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नमि-प्रव्रज्या
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अध्ययन ६:श्लोक १२-१८टि०१७-२४
१७. मन्दिर (मंदिर)
इसी प्रकार एक दूसरा श्लोक हैचूर्णिकार ने इसका अर्थ नगर' और वृत्तिकार ने घर, अनन्तमिव में वित्तं, यस्य मे नास्ति किंचन। प्रासाद किया है।
मिथिलायां प्रदीप्तायां, न मे दाति किंचन।। १८. रनिवास की ओर (अंतेउरं तेण)
२०. व्यवसाय से निवृत्त (निव्वावारस्स) वृत्तिकार ने इसे एक पद मानकर इसका अर्थ- वृत्तिकार ने यहां कृषि, पशु-पालन आदि को व्यवसाय अन्तःपुराभिमुख किया है।
माना है। १९. (श्लोक १४)
साधु निर्व्यापार होता है। वह निवृत्तिप्रधान जीवन जीता साधना की दो भूमिकाएं हैं—निवृत्ति—एकत्व की साधना है। उसके लिए प्रिय या अप्रिय कुछ भी नहीं होता। वह और लोक-संग्रह की भूमिका । प्रत्येकबुद्ध में एकत्व की भूमिका भिक्षाजीवी होता है। सारी आवश्यकताएं भिक्षा से पूरी हो जाती इतनी प्रबल हो जाती है कि उस भूमिका में केवल आत्मा ही शेष हैं, इसलिए उसे व्यवसाय करना नहीं पड़ता। रहती है। निर्ममत्व की साधना का यह उत्कर्ष है।
२१. एकत्वदर्शी (एगंतमणुपस्सओ) मिथिला नगरी धूं-धूं कर जल रही है। नगरी के राजप्रासाद चूर्णिकार ने एकान्त के दो अर्थ किए हैं--(१) एकत्वदर्शीतथा अन्यान्य गृह भी अग्नि की लपेट में हैं। उस समय नमि मैं अकेला हूं, मैं किसी का नहीं हूं, और (२) निर्वाणदर्शी।' सोचते हैं, 'जो जल रहा है उसमें मेरा कुछ भी नहीं है। क्योंकि वृत्तिकार ने एकान्त का अर्थ-मैं अकेला हूं-किया है। मैं अकेला हूं। मेरे लिए अपना या पराया कुछ भी नहीं है।' नमि चूर्णि और वृत्ति की व्याख्या के आधार पर यह अनुमान राजर्षि का यह चिन्तन निर्ममत्व या एकत्व की उत्कृष्ट साधना किया जा सकता है कि चूर्णिकार और वृत्तिकार के सामने का सूचक है।
'एगत्तमणुपस्सओ' पाठ था। मिथिला का दाह एक रूपक है। अध्यात्म की भूमिका में देखें-श्लोक ४ का टिप्पण। एकत्व का मूल्य प्रदर्शित करने के लिए इस रूपक का उपयोग २२. परकोटा (पागार) किया गया है। व्यवहार की भूमिका इससे भिन्न है। भूमिका-भेद प्राचीन काल में नगर या किले की सुरक्षा के लिए मिट्टी को हृदयंगम करने पर ही इसका तात्पर्य समझा जा सकता है। या ईंटों की एक सदढ दीवार बनाई जाती थी. उसे प्राकार या
यह चिन्तन बौद्ध साहित्य और महाभारत में भी उपलब्ध है। परकोटा कहा जाता था। वह तीन प्रकार के होती थी-पांसु
बौद्ध परम्परा के महाजनक जातक में प्रस्तुत श्लोक की प्राकार, इष्टिका प्राकार और प्रस्तर प्राकार। प्रस्तर प्राकार भांति तीन श्लोक मिलते हैं
प्रशस्त माना जाता था। सुसुखं बत जीवाम येसं नो नत्थि किञ्चनं। २३. बर्ज वाले नगर-द्वार (गोपुरट्टालगाणि) मिथिलाय डबमानाय न मे किंचि अहथ।।१२५॥ गोपुर का अर्थ 'नगर-द्वार' है। सुसुखं बत जीवाम येसं नो नत्थि किंचनं। टीकाकार ने इसका अर्थ प्रतोली द्वार–नगर के बीच की रठे विलुप्पमानम्हि न मे किंचि अजीरथ।।१२७॥ सड़क का या गली का द्वार, किया है। अट्टालक का अर्थ 'बुर्ज' सुसुखं बत जीवाम येसं नो नत्थि किंचना है। गोपुर अट्टालक-बुर्ज वाले नगर-द्वार सुरक्षा तथा पर्यवेक्षण पीविभक्खा भविस्साम देवा आभास्सरा यथा॥१२८॥ के लिए बनाए जाते थे। वाल्मीकि रामायण में गोपुरट्टालक और
महाभारत में मांडव्य मुनि और राजा जनक का संवाद साट्टगोपुर के प्रयोग मिलते हैं। आया है। एक प्रश्न के उत्तर में महाराज जनक कहते हैं:- २४. खाई और शतघ्नी (उस्सूलग सयग्घीओ)
सुसुखं बत जीवामि, यस्य में नास्ति किंचन। 'उस्सूलग' का एक अर्थ है-खाई।" खाई शत्रुसेना को मिथिलायां प्रदीप्तायां, न मे दहाति किंचन।। पराजित करने के लिए बनाई जाती थी। वह बहुत ही गहरी
१. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८२ : मंदिरं णाम नगरं। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१० : मंदिरं वेश्म। ३. वही, पत्र ३१० : अन्तेउरतेणं ति अन्तःपुराभिमुखं । ४. महाजनक जातक, संख्या ५३६ । ५. महाभारत, शांतिपर्व २७६।४। ६. वही, शांतिपर्व १७८।२। ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१० : निर्व्यापारस्य-परिहतकृषिपाशुपाल्यादिक्रियस्य।
उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८२ : एकत्वं नाहं कस्यचित्, अथवा एकान्तं निर्वाणं।
६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१० : एकान्तम्-- एकोऽहम् । १०. वही, पत्र ३११ : प्रकर्षेण मर्यादया च कुर्वन्ति तमिति प्राकारस्तं---
धूलीष्टकादिविरचितम्। ११. अभिधान चिन्तामणि, ४।४७ : पुरि गोपुरम् । १२. बृहद्वृत्ति, पत्र ३११ : गोभिः पूर्यन्त इति गोपुराणि-प्रतोलीद्वाराणि । १३. वही, पत्र ३११ : अट्टालकानि प्राकारकोष्टकोपरिवर्तीनि आयोधनस्थानानि । १४. वाल्मीकि रामायण, ५५८ १५८। १५, बृहदवृत्ति, पत्र ३११ : 'उस्सूलय' त्ति खातिका।
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