SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरज्झयणाणि १७० प्रयत्न और तनु । यहां प्रकरणवश उसका अर्थ बुद्धि या ज्ञान है । भगवान् अर्थात् बृद्धिमान ।' आचार्य नेमिचन्द्र ने धैर्य आदि समस्त गुणों से युक्त व्यक्ति को भगवान् माना है।" ५. स्वयं संबुद्ध हुआ (सहसंबुद्धो) चूर्णिकार ने "सहसंबुद्ध की व्युत्पत्ति सहसा संबुद्धीइस रूप में देकर इसका अर्थ स्वयंबुद्ध किया है। वृत्तिकार ने 'सह' का मुख्य अर्थ स्वयं और संबुद्ध का अर्थ सम्यग् तत्त्व का ज्ञाता किया है। जो स्वयं संबुद्ध होता है, किसी के द्वारा नहीं, वह सहसंबुद्ध है। उन्होंने इसका वैकल्पिक अर्थ-सहसा संबुद्ध अर्थात् जातिस्मृति के अनन्तर शीघ्र ही संबुद्ध होने वाला - किया है। * आगम साहित्य में 'सह' शब्द 'स्व' के अर्थ में प्रयुक्त होता है।" मुनि तीन प्रकार के होते हैं १. स्वयंबुद्ध बिना किसी निमित्त के बुद्ध होने वाले । २. प्रत्येकबुद्ध निमित्त से प्रतिबुद्ध होने वाले। ३. बुद्धबोधित प्रतिबुद्ध व्यक्ति से प्रेरणा पाकर बुद्ध होने वाले । नमि स्वयंयुद्ध नहीं, प्रत्येकबुद्ध थे कथानक के अनुसार वे चूड़ियों की ध्वनि के निमित्त को पाकर प्रतिबुद्ध हुए थे। अठारहवें अध्ययन (श्लोक ४५) के चार प्रत्येकबुद्धों में 'नमि' का भी उल्लेख है । किन्तु मूलपाठ के आधार पर यह फलित होता है कि नमि को पूर्वजन्म की स्मृति हुई और उसके पश्चात् वे स्वयं संबुद्ध हो गए।" ६. सेना (बल.....) चूर्णिकार के अनुसार 'बल' शब्द चतुरंगिणी सेना का द्योतक है। प्राचीन काल में सेना के चार अंग ये थे१. हस्तिसेना, २. अश्वसेना, ३. रथसेना और ४. पदातिसेना । ७. एकान्तवासी या एकत्व अधिष्ठित (एगंतमहिडिओ) एकान्त शब्द के तीन अर्थ किए गए हैं— मोक्ष, विजन स्थान और एकत्व भावना । जो मोक्ष के उपाय- सम्यक् दर्शन आदि का सहारा लेता है, वह यहीं जीवन मुक्त हो जाता है, १. बृहद्वृत्ति पत्र ३०६ भगशब्दो यद्यपि धैर्यादिष्वनेकेषु अर्थेषु वर्तते, यदुक्तं धैर्यसोभाग्यमाहात्म्ययशो ऽर्कश्रुतधीश्रियः । तपोऽर्थोपस्थपुण्येशप्रयत्नतनवो भगाः ।। इति, तथापीह प्रस्तावाद् बुद्धिवचन एव गृह्यते, ततो भगोबुद्धिर्यस्यास्तीति भगवान् । २. सुखबोधा, पत्र १४५ । ३. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८० सहसा संबुद्धो सहसंबुद्धो, असंगत्तणो समणत्तणे स्वयं नान्येन बोधितः - स्वयंबुद्धः । ४. वृहद्वृत्ति पत्र ३०६ सहति-स्वयमात्मनैव सम्बुद्धः सम्यगवगततत्त्वः सहसम्बुद्धो, नान्येन प्रतिबोधित इत्यर्थः अथवा सहस त्ति आर्यत्वात् सहसा —– जातिस्मृत्यनन्तरं झगित्येव बुद्धः । ५. आयारो, १३ सहसम्मुइयाए... 1 ६. देखें- इसी अध्ययन के प्रथम दो श्लोक । अध्ययन ६ : श्लोक २-५ टि० ५-६ इसलिए वह एकान्ताधिष्ठित कहलाता है। उद्यान आदि विजन स्थानों में रहने वाला तथा 'मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूं। मैं उनको नहीं देखता कि जिसका मैं होऊं और जो मेरा हो वह भी मुझे नहीं दीखता ' --इस प्रकार अकेलेपन की भावना करने वाला भी एकांताधिष्ठित कहलाता है। एकांतवासी में ये तीनों अर्थ गर्भित हैं। इन सभी अर्थों के साथ ही साथ चूर्णिकार ने एकांत का अर्थ 'वैराग्य' भी किया है।" Jain Education International प्रस्तुत श्लोक में 'एगंतमहिडिओ' तथा सोलहवें श्लोक में एगंतमणुपस्सओ' पाठ है। अर्थ के संदर्भ में दोनों स्थानों पर 'एगत्त' पाठ होना चाहिए। 'एगत्त' और 'एगंत' में लिखने में अधिक अन्तर नहीं होता। संभवतः 'एगत्त' पाठ ही 'एगंत' बन गया हो। 'एगतमहिट्टिओ' का अर्थ एकांतवासी की अपेक्षा एकत्व अधिष्ठित अधिक संगत लगता है। इसी प्रकार 'एगंतमणुपस्सओ' का अर्थ एकान्तदर्शी की अपेक्षा एकत्वदर्शी अधिक उपयुक्त लगता है। 'मैं अकेला हूं' 'मेरा कोई नहीं है' – यह बात एकत्वदर्शी ही कह सकता है। (देखें- श्लोक १६ का टिप्पण:) ८. राजर्षि नगि (रायरिसिंमि) नमि मिथिला जनपद के राजा थे। प्रव्रज्या के लिए उद्यत होने पर वे ऋषि बन गए। इसलिए उन्हें, 'राजर्षि' के रूप में अभिहित किया गया है। अथवा राजा की अवस्था में भी वे एक ऋषि की भांति जीवन बिताते थे, इसलिए भी वे राजर्षि कहलाए। राजनीति का एक श्लोक है 'कामः क्रोधस्वथा लोगो, हाँ मानो मदस्तथा । षड्वर्गमुत्सृजेदेनं, तस्मिंस्त्यक्ते सुखी नृपः ।।' --जो काम, क्रोध, लोभ, हर्ष, मान और मद-अहंकारइस षड्वर्ग को छोड़ देता है, वह राजर्षि कहलाता है। वह सुखी होता है । ९. कोलाहल जैसा होने लगा (कोलाहलगभूग) ७. जब नमि राजर्षि ने प्रव्रज्या के लिए अभिनिष्क्रमण किया उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८१ : बलं चतुरंगिणीसेनाम् । बृहद्वृत्ति, पत्र ३०७ 'एगंत' त्ति एवः — अद्वितीयः कर्म्मणामन्तो यस्मिन्निति, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, तत एकान्ती मोक्षस्तम् 'अधिष्ठित:' इव आश्रितवानियाधिष्ठितः, तदुपायसम्यग्दर्शनाद्यासेवनादधिष्ठितः एव वा इहैव जीवन्मुक्त्यावाप्तेः यद्वैकान्तं-द्रव्यतो विजनमुद्यानादि भावतश्च सदा एकोऽहं न च मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं नासौ दृश्योऽस्ति यो मम ।। इति भावनात एक एवाहमित्यन्तो निश्चय एकांतः, प्राग्वत् समासः, तमधिष्ठितः । ६. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८१ : एगंतमहिट्टियो वैराग्येनेत्यर्थः । १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०७ : राजा चासौ राज्यावस्थामाश्रित्य ऋषिश्च तत्कालापेक्षया राजर्षिः, यदि वा राज्यावस्थायामपि ऋषिरिव ऋषि:-- क्रोधादिषड्वर्गजयात्, तथा च राजतीतिः काम.. सुखी नृपः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy