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________________ तस्मितस्मिन् सुरैः हरिकेशीय २१३ अध्ययन १२ : श्लोक ३७-४४ ३६.तहियं गंधोदयपुष्फवासं तस्मिन् गन्धोदकपुष्पवर्षः देवों ने वहां सुगन्धित जल, पुष्प और दिव्य धन की दिव्वा तहिं वसुहारा य वुट्ठा। दिव्या तस्मिन् वसुधारा च वृष्टा। वर्षा की। आकाश में दुन्दुभि बजाई और 'अहोदानम्' पहयाओ दुंदुहीओ सुरेहिं प्रहता दुन्दुभयः सुरैः (आश्चर्यकारी दान)-इस प्रकार का घोष किया। आगासे अहो दाणं च घुट्ठ।। आकाशेऽहोदानं च घुष्टम् ।। ३७.सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो साक्षात् खलु दृश्यते तपोविशेषः । यह प्रत्यक्ष ही तप की महिमा दीख रही है, जाति की न दीसइ जाइविसेस कोई। न दृश्यते जातिविशेषः कोऽपि।। कोई महिमा नहीं है। जिसकी ऋद्धि ऐसी महान् सोवागपुत्ते हरिएससाहू श्वपाकपुत्रं हरिकेशसाधु (अचिन्त्य शक्ति-सम्पन्न) है, वह हरिकेश मुनि चाण्डाल जस्सेरिसा इड्डि महाणुभागा।। यस्येदृशी ऋद्धिर्महानुभागा।। का पुत्र है। ३८.किं माहणा! जोइसमारभंता किं ब्राह्मणा ! ज्योतिः समारभमाणाः (मुनि-) "ब्राह्मणो! अग्नि का समारम्भ (यज्ञ) करते उदएण सेहि बहिया विमग्गा?। उदकेन शुद्धिं बाह्यां विमार्गयथा हुए तुम बाहर से (जल से) शुद्धि की क्या २ मांग जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं यद् मार्गयथ बाह्यां विशुद्धि कर रहे हो? जिस शुद्धि की बाहर से मांग कर रहे न तं सुदिळं कुसला वयंति।। न तत् सुदृष्टं कुशला वदन्ति।। हो, उसे कुशल लोग*३ सुदृष्ट (सम्यग्दर्शन) नहीं कहते।" ३६.कुसं च जूवं तणकट्ठमगि कुशं च यूपं तृणकाष्ठमग्नि "दर्भ, यूप (यज्ञ-स्तम्भ), तृण, काष्ठ और अग्नि का सायं च पायं उदगं फुसंता। सायं च प्रातरुदकं स्पृशन्तः। उपयोग करते हुए, संध्या और प्रातःकाल में जल का पाणाइ भूयाइ विहेडयंता प्राणान् भूतान् विहेठयन्तः स्पर्श करते हुए, प्राणों ओर भूतों की हिंसा करते हुए, भुज्जो वि मंदा! पगरेह पावं।। भूयोऽपि मन्दाः प्रकुरुथ पापम् ।। मंदबुद्धि वाले तुम बार-बार पाप करते हो।” । ४०.कहं चरे? भिक्खु ! वयं यजामो? कथं चरामो ? भिक्षो ! वयं यजामः? (सोमदेव-) "हे भिक्षो! हम कैसे प्रवृत्त हों? यज्ञ पावाइ कम्माइ पणोल्लयामो?। पापानि कर्माणि प्रणुदामः?/ कैसे करें ? जिससे पाप-कर्मों का नाश कर सकें। अक्खाहि णे संजय ! जक्खड्या! आख्याहि नः संयत ! यक्षपूजित ! यक्ष-पूजित संयत ! आप हमें बताएं-कुशल पुरुषों कह सुजठं कुसला वयंति?।। कथं स्विष्टं कुशला वदन्ति?/ ने सुइष्ट (श्रेष्ठ-यज्ञ) का विधान किस प्रकार किया है ?" ४१.छज्जीवकाए असमारभंता षड्जीवकायानसमारभमाणाः (मुनि-) “मन और इन्द्रियों का दमन करने वाले मोसं अदत्तं च असेवमाणा। मृषा अदत्तं चासेवमानाः। छह जीव-निकाय की हिंसा नहीं करते; असत्य और परिग्गहं इत्थिओ माणमायं परिग्रहं स्त्रियो मानं मायां चौर्य का सेवन नहीं करते; परिग्रह, स्त्री, मान और एयं परिन्नाय चरंति दंता।। एतत् परिज्ञाय चरन्ति दान्ताः।। माया का परित्याग करके विचरण करते हैं।" ४२.सुसंवुडो पंचहिं संवरेहिं सुसंवृतः पञ्चभिः संवरैः "जो पांच संवरों से सुसंवृत होता है, जो असंयम इह जीवियं अणवकंखमाणो। इह जीवितमनवकांक्षमाणः। जीवन की इच्छा नहीं करता, जो काय का व्युत्सर्ग वोसट्ठकाओ सुइचत्तदेहो व्युत्सृष्टकायः शुचित्यक्तदेहः करता है, जो शुचि है और जो देह का त्याग करता महाजय जयई जन्नसिटूठं।। महायजं यजते यज्ञश्रेष्ठम्।। है, वह यज्ञों में श्रेष्ठ महायज्ञ ६ करता है।" ४३.के ते जोई? के व ते जोडठाणे? किं ते ज्योतिः? किंवा ते ज्योतिरथानं? (सोमदेव-) “भिक्षो! तुम्हारी ज्योति---अग्नि कौन-सी को ते सया? किंव ते कारिसंगं ?। कारसुवः ? किंवा ते करीषागम् ?। है? तुम्हारा ज्योति-स्थान (अग्नि-स्थान) कौन-सा एहा य ते कयरा? संति? भिक्ख! एधाश्च ते कतराः? शांतिः ? भिक्षो! है? तुम्हारे घी डालने की करछियां कौन-सी हैं ? कयरेण होमेण हुणासि जोइं?|| कतरेण होमेन जुहोषि ज्योतिः?|| तुम्हारे अग्नि को जलाने के कण्डे कौन-से हैं ? तुम्हारे ईंधन और शांति-पाठ कौन-से हैं ? और किस होम से तुम ज्योति को हुत (प्रीणित) करते हो?" ४४. तवो जोइ जीवो जोइठाणं तपोज्योतिर्जीवो ज्योतिःस्थानं (मुनि) “तप ज्योति है। जीव ज्योति-स्थान है। योग जोगा सुया सरीरं कारिसंग। योगा: श्रुवः शरीरं करीषाङ्गम्। (मन, वचन और काया की सत् प्रवृत्ति) घी डालने की कम्म एहा संजमजोगसंती कर्मेधाः संयमयोगाः शांतिः करछियां हैं। शरीर अग्नि जलाने के कण्डे हैं। कर्म होमं हुणामी इसिणं पसत्यं ।। होमं जुहोमि ऋषीणां प्रशस्तम्।। ईंधन है। संयम की प्रवृत्ति शांति-पाठ है। इस प्रकार मैं ऋषि-प्रशस्त (अहिंसक) होम करता हूं।" HTHEHATAR Jain Education Intemational Education International For Private & Personal use only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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