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टिप्पण
अध्ययन १६ : मृगापुत्रीय
१. कानन और उद्यान (काणणुज्जाण)
प्रथम अर्थ वार्तमानिक अवस्था का बोधक है और दूसरा कानन वह होता है जहां बड़े वृक्ष हों।' उद्यान का अर्थ भविष्यकाल की अपेक्षा से कहा गया है। है-क्रीडा-वन । वृत्तिकार ने उद्यान का अर्थ 'आराम' भी किया नेमिचन्द्र ने केवल द्वितीय अर्थ ही किया है। है। आराम जन-साधारण के घूमने-फिरने का स्थान होता था। ५. दोगुन्दग (दोगुंदगो) क्रीडा-वन ऐसा स्थान था जहां नौका-विहार, खेल-कूद तथा 'दोगुन्दग' त्रायस्त्रिश जाति के देव होते हैं। वे सदा अन्यान्य क्रीडा सामग्री की सुलभता रहती थी।
भोग-परायण होते हैं। उनकी विशेष जानकारी के लिए देखेंदेखें-दशवैकालिक, ६।१ का टिप्पण
भगवती, १०।४। २. बलत्री (बलसिरी)
६. मणि और रत्न (मणिरयण) मृगापुत्र के दो नाम थे—बलश्री और मृगापुत्र । 'बलश्री' सामान्यतः मणि और रत्न पर्यायवाची माने जाते हैं। माता-पिता द्वारा दिया हुआ नाम था और जन-साधारण में वह वृत्तिकार ने इनमें यह भेद किया है कि विशिष्ट माहात्म्य युक्त 'मृगापुत्र' के नाम से प्रसिद्ध था।'
रत्नों को 'मणि' कहते हैं, जैसे चन्द्रकांतमणि, सूर्यकान्तमणि ३. युवराज (जुवराया)
आदि-आदि तथा शेष गोमेदक आदि 'रत्न' कहलाते हैं। राजाओं में यह परम्परा थी कि बड़ा पुत्र ही राज्य का ७. गवाक्ष (आलोयण) अधिकारी होता था। जब वह राज्य का कार्यभार संभालने में दशवैकालिक, ५।११५ में गवाक्ष के अर्थ में 'आलोय' का समर्थ हो जाता तब उसको 'युवराज पद' दे दिया जाता। वह प्रयोग हुआ है। यहां उसी अर्थ में 'आलोयण' शब्द है। राज्य पद की पूर्व-स्वीकृति का वाचक है।
शान्त्याचार्य ने इसका एक अर्थ 'सबसे ऊंची चतुरिका' भी प्राचीन साहित्य में यह मिलता है कि राज्याभिषेक से पूर्व किया है। गवाक्ष या चतुरिका से दिशाओं का अवलोकन किया जा 'युवराज' भी एक मन्त्री होता था, जो राजा को राज्य-संचालन सकता है, इसलिए उसे 'आलोकन' कहा जाता है। में सहायता देता था। उसकी विशेष मुद्रा होती थी और उसकी ८. नियम (नियम) पदवी का सूचक एक निश्चित पद होता था।
महाव्रत, व्रत, नियम-ये सभी साधारणतया संवर के _ 'युवराज' को 'तीर्थ' भी कहा गया है। कौटिल्य ने अपने वाचक हैं। किन्त रूढिवशात इनमें अर्थ-भेद भी है। योग-दर्शन अर्थशास्त्र में १८ तीर्थ गिनाएं हैं, उनमें 'युवराज' का उल्लेख भी सम्मत अष्टांग योग में नियम का दूसरा स्थान है। उसके हुआ है। तीर्थ का अर्थ है-महा अमात्य।'
अनुसार शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप और देवताप्रणिधान-ये ४. दमीश्वर (दमीसरे)
नियम कहलाते हैं।" शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ दिए हैं
जैन व्याख्या के अनुसार जिन व्रतों में जाति, देश, काल, (१) उद्धत व्यक्तियों का दमन करने वाला राजाओं का ईश्वर। समय आदि का अपवाद नहीं रहता, वे 'महाव्रत' कहलाते हैं। (२) उपशमशील व्यक्तियों का ईश्वर।
जो व्रत अपवाद सहित होते हैं. वे 'व्रत' कहलाते हैं। ऐच्छिक
१. सुखबोधा, पत्र २६०: काननानि-बृहवृक्षाश्रयाणि वनानि। २. वही, पत्र २६० : उद्यानानि-आरामाः क्रीडावनानि वा। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१ : बलश्रीः बलश्रीनामा मातापितृविहितनाम्ना लोके
च मृगापुत्र इति। ४. कौटिल्य अर्थशास्त्र, १।१२।८, पृ०२१-२३। ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१ : दमिना-उद्धतदमनशीलास्ते च राजानस्ते
षामीश्वरः-प्रभुर्दमीश्वरः, यद्वा दमिनः—उपशमिनस्तेषां सहजोपशमभावत
ईश्वरो दमीश्वरः, भाविकालापेक्षं चैतत्। ६. सुखबोधा, पत्र २६० ! 'दमीसरि' ति दमिनाम्-उपशमिनामीश्वरो
दमीश्वरः, भाविकालापेक्षं चैतत्।
७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१ : दोगुन्दगाश्च त्रायस्त्रिशाः तथा च वृद्धाः “त्रायरिंवशा
देवा नित्यं भोगपरायणा दोगुंदगा इति भण्णंति।" ८. वही, पत्र ४५१ : मण्यश्च-विशिष्टमाहात्म्याश्चन्द्रकांतादयो, रत्नानि
च-गोमेयकादीनि मणिरत्नानि। वही, पत्र ४५१ : आलोक्यन्ते दिशोऽस्मिन् स्थितरित्यालोकनं प्रासादे प्रासादस्य वाऽऽलोकन प्रासादालोकन तस्मिन् सर्वोपरिवर्तिचतुरिका
रूपे गवाक्षे। १०. पातंजलयोगदर्शन, २।२६ : यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणा
ध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि। ११. वही, २३२ : शौचसंतोषतपस्स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।
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