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________________ उत्तरायणाणि १३. सुनकर, हेतु और कारण से (निसामित्ता हे ऊकारण...) संस्कृत भाषा में श्रुत्वा (सोच्चा) और निशम्य ( निसामित्ता) ये सामान्यतः पर्यायवाची माने जाते हैं। अर्थ की अभिव्यंजना की दृष्टि से दोनों में अन्तर है। श्रुत्वा का अर्थ है— सुनकर और निशम्य का अर्थ है- अवधारण कर ।' साध्य के बिना जिसका न होना निश्चित हो उसे हेतु कहा जाता है। इन्द्र ने कहा- 'तुम जो अभिनिष्क्रमण कर रहे हो वह अनुचित है (पक्ष), क्योंकि तुम्हारे अभिनिष्क्रमण के कारण समूचे नगर में हृदय-वेधी कोलाहल हो रहा है (हेतु) 12 अदृष्ट पदार्थ जिस दृष्ट वस्तु के द्वारा गृहीत होता है, उसे हेतु कहा जाता है। जैसे—-अदृष्ट अग्नि के लिए दृष्ट धुआं हेतु है । १७२ अध्ययन ६ : श्लोक ८-१० टि० १३-१६ जाती। स्थानांग में 'चेइयरुक्ख' शब्द मिलता है। उससे भी यह प्रमाणित होता है कि 'चेइए वच्छे' का अर्थ 'चैत्यवृक्ष' ही होना चाहिए। जिसके बिना कार्य की उत्पत्ति न हो सके और जो निश्चित रूप से कार्य का पूर्ववर्ती हो उसे कारण कहा जाता है। यदि तुम अभिनिष्क्रमण नहीं करते तो इतना हृदय-वेधी कोलाहल नहीं होता। इस हृदय-वेधी कोलाहल का कारण तुम्हारा अभिनिष्क्रमण है। १४. चैत्यवृक्ष (चेइए वच्छे ) घृणिं और टीका में चैत्यवृक्ष का अर्थ उद्यान और उसके वृक्ष किया गया है। किन्तु वस्तुतः 'चेइए वच्छे' का अर्थ 'चैत्यवृक्ष' होना चाहिए । चैत्य को वियुक्त मानकर उसका अर्थ उद्यान करने का कोई प्रयोजन नहीं है । पीपल, बड़, पाकड़ और अश्वत्थ-ये चैत्य जाति के वृक्ष है। मल्लिनाथ ने रथ्या वृक्षों को चैत्यवृक्ष माना है / शान्त्याचार्य के जिस अनुसार वृक्ष के मूल में चबूतरा बना हो और ऊपर झण्डा लगा हुआ हो, वह चैत्यवृक्ष कहलाता है । " चैत्य शब्द को उद्यानवाची मानने पर वृक्ष शब्द को तृतीया विभक्ति का बहुवचन (वच्छेहि) और उसका (हि) लोप मानना पड़ा। किन्तु 'चेइए' को 'वच्छे' का विशेषण माना जाता तो वैसा करना आवश्यक नहीं होता और व्याख्या भी स्वयं सहज हो १. आचारांगवृत्ति, पत्र २४८ श्रुत्वा आकर्ण्य निशम्य अवधार्य । २. सुखबोधा, पत्र १४६ अनुचितमिदं भवतोऽभिनिष्क्रमणमिति प्रतिज्ञा, आक्रन्दादिदारुणशब्दहेतुत्वादिति हेतुः । ३. वही, पत्र १४६ : आक्रन्दादिदारुणशब्दहेतुत्वं भवदभिनिष्क्रमणानुचितत्वं विनानुपन्नमित्येतावन्मात्रं कारणम् । (क) उत्तराध्ययन चूर्णि पृ० १८१, १८२ । (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र ३०९ चयनं चितिः इह प्रस्तावात् पत्रपुष्पाद्युपचयः, तत्र साधुरित्यन्ततः प्रज्ञादेराकृतिगणत्वात् स्थार्थिकेऽपि चैत्यम्उद्यानं तस्मिन्, 'वच्छे' ति सूत्रत्वाद्धिशब्दलोपे वृक्षः । ४. ५. कालीदास का भारत, पृष्ठ ५२ । ६. मेघदूत, पूर्वार्द्ध, श्लोक २३ । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०६ : चितिरिहेष्टकादिचयः, तत्र साधुः योग्यश्चित्यः प्राग्वत् स एव चैत्यस्तस्मिन् किमुक्तं भवति ? अधोबद्धपीठिके उपरि चोच्छ्रितपताके वृक्ष इति शेषः । (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८२ : एत्थ सिलोगभंगभया हिकारस्स ८. Jain Education International 'वच्छे' के संस्कृत रूप दो होते हैं-वत्स और वृक्ष। यहां यह वृक्ष के अर्थ में प्रयुक्त है। प्रिय पुत्र का एक संबोधन है 'वत्स' । वृक्षों का पुत्र की भांति पालन-पोषण होता है, इसलिए उन्हें भी वत्स कह दिया जाता है । १५. बहुत पक्षियों के लिए सदा उपकारी (बहूणं बहुगुणे) चूर्णिकार ने 'बहूणं' से द्विपद, चतुष्पद तथा पक्षियों का ग्रहण किया है ।" वृत्तिकार ने इसे केवल पक्षियों का ही वाचक माना है ।२ शीतलवायु, पत्र, पुष्प आदि के द्वारा सबका उपकार करता था, 'बहुगुण' का अर्थ है-प्रचुर उपकारी।" वह चैत्यवृक्ष, इसलिए वह 'बहुगुण' था । १६. (श्लोक १०) प्रस्तुत श्लोक में पक्षियों के उपचार से सूत्रकार यह बताना चाहते हैं कि नमि राजर्षि के अभिनिष्क्रमण को लक्ष्य कर मिथिला के पौरजन और राजर्षि के स्वजन आक्रन्दन कर रहे हैं, मानो कि चैत्य-वृक्ष के धराशायी हो जाने पर पक्षिगण आक्रन्दन कर रहे हों। पक्षियों और स्वजनों का साम्य है। जैसे पक्षी एक वृक्ष पर रात बिताते हैं, फिर प्रातः अपनी-अपनी दिशा में उड़ जाते हैं, वैसे ही स्वजनों का एक निश्चित काल मर्यादा के लिए संयोग होता है, फिर सब बिछुड़ जाते हैं। वृत्तिकार ने उपसंहार में बताया है कि पौरजनों या स्वजनों का आक्रन्दन करने का मूल हेतु नमि राजर्षि का अभिनिष्क्रमण नहीं है। आक्रन्दन का मूल हेतु है अपना-अपना स्वार्थ या प्रयोजन। स्वार्थ को विघटित होते देख सब आक्रन्दन कर रहे हैं।" लोवो कओ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३०६ : 'वच्छे' ति सुत्रत्वाद्धिशब्दलोपे वृक्षैः । ६. ठाणं ३८५ तिहिं ठोणहिं देवाणं चेइयरुक्खा चलेज्जा । १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८२ : वच्छे त्ति रुक्खस्साभिघाणं सुतं प्रियवायरणं वच्छा, पुत्ता इव रक्खिज्जति वच्छा। ११. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८२ : वहूणं दुप्पयचउप्पदपक्खीणं च । १२. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०६ : बहूनां प्रक्रमात् खगादीनाम् । १३. वही, पत्र ३०६ बहवो गुणा यस्मात् तत् तथा तस्मिन् । कोर्थः ? फलादिभिः प्रचुरोपकारकारिणि । १४. वही, पत्र ३०६ । १५. वही, पत्र ३०६ : आत्मार्थं सीदमानं स्वजनपरिजनो रौति हाहारवार्तो, भार्या चात्मोपभोगं गृहविभवसुखं स्वं च यस्याश्च कार्यम् । क्रन्दत्यन्यो ऽन्यमन्यस्त्विह हि बहुजनो लोकयात्रानिमित्तं, यो वान्यस्तन्त्र किंचिन् मृगयति हि गुणं रोदितीष्टः स तस्मै ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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