SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ५ : आमुख तथा चारित्र में दोष लगाने वाले होते हैं। ये अवसन्न मुनि मर आता है। भव का अन्त करने योग्य संहनन और संस्थान को कर हजारों भवों में भ्रमण करते हैं और दुःखों को भोगते हुए 'प्रायोग्य' कहा जाता है। उसकी प्राप्ति को 'प्रायोग्य-गमन' कहा जीवन को पूरा करते हैं। है। विशिष्ट संहनन और विशिष्ट संस्थान वाले के मरण को १२. केवलि-मरण-केवलज्ञानी का मरण केवलि-मरण प्रायोग्य-गमन-मरण कहा जाता है। कहलाता है। श्वेताम्बर परम्परा में 'पादपोपगमन' शब्द मिलता है और १३. वैहायस-मरण-वृक्ष की शाखा पर लटकने, पर्वत दिगम्बर परम्परा में 'प्रायोपगमन', 'प्रायोग्य' और 'पादोपगमन' से गिरने और झंपा लेने आदि कारण से होने वाला मरण पाठ मिलता है। वैहायस मरण कहलाता है। विजयोदया में इसके स्थान पर भगवती में पादपोपगमन के दो भेद किए हैं—निर्हारि 'विप्रणास-मरण' है। और अनिर्हारि। निर्हारि-इसका अर्थ है बाहर निकालना। १४. गृद्धपृष्ठ-मरण हाथी आदि के कलेवर में प्रविष्ट उपाश्रय में मरण प्राप्त करने वाले साधु के शरीर को वहां से होने पर उस कलेवर के साथ-साथ उस जीवित शरीर को भी बाहर ले जाना होता है, इसलिए उस मरण को निर्हारि कहते हैं। गीध आदि नोंच-नोंच कर मार डालते हैं. उस स्थिति में जो अनिहारि-अरण्य में अपने शरीर का त्याग करने वाले साधु मरण होता है, वह गृद्धपृष्ठ-मरण कहलाता है। के शरीर को बाहर ले जाना नहीं पड़ता, इसलिए उसे १५. भक्त-प्रत्याख्यान-मरण-यावज्जीवन के लिए विविध अनियरि-मरण कहा जाता है। अथवा चतुर्विध आहार के त्यागपूर्वक जो मरण होता है, उसे भगवती में इंगिनी-मरण को भक्त-प्रत्याख्यान का एक भक्त-प्रत्याख्यान-मरण कहा जाता है। प्रकार स्वीकार कर उसकी स्वतंत्र व्याख्या नहीं की है। १६. इंगिनी-मरण प्रतिनियत स्थान पर अनशनपर्वक मूलाराधना में भक्त-प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन ये मरण को इंगिनी-मरण कहते हैं। जिस मरण में अपने अभिप्राय ताना पाडत मरण क भद मान गए ह। से स्वयं अपनी शुश्रूषा करे, दूसरे मुनियों से सेवा न ले उसे उपर्युक्त सतरह मरण विभिन्न विवक्षाओं से प्रतिपादित इंगिनी-मरण कहा जाता है। यह मरण चतर्विध आहार का हैं। आवीचि, अवधि, आत्यन्तिक और तद्भव-मरण भव की प्रत्याख्यान करने वाले के ही होता है। दृष्टि से, वलन्, वैहायस, गृद्धपृष्ठ, वशाल और अन्तःशल्य-मरण १७. प्रायोपगमन, पादपोपगमन, पादोपगमन-मरण- आत्म-दोष, कषाय आदि की दृष्टि से, बाल और पण्डित मरण अपनी परिचर्या न स्वयं करे और न दूसरों से कराए, ऐसे मरण चारित्र की दृष्टि से, छद्मस्थ और केवलि-मरण ज्ञान की दृष्टि को प्रायोपगमन अथवा प्रायोग्य-मरण कहते हैं। वृक्ष के नीचे से तथा भक्त-प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन-मरण अनशन स्थिर अवस्था में चतुर्विध आहार के त्यागपूर्वक जो मरण होता की दृष्टि से प्रतिपादित हैं। है, उसे पादपोपगमन-मरण कहते हैं। अपने पांवों के द्वारा संघ उपर्युक्त सतरह मरणों में आवीचि मरण प्रतिपल होता है से निकल कर और योग्य प्रदेश में जाकर जो मरण किया जाता और सिद्धों को छोड़ सब प्राणियों के होता है। शेष मरण है उसे पादोपगमन-मरण कहा जाता है। इस मरण को चाहने जीव-विशेषों के होते हैं। वाले मुनि अपने शरीर की परिचर्या न स्वयं करते हैं और न एक समय में कितने मरण होते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर दूसरों से करवाते हैं। कहीं 'पाउग्गमण' (प्रायोग्य) पाठ भी उत्तराध्ययन की नियुक्ति में है। एक समय में दो मरण, तीन १. (क) भगवई २४६ वृत्ति, पत्र २२१: । ७. विजयोदया वृत्ति, पत्र ११३ । वृक्षशाखाधुबन्धनेन यत्तन्निरुक्तिवशाद्वैहानसम् । ८. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), गाथा ६१। (ख) उत्तराध्यययन नियुक्ति, गाथा २२४ : ६. विजयोदया वृत्ति, पत्र ११३ । गिद्धाइभक्खणं गिद्धपिट्ट उब्बंधणाइ वेहासं। १०. विजयोदया वृत्ति, पत्र ११३ । एए दुन्निवि मरणा कारणजाए अणुण्णाया।। ११. भगवई २ ME वृत्ति, पत्र २१२ : निहरिण निर्वृत्तं यत्तन्निारिम, प्रतिश्रये २. विजयोदया वृत्ति, पत्र 01 यो म्रियते तस्यैतत्, तत्कडेवरस्य निर्हारणात् । अनिर्हारिमं तु योऽटव्यां ३. (क) भगवई २१४९ वृत्ति, पत्र २११ : पक्षिविशेषैर्गदैर्वा-मांसुलुब्धैः म्रियते इति। शृगालादिभिः स्पृष्टस्य–विदारितस्य करिकरभरासभादिशरीरान्त- १२. भगवई २४९ वृत्ति, पत्र २१२ : इङ्गितमरणमभिधीयते र्गतत्वेन यन्मरणं तद्गृध्रस्पृष्टं वा गृद्धस्पृष्टं वा, गृधैर्वा भक्षितस्य- तद्भक्तप्रत्याख्यानस्यैव विशेषः। स्पृष्टस्य यत्तद्गृध्रस्पृष्टम्। १३. मूलाराधना, गाथा २६: पायोपगमण मरणं भत्तपइण्णा च इंगिणी चेव। (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा २२४ । तिविहं पंडियमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स।। ४. (क) भगवई २४६ वृत्ति, पत्र २११, २१२। १४. उत्तराध्ययन नियुक्ति-गाथा २२७-२२६: (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा २२५, वृत्ति, पत्र २३५।। दुन्नि व तिन्न व चत्तारि पंच मरणाइ अवीइमरणमि। ५. भगवई २४ वृत्ति, पत्र २१२ : चतुर्विधाहारपरिहारनिष्पन्नमेव भवतीति। कइ मरइ एगसमयंसि विभासावित्थरं जाणे ।। (क) भगवई २४६वृत्ति, पत्र २१२। सव्वे भवत्थजीवा मरंति आवीइअंसया मरणं। (ख) समवाओ १७।६ वृत्ति, पत्र ३५ : पादस्येवोपगमनम्-अवस्थानं ओहिं च आइअंतिय दुन्निवि एयाइ भयणाए।। यस्मिन् तत्पादपोपगमनं तदेव मरणम् । ओहिं च आइअंतिअ बालं तह पंडिअंच मीसं च। (ग) उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा २२५, वृत्ति पत्र २३५ । छउमं केवलिमरणं अन्नुन्नेणं विरुज्झति।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy