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________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन २३ : श्लोक १६-३२ टि० १६-१६ 'कोउगासिया' के साथ अर्थ-संगति होती है। संख्याक्रम से प्रशास्तृ-स्थविर चौथा है। इसका अर्थ १६. दूसरे संप्रदायों के....साधु (पासंडा) है—धर्मोपदेशक । दस धर्मों में इसकी संख्याक्रम से पाषंड-धर्म से पासंड शब्द श्रमण का पर्यायवाची नाम है। जैन और तुलना होती है, इसलिए इसका अर्थ 'धर्म-सम्प्रदाय' ही होना चाहिए। बौद्ध साहित्य में 'पासंड' शब्द श्रमण सम्प्रदाय के अर्थ में शान्त्याचार्य ने यहां और तिरसठवें श्लोक की व्याख्या प्रयुक्त होता था। आवश्यक (४) में 'परपासंड पसंसा' और में पाषण्ड का अर्थ 'व्रती' किया है। 'परपासंड संथवो'ये प्रयोग मिलते हैं। उत्तराध्ययन १७।१७ मनुस्मृति में पाषण्ड का प्रयोग गर्हित अर्थ में हुआ है। में 'परपासंड' शब्द प्रयुक्त हुआ है। यहां पाषण्ड के साथ 'पर' उसका तात्पर्य श्रमण-परम्परा के अर्चित शब्द का अर्थापकर्ष शब्द है, उससे 'आत्म-पाषण्ड' और 'पर-पाषण्ड'–ये दो करना ही हो सकता है। प्रकार स्वयं फलित हो जाते हैं। १७. (श्लोक २२) ___ अशोक अपने बारहवें शिलालेख में कहता है—“देवों का गौतम ने केशी से प्रश्न पूछने के लिए कहा। पूछने पर प्रिय प्रियदर्शी राजा सब प्रकार के श्रमणों की (पाषंडियों की), अनुज्ञा पाकर केशी ने गौतम के समक्ष जो प्रश्न उपस्थित किए परिव्राजकों की और गृहस्थों की दान-धर्म से तथा अन्य अनेक उनका संग्रहण नियुक्तिकार ने तीन गाथाओं में किया है। वे प्रकारों से पूजा करता है। पर देवों का प्रिय दान और पूजा को प्रश्न बारह हैं और उनका विषय यह है। - उतना महत्त्व नहीं देता जितना सब पाषंडियों की सार-वृद्धि १. पार्श्व ने चातुर्याम की व्यवस्था की और महावीर ने को।” सार-वृद्धि के अनेक प्रकार हैं। उसका मूल है वाचा-गुप्ति। पांच महाव्रतों की। यह भेद क्यों? उदाहरणार्थ आत्म-पाषण्डि की भरमार न करे ओर पर-पाषण्डि २. दोनों परम्पराओं में लिंग-वेश की द्विविधता क्यों ? की निन्दा न होने दे। यदि कोई झगड़े का कारण उपस्थित हो ३. आत्मा, कषाय और इन्द्रियां-इन शत्रुओं का पराजय भी जाए तो उसे महत्व न दे। 'पर-पाषंड' का मान रखना कैसे? अनेक प्रकार से उचित है। ऐसा करने से वह 'आत्म-पाषंड' ४. पाश क्या है? उनका उच्छेद कैसे? की निश्चय से अभिवृद्धि करता है और 'पर-पाषंड' पर भी ५. भवतृष्णा का उन्मूलन कैसे? उपकार करता है। ६. अग्नियां कौनसी हैं ? उनका निर्वापण कैसे? स्थानांग १०।१३५ में दस धर्मों में चौथा धर्म ‘पाषंड-धर्म' ७. मनरूपी दुष्ट अश्व का निग्रह कैसे? है। अभयदेव सूरी ने इसका अर्थ-'पाखंडियों का आचार' ८. मार्ग कौन-सा है? किया है। स्थानांग १०।१३६ में दस प्रकार के स्थविर बतलाए ६. इस जल-प्रवाह में द्वीप किसे कहा गया है? गए हैं। उनसे तुलना करने पर पाषंड का अर्थ 'धर्म सम्प्रदाय' १०. संसाररूपी महासमुद्र का पारगमन कैसे? होना चाहिए। ११. अंधकार है अज्ञान। उनका विनाश कैसे? ग्रामधर्म ग्रामस्थविर। १२. अनाबाध स्थान कौन-सा है ? नगरधर्म नगरस्थविर। १८. धर्मतत्त्व (धम्म तत्तं) राष्ट्रस्थविर। इसका अर्थ है-धर्म का परमार्थ । वृत्ति में 'धम्म' शब्द के पाषंडधर्म प्रशास्तृस्थविर अनुस्वार को अलाक्षणिक मानकर 'धम्मतत्तं' को एक शब्द माना है।' कुलधर्म कुलस्थविर। १९. (उज्जुजडा, वंकजडा, उज्जुपन्ना) गणधर्म गणस्थविर। उज्जुजडा-ऋजु और जड़। प्रथम तीर्थंकर के साथु संघधर्म संघस्थविर। 'ऋजु-जड़' होते हैं। वे स्वभावतः ऋजु हैं, किन्तु मति से जड़ होते श्रुतधर्म जातिस्थविर। हैं। अतः उन्हें तत्त्व का बोध कराना अत्यन्त दुष्कर होता है। चारित्रधर्म श्रुतस्थविर। वंकजडा वक्र और जड़। अन्तिम तीर्थंकर के मुनि अस्तिकायधर्म पर्यायस्थविर। 'वक्र-जड़' होते हैं। वे स्वभावतः बक्र होते हैं, उनके लिए तत्त्व १. दशवैकालिक नियुक्ति गाथा १६४, १६५। अगणिणिव्वावणे चेव, तहा दुगुस्स निग्गहे। २. ठाणं, १०।१३५, वृत्ति, पत्र ४८६ : पाखण्डधर्मः पाखण्डिनामाचारः : तहा पहपरिन्नाय, महासोअनिवारणे।। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५०१ : पाषण्डं व्रतं तद्योगात् 'पाषण्डाः ' शेषव्रतिनः। संसारपारगमणे, तमस्स य विघायणे। ४. वही, पत्र ५०८ : कुप्रवचनेषु-कपिलादिप्ररूपितकुत्सितदर्शनेषु ठाणोवसंपया चेव, एवं बारससू कमो।। पाषण्डिनो व्रतिनः। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ५०२ : 'धम्म तत्त' ति, बिन्दुरलाक्षणिकस्ततः धर्मतत्त्वं५. मनुस्मृति, ४।३० : पाषण्डिनो विकर्मस्थान्वैडालव्रतिकान् शठान्। धर्मपरमार्थम्। हैतुकान् बकवृत्तींश्च वाइमात्रेणापि नार्चयेत्।। ८. निशीतसूत्र चूर्णी तीसरा भाग पृ० १७ श्लोक २६८०। ६. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ४५२-४५४ : ६. बृहवृत्ति, पत्र ५०२ : 'उज्जुजड्डे' त्ति, ऋजवश्च प्राञ्जलतया सिक्खावए अ लिंगे अ, सत्तूणं च पराजए। जडाश्च तत एव दुष्प्रतिपाद्यतया ऋजुजडाः । पासावगत्तणे चेव, तंतूद्धरणबंधणे।। राष्ट्रधर्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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