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________________ आमुख इस अध्ययन के छह पात्र हैं-(१) महाराज इषुकार हुई। वे वहां से मर कर देवलोक में गए। वहां से च्युत होकर (२) रानी कमलावती (३) पुरोहित भृगु (४) पुरोहित की पत्नी उन्होंने क्षितिप्रतिष्ठित नगर में एक इभ्य-कुल में जन्म लिया। वे यशा और (५-६) पुरोहित के दो पुत्र । बड़े हुए। चार इभ्य-पुत्र उनके मित्र बने। उन सबने युवावस्था __ इनमें भृगु पुरोहित का कुटुम्ब ही इस अध्ययन का प्रधान में कामभोगों का उपभोग किया, फिर स्थविरों से धर्म सुन पात्र है। किन्तु राजा की लौकिक प्रधानता के कारण इस अ प्रव्रजित हुए। चिरकाल तक संयम का अनुपालन किया। अन्त ययन का नाम 'इषुकारीय' रखा गया है।' में अनशन कर सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है 'अन्यत्व भावना' का चार पल्य की स्थिति वाले देव बने। दोनों ग्वाल-पुत्रों को छोड़ उपदेश । आगम-काल में कई मतावलम्बियों की यह मान्यता थी कर शेष चारों मित्र वहां से च्युत हुए। उनमें एक कुरु कि पुत्र के बिना गति नहीं होती, स्वर्ग नहीं मिलता। जो व्यक्ति जनपद के इषुकार नगर में इषुकार नाम का राजा हुआ और गृहस्थ-धर्म का पालन करता है वह स्वर्ग प्राप्त कर लेता है। दूसरा उसी राजा की रानी कमलावती। तीसरा भृगु नाम का जिसके कोई सन्तान नहीं है उसका कोई लोक नहीं होता। पुत्र पुरोहित हुआ और चौथा भृगु पुरोहित की पत्नी यशा। बहुत से ही परभव होता है--सुधरता है। इसी के फलस्वरूप -- काल बीता। भृगु पुरोहित के कोई पुत्र नहीं हुआ। पति-पत्नी १. 'अपुत्रस्य गति स्ति, स्वर्गो नैव च नैव च। चिन्तित रहने लगे। गृहिधर्ममनुष्ठाय, तेन स्वर्ग गमिष्यति।।' ___ एक बार दोनों ग्वाल-पुत्रों ने, जो तब देव-भव में थे, २. “अनपत्यस्य लोका न सन्ति।" अवधिज्ञान से जाना कि वे भृगु पुरोहित के पुत्र होंगे। वे वहां ३. “पुत्रेण जायते लोकः, इत्येषा वैदिकी श्रुतिः। से चले। श्रमण का रूप बना भृगु पुरोहित के पास आए। भृगु अथ पुत्रस्य पुत्रेण, स्वर्गलोके महीयते।।" और यशा दोनों ने वन्दना की। मुनियों ने धर्म का उपदेश दिया। आदि-आदि सूक्त प्रचलित हो रहे थे और लोगों का अधि भृगु-दम्पति ने श्रावक के व्रत स्वीकार किए। पुरोहित ने पूछाक भाग इसमें विश्वास करने लगा था। पुत्र-प्राप्ति के लिए सभी “भगवन् ! हमारे कोई पुत्र होगा या नहीं ?" श्रमण-युगल ने संभावित प्रयत्न किए जाते थे। पुत्रोत्पत्ति से जीवन की महान् कहा--- "तुम्हारे दो पुत्र होंगे किन्तु वे बाल्यावस्था में ही दीक्षित सफलता मानी जाती थी। इस विचारधारा ने दाम्पत्य-जीवन का हो जायेंगे। उनकी प्रव्रज्या में तुम्हें कोई व्याघात उपस्थित नहीं उद्देश्य स्पष्ट कर दिया था, परन्तु अध्यात्म के प्रति उदासीन करना होगा। वे दीक्षित होकर धर्म-शासन की प्रभावना करेंगे।" भाव प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। उस समय यह मान्यता प्रचलित इतना कह दोनों श्रमण वहां से चले गए। पुरोहित पति-पत्नी को थी कि यदि पुत्र से ही स्वर्ग-प्राप्ति हो जाती है तो दान आदि प्रसन्नता हुई। कालान्तर में वे दोनों देव पुरोहित पत्नी के गर्भ गर्म व्यर्थ हैं। में आए। दीक्षा के भय से पुरोहित नगर को छोड़ व्रज गांव में भगवान महावीर स्वर्ग और नरक की प्राप्ति में व्यक्ति-व्यक्ति जा बसा। वहां पुरोहित की पत्नी यशा ने दो पुत्रों को जन्म दिया। की प्रवृत्ति को महत्व देते थे। उन्होंने कहा—“पुण्य-पाप व्यक्ति-व्यक्ति वे कुछ बड़े हुए। माता-पिता ने सोचा ये कहीं दीक्षित न हो जाएं का अपना होता है। माता-पिता, भाई-बन्धु, पुत्र-स्त्री आदि कोई अतः एक बार उनसे कहा-"पुत्रो! ये श्रमण सुन्दर-सुन्दर भी प्राणी त्राण नहीं होता है। सबको स्वतंत्र रूप से अपने-अपने बालकों को उठा ले जाते हैं और मार कर उनका मांस खाते हैं। कर्मों का फल-विपाक भोगना पड़ता है।" इस अध्ययन में इस उनके पास तुम दोनों कभी मत जाना।" भावना का स्फुट चित्रण है। एक बार दोनों बालक खेलते-खेलते गांव से बहुत दूर नियुक्तिकार ने ग्यारह गाथाओं में कथावस्तु को प्रस्तुत निकल गए। उन्होंने देखा कि कई साधु उसी मार्ग से आ रहे हैं। किया है। उसमें सभी पात्रों के पूर्व-भव, वर्तमान-भव में उनकी भयभीत हो वे एक वृक्ष पर चढ़ गए। संयोगवश साधु भी उसी उत्पत्ति तथा निर्वाण का संक्षिप्त चित्रण है। वृक्ष की सघन छाया में आ बैठे। बालकों का भय बढ़ा। पूर्व अध्ययन में वर्णित चित्र और सम्भूत के पूर्व-जन्म में माता-पिता की शिक्षा स्मृति पटल पर नाचने लगी। साधुओं ने दो ग्वाले मित्र थे। उन्हें साधु के अनुग्रह से सम्यक्त्व की प्राप्ति कुछ विश्राम किया। झोली से पात्र निकाले और सभी एक २. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३६३-३७३ । १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३६२ : तत्तो समुट्टियमिणं उसुआरिज्जति अज्झयणं । उसुआरनामगोए वेयंतो भावओ अ उसुआरो।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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