SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मृगापुत्रीय ३०९ अध्ययन १६ : श्लोक ३४-४२ "पुत्र ! तू सुख भोगने योग्य है, सुकुमार है, साफ-सुथरा रहने वाला है।५ पुत्र! तू श्रामण्य का पालन करने के लिए समर्थ नहीं है।" "पुत्र ! श्रामण्य में जीवन पर्यन्त विश्राम नहीं है। यह गुणों का महान् भार है। भारी भरकम लोह-भार की भांति इसे उठाना बहुत ही कठिन है।" “आकाश-गंगा के स्त्रोत,२६ प्रति-स्त्रोत और भुजाओं से सागर को तैरना जैसे कठिन कार्य है वैसे ही गुणोदधि-संयम को तैरना कठिन कार्य है।" “संयम बालू के कोर की तरह स्वाद-रहित है। तप का आचरण करना तलवार की धार पर चलने जैसा ३४.सुहोइओ तुमं पुत्ता! सुकुमालो समुज्जिओ। न हु सी पभू तुमं पुत्ता! सामण्णमणुपालिउं।। ३५. जावज्जीवमविस्सामो गुणाणं तु महाभरो। गुरुओ लोहमारो व जो पुत्ता! होइ दुब्वहो।। ३६.आगासे गंगसोउ व्व पडिसोओ ब्व दुत्तरो। बाहाहिं सागरो चेव तरियव्वो गुणोयही।। ३७.वालुयाकवले चेव निरस्साए उ संजमे। असिधारागमणं चेव दुक्करं चरित्रं तवो।। ३८.अहीवेगंतदिट्ठीए चरित्ते पुत्त! दुच्चरे। जवा लोहमया चेव चावेयव्वा सुदुक्करं।। ३६.जहा अग्गिसिहा दित्ता पाउं होइ सुदुक्करं। तह दुक्करं करेउं जे तारूण्णे समणत्तणं।। ४०.जहा दुक्खं भरेउं जे होइ वायस्स कोत्थलो। तहा दुक्खं करेऊ जे कीवेणं समणत्तणं।। ४१. जहा तुलाए तोलेउं दुक्करं मंदरो गिरी। तहा निहुयं नीसंकं दुक्करं समणत्तणं।। ४२.जहा भुयाहिं तरिउं दुक्करं रयणागरो। तहा अणुवसंतेणं दुक्करं दमसागरो।। सुखोचितस्त्वं पुत्र! सुकुमारश्च सुमज्जितः। न खलु असि प्रभुस्त्वं पुत्र! श्रामण्यमनुपालयितुम् ।। यावज्जीवमविश्रामः गुणानां तु महाभरः। गुरुको लोहभार इव यः पुत्र ! भवति दुर्वहः।। आकाशे गंगास्त्रोत इव प्रतिस्पेत इव दुस्तरः। बाहुभ्यां सागरश्चैव तरितव्यो गुणोदधिः।। बालुकाकवलश्चैव निरास्वादस्तु संयमः। असिधारागमनं चेव दुष्करं चरितुं तपः।। अहिरिवैकान्तदृष्टिकः चारित्रं पुत्र! दुश्चरम्। यवा लोहमयाश्चैव चर्वयितव्या सुदुष्करम् ।। यथाग्निशिखा दीप्ता पातुं भवति सुदुष्करम् । तथा दुष्करं कर्तुं 'जे' तारुण्ये श्रमणत्वम् ।। यथा दुःखं भर्तुं 'जे' भवति वातस्य 'कोत्थलो'। तथा दुष्करं कर्तुं 'जे' क्लीवेन श्रमणत्वम् ।। यथा तुलया तोलयितुं दुष्करं मन्दरो गिरिः। तथा निभृतं निःशड़कं दुष्करं श्रमणत्वम् ।। यथा भुजाभ्यां तरितुं दुष्करं रत्नाकरः। तथाऽनुपशान्तेन दुष्करं दमसागरः।। "पुत्र ! सांप जेसे एकाग्रदृष्टि से चलता है, वैसे एकाग्रदृष्टि से चारित्र का पालन करना बहुत ही कठिन कार्य है। लोहे के यवों को चबाना जैसे कठिन है वैसे ही चारित्र का पालना कठिन है।" "जैसे प्रज्वलित अग्नि-शिखा को पीना बहुत ही कठिन कार्य है वैसे ही यौवन में श्रमण-धर्म का पालन करना कठिन है।" “जैसे वस्त्र के थैले को हवा से भरना कठिन कार्य है वैसे ही सत्वहीन व्यक्ति के लिए श्रमण-धर्म का पालन करना कठिन कार्य है।" “जैसे मेरु-पर्वत को तराजू से तौलना बहुत ही कठिन कार्य है वैसे ही निश्चल और निर्भय भाव से श्रमण-धर्म का पालन करना बहुत ही कठिन कार्य है।" "जैसे समुद्र को भुजाओं से तैरना बहुत ही कठिन कार्य है, वैसे ही उपशमहीन व्यक्ति के लिए दमरूपी समुद्र को तैरना बहुत ही कठिन कार्य है।" Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy