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________________ उत्तरज्झयणाणि १. आवीचि मरण आयुकर्म के दलिकों की विच्युति अथवा प्रतिक्षण आयु की विच्युति, आवीचि मरण कहलाता है।' वीचि का अर्थ है— तरंग । समुद्र और नदी में प्रतिक्षण लहरें उठती हैं। वैसे ही आयु-कर्म भी प्रतिसमय उदय में आता है। आयु का अनुभव करना जीवन का लक्षण है। प्रत्येक समय का जीवन प्रतिसमय में नष्ट होता है। यह प्रत्येक समय का मरण आवीचि मरण कहलाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव की अपेक्षा से आवीचि-मरण के पांच प्रकार हैं। २. अवधि-मरण जीव एक बार नरक आदि जिस गति में जन्म-मरण करता है, उसी गति में दूसरी बार जब कभी जन्म-मरण करता है तो उसे अवधि मरण कहा जाता है।* ३. आत्यन्तिक- मरण जीव वर्तमान आयु-कर्म के पुद्गलों का अनुभव कर मरण प्राप्त हो, फिर उस भाव में उत्पन्न न हो तो उस मरण को आत्यन्तिक मरण कहा जाता है। वर्तमान मरण - 'आदि' और वैसा मरण आगे न होने से उसका 'अन्त' - इस प्रकार इसे 'आद्यन्त मरण' भी कहा जाता है। ४. वलन्मरण जो संयमी जीवन-पथ से भ्रष्ट होकर मृत्यु पाता है, उसकी मृत्यु को वलन्मरण कहा जाता है। भूख से तड़पते हुए मरने को भी वलन्मरण कहा जाता है। विजयोदया में वलाय मरण कहा है। इसकी व्याख्या इस प्रकार है -विनय, वैयावृत्य आदि को सत्कार न देने वाले, नित्य नैमित्तिक कार्यों में आलसी, व्रत, समिति और गुप्ति के पालन में अपनी शक्ति को छिपाने वाले, धर्म-चिन्तन के समय नींद लेने वाले, ध्यान और नमस्कार आदि से दूर भागने वाले व्यक्ति के मरण को वलाय मरण कहा जाता है। - ९६ ५. वशार्त - मरणदीप - कलिका में शलभ की तरह जो इन्द्रियों के वशीभूत होकर मृत्यु पाते हैं, उसे 'दशा-मरण' कहा आयुर्दलिकविच्युतिलक्षणावस्था १. समवाओ १७१६ वृत्ति पत्र ३४ यस्मिंस्तदावीचि अथवा वीचिः - विच्छेदस्तदभावादवीचि... एवं भूतं मरणमावीचिमरणं प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटनलक्षणम् । २. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८६ । ३. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गा० २१५ : अणु समयनिरन्तरमवीइसन्नियं तं भणन्ति पंचविहं । दव्वे खित्ते काले भवे य भावे य संसारे ।। Jain Education International ४. (क) समवाओ १७१६ वृत्ति पत्र ३४ मर्यादा तेन मरणमवधिमरणम्, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुः कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा तदवधिमरणमुच्यते । तद्द्रव्यापेक्षया पुनस्तद्ग्रहणावधिं यावज्जीवस्य मृतत्वादिति । (ख) उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गा० २१६ एमेव ओहिमरणं जाणि मओ ताणि चैव मरइ पुणो । (ग) विजयोदया वृत्ति, पत्र ८७ । ५. (क) समवाओ १७१६ वृत्ति पत्र ३४ यानि नारकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय मरष्यितीति एवं यन्मरणं तद्द्व्यापेक्षया अत्यन्तभावित्वादात्यन्तिकमिति । अध्ययन ५ आमुख जाता है।" विजयोदया में भी यह नाम मिलता है। यह मरण आर्त्त और रौद्र ध्यान में प्रवृत्त रहने वालों के होता है। इसके चार भेद हैं इन्द्रिय- यशात वेदना यशानं कषाय- बशार्त्त और नो- कषाय-यशार्थ " " ६. अन्त:शल्य मरण-भगवती की वृत्ति में इसके दो भेद किए गए हैं-- (१) द्रव्य और (२) भाव । शरीर में शस्त्र की नोक आदि रहने से जो मृत्यु होती है वह द्रव्य अन्तःशल्य-मरण कहलाता है । लज्जा और अभिमान आदि के कारण अतिचारों की आलोचना न कर दोषपूर्ण स्थिति में मरने वाले की मृत्यु को भाव अन्तःशल्य - मरण कहा जाता है। विजयोदया में इसका नाम सशल्य-मरण है। उसके भी दो भेद हैं--- द्रव्य शल्य और भाव शल्य । मिथ्यादर्शन, माया और निदान -इन तीनों शल्यों की उत्पत्ति के हेतुभूत कर्म को द्रव्य शल्य कहा जाता है। द्रव्य शल्य की दशा में होने वाला मरण द्रव्य शल्य-मरण कहलाता है। यह मरण पांच स्थावर और अमनस्क त्रस जीवों के होता है। उक्त तीन शल्यों के हेतुभूत कर्मों के उदय से जीव में जो माया, निदान और मिथ्यात्व का परिणाम होता है, उसे भाव शल्य कहा जाता है इस दशा में होने वाला मरण भाव शल्य मरण कहा जाता है 1 1 जहां भाव शल्य है वहां द्रव्य शल्य अवश्य होता है, किन्तु भाव शल्य केवल समनस्क जीवों में ही होता है। अमनस्क जीवों में संकल्प या चिन्तन नहीं होता, इसलिए उनके केवल द्रव्य शल्य ही होता है। इसीलिए अमनस्क जीवों के मरण को द्रव्य शल्य - मरण और समनस्क जीवों के मरण को भाव शल्य-मरण कहा गया है। * भविष्य में मुझे अमुक वस्तु मिले, आदि-आदि मानसिक संकल्पों को निदान कहते हैं । निदान शल्य-मरण असंयत सम्यक् दृष्टि और श्रावक के होता है। (ख) उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गा० २१६ एमेव आइयंतियमरणं नवि मरइ ताइ पुणो । ६. विजयोदया, वृत्ति, पत्र ८७ । ७. (क) समवाओ, १७१६ वृत्ति पत्र ३४ : संयमयोगेभ्यो वलतांभग्नव्रतपरिणतीनां व्रतिनां वलन्मरणम् । (ख) उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गा० २१७ : संयमजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणं तु । ८. भगवई, २४६ वृत्ति, पृ० २११ : बलतो-बुभुक्षापरिगतत्वेन वलवलायमानस्य संयमाद्धा भ्रश्यतो (यत्) मरणं तवलन्मरणम् । विजयोदया वृत्ति, पत्र ८६ । ६. १०. समवाओ १७१६ वृत्ति, पत्र ३४ इन्द्रियविषयपारतन्त्र्येण ऋता बाधिता दशार्त्ताः स्निग्धदीपकलिकावलोकनात् शलभवत् तथाऽन्तः । For Private & Personal Use Only ११. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८६, ६० १२. भगवई २४६ वृत्ति, पत्र २११ : अन्तःशल्यस्य द्रव्यतो ऽनुद्धततोमरादेः भावतः सातिचारस्य यद्मरणं तद् अन्तःशल्यमरणम् । १३. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८८ । १४. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८६ । www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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