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________________ उत्तरज्झयणाणि ३१८ अध्ययन १६ : श्लोक ५-१७ टि० -१५ व्रतों को 'नियम' कहा जाता है। (१) दृश्य वस्तु या व्यक्ति का साक्षात्कार। शान्त्याचार्य ने 'अभिग्रहात्मक व्रत' को 'नियम' कहा है।' (२) अध्यवसान की शुद्धि। ९. शील से समृद्ध (सीलड्ड) (३) संमोहन। वृत्तिकार ने शील का अर्थ-अष्टादश सहन शीलाङ्ग देखें-६१ का टिप्पण। किया है। १२. (श्लोक ११) देखें इसी अध्ययन का १६वां टिप्पण। इस श्लोक में भोगों को विषफल से उपमित किया गया है। १० अध्यवसान (अज्झवसाणम्मि) जिस प्रकार विषफल प्रथम स्वाद में अत्यन्त मधुर होते हैं परन्तु बृहद्वृत्ति में अध्यवसान का अर्थ है-अन्तःकरण का परिणाम काल में अत्यन्त कटुक और दुःखदायी होते हैं, उसी परिणाम। निशीथ चूर्णि में मनःसंकल्प, अध्यवसान और चित्त प्रकार भोग भी सेवन-काल में मधुर लगते हैं, परन्तु उनका को एकार्थक माना है। विशेषावश्यकभाष्य में अतिहर्ष और विपाक कटुक होता है और वे अनवच्छिन्न दुःख देने वाले होते विषाद के कारण चिंतन की जो गहराई होती है उसे अध्यवसान है। कहा गया है। स्थानांग में अध्यवसान को अकालमृत्यु का एक १३. क्लेशों का (...केसाण) हेतु माना है। उसका अर्थ है-राग, स्नेह और भय आदि की क्लेश शब्द 'क्लिशूश् विबाधने', क्लिशच् उपतापे-इन तीव्रता। दोनों धातुओं से निष्पन्न है। इसका अर्थ है—बाधा, सन्ताप 'अज्झवसाय और अज्झवसाण' (अध्यवसाय और और पीड़ा। वृत्तिकार ने क्लेश का अर्थ दुःख (अप्रिय संवेदन) अध्यवसान) दोनों शब्द एकार्थक हैं। जहां कहीं जाति-स्मृति के हेतुभूत ज्वरादि रोग किया है। और अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग है वहां 'सुभेणं महर्षि पतञ्जलि ने पांच प्रकार के क्लेश माने हैंअज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणाहिं'- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। उनके अनुसार पाठ मिलता है। यह उपलब्धि परिणामों की विशुद्धि और क्लश का अथ विपर्यय है।" सूक्ष्मता से प्राप्त होती है। यह चेतना का सूक्ष्म स्तर है, इसलिए १४. व्याधि और रोगों का (वाहीरोगाण) उसका मन के साथ सम्बन्ध नहीं किया जा सकता। __ अत्यन्त बाधा उत्पन्न करने वाले कुष्ट जैसे रोगों को ११. (मोहंगयस्स) 'व्याधि' कहा जाता है और कदाचित् होने वाले ज्वर आदि को जैन धर्म में 'जातिस्मृति'-पूर्वजन्म के स्मरण की विशेष 'रोग' कहा जाता है।" पद्धति है। कोई व्यक्ति पूर्व परिचित व्यक्ति को देखता है, तत्काल १५. किपाकफल (किपागफलाण) चैतसिक संस्कारों में एक हलचल होती है। वह सोचता है कि जैन साहित्य में स्थान-स्थान पर किंपाकफल का उल्लेख इस प्रकार का आकार मैंने कहीं देखा है। ईहा, अपोह, मार्गणा है। वह देखने में अति सुन्दर और खाने में अति स्वादिष्ट होता और गवेषणा के द्वारा चिन्तन आगे बढ़ता है। मैंने यह कहां है। उसको खाने का परिणाम है-प्राणान्त। भोगों की विरसता देखा? यह कहां है ? इस प्रकार की चिंता का एक संघर्ष चलता को बताने के लिए प्रायः इसी की उपमा दी जाती है। है। उस समय व्यक्ति संमोहन की स्थिति में चला जाता है। उस वृत्तिकार ने किम्पाक का अर्थ वृक्ष विशेष किया है।२ स्थिति में उसे पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है। उसके फल अति स्वादिष्ट होते हैं। कोषकारों के अनुसार वह प्रस्तुत श्लोक में जाति-स्मरण की प्रक्रिया फलित होती है। एक लता-विशेष है। इसका दूसरा नाम महाकाल लता है।" उसके तीन अंग हैं शालिग्रामनिघण्टुभूषण में कारस्कर, किम्पाक, विषतिंदुक विषदुम, १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५१-४५२ : नियमश्च-द्रव्याधभिग्रहात्मकः । ६. वही, पत्र ४५४ : दुःखम् असातं तद्धेतवः, क्लेशाः-ज्वरादयो रोगा २. वही, पत्र ४५२ : शीलं-अष्टादशशीलाङ्गसहस्वरूपम्। दुःखक्लेशाः शाकपार्थिवादिवत्समासः। ३. वही, पत्र ४५२ : अध्यवसाने-इत्यन्तःकरणपरिणामे। १०. पातंजलयोगदर्शनः ३३ पृ० १३४ : अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः ४. निशीथचूर्णि, भाग ३ पृष्ठ ७०: मणसंकप्पेत्ति या अज्झवसाणं त्ति वा पञ्चक्लेशाः । क्लेशा इति पञ्च विपर्यया इत्यर्थः । चित्त ति वा एगळं। ११. बृहद्वृत्ति, पत्र ४५४ : व्याधयः-अतीव बाधाहेतवः कुष्ठादयो, रोगाः५. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा २०४१, वृत्ति पृ०७२० : अतिहर्ष-विषादाभ्याम- ज्वरादयः। धिकमवसानं चिन्तनमध्यवसानम् । १२. वही, पत्र ४५४ : किम्पाकः-वृक्षविशेषस्तस्य फलान्यतीव सुस्वादूनि। ६. ठाणं : ७७२ : सत्तविथे आउभेदे पण्णत्ते, तं जहा-अज्झवसाणणिमित्ते. १३. (क) शब्दकल्पद्रुम, भाग २, पृ० १२८ : किम्पाकः पु० महाकाल लता। इति रत्नमाला। माकाल इति भाषा। ७. भगवई : १११७१। (ख) नानार्थसंग्रह, पृ०७८ : किम्पाको महाकालफलाज्ञयोः (मेदिनी)। बृहवृत्ति, पत्र ४५२ : 'अध्यवसाने इत्यन्तःकरणपरिणामे 'शोभने' (ग) वाचस्पत्यम्, भाग ३, पृ० २०५० : किम्पाकः (माखाल) महाकाल । प्रथाने क्षायोपशमिकभाववर्तिनीति यावत् 'मोह' क्वेद मया दृष्ट (घ) वही, भाग ६, पृ०४०४० : महाकाल लताभेदे। क्वेदमित्यतिचिन्तातश्चित्तसंघट्टजमूत्मिक 'गतस्य' प्राप्तस्य' सतः। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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