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________________ नमि-प्रव्रज्या १७१ अध्ययन ६:श्लोक ६-७ टि०१०-१२ तब कुछ पौरजन विलाप करने लगे, कुछ आक्रन्दन करने लगे ६. ब्राह्मणकुलसंभूतः (बृ० ५० ५२२) और कुछ चिल्लाने लगे। उन सभी कलकल शब्दों से सारा नगर ब्राह्मणसम्पदः (बृ० प० ५२६) कोलाहलमय हो गया, कोलाहल से आकुल हो गया। ब्राह्मणः (बृ०प०५२६) भूत शब्द के आठ अर्थ प्राप्त हैं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् (बृ० प०५२६) १. बना हुआ ५. यथार्थ ब्राह्मण: माहणः (बृ० प०५२) २. अतीत ६. विद्यमान ब्राह्मणत्वम् (बृ०प०५२६) ३. प्राप्त ७. उपमा उक्त अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ४. सदृश ८. तदर्थभाव। शान्त्याचार्य ने १८२१ में प्रयुक्त 'माहण' शब्द की व्याख्या वृत्तिकार ने प्रस्तुत प्रकरण में भूत शब्द के दो अर्थ किए अहिंसक के रूप में की है और शेष स्थानों में प्रयुक्त 'माहण' हैं-जात-उत्पन्न और सदृश।' यहां पहला अर्थ ही प्रसंगोपात्त का अर्थ उन्होंने ब्राह्मण जाति या ब्राह्मणत्व से संबद्ध माना है। है। इस अर्थ में 'भूत' शब्द का परनिपात प्राकृत के नियमानुसार ब्राह्मण का प्राकृत रूप 'बंभण' बनता है किन्तु इस आगम में हुआ है। ब्राह्मण के लिए 'बंभण' का प्रयोग २५११६, २९, ३०, ३१ में १०. बाह्मण (माहण) हुआ है। इसके सिवा सर्वत्र ‘माहण' का प्रयोग मिलता है। उत्तराध्ययन में 'माहण' शब्द का प्रयोग निम्नांकित स्थलों 'माहण' और 'बंभण' की प्रकृति एक नहीं है। 'माहण' अहिंसा पर हुआ है का और 'बंभण' ब्रह्मचर्य (ब्रह्म-आराधना) का सूचक है। अहिंसा १. ६६,३८,५५। के बिना ब्रह्म की आराधना नहीं हो सकती और ब्रह्म की २. १२।११,१३,१४,३०,३८ । आराधना के बिना कोई अहिंसक नहीं हो सकता। इस प्रगाढ़ ३. १४१५,३८,५३। सम्बन्ध से दोनों शब्द एकार्थवाची बन गए। आगमिक व्याकरण ४. १५।६। के अनुसार ब्राह्मण का 'माहण' रूप बनता हो, यह भी संभव ५. १८२१। है। ब्राह्मण के लिए 'माहण' शब्द के प्रयोग की प्रचुरता को देखते । ६.२५।१,४,१८-२७,३२,३४,३५। हुए इस संभावना की उपेक्षा नहीं की जा सकती। शान्त्याचार्य ने इन विभिन्न स्थलों में प्रयुक्त 'माहण' शब्द मलयगिरि ने 'माहण' का अर्थ परम गीतार्थ श्रावक भी का अर्थ इस प्रकार किया है किया है। इस प्रकार 'माहण' शब्द साधु, श्रावक और ब्राह्मण-- १. माहणरूयेण-ब्राह्मणवेषेण (बृ० प०३०७) इन तीनों के लिए प्रयुक्त होता है, यह आगम की व्याख्याओं से ब्राह्मणाश्च द्विजाः (बृ० प० ३१४) प्राप्त होने वाला निष्कर्ष है। पर वह कहां साधु के लिए, कहां ब्राह्मणरूपम् (बृ० प० ३१८) श्रावक के लिए और कहां ब्राह्मण के लिए है—इसका निर्णय २. माहणानां ब्राह्मणानाम् (बृ० प० ३६०) करना बहुत विवादास्पद रहा है। ब्राह्मणाः द्विजाः (बृ० प० ३६१) ११. प्रासादों और गृहों में (पासाएसु गिहेसु) ब्राह्मणानाम् (बृ० प० ३६२) चूर्णिकार ने प्रासाद का व्युत्पत्तिपरक अर्थ इस प्रकार ब्राह्मणो द्विजातिः (बृ० प० ३६७) किया है--जिसको देखकर जनता के नयन और मन आनन्दित माहना ब्राह्मणाः (बृ० प० ३७०) हो जाते हैं, वह है प्रासाद।' ३. माहनस्य ब्राह्मणस्य (बृ० प० ३६७) वृत्ति के अनुसार सात मंजिल वाला या इससे अधिक ब्राह्मणेन (बृ० प० ४०८) मंजिल वाला मकान ‘प्रासाद' कहलाता है और साधारण मकान ब्राह्मणः, ब्राह्मणी (बृ० प० ४१२) 'गृह' । प्रासाद का दूसरा अर्थ देवकुल और राज-भवन भी है।" ४. माहना ब्राह्मणाः (बृ० प० ४१८) १२. दारुण (दारुणा) | ५. 'माहण' त्ति मा वधीत्येवंरूपं मनो वाक् क्रिया च जो शब्द जनमानस को विदारित कर देते हैं, मन को फाड़ यस्यासी माहनः, सर्वे धातवः पचादिषु दृश्यन्त इति देते हैं अथवा जो शब्द हृदय में उद्वेग पैदा करते हैं, वे दारुण बचनात्पचादित्वादच् (बृ० प० ४४२) कहलाते हैं। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०७ : भूत इति जात....यदि वा भूत शब्द उपमार्थः। २. रायपसेणइयं, दृत्ति ३०० : 'माहनः' परमगीतार्थः श्रावकः । ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १५१ : पसीदन्ति जणस्य नयनमनांसि इति प्रासादः। ४. बृहवृत्ति, पत्र ३०८ : 'प्रासादेषु'-सप्तभूमादिषु, 'गृहेषु' सामान्यवेश्मसु, यद्वा 'प्रासादो देवतानरेन्द्राणा' मितिवचनातू प्रासादेषु देवतानरेन्द्रसम्ब न्धिष्वास्पदेषु 'गृहेषु' तदितरेषु। ५. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३०८। (ख) सुखबोधा, पत्र १४६ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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