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________________ अकाममरणीय ९७ मार्ग (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) को दूषित करना, मार्ग का नाश करना, उन्मार्ग की प्ररूपणा करना, मार्ग में स्थित लोगों का बुद्धि-भेद करना — इन सबको एक शब्द में मिथ्यादर्शन- शल्य कहा जाता है।" पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त आदि मुनि धर्म से भ्रष्ट होकर मरण-समय तक दोषों की आलोचना किए बिना जो मृत्यु पाते है। विजयोदया में इसके चार भेद किए हैंहैं, उसे माया- शल्य-मरण कहा जाता है। यह मरण मुनि, श्रावक और असंयत सम्यक् दृष्टि को प्राप्त होता है। (३) ज्ञान- पंडित (४) चारित्र - पंडित ।' ७. तद्भव - मरण— वर्तमान भव (जन्म) से मृत्यु होती है, उसे तद्भव - मरण कहा जाता है। ८. बाल-मरण- मिथ्यात्वी और सम्यकदृष्टि का मरण बाल-मरण कहलाता है। भगवती में बाल-मरण के १२ भेद प्राप्त हैं। विजयोदया में पांच भेद किए हैं- (१) अव्यक्त-बाल (२) व्यवहार - बाल (३) ज्ञान- बाल (४) दर्शन - बाल और (५) चारित्र बाल। इनकी व्याख्या संक्षेप में इस प्रकार है: (१) अव्यक्त - बाल -छोटा बच्चा जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को नहीं जानता तथा इन चार पुरुषार्थों का आचरण करने में भी समर्थ नहीं होता। (२) व्यवहार - बाल - लोक व्यवहार, शास्त्र - ज्ञान आदि को जो नहीं जानता । - (३) ज्ञान - बाल - जो जीव आदि पदार्थों को यथार्थ रूप से नहीं जानता। (४) दर्शन - बाल - जिसकी तत्त्वों के प्रति श्रद्धा नहीं होती । दर्शन - बाल के दो भेद हैं—इच्छा-प्रवृत्त और अनिच्छा-प्रवृत्त। इच्छा-प्रवृत्त-अग्नि, धूप, शस्त्र, विष, पानी, पर्वत से गिरकर, श्वासोच्छ्वास को रोक कर, अति सर्दी या गर्मी होने से, भूख और प्यास से, जीभ को उखाड़ने से, प्रकृत्तिविरुद्ध आहार करने से इन साधनों के द्वारा जो इच्छा से प्राण त्याग करता है, वह इच्छा-प्रवृत्त दर्शनबाल-मरण कहलाता है। अनिच्छा-प्रवृत्त योग्यकाल में या अकाल में मरने की इच्छा के बिना जो मृत्यु होती है, वह अनिच्छा-प्रवृत्त दर्शन-बाल-मरण कहलाता है। (५) चारित्र - बाल - जो चरित्र से हीन होता है। विषयों में १. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८८,८६ २. (क) समवाओ १७/६ वृत्ति, पत्र ३४ : यस्मिन् भवे — तिर्यग्मनुष्यभवलक्षणे वर्त्तते जन्तुस्तद्भवयोग्यमेवायुर्बद्ध्वा पुनः तत्क्षयेण म्रियमाणस्य यद्भवति तत्तद्भवमरणम् (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २२१ : मोत्तुं अकम्मभूमगनरतिरिए सुरगणे अ नेरइए । सेसाण जीवाणं तब्भवमरणं तु केसिंचि ।। (ग) विजयोदया वृत्ति, पत्र ८७ । ३. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा २२२ अविरयमरणं बालं मरणं.. ४. भगवई २१४६ । Jain Education International अध्ययन ५ : आमुख आसक्त, दुर्गति में जाने वाले, अज्ञानान्धकार से आच्छादित, ऋद्धि में आसक्त, रसों में आसक्त और सुख के अभिमानी जीव बाल-मरण से मरते हैं । ९. पंडित मरण संयति का मरण पंडित मरण कहलाता (१) व्यवहार- पंडित (२) सम्यक्त्व - पंडित इनकी व्याख्या इस प्रकार है : (१) व्यवहार - पंडित—जो लोक, वेद और समय के व्यवहार में निपुण, उनके शास्त्रों का ज्ञाता और शुश्रूषा आदि गुणों से युक्त हो । ( २ ) दर्शन - पंडित जो सम्यक्त्व से युक्त हो । ज्ञान- पंडित जो ज्ञान से युक्त हो । (३) (४) चारित्र - पंडित — जो चारित्र से युक्त हो । १०. बाल - पंडित मरण -- संयतासंयत का मरण बाल- पंडित मरण कहलाता है।" स्थूल हिंसा आदि पांच पापों के त्याग तथा सम्यक् - दर्शन युक्त होने से वह पंडित है। सूक्ष्म असंयम से निवृत्त न होने के कारण उसमें बालत्व भी है।" ११. छद्मस्य मरण मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मतिज्ञानी श्रमण के मरण को छद्मस्थ-मरण कहा जाता है। " ८. ६. विजयोदया में इसके स्थान पर 'ओसण्ण-मरण' नाम मिलता है।" उसकी व्याख्या इस प्रकार है— रत्नत्रय में विहार करने वाले मुनियों के संघ से जो अलग हो गया हो उसे 'अवसन्न' कहते हैं। उसके मरण को अवसन्न-मरण कहा जाता है। पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील, संसक्त और अवसन्नये पांच भ्रष्ट मुनि 'अवसन्न' कहलाते हैं। ये ऋद्धि में आसक्त, दुःख से भयभीत, कषायों में परिणत हो आहार आदि संज्ञाओं के वशवर्ती, पाप शास्त्रों के अध्येता, तेरह क्रिया (३ गुप्ति, ५ समिति और ५ महाव्रत ) में आलसी, संक्लिष्ट परिणामी, भक्तपान और उपकरणों में आसक्त, निमित्त, तंत्र-मंत्र और औषध से आजीविका करने वाले, गृहस्थों का वैयावृत्य करने वाले, उत्तर गुणों से हीन, गुप्ति और समिति में अनुद्यत, संसार के दुःखों से भय न करने वाले, क्षमा आदि दश धर्मों में प्रवृत्त न होने वाले - ५. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८७ ८८ ६. वही, पत्र ८८ ७. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा २२२ जाणाहि बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं । विजयोदया वृत्ति, पत्र ८८ उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा २२३ : मणपज्जवोहिनाणी सुअमइनाणी मरंति जे समणा । छउमत्थमरणमेयं केवलिमरणं तु केवलिणो ।। १०. विजयोदया वृत्ति, पत्र ८८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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