया। एत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चउव्विहं ।। लोकस्यैकदेशे ते सर्वे तु व्याख्याताः। इतः कालविभागं तु वक्ष्यामि तेषां चतुर्विधम् ।। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। १५६. संतइं पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। सागरोपममेकं तु उत्कर्षेण व्याख्याता। प्रथमायां जघन्येन दशवर्षसहस्त्रिका।। पहली पृथ्वी में नैरयिकों की आयु-स्थिति जघन्यतः दस हजार वर्ष और उत्कृष्टतः एक सागरोपम की १६०. सागरोवममेगं तु उक्कोसेण वियाहिया। पढमाए जहन्नेणं दसवाससहस्सिया।। - १६१. तिण्णेव सागरा ऊ उक्कोसेण वियाहिया। दोच्चाए जहन्नेणं एगं तु सागरोवमं ।। दूसरी पृथ्वी में नैरयिकों की आयु-स्थिति जघन्यतः एक सागरोपम और उत्कृष्टतः तीन सागरोपम की त्रय एव सागरास्तु उत्कर्षेण व्याख्याता। द्वितीयायां जघन्येन एकं तु सागरोपमम्।। Jain Education Intemational Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६१८ अध्ययन ३६ : श्लोक १६२-१७० १६२. सत्तेव सागरा ऊ उक्कोसेण वियाहिया। तइयाए जहन्नेणं तिण्णेव उ सागरोवमा।। सप्तैव सागरास्तु उत्कर्षेण व्याख्याता। तृतीयायां जघन्येन त्रीणि एव तु सागरोपमाणि।। तीसरी पृथ्वी में नैरयिकों की आयु-स्थिति जधन्यतः तीन सागरोपम और उत्कृष्टतः सात सागरोपम की चौथीपृथ्वी में नैरयिकों की आयु-स्थिति जघन्यतः सात सागरोपम और उत्कृष्टतः दस सागरोपम की १६३. दस सागरोवमा ऊ उक्कोसेण वियाहिया। चउत्थीए जहन्नेणं सत्तेव उ सागरोवमा।। दश सागरोपमाणि तु उत्कर्षेण व्याख्याता। चतुर्थ्यां जघन्येन सप्तैव तु सागरोपमाणि।। है। पांचवीं पृथ्वी में नैरयिकों की आयु-स्थिति जघन्यतः . दस सागरोपम और उत्कृष्टतः सतरह सागरोपम की १६४.सत्तरस सागरा ऊ उक्कोसेण वियाहिया। पंचमाए जहन्नेणं दस चेव उ सागरोवमा।। सप्तदश सागरास्तु उत्कर्षेण व्याख्याता। पंचम्यां जघन्येन दश चैव तु सागरोपमाणि।। है। १६५. बावीस सागरा ऊ उक्कोसेण वियाहिया। छट्ठीए जहन्नेणं सत्तरस सागरोवमा ।। द्वविंशतिः सागरास्तु उत्कर्षेण व्याख्याता। षष्ठयां जघन्येन सप्तदश सागरोपमाणि।। छठी पृथ्वी में नैरयिकों की आयु-स्थिति जघन्यतः सतरह सागरोपम और उत्कृष्टतः बाईस सागरोपम की है। १६६. तेत्तीस सागरा ऊ उक्कोसेण वियाहिया। सत्तमाए जहन्नेणं बावीसं सागरोवमा ।। त्रयस्त्रिंशत् सागरास्तु उत्कर्षेण व्याख्याता। सप्तम्यां जघन्येन द्वाविंशतिः सागरोपमाणि।। सातवीं पृथ्वी में नैरयिकों की आयु-स्थिति जघन्यतः बाईस सागरोपम और उत्कृष्टतः तेतीस सागरोपम की है। नैरयिक जीवों की जो आयु-स्थिति है, वही उनकी जघन्यतः या उत्कृष्टतः कायस्थिति है। १६७. जा चेव उ आउठिई नेरइयाणं वियाहिया। सा तेसिं कायठिई जहन्नुक्कोसिया भवे।। या चैव तु आयुःस्थितिः नैरयिकाणां व्याख्याता। सा तेषां कायस्थितिः जघन्योत्कर्षिता भवेत्।। १६८. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए नेरइयाणं तु अंतरं।। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम्। वित्यक्ते स्वके काये नैरयिकाणां तु अन्तरम् ।। उनका अन्तर-नैरयिक के काय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त-काल का है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। १६६. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो।। १७०. पंचिंदियतिरिक्खाओ दुविहा ते वियाहिया। सम्मुच्छिमतिरिक्खाओ गब्भवक्कंतिया तहा। पेचेन्द्रियतिर्यञ्चः द्विविधास्ते व्याख्याताः। सम्मूछिमतिर्यञ्चः गर्भावक्रन्तिकास्तथा।। पंचेन्द्रिय-तिर्यच जीव दो प्रकार के हैं(१) सम्मूच्छिम- तिर्यञ्च और (२) गर्भ-उत्पन्नतिर्यञ्च। Jain Education Intemational Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति १७१. दुविहावि ते भवे तिविहा जलयरा थलयरा तहा। खहयरा य बोद्धव्वा तेसिं भेए सुह मे ।। १७२. मच्छा य कच्छभा य गाहा य मगरा तहा । सुंसुमारा य बोद्धव्वा पंचहा जलयराहिया ।। १७३. लोएगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया । एतो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चउव्विहं । । १७४. संत पष्पणाईया अपज्जवसिया वि य । टिई पहुच्च साईया सपजजवसिया वि य ।। १७५. एगा य पुव्यकोडीओ उक्कोसेण वियाहिया । आउट्टिई जलयराणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया ।। १७६. पुव्यकोटीपुरतं तु उक्कोमेण वियाहिया । कार्यट्टिई जलयराणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया ।। १७७. अनंतकालमुक्को अंतीमहत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए जलयराणं तु अंतरं ।। १७८. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो ।। १७६. चउप्पया य परिसप्पा दुविहा थलरा भवे । चउप्पया चउविहा ते मे कित्तयओ सुण ।। ६१९ द्विविधा अपि ते भवेयुः त्रिविधाः जलचराः स्थलचरास्तथा । खचराश्च बोद्धव्याः तेषां भेदान् शृणुत मे ।। मत्स्याश्च कच्छपाश्च ग्राहाश्च मकरास्तथा । सुसुमाराश्च बोद्धव्याः पंचधा जलचरा आख्याताः ।। लोकैकदेशे ते सर्वे न सर्वत्र व्याख्याताः । इतः कालविभागं तु वक्ष्यामि तेषां चतुर्वियम् ॥ सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च । स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च ।। एका थ पूर्वकोटी उत्कर्षेण व्याख्याता । आयुः स्थितिर्जलचराणां अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ।। पूर्वकोटिपृथक्त्वं तु उत्कर्षेण व्याख्याता । कायस्थितिर्जलचराणां अन्तर्मुहूर्त्तं जघन्यका ।। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये जलचराणं तु अन्तरम् ।। एतेषां वर्णश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः ।। चतुष्पदाश्च परिसर्पाः द्विविधाः स्थलचरा भवेयुः । चतुष्पदाश्चतुर्विधाः तान् मे कीर्तयतः शृणु ।। अध्ययन ३६ : श्लोक १७१-१७६ ये दोनों ही जलचर, स्थलचर और खेचर के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं। उनके भेद तुम मुझसे सुनो। जलचर जीव पांच प्रकार के हैं – (१) मत्स्य, (२) कच्छप, (३) ग्राह, (४) मकर और (५) सुंसुमार । वे लोक के एक भाग में ही होते हैं, समूचे लोक में नहीं। अब मैं उनके चतुर्विध काल-विभाग का निरूपण करूंगा। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि- सान्त हैं। उनकी आयु 1 - स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः एक करोड़ पूर्व की है। उनकी काय स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और दो से भौ करोड़ पूर्व की है। 'उत्कृष्टतः उनका अन्तर - जलचर के काय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। स्थलचर जीव दो प्रकार के हैं- (१) चतुष्पद और (२) परिसर्प । चतुष्पद चार प्रकार के हैं। वे तुम मुझसे सुनो। Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६२० अध्ययन ३६ : श्लोक १८०-१८८ १८०. एगखुरा दुखुरा चेव गंडीपयसणप्पया। हयमाइगोणमाइगयमाइसीहमाइणो।। एकखुरा दिखुराश्चैव गण्डीपदाः सनखपदाः। हयादयो गवादयः गजादयः सिंहादयः।। (१) एक खुर-घोड़े आदि, (२) दो खुर-बैल आदि, (३) गंडीपद हाथी आदि। (४) सनखपदसिंह आदि। १८१. भुओरगपरिसप्पा य परिसप्पा दुविहा भवे। गोहाई अहिमाई य एक्केक्का णेगहा भवे ।। भूजउरगपरिसपश्चि परिसर्पा द्विविधा भवेयुः। गोधादयो अह्यादयश्च एकैके अनेकधा भवेयुः।। परिसर्प के दो प्रकार हैं-(१) भुजपरिसर्प हाथों के बल चलने वाले गोह आदि, (२) उरःपरिसर्पपेट के बल चलने वाले सांप आदि। ये दोनों अनेक प्रकार के होते हैं। १८२. लोएगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया। एत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चउव्विहं ।। लोकैकदेशे ते सर्वे न सर्वत्र व्याख्याताः। इतः कालविभागं तु वक्ष्यामि तेषां चतुर्विधम्।। वे लोक के एक भाग में होते हैं, समूचे लोक में नहीं। अब मैं उनके चतुर्विध काल-विभाग का निरूपण करूंगा। प्रवाह को अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। १८३. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः तीन पल्योपम पूर्व की है। १८४. पलिओवमाउ तिण्णि उ उक्कोसेण वियाहिया। आउट्ठिई थलयराणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। पल्योपमानि तु त्रीणि तु उत्कर्षेण व्याख्याता। आयुःस्थितिः स्थलचराणां अन्तर्मुहूर्त जघन्यका।। १८५. पलिओवमाउ तिण्णि उ उक्कोसेण तु साहिया। पुव्वकोडीपुहत्तेणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। पल्योपमानि तु त्रीणि तु उत्कर्षेण तु साधिका। पूर्वकोटिपृथक्त्वेन अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका।। जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम–एक स्थलचर जीवों की काय-स्थिति है। उनका अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त-काल का है। १८६. कायट्ठिई थलयराणं अंतरं तेसिमं भवे। कालमणंतमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ।। कायस्थितिः स्थलचराणां अन्तरं तेषामिदं भवेत्। कालमनन्तमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यकम् ।। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। १८७. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।। १८८. चम्मे उ लोमपक्खी य तइया समुग्गपक्खिया। विययपक्खी य बोद्धव्वा पक्खिणो य चउव्विहा।। चर्म (पक्षिणः) तु रोमपक्षिणश्च तृतीयाः समुद्गपक्षिणः। विततपक्षिणश्च बोद्धव्याः पक्षिणश्च चतुर्विधाः ।। खेचर जीव चार प्रकार के हैं-(१) चर्म-पक्षी, (२) रोमपक्षी, (३) समुद्गपक्षी और (४) विततपक्षी। Jain Education Intemational Far Private & Personal Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति अध्ययन ३६ : श्लोक १८६-१६७ १५.६६. लोगेगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया। इत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चउव्विहं।। ६२१ लोकैकदेशे ते सर्वे न सर्वत्र व्याख्याताः। इतः कालविभागं तु वक्ष्यामि तेषां चतुर्विधम् ।। वे लोक के एक भाग में होते हैं, समूचे लोक में नहीं। अब मैं उनके चतुर्विध काल-विभाग का निरूपण करूंगा। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। १६०. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। १६१. पलिओवम्मस भागो असंखेज्जइमो भवे। आउट्ठिई खहयराणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। पल्योपमस्य भागः असंख्येयतमो भवेत्। आयुःस्थितिः खेचराणां अन्तर्मुहूर्त जघन्यका।। उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है। जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग १६२. असंखभागो पलियस्स उक्कोसेण उ साहिओ। पुव्वकोडीपुहत्तेणं अंतोमुहुत्तं जहन्नियं ।। असंख्यभाग: पलस्य उत्कर्षेण तु साधिका। पूर्वकोटीपृथक्त्वेन अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका।। १६३. कायठिई खहयराणं अंतरं तेसिमं भवे। कालं अणंतमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। कायस्थितिः खेचराणां अन्तरं तेषामिदं भवेत्। कालमनन्तमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम्।। यह खेचर जीवों की काय-स्थिति है। उनका अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त-काल का है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। १६४. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः ।। मनुष्य दो प्रकार के हैं-(१) सम्मूच्छिम२२ और (२) गर्भ-उत्पन्न। १६५. मणुया दुविहभेया उ ते मे कित्तयओ सुण। संमुच्छिमा य मणुया गब्भवक्कंतिया तहा।। मनुजा द्विविधभेदास्तु तान् मे कीर्तयतः शृणु। सम्मूर्छिमाश्च मनुजाः गर्भावक्रान्तिकास्तथा।। गर्भ-उत्पन्न मनुष्य तीन प्रकार के हैं२— (१) अकर्मभूमिक, (२) कर्म-भूमिक और (३) अन्तर्वीपक। गर्भवक्रान्तिका ये तु त्रिविधास्ते व्याख्याताः। अकर्मकर्मभूमाश्च अन्तद्वीपकास्तथा।। १६. गब्भवक्कंतिया जे उ तिविहा ते वियाहिया। अकम्मकम्मभूमा य अंतरद्दीवया तहा।। १६७. पन्नरस तीसइ विहा भेया अट्ठवीसइं। संखा उ कमसो तेसिं इइ एसा वियाहिया।। पंचदशत्रिंशद्विधाः भेदा अष्टाविंशतिः। सङ्ख्या तु क्रमशस्तेषां इत्येषा व्याख्याता।। कर्म-भूमिक मनुष्यों के पन्द्रह, अकर्म-भूमिक मनुष्यों के तीस तथा अन्तर्वीपक मनुष्यों के अट्ठाईस भेद होते हैं। Jain Education Intemational Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ३६ : श्लोक १६८-२०६ १६८. संमुच्छिमाण एसेव भेओ होइ आहिओ। लोगस्स एगदेसम्मि ते सव्वे वि वियाहिया।। ६२२ सम्मूछिमाणामेष एव भेदो भवति आख्यातः। लोकस्यैकदेशे ते सर्वेऽपि व्याख्याताः ।। सम्मूच्छिम मनुष्यों के भी उतने ही भेद हैं जितने गर्भ-उत्पन्न मनुष्यों के हैं। वे लोक के एक भाग में ही होते हैं। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। १६६. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः तीन पल्योपम की है। २००. पडिओवमाइं तिण्णि उ उक्कोसेण वियाहिया। आउट्ठिई मणुयाणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। पल्योपमानि त्रीणि तु उत्कर्षेण व्याख्याता। आयुःस्थितिर्मनुजानां अन्तर्मुहूर्त जघन्यका।। जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम २०१. पलिओवमाइं तिण्णि उ उक्कोसेण वियाहिया। पुव्वकोडीपुहत्तेणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। पल्योपमानि त्रीणि तु उत्कर्षेण व्याख्याता। पूर्वकोटिपृथक्वेन अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ।। २०२. कायट्ठिई मणुयाणं अंतरं तेसिमं भवे। अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ।। कायस्थितिर्मनुजानां अन्तरं तेषामिदं भवेत्। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यका।। यह मनुष्यों की काय-स्थिति है। उनका अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त-काल का है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो स्पस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। देवाश्चतुर्विधा उक्ताः तान् मे कीर्तयतः शृणु। भौमेया वाणव्यन्तराः ज्योतिष्काः वैमानिकास्तथा।। देव चार प्रकार के हैं--(१) भवन-वासी, (२) व्यन्तर, (३) ज्योतिष्क और (४) वैमानिक। २०३. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।। २०४. देवा चउव्विहा वुत्ता ते मे कित्तयओ सुण। भोमिज्जवाणमंतर जोइसवेमाणिया तहा।। २०५. दसहा उ भवणवासी अट्ठहा वणचारिणो। पंचविहा जोइसिया दुविहा वेमाणिया तहा।। २०६. असुरा नागसुवण्णा विज्जू अग्गी य आहिया। दीवोदहिदिसा वाया थणिया भवणवासिणो ।। दशधा तु भवनवासिनः अष्टधा वनचारिणः। पंचविधा ज्योतिष्काः द्विविधा वैमानिकास्तथा।। भवनवासी देव दस प्रकार के हैं। व्यन्तर आठ प्रकार के हैं। ज्योतिष्क पांच प्रकार के हैं। वैमानिक दो प्रकार के हैं। असुरा नागसुपर्णाः विद्युदग्निश्च आख्याताः। द्वीपोदधिदिशो वाताः स्तनिता भवनवासिनः।। (१) असुरकुमार, (२) नागकुमार, (३) सुपर्णकुमार, (8) विद्युत्कुमार, (५) अग्निकुमार, (६) द्वीपकुमार, (७) दधिकुमार, (८) दिक्कुमार, (E) वायुकुमार, (१०) स्तनितकुमार—ये भवनवासी देवों के दस प्रकार हैं। dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति २०७. पिसायभूय जक्खा य रक्खसा किन्नरा य किंपुरिसा । महोरगा य गंधव्वा अट्ठविहा वाणमंतरा ।। २०८. चंदा सूरा य नक्खत्ता गहा तारागणा तहा दिसाविचारिणो चेव पंचहा जोइसालया ।। २०६. वेमाणिया उ जे देवा दुविहा ते वियाहिया । कप्पोवगा य बोद्धव्वा कप्पाईया तहेव य ।। २१०. कप्पोवगा बारसहा सोहम्मीसाणगा तहा । सकुमारमाहिंदा बंभलोगा य लंतगा ।। २११. महासुक्का सहस्सारा आणया पाणया तहा । आरणा अच्चुया चेव इइ कप्पोवगा सुरा २१२. कप्पाईया उ जे देवा दुविहा ते वियाहिया । विज्जाणुत्तरा चैव गेविज्जा नवविहा तहिं ।। २१३. हेद्विमाहेट्टिमा चैव हेमामज्झिमा तहा। हेद्रिमाउवरिमा बेव मज्झिमाहेट्टिमा तहा ।। २१४. मज्झिमामज्झिमा चेव मज्झिमाउवरिमा तहा। उवरिमाहेद्रिमा चैव उवरिमामज्झिमा तहा ।। २१५. उवरिमाउवरिमा चेव इय गेविज्जगा सुरा । विजया वेजयंता य जयंता अपराजिया ।। अध्ययन ३६ श्लोक २०७-२१५ पिशाचभूताश्च (१) पिशाच, (२) भूत, (३) यक्ष, (४) राक्षस, राक्षसाः किन्नराश्च किंपुरुषाः । (५) किन्नर, (६) किंपुरुष, (७) महोरग और महोरगाश्च गन्धर्वाः (८) गन्धर्व - ये व्यंतर देवों के आठ प्रकार हैं। अष्टविधा वाणव्यन्तराः ।। ६२३ चन्द्राः सूर्याश्च नक्षत्राणि ग्रहास्तारागणास्तथा । दिशाविचारिणश्चैव पंचधा ज्योतिषालयाः ।। वैमानिकास्तु ये देवाः द्विविधास्ते व्याख्याताः । कल्पोपगाश्च बोद्धव्याः कल्पातीतास्तथैव च ॥ कल्पोपगा द्वादशधा सौधर्मेशानगास्तथा । सनत्कुमार माहेन्द्राः ब्रह्मलोकाश्च लान्तकाः ।। महाशुक्राः सहस्राराः आनताः प्राणतास्तथा । आरणा अच्युताश्चैव इति कल्पोपगाः सुराः ।। कल्पातीतास्तु ये देवाः द्विविधास्ते व्याख्याताः । यैवमानुत्तराश्चैव ग्रैवेया नवविधास्तत्र ।। अधस्तनाधस्तनाश्चैव अधस्तनमध्यमास्तथा । अधस्तनोपरितनाश्चैव मध्यमाधस्तनास्तथा ।। मध्यममध्यमाश्चैव मध्यमोपरितनास्तथा । उपरितनाधस्तनाश्चैव उपरितनमध्यमास्तथा ।। उपरितनोपरितनाश्चैव इति ग्रैवेयकाः सुराः । विजया वैजयन्ताश्च जयन्ता अपराजिताः ।। (१) चन्द्र, (२) सूर्य, (३) नक्षत्र, (४) ग्रह और (५) तारा - ये पांच भेद ज्योतिष्क देवों के हैं। ये दिशाविचारी - मेरु की प्रदक्षिणा करते हुए विचरण करने वाले हैं। वैमानिक देवों के दो प्रकार हैं- (१) कल्पोपग और (२) कल्पातीत । कल्पोपग बारह प्रकार के हैं— (१) सौधर्म, (२) ईशानक, (३) सनत्कुमार (४) माहेन्द्र, (५) ब्रह्मलोक, (६) लान्तक, (७) महाशुक्र, (८) सहस्रार, (६) आनत, (१०) प्राणत, (११) आरण और (१२) अच्युत—ये कल्पोपग देव हैं । कल्पातीत देवों के दो प्रकार हैं- (१) ग्रैवेयक और (२) अनुत्तर। ग्रैवेयकों के निम्नोक्त नौ प्रकार हैं : (१) अधः - अधस्तन, (२) अध:- मध्यम, (३) अध:उपरितन, (४) मध्य-अधस्तन, (५) मध्य-मध्यम, (६) मध्य- उपरितन, (७) उपरिअधिस्तन, (८) उपरि-मध्यम, और (६) उपरि- उपरितन—ये ग्रैवेयक देव हैं। (१) विजय, (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, (४) अपराजित Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६२४ अध्ययन ३६ : श्लोक २१६-२२४ और (५) सर्वार्थसिद्धक-ये अनुत्तर देवों के पांच प्रकार हैं। इस प्रकार वैमानिक देवों के अनेक प्रकार २१६. सव्वट्ठसिद्धगा चेव पंचहाणुत्तरा सुरा। इइ वेमाणिया देवा णेगाहा एवमायओ।। सर्वार्थसिद्धकाश्चैव पंचधा अनुत्तराः सुराः । इति वैमानिका देवाः अनेकधा एवमादयः ।। वे सब लोक के एक भाग में रहते हैं। अब मैं उनके चतुर्विध काल-विभाग का निरूपण करूंगा। २१७. लोगस्स एगदेसम्मि ते सव्वे परिकित्तिया। इत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चउन्विहं ।। लोकस्यैकदेशे ते सर्वे परिकीर्तिताः। इतः कालविभागं तु वक्ष्यामि तेषां चतुर्विधम् ।। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। २१८. संतई पप्पाणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिई पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। २१६. साहियं सागरं एक्कं उक्कोसेण ठिई भवे। भोमेज्जाणं जहन्नेणं दसवाससहस्सिया।। साधिकः सागर एकः उत्कर्षेण स्थितिः भवेत् भौमेयानां जघन्येन दशवर्षसहस्त्रिका ।। भवनवासी देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः दस हजार वर्ष और उत्कृष्टतः किंचित् अधिक एक सागरोपम की है। व्यन्तर देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः दस हजार वर्ष और उत्कृष्टतः एक पल्योपम की है। २२०. पलिओवममेगं तु उक्कोसेण ठिई भवे। वंतराणं जहन्नेणं दसवाससहस्सिया।। पल्योपममेकं तु उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। व्यन्तराणां जघन्येन दशवर्षसहनिका।। २२१. पलिओवमं एगं तु वासलक्खेण साहियं। पलिओवमट्ठभागो जोइसेसु जहन्निया।। पल्योपममेकं तु वर्षलक्षेण साधिकम्। पल्योपमाष्टभागः ज्योतिष्केषु जघन्यका ।। ज्योतिष्क देवों की आयु स्थिति जघन्यतः पल्योपम के आठवें भाग और उत्कृष्टतः एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की है। सौधर्म देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः एक पल्योपम और उत्कृष्टतः दो सागरोपम की है। २२२. दो चेव सागराइं उक्कोसेण वियाहिया। सोहम्ममि जहन्नेणं एगं च पलिओवमं ।। द्वौ चैव सागरौ उत्कर्षेण व्याख्याता। सौधमें जघन्येन एकं च पल्योपमम् ।। सागरौ साधिकौ द्वौ उत्कर्षेण व्याख्याता। ईशाने जघन्येन साधिकं पल्योपमम्।। ईशान देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः किंचित् अधिक एक पल्योपम और उत्कृष्टतः किंचित् अधिक दो सागरोपम की है। २२३. सागरा साहिया दुन्नि उक्कोसेण वियाहिया। ईसाणम्मि जहन्नेणं साहियं पलिओवमं ।। २२४. सागराणि य सत्तेव उक्कोसेण ठिई भवे। सणंकुमारे जहन्नेणं दुन्नि ऊ सागरोवमा।। सागराश्च सप्तैव उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। सनत्कुमारे जघन्येन द्वे तु सागरोपमे।। सनत्कुमार देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः दो सागरोपम और उत्कृष्टतः सात सागरोपम की है। Jain Education Intemational Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति ६२५ अध्ययन ३६ : श्लोक २२५-२३३ २२५. साहिया सागरा सत्त उक्कोसेण ठिई भवे। माहिंदम्मि जहन्नेणं साहिया दुन्नि सागरा।। साधिकाः सागराः सप्त उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। माहेन्द्रे जधन्येन साधिकौ द्वौ सागरौ।। माहेन्द्रकुमार देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः किंचित् अधिक दो सागरोपम और उत्कृष्टतः किंचित् अधिक सात सागरोपम की है। ब्रह्मलोक देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः सात सागरोपम और उत्कृष्टतः दस सागरोपम की है। २२६. दस चेव सागराइं उक्कोसेण ठिई भवे। बंभलोए जहन्नेणं सत्त ऊ सागरोवमा ।। दश चैव सागरा: उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। ब्रह्मलोके जघन्येन सप्त तु सागरोपमाणि।। लान्तक देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः दस सागरोपम और उत्कृष्टतः चौदह सागरोपम की है। २२७. चउद्दस सागराइं उक्कोसेण ठिई भवे। लंतगम्मि जहन्नेणं दस ऊ सागरोवमा ।। चतुर्दश सागराः उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। लान्तके जघन्येन दश तु सागरोपमाणि।। महाशुक्र देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः चौदह सागरोपम और उत्कृष्टतः सतरह सागरोपम की है। २२८. सत्तरस सागराई उक्कोसेण ठिई भवे। महासुक्के जहन्नेणं चउद्दस सागरोवमा ।। सप्तदश सागराः उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। महाशुक्रे जघन्येन चतुर्दश सागरोपमाणि ।। २२६. अट्ठारस सागराई उक्कोसेण ठिई भवे। सहस्सारे जहन्नेणं सत्तरस सागरोवमा ।। अष्टादश सागराः उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। सहस्त्रारे जघन्येन सप्तदश सागरोपमाणि।। सहस्रार देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः सतरह सागरोपम और उत्कृष्टतः अठारह सागरोपम की है। आनत देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः अठारह सागरोपम और उत्कृष्टतः उन्नीस सागरोपम की है। २३०. सागरा अउणवीसं तु उक्कोसेण ठिई भवे। आणयम्मि जहन्नेणं अट्ठारस सागरोवमा ।। सागरा एकोनविंशतिस्तु उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। आनते जघन्येन अष्टादश सागरोपमाणि।। प्राणत देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः उन्नीस सागरोपम और उत्कृष्टतः बीस सागरोपम की है। २३१. वीसं तु सागराइं उक्कोसेण ठिई भवे। पाणयम्मि जहन्नेणं सागरा अउणवीसई।। विंशतिस्तु सागराः उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। प्राणते जघन्येन सागरा एकोनविंशतिः।। आरण देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः बीस सागरोपम और उत्कृष्टतः इक्कीस सागरोपम की है। सागरा एकविंशतिस्तु उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। आरणे जघन्येन विंशतिः सागरोपमाणि।। २३२. सागरा इक्कवीसं तु उक्कोसेण ठिई भवे। आरणम्मि जहन्नेणं वीसई सागरोवमा।। २३३. बावीसं सागराई उक्कोसेण ठिई भवे। अच्चुयम्मि जहन्नेणं सागरा इक्कवीसई।। अच्युत देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः इक्कीस सागरोपम और उत्कृष्टतः बाईस सागरोपम की है। द्वाविंशतिः सागराः उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत। अच्युते जघन्येन सागरा एकविंशतिः।। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६२६ अध्ययन ३६ : श्लोक २३४-२४२ २३४. तेवीस सागराई उक्कोसेण ठिई भवे। पढमम्मि जहन्नेणं बावीसं सागरोवमा।। प्रथम ग्रैवेयक देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः बाईस सागरोपम और उत्कृष्टतः तेईस सागरोपम की है। त्रयोविंशतिः सागराः उत्कर्षेण स्थितिभवेत्। प्रथमे जघन्येन द्वाविंशतिः सागरोपमाणि।। द्वितीय ग्रैवेयक देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः तेईस सागरोपम और उत्कृष्टतः चौबीस सागरोपम की है। २३५. चउवीस सागराई उक्कोसेण ठिई भवे। बिइयम्मि जहन्नेणं तेवीसं सागरोवमा।। चतुर्विंशतिः सागराः उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। द्वितीये जघन्येन त्रयोविंशतिः सागरोपमाणि।। तृतीय अवेयक की आयु-स्थिति जघन्यतः चौबीस सागरोपम और उत्कृष्टतः पच्चीस सागरोपम की है। २३६. पणवीस सागराइं उक्कोसेण ठिई भवे। तइयम्मि जहन्नेणं चउवीसं सागरोवमा।। पंचविंशतिः सागराः उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। तृतीये जघन्येन चतुर्विंशतिः सागरोपमाणि।। चतुर्थ ग्रैवेयक की आयु-स्थिति जघन्यतः पच्चीस सागरोपम और उत्कृष्टतः छब्बीस सागरोपम की है। २३७. छव्वीस सागराई उक्कोसेण ठिई भवे। चउत्थम्मि जहन्नेणं सागरा पणुवीसई।। षड्विंशतिः सागराः उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। चतुर्थे जघन्येन सागरा: पंचविशतिः।। २३८. सागरा सत्तवीसं तु उक्कोसेण ठिई भवे। पंचमम्मि जहन्नेणं सागरा उ छवीसई।। सागराः सप्तविंशतिस्तु उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। पंचमे जघन्येन सागराः तु षड्विंशतिः।। पंचम ग्रैवेयक की आयु-स्थिति जघन्यतः छब्बीस सागरोपम और उत्कृष्टतः सत्ताईस सागरोपम की है। षष्ठ ग्रैवेयक की आयु-स्थिति जघन्यतः सत्ताईस सागरोपम और उत्कृष्टतः अट्ठाईस सागरोपम की २३६. सागरा अट्ठवीसं तु उक्कोसेण ठिई भवे। छट्ठम्भि जहन्नेणं सागरा सत्तवीसई।। सागरा अष्टाविंशतिस्तु उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। षष्ठे जघन्येन सागराः सप्तविंशतिः।। सप्तम ग्रैवेयक की आयु-स्थिति जघन्यतः अट्ठाईस सागरोपम और उत्कृष्टतः उनतीस सागरोपम की २४०. सागरा अउणतीसं तु उक्कोसेण ठिई भवे। सत्तमम्मि जहन्नेणं सागरा अट्ठवीसई।। सागरा एकोनत्रिंशत् तु उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। सप्तमे जघन्येन सागराः अष्टाविंशतिः।। अष्टम ग्रैवेयक की आयु-स्थिति जघन्यतः उनतीस सागरोपम और उत्कृष्टतः तीस सागरोपम की है। त्रिंशत् तु सागराः उत्कर्षेण स्थितिभवेत्। अष्टमे जघन्येन सागराः एकोनत्रिंशत् ।। २४१. तीसं तु सागराई उक्कोसेण ठिई भवे। अट्ठमम्मि जहननेणं सागरा अउणतीसइ।। २४२. सागरा इक्कतीसं तु उक्कोसेण ठिई भवे। नवमम्मि जहन्नेणं तीसई सागरोवमा।। नवम ग्रेवेयक की आयु-स्थिति जघन्यतः तीस सागरोपम और उत्कृष्टतः इकत्तीस सागरोपम की है। सागरा एकत्रिंशत् तु उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। नवमे जघन्येन त्रिंशत् सागरोपमाणि।। Jain Education Intemational Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति ६२७ अध्ययन ३६ : श्लोक २४३-२५१ २४३. तेत्तीस सागराउ उक्कोसेण ठिई भवे। चउसुं पि विजयाईसुं जहन्नेणेक्कतीसई।। त्रयस्त्रिंशत् सागराः उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत्। चतुर्ध्वपि विजयादिषु जघन्येनैकत्रिंशत् ।। विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की आयु-स्थिति जघन्यतः इकतीस सागरोपम और उत्कृष्टतः तेतीस सागरोपम की है। महाविमान वासी सर्वार्थसिद्धक देवों की जघन्यतः और उत्कृष्टतः आयु-स्थिति तेतीस सागरोपम की २४४. अजहन्नमणुक्कोसा तेत्तीसं सागरोवमा। महाविमाण सव्वठे ठिई एसा वियाहिया ।। अजघन्यानुत्कर्षा त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि। महाविमानसर्वार्थे स्थितिरेषा व्याख्याता।। सारे ही देवों की जितनी आयु-स्थिति है उतनी ही उनकी जघन्य या उत्कृष्ट काय-स्थिति है। २४५. जा चेव उ आउठिई देवाणं तु वियाहिया। सा तेसिं कायठिई जहन्नुक्कोसिया भवे।। या चैव तु आयुःस्थितिः देवानां तु व्याख्याता। सा तेषां कायस्थितिः जघन्योत्कर्षिता भवेत्।। २४६. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं। विजढंमि सए काए देवाणं हुज्ज अंतरं।। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त्त जघन्यकम्। वित्यक्ते स्वके काये देवानां भवेदन्तरम्।। उनका अन्तर—अपने-अपने काय को छोड़कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त काल का है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। २४७. एएसि वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्सओ।। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। २४८. संसारत्था य सिद्धा य इइ जीवा वियाहिया। रूविणो चेवरूवी य अजीवा दुविहा वि य।। संसारस्थाश्च सिद्धाश्च इति जीवा व्याख्याताः। रूपिणश्चैव अरूपिणश्च अजीव द्विविधा अपि च।। संसारी और सिद्ध--इन दोनों प्रकार के जीवों की व्याख्या की गई है। इसी प्रकार रूपी और अरूपीइन दोनों प्रकार के अजीवों की व्याख्या की गई है। २४६. इइ जीवमजीवे य सोच्चा सद्दहिऊण य। सव्वनयाण अणुमए रमेज्जा संजमे मुणी।। इति जीवानजीवांश्च श्रुत्वा श्रद्धाय च। सर्वनयानामनुमते रमेत संयमे मुनिः।। इस प्रकार जीव और अजीव के स्वरूप को सुनकर, उसमें श्रद्धा उत्पन्न कर मुनि ज्ञान-क्रिया आदि सभी नयों के द्वारा अनुमत संयम में रमण करे। मुनि अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन कर इस क्रमिक प्रयत्न से आत्मा को कसे—संलेखना करे।" ततो बहूनि वर्षाणि श्रामण्यमनपाल्य। अनेन क्रमयोगेन आत्मानं संलिखेन् मुनिः।। २५०. तओ बहूणि वासाणि सामण्णमणपालिया। इमेण कमजोगेण अप्पाणं संलिहे मुणी।। २५१. बारसेव उ वासाइं संलेहुक्कोसिया भवे। संवच्छरं मज्झिमिया छम्मासा य जहन्निया ।। संलेखना उत्कृष्टतः-बारह वर्षों, मध्यमतः एक वर्ष तथा जघन्यतः छह मास की होती है। द्वादशैव तु वर्षाणि संलेखोत्कर्षिता भवेत्। संवत्सरं मध्यमिका षण्मासा च जघन्यका।। Jain Education Intemational Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ३६ : श्लोक २५२-२६० २५२. पढमे वासचउक्कम्मि विगईनिज्जूहणं करे। बिइए वासचउक्कम्मि विचित्तं तु तवं चरे।। ६२८ प्रथमे वर्षचतुष्के विकृतिनि!हणं कुर्यात् । द्वितीये वर्षचतुष्के विचित्रं तु तपश्चरेत् ।। संलेखना करने वाला मुनि पहले चार वर्षों में विकृतियों (रसों) का परित्याग करे। दूसरे चार वर्षों में विचित्र तप (उपवास, बेला, तेला आदि) का आचरण करे। २५३. एगंतरमायाम कटु संवच्छरे दुवे। तओ संवच्छरद्धं तु नाइविगिळं तवं चरे।। एकान्तरमायाम कृत्वा संवत्सरौ द्वौ। ततः संवत्सरार्द्ध तु नातिविकृष्टं तपश्चरेत् ।। फिर दो वर्षों तक एकान्तर तप (एक दिन उपवास तथा एक दिन भोजन) करे। भोजन के दिन आचाम्ल करे। ग्यारहवें वर्ष के पहले छह महीनों तक कोई भी विकृष्ट तप (तेला, चोला आदि) न करे। २५४.तओ संवच्छरद्धं तु विगिट्ठ तु तवं चरे। परिमियं चेव आयाम तंमि संवच्छरे करे।। ततः संवत्सरार्द्ध तु विकृष्टं तु तपश्चरेत्। परिमितश्चैवायाम तस्मिन् संवत्सरे कुर्यात् ।। ग्यारहवें वर्ष के पिछले छह महीनों में विकृष्ट तप करे। इस पूरे वर्ष में परिमित (पारणा के दिन) आचाम्ल करे। २५५. कोडीसहियमायाम कटु संवच्छरे मुणी। मासद्धमासिएणं तु आहारेण तवं चरे।। कोटिसहितमायाम कृत्वा संवत्सरे मुनिः। मासिकेनार्द्धमासिकेन तु आहारेण तपश्चरेत् ।। बारहवें वर्ष में मुनि कोटि-सहित (निरन्तर) आचाम्ल करे। फिर पक्ष या मास का आहर-त्याग (अनशन) करे।२६ २५६. कंदप्पमाभिओगं कान्दी आभियोगी कांदी भावना, आभियोगी भावना, किल्बिषिकी भावना, किब्बिसियं मोहमासुरत्तं च। किल्बिषिकी मोही आसुरत्वं च। मोही भावना तथा आसुरी भावना ये पांच भावनाएं एयाओ दुग्गईओ एता दुर्गतयः दुर्गति की हेतुभूत हैं। मृत्यु के समय ये सम्यग-दर्शन मरणम्मि विराहिया होति।। मरणे विराधिक भवन्ति ।। आदि की विराधना करती हैं।२७ २५७. मिच्छादसणरत्ता सनियाणा हु हिंसगा। इय जे मरंति जीवा तेसिं पुण दुल्लहा बोही।। मिथ्यादर्शनरक्ताः सनिदानाः खलु हिंसकाः। इति ये नियन्ते जीवाः तेषां पुनर्दुर्लभा बोधिः।। मिथ्या-दर्शन में रक्त, सनिदान और हिंसक दशा में जो मरते हैं, उनके लिए फिर बोधि बहुत दुर्लभ होती है। २५८. सम्मइंसणरत्ता अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा। इय जे मरंति जीवा सुलहा तेसिं भवे बोही।। सम्यग्दर्शनरक्ताः सम्यग्-दर्शन में रक्त, अनिदान और शुक्ल-लेश्या अनिदानाः शुक्ललेश्यामवगाढाः। में प्रवर्तमान जो जीव मरते हैं, उनके लिए बोधि इति ये म्रियन्ते जीवाः सुलभ है। सुलभा तेषां भवेद् बोधिः।। २५६. मिच्छादंसणरत्ता मिथ्यादर्शनरक्ताः मिथ्यादर्शन में रक्त, सनिदान और कृष्ण-लेश्या में सनियाणा कण्हलेसमोगाढा। सनिदानाः कृष्णलेश्यामवगाढाः। प्रवर्तमान जो जीव मरते हैं, उनके लिए फिर बोधि इय जे मरंति जीवा इति ये म्रियन्ते जीवाः बहुत दुर्लभ होती है। तेसिं पुण दुल्लहा बोही।। तेषां पुनर्दुर्लभा बोधिः ।। २६०. जिणवयणे अणुरत्ता जिनवचने अनुरक्ताः जो जिनवचन में अनुरक्त हैं तथा जिनवचनों का जिणवयणं जे करेंति भावेण। जिनवचनं ये कुर्वन्ति भावेन। भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल ओर असंक्लिष्ट अमला असंकिलिट्ठा अमला असंक्लिष्टाः होकर परीत-संसारी (अल्प जन्म-मरण वाले) हो ते होंति परित्तसंसारी।। ते भवन्ति परीतसंसारिणः।। जाते हैं। Jain Education Intemational Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३६ : श्लोक २६१ २६८ जीवाजीवविभक्ति ६२९ २६१. बालमरणाणि बहुसो बालमरणानि बहुशः अकाममरणाणि चेव य बहूणि। अकाममरणानि चैव च बहूनि। मरिहिंति ते वराया मरिष्यन्ति ते वराकाः जिणवयणं जे न जाणंति।। जिनवचनं ये न जानन्ति।। जो प्राणी जिनवचनों से परिचित नहीं हैं, वे बेचारे अनेक बार बाल-मरण तथा अकाम-मरण करते रहेंगे। २६२. बहुआगमविण्णाणा समहिउप्पायगा य गुणगाही। एएण कारणेणं अरिहा आलोयणं सोउं ।। बहागमविज्ञानाः जो अनेक शास्त्रों के विज्ञाता, आलोचना करने वाले समाध्युत्पादकाश्च गुणग्राहिणः।। के मन में समाधि उत्पन्न करने वाले और गुणग्राही एतेन कारणेन होते हैं, वे अपने इन्हीं गुणों के कारण आलोचना अर्हा आलोचनां श्रोतुम्।। सुनने के अधिकारी होते हैं। २६३. कंदप्पकोक्कुइयाई कन्दर्पकौत्कुच्ये जो कामकथा करता है, दूसरों को हंसाने की चेष्टा तह सीलसहावहासविगहाहिं। तथा शीलस्वभावहास्यविकथाभिः। करता है तथा शील-आचरण, स्वभाव, हास्य और विम्हावेंतो य परं विस्मापयन् च परं विकथाओं के द्वारा दूसरों को विस्मित करता है, वह कंदप्पं भावणं कुणइ।। कान्दी भावनां कुरुते।। कांदी भावना का आचरण करता है। २६४. मंताजोगं काउं भूईकम्मं च जे पउंजंति।। सायरसइड्डिहेउं अभिओगं भावणं कुणइ।। मंत्रयोगं कृत्वा भूतिकर्म च यः प्रयुङ्क्ते। सातरसर्चिहेतोः आभियोगी भावनां कुरुते।। जो सुख, रस और समृद्धि के लिए मंत्र, योग और भूति-कर्म का प्रयोग करता है, वह आभियोगी भावना का आचरण करता है। २६५. नाणस्स केवलीणं ज्ञानस्य केवलिना धम्मायरियस्स संघसाहूणं धर्माचार्यस्य सब्यसाधूनाम्। माई अवण्णवाई मायी अवर्णवादी किब्बिसियं भावणं कुणइ।। किल्बिषिकी भावनां कुरुते।। जो ज्ञान, केबल-ज्ञानी, धर्माचार्य, संघ तथा साधुओं की निन्दा करता है, वह मायावी पुरुष किल्बिषिकी भावना का आचरण करता है। २६६.अणुबद्धरोसपसरो अनुबद्धरोषप्रसरः जो क्रोध को सतत बढ़ावा देता है और निमित्त तह य निमित्तंमि होइ पडिसेवि। तथा च निमित्ते भवति प्रतिसेवी। बताता है, वह अपनी इन प्रवृत्तियों के कारण एएहि कारणेहि एताभ्यां कारणाभ्यां आसुरी भावना का आचरण करता है। आसुरियं भावणं कुणइ।। आसुरिकी भावनां कुरुते।। २६७.सत्थग्गहणं विसभक्खणं च । शस्त्रग्रहणं विषभक्षणं च जलणं च जलप्पवेसो य। ज्वलनं च जलप्रवेशश्च। अणायारभंडसेवा अनाचारभाण्डसेवा जम्मणमरणाणि बंधंति ।। जन्ममरणानि बध्नन्ति ।। जो शस्त्र के द्वारा, विष-भक्षण के द्वारा अग्नि में प्रविष्ट होकर या पानी में कूद कर आत्म-हत्या करता है और जो मर्यादा से अधिक उपकरण रखता है, वह जन्म-मरण की परम्परा को पुष्ट करता है-मोही भावना का आचरण करता है। २६८. इइ पाउकरे बुद्धे नायए परिनिव्वुए। छत्तीसं उत्तरज्झाए भवसिद्धीयसंमए।। इति प्रादुरकरोद् बुद्धः ज्ञातकः परिनिर्वृतः। षट्त्रिंशदुत्तराध्यायान् भव्यसिद्धिकसम्मतान् ।। इस प्रकार भव्य जीवों द्वारा सम्मत छत्तीस उत्तराध्ययनों का तत्त्ववेत्ता, ज्ञातवंशीय उपशान्त भगवान् महावीर ने प्रज्ञापन किया है। –त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। --ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण अध्ययन ३६ : जीवाजीवविभक्ति १. जीव और अजीव का विभाग (जीवाजीविभत्ति) जीव और अजीव के अनेक प्रकार हैं। आगम साहित्य में उनका विशद विवेचन प्राप्त है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है जो जीवे विन याणाइ, अजीवे विन याणई। जीवाजीवे अयाणतो, कहं सो नाहिइ संजमं ॥ जो जीव और अजीव को नहीं जानता- उनके भेद-प्रभेद और लक्षणों को नहीं जानता- वह संयम को नहीं जानता। संयम को जानना मोक्ष तक पहुंचने का प्रथम सोपान है । और वह अवबोध जीव- अजीव के संज्ञान से ही होता है। जीव और अजीव के आधार पर संयम के सतरह प्रकार प्रतिपादित हैं । २. यह लोक जीव और अजीवमय है (जीवा चैव अजीवा य) 1 जैन आगमों में 'लोक' की परिभाषा कई प्रकार से मिलती है— धर्मास्तिकाय लोक है। लोक पञ्चास्तिकायमय है जो आकाश षड्द्रव्यात्मक है, वह लोक है। यहां जीव और अजीव को लोक कहा गया है। इन सब में कोई विरोध नहीं है । केवल अपेक्षा भेद से इनका प्रतिपादन हुआ है। धर्म द्रव्य लोक-परिमित है इसलिए उसे लोक कहा गया है। काल समूचे लोक में व्याप्त नहीं अथवा वह वास्तविक द्रव्य नहीं, इसलिए लोक को पञ्चास्तिकायमय बताया गया है। द्रव्य छह हैं। उनमें आकाश सब का आधार है। इसलिए उसके आश्रय पर ही दो विभाग किए गए हैं-- (१) लोकाकाश और (२) अलोकाकाश। अलोकाकाश में आकाश के सिवाय कुछ भी नहीं है। लोकाकाश में सभी द्रव्य हैं। व्यावहारिक काल सिर्फ मनुष्य लोक में है किन्तु वह है लोक में ही, इसलिए 'अंशस्यापि क्वचित् पूर्णत्वेन व्यपदेशः " के अनुसार लोक की षडूद्रव्यात्मक मानना ही युक्ति-सिद्ध है। कहा भी है- 'द्रव्याणि षट् प्रतीतानि, द्रव्यलोकः स उच्यते।' संक्षिप्त दृष्टि के अनुसार धर्मजहां पदार्थ को चेतन और अचेतन उभयरूप माना गया है। अधर्मवहां लोक का भी चेतनाचेतनात्मक स्वरूप बताया गया है आकाश३. जहां अजीव का देश है—आकाश ही है काल(अजीवदेसमागासे) 1 अजीव के चार भेद हैं- (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय (३) आकाशास्तिकाय और (४) पुद्गलास्तिकाय । अलोक में जीव तो होते ही नहीं, अजीव में भी केवल आकाश १. दसवेआलियं, ४ / श्लोक १२ । ही होता है। इसलिए अलोक को आकाशमय कहा गया है। इसी आशय से बृहद्वृत्ति (पत्र ६७१) में कहा है धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत् क्षेत्रम् । तैर्द्रव्यैः सह लोकस्तद् विपरीतं ह्यलोकाख्यम् ।। जहां धर्मास्तिकाय आदि छहों द्रव्य होते हैं वह लोक है। जो इससे विपरीत केवल आकाशमय है, वह अलोक है । वह आकाश भी अखंड नहीं है। आकाश के दो विभाग हैं लोकाकाश और अलोकाकाश। इसलिए अलोकाकाश को अजीव का एक देश कहा गया है। ४. (श्लोक ३) भगवान् महावीर का दर्शन अनेकान्त दर्शन है। अनेकान्त का अर्थ है 'वस्तु में अनन्त स्वभावों का होना।' सारे स्वभाव अपनी-अपनी दृष्टि से एक दूसरे से भिन्न हैं। जितने स्वभाव हैं उतने ही कथन प्रकार हैं। अतः उनका एक साथ कथन असंभव है। भगवान् ने प्रमुख रूप से पदार्थ - ज्ञान की चार दृष्टियां दीं – (१) द्रव्य, (२) क्षेत्र, (३) काल और (४) भाव । (१) द्रव्य-दृष्टि-इससे द्रव्य का परिमाण जाना जाता है । (२) क्षेत्र दृष्टि इसरो वस्तु कहां पाई जाती है, यह जाना जाता है। (३) काल- दृष्टि इससे द्रव्य की काल मर्यादा जानी जाती है। द्रव्य (१) भाव - दृष्टि — इससे द्रव्य के पर्याय—रूपपरिवर्तनजाने जाते है। चार दृष्टियों से द्रव्य विचारक्षेत्रदृष्टि लोक-व्यापी लोक-व्यापी द्रव्य दृष्टि एक एक एक लोक- अलोक-व्यापी अनन्त समयक्षेत्र - व्यापी पुद्गल- अनन्त लोक-व्यापी जीव- अनन्त लोक-व्यापी ५. ( श्लोक ४) २. समवाओ १७।२। काल- भावदृष्टि दृष्टि अनादि-अनन्त अरूपी अनादि-अनन्त अरूपी अनादि-अनन्त अरूपी अनादि-अनन्त अरूपी अनादि-अनन्त रूपी अनादि-अनन्त अरूपी रूपी अथवा मूर्त्त द्रव्य इन्द्रियगम्य हो सकता है। अरूपी - Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति ६३१ 1 अथवा अमूर्त्त द्रव्य इन्द्रिय का विषय नहीं है । जो इन्द्रिय का विषय नहीं है वह वास्तव में हेतु अथवा अनुमान का विषय भी नहीं बनता । अवधि और मनः पर्यव—दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान हैं उनके द्वारा भी अरूपी द्रव्य को नहीं जाना जा सकता। इस दृष्टि से अरूपी द्रव्य और सर्वज्ञता — दोनों में गहरा सम्बन्ध 33815 ६. ( श्लोक ५ ) 1 पदार्थ दो रूप से ग्राह्य होता है खंड-रूप और अखंड रूप से । वस्तु के सबसे छोटे भाग को, जिसके फिर दो टुकड़े न हो सकें, परमाणु कहते हैं । परमाणु सूक्ष्म और किसी एक रस, गंध, वर्ण तथा दो स्पर्शो सहित होता है। वे परमाणु जब एकत्रित हो जाते हैं तब उन्हें स्कंध कहा जाता है। दो परमाणुओं से बनने वाले स्कंध को द्वि-प्रदेशी स्कंध कहते हैं। इसी प्रकार स्कंध के त्रि-प्रदेशी, दश-प्रदेशी, संख्येय-प्रदेशी, असंख्येय-प्रदेशी, अनन्त प्रदेशी आदि अनंत भेद होते हैं। स्कंध के बुद्धि-कल्पित अंश को देश कहते हैं। वह जब तक स्कंध से संलग्न रहता है तब तक देश कहलाता है। अलग हो जाने के बाद वह स्वयं स्कंध बन जाता है। स्कंध के उस छोटे से छोटे भाग को प्रदेश कहते हैं, जिसके फिर दो भाग न हो सकें। प्रदेश भी तब तक ही प्रदेश कहलाता है जब तक वह स्कंध के साथ जुड़ा रहता है। अलग हो जाने के बाद वह परमाणु कहलाता है। धर्मास्तिकाय आदि चार अस्तिकाओं के स्कंध, देश तथा प्रदेश- ये तीन ही भेद होते हैं। केवल पुद्गलास्तिकाय के ही स्कंध, देश, प्रदेश तथा परमाणु-ये चार भेद होते हैं। ये रूपी हैं। धर्मास्तिकाय आदि की स्वरूप चर्चा उत्तराध्ययन के अठाईसवें अध्ययन के आठवें और नौवें श्लोक की टिप्पणियों में की गई है । ७. अध्वासमय (काल) (अद्धासमए) स्थानांग में काल चार प्रकार का बताया गया है। वहां एक नाम 'अद्धा काल' भी आया है। वृत्तिकार ने बताया है कि काल शब्द, रंग, प्रमाण, काल आदि कई अर्थों में प्रयुक्त होता है। समय-वाची काल शब्द को रंग और प्रमाण-वाची काल शब्द से पृथक करने के लिए उससे पीछे 'अद्धा' विशेषण जोड़ा गया है। यहां उसी अर्थ में अद्धा समय है। यह सूर्य की गति से सम्बद्ध रहता है। दिन-रात आदि का काल-मान केवल मनुष्य-क्षेत्र में ही होता है। उससे बाहर ये भेद नहीं होते। अतः अद्धा -काल केवल मनुष्य-क्षेत्र (अढ़ाई १. स्थानांग ४।१३४, वृत्ति पत्र १६० कालशब्दो हि वर्णप्रमाणकालादिष्वपि वर्त्तते, ततोऽद्वाशब्देन विशिष्यत इति, अयं च सूर्यक्रियाविशिष्टो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्ती समयादिरूपो ऽवसेयः । २. वही, ४।१३४, वृत्ति पत्र १६० । ३. वृहदवृत्ति, पत्र ६७४ : अत्र चाविशेषोक्तावपि परमाणुनामेकप्रदेश अध्ययन ३६ : श्लोक ५-१४ टि० ६-१० द्वीप) में ही होता है। ८. समयक्षेत्र (मनुष्य लोक) में (समयखेत्तिए) समयक्षेत्र वह क्षेत्र है, जहां समय, आवलिका, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि का काल विभाग परिज्ञात होता है। समयक्षेत्र से बाहर उपर्युक्त काल विभाग नहीं होता । समयक्षेत्र का दूसरा नाम मनुष्यक्षेत्र भी है। क्योंकि जन्मतः मनुष्य केवल समयक्षेत्र में ही पाये जाते हैं। क्षेत्रफल की दृष्टि से इनकी व्याख्या यह हैजम्बूद्वीप, पातकीखंड तथा अर्थपुष्कर इन अढाई द्वीपों की संज्ञा मनुष्यक्षेत्र या समयक्षेत्र है। सूर्य और चन्द्रमा मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए घूमते हैं, अतः उनकी गति समयक्षेत्र तक ही सीमित रह जाती है। उससे आगे यद्यपि असंख्य सूर्य और चन्द्रमा हैं पर वे अपने स्थान पर अवस्थित हैं अतः उनसे काल का विभाग नहीं होता । ९. (श्लोक ११) परमाणु आकाश के एक प्रदेश में ही अवगाहन करते हैं। इसलिए 'भजना' अथवा विकल्प केवल स्कंध का ही होता है। स्कंध की परिणति नाना प्रकार की होती है। कुछ स्कंध आकाश के एक प्रदेश में भी अवगाहन कर लेते हैं, कुछ आकाश के संख्येय प्रदेशों में अवगाहन करते हैं और कुछ स्कंध पूर्ण लोकाकाश में फैल जाते हैं। इसलिए क्षेत्रावगाहन की दृष्टि से इसके अनेक विकल्प बन जाते हैं। १०. ( श्लोक १३-१४) संख्या आठ प्रकार की बतलाई हैं। उनमें एक भेद है गणना । गणना के मुख्य तीन भेद हैं— संख्य, असंख्य और अनन्त । इनके अवान्तर भेद बीस होते हैं। यथा संख्य के तीन भेद हैं— (१) जघन्य, (२) मध्यम और (३) उत्कृष्ट । असंख्य के नौ भेद हैं- ( १ ) जघन्य परीत असंख्येय, (२) मध्यम परीत असंख्येय, (३) उत्कृष्ट परीत असंख्येय, (४) जघन्य युक्त असंख्येय, (५) मध्यम युक्त असंख्येय, (६) उत्कृष्ट युक्त असंख्येय, (७) जघन्य असंख्येय - असंख्येय, (८) मध्यम असंख्येय- असंख्येय एवं ( ६ ) उत्कृष्ट असंख्येयअसंख्येय । अनन्त के आठ भेद हैं- ( १ ) जघन्य परीत अनन्त, (२) मध्यम परीत अनन्त, (३) उत्कृष्ट पीरत अनन्त, (४) जघन्य युक्त अनन्त, (५) मध्यम युक्त अनन्त, (६) उत्कृष्ट युक्त अनन्त, (७) जघन्य अनन्त - अनन्त तथा मध्यम अनन्त-अनन्त एवावस्थानात् स्कन्धविषयैव भजना द्रष्टव्या ते हि विचित्रत्वात् परिणतेर्बहुतरप्रदेशोपचिता अपि केचिदेकप्रदेशे तिष्ठन्ति यदुक्तम्'एगेणवि से पुण्णे दोहिवि पुणे संयंपि माइज्जे' त्यादि, अन्ये तु संख्येयेषु च प्रदेशेषु यावत् सकललोकेऽपि तथाविधाचितमहास्कन्धवद् भवेयुरिति भजनीया उच्यन्ते । Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६३२ अध्ययन ३६ श्लोक १५-५० टि० ११,१२ एवं (८) उत्कृष्ट अनन्त - अनन्त । असद्भाव होने से यह भेद गणना में नहीं लिया गया है 1 जो राशि आए, उसमें से दो निकाल लें। शेष राशि मध्यम परीत असंख्येय होता है। एक और मिलाने से उत्कृष्ट परीत असंख्येय होता है। एक और मिलाने से जघन्य युक्त असंख्येय होता है । जघन्य युक्त असंख्येय की राशि को, जघन्य युक्त असंख्येय राशि से जघन्य युक्त असंख्येय राशि से जघन्य युक्त असंख्येय बार गुणा करें। जो राशि प्राप्त हो, उसमें से दो निकालने पर शेष राशि मध्यम परीत असंख्येय होती है। एक मिलाने से उत्कृष्ट परीत असंख्येय होता है 1 जघन्य असंख्येय असंख्येय राशि को इसी राशि से उतनी बार गुणा करें। जो राशि प्राप्त हो, उसमें से दो निकाल लें। शेष राशि मध्यम असंख्येय होती है। एक मिलाने से उत्कृष्ट असंख्येय होती है। एक और मिलाने से जघन्य असंख्येय असंख्येय होता है। जघन्य संख्येय संख्या दो हैं। एक संख्या गणना संख्या में नहीं आती। क्योंकि लेनदेन के व्यवहार में अल्पतम होने के कारण एक की गणना नहीं होती। 'संख्यायते इति संख्या' अर्थात् जो विभक्त हो सके, वह संख्या है। इस दृष्टि से जघन्य संख्या दो से प्रारम्भ होती है। जघन्य संख्या दो है और अन्तिम संख्या अनन्त है। संख्या के सारे विकल्पों को कल्पना के माध्यम से इस प्रकार समझ सकते हैं— चार प्याले हैं-अनवस्थित, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका। चारों प्याले एक लाख योजन लम्बे, एक लाख योजन चौड़े, एक हजार योजन गहरे, गोलाकार और जंबूद्वीप की जगति प्रमाण ऊंचे हैं। पहले अवस्थित प्याले को सरसों के दाने से इतना भरें कि एक दाना उसमें और डालें तो वह न ठहर सके। उस प्याले का पहला दाना जंबूद्वीप में, दूसरा लवणसमुद्र में तीसरा धातकीखंड में इस प्रकार द्वीप और समुद्र में क्रमशः दाने गिराते चले जाएं। (जम्बूद्वीप एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है, लवणसमुद्र उससे दूना और धातकीखंड उससे दूना है, इस प्रकार द्वीप के बाद समुद्र और समुद्र के बाद द्वीप एक-दूसरे से दूना है) । असंख्य द्वीप और असंख्य समुद्र हैं | अन्तिम दाना जिस समुद्र या द्वीप में गिराएं, उस प्रमाण का दूसरी बार अनवस्थिति प्याला बनाएं। फिर उससे आगे उसी प्रकार अनवस्थित प्याले का एक-एक दाना गिराते जाएं। (एक बार अवस्थिति प्याला खाली हो जाए तो एक दाना शलाका प्याले में डालें)। इस क्रम में एक-एक दाना डाल कर शलाका प्याले को भरें। शलाका प्याला इतना भर जाए कि उसमें एक दाना भी और डालें तो वह न टिक सके। एक बार शलाका प्याला भरने पर प्रतिशलाका में एक दाना डालें। जब इस क्रम से प्रतिशलाका प्याला भर जाए तो एक दाना महाशलाका प्याले में डालें। इस क्रम से महाशलाका प्याला भरने के बाद प्रतिशलाका प्याला भरें, फिर शलाका प्याला भरें, फिर अनवस्थित प्याला भरें। दूसरे रूप में इसे सरलता से इस प्रकार समझ सकते हैं अनवस्थित प्यालाशलाका प्यालाप्रतिशलाका प्याला एक दाना शलाका एक दाना प्रतिशलाका एक दाना महाशलाका चारों प्यालों के भर जाने के बाद सब दानों का एक ढेर करें। उस राशि में से दो दानें हाथ में लें। शेष ढेर मध्यम संख्यात है। हाथ का एक दाना मिलाने से उत्कृष्ट संख्यात होता है। हाथ का दूसरा दाना मिलाने से जघन्य परीत असंख्यात होता है । जघन्य परीत असंख्येय की राशि को जघन्य परीत असंख्येय की राशि से जघन्य परीत असंख्येय बार गुणा करें। जघन्य असंख्येय असंख्येय राशि को इसी राशि से उतनी बार गुणा करें। जो राशि प्राप्त हो, उसमें से दो निकाल लें। शेष राशि मध्यम असंख्येय असंख्येय होती है। एक मिलाने से उत्कृष्ट असंख्येय असंख्येय होती है। एक और मिलाने से जघन्य परीत अनन्त होता है। जघन्य परीत अनन्त राशि को इसी राशि से उतनी बार गुणा करें। जो राशि प्राप्त हो, उसमें से दो निकाल लें। शेष राशि मध्यम परीत अनन्त होती है। एक मिलाने से उत्कृष्ट परीत अनन्त होती है। एक और मिलाने से जघन्य युक्त अनन्त होती है। जघन्य युक्त अनन्त राशि को इसी राशि से उतनी बार गुणा करें। जो राशि प्राप्त हो, उसमें से दो निकाल लें। शेष राशि मध्यम परीत अनन्त होती है। एक मिलाने से उत्कृष्ट परीत अनन्त होती है। एक और मिलाने से जघन्य अनन्त अनन्त होती है । जघन्य अनन्त अनन्त से आगे की संख्या सब मध्यम अनन्त अनन्त होती है। क्योंकि उत्कृष्ट अनन्त अनन्त नहीं होता ११. संस्थान की अपेक्षा से (संठाणओ) पुद्गल के जो असाधारण धर्म हैं, उनमें से संस्थान भी एक है। उसके दो भेद हैं- ( १ ) इत्थंस्थ और (२) अनित्थंस्थ । जिसका त्रिकोण, चतुष्कोण आदि आकार नियत हो, उसे ' इत्थंस्थ' कहा जाता है तथा जिसका कोई निर्णीत आकार न हो, उसे 'अनित्थंस्थ' कहते हैं। इत्यस्थ के पांच प्रकार हैं- (१) परिमंडल चूड़ी की तरह गोल, (२) वृत्त - गेंद की तरह वर्तुलाकार, (३) त्र्यनत्रिकोण, (४) चतुरस्रवौकोन और (५) आयत- रस्सी की तरह लम्बा | १२. (श्लोक ४८-५० ) सिद्ध होने के बाद सब जीव समान स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं, उनमें कोई उपाधि जनित भेद नहीं रहता। फिर भी Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति ६३३ अध्ययन ३६ : श्लोक ४८-५० टि० १२ पूर्व-अवस्था की दृष्टि से उनके भेद किए गए है में सिद्ध होते हैं, पर यदा कदा मेरुपर्वत की चूलिका पर से भी (१) स्त्री सिद्ध जीव सिद्ध हो जाते हैं। मेरुपर्वत की ऊंचाई एक लाख योजन (२) पुरुष सिद्ध परिमाण है अतः वह ऊर्ध्व-लोक की सीमा में आ जाता है। (३) नपुंसक सिद्ध इसीलिए वहां पर से मुक्त होने वाले जीवों का 'सिद्धि-क्षेत्र' (४) स्व-लिङ्ग सिद्ध ऊर्ध्व-लोक ही होता है।' (५) अन्य-लिङ्ग सिद्ध अहे-अधो-लोक के क्षेत्र की लम्बाई सात रज्जू से कुछ अधिक है। साधारणतया वहां मुक्ति नहीं होती, पर महाविदेह (६) गृहि-लिङ्ग सिद्ध की दो विजय मेरु के रुचक प्रदेशों से हजार योजन नीचे तक (७) उत्कृष्ट अवगाहना वाले सिद्ध चली जाती है। तिर्यक्-लोक की सीमा नौ सौ योजन है। उससे (८) जघन्य अवगाहना वाले सिद्ध आगे अधोलोक की सीमा आ जाती है। उस सौ योजन की (६) मध्यम अवगाहना वाले सिद्ध भूमि में जीव कर्म-मुक्त होते हैं। (१०) ऊंची दिशा में होने वाले सिद्ध तिरियं-तिर्यक्-लोक 'मनुष्य-क्षेत्र' को ही कहते हैं। (११) नीची दिशा में होने वाले सिद्ध अढ़ाई द्वीप प्रमाण तिरछे और अठारह सौ योजन प्रमाण लम्बे (१२) तिरछी दिशा में होने वाले सिद्ध इस भू-भाग में कहीं से भी जीव सिद्ध हो सकते हैं। (१३) समुद्र में होने वाले सिद्ध । नंदी (सूत्र २१) में सिद्धों के पन्द्रह प्रकार निर्दिष्ट हैं(१४) नदी आदि में होने वाले सिद्ध (१) तीर्थ सिद्ध-अरिहंत के द्वारा तीर्थ की स्थापना ये चौदह प्रकार हैं। इनमें पहले तीन प्रकार लिङ्ग की होने के बाद मुक्त होने वाले। अपेक्षा से हैं। इसका तात्पर्य यह है कि स्त्री, पुरुष और (२) अतीर्थ सिद्ध तीर्थ-स्थापना से पहले मुक्त होने नपुंसक (कृत नपुंसक) ये तीनों सिद्ध हो सकते हैं। वाले। __ अगले तीन प्रकार वेश की अपेक्षा से हैं। इसका तात्पर्य (३) तीर्थकर सिद्ध तीर्थडूकर-अवस्था से पहले मुक्त यह है कि जैन-साधुओं के वेश में, अन्य साधुओं के वेश में होने वाले। और गृहस्थ के वेश में भी जीव सिद्ध हो सकते हैं। (४) अतीर्थङ्कर सिद्ध तीर्थकर के अतिरिक्त मुक्त तीसरे त्रिक के तीन प्रकार के शरीर की लम्बाई की होने वाले। अपेक्षा से हैं। इसका तात्पर्य यह है कि निर्दिष्ट अवगाहना वाले स्वयंबुद्ध सिद्ध-अपने आप किसी बाहरी निमित्त जीव ही सिद्ध होते हैं। की प्रेरणा के बिना-दीक्षित होकर मुक्त होने ओगाहणा-शरीर की ऊंचाई को 'अवगाहना' कहते हैं। वाले। सिद्ध होने वाले जीवों की अधिक से अधिक ऊंचाई ५०० प्रत्येकबुद्ध सिद्ध किसी एक निमित्त से दीक्षित धनुष की होती है। कम से कम ऊंचाई २ हाथ की होती है। होकर मुक्त होने वाले। दो हाथ से अधिक और ५०० धनुष से कम की ऊंचाई को बुद्धबोधित सिद्ध-उपदेश से प्रतिबोध पाकर, 'मध्यम अवगाहना' कहते हैं। सिद्धों की अवगाहना जघन्य, दीक्षित हो, मुक्त होने वाले। उत्कृष्ट तथा मध्यम-तीनों ही प्रकार की होती है। (८) स्त्रीलिङ्ग सिद्ध-स्त्रीलिङ्ग में मुक्त होने वाले। अन्तिम पांच प्रकार क्षेत्र की अपेक्षा से हैं। इसका पुरुषलिग सिद्ध–पुरुषलिङ्ग में मुक्त होने वाले। तात्पर्य यह है कि जीव कदाचित् विशेष संयोगों में ऊंचे लोक (१०) नपुंसकलिङ्ग सिद्ध-जो जन्म से नपुंसक नहीं, (नो सौ योजन से ऊपर), नीचे लोक (नौ सौ योजन से नीचे) किन्तु किसी कारणवश नपुंसक बने हों, उस और जलाशय आदि में भी सिद्ध हो सकते हैं। स्थिति में मुक्त होने वाले। __ उड्ढं-जैन-साहित्य में लोक को तीन भागों में विभक्त (११) स्वलिङ्ग सिद्ध-जैन-साधुओं के वेश में मुक्त किया गया है—ऊर्ध्व-लोक, अधो-लोक और तिर्यक्-लोक। होने वाले। यद्यपि मूल पाठ में 'ऊर्ध्व' शब्द का ही प्रयोग किया गया है, (१२) अन्यलिङ्ग सिद्ध—अन्य-साधुओं के वेश में मुक्त पर प्रकरण से उसका अर्थ 'ऊर्ध्व-लोक' होता है। ऊंचाई की होने वाले। दृष्टि से सारा लोक १४ रज्जू-प्रमाण है। ऊर्ध्व-लोक की (१३) गृहलिङ्ग सिद्ध-गृहस्थ के वेश में मुक्त होने ऊंचाई ७ रज्जू से कुछ कम है। साधारणतया जीव तिर्यक्-लोक वाले। (10) १. बृहदवृत्ति, पत्र ६८३ : 'ऊर्ध्व' मित्यूर्ध्वलोके मेरुचूलिकादी सिद्धाः। २. वही, पत्र ६८३ : 'अधश्च' अधोलोकेऽर्थादधोलौकिकग्रामरूपेऽपि सिद्धाः। Jain Education Intemational ducation Intermational For Private & Personal use only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि (१५) अनेक सिद्ध — एक समय में अनेक जीव सिद्ध होते हैं, उत्कृष्टतः १०८ हो सकते हैं, वे । सिद्ध अवस्था में आत्म-विकास की दृष्टि से सिद्ध जीव सर्वथा समान होते हैं, केवल उनकी अवगाहना में भेद होता है। सिद्ध जीव समूचे लोक में व्याप्त नहीं होते, किन्तु उनकी आत्मा एक परिमित क्षेत्र में अवस्थित होती है। पूर्वावस्था की उत्कृष्ट — पांच सौ धनुष्य की अवगाहना वाले जीवों की आत्मा तीन सौ तैंतीस धनुष्य और एक हाथ आठ अंगुल परिमित क्षेत्र में अवस्थित होती है।' पूर्वावस्था की मध्यम-दो हाथ से अधिक और पांच सौ धनुष्य से कम अवगाहना वाले जीवों की आत्मा अपने अन्तिम शरीर की अवगाहना से त्रिभागहीन क्षेत्र में अवस्थित होती है। पूर्वावस्था की जघन्य दो हाथ की अवगाहना वाले जीवों की आत्मा एक हाथ आठ अंगुल परिमित क्षेत्र में अवस्थित होती है। ६३४ (१४) एक सिद्ध - एक समय में एक जीव सिद्ध होता है, वह । सिद्धों के विषय में विशेष जानकारी के लिए देखिएऔपपातिक, सूत्र १६५, गाथा १-२२ तथा आवश्यक- नियुक्ति, गाथा ६५८-६८८ । १३. (श्लोक ५५-५६) ये दोनों श्लोक विशेषावश्यक भाष्य में गाथा ३१५८-३१५६ के रूप में उल्लिखित हैं। मलधारी हेमचन्द ने टीका में इन्हें नियुक्ति गाथा माना है। १४. ईषत् - प्राग्भारा (ईसीपब्भार ) औपपातिक (सूत्र १६३) में सिद्धशिला के बारह नाम बतलाए गए हैं। उनमें यह दूसरा नाम है। १५. (श्लोक ७१-७७) इन श्लोकों व गाथाओं में मृदु पृथ्वी के सात और कठिन पृथ्वी के ३६ प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें से कुछ एक विशेष शब्दों के अर्थ और कुछ विशेष ज्ञातव्य बातें यहां प्रस्तुत की जा रही हैं— पणगमट्टिया— अत्यन्त सूक्ष्म रजोमयी मृत्तिका । आचार्य इसका मरुपर्यटिका (पपडी) अर्थ करते हैं १. ओवाइयं, सूत्र १६५, गाथा ५ तिष्णि सया तेत्तीसा, धणूत्तिभागो य होइ बोद्धव्वो । एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया ।। २. आवश्यक निर्युक्ति, मलयगिरीय वृत्ति, पत्र ५४५ हस्तद्वयादूर्ध्वं पञ्चधनुः शतेभ्यो ऽर्वाक् सर्वत्रापि मध्यमावगाहनाभावात् । ३. ओवाइयं, सूत्र १६५, गाथा ७ : कुछ लोक एक्का य होइ रयणी, साहीया अंगुलाई अट्ठ भवे । एसा खलु सिद्धाणं, जहण्णओगाहणा भणिया ।। ४. विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति, पृ० १२१६ : एतद् नियुक्तिश्लोकद्वयं सुबोधम् । ५. बृहदवृत्ति पत्र ६८६ । अध्ययन ३६ : श्लोक ५५-७७ टि० १३-१५ प्रकाश के अनुसार नदी आदि के प्रवाह के चले जाने पर पीछे जो कीचड़ के रूप में कोमल और चिकनी मिट्टी रहती है, वह 'पनक मृतिका' है। उवले वृत्त पाषाण, गोल पत्थर । वइरे इसके अनेक भेद होते हैं। जैसे वज्रमणि, हीरा । उत्पत्ति स्थान के आधार पर (१) सभा राष्ट्रक – विदर्भ – बरार देश में उत्पन्न होने वाला । (२) मध्यम राष्ट्रक कौशल देश में उत्पन्न होने वाला । (३) काश्मीर राष्ट्रक काश्मीर में उत्पन्न होने वाला । (४) श्रीकटनक— श्रीकटन नामक पर्वत पर उत्पन्न होने ६. ७. वाला। (५) मणिमन्तक उत्तर की ओर के मणिमन्तक नामक पर्वत पर उत्पन्न होने वाला । (६) इन्द्रवानक -कलिंग देश में उत्पन्न होने वाला । इन उपर्युक्त स्थानों के अतिरिक्त और भी अनेक स्थान हैं, जहां पर हीरा उत्पन्न होता है, जैसे—खान, विशेष जल-प्रवाह और हाथी दान्त की जड़ आदि । हीरा अनेक रंगों का होता है, जैसे (१) मार्जाराक्षक मार्जार की आंख के समान । (२) शिरीषपुष्पक—– शिरीष के फूल के समान । (३) गोमूत्रक गोमूत्र के समान । (४) गोमेदक गोरोचना के समान । (५) शुद्ध स्फटिक अत्यन्त श्वेत वर्ण स्फटिक के समान । (६) मुलाटीपुष्पक वर्ण-मुलाटी के फूल के समान । उत्तम हीरा निम्नोक्त गुणों वाला होता है— मोटा, चिकना, भारी चोट को सहने वाला, बराबर कोनों वाला, पानी से भरे हुए पीतल आदि के बर्तन में हीरा डाल कर उस वर्तन के हिलाए जाने पर बर्तन में लकीर डालने वाला, तकवे की तरह घूमने वाला और चमकदार। ऐसा हीरा प्रशस्त माना जाता है । " नष्टकोण - अर्थात् शिखर- रहित ( कोनों से रहित), अश्रि-रहित ( तीक्ष्ण कोनों से रहित ) तथा एक ओर अधिक वही, पत्र ६८६ । लोकप्रकाश सर्ग ७।५ नद्यादिपूरागते देशे, तत्रातिपिच्छिले वरे । मृदुश्लक्ष्णा पंकरूपा, सप्तमी पनका त्रिधा ।। ८. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६ सभाराष्ट्रकं मध्यमराष्ट्रकं कश्मीरराष्ट्रक श्रीकटनकं मणिमन्तकमिन्द्रवानकं च वज्रम् । ६. वही, २।११।२६ खनिः स्मेतः प्रकीणकं च योनयः । १०. वही, २।११।२६ मार्जाराक्षकं च शिरीषपुष्पकं गोमूत्रकं गोमेदकं शुद्धस्फटिक मूलाटीपुष्पकवर्ण मणिवर्णानामन्यतमवर्णमितिवज्रवर्णाः । ११. वही, २।११।२६ स्थूलं स्निग्धं गुरु प्रहारसहं समकोटिकं भाजनलेखितं कुभ्रामि भ्राजिष्णु च प्रशस्तम् । Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति ६३५ अध्ययन ३६ : श्लोक ७१-७७ टि० १५ निकले हुए कोनों वाला हीरा अप्रशस्त माना जाता है। गोमेज्जए---गोमेदक माणक की उपजातियों में गिना जाता सासग—हरित वर्ण वाला धातु। है। माणक केवल लाल रंग का होता है, पर इसमें लाल के पवाले—प्रवाल, विद्रुम, मूंगा। इसे नौ रत्नों में एक रत्न साथ पीत रंग का भी आभास होता है। किन्तु कौटलीय माना है, पर जंतु-विशेषज्ञों के अन्वेषण के आधार पर 'प्रवाल' अर्थशास्त्र के अनुसार यह 'वैडूर्य' का एक प्रकार है। मूलाचार (मूंगा) एक समुद्री वनस्पति-जीव है, जिसके कंकाल के टुकड़े में ‘गोमज्झग' (सं० गोमध्यक) शब्द है। इसका अर्थ कर्केतन करके आभूषण बनाए जाते हैं। मूंगों की अनेक जातियां हैं, मणि किया गया है। किन्तु 'गोमध्यक' शब्द मूल से कुछ दूर जिनकी शक्ल-सूरत में काफी भेद रहता है। उनके शरीर की हो गया, ऐसा प्रतीत होता है। भीतरी बनावट एक जैसी ही होती है और सबके ऊपरी हिस्से रुयगे-रुचक-राजवर्तक। पर इनका खुला हुआ मुख-छिद्र रहता है। मुख-छिद्र के चारों फलिहे—स्फटिक मणि। रयणपरिक्खा के अनुसार स्फटिक ओर अंगुलियों की शक्ल के पतले-पतले अङ्गक रहते हैं, जो मणि नेपाल, कश्मीर, चीन, कावेरी और यमुना तट पर तथा इनके स्पर्श-इन्द्रियों, हाथ तथा आत्मरक्षा के लिए डंक हैं। ये विंध्य पर्वत में उत्पन्न होता है। कौटलीय अर्थशास्त्र के अपने शरीर के चारों ओर कड़ी खोल की रचना करते हैं, अनुसार वह चार प्रकार का होता हैजिसके भीतर इनका नरम शरीर सुरक्षित रहता है। इनमें कुछ (१) शुद्धस्फटिक-अत्यन्त शुक्ल वर्ण वाला, नली के आकार के होते हैं तो कुछ पेड़-पौधों की तरह अपनी (२) मूलाटवर्ण-मक्खन निकाले हुए दही (तक्र) के टेढ़ी शाखाएं फैलाए रहते हैं। कुछ की बनावट मनुष्य के भेजे समान रंग वाला, जैसी होती है तो कुछ कुकुरमुत्ते की शक्ल के होते हैं। कुछ (३) शीतवृष्टि-चन्द्रकान्त-चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श देखने में पंखी से लगते हैं तो कुछ अंगुलियों से और इन्हीं में से पिघल जाने वाला और कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने लाखों अरबों वर्षों में निरन्तर संगठन (४) सूर्य की किरणों का स्पर्श होने पर आग उगलने से बड़ी-बड़ी चट्टानों तथा मीलों लम्बे प्रवाल-द्वीपों का रूप वाला। ग्रहण कर लिया है। संभव है इन द्वीपों से खुदाई के द्वारा प्राप्त लोहियक्खे-किनारे की ओर लाल रंग वाला और बीच होने के कारण इसे पृथ्वीकाय के भेदों में सम्मिलित किया गया में काला। इसका एक नाम 'लोहितक' भी मिलता है।" मूलाचार में इसका नाम 'लोहितांक' मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र ने प्रवाल के पर्यायवाची नाम 'रक्त-कंद' मरगय—मरकत। श्री रत्नपरीक्षा ग्रन्थ में इसका विस्तृत और 'हेम-कंदल' दिए हैं।" उत्पत्ति स्थान के आधार पर इसके विवरण प्राप्त है। दो भेद किए जाते हैं-(१) आलकंदक-आलकंद नाम का मसारगल्ले–मसृण पासाण मणि (चिकनी धातु)। इसका म्लेच्छ देशों में समुद्र के किनारे एक स्थान है, वहां पर उत्पन्न वर्ण विद्रुम जैसा होता है। होने वाला और (२) वैवर्णिक यूनान देश के समीप विवर्ण मुयमोयग—मूलाचार में केवल 'मोय' शब्द है। वृत्तिकार नामक समुद्र का एक भाग है, वहां पर उत्पन्न होने वाला।' ने इसका अर्थ 'कदली वर्णाकार नील मणि' किया है।" मूंगा (प्रवाल) लाल तथा पद्म के समान रंग वाला होता है। सरपेन्टियर ने इसका अर्थ 'सर्प के विष से रक्षा करने वाला अंजण--समीरक। मणि विशेष' किया है।५।। १. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६ : नष्टकोणं निरश्रि पापिवृत्तं सूर्यकान्तश्चेति मणयः। चाप्रशस्तम्। ११. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६। २. मूलाचार, ५॥१०, वृत्ति : सस्यकं हरितरूपम्। १२. मूलाचार, ५।११। ३. समुद्र के जीव-जन्तु, पृ० १४। १३. सिरि रयणपरिक्खा , पयरण ३८-४२: ४. अभिधान चिन्तामणि, ४१३२ : रक्तांकोरक्तकंदश्च, प्रवाल हेमकंदलः। अवणिंद-मलय-पव्यय-बब्बरदेसेसु उयहितीरे य। ५. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६ : प्रवालकमालकन्दकं वैवर्णिक च गरुडस्स य कण्ठ उरे हवंति मरगय-महामणिणो।। रक्तं पद्मरागं च....। गरुडोदगार पढमा, कीरउठी वीय तइअ मुंगडनी। ६. सिरि रयणपरिक्खा, पयरण ५३ : वामवई अ चउत्थी, धूलि मरीई य पणजाई।। सिरिनाय कुलपरे वम देसे तह जम्मल नई मज्झे। गरुडोदगार रम्मा, नीला अइकोमला य विसहरणा। गोमय इंदगोवं, सुसणेहं पंडुरं पीयं ।। कीडउठि सुह सुहमच्चा, सुनइड कीडस्स पंखसमा ।। ७. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६। मुंगडनी सु सणेहा नील हरिय कीरकंठ सारिच्छा। ८. मूलाचार, ५१११, वृत्ति। कढिया अमला हरिया, वासवई होई बिसहरणा।। ६. सिरि रयणपरिक्खा, पयरण ५४ : धृलि मराइ गरुया, रुक्खा घणनीलकच्च सारिच्छा। नयवालेक समीरे, चीणे काबेरी जउण नइकूले। मुल्ले वीरुविसोवा दुहट्ट वह पंच दुन्निकमे ।। विंझनगे उप्पज्जइ, फलिहं अइनिम्मलं सेयं ।। १४. मूलाचार, ५११२, वृत्ति। १०. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६ : शुद्धस्फटिकः मलाटवर्णः शीतवृष्टिः १५. The Uttaradhyayan Sutra, p. 402. हो। Jain Education Intemational Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६३६ अध्ययन ३६ : श्लोक ७१-७७ टि० १५ m इंदनीले-इन्द्रनील (नीलम)। इसका वर्ण नीला (हरा) (E) मैलेयक-शिंगरफ के समान रंग वाला। होता है। कहीं-कहीं इसकी उत्पत्ति सिंघल द्वीप में बताई गई (१०) अहिच्छत्रक-फीके रंग वाला। है।' यह आठ प्रकार का होता है (११) कूर्म-खुरदरा-जिसके ऊपर छोटी-छोटी बूंद-सी (१) नीलावलीय-रंग सफेद होने पर भी जिसमें नीले उठी हुई हो। रंग की धाराएं हों। (१२) प्रतिकूर्य-दागी-जिस पर धब्बे लगे हुए हों। इन्द्रनील-मोर के पेंच की तरह नीले रंग वाला। (१३) सुगंधिकूप—मूंग के समान रंग वाला। कलायपुष्पक-मटर के फूल सदृश रंग वाला। (१४) क्षोरपक-दूध के समान वर्ण वाला। महानील-भौंरे के समान गहरे काले रंग वाला। (१५) शुक्तिचूर्णक-चित्रित—मिले हुए कई रंगों वाले। जाम्बवाभ-जामुन के समान रंग वाला। (१६) शिला-प्रवालक-प्रवालक–अर्थात् मूंगे के समान जीमूतप्रभ-मेघ के समान रंग वाला। रंग वाला। नंदक-भीतर से सफेद और बाहर से नीला। (१७) पुलक जो बीच में काला हो। सवन्मध्य-जिसमें से जल-प्रवाह के समान किरणें (१८) शुक्रपुलक-जो बीच में सफेद हो। बहती हों। सोगंधिए (सं० सौगन्धिक) माणिक्य । कौटलीय अर्थशास्त्र चन्दन-चन्दन जैसी गंध वाला मणि। में माणिक्य की पांच जातियां बतलाई गई हैं। उनमें यह प्रथम गेरुय- इसका अर्थ 'रुधिराक्ष' है। इसका वर्ण गेरु जैसा जाति का है। सौगन्धिक नामक कमल के समान कुछ नीलेपन होता है। को लिए हुए लाल रंग का होने के कारण इसे 'सौगन्धिक' कहा हंसगन्म-मूलाचार में 'बक' नामक मणि का उल्लेख जाता है। है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'बक के रंग का पुष्पराग' किया वेरुलिए-वैडूर्य। यह आठ प्रकार का होता हैहै। कौटलीय अर्थशास्त्र के अनुसार 'पुष्पराग' वैडूर्य का एक (१) उत्पलवर्ण-लाल कमल के समान रंग वाला, प्रकार है। 'बक' बगुले का रंग भी हंस जैसा होता है, इसलिए (२) शिरीषपुष्पक-सिरीस के फूल के समान रंग वाला, हंसगर्भ का यही अर्थ संभव है। सरपेन्टियर ने 'हंस' का अर्थ उदकवर्ण-जल के समान स्वच्छ रंग वाला, सूर्य कर इसको ‘सूर्यगर्भ' नाम का मणि माना है। वंशराग-बांस के पत्ते के समान रंग बाला, पुलए-पुलक। यह बीच में काला होता है। कौटलीय शुकपत्रवर्ण-तोते के पंखों की तरह हरे रंगों वाला, अर्थशास्त्र (२।११।२६) में मणियों की अठारह अवान्तर जातियां (६) पुष्यराग-हल्दी के समान पीले रंग वाला, बताई गई हैं (७) गोमूत्रक–गोमूत्र के समान रंग वाला, (१) विमलक-सफेद और हरे रंग से मिश्रित। (८) गोमेदक-गोरोचन के समान रंग वाला। (२) सस्यक-नीला। रयणपरिक्खा में भी इसकी उत्पत्ति की चर्चा की गई अञ्जनमूलक-नीला और काला मिश्रित। है। पाणिनि भाष्य के अनुसार यह बालवाय पर्वत में होता गोपित्तक-गाय के पित्त के समान रंग वाला। था। विदूरनगर में मणिकार उसे तराशते थे, इसलिए वह सुलमक-सफेद। 'वैदूर्य' नाम से प्रसिद्ध हुआ।१२ लोहिताक्ष-किनारों की ओर लाल रंग वाला और जलकंते-जलकान्त। इसका अर्थ 'उदक वर्ण' है। बीच में काला। कौटलीय अर्थशास्त्र के अनुसार यह वैडूर्य का एक प्रकार है।" (७) मृगाश्मक-सफेद और काला मिला हुआ। सूरकते—सूर्यकान्त। सूर्य की किरणों का स्पर्श होने पर (८) ज्योतिरसक-सफेद और लाल मिला हुआ। आग उगलने वाला मणि। कौटलीय अर्थशास्त्र में इसे स्फटिक १. सिरि रयणपरिक्खा, पयरण ४६ : ६. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६ : सौगन्धिकः पारागोऽनवधरागाः नीलघण मोरकण्ठः अलसीगिरिकन्नि कुसुम संकासा। परिजातपुष्पको बालसूर्यकः । ऐतेया सुमणेहा सिंघलदीवम्मि नीलमणी।। - १०. वही, २।११।२६ : वैडूर्य उत्पलवर्णः शिरीषपुष्पक उदकवर्णो वंशरागः कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६ : नीलावलीय इन्द्रनीलः कलायपुष्पको शुकपत्रवर्णः पुण्यरागो गोमूत्रको गोमेदकः।। महानीलो जाम्बवाभो जीमतप्रभो नन्दकः सवन्मध्यः । ११. सिरि रयणपरिक्खा , पयरण ५१ : ३. मूलाचार, ५११२, वृत्ति। रयणायरस्स मज्झे, कुवियगयनामजण चउतत्थ। ४. वही, ५।१२, वृत्ति। चइमुरनगे जायइ, बइडुज्ज वंसपत्तासं।। ५. वही, ५१२, वृत्ति। १२. पाणिनि भाष्य, ४।३।८४ । ६. वही, ५।१२, वृत्ति। १३. मूलाचार, ५।११। ७. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६। १४. कौटलीय अर्थशास्त्र, २.११।२६ । ८. The Uttaradhyayan Sutra, p. 403. (५) Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति का ही एक भेद माना गया है।" प्रज्ञापना में कठिन पृथ्वी को चालीस श्रेणियों में विभक्त किया गया है। उत्तराध्ययन में उसकी छत्तीस श्रेणियां बतलाई गई हैं। शान्त्याचार्य के अनुसार लोहिताक्ष और वसारगल्ल, क्रमशः स्फटिक और मरकत तथा गेरुक और हंसगर्भ चन्दन के उपभेद हैं। वृत्तिकार ने शुद्ध पृथ्वी से लेकर वज्र तक के चौदह प्रकार तथा हरिताल से लेकर आम्रबालुका तक के आठ प्रकार स्पष्ट माने हैं। गोमेदक से लेकर शेष सब चौदह प्रकार होने चाहिए, किन्तु अठारह होते हैं। इनमें से चार वस्तुओं का दूसरों में अन्तर्भाव होता है वृत्तिकार इस विषय में पूर्णरूपेण असंदिग्ध नहीं है कि किसमें किसका अन्तर्भाव होना चाहिए।* १६. (कायठिझं...अंतरं) 1 कायस्थिति—एक ही जीवनिकाय में निरन्तर जन्म ग्रहण करते रहने की काल मर्यादा । * अंतरकाल - एक काल का परित्याग कर पुनः उसी काय में उत्पन्न होने तक का काल 'अन्तर- काल' कहलाता है।" कायस्थिति के नियम के अनुसार एक ही काय में निरन्तर भव-परिवर्तन होता रहता है। अन्तर-काय के नियमों में काय का परिवर्तन हो जाता है 1 १७. ( श्लोक ८५ ) इस श्लोक में अप्काय के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। प्रज्ञापना (पद १) में इसके अधिक प्रकार प्राप्त हैं उत्तराध्ययन (१) शुद्धोदक (२) अवश्याय (३) हरतनु भूमि को भेद कर निकला हुआ जलबिन्दु (४) महिका कुहासा (५) हिम प्रज्ञापना (१) अवश्याय (२) हिम (३) माहिका (४) करक ओला (५) हरतनु (६) शुद्धोदक (७) शीतोदक (८) उष्णोदक (E) क्षारोदक ६३७ (१०) खोदक (११) अलोदक (१२) लवणोदक (१३) वारुणोदक (१४) क्षीरोदक (१५) घृतोदक (१६) क्षोदोदक (१७) रसोदक 9. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६ । २. पण्णवणा, पद १। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६८६ । ४. वही पत्र ६८६ इह च पृथिव्यादयश्चतुर्दश हरितालादयो ऽष्टीगोमेज्जकादयश्च क्वचित्कस्यचित्कथंचिदन्तर्भावाच्चतुर्दशेत्यमीमीलिताः षट्त्रिंशद् भवंति । अध्ययन ३६ : श्लोक ८१-६६ टि० १६-१८ (श्लोक ९३-९९) वनस्पति के मुख्य वर्ग दो हैं (१) साधारण - शरीर जिसके एक शरीर में अनंत जीव होते हैं, उसे 'साधारण शरीर' कहा जाता है। (२) प्रत्येक - शरीर — जिसके एक-एक शरीर में एक-एक जीव होता है, उसे 'प्रत्येक शरीर' कहा जाता है। सूत्रकार ने साधारण - शरीर से पूर्व प्रत्येक शरीर वनस्पति के बारह प्रकार बतलाए हैं (१) १८. (२) गुच्छ— जिसमें केवल पत्तियां या पतली टहनियां फैली हों, वह पौधा। जैसे—बैंगन, तुलसी आदि । (३) गुल्म-जो एक जड़ से कई तनों के रूप में निकले, वह पौधा । जैसे—कटसरैया, कबैर आदि । (४) लता - पृथ्वी पर या किसी बड़े पेड़ पर लिपट कर ऊपर फैलने वाला पौधा । जैसे - माधवी, अति-मुक्तक आदि । बल्ली— ककड़ी आदि की बेल । (५) (६) (७) वृक्ष - एक बीज वाले नीम आदि; अनेक बीज वाले बेल आदि । (८) (६) तृण - घास । लता - वलय- नारियल, खजूर, केला आदि। इनके दूसरी शाखा नहीं होती। इसलिए इन्हें 'लता' और इनकी डाल वलयाकार होती है, इसलिए इन्हें 'वलय' (संयुक्त रूप में लता-वलय) कहा गया है । पर्वज - ईख आदि । कुहुण - भूमि को फोड़ कर निकलने वाला पौधा । जैसे— सर्पच्छत्र, कुकुरमुत्ता आदि । (१०) जलरुह जलज वनस्पति — कमल आदि । ( ११ ) औषधि तृण – एक फसला पौधा — गेहूं आदि । (१२) हरितकाय - पालक, बथुवा आदि । जहां पर एक शरीर में अनन्त जीव निवास करते हों, उसे 'साधारण वनस्पतिकाय' कहते हैं। सभी प्रकार के कंद, मूल तथा अनन्तकायिक साधारण वनस्पति जीव हैं। आलू, मूली, अदरक आदि सब इस श्रेणी के अन्तर्गत हैं। 1 कंदली (६७।४) लता विशेष। यह वर्षा ऋतु में होती है। इसका कंद स्निग्ध, पुष्प लाल और पत्ते हरे होते हैं। इसे 'भूकदली' और 'द्रोणपर्णी' भी कहा जाता है। " ५. वही, पत्र ६६० ततो ऽनुवर्तनेनावस्थानं कायस्थितिः । ६. वही, पत्र ६६० यत् पृथिवीकायाद् उद्वर्त्तनं या च पुनः तत्रैव उत्पत्तिरनयोर्व्यवधानमिति । ७. शब्दार्णव द्रोणपर्णी स्निग्धकन्दा कन्दली भूकदल्यपि । : Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि कंद (६८ |३) बिना रेसे वाली गुद्देदार जड़ भूमि में रहने वाला वृक्ष का अवयव ।" हलिद्दा (६६।३) (सं० हरिद्रा ) हल्दी पीत और सोने के रंग की होती है। इसका नाम है 'वरवर्णिनी' अर्थात् अच्छा वर्ण करने वाली । प्राचीन समय में हल्दी का तेल बहुतायत से लगाया जाता था। मद्रास की तरफ अब भी अपना वर्ण सुधारने के लिए स्त्रियां इसका प्रयोग करती हैं। यह वात रोग, हृदय रोग, प्रमेय आदि रोगों के लिए अति उत्तम मानी जाती है। सुश्रुत ( चि० अ० ६) में तो कहा है कि इससे कुष्ठ रोग भी नष्ट हो जाता है। वस्तुतः यह रक्त शुद्ध करने वाली है, इसी दृष्टि से पीठी तथा आहार में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। * १९. (श्लोक १०९ - ११० ) M उत्तराध्ययन की अपेक्षा प्रज्ञापना (पद १ ) में अग्नि के प्रकार अधिक प्राप्त हैं उत्तराध्ययन ( १ ) अंगार - जलता हुआ कोयला (२) मुर्मुर - भस्म मिश्रित अग्नि-कण (३) अग्नि -लोहपिंड में प्रविष्ट तेजस् (४) अर्चि प्रदीप्त अग्नि से विच्छिन्न अग्नि- शाखा (५) ज्वाला-प्रदीप्त अग्नि से प्रतिबद्ध अग्नि- शाखा (६) उल्का (७) विद्युत् प्रज्ञापना (१) अंगार (२) ज्वाला (३) मुर्मुर (४) अर्चि (५) आलात जलता हुआ ठंठ (६) शुद्धाग्नि (७) उल्का (८) अशनि-वज्रपात की अग्नि (६) निर्मात (१०) संघर्ष समुत्थित (११) सूर्यकान्त मणि निस्तृत ६३८ अध्ययन ३६ श्लोक १०६-१६५ टि० १६-२२ (२) मण्डलिकावात - बबंडर घनवात— ठोस पवन (३) (४) गुंजावात गुंजने वाला पवन शुद्धवात - मन्द पवन संवर्तकवात - प्रलयकारी पवन २०. ( श्लोक ११९ - ११९ ) यहां वायु के पांच प्रकारों का निर्देश तथा अन्य प्रकारों का संकेत किया गया है। प्रज्ञापना (पद १) में इसके उन्नीस प्रकार प्राप्त हैं उत्तराध्ययन (9) उत्कलिकावात - मिश्रित पवन १. प्रवचनसारोद्धार, पृ० ५७ । २. अभिधान चिन्तामणि कोश, ३ : हरिद्रा कांचनी पीता निशाख्या वरवर्णिनी 1 ३. संस्कृत साहित्या मा वनस्पति, पृ० ४५१ । (५) (६) प्रज्ञापना (१) प्राचीनवात — पूर्वी पवन (२) प्रतीचीनवात पश्चिमी पवन दक्षिणवात - दक्षिणी पवन उदीचीनवात उत्तरी पवन ऊर्ध्ववात ऊर्ध्वमुखी पवन (३) (४) (५) (६) अघोधात अधोमुखी पवन (७) तिर्यग्वात- क्षैतिज पवन (८) विदिग्वात — चौवाई (६) वातोद्भ्रम अनियमित पवन -- (१०) वातोत्कलिका समुद्री पवन (११) वातमण्डली— अनिर्धार्य पवन (१२) उत्कलिकायात (१३) मण्डलिकावात ५. ६. (१४) गुंजावात (१५) झंझावात - वर्षायुक्त पवन (१६) संवर्तकवात (१७) घनवात (१८) तनुवात - विरल पवन (१६) शुद्धवात २१. (श्लोक १२७ – १४९ ) सूत्रधर ने इन श्लोकों में द्वीन्द्रिय वीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीवों के अनेक उदाहरण दिए हैं। वृत्तिकार ने कुछेक शब्दों की पहचान दी है। शेष के लिए उन्होंने लिखा है--' शेषास्तु यथासम्प्रदायं वाच्याः', 'एवमन्येऽपि यथासम्प्रदायं वाच्याः ५ । इसका फलितार्थ है कि वृत्तिकार के समय में ये शब्द अपना अर्थबोध खो चुके थे। चतुरिन्द्रिय के भेद - प्रभेदों के विषय में वृत्तिकार का कथन है कि कुछेक जीवों के अर्थ अज्ञात हैं। वे अन्यान्य देशों में ज्ञात हो सकते हैं। उनसे इनका अर्थबोध किया जा सकता है तथा विशिष्ट परम्परा से भी ये ज्ञात हो सकते हैं।" २२. सम्मूमि मनुष्य (संमुच्छिमा य मणुया) गर्भ और उपपात के बिना जहां कहीं भी उत्पन्न होने वाले, चारों ओर से पुद्गलों का ग्रहण कर शरीर की रचना करने वाले जीव सम्मूच्छिम या सम्मूर्च्छनज कहलाते हैं। ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ६६५ । वही, पत्र ६६६ । वही, पत्र ६६६ एतद्भेदाश्च केचिद् अप्रतीता एव, अन्ये तु तत् तद् देशप्रसिद्धितो विशिष्टसम्प्रदायाच्च अभिधेयाः । Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति जो जीव मनुष्य के मल, मूत्र, श्लेष्म आदि में उत्पन्न होते हैं, उन्हें उपचार से सम्मूच्छिम मनुष्य कहा जाता है। २३. (श्लोक १८६) प्रस्तुत श्लोक में तीन प्रकार के गर्भज मनुष्यों का निर्देश ६३९ अध्ययन ३६ : श्लोक १६६-२५६ टि० २३-२७ २५. (अप्पाणं संलिहे मुणी) संलेखना का अर्थ है-कृश करना। जैन परम्परा में अनशन से पूर्व की जाने वाली विशेष तपस्या को संलेखना कहा गया है। इसकी पूरी विधि गाथा २५० से २५५ तक वर्णित है। १. कर्मभूमिव जहां असि मषि, कृषि, पशुपालन, शिल्पकर्म, वाणिज्य आदि कर्मों से आजीविका प्राप्त की जाती है, उस भूमि को कर्मभूमि कहा जाता है। ढाई द्वीप में वैसी भूमियां पन्द्रह हैं – पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच विदेह । इन्हीं भूमियों के मनुष्य मोक्ष की साधना कर पाते हैं। २. अकर्म भूमिज - जहां मनुष्य युगलरूप में ( एक लड़की एक लड़का ) उत्पन्न होते हैं और जहां जीवन की आवश्यकताएं कल्पवृक्षों से पूरी होती हैं, उस भूमि को अकर्मभूमि कहा जाता है। यहां के स्त्री-मनुष्य अपनी प्रकृतिभद्रता तथा मन्द कषाय के कारण मृत्यु के पश्चात् देवलोक में उत्पन्न होते हैं । अकर्मभूमियां तीस है-पांच हैमवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच हैरण्यवत, पांच देवकुरु तथा पांच उत्तरकुरु । ३. अन्तर्दीपज——– लवणसमुद्र के तीन सौ योजन भीतर हिमवत् के पाद में स्थित २८ अन्तर्दीप तथा शिखरी के पाद में स्थित २८ अन्तर्वीप हैं। इस प्रकार ५६ अन्तद्वीप हैं ।' गाथा १६७ में सूत्रकार केवल २८ अन्तद्वीपों का उल्लेख करते हैं। यह हिमवत् के पाद में प्रतिष्ठित अन्तर्वीपों का ही कथन है। उन द्वीपों में एकोरुक्, हयकर्ण, गजकर्ण आदि युगलधर्मी मनुष्य रहते हैं। उनके शरीरमान आदि इस प्रकार हैं-'अंतरदीवेसु णरा घणुसय अठूसिया सया मुइया । पा ंति मिहुणभाव, पल्लस्स असंखभागाऊ ।।' 'चउसट्टी पिट्ठकरंडयाण मणुयाण तेसिमाहारो । भत्तस्स चउत्थस्स अउणसीइदिणाण पालणया ।।' (बृहदवृत्ति, पत्र ७०० ) २४. बगचारिणो यह देवताओं की एक जाति है। इनका अपर नामवाणव्यंतर, व्यंतर भी है। ये आठ प्रकार के हैं। ये विचित्र प्रकार के उपवनों तथा गिरिकंदराओं, वृक्षों पर रहते हैं। ये विशेष कुतूहलप्रिय और क्रीडारसिक होते हैं ये ऊर्ध्व, अयो तथा तिर्यग्— तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं तथा स्वतंत्र रूप से अथवा दूसरों के द्वारा नियुक्त होकर अनियत गति से संचरण करते हैं । ये मनुष्यों की एक सेवक की भांति सेवा करते हैं । 1 9. नंदी वृत्ति, पृ० ३३ : त्रीणि योजनशतानि लवणजलधिजलमध्यमधिलंध्य हिमवच्छिखरिपादप्रतिष्ठिता एकोरुकाद्याः षट्पञ्चाशदन्तद्वीपा भवन्ति । २. उत्तरज्झयणाणि ३६ । २०७ । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ७०१ । विशेष विवरण के लिए देखें-तीसवें अध्ययन का १२-१३ श्लोक का टिप्पण २६. (श्लोक २५२-२५५) प्रस्तुत चार श्लोकों में तपस्या के प्रकारों का नामोल्लेख १. विचित्र तप — उपवास, बेला, तेला आदि तप । २. विकृष्ट तप-तेला, चोला आदि तप । ३. कोटिसहित तप— कोटि का अर्थ है— कोण। पहले दिन आयंबिल का प्रत्याख्यान कर, उसका अहोरात्र पालन कर, दूसरे दिन पुनः आचाम्ल करने से दूसरे दिन के आचाम्ल का आरम्भ-कोण तथा प्रथम दिन के आचाम्ल का पर्यंत कोण— दोनों कोणों के मिलने से इसको कोटि सहित तप कहा जाता है। विशेष विवरण के लिए देखें-३०।१२, १३ का टिप्पण । २७. (श्लोक २५६ ) इस श्लोक में पांच संक्लिष्ट भावनाओं का उल्लेख है। 1 उनके लक्षण और प्रकार २६३ से २६७ तक के श्लोकों में बतलाए गए हैं। उत्तरवर्ती साहित्य में भी इसका निरूपण होत रहा है। यहां हम उत्तराध्ययन के साथ-साथ मूलाराधना और प्रवचनसारोद्धार में चर्चित इन भावनाओं का अध्ययन करेंगे। वे उत्तराध्ययन से पूर्णतः प्रभावित हैं । उत्तराध्ययन मूलाराधना प्रवचनसारोद्धार भावना नाम (१) कान्दप, (२) आभियोगी (१) कान्दर्पी, (१) कान्दर्पी, (२) कल्दिपिकी, (२) कल्यिधिकी, (३) आभियोगी, (२) आभियोगी, (४) आसुरी और (४) आसुरी और (५) सम्मोहा। (५) सम्मोहा। १. कान्दर्पी भावना के प्रकार (३) किल्बिषिकी, (४) आसुरी और (५) सम्मोहा। उत्तराध्ययन (१) कन्दर्प, (२) कौत्कुल्प, ४. मूलाराधना, ३११७६ कंदण्यदेवखिटिभस, अभिओगा आसुरी य सम्मोहा। एदा हु संकिलिट्टा पर्चाविहा भावणा भणिद ।। ५. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६४१ : कंदष्पदेव किव्विस, अभिओगा आसुरी य सम्मोहा। एसा हू अप्पसत्था, पंचविहा भावणा तत्थ । Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६४० अध्ययन ३६ : श्लोक २५६ टि० २७ (३) तथा प्रकार के शील, स्वभाव, हास्य और विकथाओं करना यह एक ही प्रकार है। से दूसरों को विस्मित करना। मूलाराधना और प्रवचनसारोद्धार में इसके स्थान पर मूलाराधना तीन-तीन प्रकार हैं(१) कन्दर्प, (१) चलशीलता--कन्दर्प और कौत्कुच्य का बार-बार (२) कौत्कुच्य, प्रयोग करना। (३) चल-शीलता, दुःशीलता-बिना विचारे तत्काल बोलना, शरत्-काल (४) हास्य-कथा और में दर्प से उद्धत बैल की तरह शीघ्र चलना, बिना (५) दूसरों को विस्मित करना।' सोचे समझे काम करना। प्रवचनसारोद्धार (३) हास्य-कथा या हास्य-करण—वेश परिवर्तन आदि (१) कन्दर्प, के द्वारा दूसरों को हंसाना। (२) कौत्कुच्य, दूसरों को विस्मित करना—इन्द्रजाल, मन्त्र, प्रहेलिका (३) दुःशीलता, आदि कुतूहलों के द्वारा विस्मय उत्पन्न करना ।१० (४) हास्य-करण और २. आभियोगी भावना के प्रकार(५) दूसरों को विस्मित करना। उत्तराध्ययन मूलाराधना प्रवचनसारोद्वार कन्दर्प-वाणी का असभ्य प्रयोग। उत्तराध्ययन और (१) मन्त्रयोग (१) मन्त्राभियोग, (१) कौतुक, प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति के अनुसार इसके पांच अर्थ होते ___और (२) कौतुक और (२) भूति-कर्म, हैं--(१) ठहाका मार कर हंसना, (२) गुरु आदि के साथ व्यंग (२) भूति-कर्म। (३) भूति-कर्म।" (३) प्रश्न में बोलना, (३) काम-कथा करना, (४) काम का उपदेश देना (४) प्रश्नाप्रश्न और और (५) काम की प्रशंसा करना। (५) निमित्त।२ कौत्कुच्य–काया का असभ्य प्रयोग।' उत्तराध्ययन और मन्त्रयोग--मन्त्र तथा उससे संबंधित द्रव्यों का प्रयोग प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति के अनुसार इसके दो प्रकार हैं- करना। (१) काय-कौत्कुच्य-भौं, आंख, मुंह आदि अवयवों को इस मन्त्राभियोग--कुमारी आदि पात्रों में भूत का आवेश प्रकार बनाव करना जिससे दूसरे लोग हंस पड़े। (२) वाक्- उत्पन्न करना। कौत्कुच्य–विविध जीव-जन्तुओं की, ऐसी बोली बोलना, सिट्टी भूति-कर्म-राख, मिट्टी अथवा धागे के द्वारा मकान, बजाना, जिससे दूसरे लोग हंस पड़े। उत्तराध्ययन में तथाप्रकार शरीर आदि का परिवेष्टन करना। बच्चों की रक्षा के लिए के शील-स्वभाव, हास्य तथा विकथा से दूसरों को विस्मित भूति का प्रयोग करना अथवा भूतों की क्रीड़ा दिखाना भी १. मूलाराधना, ३१८०: कंदप्पकुक्कुआइय, चलसीला णिच्चहासणकहो य। ८. मूलाराधना, विजयोदया, पृ० ३६८ : भवतो मातर करोमीति विभावितो य परं, कदपं भावणं कुणइ।। कंदर्पकौत्कुच्याभ्यां चलशीलः। २. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६४२ : ८. प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति, पत्र १८०। कंदप्पे कुक्कुइए, दोसीलत्ते य हासकरणे य। १०. (क) मूलाराधना दर्पण, पृ० ३६८ : विभावितो मंत्रेद्रजालादिकुहकप्रदर्शनेन परिविम्हियजणणो, ऽवि य कन्दप्पो ऽणेगहा तह य।। विस्मयनयनम्। ३. मूलाराधना विजयोदया, पृ० ३६८ : रागोद्रेकात्प्रहाससम्मिश्रो ऽशिष्ट- (ख) प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति, पत्र १८० : इन्द्रजालप्रभृतिभिः कुतूहलेः वाक्प्रयोगः कन्दर्पः। प्रहेलिकाकुहेटिकादिभिश्च तथाविधग्राम्यलोकप्रसिद्धैर्यात्स्वय४. (क) बृहृवृत्ति, पत्र ७०६ : कन्दर्प—अट्टहासहसनम् अनिभृतालापाश्च मविस्मयमानो बालिशप्रायस्य जनस्य मनोविभ्रममुत्पादयति गुर्वादिना ऽपि सह निष्ठुरवक्रोक्त्यादिरूपाः कामकथोपदेशप्रशंसाश्च तत्परविस्मयजननम्। कन्दर्पः। ११. मूलाराधना, ३१८२ : (ख) प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति, पत्र १८०। मंताभिओगकोदुगभूदीयम्मं पउंजदे जो हु। ५. मूलाराधना, विजयोदया, पृ० ३६८ : अशिष्टकायप्रयोगः कौत्कच्यम्। इड्ढिरससादहेर्दू, अभिओगं भावणं कुणइ।। ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ७०६ : कौक्रुच्यं द्विधा -कायकौक्रुच्य वाक्कौक्रुच्यं १२. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६४४ : च, तत्र कायकौकुच्यं यत्स्वयमहसन्नैव भूनयनवदनादि तथा करोति कोउय भूईकम्मे पसिणेहिं तह य पसिणपसणिहिं। यथाऽन्यो हसति....तज्जल्पति येनान्यो हसति तथा नानाविधा- तहय निमित्तेणं, चिय पंचवियप्पा भवे सा य।। जीवविरुतानि मुखातोद्यवादितां च विधत्ते तद्वाक्कोच्यम्। १३. बृहवृत्ति, पत्र ७१० : 'मंतायोग' ति सूत्रत्वान् मन्त्राश्च योगाश्च(ख) प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति, पत्र १८०। तथाविधद्रव्यसम्बन्धा मंत्रयोग। बृहवृत्ति, पत्र ७०६ : तथा यच्छीलं च—फलनिरपेक्षा वृत्तिः स्वभावश्च- १४. मूलाराधना दर्पण, पृ ४०० : मत्राभियोगः कुमार्यादिपात्रे भूतावेशकरणम्। परविस्मयोत्पादनाभिसन्धिनैव तत्तन्मुखविकारादिक हसनं च-अट्टहासादि १५. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ७१० : "भूत्या' भस्मनोपलक्षणत्वान्मृदा सूत्रेण वा विकथाश्वपरिविस्मापकविविधोल्लापरूपाः शीलस्वभावहसनविकथास्ताभिः कर्म-रक्षार्थं वसत्यादेः परिवेष्टनं भूतिकर्म। 'विस्मापयन्' सविस्मयं कुर्वन्। (ख) प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, पत्र १८१। काम Jain Education Intemational Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवविभक्ति भूति - कर्म कहलाता है।" कौतुक- - अकाल-वृष्टि आदि आश्चर्यकारी करतब दिखलाना अथवा वशीकरण आदि का प्रयोग करना। बच्चों तथा अन्य किसी की रक्षा के लिए स्नान, हाथ फेरना आदि क्रियाएं करना। प्रश्न- दूसरों के पास लाभ-अलाभ आदि के विषय में प्रश्न करना अथवा स्वयं अंगुष्ठ, दर्पण आदि में भूत या भविष्य को जानने का यत्न करना । * प्रश्नाप्रश्न – स्वप्न में विद्या द्वारा कथित शुभाशुभ दूसरों को बतलाना । * निमित्त निमित्त का प्रयोग करना । ३. किल्बिषिकी भावना के प्रकार उत्तराध्ययन (१) ज्ञान का अवर्णवाद, (२) केवली का अवर्णवाद, (३) धर्माचार्य का अवर्णवाद, (४) संघ का अवर्णवाद और (३) माया। मूलाराधना (१) ज्ञान की वञ्चना और अवर्णवाद, ( २ ) केवली की वञ्चना और अवर्णवाद, (३) धर्माचार्य की वञ्चना और अवर्णवाद और (४) सर्वसाधुओं की सूचना और अवर्णवाद प्रवचनसारोद्धार (१) ज्ञान का अवर्णवाद, (२) केवली का अवर्णवाद, (२) धर्माचार्य का अवर्णवाद, (४) संघ का अवर्णवाद और 9. मूलाराधना दर्पण, पृ ४०० भूदीकम्मं बालादीनां रक्षार्थं भूतिकर्म भूतिक्रीडनकं वा । २. वही, पृ ४०० तत्र बालादीनां रक्षादिकरणनिमित्तं स्नपनकरभ्रमणाभिमन्त्रणथुक्करणधूपदानादि यत्क्रियते तत्कौतुकम् । ३. प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, पत्र १८१ तत्र बालादीनां रक्षादिकरणनिमित्तं स्नपनकरभ्रमणाभिमन्त्रणधुक्करणधूपदानादि यत्क्रियते तत्कौतुकम् । ४. वही, पत्र १८१ : यत् परस्य पार्श्वे लाभालाभादि पृच्छ्यते स्वयं वा अंगुष्ठदर्पणखड्गतोयादिषु दृश्यते स प्रश्नः । ५. वही, पत्र १८१, १८२ स्वप्ने स्वयं विद्यया कथितं घण्टिकाद्यवतीर्णदेवतया वा कथितं सत् यदन्यस्मै शुभाशुभजीवितमरणादि परिकथयति स प्रश्नाप्रश्नः । ६. मूलाराधना, ३११८१ : णाणस्स केवलीणं, धम्मस्साइरिय सव्वसाहूणं । माइय अवण्णवादी, खिब्भिसियं भावणं कुणइ ।। ७. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६४३ : ६४१ सुयनाण केवलीणं, धम्मायरियाण संघ साहूणं । माई अवण्णवाई, किव्विसियं भावणं कुणइ ।। अध्ययन ३६ : श्लोक २५६ टि० २७ (५) माया" विजयोदया में 'मायी' का अवर्णवादी को तरह ज्ञान, केवली, धर्माचार्य और सर्व साधु इन सबके साथ सम्बन्ध जोड़ा गया है। ४. आसुरी भावना के प्रकारउत्तराध्ययन (१) अनुबद्ध रोष प्रसर और (२) निमित्त प्रतिसेवना । मूलाराधना (१) अनुबन्ध रोष विग्रह संसक्त तप, (२) निमित्त प्रतिसेवना, (३) निष्कृपता और (४) निरनुताप प्रवचनसारोदार (१) सदा विग्रता (२) संसक्त तप, (३) निमित्त कथन, (४) निष्कृपता और (५) निरनुकम्पता अनुवद्ध रोष प्रसर- सदा विग्रह करते रहना, प्रमाद हो जाने पर भी अनुताप न करना, क्षमा-याचना कर लेने पर भी प्रसन्न न होना।" निमित्त प्रतिसेवनानिमित्त का प्रयोग करना । अनुबंध रोष विग्रह संसक्त तप— अव्यवच्छिन्न क्रोध और कलह से संयुक्त तप करना।" संसक्त तप-आहार आदि में प्रतिबद्ध होकर उनकी प्राप्ति के लिए तप करना। ५. सम्मोहा भावना के प्रकार- ८. मूलाराधना, विजयोदया पृ० ३६६ : माई अव्वण्णवादी इत्येताभ्यां प्रत्येकं संबन्धनीयम् । ६. वही, ३।१८३ : अणुबंधरोसविग्गहसंसत्ततवो निमित्तपडिसेवी । गिक्किविणणिरणुतावी, आसुरिअं भावणं कुणदि ।। १०. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६४५ सइविग्गहसीलत्तं संसत्ततवो निमित्तकहणं च । निक्किवयावि य अवरा, पंचमगं पिरणुकंपत्तं ।। ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ७११: अनुबद्धः – सन्ततः, कोर्थः ? – अव्यवच्छिन्नो रोषस्य क्रोधस्य प्रसरो विस्तारो ऽस्येति अनुबद्धरोषप्रसरः सदा विरोधशीलतया पश्चादननुतापितया क्षमणादावपि प्रसत्त्यप्राप्त्या वेत्यभिप्रायः । १२. मूलाराधना, विजयोदया पृ० ४०१ : रोषश्च विग्रहश्च रोषविग्रही अनुबंधेन रोषविग्रह अनुबंधरोषविग्रहाभ्यां संसक्तं संबद्ध अनुबंधरोषविग्रहसंसक्तं तपो यस्य स तथोक्तः । १३. प्रवचनसारोद्धार वृत्ति पत्र १८२ संसक्तस्य- आहारोपधिशय्यादिषु सदा प्रतिवद्धभावस्य आहाराद्यर्थमेव च तपः-अनशनादितपश्चरणं संसक्ततपः । Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि उत्तराध्ययन (१) शस्त्र - ग्रहण, (२) विष-भक्षण, (३) स्वयं को अग्नि में जलाना, (४) जल में डूब मरना और (३) मर्यादा से अतिरिक्त उपकरण रखना । मूलाराधना (१) उन्मार्ग देशना, (२) मार्गदूषण और (३) मार्ग - विप्रतिपत्ति ।" प्रवचनसारोद्धार (१) उन्मार्ग देशना, (२) मार्ग दूषण, (३) मार्ग-विप्रतिपत्ति, (४) मोह और (५) मोह-जनन । २ शस्त्र-ग्रहण- -शस्त्र ग्रहण आदि कार्यों से उन्मार्ग की प्राप्ति और मार्ग की हानि होती है। यह सम्मोहा भावना है। 9. मूलाराधना ३।१८४ : उम्मग्गदेसणो मग्गदूसणो मग्गविप्पडिवणी य । मोहेण य मोहितो, समोहं भावणं कुणइ ।। २. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६४६ : उम्मग्गदेसणा, मग्गदूसणं मग्गविपडिवित्ती य । मोहो य मोहजणणं, एवं सा हवइ पंचविहा ।। ६४२ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ७११ : संक्लेशजनकत्वेन शस्त्रग्रहणादीनामनन्तभवहेतुत्वात्, अनेन चोन्मार्गप्रतिपत्त्या मार्गविप्रतिपत्तिराक्षिप्ता, तथा चार्थतो मोही भावनोक्ता । अध्ययन ३६ : श्लोक २५६ टि० २७ उन्मार्ग देशना मिथ्या दर्शन व अव्रत का उपदेश । मार्ग दूषण मार्ग में दोष दिखलाना, जैसे ज्ञान से ही मोक्ष होता है, दर्शन और चारित्र से क्या ? चारित्र से मोक्ष होता है, ज्ञान से क्या ?* मार्ग-विप्रतिपत्ति- ज्ञान, दर्शन और चारित्र मोक्ष के मार्ग नहीं— ऐसा मानना या उन तीनों के प्रतिकूल आचरण करना । -शून्य मोह— गूढ़तम तत्त्वों में मूढ़ हो जाना अथवा चारित्र-: तीर्थिकों का ऐश्वर्य देखकर ललचा जाना ।" मोह - जनन - स्वभाव की विचित्रता या कपटवश दूसरे व्यक्तियों में मोह उत्पन्न करना । " उत्तराध्ययन में इन पांच भावनाओं के प्रकार कुछ कम हैं, मूलाराधना में उनसे अधिक हैं और प्रवचनसारोद्धार में पूरे पच्चीस हैं अर्थात् प्रत्येक भावना के पांच-पांच प्रकार हैं | पाद-टिप्पण में उद्धृत मूलाराधना की गाथाओं से यह बहुत स्पष्ट होता है कि प्रारम्भ-काल में श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य में अत्यधिक सामीप्य रहा है। 1 : ४. मूलाराधना, विजयोदया, पृ० ४०२ मार्गस्य दूषणं नाम ज्ञानादेव मोक्षः किं दर्शनाचारित्राभ्यां ? चारित्रमेवोपयः किं ज्ञानेनेति कथयन्मार्गस्य दूषको भवति । ५. वही, पृ० ४०२ मार्गे रत्नत्रयात्मके विप्रतिपन्नः एष न मुक्तेर्मार्ग इति यस्तद्विरुद्धाचरणः । ६. प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, पत्र १८३ निकाममुपहतमतिः सन्नतिगहनेषु ज्ञानादिविचारेषु यन्मुह्यति यच्च परतीर्थिकसम्बन्धिनीं नानाविधां समृद्धिमालोक्य मुह्यति स संमोहः । ७. वही, पत्र १८३ तथा स्वभावेन कपटेन वा दर्शनान्तरेषु परस्य मोहमुत्पादयति तन्मोहजननम् । Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद अइगया बारगापुरिं अइतिक्खकंटगाइण्णे अइमायं पाणभेयणं अइयाओ नराहियो अउलं सुहं संपत्ता अउला मे अच्छिवेयणा अउला हवइ वेयणा अउलो रूयविम्हओ अ अंकुसेण जहा नागो अंके फलिहे य लोहियक्खे य अंगपच्चंगसंठाणं स्थल अंतीमुत्तमर्द्ध अंतो लयणस्स सा ठिया अंतो सिद्धाण आहियं अंतोयियसंभूषा अंधयारे तमे घोरे पद २२-२७ अंधिया पोत्तिया चेव अंसुपुण्णेहिं नयणेहिं अकडं नो कडेत्तिय १९६-५२ १६-१२ अकम्मकम्मभूमा य २०-५६ अकलेवरसेणिमुस्सिया अकसाओ जिइंदिओ ३६-६६ २०-१६ अकसायं अहखायं २-३५ अकाममरणं चैव २०-५ अकाममरणं मरई २२-४६ अकाममरणाणि चैव य बहूणि ३६-७५ अकामा जंति दोग्गई १६-४ अकारिणोत्थ बज्झंति अकालं च विवज्जित्ता अकालिय पावइ से विणासं अंगविज्जं च जे पउंजति अंगवियारं सरस्स विजयं अंगुलं सत्तरत्तेणं अंगेण बाहिरेण व अंडं बलागप्पभवं जहा य अंतमुत्तम्मि गए अंतमसेस वेव अंतरं तेसिमं भवे अंतरद्दीवया तहा अंतराए य कम्मम्मि अंतरायं तहेव य अंतरेयं वियाहियं अंतेउरवरगओ वरे भोए अंतमहुतं जहन्नगं अंतमुत्तं जहन्न ३६-८१,८२,६०,१०३ १०४, ११४, ११५, १२३, १२४, १३३, १३४, १४२, १४३,१५२, १५३, १६८, १७७, १८६, १८६३,२०२,२४६ अंतीमुतं जहन्निया ३३-१६,२१,२२; ३६-८०,८८, ८६, ११३, १२२, १३२, १४१, १५१,१७५,१७६,१८४, १८५, १६१, १६२, २००,२०१ ३४-४५ अग्गिहोत्तमुहा वेया अगुणिस्स नत्थि मोक्खो अग्गिवण्णाई गसो २२- ३३ अग्गी चिट्ठइ गोयमा अग्गी य इइ के वुत्ता अग्गी वा महिओ जहा अग्गी विवव सव्वभक्खी भवित्ता ८-१३ १५-७ २६-१४ २८-२१ ३२-६ अकिरियं परिवज्जए ३४-६० ३४-६० ३६-१८६, १६३,२०२ ३६- १६६ ३३-२० ३३-३ ३६-१४,१३४,१४३,१५३ परिशिष्ट १ पदानुक्रम ६-३ ३६-१०२ ३३-१७ २३-४५ २३-७५ स्थल ३६-१४६ २०-२८ 9-99 ३६-१६६ १०-३५ अचिरेणेव कालेण ३०-३ अचेलगस्स लूहस्स २८-३३ ५-२ ५-१६ ३६-२६१ ६-५३ ६-३० १- ३१ ३२-२४, ३७, ५०,६३,७६, ८६ १४-४१ अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा अकुक्कुओ तत्थहियासएज्जा अकुक्कुओ निसीएज्जा अकोहणे सच्चरए अक्कोसवहं विइत्तु धीरे अक्कोसा दुक्खसेज्जा य अक्कोसा य वहा य में अक्कोसेज्ज परो भिक्खु अक्खाया मारणंतिया ५-२ अक्खाहि णे संजय! जक्खपूइया ! १२-४० अक्खे भग्गंमि सोयई अक्खे भग्गे व सोयई ५-१४ अगणि व पक्खंद पयंगसेणा अगारवो य निस्सल्लो अगारिं च वियाणिया अगारिसामाइयंगाई ५-१५ १२- २७ ३०-३ ७-२२ ५-२३ २८-३० १६-६६ २५-१६ पद अचक्किया केणइ दुष्पहंसया अचयंतो तहिं दिओ अचिंतणं चेव अकित्तणं च अचिरकालकयंमि य १८-३३ अच्छंतं रुक्खमूलम्मि २१-१८ अच्छिले माहए अच्छि रोडए २- २० अच्छेरगमव्भुदए ११५ अजहन्नमणुक्कोसा अजाणगा जण्णवाई अजीवदेसमागासे १५-३ १६- ३१ १- ३८ २-२४ अजीवाण य रूविणं अजीवाण य रूवीण अजीवा दुबिहा भवे अजीवा दुविहा विय अज्जवयाए णं भंते !..... अज्जाई कम्माई करेहि राय ! अज्जुणसुवण्णगमई अज्जेव धम्मं पडिवज्जयामो अज्जेवाहं न लब्भामि अचेलगो ये जो धम्मो अच्चणं रयणं चेव अच्चतकालस्स समूलगस्स अच्चतनियाणखमा अच्चंतपरमो आसी अच्चि जाला तहेव य अच्चुयम्मि जहन्नेणं अच्चेइ कालो तूरंति राइओ अच्चेमु ते महाभाग ! अच्छणे उवसंपदा अज्झत्थं सव्वओ सव्यं अज्झत्थहेउं निययस्स बंधो अज्झप्पज्झाणजोगेहिं अज्झवसाणम्मि सोहणे २३-५० अज्झायाणं पडिकूलभासी २३-५२ अज्झावयाणं वयणं सुणेत्ता अज्झावया वा सह खंडिएहिं २०-४७ अट्टरुद्दाणि वज्जिता २५-१६ स्थल ११-३१ २५-१३ ३२-१५ २४-१७ १४-५२ २-३४ २३-१३-२६ ३५-१८ ३२-१ १८- ५२ २०-५ ३६-१०६ ३६-२३३ १३-३१ १२-३४ २६-७ १६-७८ ३६-१४८ ६-५१ ३६-२४४ २५-१८ ३६-२ ३६-१३ ३६-१४ ३६-४ ३६- २४८ २६ सू० ४६ १३-३२ ३६-६० १४-२८ २-३१ ६-६ १४-१६ १६-६३ १६-७ १२-१६ १२-१६ १२-१८ ३०-३५; ३४-३१ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अट्ठ न जाणाह अहिज्ज वेए अट्ठ कम्माइं वोच्छामि अाणि सिक्खेज्जा अट्ठजोयणबाहल्ला अट्ठ पवयणमायाओ अट्टमम्मि जहन्नेणं अट्ठ मुहुत्ता जहन्निया अट्ठविहगोयरग्गं तु अट्टविहा वाणमंतरा अट्टसहस्सलक्खणधरो अट्टहा ते पकित्तिया अट्ठहा वणचारिणो अट्टहिं बीयतियंमी अट्ठाए य अणट्टाए अट्ठारस सागराई अट्ठारस सागरोवमा अट्टिअप्पा भविस्ससि अट्ठेव उ समासओ अणइक्कमणा य से होइ अनंतकालमुक्को अणताणि य दव्वाणि अणगारं अकिंचणं अणगारं तत्थ पासई अणगारगुणेवि अणगारसीहं परमाइ भत्तिए अणगारस्स अंतिए अणगारस्स निक्खंतो अणगारस्स भिक्खुणो अणगारस्स सो निवो अणगारे झाणमस्सिए अणगारे तवोधणे अणगारो मणाहओ अणच्चावियं अवलिय अणट्टाकित्ति पव्यए अट्ठा ये ज सव्वत्था अणभिग्गहिओ य सेसेसु अभिग्गहिय कुदिट्ठी अणवज्जेसणिज्जस्स अणसणमूणोरिया अणाइकालप्पभवस्स एसो अणागयं नैव य अस्थि किंचि अणाढियस्स देवस्स अगाध अमोल चे अणायारभंडसेवा अणावाए चेव होइ संलोए ६४४ २२-४४ अणुत्तरं चरिउ धम्मसंचयं ३३-३ अणुत्तरं संजम पालइत्ता २६-३३ अणुत्तरं संजम पालियाणं ३६-१४, ८२, ६० अणुत्तरं सिद्धिगइं गओ १०३, ११५, १२४, १३४, १४३, अणुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदंसणधरे १५३, १६८, १७७, २०२, २४६, अणुत्तरे नाणधरे जसंसी २८-८ अणुत्तरे भुंजिय कामभोगे २- १४; २५-२७ अणुत्तरे सो नरए पविट्टो १८- ६ अणुन्नए नावणाए महेसी ३१-१८ अणुप्पेहाएणं भन्ते ! २०- ५८ १८ - १८, १६ २५-४२ १- १, २ - २८; ६- १६, ११-१ १८-८ अणुप्पेहा धम्मकहा अणुबद्धरोसपसरो अणुबंधदुहावहा अणुभागा हवंति उ अणुभागे वियाणिया अणुभावे सुणेह मे अणुमाणित्ताण बहुविहं १८- ६ १८-४ अणुरत्ता अणुव्वया १८- ७ अणुसद्धिं सुणेह में २६-२५ अणुसासणं नाणगुणोववेयं १८- ४६ अणुसासणमोवायं १८-३० अणुसासिओ न कुप्पेज्जा २८-२६ अणूणाइरित्तपडिलेहा २८-२६ अणावायमसंलोए १२-१५ ३३-१ १-८ अणाविले अत्तपसन्नलेसे अणासवा थूलवया कुसीला ३६-५६ अणासवे झाणसमाहिजुत्ते २४-१ अणाहत्तं जहाभूयं ३६- २४१ अणाहो मि महाराय ! ३३-२३ अणिएओ परिव्वए अणिच्चे जीवलोगम्मि ३०-२५ ३६-२०७ अणियाणे अकिंचणे २२-५ अणिस्सिओ इहं लोए ३६-१६ अणुकंपओ तस्स महामुणिस्स ३६-२०५ अणुकंपगं सुहिं वावी २६-१६ अणुक्कसाई अप्पिच्छे अणुबाई लहुअप ३६-२२६ अणुच्चे अकुए थिरे ३६-२३० अणुजाणह पव्वइस्सामि अम्मो ! १६-१७ अणेगछंदा इह माणवेहिं अणेग रूवा समणं चरंतं ३०-८ अणेगवासानउया ३२- १११ १४-२८ ११-१७ २६-२५ ३६-२६७ अणेगहा ते पकित्तिया २४-१६ अणेगहा ते वियाहिया अणेगवासे धुवगोयरे य अणेगविहा एवमायओ अणेगहा एवमायओ २४, १६, १७ १२-४६ १-१३ ३२- १०६ २०-५६ २०-६ अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स परिशिष्ट १ पदानुक्रम अणेगाणं सहस्साणं अण्णवंसि महोहंसि अतरिंसु तरंतेगे अतालिसे से कुणई पओसं २-१६ १८- ११,१२ ३५-१६ १६-६२ १२-८ २०-६ २- ३६ अत्यंतम्मि य सूरम्मि १५-१६ अत्तट्ठियं सिद्धमिहेगपक्खं अत्तट्ठे अवरज्झई अत्तट्टे नाव रज्झई अत्ताणं परियावसे ? अत्यं च धम्मं च वियाणमाण अत्थं पोत्थं व पत्थिवा ! अत्यधम्मगई तच्चं अत्थधम्मोवसोहियं १-३० १६- १० २१-२३ अस्थि एवं धुवं ठाणं १३-३५ अत्थि एगो महादीवो २०-५२ १३-३५ ६-१७ २१-२३ १३-३४ १३-३४ २१-२० २६ सू० २३ ३०-३४ ३६-२६६ १६-११ ३३-२४ ३३-२५, ३४-६१ अदीने थावए पन्नं ३४-१ अदुवा वंचिओ मिति १६-८६ अदुवावि भविस्सई २०-२८ अदुवा सचेलए होक्खं २०-१ अदु बुक्कसं पुलागं वा २०-५१ अद्दाय सिरसा सिरं १-२८ अद्दीणा जंति देवयं १- ६ २६-२८ २१-१६ ४-११ ७-१३ १६ -८३ ३६-११६ ३६-६६, ११०, १३०, १३६, १४६, २१६ ३६-६४,६६ ३६- १०६ अस्थि वा नत्थि वा पुणो ? अत्थे य संकप्पयओ तओ से अत्थेहि कामेहि य उत्तमेहिं अथिरव्वए तवनियमेहि भट्ठे अथिरासणे कुक्कुईए अदए पडिसेहिए नियंठे अदंसणं चेव अपत्थणं च अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरओ अदत्तरस विवज्जणं अदितस्स वि किंचण अदिस्साणं च भूयाणं अदीणमणसो चरे अद्धाए सुइरादवि अद्धाणं जो महंतं तु अद्धामि विलोवए अद्धा कह वट्टते २३-३५ ५-१; २३-७० १८- ५२ ३२-२६,३६ ५२,६५,७८, १ ३२-२६, ४२, ५५ ६६,८१,६६ अद्धासमए चेव अधुवे असासयंमि अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा अनियाणो अबंधणो अन्नं पत्थेसि आसमं अन्नं पभूयं भवयाणमेयं १२-११ ७-२५ ७-२६ १८- ५३ १२-३३ १७-१६ २०-१६ २०-१ १८-३४ २३-८१ २३-६६ ५-६ ३२-१०७ १३-१० २०-४१ १७-१३ १५-११ ३२-१५ ३०-२ १६-२७ ६-४० २३-२० २-३ २-३२ २-४४ २-४५ २-१२ ८-१२ १८-५० ७-२१ ७-१८ १६- १८, २० ७-५ २३-६० ३६-६ ८-१ २०-३६ ३६-२५८ १६-६१ ६-४२ १२-१० Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अन्नं पाणं च पहाणं च अन्नं वावि तहाविह अन्नदत्तहरे तेणे अन्नप्पमत्ते धणमेसमाणे अन्नमन्नमणूरत्ता अन्नमन्नवसाणुगा अन्नमन्नहिएसिणो अन्नमन्नेण जा विणा अन्नयरवयत्थो वा अन्नयरेणं व वत्थेणं अन्नलिंगे दसेव य अन्नस अट्ठा इहमागओ मि अन्माएसी अलोए अन्नाणं च महामुणी ! अन्नाणं जस्स अवगयं होइ अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए अन्नायएसी परिव्वए जे स भिक्खू अन्निओ रायसहस्से हिं अन्नेण विसेसेणं १८-४३ ३०-२३ ३२-१०३ १४-४२ २३-२८, ३४, ३६, ४४,४६,५४,५६,६४,६६,७४,७६ ३६-८ ३६-१२,६५,७६,८७ १०१,११२, १२१,१३१,१४०, १५०, १५६, १७४, १३, १६०, १६६,२१८ २६-२२ ७-११ अन्ने य एयप्पभवे विसेसे अन्ने सत्ता पमोयंति अन्नो वि संसओ मज्झं अपज्जवसिया चेव अपज्जवसिया वि य अपडिक्कमित्ता कालस्स अपत्थं अंबगं भोच्चा अपरिकम्मा य आहिया अपाहेओ पवज्जई अप्पं चाहिक्खिवई अप्पं वा जइ वा बहुहुं अप्पकम्मे अवेयणे अप्पच्चक्खाय पावगं अप्पडिपूयए थद्धे अप्पडिबद्धयाए णं भंते ! अप्पडिरूवे अहाउयं अप्पsिहयबले जोहे अप्पणट्ठा परट्ठा वा अप्पणा अणाहो संतो अप्पणा वि अणाहो सि अप्पणा सच्चमेसेज्जा अप्पणी य परस्स य अप्पणो य परेसिं च अप्पणो वसहिं वए अप्पपाणेप्पबीयंमि अप्पमज्जियमारुहइ २०-२६ २४-१५ ७-५ १४-१४ १३-५ १३-५ अप्पा कत्ता विकत्ता य १३-५ अप्पा कामदुहाणू १३-७ अप्पा चेव दमेयव्वो ३०-२२ अप्पाणं तारइस्सामि ३०-२२ अप्पाणं पि न कोवए ३६-५२ १२-६ अप्पाणं संलिहे मुणी अप्पाणं संवरे तहिं अप्पाणमेव अप्पाणं २-३६ १८- २३ अप्पाणमेव जुज्झाहि २८-२० ३२-२ 94-9 ३०-१३ १६-१८ 99-99 २५-२४ १६-२१ ६-८ १७-५ २६ सृ० ३१ ३-१६ ११-२१ १- २५ २०-१२ अप्पमत्तो पत्तेहिं अप्पमत्तो परिव्वए २०-१२ ६-२ २०-३५ १८- २६ १४-४८ १-३५ १७-७ ६४५ अपपव्वइएण व संथुया हविज्जा अप्पसत्थाओ वज्जित्ता अप्पसत्थेहिं दारेहिं अप्पाणरक्खी चरमप्पमत्तो अप्पा दंतो सही होइ अप्पा नई वेयरणी अप्पा मित्तममित्तं च अप्पा मे अवसीयई अप्पा मे कूडसामली अप्पा मे नंदणं वणं अप्पायंके महापन्ने अप्पा हु खलु दुद्दमो अप्पाहेओ पवज्जई अप्पियं पि न विज्जए अप्पियस्सावि मित्तस्स अप्पिया देवकामाणं अप्पुट्ठाई निरुट्टाई अप्फोवमंडवम्मि अफला जंति राइओ अबंभचारिणो बाला अबले जह भारवाइए अबालं चेव पंडिए अबालं सेवए मुणि अवीया सत्थकुसला अवोर्हेतो असंजए अम्भपडल ऽभवालुय अब्माहयंमि लोगंमि अब्भितरं तवं एत्तो अभुट्ठाणं अंजलिकरणं अब्भुट्ठाणं गुरुपूया अभुट्ठाणं नवमं अब्भुट्टियं रायरिसिं अभओ पत्थिवा ! तुब्भं अभयदाया भवाहि य अभिओगं भावणं कुणई अभिक्खणं उल्लवई अभिक्खणं कोही हवइ ६-१६ अभिगमवित्थाररुई ६-१२ अभिग्गहा य जे अन्ने अभिजाए जसोबले १५-१० ३४-६१ १६-६३ अभितुर पारं गमित्तए २०- ३७ अभिभूय परीसहे २०-३६ १-४० ३६ - २५० २२-३६ ६-३५ १-१५ अभिवंदिऊण सिरसा अभिवंदित्ता सिरसा १६- २३ अभिवायणमब्भुट्ठाणं अभू जिणा अस्थि जिणा अभोगी नोवलिप्पई अभोगी विप्पमुच्चई अमला असंकिलिट्टा २०-३६ २०-३७ ६-३५ अमहग्घए होइ य जाणएसु ४-१० अमाई अकुऊहले १-१५ परिशिष्ट १ : पदानुक्रम ३-१८ १-१५ १६- १८ ६-१५ ११-१२ ३-१५ १-३० 95-4 १४-२४ अभिणिक्खमई नमी राया २७-१५ २०-३६ अमोहाहिं पडतीहिं २०-३६ १२-५ १०-३३ ७-३० ११-२ ११-७ अमाणुसासु जोणीसु अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो अमोहणे होइ निरंतराए अमोहा रयणी वृत्ता अम्बिला महुरा तहा अम्मताय ! मए भोगा अम्मापिऊण दइए अम्मापिऊहिं अणुन्नाओ अम्मापियरं उवागम्म अयतंबतउयसीसग अय व्व आगयाएसे २०-२२ अयसीपुप्फसंकासा ७-३० २६-४४ ३६ - ७४ १४- २१ ३०-२६ अरई अणुप्पविसे अरई गंडं विसूइया ३०-३२ अरए य तवो कम्मे २६-७ अरण्णे मियपक्खिणं ? २६-४ अरहा नायपुत्ते अरहा लोगपूइओ ६-६ १८-११ अरिट्टणेमिं वंदित्ता १८-११ अरिहा आलोयणं सोउं ३६-२६४ अरूविणो जीवघणा अरूवी दसहा भवे अरूवी दसहा वृत्ता अयंतिए कूड कहावणे वा अयं दंतेहिं खायह अयं साहसिओ भीमो अयंसि लोए अमयं व पूइए अयंसि लोए अमयं व पूइए अयंसि लोए विसमेव गरहिए अयकक्करभोई य अरई पिट्टओ किच्चा अरइरइसहे पहीणसंथवे २८-१६ ३०-२५ ३-१८. ६-२ . १०-३४ २-१८ ३६-२६० २०-४२ ११-१०; ३४-२७ ३-६ १४-१६ ३२-१०६ १४-२३ १४-२१ २०-५६ २३-८६ २-३८ २-४५ २५-३६ २५-३६ ३६-१८ १६-११ १६-२ १६-८४ १६-६ २०-४२ १२-२६ २३-५५ १७-२१ १७-२१ १७-२० ७-७ ३६-७३ 19-E ३४-६ २-१५ २१-२१ २-१४ १०-२७ १७-१५ १६-७६ ६-१७ २३-१ २२-२७ ३६-२६२ ३६-६६ ३६-६ ३६-४ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि अरो य अरयं पत्तो अलंकिओ वाणलंकिओ वा वि अलसा माइवाहया अलाभो तं न तज्जए अलोए पडिहया सिद्धा अलोए से विहाहिए आलोय मुहानीवी अलोले न रसे गिद्धे अल्तीमा सुसमाहिया अवउज्झइ पायकंबलं अवउज्झिऊण माहणरूवं अवउज्झिय मित्तबंधवं अवचियमंससोणियं अवसेसं भंडगं गिज्झा अवसो लोहरहे जुत्तो अवसोहिय कंटगापहं अवहेडिय पिट्टिसउत्तमंगे अवि एवं विणस्सउ अन्नपाण अविज्जमाया अहीरिया य अविणीए अबहुस्सुए अविगीए सि दुष्पई अविणीए बच्चई सो उ अवि पावपरिक्खेवी अवि मित्ते कुप्पई अवि लाभो सुए सिया अविवच्चासा तहेव य अविसारओ पवयणे अव्वक्खित्तेण चेयसा अव्वग्गमणे असंपहिले असई तु मणुस्सेहि असई दुक्खभयाणि य असंखकालमुक्को असंखभागं च उक्कोसा असंखभागो पलियस्स असंखयं जीविय मा पमायए असंखिज्जाणोसप्पिणीण असंखेज्जइमो भवे असंजए संजयमन्नमाणे असंजए संजयलप्पमाणे असंजमे नियत्तिं च असंते कामे पत्थेसि असंविभागी अचियत्ते असंसत्तं हित्थेसु असंसत्तो गिहत्थेहिं असणे अणसणे तहा असमाणो परे भिक्खू असमाहिं च वेएइ १८-४० असावज्जं मियं काले ३०-२२ ३६-१२८ २-३१ ३६-५६ ३६-२ २५-२७ ३५-१७ २३-६ १७-६ ६-५५ ६४६ असारं अवउज्झइ असासए सरीरम्मि असासयं दट्टु इमं विहार असासयावासमिणं असिणेह सिणेहकरेहिं असिधारागमणं चैव असिपत्तं महावणं असिपत्तेहिं पडतेहिं असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते १०-३० २५-२१ असुई असुइसंभवं २६-३५ असुभत्थेसु सव्वसो १६- ५६ १०-३२ १२-२६ १२-१६ अस्साया वेइया भए अस्सा हत्थी मणुस्सा मे ३४-२३ ११-२ अस्सि लोए परत्थ य १-३, ११-६ अस्से य इइ के बुत्ते ? अह अहिं ठाणेहिं ११-६ ११-८ ११-८ २-३१ २६-२८ २८-२६ १८-५०; २०१७ १५-३ ६-३० १६ ४५ ३६-१३. ८१, ८६, १०४, ११४, १२३ ३४,४१,४२,५३ ३६-१६२ 3-9 ३४-३३ ३६-१६१ १७-६ २०-४३ ३१-२ ६-५३ ११-६; १७-११ असीलाणं च जा गई असीहि अयसिवण्णाहिं असुरा तहिं तं जणं तालयंति असुरा नागसुवण्णा अस्सकण्णी य वोद्रव्या अह अन्नया कयाई अह आसगओ राया अह ऊसिएण छत्तेण अहं च भोयरायस्स अहं तु अग्गि सेवामि अहं पि जाणामि जहेह अह कालंमि संपत्ते अह केसरम्मि उज्जाणे अह चउदसहि ठाणेहिं अह जाणासि तो भण अह जे भिक् अह तत्थ अइच्छंतं अह तायगो तत्थ मुणीण तेसिं अह तेणेव लेणं अह ते तत्थ सीसाणं अह दारए तहिं जाए अह निक्खमई उ चित्ताहिं अह पंचहि ठाणेहिं अह पच्छा उइज्जति अह पत्तंमि आएसे अह पन्नरसहि ठाणेहिं २५-२७ अह पालियस्स धरणो २-१६ अह भवे पइन्ना उ १६-६२ अहमासी महापाणे अह मोणेण सो भगवं अहम्मं कुणमाणस्स २-१६ २७-३ साहू ! २४-१० अहम्मं पडिवज्जिया १६-२२ अहम्मे अत्तपन्नहा १६- १३ अहम्मे तस्स देसे य अहम्मो ठाणलक्खणो अह राया तत्थ सभंतो १४-७ १६-१२ ८-२ १६-३७ १६-६० १६-६० १५-१६ ५-१२ १६-५५ १६-१२ २४-२६ १२-२५ परिशिष्ट १ : पदानुक्रम अहवा तइयाए पोरिसीए अहवा सपरिकम्मा अह संति सुव्वया साहू अह सा भमरसन्निभे अह सारही तओ भणइ अह सारही विचिंतेइ अह सा रायवरकन्ना अह से तत्थ अणगारे अह से सुगंधम अह सो तत्थ निर्ज्जतो ३६-२०६ अह सो वि रायपुत्तो ३६-६६ अहस्सिरे सया दंते १६-४७ २०-१३ १-१५ २३-५७ ११-४ २१-८ १८- ६ २२- ११ २२-४३ अहो ! अज्जस्स सोमया २-७ १३-२७ अहो उट्टिए अहोरायं ५-३२ अहो ! खंती अहो ! मुत्ती १८-४ अहो ! ते अज्जवं साहु ११-६ २५-१२ २- २५ १६-५ १४-८ २३-५ २५-४ अहाउयं पालइत्ता अन्तो० अहाह जणओ तीसे अहिंस सच्चं च अतेणगं च अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे अहिवेगंतदिट्टीए अहीणपंचिंदियत्तं पि से लहे अहीणपंचिंदियया हु दुल्लहा अह्रुणोववन्नसंकासा अहे वयइ कोहेणं अहो ! ते उत्तमा खेती अहो ! ते निज्जिओ कोहो अहो ! ते निरक्किया माया अहो ! ते माणो पराजियो अहो ! ते मुत्ति उत्तमा अहो ! ते लोभो वसीकओ २३-१४ अहो ! ते साहु मद्दवं २१-४ अहोत्था बिउलो दाहो २२-२३ ११-३ २-४१ अहो ! दुक्खो हु संसारो अहो ! भोगे असंगया अहो य राओ परितप्यमाणे अहो ! वण्णो अहो ! रूवं ११-१० अहोसुभाण कम्माणं ७-३ २१-४ २३-३३ १८- २८ १८- ६ १४- २४ आइच्चमि समुट्ठिए ५-१५,७-२८ १७-१२ ३६-५ २८-६ १८-७ ३०-२१ ३०-१३ ८-६ २२-३० २२-१७ २७-१५ २२-७,४० (आ आइए निक्खिवेज्जा वा आइक्ख णे संजय ! जक्खपूइया २५-५ २२-२४ २२-१४ २२-३६ ११-४ २६ सू० ७३ २२-८ २१-१२ १४-६ १६-३८ १०-१८ १०-१७ ५-२७ ६-५४ २०-६ १८-३१ २०-६ ६-५७ ६-५७ ६-५६ ६-५६ ६-५६ ६-५७ ६-५६ ६-५७ २०-१६ १६- १५ २०-६ १४-१४ २०-६ २१-६ २४-१४ | १२-४५ २६-८ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६४७ परिशिष्ट १: पदानुक्रम आइण्णे कथए सिया ११-१६ आभरणेहिं विभूसिओ आइण्णे गणिभावम्मि २७-१ आमंतयामो चरिस्सामु मोणं आउं कामा य दिबिया ७-१२ आमिसं सव्वमुज्झित्ता आउं जाणे जहा तहा १८-२९ आमोयमाणा गच्छति आउं सुहमणत्तरं ७-२७ आमोसे लोमहारे य आउकम्मं चउविहं ३३-१२ आयंका विविहा फुसति ते । आकउम्मं तहेव य ३३-२ आयंका विविहा फुसंति देह आउक्कायमइगओ १०-६ आयंके उवसग्गे आउक्खाए मोक्खमुवेइ सुद्धे ३२-१०६ आययंति मणुस्सयं आउट्ठिई आऊणं ३६-८८ आयरिएहिं वाहितो आउट्ठिई खहयराणं ३६-१६१ आयरियं कुवियं नच्चा आउट्टिई जलयराणं ३६-१७५ आयरियं विदित्ताणं आउट्टिई तेऊणं ३६-११३ आयरियउवज्झाएहिं आउट्ठिई थलयराणं ३६-१८४ आयरियउवज्झायाणं आउट्टिई पुढवीणं ३६-८० आयरियपरिच्चाई आउट्टिई मणुयाणं ३६-२०० आयरियमाइयम्मि य आउट्टिई वाऊणं ३६-१२२ आयरियाणं तं वयणं आउत्तया जस्स न अस्थि काइ २०-४० आयवस्स निवाएणं आउयं नरए कंखे ७-७ आयाणं नरयं दिस्स आउरे सरणं तिगिच्छियं च १५-८ आयाणनिक्खेवदुगुंछणाए आउरे सूपिवासिए २-५ आयाणहेउं अभिणिक्खमाहि आऊजीवाण अन्तरं ३६-६० आयामगं चैव जवोदणं च आएसं पप्प साईए ३६-६ आया ममं पुण्णफलोववेए आएसं परिकंखए ७-२ आयारं पाउकरिस्सामिआएसाए समीहिए ७-४ आयारधम्मपणिही आगए कायवोस्सग्गे २६-४६ आरंभम्मि तहेव य आगओ तत्थ वाणिओ ७-१५ आरंभाओ अविराओ आगम्मुक्कुडुओ संतो १-२२ आरंभेय तहेव य आगासे अहो दाणं च घुटुं। १२-३६ आरणम्मि जहन्नेणं आगासे गंगसोउ व्व १६-३६ आरणा अच्चुया चेव आगासेणुप्पइओ ६-६० आरण्णगा होह मुणी पसत्था आगासे तस्स देसे य ३६-६ आरभडा सम्मद्दा आघायाय समुस्सयं ५-३२ आरसन्तो सुभेरवं आणयम्मि जहन्नेणं ३६-२३० आराहए दुहओ लोगमिणं आणया पणया तहा ३६-२११ आराहए पुण्णमिणं खु खेत्तं आणाइस्सरियं च मे २०-१४ आरियं धम्मऽणूत्र आणाए रोयतो २८-२० आरियत्तं पुणरावि दुल्लहं आणानिद्देसकरे १-२ आरूढो सोहए अहियं आणानिद्देसकरे १-३ आलओ थीजणाइण्णो आणारुई सुत्तबीयरुइमेव २८-१६ आलंबणेण कालेण आणुपुब्बि जहक्कम ३१-१,३४-१ आलयं तु निसेवए आणुपुचि सुणेह मे १-१; २-१; ११-१ आलवंते लवंते वा आणुपुब्बी कयाइ उ ३-७ आलुए मूलए चेव आपुच्छणा य तइया २६-२ आलोएइ नगरस्स आपुच्छणा सयंकरणे २६-५ आलोएज्ज जहक्कम आपुच्छऽम्मापियरो २१-१० आलोयणयाए णं भंते ! ... आपुच्छित्ताण बंधवे २०-३४ आलोयणारिहाईयं आभरणाणि य सव्वाणि २२-२० आलोयलोले समुवेइ मच्चुं २२-६ आवई वहमूलिया ७-१७ १४-७ आवज्जई इंदियचोरवस्से ३२-१०४ १४-४६ आवज्जई एवमणेगरुवे ३२-१०३ १५-४४ आवन्ना दीहमद्धाणं ६-१२ ६-२८ आवरणिज्जाण दुण्हं पि ३३-२० १०-२७ आवाए चेय संलोए २४-१६ २१-१८ आवायमसंलोए २४-१६ २६-३४ आवासाइं जसंसिणो ५-२६ ३-७ आवी वा जइ वा रहस्से १-१७ १-२० आसं विसज्जइत्ताण १८-८ १-४१ आसणं सयणं जाणं ६-८ आसणगओ न पुच्छेज्जा १-२२ १७-४ आसणम्मि अणाउत्ते १७-१३ १७-५ आसणे उवचिठेज्जा १-३० १७-१७ आसमपए विहारे ३०-१७ ३०-३३ आसाढ़ बहुलपक्खे २६-१५ २७-११ आसाढे मासे दुपया २६-१३ २-३५ आसि अम्मे महिड्ढिया १३-७ ६-७ आसि भिक्खू जिइंदिओ २०-४० आसिमो भायरा दो वि १३-५ १३-२० आसि राया महिडिढए २२-१,३ १५-१३ आसि विप्पो महायसो २५-१ १३-१० आसि सीसे महायसे २३-२,६ ११-१ आसी तत्थ समागमो २३-२० २३-११ आसी मिहिलाए पव्वयंतंमि ६-५ २४-२५ आसीविसो उग्गतवो महेसी १२-२७ ३४-२४ आसुरियं दिसं बाला ७-१० २४-११,२३ आसुरियं भावणं कुणइ ३६-२६६ ३६-२३२ आसे जवेण पवरे ३६-२११ आसे जहा सिक्खिय वम्मधारी १४-६ आसेवणं जहाथामं ३०-३३ २६-२६ आहच्च चंडालियं कटु १६-५३,६८ आहच्च सवर्ण ल १७-२१ आहरित्तू पणामए ? १६-७६ १२-१२ आहाकम्मेहिं गच्छई ३-३ २-३७ आहाकम्मेहिं गच्छंतो ५-१३ १०-१६ आहार उवहिं देहं २४-१५ २२-१० आहारच्छेओ य दोसु वि ३०-१३ १६-११ आहारपच्चक्खाणेणं भंते ! - २६ सू० ३६ २४-४ आहारमिच्छे मियमेसणिज्जं । ३२-४ १६-१ आहारेइ अभिक्खणं १७-१५,१६ १-२१ आहारेण तवं चरे ३६-२५५ ३६-६६ आहारोवहिसेज्जाए २४-११ १६-४ २६-४०,४८ २६ सू० ६ इइ इत्तरियम्मि आउए १०-३ ३०-३१ इइ एएसु ठाणेसु ३१-२१ ३१-२६ इइ एस धम्मे अक्खाए ८-२० ११-१६ १-११ Jain Education Intemational Personal Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि इइ एसा वियाहिया इइ कप्पोवगा सुरा इइ चउरिंदिया एए इइ जीवमजीवे य इइ जीवा वियाहिया इइ दुप्पूरए इमे आया इइ नेरइया एए इइ पाउकरे बुद्धे इइ फासपरिणया एए इइ बाले पगब्भई इइ बेइंदिया एए इइ भिक्खू न चिंतए इइ विज्जा तवं चरे इंदियत्थे विवज्जित्ता इंदियाण य जुंजणे इंदियाणि उ भिक्खुस्स इक्किक्कभवग्गणे विज्जासंच इइ वैमाणिया देवा इओ चुओ गच्छइ कट्टु पाव इंगाले मुम्मुरे अगणी इंगियागारसंपन्ने इंदगोवगमाईया इंदासणिसमा घोरा इंदियग्गामनिग्गाही इक्खागरायवसभो इच्चेए तसा तिविहा इच्चेए थावरा तिविहा इच्छंतो हियमप्पणो इच्छं निओइउं भंते ! इच्छामि अणुसासि इच्छामो नाउं भवओ सगासे च्मणोरतुरियं इट्ठा रामकेसवा इड्ढि वित्तं च मित्ते य इड्ढीगारविए एगे इही जुई जसो वण्णो इड्डी जुई तस्स वि य प्पभूया इड्डी वावि तवस्सिणो इडीसक्कारसम्माणं इणमुदाहु कयंजली इत्तिरिया मरणकाले इत्तिरिया सावकखा १८-२४; ३६-२६८ ३६- २० ५-७ ३६ - १३० २-७,१२,२६, ४४, ४५ इच्छा उ आगाससमा अणंतिया इच्छाकामं च लोभं च इच्छाकारो य छट्टओ इच्छाकारो य सारणे ३६-१६७ इत्तो उ तसे तिविहे ३६-२११ इत्तो कालविभागं तु ३६-१४६ ३६- २४६ ३६- २४८ १६ ३६- १५७ ८ ६-४६; १८-३१ १८- ३० ३६-२१६ २०-४७ ३६-१०६ ३६-१३६ २०-२१ २५-२ २४-८ २४-२४ ३५-५ 90-9'8 १८-३६ ३६-१०७ ३६-६६,१०६ ६४८ इमं सिंहं चित्तधणप्पभूयं इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि इमं च मे अत्थि पभूयमन्नं इमं च मे किच्च इमं अकिच्च १-२ इमं देहं समुद्धरे इमं पट्टमुदाहरे इममि लोए अदुवा परत्था इमं वक्कं उदाहरे १-६ २६-६ ६-४८ ३५-३ २६-३ २६-६ २०-५६ इत्तो जीवविभत्तिं इत्थीविसयगिद्धे य इत्थीहिं अणभिदुए इत्थीजणस्सारियझाणजोग्गं इत्थीण चिंत्तसि निवेसइत्ता इत्थीपसुविवज्जिए इत्थी पुरिससिद्धा य इत्थी वा पुरिसो वा इत्थी विप्पजहे अणगारे इमं एयारिसं फलं ३६- १०६ ३६-११,७८, १११, १२०, १८६, २१७ ३६-४७ ७-६ ३५-७ ३२-१५ ३२-१४ ३०-२८ ३६-४६ ३०-२२ ८- १६ १३- २६ १३-१३ 98-94 १२- ३५ १४- १५ ६-१३ ५- १ ४-५ २२-३६ १४-८ ६-६; १२-५; १३-४; १६-६; २५-१० इमं वयं वेयविओ वयंति इमं वयणमब्बवी इमं सरीरं अणिच्चं १६-१२ १२ - ८ १३- ७ इमाई वयणाइमुदाहरित्था इमा नो छट्टिया जाई इमा वा सा व केरिसी ? इमाहि महुराहिं वहिं २३-११ ६-५५ इमा हु अन्ना वि अणाहया निवा ! २०-३८ इमे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं १६ सू० ३ इमे ते खलु बावीसं परीसहा० २ सू० ३ इमेण कमजोगेण ३६-२५० १४-४५ इमे य बद्धा फंदंति इमे वि से नत्थि परे वि लोए इमे संगे वियाणिज्जा १२-४५ २२-२५ २२-२ १६-५७ इयरो वि गुणसमिद्धो २७-६ इरिएसणभासाए ७-२७ इरियट्ठाए य संजमट्टाए १३-११ इरियाए भासाए तहेसणाए २-४४ इरियाभासेसणादाणे ३५-१८ इसिं पसाएइ सभारियाओ २०-५४; २५-३५ इसिज्झयं जीविय वूहइत्ता ३०-६ इसिस्स वेयावडियट्टयाए ३०-६ इसीहि चिण्णाइ महायसेहिं परिशिष्ट १ : पदानुक्रम इस्सरियं केवलं हिच्चा इस्सा अमरिस अतवो इहं तु कम्माई पुरेकडाई इहं बोंदि चइत्ताणं इहं सि उत्तमो भंते ! इह कामगुणेहि मुच्छिया इह कामणियदृस्स इह कामाणियट्टरस इह जीविए राय ! असासणम्मि इह जीवियं अणवकखमाणो इह जीवियं अणियमेत्ता इहज्जयंते समणो म्हि जाओ इहमेगे उ मन्नंति उक्कोसा सागरा उ दुण्हऽहिया उक्कोसा होइ किण्हाए उक्कोसा होइ टिई उक्कोसा होइ पुव्यकोडी उ उक्कोसिया टिई होइ २०-४६ उक्कोसेण उ साहिओ ३५-२ उक्कोसेण टिई भवे इमो धम्मो व केरिसो ? इय गेविज्जगा सुरा २३-११ ३६-१२५ इय जे मरंति जीवा ३६- २५७, २५८, २५६ २०-६० १२-२ २६-३२ २०-४० उक्कोसोगाहणाए य उग्गओ खीणसंसारो १२- ३० उग्गमो विमलो भाणू २४-२ २०-४३ उग्गं तव चरित्ताणं १२-२४ उग्गं महव्वयं बंभ २१-२२ उग्गमुण्णायणं पढमे इह लोए निष्पिवासस्स इहागच्छऊ कुमारो इहेव पोसहरओ ईसाणम्मि जहन्नेणं ईसीप भारनामा उ ईहई नरयाउयं १८- ३५ ३४-२३ १३-१६ ३६-५६ ६-५८ उक्कोसेण तु साहिया उक्कोसेण वियाहिया १०-२० ७-२६ ७-२५ १३-२१ १२-४२ ८-१४ १३-१२ ६-८ १६-४४ २२-८ ६-४२ (उ उक्कत्तो य अणेगसो उक्कलियामंडलिया उक्कलुद्दहिया तहा उक्का विज्जू य बोद्धव्वा उक्कुद्दइ उप्फिडई २७-५ उक्कोसं जीवो उ संवसे १०-५ से १४ उक्कोसा सा उ समयमम्भहिया ३४-४६, ५० ५४, ५५ ३४-५२ ३४-४८ ३४-३४ से ३६ ३६-२२३ ३६-५७ ७-४ १६-६२ ३६-११८ ३६-१३७ ३६-११० ३४-४६ ३३-१६ ३६-१६२ ३६-२१६,२२०, २२४ से २४३ ३६-१८५ ३३-२२,३६-११३, १३२, १४१,१५१, १६० से १६६, १७५ १७६, १८४,२००, २०१,२२२, २२३ उक्कोसेण सई भवे ५-३ ३६-५०, ५३ २३-७८ २३-७६ २२-४८ १६-२८ २४-१२ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरझयणाणि उग्गा जहा धरिज्जति उच्च अट्ठविहं होइ उच्च नीयं च आहियं उच्चागोए य वण्णवं उच्चारं पासवणं उपारसमिसु प उच्चाराईणि वोसिरे उच्चारे समिई इय उच्चावयाई मुणिणो चरंति उच्चावयाहिं सेज्जाहिं उच्चोयए महु कक्के य बंभे उज्जहित्ता पलाय उज्जाणं नंदणोवमं उज्जाणंमि मणोरमे उज्जाणं संपत्तो उद्वित्ता अन्नमासणं उडूढं अहे य तिरियं च उपेचिय उह थिरं अतुरिव उड़ढ पक्कमई दिसं उड़पाओ अहोसिरो उडूढं बद्धो अबंधवो उमुहे निग्गयजीहनेत्ते उहाभितत्तो संपत्तो उहाहितत्ते मेहावी उत्तमंगं च पीडई उत्तमं मणहारिणो उत्तमगवेसए उत्तमट्ठगवेस ओ उत्तमम्भसुई हु दुल्लहा उत्तराई विमोहाई उत्तराओ य आहिया उत्ताणगछत्तगसंठिया य उदग्गे दुप्पहंसए उदही अक्खओदए उदही सरिनामाणं उदिण्णबलवाहणे उद्दायणो पव्वइओ उद्देसियं कीयगडं नियागं उद्देसेसु दाइ उमेण समूलजा उद्धरित समूलिये उद्धाइया तत्थ बहू कुमारा उत्तिते दिवायरे उदएण सोहिं बहिया विमग्गहा ? उदए व्व तेल्लबिंदू उदग्गचारित्ततवो महेसी ६४९ ३०-२७ उप्पज्जई भोत्तुं तहेव पाउं ३३-१४ ३३-१४ ३ - १८ २४-१५ १२-२ उभओ केसिगोयमा २४-१८ उभओ नंदिघोसेणं २४-२ उभओ निसण्णा सोहंति १२-१५ उभओ वि तत्थ विहरिंसु उभओ सीससंघाणं २-२२ २-२१ ३६-५० ३-१५ २६-२४ ३-१३; १६-८२ १६ ४६ १६- ५१ उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ३२-२८,४१,५४, ६७,८०,६३ उप्फालगदुट्टवाई य उभओ अस्सिया भवे १३-१३ उभयस्संतरेण वा २७-७ उम्मत्तो व्व महिं चरे ? उरं मे परिसिंचाई २०- ३ २५-३ उरगो सुवणपासेव २२-२३ उराला य तसा तहा उल्लंघणपल्लंघणे उल्लंघणे य चंडे य उल्लियो फालिओ गहिओ उल्लो सुक्को य दो छूढा उवइट्टे जो परेण सद्दहई उवउत्ते इरियं रिए उवउत्ते य भावओ १७-२ १२-२६ उवएसरुइ त्ति नायव्वो १६- ६० उवक्खडं भोयण माहणाणं ३४-२६ २८- ६ २३-१४ १-२५ १८- ५१ २०-२८ १४-४७ 99-919 २३- १८ २३-६ उस्सिचणाए तवणाए २३-१० उसुयारिति मे सुयं उस्सप्पिणीण जे समया ३४-३०,३२ परिशिष्ट १ पदानुक्रम १२-५ २- २१ उविच्च भोगा पुरिसं चयंति उवेइ ठाणं विउलुत्तमं धुवं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ ३६-१०७ २४-२४ ऊससियो १७-८ १६-६४ २५-४० २८-१६ २४-८ २४-७ २८-१६ १२-११ १- २० २०-८ २-६ उवचिट्ठ गुरुं सया २०-२१ उविट्ठओ सि सामण्णे २५-१७ उवट्टिया मे आयरिया ११-३२ उवणिज्जई जीवियमप्पमायं २०-२२ १३-२६ ३३-१५ १०-१८ ३६-६६ ३६-२१५ ३६-२१४ २५-६ उपभोगे वीरिए तहा उवमा जस्स नत्थि उ ५-२६ उवरिमाउवरिमा चैव ३३-१६ उवरिमामज्झिमा तहा ३६-६० उवरिमाहेट्टिमा चेव उवलेवो होइ भोगे उवले सिला य लोणूसे उववज्र्ज्जति आसुरे काए उववन्नो परमगुम्माओ उववन्नो माणुसंमि लोगंमि उववूह थिरीकरणे उवसंतमोहणिज्जो ३६ - २१४ २५-३६ ११-२४ ३६-७३ १२- ३८ २८-२२ १३- ३५ ८-१४ ११-२० ११- ३० ३३-१६,२१,२३ १८- १ १३-१ एएसिं संवरे चैव ६-१ एएहिं चउहिं ठाणेहिं २८-३१ एएहि ओमचरओ ६-१ एएहि कारणेहिं १५-१५ एओवमा कामगुणा विवागे एक्कारस अंगाई एक्केक्का णेगहा भवे उवसंते अविहेडए स भिक्खू १८- ४७ उवसंते जिइदिए २०४७ उवसंते मुणी चरे ३१-१७ उवसग्गाभिधारए एक्को वि पावाइ विवज्जयंतो ३२ ६ उवहसंति अणारिया एक्को सर्व पञ्चहोइ दुख २३- ४६ उवहिपच्चक्खाणं भंते! जीवे २६ सू० ३५ एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं एग एव चरे लाढे १२-४ १२-१६ उवासगाणं पडिमासु ३१-११ उर्वेति माणुसं जोगिं उवेहमाणो उ परिव्वज्जा उवेहे न हुणे पाणे उसिणपरियावेणं उस्सूलगसयग्धीओ उस्सेहो जस्स जो होइ ऊणाइ घासमेसंतो ऊणे वाससयाउए एए अहम्मे त्ति दुर्गुछमाणो एए कंदंति भो ! खगा एए खरपुढवी एए चेव उ भावे एएण कारणेणं एएण दुक्खोहपरंपरेण १३-३१ २०-५२ ३२-३३,४६,५६ ७२,८५,६८ ३-१६,७-२० एए तिन्नि विसोहए एए नरिंदवसभा एए परीसहा सव्वे २१-१५ २-११ २-८ ३०-५ १४-४८ ३४-३३ ६- १८ ३६-६४ ३०-२१ ७-१३ २०-५६ ४-१३ ६-१० ३६-७७ २८-१६ ३६-२६२ ३२-३४,४७,६०,७३ ८६,६६ २४-११ १८-४६ २-४६ २५-३२ २२-१७ ३२-१८ १८- ५१ २२-१६ ३०-४ एए पाउकरे बुद्धे एए भद्दा उ पाणिणो एए य संगे समइक्कमित्ता एए विसेसमादाय एए सव्ये सुतेसिणो एएसिं तु विवच्चासे एएसिं वण्णओ चेव ३६-८३,६१,१०५,११६, १२५,१३५,१४४, १५४, १६६, १७८, १८७, १६४, २०३, २४७ ३३-२५ १८- २३ ३०-२४ ३६-२६६ ३२-२० २८-२३ ३६- १८१ ३२-५ १३-२३ १४-४० २-१८ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६५० परिशिष्ट १: पदानुक्रम जाणार्ट १२-२४ २४-३ ३२-२६ एगओ य पवत्तणं -३१-२ एगे तिण्णे दुरुत्तरं ५-१ एयं सिणाणं कुसलेहि दिळं १२-४७ एगओ विरइं कुज्जा ३१-२ एगेत्थ रसगारवे २७-६ एयजोगसमाउत्तो ३४-२२,२४,२६, एगओ संवसित्ताणं १४-२६ एगे सुचिरकोहणे .२७-६ २८,३०,३२ एगं च अणुसासम्मी २७-१० एगो उप्पहपट्ठिओ २७-४ एयमट्ठ निसामित्ता ६-८,११,१३,१७,१६, एगं च पलिओवमं ३६-२२२ एगो एगित्थिए सद्धिं १-२६ २३,२५,२७,२६,३१,३३,३७,३६,४१, एगं जिणेज्ज अप्पाणं ६-३४ एगो चिटुंज्ज भत्तट्ठा १-३३ ४३,४५,५०,५२ एग डसइ पुच्छंमि २७-४ एगोत्थ लहई लाह ७-१४ एयमट्ठ सपेहाए एगंतमणावाए ३०-२८ एगो पडइ पासेणं २७-५ एयमट्ठ सुणेमि ता २०-८ एगंतमणुपस्सओ ६-१६ एगो भंजइ समिलं २७-४ एयाई अट्ठ ठाणाई २४-१० एगतमहिट्ठिओ भयवं ६-४ एगो मूलं पि हारित्ता ७-१५ एयाई तीसे वयणाइ सोच्चा एगंतरत्ते रुइरंसि गंधे ३२-५२ एगो मूलेण आगओ ७-१४ एयाए सद्धाए दलाह मज्झं १२-१२ एगतरत्ते रुइरंसि फासे ३२-७८ एत्तो अणन्तगुणं तहिं १६-४८ एयाओ अट्ट समिईओ एगंतरते रुइरंसि भावे ३२-६१ एत्तो अणंतगुणिया । १६-७३ एयाओ तिन्नि पयडीओ ३३-६ एगतरत्ते रुइरंसि रूवे एत्तो कालविभागं तु ३६-१५८,१७३,१८२ एयाओ दुग्गईओ या ३६-२५६ एगतरत्ते रुइरंसि सद्दे एत्तोणंतगुणे तहिं १६-४७ एयाओ पंच समिईओ २४-१६,२६ एगंतरत्ते रुइरे रसम्मि ३२-६५ एत्तो पम्हाए परएणं ३४-१४ एयाओ मूलपयडीओ ३३-१६ एगंतरमायाम ३६-२५३ एत्तो य तओ गुत्तीओ २४-१६ एयाणि वि न तायंति ५-२१ एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ३२-२ एत्तो वि अणंतगुणो ३४-१० से १३, एया पवयणमाया २४-२७ एगं तु सागरोवमं ३६-१६१ १५ से १६ एयारिसीए इड्ढीए २२-१३ एगं ते संजयं तयं २२-३५ एत्तो सकाममरणं १७-२० एयारिसे पंचकुसीलसंवुडे ५-१७ एगं विंधइभिक्खणं २७-४ एयाहि तिहि वि जीवो - एमेव असायस्स वि ३३-७ ३४-५६ एगं समयं जहन्नियं ३६-१४ एरिसे संपयग्गम्मि २०-१५ एमेव असुहस्स वि ३३-१३ एग समयं जहन्निया ३६-१३ एवं अणिस्सरो तं पि २२-४५ एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे एगकज्जपवन्नाणं ३२-१३ २३-१३,२४,३० एवं अदत्ताणि समाययंतो ३२-३१,४४,५७, एमेव गंधम्मि गओ पओसं एगखुरा दुखुरा चेव ३२-५६ ३६-१८० ७०,८३,६६ एमेव जाया पयहंति भोए एगग्गमणसनिवेसणयाए णं भंते ! "२६ सू० २६ १४-३४ ___ एवं अभित्थुणंतो ६-५६ एमेव जाया ! सरीरंसि सत्ता १४-१८ एगच्छत्तं पसाहित्ता १८-४२ एवं अलित्तो कामेहिं २५-२६ एमेव नन्नह त्ति य एगत्तं च पुहतं च । २८-१३ एवं आयरिएहिं अक्खायं ८-१३ एगत्तेण पुहत्तेण ३६-११ एमेव फासम्मि गओ पओसं एवं करंति संबुद्धा १६- ६ एमेव भावम्मि गओ पओसं एगत्तेण साईया ३६-६५ एवं करेंति संबुद्धा ६-६२, २२-४६ एमेव मोहाययणं खु तण्हं २५-६ एगदव्वस्सिया गुणा ३२-६ एवं कालेण ऊ भवे ३०-२१ एगप्पा अजिए सत्तू २३-३८ एमेव रसम्मि गओ पओसं ३२-७२ एवं खु तस्स सामण्णं २-३३ एगभूओ अरण्णे वा १९-७७ एमेव रूवम्मि गओ पओसं ३२-३३ एवं खेत्तेण ऊ भवे ३०-१८ एगयाचेलए होइ एमेव सद्दम्मि गओ पओसं एवं गुणसमाउत्ता २५-३३ एगया आसुरं कायं एमेवहाछंदकुसीलरूवे एवं च चिंतइत्ताणं २०-३३ एगया खत्तिओ होइ ३-४ एयं अकाममरणं ५-१७ एवं चरमाणो खलु ३०-२०,२३ एगया देवलोएसु ३-३ एयं चयरित्तकरं २८-३३ एवं जियं सपेहाए ७-१६ एगरायं न हावए ५-२३ एवं जीवस्स लक्खणं २५-११ एवं तत्थऽहियासए एगविहमणाणत्ता ३६-७७,८६,१००,११०, एयं डज्झइ मंदिरं ६-१२ एवं तत्थ विचिंतए २६-५० . ११६ एयं तवं तु दुविहं ३०-३७ एयं तवं तु दुविहं ३०-३७ एगवीसाए सबलेसु ३१-१५ एवं दंडेण फलेण हंता १२-१८ एवं ताय ! वियाणह १४-२३ एगामोसा अणेगरवधुणा २६-२७ एयं धम्महियं नच्चा २-१३ एवं तु नवविगप्पं ३३-६ एगा य पुव्वकोडीओ ४६-१७५ एवं पंचविहं नाणं २५-५ एवं तु संजयस्सावि ३०-६ एगूणपण्णहोरत्ता ३६-१४१ एयं पत्थं महाराय ! १४-४८ तु संसए छिन्ने २३-८६; २५-३४ एगे ओमाणभीरुए थद्धे २७-१० एयं परिन्नाय चरंति दंता १२-४१ एवं ते इड्डिमंतस्स २०-१० एगे कूडाय गच्छई ५-५ एयं पुण्णपयं सोच्चा १५-३४ एवं ते कमसो बुद्धा १४-५१ एगे जिए जिया पंच २३-३६ एयं मग्गमणुपत्ता २८-३ एवं ते रामकेसवा २२-२७ एगेण अणेगाई २८-२२ एयं मे संसयं सव्वं २५-१५ एवं थुणित्ताण स रायसीहो. २०-५८ WWW.. ३२-६८ २-१३ WAN لبه २-२३ Jain Education Intemational Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि एवं दव्वेण ऊ भवे एवं दुपंच संजुत्ता एवं दुस्सीलपडिणीए एवं धम्मं अकाऊण एवं धम्मं चरिस्सामि एवं धम्मं पि काऊणं एवं धम्मं विउक्कम्म एवं धम्मं वियाणह एवं नच्चा न सेवंति एवं नाणेण चरणेण एवं नीयं पि आहियं एवं पया पेच्च इहं च लोए एवं पि विहरओ मे एवं पुत्ता ! जहासुहं एवं पेहेज्ज संजए एवं वाले अहम्मिट्ठे एवं भवसंसारे एवं भुत्ताण भोगाणं एवं मणुयाण जीवियं एवं माणुसगा कामा एवं मुणी गोयरियं पविट्टे एवं मे अच्छिवेयणा एवं लग्गति दुम्मेा एवं लोए पलित्तम्मि एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा एवं विणयजुत्तस्स एवं वियाणहि जणे पमत्ते एवं वियारे अमियप्पयारे एवंविहे कामगुणेसु सत्तो एवं तो रियो सो एवं समुडिओ भिक्खू एवं ससंकष्पविकप्पणासुं एवं सिक्खासमावन्ने एवं सीलं चइत्ताणं एवं से विजयघोसे एवं से उदा अगुत्तरी एवं सो अम्मापियरो एवं हवइ बहुस्सुए एवमदीयं भिक्खु एवमभंत तवो एवमस्सामि अप्पाणं एवमादाय मेहावी एवमावजोणी एमेहा पुगो एवमेव जय एवमेयाइ कम्माई ३० - १५ २६-७ १४ १६- १६ १६-७७ १६- २१ ५- १५ १६ - ८२ ३२- १०७ ५- २४ ७-१५ एस अग्गी य वाऊ य २-३५ एसणासमिओ लज्जू एस धम्मे धुवे निअए १६-६४ ३३-१४ एस मग्गो ति पन्नत्तो ४-३ एस मग्गे हि उत्तमे २-४३ १६ -८४ २-२७ ७-४ १०-१५ १६-१७ १- ५ २५-४२ ६-१७ १६ - ८६ ११-१६ से ३० एवमेव अणेगओ एवमेव वयं मूढा एवमेव वियाहिए ७-२२ २८-३४ ३०-७ २-४१ २-१७ ३-५ ३६-७०,८४,६२ १०८, ११७ १६- ४४, ७६ ३३-३ ६५१ एवारिएहिं अक्खायं एविंदियग्गी वि पगामभोइणो एविंदियत्था य मणस्स अत्था एवुग्गदंते वि महातवोधणे १०-१,२ एसा दसंगा साहूणं एसा नेरइयाणं ७-१२,२३ १६-८३ एसा मज्झ अणाहया २०-२० एसा सामायारी २५-४१ एसे व धम्मो विसओववन्नो १६- २३ एसो अभितरी तवो १३-३० एसो बाहिरगतवो १- २३ ४-१ ३२-१०४ एसोवमा सासयवाइयाणं एसो हु सो उग्गतवो महप्पा एहा य ते कयरा संति ? भिक्खू ३२- १०३ एहि ता भुंजिमो भोए २०-१३ एस लोए वियाहिए एस लोगो त्ति पन्नत्तो एस से परमो जओ एसा अजीवविभत्ती एसा खलु लेसाणं एसा तिरियनराणं ८-८ ३२-११ ३२-१०० २०-५३ ६-१२ ६-१६ १६-१७ २८-२ २३-६३ ३६-२ २८-७ ६-३४ ३६-४७ ३४-४० ३४-४७ २६-४ ३४-४४ २०-२३ से २७,३० २६-५२ २०-४४ ३०-३० ३०-२६ ४-६ १२-२२ ! १२-४३ २२- ३८ १६ -८२ १४-४३ ३६-६ (ओ) ओइण्णो उत्तमाओ सीयाओ ओइण्णो पावकम्मुणा ओइण्णो सि पहं महालयं ओभासई सूरिए वंतलिक्खे ओमचेलए पंसुपिसायभूए ओमचेलगा पंसुपिसायभूया ओमासणाणं दमिइंदियाणं ओमोयरियं पंचहा ओयणं जवसं देज्जा ओराला तसा जे उ ओरुज्झमाणा परिरक्खियंता ओहिजलिया जलकारी य ओहिनाणं तइयं ओहिनाणसुए बुद्धे ओहिनाणं तइयं ओहेण ठिई उ वण्णिया होइ ओहोवहोवग्गहियं २२-२३ १६-५५ १०-३२ २१-२३ १२-६ १२-७ ३२-१२ ३०-१४ परिशिष्ट १ पदानुक्रम क कओ विज्जाणुसासणं ? कंखे गुणे जाव सरीरभेओ कंचि नाभिसमेम ऽहं कंठम्मि घेत्तूण खलेज्ज जो णं ? कंतारं अइवत्तई कंदतो कंदुकुम्भीसु कंदप्पं भावणं कुणइ कंदप्पा तह कंदप्पमाभिओगं कंदलीय कुटुंबए कंदे सूरणए तहा कंपिल्लम्मि य नयरे कपिल्लुणकेसरे कंपिल्ले नयरे राया कपिल्ले संभूओं कंसं दूसं च वाहणं कक्खडा मउया चेव कट्टु वच्छरे दुवे कट्टु संवच्छरे मुणी कडं कडे त्ति भासेज्जा 9-99 कडं लहूण भक्खए ६-१४ कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि ४-३; १३-१० कोकाहिं दुक्करं १६- ५२ कणकुंडगं चइत्ताणं १-५ ४-१ कण्णू विहिंसा अजया गहिंति कण्हे य वज्जकंदे य कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? ३६-६८ १३-२३ ३२-३२ ४५, ५८, ७१,८४,६७ कत्थ गंतूण सिज्झई ? कप्पइ उ एवमाई कप्पं न इच्छिज्ज सहायलिच्छू कप्पाईया उ जे देवा कप्पाईया तहेव य कप्पासट्ठिमिंजा य ६-१० ४-१३ २०-६ १२-१८ २७-२ १६-४६ ३६-२६३ ३६-२६३ ३६-२५६ कप्पिओ फालिओ छिन्नो कप्पो मज्झिमगाणं तु कप्पोवगा बारसहा कप्पोवगा य वोद्धव्वा कमेण अच्चंतसुही भवंति कमेण सोसणा भवे ७-१ ३६ १२६ १४ - २० ३६ - १४८ ३३-४ कम्मं च जाईमरणस्स मूलं २३-३ कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति २८-४ कम्मं तु कसायजं ३४-४० कम्मं नोकसायजं २४-१३ कम्म एहा संजमजोगसंती ३६-६७ ३६-६८ १३-३ १८- ३ १८- १ १३-२ ६-४६ ३६-१६ ३६-२५५ ३६-२५५ ३६-५५ ३०-१८ ३२-१०४ ३६-२१२ ३६-२०६ ३६-१३८ १६-६२ २३-२७ ३६-२१० ३६-२०६ ३२-१११ ३०-५ ३२-७ ३२-७ ३३-११ ३३-११ १२-४४ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६५२ परिशिष्ट १: पदानुक्रम २४-२ कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ १३-२४ कहं ते निज्जिया तुमे? २३-३५ कायकिलेसं तमाहियं ३०-२७ कम्मसंगेहिं सम्मूढा ३-६ कहं धीरे अहेऊहिं १८-५३ कायकिलेसो संलीणया य ३०-८ कम्मसच्चा हु पाणिणो ७-२० कहं धीरो अहेऊहिं १८-५१ कायगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं...२६ सू०५६ कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले ४-४ कहं नाहो न विज्जई? २०-१० कायगुत्ती य अट्ठमा कम्माणं तु पहाणाए ३-७ कहं नाहो भविस्ससि? २०-१२ कायगुत्तो जिइंदिओ १२-३; २२-४७ कम्माणि बलवंति ह २५-२८ कहं पडियरसी बुद्धे? १८-२१ कायचिट्ठ पई भवे ३०-१२ कम्माणुहि अप्पणो ५-११ कहं पारं गमिस्ससि? २३-७० कायट्टिई आऊणं ३६-८६ कम्माणाणफला कडा २-४० कहं विज्झाविया तुमे? २३-५० कायट्टिई जलयराणं ३६-१७६ कम्मा नाणाविहा कटु ३-२ कहं विणीए त्ति वुच्चसि? १८-२१ कायट्टिई तेऊणं ३६-११४ कम्मा नियाणप्पगडा १३-८ कहं विप्पच्चओ न ते? २३-२४,३० कायट्टिई थलयराणं ३६-१८६ कम्मा मए पुरा कडा १३-६ कहं सुजठं कुसला वयंति? १२-४० कायट्टिई मणयाणं ३६-२०२ कम्मुणा उववायए १-४३ कहण्णु जिच्चमेलिक्खं ७-२२ कायट्टिई वाऊणं ३६-१२३ कम्मुणा तेण संजुत्तो १५-१७ कहिं पडिहया सिद्धा? ३६-५५ कायटिई खहयराणं ३६-१६३ कम्मुणा बंभणो होइ २५-३१ कहिं बोदिं चइत्ताणं? ३६-५५ कायठिई पणगाणं ३६-१०३ कम्मुणा होइ खत्तिओ २५-३१ कहिं मन्नेरिसिं रूवं १६-६ कायठिई पुढवीणं ३६-८१ कयकोउयमंगलो २२-६ कहिंसि ण्हाओ व रयं जहासि? १२-४५ कायव्वं अगिलायओ २६-१० कयरे आगच्छइ दित्तरूवे १२-६ कहिं सिद्धा पइट्ठिया? ३६-५५ कायसमाहारणयाए णं भंते ! २६ सू०५० कयरे खल ते थेरेहिं भगवंतेहिं १६ सू० २ कति ते एक्कमेक्कस्स १३-३ कायसा वयसा मत्ते ५-१० कयरेण होमेण हुणासि जोइं? १२-४३ काउलेसं तु परिणमे ३४-२६ कायस्स फासं गहणं वयंति ३२-७४,७५ कयरे ते खलु बावीसं परीसहा...२ सू० २ काउलेसा उ वण्णओ ३४-६ कायस्स विउस्सग्गो ३०-३६ कयरे तमं इय अदंसणिज्जे १२-७ काउस्सग्गं तओ कुज्जा २६-३८,४१,४६,४६ कारणमि समट्टिए। २६-३१ कायविक्कओ महादोसो ३५-१५ काउस्सग्गं तु पारित्ता २६-५० कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से ३२-१०३ कयविक्कयम्मि वट्टतो ३५-१४ काउसग्गेणं भंते ! जीवे.... २६ सू० १३ कालओ जाव रीएज्जा २४-७ करकण्डू कलिंगेसु १८-४५ काऊए ठिई जहन्निया होई ३४-४१ कालओ भावओ तहा २४-६; ३६-३ करणसच्चेणं भंते | जीवे किं.... २६ सू०५२ काऊण य पयाहिणं २०-७,५६ कालं अणंतमुक्कोसं ३६-१६३ करवत्तकरकयाईहिं १६-५१ काएण फासेज्ज परीसहाई २१-२२ काल तु पडिलेहए २६-४५ करेज्ज सिद्धाण संथवं २६-५१ काए व आसा इहमागओ सि १२-७ कालं तु पडिलेहिया २६-४४ करेणुमग्गावहिए व नागे ३२-८६ काणणुज्जाणसोहिए। १९-१ कालं संखाईयं १०-५ से ८ करेंति भिउडि मुहे २७-१३ का ते सुया? किं व ते कारिसंगं १२-४३ कालं संखिज्जसन्नियं १०-१०,११,१२ कलं अग्घइ सोलसिं ९-४४ कामं तु देवीहि विभूसियाहिं ३२-१६ कालं संपडिलेहए २६-४२ कलंववालुया य १६-५० कामगिद्धे जहा बाले ५-४ कालकंखी परिब्बए ६-१४ कलहडमरवज्जए ११-१३ कामभोगरसन्नुणा १९-२८ कालधम्मे उव्वट्टिए ३५-२० कल्लाणं अदुव पावर्ग २-२३ कामभोगाणुराएणं ५-७ कालपडिलेहणयाए णं भंते !...२६ सू० १६ कल्लाणमणुसासंतो १-३८ कामभोगा य दुज्जया १६-१३ कालमणंतदूरंतं १०-६ कविलेणं च विसुद्धपन्नेणं ८-२० कामभोगे परिच्चज्ज १८-४८ कालमणंतमुक्कोसं ३६-१८६ कसं व दळुमाइण्णे १-१२ कामभोगे य दुच्चए १४-४६ कालम्मि तम्मिसहरा भवंति १३-२२ कसायपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे... २६ सू० ३७ कामभोगेसु गिद्धेणं १३-२८ कालिया जे अणागया कसायमोहणिज्जं तु ३३-१० कामभोगेसु मुच्छिओ १३-२६ कालीपव्वंगसंकासे । कसाया अग्गिणो वुत्ता २३-५३ कामभोगेसु मुच्छिया १४-४३ काले कालं समायरे १-३१ कसाया इंदियाणि य २३-३८ कामरागविवणिं १६-२ कालेण काल विहरेज्ज रहें २१-१४ कसिणं पि जो इमं लोयं ८-१६ कामरागविवडणे ३५-५ कालेण निक्खमे भिक्खू १-३१ कस्स अट्ठा इमे पाणा कामरूवविउविणो ३-१५ कालेण य अहिज्जित्ता १-१० कस्सट्ठाए व माहणे? १५-२१ कामरूवी भविस्ससि ६-५ कालेण य पडिक्कमे १-३१ कस्स हेउं पुराकाउं ७-२४ कामा आसीविसोवमा ६-५३ काले य दिवसे वुत्ते २४-५ कह अणाहो भवइ ? २०-१५ कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं ३२-१६ काले विगराले फोक्कनासे कहं चरे? भिक्खु ! वयं जयामो? १२-४० कामे पत्थेमाणा ६-५३ कालो पुग्गलजंतवो २८-७,८ कहं तं विहरसी? मुणी! २३-४० कामे संसारवड्डणे. १४-४७ कालोमाणं मूणेयव्यो ३०-२० कहं तेण न हीरसि? २३-५५ कायं पवत्तमाणं तु २४-२५ कालोवणीए सरीरस्स भए १२-६ Jain Education Intemational Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि का वा अमोहा वृत्ता ? कावोया जा इमा वित्ती कासवेणं पवेइया कासवेण पवेइया कासि नियाणं तु हत्थिणपुरम्भि किं कायव्वं मए इहं ? किं तवं पडिवज्जामि किं ते जुज्झेण बज्झओ किं नाम काहामि सुएण भंते! किं नाम होज्ज तं कम्मयं किंनामे ? किंगोत्ते ? किं नु चित्ते वि से तहा ? किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ किं मज्झ दुट्ठसीसेहिं किं माहणा! जोइसमारभंता किं रज्जम्मि पसज्जसि ? किं हिंसाए पसज्जसि ? किच्चाई कुव्वइ सया किणतो काइओ होइ किष्णु भो ! अज्ज मिहिलाए किण्हले सं तु परिणमे किण्हलेसा उ वण्णओ किण्हाए ठिई जहन्निया होई किण्हा नीला काऊ किण्हा नीला उ काऊ य किण्हा नीला य रुहिरा य किण्हा नीला य लोहिया किब्बिसिय भावणं कुणई किब्बिसियं मोहमासुरत्तं च किमज्ज जन्नाण लहित्थ लाहं ? किमिणो सोमंगला चेव किमेगरायं करिस्सइ किरियं अकिरियं विणयं किरियं च रोयए धीरे किरियासंखेवधम्मरुई किरिवासु भूषणामेसु किलिन्नगाए मेहावी किसे धमणिसंतए कीलए सह इत्थिहिं कीलंतन्ने नरा रायं ! कीवेणं समणत्तणं कीस णं नावपेक्खसि ? कुइयं रुइयं गीयं कुंजरे सहाय कुंथुपिवीलिउड्डंसा कुंथूनाम नराहियो कुक्कुडे सिंगिरीडी य कुच्चफणगपसाहिए १४ - २२ १६-३३ ८-१ १८- २१ २-१ कुटुंबसारं विउलुत्तमं तं २- ४६ १३- १ २६-६ २६-५० ६-३५ १७-२ १३-६ १०-३४ २७-१५ १२- ३८ १२-१७ ३६- १२८ २-२३ १८- ३३ १८- २३ ६५३ २८-१६ ३१-१२ कुज्जा दुक्खविमोक्खणं कुट्टिओ फालिओ छिन्नो २-३६ २-३ १६-३ कुणइ पमाणि पमायं कुतित्थिनिसेवए जणे कुद्धे कुमारे परिनिव्ववेइ कुमुयं सारइयं व पाणियं कुररी दिवा भोगरसाना कुलेसु दग्गेसु य ते पसूया कुसं च जूवं तणकट्ठमग्गि कुसग्गमेत्ता इमे कामा १८- १२ कुसग्गेण जह ओसबिंदुए तु भुज कुसचीरेण न तावसो १८ - ११ १-४४ २५-१४ ६-७ ३४ - २२ कुसीललिंगं इह धारइत्ता २४-४ कुहाडकरसुमाईहिं ३४-४८ कुहगा य तहेव य ३४-५६ कुहेडविज्जासवदारजीवी ३४-३ कूवंतो कोलसुणएहिं ३६-७२ के एत्थ खत्ता उवजोइया वा ३६-१६ केई चुया एगविमाणवासी ३६-२६५ केण अब्भाहओ लोगो ? ३६-२५६ केण वा परिवारिओ ? कुद्धे गच्छइ पडिप्पहं कुद्धे तेएण अणगारे कुप्पवयणपासंडी कुप्पहा बहवो लोए कुमारगा ते पसमिक्ख वक्कं कुमारेहिं अयं पिव के ते जोई ? के व ते जोइठाणे ? के ते हरए ? के य ते संतितित्थे ? केरिसो वा इमो धम्मो ? केवलं बोहि बुज्झिया केसं संपडिवज्जई केसलोओ य दारुणो केसा पंडुरया हवंति ते केसिं गोयममब्बवी केसिमेवं बुवंतं तु १८-१६ केसिमेवं बुवाणं तु १६-४० केसीकुमारसम ६-१२ केसीगोयमओ निच्वं १६- ५,१२ केसी गोयममब्बवी ११-१८ ३६-१३७ केसी घोरपरक्कमे १८- ३६ ३६ - १४७ कोइ पोसेज्ज एलयं कोइलच्छदसन्निभा २२- ३० को करिस्सइ उज्जोयं २६-२१ १६- ६६ १४- ३७ २६-२७ को जाणइ परे लोए कोट्टगं नाम उज्जाणं कोट्ठागारे सुरक्खिए कोडीए वि न निट्टियं कोडीसहियमायामं १०-१८ १२-२० को णं ताहे तिगिच्छई ? २७-६ को नाम ते अणुमन्नेज्ज एवं १८- १० कोलाहलगभूयं २३-६३ कोलाहलगसंकुला २३-६० को वा से ओसहं देई ? को वा से पुच्छई सुहं ? कोसं वढावइत्ताणं १४-११ १६-६७ १०-२८ कोसंबी नाम नयरी २०-५० १४-२ को से भत्तं च पाणं च कोसो उवरिमो भवे १२-३६ कोई असच्चं कुव्वेज्जा ७-२४ १०-२ ६-४४ २५-२६ २०-४३ १६-६६ ३६-६८ २०-४५ १६- ५४ १२-१८ 98-9 १४-२२ १४-२२ १२-४३ १२-४५ २३-११ ३-१६ ५-७ १९३३ १०-२१ से ३६ २३-२२ २३- ४२,४७,५२,५७, ६२, ६७,७२,७७, ८२ २३- ३१ २३- २, ६, १६, १८ २३-८८ २३-२१,३७,४२, ४७, ५२,५७,६२,६७,७२,७७,८२ परिशिष्ट १ पदानुक्रम २३-८६ कोहं च माणं च तहेव मायं कोहविजएणं भंते! जीवे कोहा वा जइ वा हासा कोहे माणे य मायाए कोहो य माणो य वहो य जेसिं (ख) ..... खंजणंजणनयणनिभा खंडाई सोल्लगाणि य खंतिं निउणपागारं खंति सेविज्ज पंडिए खंतिक्खमे संजयबंभयारी खंतिसोहिकरं पयं खंतीए णं भंते! जीवे किं खंतीए मुत्तीए खंतो दंतो निरारंभो ७- १ खलुंकेहिं समागओ ३४-६ खवणे य जए बुहे खवित्ता पूव्वकम्माई २३-७५ ५-६ २३-८ ११-२६ ८-१७ ३६-२५५ १६-७८ १४-१२ ६-५ 61-7 १६-७६ १६-७६ ६-४६ २०-१८ १६-७६ ३६-६२ 9-98 ३२-१०२ २६ सू० ६८ २५-२३ २४-६ १२-१४ ३४-४ १६-६६ ६-२० १-६ २१-१३ १-२६ २६-४७ २२-२६ २०-३२,३४ ३६-१० ३६-११ ३४-१५ १-३८ १६-१४ खंधा य खंधदेसा य खंधा य परमाणुणो खजूरमुद्दियरसो २०-३० बहुकालदुक्खा १४-१३ खड्डया मे चवेडा मे खणं पि न रमामहं खणं पि मे महाराय ! खणमेत्तसोक्खा खत्तिए परिभासइ खत्तियगणउग्गरायपुत्ता खमावणयाए णं भंते जीवे किं २६सू. १८ खरा छत्तीसईविहा १८-२० १५-६ खलुंका जारिसा जोज्जा खलुंके जो उ जोएइ ३६-७२ २७-८ २७-३ २७-१५ ३३-२५ २५-४३ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि खवित्तु कम्मं गइमुत्तम गमा खवेइ तवसा भिक्खू खवेइ नाणावरणं खणेणं खवेत्ता पुव्वकम्माई खहयरा या बोद्धव्वा खाइत्ता पाणियं पाउं खाइमसाइमं परेसि लधुं खाए समिद्धे सुरलोगरम्मे खाणी अणत्थाण उ कामभोगा खामेमि ते महाभाग ! खाविओ मि समसाई खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं खिप्पं निक्खमसू दिया खिष्पं मयविवड्ढणं खिष्पं संपणामए खिप्पं से सव्वसंसारा खिप्पं हवइ सुचोइए खिप्पमागम्म सो तहिं खीरदहिसप्पिमाई खीरपूरसमप्पभा खीररसो खंडसक्कररसो वा खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु बुड्डेहिं सह संसग्गिं खुद्दो साहसिओ नरो खुरधाराहिं विवाइओ खुरेहिं तिक्खधारेहिं खेडे कोणत खेत्तं हिं धणधन्नं च सव्वं खेत्तं वत्युं हिरण्णं च खेत्ताणि अम्हं विइयाणि लोए खेमं च सिवं अणुत्तरं खेमं सिवं अणाबाहं खेमं सिवमणाबाह खेमेण आगए चंप खेलं सिंघाणजल्लियं खेल्लंति जहा व दासेहिं खेवियं पासबद्धेणं ग गइप्पहाणं च तिलोयविस्सुयं गइलक्खणो उ धम्मो गई तत्थ न विज्जई गई सरणमुत्तमं गठिए य तक्करे गठियसत्ताईय गंडवच्छासु ऽणेगचित्तासु गंडीमयसणप्पया गंतव्वमवसस्स ते ११-३१ गंतव्वमवसस्स मे ३०- १ ३२- १०८ २८-३६ ३६ - १७१ १६ ८१ १५-१२ 98-9 १४-१३ २०-५६ १६-६६ ४-१० २५-३८ १६-७ २३- १७ ३१-२१ १–४४ गंधमल्लविलेवणं गंधवासाण पिस्समाणाणं गंधस्स घाणं गहणं वयंति गंधाणुगासाणुगए य जीवे गंधाणुरत्तस्स नरस्स एवं गंधाणुवाएण परिग्गहेण गंधारेसु य नग्गई गंधे अतित्तस्स परिग्गेह य १८- ६ गंधे अतित्ते य परिग्गहे य ३०-२६ गंधे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ३४-६ गंधे विरत्तो मणुओ विसोगो ३४-१५ गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं १४ - १८ गंभीरे सुसमाहिए १-६ गच्छई उ परं भवं ३४-२१,२४ गच्छई मिगचारिय गच्छंति अवसा तमं १६-५६ १६-६२ गच्छंतो सो दुही होई ३०-१६ गच्छंतो सो सुही होई १३-२४ ३-१७;१६-१६ १२-१३ १०-३५ २३- ८३ २३- ८० २१-५ २४-१५ ८- १८ १६- ५२ ६५४ १६-१६ ३६- २८ ३६-२७ गंधओ जे भवे दुब्भी गंधओ जे भवे सुब्भी गंधओ परिणया जे उ ३६-१७ गंधओ फासओ चेव ३६-२६ से ३३ गंधओ रसओ चैव ३६-३४ से ४६ गंधओ रसफासओ ३६-८३,६१,१०५, ११६ १२५, १३५, १४४,१५४, १६६, १७८, १८७, १६४, २०३,२४७ २०-२६ ३४- १७ ३२- ४६ ३२- ५३ ६-२८ ३३-१७ ८- १८ गच्छ क्खलाहि किमिहं ठिओसि गच्छ पुत ! जहासुहं गच्छसि मग्गं विसोहिया गच्छामि राय ! आमंतिओ सि गच्छे जक्खसलोगयं गत्तभूसणमिट्टं च गद्दभालिस्स भगवओ गद्दभाली ममायरिया गब्भवक्कतिया जे उ गब्भवक्कंतिया तहा गमणे आवस्सियं कुज्जा गयण चउब्भागसावसेसंमि गयमाइ सीहमाइणो ३२-५८ ३२- ५४ १८- ४५ ३१-५६ ३२- ५५ ३२-५७ १२-७ १६- ८५ १०-३२ १३-३३ ५- २४ १६- १३ १८- १६ १८- २२ ३६- १६६ ३६ - १७०, १६५ परिशिष्ट १ : पदानुक्रम गवासं मणिकुंडलं गवेसणाए गहणे य महा तारागणा तहा गहिओ लग्गो वद्धो य गाढा य विवाग कम्मुणो गाणंगणिए दुब्भूए गामगए नगरे व संजए गामाणुगामं रीयंतं गामाणुगामं रीयंते गामे अणियओ चरे गामे नगरे तह रायहाणि गामे वा नगरे वावि गायं नो परिसिंचेज्जा गारत्था संजमुत्तरा गारत्थेहि य सव्वेहिं ३२ ६० गाहासोलसएहिं ३२-५० २७-१७ १८- १७ १६ -८१ गिद्धो सि आरंभपरिग्गहेसु गिरिं रेवययं जंती ७-१० १६-१८, १६ १६- २०,२१ गिरिं नहेहिं खणह गिलाणो परितप्पई ? गिहंसि न रई लभे गिहकम्मसमारंभे गारवेसु कसाएसु गाहग्गहीए महिसे वरन्ने गाहाणुगीया नरसंघमज्झे गाहा य मगरा तहा गिज्झ वारि जलुत्तमं गिण्हंतो निक्खवंतो य गिद्धोवमे उ नच्चाणं गिहत्थाणं अणेगाओ गिहवासं परिच्चज्ज गिहवासे वि सुव्वए गिहिणो ज पव्वइएण दिटठा गिहिनिसेज्जं च वाहेइ गिहिलिंगे तहेव य गुणवंताण ताइणं गुणाणं तु महाभरो गुणाणं तु सहस्साइं ६-५ २४-११ ३६-२०८ १६-६५ १०-४ १७-१७ १०-३६ २-१४ गुणाणमासओ दव्वं गुणाहियं वा गुणओ समं वा गुणुत्तरधरो मुणी २३-३,७३२५-२ ६-१६ ३०-१६ २-१८ २-६ ५-२० ५-२० १६-६१ २६-५ १६-६७ २८-६ गयासं भग्गगत्तेहिं २३-६६ गरहं नाभिगच्छई २३-६८ गुत्ती नियत्तणे वृत्ता २६-२० ३६- १८० १६- ६१ १-४२ गरहणयाए णं भंते! जीवे किं २६ सू. ८ गुत्तीहि गुत्तस्स जिइंदियस्स गरुया लहुया तहा ३६-१६ गुरुओ लोहभारो व्व गलिगद्दहे चइत्ताणं २७-१७ गुरुं वंदित्तु सज्झायं गलियस्सं व वाहए गलेहिं मगरजालेहिं १८-१२ गवलरिट्ठग सन्निभा ३६-१८० १-३७ गुरुपरिभावए निच्च १६-६४ गुरुभत्तिभावसुस्सूसा ३०-३२ ३४-४ गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए णं भंते! २६ सू. ५ ३२-७६ १३-१२ ३६-१७२ ३१-१३ २३-५१ २४-१३ १४-४७ १३-३३ २२-३३ १२-२६ ५-११ १४-२१ ३५-८ २३-१६ ३५-२ ५-२४ १५-१० १७-१६ ३६-४६ २३-१० १६-३५ १६-२४ २८-६ ३२-५ १२-१ २४-२६ १२-१७ १६-३५ २६-२१ 919-90 Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि गुरुणमणुववायकारए गुरूणमुववायकारए गूढा सज्झायतवसा गेव्हणा अवि दुक्करं गेद्धी पओसे य सढे विज्जाऽणुत्तरा चेव गेविज्जा णवविहा तहिं गोगुलिओ गोजिब्भाए व सागपत्ताणं गोपुरट्टालगाणि च गोमुत्तिपयंगवीहिया चेव गोमेज्जए य रुयगे गोयं कम्मं दुविहं गोयमं इणमव्ववी गोयमं तु महायसं गोयमं दिस्समागयं गोयमस्स निसेज्जाए गोषमे परूियन्नू गोयमे य महायसे गोयमो इणमब्बवी (घ) घणगुंजा सुद्धवाया य घणो य तह होइ वग्गो य घयसित्त व्व पावए घरेसु वा एवमित्तियं खेत्तं घाणस्स गंध गहणं वयंति घाणिदियनिग्गणं भंते ! जीवे ... घिसु वा परियावेणं घोरं घोरपरक्कमा घोरव्वओ घोरपरक्कमो य घोराओ अइदुस्सहा घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं घोरासमं चइत्ताणं घोरे संसारसागरे ३३-१४ २३-२२ २३-८६ २३-१६ २३-१७ २३-१५ २३-६, १८ २३-२१,२५,३१, ३७, ४२, ४७, ५२, ५७, ६२, ६७,७२,७७,८२ गोयमो कालगच्छवी गोयरग्गपविट्ठस्स गोलया मट्टियामया गोवालो भंडवालो वा गोहाई अहिमाई य चइऊण गेहं वइदेही [ऊण देशी) चइऊण देवलोगाओ चइऊण बालभावं १-३ १-२ चइऊणमासणं धीरो चइत्ता उत्तमे भोए २५-८ चइत्ताणं इमं देहं १६-२७ चइत्ताणं मुणी चरे चइत्ता भारहं वासं चइत्ता विउलं रज्जं ३४-२३ ३६-२१२ ३६ - २१२ २६-२३ ३४-१८ ६५५ चइत्तु देहं मलपंकपुव्वयं चइत्तु भोगाइ असासयाई चउकारणपरिसुद्धं ६-१८ चउक्कतियचच्चरे ३०-१६ चउक्कारणसंजुत्तं ३६-७५ २२-५ २-२६ २५-४० २२-४५ ३६- १८१ १-२१ १८-४१ १६- १६ १८- ४४ १८- ३६,३८, ४१ १४-४६ १ - ४८ १३-२० २४-४ १६-४ २८-१ चउन्हं पि उ जत्तिओ भवे कालो ३०-२० ३६-२६७ २४-२०, २२ ३६-१६३ २६-३६ चम्मे उ लोमपक्खी य २६-२ चरंतं विरयं लूहं २६-१८ चरणविहिं पवक्खामि ११-२२ चरणस्स य पवत्तणे ३६-२२७ चरणे दुविहं भवे ३६-२२८ चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु ३६-१७६ चराचरे हिंसइणेगरूवे ३६-१७६ चउत्थम्मि जहन्नेणं चउत्थी असच्चमोसा चउत्थी जहन्नेणं चउत्थीए पोरिसीए चउत्थी पडिपुच्छणा चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं चउदसरयणाहिवई चउद्दस सागराई चउद्दस सागरोवमा चउप्पया चउव्विहा चउप्पया य परिसप्पा चउभागूणाए वा चउरंगं दुल्लहं मत्ता चउरंगिणीए सेनाए उरिदिय आउठिई चउरिदियकायटिई चउरिदियकायमइगओ चउरिंदिया उ जे जीवा ३६-११८ ३०-१० ३-१२ चउरुड्ढलोए ए दुवे समुद्दे चउरोपंचिंदिया चेव ३०-१८ ३२- ४८, ४६ २६ सू. ६५ २-८,३६ १४-५० १२-२३,२७ १६-७२ चउविया ते वियाहिया चउवीसं सागरोवमा चउवीसं सागराई चउवीसत्थएणं भंते! जीवे किंचउव्विहे वि आहारे चउव्विहे सद्दहाइ सयमेव ४-६ चउसुं पि विययाईसुं ६-४२ चउसु वि गईसु एत्तो चउहा ते पकित्तिया चंदणगेरुयहंसगब्भ चंदणा य तहेव य ६-६१ चंदप्पहवेरुलिए १८-४४ चंदसूरसमप्पभा ६-१ चंदा सूरा य नक्खत्ता ७-३० चंपाए पालिए नाम २५-३८ चक्कंकूस लक्खणे मुणिवरस्स परिशिष्ट १ पदानुक्रम चक्कवट्टी नराहिओ १८-४१ चक्कवट्टी महिड्डिए ११-२२ चक्कवट्टी महिडिओ १३- ४, १८-३६ से ३८ चक्खिदियनिग्गणं भन्ते ! जीवे २६ सू० ६४ चक्खुगिज्झं विवज्जए चक्खुदिट्ठा इमा रई १६-४ ५-५ चक्खुमचक्खुओहिस्स चक्खुसा पडिलेहए चक्खुसा पडिलेहित्ता चक्खुस्सरूवं गहणं वयंति चत्तपुत्तकलत्तस्स चत्तारि कामखंधाणि चत्तारि जहन्नाए चत्तारि परमंगाणि चत्तारि य गिहिलिंगे चरितं चैव निच्छाए चरित्तंमि तवंमि य ३६-७६ चामराहि य सोहिए २३-१८ चारितं होइ आहियं ३६-२०८ चारुल्लवियपेहियं २१ -१ चावेयव्वा सुदुक्करं ६-६० चासपिच्छसमप्पभा ३३-६ ३०-२१ चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ ३-२० चरिज्ज भिक्खू सुसमाहिइंदिए चरितं च तवो तहा २२-१२ ३६-१५१ ३६-१५२ २८-२,३,११ २३-३३ २६-४७ २०-५२ १०-१२ चरित्तमायारगुणन्निए तओ ३६- १४५ ३६-५४ चरितम्मि तहेव य चरित्तमोहणं कम्म ३३-१० २६-३६ ३६-१२६ चरित्तसंपन्नयाए णं भंते! जीवे २६ सू. ६२ ३६-१५५ चरित्ताण धम्ममारियं ३६-२३६ चरित्तेण तहेव य चरित्ते पुत्त दुच्चरे ३६-२३५ चरित्तेण निगिण्हाइ २६ सू० १० १६-३० २८ - १८ ३६- २४३ ३४-४० ३६-१२६ चाउज्जामो य जो धम्मो चरिमाणं दुरणुपालओ चरेज्जत्तगवेसए चरे पयाइं परिसंकमाणो चवेडमुट्ठिमाईहि ३६-७३ चाउप्पायं जहाहियं ३६-१२६ चाउरंते भयागरे ३६-३५ २४-१४ ३२-२२,२३ SAVA ६-१५ ३-१७ ३६-५३ ३-१ ३६-५२ ३६-१८८ २-६ ३१-१ २४-२६ ३३-८ ३४-५६ ३२-२७,४०,५३, ६६,७६, ६२ २१-२१ २१-१२ १८-२५ २२-२६ २८-३५ १६-३८ २३-२७ २-१७ ४-७ १६-६७ २३-१२,२३ २०-२३ १६-४६ २२-११ २८-३३ १६-४ १६-३८ ३४-५ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६५६ परिशिष्ट १: पदानुक्रम चिईगयं इहिय उ पावगेणं १३-२५ छठं पुण धम्मचिंताए २६-३२ जं च धम्माण वा मुहं २५-११ चिंतिज्ज अणुपुब्बसो २६-३६,४७ छट्टम्मि जहन्नेणं ३६-२३६ जं च मे पुच्छसी काले १८-३२ चिंतेइ से महापन्ने २२-१८ छट्टीए जहन्नेणं ३६-१६५ जं चरंति महेसिणो २३.८३ चिच्चा अधम्म धम्मिटे ७-२६ छट्ठो सो परिकित्तिओ ३०-३६ जं चरित्ताण निग्गंथा २६-१ चिच्चा अभिनिक्खंतो ९-४ छह अन्नयरागम्मि २६-३१ ज चरित्ता बहू जीवा २६-५२; ३१-१ चिच्चाण धणं च भारियं १०-२६ छण्हं पि कम्मलेसाणं ३४-१ जंजाणिऊण समणे ३६-१ चिच्चा धम्म अहम्मिटे ७-२८ छण्हं पि विराहओ होइ २६-३० जं जिए लोलयासढे ७-१७ चिच्चा रहें पव्वइए १८-२० छत्तीसं उत्तरज्झाए ३६-२६८ जं तरंति महेसिणो २३-७३ चिटुंती पंजलीउडा २५-१७ छप्पुरिमा नव खोडा २६-२५ जं न कुज्जा न कारवे २-३३ चिट्ठति पाणिणो बहू २३-७५ छम्मासा य जहन्निया ३६-२५१ जं नेइ जया रत्तिं २६-१६ चित्तं पि जाणाहि तहेव रायं । १३-११ छवित्ताणं न विज्जई २-७ जं बाहई सययं जंतुमेयं ३२-११० चित्तमंतमचित्तं वा २५-२४ छव्वीस सागराइं ३६-२३७ जंबू नाम सुदंसणा ११-२७ चित्ताणुया लहु दक्खोववेया १-१३ छहिं अंगुलेहिं पडिलेहा २६-१६ जं भिक्खुणं सीलगुणे रयाणं १३-१७ चित्तासोएसु मासेसु २६-१३ छिंद गेहिं सिणेहं च ६-४ जंभिक्खुणो सीलगुणोववेया १३-१२ चित्तेहि ते परितावेइ बाले ३२-२७, छिंदित्तु जालं अबलं व रोहिया १४-३५ जं भुज्जो परिभस्सई ७-२५ ४०,५३,६६,७६,६२ छिन्नं सरं भोमं अंतलिक्खं १५-७ जंभे ठिया मग्गे जिणुत्तमाणं २०-५५ चित्तो इमं वयणमुदाहरित्था १३-१५ छिन्नपुत्वो अणंतसो १६-५१ जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं १२-३८ चित्तो पुण जाओ पुरिमतालम्मि १३-२ छिन्नपुव्वो अणेगसो १९-६० जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं १३-२७ चित्तो वि कामेहि विरत्तकामो १३-३५ छिन्नसोए अममे अकिंचणे २१-२१ जं मे बुद्धाणुसासंति १-२७ चियासु महिसो विव १६-५७ छिन्नाले छिंदइ सेल्लि २७-७ जं विवित्त मणाइण्णं १६-१ चिरं पि अप्पाण किलेसइत्ता २०-४१ छिन्नावाएसु पंथेसु २-५ जं संपत्ता न सोयंति २३-८४ चिरं पि से मुंडरुई भवित्ता २०-४१ छिन्नाहि साहाहि तमेव खाणुं १४-२६ जं साया नत्थि वेयणा १६-७४ चिरकालेण वि सब्बपाणिणं १०-४ छिन्नो भिन्नो विभिन्नो य १६-५५ जंसि गोयम ! आरूढो २३-५५ चीराजिणं नगिणिणं ५-२१ छिन्नो मे संसओ इमो २३-२८,३४, जंसि गोयममारूढो २३-७० चीवराई विसारंती २२-३४ ३६,४४,४६,५४,५६,६४,६६,७४, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा २०-४८ चुण्णिओ य अणंतसो १६-६७ ७६,८५ जं से पुणो होइ दुहं विवागे ३२-३३, चूया देहा विहिंसगा ७-१० छुरियाहिं कप्पणीहि य १६-६२ ४६,५६,७२,८५,६८ चुलणीए बंभदत्तो १३-१ छुहातण्हाए पीडिओ १६-१८ जं सोचा पडिवज्जन्ति ३-८ चेइयंमि मणोरमे ९-१० छुहातण्हा य सीउण्हं १६-३१ जं हीलिया तस्स खमाह भंते । १२-३१ चेच्चा कामगुणे परे १४-५० छुहातण्हाविवज्जिओ १६-२० जक्खरक्खसकिन्नरा १६-१६, २३-२० चेच्चा कामाइ पव्वए १८-३४ छेओवठावणं भवे बीयं २८-३२ जक्खा आउक्खए चूया चेच्चागिहं एगचरे स भिक्खू १५-१६ जक्खा उत्तरउत्तरा ३-१४ चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च . १३-२४ जक्खा कुमारे विणिवाडयंति १२-२४ चेच्चा रज्जं मुणी चरे जइ इच्छह जीवियं वा धणं वा १२-२८ जक्खा हु वेयावडियं करेंति २२-३२ चोइओ तोत्तजुत्तेहिं १६-५६ जइ तं काहिसि भावं २२-४४ जक्खो तहिं तिंदुयरुक्खवासी १२-८ चोइओ पइचोएइ १७-१६ जइ ता सि भोगे चइडं असत्तो १३-३२ जगनिस्सिएहिं भूएहिं ८-१० चोज्जं अबंभसेवणं ३५-३ जइत्ता विउले जन्ने ६-३८ जठं च पावकम्मुणा २५-२८ जइत्ता सुहमेहए ६-३५ जडीसंघाडिमुंडिणं ५-२१ जइ मज्झ कारणा एए २२-१६ जणेण संद्धि होक्खामि छउमं न नियट्टई २-४३ जइ मे न दाहित्थ अहेसणिज्जं १२-१७ जत्तत्थं गहणत्थं च २३-३२ छउमत्थस्स जिणस्स वा २८-३३ जइ सि रूवेण वेसमणो २२-४१ जत्तत्थं पणिहाणवं १६-८ छउमत्थेण जिणेण व । २८-१६ जइ सि सक्खं पूरंदरो २२-४१ जत्थ कीसंति जंतवो १९-१५ छंद निरोहेण उवेइ मोक्खं ४-८ जओ आयाण निक्खेवे १२-२ जत्थ तं मुज्झसी रायं छंदणा दव्बजाएणं २६-६ जओ जत्तं पडिस्सुणे १-२१ जत्थ तत्थ निसीयई १७-१३ छंदेणं पुत्त ! पव्वया १९-७५ जं काइयं माणसियं च किंचि ३२-१९ जत्थ नत्थि जरा मच्चू २३-८१ छक्के आहारकारणे ३१-८ जं किंचि आहारपाणं विविहं १५-१२ जत्थेव गंतुमिच्छेजा छच्चेव य मासा उ ३६-१५१ जं किंचि पास इह मण्णमाणो ४-७ जन्नं जयइ वेयवी २५-४ छज्जीवकाए असमारभंता १२-४१ जं चन्तरायं पकरेइ कम्म ३२-१०८ जन्नट्ठा य जे दिया २५-७ ३-१६ १८-१३ Jain Education Intemational Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्नट्ठा वयसा मुह जन्नवार्ड उवडिओ जमायरंतो भिक्खू जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं जम्मणमरणाणि बंधंति जम्भविगा जम्माणि मरणाणि य जयं अपरिसाडियं जयंता अपराजिया जयधोसं महामुि जयघोसविजयघोसा जयघोसस्स अंतिए जयघोसे त्ति नामओ जयणा चउव्विहा वृत्ता जयनामो जिणक्खायं जया मिगस्स आयंको जया य से सुही होइ जया सव्वं परिच्चज्ज जराए परिवारिओ जराए मरणेण य जरामरणकंतारे जरामरणघत्थम्मि जरामरणवेगेण जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं जलते इव तेएण जलते समिलाजुए जलं पाहिं ति चिंतंतो जलकन्ते सूरकंते य जलणं च जलप्पवेसो य जलधन्ननिस्सिया जीवा जलयराणं तु अन्तरं जलयरा थलयरा तहा जलरुहाओसहीतिणा जलूगा जालगा चैव जलेण वा पोक्खरिणी जल्लं काएण धारए जवणट्टाए निसेवए मंथु जवणट्ठाए महामुनी जवमज्झट्टुत्तर सयं जवा लोहमया चैव जसं संचिनु खतिए जस्स एया परिन्नाया जस्सत्थि मच्चुणा सक्ख जस्स वत्थि पलायणं जस्सेरिसा इड्डि महाणुभागा जयगरसो जह करगयस्स फासो २५-१६ १२-३ ३५-१ १६-१५ ३६-२६७ १४- ५१ जहन्नुक्कोसिया भवे १६०४६ १-३५ १८-४३ १६-७८ जहन्नेणं काऊए जहन्नेणं नीलाए ३६-२१५ जहन्नेणं पम्हाए दसउ २५-३४ जहन्नेणं सुक्काए २५-४३ जहन्नेणेक्कतीसई २५- ४२ जहन्नेणेगसित्थाई २५- १ जहपरिणयंबगरसो २४-६ १६ - ८० १८ - १२ जहक्कम कामगुणाह चेव जह गोमडस्स गंधो १४-२३ १६-२३ १६-४६ १६-१४ २३-६८ ४-१ जह तरुणअंबगरसो जह तिगडुयस्स य रसो जहन्नमज्झिमाइ य ११-२४ १६-५६ १६- ५६ ३६-७६ ३६-२६७ जह बूरस्स व फासो जह सुरक्षिकुसुमगंधी जहा अग्गिसिहा दित्ता जहा अणाहो भवई जहाइण्णसमारूढे जहा इमं इहं सीयं जहाइ उवहिं तओ जहा इह उ अगणी उन्हो जहा उ चरई मिगो जहा उ पावगं कम्म जहाएस व एलए जहाएसं समुद्दिस्स जहा करेणुपरिकिष्णे जहा कागिणिए हेउ जहा किंपागफलाणं जहा कुसग्गे उदगं ३५-११ जहा खलु ते उरब्भे ३६-१७७ जा खव भिक्खू ३६-१७१ जहा गेहे पलित्तम्मि ३६-६५ जहा चंदं गहाईया ३६-१२६ जहा जाय त्ति पासिया पलासं ३२-३४, जहा तद्दव्वणिस्सरो ४७,६०,७३, ८६, ६६ जहा तुलाए तोलेउं २- ३७ जहा ते दीसई रूवं ८-१२ जहा दव्वगी पउरिंधणे वणे ३५-१७ जहा दुक्खं भरेउं जे ३६-५३ जहा न होई असुयाण लोगो जहा पोमं जले जायं १६- ३८ ३-१३ जहा बिराला सहस्स मूले २-१६ जहा भुयाहिं तरिउं १४-२७ जहा महातलायस्स १४-२७ जहा महासागरमुत्तरित्ता जहा मिगे एग अणेगचारी जहा मे य पवत्तियं १२-३७ ३४-१० ३४-१८ जहा मेयमस्य १४-११ ३४-१६ ३४-१२ ३४-११ ३६-५० ३६-१६७, २४५ ३४-५० ३४-४६ ३४-५४ ३४-५५ ३६-२४३ ३०-१५ ३४-१३ ३४- १६ जहासुत्तमणिदियं जहा य अग्गी अरणीउसंतो जहा य अंडप्पभवा बलागा जहा य किंपागफला मणोरमा जहा य तिन्नि वणिया जहा य भोई ! तणुयं भुयंगी जहा लाहो तहा लोहो जहा वयं धम्ममजाणमाणा जहा संखम्मि पयं जहा सागडिओ जाणं जहा सा दुमाण पवरा जहा सा नईण पवरा जहा सुक्को उ गोलओ जहा सुणी पूइकण्णी ३४-१७ १६-३६ २.-१६, १७ ११-१७ १६-४८ १६-८४ १६-४७ १६-७७ ३०-१ ७-७ ७-१ ११-१८ 19-99 १६-१७ जहा से सामाइयाणं जसो पुरिसोत्तमो ७- २३ जहिऊण माणुसं बोंदि ७-४ जहिं पकिण्णा विरुहंति पुण्णा ३०-४ जहिं पवन्ना न पुणम्भवामो १६- २२ जहिं वयं सव्वजणस्स वेस्सा २५-१७ जहिंसि हाओ विमलो विसुद्धो २२- ३४ जहिंसि हाओ विमला विसुद्धा २२-४५ जहित्तु संगं च महाकिलेसं १६ ४१ जहित्थिओ बालमणोहराओ १८-२० जहेह सीहो व मियं गहाय ३२- ११ जहोवइट्ठ सुकयं १६-४० १४ - ८ जाई कुलं च सीलं च २५-२६ जाईजरामभवाभिभूया ३२- १३ जाईपराजिओ खलु १६- ४२ जाईमयपडिथद्धा ३०-५ जाईसरणं समुप्पन्नं ३२- १८ जाई सरित्तु भयवं जाईसरणे समुप्पन्ने १६८३ २०- १७ ५- १३, १८ जा उ अस्साविणी नावा जाओ पुरिसं पलोभित्ता जाओ लोगंमि इत्थिओ जहा से उडुवई चंदे जहा से कंबोयाणं जहा खलु से उरमे जहा से चाउरंते जहा से तिक्खदाढे जहा से तिक्खसिंगे जहा से तिमिरविद्धंसे जहा से नगाण पवरे जहा से नमी रायरिसि जहा से वासुदेवे जहा से सयंभूरमणे जहा से सहस्सक्खे १४-१८ ३२-६ ३२-२० ७-१४ १४-३४ ८-१७ १४-२० ११-१५ ५-१४ ११-२७ ११-२८ २५-४१ १-४ ३५-१६ ११-२५ ११-१६ ७-४ ११-२२ ११-२० 99-9€ ११-२४ ११-२६ ६-६२ ११-२१ ११-३० ११-२३ ११-२६ २२-४६ ३५-२० १२-१३ १४-२८ १३-१८ १२-४६ १२-४७ २१-११ ३२-१७ १३-२२ १-४४ ६-२ २२-४० १४-४ १३-१ १२-५ १६-७ १६-८ २३-७१ ८-१८ २-१६ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६५८ परिशिष्ट १: पदानुक्रम जा किण्हाए ठिई खलु ३४-४६ जिणवयणे जे अणुरत्ता ३६-२६० जे जे उवाया पडिवज्जिव्वा ३२-६ जा चेव उ आउठिई ३६-१६७,२४५ जिणिंदमम्गं सरणं पवन्ना १४-२ जेठं कुलमवेक्खंतो २३-१५ जा जा दिच्छसि नारिओ २२-४४ जिणे पासे त्ति नामेण २३-१ जेट्टामूले आसाढसावणे २६-१६ जा जा वच्चइ रयणी १४-२४,२५ जिणेहिं वरदंसिहिं २८-२,७ जे डहति सरीरत्था २३-५० जाणमाणो वि जं धम्म १३-२६ जिब्भाए रसं गहणं वयंति ३२-६२ जेणप्पाणं परं चेव ११-३२ जाणामि जं वट्टइ आउसु ! त्ति १७-२ जिब्भादंते अमुच्छिए ३२-१७ जेण पुण जहाइ जीवियं १५-६ जाणासि संभूय ! महाणुभागं १३-११ जिब्भिन्दियनिग्गहेणं भंते । जीवे किं २६-६६ जेणम्हि वंता इसिणा स एसो १२-२१ जाणाहि मे जायणजीविणु त्ति १२-१० जिहाए रसं गहणं वयंति ३२-६१ जेणाहं दोग्गई न गच्छेज्जा जाणि जीयंति दुम्मेहा ७-१३ जीमूयनिद्धसंकासा ३४-४ जेणाहं नाभिजाणामि . २-४० जाणित्तायरियस्स उ १-४३ जीवं च इरियं सया E-२१ जे तत्थ न पउस्सई स भिक्खू १५-११ जा तेऊए ठिई खलु ३४-५४ जीवंतमणुजीवंति १८-१४ जे तप्पओसी य परिग्गही य ३२-१०१ जा निरस्साविणी नावा २३-७१ जीवस्स उ सुहावहं ३१-१ जे तरंति अतरं वणिया व ८-६ जा नीलाए ठिई खलु ३४-५० जीवस्स उ सुहावहा ३०-२७ जे ताई पडिसेवंति २-३८ जा पम्हाए ठिई खलु ३४-५५ जीवा गच्छंति परलोयं ३४-६० जे दुज्जया अज्जो अम्हारिसेहिं । १३-२७ जायखंधे विरायई ११-१६ जीवा गच्छंति सोग्गइं २८-३ जे नरा काम लालसा २५-४१ जायगो पडिसेहए २५-६ जीवा चेव अजीवा य ३६-२ जे नरा गिहिसुव्वया ७-२० जायगेण महामुणी २५-६ जीवाजीवविभत्तिं ३६-१ जे नरा पावकारिणो १८-२५ जायणा य अलाभया १६-३२ जीवाजीवा य पुण्णपावं च २८-१७ जे पावकम्मेहि धणं मणूसा जायतेयं पाएहि हणह १२-२६ जीवाजीवा य बंधो य २८-१४ जे भवंति दिउत्तमा २५-३३ जायपक्खा जहा हंसा २७-१४ जीवाणमजीवाण य ३६-३ जे भावओ संपगरेइ भिक्खू २१-१६ जायमेए महोदरे ७-२ जीवा सोहिमणुप्पत्ता ३-७ जे भिक्खुं अवमन्नह १२-२६ जायरूवं जहामट्ठ २५-२१ जीविए मरणे तहा १९-१० जे भिक्खुयं भत्तकाले वहेह १२-२७ जायाई जमजन्नमि २५-१ जीवियए बहुपच्चवायए १०-३ जे भिक्खू चयई निच्चं ३१-४ जायाए धासमेसेज्जा -११ जीवियं चेव रूवं उ १८-१३ जे भिक्खू जयई निच्चं ३१-७ से २० जाया ! चिंतावरो हुमि १४-२२ जीवियतं तु संपत्ते २२-१५ जे भिक्खू जयई सया ३१-२१ जाया दोण्णि वि केवली २२-४८ जीवो उवओगलक्षणो २८-१० जे भिक्खू न विहन्नेज्जा २-४६ जाया य पुत्ता न हवंति ताणं १४-१२ जीवो पमायबहुलो १०-१५ जे भिक्खू वज्जई निच्चं ३१-६ जारिसा मम सीसा उ २७-१६ जीवो भवइ अणासवो ३०-२ जे भिक्खू संभई निच्चं जारिसा माणुसे लोए १६-७३ जीवो वच्चइ नाविओ २३-७३ जे भिक्खू वहई सम्म ३०-३१ जावई केदकंदली ३६-६७ जीवो होइ अणासवो ३०-३ जे भिक्खू सहई निच्चं जावंतविज्जापुरिसा ६-१ जुइमं वरिससओवमे १८-२८ जे माहणा जाइविज्जोववेया १२-१३ जाव कालस्स पज्जवो ३५-१६ जुइमंताणुपुव्वसो ५-२६ जे य उम्मग्गपट्ठिया २३-६१ जावज्जीवं दढव्वओ २२-४७ जुईए उत्तिमाए य २२-१३ जे य धम्माण पारगा २५-७ जावज्जीवाए दुक्करा १६-२५ जुगमित्तं च खेत्तओ २४-७ जे य मग्गेण गच्छंति २३-६१ जावज्जीवमविस्सामो १६-३५ जुगवं पुव्वं व सम्मत्तं २८-२६ जे ये वेयविऊ विप्पा २५-७ जाव न एइ आएसे ७-३ जुण्णो व हंसो पडिसोत्तगामी १४-३३ जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं ३२-२५,३८, जाव सरीरभेउ त्ति २-३७ जुवराया दमीसरे १६-२ ५१,६४,७७,६० जा सा अणसणा मरणे ३०-१२ जे आययासंठाणे ३६-४६ जे यावि होइ निविज्जे ११-२ जा सा पन्नवओ ठिई ७-१३ जे इंदियाणं विसया मणुन्ना ३२-२१ जे लक्खणं च सुविणं च ८-१३ जा सा पाणी महापाली १८-२८ जे उत्तमट्ट विवज्जासमेई २०-४६ जे लक्खणं सुविण पउंजमाणे २०-४५ जा से कन्नं दलाम हं २२-८ जे उ भिक्खू न वावरे ३०-३६ जे वज्जए एए सया उ दोसे १७-२१ जा हं तेण परिच्चत्ता २२-२६ जे कम्हिचि न मूच्छिए स भिक्खू १५-२ जे संखया तुच्छ परप्पवाई ४-१३ जिइंदिए सवओ विप्पमुक्के १५-१६ जे कसिणं अहियासए स भिक्खू १५-३,४ जे संति परिनिवडा ५-२८ जिइंदिओ संजओ बंभयारी १२-२२ जे केइ पत्थिवा तुब्भं ६-३२ जे संति सुब्बया साहू जिच्चमाणे न संविदे? ७-२२ जे के इमे पव्वइए १७-३ जे समत्था समुद्धत्तुं २५-८,१२,१५ जिणमग्गं चरिस्सिमो २२-३८ जे के इमे पव्वइए नियंठे १७-१ जे सम्म आयरे मुणी २४-२७,३०-३७ जिणवयणं जे करेंति भावेण ३६-२६० जे केइ सरीरे सत्ता ६-११ जेसिं तु विउला सिक्खा ७-२१ जिणवयणं जे न जाणंति ३६-२६१ जे गिद्धे कामभोगेसु, ५-५ जेसिं मो नत्थि किंचण ६-१४ ३१-५ TTI!!! ५-२ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि मी साहुम्मो पन्नत्तो जेहिं नासंति जंतवो जेहिं बद्धो अयं जीवो जेहिं सज्जन्ति माणवा जेहिं सिक्खा न लब्भई जेहिं होइ सिणायओ जो अत्थिकायधम्मं जो इमो पंचसिक्खिओ जो इमो संतरुत्तरो जोइयो धम्मजाणम्मि जोइसंगविऊ जय जोगविक तु जोइसवेमाणियाणं च जोइसवेमाणिया तहा जोइसे जहनिया जो उल्लो सो तत्थ लग्गई जो एवं पडिसंविक्खे जो न सज्जइ आगंतुं जो न सेवइ मेहुणं जो न हिंसइ तिविहेणं जो पव्वइत्ताण महव्वयाई जो ! होइ दुव्यहो पुत्ता जो मग्गे कुणई घरं जो मे तया नेच्छइ दिज्जमाणि जोयणस्स उ जो तस्स जोए वहमाणस्स जो किरियाभावरुई २८-२५ जोगक्खेमं न संविदे ? ७-२४ जो गच्छइ परं भवं १६-१६, २१ जोगपच्चक्खाणं भंते! जीवे किं २६ सू० ३८ जोगवं उवहाणवं ११-१४:३४-२७, २६ जोगसच्चेणं भंते ! जीवे किं २६ सू० ५३ जोग सुया सरीरं कारिसंगं १२-४४ जो जस्स उ आहारो ३०-१५ जो जाणे न मरिस्सामि १४-२७ जो जिणदिट्ठे भावे २८-१८ २२-४२ जो तं जीवियकारणा जो तं तिविहेण नाणुकंपे १५-१२ जो धम्मं सोच्च सद्दहे ३-११ २५-२० ढंकगिद्धेहिणंतसो २५-२५ ढिंकुणे कुंकणे तहा २५-२२ २०-३६ १६-३५ व अन्नेहिं कारए ६-२६ त १२-२२ ३६-६२ तइए दस अट्ठहिं चउत्थे ३६-५८ तइयं च पुणो पमज्जेज्जा २५-१६ तइयम्मि जहन्नेणं १५-७ तइयाए जहन्नेणं २१- ६ तइयाए नि मोक्खं तु तइयाए पोरिसीए १५-१० २-४२ तइयाए भिक्खायरियं ६-३४, ४० तइया रायरिसिंमि २८-२१ तइया समुग्गपक्खिया ३०-१० तउयाई सीसयाणि य जोयणाणं तु आयया जो लोए बंभणो वुत्तो जो विज्जाहिं न जीवइ स भिक्खू जोव्वणेण य संपन्ने जो संथवं न करेइ स भिक्खू जो सक्खं नाभिजाणामि जो सहस्सं सहस्साणं जो सुत्तमहिज्जतो जो सो इत्तरियतवो २८-२७ २३-१२,२३ २३- १३,२६ २७-८ २५-७ २५-३६ ३४-५१ ३६-२०४ ३६-२२१ २५-४० २-३१ २७-२ ६५९ जो सोच्चा न वहिज्जई स भिक्खू (झ) ८-८ २३-६० ३३-१ ३५-२ झाएज्जा सुसमाहिए ११-३ झाणं च विउस्सग्गो झाणं तं तु बुहा वए २५-३२ झाणविग्घो उ जो कओ झाणाणं च दुयं तहा झायई झवियासवे ठ ठाणं किं मन्नसी मुणी ? ठाणं ठिई गई चाउं ठाणा वीणासणाईया ठाणे कुज्जा निसीहियं ठाणे निसीयणे चेव ठाणे य इइ के वुत्ते ? ठाणेसु यसमाहिए ठाणेहिं उ इमेहिं ड ठिई उ आउकम्मस्स ठिई एसा वियाहिया ३३ - २०:३६-१३, २४४ तओ नमी रायरिसी ठि पडुच्च साईया ३६-१२,७६,८७,१०१, ११२,१२१,१३१,१४०,१५०, १५६, १७४, १८३,१६०,१६६,२१८ इज्झमाणं न बुज्झामो मा डहेज्ज नरकोडिओ डोले भिंगारी य ढ १५-१४ तओ आउपरिक्खीणे तभी उत्तरगुणे कुजा तओ ओरालियकम्माइं० ३०-३५ तओ कम्मगुरू जंतू ३०-३० तओ कल्ले पभायम्मि ३०-३५ तओ काले अभिप्पेए २०-५७ तओ कीडपयंगो य ३१-६ तओ कुंथुपिवीलिया तओ केसिं बुवंतं तु तओ केसी अणुन्नाए तओ गच्छसि खत्तिया ! १८- ५ ण २३-८० ३४-२ तओ गुत्तीओ आहिया तओ चंडालवोक्कसो ३०-२७ २४-२४ २६-५ तओ जले वीसमहे तहेव तओ जिए सई होइ २३-८२ तओ झाएज्ज एगगो तओ तेणज्जिए दव्वे २६-३३ तओ नमिं रायरिसिं ३१-१४ ३३-२२ १४-४३ १४-४२ परिशिष्ट १ पदानुक्रम १८- १० ३६-१४७ १६- ५८ ३६-१४६ तओ पुट्ठो आयंकेणं तओ पुट्ठो पिवासाए तओ बहूणि वासाणि तओ राया भयदुओ २७,३१,३७,४१,४५,५० ६-८, १३, १६, २५, २६,३३,३६,४३,४७, ५२ ५-११ २-४ ३६-२५० १८-६ तओ संवच्छरद्धं तु तओ से जायंति पओयणाई तओ से दंडं समारभई तओ से पावयं कम्म तओ से पुट्ठे परिवृढे तओ से मरणंतंमि तओ सो पहसिओ राया तओ हं एवमाहंसु तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से ३५ ८ तं एवमेवं लालप्पमाणं तं कार्य तु अमुचओ २६-१६ तं च सि अंधगवहिणी २६-२४ तं ठाणं सासयं वासं ३६-२३६ तं तितिक्खे परीसहं ३६-१६२ तं देहई मियापुत्ते २६- १८, ४३ तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु ७--१० २६-११,१७ २६ सू०७४ ७-६ २०-३४ ५-३१ ३-४ ३-४ २३-२१,२५,३७ २३-२२ ६- १८,२४,२८ ३२,३८, ४६ २४-१ ३-४ ३६-५४ ७-१८ 9-90 १८-१६ ६-११,१७,२३ २०-३१ १३-२५ १४-१५ ३६-८१, ८६, १०३, ११४, १२३, १३३, १४२, १५२ २२-४३ २३-८४ २-५,१४ १६-६ २६-३१ २६-१२ तं न नस्ससि ? गोयमा ! ६-५ तं नाणं जिणसासणे ३६-१८८ १६- ६८ तं नेव भुज्जो वि समायरामो तं परिगिज्झ वायाए ३६-२५३,२५४ ३२-१०५ ५-८ ८-६ ७-२ ५-१६ २०-१० ३२-२२,३५,४८, ६१,७४,८७ २३-६० १८- ३२ १४-२० १-४३ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू तं पासिऊणमेज्जंतं तं पासिऊण संविग्गो तं पासिया संजय हम्ममाणं तं पुत्रेण काराग १५-८, ६ १२-४ २१-६ १२-२० १३-१५ १६- २४,४४,७५ ३२-१ १२-३५ २-१ तत्थ सो पासई साहु ३६-२५४ तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ३०-४ २३-२८, ३४, ३६, ४४,४६,५४,५६,६४,६६,७४,७६ तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्ख तत्थिमं पढमं ठाणं तं बिंतम्मापियरो तं भासओ मे पडिपुण्णचित्ता तं भुंजसू अम्ह अणुग्गहट्टा तं भे उदाहरिस्सामि तंमि संवच्छरेकरे तं मे एगमणो सुण तं मे कहसु गोयमा ! तं मे कित्तयओ सुण तं रागहेउं तु मणुष्णमाहु तं लयं सव्वसो छित्ता तं वयं बूम माहणं तं सम्मं निगिण्हामि तं सव्वं मरिसेहि मे तं सव्व साहीणमिहेव तुटभं तं ससत्तं पइगिज्झ तं सि नाहो अनाहाणं तच्छिओ य अनंतसो तणफासा जल्लमेव य २४-६; ३६-३८ ३२- २२,३५, ४८,६१,७४,८७ तंसा चउरंसमायया तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्ख तत्थोववाइयं ठाणं तन्तुजं तणतज्जिया तप्पएसा तहेव य तप्पएसे य आहिए तप्पच्चयं उज्जमए य रागी तमंतमेणेव उ से असीले तमणुग्गहं करेहम्हं तमा तमतमा तहा तमायंरतो ववहारं तमुद्धरित्तु जहानायं तमेगग्गमणो सुण ३२- २५ ३८,५१,६४,७७, ६० २०-५६ तमे चित्तो निहुओ सुणेहि १६-६६ तम्मि आसि समागमे २३-४६ २५-१६ से २७,३२ २३-५८ २०-५७ १४- १६ तणहारकट्ठहारा तणेसु सयमाणस्स तण्हाकिलंतो धावंतो ताभिभूवरस अवतहारिणो तन्हा हया जस्स न होइ लोहो ततो हं नाहो जाओ तत्तं तत्तविणिच्छयं तत्ताइं तंबलोहाहिं तत्तो ओमं तु जो करे तत्तो य थीणगिद्धी उ तत्तो य बंभं अपरिग्गहं च तत्तो य वग्गवग्गो उ तत्तो वि य उवद्वित्ता तत्थ आलंबणं नाणं तत्थ आसि पिया मज्झ तत्थ एगे महापन्ने तत्थ कुव्वेज्ज सासयं तत्थ गंतूण सिज्झई तत्थ चिंता समुप्पन्ना ६६० तत्थ ठवेज्ज भिक्खू अप्पाणं तत्थ टिच्चा जहाठाणं तत्थ पंचविहं नाणं तत्थ वासमुवागए तत्थ संकप्पए वासं तत्थ सिद्धा महाभागा तत्थ से उववज्जई तत्थ से चिट्टमाणस्स २१-३ ३६-२१ १६-३१ तम्मी नगरमंडले ३६-१३७ २- ३४ १६- ५६ ३२-३०, ४३,५६,६६,८२,६५ तम्मी नयरमंडले तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे तम्मेव य नक्खत्ते तम्हा एएसि कम्माणं तम्हा एयाण लेसाणं तम्हा गिहंसि न रइं लहामो ३२-८ २०-३५ तम्हा गिहसमारंभ २३-२५ तम्हा जोई न दीवए १६-६८ तम्हा भिक्खू न पायए ३०-१५ तम्हा भिक्खू न संजले ८- ११,१६ ३-१६ २८-४ ३२-३०, ४३, ५६, ६६, ८२, ६५ ५-४ ३२-३२,४५ ५८, ७१,८४,६७ २३-४,८,२५-३ २१-१२ ३३-५ तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं तम्हा विणयमेसेज्जा ३०-११ तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे 5-94 तम्हा सव्वदिसं पस्स २४-५ तम्हा सुयमहिट्ठेज्जा २०-१८ तम्हा हु एए निहया कुमारा ५-१ तया गच्छइ गोयरं ६-२६ ३६-५६ तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा तर कन्ने ! लहुं लहुं २३- १० तरित्ता समुदं वा महाभवोघं तरुणाइच्चसन्निभा ३५-७ तरुणो सि अज्जो ! पव्वइओ ३६-६३ तवं कए तप्प जस्स लोगो ७-२७ तवं खंतिमहिंसयं २-२१ तवं पगिज्झ हक्खायं तवं संपडिवज्जेत्ता २०-४ ५-१३ २-३५ ३६-१० ३६-५,६ ३२-१०५ २०-४६ २५-३७ ३६ - १५७ १-४२ २३-४८ ३०-१ परिशिष्ट १ पदानुक्रम तरियवो गुणोयही तरिस्संति अणागया तरिहिंति जे उ काहिंति ४-८ १-७ ४-१० ६-१२ ११-३२ १२-३२ २०- ३८ २३- ८८ २३-४ तयोसमायारिसम २३- ८ २४ - ८ २६-२० तसपाणे वियाणेत्ता ३३-२५ तसाणं थावराणं च ३-८ १४-५० २६-५१ ६-२२ १६-५ १६-६७ २८-२५ ६-२० तवसा धयुकम्मंसे ३-२० तवसा निज्जरिज्जइ ३०-६ तवस्स वाघायकरं वयासी १४-८ तवस्सी भिक्खु थामवं २-२,२३ तवस्सी वीरियं लधुं ३-११ तवेणं भंते! जीवे किं जणयइ ? २६ सू० २८ तवेणं होइ तावसो २५-३० २८-३५ तवेण परिसुज्झई तवेण परिसोसियं १२-४ तवनारायण तवनियमसंजमधरं तवप्पहाणं चरियं च उत्तमं तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु तवसंवरमग्गलं तवोकम्मंसि उज्जुओ तवो जोई जीवो जोइठाणं तवो य दुविहो वुत्तो तवोवहाणमादाय ३४-६१ तसाण थावराण य तसा य थावरा चेव 93-19 ३५-६ तसेसु थावरेसु य ३५-१२ तस्संतगं गच्छइ वीयरागो ३५-११ तस्सक्खेवपमोक्खं च २-२४ तस्स कोसस्स छन्भाए तस्स गेहस्स जो पहू तस्स पाए उ वंदित्ता तस्स भज्जा दुवे आसी तस्स भज्जा सिवा नाम तस्स में अपडिक्कंतस्स तस्स राईमई कन्नं तस्स रूवं तु पासित्ता तस्स रूववइं भज्जं तस्स लोगपईवस्स २१-२४ तस्सगए मिए पास १६- ८० १४-३६ २२-३१ तसनामेहिं थावरेहिं च तसपाणवीयरहिए १६-३६ १८- ५२ ८-२० ३४-७ २०-८ १४-१६ १६-८८ १२-४४ २८-३४ २-४३ १-४७ ८-१० २४-१८ २५-२२ ३५-६ २०-३५ ३६-६८ ५-८; १६-६६ ३२-१६ २५-१३ ३६-६२ १६-२२ २०-७ २२-२ २२-४ १३-२६ २२-६ २०-५ २१-७ २३-२,६ १८-५ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि तरसावि संजमो सेओ तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा तहक्कारो य अट्टमो तहक्कारो य पडिस्सुए तह दुक्करं करेउं जे तह पाणवत्तियाए तहप्पगारेसु मणं न कुज्जा तह य निमित्तम होइ पडिसेवि तहा अणुवणं तहा अस्संजमम्मि य तहा गोत्तेण गोयमे तहा तेरिच्छमाणुसे तहा दुक्ख करे जे तहा निहुयं नीसंक तहा पयणुवाई य तहाभूएण अप्पणा तहा माणावमाणओ तहा लुक्खा य आहिया तहा वि एगंतहियं ति नच्चा तहा वि ते न इच्छामि तहा सत्तेव एसणा तहा सुचिण्णं तवसंजम च तहियं गंधोदयपुष्कवासं तहियाणं तु भावाणं तहेव कासीराया तहेव जं दंसणमावरेइ तहेव निन्नेसु य आससाए तहेव परियट्टणा मतप तहेव य तुयट्टणे तहेब य नपुंसगा तहेव य वणस्सई तहेव य वराडगा तहेव विजओ राया तहेव हिंसं अलियं तवासणदायणं तहेवुग्गं तवं किच्चा ताई तु खेत्ताई सुपावयाई ताई तु खेलाई सुपेसलाई ताई पाउकरे बुद्धे ताङिओ कुट्टिओ भिन्नो ताणि ठाणाणि गच्छंति तायं उवागम्म इमं उदाहु ताया! दीसंति वेयणा तारिसम्मि उवस्सए तारिसा गलिगद्दहा तारुण्णे समणत्तणं तालणा तज्जणा चेव ६६१ ३२-३ ६-४० तावइयं चेव वित्थिण्णा ताव जीवइ से दुही २६-३ तासि इंदियदरिसणं २६-६ तासं दोन्हं पि दो पुत्ता १६- ३६ तिंदुगा तउसमिंजगा २६-३२ तिंदुयं नाम उज्जाणं ४-१२ तिदुयं वणमागओ ३६-२६६ १६- ११ २२- २ ३६ - १३८ २३-४ २३- १५ ३४- ११ ३६ - ५८ ६-२० २०-६० २६-१,५२, ३१-१ ३४-४१ ३४-४२ तिण्णुदही पलियमसंखभागमव्भहिया ३४-३६ तिक्खो जह हत्थिपिप्पलीए वा तिगणो तस्सेव परिरओ १८-४२ ३१-१३ १८- २२ ३१-५ १६-४० १६ ४१ ३४-३० ५-३० तिण्णेव अहोरत्ता तिण्णेव उ सागरोवमा तिण्णेव सहस्साइं १६- ६० ३६-२० ३२- १६. २२-४१ तिण्णेव सागरा ऊ तिण्णो हु सि अण्णवं महं ३०-२५ तिण्हमन्नयरं मुणी तितिक्खं परमं नच्चा तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु तित्तकडुयकसाया १४-५ १२-३६ २८- १५ १८- ४८ ३२- १०८ १२-१२ तिन्नि वि एय अणाइया तिन्नि वि एयाओ अहम्मलेसाओ तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ तिपया हवइ पोरिसी तिभागहीणा तत्तो य तियं मे अंतरिच्छ च ३६-४६ तिरियमणुस्साण देवाणं ३०-३४ ३५-१० २४-२४ ३६-६६ ३६-१२६ १८- ४६ तिरियाण नराणं वा तिविहा ते वियाहिया तिविहो व नवविहो वा तिव्वचंडप्पगाढाओ तिव्वारंभपरिणओ तिगत्तं दुप्पधंसयं तिगुत्तिगुत्तो तिदंडविरओ य तिण्णा संसारसागरं तिष्णुदही पलिओवम तिष्णुदही पलिय ३५-३ ३०-३२ १८-५० तीसई कोडिकोडिओ १२-१४ तीसई सागरोवमा १२-१३,१५ तीसं तु सागराई १८- ३२ तीसे पुत्तो महायसो १६-६७ तीसे य जाईइ उ पावियाए ५-२८ तीसे सो वपणं सोच्चा १४-६ तीसे अगुत्तो छसु अविरओ य १६-७३ तुंगे सिवलिं पायवे ३५-५ तुंदिल्ले चियलोहिए २७-१६ तुज्झं विवाहकज्जमि १६-३६ तुज्झं सुलद्धं खु मणुस्सजम्म १६-३२ तुट्टे य विजयघोसे ३६-५८ तुट्टो ये सेणियो राया ७-३ परिशिष्ट १ : पदानुक्रम तुब्भं तु पाए सरणं उवेमो तुब्भे जइया जन्नाणं तुब्भेत्थ भो! भारधरा गिराणं तुभे धम्माण पारगा तुम्भे न वि कुप्पह भूइपन्ना तुब्भे वेयविऊ विऊ तुब्भे सणाहा य सबंधवा य तुब्भे समत्था उद्धत्तुं तुम्भेहिं अणुमन्निओ तुभेहिं अम्मणुण्णाओ तुमे राय विचिंतिया तुरियं मउयकुंचिए तुरियाण सन्निनाएण तुलियाण बालभावं ३६- ११३ ३६-१६२ ३६-१२२ तुवरकविट्ठस्स वावि जारिसओ ३६- १६१ तुसिणीओ उवेहेज्जा १०-३४ तुसिणीओ न कयाइ वि ५-३२ तुहं पियाई मंसाई २- ३६ तुहं पिया सुरा सीहू २६-३४ ते अज्ज परिभुंजामो ३६ - १८ तेइंदिय आनुटिई ३६-८ तेइंदियकायठिई ३४-५६ तेइंदियकायमइगओ ३४-५७ तेइंदिय जीवाणं २६-१३ तेइंदिया उ जे जीवा ३६-६४ तेउक्कायामइगओ २०-२१ तेउजीवाण अंतरं ३४-४४ तेउलेसं तु परिणमे ३४-४५ तेअलेसा उ वण्णओ ३६- ११६ तेउलेसा जहा सुरगणाणं ३४-२० तेऊ पम्हा तहेव य १६-७२ तेऊ पम्हा सुक्का ३४-२१ तेऊए टिई जहन्निया होइ ३३-१६ तेऊ वाऊ स बोद्धव्वा ३६- २४२ तेऊवाऊवणस्सइतसाणं ३६- २४१ ते कामभोगरसगिद्धा २२-४ ते कामभोगेसु असज्जमाणा १३-१६ ते कित्तइस्सामि अहाणुपुवि २२-४६ ते खुहुए जीविय पच्चमाणा ३४-२१ तेगिच्छं नाभिनंदेज्जा १६- ५२ तुलिया बालं च पंडियं तुलिया विसेसमादाय ७-७ ते घोररूवा ठिय अंतलिक्खे ते चेव खिसई वाले २२-१७ ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं २०-५५ ते छिंदित्तु जहानाय २५-३५ ते जिणित्तु जहानायं २०-५४ १२-३३ २५-३६ १२-१५ २५-३६ १२-३३ २५-३६ २०-५५ २५-३७ १६-२३ १६-८५ १३-८ २२-२४ २२-१२ ७-३० ७-१६ ५-३० ३४-१२ २-२५ १-२० १६-६६ १६-७० १३-६ ३६-१४१ ३६-१४२ १.-११ ३६-१४३ ३६-१३६ १०-७ ३६-११५ ३४-२८ ३४-७ ३४-५१ ३४-३ ३४-५७ ३४-५३ ३६- १०७ २६-३० ८-१४ १४-६ ३२-६ ३२-२० २-३३ १२-२५ १७-४ ३२-१०० २३-४३ २३-३८ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि तेण धम्मे दुहा कए तेण परं वोच्छामि तेणावि जं कयं कम्म तेणावि से न संतुस्से तेणे जहा सन्धिमुहे गहीए तेणे यावि य मच्छरी तेत्तीस सागरा मुहुत्तहिया तेत्तीस सागरोवमा तेत्तीसमुहुत्तममहिया तेत्तीससागराई तेत्तीस सागरा उ तेत्तीस सागरा ऊ तेत्तीस सागरोवमा तेत्तीसासायणासु य ते परियंति समंतओ ते पासिया खण्डियकट्ठभूए ते पासे सव्वसो छित्ता ते पदसागमा परा ते भिन्नदेहे रूहिरं वमंते महाइाविणा तेवीस सागरोवमा तेवीस सूयगडे तेवीस सागराई १२-१४ ते मे कित्तयओ सुण ३६-१७६, १६५, २०४ ते मे तिगिच्छं कुव्वंति २०-२३ ते य ते अहिगच्छंति २३-३५ ३६-२३५ ३१-१६ ३६-२३४ २५-३३ ३६-१५८ ३६-१४६,२१७ ते समत्था उ उद्धत्तुं ते सव्वे उ वियाहिया ते सव्वे परिकित्तिया ते सव्वे विइया मज्झं ते सव्वे वि वियाहिया तेसिं अन्नमिणं देयं तेसिं इहलोइयफलट्ठा तसं पुण दुल्लहा बोही तसिं पुत्ते बलसिरी तसिं फलविवागेण सिं भेए सुणेह मे ते ते २३-२६ तो विइयं पप्फोडे ३४-४४, ४७, ५१ तो वंदिऊण पाए १८-१७ ८-१६ ४-३ ३४-२६ ३४-३४,३६ ३६-२४४ ३४-५५ ३४-४३ ३६-२४३ ३६ - १६६ ३३-२२ ३१-२० २७-१३ १२-३० २३- ४१ १६-२ १३-८ ३६-६६, १०७, १२७,१३६, १४५, १७१ ८-३; २५-१० तेसिं विमोक्खणट्ठाए तेसिं वुच्छं चउव्विहं ३६ - ११,७८, १११,१२० तेसिं सोच्चा सपुज्जाणं तेहिं आराहिया दुवे लोग ते होंति परित्तसंसारी तोत्तओ य से भज्जई तो न नस्सामहं मुणी तो नाणदंसणसमग्गो ४-१३ १२-२५ नागुगमिस्समेक्का ? नागुगमिस्समेक्को ? २३-६१ ३६-११८ २५-८ १५-१० ३६-२५७,२५६ ६६२ तोसिया परिसा सव्वा तो होती पत्थो तो होहिसि देवो इओ विउत्वी थ थंभा कोहा पमाएणं थणिया भवणवासिणो थद्धे लुद्धे अणिग्गहे थलिसेणाखंधारे थलेसु बीयाइ ववंति कासगा थक्थुइमंगलेणं भंते! जीवे किं.... थावरा तिविहा तहिं थीकहं विवज्जए तु थीकहा य मणोरमा थुई मंगलं च काऊण थेरे गणहरे गग्गे थोवं चिट्ठइ लंबमाणए द दंसणावरणं तहा दंसणे उ भइयव्वं दंसणे केवले य आवरणे दंसणे चरणे तहा दंसणेण तवेण य दंसणेण य सद्दहे दंसणे तितिहं वृत्तं दंसमसगवेयणा दच्चा भोच्चा य जट्ठा य दट्टु थलं नाभिसमेइ तीरं दट्टु ववस्से समणे तवस्सी दट्टूणं नरवई महिडियं दट्ठूण ते कामगुणे विरत्ता दट्ठूण रहनेमिं तं ५-२६ १४-३६ १४- ३४ ८-२० दहृपुव्वो अनंतसो ३६-२६० २७-३ २३-६१ ८-३ दंउसल्लभए य दंडाणं गारवाणं च दंडेहि वित्तेहि कसेहि चेव दंतसोहणमाइस्स दंसणं चरणं तहा दंसणनाणचरित् दंसणसम्पन्नयाए णं भंते! जीवे किं.. २६-२४ ६-६० २३- ८६ ३२- ११० १३-२२ दड्डो पक्को य अवसो दढं परिगिण्हई तवं दयाए परिनिव्वुडे दयाधम्मस्स खंतिए ११-३ ३६-२०६ ११-२; १७-११ ३०-१७ १२-१२ २६ सू० १५ ३६-६८ १६-२ १६-११ २६-४२ दस चेव सागराई २७-१ दसण्णभद्दो निक्खतो १०-२ दसणरज्जं मुइयं दसमा उवसंपदा दस वास सहस्साई दसवाससहस्सिया दस सागरोवमा ऊ दसहा उ जिणित्ताणं दसहा उ भवणवासी दस होंति सागरा मुहुत्ताहिया दसारचक्केण य सो १६-६१ ३१-४ १२-१६ १६-२७ २४-५ २८-२५ २६ सू० ६१ ३३-२ २८-२६ परिशिष्ट १ : पदानुक्रम दवग्गिणा जहा रणे १४-४२ दवदवस्स चरई १७-८ ३०-१४ २४-६:३६-३ २४-७ दव्वओ खेत्तकालेणं दव्वओ खेत्तओ चेव दव्वोओ चक्खुसा पेहे दव्वं इक्किक्कमाहियं दव्वाण य गुणाण य दव्वाण सव्वभावा दव्वे खेत्ते काले २८-८ २८-५ २८-२४ ३०-२४ दस उदही पलिओवम ३४-४२ दस उदही पलिय ३४-४३ दस उदही पलियमसंखभागमब्भहिया ३४-३५ ३६-२२७ ३६-१६४ ३६-५१ ३६-१०२ ३६-२२६ १८-४४ १८-४४ २६-४ दस ऊ सागरोवमा दस चेव उ सागरोवमा १६- ५० १६- ५७ २७-१६ १८- ३५ ५-३० दसारा य बहू जणा दाणे लाभे य भोगे य दायारमन्नं अणुसंकमंति दारए से सुहाइए ३३-६;३६-६ दाराणि य सुया चेव ३३-८ दारुणा गामकंटगा १६-१४ दारे य परिरक्खिए २८-३५ दासा दसणे आसी दस चेव नपुंसेसुं दस चेव सहस्साइं ३६-१६०,२१६, २२० ३६-१६३ २३-३६ ३६-२०५ ३४-३८ २२-११ २२-२७ ३३-८ दाहामु तुज्झं किमिहं ठिओ सि? १६-३१ दिगिंछापरिगए देहे ६-३८ दिज्जाहि मम कारणा १३-३० ३२-१४ १३-२८ १४-४ दिनमागे च वि २२-३६ दित्तं च कामा समभिद्दवंति ३४-४१,४८,५३ दिट्ठपुवं मए पुरा दिट्ठीए अणिमिसाए उ दिट्ठीए दिट्ठिसंपन्ने दिन्नं भुंजेज्ज भोयणं दिन्ना मु रन्ना मणसा न झाया दिया कामकमा इव दिवसस्स चउरो भागे दिवसस्स पोरुसीणं ३३-१५ १३-२५ २१-५ १८- १४ २-२५ १८- १६ १३-६ 92-99 २-२ २ - २४ १६-६ १६-६ १८-३३ २६-११ ३२-१० ६-७ १२-२१ १४-४४ २६-११ ३०-२० Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६६३ परिशिष्ट १: पदानुक्रम ४-५ दिव्वं च गई गच्छंति १८-२५ दुईतो भंजए जुगं २७-७ देवमणुस्सपरिवुडो २२-२२ दिव्वजुयलपरिहिओ २२-६ दुद्धदहीविगईओ १७-१५ देवाउयं चउत्थं तु ३३-१२ दिव्वमाणुसतेरिच्छं २५-२५ दुन्नि ऊ सागरोवमा ३६-२२४ देवा चउचिहा वुत्ता ३६-२०४ दिव्वा तहिं वसुहारा य वुट्ठा १२-३६ दुष्पट्ठियसुपट्ठिओ २०-३७ देवाणं तु वियाहिया ३६-२४५ दिव्या मणुस्सगा सहा तिरिच्छा २१-१६ दुष्परिच्चया इमे कामा ५-६ देवाणां हुज्ज अंतरं ३६-२४६ दिव्वा वरिससओवमा १८-२८ दुब्भिगन्धा तहेव य ३६-१७ देवा भवित्ताण पुरे भवम्मी १४-१ दिव्वेण गगणं फुसे २२-१२ दुमं जहा खीणफलं व पक्खी १३-३१ देवाभिओगेण निओइएणं १२-२१ दिव्वे य जे उवसग्गे ३१-५ दुमं जहा साउफलं व पक्खी ३२-१० देवा य जहाइयं समोइण्णा २२-२१ दिसाविचारिणो चेव ३६-२०८ दुमपत्तए पंडुयए जहा १०-१ देवा य देवलोगम्मि १३-७ दिस्स पाणे पियायए ६-६ दुलहे खलु माणुसे भवे १०-४ देविंदं इणमब्बवी ६-८,१३,१९,२५,२६,३३, दिस्स पाणे भयदुए २२-१४ दल्लहया कारण मासया १०-२० ३६,४३,४७,५२ दीवं कं मन्नसी? मुणी! दुल्लहाणीह जंतुणो ३-१ देविंदो इणमब्बवी ६-११,१७,२३,२७,३१, दीवप्पणट्टे व अणंतमोहे दुल्लहा तस्स उम्मज्जा ७-१८ ३७,४१,४५,५० दीवे य इइ के उत्ते? २३-६७ दुवालसंगं जिणक्खायं २४-३ देवो दोगुंदगो चेव १९-३ दीवोदहिदिसा वाया ३६-२०६ दृविहं खवेऊण य पुण्णपावं २१-२४ देवे नेरइए अ अइगओ १०-१४ दीसंति बहवे लोए दुविहं तु वियाहियं ३३-१० देवे वा अप्परए महिड्डिए १-४८ दीहाउया इड्डिमता दुविहं दोग्गइं गए ७-१८ देवे वावि महिहिए ५-२५ दीहामयविष्पमुक्को मसत्थो ३२-११० दुविहा अणसणा भवे ३०-६ देवेसु उववज्जई ७-२६ दुक्कडस्स य चोयणं १-२८ दुविहा आउजीवा उ ३६-८४ देवो दोगुंदओ जहा २१-७ दुक्करं खलु भो निच्चं दुविहा जीवा वियाहिया - दुक्करं चरिउं तवो ३६-४८ देसिओ वद्धमाणेण २३-१२,२३,२९ १६-३७ दृविहा तेउजीवा उ ३६-१०५ देसियं च अईयारं दुक्करं जे करंति तं २६-३६ १६-१६ दुविहा ते पकित्तया ३६-१२७,१३६,१४५ देसियं तु अईयार २६-४० दुक्करं दमसागरो १६-४२ दुक्कर मंदरो गिरी दुविहा ते वियाहिया ३६-१७,६८,७१, दोउदही पलियमसंखभागमब्भहिया ३४-३७ १६-४१ दुक्करं रयणागरो ६३,१७०,२०६,२१२ दोगुंछी अप्पणो पाए १६-४२ दुक्करं समणत्तणं दुविहा थलयरा भवे २-४ ३६-१७E दोगुंछी लज्जसंजए १६-४१ दुक्कराई निवारेउं दुविहा पुढवीजीवा उ ३५-५ ३६-७० दो चेव सागराई ३६-२२२ दुक्खं खु भिक्खायरियाविहारो दुविहा वणस्सईजीवा १४-३३ ३६-६२ दोच्चाए जहन्नेणं ३६-१६१ दुक्खं च जाईमरणं वयंति ३२-७ दुविहा वाउजीवा उ ३६-११७ दोहं अन्नयरे सिया ५-२५ दुक्खं निप्पडिकम्मया दुविहावि ते भवे तिविहा १९-७५ ३६-१७१ दोमासकयं कज्जं ८-१७ दुक्खं बंभवयं घोर दुविहा वेमाणिया तहा ३६-२०५ दो वि आवडिया कुड्डे २५-४० दुक्खं भिक्खायरिया १६-३२ दुविहा सा वियाहिया ३०-१२ दोसपओसेहिं मुच्चए भिक्खू ८-२ दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो ३२-८ दुसओ तेयालो वा ३४-२० दोसमेव पकुम्बई - २७-११ दुक्खकेसाण भायणं १६-१२ दुस्साहडं धणं हिच्चा ७-८ दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ३२-२३,३६, दुक्खमा हु पुणो पुणो २०-३१ दुस्सीलं परियागय ५-२१ ४६,६२,७५,८८ दुक्खस्संतगवेसिणो १४-५१ दुस्सीले रमई मिए दुक्खस्संतमुवागया १४-५२ दुस्सीसा वि हु तारिसा २७-८ दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले ३२-२६,३६, दुहओ गई बालस्स ७-१७ धणं आदाउमिच्छसि १४-३८ ५२,६५,७८,६१ दुहओ मलं संचिणइ ५-१० धणं पभूयं सह इत्थियाहिं १४-१६ दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो ३२-१०० दुहओ वि समिए सया २४-१४ धणधन्नपेसवग्गेसु १६-२६ दुक्खाणंतकरो भवे ३५-१ दुहओ वि से झिज्जइ तत्थ लोए २०-४६ धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो १३-२१ दुक्खिया बहुवेयणा ३-६ दुहओ सम्मत्तसंजुया १४-२६ ध' परक्कम किच्चा ६-२१ दुग्गई उववज्जई बहुसो ३४-५६ दुहाण य सुहाण य २०-३७ धणेण किं धम्मधुराहिगारे १४-१७ दुज्जए कामभोगे य १६-१४ दुहिएण वहिएण य १६-७१ धम्म अकाऊण परंसि लोए १३-२१ दुज्जय चेव अप्पाणं ६-३६ दुहिया असरणा अत्ता ६-१० धम्मं कल्लाण पावगं २-४२ दुट्ठस्सो परिधावई २३-५५,५८ देइ व पच्चक्खाणं २६-२६ धम्मं च कुणमाणस्स १४-२५ दुण्णुदही पलिओवम ३४-५३ देवकामाण अंतिए ७-१२,२३ धम्मं च पेसलं नच्चा ५-१६ दुइंतदोसेण सएण जंतू ३२-२५,३८,५१, देवत्तं माणुसत्तं च ७-१७ धम्म चर सुदुच्चरं १८-३३ ६४,७७,९० देवदाणवगंधव्वा १६-१६:२३-२० धर्म पि हु सद्दहंतया १०-२० Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि धम्मं सुणित्ता विणओववन्ने धम्मं सोऊण पव्वइओ धम्मं सोच्चा अणुत्तरं धम्मकहाए णं भंते! जीवे... धम्मज्जियं च ववहारं धम्मज्झाणं झियायई धम्मतित्थयरे जिणे धम्मत्थिकाए तद्देसे धम्मलद्धं मियं काले धम्मसद्धाए णं भंते! जीवे... धम्मसाहणमिच्छियं धम्मसिक्खाए कंथगं धम्मसुक्काई झाणाई धम्मसुक्काणि झायए धम्मस्सिओ तस्स हियाणुपेही धम्माणं कासवो मुहं धम्मापुरत्तो विमलेण चेयसा धम्माधम्मागासा धम्माथम्मे य दोवेए धम्मायरियस्स संघसाहूणं धम्मारामरए दंते धम्मारामे चरे भिक्यू धम्मारामे निरारंभे धम्मेडिओ सव्वपापी धम्मेदुविहे मेहावि! धम्मे संपडिवाइओ धम्मे हरए बंभे संतितित्थे धम्मो अहम्मो आगासं धम्मो कित्ती तहा सुयं धम्मो दीवो पइट्ठा य धम्मो सुद्धस्स चिट्ठ धारेउं अ महप्पणे धारेज्जा पियमप्पियं धारेयत्वं सुदुक्करे धारेच्या भक् धारे निव्वाणगुणादहं महं धिरं च केयणं किच्चा धिइमंता ववस्सिया धिइमं धम्मसारही धिरत्थु ते जसोकामी ! धिरत्थु मम जीवियं धीरस्स पस्सं धीरतं धीरा हु भिक्खाणिरयं चरंति धुत्ते व कलिना जिए धोरेयसीला तवसा उदारा न न इमं सव्वेसुगारिसु 919-9 १३-२ २५-४२ ६६४ न इमं सव्वेसु भिक्खूसु नई भवे अवि गंगासमाणा नऊ वयं एरिसमन्नपाणं न ओंकारेण बंभणो नंदणे सो उ पासाए २६ सू० २४ १-४२ १८-४ नंदावत्ते य विंछिए २३-१,५ न कंखे पुव्वसंथवं ३६-५ न कज्जं मज्झ भिक्खेण १६-८ न कामभोगा समयं उवेंति २६ सू०४ न किंचि गंध अवरज्झई से २३-३१ न किंचि फासं अवरज्झई से २३-५८ न किंचि भासं अवरज्झई से ३०-३५ न किंचि रूवं अवरज्झई से ३४-३१ न किंचि सद्दं अवरज्झई से न कोवए आयरियं १३-१५ २५-१६ २०-५८ नक्खत्तपरिवारिए ३६-८ ३६-७ ३६-२६५ १६-१५ १६-१५ २-१५ न गेण्हइ अदत्तं जो नक्खत्तं तंमि नहचउभाए नक्खत्ताण मुहं चंदो नक्खत्ताणं मुहं जं च नक्खत्ताण मुहं बूहि न गच्छई सरणं तम्मि काले नगरस्स खेमं काऊण १३-३२ न चाइया खोभइउं तिगुत्ता २३-२४ न चिट्ठे गुरुतिए २२-४६ १२-४६ न चित्ता तायए भासा नच्चा उप्पइयं दुक्ख नच्चा कम्मविवागयं नच्चा नमइ मेहावी २८-७, ८ ११-१५ २३-६८ न छिंदे न छिंदावए ३-१२ न जंपियं इंगियपेहियं वा १६-३३ 9-98 न जीवियट्ठा पजहामि भोए न जुंजे ऊरुणा ऊरु १६-२८ नट्टेहि गीएहि य वाइएहिं १६- २४ १६- ६८ न तं अरी कंठछेत्ता करेइ न तं तायंति दुस्सीलं ६-२१ न तं सुदिट्ठ कुसला वयंति २२-३० १६-१५ २२-४२ न तं सुहं कामगुणेसु रायं न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ न तस्स माया व पिया व भाया न तस्स सव्वे वि मणुन्नयं वा न ताओ मणसीकरे २२-२६ ७-२६ १४-३५ न तुज्झ भोगे चइऊण बुद्धी ५-१६ न तुमं जाणे अणाहस्स १४-३५ न ते किंचि न अच्चिमो न ते तुमं वियाणासि न ते पीला भविस्सई ५-१६ न तेसिं पडिसंजले ५-१६ ३२-१८ १२-११ २५-२६ १६-३ ३६-१४७ ६-४ २५-३८ ३२-१०१ परिशिष्ट १ पदानुक्रम न तेसिं पीहए मुणी न तेसु भावं निसिरे कयाइ न तेसु भिक्खु मणसा पउस्से नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं नत्थि किंचि अजाइयं नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं नत्थि जीवस्स नासुत्ति नत्थि जोइसमे सत्थे नत्थि नूणं परे लोए न दीसई जाइविसेस कोई न निक्कसिज्जइ कण्हुई न निण्डविज्ज कयाइ वि न निरटं न मम्मयं न निविज्जति संसारे न निसीएज्ज कयाइ वि नन्नटं पाणहेउं वा नन्नेसिं चक्खुफासओ ३२-५१ ३२-७७ ३२-६० ३२-२५ ३२-३८ १-४० २६-१६ ११-२५ २५-१६ न पए न पयावए न पक्खओ न पुरओ २५-१४ न पये न पयावए २५-११ २०-४५ न पारए होइ हु संपराए ६-२८ नपुंसवेयं विविहे य भावे २५-२४ न बंधवा बंधवयं उवेंति न बंभयारिस्स खमो निवासो न बंभयारिस्स हियाय कस्सई नमियामो ३२-१६ १-१६ ६-१० २- ३२ नमिमि अभिणिक्खमंतमि २-४१ १-४५ २- २ नमी राया विदेहेसु न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा नभी नमेइ अप्पाणं ३२-१४ १४-३२ १-१८ १३-१४ २०४८ २५-२८ १२-३८ १३-१७ १३-२३ १३-२२ ३२-१०६ न य ओहारिणि वए २-२५ १३-३३ न य कोऊहलं उवेइ स भिक्खू, न य णं दाहामु तुमं नियंठा ! २०-१६ न य दुक्खा विमोएइ न य दुक्खा विमायंति २५-१२ न य पावपरिक्खेवी न य मम्ममुदाहरे १२-३४ २२-३७ २-२४ न य मित्तेसु कुप्पई न मुंबई किंचि अणेसणिज्जं न मुणी रण्णवासेणं न मूलओ छिंदइ बंधणं से न मूसगाणं वसही पसत्था न मे एवं तु निस्सेसं न मे गच्छइ नुम्मग्गं न मे इज्झइ किंचण न मे दिट्ठे परे लोए न मे निवारणं अस्थि नमो ते संसयाईय! २-३८ ३२-२१ ४-११ २८-३० २-२८ २८-२६ २-२७ ३५-१२ २-४४ १२-३७ १-७ 9-99 १-२५ ३-५ १-२१ २५-१० १-३३ २-२ १-१८ ३५-१० २०-४१ ३२-१०२ ४-४ ३२-१३ ३२-११ १३-३० ६-५ १३-२३ ६-६१ १८-४५ २०-४७ २५-२६ २०-३६ ३२-१३ २२-१६ २३-५६ ६-१४ ५-५ २-७ २३-८५ १-२४ १५-६ १२-१६ २०-२४,२५,३० २०-२३,२६,२७ ११-१२ 99-8 ११-१२ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि न य वित्तासए परं न यामणुन्नेसु मणं पि कुज्जा न यापि पूयं गरहं च संजए न यापि भोगा पुरिसाण निच्चा न याचि भोगा विगई उवेंति नरए उववज्जई नरए दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु नरदुषणा नरएस वि एगया नरएस वेइया मए नरएसु वेयणा उन्हा नरएसु वेयणा सीया नरगतिरिक्खत्तणं धुवं नरगाओ न मुच्चई नरनारि पजहे सया तवस्सी न रसट्ठाए भुंजिज्जा नरस्सत्तगवेसिस्स २-२० ३२-२१ २१-१५,२० १३-३१ ३२-१०१ ७-२८ १६-१० १६-७३ ३-३ १६-७२ १६-४७ १६-४८ ७-१६ ५-२२ १५-६ ३५-१७ १६-१३ ६-४८ ३२- १२ १३-१५ १३-१८ १२-२१ ३२- १४ १- २५ ३२-२६,३६, ५२,६५,७८, ६१ ३२-६०, ७३ ८६,६६ ३२-३४, ४७ ३४-१६ ३६-२४२ नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं नराहिव कामगुणे ि नरिंद ! जाई अहमा नराणं नरिददेविंदभिवंदिएणं न रूवलावण्णाविलासहासं न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं न लिप्पई तेण मुणी विरागो न लिप्पई भवमज्झे वि संतो न लिप्पए भवमज्झे वि संतो नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं नवमम्मि जहन्नेणं नवरं पुण समाणे नवहि वरिसेहि ऊणा न वा लभेज्जा निउणं सहाय न वि कस्सवि उबवाओ नवि जन्नाण जं मुहं नवि जाणसि वेयमुहं न विज्जई अन्नमिहेह किंचि न वि निव्वाहणाय वा नविन समन न वि रुट्ठो न वि तुट्टो न विसा मज्झ दाहिई न वीएज्जा य अप्पयं न वीयरागस्स करेंति किंचि न वीरजायं अणुजाइ मग्गं न वीससे पंडिए आसुपन्ने न संतसंति मरणंते न संतसे न वारेज्जा ६६५ न सयं गिहाई कुज्जा न सव्वत्थ वियाहिया न सव्वत्थभिरोयएज्जा न सा पडिनियत्तई न सा पारस्स गामिणी न सा ममं वियाणाइ न सिणेहं कहिंचि कुव्वेज्जा नसिया अलोए न सिया तोत्तगवेसए न से इहं नेव परत्थ लोए न सो सुयक्खायधम्मस्स न सो होइ पसंसिओ नहं ओगाहलक्खणं न हणे पाणिणो पाणे न हु जिणे अज्ज दिस्सई न हु ते समणाच्चति न हु दाहामि ते भिक्खं न हु पाणवहं अणुजाणे न हु मुणी कोवपरा हवंति न हु सो पभू तुमं पुत्ता! नहेव कुंचा समइक्कमंता नाइउच्चे व नीए वा नाइदूरमणासन्ने नाइमत्तं तु भुंजेज्जा नाइविगिट्ठ तवं चरे नाइवेलं मुणी गच्छे नाइवेलं विहन्नेज्जा नागो जहा पंकजलावसन्नो नागो व्व बंधणं छित्ता नागो संगामसीसे वा नाणं च दंसणं चेव नाणं नाणीहि देसिय नाणंमि दंसणंमी १६-७५ ३४-४६ ३२- ५ ३४-५८, ५६ नाणदंसणलक्खणं २५-११ नाणदंसणसन्निया २५-११ नाणसंपन्नयाए णं भंते! १४-४० नाणस्स केवलीणं ३५-८ ३६-१३०,१३६, १७३, १८२, १८६ २१-१५ १४- २४, २५ २३-७१ २७-१२ नाणावरणं पंचविहं नाणाविहविगप्पणं नाणासीला अगारत्था नाणी नो परिदेवए नाणुचिंते कयाइ वि नाणुतप्पेज्ज पन्नवं नाणुतप्पेज्ज संजए ८-२ नाणेणं दंसणेणं च ११-५ नाणेण जाणई भावे नाणेण य मुणी होइ 9-80 २५-१० नाणस्स सव्वस्स पगासणाए २५-२६ नाणस्सावरणिज्जं २५- ६ नाणाकुसुमंछन्नं २७-१२ नाणागोत्तासु जाइसु २-६ नाणादुमलयाइण्णं नाणाधन्नपडिपुण्णे ३२- १०० २०-४० नाणापक्खिनिसेवियं ४-६ नाणारमणपडिपुणे ५-२६ नाणारुई च छंदं च २- ११ नाणावंजणसंजयं १७-२० ६-४४ नाणे दंसणे चेव १४- ३८ नाणोसहिपज्जलिए ८-८ १२- ३१ १६- ३४ १४-३६ १-३४ १-३३,२०-७ २८-६ नादंसणिस्स नाणं ६-६ नानमंति नराहिवा! १०-३१ नापुट्ठो वागरे किंचि नाम कम्मं तु दुविहं नामकम्मं च गोयं च नामगोत्ताणं उक्कोसा ८-१३ २५-६ परिशिष्ट १ : पदानुक्रम ३६-२५३ २-६ २-२२ १३-३० १४-४८ २-१० नायएज्ज तणामवि नायए परिनिव्वुए १६-८ नायए परिनिव्वुडे नायव्वं दंसणावरणं नायव्वा अमोरत्ताओ नायव्वा काउलेसाए नायव्या किण्हलेसाए नायव्वा तेउलेसाए नायव्वा नीललेसाए २३-३३:२८-२,३,११ नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा २८-५ नायव्वा पम्हलेसाए नायव्वा सुक्कलेसाए २६-४७ नायव्वो होइ इत्तरिओ २८- १ नारीजणाई परिवारयंतो ३६-६६, ६७ नारीसु नोपगिज्झेज्जा जीवे...२६ सू०६० नालं ते मम ताणाए ३६-२६५ नावकंखे कयाइ वि नामाई तु जहक्कमं नामाई वण्णरसगंध नामेण संजए नाम ३३-४ २३-३२ ५-१६ २-१३ १६-६ २-३६ २-३० २२-२६ २८-१० नावा य इइ का वृत्ता? ३२-२ ३३-२ नावा विपरिधावई २०- ३ नासन्ने नाइदूरओ ३-२ नासन्ने बिलवज्जिए २०-३ नासीले न विसीले ११-२६ २०-३ नाहं रमे पक्खिणि पंजरे वा नाहो मज्झ न विज्जई ११-३० निंबरसो कडुयरोहिणीरसो वा १८-३० निकेयमिच्छेज्ज विवेगजोग्गं १२- ३४ निक्कसिज्जइ सव्वसो २८-३५ २५-३० २८-३० २६-३६ ११-२६ २८-३० ६-३२ १-१४ ३३-१३ ३३-३ ३३-२३ ३४-३ ३४-२ १८-१ ६-७ ३६-२६८ १८- २४ ३३-६ २६-१५ ३४-३६ ३४-३४ ३४-३७ ३४-३५ ३४-३८ ३४-३६, ४६ ३०-११ १३-१४ ८- १६ ६-३ ६-१३ २३-७२ २३-७० १-३४ २४-१८ ११-५ १४-४१ २०-६ ३४-१० ३२-४ १-४ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६६६ परिशिष्ट १: पदानुक्रम १-१८ २६-३३ निक्खंता जिणसासणे १५-४६ निरट्ठिया नग्गरुई उ तस्स २०-४६ नेरइया सत्तविहा ३६-१५६ निक्खंतो जिणसासणे १८-१९ निरवकंखा बिइज्जिया ३०-६ नेव किच्चाण पिट्टओ निक्खमणं तस्स काउंजे २२-२१ निरवेक्खो परिव्वए ६-१५ नेव कुज्जा कयाइ वि १-१७ निक्खमिय बारगाओ २२-२२ निरस्साए उ संजमे १६.३७ नेव कुज्जा परिग्गहं २-१६ निक्खिवित्ताणं भायणं २६-३६ निरासवे संखवियाण कम्म २०-५२ नेव चिट्टे न संलवे निगमे य आगरे पल्ली ३०-१६ निरोवलेवाइ असंथडाई २१-२२ नेव ताणायं तं तव १४-३६ निगमे वा रायहाणिए २-१८ निवडइ राइगणाण अच्चए १०-१ नेव पल्हत्थियं कुज्जा १-१६ निग्गंथो वि न करेज्ज छहिं चेव २६-३३ निवेसइ निवज्जई २७-५ नेव सेज्जागओ कया निग्गंथे पावयणे २१-२ निव्वत्तई जस्स करण दुक्खं ३२-३२,४५ नेहपासा भयंकरा २३-४३ निग्गंथो धिइमंतो ५८,७१,८४,६७ नो अइमायाए पाणभोयणं आहरेत्ता --- निग्गया होहिई मन्ने २७-१२ निव्वत्तयंती अमुणन्नयं वा ३२-१०६ १६सू०१० निच्चं भीएण तत्थेण १९-७१ निव्वाणं च न गच्छइ ११-६ नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा १४-१६ निच्चं मुइयमाणसो १६-३ निव्वाणं ति अबाहति २३-८३ नो इत्थीणं इंदियाई .. १६-सू०६ निच्चकालप्पमत्तेणं १६-२६ निव्वाणं परमं जाइ ३-१२ नो इत्थीणं कहं कहित्ता हवइ १६ सू०४ निच्चसो परिवज्जए १६-३,७,१०,१४ निव्वाणमग्गं विरए उवेइ २१-२० नो इत्थीर्ण कुडुतरंसि वा . १६ सू०७ निच्चाउत्तेण दुक्करं १६-२६ निव्वावारस्स भिक्खुणो ६-१५ नो इत्थीहिं सद्धिं ... १६ सू०५ निज्जाइ उदगं व थलाओ - निविण्णकामो मि महण्णवाओ १६-१० नो एणं पडिवज्जए ३-१० निज्जाओ वण्हिपुंगवो २२-१३ निविण्णसंसारभया जहाय १४-२ नोकसायं तहेव य ३३-१० निज्जाणं पावगं इमं २१-६ निव्यितिगिच्छा अमृढदिट्टी य २८-३१ नो ताहि विणिहन्नेज्जा २-१७ निज्जूहिऊण आहारं ३५-२०. निविसया निरामिसा १४-४६ नो तेसि वयइ सिलोगपूयं १५-६ निद्दा तहेव पयला ३३-५ निव्वेएण भंते! जीवे किं २६ सू० ३ नो तेसिमारभे दंडं ८-१० निद्दानिद्दा य पयलपयला य ३३-५ निसंते सियाऽमुहरी १-८ नो निग्गंथे पुव्वरयं पुबकीलियं निद्दासीले पगामसो १७-३ निसग्गुरुइ त्ति नायब्बो २८-१८ अणुसरित्ता हवइ... १६ सू० ८ निद्धंतमलपावर्ग २५-२१ निसग्गुवएसरुई २८-१६ नो पणीयं आहारं आहरित्ता हवइ... निद्धंधसपरिणामो ३४-२२ निसन्नं रुक्खमूलम्मि २०-४ __ १६ सू०६ निर्बुणित्ताण निग्गओ १६-८७ निसीएज्जप्पकुक्कए १-३० नो रक्खसीसु गिज्झेज्जा निंदणयाए णं भंते! जीवे किं २६ सू०७ निसेज्जं पायकंबलं १७-७ नोवलिप्पइ वारिणा २५-२६ निन्नेहा निप्परिग्गहा १४-४६ निस्संकिय निक्कंखिय २८-३१ नो विभुसाणुवाई हवइ, से निग्गथे १६सू० ११ निभरिच्छे रुहिरं वमंते १२-२६ निस्संगो चत्तगारवो १६-८६ नो वि य वंदणगं कुओ पसंसं १५-५ निमंतयंतं च सुए धणेणं १४-११ निस्संसो अजिइंदिओ ३४-२२ नो सक्कियमिच्छई न पूर्व १५-५ निमंतिओ य भोगेहि २०-५० निहंतूण उवायओ २३-४१ नो सद्दरूवरसगंधफासाणुवाई हवइ..... निमज्जिउ मोहमहण्णवम्मि ३२-१०५ निहियं दुहओ वि विरायइ ११-१५ १६सृ० १२ निमित्त कोऊहल संपगाढे २०-४५ नीया तंतवगाविय ३६-१४८ नो सुजहा अधीरपुरिसेहि ८-६ निमित्तेण य ववहरई १७-१८ नीयावित्ती अचवले ११-१० नो हीलए नो वि य खिसाएज्जा १६-८३ निमेसतरमित्तं पि १६-७४ नीयावित्ती अचवले ३४-२७ नो हीलए पिंडं निरसं तू १५-१३ निम्ममत्तं सुदुक्करं १९-२६ नीललेसं तु परिणमे ३४-२४ निम्ममो निरहंकारो १६-८६३५-२१ नीललेसा उ वण्णओ ३४-५ निम्मोयणिं हिच्च पलेइ मुत्तो १४-३४ नीलासोगसंकासा ३४-५ पइण्णगं दिट्टिवाओ य २५-२३ नियगाओ भवणाओ २२-१३ नीहरंति मयं पुत्ता १४-१५ पइण्णवाई दुहिले ११-६ नियडिल्ले अणुज्जुए ३४-२५ नीहारिमणीहारी ३०-१३ पइरिक्कुवस्सयं लद्धं २-२३ नियंठधम्म लहियाण वी जहा २०-३८ नीहासा य निराणंदा २२-२८ पइरिक्के परकडे वा ३५-६ नियत्तेज्ज जयं जई २४-२१,२३,२५ नेच्छई सामुदाणियं १७-१६ पउंजेज्ज इमं विहिं २४-१३ नियत्तो हाससोगाओ १६-६१ नेयाउयं दट्टमदटुमेव पएसग्गं खेत्तकाले य ३३-१६ नियाणमसुहं कडं १३-२८ नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए ३२-१७ पएसग्गमणंतर्ग ३३-१७ निरंगणे सव्वओ विप्पमुक्के २१-२४ नेरइयतिरिक्खाउ ३३-१२ पओगकाले य दुही दुरते ३२-३१,४४, निरट्टगम्मि विरओ १-४२ नेरइयतिरिक्खा य ३६-१५५ ५७,७०,८३,६६ निरट्ठसोया परियावमेइ २०-५० नेरइयाणं तु अंतरं . ३६-१६८ पंकभूया उ इथिओ २-१७ निरट्ठाणि उ वज्जए १-८ नेरइयाणं वियाहिया ३६-१६७ पंकाभा धूमाभा ३६-१५७ Jain Education Intemational Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६६७ परिशिष्ट १: पदानुक्रम पंकेण व रएण व २-३६ पक्खिणो य चउबिहा ३६-१८८ पडिलेहणापमत्तो २६-३० पंखाविहूणो ब्व जहेह पक्खी १४-३० पक्खी पत्तं समादाय ६-१५ पडिलेहिज्ज गोच्छगं २६-२३ पंच जिए जिया दस २३-३६ पक्खेण य दुअंगुलं २६-१४ पडिलेहिज्ज जयं जई २६-३८ पंचमं कुसतणाणि य २३-१७ पगाढा जत्थ वेयणा ५-१२ पडिलेहित्ताण भंडयं २६-२१ पंचमम्मि जहन्नेणं ३६-२३८ पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा १४-१३ पडिलेहित्ता मुणी कुज्जा २६-२० पंचमहव्वयजुत्तो १६-८८ पच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं... २६सू० १४ पडिलेहेइ पमत्ते १७-६,१० पंचमहव्वयधम्म २३-८७ पच्चयत्थं च लोगस्स २३-३२ पडिवज्जइ भावओ २३-८७ पंचमाए जहन्नेणं ३६-१६४ पच्चागया छट्ठा ३०-१६ पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि २१-१२ पंचमा छंदणा नाम २६-३ पच्चुप्पन्नपरायणे ७-६ पडिसोओ व्व दुत्तरो १६-३६ पंचमा होइ नायव्वा ३३-५ पच्छा कडुयविवागा १६-११ पढमं पयं पसत्थं २६-२८ पंचमुट्ठीहिं समाहिओ २२-२४ पच्छा गमिस्सामु पहाणमग्गं १४-३१ पढमं पोरिसिं सज्झायं २६-१२,१८,४३ पंचमो छ?ओ पइण्णतवो ३०-११ पच्छा जाया ! गमिस्सामो १४-२६ पढमम्मि जहन्नेणं ३६-२३४ पंचलक्खणए तुम १६-४३ पच्छाणुतावेण दयाविहूणो २०-४८ पढमा आवस्सिया नाम २६-२ पंचविहमंतरायं ३३-१५ पच्छाणुतावे य तवप्पभावं ३२-१०४ पढमाए जहन्नेणं ३६-१६० पंचविहा जोइसिया ३६-२०५ पच्छा दिट्ठो य तीइ वि २२-३४ पढमे वए महाराया ! २०-१६ पंचविहे कामगुणे १६-१० पच्छा धम्म चरिस्ससि १६-४३ पढमे वासचउक्कम्मि ३६-२५२ पंचसमिओ तिगुत्तिगुत्तो य १६-८८ पच्छा पच्छाणुतावए १०-३३ पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु ३४-५८ पंचसमिओ तिगुत्तो ३०-३ पच्छा परिन्नाय ४-७ पणगजीवाण अंतरं ३६-१०४ पंचहाणुत्तरा सुरा ३६-२१६ पच्छा पुरा न चइयव्वे १९-१३ पणयालसयसहस्सा ३६-५८ पंचहा जलयराहिया ३६-१७२ पच्छायइत्ता नियगं सरीरं १२-८ पणवीसभावणाहिं ३१-१७ पंचहा जोइसालया ३६-२०८ पज्जत्तमज्जत्ता ३६-७०,८४,६२,१०८, पणवीस सागराई ३६-२३६ पंचहा ते पकित्तिया ३६-१६-१८,२१, ११७,१२७,१३६,१४५ पणीयं पाणभोयणं ३०-२६ ८५,११८ पज्जवचरओ भवे भिक्खू ३०-२४ पणीयं भत्तपाणं च १६-१२ पंचालराया ! वयणं सुणाहि १३-२६ पज्जवाणं च सव्वेसिं २८-५ पणीयं भत्तपाणं तु १६-७ पंचालराया वि य बंभदत्तो १३-३४ पज्जवाणं तु लक्षणं २८-१३ पत्तं दुक्खं अणंतसो १६-६१ पंचालेसु य दुम्मुहो १८-४५ पट्टणमडंबसंवाहे ३०-१६ पत्तपुष्फफलोवेए ९-६ पंचासवप्पवत्तो ३४-२१ पडंति नरए घोरे १५-२५ पत्तिएण पसायए १-४१ पंचिंदियकायमइगओ १०-१३ पडिकम्मं को कुणई १६-७६ पत्तीइ भद्दाइ सुहासियाई १२-२४ पंचिंदियतिरिक्खाओ ३६-१७० पडिकूलेइ अभिक्खणं २७-११ पत्तेगसरीरा उ ३६-६४ पंचिंदिया उ जे जीवा ३६-१५५ पडिक्कमणेणं भंते ! जीवे किं... २६ सू० १२ पत्तेगा य तहेव य ३६-६३ पंचिंदियाणि कोहं ६-३६ पडिक्कमामि पसिणाणं १८-३१ पत्तेया इति आहिया ३६-६५ पंचेव समिइओ २४-१ पडिक्कमित्ता कालस्स २६-३७ पत्ते वाणारसिं पुरि २५-२ पंजली पडिपुच्छई २०-७ पडिक्कमित्तू कालस्स २६-४५ पत्तो गइमणुत्तरं १८-३८,४०,४२,४३,४७ पंडिया पवियक्खणा-६२,१६-१६:२२.४६ पडिक्कमित्तू निस्सल्लो २६-४१,४६ पत्तो वेयरणिं नदि १६-५६ पंडियाणं सकामं तु ५-३ पडिगाहेज्ज संजए १-३४ पदुट्टचित्तो य चिणाइ कम्मं ३२-३३,४६, पंडियाणं सुणेह मे ५-१७ पडिच्छन्नंमि संवुडे १-३५ ५७,७२,८५,६८ पंडुपणगमट्टिया ३६-७२ पडिणीए असंबुद्धे १-३ पधावंतं निगिण्हामि २३-५६ पंडुरा निम्मला सुहा ३६-६१ पडिणीयं च बुद्धाणं १-१७ पन्नरस तीसइ विहा ३६-१६७ पंतं सयणासणं भइत्ता १५-४ पडिपुच्छणयाए णं भंते! जीवे... २६ सू० २१ पन्ना समिक्खए धम्म २३-२५ पंतमुलाई परिब्बए स भिक्खू १५-१३ पडिपुण्ण दलेज्ज इक्कस्स ८-१६ पन्ने अभिभूय सव्वदंसी १५-२,१५ पंताणि चेव सवेज्जा ८-१२ पडिपुण्णं नालमेगस्स ६-४६ पप्पोति मच्चुं पुरिसे जरं च १४-१४ पंतोवहि उवगरणं १२-४ पडिपुण्णे पुण्णमासीए ११-२५ पप्फोडणा चउत्थी २६-२६ पकप्पम्मि तहेव य ३१-१८ पडिमं पडिवज्जओ २-४३ पबंधं च न कुव्वई ११-११ पक्ककविट्ठस्स वावि जारिसओ ३४-१३ पडिरूवं पडिवत्ति २३-१६ पबंधं च पकुब्वई ११-७ पक्कपुव्वो अणंतसो १-४६ पडिख्वयाए णं भंते ! जीवे किं... २६ सू० ४३ पन्भट्ठा समाहिजोएहि ८-१४ पक्कमंति दिसोदिसिं २७-१४ पडिरूवेण एसित्ता १-३२ पभाससे किं तु सगासि अम्हं १२-१६ पक्कमंति महेसिणो २८-३६ पडिलेहणं कुणंतो २६-२६ पभीओ परलोगस्स ५-११ पक्खपिंडं व संजए १-१६ पडिलेहणाअणाउत्ते १७-६ पभूयथणसंचओ २०-१८ Jain Education Intemational Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि पयरयणो राया पमज्जेज्ज जयं जई पमत्ते य अभिक्खणं पत्ते रसलोलुए साय गवेसए य पहले सं तु परिणमे पम्हलेसा उ वण्णओ पयओ तं पडिस्सुणे पण पयावणे य मागे व पयहित्तु महाजसो पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं पयाहिणं करेंतो परं अप्पाणमेव य परं भवं सुंदर पावगं वा परं संवेगमागओ पर करणे पहिपुच्छणा परगेहंसि वावडे परपासंड सेव परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले परमद्वपएहि चिई परमत्थसंथवो वा परमद्धजोयणाओ परमंतेहिं वा पुणो परमाणु व बोद्धव्या परमा दुहसंबद्धा परमाहम्मिएस य परलोए अणिस्सिओ परलोगे भविस्सई परस्सणुवघाइए पराईओ वाहिरिवोसहेहिं परिग्गहं इत्थिओ माणमायं परिग्गहविवज्जणं परिग्गहारंभनियत्तदोसा परिजुष्णेति यत्वेति परिजूरइ ते सरीर यं परिणामो तेसि पंचहा परिणामो न सुंदरो परिदाहेण तज्जिए परिभोगेसणा य जा परिभोयंमि चउक्कं परिमंडलसंठाणे १-२७ ३५-१० परिहारविसुद्धीयं ३४-२६ परीसहाणं पविभत्ती १८- ४६ २८-२२ ६-५६ परीसहा दुब्विसहा अणेगे परीसहे आयगुत्ते सहेज्जा परूवणा तेसि भवे २५-८,१२,१५,३३,३७ परे भवे अस्थि जीवस्स १३- २४ परेसु घासमेसेज्जा २१-१० पलंदूलसणकंदे य २६-५ पलालं फासूयं तत्थ परिमंडला य वट्टा परिमियं चेव आयामं परिवज्जणं रसाणं तु परिवज्जित्तु संजए ६६८ परिवज्जेज्ज संजए परिवाडीए न चिट्ठेज्जा परिवूढे परंदमे २०-२ २४- १४ १७- ८ ३४-२३ परिव्वयंते अणियत्तकामे ३४-३० परिसप्पा दुविहा भवे २४-६ परिक् परिहार्यंति चरिमंते १७-१८ पलिउंचग ओवहिए १७-१७ पलिओवम भागो १२-६ पलिओवमं जहन्ना २१-२१ पलिओवमं तु एगं २८-२८ पलिओवमस्स भागो २६-३५ पलिओवमाई तिण्णि उ १८-३१ पलिओवमाउ तिण्णि उ ३६ - १० पलिओवममेगं तु १६-७१ पलियमसंखं च उक्कोसा ३१-१२ पलियमसंखं तु उक्कोसा १६- ६२ पलियमसंखिज्ज इमो २२-१६ पलियमसंखेज्जेणं २४ - १७ ३२- १२ १२-४१ १६- २६ १४-४१ २- १२ १०- २६ ३६-१५ पव्वए अणगारियं १६-१७ पव्वज्जं सा जिणस्स उ २८ पब्चज्जगदगओ २४ - ११ पव्वज्जाठाणमुत्तमं २४-१२ पव्वयंतो न सोयइ ३६-४२ पव्वावेसो तहि बहुं ३६-२१ पसत्थदमसासणे ३६-२५४ परियट्टणयाए णं भंते! जीवे २६ सू० २२ परियतीए राईए २०-३३ परियायधम्मं चभिरोयएज्जा २१-११ पति पुत्ता य पई य मज्झं पल्लोयापुल्लया चेव पवज्जं अस्सिओ मुणी पवेइया आवसहाय रम्भा पवेसेज्ज अरी कुद्धो पव्वइओ ऽणगारिय पव्वइओ हि सि अणगारियं पसत्थलेसाण तिन्हं पि पसत्थाओ अहिठेज्जासि पसंतचित्ते दंतप्पा पसन्नं ते तहा मणो ३०-२६ पसन्ना लाभइस्संति २४-१० पसवो दासपोरुसं १८-३० पसायए ते हु दुरासयं पि १-३२ पसायपेही नियागट्टी ७-६ पसारिया बाहु अकम्पचेट्ठे पसाहि पंचाल गुणोववेयं पसिढिलपलंबलोला पसुतो मि नराहिवा! पसुबंधा सव्ववेया पहने कम्ममहाणवं पहचाओ ददुडीओ सुरे पहा छायातवे इ वा १४-१४ ३६- १८१ २- ५ ३६-५६ २८-३२ २-१ २१-१७ २१-१६ ३६-३ ३४- ५८, ५६ २- ३० ३६-६७ परिशिष्ट १ पदानुक्रम पहाय ते पास पर्यट्टिए नरे पहाय रागं च तहेव दोसं पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो पहीणपुत्तो मि तहा अहं पि पहीयए कामगुणेसु तन्हा पहू दुक्खे विमुच्चई ३४-२५ पाइओ कलकलंताई ३६-२२१ पाइओ मि जलतीओ ३४-५२ २३-१७ पाउं होई सुदुक्करं पाए पसारिए वावि पागारं कारइत्ताणं पाडिओ फालियो छिन्नो पाढवं सरीरं हिच्चा ३६-२२१ ३६ - १६१ ३६-२००,२०१ ३६-१८४, १८५ ३६-२२० ३४-५० पाणभूयदयट्टाए पाणयम्मि जहन्नेणं ३४-४६ पाणवहं मिया अयाणंता ३४-४८ पाणवहमुसावाया ३४-५२ पाणाइ भूयाइ विहेडयंता १४-३६ पाणाइवयाविरई ३६-१२६ ३५-२ पाणिणो कम्मकिल्बिसा पाणिदया तवहेउ पाणी नो सुप्पसारए पाणीपाणविसोहणं १३-१३ २०-२० २०-३४ पाणे य नाइवाएज्जा १०-२६ पायं रसा दित्तिकरा नराणं २०-३२२१-१० पायच्छित्तं तमाहिय २२-२८ पायच्छित्तं दसविहं १८-३६ पायच्छित्तं विणओ ६-६ पायच्छित्तकरणेणं भंते! जीवे २५-२० पायत्ताणीए महया २२-३२ पारियकाउस्सग्गो १६- ६३ पारेवयगीवनिभा ३४-१७,१६ ३४-६१ ३४-२६,३१ १८-२० पावं पुरा कम्ममकासि मोहा पावकम्मनिरासवे पावकम्मपवत्तणे पावकम्मेहिं पाविओ पावकम्मो अनंतसो पावगं परिवज्जए १-४६ ३- १७६- ५ १-१३ १-२० १२-२६ १३-१३ २६-२७ २०-३३ २५-२८ १८-४८ १२-३६ २८-१२ ४-२ २१-१६ १४-२६ १४-३० ३२-१०७ ३५-२० १६-६८ १६-७० १६-३६ १-१६ ६-१८ १६-५४ ३-१३ ३५-१० ३६-२३१ ८-७ ३०-२ १२-३६ १६-२५ ३-५ २६-३४ २-२६ २६-२५ ८-६ ३२-१० ३०-३१ ३०-३१ ३०-३० * २६ सू०१७ १८- २ २६-४०,४२, ४८, ५१ ३४-६ १४-२० ३०-६ ३१-३ १६-५७ १६-५३ १-१२ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरण्झयणाणि पावदिट्टि ति मन्नई पावदिट्टि उ अप्पाणं पावदिट्ठि विहन्नई पावसमणि त्ति वुच्चई पावसुपसंगम् पावाइ कम्माइ पुणेल्लयामो? पावेसु तं दमीसरा ! पासइ समण संजयं पासंडा कोउगा मिगा पासजाईपहे बहू पासबद्धा सरीरिणो पासमाणो न लिप्पई ताई पासवणुच्चारभूमिं च पासाए कारइत्ताणं पासाए कीलए रम्मे पासासु गिहेसु य पासाओ वि न फिट्टई पासा य इइ के वुत्ता? पासायलोयणट्टिओ पासायलोयणे ठिओ पासित्ता से महापन्ने पासितु भद्दा इणमाहु भुज्जो पासेण य महाजसा पासेण य महामुनी पासे समियदंसणे पासेति कूटनाले पिउणा सयं कोसलिएण रन्ना पिंडवायं गवेसए पिंडवायं चरे मुणी पिंडोग्गरूपडिमा पिडोलए व दुस्सीले पियंकरे पियंवाई पियं न विज्जई किंचि पियधम्मे दधम्मे पियपुत्तगा दोन्नि वि माहणस्स पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा पिवरं परमदुखिया पियरो वि तहा पुत्ते पिया आणेइ रूविणिं पिया मे सव्वसारं पि पिसायभूय जक्खा य पिहुंडं नगरमा गए पिहुंडे ववहरंतस्स पीणिए विउले देहे पीलिओ मि सकम्मेहिं पीलेइ अत्तगुरु किलिट्टे पुग्गलाणं तु लक्खणं १- ३८ पुग्गला समुदाहिया १-३६ पुच्छई तं महामुणि २- २२ पुच्छ भंते! जहिच्छं ते १७-३ से १६ पुच्छमाणस्स सीसस्स ३१-१६ पुच्छामि ते महाभाग ! १२-१४ पुच्छिऊण मए तुब्भं पुच्छिज्जा पंजलिउडो पुच्छेज्जा पंजलिउडो २२-२५ १६- ५ २३-१६ ६-२ २३- ४० ६६९ पुज्जा जस्स पसीयंति पुझे के कई पुट्ठो तत्थहियासए ८-४ पुट्ठो य दंसमसएहिं २६-३८ पुट्टो वा नालियं वए ६-२४ पुढविक्ायद्गओ २१-७ पुढवी आउक्काए ६-७ पुडवी आउजीवा य पुढवीकट्टनिस्सिया २०-३० २३- ४२ १६-४ २१-८ २२- १५ १२- २५ २३- २६ २३-१२, २३ पुढवी छत्तसंठिया पुढवीजीवाण अन्तरं पुढवी य सक्करा वालुया य पुढवी साली जवा चेव पुढवीसु सत्तसू भवे पुढो विस्संभिया पया पुणो चउत्थीए सज्झायं पुणो पुणो वंदई सक्को ६-४ १६- ६३ पुण्णं पावासवो तहा १२-२२ पुत्तं ठवेत्तु रज्जे ६-१६ पुत्तं दारं च नायओ ३५-१६ पुत्तं रज्जे ठवित्ताणं ३१-६ पुत्तदारं च बंधवा ५-२२ पुसोगड़िया ११-१४ पुत्ते पडिठप्प गिहंसि जाया ! ६-१५ पुत्ते रज्जे ठवित्ताणं ३४-२८ पुत्तो मे भाय नाइ ति १४-५ २१-१५ १८- १५ १८- १५ पुरिमस्स पच्छिमंगी पुमत्तमागम्म कुमार दो वी पुरं अंतेउरं च मे पुराणपुरणी पुरिमा उज्जुजडा उ पुरिमाणं दुव्विसोझो उ २१-७ पुरिसेसु य अस २०-२४ ३६ - २०७ २१-२ पुरीए तत्थ माहणे २१-३ पुरे पुराणे उसुधारनामे ७- २ पुरोहिओ तस्स जसा य पत्ती १६५२ पुरोहितं कमसोणुगत ३२-२७,४०, ५३ पुरोहियं तं ससुयं सदारं ६३,७६,६२ पुलए सोगंधिए य बोद्धव्वे २८-१२ पुव्वं ता वत्थमेव पडिलेहे परिशिष्ट १ पदानुक्रम ३६-२० पुव्वं विसुद्धसद्धम्मे २५- १३ पुव्वकम्मखयट्ठाए २२-२२ पुग्योडीह तु १-२२ २३-२१ पुव्वाइं वासाइं चरप्पमत्तो २०-५७ पुव्वा वाससया बहू १-२२ पुव्विं च अणागयं च २६-६ पुव्विं भावणभाविया १-४६ पुव्विल्लंमि चउभाए २- ४०, ४६ २- ३२ पुहुत्तेण अणाईया पूइदेहनिरोहेणं २-१० पेच्चत्थं नावबुज्झसे पेच्चा होहिसि उत्तमो १-१४ १०-५ पेज्जदोसमिच्छादंसणविजएणं भंते ! ३६-१८५, १६२, २०१ ४-८ ३-१५ १२-३२ १४-५२ २६-८, २१ २६-३० २६ सू० ७२ ३६-६६ पेडा य अद्धपेडा ३०-१६ ३५-११ पेसिया पलिउंचंति २७-१३ २१-२ २६-४४ २६-२२,३७,४५ ३६-५७ पोएण ववहरते ३६ - ८२ पोरिसीए चउत्थीए ३६-७३ पोरिसीए चउब्भाए ६-४६ पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे २०-४२ ३६-१५६ पोसहं दुहओ पक्खं ३-२ २६-१२ ५-२३ पोसेज्जा वि सयंगणे ७-१ पोसे मासे चउप्पया २६-१३ ६-५६ फ २८-१४ ६-२ १६-८७ १८-३७, ४६ १६-१६ २०-२५ फासओ उण्हए जे उ फासओ कक्खडे जे उ फासओ जे उ गुरुए १८-४६ फासओ निद्धए जे उ १४-६ फासओ परिणया जे उ १-३६ १४-३ फासओ मउए जे उ फासओ २०-१४ फासओ २०-१८ लहुए जे उ जे उ लुक्खए फासओ सीयए जे उ फासपरिणामलक्खणं २३-८७ २३-२६ २३-२७ फासस्स कार्य गहणं वयंति ३६-५१ फासाणुगासाणुगए य जीवे २५- ४ फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं फासाणुवाएण परिग्गहेण 98-9 फग्गुणवसाय फरुसं पि अणुसासणं फलेइ विसभक्खीणि ३-१६ ६-१३ ३६-१७६ १४-३ फासा फुसंती असमंजसं च १४-११ १४-३७ फासुए सिज्जसंथारे ३६-७६ फासुए सेज्जसंथारे २६-२४ फासूयं परकडं पिंडं ३६-६५ ७-२६ १८-१३ ६-५८ २६-१५ १-२६ २३-४५ ३६-३६ ३६-३४ ३६-३६ ३६-४० ३६-१६ ३६-३५ ३६-३७ ३६-४१ ३६-३८ ३४-२ ३२-७५ ३२-७६ ३२-८४ ३२-८० ४-११ फासिंदियनिग्गणं भंते ! जीवे २६ सू० ६७ २३-४, ८ २५-३ १-३४ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरझयणाणि फायम्मि अणबाहे फासे अतित्तसस परिग्गहे य फासे अतित्ते य परिग्गहे य फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो फासे विरत्तो मणुओ विसोगो फासेसु जो गिद्धमुवेई तिव्वं फेणबुब्बुयसंन्निभे वंधणे हि वहेहि य बंधमोक्खपण बंधू रायं ! तवं चरे बंभचेररओ थीणं बंभचेररओ भीक्खु, बंभचेररओ सया वंभचेरसमाहिए बंभचेरस्स रक्खट्टा बंभचेरेण वंभणो यंभदत्तो महायसो भग्नावाय बंभयारिं नमसंति वंभलोए जहन्नेणं वंभलोगा य लंतगा I बज्झई मच्छिया व खेलंमि बज्झमाणं निरामिसं बज्झमाणाण पाणिणं बज्झो तवो होइ बलमोरोहं च परियणं सव्वं बलवंते अप्पsिहए बलावलं जाणिय अप्पणो य चला संडासहि बहवे दसुया मिलक्खुया बहवे परिभस्सई बहवे रोयमाणा वि बहिंविहारा अभिगम्म भिक्ख बहिंविहाराभिनिविट्ठचित्ता बहिया उडूढमादाय बहुअंतरायं न य दीहमाउं बहु आगमविष्णाना बहुं खु मुणिणो भद्द बहु संचिणियारयं बहु कम्मलेवलित्ताणं बहुपाणविणासणे तपाणिविणासणं बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए बहुमाई पमुहरे बहुयं मा य आलवे बहुयाणि उ वासाणि ६७० ३५-७ बहुसो चेव विवाइओ ३२-८२ बहूणं बहुगुणे सया ३२ ८१ ३२-८३ ३२-८६ ३२-७६ १६-१३ बाढं ति पडिच्छड़ भत्तपाणं बायरकाए मणिविहाणा बायरा जे उ पज्जत्ता बारसंगविऊ बुद्धे बारसहिं जोयणेहिं बारसेव उ वासाई १-१६ बालं सम्मइ सासंतो ६-६ १८- १५ बालग्गपोइयाओ य बालमरणाणि बहुसो १६-४, ५, ६ बालस्स पस्स बालत्तं १६- २,३,७,६ बालाणं अकामं तु बालाणं कूरकम्माणं १६-८ १६-१५ बालागं तु पवेइयं १६-१ बाला पंडियमाणिणो २५-३० वाला पावियाहिं दिट्ठीहिं १३- ४ ३१-१४ बालाभिरामेसु दुहावहेसु बाले मच्चुमुहं पत्ते वाले य मंदिए मूढे १६-१६ ३६-२२६ वाले संतस्सई भया ३६-२१० बालेहि मूढेहि अयाणएहिं ८-५ बावतारं कलाओ य १४-४६ बावीसं सागराई २३- ८० बावीसं सागरोवमा ३०-८ बावीससहस्साई ६-४ बावीस सागरा ऊ बावीसाए परीसहे ११-१८ २१-१४ १६- ५८ १०-१६ बाहाहिं काउं संगोफ बाहाहिं सागरो चेव बाहिरब्भंतरो तहा ३-६ बाहिरो छव्विहो वुत्तो ३-१० बिइए वासचउक्कम्मि विइयम्मि जहन्नेणं १४-४ बिइया य निसीहिया ६-१३ बीए सोहेज्ज एसणं १४-७ वीयं झाणं झियायई ३६-२६२ बीयाणि हरियाणि य ६-१६ वुद्धपत्त नियागट्टी १४-१७ ७-८ बद्धस्स निसम्म भासिय ८-१५ बुद्धाणं अंतिए सया ३५-१२ बुद्धे अभिजाइए २२- १८ बुद्धे परिनिब्बुडे चरे १०- ३१ १७- ११ १-१० १६-६५ बूहि जन्नाण जं मुहं बुद्धेहायरियं सया बुद्धो भोगे परिच्चयई बुद्धोवघाई न सिया १६-६३ बूहि धम्माण वा मुहं बेइंदियआउठिई ६-६ १२-३५ बेइदियकायटिई ३६-७४ बेइदियकायमइगओ ३६-७१,८५,६३, बेइदियजीवाणं १०६, ११८ बेइंदियतेइंदिय २३-७ बेइंदिया उ जे जीवा बोद्धव्वा इंदकाइया वोही होइ सुदुल्लहा तेसिं (भ) ३६-५७ ३६-२५१ १-३७ ६-२४ ३६-२६१ भइए फासओ वि य ७-२८ भइस संठाणओ विय भइए से उ गंधओ ५-३ ५-१२ भइए से उ वण्णओ ५- १७ भइणीओ मे महाराय ! ६-१० ८-७ १३-१७ ५.-१५ ८-५ ५-१६ १२-३१ २१-६ ३६-२३३ ३६-१६६,२३४ ३६-८० ३६-१६५ ३१-१५ २२-३५ १६-३६ २८-३४, ३०-७ २८-३४; ३०-७ परिशिष्ट १ पदानुक्रम ३६-२५२ ३६-२३५ २६-२ २४-१२ २६-१२,१८,४३ १७६ १-७ १०- ३७ १-८ ११--१३ १०-३४ १-४२ ६-३ १-४० २५-१४ भइयव्वा ते उ खेत्तओ भंडगं दुविहं मुणी भंडयं पडिलेहित्ता भगवं अरिनेमि त्ति भगवं । एत्थ मे खमे भगवं गोयमे नामं भगवं वद्धमाणो त्ति भगवं ! वाहराहि मे भगवं वेसालिए वियाहिए भुग्गुज्जोयपराइयं भज्जं जायइ केसवो भज्जति धिइदुब्बला भज्जा पुत्ता य ओरसा भण्डासु सत्त भयभेरवा तत्थ उइंति भीमा भज्जा य पुत्ता वि य नायओ य भणंता अकरेंता य भणियं रसविवज्जणं भणिया जिणवरेहिं भत्तं पाणं गवेसए भत्तपच्चक्खाणं भंते ! जीवे भत्तपाणस्स अट्टाए भत्तपाणेय पोसिया भद्द त्ति नामेण अणिदियंगी भद्दवए कत्तिए य पोसे य भमरे कीडपयंगे य भयवं अंतेउरं तेणं भयवं केसिगोयमे भयवेराओ उवरए भरहं वासं नरीसरो भरहवासं नराहिवो भरहो वि भारहं वासं २५-१४ ३६-१३२ ३६-१३३ १०-१० ३६-१३४ ३६-१२६ ३६-१२७ ३६-१३८ ८-१५ ३६-४२ से ४६ ३६-२२ से ४१ ३६-२२ से २६ ३६-२७ से ४६ २०-२७ ३६-११ २४-१३ २६-८ २२-४ १८-८ २३-६ २३-५ १८-१० ६-१७ २२-३६ २२-६ २७-८ ६-३ १३-२५ ६-६ ३०-२६ ३६-६० २६-३१ २६ सू० ४१ १६ - ८० २७-१४ १२-२० २६-१५ ३६-१४६ ३१-६ २१-१६ ६-१२ २३-८६ ६-६ १८-४० १८- ३५ १८-३४ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६७ परिशिष्ट १: पदानुक्रम भल्लीहिं पट्टिसेहि य १६-५ भिक्खियव्वं न केयव्वं ३५-१५ भेया छत्तीसमाहिया ३६-७७ भवकोडीसंचियं कम्म ३०-६ भिक्खुणा भिक्खवत्तिणा ३५-१५ भोइत्ता समणमाहणे ६-३८ भवणवइवाणमंतर ३४-५१ भिक्खुधमं विचिंतए २-२६ भोए चयसि पत्थिवा ६-५१ भवतण्हा लया वुत्ता २३-४८ भिक्खुधम्ममि दसविहे ३१-१० भोगकालम्मि संजया ! २०-८ भवप्पवंच उम्मुक्का ३६-६३ भिक्खू कुज्जा वियक्खणो २६-११,१७ भोगा इमे संगकरा हवंति १३-२७ भवम्मि चरिमम्मि उ ३६-६४ भिक्खू जायाहि अन्नओ २५-६ भोगामिसदोसविसण्णे भवसिद्धीयसंमए ३६-२६८ भिक्खूणं पडिमासु य ३१-११ भोगी भमइ संसारे २५-३६ भवाओ परिमुच्चए ६-२२ भिक्खू दत्तेसणं चरे १-३२ भोगे भुंजाहि संजया ! २०-११ भवाहि मणुयाहिवा ६-४२ भिक्खूधम्ममि दसविहे ३१-१० भोगे भोच्चा वमित्ता य १४-४४ भविस्सामो जहा इमे १४-४५ भिक्खू न भवइ तारिसो ३५-१४ भोच्चाण भोए सह इत्थियाहिं १४-६ भवे देवि त्ति मे सुयं ७-२६ भिक्खू परमसंजए ३५-७ भोच्चा पेच्चा सुहं सुवइ १७-३ भवोहंतकरा मुणी २३-८४ भिक्खेणं भिक्खुउत्तमा २५-३७ भोच्चा माणुस्सए भोए ३-१६ भाणू य इइ के वुते ? २३-७७ भिच्चाविहूणो व्व रणे नरिंदो १४-३० भो भिक्खू सव्वकामियं २५-८ भायणं पडिलेहए २६-२२ भिन्ना हुन डहति मे २३-५३ भोमिज्जवाणमंतर ३६-२०४ भायणं सव्व दव्वाणं २८-६ भिसं कूराई कुब्वइ ५-४ भोमेज्जाणं जहन्नेणं ३६-२१६ भायरं बहुमाणेणं १३-४ भीए संते मिए तत्थ १८-३ भोयणे परिणिट्टिए २-३० भायरो मे महाराय ! २०-२६ भीमा भयभेरवा उराला १५-१४ भोयावेउं बहुं जणं २२-१७ भारिया मे महाराय ! २०-२८ भीमा भीमफलोदया २३-४८ भारुंडपक्खी व चरप्पमत्तो ४-६ भीयं पवेवियं दटुं २२-३६ भावं चादुत्तर सुण ३३-१६ भीया य सा तहिं द? २२-३५ मए उ मंदपुण्णेणं १५-७ भावणाहि य सूद्धाहिं १६-६४ भुओरगपरिसप्पा य ३६-१८१ मए नायमणायं वा २०-२६ भावम्मि य आहिया उजे भावा ३०-२४ भुजंते मंससोणियं २-११ मए सोढाओ भीमाओ १६-४५ भावसच्चेणं भंते ! जीवे .... २६ स०५१ भुज माणुस्सए भोगे १६-४३ मए सोढाणि भीमाणि १६-४६ भावस्स मणं गहणं वयंति ३२-८८ भुंजमाणे सुरं मंसं ५-६, ७-६ मंतं मूलं विविहं वेज्जचिंतं १५-८ भावाणुगासाणुगए य जीवे ३२-६२ भुंजामि माणुसे भोगे २०-१४ मंतमूलविसारया २०-२२ भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं ३२-६७ भुंजामु ता कामगुणे पगामं १४-३१ मंताजोगं काउं ३६-२६४ भावाणुवाएण परिग्गहेण ३२-६३ भुंजाहि भोगाइ इमाइ भिक्खू ! १३-१४ मंदा निरयं गच्छंति ८-७ भावे अतित्तस्स परिग्गहे य ३२-६५ भुंजाहि भोगाइ मए समाणं १४-३३ मंदा य फासा बहुलोहणिज्जा ४-१२ भावे अतित्ते य परिग्गहे य ३२-६४ भुंजाहि सालिमं करं १२-३४ मंसट्ठा भक्खियव्वए २२-१५ भावे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ३२-६६ भुंजित्तु नमीराया मग्गं कुसीलाण जहाय सव्वं २०-५१ भावेणं पज्जवेहि य ३०-१४ भुज्जो अच्चिमालिप्पभा ५-२७ मग्गं च पडिवज्जई २३-५६ भावेणं सद्दहंतस्स २८-१५ भुज्जो जत्थ मणुस्सेसु ७-२७ मगं बुद्धेहि देसियं ३५-१ भावे विरत्तो मणुओ विसोगो ३२-६६ भुज्जो वि मंदा ! पगरेह पावं १२-३६ मग्गं विराहेत्तु जिणुत्तमाणं २०-५० भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्यं ३२-८६ भुत्तभोगा तओ पच्छा २२-३८ मग्गगामी महामुणी २५-२ भावोमाणं मुणेयव्वो ३०-२३ भुत्तभोगी तओ जाया १९-४३ मग्गे उप्पहवज्जिए २४-५ भासई मुणिवरो विगयमोहो __८-३ भुत्ता दिया निति तमं तमेणं १४-१२ मग्गेण जयणाइ य २४-४ भासं भासेज्ज पन्नवं २४-१० भुत्ता रसा भोइ ! जहाइ णे वओ १४-३२ मग्गे तत्थ सुहावहे २३-८७ भासच्छन्ना इवग्गिणो २५-१८ भुत्ता विसफलोवमा मग्गे य इइ के वुत्ते ? २३-६२ भासादोसं परिहरे १-२४ भुयमोयगइंदनीले य ३६-७५ मघवं नाम महाजसो १८-३६ भासियव्वं हियं सच्चं १६-२६ भूईकर्म च जे पउंजंति ३६-२६४ मच्चुणाब्भाहओ लोगो १४-२३ भिक्खट्ठा बंभइज्जम्मि १२-३ भूयग्गामं विहिंसई ५-८ मच्चू नरं नेइ हु अंतकाले १३-२२ भिक्खमट्ठा उवट्ठिए २५-५ भूयत्थेणाहिगया २६-१७ मच्छा जहा कामगुणे पहाय १४-३५ भिक्खमाणा कुलेकुले १४-२६ भूयाणं जगई जहा १-४५ मच्छा य कच्छभा य ३६-१७२ भिक्खाए वा गिहत्थे वा ५-२२,२८ भूयाणं दीसई वहो ३५-६ मच्छियपत्ता तणुयरी ३६-५६ भिक्खायरियमाहिया ३०-२५ भेओ होइ आहिओ ३६-१६८ मच्छिया मसगा तहा ३६-१४६ भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ ३०-८ भेत्तूणं कम्मकंचुर्य मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ३२-६३ भिक्खालसिए एगे २७-१० भेयं देहस्स कंखए ५-३१ मच्छो वा अवसो अहं १६-६४ भिक्खावत्ती सुहावहा ३५-१५ भेया अट्ठवीसई ३६-१७ मज्झिमा उज्जुपन्ना य २३-३६ १९-११ E-२२ Jain Education Intemational Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६७२ परिशिष्ट १: पदानुक्रम ७-१६ ३-११ | N | T मज्झिमाउवरिमा तहा ३६-२१४ मरणम्मि विराहिया होंति मज्झिमामज्झिमा चेव ३६-२१४ मरिहिंति ते वराया मज्झिमाहेट्ठिमा तहा ३६-२१३ मरिहिसि राय ! जया तया वा मज्झे चिट्ठसि गोयमा ! २३-३५ मरुम्मि वइरवालुए मणइच्छियचित्तत्थो ३०-११ मल्लधूवेण वासियं मणं पवत्तमाणं तु २४-२१ मसंखभागा जहन्नेण नीलठिई मणं पि न पओसए २-११, २६ मसंखभागं जहन्निया होइ मणगुत्तयाए णं भंते ! जीव .. २६ सू० ५४ महंतमोहं कसिणं भयावह मणगुत्ती चउविहा २४-२० महज्जुई पंचवयाई पालिया मणगुत्ती वयगुत्ती २४-२ महत्थऽत्य विणिच्छओ मणगुत्तो वयगुत्तो १२-३; २२-४७ महत्थरूवा वयणप्पभूया मणनाणं च केवलं २८-४ ३३-४ महप्पसाया इसिणो हवंति मणपरिणामे य कए २२-२१ महब्भयाओ भीमाओ मणपल्हायजणणिं १६-२ महया संवेगनिव्वेयं मणप्पदोसो न मे अस्थि कोइ १२-३२ महाउदगवेगस्स मणवयकायसुसंवूडे स भिक्खू १५-१२ महाउदग वेगेणं मणसमाहारणयाए णं भंते !... २६सू०५७ महाजतेसु उच्छू वा मणसा कायवक्केणं ६-११; २५-२५ महाजयं जयई जन्नसिट्ट मणसा वयसा कायसा चेव -१० महाजसो एस महाणुभागो मणसा वि न पत्थए ३५-४,१३,१८ महादवग्गिसंकासे मणस्स भावं गहणं वयंति ३२-८७,८८ महानागो व्व कंचुयं मणिरयणकुट्टिमतले १९-४ महानियंठाण वए पहेणं मणुया दुविहभेया उ ३६-१६५ महानियंठिज्जमिणं महासुयं मणुया देवा य आहिया ३६-१५५ महापउमे तवं चरे मणुस्साउ तहेव य ३३-१२ महापभावस्स महाजसस्स मणोगयं वक्कगयं १-४३ महाबलो रायरिसी मणोरमे कामगुणे पहाय १४-४० महामुणी महापइन्ने महाजसे मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपया १-४७ महामेहप्पसूयाओ मणो साहसिओ भीमो २३-५८ महारंभपरिग्गहे मणोसिला सासगंजणपवाले ३६-७४ महारपणम्मि जायई मणोहरं चित्तहरं ३५-४ महारिसी उत्तम ठाण पत्त मण्डिकुच्छिसि चेइए २०-२ महाविमाण सव्वट्टे मत्तं च गंधहत्थिं २२-१० महावीरस्स भगवओ मद्दवयाए णं भंते !.. २६ सू०५० महावीरेण देसियं मन्नंता अपुणच्चवं ३-१४ महासिणाणं इसिणं पसत्थं ममं भयाहि सुयणू ! २२-३७ महासुक्का व दिपंता ममत्तं छिन्दई ताहे १६-८६ महासुक्का सहस्सारा ममत्तबंधं च महब्भयावह १६-६८ महासुक्के जहन्नेणं मम रोयई पव्वज्जा हु दुक्खं १३-१४ महिं माणनिसूरणो मम लाभे त्ति पेहाए १-२७ महिड्डिओ पुण्णफलोववेओ मम हत्थज्जमागया १४-४५ महिड्डियं पुण्णफलोववेयं मयं नाणुव्वयंति य १८-१४ महुमेरगस्स व रसो मयलक्खेण चिठ्ठई २७-६ महोरगा य गंधव्वा मयेसु बंभगुत्तीस ३१-१० माइल्ले पिसुणे सढे मरगयमसारगल्ले ३६-७५ माई अवण्णवाई मरणं असई भवे ५-३ माई कण्हुहरे सढे मरणं पि सपुण्णाणं ५-१८ माई मुद्धेण पडइ मरणंतमि सोयई ७-६ मा एयं हीलह अहीलणिज्ज ३६-२५६ मा कासि कम्माइं महालयाई १३-२६ ३६-२६१ मा कुले गंधणा होमो २२-४३ १४-४० मा गलियस्से व कसं १६-५० माणं मायं तहेव लोहं च ३५-४ माणविजएणं भंते ! जीवे किं... २६ सू० ६६ ३४-४२ माणुसं जोणिति जे ७-१६ ३४-४३ माणुसत्तं भवे मूलं. २१-११ माणुसत्तंमि आयाओ १-४७ माणुसत्तं सुई सद्धा ३-१ २३-८८ माणुसत्ते असारम्मि १६-१४ १३-१२ माणुस्सएसु जे यावि दिव्वा १४-६ १२-३१ माणुस्सं खु सुदुल्लहं २०-११, २२-३८ १६-७२ माणुस्सं भवमागए १५-१६ १८-१८ माणुस्सं विग्गहं लद्धं ३-८ २३-६६ माणेणं अहमा गई २३-६५ मा तं बिइयं गवेसए १०-३० १६-५३ मा भमिहिसि भवावट्टे २५-३८ १२-४२ मा मग्गे विसमेवगाहिया १०-३३ १२-२३ मायं च वज्जए सया १-२४ १६-५० मायं जत्थ उ पवयणं १६-८६ मायं न सेवे पयहेज्ज लोहं ४-१२ २०-५१ मायं पिंडस्स पाणस्स ६-१४ २०-५३ मा य चंडालियं कासी १-१० १८-४१ मायन्ने असणपाणस्स २-३ १६-६७ माया गईपडिग्घाओ ६-५४ १८-५० माया पिया पहुसा भाया ६-३ २०-५३ मायामुसं वड्डइ लोभदोसा ३२-३०,४३,५६, २३-५१ ६६,८२,६५ ७-६ माया य मे महाराय ! २०-२५ १९-७८ मायालोभे य पयणए ३४-२६ १२-४७ मायाविजएणं भंते ! जीवे किं... २६ सू०७० ३६-२४४ मायावुइयमेयं तु १८-२६ २१-१ मारिओ य अर्णतसो १६-६४,६५ ५-४ मालुगा पत्तहारगा ३६-१३७ १२-४७ मा वंतं पुणो वि आइए १०-२६ ३-१४ मासक्खमणपारणे २५-५ ३६-२११ मासद्धमासिएणं तु ३६-२५५ ३६-२२८ मा सब्वे तेएण भे निद्दहेज्जा १२-२३ १८-४२ मासस्स ऊ पारणए महप्पा १२-३५ १३-२० मासिएण उ भत्तेण १६-६५ १३-११ मासेणं चउरंगुलं २६-१४ ३४-१४ मासे मासे गवं दए ६-४० ३६-२०७ मासे मसे तु जो बालो ६-४४ ५-६ माहं परेहि दम्मतो १-१६ ३६-२६५ माहणकुलसंभूओ २५-१ ७-५ माहणत्तं जहाभूयं २५-३५ २७-६ माहणभोइय विविहा य सिप्पिणो १५-६ १२-२३ माहणी दारगा चेव १४-५३ Jain Education Intemational Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि माहणेण परिच्चत्तं माहणो य पुरोहिओ माहिंदम्मि जहन्नेणं मा हु भंते! मुसं वए मा हू तुमं सोयरियाण संभरे मिंउं पि चंडं पकरेंति सीसा मिउ मद्दवसंपन्ने मिए छुभित्ता हयगओ मिओ वा अवसो अहं मिगचारियं चरित्ताणं मिगचारियं चरिस्सामि मिगव्वं उवणिग्गए मिच्छत्तनिसेवए जणे मिच्छदिट्टी अणारिए मिच्छाकारो य निंदाए मिच्छा दंडो पजुंजई मिच्छादंसणरत्ता मिच्छादिट्ठी अणारिया मित्तनाईपरिवृद्धो मित्तवं नायवं होइ मित्ता य तह बंधवा मियं कालेण भक्खए मियचारियं चरिस्सामि मियाइ पुत्तस्स निसम्म भासिय मिया कालिंजरे नगे मिया तस्सग्गमाहिसी मियापुणे जहारिसी मियापुत्ते ति विस्सुए मियापुते महि मिहिलं सपुरजणवयं मिहिलाए चेइए वच्छे मिहिलाए डज्झमाणीए ६७३ १४-३८ मुसुंढी य हलिद्दा य १४- ५३ मुहपोत्तियं पडिलेहित्ता ३६-२२५ मुहरी निक्कसिज्जई २०- १५ मुहुं मुहुं मोहगुणे जयंतं १४-३३ मुहुत्तहियाइं च उक्कोसा १- १३ २७-१७ १८- ३ १६-६३ १६ - ८१,८२ १६ ८४ मूलियं ते अइच्छिया मूलियं ते पवेसंति मेत्तिं भूएसु कप्पए १८-१ मेत्तिज्जमाणो भयई मेत्तिज्जमाणो वमइ १०- १६ ३४-२५ मेयन्ने किं पभासई ? २६-६ मेरओ य महूणि य ६-३० ३६-२५७, २५६ १८- २७ २०-११ ३-१८ स १८- १४ मोक्खाभिकंखिस्सवि माणवस्स १-३२ मोक्खाभिकंखी अभिजायसड्डा १६ -८५ मोणं चरिस्सामि समिच्च धम्मं १६-६७ मोणं विराहेत्तु असाहुरूवे मोसं अदत्तं च असेवमाणा मोसं अदत्तं च परिग्गहं च मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य १३-६ १६- १ १६-६६ १६-२ T मिहोक कुणइ जणवयकहं वा मुक्कपासो लहुलूओ मुक्को मि विसभक्खणं मुग्गरेहिं मुसंढीहिं मुच्चइ कारओ जणो मुच्चई छविपव्वाओ मुच्चेज्ज कयाइ सव्वदुक्खाणं ८-८ मुणी आसि विसारए २७-१ मुणी चरे लाढे निच्चमायगुत्ते १५-३ मुणी विगयसंगामो ६-२२ मुत्तीए णं भंते ! जीवे किं... २६ सू० ४८ २-४५ मुसं ते एवमाहंसु मुसं न वयई जो उ मुस परिहरे भ मुसाभासा निरत्थिया मुसावायविवज्जणं २६-२६ २३- ४०, ४१ २३-४६ १६-६१ ६-३० ५-२४ मुहुत्तद्धं तु जहन्ना मूलं घेत्तूण निग्गया मूलच्छेएण जीवाणं १६ - ८ मोहं कओ एत्ति उ विप्पलावो ६-४ मोहंगयस्स संतस्स ६-६ मोहं च तण्हाययणं वयंति €-98 मोहं च भिक्खू सययं वियक्खणो मोहं वा कसिणं नियच्छई मोहाणे व य मोहणिज्जं पि दुविहं मोहणिज्जस्स उक्कोसा मोहणिज्जस्स दंसणे मोहाणिला पज्जलणाहिएणं मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा य १८- २६ १६-२६ मेरु व्व वाएण अकंपमाणो मेहुणाओ सुसंवुडो मोक्खं गओ अणुत्तरं मोक्खमग्गगई तच्च य सम्मत्तसद्दहणा ३६-६६ २६-२३ १-४ 8-99 ३४-५४ ३४-३४ से ३६, ४६ ७-१४ ७-१६ ७-२१ ७-१६ रययहारसंकासा ६-२ रयाइं खेवेज्ज पुरेकडाई रसओ अंबिले जे उ 99-99 ११-७ १८- २३ १६-७० २१-१६ २-४२ १८- ३६ २८-१ २३-३३ ३२-१६ १४-६ १५-१ २०-४६ १२-४१ १२-१४ ३२-३१,४४ ५७,७०,८३,६६ १-२४ २५- २३ रई नोवलभामहं रइयाए जहक्कमं रक्खमाणी तयं वए रक्खसा किन्नराय किंपुरिसा २८-२८ परिशिष्ट १ : पदानुक्रम रक्खेज्ज कोहं विणएज्ज माणं रज्जं तु गुणस रज्जतो संजमम्मि य १६-१३ २२- १२ रत्तिं पि चउरो भागे रन्नो तहिं कोसलियस्स धूयो रमए अज्जवयणमि रमए पंडिए सासं रमेज्जा संजमे मुणी रयणाभ सक्कराभा रसओ कडुए जे उ रसओ कसाए जे उ रसओ तित्तए जे उ १३-३३ १६-७ ३२-६ २१-१६ १५-६ ३१-१६ ३३-८ ३३-२१ रसो उ काउए नायव्वो १४-१० ३३-६ रसो उ किण्हाए नायव्वो रसो उ तेउए नायव्वो ३२-८ रसो उ नीलाए नायव्वो रसो उ सुक्काए नायव्वो रहनेमी अहं भद्दे ! रहनेमी भग्गचित्तो रहाणीए तहेव य रसओ परिणया जे उ रसओ फासओ चेव रसओ फासओ तहा रसओ महुरए जे उ रसंतो कंदुकुंभीसु रसं न किंचि अवरज्झई से रसगिद्धेण जंतुणा रसगिद्धे न सिया भिक्खाए रसस्स जिन्भं गहणं वयंति रमाणुगासाणुगए य जीवे रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं रसाणुवाएण परिग्गहेण रसा पगामं न निसेवियव्वा रसे अतित्ते य परिग्गहे य रसे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो रसे अतित्तस्स परिग्गहे य रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा रहियं थीजणेण य रहे कल्लाण भासई २२-४० रहे भासइ पावगं ३६ - २०७ राइणो तम्मि संजए रसे फासे तहेव य रसे विरत्तो मणुओ विसोगो रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं रसे नागुज्झेि ४-१२ १८-४६ १६- ६ २६-१७ १२-२० २५-२० ३६-१५६ ३४-६ २१-१८ ३६-३२ ३६-३० ३६-३१ ३६-२६ ३६-१८ ३६-२२ से २८ ३६-१५ ३६-३३ १६- ५१ ३२-६४ १८-७ ८-११ ३२-६२ ३२-६६ ३२-७१ ३२-६७ ३२-१० १-३७ ३६- २४६ ३२-६८ ३२-७० ३२-६६ ३२-२० १६-१० ३२-७३ ३२-६३ २-३६ ३४-१२ ३४-१० ३४-१३ ३४-११ ३४-१५ २२-३७ २२-३४ १८-२ १६-१ ११-१२ ११-८ २०-५ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६७४ परिशिष्ट १: पदानुक्रम . २-३० राइभाएसु चउसु वि २६-१७ रुविणो य चउविहा ३६-१० लेसाणं ठिई तु वोच्छामि ३४-४० राइयं च अईयारं २६-४७ रूविणो वि चउबिहा ३६-४ लेसाण ठिई उ देवाणं ३४-४७ राइयं तु अईयारं २६-४८ रुवे अतित्तस्स परिग्गहे य ३२-३० लेसाण ठिई उ वणिया होइ ३४-४४,४७ राईभोयणवज्जणा १६-३० यवे अतित्ते य परिग्गहे य ३२-२६ लेसाण ठिई जहिं जहिं जा उ ३४-४५ राईभोयणविरओ ३०-२ रुवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ३२-३१ लेसाण हुंति ठाणाई ३४-३३ राईमई असंभंता २२-३६ रुवे विरत्तो मणुओ विसोगो ३२-३४ लेसासु छसु काएसु ३१-८ राईमई विचिंतेइ २२-२६ रुवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं ३२-२४ लेसाहिं परिणयाहिं ३४-६० राओवरय चरेज्ज लाढे १५-२ रेणुयं व पडे लग्गं १६-८७ लेसाहिं सव्वाहिं ३४-५८,५६ रागं च दोसं च तहेव मोहं ३२-६ रेवययंमि ट्ठिओ भगवं २२-२२ लोए कित्ती से जायए १-४५ रागं दोसं च छिंदिया १०-३७ रोएइ उ निसग्गो २६-१७ लोएगदेसे ते सव्वे ३६-६७,१३०,१३६ रागदोससमज्जियं ३०-१,४ रोगा य मरणाणि य १६-१५ १७३,१८२,१८६ रागद्दोसम्गिणा जगं १४-४३ रोगेणालस्सएण य । ११-३ लोएगदेसे लोए य ३६-११ रागद्दोसभयाईयं २५-२१ रोज्झो वा जह पाडिओ १९-५६ लोगं पि एसो कुविओ डहेज्जा १२-२८ रागद्दोसवसं गया १४-४२ रोहिणी देवई तहा २२-२ लोगदेसे य बायरा ३६-७८,८६,११०, रागद्दोसादओ तिव्वा २३-४३ १११,१२० रागद्दोसे य दो पावे ३१-३ लोगग्गंमि दुरारुहं २३-८१,८४ रागस्स दोसस्स य संखएणं ३२-२ लंघिया तं नइक्कमे १-३३ लोगनाहे दमीसरे २२-४ रागस्स हेउं समणुण्णमाहु ३२-२३,३६,४६, लंतगम्मि जहन्नेणं लोगमित्ता वियाहिया ३६-७ ६२,७५,८५ लक्खणं पज्जवाणं तू २८-६ लोगस्स एग देसम्मि ३६-१४६,१५८, रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे ३२-५० लक्खणस्सरसंजुओ २२-५ १६८,२१७ रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे ३२-८६ लभ्रूण वि आरियत्तणं १०-१७ लोगालोगे य आगासे ३६-७ रागाउरे बडिसविभिन्नकाए ३२-६३ लभ्रूण वि उत्तम सुई १०-१६ लोगुत्तमुत्तमं ठाणं ६-५८ रागाउरे सीयजलावसन्ने ३२-७६ लखूण वि माणुसत्तणं १०-१६ लोगे लिंगप्पओयणं २३-३२ रागाउरे से जह वा पयंगे लद्धे पिंडे अलद्धे वा लोभविजएणं भंते ! जीवे किं... २६ सू०७१ रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे ३२-३७ लया चिट्ठइ गोयमा ! लोभाओ दुहओ भयं ६-५४ रागो दोसो मोहो २८-२० लया य इइ का वुत्ता ? २३-४७ लोभाविले आययई अदत्तं ३२-२६,४२,५५, रागो य दोसो वि य कम्मबीयं लयावलय पव्वगा कुहुणा ३६-६५ ६८,८१,६४ राढामणी वेरुलियप्पगासे २०-४२ लया वल्ली तणा तहा ३६-६४ लोभे य उवउत्तया २४-६ रायं अभिक्खं समुवाय देवी १४-३७ ललिएण नलकूबरो २२-४१ लोयंतो उ वियाहिओ रायत्थ देवी कमलावई य ललियचवलकुंडलतिरीडी ६-६० लोयम्गम्मि पइट्ठिया ३६-६३ रायरिसिं उत्तमाए सद्धाए ६-५६ लहुभूयविहारिणो १४-४४ लोयग्गे य पइट्ठिया ३६-५६ रायलक्खणसंजुए २२-१,३ लाभं अलाभं च सुहं च दुक्खं लोलुप्पमाणं बहुहा बहुं च १४-१० रायवेट्ठि व मन्नंता २७-१३ लाभंतरे जीविय वूहइत्ता '४-७ लोहं दुगुंर्छ अरइं रई च ३२-१०२ रायाणं न पडिमतेइ १८-६ लाभालाभम्मि संतुझे ३५-१६ लोहतुंडेहि पक्खिहिं १६-५८ राया बलभद्दो त्ति १६-१ लाभालाभे सुहे दुक्खे १९-६० लोहा वा जइ वा भया २५-२३ राया रज्जंतु हारए ४७-११ लाभा सुलद्धा य तुमे महेसी! .२०-५५ लोहि णीह य थीह य ३६-६८ राया सह देवीए १४-५३ लाभो देवगई भवे ७-१६ लोहो हओ जस्स न किंचणाई ३२-८ रुक्खमूले व एक्कओ ३५-६ लाहा लोहो पवढई ८-१७ रुक्खमूले व एगओ २-२० लिंगे दुविहे मेहावि ! २३-३० रुक्खा गुच्छा य गुम्मा य ३६-६४ लुत्तकेसं जिइंदियं २२-२५,३१ वइगुत्ती चउविहा २४-२२ रुप्प सुवण्णे य वइरे य ३६-७३ लुप्पंतस्स सकम्मुणा ६-३ वइरसो कम्मुणा होइ २५-३१ रूवंधरे मुणिपवराण हेट्ठिमे लुप्पंति बहुसो मूढा ६-१ वएज्ज न पुणो त्ति य १-४१ रूवस्स चक्खं गहणं वयंति लेप्पाहि सउणो विव १६-६५ वए विओगे य कहिं सुहं से? ३२-२८,४१, रूवाणुगासाणुगए य जीवे लेवमायाए संजए ६-१५ ५४,६७,८०,६३ रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं लेसज्झयणं पवक्खामि ३४-१ वएसु इंदियत्थेसू ३१-७ रूवाणुवाएण परिग्गहेण ३२-२८ लेसाणं अप्पसत्थाणं ३४-१६,१८ वंकजडा य पच्छिमा २३-२६ रूवाहिएसु सुरेसु अ ३१-१६ लेसाणं तु सुणेह मे ३४-२ वंके वंकसमायारे ३४-२५ रूविणो चेवऽरूवी य ३६-४,२४९ लेसाणं होइ परिणामो ३४-२० वंतं इच्छसि आवेनुं २२-४२ १४-३२ له ليه ليه Jain Education Intemational Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६७५ परिशिष्ट १: पदानुक्रम वंतराणं जहन्नेणं ३६-२२० वय समाहारणयाए णं भंते !... २६ सू० ५८ वासुदेवस्स जेट्टगं २२-१० वंतासी पुरिसो राय! १४-३८ वयाणि सीलाणि परीसहे य २१-११ वासुदेवो य णं भणइ २२-२५,३१ वंदइ अभित्थुणंतो ६-५५ वरं मे अप्पादंतो १-१६ वासेणुल्ला उ अंतरा २२-३३ वंदई य तओ गुरूं २६-५० बरवारुणीए व रसो ३४-१४ वाहिओ बद्धरुद्धो अ १६-६३ वंदणएणं भंते! जीवे किं २६ सू० ११ वल्लराणि सराणि य १६-८० वाहिणो वेयणा तहा २३-८१ वंदणं पूयणं तहा ३५-१८ वल्लरेहिं सरेहि वा १६-८१ वाहीरोगाण आलए १६-१४ वंदमाणा नमसंता २५-१७ ववहारे उवमा एसा ७-१५ वाहीरोगेहिं पीडिओ १६-१६ वंदिऊण तओ गुरूं २६-४५ वसहे जूहाहिबई ११-१९ विउलं अट्ठियं सुयं १-४६ वंदित्ताण तओ गुरु २६-२२,३७,४०,४१, वसाओ रुहिराणि य १९-७० विउलं चेव धणोहसंचयं १०-३० ४२,४८,४६,५१ वसामि इरियामि य १८-२६ विउव्विऊण इंदत्तं ६-५५ वंदित्ता य तओ गुरूं. २६-८ वसीय सोवागनिवेसणेसु १३-१८ विक्किणंतो य वाणिओ ३५-१४ वच्छल्ल पभावणे अट्ठ २८-३१ वसुदेवे त्ति नामेणं २२-१ विक्खायकित्ती धिइमं १८-३६ वज्जपाणी पुरंदरे ११-२३ बसे गुरुकुले निच्चं ११-१४ विक्खित्ता वेइया छट्ठा २६-२६ वज्जभीरू हिएसए ३४-२८ वसे ते ठावइत्ताणं ६-३२ विगईनिज्जूहण करे ३६-२५२ वज्जरिसहसंघयणो २२-६ वहणे वहमाणस्स २७-२ विगलिंदियया हु दीसइ १०-१७ वज्जित्ता केवलं लेसं ३४-४५ वहबंधपरीसहा १६-३२ विगहाकसायसन्नाणं ३१-६ वज्जेज्जा पणिहाणवं १६-१४ वहेइ रसमुच्छिए १८-३ विगहासु तहेव च २४-६ वज्जेयव्वा य मोसली तइया २६-२६ वहेई से नराहिवे १८-५ विगिंच कम्मुणो हेउं ३-१३ वज्जेयब्बो सुदुक्करो १६-३० वाइया संगहिया चेव २७-१४ विगिट्टं तू तवं चरे ३६-२५४ वज्झं पासइ वज्झगं २१-८ वाउक्कायमइगओ १०-८ विचित्तं तु तवं चरे ३६-२५२ वज्झमंडणसोभागं २१-८ वाउजीवाण अंतरं ३६-१२४ विचित्ते चित्तपत्तए ३६-१४८ वट्टमाणे उ संजए ११-६ वाएइ सयं पडिच्छा वा २६-२६ विजढमि सए काए ३६-८२,६०,१०४,११५, वडूढईहिं दुमो विव १६-६६ वाएण हीरमाणमि ६-१० १२४,१५३,१६८,१७७,२४६, वड्ढए हायए वावी २६-१४ वागरेज्ज जहासुयं १-२३ विजयघोसस्स जन्नंमि २५-५ वड्डमाणो भवाहि य २२-२६ वाडेसु व रच्छासु व ३०-१८ विजयघोसे त्ति नामेणं २५-४ वणप्फईण आउं तु ३६-१०२ वाडेहिं पंजरेहिं च २२-१४,१६ विजयघोसे य माहणे २५-३४ वणस्सइकायमइगओ १०-६ वाणारसीए बहिया २५-३ विजया वेजयंता य ३६-२१५ वण्णओ गंधओ चेव ३६-१५ वाणियो देइ धूयरं २१-३ विजहित्तु पुव्वसंजोगं वण्णओ जे भवे किण्हे ३६-२२ वादं विविहं समिच्च लोए १५-१५ विज्जमाणे परे लोए १८-२७ वण्णओ जे भवे नीले ३६-२३ वायणाए णं भंते! जीवे २६ सू०२० विज्जाचरणपारगा १८-२२ वण्णओ परिणया जे उ ३६-१६ वायणा पुच्छणा चेव ३०-३४ विज्जाचरणपारगे २३-२,६ वण्णओ पीयए जे उ ३६-२५ वाया अदुव कम्मुणा १-१७ विज्जाचरणसंपन्ने १८-२४ वण्णओ लोहिए जे उ ३६-२४ वायाविद्धो व्व हढो २२-२४ विज्जामंततिगिच्छगा २०-२२ वण्णओ सुक्किले जे उ ३६-२६ वायाविरियमेत्तेण ६-६ विज्जामाहणसंपया २५-१८ वण्णं जरा हरइ नरस्स रायं १३-२६ वारिमझे महालओ २३-६६ विज्जुसंपायचंचलं १५-१३ वण्णरसगंधफासा २८-१२ वालुयाकवले चेव १६-३७ विज्जुसोयामणिप्पभा २२-७ वण्णेणं भावमणमुयंते उ ३०-२३ वालुयाभा य आहिया ३६-१५६ विज्जू अगी य आहिया ३६-२०६ वण्णे रुवे य सव्वसो ६-११ वावन्नकुदंसणवज्जणा २८-२८ विज्झवेज्ज पंजलिउडो १-४१ वत्तणालक्खणो कालो २८-१० वासं तत्थऽभिरोयए ३५-६ विट्ठ भुंजइ सूयरे १-५ वत्थाई पडिलेहए २६-२३ वासंते अंधयारंमि २२-३३ विणएज्ज लोमहरिसं ५-३१ वद्धमाणगिहाणि य ६-२४ वासलक्खेण साहियं ३६-२२१ विणए ठवेज्ज अप्पाणं वमणविरेयणधूमणेत्तसिणाणं १५-८ वासाइं बारसे व उ ३६-१३२ विणएण वंदए पगा। १८-८ वयं च सत्ता कामेसु १४-४५ वासाणुक्कोसिया भवे ३६-८०,८८ विणओ एस दिया ३०-३२ वयं पवत्तमाणं तु २४-२३ १०२,१२२ विणयं पाउकरिस्सामि वयगुत्तयाए णं भंते! जीवे... २६ सू० ५५ वासिट्ठि! भिक्खायरियाइ कालो १४-२६ विणिघायमागच्छइ से चिरं पि २०-४३ वयजोग सुच्चा न असन्भमाहु २१-१४ बासीचंदणकप्पो य १६-६२ विणियट्टणयाए णं भंते ! जीवे... २६ सू० ३३ वयणं अस्सुयपुव्वं २०-१३ वासीमुहा य सिप्पीया ३६-१२८ विणियटॅति भोगेसु ६-६२,१६-६६; वयणमिच्छे पुणो पुणो १-१२ वासुदेवं महिड्डियं २२-८ २२-४६ Jain Education Intemational Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६७६ परिशिष्ट १: पदानुक्रम ३४-५ विणिहम्मति पाणिणो ३-६ विसएहि अरज्जंतो १६-६ वेयण वेयावच्चे २६-३२ विणीयविणए दंते ३४-२७ विसं तालउडं जहा १६-१३ वेयणा अणुभविउं जे २०-३१ वित्त कामे य भुजिया ७-८ विसं तु पीयं जह कालकूड २०-४४ वेयणाए दुहट्ठिए २-३२ वित्ते अचोइए निच्चं १-४४ विसन्ना पावकम्मे हिं ६-१० वेयणाओ अणंतसो १६-४५ वित्ते गिद्धे य इत्थिसु ५-१० विसप्पे सव्वओधारे ३५-१२ वेयणा परमदारुणा २०-२१ वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते ४-५ विसमं मग्गमोइण्णो ५-१४ वेयणा मे खयं गया २०-३३ वित्थाररुइ त्ति नायव्वो २८-२४ विसमसीला य भिक्खुणो ५-१६ वेयणा विउला इओ २०-३२ वित्थिपणे दूरमोगाढे . . २४-१८ विसालकित्ती य तहोसुयारो १४-३ वेयणा वेइया मए १६-७१,७४ विन्नाणेण समागम्म २३-३१ विसालिसेहिं सीलेहिं ३-१४ वेयणिज्जं तहा मोहं ३३-२ विन्नाय पवितक्कियं २३-१४ विसीयई सिढिले आउयंमि ४-६ वेयणिज्जे तहेव य ३३-२० विप्पओगमुवागया १३-८ विसेसे किंनु कारणं? २३-१३,२४,३० वेयणीयं पि य दुविहं ३३-७ विप्पजहे तहाविहं भिक्खू ६-४ विसोहेज्ज जयं जई २४-१२ वेया अहीया न भवंति ताणं १४-१२ विप्पमुच्चइ पंडिए २४-२७,३०-३७ विहगइव विप्पमुक्को २०-६० वेयाणं च महं बूहि २५-१४ विप्पमुच्चइ पंडिओ ३१-२१ विहम्माणो किलिस्सई २७-३ वेयावच्चं तमाहियं ३०-३३ विप्पसण्णमणाघायं ५-१८ विहरइ महिं महप्पा २७-१७ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ ३०-३० विप्पसीएज्ज मेहावी ५-३० विहरइ वसुहं विगयमोहो २०-६० वेयावच्चम्मि दसविहे ३०-३३ विप्फुरंतो अणेगसो १६-५४ विहरामि अहं मुणी! २३-३८,४१ वेयावच्चेणं भंते! जीवे--- २६ २६ सू०४४ विभूसं परिवजजेज्जा १६-६ विहरामि जहक्कम २३-४३ वेयावच्चे निउत्तेणं २६-१० विमणो विसण्णो अह माहणो सो १२-३० विहरामि जहानाय २३-४६ वेयावच्चे व सज्झाए २६-६ विम्हावेंतो य परं ३६-२६३ विहरामि महामुणी! २३-४८ वेरत्तियं पि कालं २६-२० वियडस्सेसणं चरे २-४ विहरिस्सामि निरामिसा १४-४६ वेराणुबुद्धा नरयं उति ४-२ विययपक्खी य बोद्धव्वा ३६-१८८ विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ३२-५ वेरुलियनिद्धसंकासा वियरिज्जइ खज्जइ भूज्जई य १२-१० विहरेज्ज पच्छा य जहासुहं तु १७-१ वेवमाणी निसीयई २२-३५ वियाणिया दुक्खविवद्धणं घणं १६-६८ विहाणाई सहस्ससो ३६-८३,६१,१०५, वेसं तं होइ मूढाणं १-२६ वियाहिओ जं समुविच्च सत्ता ३२-१११ ११६,१२५,१३५,१४४,१५४,१६६, वेसं होइ असाहुणो विरई अबंभचेरस्स १६-२८ १७८,१८७,१६४,२०३,२४७ वोच्छामि अणुपुचसो २४-१६ विरए आयरक्खिए २-१५ विहारं विहरए मुणी २६-३५ वोछिंद सिणेहमप्पणो १०-२८ विरए आयहिए पहाणवं २१-२१ विहारजत्तं निज्जाओ २०-२ वोदाणेणं भंते! जीवे.' २६ सू०२६ विरए कयविक्कए ३५-१३ विहुणाहि रयं पुरे कर्ड १०-३ वोसट्ठकाए विरेज्जा ३५-१६ विरए वेयवियायरक्खिए १५-२ वीदंसएहि जालेहिं १६-६५ वोसट्टकाओ सुइचत्तदेहो १२-४२ विरओ धणपयणपरिग्गहाओ। १२-६ वीयरागयाए णं भंते !.... विरज्जमाणस्स य इंदियत्था ३२-१०६ वीयरागो अणासवो ३५-२१ विरत्तकामाण तवोधणाणं १३-१७ वीरियं उवओगो य २६-११ सई च जइ मुच्चेज्जा २०-३२ विरत्ता उ न लग्गति २५-४१ वीरियं पुण दुल्लहं ३-१० स उज्जुभावं पडिवज्ज संजए २१-२० विरली अच्छिवेहए ३६-१४७ वीसई कोडिकोडिओ ३३-२३ सओरोहो य सपरियणो य २०-५८ विलुत्तो विलवंतो हं १६-५८ वीसई सागरोवमा ३६-२३२ संकट्ठाणाणि सव्वाणि १६-१४ विवज्जणा बालजणस्स दूरा ___३२-३ वीसं इत्थियासु य ३६-५१ संकप्पेण विहन्नसि ६-५१ विवडइ विद्धंसइ ते सरीरयं १०-२७ वीसं तु सागराई ३६-२३१ संकमाणो तणुं चरे १४-४७ विवन्नसारो वणिओ व्व पोए १४-३० वुग्गहे कलहे रत्ते १७-१२ संकरदूसं परिहरिय कंठे १२-६ विवादं च उदीरेइ १७-१२ वुच्छं तेसि चउव्विहं ३६-१५८,१७३,१६२ संकहं च अभिक्खणं १६-३ विविच्च कम्मुणो हेउं ६-१४ १८६,२१७ संकाभीओ न गच्छेज्जा २-२१ विवित्तलयणाइ भएज्ज ताई २१-२२ वुच्छामि अणुपुव्वसो ३०-२६३६-४७,१०६ संखिज्जकालमुक्कोसं ३६-१३३,१४२,१५२ विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो ३२-१६ वुच्छामि सोवागनिवेसणेसु १३-१६ संखंककुंदसंकासा ३४-६,३६-६१ विवित्तसयणासणं ३०-२८ वुज्झमाणाण पाणिणं २३-६५,६८ संखचक्कगयाधरे ११-२१ विवित्तसयणासणयाए णं भंते !... २६ सू० ३२ वेएज्ज निज्जरापेही २-३७ संखाईया लोगा ३४-३३ विवित्तसेज्जासणजंतियाणं ३२-१२ वेगेण य पहावई २७-६ संखा उ कमसो तेसिं ३६-१६७ विविहं खाइमसाइमं परेसिं १५-११ वेमाणिया उ जे देवा ३६-२०६ संखा संखणगा तहा ३६-१२८ विविहाण व आसवाण जारिसओ ३४-१४ वेमायाहिं सिक्खाहिं ७-२० संखा संठाणमेव य २८-१३ Jain Education Intemational Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६७७ परिशिष्ट १: पदानुक्रम १४-५ MORAN ३२-३ संकिएगणणोवगं कुज्जा २६-२७ संतिमे य दुवे ठाणा ५-२ संसारो अण्णवो वुत्तो २३-७३ संखेवरुइ त्ति होइ नायब्चो २८-२६ संती संतिकरे लोए १५-३८ सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स संगहे छद्दिसागयं ३३-१८ संतेए तहिया नव २८-१४ सकम्मसेसेण पुराकएणं १४-२ संगहेण य थावरे २५-२२ संथवं जहिज्ज अकामकामे १५-१ सकम्मुणा किच्चइ पावकारी संगामसीसे इव नागराया २१-१७ संथवो चेव नारीणं १६-११ सकवार्ड पंडुरुल्लोयं ३५-४ संगामे दुज्जए जिणे ६-३४ संधारए अणाउत्ते १७-१४ सकाममरणं तहा ५-२ संगो एस मणुस्साणं २-१६ संथारं फलगं पीढं सकाममरणं मरई ५-३२ संचिक्खत्तगवेसए २-३३ संथया ते पसीयंतु २३-८६ सक्के देवाहिवई ११-२३ संचिक्खमाणो चरिस्सामि मोणं १४-३२ संधावई नरगतिरिक्खजोणिं २०-४६ सक्को माहणरूवेण ६-६ संजए इरियं रिए २४-४ संधीसु व महापहे १-२६ सक्खं सु दीसइ तवो विसेसो १२-३७ संजओ अहमस्सीति १५-१० संपइ नेयाउए पहे १०-३१ सक्खं सक्केण चोइओ ६-६१; १८-४४ संजओ चइउ रज्ज १८-१९ संपज्जलिया घोरा २३-५० सगरो वि सागरंतं १५-३५ संजओ नाम नामेणं १८-२२ संपत्ते विरमेज्जा २६-१६ सगा जेट्ठकणिट्ठगा २०-२६,२७ संजओ परिवज्जए ३५-३,६ संपत्तो केवलं नाणं ३५-२१ सचेले यावि एगया २-१३ संजओ सुसमाहिओ १२-२ संपिंडिया अग्गरसा पभूया १४-३१ सच्चसोयप्पगडा १३-६ संजमं निहुओ चर २२-४३ संबुद्धप्पा य सव्वन्नू २३-१ सच्चा तहेव मोसा य २४-२०,२२ संजमं पडिवज्जिया ३-२० संबुद्धा पुव्वसंथुया १-४६ सच्चा मे भासिया वई १८-५२ संजमंमि य वीरियं ___३-१ संबुद्धो सो तहिं भगवं २१-१० सच्चा मोसा तहेव य २४-२०,२२ संजममाणो वि अहं १८-२६ संभोगकाले य अतित्तिलाभे ३२-२८,४१,५४ सच्चेण पलिमंथए ६-२१ संजमेणं भंते! जीवे किं २६सू०२७ ६७,८०,६३ सच्चे सच्चपरक्कमे १८-२४ संजमेण तवेण य १-१६:१९-७७; संभोगपच्चक्खाणेणं भंते!जीवे'२Eसू०३४ सज्झाएणं भंते! जीवे'' २६ सू० १६ २५-४३,२८-३६ संमुच्छई नासइ नावचिट्टे १४-१८ सज्झाए वा निउत्तणं २६-१० संजमे य पवत्तणं ३१-२ संमुच्छिमाण एसेव ३६-१९८ सज्झाओ पंचहा भवे ३०-३४ संजयं सुसमाहियं २०-४ समुच्छिमा य मणुया ३६-१६५ सज्झायएगंतनिसेवणा य संजयस्स तवस्सिणो २-३४ संरंभसमारंभे २४-२१,२३,२५ सज्झायं चेव पंचहा २४-८ संजयाए सुभासियं २२-४६ संलेहुक्कोसिया भवे ३६-२५१ सज्झायं तओ कुज्जा २६-३६,४४ संजयाणं च भावओ २०-१ संवच्छरं मज्झिमिया ३६-२५१ सज्झायं तु चउत्थिए २६-४३ संजयाणं तवस्सिणं २३-१० संवट्टगवाते य ३६-११६ सज्झायं पओसकालम्मि २६-१६ संजयाण वुसीमओ ५-१८,२६ संवहई घरे तस्स २१-५ सज्झायज्झाणजुत्ते १८-४ संजायई समयमुवट्टियस्स ३२-१०७ संवरो निज्जरा मोक्खो २८-१४ सड्ढी काएण फासए ५-२३ संजोगा य विभागा य २८-१३ संवुडे निझुणे रयं ३-११ सही तालिसमंतिए ५-३१ संजोगा विष्पमुक्कस्स १-१,११-१ संवेगेणं भंते ! जीवे किं . २६ सू०२ सढे बालगवी वए २७-५ संठाणओ भवे तसे ३६-४४ संसयं खलु सो कुणई ६-२६ सणकुमारमाहिंदा ३६-२१० संठाणो भवे वट्टे ३६-४३ संसरइ सुहासुहेहिं कम्मेहि १०-१५ सणंकुमारे जहन्नेणं ३६-२२४ संठाणओ य चउरंसे ३६-४५ संसारं बहुं अणुपरियडंति ८-१५ सणंकुमारो मणुस्सिदो १८-३७ संठाणओ य विन्नेओ ३६-१५ संसारंमि अर्णतए ६-१,१२, २०-३१ सणासणकुसुमनिभा ३४-८ संठाणपरिणया जे उ ३६-२१ संसारंमि दुक्खपउराए __ ८-१ सणाहो वा नराहिवा २०-१६ संठाणादेसओ वावि ३६.८३,६१,१०५, संसारचक्कस्स विमोक्खणट्ठा १४-४ सण्हा खरा य बोद्धव्वा ३६-७१ ११६,१२५,१३५,१४४,१५४,१६६,१७८ संसारत्था उ जे जीवा ३६-६८ सण्हा सत्तविहा तहिं ३६-७१ १८७,१६४,२०३,२४७ संसारत्था य सिद्धा य ३६-४८,२४८ सत्त ऊ सागरोवमा ३६-२२६ संतई पप्पणाईया ३६-७६,८७,१०१, संसारपारनिच्छिन्ना ३६-६७ सत्तट्ठभवग्गहणे १०-१३ १२१,१३१,१४०,१५०,१५६,१७४,१८३ संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे ३२-१७ सत्तमम्मि जहन्नेणं ३६-२४० १६०,१६६,२१८ संसारमावन्न परस्स अट्टा ४-४ सत्तमाए जहन्नेणं ३६-१६६ संतई पप्प तेणाई ३६-१२ संसारमोक्खस्स विपक्खभूया १४-१३ सत्तमो मिच्छकारो य २६-३ संतत्तभावं परितप्पमाणं १४-१० संसारसागर घोरं २२-३१ सत्तरस सागराई ३६-२२८ संताणछिन्ना चरिस्सामि मोणं १४-४१ संसार हेउं च वयंति बंधं १४-१६ सत्तरस सागरा ऊ ३६-१६४ संति एगेहि भिक्खूहिं ५-२० संसारे परिवत्तए ३३-१ सत्तरस सागरोवमा ३६-१६५,२२६ संतिमग्गं च बूहए १०-३६ संसारो अइवत्तई २७-२ सत्तर कोडिकोडिओ ३३-२१ Jain Education Intemational Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६७८ परिशिष्ट १: पदानुक्रम ६-२ सत्तविहं नवविहं वा ३३-११ १०१,११२,१२१,१३१,१४०,१५०,१५६, समिई गुत्ती तहेव य २४-१ सत्तहा परिकित्तिया ३६-१५७ १७४,१८३,१६०,२१८ समिईसु किरियासू य ३१-७ सत्तावीसइविहेक्कसीओ वा ३४-२० सपरिसो पंजली होउं २५-१३ समिईहि मज्झं सुसमाहियस्स १२-१७ सत्तू मित्तेसु वा जगे १६-२५ सपाहेओ पवज्जई १६-२० समिए गुत्ते य गुत्तिहिं ३४-३१ सत्तू य इइ के वुत्ते? २३-३७ स पुज्जसत्थे सुविणीयसंसए १-४७ समिक्ख पंडिए तम्हा सत्तेव उ सागरोवमा ३६-१६३ स पुव्यमेवं न लभेज्ज पच्छा ४-६ समिच्च लोयं समया महेसी ४-१० सत्तेव सहस्साई ३६-८८ सप्पे बिलाओ विव निक्खंमते ३२-५० समिद्धा कामरूविणो ५-२७ सत्तेव सागरा ऊ ३६-१६२ सफला जंति राइओ १४-२५ समुदाय तयं तं तु २५-३४ सत्तोवसत्तो न उवेइ तुर्हि ३२-२६,४२, सब्भावपच्चक्खाणेणं भंते! जीवे...२६स०४२ समुद्घमि पसवई २१-४ ५५,६८,८१,६४ सब्भावे उवएसणं २८-१५ समुद्दगंभीरसमा दुरासया ११-३१ सत्थं जहा परमतिक्खं २-२० सद्भितरबाहिरओ १६-८८ समुद्दपालित्ति नामए २१-४ सत्थग्गहणं विसभक्खणं च ३६-२६७ समएणेगेण उ सिज्झई उ ३६-५४ समुद्दपाले अपुणागमं गए २१-२४ सत्थे संवट्टकोट्टे य ३०-१७ समएणेगेण सिज्झई ३६-५१,५२ समुद्दपालो इणमब्बवी २१-८ सदावरीय गुम्मी य ३६-१३८ समए वि संतई पप्प ३६-६ समुद्दम्मि जलम्मि य ३६-५० स देवगंधव्वमणुस्सपूइए १-४८ समए समयखेत्तिए ३६-७ समुद्दविजए नामं २२-३ सदेसमह पत्थिओ २१-३ समं च संथवं थीहिं १६-३ समुद्दविजयंगओ २२-३६ सधयार उज्जोओ २८-१२ समं हिच्चा महापहं ५-१४ समुद्देण समं मिणे ७-२३ सद्दस्स सोयं गहणं वयंति २२-३६ समचउरंसो झसोयरो २२-६ समुयाणं उछमेसिज्जा ३५-१६ सद्दहइ जिणाभिहियं २८-२७ समणं संजय दंतं २-२७ समुवट्ठियं तहिं संतं २५-६ सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा १०-१६ समणा भविस्सामु गुणोहधारी १४-१७ समे अज्झसिरे यावि २४-१७ सद्दाइया तावइयप्पगारा ३२-१०६ समणा मु एगे वयमाणा -७ समो निंदापसंसासु १६-६० सद्दाणुगासाणुगए य जीवे ३२-४० समणो अहं संजओ बंभयारी १२-६ समो य जो तेसु स वीयरागो ३२-२२,३५, सद्दाणुरत्तस्स नरस्स एवं ३२-४५ समयं गोयम ! मा पमायए १०-१ से ३६ ४८,६१,७४,८७ सद्दाणुवाएण परिग्गहेण ३२-४१ समयं संजए भंजे १-३५ समो य सव्वभूएसु १६-८६ सद्दा विविहा भवंति लोए १५-१४ समयाए समणो होइ २५-३० सम्बुक्कावट्टाययगंतुं ३०-१६ सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य ३२-४३ समया सव्वभूएस १६-२५ सम्मं नो फासयई पमाया २०-३६ सद्दे अतित्ते य परिग्गहे य ३२-४२ समरेव महामुणी २-१० सम्म जयइ संजमे ३६-१ सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्छं ३२-३७ समरेसु अगारेसु १-२६ सम्म जाणामि अप्पगं १५-२७ सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ३२-४४ समलेटुकंचणे भिक्खू ३५-१३ सम्म धम्म वियाणित्ता १४-५० सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो ३२-४७ समाइपणाई जक्खेहि ५-२६ सम्मं नो पडितप्पड़ सद्दे रूवे य गंधे य १६-१० समागमे कयमई २३-१४ सम्म भावेत्तु अप्पयं १९-६४ सद्देसु जो गिद्धमुवेइ तिव्वं ३२-३७ समागया तं इसि तालयंति १२-१६ सम्मं संपडिवज्जई २३-१६ सद्धाखमं णे विणइत्तु रागं १४-२८ समागया दो वि चित्तसंभूया १३-३ सम्म सुद्धेण चेयसा १५-३२ सद्धा परमदुल्लहा ३-६ समागया बहू तत्थ २३-१६ सम्मग्गं तु जिणक्खायं २३-६३ सद्धं नगरं किच्चा ९-२० समागया सव्वजणेण अम्हे १२-३३ सम्मग्गं समुवट्ठिया सनियाणा कण्हलेसमोगाढा ३६-२५६ समागया सव्वजणेण तुब्भे १२-२८ सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं ३३-६ सनियाणा हु हिंसगा ३६-२५७ समाययंती अमइं गहाय ४-२ सम्मत्तं तं वियाहियं २८-१५ सन्नाइपिंडं जेमेइ १७-१६ समारुओ नोवसमं उवेइ ३२-११ सम्मत्तचरित्ताई २८-२६ सन्नाणनाणोवगए महेसी २१-२३ समावन्नाण संसारे ३-२ सम्मइंसणरत्ता ३६-२५८ सन्निरुद्धंमि आउए ७-२४ समावन्नो नराहिवो १८-१८ सम्मद्दमाणे पाणाणि १७-६ सन्निरुद्धा य अच्छहि? २२-१६ समासासेंति अप्पयं ६-६ सम्मामिच्छत्तमेव य सन्निरुद्धे जलागमे ३०-५ समासेण वियाहिओ ३०-२६ सम्मुच्छिमतिरिक्खाओ ३६-१७० सन्निरुद्धे सुदुक्खिए २२-१४ समासेण वियाहिया २४-३,१६; सयं गेहं परिचज्ज १७-१८ सन्निवेसे समायघोसे य ३०-१७ २६-५२,३६-४७,१०६ सयं च अठुत्तर तिरयलोए ३६-५४ सन्निहिं च न कुब्वेज्जा ६-१५ समासेण वियाहियं ३०-१४; ३३-१५ सयणं परियणं चेव २२-३२ सन्निहीसंचओ चेव १६-३० समाहिउप्पायगा य गुणगाही ३६-२६२ सयणा तहा कामगुणा पगामा १४-१६ सपज्जवसिए वि य ३६-६ समाहिं पडिसंधए २७-१ सयणासणठाणे वा ३०-३६ सपज्जवसिया वि य ३६-१२,७६,८७, समाहिकामे समणे तवस्सी ३२-४,२१ सयणासणपाणभोयणं १५-११ १७-५ २३-८६ ३३-६ Jain Education Intemational Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६७९ परिशिष्ट १: पदानुक्रम याणछिन्ने १५-१ सयणासणनेवणया ३०-२८ सव्वदुक्खप्पहीणट्टा २८-३६ सहस्सारे जहन्नेण ३६-२२६ सयणेण वा कामगुणेहि चेव १४-१७ सव्वदुक्खप्पहीणे वा ५-२५ सहायपच्चक्खाणेणं भंते! २६सू०४० सयणे नो पडिस्सुणे १-१८ सव्वदुक्खविमोक्खणं २६-३८,४१,४६,४६ सहायमिच्छे निउणत्थबुद्धि ३२-४ सयमेव लुचई केसे २२-२४,३० सव्वदुक्खविमोक्खणिं १६-८५,२६-१ सहिए आएगवेसए स भिक्खू १५-५ सया कुसलसंदिट्ठ २५-१६ सव्वदुक्खविमोक्खणे २६-१०,४६ सहिए उज्जुकडे नियाणछिन्ने सया दुही विप्परियासुवेइ २०-४६ सव्वदुक्खा विमुच्चई ६-८ सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा १५-१५ सरइ पोराणियं जाई ९-१;१६-८ सव्वद्धं तु वियाहिया ३६-८ सा उ उद्धरिया कहं? २३-४५ सरणं गई पइट्ठा य २३-६५ सव्वधम्माणुवत्तिणो ७-२६ सा उ पारस्स गामिणी २३-७१ सरागे वीयरागे वा ३४-३२ सव्वनयाण अणुमए ३६-२४६ सागरंतं जहित्ताणं १८-४० सरित्तु पोराणिय तत्थ जाई १४-५ सव्वन्नू जिणभक्खरो २३-७८ सागरा अउणतीसई ३६-२४१ सरिसो होइ बालाणं २-२४ सव्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा २८-२४ सागरा अउणतीस तु ३६-२४० सरीरपच्चक्खाणेणं भंते! जीवे... २६सू०३६ सव्वभवेसु अस्साया १९-७४ सागरा अउणवीसई ३६-२३१ सरीरपरिमंडणं १६-६ सव्वभावविभावणं २६-३६ सागरा अउणवीसं तु ३६-२३० सरीरमाहु नाव त्ति २३-७३ सव्वभूयाण संजया ! २०-५६ सागरा अट्ठवीसई ३६-२४० सरीरविवरंतरे २०-२० सब्वमेयं चइत्ताणं ६-५ सागरा अट्ठवीसं तु ३६-२३६ सरीरवोच्छेयणट्ठाए ३६-३४ सव्वलक्खणसंपून्ना २२-७ सागरा इक्कतीसं तु ३६-२४२ सलिंगे अन्नलिंगे य ३६-४६ सव्वलोगंमि पाणिणं २३-७५,७६,७८ सागरा इक्कवीसई ३६-२३३ सलिंगेण य अट्ठसयं ३६-५२ सव्वलोगम्मि विस्सुए २३-५ सागरा इक्कबीसं तु ३६-२३२ सलिला सागरंगमा ११-२८ सव्वलोगप्पभंकरो २३-७६ सागरा उ छवीसई ३६-२३८ सल्लं कामा विसं कामा ६-५३ सव्वसंगविनिम्मुक्के १८-५३ सागराणि य सत्तेव ३६-२२४ सल्लाणं च तियं तियं ३१-४ सव्वसत्तू जिणामहं २३-३६ सागरा पणुवीसई ३६-२३७ सवियारअवियारा ३०-१२ सव्वसुत्तमहोयही! २३-८५ सागरा सत्तवीसई ३६-२३६ स वीयरागो कयसव्वकिच्चो ३२-१०८ सव्वस्स दुक्खस्स उ जो पमोक्खो ३२-१ सागरा सत्तवीस तु ३६-२३८ सव्वओ परिवारिए १४-२१,१८-२ सव्वस्स दुक्खस्स पनोक्खमग्गो ३२-१११ सागरा साहिया दुन्नि ३६-२२३ सव्वओ परिवारिओ २२-११ सव्वस्स लोगस्स दुगंछणिज्जा १३-१६ सागरोवममेगं तु ३६-१६० सव्वओ पिहियासवे १६-६३ सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स ३२-१६ साणुक्कोसे जिएहि उ २२-१८ सव्वओ विप्पमुक्कस्स १६-१६ सव्वारंभपरिच्चाओ १६-२८ सा तेसिं कायट्टिई ३६-१६७,२४५ सव्वं अप्पे जिए जिय ६-३६ सव्वाहि नयविहीहि य २८-२४ सा पव्वइया संती २२-३२ सव्वं कम खवित्ताणं २२-४८ सव्वे आभरणा भारा १३-१६ सा पुढवी निम्मला सहावेणं ३६-६० सव्वं गंथं कलहं च ८-४ सवे उम्मग्गपट्ठिया २३-६३ सा बाला नोव जई २०-२६ सव्वंगेसु य पत्थिवा २०-१६ सव्वे कामा दुहावहा १३-१६ सा मज्झम्मि वियाहिया ३६-५६ सव्वं जगं जइ तुहं १४-३६ सव्वे ते दुक्खसंभवा ६-१,११ सामण्णं च पुराकयं १६-८ सव्वं जओ जाणइ पासए य ३२-१०६ सव्वे ते परिनिव्वुड १४-५३ सामण्णं निच्चलं फासे २२-४७ सव्वं नट विडंबियं १३-१६ सव्वे ते विइया मज्झं १८-२७ सामण्णं पुत्त! दुच्चरं १६-२४ सव्वं पिते अपज्जत्तं १४-३६ सव्वे धम्मपरायणा १४-५१ सामण्णमणुपालिउं १६-३४ सव्वं वावि धणं भवे १४-३६ सव्वेसिं चेव कम्माणं ३३-१७ सामण्णमणुपालिया १९-६५,३६-२५० सव्वं विलवियं गीयं १३-१६ सव्वेसिं चेव भूयाणं २०-३५ सामण्णस्स भविस्ससि २२-४५ सव्वं सव्वेण बद्धगं ३६-१८ सव्वेसु कामजाएसु ___-४ सामण्णे पज्जुवट्ठिओ ६-६१ सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं १३-१० सव्वेसु वि पएसग्गं ३३-२४ सामण्णे पज्जुवट्ठिया १८-४६ सव्वं से जाइयं होइ २-२८ सव्वेसु वि पएसेसु ३३-१८ सामाइएणं भंते! जीवे किं . . . . . २६सू०६ सव्वकम्मविनिम्मुक्कं २५-३२ सव्वेहिं भूएहिं दयाणुकंपी २१-१३ सामाइयत्थ पढमं । २८-३२ सव्वगुणसंपन्नयाए णं भंते! २६सू०४५ सव्वोसहीहिं ण्हविओ २२-६ सामायारि पवक्खामि २६-१ सव्वजीवाण कम्मं तु ३३-१८ ससरक्खपाए सुवई १७-१४ सामायारी पवेइया २६-४,७ सव्वजीवेसुइच्छियं ३३-२४ सह संबुद्धो अणुत्तरे धम्मे ६-२ सामिसं कुललं दिस्स १४-४६ सव्वट्ठसिद्धगा चेव ३६-२१६ सहसम्मुइयासवसंवरो य २८-१७ सामी कुज्जा निमंतणं २-३८ सव्वट्ठस्सुवरि भवे ३६-५७ सहसावत्तासियाणि य १६-६ सामेहिं सबलेहि य १६-१४ सब्बठेसु व खत्तिया ३-५ सहस्सं हारए नरो ७-११ सायं च पायं उदगं फुसंता १२-३६ सव्वड्ढीए सपरिसा २२-२१ सहस्सगुणिया भुज्जो ७-१२ सायं नो परिदेवए २-८,३६ Jain Education Intemational Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि सायमसायं च आहियं सायरसइडिउं सायरस उ बहू भैया सायागारविए एगे सारभंडाणि नीणेइ सारहिं इणमब्बवी सारहिस्स पणामए सारीरमाणसा चैव सारीरमाणसे दुक्खे सावए आसि वाणिए सावए वाणिए घरं सावए से विकोविए सावज्जं वज्जए मुणी सावज्जजोगं परिवज्जयंतो सावत्थि नगरिमागए सासए जिणदेसिए सासं दासं व मन्नई सासणे विगयमोहाणं सासयं परिनिन्दुए साहवो संजमुत्तरा साहस्सीए परिवुडो साहस्सीओ समागया साहारणं जं च करेइ कम्म साहारण सरीरा उ. साहारण सरीरा य साहाहि रुक्खो लहए समाहिं साहियं पलिओवमं साहियं सागरं एक्कं साहिया दुन्नि सागरा साहिया सागरा सत्त साहु गोयम ! पन्ना ते साहुणा विम्हयन्निओ साहुस्स तस्स वयणं अकाउं साहुस्स दरिसणे तस्स साहु अन्नोत्थ वच्चउ साहू कल्लाण मन्नई साहू कहय पुच्छिओ सिंगबेरे तहेव य सिंगारत्थं न धाराए सिंचामि सययं देहं सिक्खए नीइकोविए सिक्सीलेत्ति दुबई सिक्खित्ता संजमं तवं सिज्झते जुगवं दुवे सिज्झिस्संति तहापरे सिणाणं नो वि पत्थए सित्ता नो व डहंति मे ६८० २२-७ गुणजोगे ३६-२६४ सिद्धाणणंतभागो य ३३-७ सिद्धाणं नमो किच्चा २७-६ सिद्धाणेगविहा वृत्ता १६-२२ सिद्धाणोगाहणा भवे २२-१५ सिद्धा सिज्झति चाणेण २२-२० सिद्धिं गच्छसि नीरओ १६-४५ २३-८० सिद्धिं गोयम ! लोयं गच्छसि सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं सिद्धिं पत्तो अणुत्तर २१-१ २१-५ सिद्धिं वरगई गया २१-२ सिद्धिं संपाउणेज्जासि १- ३६ सिद्धिगई गए गोयमे २१-१३ सिद्धी लोगग्गमेव य २३-३ सिद्धे वा हवइ सासए १६-१७ सिद्धे हवइ नीरए ३६-६६ सीयं फुसइ एगया ३६-६३ १४- २६ ३६- २२३ सीयंति एगे बहु कायरा नरा ३६-२१६ सीयंति जत्था बहुकायरा नरा ३६-२२५ सीयच्छाए मणोरमे ३६-२२५ २३-२८,३४,३६, ४४,४६,५४,५६,६४,६६, ७४, ७६, ८५ सीयपिंडं पुराणकुम्मासं सीया उण्हा य निद्धा य सीया नीलवंतपवहा २०- १३ सीयाए जोयणे तत्तो १३- ३४ सीयारयणं तओ समारूढो १६-७ सीलं पडिलभे जओ २७-१२ सीलडूढं गुणआगरं १-३६ सीलभूएण अप्पणा १-३८ सिद्धे हवइ सासए १४- ५२ सिया हु केलाससमा असंखया ३५-२१ सिरे चूडामणी जहा ५-२० सिसुणागुव्व मट्टिय २२-२३ सीउन्हं विविहं च दंसमसगं २३ १६ सीएण फरुसेण वा सीओदगं न सेविज्जा ४-४ २२-४८ सीओसिणा दंसमसा य फासा सीयं च सोवीरजवोदगं च सीलवंता बहुस्सुया सीलवंता सवीसेसा सीलसहावहासविगहाहिं सीसं छेत्तूण भुज्ज़ई सीससंघसमाउले २०- १ ३६-४८ ३६-६२,६४ १६-१७ ६- ५८ १०-३५ २५-४३ २५-१५ ३६-६६ १६- ६ २३-५१ २१-६ ११- ४, ५ सीसेण एवं सरणं उवेह ५- २८ सीसे सो उ महप्पणो ३६-५३ सीहकण्णी नहेव य १६-१७ सीहे मियाण पवरे २-६ सीहो व सद्देण न संतसेज्जा २३-५१ सुइं च लधुं सद्धं च ३१-२० सुई धम्मस्स दुल्लहा ३३-२४ १६- ६५ ३६-६३,६७ ११-३२ १०- ३७ २३-८३ १- ४८ १८- ५३ ३- २० परिशिष्ट १ पदानुक्रम सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं सुंसुमारा य बोद्धव्वा सुकडं तस्स सामण्णं सुकडे त्ति सुपक्के त्ति सुकहियमट्ठपओवसोहियं सुकुमालं सुहोइयं सुकुमालो सुमजिओ १६-३४ ३५-१६ ३४-३२ ३४-६ ३४-३ ३४-५७ १६-१ १-३६ २२-४० २०-५४; २५-३५ सुणगमडगस्स व जहा अहिमडस्स ३४-१६ सुगिट्टिए सुसि १-३६ १-६ सुणियाभावं साणस्स ३२-१ २८-१ ३६-१ ३५-१ २०-१७ १-२३ २२-२० ३२-३ ४-६ सुक्कझाणं झियाएज्जा सुक्कलेसं तु परिणमे सुक्कलेसा उ वण्णओ सुक्कलेसा य छटा उ सुग्गइं उववज्जई बहुसो सुग्गीवे नयरे रम्म सुच्छिन्ने सुहडे मडे सुट्टिया नियमव्वए सुट्टु मे उवदंसिय ६-४८ २२-१० ५- १० १५-४ १- २७ सुणेह जिणभासिय सुणेह एगग्गहियं हियत्थं २-४ सुणेह मे एगमणा इओ सुणेह मेगग्गमणा २१- १८ १५-१३ सुणेह मे महाराय ! २-६ २०- ३८ सुतं अत्यं च तदुभयं सुत्तगं च महायसो २१-१७ सुत्तत्थ संचिंतणया थिई य सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी ६-६ ८- १२ सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वा वि ३६-२० सुदुल्लहं लहिउं बोहिलाभ ११-२८ सुद्दो हवइ कम्मुणा ३६-६१ सुद्धेसणाओ नच्चाणं २२- २२ १-७ १६- ५ सुद्धोदए य उस्से सुपरिच्चाई दमं चरे सुप्पियस्सावि मित्तस्स २७-१७ सुगंधपरिणामा ५-२६, २२-३२ सुमहं मंदरे गिरी ७-२१ सुमिण लक्ष्णदंडवत्युविज्ज ३६-२६३ सुयं आभिणिबोहियं ७-३ सुयं आभिनिबोहियं २३-३,७,१५ सुयं मे आउ ! तेगं भगवया एवं १६ सू० १ २१-१ सुयं लद्धुं न मज्जई ३६-६६ सुयं लद्धूण मज्जई १२-२८ ११- २० सुयं विणयं च गाहिए २१-१४ सुयतुंडपईवनिभा ३-१० सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च ३-८ २८-२१ ३६-१७२ २-१६ १-३६ १०-३७ २०-४ २८-२८ 919-9 २५-३१ ८-११ ३६-८५ १८-४३ ११-८ ३६-१७ ११-२६ १५-७ ३३-४ २८-४ २ सू० १; २६ सू० १ ११-११ 99-19 १७-४ ३४-७ २८-२७ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि सुधारामा संता सुयनाणं जेण अत्थओ दिट्ठ सुवरस्सीसमाहिय मसलती जल सुयसीलसमुक्करिसो सुयस्स आराहणयाए णं भंते ! सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो सुयाणि मे पंच महव्वयाणि सुया मे नरए ठाणा सुरूवे ! चारुभासिणि सुरूवे पियदंसणे सुलहा तेसिं भवे बोही सुवण्णरुप्यस्स उ पव्वया भवे सुविणीए ति दुबई सुविसो सुपालओ सुव्वए कम्मई दिवं सुव्वंति दारुणा सद्दा सुसंवुडो पंचहिं संवरेहिं सुसंभिया कामगुणा इ सुसंभंतो सुविम्हिओ सुसाणे सुन्नगारे वा सुसीइओ पहामि दोस सुसीला चारुपेहिनी सुहं वसामो जीवामो सुहं वा जइ वा दुहं सुदुक्फलनिवागं सुहमसुहं च आहियं सुहसाएणं भंते! जीवे सुहस्स उ बहू भेया सुहावहं धम्मधुरं अणुत्तरं सुहुत्तरा चेव भवंति सेसा सुहुमं तह संपरायं च सहुमाणं बायराण य सुहुमा तत्थ वियाहिया सुहुमा ते वियाहिया सुहुमा बायरा तहा सुहुमा सव्वलोगम्मि सुहेण य दुहेण य सुसिणो दुक्खविणोयट्ठा सुहोइयो तुमं पुत्ता ! सूयरस्स नरस्स य सूरा दढपरक्कमा सूरे दढपरक्कमे सूरो अभिहणे परं सुतेहि सहय सेओ अगारवा ति २३-५३ सेओ सच्चपरक्कमे २८-२३ से काहए महया वित्थरेणं २३-५६ से किंचि निसामिया २३-५३ से खिप्पं सव्वसंसारा २३-८८ से घाणबले य हायई २६ सू० २५ से चक्खुबले य हायई ११-३१ से चुए बंभलोगाओ १६-१० से जिब्भबले य हायई ५-१२ २२-३७ २१-६ ३६-२५८ ६-४८ ११- १०, १३ २३-२७ ५-२२ ६-७ ६८९ सेज्जं तु पडिह सेज्जं न पडिलेहइ २६ सू० ३० ३३- १३ १६-६८ १०८, ११७ ३६-७८, ८६, १००, सेज्जा दढा पाउरणं मे अस्थि सेट्ठिकुलम्मि विसाले सेढितवो पयरतवो सेणिओ मगहाहिवो सेणिया ! मगहाहिवा ! १२-४२ से न अच्छइ मंडले १४-३१ से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते २०-१३ २- २०, ३५-६ से नूणं मए पुव्वं से फासबले य हायई सेयं ते मरणं भवे १२- ४६ २२-७ सेयं पव्वइउं मम ६-१४ सेयमेयंति मन्नई १८- १७ १३- ३ ३३- १३ १७-१० २४-२७ ३०-३७ १०-२३ १०-२२ १८- २६ १०-२४ २६-३७ १७-१४ से तत्थ पत्ते न वहिज्ज भिक्खू से दसंगेभिजायई से संजए सुव्वए तवस्सी से समिए त्ति वुच्चई ताई से सव्वबले य हायई ३३- १८ से सव्वसिणेहवज्जिए २८-३२ सेसाणि उ अप्पसत्थाई ३५-६ सेसावसेसं लभउ तवस्सी ३६-७७, ८६, १०० से सिक्खं लछुमरिहई ३६ - ११०, ११६ से सुब्वए होइ मुणीण मज्झे ३६-७०,८४,६२, से सोयई मच्चुमुहोवणीए से सोयबले य हायई सोइंदियनिग्गहेणं भंते! जीवे - १११,१२० सोऊण तस्स वयणं २८-१० सोऊण तस्स सो धम्मं ३२- १०५ सोऊण रायकन्ना १६- ३४ से विणीए त्ति वुच्चई से वि य सुस्सुयाइत्ता से वि सावत्थिमागए १८- ४८ २०-५३ सो एवं तत्थ पडिसिद्धो सो करिस्सइ उज्जोयं १-६ १८- ५१ सो कुंडलाण जुयलं सो खलु आणारुई नाम २- १० सो खलु किरियारुई नाम ११-१७ १६- ६१ सोगेण उ समुत्थया २-२६ सोच्चाभिनिक्खम्म पहाय भोए १७-२ १३-२ ३०-१० २०- २,१० २०-१२ परिशिष्ट १ : पदानुक्रम २७-७ २३-७ १५-५ सोच्चाणं जिणसासणं सोच्चाणं फरसा भासा सोच्वाण मेहावी सुभासियं इमं सोच्चा नेआउयं मग्गं सो बीयरुइ त्ति नायव्वो सोयगिज्झं विवज्जए सोयग्गिणा आयगुणिंधणेणं सोयस्स सद्दं गहणं वयंति सोरिट्ठनेमिनामो उ २११७ सोरियपुरंमि नयरे सोलसविहभेएणं ३-१६ ३१-३ से २० २०४८ २-४० सोयागकुलसंभूओ १०-२५ सोवागजाई दुहओ गयाणं २२-४२ सोयापुरिएससाहू सोच्चा सद्दहिऊण य सो तवो दुविहो वुत्तो ३०-७ सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को ३२ ११० सो तेसु मोहा विगई उवेइ सो दाणिसिं राय ! महाणुभागो ३२- १०१ १३-२० ६-३ २८-२७ सो देवलोगसरिसे ५-१३ २८-२३ १६-५ १४-१० ३२-३५,३६ सो धम्मरुइ त्ति नायव्वो सो पच्छा परितप्पई २२- २६ सोवागा कासिभूमिए ५-६ सो बिंतम्मापियरो ! १३ सो वि अंतरभासिल्लो सो वि राया तवं चरे सोवीररायवसभो सो समासेण छव्विहो १०-२६ सो सुत्तरुइ त्ति नायव्वो सोहम्मंमि जहन्नेणं १०-२८ सोहम्मीसाणगा तहा २६-२८ सोही उज्जुयभूयस्स सो हु कंखे सुए सिया ११-१४ सो होइ अभिगमरुई १२-१० १७-२१ १३-२१ १०-२१ हुए मिए उपासित्ता २६ सू० ६३ हओ न संजले भिक्खू हंसा मयंगतीरे १८- १८ हट्टतुट्ठमलंकिया २२-१८ २२-२८ २५-६ २३-७६, ७८ २२-२० हत्थागया इमे कामा २८-२० हत्थिणपुरम्मि चित्ता हम्मंति भत्तपाणेसु हम्मिहति बहू जिया हंयं भद्दं व वाहए २८-२५ २२-२८ १४-३७ ह हाइ वेयाल इवाविवन्नो हाइ सत्यं जह कुग्गहीयं हणेज्जा कोइ कत्थई २-६ २-२५ २०-५१ ३-६, ७-२५ ३६-२४६ २२-५ २२-१,३ ३३-११ १२-१ १३-१८ १२-३७ १३-६ १६-७६ २७-११ १८-३७ १८-४७ ३०-१० २८-२१ ३६-२२२ ३६-२१० ३-१२ १४-२७ २८-२३ १८- ६ २-२६ १३-६ १८- १६ २०-४४ २०-४४ २-२७ ५-६ १३-२८ ३५-११ २२-१६ १-३७ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६८२ परिशिष्ट १: पदानुक्रम १२-५ हयमाइगोणमाइ हयाणीए गयाणीए हरतणू महिया हिमे हरा हरंति त्ति कहं पमाए ? हरिएसबलो नाम हरियकाया य बोद्धव्वा हरियालभेयसंकासा हरियाले हिंगुलुए हरिसेणो मणुस्सिदो हलिद्दाभेयसन्निभा हवई किच्चाणं सरणं हसियं थाणयकंदियं हसियं भुत्तासियाणि य हालिद्दा सुक्किला तहा हासं किड्रडं रइं दप्पं हासं कीडं च वज्जए ३६-१८० हासं भयं सोगपुमित्थि वेयं १८-२ हासे भए मोहरिए ३६-८५ हिंगुलुयधाउसंकासा १४-१५ हिंसगा अजिइंदिया १२-१ हिंसे बाले मुसावाई ३६-६५ हियं तं मन्नए पण्णो ३४-८ हियं विगयभया बुद्धा ३६-७४ हियं सया बंभवए रयाणं १८-४२ हियनिस्सेयसबूद्धिवोच्चत्थे ३४-८ हियनिस्सेसाए सव्वजीवाणं १-४५ हिरण्णं जायरूवं च १६-५ हिरण्णं पसुभिस्सह १६-१२ हिरण्णं सुवण्णं मणिमुत्तं ३६-१६,७२ हिरिमं पडिसंलीणे १६-६ हिरिली सिरिली सिस्सिरिली १-६ हीलं च निंदं च खमाह भंते ! ३२-१०२ हुज्जा गायविराहणा २-३४ २४-६ हुयासणे जलंतम्मि १६-४६,५७ ३४-७ हेऊकारणचोइओ ६-८,११,१३,१७,१६,२३, २५,२७,२६,३१,३३,३७,३६, ५-६, ७-५ ४१,४३,४५,४७,५०,५२ १-२८ हेऊहि कारणेहि य २७-१० १-२६ हेट्ठिमा उवरिमा चेव ३६-२१३ ३२-१५ हेट्ठिमामज्झिमा तहा ३६-२१३ ८-५ हेट्ठिमाहेट्ठिमा चेव ३६-२१३ ८-३ होइ किण्हाए ३४-४३ ३५-१३ होइ वायस्स कोत्थलो १६-४० E-४६ होई भागेण तेऊए ३४-५२ होक्खामि त्ति अचेलए २-१२ ११-१३ होमं हुणामी इसिणं पसत्थं १२-४४ ३६-६७ होमि नाहो भयंताणं २०-११ १२-३० Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ उपमा और दृष्टान्त १११२ १११२ ११३७ १४११८ १४११८ १४।१८ १४।३० १४।३० १४।३० १४।३३ १४५ २३ २११० ३।१२ ३।१४ ५।१६ کیا ६।१५ ७२४ उपमाएंगलियस्सेव कसं कसं व दठुमाइण्णे गलियस्से व वाहाए भूयाणं जगई जहा कालीपव्वंगसंकासे नागो संगामसीसे वा पंकभूया उ इथिओ घयसित्तव्य पावए महासुक्का व दिपंता दीवप्पणटे व भारुण्डपक्खी व आसे जहा सिक्खियवम्मधारी दुहओ मलं संचिणइ, सिसुणागु ब्ब मट्टियं धुत्ते व कलिना जिए पक्खी पत्तं समादाय कुसग्गमेत्ता बज्झई मच्छिया व खेलमि तरंति अतरं वणिया व निज्जाइ उदगं व थलाओ आसीविसोवमा अबले जह भारवाहए आसे जवेण पवरे जहाइण्णसमारूढे जहा करेणुपरिकिण्णे, कुंजरे सट्ठिहायणे वसहे जूहाहिवई सीहे मियाण पवरे अप्पडिहयबले जोहे जहा से चाउरते चक्कवट्टी महिड्ढिए जहा से सहस्सक्खे, वज्जपाणी पुरंदरे जहा से तिमिरविद्धंसे, उत्तिटूटते दिवायरे जहा से उडुवई चंदे जहा से सामाइयाणं कोट्ठागारे जहा सा दुमाण पवरा, जंबू नाम सुदंसणा जहा सा नईण पवरा जहा से नगाण पवरे, सुमहं मंदरे गिरी जहा से सयंभूरमणे समुद्दगंभीरसमा अगणिं व पक्खंद पयंगसेणा जहेह सीहो व मियं गहाय नागो जहा पंकजलावसन्नो ८६ SIE ६५३ १०.३३ ११११६ ११११७ १११८ ११११६ ११२० १११२१ ११२२ १११२३ ११।२४ ११।२५ ११२६ ११।२७ १११२८ ११२६ ११.३० ११३१ १२।२७ १३।२२ १३।३० जहा य अग्गी अरणीउसंतो खीरे घयं तेल्ल महातिलेस पंखा विहूणो व्व जहेह पक्खी भिच्चा विहूणो ब्व रणे नरिंदो विवन्नसारो वणिओ व्व पोए जुण्णो व हंसो पडिसोत्तगामी जहा य भोई ! तणुयं भुयंगो, निम्मोयणिं हिच्चे पलेइ मुत्तो छिदित्तु जालं अबलं व लोहिया, मच्छा जहा.. नहेव कुंचा समइक्कमंता, तयाणि जालाणि दलित्तु हंसा पक्खिणि पंजरे वा गिद्धोवमे उरगो सुवण्णपासे व नागो व्व बंधणं छित्ता, अप्पणो वसहिं वए विसं तालउड जहा विसमेव गरहिए अमयं व पूइए विज्जुसंपायचंचलं उम्मत्तो व्व महिं चरे देव दोगुदगे चेव विसफलोवमा फेणबुब्बुयसन्निभे जहा किंपागफलाणं परिणामो न सुंदरो गुरुओ लोहभारो व्व आगासे गंगसोउ ब्व पडिसोओ व्व दुत्तरो बाहाहिं सागरो वालुयाकवले असिधारागमणं अहीवेगंतदिट्ठीए जवा लोहमया जहा अम्गिसिहा दित्ता जहा दुक्खं भरेउं जे होइ वायस्स कोत्थलो जहा तुलाए तोलेउं, दुक्करं मंदरो गिरी जहा भूयाहिं तरिउं, दुक्करं रयणागरो महादवग्गिसंकासे महाजंतेसु उच्छू वा रोज्झो वा जह पाडिओ महिसो विव मिओ वा अवसो मच्छो वा अवसो १४।३४ १४।३५ १४॥३६ १४।४१ १४।४७ १४॥४७ १४४८ १६१३ १७।२० १७१२१ १८।१३ १८१५१ १६३ १६११ १६।१३ १६१७ १६३५ १६३६ १६३६ १६३७ १६।३७ १६३८ १९३८ १६३६ १६४० १६४१ १६४२ १६५० १६५३ १९५६ १६५७ १६६३ १६६४ Jain Education Intemational Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६८४ परिशिष्ट २: उपमा और दृष्टान्त १६६५ १६६६ १६६७ १६८६ १९८७ १९६२ २०.२० २०।२१ २०१४२ २०१४२ ३४१५ * 1४२ ३४।५ upur- 222 सउणो विव वढईहिं दुमो विव कुमारेहिं अयं पिव महानागो व्य कंचुर्य रेणुयं व पडे लग्गं वासीचंदणकप्पो सत्थं जहा परमतिक्खं इंदासणिसमा पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे अयंतिए कूडकहावणे वा राढामणी वेरुलियप्पगासे विसं तु पीयं जह कालकूडं सत्थं जह कुग्गहीयं वेयाल इव अग्गी विवा कुररी विवा विहग इव देवो दोगुंदओ जहा सीहो व सद्देण न संतसेज्जा संगामसीसे इव नागराया मेरु ब्व सूरिए वंतलिक्खे समुदं व विज्जुसोयामणिप्पभा सिरे चूडामणी जहा भमरसन्निभे मा कुले गंधणा होमो वायाविद्धो ब्व हढो अंकुसेण जहा नागो चंदसूरसमप्पभा जहा चंदं गहाईया भासच्छन्ना इवग्गिणो अग्गी वा महिओ जहा जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा खलुका जारिसा जोज्जा रायवेळिं मन्नता जायपक्खा जहा हंसा जारिसा मम सीसाउ, तारिसा गलिगद्दहा उदए व्च तेल्लबिंदू ओहरियभारो व्व भारवे जहा सूई ससुत्ता जहा महातलायस्स सन्निरुद्धे जलागमे जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य दुमं जहा साउफलं व पक्खी पराइओ वाहिरिवोसहेहिं जहा महासागरमुत्तरित्ता नई भवे अवि गंगासमाणा जहा वा पयंगे २०४४ २०.४४ २०॥४४ २०१४७ २०५० २०१६० २१७ २१११४ २१११७ २१११६ २११२३ २१।२४ २२७ २२।१० २२।३० २२१४३ २२१४४ २२१४६ २३।१८ २५ ॥१७ २५।१८ २५११६ २५२६ २७८ २७११३ २७।१४ २७११६ २८२ २६१२ २६५६ ३०५ ३०१६ ३२।१० ३२।१२ ३२११८ ३२।२४ जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ३२३४,४७,६०,७३,८६,६६ हरिणमिगे व मुद्धे ३२।३७ ओसहिगंधगिद्धे सप्पे बिलाओ विव ३२१५० बडिसविभिन्नकाए मच्छे जहा ३२।६३ सीयजलावसन्ने गाहग्गहीए महिसे वरन्ने ३२७६ करेणुमग्गावहिए व नागे ३२१८६ जीमूयनिद्धसंकासा ३४।४ गवलरिट्ठगसन्निभा ३४।४ खंजणंजणनयणनिभा ३४४ नीलासोगसंकासा चासपिच्छसमप्पभा ३४१५ वेरुलियनिद्धसंकासा अयसीपुष्फसंकासा कोइलच्छदसन्निभा पारेवयगीवनिभा हिंगुलुयधाउसंकासा तरुणाइच्चसन्निभा सुयतुंडपईवनिभा हरियालभेयसंकासा हलिद्दाभेयसन्निभा सणासणकुसुमनिभा संखककुंदसंकासा खीरपरसमप्पभा ३४६ रययहारसंकासा। ३४ दृष्टान्त कुत्ती का दृष्टान्त। सूअर का दृष्टान्त। चोर का दृष्टान्त। ४३ गाडीवान् का दृष्टान्त। ५।१४,१५ उरभ्र का दृष्टान्त। ७१-१० कागिणी और आम्र का दृष्टान्त। ७।११,१२ तीन वणिकों का दृष्टान्त। ७।१४-१६ कुशाग्र बिन्दु का दृष्टान्त। ७२३ द्रुमपत्र का दृष्टान्त। १०१ कुशाग्र बिन्दु का दृष्टान्त। १०२ शंख का दृष्टान्त। १११५ दवाग्नि का दृष्टान्त। १४।४२,४५ पक्षी का दृष्टान्त। १४।४४,४६ पाथेय का दृष्टान्त। १६१८-२१ जलते हुए घर का दृष्टान्त। १६।२२,२३ मृग का दृष्टान्त। १६७७-८३ गोपाल का दृष्टान्त। २२।४५ मिट्टी के गोले का दृष्टान्त। २५१४०,४१ दवाग्नि का दृष्टान्त। ३२१११ बिडाल का दृष्टान्त। ३२।१३ किंपाक फल का दृष्टान्त। ३२२० Jain Education Intemational Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ सूक्त विणय मेसेज्जा। ११७ विनय की खोज करो। अट्ठजुत्ताणि सिक्खेज्जा निरट्ठाणि उ वज्जए। ११८ जो अर्थवान् है, उसे सीखो। निरर्थक को छोड़ दो। अणुसासिओ न कुणेज्जा। १९ अनुशासन मिलने पर क्रोध न करो। खंति सेविज्ज पण्डिए। १।९ क्षमाशील बनो। खुड्डेहिं सह संसरिंग हास कीडं च वज्जए। १९ ओछे व्यक्तियों का संसर्ग मत करो, हंसी-मखोल मत करो। मा व चंडालियं कासी। १।१० नीच कर्म मत करो। बहुयं मा य आलवे।१।१० बहुत मत बोलो। कर्ड कडेति भासेज्जा अकडं नो कडे ति य। १।११ किया हो तो ना मत करो और न किया हो तो हां मत करो। ना पुट्ठो वागरे किंचि पुट्ठो वा नालियं वए। १।१४ बिना पूछे मत बोलो और पूछने पर झूठ मत बोलो। कोहं असच्चं कुवेज्जा। १।१४ क्रोध को विफल करो। अप्पा देव दमेयव्यो। १।१५ आत्मा का दमन करो। अण्णा हु खलु दुइमो। १।१५ आत्मा बहुत दुर्दम है। अप्पा दंतो सुही होइ। १।१५ सुख उसे मिलता है, जो आत्मा को जीत लेता है। मायं च वज्जए सया। १।२४ कपट मत करो। न सिया तोत्तगवेसए। १४४० चाबुक की प्रतीक्षा मत करो। अदीगमणसो चरे। २।३ मानसिक दासता से मुक्त होकर चलो। मणं पि न पाओसए। २०११ मन में भी द्वेष मत लाओ। नाणी नो परिदेवए। २०१३ ज्ञानी को विलाप नहीं करना चाहिए। न य वित्तासए परं। २।२० दूसरों को त्रस्त मत करो। नागुतणेज्ज संजए। २०३० संयमी को अनुताप नहीं करना चाहिए। रसेसु नाणुगिज्झेज्जा। २।३९ रस-लोलुप मत बनो। सुई धम्मस्स दुल्लहा। ३.८ धर्म सुनना बहुत दुर्लभ है। सदा परम दुल्लहा। ३।९ श्रद्धा परम दुर्लभ है। सोच्चा नेआउयं मम्मं बहवे परिभस्सई। ३।९ कुछ लोग सही मार्ग को पा कर भी भटक जाते हैं। वीरियं पुण दुल्लह। ३।१० क्रियान्विति सबसे दुर्लभ है। सोही उज्जुयभूयस्स। ३।१२ पवित्र वह है जो सरल है। धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। ३।१२ धर्म का वास पवित्र आत्मा में होता है। असंखयं जीविय मा पमायए। ४।१ जीवन का धागा टूटने पर संधता नहीं, अतः प्रमाद मत करो। जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं। ४।१ बुढ़ापा आने पर कोई त्राण नहीं देता। कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि। ४।३ किए कर्मों को भुगते बिना मुक्ति कहां? वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते। ४।५ प्रमत्त मनुष्य धन से त्राण नहीं पाता। घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं। ४।६ समय बड़ा निर्मम है और शरीर बड़ा निर्बल है। छंदं निरोहेण उवेइ मोक्खं। ४।८ इच्छा को जीतो, स्वतंत्र बन जाओगे। खिणं न सक्केइ विवेगमेठ। ४।१० तुरंत ही सम्भल जाना बड़ा कठिन काम है। अपाणरक्खी चरमप्पमत्तो। ४।१० आत्मा की रक्षा करो, कभी प्रमाद मत करो। न मे दिठे परे लोए चक्बुदिट्ठा रमा रई। ५१५ परलोक किसने देखा है, यह सुख आंखों के सामने है। अप्पणा सच्चमेसेज्जा। ६२ सत्य की खोज करो। Jain Education Intemational Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६८६ परिशिष्ट ३: सूक्त मेत्तिं भूएसु कप्पए। ६।२ सब जीवों के साथ मैत्री रखो। न चित्ता तायए भासा। ६।१० भाषा में शरण मत ढूंढ़ो। कम्मसच्चा हु पाणिणो। ७।२० किया हुआ कर्म कभी विफल नहीं होता। जायाए घासमेसेज्जा रसगिद्धे न सिया भिक्खाए। ८।११ मुनि जीवन-निर्वाह के लिए खाए, रस-लोलुप न बने। समय गोयम ! मा पमायए। १०।१ एक क्षण के लिए भी प्रमाद मत करो। मा वंतं पुणो वि आइए। १०।२९ वमन को फिर मत चाटो। महप्पसाया इसिणो हवंति। १२।३१ ऋषि महान् प्रसन्न-चित्त होते हैं। न हु मुणी कोवपरा हवंति।१२।३१ मुनि कोप नहीं किया करते। आयाणहेउं अभिणिक्खमाहि। १३।२० मुक्ति के लिए अभिनिष्क्रमण करो। कत्तारमेवं अणुजाइ कम्म। १३।२३ कर्म कर्त्ता के पीछे दौड़ता है। मा कासि कम्माई महालयाई। १३॥ २६ असद् कर्म मत करो। वेया अहीया न भवंति ताणं। १४।१२ वेद पढ़ने पर भी त्राण नहीं होते। घणेण किं धम्मधुराहिगारे। १४।१७ धन से धर्म की गाड़ी कब चलती है? अभयदाया भवाहि य। १८।११ - अभय का दान दो। अणिच्चे जीव लोगम्मि किं हिंसाए पसज्जसि। १८।११ यह संसार अनित्य है, फिर क्यों हिंसा में आसक्त होते हो! पडति नरए घोरे जे नरा पावकारिणो। १८।२५ पाप करने वाला घोर नरक में जाता है। दिव्वं च गई गच्छति चरित्ता धम्ममारियं । १८।२५ धर्म करने वाला दिव्य गति में जाता है। चइत्ताणं इमं देहं गन्तव्बमवसस्स मे। १९१६ इस शरीर को छोड़कर एक दिन निश्चित ही चले जाना है। निम्ममत्तं सुदुक्करं। १९।२९ ममत्व का त्याग करना सरल नहीं है। जवा लोहमया चेव चावेयव्वा सुदुक्करं। १९३८ साधुत्व क्या है, लोहे के चने चबाना है। इह लोए निप्पिवासस्स नत्थि किवि वि दुक्करं। १९। ४४ उसके लिए कुछ भी दुःसाध्य नहीं है, जिसकी प्यास बुझ चुकी है। पडिकम्म को कुणई अरण्णे मियपक्खिणं ? १९१७६ जंगली जानवरों व पक्षियों की परिचर्या कौन करता है ? वियाणिया दुक्खविवद्धणं धणं। १९९८ धन दुःख बढ़ाने वाला है। माणुस्सं खु सुदुल्लह। २०।११ मनुष्य जीवन बहुत मूल्यवान् है। अप्पणा अणाहो संतो कहं नाहो भविस्ससि। २०।१२ तू स्वयं अनाथ है, दूसरों का नाथ कैसे होगा? न त अरी कंठछेत्ता करेइ जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। २०१४८ कण्ठ छेदने वाला शत्रु वैसा अनर्थ नहीं करता, जैसा बिगड़ा हुआ मन करता है। पियमणियं सव्व तितिक्खएज्जा। २१ ॥१५ मुनि प्रिय और अप्रिय सब कुछ सहे। न यावि पूर्य गरहं च संजए। २१ ॥१५ मुनि पूजा और गर्दा-इन दोनों को न चाहे। अणुन्नए नावणए महेसी। २१ । २० महर्षि न अभिमान करे और न दीन बने। नेहपासा भयंकरा। २३। ४३ स्नेह का बन्धन बड़ा भयंकर होता है। न तं तायंति दुस्सील। २५।२८ दुराचारी को कोई नहीं बचा सकता। विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो। ३२॥१६ मुनि के लिए एकान्तवास प्रशस्त होता है। कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं। ३२१९ दुःख काम-भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है। समलेढुकंचणे भिक्खू। ३५।१३ भिक्षु के लिए मिट्टी का ढेला और कंचन समान होते हैं। Jain Education Intemational Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सूत्र में अनेक व्यक्तियों के नाम उल्लिखित हुए हैं। कई व्यक्ति इतिहास की परिधि में आते हैं और कई प्राग्- ऐतिहासिक हैं उनकी अविकल सूची तथा परिचय इस प्रकार है : | परिशिष्ट ४ व्यक्ति परिचय महावीर ( २ । सू० १ ) इस अवसर्पिणी-काल में जैन परम्परा के अंतिम तीर्थकर नायपुत्त ( ६।१७ ) भगवान महावीर का वंश 'नाय' - 'ज्ञात' था, इसलिए वे 'नायपुत्त' कहलाते थे। कपिल ( अध्ययन ८ ) देखिए — उत्तरज्झयणाणि, पृ० १४५ । नमि ( अध्ययन E )- देखिए — उत्तरज्झयणाणि, पृ० १५६ । गौतम (अध्ययन १० ) – इनके पिता का नाम वसुभूति, माता का नाम पृथ्वी और गोत्र गौतम था। इनका जन्म ( ई०पू० ६०७ ) गोबर - ग्राम (मगध) में हुआ। इनका मूल नाम इन्द्रभूति था । एक बार मध्यम पावापुरी में आर्य सोमिल नाम के एक ब्राह्मण ने विशाल यज्ञ किया। इसमें भाग लेने के लिए अनेक विद्वान् आए। इनमें इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति – ये तीनों भाई भी थे। ये चौदह विद्याओं में पारंगत थे। भगवान् महावीर भी बारह योजन का विहार कर मध्यम पावापुरी पहुंचे और गांव के बाहर महासेन नामक उद्यान में ठहरे। भगवान् को देख सबका मन आश्चर्य से भर गया। इन्द्रभूति को जीव के विषय में सन्देह था। वे महावीर के पास वाद-विवाद करने आए। उन्हें अपनी विद्वता पर अभिमान था । उन्होंने सोचा- यमस्य मालवो दूरे, किं स्यात् को वा वचस्विनः । अपोषितो रसो नूनं, किमजेयं च चक्रिणः ॥ - यम के लिए मालवा कितना दूर है ? वचस्वी मनुष्य द्वारा कौन-सा रस ( शृङ्गार अदि) पोषित नहीं होता ? चक्रवर्ती के लिए क्या अजेय है ? भगवान् ने जीव का अस्तित्व साधा। इन्द्रभूति ने अपने पांच सौ शिष्यों सहित भगवान् का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। गौतम भगवान् के प्रथम गणधर थे। ये ५० वर्ष तक गृहस्थ, तीस वर्ष तक छद्मस्थ तथा बारह वर्ष तक केवली पर्याय में रहे और अन्त में अनशन कर ६२ वर्ष की अवस्था में (ई०पू० ५१५ में) राजगृह के वैभारगिरि पर्वत पर मुक्त हो गए। जैन आगमों में गौतम द्वारा पूछे गए प्रश्न और भगवान् द्वारा दिए गए उत्तरों का सुन्दर संकलन है। हरिकेसवल ( अध्ययन १२) देखिए- उत्तरज्झयणाणि, पृ० २०८ कौशिक ( १२ १२० ) कौशलिक कोशल देश के राजा का नाम है। १. केम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, भाग १, पृ० १८० । २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६४ । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६४ । यहां कौशलिक से कौन-सा राजा अभिप्रेत है यह स्पष्ट उल्लिखित नहीं है। कौशलिक पुत्री की घटना वाराणसी में घटित हुई। काशी पर कौशल देश का प्रभुत्व महाकौशल और प्रसेनजित् के राज्यकाल में रहा है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि कौलिक महाकौशल या प्रसेनजित् के लिए प्रयुक्त है। महाकौशल के साथ कौशलिक राष्ट्र का अधिक निकट सम्बन्ध है। संभव है यहां वह उसी के लिए व्यवहृत हुआ हो । भद्रा (१२।२० ) - महाराज कौशलिक की पुत्री । देखिए - उत्तरज्झयणाणि, पृ० २०८ । चुलणी ( १३ 19 ) – यह काम्पिल्यपुर के राजा 'ब्रह्म' की पटरानी और अन्तिम चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त की मां थी। उत्तरपुराण (७३।२८७) में इसका नाम 'चूड़ादेवी' दिया गया है। ब्रह्मदत्त ( १३ 19 ) – इनके पिता का नाम 'ब्रह्म' और माता का नाम 'चुलणी' था। इनका जन्म स्थान पाञ्चाल जनपद में कांपिल्यपुर था । महावग्गजातक में भी चूलनी ब्रह्मदत्त को पाञ्चाल का राजा माना है। ये अंतिम चक्रवर्ती थे। आधुनिक विद्वानों ने इनका अस्तित्व काल ई०पू० दसवीं शताब्दी के आस-पास माना है ।" चित्र, सम्भूत ( अध्ययन १३) देखिए- उत्तरज्झयणाणि, पृ० २२४ । पुरोहित ( १४ | ३ ) - पुरोहित का नाम मूल सूत्र में उल्लिखित नहीं है। वृत्ति में इसका नाम भृगु बतलाया गया है। देखिए सुखबोधा, पत्र २०४ यशा (१४ १३ ) -- कुरु जनपद के इषुकार नगर में भृगु पुरोहित रहता था। उसकी पत्नी का नाम यशा था। उसके दो पुत्र हुए। अपने पुत्रों के साथ वह भी दीक्षित हो गई। कमलावती ( १३1३ ) – यह इषुकार नगर के महाराज 'इषुकार' की पटरानी थी। इषुकार ( १४ | ३ ) – यह कुरु जनपद के इषुकार नगर का राजा था। यह इसका राज्यकालीन नाम था । इसका मौलिक नाम 'सीमंधर था। अन्त में अपने राज्य को छोड़ यह प्रव्रजित हुआ। बौद्ध ग्रन्थकारों ने इसे 'एसुकारी' नाम से उल्लिखित किया है। संजय (१८1१ ) – देखिए-उत्तरज्झयणाणि, पृ० २८६ । गर्दभालि ( १८ ।१६ ) - ये जैन - शासन में दीक्षित मुनि थे । पाञ्चाल जनपद का राजा 'संजय' इनके पास दीक्षित हुआ था। भरत ( १८ । ३४ ) – ये भगवान् ऋषभ के प्रथम पुत्र और प्रथम चक्रवर्ती थे। इन्हीं के नाम पर इस देश का 'नाम 'भारत' पड़ा। समर ( १८ । ३५ ) ये दूसरे चक्रवर्ती थे। अयोध्या नगरी में जितशत्रु नाम का राजा राज्य करता था। वह ईक्ष्वाकुवंशीय था। उसके भाई ४. उत्तरज्झयणाणि १४ । ४६ । ५. हस्तिपाल जातक संख्या ५०६ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६८८ का नाम सुमित्रविजय था। उसके दो पत्नियां थीं - विजया और यशोमती । विजया के पुत्र का नाम अजित था। वे दूसरे तीर्थङ्कर हुए और यशोमती के पुत्र का नाम सगर था । मघव ( १८ । ३६ ) श्रीवस्ती नगरी के राजा समुद्रविजय की पटरानी भद्रा के गर्भ से इनका जन्म हुआ। ये तीसरे चक्रवर्ती हुए । सनत्कुमार (१८ १३७ ) कुरु जांगल जनपद में हस्तिनापुर नाम का नगर था। वहां कुरुवंश का राजा अश्वसेन राज्य करता था। उसकी भार्या का नाम सहदेवी था। उसने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम सनत्कुमार रखा। ये चौथे चक्रवर्ती हुए । शान्ति (१८१३८ ) ये हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन के पुत्र थे । इनकी माता का नाम अचिरा देवी था। ये पांचवें चक्रवर्ती हुए और अन्त में अपना राज्य त्याग कर सोलहवें तीर्थकर हुए। कुन्थु (१८ । ३६ ) — हस्तिनापुर के राजा मूर के पुत्र थे। इनकी माता का नाम श्रीदेवी था । ये छठे चक्रवर्ती हुए और अन्त में राज्य त्याग कर सत्रहवें तीर्थङ्कर हुए। अर (१८ |४०) गजपुर नगर के राजा सुदर्शन के पुत्र थे । इनकी माता का नाम देवी था। ये सातवें चक्रवर्ती हुए और अन्त में राज्य छोड़ अठारहवें तीर्थकर हुए। महापद्म (१८. 1४१ ) कुरु जनपद में हस्तिनापुर नाम का नगर था। वहां पद्मोत्तर नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम 'जाला' था। उसके दो पुत्र हुए— विष्णुकुमार और महापद्म । महापद्म नौवें चक्रवर्ती हुए। हरिषेण ( १८ । ४२ ) - काम्पिल्यनगर के राजा महाहरिश की रानी का नाम मेरा था। उनके पुत्र का नाम हरिषेण था। वे दसवें चक्रवर्ती हुए । थे । जय (१८ | ३३ ) ये राजगृह नगर के राजा समुद्रविजय के पुत्र इनकी माता का नाम 'वप्रका' था। ये ग्यारहवें चक्रवर्ती हुए।" दशार्णभद्र (१८१४४ )—- ये दशार्ण जनपद के राजा थे। ये भगवान् महावीर के समकालीन थे। (पूरे विवरण के लिए देखिए -सुखबोधा, पत्र २५०, २५१) । करकण्डु (१८१४५ ) – देखिए — उत्तरज्झयणाणि, पृ० २६८ । द्विमुख (१८१४५) देखिए— उत्तरझवणाणि, पृ० २६६ नमि (१८ १४५ ) – देखिए — उत्तरज्झयणाणि, पृ० ३०० । नग्मति ( १८ १४५ ) देखिए- उत्तरज्झयणाणि, पृ० ३००। उद्रायण (१८१४७) ये सिन्धु-सौवीर जनपद के राजा थे। ये सिन्धु-सौवीर आदि सोलह जपनदों, वीतभय आदि ३६३ नगरों, महासेन आदि दस मुकुटधारी राजाओं के अधिपति थे। वैशाली गणतंत्र के राजा चेटक की पुत्री 'प्रभावती' इनकी पटरानी थी । काशीराज (१८१४८ )- इनका नाम नन्दन था और ये सातवें बलदेव थे। ये वाराणसी के राजा अग्निशिख के पुत्र थे। इनकी माता का नाम जयन्ती और छोटे भाई का नाम दत्त था । विजय (१८१४६ ) - ये द्वारकावती नगरी के राजा ब्रह्मराज के पुत्र थे। इनकी माता का नाम सुभद्रा था। ये दूसरे बलदेव थे। इनके छोटे 9. 'भरत' से लेकर 'जय' तक के तीर्थङ्करों तथा चक्रवर्तियों का अस्तित्वकाल प्राग-ऐतिहासिक है। २. सुखबोधा, पत्र २५६ । ३. ठाणं, ८ । परिशिष्ट ४ : व्यक्ति परिचय भाई का नाम द्विपृष्ठ था। उत्तराध्ययन के वृत्तिकार नेमिचन्द्र ने लिखा है कि "आवश्यक नियुक्ति में इन दो बलदेवों-नन्दन और विजय का उल्लेख आया है । इसलिए हम उसी के अनुसार यहां उनका विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। यदि ये दोनों कोई दूसरे हों और आगमज्ञ-पुरुष उन्हें जानते हों तो उनकी दूसरी तरह से व्याख्या करें। २ इस कथन से इतना स्पष्ट हो जाता है कि सूत्रगत ये दोनों नाम उस समय सन्दिग्ध थे। शान्त्याचार्य ने इन दोनों पर कोई ऊहापोह नहीं किया है। नेमिचन्द्र ने अपनी टीका में कुछ अनिश्चित-सा उल्लेख कर छोड़ दिया है। यदि हम प्रकरणगत क्रम पर दृष्टि डालें तो हमें यह लगेगा कि सभी तीर्थङ्करों, चक्रवर्तियों तथा राजाओं के नाम क्रमशः आए हैं। उद्रायण भगवान् महावीर के समय में हुआ था। उनके बाद ही दो बलदेवों -- काशीराज नन्दन और विजय का उल्लेख असंगत-सा लगता है। अतः यह प्रतीत होता है कि ये दोनों महावीरकालीन ही कोई राजा होने चाहिएं। जिस श्लोक ( १८ ।४८) में काशीराज का उल्लेख है, उसी में 'सेय' शब्द भी आया है। टीकाकारों ने इसे विशेषण माना है। कई इसे नामवाची मानकर 'सेय' राजा की ओर संकेत करते हैं। आगम साहित्य में भी कहीं 'काशीराज सेय' का उल्लेख ज्ञात नहीं है । भगवान् महावीर ने आठ राजाओं को दीक्षित किया था, ऐसा उल्लेख स्थानांग में आया है।' उसमें 'सेय' नाम का भी एक राजा था। परन्तु वह आमल-कल्पा नगरी का राजा था, काशी का नहीं। इसी उल्लेख में 'काशीराज शंख' का भी नाम आया है। तो क्या श्लोकगत काशीराज से 'शंख' का ग्रहण किया जाय ? भगवान् महावीर-कालीन राजाओं में 'विजय' नाम का कोई राजा दीक्षित हुआ हो –—ऐसा ज्ञात नहीं है। पोलासपुर में विजय नाम का राजा हुआ था। उसका पुत्र अतिमुक्तक (अइमुत्तय) भगवान् के पास दीक्षित हुआ— ऐसा उल्लेख अंतगडदशा में है। परन्तु महाराज विजय के प्रव्रजित होने की बात वहां नहीं है। विजय नाम का एक दूसरा राजा उत्तरपूर्व दिशा में मृगगाम नगर में हुआ था। उसकी रानी का नाम मृगा था। परन्तु वह भी दीक्षित हुआ हो, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। महाबल (१८१५० ) - टीकाकार नेमिचन्द्र ने इनकी कथा विस्तार से दी है। उन्होंने अन्त में लिखा है कि व्याख्या- प्रज्ञप्ति में महाबल की कथा का उल्लेख है। वे हस्तिनापुर के राजा बल के पुत्र थे। उनकी माता का नाम प्रभावती था। वे तीर्थकर विमल के परम्परागत आचार्य धर्मघोष के पास दीक्षित हुए। बारह वर्ष तक श्रामण्य का पालन किया। मर कर ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुए। वहां से च्युत हो वाणिज्यग्राम में एक श्रेष्ठी के यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। उनका नाम 'सुदर्शन' रखा। ये भगवान् महावीर के पास प्रव्रजित होकर सिद्ध हुए । यह कथा व्याख्याप्रज्ञप्ति के अनुसार दी गई है। यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि महाबल वही है या अन्य । ४. अनतगडदशा सूत्र, वर्ग ६ | ५. विपाक सूत्र, श्रुतस्कन्ध १, अध्ययन १ । ६. सुखबोधा, पत्र २५६ । Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६८९ परिशिष्ट ४ : व्यक्ति परिचय __ हमारी मान्यता के अनुसार यह कोई दूसरा होना चाहिए। श्रेणी का अधिपति था, इसलिए उसका नाम 'श्रेणिक' पड़ा। जब क्या यह विपाक सूत्र (श्रुत १ अ०३) में वर्णित पुरिमताल नगर का श्रेणिक बालक था तब एक बार राजमहल में आग लग गई। श्रेणिक राजा तो नहीं है? किन्तु वहां उसके दीक्षित होने का उल्लेख नहीं भयभीत होकर भागा। उस स्थिति में भी वह 'भंभा' को आग की लपटों से निकालना नहीं भूला, इसलिए उसका नाम 'भंभासार' संभव है कि यह विपाक सूत्र (श्रुत २, अ० ७) में वर्णित पड़ा। महापुर नगर का राजा बल का पुत्र महाबल हो। बौद्ध-परम्परा में इसके दो नाम प्रचलित हैं-(१) श्रेणिक बलभद्र, मृगा और बलश्री (अध्ययन १८)-बलभद्र सुग्रीवनगर (?) और (२) बिम्बिसार । श्रेणिक नामकरण के पूर्वोक्त कारण मान्य का राजा था। उसकी पटरानी का नाम 'मृगा' और पुत्र का नाम रहा है। इसके अतिरिक्त दो कारण और बताए हैं-(१) या तो 'बलश्री' था। रानी मृगा का पुत्र होने के कारण जनता में वह उसकी सेना महती थी इसलिए उसका नाम 'सेनिय' (श्रेणिक) पड़ा 'मृगापूत्र' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। देखिए.-उत्तरज्झयणाणि, पृ०३०४ या (२) उसका गोत्र 'सेनिय' था, इसलिए वह 'श्रेणिक' कहलाया।२ श्रेणिक (२०१२) यह मगध साम्राज्य का अधिपति था। जैन, बौद्ध इसका नाम बिम्बिसार इसलिए पड़ा कि इसके शरीर का सोने और वैदिक-तीनों परम्पराओं में इसकी चर्चा मिलती है। पौराणिक जैसा रंग था। दूसरी बात यह है कि तिब्बत के ग्रन्थों में इसकी ग्रन्थों में इसको शिशुनागवंशीय, बौद्ध-ग्रन्थों में हर्यक कुल में माता का नाम 'बिम्बि' उल्लिखित मिलता है। अतः इसे बिम्बिसार उत्पन्न और जैन-ग्रन्थों में वाहीक कुल में उत्पन्न माना गया है। कहा जाने लगा। रायचौधरी का अभिमत है कि 'बौद्ध-साहित्य में जो हर्यक कुल पुराणों में इसे अजातशत्रु", विधिसार कहा गया है। अन्यत्र का उल्लेख है वह नागवंश का ही द्योतक है। कोवेल ने हर्यक का इसे 'विंध्यसेन' और 'सुबिन्दु' भी कहा गया है। अर्थ 'सिंह' किया, परन्तु इसका अर्थ 'नाग' भी होता है। प्रोफेसर श्रेणिक के पिता का नाम 'प्रसेनजित और माता का नाम भण्डारकर ने नागदशक में बिम्बिसार को गिनाया है और इन सभी धारिणी' था। श्रेणिक के २५ रानियों का नाम आगम-ग्रन्थ में राजाओं का वंश 'नाग' माना है।" उपलब्ध होते हैं। वे इस प्रकार हैंबौद्ध ग्रन्थ महावंश के इस कुल के लिए शिशुनाग वंश' (१) नन्दा (१४) काली लिखा है। जैन ग्रन्थों में उल्लिखित 'वाहीक कूल' भी नागवंश की (२) नन्दवती (१६) सुकाली ओर संकेत करता है, क्योंकि वाहीक जनपद नाग जाति का मुख्य (३) नन्दुत्तरा (१६) महाकाली केन्द्र था। तक्षशिला उसका प्रधान कार्य-क्षेत्र था और यह नगर (४) नन्दिश्रेणिक (१७) कृष्णा वाहीक जनपद के अन्तर्गत था। अतः श्रेणिक को शिशुनागवंशीय (५) मरुय (१८) सुकृष्णा मानना अनुचित नहीं है। (६) सुमरुय (१६) महाकृष्णा विम्बिसार शिशुनाग की परम्परा का राजा था-इस मान्यता (७) महामरुय (२०) वीरकृष्णा से कुछ विद्वान् सहमत नहीं हैं। विद्वान् गैगर और भण्डारकर ने (८) मरुदेवा (२१) रामकृष्णा सिलोन के पाली वंशानुक्रम के आधार पर बिम्बसार और शिशुनाग (E) भद्रा (२२) पितृसेनकृष्णा की वंश-परम्परा का पृथक्त्व स्थापित किया है। उन्होंने शिशुनाग को (१०) सुभद्रा (२३) महासेनकृष्णा बिम्बिसार का पूर्वज न कानकर उसे उत्तरवर्ती माना है। (११) सुजाता (२४) चेल्लणा विभिन्न परम्पराओं में श्रेणिक के विभिन्न नाम मिलते हैं। (१२) सुमना (२५) अपतगंधा जैन-परम्परा में उसके दो नाम हैं-(१) श्रेणिक और (२) भंभासार।' (१३) भूतदिन्ना नाम की सार्थकता पर ऊहापोह करते हुए लिखा गया है कि वह बौद्ध-ग्रन्थों के अनुसार श्रेणिक के पांच सौ रानियां थीं। १. भागवत महापुराण, द्वितीय खण्ड, पृ० १०३। १५. भागवत, द्वितीय खण्ड, पृ० ६०३ २. अश्वघोष बुद्धचरित्र, सर्ग ११ श्लोक २: जातस्य हर्यकके विशाले..। १६. वही, १२।१। ३. आवश्यक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ६७७। १७. भगवदत्त : भारतवर्ष का इतिहास पृ०२५२। ४. स्टडीज इन इण्डियन एन्टिक्वीटीज, पृ० २१६ । १६. आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति, पत्र ६७१। ५. महाबंश, परिच्छो, गाथा २७-३२। हरिषेणाचार्य ने बृहत्कल्प कोष (पृ०७८) में श्रेणिक के पिता का नाम ६. स्टडीज इन इण्डियन एन्टिक्वीटीज, पृ० २१५-२१६ । 'उपश्रेणिक' और माता का नाम 'प्रभा' दिया है। ७. अभिधान चिन्तामणि ३१३७६ । उत्तरपुराण (७४।४,८ पृ० ४७१) में पिता का नाम 'कूणिक' और ८. अभिधान चिन्तामणि, स्वोपज्ञ टीका, पत्र २८५। माता का नाम 'श्रीमती' दिया है। यह अत्यन्त प्रामक है। ६. (क) त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र, १०।६।१०६-११२। अन्यत्र पिता का नाम महापा, हेमजित, क्षेत्रोजा, क्षेत्प्रोजा भी मिलते (ख) स्थानांग वृत्ति, पत्र ४६१। है। (देखिए-पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्शिएण्ट इण्डिया, पृ० २०५)। १०. इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटर्ली, भाग १४, अंक २, जून १६३८, १६. अणुत्तरोबवाइयदशा, प्रथम वर्ग। पृ०४१५। २०. अन्तकृद्दशा, सातवां वर्ग। ११. वही, पृ०४१५॥ २१. आवश्यक चूर्णि, उत्तरार्द्ध, पत्र १६४। १२. धम्मपाल-उदान टीका, पृ० १०४। २२. निशीथ चर्णि, सभाष्य, भाग १, पृ० १७। १३. पाली इंग्लिश डिक्शनरी, पृ० ११०। २३. महावग्ग, ८1१1१५॥ १४. इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटर्ली, भाग १४, अंक २, जून १६३८, पृ०४१३। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि पर कहीं भी उनका नामोल्लेख नहीं मिलता। श्रेणिक के अनेक पुत्र थे । अनुत्तरोपपातिक' तथा निरयावलिका में उनके नाम इस प्रकार हैं (१) जाली * (२) मयाली (३) उवयाली (४) पुरिससेण (५) वारिसेण (६) दीर्घदंत (७) लष्टदंत (८) वेहल्ल (E) वेहायस (१०) अभयकुमार (११) दीर्घसेन (१२) महासेन (१३) लष्टदंत (१४) मूढदन्त (१५) सुद्धदन्त (१६) हल्ल (१७) दुम (१८) दुमसेन (१९) महादुमसेन (२०) सीह (२१) सीहसेन (२२) महासीहसेन (२३) पूर्णसेन (२४) कालीकुमार (२५) सुकालकुमार (२६) महाकालकुमार (२७) महाकृष्णकुमार (२८) सुकृष्णकुमार (२६) महाकृष्णकुमार (३०) वीरकृष्णकुमार (३१) रायकृष्णकुमार (२२) सेगकृष्णकुमार (३३) महासेणकृष्णकुमार (२४) कृषिक (३५) नंदिसेन श्रेणिक के जीवन का विस्तार से वर्णन निरयावलिका में है ज्ञाताधर्मकथा में श्रेणिक की पत्नी धारिणी से उत्पन्न मेघकुमार इसके भावी तीर्थकर जीवन का विस्तार स्थानांग (६६२) की वृत्ति का उल्लेख है। ( पत्र ४५८ - ४६८) में है । इनमें से अधिकांश पुत्र राजा श्रेणिक के जीवन काल में ही जिन शासन में प्रव्रजित हो भगवान् महावीर के जीवन काल में ही स्वर्गवासी हो गए। जाली आदि प्रथम पांच कुमारों ने सोलह-सोलह वर्ष तक, तीन ने बारह-बारह वर्ष तक और अन्तिम दो ने पांच-पांच वर्ष तक श्रामण्य का पालन किया। इसी प्रकार दीर्घसेन आदि १३ कुमारों ने सोलह-सोलह वर्ष तक श्रामण्य का पालन किया।" १. अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रथम वर्ग तथा द्वितीया वर्ग । २. निरयावलिका, १ ६९० परिशिष्ट ४ : व्यक्ति परिचय इतने उल्लेख हैं कि उनके अध्ययन से यह कहा जा सकता है कि वह जैनधर्मावलम्बी था। उनका जीवन भगवान् महावीर की जीवन घटनाओं से इतना संपृक्त था कि स्थान-स्थान पर भगवान् को श्रेणिक की बातें कहते पाते हैं। इसके अनेक पुत्र तथा रानियों का जैन शासन में प्रव्रजित होना भी इसी ओर संकेत करता है कि वह जैन धर्मावलम्बी था। बौद्ध ग्रन्थ उसे महात्मा बुद्ध का भक्त मानते हैं। कई विद्वान् यह भी मानते हैं कि महाराज श्रेणिक जीवन के पूर्वार्द्ध में जैन रहा होगा, किन्तु उत्तरार्द्ध में वह बौद्ध बन गया था। इसीलिए जैन कथा-ग्रन्थों में उसके नरक जाने का उल्लेख मिलता है। नरक-गमन की बात वस्तु स्थिति का निरूपण है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह पहले जैन था और बाद में बौद्ध हो गया। नरक -गमन के साथ-साथ भावी तीर्थङ्कर का उल्लेख भी मिलता है। कई यह भी अनुमान करते हैं कि वह किसी धर्म विशेष का अनुयायी नहीं बना किन्तु जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मों के प्रति समभाव रखता था तथा सब में उसका अनुराग था। कुछ भी हो जैन - साहित्य में जिस विस्तार से उसका तथा उसके परिवार का वर्णन मिलता है, वह अन्यत्र नहीं है। श्रेणिक का सम्पूर्ण जीवन तथा आगामी जीवन का इतिहास जैन-ग्रन्थों में सन्दृब्ध है। यदि उसका जैनधर्म के साथ गाढ़ सम्बन्ध नहीं होता तो इतना विस्तृत उल्लेख जैन ग्रन्थों में कभी नहीं मिलता। - श्रेणिक की अनेक रानियां भी भगवान् महावीर के पास दीक्षित हुई थीं । आगम तथा आगमेतर ग्रन्थों में श्रेणिक से सम्बन्धित ३. जाली आदि प्रथम सात पुत्र तथा दीर्घसेन से पुण्यसेन तक के तेरह पुत्र ( कुल २० पुत्र) धारिणी से उत्पन्न हुए थे (देखिए— अनुत्तरोपपातिक दिशा, वर्ग १, २) ४. वेहल्ल और वेहायस—ये दोनों चेल्लणा के पुत्र थे। ५. अभयकुमार वेणातट ( आधुनिक कृष्णा नदी के तट पर ) के व्यापारी की पुत्री नन्दा का पुत्र था (अनुत्तरोपपातिक दशा, वर्ग १) | बौद्ध-ग्रन्थों में अभय को उज्जैनी की नर्तकी 'पद्मावती' का पुत्र बताया है। (डिक्शनरी ऑफ पाली प्रॉपर नेम्स, भाग १, पृ० १२३) । कुछ विद्वान् इसे नर्तकी आम्रपाली का पुत्र बताते हैं (डॉ० ला ट्राइब्स इन एन्शिएण्ट इण्डिया, पृ० ३२८ ) । ६. कूणिक चेल्लणा का पुत्र था। इसका दूसरा नाम अशोकचन्द्र था । देखिए आवश्यक चूर्णि उत्तरभाग, पत्र १६७ । ७. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १० सर्ग ६, श्लोक ३२० । ८. ज्ञाताधर्मकथा प्रथम भाग, पत्र १६ । ६. अणुत्तरोपपातिकदशा, वर्ग १। अनाथी मुनि (२०१६) ये कौशाम्बी नगरी के रहने वाले थे। इनके पिता बहुत धनाढ्य थे।" एक बार बचपन में ये नेत्र रोग से पीड़ित हुए। विपुल- दाह के कारण सारे शरीर से भयंकर वेदना उत्पन्न हुई। चतुष्पाद चिकित्सा कराई गई, पर व्यर्थ । भाई- बन्धु भी उनकी वेदना को बंटा नहीं सके। अत्यन्त निराश हो, उन्होंने सोचा- 'यदि मैं इस वेदना से मुक्त हो जाऊं, तो प्रव्रज्या स्वीकार कर लूंगा।' वे रोग मुक्त हो गए। माता-पिता की आज्ञा से वे दीक्षित हुए। एक बार राजगृह के मण्डिकुक्षि” चैत्य में महाराज श्रेणिक अनाथी मुनि से मिले।" मुनि ने राजा को सनाथ और अनाथ का धर्म समझाया। राजा १०. वही, वर्ग २ । ११. कई विद्वान् इनके पिता का नाम 'धनसंचय' देते हैं। इस नामकरण का आधार उत्तराध्ययन (२०1१८) में आए 'पभूयधणसंचयो' शब्द है, परन्तु यह आधार भ्रामक है। यह शब्द उनके पिता की आढ्यता का द्योतक हो सकता है, न कि नाम का यदि हम नाम के रूप में केवल 'धनसंचय' शब्द लेते हैं, तो 'पूभय' शब्द शेष रह जाता है और अकेले में इसका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। टीकाकार इस विषय में मौन हैं। १२. दीर्घनिकाय, भाग २, पृ० ६१ में इसे 'मद्दकुच्छि' नाम से परिचित किया है। १३. डॉ० राधाकुमुद बनर्जी ( हिन्दू सिविलाइजेशन, पृ० १८७) मण्डिकुक्षि में राजा श्रेणिक के धर्मानुरक्त होने की बात बताते हैं किन्तु वे अनाथी मुनि के स्थान पर अनगारसिंह (२०५८) शब्द से भगवान् महावीर का ग्रहण करते हैं। परन्तु यह भ्रामक है। क्योंकि स्वयं मुनि ( अनाथी) अपने मुंह से अपना परिचय देते हैं और अपने को कौशाम्बी का निवासी बताते हैं। देखिए उत्तराध्ययन, २०१८ | Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि ६९१ श्रेणिक उनसे धर्म की अनुशासना ले अपने स्थान पर लौट गया।" मूल ग्रन्थ में 'अनाथी का नाम नहीं है, किन्तु प्रसंग से यही नाम फलित होता है। पालित ( २१ 19 ) यह चम्पा नगरी का सार्थवाह था । यह श्रमणोपासक था। निर्ग्रन्थ प्रवचन में इसे श्रद्धा थी। यह सामुद्रिक व्यापार करता था। एक बार यह सामुद्रिक यात्रा के लिए निकला। जाते-जाते समुद्र तट पर स्थित 'पिहुंड* नगर में रुका। वहां एक सेठ की लड़की से ब्याह करके लौटा। यात्रा के बीच उसे एक पुत्र हुआ। उसका नाम 'समुद्रपाल' रखा। जब वह युवा बना तब उनका विवाह ६४ कलाओं में पारंगत 'रूपिणी' नामक एक कन्या से हुआ। एक बार वध-भूमि में ले जाने वाले चोर को देखकर वह विरक्त हुआ । माता-पिता की आज्ञा ले, वह दीक्षित हुआ और कर्म-क्षय कर मुक्त हो गया। समुद्रपाल ( २१1४ ) —— देखिए- 'पालित' । रूपिणी (२१1७ ) – देखिए- 'पालित' । रोहिणी ( २२ १२ ) - यह नौवें बलदेव 'राम' की माता, वसुदेव की पत्नी थी। देवकी ( २२।२ ) - यह कृष्ण की माता और वसुदेव की पत्नी थी। राम ( २२ । २ ) देखिए 'रोहिणी' । केशव ( २२१२ ) - यह कृष्ण का पर्याय नाम है। ये वृष्णिकुल में उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम वसुदेव और माता का नाम देवकी था। ये अरिष्टनेमि के चचेरे भाई थे। समुद्रविजय ( २२ । ६३ ) ये सोरियपुर नगर में अंधककुल के नेता थे। इनकी पटरानी का नाम शिवा था। इसके चार पुत्र थे(१) अरष्टिनेमि, (२) रथनेमि, (३) सत्यनेमि और (४) वृनेमि अरिष्टनेमि बाईसवें तीर्थङ्कर हुए और रथनेमि तथा सत्यनेमि प्रत्येक बुद्ध हुए। 1 शिवा ( २२1४ ) - देखिए- 'समुद्रविजय' । अरिष्टने]ि ( २२1४ ) बाई तीर्थकर थे ये सोरियपुर नगर के राजा समुद्रविजय के पुत्र थे। इनकी माता का नाम शिवा था । ये गौतम गोत्रिय थे। कृष्ण इनके चचेरे भाई थे और आयुष्य में इनसे बड़े थे 1 राजीमती ( २२ १६ ) - यह भोजकुल के राजन्य उग्रसेन की पुत्री थी । इसका वैवाहिक सम्बन्ध अरिष्टनेमि से तय हुआ था । किन्तु विवाह के ठीक समय पर अरिष्टनेमि को वैराग्य हो आया और वे मुनि बन गए। राजीमती भी कुछ काल बाद प्रव्रजित हो गई। विष्णुपुराण (४।१४ २१ ) के अनुसार उग्रसेन के चार पुत्रियां थीं कंसा कंसवती, सुतनु और राष्ट्रपाली। संभव है 'सुतनु' राजीमती का ही दूसरा नाम हो। उत्तराध्ययन (२२ । ३७) में रथनेमि राजीमती को 'सुतनु' नाम से सम्बोधित करते हैं । वासुदेव ( २२ १८ ) कृष्ण का पर्यायवाची नाम है । दसारचक्र' (२२1११ ) – दस यादव राजाओं को 'दसार' कहा जाता है। वे ये हैं १. देखिए - उत्तरज्झयणाणि, अध्ययन २० । २. देखिए – भौगोलिक परिचय के अन्तर्मत 'पिहुंड' नगर । ३. विशेष विवरण के लिए देखिए --- उत्तरज्झयणाणि, २२।११ का टिप्पण । ४. सुखबोधा, पत्र २७७-७८ । (१) समुद्रविजय (२) अक्षोभ्य (३) स्तिमित (८) पूरण (E) अभिचन्द (४) सागर (५) हिमवान् (१०) वसुदेव रथनेमि (२२।३४ ) ये अन्धककुल के नेता समुद्रविजय के पुत्र थे और तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि के लघु-भ्राता थे। अरिष्टनेमि के प्रव्रजित हो जाने पर ये राजीमती में आसक्त हो गए। पर राजीमती का उपदेश सुन कर वे संभल गए और दीक्षित हो गए। एक बार पुनः रैवतक पर्वत पर वर्षा से प्रताड़ित साध्वी राजीमती को एक गुफा में कपड़े सुखाते समय नग्न अवस्था में देख, वे विचलित हो गए। साध्वी राजीमती के उपदेश से वे संभल गए और अपने विचलन पर पश्चात्ताप करते हुए चले गए।* भोजराज ( २२१४३ ) जैन साहित्य के अनुसार 'भोजराज' शब्द राजीमती के पिता उग्रसेन के लिए प्रयुक्त है। अन्धकवृष्णि ( २२ ।४३ ) - हरिवंशपुराण के अनुसार यदुवंश का उद्भव हरिवंश से हुआ । यदुवंश में नरपति नाम का राजा था। उसके दो पुत्र थे - (१) शूर और (२) सुवीर। सुवीर मथुरा में राज्य करता था और शूर शौर्यपुर का राजा बना। अन्धक- वृष्णि आदि 'सूर' के पुत्र थे और भोजनकवृष्णि आदि सुवीर के । अन्धकवृष्णि की मुख्य रानी का नाम सुभद्रा था। उसके दस पुत्र हुए (१) समुद्रविजय (२) अक्षोभ्य पुत्र परिशिष्ट ४ व्यक्ति परिचय (६) अचल (७) धरण (३) स्थिमिति सागर (४) हिमवान् (५) विजय (१०) वसुदेव ये दसों पुत्र दशार्ह नाम से प्रसिद्ध हुए। अन्धकवृष्णि के दो कन्याएं थीं- (१) कुन्ती और ( २ ) मद्री । भोजवृष्णि की पत्नी का नाम पद्मावती था। उसके उग्रसेन, महासेन और देवसेन—— ये तीन पुत्र हुए। उनके एक गान्धारी नाम की पुत्री भी हुई।" अरिष्टनेनि, रथनेमि आदि अन्धकवृष्णि राजा समुद्रविजय के I कृष्ण आदि अन्धकवृष्णि वसुदेव के पुत्र थे। वैदिक पुराणों में इनकी वंशावली भिन्न-भिन्न प्रकार से दी गई है। पूरे विस्तार के लिए देखिए―पारजीटर एन्शिएण्ट इण्डियन हिस्टोरिकल ट्रेडीशन, पृ० १०४-१०७ । पार्श्व (२३ 19 ) – ये जैन- परम्परा के तेईसवें तीर्थङ्कर थे। इनका समय ई० पू० आठवीं शताब्दी है। ये भगवान् महावीर से २५० वर्ष पूर्व हुए थे। ये 'पुरुषादानीय' कहलाते थे । कुमारश्रमण केशी (२३ ।२ ) – ये भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के चौथे पट्टधर थे। प्रथम पट्टधर आचार्य शुभदत्त हुए । उनके उत्तराधिकारी (६) अचल (७) धारण (८) पूरण (E) अभिचन्द्र ५. ६. ७. उत्तरपुराण, ७०1१०१। उत्तरपुराण, ( ७०1१०) में इनका नाम महाद्युतिसेन दिया है। देखिए - हरिवंशपुराण, १८ । ६-१६ । Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६९२ आचार्य हरिदत्त सूरि थे, जिन्होंने वेदान्त दर्शन प्रसिद्ध आचार्य 'लोहिय' से शास्त्रार्थ कर उनको पांच सौ शिष्यों सहित दीक्षित किया। इन नवदीक्षित मुनियों ने सौराष्ट्र, तेलंगादि प्रान्तों में विहार कर जैन - शासन की प्रभावना की। तीसरे पट्टधर आचार्य समुद्रविजय सूरि थे। उनके समय में 'विदेशी' नामक एक प्रचारक आचार्य ने उज्जैन नगरी में महाराज जयसेन, उनकी रानी अनंगसुन्दरी और उनके राजकुमार केशी को दीक्षित किया।' ये ही भगवानन् महावीर के तीर्थ काल में पार्श्व परम्परा के आचार्य थे। आगे चल कर इन्होंने नास्तिक राजा परदेशी को समझाया और उसे जैन धर्म में स्थापित किया। पूरे विवरण के लिए देखिए -उत्तरज्झयणाणि २३ का आमुख | वर्द्धमान ( २३1५ ) – ये चौबीसवें तीर्थङ्कर थे। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। इनका समय ई० पू० छठी १. समरसिंह, पृ० ७५-७६ । शताब्दी था । जयघोष, विजयघोष ( २५1१ ) वाराणसी नगरी में जयघोष और विजयघोष नाम के दो भाई रहते थे। वे काश्यप गोत्रीय थे। वे यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह—इन छह कार्यों में रत थे और चार वेदों के ज्ञाता थे। वे दोनों युगलरूप में जन्मे । जयघोष पहले दीक्षित हुआ। फिर उसने विजयघोष को प्रव्रजित किया। दोनों श्रामण्य की आराधना कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए। गार्ग्य ( २७ 19 ) – ये स्थविर आचार्य गर्ग गोत्र के थे। जब उन्होंने देखा कि उनके सभी शिष्य अविनीत, उद्दण्ड और उच्छृंखल हो गये हैं, तब आत्मभाव से प्रेरित हो, शिष्य समुदाय को छोड़ कर, वे अकेले हो गये और आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगे । विशेष विवरण के लिए देखिए—उत्तरज्झयणाणि का २७वां अध्ययन। परिशिष्ट ४ व्यक्ति परिचय २. नाभिनन्दनोद्धार प्रबन्ध, १३६ । Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र में अनेक देशों तथा नगरों का भिन्न-भिन्न स्थलों में निर्देश हुआ है। ढाई हजार वर्ष की इस लम्बी कालावधि में कई देशों और नगरों के नाम परिवर्तित हुए, कई मूलतः नष्ट हो गए और कई आज भी उसी नाम से प्रसिद्ध हैं। हमें उन सभी का अध्ययन प्राचीन प्रतिबिम्ब में करना है और वर्तमान में उनकी जो स्थिति है, उसे भी यथासाध्य प्रस्तुत करना है। जो नगर उस समय समृद्ध थे, वे आज खण्डहर मात्र रह गए हैं। पुराने नगर मिटते गए, नए उदय में आते गए। कई नगरों की बहुत छानबीन हुई है परन्तु आज भी ऐसे अनेक नगर हैं जिनकी छानबीन आवश्यक लगती है। आगम के व्याख्या -ग्रन्थों में तथा अन्यान्य जैन रचनाओं में बहुत कुछ सामग्री विकीर्ण पड़ी हैं। आवश्यकता है कि उनमें भूगोल सम्बन्धी सारी सामग्री एकत्र संकलित हो । उत्तराध्ययन में आये हुए देश व नगर (१) मिथिला (६४) (२) कम्बोज (1919६) (३) हस्तिनापुर ( १३ 19 ) (४) कम्पिल्ल ( १३ ।२; १८1१ ) (५) पुरिमताल ( १३ ।२ ) (६) दशार्ण (१३।६) (७) काशी (१३।६) (८) पाञ्चाल (१३ ।२६; १८ ।४५) (E) इषुकार नगर ( १४19) (१०) कलिंग (१८१४५) परिशिष्ट ५ भौगोलिक परिचय (२१) श्रावस्ती ( २३।३) (११) विदेह ( १८ ।४५) (२२) वाणारसी ( २५1१३) विदेह और मिथिला — विदेह राज्य की सीमा उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पश्चिम में गंडकी और पूर्व में महा नदी तक थी। जातक के अनुसार इस राष्ट्र का विस्तार तीन सौ योजन था।' इसमें सोलह हजार गांव थे।* विक्रम की चौथी - पांचवीं शताब्दी के बाद इसका नाम 'तीरहुत' पड़ा, जिसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। विक्रम की १४ वीं शताब्दी में रचित ' विविध तीर्थकल्प' में इसे 'तीरहुत्ति' नाम से पहचाना है।' इसी का अपभ्रष्ट रूप 'तिरहुत' आज भी प्रचलित है। (१२) गान्धार (१८४५) (१३) सौवीर (१८४७) (१४) सुग्रीव नगर (१६ 19 ) (१५) मगध (२०1१ ) (१६) कोशाम्बी (२०१८) (१७) चम्पा (२१19) (१८) पिहुंड (२१1३) (१६) सोरियपुर ( २२ ।१ ) (२०) द्वारका ( २२।२७) १. सुरुचि जातक ( सं ४८६), भाग ४, पृ० ५२१-५२२ । २. जातक ( सं ४०६), भाग ४, पृ० २७ । ३. विविध तीर्थकल्प, पृ० ३२ भण्णई। ४. विविध तीर्थकल्प, पृ० ३२ । ५. दी एन्शियन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया पृ० ७१८ । ६. ७. विविध तीर्थकल्प, पृ० ३२ । जातक सं० ४८६, भाग ४, पृ० ५२१-५२२ । संपइकाले 'तीरहुत्ति देसो त्ति यह एक समृद्ध राष्ट्र था। यहां के प्रत्येक घर 'कदली-वन' से सुशोभित था । खीर यहां का प्रिय भोजन माना जाता था । स्थान-स्थान पर वापी, कूप और तालाब मिलते थे। यहां की सामान्य जनता भी संस्कृत में विशारद थी। यहां के अनेक लोग धर्म-शास्त्रों में निपुण होते थे।" वर्तमान में नेपाल की सीमा के अन्तर्गत (जहां मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिले मिलते हैं) छोटे नगर 'जनकपुर' को प्राचीन मिथिला कहा जाता है। सुरुचि जातक से मिथिला के विस्तार का पता लगता है। एक बार बनारस के राजा ने ऐसा निश्चय किया कि वह अपनी कन्या का विवाह एक ऐसे राजपुत्र से करेगा जो एक पत्नी व्रत धारण करेगा। मिथिला के राजकुमार सुरुचि के साथ विवाह की बातचीत चल रही थी। एक पत्नी व्रत की बात सुन कर वहां के मन्त्रियों ने कहा - 'मिथिला का विस्तार सात योजन है। समूचे राष्ट्र का विस्तार तीन सौ योजन है। हमारा राज्य बहुत बड़ा है। ऐसे राज्य में राजा के अन्तःपुर में सोलह हजार रानियां अवश्य होनी चाहिए।" मिथिला का दूसरा नाम 'जनकपुरी' था। जिनप्रभ सूरि के समय यह 'जगती' (प्रा० जगई) नाम से प्रसिद्ध थी। इसके पास ही महाराज जनक के भाई 'कनक' का निवास-स्थान 'कनकपुर' बसा हुआ था ।" यहां जैन श्रमणों की एक शाखा ' मैथिलिया' का उद्भव हुआ था।" भगवान् महावीर ने यहां छह चातुर्मास बिताए।" आठवें गणधर अकंपित की यह जन्म भूमि थी। प्रत्येक बुद्ध नमि को कङ्कण की ध्वनि से यहीं वैराग्य हुआ था। बाणगंगा और गंडक - ये दोनों नदियां इस नगर को परिवेष्टित कर बहती थी।" चौथे निहूनव अश्वमित्र ने वीर निर्वाण के २२० वर्ष पश्चात् 'सामुच्छेदिक वाद' का प्रवर्तन यहीं से किया था। दशपूर्वधर आर्य महागिरि का यह प्रमुख विहार क्षेत्र था । २ जैन आगमों में उल्लिखित दस राजधानियों में मिथिला का नाम है।" कम्बोज - यह जनपद गान्धार के पश्चिम का प्रदेश था।" डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी ने इसे काबुली नदी के तट पर माना है। कुछ इसे ६. ८. कल्पसूत्र, सूत्र २१३, पृ० ६४ । कल्पसूत्र, सूत्र १२२, पृ० ४१ । १०. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा ६४४ । ११. वही, गाथा ७८२ । १२. आवश्यक भाष्य, गाथा १३१ । १३. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा ७८२ । १४. ठाणं, १०।२७ । १५. अशोक ( गायकवाड लेक्चर्स), पृ० १६८, पद संकेत १ । Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६९४ परिशिष्ट ५: भौगोलिक परिचय बलुचिस्तान से लगा ईरान का प्रदेश मानते हैं।' राय डेविड्स ने इसे स्थान से करते हैं। हेमचन्द्राचार्य ने इसे अयोध्या का शाखानगर उत्तर-पश्चिम के छोर का प्रदेश माना है और इसकी राजधानी के माना है। आवश्यक नियूक्ति में विनीता के बहिर्भाग में 'पुरिमताल' रूप में द्वारका का उल्लेख किया है। नामक उद्यान का उल्लेख हुआ है। वहां भगवान् ऋषभ को केवलज्ञान यह जनपद जातीय अश्वों और खच्चरों के लिए प्रसिद्ध था। उत्पन्न हुआ था और उसी दिन चक्रवर्ती भरत की आयुधशाला में जैन-आगम-साहित्य तथा आगमेतर-साहित्य में स्थान-स्थान पर __ चक्ररत्न की उत्पत्ति हुई थी। भरत का छोटा भाई ऋषभसेन कम्बोज के घोड़ों का उल्लेख मिलता है। आचार्य बुद्धघोष ने इसे 'पूरिमताल' का स्वामी था। जब भगवान ऋषभ वहां आए तब उसने 'अश्वों का घर' कहा है। उसी दिन भगवान् के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। विजयेन्द्र सूरि ने पञ्चाल और काम्पिल्ल–कनिंघम के अनुसार आधुनिक एटा, इस नगर की पहचान आधुनिक प्रयाग से की है, किन्तु अपनी मैनपुरी फर्रुखाबाद और आस-पास के जिले पचाल राज्य की मान्यता की पुष्टि के लिए कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। सीमा के अन्तर्गत आते हैं।' उन्होंने इतना मात्र लिखा है कि 'जैन-ग्रन्थों में प्रयाग का प्राचीन पञ्चाल जनपद दो भागों में विभक्त था-(१) उत्तर पचाल नाम 'पुरिमताल' मिलता है।५५ और (२) दक्षिण पञ्चाल। पाणिनि व्याकरण में इसके तीन विभाग सातवा वर्षावास समाप्त कर भगवान् महावीर कुंडाक सन्निवेश मिलते हैं-(१) पूर्व पञ्चाल, (२) अपर पञ्चाल और (३) दक्षिण से 'लोहार्गला' नामक स्थान पर गए। वहां से उन्होंने पुरिमताल की पञ्चाल । ओर विहार किया। नगर के बाहर 'शकटमुख' नाम का उद्यान था। द्विमुख पञ्चाल का प्रभावशाली राजा था। पञ्चाल और भगवान् उसी में ध्यान करने ठहर गए। लाट देश एक शासन के अधीन भी रहे हैं। पुरिमताल से विहार कर भगवान उन्नाग और गोभूमि होते बौद्ध-साहित्य में उल्लिखित १६ महाजनपदों में पञ्चाल का हुए राजगृह पहुंचे। उल्लेख है। किन्तु जैन-आगम में निर्दिष्ट १६ जनपदों में उसका चित्र का जीव सौधर्म कल्प से च्युत हो पुरिमताल नगर में उल्लेख नहीं है। एक श्रेष्ठी के घर में उत्पन्न हुआ। आगे चलकर ये बहुत बड़े कनिंघम में काम्पिल्ल की पहचान उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद ऋषि हुए। जिले में फतेहगढ़ से २८ मील उत्तर-पूर्व, गंगा के समीप में स्थित जार्ल सरपेन्टियर ने माना है कि 'पुरिमताल' का उल्लेख 'कांपिल' से की है। कायमगंज रेलवे स्टेशन से यह केवल पांच मील अन्यत्र देखने में नहीं आता। यह 'लिपि-कर्ता' का दोष संभव है। दूर है। महाराज द्विमुख इसी नगर में शोभाहीन ध्वजा को देख कर इसके स्थान पर 'कुरु-पञ्चाल' या ऐसा ही कुछ होना चाहिए।' प्रतिबुद्ध हुए।" यह अनुमान यथार्थ नहीं लगता। हम ऊपर देख चुके हैं कि हस्तिनापुर-इसकी पहिचान मेरठ जिले के मवाना तहसील में मेरठ । पुरिमताल का अनेक ग्रन्थों में उल्लेख हुआ है। यह अयोध्या का से २२ मील उत्तर-पूर्व में स्थित हस्तिनापुर गांव से की गई है। उपनगर था, ऐसा भगवान् महावीर के विहार-क्षेत्र से प्रतीत होता है। जैन आगमों में उल्लिखित दस राजधानियों में इसका उल्लेख दशाण है और यह कुरु जनपद की प्रसिद्ध नगरी थी। जिनप्रभ सूरि ने बुन्देलखण्ड में धसान नदी बहती है। उसके आसपास के इसकी उत्पत्ति का ऊहापोह करते हुए लिखा है-ऋषभ के सौ पुत्र प्रदेश का नाम 'दसण्ण' दशार्ण है। थे। उनमें एक का नाम 'कुरु' था। उसके बाद से 'कुरु' जनपद दशार्ण नाम के दो देश मिलते हैं—एक पूर्व में और दूसरा प्रसिद्ध हुआ। कुरु के पुत्र का नाम 'हस्ती' था। उसने हस्तिनापुर पश्चिम में। पूर्व दशार्ण मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ जिले में माना जाता नगर बसाया। इस नगर के पास गंगा नदी बहती थी। पाली-साहित्य है। पश्चिम-दशार्ण में भोपाल राज्य और पूर्व-मालव का समावेश में इसका नाम 'हत्थिपुर' या "हत्थिनीपुर' आता है। होता है। पुरिमताल-इसकी अवस्थिति के विषय में भिन्न-भिन्न मान्यताएं बनास नदी के पास बसी हुई मृत्तिकावती नगरी दशार्ण हैं। कई विद्वान् इसकी पहचान मानभूम के पास 'पुरुलिया' नामक जनपद की राजधानी मानी जाती है। कालीदास ने दशार्ण जनपद का १. बौद्ध कालीन भारतीय भूगोल, पृ० ४५६-४५७। २. बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ० २८।। ३. उत्तरज्झयणाणि, ११-१६। ४. सुमंगलविलासिनी, भाग १, पृ० १२४ । ५. देखिए-दी एन्शियन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ० ४१२, ७०५। ६. पाणिनि व्याकरण, ७।३।१३। ७. सुखबोधा, पत्र १३५-१३६। ८. प्रभावक चरित, पृ० २४। ६. अंगुत्तरनिकाय, भाग १, पृ० २१३। १०. दी एन्शियन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ० ४१३। ११. सुखबोधा, पत्र १३५-१३६ । १२. ठाणं, १०।२७ १३. (क) विविध तीर्थकल्प, पृ० २७। (ख) हत्थिपुर या हत्थिनीपुर के पाली विवरणों में इसके समीप गंगा के होने का कोई उल्लेख नहीं है। रामायण, महाभारत, पुराणों में इसे गंगा के पास स्थित बताया है। १४. भारत के प्राचीन जैन तीर्थ, पृ० ३३। १५. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र १३३८६ : अयोध्याया महापुर्याः, शाखानगरमुत्तमम् । ययौ पुरिमतालाख्यं, भगवानृषभध्वजः।। १६. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ३४२ : उज्जाणपुरिमताले पुरी विणीआइ तत्थ नाणवरे। चक्कुप्पया य भरहे निवेअणं चेव दुण्हंपि।। १७. तीर्थंकर महावीर, भाग १, पृ० २०६। १८. सुखबोधा, पत्र १८७।। १६. दी उत्तराध्ययन, पृ० ३२८ । Jain Education Intemational Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि ६९५ परिशिष्ट ५ : भौगोलिक परिचय उल्लेख करते हुए 'विदिशा' (आधुनिक भिलसा) को उसकी राजधानी नगरी का उल्लेख है और राजा का नाम 'एषुकार' है। के रूप में माना है। राजतरंगिणी (७।१३१०, १३१२) में 'हुशकपुर' नगर का जैन आगमों में उल्लिखित साढ़े पच्चीस आर्य देशों में उल्लेख हुआ है। आज भी काश्मीर में 'बारामूल' (सं० बराह, 'दशार्ण' जनपद का उल्लेख है।' बराहमूल) से दो मील दक्षिण-पूर्व में वीहट नदी के पूर्वी किनारे पर दशार्ण जनपद के प्रमुख नगर दो थे--(१) दशार्णपुर (एलकच्छ, 'हुशकार' या 'उसकार' नगर विद्यमान है। एडकाक्ष-झांसी से ४० मील उत्तर-पूर्व 'एरच-एरछ' गांव) और ह्युयेनशान ने काश्मीर की घाटी में, ईस्वी सन् ६३१ के (२) दशपुर (आधुनिक मंदसौर) सितम्बर महीने में पश्चिम की ओर से प्रवेश किया था। उसने आर्य महागिरि इसी जनपद में दशार्णपुर के पास गजानपद पूजनीय स्थानों की उपासना कर 'हुशकार' में रात्रि बिताई।१२। (दशार्णकूट) पर्वत पर अनशन कर मृत्यु को प्राप्त हुए।' दशार्णभद्र अबुरिहान ने भी 'उसकार' का उल्लेख कर उसे नदी के इस जनपद का राजा था। महावीर ने उसे इसी पर्वत पर दीक्षित दोनों ओर स्थित माना है। किया था। अल्बरूनी का कथन है कि काश्मीर की नदी झेलम 'उसकार' काशी और वाणारसी—काशी जनपद पूर्व में मगध, पश्चिम में वत्स नगर से होती हुई घाटी में प्रवेश करती है।" सम्भव है कि यह (वंस), उत्तर में कोशल और दक्षिण में 'सोन' नदी तक विस्तृत था। उसकार' नगर ही 'इषुकार—एषुकार' नगर हो। काशी जनपद की सीमाएं कभी एक-सी नहीं रही हैं। काशी कलिंग वर्तमान उड़ीसा का दक्षिणी भाग 'कलिंग' कहा जाता है। और कौशल में सदा संघर्ष चलता रहता और कभी काशी कौशल साढ़े पचीस आर्य-देशों में इसकी गणना की गई है। बौद्ध-ग्रन्थों में का और कभी कौशल काशी का अंग बन जाता था। ई० पू० उल्लिखित १६ महाजनपदों में इसका उल्लेख नहीं है। छठी-पांचवीं शताब्दी में काशी कोशल के अधीन हो गया था। यूआन चुआङ्ग ने कलिंग जनपद का विस्तार पांच हजार उत्तराध्ययन सूत्र में हरिकेशबल के प्रकरण में टीकाकार ने बताया 'ली' और राजधानी का विस्तार बीस 'ली' बताया है।" है कि हरिकेशबल वाणारसी के तिन्दुक उद्यान में अवस्थित थे। वहां कलिंग देश की राजधानी काञ्चनपुर मानी जाती थी।६ कौशलिकराज की पुत्री भद्रा यक्ष-पूजन के लिए आई। इस घटना से सातवीं शताब्दी से यह नगर भुवनेश्वर' नाम से प्रसिद्ध है। काशी पर कौशल का प्रभूत्व प्रमाणित होता है। काशी राज्य का गान्धार-इसकी अवस्थिति की चर्चा करते हुए कनिंघम ने लिखा है विस्तार ३०० योजन बताया गया है। कि इसका विस्तार पूर्व-पश्चिम में एक हजार 'ली' और उत्तर-दक्षिण वाराणसी काशी जनपद की राजधानी थी। यह नगर 'बरना' में ५०० 'ली' था। इसके आधार पर यह पश्चिम में लंघान और (बरुणा) और 'असी'-इन दो नदियों के बीच में स्थित था। जलालाबाद तक, पूर्व में सिन्धु तक, उत्तर में स्वात और बुनिर पर्वत इसलिए इसका नाम 'वाराणसी' पड़ा। यह नैरुक्त नाम है। आधुनिक तक और दक्षिण में कालबाग पर्वत तक था। बनारस गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर गंगा और वरुणा के इस प्रकार स्वात से झेलम नदी तक का प्रदेश गान्धार के संगम-स्थल पर है। अन्तर्गत था। जैन-आगमोक्त दस राजधानियों में इसका उल्लेख है। यूआन् जैन-साहित्य में गान्धार की राजधानी 'पुण्ड्रवर्धन' का उल्लेख चूआग ने वाराणसी को देश और नगर-दोनों माना है। उससे है और बौद्ध-साहित्य में 'तक्षशिला' का। वाराणसी देश का विस्तार चार हजार 'ली' और नगर का विस्तार गान्धार उत्तरापथ का प्रथम जनपद था। लम्बाई में १८ 'ली' और चौड़ाई ६ 'ली' बताया है। सौवीर-आधुनिक विद्वान् ‘सौवीर' को सिन्धु और झेलम नदी के काशी, कौशल आदि १८ गणराज्य वैशाली के नरेश चेटक की बीच का प्रदेश मानते हैं। कुछ विद्वान् इसे सिन्धु नदी के पूर्व में ओर से कृणिक के विरुद्ध लड़े थे। काशी के नरेश 'शंख' ने मुल्तान तक का प्रदेश मानते हैं। भगवान् महावीर के पास दीक्षा ली थी। 'सिन्धु-सौवीर' ऐसा संयुक्त नाम ही विशेष रूप से प्रचलित इषकार (उस्यार) नगर-जैन-ग्रन्थकारों ने इसे कुरु-जनपद का है। किन्त सिन्ध और सौवीर पृथक्-पृथक् राज्य थे। उत्तराध्ययन में एक नगर माना है।" यहां 'इषुकार' नाम का राजा राज्य करता था। उद्रायण को 'सौवीरराज' कहा गया है।० टीका से भी उसकी पुष्टि उत्तराध्ययन में वर्णित इस नगर में सम्बन्धित कथा का होती है। उसमें उद्रायण को सिन्धु, सौवीर आदि सोलह जनपदों का उल्लेख बौद्ध-जातक (सं० ५०६) में मिलता है। वहां 'वाराणसी' अधिपति बतलाया गया है।" १. मेघदूत, पूर्वमेघ, श्लोक २३-२४।। १२. दि एन्शिएन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ० १०४-१०५। २. बृहत्कल्प भाष्य, भाग ३, पृ० ६१३। १३. वही, पृ० १५४। ३. आवश्यक चूर्णि, उत्तरभाग, पृ० १५६-१५७ १४. अल्बरूनी'ज इण्डिया, पृ० २०७। ४. सुखबोधा, पत्र १७४।। १५. यूआन् चुआङ्ग'स ट्रेवेल्स इन इण्डिया, भाग २, पृ० १६८। ५. धजविहे? जातक (सं० ३६१), जातक भाग ३, पृ० ४५४। १६. बृहत्कल्प सूत्र, भाग ३, पृ० ६१३। ६. दि एन्शिएन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ० ४१६ १७. दि एन्शिएन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया (सं० १८७१), पृ० ४८। ७. विविध तीर्थकल्प, पृ०७२। १८. इण्डिया अज ड्रिस्क्राइब्ड इन अर्ली ट्रेक्ट्स ऑफ बुद्धिज्म एण्डे ८. यूआन् चुआड्गस ट्रेवेल्स इन इण्डिया, भाग २, पृ० ४६-४८। जैनिज्म, पृ०७०। ६. निरयावलिका, सूत्र १। १६. पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्शिएन्ट इण्डिया, पृ० ५०७, नोट १। १०. ठाणं ८४१ २०. उत्तराध्ययन, १८४८। ११. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३६५ । २१. सुखबोधा, पत्र २५२। Jain Education Intemational Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६९६ सुग्रीव नगर — इस नगर की आधुनिक पहचान ज्ञात नहीं है और प्राचीन साहित्य में भी इसके विशेष उल्लेख नहीं मिलते। मगध-मगध जनपद वर्तमान गया और पटना जिलों के अन्तर्गत फैला हुआ था। उसके उत्तर में गंगा नदी, पश्चिम में सोन नदी, दक्षिण में विन्ध्याचल पर्वत का भाग और पूर्व में चम्पा नदी थी।' इसका विस्तार तीन सौ योजन (२३०० मील) था और इसमें अस्सी हजार गांव थे। मगध का दूसरा नाम 'कीकट' था। मगध नरेश तथा कलिंग नरेशों के बीच वैमनस्य चलता था। कौशाम्बी कनिंघम ने इसकी आधुनिक पहचान यमुना नदी के बाएं तट पर, इलाहाबाद से सीधे रास्ते से लगभग ३० मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित 'कोसम' गांव से की है।* कौशाम्बी और राजगृह के बीच अठारह योजन का एक महा अरण्य था। वहां बलभद्र प्रमुख कक्कडदास जाति के पांच सौ चोर रहते थे। कपिल मुनि द्वारा वे प्रतिबुद्ध हुए। जब भगवान् महावीर साकेत के 'सुभूमि भाग' नामक उद्यान में विहार कर रहे थे, तब उन्होंने अपने साधु-साध्वियों के विहार की सीमा की। उसमें कौशाम्बी दक्षिण दिशा की सीमा निर्धारण नगरी थी।" कौशाम्बी के आसपास की खुदाई के अनेक शिलालेख, प्राचीन मूर्तियां, आयगपट्ट, गुफाएं आदि निकली हैं। उनके सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह क्षेत्र जैन-धर्म का प्रमुख केन्द्र था । कनिंघम ने खुदाई में प्राप्त कई एक प्रमाणों से इसे बौद्धों का प्रमुख केन्द्र माना है। परन्तु कौशाम्बी के जैन-क्षेत्र होने के विषय में सर विन्सेन्ट स्मिथ ने लिखा है- “मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि इलाहाबाद जिले के अन्तर्गत 'कोसम' गांव में प्राप्त अवशेषों में ज्यादातर जैनों के हैं। कनिंघम ने जो इन्हें बौद्ध अवशेषों के रूप में स्वीकार किया है, वह ठीक नहीं है। निःसन्देह ही यह स्थान जैनों की प्राचीन नगरी 'कौशाम्बी' का प्रतिनिधित्व करता है। इस स्थान पर, जहां मन्दिर विद्यमान हैं, वे आज भी महावीर के अनुयायियों के लिए तीर्थ स्थल बने हुए हैं। मैंने अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है कि बौद्ध साहित्य की कौशाम्बी किसी दूसरे स्थल पर थी। चम्पा—यह अंग जनपद की राजधानी थी। कनिंघम ने इसकी पहचान भागलपुर से २४ मील पूर्व में स्थित आधुनिक 'चम्पापुर' और 'चम्पानगर' नामक दो गांवों से की है। उन्होंने लिखा है“ भागलपुर से ठीक २४ मील पर 'पत्थारघाट' है। यहीं या इसके १. २. वही, पृ० २४ । ३. वसुदेवहिण्डी, पृ० ६१ ६४ । बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ० २४ । ४. दी एन्शिएन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, ४५४ । ५. उत्तराध्ययन, बृहद्वृत्ति, पत्र २८८-२८६ । ६. बृहत्कल्प सूत्र, भाग ३, पृ० ६१२ । .७. Journal of Royal Asiatic Society, July, 1894 I feel certain that the remains at kosam in the Allahabad District will prove to be Jain, for the most part and not Buddhist as Cunningham supposed. The village undoubtedly represents the Kausambi of the Jains and the site, where temples exist, is still, a place of pilgrimage for the votaries of Mahavira. I have shown good reasons for believing that the परिशिष्ट ५ : भौगोलिक परिचय आसपास ही चम्पा की अवस्थिति होनी चाहिए। इसके पास ही पश्चिम की ओर एक बड़ा गांव है, जिसे चम्पानगर कहते हैं और एक छोटा गांव है जिसे चम्पापुर कहते हैं। संभव है ये दोनों प्राचीन राजधानी 'चम्पा' की सही स्थिति का द्योतक हों। फाहियान ने चम्पा को पाटलिपुत्र से १८ योजन पूर्व दिशा में गंगा के दक्षिण तट पर स्थित माना है। स्थानांग (१०।२७) में उल्लिखित दस राजधानियों में तथा दीघनिकाय में वर्णित छह महानगरियों में चम्पा का उल्लेख है । महाभारत के अनुसार चम्पा का प्राचीन नाम 'मालिनी' था । महाराज चम्प ने उसका नाम परिवर्तित कर 'चम्पा' रखा। यह भी माना जाता है कि मगध सम्राट् श्रेणिक की मृत्यु के बाद कुमार कूणिक को राजगृह में रहना अच्छा नहीं लगा। उसने एक स्थान पर चम्पक के सुन्दर वृक्षों को देख कर 'चम्पा' नगर बसाया । " पिहुंड—यह समुद्र के किनारे पर स्थित एक नगर था। सरपेन्टियर ने माना है कि यह भारतीय नगर प्रतीत नहीं होता। सम्भवतः यह बर्मा का कोई तटवर्ती नगर हो सकता है। जेकोबी ने इसका कोई ऊहापोह नहीं किया है। 1 डॉ० सिलवेन लेवी का अनुमान है कि इसी पिहुंड नगर के लिए खारवेल के शिलालेख में पिहुड (पिथुड), पिहुंडग (पिथंडग) नाम आया है तथा टालेमी का 'पिटुण्ड्रे' भी पिहुंड का ही नाम है लेवी के अनुसार इसकी अवस्थित मैसोलस और मानदस-इन दो नदियों के बीच स्थित मैसोलिया का अन्तरिम भाग है। दूसरे शब्दों में गोदावरी और महानदी के बीच का पुलिन ( Delta) प्राचीन पिहुंड है ।" डॉ० विमलचरण लॉ ने लिखा है कि इस नगर की खोज चिकाकोल और कलिंगपटम के अंतरिक भागों में नागावती (अपर नाम लांगुलिया) नदी के तटीय प्रदेशों में करनी चाहिए।" सम्राट् खारवेल के राज्याभिषेक ई० पू० १६६ के लगभग हुआ। राज्यकाल के ग्यारहवें वर्ष में उसने दक्षिण देश को विजित किया और पिथंड (पृिथुदकदर्भपुरी) का ध्वंस किया।" यह 'पिथुड' नगर 'पिहुंड' होना चाहिए। सोरियपुर – यह कुशावर्त जनपद की राजधानी थी। वर्तमान में इसकी पहचान आगरा जिले के यमुना नदी के किनारे बटेश्वर के पास आए हुए 'सूर्यपुर' या 'सूरजपुर' से की जाती है। * सोरिक (सोरियपुर) नारद की जन्मभूमि थी।" सूत्रकृतांग में Buddhist Kausambi was a different place. दि एन्शिएण्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ० ५४६-५४७। ६. ट्रेवल्स ऑफ फाहियान, पृ० ६५ । १०. महाभारत, १२।५।३३४ । ११. विविध तीर्थकल्प, पृ० ६५। १२. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २६१: समुद्दत्तीरे पिहुंडं नाम नगरं । १३. The Uttaradhyayana Sutra, p.357 १४. ज्योग्राफी ऑफ बुद्धिज्ज, पृ० ६५। १५. सम जैन केनोनिकल लिटरेचर, पृ० १४६ । १६. भारतीय इतिहास एक दृष्टि, पृ० १८५ । १७. कालक- कथासंग्रह, उपोद्घात, पृ० ५२ । १८. आवश्यकचूर्णि, उत्तरभाग, पृ० १६४ । Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६९७ परिशिष्ट ५ : भौगोलिक परिचय एक 'लोरी' के अनेक नगरों के साथ 'सोरियपुर' का भी उल्लेख (१०) जैन-साहित्य में उल्लेख है कि जरासन्ध के भय से हुआ है।' भयभीत हो हरिवंश में उत्पन्न दशार्ह वर्ग मथुरा को द्वारका द्वारका की अवस्थिति के विषय में अनेक मान्यताएं प्रचलित छोड़ कर सौराष्ट्र में गए। वहां उन्होंने द्वारवती नगरी बसाई। (१) रायस डेविड्स ने द्वारका को कम्बोज की राजधानी महाभारत में इसी प्रसंग में कहा गया है कि जरासन्ध बताया है। के भय से यादवों ने पश्चिम दिशा की शरण ली और (२) बौद्ध-साहित्य में द्वारका को कम्बोज का एक नगर रेवतक पर्वत से सुशोभित रमणीय कुशस्थली (द्वारवती) माना गया है। डॉ० मललशेखर ने इस कथन को नगर में जा बसे और कुशस्थली दुर्ग की मरम्मत स्पष्ट करते हुए कहा है कि सम्भव है यह कम्बोज कराई।३ 'कंसभोज' हो, जो कि अन्धकवृष्णिदास पुत्रों का देश (११) जैन-आगम में साढ़े पचीस आर्य-देशों में द्वारका को था। सौराष्ट्र जनपद की राजधानी के रूप में उल्लिखित (३) डॉ० मोतीचन्द्र ने कम्बोज को पामीर प्रदेश मान कर किया गया है। यह नगर नौ योजन चौड़ा और बारह द्वारका को बदरवंशा से उत्तर में स्थित 'दरवाज' योजन लम्बा था।" इसके चारों ओर पत्थर का प्राकार नामक नगर माना है।' था। ऐसा भी उल्लेख है कि इसका प्राकार सोने का घट जातक (सं० ३५५) के अनुसार द्वारका के एक था। इसके ईसान कोण में रैवतक पर्वत था। इसके ओर समुद्र था और दूसरी ओर पर्वत था। डॉ० दुर्ग की लम्बाई तीन योजन थी। एक-एक योजन पर मललशेखर ने इसी को मान्य किया है। सेनाओं के तीन-तीन दलों की छावनी थी। प्रत्येक भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार द्वारका सौराष्ट्र जनपद योजन के अन्त में सौ सौ द्वार थे। का एक नगर था। वर्तमान द्वारिका कस्वे से आगे २० इन सब तथ्यों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि मील की दूरी पर कच्छ की खाड़ी में एक छोटा-सा प्राचीन द्वारका रैवतक पर्वत के पास थी। रैवतक पर्वत सौराष्ट्र में टापू है, उसमें एक दूसरी द्वारका बसी हुई है, जिसे आज भी विद्यमान है। संभव है कि प्राचीन द्वारका इसी की तलहटी 'बेट द्वारिका' कहते हैं। अनुश्रुति है कि यहां भगवान् में बसी हो और पर्वत पर एक संगीन दुर्ग का निर्माण हुआ हो। कृष्ण सैर करने आया करते थे। द्वारिका और बेट भागवत और विष्णुपुराण में उल्लेख है कि जब कृष्ण द्वारका द्वारिका-दोनों नगरों में राधा, रुक्मिणी, सत्यभामा को छोड़कर चले गए तब वह समुद्र में डूब गई। केवल कृष्ण का आदि के मन्दिर पाए जाते हैं। राज-मन्दिर बचा रहा।" जैन-ग्रन्थों में भी उसके डूब जाने की बात कई विद्वानों ने इसकी अवस्थिति पंजाब में मानने की मिलती है। संभावना की है। जैन-ग्रन्थों में उल्लेख है कि एक बार कृष्ण ने भगवान् (७) डॉ० अनन्त सदाशिव अल्तेकर ने द्वारका की अवस्थिति अरिष्टनेमि से द्वारका-दहन के विषय में पूछा। उस समय अरिष्टनेमि का निर्णय संशयास्पद माना है। उनका कहना है कि पल्हव देश में थे। अरिष्टनेमि ने कहा--"बारह वर्ष के बाद द्वीपायन प्राचीन द्वारका समुद्र में डूब गई। ऋषि के द्वारा इसका दहन होगा।" द्वीपायन परिव्राजक ने यह बात आधुनिक द्वारकापुरी प्राचीन द्वारका नहीं है। प्राचीन लोगों से सुनी। 'मैं द्वारका-दहन का निमित्त न बनूं-यह सोच वह द्वारका गिरनार पर्वत की तलहटी में जूनागढ़ के उत्तरापथ में चला गया। काल की गणना ठीक न कर सकने के आसपास बसी होनी चाहिए।" कारण वह बारहवें वर्ष द्वारका में आया। यादवकुमारों ने उसका पुराणों के अनुसार यह भी माना जाता है कि महाराज । तिरस्कार किया। निदान-अवस्था में मर कर वह देव बना तथा रैवत ने समुद्र के बीच में कुशस्थली नगरी बसायी। यह उसने द्वारका को भस्म कर डाला। आनर्त जनपद में थी। वही भगवान् कृष्ण के समय में द्वारवती-दहन से पूर्व एक बार फिर अरिष्टनेमि रैवतक पर्वत द्वारका' या 'द्वारवती' नाम से प्रसिद्ध हुई।" पर आए थे।" जब द्वारवती का दहन हुआ तब वे पल्हव देश में १. सूत्रकृतांग वृत्ति, पत्र ११६ । २. Buddhist Indiap. 28. Kamboja was the adjoining country in the extreme north-west, with Dvaraka as its capital, ३. पेतवत्थु, भाग २, पृ० । ४. दि डिक्शनरी ऑफ पाली प्रॉपर नेम्स, भाग १, पृ० ११२६ । ५. ज्योग्राफिकल एण्ड इकोनॉमिक स्टडीज इन दी महाभारत, पृ०३२-४०। ६. दि डिक्शनरी ऑफ पाली प्रॉपर नेम्स, भाग १, पृ० १५२५ । ७. बौद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ० ४६७। ८. बॉम्बे गेजेटीअर, भाग १, पार्ट १, पृ० ११ का टिप्पण १। ६. इन्डियन एन्टिक्वेरी, सन् १६२५, सप्लिमेन्ट, पृ० २५। १०. पुरातत्त्व, पुस्तक ४, पृ० १०८। ११. वायुपुराण, ६।२७। १२. दशवैकालिक, हारिभद्रीय टीका, पत्र ३६ । १३. महाभारत, सभापर्व, १४१४६-५१,६७। १४. बृहत्कल्प, भाग ३, पृ० ६१२,६१३ । १५. ज्ञाताधर्मकथा, पृ० ६६,१०१। १६. बृहत्कल्प, भाग २, पृ० ३५१। १७. ज्ञाताधर्मकथा, पृ० ६६। १८. महाभारत, सभापर्व, १४।५४-५५। १६. भागवत, ११।३।२३; विष्णुपुराण, ५१।२७३६ । २०. सुखबोधा, पत्र ३६-४०। २१. दशवकालिक, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ३६-३७। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ६९८ परिशिष्ट ५: भौगोलिक परिचय थे।' विद्वान् वी० स्मिथ ने श्रावस्ती को नेपाल देश के खजूरा प्रान्त श्रावस्ती में माना है। यह स्थान बालपूर के उत्तर दिशा में और नेपालगंज के यह कोशल राज्य की राजधानी थी। इसकी आधुनिक पहचान पास उत्तर-पूर्वीय दिशा में है। सहेट-महेट से की गई है। इसमें सहेट गोंडा जिले में और महेट यूआन् चुआङ् ने श्रावस्ती को जनपद मान कर उसका बहराइच जिले में है। महेट उत्तर में हैं और सहेट दक्षिण में। यह विस्तार छह हजार ली माना है। उसकी राजधानी के लिए उसने स्थान उत्तर-पूर्वीय रेलवे के बलरामपुर स्टेशन से पक्की सड़क के 'प्रासाद नगर' का प्रयोग किया है और उसका विस्तार बीस ली रास्ते दस मील दूर है। बहराइच से इसकी दूरी २६ मील है। माना है। १. सुखबोथा, पत्र ३८। २. दी एन्शिएन्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ०४६६-४७४। ३. जरनल आफ रायल एशियाटिक सोसाइटी, भाग १, जन् १६००। ४. यूआन चुआग'स ट्रैवेल्स इन इण्डिया, भाग १ पृ० ३७७। Jain Education Intemational ation Intemational Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ तुलनात्मक अध्ययन नापृष्टः कस्यचिद् ब्रूयान्, नाप्यन्यायेन पृच्छतः। ज्ञानवानपि मेधावी, जडवत् समुपाविशेत्।। (शान्तिपर्व २८७।३५) नापट्टो वागरे किंचि, पट्टो वा नालिय वए। कोहं असच्चं कुबेज्जा, धारेज्जा पियमप्पियं ।। (१।१४) अप्पा चेव दमेयब्बो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य।। (१।१५) अत्तानञ्चे तथा कयिरा, यथझमनुसासति। सुदन्तो वत दम्मेथ, अत्ता हि कर दुद्दमो।। (धम्मपद १२ । ३) मा कासि पापकं कम्म, आवि वा यदि वा रहो। सचे च पापकं कर्म, करिस्ससि करोसि वा।। (थेरीगाथा २४७) पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा। आवी वा जइ वा रहस्से, नेव कुज्जा कयाइ वि।। (१।१७) कालीपच्वंगसंकासे, किसे धमणिसंतए। मायन्ने असणपाणस्स, अदीणमणसो चरे।। (२।३) काल (ला) पव्वंगसंकासो, किसो धम्मनिसन्थतो। मत्त अन्नपामिह, अदीनमनसो नरो।। (थेरगाथा २४६,६८६) अष्टचक्र हि तद् यानं, भूतयूक्तं मनोरथम। तत्राद्यी लोकनाथी तौ, कृशी धमनिसंतती ।। (शान्तिपर्व ३३४ । ११) पुट्ठो य दंसमसएहि, समरेव महामुणी। नागो संगामसीसे वा, सूरो अभिहणे परं ।। (२/१०) एवं चीर्णेन तपसा, मुनिर्धमनिसन्ततः । (भागवत ११।१८६) पंसुकूलधरं जन्तुं, किसं धमनिसन्थतं । एकं वनस्मि झायन्तं, तमहं ब्रूमि बाह्मणं ।। (धम्मपद २६ । १३) फुट्ठो डंसेहि मकसेहि, अरञस्मि ब्रहावने। नागो संगामसीसे'व, सतो तत्राऽधिवासये।। (थेरगाथा ३४ । २४७,६८७) एक एव चरेन्नित्यं, सिद्ध्यर्थमसहायवान्। सिद्धिमेकस्य संपश्यन्, न जहाति न हीयते।। (मनुस्मृति ६ । ४२) अनिकेतः परितपन्, वृक्षमूलाश्रयो मुनिः। अयाचक सदा योगी, स त्यागी पार्थ ! भिक्षुकः ।।? (शान्तिपर्व १२।१०) एग एव चरे लाढे, अभिभूय परीसहे। गामे वा नगरे वावि, निगमे वा रायहाणिए।। (२।१८) असमाणो चरे भिक्खू, नेव कुज्जा परिग्गहं। असंसत्तो गिहत्थेहिं, अणिएओ परिचए।। पांसुभिः समभिच्छिन्नः, शून्यागारप्रतिश्रयः । वृक्षमूलनिकेतो वा, त्यक्तसर्वप्रियाप्रियः ।। (शान्तिपर्व ६।१३) सुसाणे सुन्नगारे वा, रुक्खमूले व एगओ। अकुक्कुओ निसीएज्जा, न य वित्तासए परं ।। (२।१६,२०) सोच्चाणं फरुसा भासा, दारुणा गामकंटगा। तुसिणीओ उवेहेज्जा, न ताओ मणसीकरे ।। (२।२५) अणुक्कसाई अप्पिच्छे, अन्नाएसी अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्झेज्जा, नाणुतप्पेज्ज पन्नवं ।। (२।३६) खेत्तं वत्थु हिरण्णं च, पसवो दासपोरुसं। चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववज्जई।। (३।१७) सुत्वा रुसितो बहू वाचं, समणाणं पुथुवचनानं। फरुसेन ते न पतिवज्जा, न हि सन्तो पटिसेनिकरोन्ति ।। (सुत्तनिपात, व०८,१४ । १८) चक्खूहि नेव लोलस्स, गामकथाय आवरये सोतं । रसे च नानुगिज्झेय्य, न च ममायेथ किंचि लोकस्मि।। (सुत्त०, व० ८,१४।८) खेत्तं वत्थु हिरझं वा, गवास्सं दासपोरिसं। थियो बन्धू पुथू कामे, यो नरो अनुगिज्झति।। (सुत्त०, व० ८,१।४) उपनीयति जीवितं अप्पमायु, जरूपनीतस्स न सन्ति ताणा। एतं भयं मरणे पेक्खमाणो, पुज्ञानि करियाथ सुखावहानि।। (अंगुत्तर नि०, पृ० १५६) चोरो यथा सन्धिमुखे गहीतो, सकम्मुना हअति पापधम्मो। एवं पजा पेच्च परम्हि लोके, सकम्भुना हजति पापधम्मो।। (थेरगाथा ७८६) असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं। एवं वियाणाहि जणे पमत्ते, कण्णू विहिंसा अजया गहिति ।। (४।१) तेणे जहा संधिमुहे गहीए, सकम्मुणा चिक्कइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ।। (४ । ३) Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७०० परिशिप्न ६: तुलनात्मक अध्ययन चीराजिणं नगिणिणं, जडीसंघाडिमुंडिणं। एयाणि विन तायंति, दुस्सीलं परियागयं ।। (५।२१) न नग्गचरिया न जटा न पंका, नानासका थण्डिलसायिका था। रजो व जल्लं उक्कटिकप्पधानं, सोधेन्ति मच्चं अवितिण्णकड़खं ।। (धम्मपद १०।१३) जे लक्खणं च सुविणं च, अंगविज्जं च जे पउंजंति। न हु ते समणा वुच्चंति, एवं आयरिएहिं अक्खायं ।। (८1१३) आथब्बणं सुपिनं लक्खणं, नो विदओ अथो पि नक्खत्तं । विरुतं च गभकरणं, तिकिच्छं मामको न सेवेय्य ।। (सुत्त०, व०८,१४ । १३) सुसुखं बत जीवाम ये सं नो नत्थि किंचनं । मिथिलाय डरहमानाय न मे किंचि अडव्हथ ।। (जातक ५३६, श्लोक १२५; जातक ५२६, श्लोक १६; धम्मपद १५) सुहं वसामो जीवामो, जेसिं मो नत्थि किंचण। मिहिलाए डज्झमाणीए, नमे डज्झइ किंचण।। (६।१४) सुसुखं वत जीवामि, यस्य मे नास्ति किंचन। मिथिलायां प्रदीप्तायां, न मे दह्यति किंचन ।। (मोक्षधर्म पर्व, २७६।२) जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ।। (६।३४) जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवं दए। तस्सावि संजमो सेओ, अदितस्स वि किंचण।। (६ । ४०) यो सहस्सं सहस्सेन संगामे मानुसे जिने। एकं च जेय्यमत्तानं स वे संगामजुत्तमो।। (धम्मपद ८।४) मासे मासे सहस्सेन यो यजेय सतं समं, एकंच भावितत्तानं मुहुत्तमपि पूजये। सा येव पूजना सेय्यो यं चे वस्ससतं हुतं ।। यो च वस्ससतं जन्तु अग्गि परिचरे बने, एकच भावितत्तानं मुहुत्तमपि पूजये। सा येव पूजना सेय्यो यं चे वस्ससतं हुतं ।। (धम्मपद ८७,८) यो ददाति सहस्राणि गवामश्वशतानि च। अभयं सर्वभूतेभ्यः सदा तमभिवर्तते।। (शान्तिपर्व २६८।) मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेण तु भुजए। न सो सुयक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं ।। (४४) सुवण्णरुप्पस्स उ पव्यया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया। नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि, इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया। (६।४८) पुढवी साली जवा चेव, हिरण्णं पसुभिस्सह। पडिपुण्णं नालमेगस्स, इइ विज्जा तं चरे।। (६ । ४६) मासे मासे कुसग्गेन, बालो भुंजेथ भोजनं । न सो संखतधम्मानं, कलं अग्घति सोलसिं ।। (धम्मपद ५। ११) अटॅगुपेतस्स उपोसथस्स, कलं पि ते नानुभवंति सोलसिं ।। (अंगु० नि०, पृ० २२१) पर्वतोपि सुवर्णस्य, समो हिमवता भवेत्। नालं एकस्य तद्वित्तं, इति विद्वान् समाचरेत् ।। (दिव्यावदान, पृ० २२४) यत्पृथिव्यां ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः । सर्वं तन्नालमेकस्य, तस्माद् विद्वान् शमं चरेत्।। (अनुशासनपर्व ६३।४०) यत् पृथिव्यां ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः। नालमेकस्य तत् सर्वमिति पश्यन्न मुह्यति ।। (उद्योग पर्व ३६।८४) यद् पृथिव्यां ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः। एकस्यापि न पर्याप्त, तदित्यवितृष्णां त्यजेत् ।। (विष्णुपुराण ४।१०।१०) उच्छिन्द सिनेहमत्तनो कुमुदं सारदिकं व पाणिना। सन्तिमग्गमेव ब्रूहय, निब्बानं सुगतेन देसितं ।। (धम्मपद २०1१३) तं पुत्रपशुसम्पन्नं, व्यासक्तमनसं नरम् । सुप्तं व्याघ्रो मृगमिव, मृत्युरादाय गच्छति।। सचिन्वानकमेवैनं, कामानामवितृप्तकम्। व्याघ्रः पशुमिवादाय, मृत्युरादाय गच्छति।। (शान्ति० १७५ । १८,१६) मृतं पुत्रं दुःखपुष्टं मनुष्या उत्क्षिप्य राजन् । स्वगृहान्निर्हरन्ति। तं मुक्तकेशाः करुणं रुदन्ति चितामध्ये काष्ठमिव क्षिपन्ति ।। (उद्योग०४०।१५) अग्नी प्रास्तं तु पुरुष, कर्मान्वेति स्वयं कृतम् । (उद्योग० ४०।१८) वोछिंद सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं। से सव्वसिणेहवज्जिए, समयं गोयम! मा पमायए।। (१०।२८) जहेह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अंतकाले। न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्भि तम्मिसहरा भवंति।। (१३ । २२) न तस्स दुक्ख विभयंति नाइओ, न मित्तबग्गा न सुया न बंधवा । एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्म।। (१३ । २३) Jain Education Intemational Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७०१ परिशिष्ट ६ : तुलनात्मक अध्ययन चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिह धणधन्नं च सव्वं । कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं था।। (१३ । २४) तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से, चिईगयं इहिय उ पावगेणं। भन्जा य पुत्ता वि य नायओ य, दायारमन्नं अणुसंकमंति।। (१३ । २५) अच्चेइ कालो तरंति राइयो, न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा। उविच्च भोगा पुरिसं चयंति, दुर्म जहा खीणफलं व पक्खी।। (१३।३१) अहिज्ज वेए परिविस्स विणे, पुत्ते पडिट्टण गिहंसि जाया !। भोच्चाण भोए सह इत्थियाहिं, आरणगा होह मुणी पसत्था ।। (१४ । ६) वेया अहीया न भवंति ताणं, भुत्ता दिया निन्ति तमं तमेण । जाया य पुत्ता न हवंति ताणं, को णाम ते अणमन्नेज्ज एय।। (१४ । १२) इमं च मे अस्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं। तं एवमेवं लालण्णमाणं, हरा हरति त्ति कहं पमाए ?।। (१४ । १५) धणं पभूयं सह इत्थियाहिं, सयणा तहा कामगुणा पगामा। तव कए तप्पइ जस्स लोगो, तं सव्व साहीणमिहेव तुब्भ ।। (१४ । १६) अब्भाहयंमि लोगंमि सबओ परिवारिए। अमोहाहिं पडतीहि, गिहंसि न रइं लभे।। (१४ । २१) अन्यो धनं प्रेतगतस्य भुंक्ते, वयांसि चाग्निश्च शरीरधातून् । द्वाभ्यामयं सह गच्छत्यमुत्र, पुण्येन पापेन च चेष्ट्रयमानः ।। (उद्योग०४०। १७) उत्सृज्य विनिवर्वन्ते, ज्ञातयः सुहृदः सुताः। अपुष्पानफलानू वृक्षान, यथा तात पतत्रिणः ।। (उद्योग०४०। १७) अनुगम्य विनाशान्ते, निवर्तन्ते ह बान्धवाः। अग्नी प्रक्षिप्य पुरुष, झातयः सुहृदस्तथा।। (शान्ति० ३२११७४) अच्चयन्ति अहोरत्ता .....।। (थेरगाथा १४८) वेदानधीत्य ब्रह्मचर्येण पुत्र!, पुत्रानिच्छेत् पावनार्थं पितृणाम् । अग्नीनाधाय विधिवच्चेष्टयज्ञो, वनं प्रविश्याथ मुनिर्वभूषेत्।। (शान्तिपर्व १७५१६:२७७।६ जातक ५०९।४) वेदा न सच्चा न च वित्तलाभो, न पुत्तलाभेन जर विहन्ति। गन्धे रमे मुच्चनं आहु सन्तो, सकम्मुना होति फलूपपत्ति।। (जातक ५०६।६) इदं कृतमिदं कार्यमिदमन्यत् कृताकृतम्। एवमीहासुखासक्तं, मृत्युरादाय गच्छति।। (शान्ति० १७५ । २०) कि ते धनैर्बान्धवैर्वापि किं ते, कि ते दारब्राह्मण ! यो मरिप्यसि। आत्मानमन्विच्छ गुहं प्रविष्ट, पितामहास्ते क्व गताः पिता च।। (शान्ति० १७५ । ३८) एवमभ्याहते लोके, समन्तात् परिवारिते। अमोघासु पतन्तीषु, किं धीर इव भाषसे।। (शान्तिपर्व १७५ । २७७।७) कथमभ्याहतो लोकः, केन वा परिवारितः। अमोघाः काः पतन्तीह, किं नु भीषयसीव माम्।। (शान्तिपर्व १७५। ८:२७७।८) मृत्युनाभ्याहतो लोको, जरया परिवारितः। अहोरात्राः पतनयेते, ननु कस्मान्न बुध्यसे।। (शान्तिपर्व १७५ १६,२७७६) अमोघा रात्रयश्चापि नित्यमायान्ति यान्ति च। यदाहमेतज्जानामि न मृत्युस्तिष्ठतीति ह। सोऽहं कथं प्रतीक्षिष्ये जालेनापिहितश्चरन् ।। रात्र्यां रात्र्यां व्यतीतायामायुरल्पतरं यदा। गाधोदके मत्स्य इव सुखं विन्देत कस्तदा।। (यस्यां रात्र्यां व्यतीतायां न किञ्चिच्छुभमाचरेत् ।) तदैव वन्ध्य दिवसमिति विद्याद् विचक्षणः। अनवाप्तेषु कामेषु मृत्युरभ्येति मानवम्।। (शान्तिपर्व १७५ । १०,११,१२; शान्तिपर्व २७७।१०,११,१२) यस्स अस्स सक्खी मरणेन राज, जराय मेत्तो नरविरियसेट्ट। यो चापि जज्जा न मरिस्सं कदाचि, पस्सेव्यु तं वस्ससतं अरोगं ।। (जातक ५०६।७) साखाहि रुक्खो लभते समज्ज, पहीणसाखं पन खानु माहु। पहीणपूत्तस्स ममज्जहोति, वासेट्टि भिक्खाचरियाय कालो।। (जातक ५०६।१५) केण अब्भाहओ लोगो? केण वा परिवारिओ?। का वा अमोहा वुत्ता? जाया ! चिंतावरो हुमि ।। (१४ । २२) मच्चुणाब्भाहओ लोगो, जराए परिवारिओ। अमोहा रयणी वुत्ता, एवं ताय! वियाणह।। (१४।२३) जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। अहम्म कुणमाणस, अफला जंति राइओ।। जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। धम्म च कुणमाणस्स, सफला जति राइओ।। (१४।२४,२५) जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स बत्थि पलायणं। जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया।। (१४ । २७) पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो, वसिट्टि । भिक्खायरियाइ कालो। साहाहि रुक्खो लहए समाहिं, छिन्नाहि साहाहि तमेव खाणुं ।। (१४ । २६) Jain Education Intemational ation Intemational Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७०२ परिशिष्ट ६: तुलनात्मक अध्ययन वंतासी पुरिसो रायं ! न सो होइ पसंसिओ। माहणेण परिच्चत्तं, धणं आदाउमिच्छसि ।। (१४ । ३८) सामिसं कुललं दिस्स, बज्झमाणं निरामिसं। आमिसं सव्वमुज्झित्ता, विहरिस्सामि निरामिसा ।। (१४ । ४६) नागो व्व बंधणं छित्ता, अप्पणो वसहिं वए। एवं पत्थं महाराय ! उसुयारि त्ति मे सुयं ।। (१४ । ४८) करकंडू कलिंगेसु, पंचालेसु य दुम्मुहो। नमी राया विदेहेसु, गंधारेसु य नग्गई।। एए नरिंदवसभा, निक्वंता जिणसासणे। पुत्ते रज्जे ठवित्ताणं, सामण्णे पज्जुवट्टिया।। (१८ । ४५,४६) जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य। अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतवो।। (१६।१५) अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा धेणू, अप्पा मे नन्दणं वणं ।। अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टियसुपट्ठिओ।। (२०।३६,३७) अवमी ब्राह्मणो कामे, ते त्वं पच्चावमिस्ससि। वन्तादो पुरिसो राज, न सो होति पसंसियो।। (जातक ५०६।१८) सामिषं कुररं दृष्ट्वा, बध्यमानं निरामिषैः । आमिषस्य परित्यगात्, कुररः सुखमेधते ।। (शान्तिपर्व १७८ । ६) इदं वत्वा महाराज एसुकारी दिसम्पति, रट्ठ हित्वान पब्बजि नागो छेत्वा व वन्धनं ।। (जातक ५०६।२०) करण्डु कलिङ्गानं गन्धारानञ्च नग्गजो, निमिराजा विदेहानं पञ्चालानञ्च दुमुक्खो, एते रट्टानि हित्वान पबजिंसु अकिञ्चना। (जातक ४०८।५) जातिपि दुक्खा जरापि दुक्खा, व्याधिपि दुक्खा मरणंपि दुक्खं ।। (महावग्ग १।६।१६) अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया। अत्तना व सुदन्तेन, नाथं लभति दुल्लभं ।। अत्तना व कतं पापं, अत्तजं अत्तसम्भवं। अभिमन्थति दुम्मेधं, वजिरं वस्ममयं मणिं ।। अत्तना व कतं पापं, अत्तना संकिलिस्सति। अत्तना अकतं पापं, अत्तना व विसुज्झति।। सुद्धि असुद्धि पच्चत्तं, नाझो अझं विसोधये।। (धम्मपद १२ । ४,५,६) उद्धरेदात्मनात्मानं, नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।। (गीता ६।५,६) दिसो दिसं यन्तं कयिरा, वेरी वा पन वेरिनं। मिच्छापणिहितं चित्तं, पापियो नं ततो करे ।। (धम्मपद ३।१०) न त अरी कंठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणो।। (२०। ४८) दुविहं खवेकण य पुण्णपावं, निरंगणे सव्वओ विप्पमुक्के। तरित्ता समुद्दे व महाभवोघ, समुद्दपाले अपुणागमं गए।। (२१।२४) यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्ण, करिमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्। तना विद्वान् पुण्यपापे विधूय, निरञ्जनं परमं साभ्यमुपैति।। (मुण्डकोपनिषद् ३।१।३) धिरत्थु तं विसं वन्तं यमहं जीवितकारणा। वन्तं पच्चावमिस्सामि मतम्मे जीविता वरं ।। (विसवन्त जातक ६६) धिरत्थु ते जसोकामी ! जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेउ, सेयं ते मरणं भवे।। (२२ । ४२) अग्निहोत्तमुहा वेया, जन्नट्टी वेयसां मुहं। नक्खताण मुहं चंदो, धम्माणं कासवो मुहं ।। (२५ । १६) अग्निहुत्तमुखा यञ्जा, सावित्ती छन्दसो मुखं । राजा मुखं मनुस्सानं, नदीनं सागरो मुखं ।। नक्खत्तानं मुखं चन्दो, आदिच्चो तपतं मुखं । पुजं आकंखमानानं, संघोवे यजत मुखं ।। (सुत्तनिपात ३३।२०,२१) निधाय दंडं भूतेसु, तसेसु थावरेसु च। यो हन्ति न घातेति, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। (धम्मपद २६ । २३) तसपाणे वियाणेत्ता, संगहेण य थावरे। जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूप भाहणं ।। (२५। २२) कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया। मुसं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं ।। (२५ । २३) अकक्कसं विज्ञापनि, गिरं सच्चं उदीरये। याय नाभिसजे किंचि, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। (धम्मपद २६।२६) जहा पोम जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलित्तो कामेहि, तं वयं बूम माहणं ।। (२५ । २६) न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो। न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो।। (२५।२६) वारिपोक्खरपत्ते व, आरग्गेरिव सासपो। यो न लिप्पति कामेसु, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं।। न मुण्डकेण समणो, अब्बतो अलिकं भर्ण। इच्छालाभसमापन्नो, समणो किं भविस्सति।। न तेन भिक्खु होति, यावता भिक्खते परे। विस्स धम्म समादाय, भिक्खु होति न तावता ।। (धम्मपद १६६,११) Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेणं होइ तावसो ।। ( २५ । ३० ) कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ।। ( २५ । ३१) खलुंका जारिसा जोज्जा, दुस्सीसा वि हु तारिसा । जोइया धम्मजाणम्मि, भज्जति धिइदुब्बला ।। (२७।८) न वा लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एक्को वि पावाइ विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ।। (३२ ।५) जहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा । ते खुड्ड जीविय पच्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे ।। ( ३२ । २०) ७०३ एविंदियत्था य मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो । ते चैव थोवं पि कयाइ दुक्खं न वीयरागस्स करेंति किंचि ।। ( ३२।१००) परिशिष्ट ६ तुलनात्मक अध्ययन न मोनेन मुनी होति, मुल्हरूपो अविद्दसु । यो च तुलं व पग्गय्ह वरमादाय पण्डितो ।। ( धम्मपद १६ । १३ ) न तेन अरियो होति, येन पाणानि हिंसति । अहिंसा सब्बपाणानं अरियो 'ति पवुच्चति ।। ( धम्मपद १६।१५, धम्मपद २६ ।११) न जटाहि न गोत्तेहि, न जच्चा होति ब्राह्मणो । मौनाद्धि स मुनिर्भवती, नारण्यवसनान्मुनिः।। ( उद्योगपर्व ४३ | ३५ ) ........ I समितत्ता हि पापानं समणो ति पवुच्चति ।। ( धम्मपद १६।१० ) पापानि परिवज्जेति स मुनी तेन सो मुनी । यो मुनाति उभो लोके मुनी तेन पयुच्चति ।। (धम्मपद १६ । १४ ) न जच्चा ब्राह्मणो होति, न जच्चा होति अब्राह्मणो । कम्मुना ब्राह्मणो होति, कम्मुना होति अब्राह्मणो ।। कस्सको कम्मुना होति, सिप्पको होति कम्मुना । वाणिजो कम्मुना होति, पेस्सिको होति कम्मुना ।। (सुत्तनिपात, महा० ६/५७, ५८ ) न जच्चा बसला होती, न जच्चा होति ब्राह्मणो । कम्मुना वसलो होति, कम्मुना होति ब्राह्मणो ।। (सुत्तनिपात, उर० ७।२१,२७ ) चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्माविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां, विद्ध्यकर्त्तारमव्ययम् ।। ( गीता ४।१३ ) ते तथा सिक्खित्ता बाला अज्जमज्जम गारवा । नादयिस्सन्ति उपज्झाये खलुको विय सारथिं ।। (थेरगाथा ६७६ ) सचे लभेथ निपकं सहायं, सद्धिं चरं साधुविहारिधीरं । अभिभूय्य सब्बानि परिस्सयानि, चरेय्य तेनत्तमनो सतीमा ।। नो चे लभेथ निपकं सहायं सद्धिं चरं साधुविहारिधीरं । राजाव रट्ठ विजितं पहाय, एको चरे मातंगरञेव नागो ।। एकस्य चरितं सेय्यो, नत्थि बाले सहायता । एको चरे न च पापानि कायिरा । अप्पोस्सुक्को मातंगरज्ञेव नागो (धम्मपद २३।६, १०, ११ ) अद्धा पसंसाम सहायसंपदं सेट्ठा समा सेवितव्वा सहाया । एते अलद्धा अनवज्जभोजी, एगो चरे खग्गविसाणकप्पो ।। (सुत्तनिपात, उर० ३।१३) त्रयी धर्ममधर्मार्थं किंपाकफलसंनिभम् । नास्ति तात ! सुखं किञ्चिदत्र दुःखशताकुले ।। (शांकरभाष्य, श्वेता० उप०, पृ० २३) रागद्वेषवियुक्तेस्तु विषानिन्द्रियैश्चरन्। आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।। (गीता २ । ६४ ) Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७०४ परिशिष्ट ६: तुलनात्मक अध्ययन बाह्मण जयघोष और विजयघोष नाम के दो भाई थे। जयघोष मुनि बन गए। विजयघोष ने यज्ञ का आयोजन किया। मूनि जयघोष यज्ञवाट में भिक्षा लेने गए। यज्ञ-स्वामी ने भिक्षा देने से इन्कार कर दिया और कहा कि यह भोजन केवल ब्राह्मणों को ही दिया जायेगा। तब मुनि जयघोष ने समभाव रखते हुए उसे ब्राह्मण के लक्षण बताए। उत्तराध्ययन के पच्चीसवें अध्ययन में १६वें श्लोक से ३२वें श्लोक तक ब्राह्मणों के लक्षणों का निरूपण है और (२८,२६,३०,३१) के अतिरिक्त प्रत्येक श्लोक के अंत में 'तं वयं बूम माहणं' ऐसा पद है। इसकी तुलना धम्मपद के ब्राह्मणवर्ग (३६वां), सुत्तनिपात के वासेट्ठसुत्त (३५) के २४५वें अध्याय से होती है। धम्मपद के ब्राह्मणवर्ग में ४२ श्लोक हैं और उनमें नौ श्लोकों के अतिरिक्त (१,२,५,६,७,८,१०,११,१२) सभी श्लोकों का अन्तिम पद 'तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं' है। सुत्तनिपात का 'वासे? सुत्त' गद्य-पद्यात्मक है। उसमें ६३ श्लोक हैं। उनमें २६ श्लोकों (२७-४५) का अन्तिम चरण 'तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं' है। इसमें कौन ब्राह्मण होता है और कौन नहीं, इन दोनों प्रश्नों का सुन्दर विवेचन है। अन्तिम निष्कर्ष यही है कि ब्राह्मण जन्मना नहीं होता, कर्मणा होता है। महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २४५ में ३६ श्लोक हैं। उनमें सात श्लोकों (११,१२,१३,१४,२२,२३,२४) के अन्तिम चरण में 'तं देवा ब्राह्मणं विदुः' ऐसा पद है। तीनों में ब्राह्मण के स्वरूप की मीमांसा है। (४) जो सुसंवृत है, (५) जो सत्यवादी है, धर्मनिष्ट है, जो पंशुकूल (फटे चीथड़ों से बना चीवर) को धारण करता है, (७) जो दुबला, पतला और नसों से मढे शरीर वाला है, जो अकिंचन है, त्यागी है, (E) जो संग और आसक्ति से विरत है, (१०) जो प्रबुद्ध है, जो क्षमाशील है, जो जितेन्द्रिय है, (११) जो चरम शरीरी है, (१२) जो मेधावी है, मार्ग-अमार्ग को जानता है, (१३) जो संसर्ग-रहित है, अल्पेच्छ है, (१४) जो अहिंसक है, अविरोधी है, जो सत्यवादी है, जो अचौर्यव्रती है, जो अतृष्ण है, जो निःसंशय है, जो पवित्र है, जो अनुस्रोतगामी है, जो निःक्लेश है, जो प्राणियों की च्युति और उत्पत्ति को जानता है और (१५) जो क्षीणाश्रव है, अर्हत् है, जिसके पूर्व, पश्चात् और मध्य में कुछ नहीं है, जो सम्पूर्ण ज्ञानी है वह ब्राह्मण है। उत्तराध्ययन के अनुसार ब्राह्मण (१) जो संयोग में प्रसन्न नहीं होता, वियोग में खिन्न नही होता, जो आर्य-वचन में रमण करता है, जो पवित्र है, जो अभय है, जो अहिंसक है, जो सत्यनष्टि है, जो अचौर्यव्रती है, जो ब्रह्मचारी है, जो अनासक्त है, (८) जो गृहत्यागी है, जो अकिंचन है, (१०) जो गृहस्थों में अनासक्त है और (११) जो समस्त कर्मों से मुक्त है, वह ब्राह्मण कहलाता है। महाभारत के अनुसार ब्राह्मण (१) जो लोगों के बीच रहता हुआ भी असंग होने के कारण सूना रहता है, (२) जो जिस किसी वस्तु से अपना शरीर ढंक लेता है, (३) जो रूखा-सूखा खा कर भी भूख मिटा लेता है, (४) जो जहां कहीं भी सो रहता है, जो लोकेषणा से विरत है, जिसने स्वाद को जीत लिया है, जो स्त्रियों में आसक्त नहीं होता, जो सम्मान पा कर गर्व नहीं करता, (७) जो तिरस्कार पा कर खिन्न नहीं होता, (८) जिसने सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान दे दिया है, (E) जो अनासक्त है, आकाश की तरह निर्लेप है, (१०) जो किसी भी वस्तु को अपना नहीं मानता, (११) जो एकाकी विचरण करता है, जो शान्त है, (१२) जिसका जीवन धर्म के लिए होता, जिसका धर्म हरि (आत्मा) के लिए होता है, जो रात-दिन धर्म में लीन रहता है, (१३) जो निस्तृष्ण है, जो अहिंसक है, जो नमस्कार और स्तुति से दूर रहता है, जो सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त है, (१४) जिसके मोह और पाप दूर हो गए हैं, जो इहलोक और परलोक के भोगों में आसक्त नहीं होता-वह ब्राह्मण है-ब्रह्मज्ञानी है। धम्मपद तथा सुत्तनिपात्त के अनुसार ब्राह्मण (१) 'जिसके पार, अपार और पारापार नहीं है, जो अनासक्त (२) (३) जो ध्यानी है, निर्मल है, आसनबद्ध है, उत्तमार्थी है, जो पाप-कर्म से विरत है, Jain Education Intemational Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ टिप्पण अनुक्रम शब्द आदि टि. संख्या १२ टि० संख्या शब्द आदि टि० संख्या शब्द आदि अज्झत्थ (१४।१६) अत्तपन्नहा (१७।१२) अज्झत्थं (६६) अत्तपसन्नलेसे (१२।४६) अज्झप्पझाणजोगेहिं पसत्थ... (१६६३) ६५ अत्थं (१२।३३) अज्झवसाणम्मि (१६७) १० अत्थधम्मगई तच्चं (२०११) अट्टरुद्दाणि झाणाई (३०।३५) १५ अस्थिकायधम्म (२८।२७) अट्ठजुत्ताणि (१८) अद्दीणा (७१२१) अट्ठपओ... (१०३७) अद्धा (३४१४५) अट्ठ पवयणमायाओ (२४१) अद्धासमए (३६।६) अट्ठ समिईओ (२४३) अधीरपुरिसेहिं (८६) अट्ठसहस्सलक्खणधरो (२२१५) अधुवे असासयंमि (८1१) अट्ठाए य अणट्ठाए (५८) अन्नदत्तहरे (७५) अट्टियं (११४६) अन्नप्पमत्ते (१४।१४) अणंतघाइपज्जवे (२६८) अन्नाएसी (२।३६) अणगारगुणेहिं (३११८) ३३ अन्नाणं (१८।२३) अणगारे तवोधणे (१८१४) अन्नायएसी (१५१) अणच्चासायणसीले (२६१५) अपडिन्द्रयाए (२६।३१) अणसणा मरणे (३०।१२-१३) अपरिग्गहो (४।१-५) अणसणे (१६/१२) अपुरक्कार (२६८) अणागय नेव य अस्थि किंचि (१४।२८) ૨૨ अप्पं चाऽहिविखवई (११।११) अणाणुबंधि (२६।२५) १७ अप्पकुक्कुए (१९३०) अणाबाहं (२३८०) अप्पणा सच्चमेसेज्जा (६२) अणारिया (१२।४) अप्पणो पाए दिन्नं (६७) अणिग्गहे (१११२) अप्पपाणेप्पबीयंमि (१९३५) अणिच्चे (१८११) अप्पमज्जियं (१७७) अणियमेत्ता (८1१४) अप्पमत्तो पमत्तेहिं (६।१६) अणुकंपओ (१२७) अप्परए (१४८) अणुक्कसाई (२।३६,१५ ११६) अप्पसत्थेहिं दारेहिं (१९६३) अणुत्तरनाणदंसणधरे (६।१७) अप्पिच्छे (२३६) अणुत्तरे (१३१३४,३५) अप्फोव (१८१५) ...अणुपुब्बसो (५।२६) ४० अफुसमाणगई (२६७४) अणुप्पेहाए (२६२३) अब्भुदए...संकप्पेण... (61५१) अणुभागा (३३।२४) अभओ (१८११) अणुववायकारए (१३) अभिक्खं (१४ ॥३७) अणुव्वया (२०२८) अभिक्खण (११७,१७११६) अणुसासम्मी (२७११०) अभिजाइए (११।१३) अणेगओ (१६।८२) अभिभूय सव्वदंसी (१५१२) अणेगचित्तासु (८1१८) अमयं व पूइए (१७।२१) अणेगवासानउया (७।१३) अमाई (११।१०) अण्णवं (१०।३४) अमित्त (१५११६) अण्णवंसि महोहंसि (५१) १ अमूढदिट्ठी (२८॥३१) अण्णाणपरीसह (२।४२,४३) ८० अमोहाहिं (१४।२१) अण्णाण मोहस्स (३२।२) अय (७६) अतरं (८६) १३ अयंतिए (२०।४२) अइक्कमे (१९३३) अउला हवइ वेयणा (२०३५) अंगविज्जं (८1१३) अंगुलं वड्डए (२६।१४) अंतकिरियं (२६१५) अंतरिच्छं (२०२१) अंतरं (३६८२) अंतरद्दीवया (३६ १६६) अंतेउरं तेणं (६/१२) अंधयार (२८१२) अंसहर (१३॥२२) अकम्मकम्मभूमा (३६ ११६६) अकम्मचेठे (१२।२६) अकलेवरसेणिं (१०३५) अकामकामे (१५१) अकाममरणं (५२) अकिंधणं (२६४८) अकिरियं (१८।२३,३३) अकुऊहले (११।१०) अकोहणे (११५) अकुक्कुओ (२। २०,२१११८) अक्केस... (२।२५) अक्खे (५।१४) अगारधम्म (२६४) अगारि-सामाइयंगाई (५१२३) अगारेसु (१।२६) अग्गरसा... (१४।३१) अग्गलं (६।२०) अग्गिसिहा दित्ता (१६३६) अग्निहोत्तमुहा (२५११६) अचवले (१११०) अचियत्ते (१११६) अचेलए...सचेलए (२०१३) अचेलगो (२३।१३) अच्चंतकालस्स (३२॥१) अच्चंतनियाणखमा (१८५२) अजीवदेसमागासे (३६१२) अज्ज (१२।१७) अज्जयंते (१३।१२) अज्जवयणं (२५२०) अज्जवयाए (२६।४६) २८ m Jain Education Intemational Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि शब्द आदि अरई (२1१४,१५ ) अरई (१०।२७) अल्लीणा (२३।६) अवग्गमणे (१५1३) अवन्नए नावणए (२१/२० ) अवसेसं भंडगं ( २६ ३५) अवि (११:२) अविज्जा (६19) अविहेडए (१५1१५) असंख अनंत (३६ १३,१४) असमाणो (219) असमंजसं (४199) असीहि (१६५५) असंख्यं (४19) असंतो (१४19८) असंविभागी (१७ 199 ) अस्संजमम्मि (३१।१३ ) अह कालम्मि संपत्ते ( ५1३२ ) अहक्खायं (२८।३३) अहस्सिरे (११1४ ) अहाउयं (२६॥७३) अहीवेगंतदिट्ठीए (१६३८) अन (४२७) अहेऊहिं (१८५१) अहे वयइ (६।५४) अहो ! वण्णो अहो ! रूवं (२०१६) (अ आइण्णे (११।१६ ) आइण्णे गणिभावम्मि (२७।१) आउं जाणे (१८१६) आउजीवा (३६८५) आउत्तया (१०/४०) आउयं नरए कंखे (७ 1७) आउ ( १६ सू० १) आएसं (७19) आगासे गंगसोउव्व ( १८ । ३६ ) आगंतु (२५।२० ) आधायाय समुस्सयं ( ५1३२) आणाइस्सरियं (२०।१४) आणाए (२८/२०) आणानिद्देसकरे (912) आभिओगं भावणा (३६।२५६ ) आभिनिबोहियं नाणं (२८१४ ) आयगुत्ते (१५1३, २१/१६) आमोसे (६।२८) आयगवेसए (१५1५) आययट्टिया ( २६ । ३४ ) आयरक्खिए (२1१५) आयरियपरिच्चाई (१७19७) टि० संख्या २१,२३ १७ ४ १३ २२ २२ २ १ २६ १० ३० २६ ३६ १ १८ H x W w w x १२ २३ ५३ २६ ४ x 6 x 6 6 ७१ २७ ४४ ३२ ४७ ४ ~ ~ 1 2 2 2a a w x x u n m 2 २५ ५ १८ १७ २४ १२ १ १ २६ १४ ५४ ८, ६ २२ ३ २७ ३ १२,२१ ३२ १५ ४६ २२ १६ ७०६ शब्द आदि आयरिया (२०२२) आयरियं (६८) आयाण (१३।२० ) आयाणं नरयं (६७) आयारं ( 9919) आयारधम्मपणिही (२३199) आयंकेण (५199) आरणगा (१४६) आराहए दुहओ... ( १७।२१) आराहिया दुवे लोग ( ८२० ) आरिअत्तं (१०।१६) आरिएहिं (८८) आरंभ परिग्गहेसु (१३1३३) आलवते... (१।२१) आलस्सएण (११1३) आलोएमाणस्स (१६० ४) आलोयण ( १६ 1४ ) आवट्ट जोणीसु (३५) आवसहा (१३19३) आससाए (१२1१२) आसीविसो (१२।२७) आसुरी भावणा (३६ । २५६ ) आसुर कार्य (३1३) आसुरियं दिसं (७190 ) आसुरे काए ( ८1१४) आसे जहा (४८) आहाकम्मेहिं (५1१३ ) आहारपच्चक्खाणे (२६।३६) आहारे (२६।३१-३४) इंगियागार (912) इंदनीले (३६/७५) इंदियचोर (३२ ।१०४) इंदियबलहाणी (१०।२०-२५) इडिगारविए (२७१६) (इ) इड्ढी (२।४४) इड्ढी जुई... (७।२७) इत्तरियम्मि (१०1३) इत्तिरिया (३०।६) इमे एए (२२।१६ ) इरियं ( ६।२१) इरियं रिए (२४८) इरियावहियं कम्म (२६/७२ ) इहेह (१४।४० ) ईसीपभार (३६।५७) (3) टि० संख्या १३ १८ १४ १५ 9 ७ १७ £ २६ ३६ ८ १५ २३ ३७ ३ ७ ७ ११ Τ २१ ३२ २७ ७ १८ २५ २० २२ ४८ २० ५ १५ १७ १५ १५ ८१ ३६ ३ २ २० २७ ५ ७० ३३ १४ परिशिष्ट ७ टिप्पण-अनुक्रम शब्द आदि टि० संख्या उफ्यूडुओं (१२२) उग्ग (१५१६) उग्गतवो (१२।२७) उच्चाराईणि वोसिरे (२४।१६-१८) उच्चावयाई (१२।१४ ) उच्चावयाहिं सेज्जाहिं ( २।२२ ) उज्जुकड (१५19) उज्जुकडा (१४१४१ ) (3) उज्जुजडा (२३ । २६ ) उज्जुपन्ना ( २३।२६) उड्ढ वत्थं ( २६ । २३) उत्तमट्ट ( ११1३२ ) उत्तमट्ठ (२०४६) उत्तमधम्म... (१०1१८) उत्तरगुणे (२६।८) उत्तराई (५।२६) उत्तिट्ठते (११।२४) उदग्गे (११।२० ) उद्देसियं (२०४७) उद्देसेसु दसाइण ( ३१ । १७ ) उप्फिडइ (२७।५) उभयस्संतरेण (१।२५) उम्मायं... रोगायंक... (१६ । सू० ३) उराला (१५1१४) उल्लंघणे (१७१८) उवचिट्ठे (१।२० ) उवजोइया (१२1१८ ) उववन्नो (६19) उववाइयं (५1१३) उववायकारए (१/२) उववूह (२८३१) उवसंतमोहणिज्जो (619) उवसग्गे (३१६५) उवहिं (१६८४) उवहिपच्चक्खाणं (२६।३५) उवेहे (2199) उवायओ (२३।४१) उदासगाणं पडिमासु (३१1११) उवेहमाणो (२१।१५) सीओ (ne) (ऊ) ऊणे वाससयाउए (७।१३) ए एए कंदंति... (६190) एक्को... अणुजाइ कम्मं ( १३१२३ ) एक्को वि. ( ३२१५) एक्को हु... (१४।४०) ३८ २० ३३ ११ २४ ३७ ३ ३५ १८ १८ १६ ४३ ३७ 99 ५ ४१ ३४ २६ ३५ ३२ ११ ४२ ५ २३ € ३६ २७ 9 २१ ४ २५ २ ४ ६० ४७ १८ २३ १७ १७ २४ २४ १६ १६ ६ ३२ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ १६ १८ उत्तरज्झयणाणि ७०७ परिशिष्ट ७: टिप्पण-अनुक्रम शब्द आदि टि० संख्या शब्द आदि टि० संख्या शब्द आदि टि० संख्या एग एव (२०१८) __करकण्डू (१८।४५) किण्हाए ठिई (३४ । ४८) २० एग डसइ पुच्छमि (२२।४) करणगुणसेढिं (२६७) १० किमेगरायं करिस्सइ (२।२३) ४० एगतमणुपस्सओ (61१६) करणसच्चेणं (२६॥५२) ६३ किरियं (१८।२३,३३) १३,२४ एगंतमहिट्ठिओ (६४) कलं अग्घइ सोलसिं (१।४४) किरियासु (३११७) एगंतरए (२६।३२) कलम्बवालुयाए (१९५०) किब्बिसिय भावणा (३६ । २५६) एगग्गमणसंनिवेसणयाए (२६ । २६) कलह (८१४) कीडं (१६) एग दवस्सिया गुणा (२८।६) कलहडमर (११।१३) कीयगडं (२०॥४७) एगपक्खं (१२।११) कलिना (५।१६) २४ कुच्च (२२।३०) एगविमाणवासी (१४११) कल्लाण भासई (११।२२) कुडुंबसारं (१४ ॥३७) एगवीसाए सबले (३१।१५) कल्ले (२०॥३४) २१ कुडु...भित्त (१६ सू० ७) एयं सिणाणं (१२।४७) कसायपच्चक्खाणेणं (२६।३७) कुतित्थि (१०।१८) एसणासमिओ...गवेसए (६।१६) कसिणं (२१।११) कुष्पवयणपासंडी (२३ । ६३) एस मग्गो (२८।२) कहं तं विहरसी (२३॥ ४०) १२ कुमारसमणे (२३ । २) कहं नाहो न विज्जई (२०१०) कुमुयं सारइयं (१०।२८) कहावणे (२०।४२) २८ कुम्मासं (८/१२) ओमचेलए (१२।६) काउस्सग्गेणं (२६।१३) कुवियं (११४१) ओमरत्ताओ (२६ । १५) कागिणिए (७।११) १६ कुस (१०।२) ओमाणभीरुए (२७। १०) कागिणिए हेउं (७।११) कुसग्गेण तु भुंजए (६।४४) ओमोयरियं (३ । १४) काणणुज्जाण (१६१) कुसला (१२३८) ओसहि (३२॥ ५०) कामकमा (१४।४४) ४० कुसीललिंग (२०१४३) ओहीनाणं (२८।४) कामगिद्धे (५४) कुहेडविज्जा (२०४५) ओहोवहोवग्गहियं (२४॥ १३). कामगुणे विरत्ता (१४।४) कूडसामली (२०३६) कामगुणेहि मुच्छिया (१०।२०) कूडाय (५५) कामभोगरसगिद्धा (८1१४) २४ केयणं (६।२१) कंखा (१६ । सू० ३) कामभोगेसु (५१५) केवलं बोहि (३१६) कंखामोह (२६।२१) कामरूव विउविणो (३।१५) २७ केसं (१७) कंटपागहं (१०॥३२) कामाणियट्टस्स (७।२५) केसलोओ य दारुणो (१९३३) कथए (११।१६) कामे पत्थेमाणा (६५३) ...केसाण (१६१२) कंदप्प भावणा (३६२५६) कायकिलेसं (३०।२७) कोइलच्छद (३४।६) कंदुकुंभीसु (१६४६) कायगुत्तयाए (२६।५६) कोउगामिगा (२३।१६) कंपिल्ले (१३१२,१८19) कायठिई (३६ । ८१) कोडीसहिय (३६।२५५) कंबोयाणं (११११६) कायट्टिइ...भवडिइ (१०।५-१४) कोऊहल (२०४५) कक्कर (७७) कायसमाहारणयाए (२६ । ५९) कोत्थलो (१६४०) कडाण कम्माण न मोक्ख... (१३।१०) कालकंखी (६।१४) कोलसुणएहिं (१६५४) कणकुंडगं (१५) कालधम्मे उवट्टिए (३५। २०) कोलाहलगभूयं (६५) कप्पए (६२) कालपडिलेहणयाए (२६।१६) कोवियप्पा (१५ ॥१५) कप्पविमाणो (२६/१५) कालिंजरे नगे (१३।६) कोहं असच्चं (१।१४) कम्मं तु कसायज (३३ । ११) कालीपव्द (२३) कम्मं तु छद्दिसागयं (३३ । १८) कालेण कालं (२१११४) कम्मं नोकसायजं (३३/११) काले कालं समायरे (१३१) खंडिएहिं (१२।१८) कम्मकिब्बिसा (३५) कालो (२८।१०) १० खंतिक्खमे (२१। १३) कम्मणो हेउ (३।१३) काधोया जा इमा वित्ती (१९३३) खंतीए (२६ । ४७) कम्मलेसाणं (३४।१) कासवो (२८।१६) खंधा य (३६ । ११) कम्मसंपया (१९४७) कासिभूमिए (१३१६) खज्जइ भुज्जई (१२।१०) कम्मसच्चा (७।२०) किं (१२॥३८) खड्डुया मे... (१३८) कम्माई महालयाई (१३।२६) किं नाम काहामि सुएण भंते ! (१७१२) खत्ता (१२१८) कम्माणं...आणुपुवी (३७) किं तवं पडिवज्जामि (२६।५०) २७ खत्तिए (१८१२०) कम्मारेहिं (१६।६७) किंनामे? किंगोत्ते? (१८१२१,२२) खत्तिओ (३।४) कम्मुणा (२५।३१) किंपागफलाणं (१६।१७) १५ खत्तिय (१५ १६) कम्मुणो हेउं (६।१४) किच्चाई (१।४४) खमावणयाए (२६।१८) कयकोउयमंगलो (२२।८) १० किच्चाण (१।१८) ३२ खलाहि (१२७) २८ २२ ११ Jain Education Intemational Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७०८ परिशिष्ट ७: टिप्पण-अनुक्रम शब्द आदि टि० संख्या शब्द आदि टि० संख्या शब्द आदि टि० संख्या खलुंके (२७।३) ७ घोरपरक्कमा (१४ १५०) जत्थ तत्थ निसीयई (१७।१३) खिंसई (१७।४) घोरपरक्कमो (१२।२३) जन्न (२५॥ ४) खुडुए (३२।२०) घोरबओ (१२।२३) जमजन्नंमि (२५ । १) खुरधाराहिं (१९५६) घोरा मुहुत्ता (४६) जयं अपरिसाडियं (१३५) खेत्तं (३।१७) घोरासमं चइत्ताणं... (६।४२) जरोवणीयस्स (४१) खेमं (२३ । ८०) जलकते (३६ । ७६) खेयाणुगए (१५।१५) जवणट्ठाए (३५ । १७) खेलमि (८1५) चउदसरयण (११।२२) जवणट्ठाए (८/१२) खेल्लंति जहा व दासेहिं (८१८) चउकारणसंजुत्तं .. (२८1१) जवसं (७१) चउरिदिय (३६।१४५) जसो कामी (२२।४२) चंडाल (३।४) जहानायं (२३ । ३८) गंठिभेए (६२८) चंडालियं (११०) जहा न होई असुयाण लोगो... गंठियसत्ताईयं (३३। १७) चंपाए (२१।१) (१४८,६) गंड (८१८) चक्कवट्टी (१११२२) गंधणा (२२। ४३) जहाम8 (२५।२१) चक्खुस्स रूवं (३२।२३) गंधहत्थिं (२२। १०) जहा लाहो तथा लोहो (८१७) चक्खुफासओ (१३३) गग्गे (२७।१) जहा सुणी... (१४) चत्तारी कामखंधाणि (३/१७) गण (१५६) जहासुत्तं (३५।१६) चरमप्पमत्तो (४।१०) गणहरे (२७।१) जहासुहं (१७१) चरिया... (२१) गमिस्सामो (१४।२६) जहाहियं (२०१२३) चाउज्जामो पंचसिक्खिओ (२३ । १२) गरहणयाए (२६/८) जाइविज्जोववेया (१२।१३) चाउप्पायं (२०।२३) गलिगद्दहा (२७।१६) जाईजरामच्चु (१४।४) चाउरंतं (२६/२३) गलियस्स... (१९३७) चाउरते (११।२२,१६।४६) जायखंधे (११।१६) गलियस्स...आइण्णे (१।१२) चारित्तं (२८।३२) जायणजीविणु (१२।१०) गवल (३४ । ४) चिंता (२३। १०) जायाई (२५।१) गहणत्थं (२३।३२) चित्त ! धणप्पभूयं (१३ ॥१३) जायाए घासमेसेज्जा (८।११) गाढा य विवाग कम्मुणो (१०१४) चित्ता (६।१०) जाया य पुत्ता (१४।१२) गाणंगणिए (१७।१७) चीर.. (५।२१) जाव सरीरभेओ (४।१३) गामकंटगा (२२५) चेइए वच्छे (ENE) जिच्चा (२१) गामे पल्ली (३०।१६) जिणदिट्टे (२८।१८) गारत्था संजमुत्तरा (५।२०) जीवा गच्छंति (३४ । ६०) गारवाणं (३१।४) छउम (२१४३) जीवा चेव । (३६ । २) गारवेसु (१६।६१) छक्के आहारकारणे (३१।८) जीवाजीवविभत्ति (३६।१) गाहासोलसएहिं (३१॥ १३) छविपचाओ (५।२४) जीवाजीवा तहिया नव (२८।१४) गिद्धि (३२।२४) छाया (२८।१२) गिहिसुब्बया (७।२०) छिन्नं सरं भोमं.. (१५७) जीवियंतं तु संपत्ते (२२ । १५) गुणाणं तु सहस्साई (१६।२४) छन्नसोए (२१।२१) जीवो उवओगलक्खणो (२८।१०) गुणाणमासओ दव्वं (२८ । ६) छिन्नाले (२७।७) जुगमित्तं (२४।७) गुणोह... (१४।१७) छिन्नो (१६५४) जुवराया (१६२) गुत्तीओ (२४ । २०-१६) छेओवट्ठावणं (२८।३२) जे केई सरीरे...सव्यसो (६ ११) गुरुकुले (११।१४) जेट्ठामूले (२६ । १६) गुरुपरिभावए (१७।१०) जे संति... (५।२८) जइत्ता...भोइत्ता... दच्चा (६३८) गुरुविद्ध (३२१३) जोइसंगविऊ (२५॥७,८) जइ मुच्चेज्जा...पचए अणगारियं गेहिं सिणेहं (६४) जोगक्खेमं (७१२४) (२०१३२,३३) गोच्छगं (२६ । १३) जोगनिरोहं (२६/७३) जं किंचि (४७) गोपुरट्टालगाणि (६।१८) जंबू (११२७) जोगपच्चक्खाणेण (२६ । ३८) गोमेज्जए (३६७५) जक्ख-सलोगय (५।२४) जोगवं (११।१४) गोयं कर्म (३३ । १४) जक्खा (३।१४) जो मग्गे कुणई... (६।२६) गोयरम्ग (२।२६) जगनिस्सिएहिं... (८१०) जो सक्खं...धम्मं कल्लाण पावगं (२।४२) जणओ (२२८) जोगसच्चेणं (२६।५३) घयसित्त ब्व पावए (३।१२) जण्णट्ठी वेयस (२५ । १६) जोगेसु (३१।२०) Jain Education Intemational Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि शब्द आदि (झ झाएज्ज एगगो ( 9190) झाणं (३०।३५) झाणाणं च दुयं ( ३१।६) (ठ ठाणा (५/१२) ठाणं किं मन्नसी ( २३८०-८३) ठाणेसु य समाहिए (३१।१४) ठाणेहिं (११1३) (ढ ढंक (१६१५८) (ण) गाणं मिच्छर (२३ । ३३) पहाणं (२०२६) (त तओ काले... (५1३१) तंतुजं (२।३५) तं नाणं जिणसासणे (१८३१,३२) तं बिंतऽम्मापियरो (१६४४) तज्जणा (१६।३२) तणफास ( २।३४) तप्पच्चइयं कम्म (२६ / ६३) तमं तमेणं (१४|१२ ) तवं खंति... (३८) तवो बाहिरब्धंतरो (३०।७) तवोवहाण... (२।४३) तस्स क्वपमोक्खं ( २५ ।१३ ) तहाभूएण (५1३०) ताई (८४) तालउड (१६।१३) तालणा (१६।३२ ) तिंदुरुक्खवासी (१२।८) तिगडुयस्स (३४।११) ... तिगिच्छगा (२०२२) तिगुत्तं ( ६।२० ) तिण्णो हु सि... तीरमागओ (१०।३४) तित्थधम्मं अवलंबइ ( २६ । २०) तिण्हमन्नयर (५।३२ ) तिन्नि वणिया (७।१४-१६) तिरीडी (६।६०) तुच्छ (४।१३) तुवर (३४ ।१२) तेएण ( १८190) तेइंदिय (३६।१३६) टि० संख्या तेउजीवा (३६।१०८) 6 x 1 २१ १५ १६ २८ २६ ३ ४४ २० १७ ५० ON MOON! ६५ २३ ३० २१ ६३ ६८ १३ १३ 9 ७७ १२ ४८ 19 x 8 m w m u 2 2 2 2 N u μ x 9 x or u ७ १२ २१ १३ ६ १३ २६ २४ २७ ५५ तिव्यचंडप्पगाढाओ घोराओ (१७।७२ ) ४६ तीयपडुप्पन्नं ( २६ । १३) २५ ४८ १६ ३४ ७ ४ २१ १६ शब्द आदि तेऊए (३४।५२) तेगिच्छं ... ( २।३३) ७०९ तेत्तीसासायणासु ( ३१।२० ) तेवीस सूयगडे ( ३१ ।१६ ) तेसिं विमोक्खणट्ठाए ( ८1३) तोत्तगवेसए (१।४३) तोत्तजुत्तेहिं (१६।५६ ) थ भा (११1३) थद्धे (११।२) थवथुइ (२६।१५) थिरीकरणे (२८ । ३१) थुइमंगल ( २६ । ४२ ) थेरे (२७19) थेरेहिं ( १६ सू० १) द दंड (१९६१) दंडाणं (३१1४ ) दंडेण फलेण (१२1१८ ) दंतसोहणमाइस्स (१६/२७ ) दंसणपरीसह (२।४४, ४५) दंसणविसोहि (२६।१०) दढधम्मे (३४।२८) दप्प (१६ |६) दमीसरे (१६२) दमेयव्वो (१1१५) दया (२०४८) दयाए (१८३५) दयाकंध (२१।१३) दयाधम्मस्स खतिए (५1३०) दवदवस्स चरई ( १७।८) दव्वओ खेत्तओ (३६ । ३) दव्वं (२८।८) दसंगे ऽभिजायई ( ३।१६) दसणे ( १३१६ ) दास-पोरुसं ( ३।१७) दासपोरुसं (६५) दिगिंछापरिगए (२।२) दित्तरुवे (१२।६) दिवपणट्टे (४।५) दिव्वजुयल ( २२।६) टि० संख्या दसबंभचेरसमाहिठाणा ( १६ सू० १) दस रुइओ (२८ । १६ ) दसारचक्केण (२२।११) दसुया मिलेक्खुया (१०/१६) दाणिसिं (१३/२० ) दयारमन्नं अणुसंकमंति (१३।२५ ) दारुणा ( २।२५,६७) दारुणा ( E1७) २२ ६२ ३६ २६ ५ ६३ ४० ~ ~ * ~ * ~ ~ ३ २ २० २५ २६ २ २ 0 1 2 3 2 ६१ १ २६ १७ ८२ १५ १२ १० ४ २६ ३६ २६ १४ ४७ ८ ४ ६ २६ ४ ३ १७ १३ € १३ २० ४४, १२ १२ २६ ११ २ w 4 ६ 99 परिशिष्ट ७ : टिप्पण-अनुक्रम टि० संख्या ३३ २२ शब्द आदि दीहम (२६ । २३) दीहमद्धाणं (६।१२ ) दुक्ख (२।३२, ३२।७ ) दुक्खमा हु (२०1३१ ) दुगुंछमाणो (४।१३) दुप्पूरए इमे आया ( ८1१६) दुमपत्तए पंडुयए ( 9019) दुम्मुह (१८१४५) दुरासयं ( 919३ ) दुरासया (991३१) दुल्लहाणीह (३19) दुवालसंग पवयणं ( २४ । ३) दुस्साहर्ड (७१८) दुस्सील ( १1४ ) दुहओ वि विरायइ ( 99192) दुल (७३) देवगंधव्य (१1४८ ) देवयं (७।२१) देवलोएसु (३1३) देसियं (२६।३६) दोगुछी (२।४,६७) दोगुदगो (१६।३) दो (१२।४६) दोसपओसेहिं (८२) दोसमेव (२७।११) धण (१६।२६) धणपयणपरिग्गहाओ (१२।६) धणियं (१३।२१) धणेण किं धम्मधुराहिगारे ( १४ १७ ) धमणिसंतए (२३) धम्मं च पेसलं नच्चा... अप्पार्ण (८।१६) धम्मज्जियं ( १।४२ ) धम्मत्थिकाए (३६ । ५) धम्मल (१६८) धम्मसद्धाए (२६।४ ) धम्मसुक्काई झाणाई (३० । ३५) धम्माओ भंसेज्जा ( १६ सू० ३) धम्मो कित्ती तहा सुयं ( 9919५) KAAL घ धम्माण कासवो मुहं (२५।१६) धम्मो अहम्मो (२८१७) धारेउं अ महप्पणी (१६।३३) धारेज्जा... (9198) धिइमं (१६।१५) धिई ( ३२ । ३) धुत्ते (५1१६) धुयकम्मंसे (३1२० ) धुवगोयरे (१६८३) धुवे (१६।१७ ) धूमणेत्त (१५/८ ) ५६, ८ १६ ३६ २८ १ २८ २५ ४१ 9 ३ १३ १० २२ ६ ७५ ३२ ७ २५ ६, १६ ५ ५० ३ १६ १६ १५ १५ १७ ५ ३५ ६६ ६ 99 २ १५ H x x x x u 1 x 6 w x २४ २४ २८ २५ ५६ १४ १८ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि शब्द आदि नगरमंडले (२३ । ४) नगिणिणं (५129) नंदिघोसेणं ( 9919७) नक्खत्त (११।२५ ) नक्खत्तं ( २६ । १६-२० ) न करेज्ज छहिं चेव ( २६ । ३३-३४) नग्गई (१८१४५) नट्टेहि (१३/१४) न नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं ( २८ । २६ ) न दीसइ जाइविसेस कोई (१२।३७) न पक्खओ न पुरओ... (१1१८) नमी नमेइ अप्पाणं ( ६ 1६१) नमी नमेइ... पज्जुवडिओ (१८१४४ ) नमी राया (१८१४५ ) न मे दिट्ठे... (५1५) न य पावपरिक्खेवी (११।१२ ) न य वित्तासए पर (२।२० ) न यावि संजए (२१/१५) नरसु वेयणा ( १६ |४७-७३) न संजए (२१।२० ) न संतसंति मरणंते (५।२६) न संतसे (2199) न सव्व एज्जा (२१।१५) नाइउच्चे न नीए वा (१।३४) नाइओ ... बंधवा (१३1२३) नाइवेलं विहन्नेज्जा (२।२२) नाणसंपन्नयाए ( २६ ६० ) नाणासीला (५।१६) नाणुतप्पेज्ज पण्णवं (२।३६) नानागोत्तासु जाइसु (३/२) नापुट्ठो... ( 919४) नामं कम्म (३३ । १३ ) नायज्झयणेसु (३१।१४ ) (190) नाल (६४६) नावकखे कयाइ वि (६।१३) नासीले न विसीले (9914) नाहो (२०१६) टि० संख्या निअए (१६/१७) निगमे (२1१८) निक्कंखिय (२८।३१) निज्जाइ (८६) निज्झायमाणस्स (१६ सू० ४) निमोक्ख (२६ । १८ ) निद्धंतमलपावगं ( २५ / २१ ) निस (३४ । २२) निप्पडिकम्मया ( १६ १७५) निमेरिय (१२।२६) नियम (१६।५) २६ ३५ १३ २१ ३ ३३ २८ १० २४ ४० ३३ ४६ २७ २८ १० १७ ३५ १६ ३२ २३ ४६ १६ १८ ५४ १८ ३८ ६७ २६ ७१ ५ २६ ३ २५ ३६ ४३ २५ ५ ६ १४ २८ २५ १७ ७ १२ १६ १० ५१ ३६ ८ ७५० शब्द आदि ... नियमेहि (२०४१) नियमव्यए ( २२ ।४० ) नियागं (२०४७) नियाणं (१३19) नियाणछिन्ने (१५19) निरंगणे (२१।२४) निरट ( १/२५) निरद्वाणि (१८) निरामिसा ( १४।४१ ) निरोवलेवाइ (२१।२२ ) निव्वाणं (३।१२) निव्वाणमुणावहं ( १६ ।६८) निव्वावारस्स (६194) निव्विसय (१४।४८ ) निसंठे (१1८) निसम्म (१६६७) निसामित्ता हेऊकारण... ( ६ Ic ) निसीहिया... (२२०,२१) निसेज्जं (१७१७ ) निस्संसो ( ३४ । २२ ) निस्संकिय (२८|३१) नयावत्ती ( 99190) आउयं ( ३६ ) नेयाउयं मग्गं (७ । २५) नेव कुज्जा परिग्गहं ( २।१६) नेव ताणाय तं तव (१४।३६) नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा (१४ 1१६) नो इत्थीणं कह ( १६ सू० ४) प पइण्णवाई (991) परिस(२२३) पएसग्गं (३३।१७) पंकभूया उ इत्थिओ (२1१७) पंकेण... रएण (२।३६) पंचकुसीले ( १७।२०) पंचमं कुसतणाणि (२३।१७) पंचविहं नाणं ( २८ । ४) पंचविहमंतराय (३३ । १५) पंचहिं संवरेहिं ( १२ ।४२ ) पंजरे ... ( १४:४१ ) पंजलिउडो (१1४१) पंत (१५१४) पंताणि चेव सेवेज्जा ( ८1१२ ) टि० संख्या पंतोवहिउवगरणं ( १२।४) पंसुपियायभूए (१२।६) पक्खपिंड (919) पक्खिहिं (१६।५८) पक्खी पत्तं समादाय... ( ६ 1१५) पकप्पम्मि (३१।१८ ) पगाढा जत्थ वेयणा (५1१२ ) २६ ३१ ३५ २ ४ ३० ४३ ३६ २८ १६ ६६ २० ४२ १८ ६८ १३ ३६ ६ ११ २५ १२ १५ ३७ ३१ ३० १६ ६ १० ३६ ६ २६ ६६ २४ १४ ३ ५ ४५ ३४ ६५ १४ २० ४ ६ ३४ ४५ ३१ ३४ २० परिशिष्ट ७ टिप्पण-अनुक्रम शब्द आदि टि० संख्या पच्चवायए (१०1३) पच्चुप्पन्नपरायणे (७६) पच्छा (१४।२६) पच्छा उइज्जति (२।४१ ) पच्छाणुतावए (१०।३३) पज्जवाण (२८।६) पज्जवाणं तु लक्खणं ( २८ । १३) पट्टिसेहि (१६।५५) पट्ठ (५1१) पडिक्कमणेणं ( २६ । १२) पडिच्छन्नंमि (१1३५) पडिणीए असंबुद्धे (१1३) पडिणीयं च बुद्धाणं (919७) पडिपुच्छणयाए (२६।२१) पडिबुद्धजीवी (४।६) पडिमं (२१४३) पडिरूवं पडिवत्तिं (२३।१६) परिरुवण्णू (२३।१५) पडिरुवाए (२६।४३ ) पडिरूवेण (१1३२) पडिलेहणापमत्ता ( २६ ३० ) पडिलेहा (२६ । १६ ) पडिलेहित्ता ( २४ ।१४) पडिजले (२।२४) पडिलीणे (११।१३) पडिसंधए (२७।१) पणवीसभावणाहिं (३१।१७) पणामए ( २२ । २०, १६७६) पणीयं (१६। सू० ६) पण्णापरीसह (२।४०, ४१ ) पत्तिएण (१1४१ ) पत्तेगससीरा (३६ । ६४ ) पत्थं (१४।४८ ) पन्नवओ (७:१३) पन्ने (१५१२) पबंध (११1७) पभावणे (२८।३१) पभीओ.. अप्पणी (५199) पभूयमन्नं (१२।३५) पमाएणं (११1३) पम्हा ( ३४ | ३ ) याई (३४३०) पयाहिणं ( २०१७ ) परंदमे (७६) परकेणं (३४।१४) परगेहंसि वावडे (१७19८) परज्झा (४।१३) परपासंड ( १७।१७) परमं ( २।२६) परमंतेहिं (१८।३१) परमट्ठपएहिं ( २१ । २१ ) ४ १५ २१ ७३ २३ ६ १५ ३६ ३ १७ ५६ Ε ३१ २६ १२ ७८ १३ १२ ५४ ५२ १६ १० १०,४ ४२ १६ ६ ३१ २३, ५५ € ७२,७४ ६५ १८ ४१ २२ १० ७ २५ १८ ३६ ३ २ १४ JONOV 2 با १० २२ ३५ २० ४८ २१ २७ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि परिशिष्ट ७: टिप्पण-अनुक्रम शब्द आदि टि० संख्या शब्द आदि टि० संख्या शब्द आदि टि० संख्या परमाहम्मिएसु (३१ । १२) पुढवीजीवा (३६।७१-७७) बहूणं बहुगुणे (६६) परलोगे (२२।१६) पुण्णाई (१३।२१) बारगाओ (२२।२२) परिग्गह (१६२६) पुरंदरे (११।२३) ३३ बालगवी (२७/१२) परिग्गहारंभनियत्तदोसा (१४।४१) पुराणपुरभेयणी (२०१८) बालग्गपोइयाओ (६२४) परिजूरइ (१०।२१) पुरिमतालम्मि (१३१२) बालस्स...धीरस्स (७।२८,२६) परितावेण (२॥३६) पुरिमस्स पच्छिमम्मी (२३ । ८७) बावत्तरि कलाओ (२१।६) परिदाहेण (२८) पुलए (३६।७६) बावीसाए परीसहे (३१ १५) परिन्नाय (४७) पुलागं (८१२) बाहाहिं संगोफ (२२।३५) परियागयं (५।२१) पुवकम्मखयहाए इम... (६।१३) बुद्धपुत्त नियागट्ठी (१७) परिभोयंमि चउक्क (२४ । १२) पुव्वमेवं (४।६) बुद्धे (११।१३) परियट्टणा (२६।२२) पुवसंजोग (८२) बुद्धोवघाई न सिया (१।४०) परियायधम्म (२१ । ११) पुव्वाइं वासाई (४।८) बेइंदिया (३६ । १२७) परिवाडीए न चिठेज्जा (१।३२) पुव्वा वाससया बहू (३।१५) बोहिलाभं (१७१) परिवूढे (७६) पुबिल्लम्मि समुट्ठिए (२६।८) बोही (८।१५) परिहारविसुद्धीयं (२८।३२) पूइदेह... (७।२६) बोक्कसो (३।४) पलिउंचंति (२७1१३) पेज्जदोसमिच्छादसण (२६।७२) पलियमसंखं (३४ । ४६) पेसलं (८१६) पल्हत्थियं... (91१६) पोएण ववहरते (२११२) भंडगं (२४ । १३) पवयणं (२६।२४) पोत्थं (२०१६) भंडयं (२६।८) पवाले (३६१७४) पोरिसिं (२६।१२) भंडवालो (२२ । ४५) पसन्ना (१६४६) पोरिसी (२६ । १३) भएसु (१९६१) पसीयंति (१।४६) पोसह (५।२३) भगवं (२१११०) पहं महालय (१०३२) पोसहरओ (४२) भत्तपच्चक्खाणेणं (२६ । ४१) पहाणमग्गं (१४।३१) पोसेज्ज एलय (७१) भद्दा (२२ । १७) पहाण (२११२१) भयट्ठाणेसु सत्तसु (३१।६) पागारं (६१८) भयभेरवा (१५ ॥१४) पाडिओ (१९५४) फणग (२२।३०) भयवं (६२) पाढवं सरीरं (३।१३) भयवेराओ उवरए (६६) फरुसा (२०२५) पाणं (१२।११) भरहो...महाबलो (१८३४-५०) फालिओ (१९५४) भल्लीहिं (१९५५) पाणी नो सुप्पसारए (२।२६) फलिहे (३६ १७५) पायच्छित्तं (३०।३१) फासा फुसंती (४।११) भारुडपक्खी (४६) पाली महापाली (१८२८) फिट्टई (२०।३०) भावणाहि य सुद्धाहिं (१६६४) पावकम्मेहि (४२) फोक्कनासे (१२६) भावसच्चेणं (२६।५१) भासं भासेज्ज (२४ । ६-१०) पावगं परिवज्जए (१।१२) भासइ पावगं (११८) पावसुयपसंगेसु (३१1१६) पाविओ (१६५७) बंध (१६।३२) भिक्खाए...कम्मई... (५१२२) भिक्खायरियं (३०। २५) पावियाहिं दिट्ठीहिं (८७) बंधू (१८।१५) भिक्खुधम्म (२०२६) पास (४१२) बंभगुत्तीसु (३१। १०) भिक्खु धम्मम्मि (३१ । १०) पासइ वज्झगं (२१।८) बंभणो (२५ । ३०) भिक्खूणं पडिमासु (३१ । ११) पासंडा (२३ । १६) बंभम्मि (३१।१४) भुंजते मंससोणियं (२०११) पासजाईपहे (६२) बल... (६४) भुयमोयग (३६।१५) पासाएसु गिहेसु च (६७) बलसिरी (१६२) भूइपन्ना (१२।३३) पासे (६।४, २३।१) बहवे परिभस्सई (३६) भूयग्गाम (५८) पिंडस्स पाणस्स (६।१४) बहिंविहार (१४ १४) भूयगामेसु (३१।१२) पिंडोलए... (५।२२) बहिंविहारा (१४ ११७) भूयत्थ (२८ । १७) पिंडोग्गहपडिमासु (३१।६) बहिया उड्ढमादाय (६।१३) भेयं (१६ सू० ३) पियायए (६६) बहु (८/१५) भेयं देहस्स कंखए (५३१) पिहुंडं (२११२) ५ बहुमए...मग्गदेसिए (१०।३१) २० भोइ ! (१४ ॥३२) पुच्छ भंते ! (२३ ॥ २२) १७ बहुस्सुए (११1१५) २३ भोइय (१५६) पुज्जसत्थे (१९४७) ७१ बहुहा बहुं च (१४।१०) १२ भोगामिस (८५) Jain Education Intemational Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७१२ परिशिष्ट ७: टिप्पण-अनुक्रम टि. संख्या (म टि० संख्या शब्द आदि २५,६१ रुई (२८।१६) ५७ रुक्खमूले (३५। ६) १४ रूवाहिएसु सुरेसु (३१ । १६) ३३ रूविणो चेवरूवी (३६ । ४) रोगपरीसह (२।३२) रोगेण (११॥३) २६ रोज्झो (१९५६) १६ ११ ५७, १६ ८ १३ शब्द आदि टि० संख्या शब्द आदि भोगा...विसफलोवमा (१६११) मिउमद्दव (२७। १७) भोय "वहिणो (२२।४३) मिगचारियं (१९८१) मिगे (३२ । ३७) मिच्छा दंडो... (६।३०) मंतं (१५८) मिय... (१९७६) मंथु (८/१२) मियाइ पुत्तस्स (१९६७) मंदरे गिरी (११।२६) मियाण (११।२०) मंदाय (४/१२) मिहिलाए डज्झमाणीए (६१४) मंदिए मूढे (८५) मुंडिणं (५।२१) मंदिरं (६/१२) मुणी (१२।१, २५१३०) मंसट्ठा (२२ । १५) मुणीण (१४८) मग्गं (२६ । १७) मुण्डरुई (२०४१) मग्गगामी (२५१२) मुसं...आहारिणिं (१।२४) मणइच्छियचित्तत्थो (३०। ११) मुसंढीहिं (१८६१) मणगुत्तयाए (२६।५४) मुहं (२५।११) मणनाणं (२८।४) मुहपोत्तियं (२६ । २३) मणसमाहारणयाए (२६ ५७) मुहरी (१४) मणसीकरे (२।२५) मुहाजीवी (२५ । २७) मणस्स भावं (३२ । ८७) मुहुत्तद्धं (३४।३४) मणिरयण (१६४) मुहुत्तहिया (३४ । ३४) मणुस्सदेव सोग्गईओ (२६।५) मेत्तिज्जमाणो वमइ (११७) मद्दव (२६।५०) मेयन्ने (१८।२३) मर्म (११।४) मेहावी (२६) मम्मयं (१२५) मोणं (१४७,१५1१) मयंगतीरे (१३६) मोह (३२।६) मयेसु (३१।१०) मरणंतमि सोयई (७६) मोहगयस्स (१६७) मोहगुणे (४।११) मरिहिसि... (१४१४०) मोहट्ठाणेसु (३१।१८) मलपंकपुव्वयं (१४८) मलावधंसी (४७) मोही भावणा (३६ । २५६) मसारगल्ले (३६।७५) महया (१८१८) महाजयं (१२१४२) रई (१६६) महाजसो (१२।२३) रई (५५) महाणुभागो (१२।२३) रक्खसीसु (८1१८) महानिज्जरे .. (२६।२०) रक्खेज्ज (४।१२) महापन्ने (५१, २२ । १५) र8 (१८२०) महापाणे (१८२८) ...रयणो (२०१२) महारंभ (७।६) रसगारवे (२७।६) महारण्णम्मि (१६७८) रसट्टाए (३५। १७) महासिणाणं (१२।४७) रसविवज्जणं (३०।२६) महासुक्का (३।१४) रसापगाम (३२|१०) महेसी (४।१०) राओवरयं चरेज्ज (१५२) माणुसत्तं (३१) रागद्दोस (१४।४२) माणुसत्तंमि...जो धम्म... (३।११) रागो (२८/२०) मा पमायए (४19) रायरिसिंमि (६५) मायानियाण सल्लाणं (२६।६) सयलक्खणसंजुए (२२।१) मासे मासे गवं दए (६।४०) रायवेट्टि (२७। १३) माहण (६६) राया रज्जं तु हारए (७।११) माहण विप्पो (२५ ॥ १) रिट्टग (३४।४) मिए (१५) १३ रुइ (१८३०) ११ २८ १८. लक्खणं (८।१३) लक्खणस्सर (२२।५) लज्जू (६।१६) लहुदक्खोववेया (१।१३) लहुभूयविहारिणो (१४।४४) लाढे (२०१८) लाभंतरे... (४७) लाभो...अलाभो... (२।३०,३१) लुचई केसे (२२।३०) लुप्पंति बहुसो मूढा (६१) लूहं (२६) लेसज्झयणं.... (३४।१) लेसाणं परिणामो (३४।२०) लेसासु (३१/८) लोगं पि एसो... (१२।२८) लोमहरिसं (५।३१) लोमहारे (६२८) लोलयासढे (७।१७) लोहियक्ख (३६।७५) (व व (१३।३१) वइगुत्तयाए (२६।५५) वइदेही (६६१) वइर (३६।७३) वइरवालुए (१९५०) बइसमाहारणयाए (२६।५८) वएसु (३११७) वंकजडा (२३।२६) वंजणलद्धिं (२६।२२) वंतं आवेउं (२२ । ४२) वंदणएणं "णिबंधइ (२६/११) वच्छल्ल (२८।३१) वज्जभीरू (३४।२८) वज्जरिसहसंघयणो (२२।६) वज्झमंडणसोभागं (२१।८) वणचारिणो (३६।२०५) वण्ण बहुमाणयाए (२६।५) वणस्सईजीवा (३६।६२) वहिपुंगवो (२२ । १३) वत्थ पडिलेहा (२६ । २४-२८) . AWAl Jain Education Intemational Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७२३ परिशिष्ट ७: टिप्पण-अनुक्रम २५ ५१,५२ शब्द आदि टि० संख्या शब्द आदि टि० संख्या शब्द आदि टि० संख्या वत्थु (३।१७) विव (१६५७) __४३ संतरुत्तरो (२३ । १३) वद्धमाणगिहाणि (२४) विवित्तलयणाइ (२१।२२) २६ संतितित्थे (१२।४५) वयणप्पभूया (१३।१२) विवित्तसयणासणं (३०।२८) १०,४१ संतिमम्गं (१०॥३६) वरं मे... (91१६) विवित्ताहारे (२६।३२) ४२ संथवं (१५१) वरिससओवमे (१८२८) विवेगमेउं (४।१०) संथवे (२१।२१) वल्लराणि (१६८०) विसओववन्नो (२०४४) संथारए अणाउत्ते (१७।१४) वह (१६।३२) विसभक्खीणि (२३। ४५) संधिमुहे (४३) वहपरीसहे (२।२६,२७) विसमसीला (४१६) संधीसु (१।२६) वहमूलिया (७।१७) विसारए (२७।१) संपन्ने (१२) वाउजीवा (३६ । ११७) विसालिसेहि... (३।१४) २६ संभोगपच्चक्खाणेणं (२६।३४) वाडेहिं पंजरेहिं (२२ । १४-२२) विसूइया (१०।२७) संमुच्छिमा य मणुया (३६ । १६५) वाणमंतरा (३६ । २०४) विसोहिया (१० ॥३२) संलिहे मुणी (३६।२५०) वायणाए (२६।२०) विस्संभिया (३२) संलेहणा (३०। १२,१३) वारि जलुत्तमं (२३ । ५१) विहम्ममाणो (२७।३) संविग्गो (२१६) वारेज्जा (२०११) विहारं (१४७, २६ । ३५) संवरबहुले (१६ सू०१) वासिट्टि ! (१४२६) वीयरागयाए (२६ । ४६) संवेगेण निव्वेएणं (२६।२-३) वासीचंदणकप्पो (१९६२) वीरजायं (२०४०) २५ संवुडे (१३५) वाहिन्तो (91१६) वुक्कसं (८।१२) संसारचक्कस्स (१४ १४) वाहीरोगाण (१८१४) बुग्गहे कलहे (१७/१२) सकवाई (३५ । ४) विउला सिक्खा (७१२१) वुच्छामु (१३।१६) सकम्मसेसेण (१४२) विउले देहे आएसं परिकंखए (७१२) वुसीमओ (५।१८) वेमायाहिं सिक्खाहिं (७।२०) सकाममरणं (५।२,३) विउस्सग्गो (३०।३६) सक्कार पुरस्कार (२३८) विधइ (२७।४) वेयणिज्जे ठिई (३३ । १६-२०) सच्चरए (११५) वेयणीयं (३३।७) विकोविए (२११२) सच्चसोय... (१३) विगईओ (१७।१५) वेयवियाऽयरक्खिए (१५२) सज्झाएणं (२६/१६) विगयभया (१२) वेयावच्चं (२६।४४) ५५,१३ सज्झाओ पंचहा (३०।३४) वेयावडिय (१२।२४) विगलिंदियया (१०।१७) सट्ठिहायणे (११।१८) विगहा (३१।६) वेराणुबद्धा (४२) सढे (५६) वेरुलिए (३६।७६) विगिंच (३।१३) वेसं (१।२८) सद्द (२८/१२) विगिट्ठ तवं (३६।२५४) सद्धा (३।१,६) वेसालिए (६।१७) विचित्तं तवं (३६ । २५२) वोच्चत्थे (८५) विज्जा (१८३१) सन्नाणं (३१६) वोछिंद सिणेहमप्पणो (१०।२८) सन्निरुद्धमि आउए (७।२४) विज्जाणुसासणं (६।१०) वोदाणेणं (२६।२६) सन्निहिं च न...लेवमायाए (६।१५) विज्जुसोयामणिप्पभा (२२।७) वोसट्टकाओ (१२।४२) सपेहाए (६४) विणओ (३०।३२) सब्भावपच्चक्खाणेणं (२६। ४२) विणओ... (१७19) समचउरसो (२२।६) विणयं (919,१८।२३) संकरदूसं परिहरिय (१२।६) समणं (२२७) विणयजुत्तस्स (१९२३) संका (१६ सू० ३) समण मुणी (२५। ३०) विणियट्टणयाए (२६।३३) संखचक्कगया (११।२१) समणो बंभणो (२५।३०) वितिगिच्छा (१६ सू० ३) संखया (४।१३) समणो संजओ बंभयारी (१२।६) वित्तेण ताणं... (४५) संग (१८५३) समयं (१३५) विपरियासुवेइ (२०४६) संगहेण य थावरे (२५। २२) समयखेत्तिए (३६७) विप्पसण्णं (५।१८) संगो...इथिओ (२०१६) २४ समरेव (२।१०) विप्पसीएज्ज (५३०) संघाडि (५।२१) ३३ समरेसु (१।२६) विप्पा-दिया (२५१७,८) संघायणिज्जे (२६।६०) ६७ समागओ (२७।१५) विमाहाइं (५।२६) संचिक्ख (२॥३३) ६१ समाहिजोएहिं (८१४) वियडस्सेसणं (२४) संजमबहुले (१६ [सू०१) ४ समाहिबहुले (१६ । सू०१) वियारे (३२ । १०४) संजले (२०२६) ४७ समिए (८६) विरई अबंभचेरस्स (१९२८) संजोगा विष्पमुक्कस्स... (919) १ समिद्धा (१२७) विरओ (२।४२) संतत्तभावं परितप्पमाणं (१४।१०) ११ समियदंसणे (६४) ४ , (स) म 0 0 . 30 Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७२४ १६ لنا له و سه به م शब्द आदि टि० संख्या शब्द आदि समुच्छिन्नकिरियं (२६/७३) सासयवाइयाणं (४६) समुद्दगंभीरसमा (११।३१) सासणे विगय... (१४ ।५२) सम्मत्तांगानि (२८१३१) सारहिं (२२।१५) सयंगणे (७१) सायागारविए (२७।६) सरई पोराणियं जाई(६१) सिंबलिपायवे (१६५२) सरिसो होइ बालाणं (२१२४) सिक्खा (११३) सरीरपच्चक्खाणेणं (२६ । ४०) ५० सायासोक्खेसु (२६।४) सरीरस्स भए (४६) सिक्खा (११३) सलिला (११।२८) ३८ सिक्खासीले (१११४) सल्लं कामा... (६५३) सारही (२७।१५) सल्ल (१६६१) सावए (२१४१) सल्लाणं (३१।४) साहसिओ (२३ । ५५) सव्वं नट्ट विडंबियं (१३१६) साहारणसरीरा (३६ । ६३) सव्वं विलवियं गीयं (१३।१६) ११ सिणाणं (१५१८) सव्वं सव्वेण बद्धगं (३३ । १८) सिद्धाइगुण (३१।२०) सव्वं से....किंचि अजाइयं (२०२८) ५३ सिद्धाणं नमो...भावओ (२०११) सब्बकम्मविनिमुक्कं (२५ । ३२) सिद्धाण संथव (२६।५१) सव्वकामियं (२५॥७,८) ६ सिद्धा णेगविहा (३६ । ४८) सब्वगुणसंपन्नयाए (२६। ४५) सिद्धिं सोग्गइं (२६।५) सव्वठेसु... (३५) सिरसा सिरं (१८५०) सव्वत्था (१८।३०) सिवं (२३।८०) सव्वदिसं (६।१२) सिसुणागु ब्व... (५।१०) सव्वधम्माणुवत्तिणो (७।२६) सीएण फरुसेण (१।२७) सव्वबले (१०।२६) सीओदगं (२।४) सव्वभवेसु अस्साया (१६७४) सीय (२६) सबभावविभावणं (२६ । ३६) सीया नीलवंतपवहा (११।२८) सब्वे आभरणा भारा (१३।१६) सीयारयणं (२२।२२) सव्वे ते दुक्खसंभवा (६१) सील (१५) सब्बोसहीहि (२२१६) सीलगुणोववेया (१३ ॥१२) ससंकप्पविकप्पणासो (३२ । १०७) सीलड्ढं (१६५) सहसंबुद्धो (ER) सीलवंता सवीसेसा (७१२१) सहसम्मुइ (२८।१७) सुइचत्तदेहो (१२।४२) सहसावत्तासियाणि (१६।६) सुई (३।१) सहस्सं (७।११) सुकडं (२०१६) सहस्सक्खे (११।२३) ३२ सुकडे ति... (१३६) सहायपच्चक्खाणेणं (२६। ४०) ५१ सुक्कलेसाए (३४|४६) सहिए (१५ ॥१) २ सुणियाऽभावं (१६) सागरंतं (१८३५) सुत्तं अत्यं... (१९२३) सामाइएणं विरई (२६TE) सुत्तत्थ तदुभयाइं (२६।२१) सामाइयत्व (२८।३२) सुत्तेसु (४१६) सामाइयाणं कोट्ठागारे (११।२६) सुदिट्ठ (१२।३८) सामुदाणियं (१७११६) सुपिवासिए (२५) सामायारी (२६ ॥ १-७) सुपेसलाई (१२।१३) सायं नो परिदेवए (२३६) ६८ सुमज्जिओ (१९३४) सासए (१६ ११७) सुयक्खायधम्मस्स (६४४) सासर्य (२६) ३१ सुयनाणं (२८।४) परिशिष्ट ७: टिप्पण-अनुक्रम टि० संख्या शब्द आदि टि० संख्या २३ सुयणू (२२।३७) ४४ सुयमहिछेज्जा (११३२) सुयस्स आराहणाए (२६ । २५) सुयस्स पुण्णा विउलस्स (११।३१) सुया (१२।४३) सुविण (८१३) ३ सुविणीयसंसए (११४७) सुसंभिया (१४॥३१) सुसंवुडो (१२।४२) सुसमाहिया (२३।६) सुसाणे (३५। ६) सुसाणे...रुक्खमूले (२।२०) सुहमेहए (६३५) सुहसाएणं (२६ ३०) ३७ सुहुमं तह संपराय (२८।३२) १ सुहोइए (२११५) सूरकते (३६।७६) १२ सूरो (२।१०) सेओ (१८।४८) सेओ अगारवासु त्ति (२।३६) २८ सेज्जापरीसहे (२१२३) सेयाले (२६।७२) सेलेसिं (२६ । ६२) सेल्लि (२७१७) सेसावसेस (१२।१०) सोगंधिए (३६ १७६) सोरियपुरम्मि (२२।१) सोवागकुल (१२।१) सोवीर (१५ ॥१३) है सोहि बहिया (१२३८) सोही उज्जुयभूयस्स (३।१२) ३० २४ ५८ १८,१६ हंसगब्भ (३६१७६) हट्ठतुट्ट (१८१६) हिणाइ वेयाल (२०४४) हढो (२२॥ ४४) हत्थागया... (५६) हत्थिणपुरम्मि (१३११) हरा (१४।१५) हरिएसबलो (१२।१) हिच्चा (७८) हियनिस्सेसाए (८३) हियमप्पणो (१६) हिरण्णं सुवण्णं (६४६) हिरिमं (११।१३) हुयासणे (१६४६) २५ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ८ शब्द-विशेष शब्द अ. टि० शब्द अ. टि० शब्द अ. टि० शब्द अ. टि. अंग १५ । १६ -सविचार ३०।४ असत्य भाषण दोष ११४१ आसनयोग ३०१६ अंगविद्या ___८/२१ -अविचार ३०।४ असमाधि-स्थान ३११२६ आसुरी भावना ३६।२७ अंतक्रिया २६।२१ -निर्हारि ३०।४ असमान १२।३० आसुरीय दिशा ७/१८ अंतरकाल ३६ | १६ -अनिर्वारि ३०।४ अस्पृशद्गति २६/७२ आहार-प्रत्याख्यान २६।४८ अंतराय कर्म ३३।५ -सपरिकर्म ३०।४ अहिंसा (दया) १८।२६ इंगित-आकार ११५ अंधक २२।१४ -अपरिकर्म ३०।४ आएस ७।१ इंगिनी ३०।४ अंधकार २८।१३ -अधिकारी ३०।४ आकाशगंगा १६।२६ इंगिनीमरण ५ का आमुख अंशधर १३ । १७ अनुत्कषायी २।७०, १५।२८ आकीर्ण (श्रेष्ठ अश्व) ११।२५ इंद्रनील ३६।१५ अकर्मभूमिज ३६ । २३ अनुत्तर १३ । २४ आचार-प्रकल्प ३१।३४ इत्वरिक १०।३, ३०। १२ अकलेवरश्रेणि (क्षपक श्रेणि)१०।२६ अनुप्रेक्षा २६।३२ आचार-भंडक २६ । २२ इषुकारीय १४ का आमुख अकामकाम १५।६ अन्तःशल्यमरण ५ का आमुख आचार्य आषाढ २।८२ ईर्यापथ ६।२७ अकाममरण ५४ अन्तरिक्ष (निमित्त) १५ १६ आज्ञा २८।२२ ईषत्-प्राग्भारा ३६।१४ अकिंचनता २६/५६ अन्त्यकाश्यप २५।१३ आज्ञानिर्देशकर २११३ उग्र १५१२० अकुत्कुच २।३३ अन्तर्वीपज ३६।२३ आतंक ५। १७ उग्रतपस्वी १२।३३ अक्रियावाद १८/१३ अपरिकर्मयोग ३०१६ आत्म-गवेषक १५/१५ उग्रसेन २२८ -आठ प्रकार १८।२४ अप्काय ३६ | १७ आत्मगुप्त १५। १२ उत्कटुक ११३८ अक्ष ५।२३ अप्रतिबद्ध २६। ४० आत्म-प्रश्नहा १७।१३ उत्तमार्थ २०।३७ अगंधन सर्प २२।३५ अमोघा १८ । २० आत्मप्रसन्नलेश्य १२। ४६ उत्तरगुण २६।५ अगार २१४५ अरण्यवासी १४।६ आत्मरक्षक १५६ उद्देशक ३१।३२ अगारधर्म २६।४ अरति २।२३ आत्मावगाहन १२।४, २४।६ अग्निकाय ३६ । १६ अरति (रोग) १०।१७ आत्यन्तिकमरण ५ का आमुख उपधान २।७७ अचपल ११।१३ अरिष्टनेमि २२ गा०४ आदान ६।२५, १३ । १४ उपधि १२।४, १६।६० अचेलक २।२०, २३ । १० अरूपी-रूपी ३६।५ आदिकाश्यप २५। १३ उपधि-प्रत्याख्यान २६।४७ अजीव-देश ३६।३ अर्थ १२।३७ आभरण १३।११ उपसर्ग ३१।४ अज्ञातैषी २१७० अर्थधर्मगति २०१२ आभियोगी भावना ३६।२७ उपाय २३।२३ अज्ञान : मोह ३२१२ अर्थपद १०।२८ आभोष ६।३२ उपाश्रय २।३६ अज्ञानवाद १८।१३ अल्पेच्छ २१७० आयतार्थिक २६।४६ उपासक प्रतिमा ३१1१७ अट्टालक ६।२३ अवग्रह-प्रतिमा ३१। १२ आयुष्मन् १६.१ उपासना-फल २६।३८ ८।१३ अवधारिणी ११४१ आरंभ १३।२३ उपेक्षा २।१८ अधोमालापहृत ११५४ अवधिमरण ५ का आमुख आर्जव २६।६० उपोसथ ५।३७ अद्धा ३४ । १७ अवमचरक ३० गा० २४ आर्य ८।१५ उरभ्रीय ७का आमुख अध्यवसान १६।१० अवमौदर्य ३०।५ आर्यत्व १०।८ उराल ५।२३ अध्यात्म ६।१२ अविद्यावान् ६१ आर्यवचन २५/१५ उस्सूलग ६।२४ अध्यात्म ध्यान-योग १६।६५ अविहेटक १५।२६ आलकंदक . ३६।१५ ऊर्ध्वमालापहृत ११५४ अध्वासमय ३६१७ असंबुद्ध ११८ आवीचिमरण ५ का आमुख ऋजुकृत १५३ अनंतघातिपर्यव. २६/१२ असंयम ३१।२३ आशातना ३१।३६ ऋजुजड २३।१८ अनगारगुण ३११३३ असंविभागी १७/१२ आशीविष ६।४६ ऋजुप्रज्ञ २३।१८ अनगार-मार्ग-गति ३५ का आमुख असंस्कृत ४ का आमुख आशीविषलब्धि १२।३२ ऋद्धि २११ अनशन ३०।४ असत् १४।१८ आसन १७।६ एकपाक्षिक १२।१६ अतर Jain Education Intemational Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७१६ परिशिष्ट ८: शब्द-विशेष एकलविहार ३२।६ काल २८/१० गंधहस्ती सेचनक १।३० छविपर्व ५।३८ एकांतदृष्टि ६।२७ काल-प्रतिलेखना २६।२३ गणना ३६।१० छात्र १२।२८ एकांतरत २६।४३ कालिंजर नग १३।४ गति २६।७२ छाया २८।१४ एकाग्रमन २६।३७ कालीपर्व २ गा०३ गमनयोग २४।५, ३०।६ छिन्न (विद्या) १५।१६ एषणा ३०१७ काले कालं ११५० गर्गगोत्रीय २७।१ जलकान्त ३६।१५ ओघ उपधि २४।८ काश्यप २५।१३ गलीगर्दभ २७।२४ जातस्कंध १११२८ औपग्रहिक उपधि २४ । ८ किंपाक फल १६।१५ गाणंगणिक १७।२१ जातिपथ कंटकापथ १०।२१ किल्विषिकी भावना ३६ । २७ गाथा-षोडशक. ३११२२ जातिविशेष १२।४० कंथक ११।२५ कुटुंबसार १४।२८ गीत १३।११ जातिस्मृति १६ कंदुकुंभी १९।३३ कुतीर्थिक १०।१२ गुण २८॥५ जीव-लक्षण २८।११ कणकुंडग १।१२ कुप्रवचन २३।२७ गुप्ति (परिणाम) २६।६६ जीवाजीवविभक्ति ३६ का आ० कदलीघातमरण ५ का आमुख कुमारश्रमण केशी २३ का आ० गुरुकुल १११२० ज्ञातपुत्र ६।३६ कम्मार १६।४८ कुल्माष ८।२० गृद्धपृष्ठमरण ५का आमूख ज्ञाता-अध्ययन ३११२५ करकंडु १८।२८ कुशतृण २३।१४ गृहस्थ सामायिक ५।३६ ज्ञानपंचक २८।३ करणगुणश्रेणि २६। १० कुशल १२। ४३ गृहिसुव्रत ७।२८ ज्ञान-संपन्नता २७।६७ करणसत्य २६।६३ कुशील वेश २०।३० गोचराग्र २१५४, ३०।७ ज्येष्ठा-मूल (नक्षत्र) २६।११ कर्मग्रन्थिविमोचन २६७० कुहेटविद्या २०।३३ गोत्रकर्म २३।४ ज्योतिषांगविद् २५/८ कर्मणा जाति २५ गा० ३१ कूटशाल्मली २०।२२ गोपुर ६।२३ ढंक १६।४४ कर्म-परमाणु ३३६ कृत ५।२२ गोमेदक ३६।१५ तत्प्रत्ययिक २७।३८ कर्मप्रकृति ३३ का आमुख कृत्य १1३२ गौरव १६।६१ तद्भवमरण ५का आमुख कर्मभूमिज ३६।२३ कृष्णलेश्या ३४ । २० ग्रन्थिभेद (गिरहकट) ६।३२ तथ्य (त्त्व) २८1१६ कर्मलेश्या ३४ का आमुख केवलिमरण ५ का आमुख ग्रामकंटक २।४४ तप (बाह्य-आभ्यन्तर) ३०।१ कर्म-संपदा १।७३ केशर (उद्यान) १८ गा०३ घोरपराक्रम १२।३०, १४ । ४३ तपोमार्ग गति ३० का आ० कर्मसत्य ७।२८ केशलोच १६।२३ घोरमुहूर्त १६। १३ तमंतम १४ । १३ कलह-डमर ११।१६ केशी-गौतमीय २३ का आमुख घोरव्रत १२।३० तालपुट (विष) १६।१२ कलि ५१२४ कोटिसहित तप ३६।२६ घोराश्रम ६।३८ तिन्दुक १२।१३ कल्प ६।६ कोत्थलो १६।२६ चंडाल ३८ तिन्दुक २३ गा० ४ कषाय-प्रत्याख्यान २६।४६ कोलशुनक १६।३६ चंपा २१।१ तीर्थकरपद २६५५ कांक्षा मोहनीय २६/३० कोविदात्मा १५।२५ चतुरंगीय ३ का आमुख तीर्थधर्म २६।२७ काकजंघा २।४ कोहं असच्चं ११२७ चन्द्रशाला ६।३० तृणस्पर्श २।६३ काकिणी ७।१६ कौतुक-मंगल २२|१० चपेटा १।६० तोत्र १६।४० कानन उद्यान १६।१ कौत्कुच्य ३६।२७ चरणविधि ३१ गा० १ त्यक्तमोह १२।४५ कान्दी भावना ३६।२७ क्रिया ३१।६, १६ चर्या २। ३२ त्रायी ८७ कापिलीय ८ का आमुख क्रियावाद १८/१२ चांडालिक ११२० त्रेता ५१२४ कापोतीवृत्ति १६।२२ क्रीडा १1१६ चातुरंत ११/३१ दंड ३१1१ कामकम १४ । ४० क्लेश ५।१२ चातुर्याम धर्म २३।८ दंडविद्या १५1१६ कामगृद्ध ५।६ क्षत्रिय ३८,६ चार दृष्टियां ३६।४ दमन ११२६ कामनिवृत्त ७।३६ क्षमा १६।२५ चारित्र-पांच प्रकार २८।२६ दमीश्वर १६४ कामभोग ५।७ क्षान्ति २६।५८ चारित्र-संपन्नता २७।६७ दयाधर्म ५१४७ कामरूप ३।२७ क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय ६ का आमुख चिकित्सा २१६२ दयानुकम्पी २११४ कामस्कंध ३।२६ क्षेत्रावगाहन ३६।६ चित्र १४ का आमुख दर्शन (परीषह) २।८२ कायक्लेश ३०।६ खलुक २७।७ चित्रसंभूतीय १३ का आमुख दर्शन-विशोधि २६/१५ कायगुप्ति २४।१२ खलुंकीय २६ का आमुख चैत्यवृक्ष ६।१४ दर्शन-संपन्नता २७।६७ कायसमाधारणा २७।६६ खेदानुगत १५१२४ चोल्लक ३।२ दशांग ३।२६ कायस्थिति १०।६, ३६ । १६ गंधन सर्प २२।३५ चौदह रत्न ११।३१ दशार्ण १३।४ कायोत्सर्ग २६।१८, ३०।१६ गंधहस्ती २२।१२ छद्म २|७६ दसारचक्र २२।१३ कार्षापण ७।२० गंधहस्ती (आचार्य) २४।१३ छद्मस्थ मरण ५ का आमुख दस्यु १०।८ Jain Education Intemational Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरायणाणि दास दास - पौरुष दिगिंछा दुक्ख दुराशय दुःशील दृप्तरूप देव देवकी देवगंधर्व दोगंछी कोवग दोस (कर्मरज) दोष-प्रदोष द्रव्य द्रुमपत्रक द्वापर भुतांग धुरी धूमनेव पूर्ण धृति धृतिमान् ध्यान -चार प्रकार ध्रुव ध्रुवगोचर नंदिघोष द्वारका द्विज द्विमुख द्वैध- राज्य धर्म-अधर्म (अधिकार) धर्मलब्ध धर्मश्रद्धा धर्मार्जित धुतकर्माश नक्षत्र नग्गति नग्न नमि ३।२६, ८।३३ निदान नमि-प्रव्रज्या नाट्य नाथ नारकीय वेदना निगम नित्य ३।२६ निदानछिण्न २।२ निद्रामोक्ष निरंगण नियम २।५६ १।२५ 9190 १२ । ६ ३१ । ३० २२ गा० २ १।७५ २।६, ६।१६ ८। ३ २८ ।४ १० का आमुख ५ । २४ २२।२५ निशांत निषधा निष्कामजीवी १६।५ १२ ।५० निष्प्रतिकर्मता नीनवंतप्रवहा १४ । १० १८ | २८ निरामिष निर्वाण निर्वाणगुण निर्वेद २०१६ १६।३२ २।२८ १६ । ४ नैर्यातृक पंचकुशील पंचशिक्षात्मक धर्म पंडितमरण पक्षपिंड पट्टिस पथ्य २२ का आमुख २८।७ १६ | ११ २६।२ १ |६६ ३ । ३१ ३५।२ परिदाह ५।२३ परिपाटी (पंक्ति) १५ | १८ परिभोगेषणा ५। २५ परिष्ठापन परिषह प्रविभक्ति पर्याय पर्याय- आगत पर्यायथर्म पल्हत्थिका पनकमृत्तिका परकोटा परमाधामिक २।८२ १६ । १३ १।२१, ३०।१५ ३०।१५ १६ । १४ १६।५६ ११।२६ ११।३५ १६ । २८ पाप - श्रमणीय प्रणीत ६ का आमुख पापश्रुत-प्रसंग ५।३३ १८ । २८ १३।१० पार्थिव शरीर पार्श्व परमार्थ पद परिग्रह ७१७ पार्श्वपत्यीय पालित पाली १३।२ १५ । ४ २६ । १२ २१।३० पिहुंड २०।२६ १४ । ३६ ३।१६ १६ । ६६ पाशक पाषंड पिंडोलक १।३४ पात्र उपकरण २६ । १५ पादपोपगमनमरण ५ का आ० पादोपगमनमरण पाप-परिक्षेपी ५ का आ० ११ । १७ १७ का आ० १६।६ पुक्कस पुण्यक्षेत्र पुलक (मणि) पुल्कस पुष्कस २६।१ १।१८ पूज्यशास्त्र पूतिकर्णी २ । ३६ २५।१६ पूतिदेह १६।५१ पूर्वजन्म की स्मृति ११३८ पृथ्वीकाय ३।१५ १७ । २४ २३।८ ५ का आमुख १ । ३४ १६ । ३६ १४ । ४१ ३६ । १५ प्रतिबुद्धजीवी ६ । २२ ३१।२१ २१ । २७ १३ ।२३ २।१२ १।५१ २४ ।७ २४ । ११ २६ । ४१ २८ । ६, १५ ५।३२ पोत-व्यापार पोषध पौरुष प्रज्ञा प्रज्ञावान् प्रतिच्छन्न प्रतिक्रमण प्रतिमा प्रतिरूपज्ञ प्रतिरूपता प्रतिलेखना - दोष -काल -अंग प्रतिलेखनीय प्रतिसंलीनता प्रत्यनीक प्रत्युपन्नपरायण २१।१३ प्रत्येकबुद्ध प्रदक्षिणा प्रदेशाग्र प्रधानमार्ग प्रधानवान् प्रमादस्थान प्रवचन माता प्रवाल ३१।३५ प्राणी प्रान्त ३।२२ प्रान्त्य प्रायश्चित्त २१ का आमुख प्रायोपगमन २३ गा० १ २३ का आο १८ ।१७ प्रासाद परिशिष्ट ३।२ २३ । १६ ५।३४ २१।५ ३।८ १२।२३ ३६ । १५ ३।८ ३।८ १।७१ १।६ ७ । ३८ ६।३ ३६ । १५ २१।४ ५ । ३७ २६ / ६ २।७२ प्रासुक फोक्कनास बल (सेना) बलश्री बहत्तर कला बहिर्विहार ८ शब्द - विशेष बहुश्रुत बहुश्रुतपूजा बालपंडितमरण बालमरण बुक्कस बुद्ध बुद्धपुत्र बोधि ७ । २२ १ ५६ २६ । १७ ४ । १२ २।७८ २३ । १२ २६।५४ २६ । ४ २६ गा० २६ २६ । ४ २६ । १८ २६ । ४ ३० | १० ११८ ७ । १५ ८ का आमुख भिक्षु प्रतिमा २०।५ भित्ति भुजमोचक ३३।६ १४।२६ २१ । २५ ३२ का आο २४ ।१ ३६ । १५ ३१।२० ८।२० १२ । ४ २६।१३, ३० । ११ ५ का आ०, ३० । ४ १३।८ भद्रा भयभैरव भयस्थान भल्ली बोधिलाभ ३१ ।२४ ब्रह्मचर्य -समाधिस्थान -भी मुक्तियां १६ का आ० - दस स्थान १६ का आ० १६ का आο - दस नियम १६ का आ० -नाश के कारण १६ ।५ ब्राह्मण २५ । १,७ भक्तप्रत्याख्यान २६।५२,३० । ४ भक्तप्रत्याख्यानमरण ५ का आ० १२ का आ० १५ । २२ ३१।१३ १६।३६ भवतृष्णा भवस्थिति भारण्डपक्षी भूत भूतिप्रज्ञ भृगु भोइ भोग भावना (पीस) भावसत्य १।५४ १२।७ ६।६ १६।२ २१।७ १४।५ ११ ।२३ ११ का आ० ५ का आ० ५ का आ० ३१८ १ गा० ८,४०,४२ १।१७ ३।३० १७।१ भोगामिष भोजराज भौगिक भौम मंद मूढ मंदर पर्वत २३ गा० ४८ १०।६ ४ । १४ ३१।३१ २६।६३ ३१।१८ १६ | ८ ३६ । १५ EIE १२ । ३८ १४ का आ० १४ । २७ १५।२० ८८ २२ । ३४ १५ | २० १५ ।१६ ८।१० ११।३६ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७१८ परिशिष्ट ८ : शब्द-विशेष ३११३ २१७ मुनिधर्म मदस्थान ३१।१४ योगक्षम ७।३४ वागसमाधारणा २६।६६ शयनयोग ३०।६ मनोगुप्ति-चार प्रकार २४ । १२ योगनिरोध २६।७२ वाणव्यंतर ३६।२४ शय्या(वसति) २१४१ मनःसमाधारणा २६।६५ योग-प्रत्याख्यान २६/५० वाणी-विवेक २४।६ शरीर-प्रत्याख्यान २६४० मरण ५ का आ० योगवान ११।२१ वायुकाय ३६।२० शरीरभेद ४।३७ मरणविभक्ति ५ का आ० योग-संग्रह ३१।३८ वासीचंदणकल्प १६।६२ शल्य मर्मक १।४४ रथनेमीय २२ का आ० वासुदेव २२ गा०८ शांतितीर्थ १२।४८ मलावध्वंसी ४।१८ रसपरित्याग ३०।८ वास्तुविद्या १५/१६ शांतिमार्ग १०।२७ महानिर्जरा १६।२८ रस-विवर्जन ३०८ विक्रथा ३११५ शाल्मलि(वृक्ष) १६।३७ महानुभाग १२।३० राजन्य १५/२० विकलेन्द्रिय १०।१० शाश्वत १६।१४ महापर्यवसान २६।२८ राजर्षि ६८ विकृति १७/१७ शिक्षाशील १११४ महापाली १८।१७ राजवेष्टि २७१२१ विकृष्ट तप ३६।२६ शिक्षित अश्व ४।२० महाप्रज्ञ २० का आ० राजीमती २२ गा० २६ विचित्र तप ३६।२६ शिशुनाग ५।१६ महाप्राण १८।१५ राम(बलराम) २२ गा०२ विद्यानुशासन ६।२० शीतोदक महाशुक्ल ३।२५ रुचि १८ | १६ विनय(तप) ३०। १२ शील १११४ महैषी ४।२६ -दस २८ । १७ विनय ११२ शीलगुण १३।७ मार्ग २६।२४ रूक्ष २।१० विनयवाद १८।१३ शीलांगगुण १६।१६ माहण ६।१० रूप(संख्या) ३१1३० विपुल शिक्षा ७।२६ शुक्ललेश्या-स्थिति ३४।१८ मिथ्यादंड ६।३३ रूपिणी २१ गा०७ विप्र २५। १७ शैलेशी २७।६७ मुंडरुचि २०।२७ रोग २१५८ विप्रसन्न ५।२८ श्रद्धा-चिकित्सा २०।२० मुखवस्त्रिका २६ । १५ रोझ १६।४१ विमात्र शिक्षा ७।२८ श्रमण २१५० २।४९ रोहिणी २२ गा०२ वियड २८ श्रुताराधना २६।३६ मुसुण्डि १६। ४७ लक्षण १५।१६ विविक्त आहार २६। ४२ श्रुति ३।३ सृगचर्या १६।५७ लक्षणविद्या ८।२१ विविक्त शयनासन २६४१ श्वपाक १२।१ मृगचारिका १६।५७ लघुभूतविहारी १४।३६ विवेक ४।२५ श्वेत(राजा) १८।२६ मृगापुत्रीय १६ का आमुख लाढ २१२७ विश्वभृत ३.६ संकरदृष्य १२।१० मृतगंगा १३।४ लाभ-अलाभ २।५७ विसूचिका १०।१८ संकल्प ६४४ मृदु-मार्दव २६६१ लाभान्तर ४।१६ विहार १४।५, २६।२३ संक्लिष्ट भावना ३६।२७ मेधावी २।१३ लिंगप्रयोजन २३ गा० ३२ वीतरागता । २६।५७ संख्या ३६।१० मेयज्ञ १८।१२ लेश्या-अध्ययन ३४ का आ० वीरासन ३०। गा० २७ संग १८।३४ मोक्षमार्ग २८।२ लेश्या-परिणाम ३४।६ वृक्षमूल २।३४ संग-असंग २६।४० मोहगुण ४।२८ लोक २८ । ८, ३६।२ वृत्तिसंक्षेप ३०१७ संघाटी ५।३३ मोहनीय कर्म ३३।२ लोमहर्ष ५।५१ वृषीमान् ५।२७ संघातनीय २७।६७ मोहस्थान ३१॥३६ लोमहार ६।३२ वृष्णि २२।१४ संजयीय १८ का आमुख मौन १५१ वंदना २६/१६ वेद २५। १३ संज्ञा ३११६ म्लेच्छ १०।६ वक्रजड २३ । १८ वैडूर्य ३६ । १५ संधि ११४५ यक्ष ३।२४ वज(हीरा) ३६।१५ वैदेही ६।५० संधिमुख ४॥७ यज्ञ २५।५ वज्रऋषभसंहनन २२५ वैयाप्रत्य १२।३१ संभूत १४ का आमुख यज्ञीय २५ का आ० वजबालुका ६।३५ वैयावृत्य ३०।१३, २६।४४ संभोज-प्रत्याख्यान २६।४५ यथाज्ञात २१५५ वणिक् ७।२५ वैशालिक ६।३७ संयमबहुल २७३ यमयज्ञ २५।३ वध परीषह २१५२ वैहायसमरण ५ का आमुख संयोग १११ यशा १४ का आमुख वध्यमंडन २११८ व्यंजन संलेखना ३०। ४, ३५। ६ यष्टिविद्या १५। १६ वनस्पति ३६ । १८ व्यंजन लब्धि २६।३१ संवरबहुल १६।४ याचनजीवी १२ । १७ वर्द्धमानगृह ६।२६ व्युत्सर्ग ३०। १६ संवृत ११५६ याचना २।५३ वलन्मरण ५ का आमुख व्युत्सृष्टकाय १२।४५ संवेग २६/१ यायाजी २५।२ वल्लर १६।५६ शतघ्नी ६।२४ संसारचक्र १४।४ युगमात्र २४।४ वशार्त्तमरण ५ का आमुख शवल ३१।२७ संस्तव १५५ युवराज १६।३ वाग्गुप्ति(चार प्रकार) २४॥ १२ शब्द २८/१२ संस्थान ३६।११ Jain Education Intemational Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि सकाममरण सत्कार सत्य र-पुरस्कार सद्भाव प्रत्याख्यान भिक्षुक समचतुरस्त्र समण समयक्षेत्र समर समाधिमहुल समिति-आठ समुच्छय समुद्रपाल समुद्रपालीय समुद्रविजय सम्मूच्छिम मनुष्य सम्मोहा भावना सलिला (नदी) समाधियोग ५ का आमुख २।६६ १ । ४५ १६ । ४ स्पृशद्गति २४।२ ५।५४ स्स्रुव २१ गा० ४ स्वप्नविद्या २१ का आमुख स्वयं संबुद्ध २१ गा० ३ ३६ । २२ ३६ । २७ हंसगर्भ सम्यक्त्व-पराक्रम २६ का आ सम्यग्दर्शन- आठ अंग २८।२५ हट (वनस्पति) सर्वदर्शी १५।११ हर (काल) ११३८ हरिकेशबल ८।२३ हरिकेशीय हिंकार हित निःश्रेयस् हिरण्य-सुवर्ण हैहय स्तुति-मंगल ६ ।५ २६।५३ १५ का आ० २२।६ २५।२० ३६ | ८ सहस्रचक्षु सहाय प्रत्याख्यान सांतरूत्तर साता ११ । ३२ २६।५१ २३ । ११ २।६८ २६ का आमुख सामाचारी २६।१ सामाजिकों का कोष्ठागार ११।३६ सामुदानिक सामाचार १७ । २३ २७ । २३ सारथि (आचार्य) साहसिक २३ । २६ सिद्ध ( चौदह भेद, पन्द्रह भेद) ३६ । १२ सिख के आदिगुण सिद्धस्तव ३१ । ३७ सिद्धि गति सीता सुआख्यात धर्म २६ । २८ २६/८ ११ । ३८ ६।४० सुकृत सुपक्व सुहृत सूर्यकान्त सेल्लि सेवाल सोवीर स्त्रीकथा १६ | ६ स्थंडिल (चार प्रकार) २४ गा० १६ स्थविर २७ । २ ५।१६ २।२४३,२४४ ३०।६ स्थान स्थान (आसन) स्थानयोग स्थूलभद्र स्नान स्वच्छंद विहारी स्फटिक मणि स्वर - सप्तस्वर, स्वरोदय स्वस्मृति ( जातिस्मृति) स्वाध्याय पर्वत कालिंजर कैलास नीलवंत मंदर रैवतक समुद्र रत्नाकर स्वयंभूरमण नदी १।५८ गंगा १५८ मृतगंगा ११५८ वैतरणी सीता ७१९ ३६ |१५ उद्यान २७ । १४ २६।७० केसर १५ | २१ कोष्ठग २६।२० तिंदुक २६ । २६ मंडिकुक्षी वर्गीकृत शब्द आवास उच्चोदक कल्क १६।१६ गोपुरट्टालक १५ | १६ १७ । ३ २६ । ७२ २८।१८ ३० । १४ ३६ । १५ २२ । ३६ १४ । १६ १२ का आ० १२ का आ० ८। १८ ८ । ४ ८ ।४२ १५ | २० ३६ । १५ १२ । ४७ ८ २१ वर्द्धमानगृह शून्यागार ६।५ १५ ।१६ १३।६ ६।४८ ११।२८ ११।२६; १६।४१ २२।२२-३३ १६ १४२ ११।३० सिक्के कार्षापण काकिणी १६।३६, ३२ ११८ १३१६ १६ १५६, २०१३६ ११।२८ १८ १३४ २३८ २३१४, १५ २०१२ प्रासाद ब्रह्म बालाग्रपोतिका मधु लयन शस्त्र अंकुश असि इन्द्राशनि कल्पनी करकच करवत्त कस कुहाड खुर गदा चक्र क्षुरिका दंड धनु पट्टिस फसु भल्ली मुद्गर सुसंधी मूसल वज्र वेत्र संडास शतघ्नी शूल धातु और रत्न अंक अंकन अभ्रपटल अभ्रबालुका अयस् इन्द्रनील २०१४२ ७।११ २२ ।४६ १६ १३७ २० २१ १६ १६२ १६ १५१ १६ ५१ १३ ११३ १३ |१३ ६।१८ १६ ॥४ १३।१३ ६।२४ प्रवाल पृथ्वी १३ ।१३ २२।३३ ६।२४ २।२० १२।१६ १६।६६ १६५६ ११।२१ ११।२१ १६ १६२ १२।१६ ६।२१ १६।५५ १६ १६६ १६।५५ १६ १६१ १८ १६१ १६ १६१ ११।२३ १२।१६ १६ १५८ ६।१८ १६ १५१ परिशिष्ट ८ : शब्द - विशेष ३४ ॥६ ३६ ॥७४ ३६ ॥७४ ३६ ॥७४ ३६ ।७३ ३६ ७५ उत्स उपल कंस गेरूक गोमेदक चन्दन चन्द्रप्रभ त्रपुक ताम्र पुलक फलिह भुजमोचक मनःसिला मरकत मसारगल्ल मुक्ता रूप्य रूचक लवण लोह लोहित वज्र वालुका वैडुर्य शर्करा सासक सिला सीसग स्वर्ण सूर्यकान्त सौगंधिक हंसगर्भ हरिताल हिंगुलुक हिरण्य वनस्पति अंबरी अतसि असन आलू इक्षु कंद कंदली कृष्ण कपित्थ ३६ ॥७३ ३६ ॥७३ ६. ।४६ ३६ १७६ ३६ ॥७५ ३६ ॥७६ ३६ १७६ ३६।७३ ३६ ॥७३ ३६ १७४ ३६ ॥७३ ३६ ॥७६ ३६७५ ३६ १७५ ३२६ ॥७४ ३६ ७५ ३६ १७५ ६।४६ ३६ ॥७३ ३६ ॥७५ ३६ ॥७३ १६ १६८ ३६ १७५ ३६ ॥७३ ३६ ।७३ ३६ ॥७६ ३६ ॥७३ ३६ ॥७४ ३६ ॥७३ ३६ ॥७३ ३६ ॥७३ ३६ ७६ ३६ १७६ ३६ ॥७६ ३६ ॥७४ ३६ ॥७४ ६॥४६ १६।५५ ७ ।११ ३६ १६६ २६ ६६ १६ १५३ ३६ १६८ ३६ १६७ ३६ १६८ ३४ ।१२ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि कालीपर्व किंपाक कुंद कुटुम्बक कुहक कूटशाल्मली केदकंदली खर्जूर जव (यौ) जावईकन्द निम्ब नीलाशोक पलंडु पद्म मुद्रिका मुसंडी मूलक रोहिणी लसुन लोहि वज्रकन्द सण सालि सिंगबेर सिंबली स्निहु सिरीली सिरीस सिस्सिरिली सहकर्णी सूरणक हट हस्तिपिप्पली हलिद्रा प्राणी अक्षिरोडक २३ १६ १७ ३४ १६ ३६ १६७ ३६ १६८ २०३६ ३६ ६७ ३४ ।१५ अक्षिल अक्षिवेधक ६।४६ ३६ ।६७ इन्द्रकायिक ३४ ॥१० इन्द्रगोपक अगुल्लक अन्धिक अरिष्टक अलस अश्व अहि आकीर्ण ३४ ॥५ ३६ १६७ २५।२६ ३४ १५ ३६ १६६ ३६ /६६ ३४ |१० ३६ १६७ ३६ १६८ कार्पासास्थिमिंजक ३६८ कामदुहानु ३४ १८ कापोत ६।४६ कृमि ३६ ।६६ कीट ३४ ॥११ ३६ १६७ उक्कल उद्दस उद्देहिका उरग ३६ ॥१४८ १६।५२ कुंकण ३६ | ६८ कुंच ३६ १६७ ओहिजलिया कंथक कच्छप काष्ठहार कुक्कुट ३४।१६ कुन्धु ३६।६७ कुटरी ३६ १६६ ३६ १६८ २२ ।४४ कुलल कोकिल कोल खलुंक गंधहस्ती गवल गाय ७२० ३६ ।१४८ ३६ ।१४७ ३६ ।१२६ ३६ । १४६ ३४ ॥४ ३६ ।१२८ २० ॥१४ ३६ ११८१ ११।१६ ३६ ॥१३८ ३६ ।१३६ ३६ ॥१३७ ३६ १३७ ३६ |१३७ ग्राह गृद्ध गुल्मी गोण (बैल) गोह चन्दन चर्मपक्षी चाष चित्रपत्रक जलकारी जलूक जालक डोल ढंक ढिकुण १४ ॥४७ ३६ । १४८ पुषमिंजक ११।१६ तन्तवक ३६ ।१७२ तृणहार ३६ । १३७ तिन्दुक दंश ३६ ॥१३८ २०३६ नंदावर्त्त १६ ॥३३ ३६ ।१२८ ३६ ॥१४६ ३६ ।१४६ १४ ॥३६ ३६ ११४७ ३६ ॥१३७ २०५० १४ ।४६ ३४ ॥६ १४।५४ भ्रमर २७ ॥३ भाखंड २२।१० भृंगारी ३४ १४ भुजंग ३४ ।१६ मकर नाग नीचक पत्राहारक पतंग पल्लोय पारेवय पिपीलिका पोत्तिका बलाका बिडाल 1 ३६ ।१७२ १६ १५८ ३६ |१३८ ६६ १०० ३६ ।१८१ ३६ ।१२६ ३६ |१८८ ३४ १५ ३६ ।१४८ ३६ ॥१४८ ३६ ।१२६ ३६ ।१२६ ३६ ।१४८ परिशिष्ट ८ शब्द- विशेष मत्स्य मक्षिका मशक महिष मागथ मातुवाहक मालुक मृग मूसक रोझ रोहितमत्स्य लोमपक्षि वराटक १६।५८ वृषभ ३६ । १४६ वासीमुख ३६ ११३८ विचित्र ३६ ।१४७ वृश्चिक ३६ ॥१३७ ३६ ११३८ विततपक्षी विरली विदंशक १६ ॥३१ ३६ ।१४७ १४।४८ ३६ ।१४८ शुक ३६ ।१३७ सदावरी ३२।२४ समुद्गपक्षी ३६ ।१२६ निरीट ३४ ॥६ ३६ ॥१३७ ३६।१४६ शंख शंखनक सीप सिंह सुंसुमार ३२।६ सुनक ३२।१३ ३६ |४६ ४।६ ३६ १४७ १४ ।३४ ३६ ॥१७२ सुपर्ण (गरुड) सोमंगल हंस ३६ १७२ ३६ |२४६ ३६ ।१४६ ३२७६ ३६ ॥१४८ ३६ ।१२८ ३६ ॥१३७ ३२ ॥१३७ ३२ ।१३ १६ १५६ १४ ।३५ ३६ ११८८ ३६ ।१२६ ११।१६ ३६ १२८ ३६ ॥१४८ ३६ १४७ ३६ ॥१८८ ३६ ।१४७ १६ १६५ ३६ ।१२८ ३६ ।१२८ ३४ ॥७ ३६ ।१३८ ३६ । १८८ ३६ १४७ ३६ ।१४७ ३६ |१८० ३६ ११७२ ३४ ।१६ १४१४७ ३६ ॥१२८ १४ ।३३ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ९ प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची ग्रन्थ-नाम लेखक, सम्पादक, अनुवादक, संस्करण व प्रकाशक अष्टपाहुड अंगविज्जा सं० मुनि श्री पुण्यविजयजी अंग्रेजी अनु० डॉ० मोतीचन्द्र प्रथम, प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, बनारस अंगुत्तरनिकाय (१-४) सं० भिक्खु जगदीस कस्सपो सन् १६६०, पालि प्रकाशन मण्डल, बिहार राज्य अंगुत्तरनिकाय (भाग १-३) अनु० भदन्त आनन्द कौसल्यायन सन् १६५७,६३,६६, महाबोधि सभा, कलकत्ता अगस्त्य चूर्णि (दशवैकालिक) मुनि अगस्त्यसिंह अप्रकाशित अनगार धर्मामृत पं० आशाधर सं० १६७६, माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई अनुयोगद्वार आर्यरक्षितसूरि सं० १६८०, आगमोदय समिति, मेहसाणा अनेकार्थ कोष आचार्य हेमचन्द्रसूरि अन्तकृद्दशा (अंतगडदसाओ) सं० एम.सी. मोदी एम.ए., एल.एल.बी सन् १६३२, गुर्जर ग्रन्थ रत्न कार्यालय, अहमदाबाद अन्तकृद्दशा (अंतगडदसाओ)वृत्ति सं० एम.सी. मोदी एम.ए., एल.एल.बी सन् १६३२, गुर्जर ग्रन्थ रत्न कार्यालय, अहमदाबाद अभिधान चिन्तामणि हेमचन्द्राचार्य; विवेचनाकार आचार्य श्री विजयकस्तरसूरि सं० २०१३, जैन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद अभिधानपदीपिका सं० मुनि जिनविजयजी प्रथम, गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद अमितगति प्रावकाचार आचार्य अमितगति सन् १६७६, मुनि श्री अनन्तकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, कालबादेवी रोड, बम्बई सन् १६५०, पाटनी दि० जैन ग्रन्थमाला, मेरठ (राज०) अष्टांगहृदय वाग्भट; सं० वैद्य लालचन्द प्रथम, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली अहिर्बघ्यसंहिता आचारांग सं० १६६१, सिद्धचक्र साहित्य समिति, बम्बई आचारांग चूर्णि जिनदासगणि सं० १६६८, ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रत्नपुर (मालवा) आचारांग नियुक्ति भद्रबाहु सं० १६६१, सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, बम्बई आचारांग वृत्ति शीलांकाचार्य सं० १६६१, सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, बम्बई आचारासार आवश्यक नियुक्ति भद्रबाहु सन् १६२८, आगमोदय समिति, बम्बई आवश्यक वृत्ति मलयगिरि सन् १६२८, आगमोदय समिति, बम्बई इतिवृत्तक (खुद्दकनिकाय) सं० भिक्खु जगदीस कस्सपो सन् १६५६, पालि प्रकाशन मण्डल, बिहार राज्य इतिवुत्तक (अनुदान) अनु० भिक्षु धर्मरक्षित सन् १९५६, महाबोधि सभा, सारनाथ इसिभासियाई सुत्ताई अनु० सं० मुनि मनोहर सन् १९६३, सुधर्मा ज्ञानमंदिर, बंबई उत्तरपुराण जिनसेनाचार्य, सं० पन्नालाल जैन सं० २००८, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, वाराणसी Jain Education Intemational ate & Personal Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७२२ परिशिष्ट ६: प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची कल्पसूत्र चूर्णि (कल्पसूत्र) पूर्वाचार्य; सं० श्री पुण्यविजयजी सं० २००८, साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद कल्पसूत्र टिप्पणक (कल्पसूत्र) श्री पृथ्वीचन्द्र सूरि, सं० श्री पुण्यविजयजी सं० २००८, साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद कालीदास का भारत (भाग १-२) श्री भगवतशरण उपाध्याय प्रथम संस्करण, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, बनारस कौटिलीयम् अर्थशास्त्र (भाग १-३) कौटिल्याचार्य स० आर.पी.कांगले सन् १६६०, बम्बई विश्वविद्यालय, बम्बई गच्छाचारपयन्ना, गच्छाचारपयन्ना (वृत्ति) पूर्वाचार्य सन् १६४५, श्री भूपेन्द्र सूरि जैन साहित्य समिति, आहोर (मारवाड़) गीता उत्तराध्ययन चूर्णि (उत्तराध्ययनानि) श्री गोपालगणि महत्तर शिष्य सं० १६८६, ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रत्नपुर (मालवा) उत्तराध्ययन जोड़ आचार्य जीतमलजी अप्रकाशित उत्तराध्ययन नियुक्ति (भाग १-३) भद्रबाहु सं० १६७२, ७३, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार भाण्डागार संस्था, बम्बई उपदेशमाला (माषान्तर) धर्मदास गणि सन् १९३३, मास्टर उमेदचन्द रामचन्द, अहमदाबाद उपवास के लाभ विट्ठलदास मोदी सन् १९४७, नवयुग साहित्य सदन, इन्दौर उपासकदशा (वृत्ति सहित) सं० पं० भगवानदास सं० १९६२, जैन सोसाइटी, नं० १५, अहमदाबाद ऋग्वेद भाग (१-५) भा० सायण सन् १९२६, ४१, ४६, ६१, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, वैदिक संशोधन मण्डल, पूना ऐतरेय आरण्यकम् (समाध्य) भा० सायण सन् १६५६, आनन्दाश्रम, पूना ऐतरेय ब्राह्मण ओघनियुक्ति भद्रबाहु सं० १६७५, आगमोदय समिति, मेहसाणा ओघनियुक्ति भाष्य पूर्वाचार्य (वृ० द्रोणाचार्य) सं० १६७५, आगमोदय समिति, मेहसाणा औपपातिक सं० ६६६४, पं० भूरालाल कालीदास, सूरत औपपातिक सं० ल्यूमेन सन् १८८३, Leipzig औपपातिक वृत्ति अभयदेव सूरि (द्रोणाचार्य द्वारा शोधित) सं० १६६४, पं० भूरालाल कालीदास, सूरत ओववाइय सुत्तं सं० एन. जी. सुरु एम. ए. सन १६३१, अर्हत् मत प्रभाकर कार्यालय, पूना कल्पसूत्र भद्रबाहु सं० २००८, साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद महर्षि वेदव्यास सं० २०१६, गीता प्रेस, गोरखपुर गीता रहस्य (कर्मयोग शास्त्र) लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, अ० माधवराव जी सप्रे सन् १६५५, लोकमान्य तिलक मन्दिर, गायकवाड़वाड़ा, पूना-२ गोम्मटसार (जीवकांड) नेमिचन्द्र सिद्धांत शास्त्री सन् १६२७, सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ गोम्मटसार (कर्मकांड) अनु० ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद सन् १६श७, सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ चन्द्रप्रज्ञप्ति हस्तलिखित चरक संहिता (भाग १-२) महर्षि अग्निवेश एवं चरक सन् १६५४, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली चारित्र भक्ति पूज्यपाद छान्दोग्योपनिषद् भा० शकर सं० २०१३, गीताप्रेस, गोरखपुर जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सं० १६७६, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार फण्ड, बम्बई जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति वृत्तिकार शान्तिचन्द्र सन् १६७६, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार फण्ड, बम्बई जयन्तन्यायमन्जरी जातक सं० भिक्खु जगदीस कस्सपो सन् १६५६, पालि पब्लिकेशन बोर्ड (बिहार गवर्नमेंट) Jain Education Intemational Education International Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि जातक (१-६) अनु० भदन्त आनन्द कोसल्यायन प्रथम संस्करण, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग जीवाजीवाभिगम वृत्ति मलयगिरि सन् १६१६, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार फण्ड, जैन तर्क भाषा महोपाध्याय श्री यशोविजयगणि, सं० पं० सुखलालजी संघवी सं० १६६४, सिंघी जैन ग्रन्थमाला ज्योतिषकरण्डकानि सन् १८२८, श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम तत्त्व - ज्ञान, तत्त्व प्रदीपिका (चित्सुखी), तत्त्वसंग्रह पञ्जिका डॉ० दीवानचन्द सन् १६५६, प्रकाशन ब्यूरो, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ तत्त्वत्रय लोकाचार्य, भाष्य० श्रीमद् वरवर मुनि चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस वाराणसी तत्त्वानुशासन रामसेन प्रथम, माणिकचन्द्र दि० जैन, बम्बई तत्त्वार्थ भाष्यानुसारी टीका सिद्धसेन गणी, सं० हीरालाल रसिकलाल कापड़िया बम्बई सन् १६२६, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार फण्ड, बम्बई तत्त्वार्थ राजवार्तिक ( भाग १-२ ) ७२३ भट्ट अकलंकदेव, सं०पं० महेन्द्रकुमार जैन एम.ए. सं० २००६, सं० २०१४, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस- ४ तत्वार्थवृत्ति श्रुतसागर सिं० प्रो० महेन्द्रकुमार जैन सं. २००५, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस-४ तत्त्वार्थ सूत्र ( सभाष्य तत्त्वार्थधिगमसूत्र ) उमास्वाति सं० १९८६, सेठ मणीलाल रेवाशंकर जगजीवन जौहरी, बम्बई- २ तपागच्छ पट्टावलि सं० मुनि कल्याणविजयजी दर्शन संग्रह डॉ० दीवानचंद दशवैकालिक चूर्णि अगस्त्यसिंह स्थविर दशवैकालिक चूर्णि जिनदास महत्तर सं० १९८४, श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी पेढी, रतलाम दशवैकालिक टीका हरिभद्र सूरि सं० १६१८, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार भण्डागार संस्था, बम्बई परिशिष्ट ६ प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची : दशवैकालिक निर्युक्ति भद्रबाहु सन् १९१८, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार भण्डागार संस्था, बम्बई दशवैकालिक सार्थ सटिप्पण वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पा० मुनि नथमल सं० २०२०, श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता- १ दसवे आलियं तह, उत्तरज्झयणाणि वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पा० मुनि नथमल सं० २०२३, श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता- १ दशाश्रुतस्कंध सं० २०११, श्री मणिविजय गणि ग्रन्थमाला, भावनगर दीघनिकाय सं० भिक्खु जगदीस कस्सपो पालि प्रकाशन मण्डल, बिहार राज्य दीघनिकाय अनु० राहुल सांकृत्यायन सन् १६३६, महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस देशीनाममाला आचार्य हेमचन्द्र सन् १६३८, बम्बई संस्कृत सिरीज देशीशब्दकोश युवाचार्य महाप्रज्ञ सन् १८८८, जैन विश्व भारती, लाडनूं द्रव्यसंग्रह नेमिचन्द्र आचार्य सन् १६२६, जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय धनन्जय नाममाला महाकवि धनज्य, भाष्यकार अमर कीर्ति सन् १६५०, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, बनारस धम्मपद अ० धर्मानंद कोसम्बी, रामनारायण वि० पाठक सन् १८२४, गुजरात पुरातत्त्व मंदिर, अहमदाबाद धर्म संग्रहणी हरिभद्रसूरि सन् १६२८, श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम ध्यान शतक (संस्कृत टीका सह ) जिनभद्र गणि नवतत्त्व - साहित्य संग्रह संयोजक उदयविजय गणि सं० १६७८, माणकलाल मनसुखभाई, अहमदाबाद नन्दी सूत्र (चूर्णि हारिभद्रीय वृत्तियुक्त) देववाचक श्रमाश्रमण सं० १६८८, रूपचन्द्र नवलमल, इन्दौर नन्दी सूत्र (मलियगिरी वृत्तियुक्त) देववाचक श्रमाश्रमण सं० १६८०, आगमोदय समिति, मेहसाणा Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि नय प्रदीप गङ्गसहाय निदान-कथा (जातकअट्ठकथा) सं० प्रो० एच०के० भागवत सन् १६५३, बम्बई विश्वविद्यालय, बम्बई नशीथ चूर्णि जिनदास महत्तर सन् १६५७, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा निशीथ भाष्य जिनदास महत्तर सन् १६५७, सन्मति ज्ञानपीठ, निश्चय द्वात्रिंशिका सिद्धसेन दिवाकर नेमिनाथचरित कीर्तिराज न्यायकारिका न्यायकुमुदचन्द्र (१-२) सं० महेन्द्रकुमार न्याय दर्शन भाष्य वात्स्यायन न्यायसूत्र गौतम न्यायालोक (तत्त्वप्रभावृत्ति) उपाध्याय यशोविजय पंचाध्यायी आगरा कविवर पं० राजकमल, टीकाकर देवकीनन्दन सिद्धांतशास्त्री वी०सं० २४७६, श्री गणेश वर्णी जैन ग्रन्थमाला, काशी पंचाशक प्रकरण हरिभद्राचार्य सं० १६२८, श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम पंचास्तिकाय आचार्य कुन्दकुन्द, सं० पन्नालाल वाकलीवाल सं० १६७२, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई पद्मपुराण भाग (१-५), पदार्थ-संग्रह कृष्णद्वैपायन व्यास सन् १६५७, ५६, मनसुखराय मोर, ५ क्लाइव रोड, कलकत्ता - 9 पाइयसद्दमहण्णवो ७२४ पं० हरिगोविन्ददास त्रिकमचंद सेठ, सं० डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल, पं० दलसुखभाई मालवणिया द्वितीय संस्करण, सन् १६६३, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी - ५ पाणिनि अष्टाध्यायी पाणिनी निर्णय सागर प्रेस, बम्बई पाणिनिकालीन भारतवर्ष पाणिनि भाष्य वासुदेवशरण अग्रवाल सं० २०२२, मोतीलाल बनारसीदास, बनारस परिशिष्ट ६ : प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची पाञ्जल योगदर्शन महर्षि पतञ्जलि, सं० व्या० यशोविजयजी सन् १९१२, श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल, आगरा पातञ्जल योगदर्शन पतञ्जलि सं० २०१७, गीता प्रेस, गोरखपुर पुरुषार्थविनुपा अमृतचन्द्र सूरि, सं० अजित प्रसाद, एम० ए०, एल० एल० बी० सन् १६३३, सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ पूर्वमीमांसा महामहोपाध्याय, डॉo गंगानाथ झा सन् १६६४, बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी, वाराणसी प्रकरण पञ्जिका शालिकनाथ, व्या० नारायण भट्ट चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी प्रज्ञापना (१-४) श्यामाचार्य सं० १६७४, आगमोदय समिति, मेहसाणा प्रज्ञापना वृत्ति (१-४) मलयगिरि सन् १६४४, आगमोदय समिति, मेहसाणा प्रमाणनयतत्त्वालोक वादिदेव सूरि, सं० हिमांशुविजय सं० १६८६, विजयधर्म सूरि ग्रन्थमाला, उज्जैन प्रवचनसारोद्धार नेमिचन्द्र सूरि सं० १६७८, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार संस्था प्रवचनसारोद्धार वृत्ति नेमिचन्द्र सूरि सं० १६७८, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्वार संस्था प्रशस्तपाद भाष्य व्यामती टीका प्राकृत भाषाओं का व्याकरण रिचर्ड पिशल, अनु०, डॉ० हेमचन्द्र जोशी डी० लिट् सं० २०१५, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना प्राचीन भारतीय अभिलेखों का संग्रह बुद्ध और बौद्ध साधक भरत सिंह उपाध्याय सन् १६५०, सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली बुद्धचर्या राहुल सांकृत्यायन सन् १६५२, महाबोधि सभा (सारनाथ), बनारस बृहत्कल्प भाष्य भद्रबाहु, सं० पुण्यविजयजी सन् १८३३ से १६३८, श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर बृहदारण्यकोपनिषद् सं० २०१४, गीता प्रेस, गोरखपुर Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७२५ परिशिष्ट ६: प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची बृहद् वृत्ति उत्तराध्ययन वादिवेताल श्री शान्तिसूरि सं० १६७२-७३, श्री देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार भाण्डागार संस्था, बम्बई बौद्ध धर्म दर्शन आचार्य नरेन्द्र देव बौद्धायन धर्मशास्त्रम् # F. E. Hlutzsch, Ph. D. सं० १९८४, Leipzig भगवती सूत्र अनु० बेचरदास दोशी सन् १६२१ सं० १९८८, आगमोदय समिति, मेहसाणा जैन साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, अहमदाबाद भगवती वृत्ति अभयदेव सूरि आगमोदय समिति, मेहसाणा भागवत (महापुराण) दो खण्ड सं० २०१८, गीता प्रेस, गोरखपुर भारती इतिहास की रूपरेखा डॉ० बलराम श्रीवास्तव, रत्तिभानु सिंह नाहर सं० १९४८, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई भारतीय संस्कृति और अहिंसा धर्मानन्द कोसम्बी, अनु० विश्वनाथ दामोदर शोलापुर कर भास्कर भाष्य मज्झिमनिकाय सं० भिक्खु जगदीस कस्सपो सं० २०१५, बिहार राजकीयेन पालि प्रकाशन मण्डल मज्झिमनिकाय (अनुवाद) अनु० राहुल सांकृत्यायन सन १६३३, महाबोधि सभा 'सारनाथ', बनारस मत्स्य पुराण, माधव सिद्धान्तसार कृष्णद्वैपायण व्यास सन् १९५४, नन्दलाल मोर, ६ क्लाइव रो, कलकत्ता-१ मनुस्मृति मनु० सं० नारायणराम आचार्य काव्यतीर्थ सन् १६४६, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई महाभारत (१-६ खण्ड) गीता प्रेस, गोरखपुर महावस्तु सं० राधागोविन्द वसाक माण्डूक्यकारिका माध्यमिककारिका नागार्जुन चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी मानमेयोदय नारायण मानव की कहानी, मीमांसा श्लोकवार्तिक (न्यायरत्नाकराख्या टीका) कुमारिल भट्ट, टीकाकार पारथ सारथी मिश्र चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी मूलाचार (सटीक) वेट्टकेराचार्य, टीकाकार वसनन्दि सं० १९७७, माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई मूलाचार कुन्दकुन्दाचार्य, हि० अनु० जिनदास पार्श्वनाथ फडकले, शास्त्री, न्यायतीर्थ वीर सं० २४८४, श्रुत भाण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, पलटन (उत्तर सितारा) मूलाराधना शिवार्य सन् १६६५, सोलापुर मूलाराधना शिवार्य सन् १९६५, सोलापुर मूलाराधना सं० अनु० अमितगति मूलाराधना-दर्पण पं० आशाधर सन् १६६५, सोलापुर मूलाराधना (विजयोदया वृत्ति) अपराजित सरि सोलापुर मेघदूत टीकाकर मल्लिनाथ यतिपतिमतदीपिका जनार्दन शास्त्री मोतीलाल बनारसीदास याज्ञवल्क्यस्मृति महर्षि याज्ञवल्क्य सन् १९४६, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई योगविंशिका हरिभद्र सूरि, सं० प्रज्ञाचक्षु, पं० सुखलाल सिंघवी सन् १६२२, श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मंडल, आगरा रत्नकरण्ड श्रावकाचार (सटीक) स्वामी समन्तभद्र सं० १६८२, माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई रत्नाकरावतारिका टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य राजनिघण्टु कोष राजप्रश्नीय वृत्ति सं० एन० भी० वैद्य, एम० ए० सन् १६३८, खादयत बुक डिपो, अहमदाबाद Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७२६ परिशिष्ट ६: प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची राजवल्लभ कोष रामायणकालीन संस्कृति लोकप्रकाश भाग (१-२) डॉ० निवयविजय गणि, अनु० मोतीचन्द ओधवजी शाह सन् १६२६, आगमोदय समिति, बम्बई लोकप्रकाश भाग (१-२) विनयविजय गणि सन् १६३२, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, बम्बई वसुनन्दि श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि, सं० पं० हीरालाल जैन, सिद्धान्तशास्त्री सं० २००६, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस-४ वाक्यपदीय भर्तृहरि, टीका० पुण्यराजा चौखम्बा संस्कृत सिरीज, वाराणसी वाल्मीकीय रामायण (१-२) महर्षि वाल्मीकि सं० २०१७, गीता प्रेस, गोरखपुर वास्तुसार, विधिविवेक न्यायकर्णिका ठक्कर फेरु, अनु० भगवानदास विनयपिटक अनु० राहुल सांकृत्यायन सन् १E३५, महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस विविध तीर्थकल्प जिनप्रभ सूरि सन् १९३४, सिंघी जैन ज्ञानपीठ, शांतिनिकेतन (बंगाल) विशुद्धिमग दीपिका विशुद्धिमार्ग (भाग १-२) आचार्य बुद्धघोष, अनु० त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित सन १६५६-५७, महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस विशेषावश्यक भाष्य जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण वीर सं० २४८६, दिव्यदर्शन कार्यालय, अहमदाबाद विष्णुपुराण महर्षि वेदव्यास, अनु० गिरिजाशंकर मायाशंकर शास्त्री सं० २०२०, सस्तु साहित्य वर्धक कार्यालय, अहमदाबाद वेदान्तपारिजात सौरभ वैदिक संस्कृत का विकास पं० लक्ष्मण शास्त्री वैदिक साहित्य पं० रामगोविन्द त्रिवेदी सन् १९५०, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, बनारस वैराग्यशतक भर्तृहरि; सं० डॉ रामधन शर्मा शास्त्री सं० १६५६, पब्लिकेशन्स डिवीजन, दिल्ली वैशेषिक दर्शन महर्षि कणाद चौखम्बा संस्कृत सिरीज, वाराणसी वैशेषिक सूत्र सं० मुनि जम्बूविजय व्यवहार भाष्य सं० मुनि माणेक सं० १९६४, वकील केशवलाल प्रेमचन्द, भावनगर व्यवहार सूत्र भद्रबाहु द्वितीय सं० १९८२. जैन श्वेताम्बर संघ, भावनगर शतपथ ब्राह्मण भा० सायण चौखम्बा संस्कृत सिरीज, वाराणसी शब्दार्णव चन्द्रिका सोमदेव सरि भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशनी संस्था, काशी शास्त्रदीपिका शेषनाममाला श्रावक धर्मविधि प्रकरण हरिभद्र सूरि, वृत्तिकार श्रीमान् देव सूरि सन् १६२४, श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर संयुत्तनिकाय पालि (१-४) भिक्खु जगदीस कस्सपो सं० १६५६, पालि प्रकाशन मण्डल, बिहार संयुत्तनिकाय अनुवाद (१-२) भिक्षु जगदीस काश्यप सं० १५४, महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस संस्कृत इंग्लिस डिक्शनरी सर भोनियर विलियम्स, एम. ए. के. सी. आ. ई. सन १६६३, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली संस्कृत साहित्य मां वनस्पति गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद समयसार कुंदकुंदाचार्य, सं० ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद वीर सं० २४४४, मूलचन्द किसनदास कापड़िया, सूरत समवायांग वृत्ति अनु० शास्त्री जेठालाल हीराभाई सं० १६६५, श्री जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर समवायांग वृत्ति अभयदेव सूरि सन् १९१८, आगमोदय समिति, मेहसाणा सर्वदर्शन संग्रह सायण माधवाचार्य, टीका० महामहोपाध्याय प्राच्यविद्या शास्त्री अभयंकर सन १६२४, संशोधन मंदिन, पूना सर्वार्थसिद्धि सं० आचार्य पूज्यपाद, सं० पं० फूलचन्द्र सिद्धांतशास्त्री सं० २०१२, भारतीय ज्ञानपीट, काशी, दुर्गाकुण्ड, बनारस समुद्र के जीव-जन्तु सांख्यप्रवचन Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरज्झयणाणि ७२७ परिशिष्ट ६: प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची सांख्यकारिका (माठर वृत्ति) ईश्वरकृष्ण, टीका० माथराचार्य चौखम्बा संस्कृत सिरीज, वाराणसी सागार धर्मामृत पं० आशाधर; टीका० देवकीनन्दन सिद्धांतशास्त्री वीर सं० २४६६, मूलचन्द किशनदास कापड़िया, सूरत सिरिरयणपरिक्खा प्रकरण सुखबोधा (उत्तराध्ययन की टीका) नेमिचन्द्राचार्य, सं० विजयोमंग सूरि वीर सं० २४६७, पुष्पचन्द्र खेमचन्द्र वलाद, वाया अहमदाबाद सुखबोधिका सुत्तनिपात अनु० भिक्षु धर्मरत्न सन् १६५१, महाबोधि सभा, सारनाथ सूचकृतांग सं० १६७३, आगमोदय समिति, मेहसाणा सूत्रकृतांग चूर्णि जिनदास गणि सं० १६६८, ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रत्लपुर (मालवा) सूत्रकृतांग वृत्ति शीलांक सूरि सं० १६७३, आगमोदय समिति, मेहसाणा स्थानांग सं० १९६४, सेठ मणिकलाल चूनीलाल, सेठ कांतिलाल चूनीलाल, अहमदाबाद स्थानांग वृत्ति अभयदेव सूरि सं० १६६४, सेठ मणिकलाल चूनीलाल, सेठ कांतिलाल चूनीलाल, अहमदाबाद स्याद्वादमन्जरी भक्तिषेण सूरि, अनु० जगदीश चन्द्र एम. ए. सं० १६६५, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बंबई स्याद्वादरत्नाकर वीर सं० २४५३, मोतीलाल लाधाजी, पूना श्रो गुप्त समाजतंत्र हिन्दुस्तान की पुरानी सभ्यता डॉ० बेणीप्रसाद हिन्दू सभ्यता डॉ० राधाकुमुद मुखर्जी, अनु० वासुदेवशरण अग्रवाल हेमशब्दानुशासन आचार्य हेमचन्द्र सं० १६६२, सेठ मनसुखभाई पोरवाड़, अहमदाबाद ज्ञाता धर्मकथा टीकाकार अभयदेव सूरि सं० १६१६, आगमोदय समिति, बम्बई Ancient Indian Historical Tradition FE. Pargiter. M.A. 1962, Motilal Banarsidass, Delhi India and Central Asia P. C. Bagchi Mysterious Universe Sir James Jeans Purva Mimansa Mahamahopadhyaya, Dr. Sir Ganganath Jha 1966, Benaras Hindu University. Sacred Books of the East, Vol. XLV Translated by Hermann Jacobi 1895, Oxford. Sacred Books of the East, Vol. XLV, Vol. XXII Translated by Hermann Jacobi 1884,Oxford. The History of Science Dempiyan The Nature of the Physical World Eddington The Uttaradhyayana Sutra JARL Charpentier, Ph.D. Jain Education Intemational Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intematonal For Private & Personal use only www.t ary.org