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________________ इषुकारीय २३९ अध्ययन १४ : आमुख मण्डली में भोजन करने लगे। बालकों ने देखा कि मुनि के पात्रों में मांस जैसी कोई वस्तु है ही नहीं। साधुओं को सामान्य भोजन करते देख बालकों का भय कम हुआ। बालकों ने सोचा“ अहो ! हमने ऐसे साधु अन्यत्र भी कहीं देखे हैं ।” चिंतन चला। उन्हें जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हुआ। वे नीचे उतरे, मुनियों की वन्दना को और सीधे अपने माता-पिता के पास जाता है । " अरणि में अग्नि, दूध में घृत और तिल में तेल अविद्यमान होने पर भी उचित प्रक्रिया के द्वारा उत्पन्न हो जाते हैं। उसी प्रकार भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति माननी चाहिए ।" (श्लोक १८ ) आस्तिक मान्यता को स्पष्ट करते हुए पुत्रों ने कहा" आत्मा अमूर्त है इसलिए यह इन्द्रियों द्वारा गम्य नहीं है। यह अमूर्त है इसलिए नित्य है । आत्मा के आन्तरिक दोष ही उसके बंधन के हेतु हैं और बंधन ही संसार का हेतु है ।” (श्लोक १६) आए। पिता-पुत्र का यह वार्तालाप आगे चलता है। पिता ब्राह्मण संस्कृति का प्रतिनिधित्व कर बातें करता है और दोनों पुत्र श्रमण संस्कृति की भित्ति पर चर्चा करते हैं । अन्त में पुरोहित को संसार की असारता और क्षणभंगुरता पर विश्वास पैदा हो जाता है और उसका मन संवेग से भर जाता है। वह अपनी पत्नी को समझाता है। पूर्ण विचार-विमर्श कर चारों ( माता-पिता तथा दोनों पुत्र ) प्रव्रजित हो जाते हैं। यहां एक सामाजिक तथ्य का उद्घाटन हुआ है। उस समय यह राज्य का विधान था कि जिसके कोई उत्तराधिकारी नहीं होता उसकी सम्पत्ति राजा की मानी जाती थी। भृगु पुरोहित का सारा परिवार दीक्षित हो गया। राजा ने यह बात सुनी। उसने सारी सम्पत्ति पर अधिकार करना चाहा। रानी कमलावती को यह मालूम हुआ और उसने राजा से कहा – “राजन् ! वमन को खाने वाले पुरुष की प्रशंसा नहीं होती। आप ब्राह्मण के द्वारा परित्यक्त धन को लेना चाहते हैं, यह वमन पीने जैसा है।" (श्लोक ३७, ३८) उन्होंने माता-पिता से कहा- “हमने देख लिया है कि मनुष्य जीवन अनित्य है, विघ्न-बहुल है और आयु थोड़ी है इसलिए घर में हमें कोई आनन्द नहीं है। हम मुनि-चर्या को स्वीकार करने के लिए आपकी अनुमति चाहते हैं।” (श्लोक ७) पिता ने कहा- “ पुत्रो ! वेदों को जानने वाले इस प्रकार कहते हैं कि जिनके पुत्र नहीं होता उनकी गति नहीं होती। इसलिए वेदों को पढ़ो। ब्राह्मणों को भोजन कराओ। स्त्रियों के साथ भोग करो। पुत्रोत्पन्न करो। पुत्रों का विवाह कर, उन्हें घर सौंप कर अरण्यवासी प्रशस्त मुनि हो जाना।” (श्लोक ८, E) पुत्रों ने कहा- “ वेद पढ़ने पर भी वे त्राण नहीं होते । ब्राह्मणों को भोजन कराने पर वे नरक में ले जाते हैं । औरस पुत्र भी त्राण नहीं होते । काम-भोग क्षण भर सुख और चिरकाल दुःख देने वाले, बहुत दुःख और थोड़ा सुख देने वाले, संसार- मुक्ति के विरोधी और अनर्थों की खान हैं। काल सदा तैयार खड़ा है। ऐसी स्थिति में प्रमाद कैसे किया जाए ?" (श्लोक १२, १३, १५) पिता ने कहा- “पुत्रो ! जिसके लिए सामान्यतया लोग तप किया करते हैं वह सब कुछ प्रचुर धन, स्त्रियां, स्वजन और इन्द्रियों के विषय तुम्हें यहीं प्राप्त हैं फिर तुम किसलिए श्रमण होना चाहते हो ?” (श्लोक १६ ) पुत्रों ने कहा - " जहां धर्म की धुरा को वहन करने का अधिकार है वहां धन, स्वजन और इन्द्रियों के विषयों का क्या प्रयोजन ? हम सभी प्रतिबन्धों से मुक्त होकर भिक्षा से निर्वाह करने वाले श्रमण होंगे।” (श्लोक १७) 9. नास्तिक मान्यता का यह घोष था कि शरीर से भिन्न कोई चैतन्य नहीं है। पांच भूतों के समवाय से उसकी उत्पत्ति होती के साथ इस कथा का निरूपण हुआ है। है और जब वे भूत विलग हो जाते हैं तब चैतन्य भी नष्ट हो उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ३७३ सीमंधरो य राया..... । रानी ने भोगों की असारता पर पूर्ण प्रकाश डाला। राजा के मन में विराग जाग उठा राजा-रानी दोनों प्रव्रजित हो गए। Jain Education International इस प्रकार यह अध्ययन ब्राह्मण-परम्परा तथा श्रमण परम्परा की मौलिक मान्यताओं की चर्चा प्रस्तुत करता है। नियुक्तिकार ने राजा के लिए 'सीमंधर' नाम का भी प्रयोग किया है। वृत्तिकार ने 'इषुकार' को राज्यकालीन नाम और 'सीमंधर' को राजा का मौलिक नाम होने की कल्पना की है। बौद्ध साहित्य के हस्तिपाल जातक (५०६) में कुछ परिवर्तन २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६४ अत्र चेषुकारमिति राज्यकालनाम्ना सीमन्धरश्चेति मौलिकनाम्नेति सम्भावयामः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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