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________________ टिप्पण अध्ययन २३ : केशि गौतमीय १. पार्श्व (पासे) क्रिया-कलाप और प्रणिधि का अर्थ है-व्यवस्थापन। इसका आचार्य नेमिचंद्र ने सुखबोधावृत्ति में तीर्थंकर पार्श्व का समग्र अर्थ है-बाह्य क्रिया-कलापरूप धर्म का व्यवस्थापन ।' जीवनवृत्त प्रस्तुत किया है। बाह्य क्रिया कलापों को धर्म इसलिए कहा है कि वे भी देखें-सुखबोधावृत्ति, पत्र २८५-२६५ । आत्मिक-विकास के हेतु बनते हैं। २. कुमार-श्रमण (कुमारसमणे) ८. चातुर्याम धर्म....पंचशिक्षात्मक धर्म (चाउज्जामो... _ कुमार शब्द का सम्बन्ध 'कुमार श्रमण' और पंचसिक्खिओ) 'केशीकुमार'—इस प्रकार दोनों रूपों में किया जा सकता है। पहले और अंतिम तीर्थंकर के अतिरिक्त शेष बावीस शान्त्याचार्य ने प्रथम रूप मान्य किया है। कुमार श्रमण केशी का तीर्थंकरों के शासन में चातुर्याम धर्म की व्यवस्था होती है। एक विशेषण है। वे अविवाहित थे, इसलिए 'कुमार' कहलाते दूसरे शब्दों में चार महाव्रतात्मक धर्म हैंथे और वे तपस्या करते थे, इसलिए वे 'श्रमण' कहलाते थे। १. सर्व प्रणातिपात विरति। यह वृत्ति का अभिमत है।' २. सर्व मृषावाद विरति। ३. नगर के पार्श्व में (नगरमंडले) ३. सर्व अदत्तादान विरति। नगरमंडल का अर्थ है-नगर के परकोटे का परिसर।' ४. सर्व बाह्य-आदान विरति। ४. आत्मलीन (अल्लीणा) देखें-ठाणं ४१३६। चूर्णि और वृत्ति में आलीन का अर्थ---मन, वचन और 'पंचसिक्खिओ' यह पांच महाव्रतों का सूचक शब्द है। काया की गुप्ति से गुप्त किया है। दशवैकालिक में 'अल्लीण' पांच महाव्रतों के नाम इसी आगम के २१११२ में उपलब्ध है। (सं. आलीन) का अर्थ थोड़ा लीन किया है। तात्यपर्य की भाषा ९. (श्लोक १२) में जो गुरु के न अति-दूर और न अति-निकट बैठता है, उसे मिलाएं-ठाणे ४११३६-१३७। 'आलीन' कहा जाता है। १०. अचेलक है (अचेलगो) ५. मन की समाधि से सम्पन्न थे (सुसमाहिया) इसके दो अर्थ हैंसमाधि का अर्थ है-चित्त का स्वास्थ्य। उसके तीन (१) साधना का वह प्रकार जिसमें वस्त्र नहीं रखे जाते। प्रकार हैं-ज्ञान समाधि, दर्शन समाधि और चारित्र समाधि। (२) साधना का वह प्रकार जिसमें श्वेत और अल्प-मूल्य ये तीनों मानसिक समाधि के हेतु हैं।' वाले वस्त्र रखे जाते हैं। ६. तर्क (चिंता) यहां अचेलक शब्द के द्वारा इन दोनों अर्थों की सूचना चिन्ता शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यहां इसका प्रयोग दा गई है। तर्क के अर्थ में हुआ है। तत्त्वार्थ की वृत्ति में चिन्ता का अर्थ ११. (संतरुत्तरो) तर्क किया गया है। शान्त्याचार्य ने 'अंतर' का अर्थ विशेषित (विशेषता ७. आचार-धर्म की व्यवस्था (आयारधम्मपणिही) युक्त) और 'उत्तर' का अर्थ प्रधान किया है। दोनों की तुलना यहां 'आचार' का अर्थ है—वेष-धारण आदि बाह्य में इसका का खामियाना में इसका अर्थ यह होता है कि भगवान् महावीर ने अचेल या १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६८ : केशिनामा कुमारश्चासावपरिणीततया श्रमणश्च ४. दसवेआलियं, जिनदास चूर्णि, पृष्ठ २८८ । तपस्वितया कुमारश्रमणो.....।। ५. बृहवृत्ति, पत्र ४६६ : सुसमाहिती-सुष्टुज्ञानादिसमाधिमन्ती। २. वहीं, पत्र ४६८ : नगरमण्डले-पुरपरिक्षेपपरिसरे। ६. स्वार्थसिद्धि, पृ. ३५४। ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २६४ : द्वावपि अत्यर्थं लीनी, साना, ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६८ : आचरणमचारोवेषधारणादिको बाह्यःक्रियाकलाप मनोवाक्कायगुप्तावित्यर्थः। - इत्यर्थः स एव सुगतिधारणाद्धर्मः, प्राप्यते हि बाह्यक्रियामात्रादपि (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ४६६ : अल्लीण त्ति आलीनौमनोवाक्कायगुप्तावाश्रिती नवमवेयकमितिकृत्वा, तस्य प्राणिधिः----व्यवस्थापनमाचारधर्मप्रणिधिः । वा। ८. वही, पत्र ५००। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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