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________________ केशि-गौतमीय ३८३ अध्ययन २३ : श्लोक १५-१६ टि० १२-१५ अध्ययन २२ कुचेल (केवल श्वेत और अल्प-मूल्य वस्त्र वाले) धर्म का का निरूपण करने वाला धर्म। निरूपण किया और भगवान् पार्श्वनाथ ने प्रमाण और वर्ण की (२) आचारांग वृत्ति-वस्त्र को क्वचित् ओढ़ने वाला विशेषता से विशिष्ट तथा मूल्यवान् वस्त्र वाले धर्म का अर्थात् क्वचित् अपने पास में रखने वाला। सचेल धर्म का निरूपण किया।' कल्पसूत्र चूर्णि और टिप्पण-सूती वस्त्र को भीतर __ आचारांग (१1८1५१) तथा कल्पसूत्र (सू० २५६) में और ऊनी को ऊपर ओढ़कर भिक्षा के लिए जाने 'संतरुतर' शब्द मिलता है। शीलांकसूरि ने आचारांग के वाला। 'संतरुत्तर' शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है-उत्तर अर्थात् ये तीनों अर्थ भिन्न दिशाओं में विकसित हुए हैं। प्रावरणीय, सांतर अर्थात् भिन्न-भिन्न समयों में। मुनि अपनी १२. (पडिरूवण्ण) आत्मा को तोलने के लिए सांतरोत्तर भी होता है। वह वस्त्र को प्रतिरूपज्ञ का अर्थ है—विनय के औचित्य को जानने क्वचित् काम में लेता है, क्वचित् पास में रखता है और सर्दी वाला। की आशंका से उसका विसर्जन नहीं करता। १३. (पडिरूवं पडिवत्ति) कल्पसूत्र के चूर्णिकार और टिप्पणकार ने 'अन्तर' शब्द - इसका अर्थ है—यथायोग्य आदर अथवा विनय की के तीन अर्थ किए हैं—(१) सूती वस्त्र, (२) रजोहरण और प्रतिपत्ति। (३) पात्र । उन्होंने उत्तर शब्द के दो अर्थ किए हैं—(१) कम्बल १४. पांचवीं कुश नाम की घास (पंचमं कुसतणाणि) और (२) ऊपर ओढ़ने का वस्त्र उत्तरीय। वहां प्रकरण यहां पांच प्रकार के तृणों का उल्लेख किया गया हैप्राप्त अर्थ यह है कि भीतर सूती कपड़ा और ऊपर ऊनी (१) शाली-कमल शाली आदि का पलाल। कपड़ा ओढ़कर भिक्षा के लिए जाए। शान्त्याचार्य ने जो अर्थ (२) ब्रीहिक-साठी चावल आदि का पलाल। किया है वह कुचेल शब्द की तुलना में संगत हो सकता है (३) कोद्रव-कोद्रव धान्य, कोदो का पलाल।' किन्तु अचेल के साथ उसकी पूरी संगति नहीं बैठती। वर्षा के (४) रालक-कंगु का पलाल। समय भीतर सूती कपड़ा और उसके ऊपर ऊनी कपड़ा (५) अरण्य-तृण-श्यामाक आदि। ओढ़कर बाहर जाने की परम्परा रही है। शान्त्याचार्य ने भी ३०वें श्लोक में लिंग शब्द का अर्थ वर्षाकल्प आदि रूप वेष १५. कुतूहल को ढूढने वाले (कोउगामिगा) किया है। और ३२वें श्लोक के 'नानाविध-विकल्पन' एवं । वृत्तिकार के अनुसार मूलपाठ 'कोउगासिया' है। इसका 'यात्रार्थ' की व्याख्या में भी इसका उल्लेख किया है। यहां अर्थ है—कुतूहल को प्रतिपन्न। उन्होंने 'कोउगामिगा' को अचेल और सचेल का वर्णन है इसलिए अन्तर का अर्थ पाठांतर मानकर इसके दो अर्थ किए हैं-(१) कुतूहल के अंतरीय--अधोवस्त्र और उत्तर का अर्थ उत्तरीय—ऊपर का कारण मृग की भांति अज्ञानी (२) अमित कुतूहल वाले। वस्त्र भी किया जा सकता है। दूसरे अर्थ में कौतुक और अमित-इन दो शब्दों का इस प्रकार सांतरोता तीन आर्श पाल योग स्वीकृत है। हमने 'मृगंगण अन्वेषणे' धातु के आधार पर (१) उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति-श्वेत और अल्प मूल्य वस्त्र __'कोउगामिगा' का अर्थ-कौतुक को ढूंढने वाले किया है। इसकी बृहवृत्ति, पत्र ५०० : 'अचेलकश्च' उक्तन्यायेनाविद्यमानचेलकः निःसरतां कम्बलावृत्तदेहानां न तथाविधाकायविराधनेति। कुत्सितचेलको वा यो धर्मो वर्धमानेन देशित, इत्यपेक्ष्यते, तथा 'जो ५. बृहद्वृत्ति, पत्र ५०३ : लिंग-वर्षाकल्पादिरूपो वेषः । इमो' त्ति पूर्ववद् यश्चायं सांतराणि-बर्द्धमानस्वामिसत्कयतिवस्त्रापेक्षया ६. (क) वही, पत्र ५०३ : 'नानाविधविकल्पनं' प्रक्रमान्नानाप्रकारोकस्यचित्कदाचिन्मानवर्णविशेषतो विशेषितानि उत्तराणि च पकरणपरिकल्पनं, नानाविधं हि वर्षाकल्पाद्युपकरणं यथावद्यतिष्वेव महाधनमूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमाद्वस्त्राणि यस्मिन्नसी सांतरोत्तरो धर्मः संभवतीति। पार्श्वेन देशित इतीहापेक्ष्यते। (ख) वही, पत्र ५०३ : यात्रा-संयमनिर्वाहस्तदर्थ बिना हि वर्षाकल्पादिक आचारांग १८५१ वृत्ति, पत्र २५२ : अथवा क्षेत्रादिगुणाद् हिमकणिनि वृष्ट्यादी संयमबाधैव स्यात् । वाते वाति सति आत्मपरितुलनार्थं शीतपरीक्षार्थं च सांतरोत्तरो भवेत्- ७. वही, पत्र ५०० : पडिरूवन्नु त्ति प्रतिरूपविनयो-यथोचितप्रतिपत्तिसांतरमुत्तरं—प्रावरणीयं यस्य स तथा, क्वचित प्रावृणोति क्वचित् रूपस्तं जानातीति प्रतिरूपज्ञः। पार्श्ववर्ति विभर्ति, शीताशंकया नाद्यापि परित्यजति। ८. वही, पत्र ५००: प्रतिरूपां-उचिता, प्रतिपत्तिम-अभ्यागतकर्त्तव्यरूपाम् । ३. (क) कल्पसूत्र चूर्णि, सूत्र २५६।। . वही, पत्र ५००: (ख) कल्पसूत्र टिप्पनक, सूत्र २५६। गणपणगं पुण भणियं जिणेहिं कम्मट्ठगंठिमहणेहिं। ४. (क) ओधनियुक्ति, गाथा ७२६ वृत्ति। साली बीही कोद्दवरालगरण्णे तिणाई च।। (ख) धर्मसंग्रह वृत्ति, पत्र ६६ : कम्बलस्य च वर्षासु बहिनिर्गताना १०. वही, पत्र ५०१ : कौतुर्क-कुतूहलम्, आश्रिताः-प्रतिपन्नाः तात्कालिकवृष्टावष्कायरक्षणमुपयोगः, यतो बालवृद्धग्लाननिमित्त कौतुकाश्रिताः, पठ्यते च 'कोउगामिग' त्ति, तत्र कौतुकात् मृगा इव वर्षत्यपि जलधरे भिक्षायै असह्योच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापनार्थं च भृगा अज्ञत्वात् प्राकृतत्वाद् अमितकौतुका था। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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