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________________ टिप्पण : अध्ययन ६ : १. उत्पन्न हुआ ( उववन्नो) आगमों में यह शब्द बहु व्यवहृत है। इसका सामान्य अर्थ -उत्पत्ति । देवता और नैरयिक के अतिरिक्त मनुष्य (उत्तरा० ६ 1१), स्थावरकाय (सूत्रकृतांग २ 1७1१०) तथा त्रसकाय (सूत्रकृतांग २।७।१६ ) की उत्पत्ति में भी यह शब्द प्रयुक्त है। उत्तरवर्ती साहित्य में यह शब्द देवता और नारक की उत्पत्ति के अर्थ में रूद्र हो गया तत्त्वार्थ में 'नारकदेवानामुपपातः ऐसा प्रयोग मिलता है।' उपपात का अर्थ भी उत्पत्ति है । परन्तु उत्पत्ति और उपपात की प्रक्रिया भिन्न है। गर्भज और सम्मूर्च्छनज प्रक्रिया उत्पत्ति की प्रक्रिया है । उपपात की प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाला जीव अंतर्मुहूर्त में युवा बन जाता है।" २. उसका मोह उपशान्त था ( उवसंतमोहणिज्जो) यहां उपशम का अर्थ — अनुदयावस्था है। प्रस्तुत प्रसंग में चूर्णिकार ने दर्शनमोह और चारित्रमोह--दोनों की उपशांत दशा का उल्लेख किया है । वृत्ति में केवल दर्शनमोहनीय की उपशांत दशा का उल्लेख है। * जातिस्मृति ज्ञान के लिए चारित्रमोहनीय का उपशांत होना भी आवश्यक है। शुभ परिणाम और लेश्या की विशुद्धि के क्षणों में जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न होता है। ३. पूर्वजन्म की स्मृति हुई (सरई पोराणियं जाई) जाति का अर्थ उत्पत्ति या जन्म है। आत्मवाद के अनुसार जन्म की परम्परा अनादि है। इसलिए उसे पुराण कहा है। पुराण - जाति अर्थात् पूर्व जन्म । पूर्व जन्म की स्मृति को 'जातिस्मृति ज्ञान' कहा जाता है। यह मतिज्ञान का एक प्रकार है। इसके द्वारा पूर्ववर्ती संख्येय जन्मों की स्मृति होती है। वे सारे समनस्क जन्म होते हैं। प्रचलित धारणा यह है कि जातिस्मृति से उत्कृष्टतः पूर्व के नौ जन्म जाने जा सकते हैं। किसी हेतु से संस्कार का जागरण होता है और अनुभूत विषय की स्मृति हो जाती है । संस्कार मस्तिष्क में संचित होते हैं। प्रयत्न करने पर वे उबुद्ध हो जाते हैं। आजकल मस्तिष्क पर यांत्रिक व्यायाम कर शिशु जीवन की १. तत्त्वार्थवार्तिक २३५ । २. तत्त्वार्थवार्तिक २।३२, भाष्य । ३. उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० १८० उवसंतमोहणिज्जो दंसणमोहणिज्जं चरित्रमोहणिज्जं च उवसंतं जस्स सो भवति उवसंतमोहणिज्जो । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०६ उपशान्तं अनुदयं प्राप्तं मोहनीयं दर्शनमोहनीयं यस्यासावुपशान्तमोहनीयः । Jain Education International नमि- प्रव्रज्या घटनाओं की स्मृति कराई जाती है। यह सारी वर्तमान जीवन की स्मृति की प्रक्रिया है। पूर्व जन्म के संस्कार सूक्ष्म शरीर-कार्मण- शरीर में संचित रहते हैं। मन की एकाग्रता तथा पूर्व-जन्म को जानने की तीव्र अभिलाषा से अथवा किसी अनुभूत घटना की पुनरावृत्ति देख जाति स्मृति हो जाती है। जैन आगमों में इसके अनेक उल्लेख हैं। वर्तमान में भी इससे संबद्ध घटनाएं सुनी जाती है। पूर्वजन्म की स्मृति के चार कारण निर्दिष्ट हैं"मोहनीय कर्म का उपशम । १. २. ३. ४. अध्यवसायों की शुद्धि अथवा लेश्या की शुद्धि । ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा । जातिस्मृति ज्ञान को आवृत करने वाले कर्मों का क्षयोपशम । प्रस्तुत श्लोक में केवल एक ही कारण मोहनीय कर्म का उपशम निर्दिष्ट है । जातिस्मृति ज्ञान के दो प्रकार हैं—सनिमित्तक और अनिमित्तक । कुछेक व्यक्तियों में जातिस्मृति ज्ञान के आवारक कर्मों के क्षयोपशम से वह ज्ञान स्वतः उद्भूत हो जाता है। यह अनिमित्तक है। कुछेक व्यक्तियों में यह ज्ञान बाह्य निमित्त से होता है । यह सनिमित्तक है। उद्भूत चूर्णिकार के अनुसार प्रस्तुत प्रसंग में नमि जान जाते हैं। कि देवभव से पूर्व वे मनुष्य थे और वहां उन्होंने संयम की आराधना की थी। वहां से वे पुष्पोत्तर विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए थे। 'सरई' वर्तमान काल का रूप है । शान्त्याचार्य ने 'स्म' को नेमिचन्द्र ने उस समय की अपेक्षा से इसे वर्तमान का रूप माना 'शेष' माना है । 'स्मरतिस्म' अर्थात् याद किया— स्मृति हुई। है ।" ४. भगवान् (भयवं) 'भग' शब्द के अनेक अर्थ हैं--धैर्य, सौभाग्य, माहात्म्य, यश, सूर्य, श्रुल, बुद्धि, लक्ष्मी, तप, अर्थ, योनि, पुण्य, ईश, ५. आयारो १३, वृत्ति पत्र १८ जातिस्मरणं त्वाभिनिबोधिकविशेषः । ६. आयारो ११३, वृत्ति पत्र १६ : जातिरमरणस्तु नियमतः संख्येयान् । ७. नायाधम्मकहाओ १।१६० । उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० १८० । ए. ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०६ । १०. सुखबोधा, पत्र १४५ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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